Family Story : राहुल बड़ा हो गया है

Family Story : राहुल बड़ा हो गया है

अमित से मैं अकसर इस बात पर उलझ पड़ती हूं कि राहुल अभी छोटा है. वह कभी हंस देते हैं, कभी झुंझला उठते हैं कि इतना छोटा भी नहीं है जितना तुम समझती हो.

अमित कहते हैं, ‘‘14 साल पूरे करने वाला है और तुम उसे छोटा ही कहती हो. मैं तो समझता हूं कि कल को उस के बच्चे भी हो जाएंगे तब भी राहुल तुम्हें छोटा ही लगेगा.’’

मैं इस तरह की बातें अनसुनी करती रहती हूं. बेटी मिनी, जो 16 की हुई है, वह भी अपने पापा के सुर में सुर मिलाए रखती है. वह भी यही कहती है, ‘‘छोटा है, हुंह, स्कूल में इस की मस्ती देखो तो आप को पता चलेगा कि यह कितना छोटा है.’’

मैं कहती हूं, ‘‘तो क्या हुआ, छोटा है तो मस्ती तो करेगा ही,’’ मतलब मेरे पास इन दोनों की हर बात का यही जवाब होता है कि राहुल अभी छोटा है. यह तो शुक्र है कि राहुल ने बहुत तेज दिमाग पाया है. कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त करता है. खेलकूद में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. जिस में भाग लेता है उसी में प्रथम स्थान प्राप्त करता है. यहीं पर अमित उस से बहुत खुश हो जाते हैं नहीं तो उसे मेरा छोटा कहना दोनों बापबेटी के लिए अच्छाखासा मनोरंजन का विषय रहता है. अब मैं क्या करूं, अगर वह मुझे छोटा लगता है. वैसे भी सुना है कि मां के लिए बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं.

ठीक है, उस का कद मुझे पार कर गया है. मैं जो अच्छीखासी लंबी हूं, राहुल के कंधे पर आने लगी हूं. उस की हर समय खेलकूद की बातें, उस के चेहरे पर रहने वाली भोली सी मुसकराहट, बस, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न घर में सब को पार करता उस का कद, न उस के होंठों के ऊपर हलकी सी उभरती मूंछों की कालिमा.

अभी एक हफ्ते पहले मैं ने राहुल का एक दूसरा ही रूप देखा जिसे देख कर मैं ने भी महसूस किया कि राहुल बड़ा हो गया है.

मेरी तबीयत अकसर ठीक नहीं रहती है. कभी कुछ, कभी कुछ, लगा ही रहता है. पिछले हफ्ते की बात है. एक दिन घर का सामान लेने बाजार जाना था. मेरी तबीयत सुबह से ही कुछ सुस्त थी. अमित टूर पर थे, मिनी की परीक्षाएं चल रही थीं. सामान जरूरी था, अत: राहुल और मैं शाम को 4 बजे के आसपास बाजार चले गए. यहां मुंबई में किसी भी दिन किसी भी समय कहीं भी चले जाइए भीड़ ही भीड़, लोग ही लोग. कोई कोना खाली नहीं दिखता.

मुंबई आए 7 साल होने को हैं लेकिन आज भी बाहर निकलती हूं तो हर तरफ भीड़ देख कर जी घबरा जाता है. साधारण हाउसवाइफ हूं, बाहर अकेले कम ही निकलती हूं.

खैर, उस दिन बाजार में सामान लेतेलेते एक जगह सिर बहुत भारी लगने लगा. अचानक ही मुझे तेज चक्कर आया और मैं पसीनेपसीने हो उठी. साथ ही पेट के अंदर कमर के पास तेज दर्द शुरू हो गया. राहुल मेरी हालत देख कर घबरा उठा. मैं ने उसे अपना पर्स व सामान थमाया और इतना ही कहा, ‘‘राहुल, तुरंत डाक्टर के पास चलो.’’

राहुल ने तुरंत आटो बुलाया और मुझे उस में बैठा कर मेरे फैमिली डाक्टर के नर्सिंग होम पहुंचा. रास्ते में मैं ने उसे मिनी को फोन कर के बताने को कहा. डाक्टर ने पहुंचते ही मेरा चेकअप किया और बताया, ‘‘ब्लडप्रेशर बहुत हाई है. मुझे कुछ टेस्ट करने हैं. दर्द के लिए इंजेक्शन दे रहा हूं, आज आप को यहां भरती होना पड़ेगा.’’

मैं यह सोच कर परेशान हो गई कि अमित शहर में नहीं हैं और परीक्षा की तैयारी में व्यस्त मिनी घर पर अकेली है.

मैं अपनी परेशान हालत में कुछ और सोचती इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘अंकल, मम्मी आज यहीं रुक जाएंगी. मैं सब देख लूंगा,’’ आगे मुझ से बोला, ‘‘आप बिलकुल किसी बात की चिंता मत करो, मम्मी. मैं यहीं हूं, मैं हर बात का ध्यान रखूंगा.’’

दर्द से तड़पती मैं उस हाल में भी गर्वित हो उठी यह सोच कर कि मेरा छोटा सा बेटा कैसे मेरी देखभाल के लिए तैयार है. दर्द से मेरी जान निकल रही थी. शायद इंजेक्शन से थोड़ी देर में मुझे नींद भी आ गई. इस बीच राहुल ने मिनी को फोन कर के कुछ पैसे और मेरे लिए खाने को कुछ लाने के लिए कहा.

रात 8 बजे मेरी आंख खुली, तो देखा, दोनों बच्चे मेरे सामने चुपचाप उदास बैठे थे. मन हुआ उठ कर दोनों को अपने सीने से लगा लूं. दर्द खत्म हो चुका था, कमजोरी बहुत महसूस हो रही थी.

मैं बच्चों से बोली, ‘‘अब मैं ठीक हूं. तुम लोग अब घर चले जाओ, रात हो गई है.’’

मैं ने अपनी 2-3 सहेलियों के नाम ले कर कहा, ‘‘उन लोगों को बता दो, उन में से कोई एक यहां रुक जाएगा रात को.’’

मैं आगे कुछ और कहती, इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘नहीं, मम्मी, जब मैं यहां हूं और किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. आप देखना, मैं आप का अच्छी तरह ध्यान रखूंगा. मिनी दीदी, आप जाओ, आप के पेपर हैं. मम्मी और मैं सुबह आ जाएंगे.’’

राहुल आगे बोला, ‘‘हां, एक बात और मम्मी, हम पापा को नहीं बताएंगे. वह टूर पर हैं, परेशान हो जाएंगे. वैसे भी 2 दिन बाद तो वह आ ही जाएंगे.’’

मैं अपने छोटे से बेटे का यह रूप देख कर हैरान थी. मिनी को हम ने समझा कर घर भेज दिया. वैसे भी वह एक समझदार लड़की है. राहुल ने अपने हाथों से मुझे थोड़ा खाना खिलाया और कुछ खुद भी खाया. मेरे राहुल ने कितनी देर से कुछ भी नहीं खाया था, सोच कर मैं लेटेलेटे दुखी सी हो गई.

कुछ दवाइयों का असर था शायद मैं फिर सो गई लेकिन रात को मैं ने जितनी बार आंखें खोलीं, राहुल को बराबर के बेड पर जागते ही पाया. सुबह मुझे पता चला कि किडनी में पथरी का दर्द था. खैर, उस का इलाज तो बाद में होना था. ब्लडप्रेशर सामान्य था.

अब मैं डाक्टर की हिदायतों के बाद घर जाने को तैयार थी. डाक्टर से दवाई समझता, सब बिल चुकाता, एक हाथ से मेरा हाथ, दूसरे में मेरा पर्स और बैग थामता राहुल आज मुझे सच में बड़ा लग रहा था.

Social Story : बस नंबर 9261

Social Story : बस नंबर 9261

आज जैसे ही अजय बस में चढ़ा तो चौंक गया. बमुश्किल 5-6 सवारियां होंगी. वैसे भी ड्राइवर जोगिंदर का यह आखिरी फेरा होता था.

दिनभर की भागमभागी में अजय को आज काफी थकान हो गई थी और घर पर भी कोई नहीं था.

‘‘क्यों जोगिंदर, कोई होटल खुला होगा क्या?’’

‘‘हां साहबजी, पांडेयजी का होटल रात 11 बजे तक तो खुला रहता है,’’ जोगिंदर का जवाब था.

तभी अजय ने देखा कि पीछे की सीट पर 2 औरतें बैठी थीं. साथ में एक बच्ची थी, जो तकरीबन 3-4 साल की होगी.

उन औरतों में से एक काले रंग की औरत ने अपनी दोनों छाती नंगी की और उस बच्ची को दूध पिलाने लगी. खूब काले, बड़े और कसे हुए उभार थे उस के.

बच्ची एक छाती को मुंह में लिए थी, जबकि दूसरे को हाथ से पकड़े हुए थी. अब तो बस में बैठे अजय और जोगिंदर का ध्यान न चाहते हुए भी उस औरत पर चला गया.

जोगिंदर एक तरफ बस चला रहा था, वहीं दूसरी तरफ उस औरत को देख भी रहा था. अजय भी कनखियों से उसे देख रहा था. वजह, ऐसा सीन उस ने आज तक नहीं देखा था.

‘‘ड्राइवर, क्या आप यहां पर बस रोकेंगे…’’ अनायास ही उस औरत की आवाज गूंजी.

‘‘जी मैडम,’’ कहते हुए जोगिंदर ने बस रोक दी.

बस रुकते ही वह औरत झटके से उठ खड़ी हुई और अजय के पास आ गई.

‘‘क्या बात है मैडम, बस क्यों रुकवाई?’’ अजय ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘वह इसलिए कि तुम दोनों मुड़मुड़ कर मेरी तरफ देख रहे थे, जब मैं बच्ची को दूध पिला रही थी. लो, ठीक से देख लो,’’ इतना कहते हुए उस औरत ने अपनी छाती हाथ में पकड़ कर अजय के सामने कर दी, ‘‘ले पीएगा, मुंह खोल,’’ इतना कहते ही उस ने अजय के मुंह के पास छाती कर दी.

