न दहेज न बैंडबाजा और हो गई शादी

राजपूत समाज की एक शादी में दूल्हे और उस के परिवार ने टीके की रस्म में सवा लाख रुपए लेने से साफ इनकार कर दिया. शगुन का सिर्फ एक रुपया ही स्वीकार किया.

जोधा परिवार ढिमडा बेरा भांवता, अजमेर के रहने वाले अजय सिंह राठौड़ की शादी थी. उन की बरात टोंक जिले की निवाई तहसील के गांव माताजी का भूरटिया के रहने वाले चतर सिंह राजावत के घर गई, जहां उन की शादी कविता कंवर के साथ हुई.

इस दौरान जब टीके  की रस्म शुरू हुई तो दुलहन के पिता ने थाल में नोटों की गड्डियां रख कर दूल्हे की तरफ बढ़ाया. यह देख अजय ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘मैं यह पैसा नहीं ले सकता. हमारे लिए तो दुलहन ही दहेज है. देना ही है तो एक रुपया शगुन के तौर पर दे दें.’

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दुलहन पक्ष के लोगों ने काफी समझाया, लेकिन दूल्हा अपनी बात पर अडिग रहा. उस ने भारीभरकम रकम के बजाय एक रुपए का सिक्का ही टीके के शगुन के तौर पर लिया.

दूल्हे की ऐसी पहल को देख कर शादी में आए हर किसी ने उस की तारीफ की.

दूल्हे के पिता कमलेश सिंह राठौड़ ने बताया कि हर लड़की को उस के मातापिता पढ़ालिखा कर बड़ा करते हैं. शादी में उन्हें दहेज की चिंता भी सताती है. लेकिन एक पिता जब अपनी बेटी को ही दे देता है तो इस से बढ़ कर और क्या चाहिए?

दूल्हे के पिता की यह बात सुन कर दुलहन के पिता चतर सिंह राजावत की आंखों में आंसू भर आए. उन्होंने कहा कि वे बेटी की शादी में टीके के तौर पर सवा लाख रुपए देने को तैयार थे, मगर समधीजी ने यह रकम न ले कर बड़प्पन दिखाया है. यह समाज के लिए अच्छा संदेश है. ऐसा दामाद और ससुर पा कर उन का सीना गर्व से चौड़ा हो गया.

देश में जहां एक तरफ लोग अपनी बेटियों की शादी में लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च कर के गरीब लड़कियों के परिवार वालों के सामने तमाम मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ राजपूत समाज के अजय सिंह राठौड़ ने शादी के मंडप का सामाजिक जागरूकता के लिए इस्तेमाल कर के समाज में एक बेहतरीन मिसाल पेश की है.

दरअसल, ‘5 लाख लड़कियां हर साल मां के पेट में मार दी जाती हैं सिर्फ दहेज की वजह से’ और ‘दहेज की कमी की वजह से लड़कियों की शादी न हो पाना’ जैसी सामाजिक हकीकत अजय सिंह राठौड़ और उन के पिता को काफी दिनों से बेचैन कर रही थी, इसलिए दहेज प्रथा के खिलाफ बिना दहेज और फुजूलखर्ची किए सादगी से शादी की और समाज में एक मिसाल कायम की.

अजय सिंह राठौड़ बताते हैं कि अपने आसपास मौजूद तमाम लोगों को देखासुना करते थे जो लैंगिक बराबरी और सुधार की बातें हमेशा करते थे, लेकिन सुधार की पहल खुद से करने में कतराते थे. लेकिन पिताजी की प्रेरणा से उन में बराबरी की समझ पैदा हुई और इस सादा शादी के जरीए दहेज जैसी सामाजिक बुराई के प्रति जागरूकता फैलाने की कोशिश की गई.

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फेरों में लिया जिम्मा

हर किसी के लिए शादी उस का यादगार पल होता है, इसलिए उसे और ज्यादा यादगार बनाने के लिए कुछ न कुछ अलग किया जाता है. कुछ शादी के नाम पर लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च करना अपनी शान समझते हैं तो कुछ दहेज को समाज में शाप समझते हुए इस प्रथा को खत्म करने के लिए शादी में शगुन में बतौर एक रुपया स्वीकार कर रहे हैं.

ऐसा ही एक नजारा मंड्रेला कसबे में संचालित एक निजी स्कूल रुक्मिणी देवी विद्या पीठ के डायरैक्टर व फौजी रह चुके तेजाराम बड़सरा के डाक्टर बेटे विकास बड़सरा की शादी में देखने को मिला, जब उन्होंने दहेज न लेते हुए इलाके की 11 जरूरतमंद लड़कियों की पढ़ाईलिखाई का जिम्मा लिया.

मंड्रेला कसबे के नजदीक गांव सूखा का बांस, जिला चूरू के राजकीय सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी डाक्टर विकास बड़सरा की शादी चिड़ावा की डाक्टर रुचिका के साथ हुई.

शादी में दूल्हे के पिता तेजाराम बड़सरा ने वर्तमान समय में दिनोंदिन बढ़ रही दहेज प्रथा के खिलाफ समाज को सही संदेश देने के लिए शगुन का एक रुपया ले कर अच्छा संदेश दिया.

तेजाराम बड़सरा ने बताया कि उन का परिवार शुरू से ही सामाजिक सरोकारों को निभाने में विश्वास रखने वाला रहा है. दहेज प्रथा एक सामाजिक बुराई के रूप में उभर रही है, ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हर किसी को अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से निभाते हुए इस गलत प्रथा की खिलाफत करनी चाहिए.

डाक्टर विकास बड़सरा व डाक्टर रुचिका ने बताया कि उन्होंने सात फेरों के साथ ही ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की शपथ ली है. इस के तहत वे क्षेत्र की 11 जरूरतमंद बालिकाओं को गोद ले कर उन की पढ़ाईलिखाई का खर्चा उठाएंगे. उन की इस पहल की क्षेत्र के लोगों ने तारीफ की.

सीकर जिले की फतेहपुर तहसील के भींचरी गांव में महज एक रुपए में हुई शादी का असर भी तुरंत देखा गया. शादी में आए 2 और लोगों ने अपने बच्चों की शादी महज एक रुपए में करने का वादा करते हुए वहीं पर सगाई पक्की कर दी.

मुंशी खां बेसवा ने बताया कि बेसवा के रोशन खां के बेटे शमीर खान का निकाह भींचरी के इसहाक खान की बेटी अफसाना के साथ हुआ. निकाह में सिर्फ एक रुपया नेग दिया गया और दुलहन को मात्र एक जोड़ी कपड़ों में ही विदा किया. दोनों ही परिवारों द्वारा शादी का कार्ड भी नहीं छपवाया गया और न ही खाने का आयोजन किया गया. इस निकाह की बेसवा, भींचरी, आलमास, भगासरा समेत आसपास के कायमखानी समाज के लोगों ने तारीफ की.

कायमखानी समाज में शादी में डीजे बंद करने, सादगी से शादी करने और दूसरी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कायमखानी यूथ बिग्रेड सीकर के कार्यकर्ता इस जिले में एक साल से काम कर हैं और उन की मुहिम अब रंग ला रही है. एक साल की कोशिशों के बाद कायमखानी समाज के लोग डीजे और दहेज के बिना सादगी से शादी के लिए राजी हो रहे हैं.

बेसवा गांव से भींचरी गांव में बरात बेहद सादगी से की गई थी. शादी में शामिल सभी लोग अपने वाहनों से ही भींचरी आए.

दूल्हा पक्ष द्वारा एक भी वाहन का इस्तेमाल नहीं किया गया था. बरात में डीजे या बैंडबाजा नहीं था. फोटोग्राफर को भी नहीं बुलाया गया. बरातियों को सिर्फ चाय पिलाई गई.

दूल्हे के पिता रोशन खान ने तो चाय के लिए भी मना कर दिया था. लेकिन दुलहन के पिता ने कहा कि चाय तो आदरसत्कार के लिए है.

न बराती, न बैंडबाजा

पिलानी के वार्ड 2 में रहने वाले रतनलाल रोहिल्ला ने 28 साल पहले बिना बैंडबाजा और बराती के शादी की थी. बिलकुल इसी तरीके से अपने बेटे रोहित की शादी कर मिसाल पेश की.

रतनलाल का कहना है कि शादी में गैरजरूरी खर्चा व समय की बरबादी को ले कर यह फैसला लिया गया. बेटे के लिए लड़की के नेगचार के लिए घर वालों और रिश्तेदारों के साथ कसबे के वार्ड 24 में आए थे.

नेहरू बाल मंदिर स्कूल में अध्यापक के पद पर काम कर रहे पवन कुमार दर्जी की बेटी सीमा के नेगचार के लिए पहुंचे. वर पक्ष ने इसी दिन सादगी के साथ शादी किए जाने का प्रस्ताव रख दिया. पवन कुमार के अलावा उन के चाचा रामकुमार दर्जी, डाक्टर आनंद, डाक्टर लक्ष्मण, मनीराम, लूनकरण वर्मा, चानण वगैरह ने प्रस्ताव मान लिया और शादी की तैयारी में जुट गए.

अचानक लिए गए इस फैसले और वरवधू पक्ष की रजामंदी से शादी हो गई. शाम को वरमाला के साथसाथ सात फेरे की रस्म भी पूरी की गई. मेहमान भी बहुत कम रहे. दहेज भी नहीं लिया गया. लोगों ने इस पहल की तारीफ भी की.

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महल्ले के प्रमुख पीडी जांगिड़ ने बताया कि दोनों परिवारों ने आज के जमाने को देखते हुए एक मिसाल कायम की है. महल्ले वाले न केवल हैरान हैं, बल्कि खुश भी हैं.

