भाजपाई नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बचपन में चाय बेची थी या नहीं, इस का कोई सुबूत किसी ने नहीं देखा. इस के बाद भी देश के सामने उन्होंने खुद को चाय बेचने वाला साबित कर दिया.
इस के उलट विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने अपने राज में देश और समाज के सुधार के लिए कई बड़े काम किए थे, पर न जाने क्यों अब वह उस का बखान जनता के सामने करने में नाकाम हो रही है.
भले ही कांग्रेस ने अभी हुए चिंतन शिविर में खुद को जनता के सामने अच्छे से रखने की बात कही है, पर सच तो यह है कि उस के सुविधाभोगी नेता कलफदार कुरतापाजामा पहन कर एयरकंडीशनर कमरों से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं.
देश में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की राजनीति भी नई नहीं है. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनेअपने दौर में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने का काम किया था. इस के बाद भी कांग्रेस सत्ता में वापस आई. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता कांग्रेस को तब अहमियत देगी, जब कांग्रेस खुद को सत्ता का दावेदार साबित करने में कामयाब होगी.
पर आज की तारीख में तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस सत्ता की रेस से दूर क्या हुई पार्टी का खुद पर से पूरी तरह से भरोसा उठ गया है. पर राजनीति में कब क्या होगा, यह बता पाना आसान नहीं है.
साल 1984 में राजीव गांधी इतिहास में सब से बड़ा बहुमत हसिल कर के देश के प्रधानमंत्री बने थे. 5 साल के बाद ही जनता ने उन पर भरोसा बरकरार नहीं रखा और वे सत्ता से बाहर हो गए थे.
साल 2004 में भाजपा की अगुआई वाली अटल सरकार को यह गुमान हो गया था कि उन के कार्यकाल में इंडिया शाइन कर रहा है, लिहाजा समय से 6 महीने पहले अटल सरकार ने लोकसभा चुनाव कराने का फैसला ले लिया था. पर चुनाव के नतीजे एक बार फिर उम्मीद के खिलाफ गए थे. अटल सरकार चुनाव हार गई. जिस कांग्रेस को खत्म मान लिया गया था, वह न केवल सत्ता में आई, बल्कि उस ने पूरे 10 साल सरकार चलाई.
साल 2014 में कांग्रेस लोकसभा चुनाव हारी. इस के बाद कई प्रदेशों में भी उसे चुनावी हार का सामना करना पड़ा. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा. इस हार के बाद एक बार फिर से कांग्रेस को खत्म माना जा रहा है. कांग्रेस के तमाम नेता पार्टी छोड़ कर दूसरे दलों में जा रहे हैं. ‘जी-23’ नाम से कांग्रेस में एक अंसतुष्ट खेमा बन गया है.
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस को केवल 2 सीटें मिलीं, तो पार्टी का मनोबल टूट गया. अब उसे लगने लगा कि पार्टी का समय चला गया है. इस के बाद भी देश की जनता कांग्रेस को ही सब से प्रमुख विपक्षी दल मान रही है.
कांग्रेस को चुनावी लड़ाई में वापस लाने के लिए तरहतरह के उपाय सोचे जाने लगे हैं. इस में यह योजना भी बनी कि राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद ली जाए. कई बार ऐसी खबरें सुनाई पड़ीं कि प्रशांत किशोर जिन शर्तों के साथ कांग्रेस में आना चाहते हैं या कांग्रेस के साथ काम करना चाहते हैं, वह कांग्रेस हाईकमान को मंजूर नहीं है, इसलिए प्रशांत किशोर और कांग्रेस का गठजोड़ अधर में लटक गया.
प्रशांत किशोर नरेंद्र मोदी से ले कर ममता बनर्जी तक तमाम बड़े नेताओं के लिए काम कर चुके हैं. ऐसे में उन पर सहज भरोसा नहीं किया जा सकता. कांग्रेस के पुराने नेता मानते हैं कि देश की तरक्की में कांग्रेस द्वारा कराए गए कामों का अहम रोल रहा है. लिहाजा, कांग्रेस को प्रशांत किशोर के ऊपर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. उसे अपने अच्छे कामों को ले कर जनता के बीच जाना चाहिए.