अजय और जोगिंदर दोनों शर्मिंदा थे. वे सिर नहीं उठा पा रहे थे.

‘‘गाड़ी सामने देख कर चलाओ. तुम दोनों भी किसी मां के बेटे हो. ऐक्सिडैंट होने से हम सब मारे जाएंगे,’’ वह औरत बोली.

‘‘आप हमें माफ कर दें,’’ अचानक जोगिंदर के मुंह से निकला.

‘‘चलो माफ किया, मगर सोचो, जिस मां का दूध पी कर तुम इतने बड़े हुए, आज उसी एक मां की छाती देखने पर इतना बड़ा रिस्क उठाया,’’ उस औरत के इस वाक्य ने रहीसही कसर पूरी कर दी.

वह औरत सामान्य भाव से अपनी छाती ढकते हुए सीट पर जा बैठी. थोड़ी देर बाद अवधपुरी चौराहे पर उतर कर वह औरत बच्ची के साथ घर की ओर गई.

उन दोनों ने आज पांडेयजी के होटल पर जाने का विचार छोड़ दिया.

घर पहुंच कर अजय ने चुपचाप 4-5 गिलास पानी पीया और बिस्तर पर लेट गया.

आज के बाद अजय कभी बस नंबर 9261 से नहीं चढ़ेगा और न ही किसी औरत की ओर आंख उठा कर देखेगा.

Love Story : कितना करूं इंतजार

Love Story : कितना करूं इंतजार

मुझे गुमसुम और उदास देख कर मां ने कहा, ‘‘क्या बात है, रति, तू इस तरह मुंह लटकाए क्यों बैठी है? कई दिन से मनोज का भी कोई फोन नहीं आया. दोनों ने आपस में झगड़ा कर लिया क्या?’’

‘‘नहीं, मां, रोज रोज क्या बात करें.’’

‘‘कितने दिनों से शादी की तैयारी कर रहे थे, सब व्यर्थ हो गई. यदि मनोज के दादाजी की मौत न हुई होती तो आज तेरी शादी को 15 दिन हो चुके होते. वह काफी बूढ़े थे. तेरहवीं के बाद शादी हो सकती थी पर तेरे ससुराल वाले बड़े दकियानूसी विचारों के हैं. कहते हैं कि साए नहीं हैं. अब तो 5-6 महीने बाद ही शादी होगी.

‘‘हमारी तो सब तैयारी व्यर्थ हो गई. शादी के कार्ड बंट चुके थे. फंक्शन हाल को, कैटरर्स को, सजावट करने वालों को, और भी कई लोगों को एडवांस पेमेंट कर चुके थे. 6 महीने शादी सरकाने से अच्छाखासा नुकसान हो गया है.’’

‘‘इसी बात से तो मनोज बहुत डिस्टर्ब है, मां. पर कुछ कह नहीं पाता.’’

‘‘बेटा, हम भी कभी तुम्हारी उम्र के थे. तुम दोनों के एहसास को समझ सकते हैं, पर हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. मैं ने तो तेरी सास से कहा भी था कि साए नहीं हैं तो क्या हुआ, अच्छे काम के लिए सब दिन शुभ होते हैं…अब हमें शादी कर देनी चाहिए.

‘‘मेरा इतना कहना था कि वह तो भड़क गईं और कहने लगीं, आप के लिए सब दिन शुभ होते होंगे पर हम तो सायों में भरोसा करते हैं. हमारा इकलौता बेटा है, हम अपनी तरफ से पुरानी मान्यताओं को अनदेखा कर मन में कोई वहम पैदा नहीं करना चाहते.’’

रति सोचने लगी कि मम्मी इस से ज्यादा क्या कर सकती हैं और मैं भी क्या करूं, मम्मी को कैसे बताऊं कि मनोज क्या चाहता है.

नर्सरी से इंटर तक हम दोनों साथसाथ पढ़े थे. किंतु दोस्ती इंटर में आने के बाद ही हुई थी. इंटर के बाद मनोज इंजीनियरिंग करने चला गया और मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया था. कालिज अलग होने पर भी हम दोनों छुट्टियों में कुछ समय साथ बिताते थे. बीच में फोन पर बातचीत भी कर लेते थे. कंप्यूटर पर चैट हो जाती थी.

एम.एससी. में आते ही मम्मीपापा ने शादी के लिए लड़का तलाशने की शुरुआत कर दी. मैं ने कहा भी कि मम्मी, एम.एससी. के बाद शादी करना पर उन का कहना था कि तुम अपनी पढ़ाई जारी रखो, शादी कौन सी अभी हुई जा रही है, अच्छा लड़का मिलने में भी समय लगता है.

शादी की चर्चा शुरू होते ही मनोज की छवि मेरी आंखों में तैर गई थी. यों हम दोनों एक अच्छे मित्र थे पर तब तक शादी करने के वादे हम दोनों ने एकदूसरे से नहीं किए थे. साथ मिल कर भविष्य के सपने भी नहीं देखे थे पर मम्मी द्वारा शादी की चर्चा करने पर मनोज का खयाल आना, क्या इसे प्यार समझूं. क्या मनोज भी यही चाहता है, कैसे जानूं उस के दिल की बात.

मुलाकात में मनोज से मम्मी द्वारा शादी की पेशकश के बारे में बताया तो वह बोला, ‘‘इतनी जल्दी शादी कर लोगी, अभी तो तुम्हें 2 वर्ष एम.एससी. करने में ही लगेंगे,’’ फिर कुछ सोचते हुए बोला था, ‘‘सीधेसीधे बताओ, क्या मुझ से शादी करोगी…पर अभी मुझे सैटिल होने में कम से कम 2-3 वर्ष लगेंगे.’’

प्रसन्नता की एक लहर तनमन को छू गई थी, ‘‘सच कहूं मनोज, जब मम्मी ने शादी की बात की तो एकदम से मुझे तुम याद आ गए थे…क्या यही प्यार है?’’

‘‘मैं समझता हूं यही प्यार है. देखो, जो बात अब तक नहीं कह सका था, तुम्हारी शादी की बात उठते ही मेरे मुंह पर आ गई और मैं ने तुम्हें प्रपोज कर डाला.’’

‘‘अब जब हम दोनों एकदूसरे से चाहत का इजहार कर ही चुके हैं तो फिर इस विषय में गंभीरता से सोचना होगा.’’

‘‘सोचना ही नहीं होगा रति, तुम्हें अपने मम्मीपापा को इस शादी के लिए मनाना भी होगा.’’

‘‘क्या तुम्हारे घर वाले मान जाएंगे?’’

‘‘देखो, अभी तो मेरा इंजीनियरिंग का अंतिम साल है. मेरी कैट की कोचिंग भी चल रही है…उस की भी परीक्षा देनी है. वैसे हो सकता है इस साल किसी अच्छी कंपनी में प्लेसमेंट मिल जाए क्योंकि कालिज में बहुत सी कंपनियां आती हैं और जौब आफर करती हैं. अच्छा आफर मिला तो मैं स्वीकार कर लूंगा और जैसे ही शादी की चर्चा शुरू होगी मैं तुम्हारे बारे में बता दूंगा.’’

प्यार का अंकुर तो हमारे बीच पनप ही चुका था और हमारा यह प्यार अब जीवनसाथी बनने के सपने भी देखने लगा था. अब इस का जिक्र अपनेअपने घर में करना जरूरी हो गया था.

मैं ने मम्मी को मनोज के बारे में बताया तो वह बोलीं, ‘‘वह अपनी जाति का नहीं है…यह कैसे हो सकता है, तेरे पापा तो बिलकुल नहीं मानेंगे. क्या मनोज के मातापिता तैयार हैं?’’

‘‘अभी तो इस बारे में उस के घर वाले कुछ नहीं जानते. फाइनल परीक्षा होने तक मनोज को किसी अच्छी कंपनी में जौब का आफर मिल जाएगा और रिजल्ट आते ही वह कंपनी ज्वाइन कर लेगा. उस के बाद ही वह अपने मम्मीपापा से बात करेगा.’’

‘‘क्या जरूरी है कि वह मान ही जाएंगे?’’

‘‘मम्मी, मुझे पहले आप की इजाजत चाहिए.’’

‘‘यह फैसला मैं अकेले कैसे ले सकती हूं…तुम्हारे पापा से बात करनी होगी…उन से बात करने के लिए मुझे हिम्मत जुटानी होगी. यदि पापा तैयार नहीं हुए तो तुम क्या करोगी?’’

‘‘करना क्या है मम्मी, शादी होगी तो आप के आशीर्वाद से ही होगी वरना नहीं होगी.’’

इधर मेरा एम.एससी. फाइनल शुरू हुआ उधर इंजीनियरिंग पूरी होते ही मनोज को एक बड़ी कंपनी में अच्छा स्टार्ट मिल गया था और यह भी करीबकरीब तय था कि भविष्य मेें कभी भी कंपनी उसे यू.एस. भेज सकती है. मनोज के घर में भी शादी की चर्चा शुरू हो गई थी.

मैं ने मम्मी को जैसेतैसे मना लिया था और मम्मी ने पापा को किंतु मनोज की मम्मी इस विवाह के लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं. इस फैसले से मनोज के घर में तूफान उठ खड़ा हुआ था. उस के घर में पापा से ज्यादा उस की मम्मी की चलती है. ऐसा एक बार मनोज ने ही बताया था…मनोज ने भी अपने घर में ऐलान कर दिया था कि शादी करूंगा तो रति से वरना किसी से नहीं.

आखिर मनोज के बहनबहनोई ने अपनी तरह से मम्मी को समझाया था, ‘‘मम्मी, आप की यह जिद मनोज को आप से दूर कर देगी, आजकल बच्चों की मानसिक स्थिति का कुछ पता नहीं चलता कि वह कब क्या कर बैठें. आज के ही अखबार में समाचार है कि मातापिता की स्वीकृति न मिलने पर प्रेमीप्रेमिका ने आत्महत्या कर ली…वह दोनों बालिग हैं. मनोज अच्छा कमा रहा है. वह चाहता तो अदालत में शादी कर सकता था पर उस ने ऐसा नहीं किया और आप की स्वीकृति का इंतजार कर रहा है. अब फैसला आप को करना है.’’