गौरतलब है कि दुलहन सीमा एमएससी कर चुकी है. दूल्हे रोहित ने दिल्ली, हल्द्वानी, मसूरी में स्किल डवलपमैंट का औफिस खोल रखा है. सात फेरों के लिए न मंडप, न ही पंडित, न घोड़ी और न ही कोई बैंडबाजा.

दुर्गादास कालोनी, सीकर में हुई इस अनूठी शादी को देख कर हर कोई हैरत में था. हर कोई यही कहता दिखा कि अगर सभी जगह ऐसा होने लगे तो दहेज के चलते न किसी की बेटी जलेगी और न ही किसी बहू को शर्मिंदा होना पड़ेगा.

शादी के गवाह बने लोगों ने इस के बाद दुलहन आनंद कंवर शेखावत व दूल्हे दीपेंद्र सिंह सहित इन दोनों के पिता उम्मेद सिंह व जीवण सिंह को शाबाशी भी दी कि दोनों परिवारों के इस अनूठे संकल्प से केवल 17 हजार रुपए में शादी हो गई, वरना दोनों परिवारों के लाखों रुपए दिखावे में खर्च हो जाते.

सामाजिक मंचों से भी आ रही जागरूकता अलवर जिले के अकबरपुर गांव में दहेज की फुजूलखर्ची के विरोध में पंचायत की गई. पंचायत में लोगों ने शादियों में बैंडबाजा, आतिशबाजी, महंगी गाड़ी वगैरह पर रोक लगाने का फैसला किया. अगर कोई इस नियम को तोड़ेगा तो उस का हुक्कापानी बंद कर दिया जाएगा.

ओमकार सिंह ने कहा कि दहेज प्रथा खत्म करने और फुजूलखर्ची पर रोक लगाने के लिए गुर्जर समाज में मुहिम चलाई जा रही है. दिखावे के चलते गरीब लोगों को अपनी बेटियों की शादी में दिक्कतें आ रही हैं. कुछ लोग दहेज देने से बचने के लिए बच्चियों की भू्रूण हत्या भी करा रहे हैं.

पंचायत में मौजूद पूर्व जिला पंचायत सदस्य रवींद्र भाटी ने कहा कि गुर्जर समाज में शादियों में दहेज के चलते फुजूलखर्ची बेहिसाब बढ़ गई है. समाज में लोग जमीन कब्जे के बदले मिले मुआवजे को बैंडबाजे, आतिशबाजी, महंगे टैंट, महंगी गाड़ी वगैरह पर लुटा रहे हैं.

पंचायत में फैसला किया गया है कि जो दहेज विरोधी फैसलों को नहीं मानेगा, उस का गुर्जर समाज बहिष्कार करेगा. साथ ही, गांव में दहेज की शादी भी नहीं होने देंगे.

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सोशल मीडिया कुंठित लोगों का खतरनाक नशा

सोशल मीडिया की बात हो और फेसबुक का नाम न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता. वैसे तो मार्क जुकरबर्ग ने इसे अपनों से जुड़े रहने के लिए, उन का हालचाल लेने के लिए बनाया था, पर जैसे ही यह दुनियाभर में मशहूर हुआ और लोग खासकर भारत के लोग थोक के भाव में इस से जुड़ने लगे तो यह चंदू चाय वाले का वह अड्डा बन गया जहां नकारा, निकम्मे और कुंठित लोगों ने जम कर अपनी भड़ास निकालनी शुरू कर दी. अब तो उन की भाषा भी इतनी फूहड़ हो गई है कि वे किसी की भी मांबहन एक करने में पीछे नहीं रहते हैं.

बानगी देखिए : नैशनल लैवल के एक कांग्रेसी नेता ने कहा, ‘भाजपा गाय के लिए पूरे देश को बरबाद कर रही है.’

किसी ने चुटकी ली, ‘भाई, तुम भी तो गधे के लिए पूरे देश को बरबाद करने पर तुले हो.’

इसी तरह किसी नेता ने हालिया सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल पूछा कि वायु सेना ने पेड़ पर बम गिराए या आतंकियों पर? तो किसी ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा कि बम चाहे जहां भी गिरा हो, पर धुआं तुम्हारे पिछवाड़े से काहे निकल रहा है?

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पाकिस्तान के साथ हुई तनातनी और उस के बाद पाकिस्तान के साथ कारोबार में कटौती करने के गंभीर नतीजों को नजरअंदाज करते हुए किसी मसखरे ने फेसबुक पर पोस्ट डाली, ‘भारत के लड़के फेसबुक पर टमाटर की डीपी लगा कर पाकिस्तानी लड़कियों से सैटिंग कर रहे हैं… सुधर जाओ कमीनो.’

फेसबुक से जुड़ा एक कड़वा सच और भी है कि पूरी दुनिया में इस के सब से ज्यादा ऐक्टिव यूजर्स यानी इस्तेमाल करने वाले लोग भारत में हैं. उन में से बहुत से तो इस में सिर्फ अपने दिमाग में भरा कचरा परोस रहे हैं. उन्हीं कुंठित लोगों से परेशान मार्क जुकरबर्ग के माथे पर अब चिंता की लकीरें साफ दिखाई देती हैं. इस से उन को मिलने वाले इश्तिहारों में भी भारी कमी आई है.

लिहाजा, मार्क जुकरबर्ग फेसबुक में बड़ा बदलाव करने जा रहे हैं. वे लोगों को सार्वजनिक मेलजोल की जगह निजी बातचीत की तरफ मुड़ने के लिए बढ़ावा देंगे. इस से फेसबुक पर आप के पोस्ट, मैसेज वगैरह बहुत ही सीमित लोगों तक पहुंचेंगे.

फेसबुक पर लग रहे निजता हनन और डाटा चोरी के आरोपों के बीच मार्क जुकरबर्ग का कहना है कि इस बदलाव से यूजर की निजता तय होगी. फेसबुक को ‘डिजिटल लिविंग रूम’ बनाने की बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘नए बदलाव के तहत यूजर ऐसे ही लोगों के साथ अपने पोस्ट साझा करेंगे जिन्हें वे अच्छी तरह जानते हैं.’

फेसबुक द्वारा इतना बड़े और कड़े कदम उठाने की एक सामाजिक वजह भी है. वह यह है कि बहुत से लोग फर्जी अकाउंट बना कर दूसरों को ठगने लगे हैं. इन्हें ‘क्लोन अकाउंट’ कहा जाता है, जहां यह नहीं पता चलता है कि सामने वाला असल में कौन है.

उत्तर प्रदेश के बरेली की ही एक मिसाल लेते हैं. वहां साल 2018 में सोशल मीडिया पर खूब जहर उगला गया. किसी की फेसबुक आईडी हैक कर उस में बेहूदा वीडियो क्लिप डाल दी गई तो किसी के साथ गालीगलौज की गई. आम जनता ही नहीं, देश के प्रधानमंत्री तक के खिलाफ ऊलजुलूल बातें की गईं.

हमारे देश में बहुत से लोग तो सैक्स को ले कर कुंठित रहते हैं. अगर वे किसी लड़की को अपना दोस्त नहीं बना पाते हैं तो सोशल मीडिया पर फर्जी अकाउंट बना कर किसी अनजान लड़की की इज्जत की धज्जियां उड़ाने से भी बाज नहीं आते हैं.

उत्तर प्रदेश में बस्ती के लालगंज थाना क्षेत्र की रहने वाली एक लड़की ने फेसबुक पर अपना अकाउंट बना रखा था. उसे फेसबुक पर ही किसी सोनिया नाम की लड़की की फ्रैंड रिक्वैस्ट आई. सोनिया को लड़की समझ कर उसे फ्रैंड बना लिया गया, जबकि किसी लड़के ने सोनिया के नाम से फर्जी अकाउंट बनाया था और फिर फोटोशौप की मदद से उस लड़की के फोटो को अश्लील बना कर वायरल कर दिया.

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इसी तरह ह्वाट्सएप भी सोशल मीडिया का एक ऐसा प्लेटफार्म है जहां इस को इस्तेमाल करने वालों का बहुत बड़ा जमावड़ा है.

आंकड़ों की मानें तो भारत की सवा अरब आबादी में से तकरीबन 70 करोड़ लोगों के पास फोन हैं. इन में से 25 करोड़ लोगों की जेब में स्मार्टफोन हैं. साढ़े 15 करोड़ लोग हर महीने फेसबुक पर आते हैं और 16 करोड़ लोग हर महीने ह्वाट्सएप पर अपनी उंगलियों का कमाल दिखाते हैं.

मौजूदा सरकार की धर्मनिरपेक्षता पर उंगली उठाने या ‘भारत में अब डर लगता है’ कहने की हिम्मत करने वालों को बहुत से लोग देश का सब से बड़ा दुश्मन समझते हैं.

हाल ही में इस मुद्दे पर किसी ने ह्वाट्सएप पर मैसेज कर दिया था कि ‘भारत में डर महसूस करने वाले अमेरिका घूम आएं, क्योंकि वहां एयरपोर्ट पर चड्डी उतार कर सारा डर दूर कर दिया जाता है.’

अभी उत्तर प्रदेश में भाजपा के एक सांसद और विधायक के बीच हुई लड़ाई को भी महिमामंडित कर दिया गया. किसी ने तो शेर ही लिख डाला, ‘इतना तो मजनू भी नहीं पिटा था लैला के प्यार में, जितना विधायकजी पिट गए अपनी सरकार में.’

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को तो जैसे चुटकुले की टकसाल ही बना दिया गया है. मामला चाहे किसी से भी जुड़ा हो, उन को बेवजह बीच में घसीट दिया जाता है. अगर कोई उन के हक में कुछ बोल दे तो फिर बवाल सा मच जाता है.