कांग्रेस की मजबूत बुनियाद
कांग्रेस का पूरा नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ है. कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर, 1885 को हुई थी. इस के संस्थापकों में एओ ह्यूम (थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य), दादाभाई नौरोजी और दिनशा वाचा शामिल थे.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसंबर, 1885 को बंबई (अब मुंबई) के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी. इस के संस्थापक महासचिव एओ ह्यूम थे, जिन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) के व्योमेश चंद्र बनर्जी को अध्यक्ष नियुक्त किया था.
भारत को आजादी दिलाने वाले आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका प्रमुख थी. इसी वजह से 1947 में आजादी के बाद कांग्रेस भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गई. आजादी से ले कर साल 2014 तक, 16 आम चुनावों में से कांग्रेस ने 6 आम चुनावों में पूरा बहुमत मिला है और 4 आम चुनावों में सत्तारूढ़ गठबंधन की अगुआई की है. इस तरह 49 सालों तक वह केंद्र सरकार का हिस्सा रही.
भारत में कांग्रेस के 7 प्रधानमंत्री रह चुके हैं. इन में 1947 से 1964 तक जवाहरलाल नेहरू, 1964 से 1966 तक लाल बहादुर शास्त्री, 1966 से 1977 और 1980 से 1984 तक इंदिरा गांधी, 1984 से 1989 तक राजीव गांधी, 1991 से 1996 तक पीवी नरसिंह राव और 2004 से 2014 तक डाक्टर मनमोहन सिंह शामिल हैं.
साल 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस ने आजादी से अब तक का सब से खराब प्रदर्शन किया और 543 सदस्यीय लोकसभा सीटों में से केवल 44 सीटें ही जीत पाई. तब से ले कर अब तक कांग्रेस कई विवादों में घिरी हुई है. उस के भविष्य पर सवालिया निशान लग रहे हैं.
गांधी युग की शुरुआत
साल 1907 में कांग्रेस में 2 दल बन चुके थे, गरम दल और नरम दल. गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल, जिन्हें लालबालपाल भी कहा जाता है, कर रहे थे. वहीं नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और दादाभाई नौरोजी कर रहे थे. गरम दल पूरे स्वराज की मांग कर रहा था, पर नरम दल ब्रिटिश राज में स्वशासन चाहता था.
पहला विश्व युद्ध छिड़ने के बाद साल 1916 की लखनऊ बैठक में दोनों दल फिर एक हो गए थे और होम रूल आंदोलन की शुरुआत हुई थी, जिस के तहत ब्रिटिश राज में भारत के लिए अधिराजकीय पद (डोमेनियन स्टेटस) की मांग की गई थी. इस के बाद कांग्रेस एक जन आंदोलन के रूप में देश के सामने खड़ी होने लगी थी.
साल 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी का भारत आगमन होता है. उन के आने के बाद कांग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव आया. चंपारण और खेड़ा में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जनसमर्थन से अपनी पहली कामयाबी मिली.
साल 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद महात्मा गांधी कांग्रेस के महासचिव बने. तब कांग्रेस में राष्ट्रीय नेताओं की एक नई पीढ़ी का आगमन हुआ, जिस में सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, महादेव देसाई और सुभाष चंद्र बोस जैसे लोग शामिल थे.
महात्मा गांधी के नेतृत्व में प्रदेश कांग्रेस कमेटियों का निर्माण हुआ. कांग्रेस में सभी पदों के लिए चुनाव की शुरुआत हुई और कार्यवाहियों के लिए भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल शुरू हुआ. कांग्रेस ने कई प्रांतों में सामाजिक समस्याओं को हटाने की कोशिश की, जिन में छुआछूत, परदा प्रथा और मद्यपान वगैरह शामिल थे.
राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करने के लिए कांग्रेस को पैसों की कमी का सामना करना पड़ता था. महात्मा गांधी ने एक करोड़ रुपए से ज्यादा का पैसा जमा किया और इसे बाल गंगाधर तिलक के स्मरणार्थ ‘तिलक स्वराज कोष’ का नाम दिया. 4 आना का नाममात्र सदस्यता शुल्क भी शुरू किया गया था.
नया नहीं है कांग्रेस विरोध
राम मनोहर लोहिया लोगों को आगाह करते आ रहे थे कि देश की हालत सुधारने में कांग्रेस नाकाम रही है. कांग्रेस शासन नए समाज की रचना में सब से बड़ा रोड़ा है. उस का सत्ता में बने रहना देश के लिए हितकर नहीं है, इसलिए लोहिया ने ‘कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ’ का नारा दिया.
साल 1967 के आम चुनाव में एक बड़ा बदलाव हुआ. देश के 9 राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा (अब ओडिशा), मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में गैरकांग्रेसी सरकारें गठित हो गईं. इस को लोहिया की बड़ी जीत के रूप में देखा गया.
जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका. साल 1974 में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया. इस आंदोलन को भारी जनसमर्थन मिला.
इस से निबटने के लिए इंदिरा गांधी ने देश में इमर्जेंसी लगा दी. विरोधी नेताओं को जेल में डाल दिया गया. इस का आम जनता में जम कर विरोध हुआ. जनता पार्टी की स्थापना हुई और साल 1977 में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह से हारी. पुराने कांग्रेसी नेता मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी.
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स दलाली कांड को ले कर राजीव गांधी को सत्ता से हटा दिया. साल 1987 में यह बात सामने आई थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिए 80 लाख डौलर की दलाली चुकाई थी. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और उस के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. स्वीडन रेडियो ने सब से पहले 1987 में इस का खुलासा किया. इसे ही ‘बोफोर्स घोटाला’ नाम से जाना जाता है.
इस खुलासे के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया, जिस के चलते कांग्रेस की हार हुई और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने.
हालांकि कांग्रेस की सत्ता में फिर वापसी हुई. इस के बाद गांधी परिवार का कोई भी नेता देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सका. एक बार पीवी नरसिंह राव और 2 बार डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले ही अन्ना आंदोलन के सहारे कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का काम शुरू हुआ. भारतीय जनता पार्टी ने भी कांग्रेस मुक्त भारत का अपना अभियान शुरू किया. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सत्ता में कांग्रेस की वापसी मुश्किल हो गई. 2019 के लोकसभा चुनाव की हार के बाद अब 2024 की तैयारी चल रही है.
कांग्रेस विरोध का इतिहास नया नहीं है. पर हर बार कांगेस ने वापसी की है. कांग्रेस के इतिहास के मुकाबले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर का राजनीतिक अनुभव और साख दोनों ही कम है. वे कई नेताओं के साथ काम कर चुके हैं. ऐसे में कांग्रेसीजन उन पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं.
रणनीतिकार प्रशांत किशोर
जिस समय कांग्रेस अपने सब से अच्छे दौर में थी, उस समय प्रशांत किशोर ने जन्म लिया था. वे रोहतास जिले के कोनार गांव के रहने वाले हैं. उन के पिता श्रीकांत पांडे एक डाक्टर थे, जो बक्सर में ट्रांसफर हो गए थे. वहां प्रशांत किशोर ने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की.
प्रशांत किशोर ने अपने कैरियर की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र संघ में काम कर के की थी. वहां वे स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे थे. इस के बाद प्रशांत किशोर ने भारतीय राजनीति में रणनीतिकार के रूप में अपनी सेवाएं देनी शुरू कीं.
उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए चुनावी रणनीतिकार के रूप में काम किया है. उन का पहला प्रमुख राजनीतिक अभियान 2011 में नरेंद्र मोदी की मदद करने का था.