मनोज के पिता ने कहा था, ‘‘बेटा, मुझे तो मनोज की इस शादी से कोई एतराज नहीं है…लड़की पढ़ीलिखी है, सुंदर है, अच्छे परिवार की है… और सब से बड़ी बात मनोज को पसंद है. बस, हमारी जाति की नहीं है तो क्या हुआ पर तुम्हारी मम्मी को कौन समझाए.’’

‘‘जब सब तैयार हैं तो मैं ही उस की दुश्मन हूं क्या…मैं ही बुरी क्यों बनूं? मैं भी तैयार हूं.’’

मम्मी का इरादा फिर बदले इस से पहले ही मंगनी की रस्म पूरी कर दी गई थी. तय हुआ था कि मेरी एम.एससी. पूरी होते ही शादी हो जाएगी.

मंगनी हुए 1 साल हो चुका था. शादी की तारीख भी तय हो चुकी थी. मनोज के बाबा की मौत न हुई होती तो हम दोनों अब तक हनीमून मना कर कुल्लूमनाली, शिमला से लौट चुके होते और 3 महीने बाद मैं भी मनोज के साथ अमेरिका चली जाती.

पर अब 6-7 महीने तक साए नहीं हैं अत: शादी अब तभी होगी ऐसा मनोज की मम्मी ने कहा है. पर मनोज शादी के टलने से खुश नहीं है. इस के लिए अपने घर में उसे खुद ही बात करनी होगी. हां, यदि मेरे घर से कोई रुकावट होती तो मैं उसे दूर करने का प्रयास करती.

पर मैं क्या करूं. माना कि उस के भी कुछ जजबात हैं. 4-5 वर्षों से हम दोस्तों की तरह मिलते रहे हैं, प्रेमियों की तरह साथसाथ भविष्य के सपने भी बुनते रहे हैं किंतु मनोज को कभी इस तरह कमजोर होते नहीं देखा. यद्यपि उस का बस चलता तो मंगनी के दूसरे दिन ही वह शादी कर लेता पर मेरा फाइनल साल था इसलिए वह मन मसोस कर रह गया.

प्रतीक्षा की लंबी घडि़यां हम कभी मिल कर, कभी फोन पर बात कर के काटते रहे. हम दोनों बेताबी से शादी के दिन का इंतजार करते रहे. दूरी सहन नहीं होती थी. साथ रहने व एक हो जाने की इच्छा बलवती होती जाती थी. जैसेजैसे समय बीत रहा था, सपनों के रंगीन समुंदर में गोते लगाते दिन मंजिल की तरफ बढ़ते जा रहे थे. शादी के 10 दिन पहले हम ने मिलना भी बंद कर दिया था कि अब एकदूसरे को दूल्हादुलहन के रूप में ही देखेंगे पर विवाह के 7 दिन पहले बाबाजी की मौत हमारे सपनों के महल को धराशायी कर गई.

बाबाजी की मौत का समाचार मुझे मनोज ने ही दिया था और कहा था, ‘‘बाबाजी को भी अभी ही जाना था. हमारे बीच फिर अंतहीन मरुस्थल का विस्तार है. लगता है, अब अकेले ही अमेरिका जाना पडे़गा. तुम से मिलन तो मृगतृष्णा बन गया है.’’

तेरहवीं के बाद हम दोनों गार्डन में मिले थे. वह बहुत भावुक हो रहा था, ‘‘रति, तुम से दूरी अब सहन नहीं होती. मन करता है तुम्हें ले कर अनजान जगह पर उड़ जाऊं, जहां हमारे बीच न समाज हो, न परंपराएं हों, न ये रीतिरिवाज हों. 2 प्रेमियों के मिलन में समाज के कायदे- कानून की इतनी ऊंची बाड़ खड़ी कर रखी है कि उन की सब्र की सीमा ही समाप्त हो जाए. चलो, रति, हम कहीं भाग चलें…मैं तुम्हारा निकट सान्निध्य चाहता हूं. इतना बड़ा शहर है, चलो, किसी होटल में कुछ घंटे साथ बिताते हैं.’’

जो हाल मनोज का था वही मेरा भी था. एक मन कहता था कि अपनी खींची लक्ष्मण रेखा को अब मिटा दें किंतु दूसरा मन संस्कारों की पिन चुभो देता कि बिना विवाह यह सब ठीक नहीं. वैसे भी एक बार मनोज की इच्छा पूरी कर दी तो यह चाह फिर बारबार सिर उठाएगी, ‘‘नहीं, यह ठीक नहीं.’’

‘‘क्या ठीक नहीं, रति. क्या तुम को मुझ पर विश्वास नहीं? पतिपत्नी तो हमें बनना ही है. मेरा मन आज जिद पर आया है, मैं भटक सकता हूं, रति, मुझे संभाल लो,’’ गार्डन के एकांत झुटपुटे में उस ने बांहों में भर कर बेतहाशा चूमना शुरू कर दिया था. मैं ने भी आज उसे यह छूट दे दी थी ताकि उस का आवेग कुछ शांत हो किंतु मनोज की गहरीगहरी सांसें और अधिक समा जाने की चाह मुझे भी बहकाए उस से पूर्व ही मैं उठ खड़ी हुई.

‘‘अपने को संभालो, मनोज. यह भी कोई जगह है बहकने की? मैं भी कोई पत्थर नहीं, इनसान हूं…कुछ दिन अपने को और संभालो.’’

‘‘इतने दिन से अपने को संभाल ही तो रहा हूं.’’

‘‘जो तुम चाह रहे हो वह हमारी समस्या का समाधान तो नहीं है. स्थायी समाधान के लिए अब हाथपैर मारने होंगे. चलो, बहुत जोर से भूख लगी है, एक गरमागरम कौफी के साथ कुछ खिला दो, फिर इस बारे में कुछ मिल कर सोचते हैं.’’

रेस्टोरेंट में बैरे को आर्डर देने के बाद मैं ने ही बात शुरू की, ‘‘मनोज, तुम्हें अब एक ही काम करना है… किसी तरह अपने मातापिता को जल्दी शादी के लिए तैयार करना है, जो बहुत मुश्किल नहीं. आखिर वे हमारे शुभचिंतक हैं, तुम ने उन से एक बार भी कहा कि शादी इतने दिन के लिए न टाल कर अभी कर दें.’’

‘‘नहीं, यह तो नहीं कहा.’’

‘‘तो अब कह दो. कुछ पुराना छोड़ने और नए को अपनाने में हरेक को कुछ हिचक होती है. अपनी इंटरकास्ट मैरिज के लिए आखिर वह तैयार हो गए न. तुम देखना बिना सायों के शादी करने को भी वह जरूर मान जाएंगे.’’

मनोज के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई थी, ‘‘तुम ठीक कह रही हो रति, यह बात मेरे ध्यान में क्यों नहीं आई? खाने के बाद तुम्हें घर पर छोड़ देता हूं. कोर्ट मैरिज की डेट भी तो पास आ गई है, उसे भी आगे नहीं बढ़ाने दूंगा.’’

‘‘ठीक है, अब मैरिज वाले दिन कोर्ट में ही मिलेंगे.’’

‘‘मेरे आज के व्यवहार से डर गईं क्या? इस बीच फोन करने की इजाजत तो है या वह भी नहीं है?’’

‘‘चलो, फोन करने की इजाजत दे देते हैं.’’

रजिस्ट्रार के आफिस में मैरिज की फार्र्मेलिटी पूरी होने के बाद हम दोनों अपने परिवार के साथ बाहर आए तो मनोज के जीजाजी ने कहा, ‘‘मनोज, अब तुम दोनों की शादी पर कानून की मुहर लग गई है. रति अब तुम्हारी हुई.’’

‘‘ऐ जमाई बाबू, ये इंडिया है, वह तो वीजा के लिए यह सब करना पड़ा है वरना इसे हम शादी नहीं मानते. हमारे घर की बहू तो रति विवाह संस्कार के बाद ही बनेगी,’’ मेरी मम्मी ने कहा.

‘‘वह तो मजाक की बात थी, मम्मी, अब आप लोग घर चलें. मैं तो इन दोनों से पार्टी ले कर ही आऊंगा.’’

होटल में खाने का आर्डर देने के बाद मनोज ने अपने जीजाजी से पूछा, ‘‘जीजाजी, मम्मी तक हमारी फरियाद अभी पहुंची या नहीं?’’

‘‘साले साहब, क्यों चिंता करते हो. हम दोनों हैं न तुम्हारे साथ. अमेरिका आप दोनों साथ ही जाओगे. मैं ने अभी बात नहीं की है, मैं आप की इस कोर्ट मैरिज हो जाने का इंतजार कर रहा था. आगे मम्मी को मनाने की जिम्मेदारी आप की बहन ने ली है. इस से भी बात नहीं बनी तो फिर मैं कमान संभालूंगा.’’

‘‘हां, भैया, मैं मम्मी को समझाने की पूरी कोशिश करूंगी.’’

‘‘हां, तू कोशिश कर ले, न माने तो मेरा नाम ले कर कह देना, ‘आप अब शादी करो या न करो भैया भाभी को साथ ले कर ही जाएंगे.’’’

‘‘वाह भैया, आज तुम सचमुच बड़े हो गए हो.’’

‘‘आफ्टर आल अब मैं एक पत्नी का पति हो गया हूं.’’

‘‘ओके, भैया, अब हम लोग चलेंगे, आप लोगों का क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘कुछ देर घूमघाम कर पहले रति को उस के घर छोडूंगा फिर अपने घर जाऊंगा.’’

मेरे गले में बांहें डालते हुए मनोज ने शरारत से देखा, ‘‘हां, रति, अब क्या कहती हो, तुम्हारे संस्कार मुझे पति मानने को तैयार हैं या नहीं?’’