हाल ही में ह्वाट्सएप पर किसी ने पोस्ट डाली थी, ‘दुनिया में 3 काम बहुत मुश्किल हैं…पहला हाथी को गोद में लेना, दूसरा चींटी को नहलाना और तीसरा केजरीवाल के चमचों को समझाना.’

सोशल मीडिया के सब से गलत इस्तेमाल के चलते हमारे रिश्तों में दरार आ रही है. नई पीढ़ी के इश्कबाज एकदूसरे से ज्यादा इस बात पर यकीन करते हैं कि सामने वाला ह्वाट्सएप पर किस के साथ कैसी बातें कर रहा है.

अब चूंकि स्मार्टफोन में तरहतरह के लौक आ गए हैं, पासवर्ड बन गए हैं तो अपनी सीक्रेट बातें अपनों से छिपाना आसान हो गया है.

मैं ने मैट्रो में कई बार देखा है कि स्कूलकालेज के तथाकथित प्रेमी जोड़े एकदूसरे के स्मार्टफोन में उन की दूसरों के साथ की गई चैटिंग खंगालते रहते हैं.

मजे की बात तो यह है कि अगर वे दूर हैं और फोन पर बतिया रहे हैं तो थोड़ा सा शक होते ही एकदूसरे की ह्वाटसएप की चैटिंग के स्क्रीनशौट तक मांग लेते हैं.

बहुत से प्रेमी जोड़े तो मौका मिलते ही सिर्फ मस्ती के लिए सैक्स करते वीडियो तक बना लेते हैं जो उन की लड़ाई या ब्रेकअप के बाद वायरल कर दिए जाते हैं. लड़के ऐसे वीडियो को ब्लैकमेलिंग के लिए भी इस्तेमाल करते हैं.

कई बार तो अपनी किसी सैक्स कुंठा को निकालने के लिए लड़कियां खुद अकेले में कभी नहाते हुए तो कभी कपड़े बदलते हुए वीडियो बना लेती हैं और उन्हें खुद ही वायरल कर देती हैं.

इस तरह का खुद से ही बेहूदा मजाक करने का यह कैसा अजीब दौर है? हम महाशक्ति बनने की राह पर हैं या दुनिया को बताना चाहते हैं कि हम से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं है?

चलो, मान लेते हैं कि राजनीति से जुड़े लोग ऐसी फालतू बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं, पर अब तो लोग सोशल मीडिया पर इस तरह का जहर उगलने लगे हैं कि बहुतों की रिश्तेदारी और दोस्ती भी दांव पर लगने लगी है.

इतना ही नहीं, जातिवाद का अजगर भी रोजाना अपना आकार बढ़ा रहा है. किसी सिरफिरे ने पोस्ट कर दिया, ‘गणेश के सिर से भी हाथी को हटाया जाए, इस से बहुजन समाज पार्टी का प्रचार होता है.’

एक बड़े दैनिक अखबार ने सोशल मीडिया पर वायरल होती तसवीरों की पड़ताल की थी कि किस तरह झूठ को सच बनाने की कोशिश की गई थी. उन तसवीरों में यह कह कर प्रचार किया गया था कि इस बार महाशिवरात्रि पर इंदौर में कुछ मुसलिम औरतों ने कांवड़ उठाई थी. उस के बाद तो उन्हें बधाई देने का सिलसिला शुरू हो गया जबकि हकीकत तो यह थी कि वे तसवीरें साल 2015 की थीं और उन का इस बार की महाशिवरात्रि से कोई लेनादेना नहीं था.

ऐसे कुंठित लोगों का कोई ईमान नहीं होता है. वे सोशल मीडिया के ही शेर होते हैं. ऐसे लोग मस्तीमस्ती में कुछ भी ऊटपटांग पोस्ट कर देते हैं जिस का कभीकभार बड़ा भयानक नतीजा भी सामने आता है. लोगों की इन्हीं बेवकूफियों के चलते सरकार सोशल मीडिया को ले कर सख्त हो जाती है.

संवेदनशील मुद्दे पर तो इस के इस्तेमाल पर ही बैन लगा दिया जाता है. जम्मूकश्मीर में सेना और जनता के बीच तनाव और महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश का किसान आंदोलन इस के जीतेजागते उदाहरण हैं.

लोगों के इस तरह कुंठित होने की एक सब से बड़ी वजह यह भी है कि अब लोग जानकारी देने वाली किताबों और अच्छी पत्रिकाओं से दूर भागने लगे हैं. जब वे अपनी पढ़ाई की किताबों पर ही ढंग से ध्यान नहीं देते हैं तो फिर अच्छे साहित्य को किस हाथ से छुएंगे?

आज मोबाइल फोन में बसी सोशल मीडिया की यह जो आभासी दुनिया है वह ज्यादातर लोगों के लिए ऐसा नशा बन चुकी है जो उन्हें एड्स की तरह धीरेधीरे खोखला कर रही है.

इस लत से समय रहते पीछा छुड़ा लीजिए वरना किसी दिन (माफ कीजिए, सोशल मीडिया की ही जबान में) आप के पिछवाड़े से धुआं निकलेगा और आप को पता तक नहीं चलेगा.

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सोशल मीडिया पर इन चीजों से बचें

इस मायावी संसार की सब से बड़ी दिक्कत यह है कि इस ने हमें विचारों से तानाशाह बना दिया है. अगर सामने वाला अपनी घटिया जबान से आप पर खांसता है तो आप उस पर पूरी उलटी ही कर देते हैं. लेकिन खुद पर लगाम लगाना भी हमारे ही हाथ में है.

याद रखें कि हम सोशल मीडिया पर कोई खबर नहीं, बल्कि जानकारी पढ़ या देख रहे होते हैं जिस का कोई पुख्ता सुबूत हो, यह जरूरी नहीं है इसलिए किसी भी तरह की नैगेटिविटी या नफरत फैलाने वाली बातों से बचें.

किसी ने कोई बात कही तो जरूरी नहीं है कि आप उस का जवाब दें. बहुत से लोग जानबूझ कर उकसाने वाली बात कहते हैं, उन को नजरअंदाज कर दें. धर्म, जातिवाद, देश या समाज की रक्षा का ठेका न लें. इस से कभी आप बड़ी मुसीबत में फंस सकते हैं.

जब तक जानकारी न हो, किसी के मैसेज को फौरवर्ड न करें. किसी के पेज को लाइक न करें. इस से आप या आप के दोस्त ठगी का शिकार हो सकते हैं.

सब से अक्लमंदी की बात यह है कि अपनी भाषा पर काबू रखें. गाली देने से तो एकदम बचें.

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बुजुर्गों की सेवा फायदे का सौदा

भारत में 10 करोड़ से भी ज्यादा बुजुर्ग हैं और साल 2050 तक इन की तादाद साढ़े 32 करोड़ हो जाने की उम्मीद है जो कुल आजादी का तकरीबन 20 फीसदी है.

मिनिस्ट्री फौर स्टैटिस्टिक्स ऐंड प्रोग्राम इंप्लीमैंटेशन द्वारा साल 2016 में दी गई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 10 करोड़, 39 लाख बुजुर्ग हैं जिन की उम्र 60 साल से ऊपर है. ये कुल आबादी का तकरीबन 8.5 फीसदी हैं.

एआईएससीसीओएन के 2015-16 के सर्वे के मुताबिक, अपने परिवार के साथ रह रहे 60 फीसदी बुजुर्गों को गालीगलौज व मारपीट तक सहनी पड़ती है, जबकि 39 फीसदी बुजुर्ग अकेले ही रहना पसंद करते हैं.

हैल्पएज इंडिया द्वारा देश के 19 छोटेबड़े शहरों में 4,500 से ज्यादा बुजुर्गों पर किए एक सर्वे के मुताबिक, 44 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि सार्वजनिक जगहों पर उन के साथ बुरा सुलूक होता है, वहीं 53 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि समाज उन के साथ भेदभाव करता है. ढलती उम्र, धीरेधीरे काम करने और ऊंचा सुनने की वजह से लोग उन से रूखा बरताव करते हैं.

सेवा करें मेवा मिलेगा

आमतौर पर इस मतलबी दुनिया में बुजुर्गों के पास अपनों का ही साथ नहीं होता, पर रुपएपैसों के मामले में उन का दबदबा रहता है. ज्यादा कुछ नहीं तो भी अपना मकान तो होता ही है.

ऐजवैल फाउंडेशन द्वारा की गई एक स्टडी के मुताबिक, 65 फीसदी बुजुर्गों के पास कोई आमदनी का जरीया नहीं होता, पर 35 फीसदी बुजुर्गों के पास प्रोपर्टी, पैसा, बचत, इन्वैस्टमैंट्स और पुश्तैनी जायदाद होती है.

कभी अच्छी नौकरी में रहे या अच्छा कारोबार करने वाले ज्यादातर बुजुर्ग अब बड़े घरों में अकेले ही जी रहे हैं. कुछ बुजुर्गों के बच्चे विदेश जा कर बस चुके हैं तो कुछ दूसरे शहरों में पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में रह रहे हैं.

इन बुजुर्गों की जिंदगी अपनों की कमी की खलिश में तप रही होती है. तनहा जिंदगी गुजारे नहीं गुजरती.

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इन बुजुर्गों में से कुछ अपने दूर के रिश्तेदारों को साथ रहने के लिए अपने घर बुला लेते हैं तो कुछ नौकरों के भरोसे ही अपनी बचीखुची जिंदगी गुजारने की कोशिश करते हैं.

यही नहीं, इस बुढ़ापे की उम्र में उन्हें कोई न कोई बीमारी भी जकड़े रहती है, सुनाई कम देने लगता है, नजरें धुंधली हो चुकी होती हैं वगैरह.