2014 के आम चुनाव की तैयारी के लिए प्रशांत किशोर ने मीडिया और प्रचार कंपनी ‘सिटीजन्स फोर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ को बनाया. प्रशांत किशोर 16 सितंबर, 2018 को जनता दल ‘यूनाइटेड’ में शामिल हो गए.
प्रशांत किशोर ने चुनावी प्रचार को ले कर जो अभियान चलाए, उन में नरेंद्र मोदी की ‘चाय पर चर्चा’, ‘3 डी रैली’, ‘रन फोर यूनिटी’, ‘मंथन’ और ‘सोशल मीडिया कार्यक्रम’ प्रमुख थे.
प्रशांत किशोर 2014 के आम चुनावों से पहले महीनों तक मोदी की टीम का सब से महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे. 2016 में कांग्रेस द्वारा पंजाब के अमरिंदर सिंह के अभियान में मदद करने के लिए प्रशांत किशोर को पंजाब विधानसभा चुनाव 2017 के लिए नियुक्त किया गया था. लगातार 2 विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस को पंजाब में चुनाव प्रचार में मदद मिली.
प्रशांत किशोर को मई, 2017 में वाईएस जगनमोहन रेड्डी के राजनीतिक सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था. उन्होंने ‘समराला संवरवरम’, ‘अन्ना पिलुपु’ और ‘प्रजा संकल्प यात्रा’ जैसे अभियान शुरू किए, जिस से कई चुनावी अभियानों की शुरुआत हुई.
प्रशांत किशोर ने साल 2017 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए काम किया, पर कामयाबी नहीं मिली. एक दल से दूसरे दल के सफर में प्रशांत किशोर पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के साथ खड़े हुए. ममता बनर्जी की जीत का श्रेय प्रशांत किशोर को दिया गया.
इस के बाद से साल 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की भूमिका खास हो गई. पर उन के खाते में चुनावी कामयाबी और नाकामी दोनों रही हैं. ऐसे में यह सोचना कि अकेले प्रशांत किशोर के बल पर कांग्रेस खड़ी हो जाएगी, यह मुमकिन नहीं है.
कांग्रेस के फैसले
देश की माली और सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कांग्रेस की सरकारों ने कई महत्त्वपूर्ण काम किए हैं. इन में बैंक के राष्ट्रीयकरण का फैसला अहम था. साल 1969 में भारत में काम करने वाले 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. 1980 में अन्य 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिस से राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल संख्या बढ़ कर 20 हो गई.
साल 1962 में चीन और साल 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्धों ने सरकारी खजाने पर बहुत ज्यादा दबाव डाला था. लगातार 2 साल तक सूखे के चलते खाद्यान्न की गंभीर कमी हो गई थी और राष्ट्रीय सुरक्षा (पीएल 480 कार्यक्रम) से भी समझौता किया गया. सार्वजनिक निवेश में कमी के कारण परिणामी तीनवर्षीय योजना अवकाश ने कुल मांग को प्रभावित किया.
1960-70 के दशक में भारत की आर्थिक वृद्धि मुश्किल से जनसंख्या वृद्धि को पीछे छोड़ पाई और औसत आय स्थिर हो गई. 1951 और 1968 के बीच वाणिज्यिक बैंकों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र में ऋण वितरण का अंश तकरीबन दोगुना हो गया, जबकि कृषि को कुल ऋण का 2 फीसदी से भी कम प्राप्त हुआ. इस तथ्य के बावजूद कि 70 फीसदी से ज्यादा आबादी थी, उस पर निर्भर है.
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से देश को मदद मिली. बैकों में नौकरियां मिलने लगीं, जिस से बेरोजगारी घटी और आरक्षण लागू होने के चलते कमजोर तबकों को भी सरकारी नौकरी का फायदा मिल सका.
जमींदारी उन्मूलन कानून
संविधान बनाते समय जिन अहम मुद्दों से लड़ना था, उन में भारत की सामंतीशाही व्यवस्था प्रमुख थी, जिस ने आजादी से पहले देश के सामाजिक तानेबाने को बुरी तरह चोट पहुंचाई थी. उस वक्त जमीन का मालिकाना हक कुछ ही लोगों के पास था, जबकि बाकी लोगों की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थीं. इस असमानता को खत्म करने के लिए सरकार कई भूमि सुधार कानून ले कर आई, जिस में से एक जमींदारी उन्मूलन कानून 1950 भी था.