आंखें नचाते हुए मैं चहकी, ‘‘अब तुम नाइंटी परसेंट मेरे पति हो.’’

‘‘यानी टैन परसेंट की अब भी कमी रह गई है…अभी और इंतजार करना पडे़गा?’’

‘‘उस दिन का मुझे अफसोस है मनोज…पर अब मैं तुम्हारी हूं.’’

Hindi Story : बालू पर पड़ी लकीर

Hindi Story : पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन जब भी आमनेसामने होते तो एकदूसरे पर कटाक्ष करने से बाज न आते पर हालात ने एक दिन कुछ ऐसा कर दिखाया कि वे सारे गिलेशिकवे भूल कर एकदूसरे के गले लग गए. पढि़ए रेणुका पालित की एक हृदयस्पर्शी कहानी.

मैं अपने घर  के बरामदे में बैठा पढ़ने का मन बना रहा था, पर वहां शांति कहां थी. हमेशा की तरह हमारे पड़ोसी पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन की जोरजोर से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं. वह उन का तकरीबन रोज का नियम था. दोनों छोटी से छोटी बात पर भी लड़तेझगड़ते रहते थे, ‘‘देखो, मियां करीम, मैं तुम्हें आखिरी बार मना करता हूं, खबरदार जो मेरी कुरसी पर बैठे.’’

‘‘अमां पंडित, बैठने भर से क्या तुम्हारी कुरसी गल गई. बड़े आए मुझे धमकी देने, हूं.’’

‘नहाते तो हैं नहीं महीनों से और चले आते हैं कुरसी पर बैठने,’ पंडितजी ने बड़बड़ाते हुए अपनी कुरसी उठाई और अंदर रखने चले गए.

मुझे यह देख कर आश्चर्य होता था कि मौलाना और पंडित में हमेशा खींचातानी होती रहती थी, पर उन की बेगमों की उन में कोई भागीदारी नहीं थी. मानो दोनों अपनेअपने शौहरों को खब्ती या सनकी समझती थीं. अचार, मंगोड़ी से ले कर कसीदा, कढ़ाई तक में दोनों बेगमों का साझा था.

पंडित की बेटी गीता जब ससुराल से आती, तब सामान दहलीज पर रखते ही झट मौलाना की बेटी शाहिदा और बेटे रागिब से मिलने चली जाती. मौलाना भी गीता को देख कर बेहद खुश होते. घंटों पास बैठा कर ससुराल के हालचाल पूछते रहते. उन्हें चिढ़ थी तो सिर्फ  पंडित से.

कटाक्षों का सिलसिला यों ही अनवरत जारी रहता. पिछले दिन ही मौलाना का लड़का रागिब जब सब्जियां लाने बाजार जा रहा था, तब पंडिताइन ने पुकार कर कहा, ‘‘बेटे रागिब, बाजार जा रहा है न. जरा मेरा भी थैला लेता जा. दोचार गोभियां और एक पाव टमाटर लेते आना.’’

‘‘अच्छा चचीजान, जल्दी से पैसे दे दीजिए.’’

पंडित और मौलाना अपनेअपने बरामदे में कुरसियां डाले बैठे थे. भला ऐसे सुनहरे मौके पर मौलाना कटाक्ष करने से क्यों चूकते. छूटते ही उन्होंने व्यंग्यबाण चलाए, ‘‘बेटे रागिब, दोनों थैले अलग- अलग हाथों में पकड़ कर लाना, नहीं तो पंडित की सब्जियां नापाक हो जाएंगी.’’

मुसकराते हुए उन्होंने कनखियों से पंडित की ओर देखा और पान की एक गिलौरी गाल में दबा ली.

जब पंडित ने इत्मीनान कर लिया कि रागिब थोड़ी दूर निकल गया है, तब ताव दिखाते हुए बोले, ‘‘अरे, रख दे मेरे थैले. मेरे हाथपांव अभी सलामत हैं. मुझे किसी का एहसान नहीं लेना. पंडिताइन की बुद्धि जाने कहां घास चरने चली गई है. खुद चली जाती या मुझे ही कह देती.’’

भुनभुनाते हुए पंडित दूसरी ओर मुंह फेर कर बैठ जाते.

यों ही नोकझोंक चलती रहती पर एक दिन ऐसी गरम हवा चली कि सारी नोकझोंक गंभीरता में तबदील हो गई.

शहर शांत था, पर वह शांति किसी तूफान के आने से पूर्व जैसी भयानक थी. अब न पंडिताइन रागिब को सब्जियां लाने को आवाज देती, न ही मौलाना आ कर पंडित की कुरसी पर बैठते. एक अदृश्य दीवार दोनों घरों के मध्य उठ गई थी, जिस पर दहशत और अविश्वास का प्लास्टर दोनों ओर के लोग थोपते जा रहे थे. रिश्तेदार अपनी ‘बहुमूल्य राय’ दे जाते, ‘‘देखो मियां, माहौल ठीक नहीं है. यह महल्ला छोड़ कर कुछ दिन हमारे साथ रहो.’’

परंतु कुछ ऐसे भी घर थे जहां अविश्वास की परत अभी उतनी मोटी नहीं थी. इन दोनों परिवारों को भी अपना घर छोड़ना मंजूर नहीं था.

‘‘गीता के बापू, सो गए क्या?’’

‘‘नहीं सोया हूं,’’ पंडित खाट पर करवट बदलते हुए बोले.

‘‘मेरे मन में बड़ी चिंता होती है.’’

‘‘तुम क्यों चिंता में प्राण दिए दे रही हो. ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी, हूंहं,’’ और पंडित बड़बड़ाते हुए बेफिक्री से करवट बदल कर सो गए.

पर एक रात ऐसा ही हुआ जिस की आशंका मन के किसी कोने में दबी हुई थी. दंगाई (जिन की न कोई जाति होती है, न धर्म) जोरजोर से पंडित का दरवाजा खटखटा रहे थे, ‘‘पंडितजी, बाहर आइए.’’

पंडित के दरवाजा खोलते ही लोग चीखते हुए पूछने लगे, ‘‘कहां छिपाया है आप ने मौलाना के परिवार को?’’

‘‘मैं…मैं ने छिपाया है, मौलाना को? अरे, मेरा तो उन से रोज ही झगड़ा होता है. नहीं विश्वास हो तो देख लो मेरा घर,’’ पंडित ने दरवाजे से हटते हुए कहा.

अभी दंगाइयों में इस बात पर बहस चल ही रही थी कि पंडित के घर की तलाशी ली जाए या नहीं कि शहर के दूसरे छोर से बच्चों और स्त्रियों की चीखपुकार सुनाई पड़ी. रात के सन्नाटे में वह हंगामा और भी भयावह प्रतीत हो रहा था. दरिंदे अपना खतरनाक खेल खेलने में मशगूल थे. बलवाइयों ने पंडित के घर की चिंता छोड़ दी और वे दूसरे दंगाइयों से निबटने के लिए नारे लगाते हुए तेजी से कोलाहल की दिशा की ओर झपट पड़े.

दंगाइयों के जाते ही पंडित ने दरवाजा बंद किया. तेजी से सीटी बजाते हुए एक ओर चले. वह कमरा जिसे पंडिताइन फालतू सामान और लकडि़यां रखने के काम में लाती थी, अब मौलाना के परिवार के लिए शरणस्थली था. सभी भयभीत कबूतरों जैसे सिमटे थे. बस, सुनाई पड़ रही थी तो अपनी सांसों की आवाजें.

पंडित ने कमरे में पहुंचते ही मौलाना को जोर से अंक में भींच कर गले लगा लिया. आंखों से अविरल बह रहे आंसुओं ने खामोशी के बावजूद सबकुछ कह दिया. मौलाना स्वयं भी हिचकियां लेते जाते और पंडित के गले लगे हुए सिर्फ ‘भाईजान, भाईजान’ कहते जा रहे थे.

गरम हवा शांत हो कर फिर बयार बहने लगी थी. सबकुछ सामान्य हो चला था. न तो किसी को किसी से कोई गिला था, न शिकवा. एक संतुष्टि मुझे भी हुई, अब मेरा महल्ला शांत रहेगा. पढ़ने के उपयुक्त वातावरण पर मेरा यह चिंतन मिथ्या ही साबित हुआ.

सुबह होते ही पंडित और मौलाना ने अखाड़े में अपनी जोरआजमाइश शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरे दरवाजे की पीठ पर फिर थूक दिया, मौलाना, ’’ पंडित गरज रहे थे.

‘‘अरे, मैं क्यों थूकने लगा. तुझे तो लड़ने का बहाना चाहिए.’’

‘‘क्या कहा, मैं झगड़ालू हूं.’’

‘‘मैं तो गीता बिटिया के कारण तेरे घर आता हूं, वरना तेरीमेरी कैसी दोस्ती.’’

शिकायतों और इलजामों का कथोपकथन तब तक जारी रहा जब तक दोनों थक नहीं गए.

मैं ने सोचा, ‘यह समुद्र की लहरों द्वारा बालू पर खींची गई वह लकीर है, जो क्षण भर में ही मिट जाती है. समुद्र के किनारों ने लहरों के अनेक थपेड़ों को झेला है पर आखिर में तो वे समतल ही हो जाते हैं.’

sweet story : मौसी की महक

लेखिका – रीता कश्‍यप 

sweet story :  रात के 9 बज चुके थे. टीवी चैनल पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ प्रोग्राम शुरू हो चुका था. मैं जल्दी से मेज पर खाना लगा कर प्रोग्राम देखने के लिए बैठना ही चाहती थी, तभी फोन की घंटी बज उठी. आनंद प्रोग्राम छोड़ कर उठना नहीं चाहते थे, सो मुझे फोन की ओर बढ़ता देख बोले, ‘‘मेरे लिए हो तो नाम पूछ लेना, मैं बाद में फोन कर लूंगा.’’

मेरे रिसीवर उठाते ही अजनबी आवाज कानों में पड़ी. संक्षिप्त परिचय के बाद अत्यंत दुखद समाचार मिला कि आनंद की उदयपुर वाली मौसी के एकलौते जवान बेटे की ऐक्सिडैंट में मौत हो गई है. फोन सुनते ही मैं स्तब्ध रह गई.