ऐसे में कोई शख्स बुढ़ापे की लाठी बन कर अगर इन की जिंदगी में शामिल हो जाता है, इन की खुशियों और गमों को बांटने की कोशिश करता है तो इन बुजुर्गों की बोझिल बूढ़ी आंखों में उस के लिए प्यार उमड़ पड़ता है. धीरेधीरे वह शख्स ऐसे बुजुर्गों के लिए अपनों से बढ़ कर बन जाता है. समय के साथ मुमकिन है कि बुजुर्ग अपना सबकुछ उस बेगाने के नाम लिख कर दुनिया से विदा हो जाएं और वह शख्स थोड़े समय में ही हजारपति से करोड़पति का सफर तय कर ले.

कोई चाहे मैनेजर हो, ड्राइवर हो या घरेलू नौकरानी, यह मुमकिन है कि अगर दिल लगा कर बुजुर्गों की सेवा की जाए तो मेवा खाने को जरूर मिलेगा. बस, सब्र रखना होगा.

यकीन रखिए, यह उस बेगाने के लिए फायदे का सौदा साबित होगा. ज्यादातर मामलों में बुजुर्ग अंतिम समय में काम आने वाले को बहुतकुछ दे देते हैं. उन से दूर रह रहे बच्चे भी काफी उदार हो जाते हैं और पिता या मां का अंतिम दिनों में खयाल रखने वालों का जम कर ध्यान रखते हैं.

इस सिलसिले में एक उदाहरण रांची से सटे एक गांव में रहने वाले रामलाल का लिया जा सकता है.

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रामलाल ने शुरू से ही अपनी जिंदगी में गरीबी देखी थी. वह रतनलाल के यहां माली का काम किया करता था. रतनलाल तीजत्योहार पर उस के बीवीबच्चों को पुराने कपड़े, मिठाइयां वगैरह दे देते थे. रामलाल भी रतनलाल के साथ खुद को जुड़ा हुआ महसूस करने लगा था.

समय के साथ रतनलाल बूढ़े हो चले. उन के दोनों बेटे शहर जा कर बस गए. घर में पतिपत्नी ही रह गए. पत्नी की तबीयत भी खराब रहने लगी थी. नौकर तो कई थे, पर धीरेधीरे जब उम्र के साथ रतनलाल कमजोर होने लगे और कमाई भी घटती चली गई तो नौकरों ने भी साथ छोड़ दिया.

ऐसे समय में एक रामलाल ही था जिस ने रतनलाल का साथ नहीं छोड़ा.  रामलाल की बीवी भी रतनलाल के घर साफसफाई का काम करने लगी. कुछ समय बाद रतनलाल की पत्नी चल बसीं. अब बस रामलाल व उस की बीवी ही  बुजुर्ग रतनलाल की देखभाल करते रहे.

एक दिन रतनलाल को भी लकवा मार गया. बेटे ने 2 दिन के लिए आ कर अपनी हाजिरी दी और रामलाल पर सब सौंप कर वह शहर चला गया.

रतनलाल पैसों के हिसाबकिताब से ले कर घर चलाने के सभी कामों के लिए रामलाल पर निर्भर थे. रामलाल के सामने हजारों रुपए यों ही पड़े रहते, पर उस ने कभी एक पैसा इधरउधर नहीं किया.

इधर रामलाल का बेटा शहर जा कर पढ़ना चाहता था. रामलाल ने यह बात रतनलाल को बताई थी, पर कभी पैसे मांगे नहीं. समय यों ही बीतता रहा.

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एक दिन रतनलाल ने एक वकील बुलाया और अपना बंगला रामलाल के नाम कर दिया. यह देख रामलाल हैरान रह गया.

रतनलाल ने उसे गले लगाते हुए कहा कि यह उस की मेहनत और ईमानदारी का बदला है. अपने बेटे ने जो नहीं किया, वह एक गैर ने किया. तो फिर बेटे का क्या हक? हक तो उस गैर का ही होगा न. रामलाल की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे.

यह महज कहानी नहीं, बल्कि एक सचाई है.

कोई शौर्टकट नहीं

सेवा करें पर शौर्टकट में नहीं, बल्कि दिल से, ईमानदारी से करें. खाना बनाना हो, देखभाल करनी हो या बाहर के काम हों, सबकुछ अपना बन कर करें. आप अपने घर वालों के लिए जैसे जीजान लगा देते हैं, एक बार इन अकेले बुजुर्गों के लिए भी वैसा कर के देखें. वे आप की झोली खुशियों से भर देंगे.

क्या मनुष्य पापात्मा है?

एक धार्मिक आयोजन हो रहा था. पूजा समाप्त होने के बाद पंडित ने यजमान से हाथ जोड़ कर ईश्वर से प्रार्थना करने को कहा, जिस श्लोक की पहली पंक्ति थी :

पापोऽहं पापकर्माहं, पापात्मा पापसंभव:.

(अर्थात मैं पापी हूं, पापकर्मा हूं यानी पाप करने वाला हूं, पापी आत्मा हूं और पाप से मेरा जन्म हुआ है.)

उक्त मंत्र के उच्चारण के बाद ईश्वर से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है. क्यों? पंडित यजमान को पापी कह कर गाली क्यों देते हैं? आखिर उस ने ऐसा कौन सा अक्षम्य पाप कर दिया है जिस के लिए उसे पापी की संज्ञा दी जा रही है. यजमान अति सज्जन एवं सफल व्यक्ति हैं, फिर ऐसा सार्वजनिक लांछन क्यों? जैसे ही पंडित पूजा को संपन्न करा कर खाली हुए उन से पूछा गया, ‘‘पंडितजी, आप ने यजमान को यह पापी वाला मंत्र क्यों पढ़वाया, क्या वह पापी है?’’

हंसते हुए पंडित ने कहा, ‘‘यह श्लोक हर पूजा में पढ़ा जाता है, चाहे किसी ने पाप किया हो या न किया हो.’’ जब उन से पूछा गया कि यह श्लोक किस वेद या पुराण से लिया गया है तो वह बगलें झांकने लगा. मानो वेदों, पुराणों में लिखी बातें सत्य और तार्किक हों पर धर्म के अंधभक्त तो उन पर विश्वास करते हैं.

फिर यह बात कहां से निकली, किस ने कहा और किस संदर्भ में कहा  है? क्या भक्त खुद को पापी कह कर अपने को अपनी ही नजरों में नीचे नहीं गिराते हैं? बिना कोई पाप किए कोई पापी कैसे हो गया? किसी के पैर के नीचे गलती से कोई कीड़ा दब गया तो क्या वह हत्यारा हो गया? ऐसा मानना समाज की सोच को गंदा करेगा. इस सोच से हिंदू समाज को बचाना होगा. इसी के कारण यह एक दीनहीन, कमजोर सोच का समाज है. यह सोच ही तर्क बुद्धि के विपरीत है.

हमारे यहां ज्यादातर विवाह शास्त्रों के विधिविधान से (सप्तपदी द्वारा) संपन्न होते हैं. पूजापाठ करने वाले ज्यादातर लोग वैध संतान होते हैं. शास्त्रोक्त विवाह वैदिक संस्कार होता है, उस में मंत्रों द्वारा देवताओं का आह्वान होता है. इंद्र, विष्णु, रुद्र, अग्नि, प्रजापति, अश्विन, सूर्य आदि सारे कार्य के साक्षी होते हैं.

विवाह के बाद स्त्रीपुरुष के योग से जिस प्रकार संतान की उत्पत्ति होती है वह देवों और ऋषियों के लिए अज्ञात विषय नहीं हो सकता. फिर ऐसा क्यों माना जाए कि देवता पापकर्मों का विधान करते हैं और वे पापकर्म में पापी बनते हैं? शास्त्र के अनुकूल विवाह दांपत्य से जिस संतान ने जन्म लिया है वह पाप से उत्पन्न संतान (पापसंभव:) कैसे हो सकती है? फिर लोग अपने मुख से खुद को इस मंत्र द्वारा पाप की संतान क्यों कहें? यह तो अपने मातापिता के विवाह को कलंकित करने वाली या गाली देने वाली बात हुई या नहीं, एक ओर तो कहें कि हम मनुपुत्र हैं, दूसरी ओर हमें पाप से उत्पन्न बताया जा रहा है, क्यों? पंडित को यह बात हमें समझानी होगी.

कथा है कि एक सिंह शावक अपनी माता से बिछड़ गया तो उसे सियारों के एक झुंड ने पाल लिया. बड़ा हो कर वह सिंह शावक सियारों जैसी हरकतें करने लगा. दुम दबा कर रहना सीख गया, खीसें निकालने लगा. तभी संयोग से इस सियार के झुंड को सिंह मिल गया, जो इन्हें देख कर जोर से गरजा. उस सिंह ने सियारों के साथ सिंह शावक को भागते हुए देख कर उसे रोका और कहा कि तुम सियार नहीं सिंह हो, सिंह शावकों की तरह रहा करो. फिर क्या था, वह सिंह शावक अपना स्वरूप धीरेधीरे पहचान गया और सिंह गर्जना करने लगा.

सार यह है कि यदि सिंह शावक को भी बारबार सियार कहा जाए तो वह सियार समान हो जाएगा. इसी प्रकार पुण्यात्मा भी बारबार कहने लगे कि वह पापी है तो वह पापी समान हो जाएगा, जिन लोगों को उन के धर्मगुरु 24 घंटे यह पढ़ाते हों कि तुम दीन हो, दुर्बल हो, पातकी हो, निकम्मे हो उन से कैसे यह आशा की जा सकती है कि वे देश या स्वाभिमान की रक्षा में समर्थ होंगे?