प्रिवीपर्स कानून
भारत जब आजाद हो रहा था, तब यहां तकरीबन 570 के आसपास रियासतें थीं. इन सभी को भारत में विलय के बाद एक खास तरीके से प्रिवीपर्स की रकम इन के राजाओं के लिए तय की गई. इस का फार्मूला था, उस स्टेट से सरकार को मिलने वाले कुल राजस्व की तकरीबन साढ़े 8 फीसदी रकम उत्तराधिकारियों को दी जाए. सब से ज्यादा प्रिवीपर्स मैसूर के राजपरिवार को मिला, जो 26 लाख रुपए सालाना था. हैदराबाद के निजाम को 20 लाख रुपए मिले.
वैसे, प्रिवीपर्स की रेंज भी काफी दिलचस्प थी. काटोदिया के शासक को प्रिवीपर्स के रूप में महज 192 रुपए सालाना की रकम मिली. 555 शासकों में 398 के हिस्से 50,000 रुपए सालाना से कम की रकम आई. 1947 में भारत के खाते से 7 करोड़ रुपए प्रिसीपर्स के रूप में निकले. 1970 में यह रकम घट कर 4 करोड़ रुपए सालाना रह गई.
साल 1971 में इंदिरा ने प्रिवीपर्स रोकने का कानून बना दिया. इस कानून को लागू करने के पीछे सारे नागरिकों के लिए समान अधिकार और सरकारी धन के व्यर्थ व्यय का हवाला दिया. यह बिल 26वें संवैधानिक संशोधन के रूप में पास हो गया. इस के साथ ही राजभत्ता और राजकीय उपाधियों का भारत में हमेशा के लिए अंत हो गया.
हालांकि इस विधेयक के पास होने के बाद कई पूर्व राजवंश अदालतों की शरण में गए, लेकिन वहां उन की सारी याचिकाएं खारिज हो गईं. इसी के विरोध में कई राजाओं ने 1971 के चुनाव में खड़े होने और नई पार्टी बनाने का फैसला किया, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई. इस कानून के जरीए भारत में राजशाही का खात्मा हुआ.
रोजगार गारंटी कानून
कांग्रेस के ही कार्यकाल में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) 7 सितंबर, 2005 को लागू हुआ. इस योजना में हर वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराना सरकार का काम था. प्रतिदिन 220 रुपए की न्यूनतम मजदूरी मिलती थी. इस कानून ने गांव के लोगों की क्रयशक्ति को बढ़ाने का काम किया. इस का असर गांव वालों के रहनसहन पर देखने को मिला.
कांग्रेस के ही कार्यकाल में जमीन अधिग्रहण कानून बना, जिस के जरीए किसानों को बाजार मूल्य का 4 गुना पैसा मिलने लगा. बेटियों को अपने पिता की जायदाद में हक देने का काम भी कांग्रेस सरकार में हुआ. सूचना अधिकार कानून और शिक्षा अधिकार कानून भी कांग्रेस सरकार के समय लागू हुए.
कांग्रेस इन का प्रचार कर के लोगों को अपने कामों के बारे में बता सकती है. आज भी देश के बहुत सारे लोग कांग्रेस की नीतियों पर भरोसा करते हैं. पर कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह जनता तक अपनी आवाज पहुंचा नहीं पा रही है.
कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रहने के चलते सुविधाभोगी हो गई थी. उस के नेता जनता से दूर हो गए हैं. अगर सत्ता वापस लानी है, तो जनता के बीच जा कर विरासत को बता कर लोगों से जुड़ना होगा. प्रशांत किशोर जैसे लोग चुनावी मैनेजमैंट तो कर सकते हैं, पर वोट दिलाने का काम नहीं कर सकते.