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि यह दुखद समाचार मैं आनंद को कैसे दूं. खाना मेज पर लगा था. मैं सोच में पड़ गई कि क्या पहले खाना खा लेने दूं, फिर बताऊं? लेकिन मेरे दिलोदिमाग ने चेहरे का साथ नहीं दिया. मुझे देखते ही आनंद हैरान हो गए, बोले, ‘‘क्या हुआ? किस का फोन था?’’

आनंद के पूछते ही मैं स्वयं को रोक न सकी और भीगी आंखों से उन्हें पूरी बात बता दी. सुनते ही आनंद गुमसुम से हो गए. मैं भी परेशान हो उठी थी. टीवी प्रोग्राम में अब मन नहीं लग रहा था. उस प्रोग्राम से कई गुना बड़े सवाल हमारे मन में उठने लगे थे. प्रोग्राम में पूछे जा रहे सवालों का तो 4 में से एक सही उत्तर भी था, लेकिन मन में उठ रहे सवालों का हमारे पास कोई उत्तर न था.

बच्चे हमें देख कर सहम से गए थे. उन्हें तो जैसेतैसे खाना खिला कर सुला दिया, लेकिन हम दोनों चाह कर भी कुछ न खा पाए.

आनंद उदयपुर जाने की तैयारी करने लगे. वहां जाना तो मैं भी चाहती थी, लेकिन एक तो सुबह दफ्तर में जरूरी मीटिंग थी, जिस के कारण मेरा अचानक छुट्टी करना संभव नहीं था, दूसरे, बच्चों को कुछ दिनों के लिए कहां, किस के पास छोड़ते हमें हड़बड़ी में कुछ नहीं सूझ रहा था. सो, आनंद तुरंत ही अकेले उदयपुर के लिए रवाना हो गए.

आनंद बहुत दुखी थे. यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि मौसी से आनंद का विशेष स्नेह है. बचपन में आनंद अपनी छुट्टियां मौसी के यहां ही बिताना पसंद करते थे. मां की मृत्यु के बाद तो मौसी ने मां की ही जगह ले ली थी. मौसी के बेटे, शिव और आनंद में उम्र का भी कोई ज्यादा फर्क नहीं था. शिव आनंद का मौसेरा भाई कम, दोस्त ज्यादा था.

मौसी शादी के 10 साल बाद ही विधवा हो गई थीं. बहुत मेहनत से उन्होंने अपने एकलौते बेटे शिव की परवरिश की, उसे पैरों पर खड़ा किया था. शिव भी श्रवण कुमार से कम न था. शादी के लिए बरसों इनकार करता रहा. मां की कठिन तपस्या के बदले वह मां की आजीवन सेवा करना चाहता था. वह डरता था कि कहीं कोई झगड़ालू बहू आ कर मां का जीवन जीर्ण न बना दे.

मौसी का स्वभाव बहुत ही अच्छा है. उन की जबान से शहद और आंखों से स्नेह बरसता था. मौसी के जीवन का एक ही अरमान था कि बेटे के सिर पर सेहरा देखें और बहू घर लाएं. लेकिन शिव था कि अपनी ही जिद पर अड़ा था. मौसी के बहुत कहने और हम सब के बहुत समझने पर शिव ने शादी के लिए हामी भरी थी. उस की शादी को 2 साल भी नहीं हुए थे कि जीवनभर मां की सेवा का व्रत लेने वाला शिव, बुढ़ापे में मां को छोड़ कर चला गया था.

कुछ ही दिनों बाद मैं भी दफ्तर से छुट्टी ले कर बच्चों को साथ ले उदयपुर पहुंच गई. सफेद साड़ी में लिपटी मौसी और शिव की पत्नी भारती मुझे वेदना की प्रतिमूर्ति लगीं. मैं दोनों से गले क्या मिली कि आंसुओं की बाढ़ सी आ गई.

मौसी की गृहस्थी 2 प्राणियों में सिमट कर रह गई थी. सूनी मांग तथा सूनी गोद वाली 2 औरतें, एक के सामने पहाड़ जैसा जीवन था तो दूसरी के सामाने लाचार बुढ़ापा. घर लोगों से भरा था, लेकिन शिव के बिना बिलकुल खाली लग रहा था.

भारती के मातापिता उसे हमेशा के लिए अपने साथ ले जाना चाहते थे. एक तरह से यह ठीक भी था. मुझे लगा, उस घर से दूर रह कर भारती का जख्म जल्दी भर जाएगा और फिर उस की दूसरी शादी भी कर देनी चाहिए. किसी औरत के लिए पूरा जीवन अकेले काटना बहुत कठिन होता है. वैसे भी, जीने का कोई तो बहाना होना ही चाहिए.

अपने मातापिता के निर्णय पर भारती मुझे 2 हिस्सों में बंटी हुई लगी. वह शिव की यादों के सहारे जीना भी चाहती थी और पूरा जीवन अकेले जीने के भय से ग्रस्त भी थी.

मौसी कुछ भी नहीं कह पा रही थीं. जीने का बहाना तो उन्हें भी चाहिए था, जो अब मात्र भारती के रूप में था, लेकिन भारती के भविष्य की चिंता उन्हें चुप रहने पर भी मजबूर कर रही थी.

फिर एक शाम बहुत ही दुखी मन से हम सब ने यही फैसला लिया कि भारती का लौट जाना ही उस के भविष्य को सुरक्षित रख पाएगा. आखिर एक बूढ़े पेड़ के साए में वह पूरा जीवन कैसे काट पाएगी?

मौसी अब बिलकुल अकेली हो गई थीं. एक ओर मौसी का दुख और उन का अकेलापन मुझसेदेखा नहीं जा रहा था तो दूसरी ओर आनंद का अंदर ही अंदर टूटना मुझसे सहा नहीं जा रहा था. मेरे अंदर अजीब सी कशमकश चल रही थी.

एक शाम मैं अपनी कशमकश से उबर ही आई और मैंने अपना फैसला सुना दिया, ‘‘मौसी, आप अब यहां अकेली नहीं रहेंगी. यहां की हर चीज शिव की यादों से जुड़ी है, जो आप को जीने नहीं देगी.’’

‘‘मैं तो जीती ही रहूंगी, बहू. मेरी मौत बहुत मुश्किल है. भरी जवानी में पति छोड़ कर चले गए, मैं जीती रही. अब बुढ़ापे में बेटा छोड़ गया है तो भी…’’ कहते हुए वे फूटफूट कर रोने लगीं.

मैं भी स्वयं को रोक न सकी. बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा.

‘‘आप को जीना है और हमारे लिए जीना है,’’ कहते हुए मैं ने खामोशी तोड़ी.

‘‘बहू, मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं. मेरी जिंदगी में अब बचा ही क्या है.’’

‘‘मौसीजी, आप हमारे साथ चलेंगी. हमें आप की जरूरत है,’’ कहते हुए मैं मौसी के गले लग गई.

मेरी बात सुन कर आनंद ने राहत की सांस ली थी, ऐसा उन के चेहरे के हावभाव बता रहे थे. वे तुरंत बोल उठे, ‘‘मौसी, मुझमें और शिव में आप ने कभी कोई फर्क नहीं किया. मैं आप का बेटा, अभी जिंदा हूं. आप के पोतेपोती हैं, बहू है, हम सब को छोड़ कर आप यहां अकेली कैसे रहेंगी?’’

‘‘क्यों नहीं, बेटा. तुम सब मेरे अपने हो, तुम्हारे सिवा अब मेरा और है ही कौन? लेकिन बेटा, मैं दुखियारी अब बुढ़ापे में तुम पर बोझ नहीं बनना चाहती.’’

‘‘मां बोझ नहीं हुआ करती. आप हमारे साथ चलिए. हम सब मिल कर आप का दुख बांटने की कोशिश करेंगे, फिर भी अगर आप को वहां अच्छा न लगे तो लौट आइएगा. हम आप को नहीं रोकेंगे,’’ मैं ने अपनी बात रखते हुए कहा.

‘‘हां मौसी, अभी आप हमारे साथ चल रही हैं. हम आप को यहां अकेला नहीं छोड़ सकते. बाद में आप को जैसा ठीक लगेगा, हम ने आप पर छोड़ा,’’ आनंद ने भी अपना फैसला सुना दिया था.

जल्दी ही हम मौसी को साथ ले कर दिल्ली लौट आए. 2-4 दिन मौसी के साथ घर पर बिता कर मैं ने दफ्तर जाना शुरू कर दिया. कई दिनों की छुट्टी के बाद मैं दफ्तर गई तो लंचटाइम में सब सहेलियां मिलीं और कई तरह के सवाल करने लगीं. कोई मेरी छुट्टियों का कारण पूछ रही थी तो कोई शिव की मृत्यु की खबर पर दुख जता रही थी, कोई उदयपुर के बारे में जानकारी चाहती थी. तभी बातोंबातों में मैं ने बताया कि मैं मौसी को साथ ले आई हूं. अब वे हमारे साथ ही रहेंगी.

मेरी बात सुनते ही सीमा बोली, ‘‘दीपा, गई तुम भी काम से. हो गया शुरू रोज का कलह, तानोंउलाहनों का सिलसिला.’’

‘‘मौसी ऐसी नहीं हैं. वे स्वभाव की बहुत अच्छी हैं,’’ मैं ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘कैसी भी हों, हैं तो सास ही. देख लेना एक दिन तेरा सांस लेना दूभर कर देंगी,’’ रश्मि ने हाथ नचाते हुए कहा.

तभी सुषमा बहुत ही अपनेपन से बोली, ‘‘तुझे बैठेबिठाए क्या पड़ी थी जो यह मुसीबत गले डाल ली. अच्छीभली गृहस्थी चल रही थी, ले आई मौसी को साथ.’’