उस गुरु को क्या कहा जाए जो रातदिन अपने शिष्य को यह कह कर दुत्कारता रहे कि तुम मंदबुद्धि हो, कभी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकते, तो क्या वह विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाएगा? क्या कहें उस डाक्टर या वैद्य को जो अपने मरीज को मरने का भय दिखा कर उस की जीने की इच्छा को तोड़ दे. क्या कहें ऐसे पंडितों व गुरुओं को जो जनता को अकारण पापी, पाप की संतान बताते हैं.

ध्यान रहे, यह श्लोक ज्यादातर पूजा में प्रयोग में लाया जाता है. पंडित, विद्वान समझते हैं कि इस के द्वारा अपनी विनम्रता प्रकट करते हैं. विनम्रता अच्छी बात है पर पापी होने का उद्घोष अलग बात है. इस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव घातक होता है क्योंकि वह हमारे अवचेतन में बैठ जाता है. पर हमारे यहां अनेक प्रकार से व्यक्ति को पातकी कहा जा रहा है. देखिए, ‘मैं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी मैं मूरख खल कामी, पाप हरो देवा.’

यह आरती बड़ी प्रचलित है. भक्त जोरजोर से गाता है कि मैं मूर्ख ही नहीं बदमाश (खल) तथा कामी (सेक्सी) हूं. इस से क्या होने वाला है?

बचपन से हिंदू को सिर झुकाने का अभ्यास कराया जाता है. उस को पता नहीं है कि उस से वंदना पाने के अधिकारी कितने हैं. हर डीह, हर पेड़ में एक देव या देवी का अड्डा हो सकता है. जहां अवसर आया सिर झुका दो, जल डाल दो या कुछ नहीं तो मोटर या बाइक का हार्न तो बजा ही दो, काम चल जाएगा.

हिंदू मन बड़ा कमजोर हो गया है. वह हर जगह सिर झुका देता है चाहे कहीं कोई धार्मिक झंडा हो या कब्र या कोई  समाधि दिखाई दे. देशी, विदेशी, विधर्मी किसी के भी सामने हाथ जोड़ लेगा, वह हिंदू जो है. तत्कालीन समय के धर्मध्वजी विद्वानों ने विदेशी शासकों के प्रति ‘धर्मावतार’ शब्द का प्रयोग सगर्व किया था. अंगरेजों, मुसलमानों की गुलामी में इस सिर झुकाने की परंपरा का योगदान अवश्य रहा होगा.

हमारे पुरोहित, हमारे धर्मगुरु पथप्रदर्शक शक्ति बनने के स्थान पर अपने चरित्र को नीचा गिराते हैं. तथाकथित स्वर्ग के बजाय, नरक में ढकेलते हैं, अपने पैर छुआते हैं, दक्षिणा झटकते हैं. बावजूद इस के भक्तों को पापी बताते हैं. असल में यह अज्ञान में किया गया पाप है. यह अज्ञान और पाप बंद हो जाना चाहिए. खुद को पापी, पाप से उत्पन्न कहना बंद करें.

एक ओर हमें ‘अहं ब्रह्मास्मि’ बोलने को कहा जाता है वहीं दूसरी ओर पुरोहित हमें ‘पापात्मा’ घोषित करते हैं.

ऐसा ही विरोधाभास इंद्र के बारे में है कि वह महत्त्वपूर्ण देव है. बताया जाता है कि विष्णु, रुद्र, सूर्य सब ने मिल कर इंद्र को अपना राजा चुना. वह इन सब से पूज्य और बलवान है. शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है :

इंद्र सर्वा: देवता: इंद्रश्रेष्ठा: देवा:

एक ओर इंद्र श्रेष्ठ देवता है, दूसरी ओर इतना कमजोर है कि किसी ऋषि की तपस्या मात्र से उस का सिंहासन डोल उठता है. वह किसी की वृद्धि नहीं देख सकता है. इतना कामी है कि धोखा दे कर अहल्या का सतीत्व भंग करता है. इंद्र के चरित्र में विरोधाभास है. उसे साधारण मानवों की तरह ईर्ष्या द्वेष, काम से ग्रस्त बताया है. वास्तव में इंद्र कोई एक नहीं है. यह एक पद था, जिस पर बैठने वाला इंद्र कहलाया. जिस समाज के देवताओं का राजा इस प्रकार का पापी हो वहां आम गृहस्थ को पापी का दर्जा कैसे दिया जा सकता है? केवल पुराणों की पुनरावृत्ति पर्याप्त नहीं है, नई दृष्टि सामने लाना ही समाज के लिए कल्याणकारी होगा.

धर्म के साए में पलते अधर्म

कोई शक नहीं कि भारत हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है. क्षेत्र चाहे विज्ञान, तकनीकी विकास का हो या फैशन और स्टाइल का महंगाई और धोखाधड़ी का हो या फिर हिंसा का और लूटमार का. अपराध क्षेत्र की ओर देखें, तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत हत्याओं के मामले में भी नंबर वन है. वर्ष 2007 में यहां हत्या की कुल 32,719 वारदातें हुईं जो संख्या में दूसरे देशों के मुकाबले सब से ज्यादा हैं.

प्रश्न यह उठता है कि भारत जैसा धर्मपरायण देश, जहां धर्मभीरु लोगों की पूरी फौज है, ऐसी वारदातों में इतना आगे कैसे बढ़ गया? धर्म की नजर से देखें तो हत्या ऐसा महापाप है जो व्यक्ति को पतन और नर्क की खाई में धकेलता है. जाहिर है, रातदिन धर्म के पोथे खोल कर बैठे धर्मपुरोहितों के उपदेशों का असर ज्यादातर पर होता ही नहीं.

बहुत से लोग पाक्षिक पत्रिका सरिता पर जनता को धर्म के खिलाफ बरगलाने का आरोप लगाते हैं. आक्षेप ये भी लगते हैं कि सालों से धर्म के खिलाफ आवाज उठाने के बावजूद यह पत्रिका लोगों की धार्मिक प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा सकी. यदि इस बात को एक पल के लिए सच मान भी लिया जाए तो क्या इस सच से इनकार किया जा सकता है कि सदियों से धर्म की बुनियाद पक्की करते ये तथाकथित धर्मगुरु आज तक अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए. आखिर क्यों हत्या, बलात्कार, चोरी, धोखाधड़ी की खबरों से अखबारों के पृष्ठ रंगे नजर आते हैं?

विसंगतियों की धुंध

विवाह को धार्मिक अनुष्ठान मानने और इस रिश्ते को जन्मजन्मांतर का संबंध बताने वाला धर्म तब कहां रहता है जब पतिपत्नी एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं? आग की जिन लपटों के चारों तरफ फेरे दिला कर पुरोहित नवदंपती को एकदूसरे का साथ देने के 7 वचन दिलाते हैं, क्यों दहेज के नाम पर उन्हीं लपटों में लड़की को जला कर मार दिया जाता है.

छोटीछोटी बातों पर धार्मिक स्थलों और पंडेपुजारियों का चक्कर लगाने वाले लोग अपनों को, बड़ेबड़े धोखे देने से बाज नहीं आते.

धर्म का हाल तो यह है कि लोग किसी काम में सफल होने की मनौती मांगते हैं. बाद में चढ़ावा चढ़ा कर अपनी मनौती पूरी करते हैं. क्या यह एक तरह से ईश्वर को घूस देने की कवायद नहीं?

वैसे तो हर धर्म व्यक्ति को सदाचार, ईमानदारी और अहिंसा के मार्ग पर चलने का पाठ पढ़ाता है. फिर क्यों रिश्तों का खून करते वक्त और मानवता की धज्जियां उड़ाते वक्त लोग अपने धर्मग्रंथों का ध्यान नहीं करते?

लड़कियों के पहनावे को ले कर धर्मगुरुओं द्वारा फतवे जारी किए जाते हैं, धर्म और नीति की दुहाइयां दी जाती हैं, सदन में हंगामा खड़ा हो जाता है, उसी लड़की की जब इज्जत लुटती है, उसे निर्वस्त्र किया जाता है, तो धर्म उस की सुरक्षा के लिए आगे क्यों नहीं आता?

जिस महिला को धार्मिक कर्मकांडों के दौरान बराबरी के आसन पर बैठाया जाता है, जिस के बगैर कोई धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता, उसे ही घर में कभी समान दर्जा नहीं मिलता. आएदिन वह घरेलू हिंसा का शिकार बनती है, क्यों?

पूर्वजों के लिए दान, तप, पूजा कराने वाला व्यक्ति जीतेजी अपने वृद्ध मांबाप की सेवा नहीं करता.

मंदिरों में जा कर चढ़ावा चढ़ाते लोग दूसरे के हक की रोटी छीनते समय शर्म महसूस नहीं करते.

दावा किया जाता है कि हर धर्म अहिंसा का पाठ पढ़ाता है. फिर क्यों धर्म के नाम पर हिंसाएं होती हैं? एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों के खून के प्यासे बन जाते हैं. सैकड़ों, हजारों जानें जाती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं. ज्यादातर दंगों के पीछे धर्म के धंधेबाजों का ही हाथ होता है.

मोटेतौर पर माना जाता है कि धर्म इसलिए है ताकि इनसान ईश्वर या कर्मफलों के भय से गलत काम न करे. पर विडंबना यह कि धर्मग्रंथों में ऐसे विधान और कथाएं भरी पड़ी हैं जिन के मुताबिक आप चाहे जितना भी पाप कर चुके हों, परमात्मा के नाम का जाप कर लें, ईश्वर की प्रार्थना कर लें, सारे पाप धुल जाएंगे. पर हकीकत में जो जैसा करता है उस को उस का फल मिलता है.

देखा जाए तो धर्म की उत्पत्ति का आधार भय है. व्यक्ति जब खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करता है, तो धर्म की तरफ मुखातिब होता है. भले ही घर के बड़ेबुजुर्ग या धर्म पुरोहित यह कह कर व्यक्ति को धार्मिक कर्मकांडों के लपेटे में लेते हैं कि इस से उन्हें शक्ति मिलेगी. वे मजबूत बनेंगे, मगर सच तो यह है कि इस से सिर्फ परावलंबन की मनोवृत्ति मजबूत होती है. धर्म के तथाकथित ठेकेदार इनसान की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं. वे एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते हैं जो उन्हें भरपूर समर्थन दे ताकि उन का खर्चापानी चलता रहे.

धर्म व्यक्ति को डरपोक तो बना सकता है मगर उस की प्रवृत्ति को बदल नहीं सकता. ज्यादातर लोग सोचते हैं कि जिंदगी में जितना हासिल हो सके उतना हासिल कर लो. इस के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. कुछ धर्मस्थलों में जा कर हाथ बांधे ईश्वर से अपनी इच्छा मनवाने का प्रयास करते हैं तो कुछ हाथों में हथियार थाम कर मनचाही चीज दूसरों से छीन लेते हैं. आवेश के क्षणों में उन्हें न तो धर्म का पाठ याद रहता है न धर्मगुरु. वैसे भी लोगों ने धर्म के सिर्फ बाहरी स्वरूप को स्वीकारा है जिस के अंतर्गत कर्मकांड, पूजा और तरहतरह के ढकोसले आते हैं. ज्यादातर व्यक्ति धर्म की गहराई में उतर ही नहीं पाते.

जानें अपने प्यार का सच

चलिए मान लेते हैं कि आप को पहली नजर का पहला प्यार हो गया है. दिनरात रोमांस और करवटें बदलने में गुजर रहे हैं. उन्हें हर दिन देखने के लिए इंतजार करना मुश्किल हो रहा है. आप के दिल और दिमाग में घर कर चुके उस प्यार को अब जीवनसाथी बना ही लिया जाए, ऐसा सोच रहे हैं.

लेकिन जरा आप अपने दिमाग के रोमांटिक घोड़े को लगाम दीजिए और यह तो चैक कर लीजिए कि जिसे आप प्यार करती या करते हैं, वह भी आप को प्यार करता है या फिर आप उस के लिए महज खेलने का सामान ही हैं.

मतलब, जब उसे सैक्स करना हो तभी आप की याद आती हो, ऐसा तो नहीं है? यह हो भी सकता है और नहीं भी, क्योंकि प्यार और वासना में फर्क करना आसान नहीं होता, इसलिए आप का प्यार भी कहीं प्यार और वासना के बीच उलझन में तो नहीं है? यह जानने के आसान तरीके हैं:

अंखियों में न झांके सैयां

पहली नजर का प्यार आंखों से ही शुरू होता है और वासना के पुजारी की पकड़ भी आंखों से ही होती है. अगर आप को लगता है कि आप का प्यारा सा प्यार आप की आंखों में झांकने में फेल हो जाता है तो समझ जाइए कि उसे आप से नहीं, बल्कि आप के शरीर से प्यार है.

दरअसल, रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट भी यह मानते हैं कि हमारी आंखें किसी की नीयत समझने के लिए खिड़की जैसी होती हैं. जब कोई आप को प्यार करता है, तो वह आप की आंखों में बेझिझक देखेगा और अपने दिल की बातें जाहिर कर देगा, लेकिन अगर आंखों में देखने के बजाय उस की नजर आप के शरीर

के दूसरे हिस्सों जैसे उभार, कूल्हे, जांघ वगैरह पर टिकी हैं तो आप उस के लिए प्यार नहीं, बल्कि सैक्स की भूख मिटाने का आसान रास्ता हैं.

सैक्स खिलौना हैं आप

अंजलि और दीपक में बेइंतिहा मुहब्बत थी. कम से कम अंजलि तो ऐसा ही सोचती थी. यह पहली नजर का प्यार नहीं था, बल्कि दोस्ती ने इश्क की राह पकड़ी थी.

पर धीरेधीरे अंजलि को लगने लगा कि दीपक उसे नहीं, बल्कि उस के बदन को चाहता है. वह जब भी दीपक से मिलती है, वह उस के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने को बेताब रहता है.

जबकि ऐसा माना जाता है कि दोस्ती पर आधारित हर रिलेशनशिप की बहुत मजबूत बुनियाद होती है. जब आप किसी से प्यार करते हैं, तो आप उस के दोस्त जरूर होते हैं. दोस्तों की तरह अपने लव पार्टनर के साथ घूमनाफिरना पसंद करते हैं. उस के साथ हंसीमजाक करते हैं. जरूरत पड़ने पर एकदूसरे के लिए हमेशा खड़े होते हैं.

अगर आप की रिलेशनशिप में से दोस्ती के पहलू को हटा दें तो फिर आप का संबंध उस के साथ सैक्स के खिलौने सरीखा हो जाता?है, जिस में हावी रहने वाला पार्टनर दूसरे साथी को सैक्स की भूख मिटाने का खिलौना ही समझता है.

एक दिन अंजलि ने जब दीपक से पूछा तो दीपक ने चौंकाने वाला जवाब दिया. ‘‘यार, जब तुम सामने होती हो तो मुझे सैक्स के अलावा कुछ भी नहीं सूझता है. मुझे लगता है कि मैं तुम्हें पूरी तरह से पा लूं. मेरा प्यार तुम्हारे शरीर से आगे बढ़ ही नहीं पाता है.’’

जब रिलेशनशिप में ऐसा दौर आता है तो एक पार्टनर मालिक और दूसरा पार्टनर नौकर की तरह हो जाता है. वहां उन की रिलेशनशिप गड़बड़ा जाती है.

अगर आप का पार्टनर आप से दोस्त की तरह पेश नहीं आता है और प्यार के नाम पर आप से सैक्स करता?है, तो समझ जाइए कि आप का रिश्ता वासना की बुनियाद पर टिका है.

सैक्स का 2.0 तो नहीं

जब 2 लोग प्यार करते हैं, तब सैक्स सिर्फ एक जिस्मानी काम होता है. असली रिश्ता उस के बाद शुरू होता है और आप को इस का एहसास उस के छूने के तरीके, बांहों में भरने और चूमने के अंदाज से हो जाता है. रिश्ते में बस सैक्स ही हो तो यह एक रोबोटिक रिलेशन बन कर रह जाता है जहां हम मशीनी कमांड की तरह सिर्फ सैक्स को ही तरजीह देते हैं, इसलिए आप का प्यार अगर मशीनी होता जा रहा है, तो यह चिंता की बात है.

साथ ही, आप का साथी आप की राय की इज्जत करता है या नहीं? वह आप को भी सैक्सुअल सुख देने में दिलचस्पी रखता है या सिर्फ अपनी ही भूख मिटाता है? क्या वह सैक्स के पलों में ही जोश में या आप के साथ हंस कर पेश आता है? इस तरह की बातें भी तय करती हैं कि वह आप से प्यार करता है या उस के मन में वासना है.

सैक्स ऐक्सपर्ट मानते हैं कि सैक्स करने के बाद अगर आप का पार्टनर आप की जिंदगी से जुड़े असली मुद्दों पर ध्यान नहीं देता है और क्षणिक संतुष्टि पर फोकस रखता है, तो ऐसे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं होता.

तू किसी और से तो मिल

जो इनसान सिर्फ आप के शरीर से प्यार करता है और इस रिश्ते को ले कर गंभीर नहीं है, वह अकसर आप को अकेले में ही मिलने के लिए जोर देगा यानी जब सैक्स की चाह होगी तो मिलेगा, लेकिन आप को अपने दोस्तों और परिवार से मिलाने से परहेज करेगा. हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर अपने और आप के घर वालों से मिलने से बचेगा. सबकुछ राज भरा रहेगा. रिश्ते को निजी रखने की कोशिश का दिखावा कर आप को सब से अलग रखेगा और सैक्स का मजा लेगा इसलिए अगर आप का साथी आप के सामने अपने परिवार और दोस्तों की बात नहीं करता है तो यह प्यार नहीं है, बल्कि वासना है. दरअसल, उस की भावनाएं वासना की ओर हैं.

वह सिर्फ आप के शरीर से प्यार करता है और भावनात्मक जुड़ाव महसूस नहीं करता है.

उम्मीद है, आप इशारा समझ रहे होंगे और अगर ये ट्रिक्स आप ने पढ़ ली हैं तो काफी हद तक अंदाजा भी लगा लिया होगा कि आप का पार्टनर प्रेमी है या वासना का पुजारी.

अक्षय तृतीया से जुड़े भ्रामक तथ्य

ढकेल देते हैं. आगे का आदमी इसी पानी को मुंह में भर कर कुल्ला करता है तथा खांसखंखार कर अपना कफ दूसरे के लिए आगे बढ़ाता है. इस तरह देखें तो गंगा संक्रामक रोगों के संवाहक का काम करती है. तिस पर तुर्रा यह है कि गंगा में नहाने से मुक्ति मिलती है. इसीलिए मेरा मानना है कि मुक्ति तो दूर, रोगों की संवाहक गंगा, चैन से जीने भी नहीं देगी.