‘‘अरी, ऐसा फैसला लेने से पहले तुझे हमारी याद नहीं आई, जो वर्षों से सास के जुल्मों को सह रही हैं, तू तो फिर भी खुशहाल है जो तेरी सास नहीं है. तुझे क्या शौक चर्राया था जो मौसी सास को घर ले आई?’’ वनिता ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘मेरे हसबैंड अगर ऐसा कहते भी न, तो मैं अड़ जाती, कभी ऐसा न होने देती. और एक तू है मूर्ख, जो स्वयं मौसी को साथ ले आई,’’ शिखा कब चुप रहने वाली थी जो कुछ महीने पहले ही लड़झगड़ कर ससुराल से अलग हुई थी, सो वह भी बोल उठी.

मेरी बात कोई सुनने को तैयार ही नहीं थी. सब अपनीअपनी कह रही थीं. उन के विचार में वे सब अनुभवी थीं और मैं नादान, जिस ने स्वयं ही अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली थी. उन सब की बातें सुन कर मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठ रहे थे. मैं उन्हें बहुतकुछ समझना चाहती थी, लेकिन मैं जानती थी कि उस समय उन से बहस करना फुजूल था.

शाम को मेरे घर पहुंचते ही मौसी पानी का गिलास ले आईं जो हमेशा मुझे स्वयं ही भर कर पीना पड़ता था. फिर मौसी बहुत ही अपनत्व से बोलीं, ‘‘बहू, हाथमुंह धो लो, चाय तैयार है.’’

यह सुनते ही खुशी से मेरा तनमन भीग गया. कपड़े बदल कर हाथमुंह धोए, मेज पर पहुंचते ही मैं ने देखा कि गरमागरम चायनाश्ता तैयार है.

‘‘आनंद भी आने ही वाले होंगे,’’ मैं ने यों ही कह दिया, जबकि गरमागरम चायनाश्ता देख कर मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही थी.

‘‘कोई बात नहीं, बहू. सुबह की गई अब आई हो. थकी होगी तुम, अब तुम आराम से चाय पियो, आनंद आएगा तो फिर बना दूंगी.’’

मैं चाय पी ही रही थी कि रसोईघर से कुकर की सीटी की आवाज कानों में पड़ी. पता चला मौसी ने रात के खाने की तैयारी भी शुरू कर दी थी.

‘‘मौसीजी, आप पूरा दिन काम में लगी रहीं, आप आराम किया कीजिए, यह काम तो मैं आ कर रोज करती ही थी.’’

‘‘तुम्हारी गृहस्थी है, बहू. सब तुम्हें ही करना है, मैं तो यों ही थोड़ी मदद कर रही हूं. पहाड़ जितना बड़ा दिन, खाली बैठ कर गुजारना भी तो मुश्किल होता है.’’

‘‘इन दोनों शैतानों ने आप को परेशान तो नहीं किया?’’ मौसी की अगलबगल आ कर बैठे दोनों बच्चों को देख कर मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘ये क्या परेशान करेंगे, बहू. वे लोग खुशहाल होते हैं जिन के घर में बच्चों की किलकारियां गूंजती हैं. इन से ही तो जीवन में रौनक है,’’ मौसी बोलीं.

शायद मैं ने अनजाने में ही मौसी की दुखती रग पर हाथ रख दिया था, लेकिन मौसी ने मुझे शर्मिंदा होने का अवसर ही नहीं दिया, वे तुरंत बोलीं, ‘‘बहू, चाहो तो जब तक आनंद आता है, थोड़ा आराम कर लो. रसोई की चिंता तुम मत करो,’’ कहते हुए वे दोनों बच्चों का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गईं.

आजकल रहरह कर मेरे कानों में अपनी सहकर्मियों की कड़वी बातें गूंजती रहती हैं, लेकिन मेरा अनुभव उन के अनुभव से मेल नहीं खाता. मैं तो आजकल दफ्तर में स्वयं को इतना हलका और तनावमुक्त अनुभव करती हूं कि बता नहीं सकती. सुबह बिना किसी भागदौड़ के दफ्तर पहुंचती हूं, क्योंकि मौसी घर पर हैं ही. बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने से ले कर नाश्ता बनाने तक वे बराबर मेरी मदद करती हैं.

अब बच्चों के लिए दोपहर का खाना बनाने की भी जरूरत नहीं रही, क्योंकि मौसी उन्हें गरमागरम खाना खिलाती हैं. अब न बच्चों का सामान क्रैच में दे कर आना पड़ता है और न ही शाम को दफ्तर के बाद उन्हें वहां से लाने की चिंता है. बच्चे दिनभर अपने घर में सुरक्षित हाथों में रहते हैं.

मुझे तो मौसी को घर लाने के अपने फैसले में कहीं कोई गलती नजर नहीं आ रही. शाम को जब घर पहुंचती हूं तो घर का दरवाजा खुला मिलता है. मुसकराते और खिलखिलाते बच्चे मिलते हैं जो दिनभर क्रैच के बंधन में नहीं, अपने घर के उन्मुक्त वातावरण में रहते हैं. दोनों बच्चे दोपहर में थोड़ा आराम करने के बाद अपनाअपना होमवर्क भी कर लेते हैं.

मौसी को देख कर मुझे लगता है, वे ऐसा घना पेड़ हैं जिस के साए में हम जिंदगी की तेज धूप से बच सकते हैं. हम सब की भी पूरी कोशिश रहती है कि मौसी अपने गम को भूली रहें.

एक शाम मैं दफ्तर से आई तो तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी. देखते ही देखते मुझे तेज बुखार हो गया. मौसी तो परेशान हो उठीं. आनंद अभी दफ्तर से नहीं लौटे थे. मौसी ने तुरंत मुझे दूध के साथ बुखार उतारने की गोली दी और पानी की पट्टियां रखनी शुरू कर दीं. आनंद को आते ही डाक्टर के पास भेज दिया. जब तक मेरा बुखार नहीं उतरा, वे मेरे पास से नहीं उठीं.

मौसी का ऐसा स्नेह देख कर मैं स्वयं को रोक न सकी, मेरी आंखें भीग गईं. मौसी के हाथ अपने हाथों में ले कर मैं ने पूछा, ‘‘आप आनंद की मौसी हैं या मेरी मां?’’

‘‘चल पगली, मैं आनंद की मौसी बाद में हूं, पहले तेरी मां हूं. बहू क्या बेटी नहीं होती? सास क्या मां नहीं होती?’’ मौसी की जबान से सदा की भांति शहद और आंखों से नेह बरस रहा था.

‘‘मां ही तो होती है,’’ कहते हुए मैं मौसी से लिपट गई.

उस पल मुझे मौसी से वैसी ही गंध आ रही थी जो मैं बचपन में अपनी मां के गले लग कर महसूस करती थी. यह यकीनन ममता, प्यार की ही गंध थी, जिसे मैं वर्षों बाद अनुभव कर रही थी.

 

Hindi Story : झुमका गिरा रे

पूर्णिमा का सोने का  झुमका खोते  ही घर व महल्ले में कुहराम मच गया. हर किसी ने जैसी सूझी, अपनी सलाह दे डाली. लेकिन पूर्णिमा के पति जगदीश के घर आते ही यह सारी उदासी न जाने कहां हवा हो गई.

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहांकहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

 

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाईझगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

 

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जातेजाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

 

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

Funny Story : आरती कीजै टीचर लला की

funny story : अपने गांव के स्कूल के टीचरजी की पता नहीं किस दुश्मन ने शिकायत कर दी कि इन दिनों वे बरगद के पेड़ के नीचे बच्चों को बैठा कर अपनेआप कुरसी पर स्कूल की प्रार्थना के बाद से स्कूल छूटने तक ऊंघते रहते हैं. बच्चों को ही उन्हें झकझोरते हुए बताना पड़ता है, ‘टीचरजी, स्कूल की छुट्टी का समय हो गया है.’

बच्चों का शोर सुन कर टीचरजी कुरसी पर पसरे हुए जागते हैं, तो बच्चे कहते हैं, ‘टीचरजी जाग गए, भागो…’

मैं ने टीचरजी के विरोधी टोले से कई बार कहा भी, ‘‘अरे, इतनी भयंकर गरमी पड़ रही है. आग बुझाने के लिए आग पर पानी भी डालो, तो वह भी घी का काम करे. गरमी के दिन हैं, टीचरजी सोते हैं, तो सोने दो. गरमी के दिन होते ही सोने के दिन हैं, क्या जनता के क्या सरकार के.

‘‘पता नहीं, गांव वाले हाथ धो कर टीचरजी और पटवारी के पीछे क्यों पड़े रहते हैं? यह तो टीचरजी की शराफत है कि वे कम से कम बच्चों की क्लास में तो जा रहे हैं. बरगद के पेड़ के नीचे बच्चे ज्ञान नहीं तो आत्मज्ञान तो पा रहे हैं. क्या पता, कल इन बुद्धुओं में से कोई बुद्ध ही निकल आए.’’

पर टीचरजी के विरोधी नहीं माने, तो नहीं माने. कल फिर जब टीचरजी रोज की तरह कुरसी पर दिनदहाड़े सो रहे थे कि जांच अफसर तभी बाजू चढ़ाए स्कूल में आ धमके. तो साहब, विरोधियों का सीना फूल कर छप्पन हुआ कि टीचरजी तो रंगे हाथों पकड़े गए.

जांच अफसर आए, तो उन्होंने कुरसी पर सोए टीचरजी को जगाया. वे नहीं जागे, तो क्लास के मौनीटर से पास रखे घड़े से पानी का जग मंगवाया और टीचरजी के चेहरे पर छिड़कवाया, तब कहीं जा कर टीचरजी जागे. देखा तो सामने यमदूत से जांच अफसर. पर टीचरजी ठहरे ठूंठ. वे टस से मस न हुए.

जिले से आए जांच अफसर ने उन्हें डांटते हुए कहा, ‘‘हद है, जरा तो शर्म करो. पूरी पगार नहीं, तो कम से कम कुछ पैसा तो इन बच्चों पर खर्च करो.