अक्षय तृतीया के दिन दानपुण्य की बात कही गई है. लोग गंगा स्नान के बाद पंडेपुजारियों को सत्तू, दही, पंखा, शर्करा, जूता, छाता आदि का दान करते हैं. ये सब वस्तुएं हमें लू और गरमी से बचाती हैं. धर्मभीरु जनता भले ही लू से मर जाए पर पंडेपुजारियों को पेट काट कर, दान अवश्य दे. दान लेने वाला पंडा/पुजारी कभी नहीं पूछता, ‘यजमान, क्या तुम्हारे पास ये चीजें हैं?’ भला, वह क्यों पूछेगा? यजमान मरे या जीए. सत्तू वह खाएगा. दही वह पीएगा. जूता वह पहनेगा ताकि गरम जमीन पर पैर न जलें. छाता वह लगाएगा, जिस से धूप से बच सके. पंखा वह डुलाएगा ताकि गरमी न लगे.

पंडेपुजारियों ने दानपुण्य की सामग्री भी मौसम के हिसाब से निर्धारित की हुई है.

उन का कहना है, शास्त्रों में लिखा है कि अक्षय तृतीया को संग्रह किया धन अक्षय होता है. तो क्या शेष दिन का कमाया धन क्षय हो जाता है? तमाम मुसलिम लुटेरे व अंगरेज हमारे देश से सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात लूट कर अपने देश ले गए, क्या वे अक्षय तृतीया को नहीं खरीदे या संगृहीत किए गए थे? क्या पंडेपुजारियों ने तब के राजा- महाराजाओं को इस गूढ़ तथ्य से अवगत नहीं कराया था?

ज्योतिषी, जो सुनारों से मिले रहते हैं, तमाम बकवास पत्थरों को अंगूठी में जड़ कर पहनने की सलाह देते हैं. मूर्ख जनता को भले ही इस से कुछ फायदा हो या न हो पर ज्योतिषी व सुनारों की खूब कमाई होती है. एक ज्योतिषी तो बाकायदा दुकान बंद होने के समय आ धमकता है, फिर दिन भर की कमाई बतौर दलाली ले कर जाता है. अब यही ज्योतिषी, पंडेपुजारी व सुनार अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदने के लिए खूब प्रचार कर रहे हैं.

कुछ साल पहले तक अक्षय तृतीया कहीं भी अस्तित्व में नहीं थी, विशेषतौर से सोना खरीदने के संदर्भ में. पर आज खूब शोर मचाया जा रहा है कि इस दिन सोना खरीदने से समृद्धि आती है. टेलीविजन चैनलों पर बड़ेबड़े सुनार अक्षय तृतीया का बखान करते हुए लोगों को सोना खरीदने के लिए उकसाते हैं. ज्योतिषी व पंडेपुजारी भी अखबारों व टेलीविजन चैनलों की मदद से इस पर्व की महिमा का खूब बखान करते हुए जनता को बरगलाते हैं. कोई उन से पूछे, सोना खरीदने से समृद्धि आती है तो क्या रिकशा वाला रिकशा बेच कर सोना खरीदे? या ठेले वाला ठेला बेच कर. रिकशा, ठेला बेच कर क्या वह सोना खाएगा? सोना उसे कौन सा रोजगार मुहैया करवाएगा? धीरूभाई अंबानी ने अपने शुरुआती दिनों में क्या सोना खरीदा था?

अक्षय तृतीया को ‘युगादि तृतीया’ की भी संज्ञा दी गई है, क्योंकि सतयुग का आरंभ इसी दिन हुआ था. सतयुग का क्यों क्षय हो गया? जब एक युग ही खत्म हो गया तो सोना क्या, समृद्धि क्या?

धनतेरस तो थी ही, अब अक्षय तृतीया भी आ गई. धनतेरस को बर्तन खरीदने की होड़ रहती है, तो अक्षय तृतीया को सोना. धनतेरस को बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है. जब लोग मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे तब भी? अक्षय तृतीया के दिन सोना अन्य के मुकाबले, ज्यादा मांग होने के चलते अधिक महंगा होता है. मूर्ख जनता धार्मिक अंधविश्वास के चलते सुनारों के यहां जमी रहती है. सुनार अंधविश्वास का फायदा उठा कर मालामाल होता है और कमीशन, पंडेपुजारियों को पहुंचाता है. इन सभी पर्वों के पीछे ‘धार्मिक रैकेट’ काम करता है जो नईनई कहानी गढ़ कर जनता के बीच अंधविश्वास फैलाता है.

कुल मिला कर अक्षय तृतीया कमाने, खाने व लूटने के नाम का नया धंधा है. ज्ञातव्य रहे, कभी ‘जय संतोषी मां’ का भी यही हाल था. फिल्म आने से पहले शायद ही कोई संतोषी मां को जानता था. जैसे ही इस नाम की देवी का प्रोडक्ट मार्केट में लांच हुआ, मूर्ख जनता ने उसे हाथोंहाथ लिया. फिर तो संतोषी के अनेक मंदिर, गली व चौराहों पर बन गए. महिलाएं शुक्रवार का व्रत करने लगीं. धार्मिकनगरी बनारस के एक सिनेमा हाल, जहां यह फिल्म हाउसफुल चल रही थी, वहीं मूर्ख व्रती महिलाएं उद्यापन व परिक्रमा करने लगीं. सिनेमा हाल, जय संतोषी मां का मंदिर बन गया.

जिस देश को कभी हूणों, पुर्तगालियों, मुगलों व अंगरेजों ने तबीयत से रौंदा, वहां कैसा अक्षय? मुझे तो लगता है वह दिन दूर नहीं जब सी.ए., डाक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी आदि बनाने के लिए पंडेपुजारियों, ज्योतिषियों व डाक्टरों की मिलीभगत से साल के कुछ दिन निश्चित कर दिए जाएंगे और प्रचारित किया जाएगा कि फलां दिन बच्चा पैदा करने पर वह ‘डाक्टर’ तथा फलां दिन पैदा करने पर वह ‘इंजीनियर’ बनेगा. दंपतियों पर निर्भर होगा कि वे अपने बच्चे को क्या बनाना चाहते हैं. और तब डाक्टरों को मनमानी फीस दे कर उसी दिन, उसी वक्त, भले ही आपरेशन से सही, बच्चा पैदा करने की होड़ मच जाएगी. इस तरह जो बच्चा पैदा होगा, बड़ा हो कर चोर ही क्यों न बने, धर्मभीरु  दंपती हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे, क्योंकि उन के हिसाब से जिस वक्त वह पैदा हुआ था, उस के इंजीनियर बनने का योग था.

समाधि की दुकानदारी कितना कमजोर धर्म

साधुसंतों का रहनसहन और खानपान तो आम लोगों से भिन्न रहता ही है मगर वे मरने के बाद भी विशिष्ट दिखना चाहते हैं. इस के पीछे उन की व उन के संप्रदायों की मंशा महज धर्म के नाम पर चल रही दुकानदारी को और चमकाना होती है. धर्म के धंधे की बुनियाद ही यह है कि धर्म के रखवाले कहे जाने वाले साधुसंत ही हकीकत में धर्म के नाम पर लोगोें का तरहतरह से शोषण करते हैं, व्यवस्थित और संगठित समाज से अलगथलग दिखना चाहते हैं.

महज लंगोट और गेरुए वस्त्र पहन सांसारिकता त्यागने का ढिंढोरा पीटने वाले साधुसंत शरीर पर भभूत और माथे पर बड़ा सा तिलक जरूर लगाते हैं. ये लोग हाथ में भाला, डंडा या त्रिशूल भी रखते हैं. यह ‘त्याग’ भक्तों में श्रद्धा पैदा करने के लिए किया जाता है. यह दीगर बात है कि हकीकत में यह हुलिया मुफ्त कमानेखाने यानी चढ़ावा और दक्षिणा हथियाने के लिए रखा जाता है.

अपनी सहूलियत के लिए साधुसंत रिहायशी इलाकों से कुछ दूर मंदिरों में रहते हैं. हाथ में पकड़ा डंडा या त्रिशूल दरअसल, दुष्टों के संहार के लिए नहीं बल्कि कुत्ते, बिल्लियों और दूसरे जंगली जानवरों से बचाव के लिए रखा जाता है. इस से सहज ही समझा जा सकता है कि भगवान के ये तथाकथित दूत और धर्मरक्षक असल में कितने चमत्कारी होते होंगे.

बीते 2 दशकों से साधुसंतों में विचित्र तरह की एकजुटता देखने में आ रही है कि ये लोग भी साथसाथ रहने लगे हैं. ऐसा पहले की तरह शैव, वैष्णव या किसी दूसरे संप्रदाय की विचारधारा के अनुयायी होने न होने के कारण नहीं हो रहा बल्कि मुफ्त की रोटी तोड़ने तथा एक और एक ग्यारह बनने का सिद्धांत इस के पीछे काम कर रहा है. इन्हें मुफ्त की जमीन की चाहत रहती है जिस से मेहनत न करनी पड़े. साधुसंत भी समझने लगे हैं कि बुढ़ापे में अशक्तता के चलते भीख भी नहीं मिलनी है, इसलिए भलाई इसी में है कि बुरे वक्त के लिए पैसा व जमीनजायदाद इकट्ठी की जाए. इन की इस कमाई व गहनों को लूटने में चोर, लुटेरे और डाकू भी कोई रहम, लिहाज या रियायत नहीं करते.

मामूली जानवरों और चोरलुटेरों से जो धर्म अपने ही दूतों का बचाव करने में नाकाम हो उस की पोल तो अपनेआप ही खुल जाती है. और जब बड़े पैमाने पर यह पोल खुलती है तब मुद्दे की बात से आम लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ये साधु खासा हंगामा व फसाद खड़ा कर देते हैं. ऐसा ही कुछ पिछले दिनों भोपाल में हुआ.

फसाद भोपाल का

भोपाल की उपनगरी भेल, जोकि देश के बड़े औद्योगिक केंद्रों में से एक है, के भूतनाथ मंदिर में एक नागा संन्यासी विष्णु गिरि की मौत हुई तो साधुसंत उसी जगह उस की समाधि बनाने की जिद पर अड़ गए जहां पर संन्यासी मरा था.