‘‘अगर आप ऐसे ही अपना स्कूल चलाएंगे, तो ये बच्चे जहां पैदा हुए हैं, बूढ़े हो कर भी वहीं के वहीं रह जाएंगे. ऐसे में ‘सब पढ़ें, सब बढ़ें’ का नारा फेल हो जाएगा.’’

टीचरजी पहले तो सब चुपचाप सुनते रहे, जब बात हद से आगे बढ़ गई, तो वे विनम्र हो कर बोले, ‘‘साहब, गुस्ताखी माफ. दरअसल, मैं इन बच्चों को कुंभकरण के बारे में पढ़ा रहा था. कुंभकरण कैसे सोता था, बस यही इन बच्चों को सो कर दिखा रहा था.

‘‘अब इस गांव में कोई सोने वाला न मिला, तो बच्चों को खुद ही कुरसी पर सो कर बता रहा था कि कुंभकरण इस तरह 6 महीने सोया रहता था, पर आप ने मुझे हफ्तेभर बाद ही जगा दिया.

‘‘अब बच्चे कैसे जानेंगे कि महीने में कितने दिन होते हैं? उन्हें तो लगेगा कि एक दिन का एक महीना होता है.’’

इतना कह कर टीचरजी मुसकराते हुए अपने विरोधी टोले को देखने लगे. जांच अफसर ने टीचरजी की पीठ थपथपाते हुए गांव वालों से कहा, ‘‘हे गांव वालो, तुम धन्य हो, जो तुम ने ऐसा होनहार टीचर पाया.

‘‘इन्होंने किताब में लिखे को सही माने में सच कर दिखाया. महीने में 30 दिन ही होते हैं, आप बच्चों को शान से बताइए. जब तक कुंभकरण की नींद पूरी नहीं होती, तब तक बच्चों के हित में आप भी इस सिस्टम की तरह सो जाइए.

‘‘हमारी सरकार भी सोती ही रहती है. प्रशासन भी सोता रहता है. यहां तक कि अकसर सांसद और विधायक भी होहल्ले के बीच सो रहे होते हैं.

‘‘टीचरजी, हम अभी आप का नाम राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए नौमिनेट करते हैं. अच्छा तो हम चलते हैं.’’

तो सब मिल कर बोलो, ‘आरती कीजै टीचर लला की, स्टूडैंट्स दलन, फेंकू कला की…’

Abuse : बहन शादी नहीं करना चाहती, उसके साथ यौन शोषण हुआ था

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सवाल –

मेरे घर में मुझ से बड़ी एक बहन है जिस की अब शादी की उम्र हो चुकी है और उस के लिए रिश्ते भी आने लगे हैं. जब भी हम घर में उस की शादी की बात करते हैं तो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता और वह शादी की बात से ही मुंह बनाने लगती है. दरअसल, मेरी बहन का एक बौयफ्रेंड था जिस से वह बहुत प्यार करती थी पर मुझे उस लड़के के बारे में कुछ ज्यादा नहीं पता. मुझे पता है कि उन दोनों के बीच कुछ ऐसा हुआ था जिस से कि मेरी बहन को शादी के नाम से ही नफरत हो गई है. दरअसल, उस लड़के ने मेरी बहन का लंबे समय तक दुरुपयोग किया था और उस का यौन शोषण भी किया था जिस वजह से मेरी बहन को अब किसी पर भी विश्वास नहीं होता. उसे ऐसा लगता है कि सारे लड़के एकजैसे होते हैं. मैं उस से इस बारे में खुल कर बात भी नहीं कर पाता क्योंकि आखिरकार है तो वह मेरी बहन ही. कृपया बताइए कि मैं अपनी बहन को शादी के लिए कैसे मनाऊं और उसे कैसे समझाऊं कि सारे लड़के एकजैसे नहीं होते.

जवाब –

आप की और आप की बहन की मनोदशा को समझा जा सकता है. आप की बहन का डर गलत नहीं है. यौन शोषण होना किसी भी लड़की के लिए छोटी बात नहीं होती और वह भी उस लड़के से जिसे उन्होंने इतना प्यार किया हो और उस पर पूरा भरोसा किया हो. यह दिमाग पर बहुत बुरा असर करता है.

आप को अपनी बहन को प्यार से समझाना चाहिए कि उन की जो भी दिक्कत है वह आप से शेयर कर सकती है. आप को अपनी बहन को भरोसा दिलाना होगा कि आप सब उस के भले के लिए ही सोच रहे हैं. अपनी बहन के बैस्ट फ्रैंड बनने की कोशिश करें और उसे विश्वास दिलाएं कि आप जिस से भी उन की शादी कराने की सोच रहे हैं वह एक अच्छा लड़का है और उसे खूब प्यार करेगा.

अपनी बहन को बताएं कि उस की फैमिली उस के लिए कभी गलत नहीं सोच सकती और भविष्य में भी उसे कोई परेशानी हुई तो आप सब उस के साथ खड़े रहेंगे.

आप अपनी बहन का बैस्ट फ्रैंड बनने की कोशिश करें. इस का मतलब यह है कि आप को उन से हर तरीके की बात कर उन की स्थिति समझनी चाहिए. आप उन्हें प्यार से समझाएं कि सैक्सुअली असौल्ट होने का कोई भी असर शरीर पर नहीं होता और वह दिमाग से लड़कों के लिए डर निकाल दें. आप सब उन को एक अच्छा लङका और शरीफ परिवार में भेज रहे हैं, इस बात का विश्वास दिलाना बेहद जरूरी है.

आप अपने घर का माहौल खुशनुमा रखें और अपनी बहन का ध्यान रखें. अपनी बहन की इज्जत करेंगे, ध्यान रखेंगे, दोस्ताना बरताव करेंगे तो जाहिर है कि वह यह सोचने पर मजबूर हो जाएगी कि हर लङके एकजैसे नहीं होते। संभव है कि वह शादी के लिए हामी भर दे.

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Girlfriend का भाई मुझे धमकी दे रहा है, क्‍या करूं

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सवाल –

मैं 22 साल का हूं और एक कालेज में पढ़ता हूं. कालेज में मेरी एक गर्लफ्रैड है जिसे मैं बहुत प्यार करता हूं। वह भी मुझे बेहद प्यार करती है. हम दोनों एकदूसरे के साथ बहुत खुश रहते हैं और ऐसा लगता है जैसे हम एकदूसरे के लिए ही बने हैं. हम दोनों ने एकदूसरे से वादा किया है कि हम शादी करेंगे और मैं ने उस के बारे में अपने पेरैंट्स को भी बताया भी है. लेकिन जब उस के घर में मेरे बारे में पता चला तो पता नहीं क्यों उस के भाई को बिलकुल अच्छा नहीं लगा और उस दिन के बाद से उस का भाई मुझे धमकी देने लगा है कि मैं उसकी बहन से दूर रहूं. मैं अपनी गर्लफ्रैंड को नहीं छोड़ सकता और मैं ने उस के भाई से भी कहा है कि मैं उस की बहन को हमेशा खुश रखूंगा पर वह मानने को तैयार नहीं है. मैं क्या करूं?

जवाब –

यह जहां एक तरफ एक भाई की चिंता है, वहीं दूसरी तरफ आप का अपनी गर्लफ्रैंड के लिए प्यार भी कोई गलत नहीं है. आप दोनों अपनी अपनी जगह बिलकुल ठीक हैं. आप ने बहुत अच्छा किया कि अपने प्यार के बारे में पहले ही अपने घर वालों को बता दिया है. मगर ऐसे में आप को गर्लफ्रैंड के भाई की स्थिति को भी समझना होगा. अगर आप की भी कोई बहन है तो यकीनन आप को भी उस की चिंता रहती होगी.

आप दोनों एकदूसरे के साथ जिंदगीभर रहना चाहते हैं यह बात काफी अच्छी है और आप दोनों बालिग हैं तो कानूनी तौर पर कोई कुछ नहीं कर सकता। आप अपनी गर्लफ्रैंड से कहें कि वह अपने भाई को समझाए कि सिर्फ आप ही नहीं, बल्कि वह भी आप से उतना ही प्यार करती है और आप उस का अच्छे से खयाल रख सकते हैं. एक भाई के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि उस की बहन जिस के साथ भी रहे बस खुश रहे और सेफ रहे.

हां, आप दोनों को इस समय अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि अगर आप अच्छे से पढ़ कर वैल सैटल्ड होंगे तो आप की गर्लफ्रैंड के घर वालों को मनाना मुश्किल नहीं होगा. लड़की के घर वाले बस यह चाहते हैं कि उन की लड़की अपना जीवनसाथी उसे चुने जो अच्छा कमाता हो, उन की बेटी को प्यार करता हो और उन की बेटी के सारे सपनों को हकीकत में बदलने का दम रखता हो.

ध्यान रहे कि प्यार में आप को कोई ऐसा कदम नहीं उठाना है जिस से दोनों घरों की बदनामी हो और आपकी गर्लफ्रैंड के घर वालों ने अगर मानना भी हो वे तब भी न मानें. जैसे आप ने अपने गर्लफ्रैंड के दिल में अपनी जगह बनाई है ठीक उसी तरह उस के घर वालों के दिलों में भी अपनी जगह बनाएं.

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short story : कलकत्ता गए बलम

बालम, कलकत्ता और गोरी का बहुत ही गहरा रिश्ता है. गोरी परेशान है. उस की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा हुआ है… यह सोचसोच कर कि बालम का काम बारबार कलकत्ता में ही क्यों होता है? चलो मान लिया काम होता भी है तो पूरे दफ्तर में अकेले उसी के बालम रह गए हैं क्या, जिन्हें बारबार कलकत्ता भेज दिया जाता है? बालमजी भी इतना खुश हो कर कलकत्ता ही क्यों जाते हैं जबकि देश

के मानचित्र पर अनेक शहर हैं. फिर कलकत्ता में ऐसी कौन सी डोर बंधी है जो गोरी के बालम को खींच रही है और बालम भी गोरी के लटकेझटके, नाजनखरे, प्यारमुहब्बत सब बिसार कर उधर ही खिंचे चले जाते हैं?

गोरी विरह की आग में जल रही है, ऊपर से बरसात उस की इस आग को ठीक उसी तरह भड़काने का काम कर रही है जैसे होम में घी करता है. गोरी के दिल से फिल्मी गाने के ये बोल निकल रहे हैं, ‘हायहाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी…’

पर न तो कोई गोरी की हालत समझ रहा है, न ही उस का गीत सुन रहा है. गोरी के दिल का बोझ बढ़ता गया और आखिरकार उस ने अपनी पीड़ा हमउम्र सखियों को बताई. उस की पीड़ा सुन कर सखियां भी उदास हो गईं. एक बोली, ‘‘रे सखी, कहीं तेरे बालम का दिल वहां की किसी सांवलीसलोनी पर तो नहीं आ गया है?’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता. हमारी इतनी प्यारी सखी को छोड़ कहीं नहीं जाएगा जीजा,’’ दूसरी सखी डपटते हुए बोली. तभी तीसरी सखी बोली, ‘‘अरी, हम ने तो सुना है कि वहां की औरतें काला जादू जानती हैं और मर्दों को अपने बस में कर लेती हैं?’’

‘‘हां री, मैं ने भी बचपन में अपनी दादी से यही सुना था कि जो भी मरद कलकत्ता गए वे कभी न लौटे. फिर वहां की लुगाइयां मर्दों को भेड़बकरा या तोता कुछ भी बना डालती हैं जादू से और अपने यहां पालती हैं. उन की लुगाइयां बेचारी ऐसी ही जिंदगीभर इंतजार करती हैं उन का,’’ एक सखी ने उस में जोड़ा. ‘‘हां री, मैं ने भी सुना है यह तो… कलकत्ता गए मर्द कभी न आते वापस.’’

‘‘ऐसा हुआ तो हम कहां जाएंगे?’’ गोरी का कलेजा बैठने लगा, बहुत कोशिश कर के भी खुद को रोक न पाई और बुक्का फाड़ कर रो पड़ी, ‘‘हाय रे, मैं क्या करूं, कहां जाऊंगी मैं. कहीं वे भेड़बकरा बन गए तो मेरे किस काम के रह जाएंगे… एक तो पहले ही शक्ल बकरे जैसी थी, ऊपर से जादू से बकरा बना ही दिया तो कहां रखूंगी मैं उन्हें.’’ सारी सखियां उस की बातों पर हंसने लगीं. सभी सखियां मिल कर गोरी को चुप कराने लगीं, ‘अरी, रो मत. हम तो तुझ से मजाक कर रही थीं… यह सच नहीं है. ऐसा कुछ नहीं होता… जीजा बहुत जल्द आ जाएंगे,’ और उसे समझाबुझा कर घर भेज दिया.

गोरी घर तो आ गई, पर उस के मन का बोझ कई गुना बढ़ गया था. वह मन ही मन समझ रही थी कि जो बातें सखियों ने कहीं, वे झूठ नहीं थीं, क्योंकि उस ने भी वैसी बातें सुन रखी थीं… पर उस का बालम तो नहीं सुनता. इस बार तो कई महीनों से वापस नहीं आया. उसे अचानक याद आया कि उस का बालम कई बार कह भी चुका है कि कलकत्ता की लुगाइयां बड़ी सलोनी होती हैं. वह पहले क्यों न समझी. गोरी की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया. पर यह बालम भी कैसा बेदर्द है. वह एक फोन तक नहीं कर रहा उस से बात करने को… बताओ, उस फिल्मी हीरोइन के बालम ने तो रंगून से भी फोन किया था कि तुम्हारी याद सताती है… और यह मेरा बालम है जो कलकत्ता से भी फोन नहीं कर रहा.

ऊपर से दिनभर सास के ताने सुनने को मिलते हैं, ‘‘ये आजकल की लड़कियां भी बिना खसम के रह ही न सकें, जाने काहे की आग लगी है? हम भी तो कभी जवान थे. हमारे वे तो 6-6 महीने के लिए परदेश जाते थे कमाने को… हम ने तो यों आंसू न बहाए थे… पूरे घर के काम और करे थे. ‘‘मर्द और बैल कभी खूंटा से बांध के रखे जाते हैं भला. उन्हें तो काम करना ही पड़ेगा तभी तो पेट भरेंगे सब का.’’

गोरी बेचारी चुपचाप ताने सुनसुन कर घर के काम कर रही थी. वैसे भी हमारी बहुओं में चुप रहने की आदत होती है. उस ने ठान लिया था कि इस बार बालम बस वापस आ जाएं, फिर उन्हें कहीं भी जाने देगी, पर कलकत्ता नहीं जाने देगी, चाहे कुछ भी हो जाए. वह अपने पति के रास्ते को वैसे ही रोकेगी जैसे गोपियों ने उद्धव का रथ रोका था जब वे कान्हा को ले कर मथुरा जा रहे थे.

उस दिन सुबहसुबह सचमुच आहट हुई और दरवाजे पर बालम को देख गोरी खुशी में पति से ऐसे लिपट गई मानो चंदन के पेड़ पर सांप लिपटे हों. वह तो ऐसे ही लिपटी रहती अगर सास ने सुमधुर आवाज में उस के पूरे खानदान की आरती न उतारी होती. गालियों की बौछारों ने उस के अंदर से फूटे प्रेम के झरने को बहने से तुरंत रोक दिया.

गोरी ने अपनी भावनाओं को रोका और चुपचाप अपने कामों में जुट गई. भले ही उस की आंखें बालम पर टिकी थीं. आखिरकार इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं और गोरी का बालम से मिलन हुआ. पर यह मिलन स्थायी तो नहीं था… गोरी के दिल में हरदम डर लगा रहता, बालम फिर से न कहें कलकत्ता जाने की. गोरी अपने बालम की हर इच्छा का खयाल रखती ताकि उसे जाने की याद न आए. वह प्यारमनुहार से बालम के दिल को टटोलने की कोशिश कर रही थी जिस की डोर का एक सिरा कलकत्ता में बंधा तो है, पर किस से? पर अब तक कामयाब न हो सकी. सो बालम के प्रेम में मगन हो गई.

अभी कुछ ही दिन प्रेम की नदी में डुबकियां लगाते बीते थे कि बालमजी ने फिर कलकत्ता का राग अलापा. इधर उन का अलाप शुरू हुआ… उधर गोरी ने ऐसा रुदन शुरू किया कि बालम के स्वर हिलने लगे. गोरी जमीन में लोटपोट हो कर दहाड़ें मार रही थी… बालम बेचारा हैरानपरेशान उसे जितना चुप कराने की कोशिश करता, गोरी उतनी ही तेज आवाज में अपना रोना शुरू कर देती. सारा घर, सारा महल्ला इकट्ठा हो गया.

सासू ने भी अपने चिरपरिचित अंदाज में गोरी को चुप होने का आदेश दिया, पर आज तो गोरी ने उन की भी न सुनी. उस का रैकौर्डर एक ही जगह फंस गया था कि इस बार बालम को कलकत्ता नहीं जाने दूंगी. जितने लोग उतने उपाय. कोई कहे इस पर भूतनी आ गई है, इसे तांत्रिक बाबा के पास ले चलो… कोई चप्पल सुंघाने की सलाह दे रहा था… कोई कह रहा था कि इस के खसम का किसी कलकत्ते वाली से टांका भिड़ा है. उस के बारे में गोरी को पता लग गया है इसलिए इतना फैल रही है. बालम बेचारा अपने माथे पर हाथ धर के बैठ गया. सब मिल कर गोरी से जानने की कोशिश कर रहे थे कि ऐसी क्या वजह है कि वह अपने बालम को कलकत्ता नहीं जाने देना चाहती.

पर गोरी पर तो जैसे सच्ची में भूत सवार था. वह दहाड़ें मारमार कर रोए जा रही थी और कलकत्ता पर गालियां बरसा रही थी. यह नाटक और कई घंटे चलता, पर इतने में किसी ने पुलिस को फोन कर दिया. कुछ देर तक तो पुलिस के सामने भी यह नाटक चालू रहा, पर फिर दरोगाजी ने डंडा फटकार कर कहा, ‘‘इस को, इस की सास को और पति को ले चलो और जेल में डाल दो. सारा सच सामने आ जाएगा…’’

जेल का नाम सुनते ही गोरी के रोने पर झटके से ब्रेक लग गया. वह एक सांस में बोली, ‘‘हमें न भेजना अपने बालम को कलकत्ता, वहां की औरतें काला जादू जानती हैं, इसे जादू से बकरा बना कर अपने घर में बांध लेंगी, फिर हमारा क्या होगा?’’ और गोरी फिर से रोने लगी. गोरी की बात सुन कर बाकी लोग हंसने लगे. गोरी रोना बंद कर मुंहबाए सब को देखने लगी… उस ने देखा कि बालम भी हंस रहा है… ‘‘धत पगली, ऐसा किस ने कह दिया तुम से. इस जमाने में ऐसी कहानी कहां से सुन ली…’’ बालम ने उसे मीठी फटकार लगाई.

‘‘मैं ने बचपन में सुना था ऐसा, जो भी बालम कलकत्ता जाते, कभी वापस नहीं आते और मेरी सब सखियों ने भी तो ऐसा ही कहा,’’ गोरी ने बताया. अब सासूजी बोलीं, ‘‘ये कौन सी सखियां हैं तेरी… मुझे बता, मैं खबर लूं उन की. बताओ छोरी का दिमाग खराब कर के धर दिया… कोई भी लुगाई यह सुनेगी, उस बेचारी का कलेजा तो धसक ही जाएगा…

‘‘चल, अब तू भीतर चल. कहीं न जाएगा तेरा बालम… और तुम सब भी अपनेअपने घर को जाओ. यहां कोई मेला थोड़े ही न लगा है.’’ सब अपने रास्ते चल दिए और दारोगाजी भी हंसते हुए वापस चले गए. आखिर गोरी की जीत जो हो गई थी. उस के बालम बकरा बनने से बच जो गए थे.

 

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