समाधि बनाने में आड़े आया भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड का प्रबंधन जो अपनी बेशकीमती जमीन पर समाधि जैसा अनुपयोगी स्थल नहीं बनने देना चाहता था. जाहिर है इस से उत्पादन व कारखाने के कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता और जमीन भी बेकार हो जाती. वैसे भी यह भेल का हक था कि वह अपनी जमीन के बाबत खुद फैसला करे.

इस इलाके में कोई 3 लाख लोग रहते हैं जो विष्णु गिरि के भक्त भले ही न हों मगर यह जरूर जानते हैं कि यह संन्यासी भूतनाथ मंदिर में कोई 70 साल से रह रहा था. कुछ लोग मानते हैं कि यहां ऊपरी बाधाओं का इलाज होता है यानी नियमित चढ़ावे के अलावा भी भूतप्रेत, पिशाच जैसी काल्पनिक चीजें आमदनी का बड़ा जरिया थीं.

यह आमदनी बनी रहे, इस मंशा से विष्णु गिरि की मौत के बाद उस के चेलेचपाटे व शहर के दूसरे साधुसंतों ने गड्ढा खोद कर समाधि बनाने की तैयारी शुरू कर दी. भेल प्रबंधन को भनक लगी तो उस ने मनमानी पर उतारू इन साधुसंतों को रोकने की खातिर अपना अमला भेजा और जिला प्रशासन से भी सहयोग मांगा जो वक्त रहते मिला भी.

मगर साधु नहीं माने. अपने मंसूबों के लिए उन के पास कोई ठोस दलील भी नहीं थी सिवा इस के कि संन्यासी की समाधि मौत की जगह पर ही बनाना धार्मिक परंपरा है और इस में सरकार, प्रशासन, कानून और भेल को अड़ंगा नहीं डालना चाहिए. न मानने पर पुलिस ने हलका बल प्रयोग किया तो साधुसंत तिलमिला उठे. इसी बीच धक्कामुक्की में विष्णु गिरि की लाश नीचे गिर गई. इस के बाद भी साधु लोग लाश को घसीट कर समाधि तक ले जाने में किसी तरह कामयाब हो गए. मगर भेल प्रबंधन की पहल और जागरूकता के चलते उसे दफना नहीं पाए.

दफना लेते तो धर्म की एक और दुकान बन कर तैयार हो जाती, जिस पर चढ़ावा चढ़ता, रोज सैकड़ों श्रद्धालु आते, मनौतियां मांगते और इन साधुसंतों को विष्णु गिरि के नाम पर मुफ्त का पैसा मिलता.

बवाल के बाद बातचीत शुरू हुई तो संत समुदाय ढीला पड़ गया. उस के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि भेल प्रशासन अपनी जमीन पर समाधि क्यों बनाने दे. भेल प्रबंधन की समझदारी इस मामले में वाकई तारीफ के काबिल कही जाएगी कि वह संतों की जिद के आगे नहीं झुका. भेल के महाप्रबंधक ने स्पष्ट कहा कि किसी भी कीमत पर समाधि बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. हालांकि दुकान चलाने के लिए संत समुदाय यह बात लिखित में देने को भी तैयार था कि समाधि के ऊपर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा.

कितना कमजोर धर्म

यह विवाद धर्म की कई कमजोरियों को उजागर कर गया. मसलन, धर्म मोहताज है लिखापढ़ी का, पुलिस का और कानून का और उस की जड़ में पैसा कमाने का लालच भर है. भक्तों की तमाम समस्याएं धार्मिक चमत्कार से सुलझाने और दूर करने का दावा करने वाले संत जब खुद एक समाधि बनाने के लिए कानून के मोहताज हों तो उन के चमत्कार के दावों पर कोई क्या खा कर भरोसा करे.

अगर वाकई धर्म में चमत्कार होता तो क्यों विष्णु गिरि की मौत के साथ ही समाधि खुदबखुद नहीं बन गई? लाठीचार्ज कर रहे पुलिस वालों की लाठी गायब क्यों नहीं हो गई? भेल प्रबंधन की बुद्धि क्यों किसी भगवान ने नहीं हर ली? समाधि बनाने के लिए उपद्रव कर रहे साधु सीधे भगवान की अदालत में क्यों नहीं चले गए?

आम नागरिकों की अदालत की शरण व संतों की कानूनी मोहताजी बताती है कि इन में कोई खास बात नहीं होती न ही कोई दैवीय शक्ति या चमत्कार होता है.

सिर्फ मुफ्त की कमाई के लिए ये आम लोगों की तरह जीना तो दूर मरना भी पसंद नहीं करते. अगर विष्णु गिरि को जला दिया जाता तो उन का शरीर राख हो जाता फिर कोई चमत्कारों के दावों पर यकीन नहीं करता. मंशा इस प्रकार की थी कि संन्यासी का मृत शरीर जमीन के अंदर रह कर भी भक्तों का भला काल्पनिक चमत्कारों के जरिए करता रहता है क्योंकि संत मरता नहीं है देह त्यागता है.

यह अगर सच है तो फिर उस की लाश घसीटने की नौबत क्यों आई, क्यों नहीं वह खुद चल कर समाधि स्थल तक पहुंच गई? इन हकीकतों के बाद भी साधु समुदाय ने लोगों को बरगलाने के लिए हिंदू धर्म की मान्यताओं का खुला मखौल उड़ाते श्मशानघाट में यज्ञ व हवन किया तो धर्म की और इन की हकीकत जरूर खुदबखुद उजागर हो गई कि कैसे धर्म के नाम पर पैसा कमाने के लालच में नियम बनाए व तोड़े जाते हैं. यह दोहरापन अपनेआप में जरूर एक चमत्कार है.

पूरे बवाल में हैरत की बात है कि कोई कानूनी लिखापढ़ी नहीं हुई. भेल प्रबंधन के एक अधिकारी की मानें तो उन्होंने जिला प्रशासन को मौखिक सूचना ही दी थी. कथित लाठीचार्ज के वक्त भेल का कोई अधिकारी घटनास्थल पर मौजूद नहीं था.

आम लोग तो दूर की बात है, कई धार्मिक लोग भी साधुओं की इस हरकत से नाराज दिखे. एक देवीभक्त रामजीवन दुबे की मानें तो ‘‘यह धर्म की दुकानदारी  चमकाने का तरीका भर था. मरने के बाद भी साधु खास क्यों माना जाए. ये लोग मरने के बाद आम लोगों की तरह जलने से क्यों डरते हैं. इस तरह के बेवजह के फसाद आम लोगों में धर्म की छवि बिगाड़ते हैं.’’

इस के उलट एक दूसरे संत पवन गिरि ने खुलेआम पुलिस वालों और भेल प्रबंधन को अनिष्ट का शाप तक दे डाला जिस का कोई असर नहीं हुआ. यह बात शायद ही कोई बता पाए कि क्यों सुभाष नगर विश्राम घाट में कचरा फेंकने की जगह मृत साधु की समाधि बनाई गई.

हकीकत में विष्णु गिरि का असली अपमान पुलिस या भेल प्रबंधन ने नहीं, खुद संतों ने उन के मरने के बाद किया है.

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा कितनी हास्यास्पद

हिंदू देवियां पुस्तक प्रकाशकों के लिए विज्ञापन व प्रचार का काम भी करती हैं. एक उदाहरण छपा है साहित्य संगम, सूरत से प्रकाशित वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक के पृष्ठ 19 पर. माजरा समझ में आ जाएगा. इस में शीला नाम की एक महिला को साक्षात लक्ष्मी मां ने कहा कि व्रत का उद्यापन होने पर उसे 7 कुंआरी कन्याओं को तिलक लगा कर साहित्य संगम प्रकाशन की ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ कथा की एकएक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए. प्रकाशक महोदय से पूछा जा सकता है कि इस तरह का प्रचार लक्ष्मी मां से कराने के लिए खुद उन्होंने कितने व्रत रखे थे?

आप को शायद अब मेरे कहने का मंतव्य समझ में आ रहा होगा, व्रतउपवासों के मकड़जाल में फंसे हुए लोग इस बात की जहमत नहीं उठाते हैं कि जो व्रत वे रख रहे हैं उस की पुस्तिका को ढंग से पढ़ कर उस का मनन कर सकें. वैभव लक्ष्मी व्रत कथा शुरू से अंत तक सिर्फ भोलेभाले लोगों को दिग्भ्रमित करने के अलावा कुछ नहीं करती है.

शुक्रवार व्रत कथा : सच्चाई से दूर केवल कथा मात्र

अपनेआप में वैभव लक्ष्मी व्रत कथा केवल एक कथा भर है जिस में सचाई का तनिक भी अंश नहीं है. यह बात एक औसत स्तर का पाठक भी इस व्रत कथा की पुस्तिका को पढ़ कर समझ सकता है. कहानी की पात्र शीला नाम की एक महिला है, जो अपने पति की गलत आदतों के कारण आर्थिक परेशानियों से घिरी हुई है. शीला बहुत धार्मिक महिला है और हर रोज मंदिर जा कर पूजाआरती करती है. एक दिन उस के घर एक महिला आती है जो शीला के दुख का कारण पूछती है.

कथा के अनुसार यह महिला बदले हुए वेश में साक्षात लक्ष्मी माता होती है. शीला रोतेरोते अपनी कहानी बताती है. शीला की कहानी सुन कर वह महिला यानी लक्ष्मी माता उसे उस का दुख दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्रवार व्रत रखने की विधि समझाती है. कथा अनुसार जैसे ही शीला 21 शुक्रवार का व्रत पूरा करती है, उस के  घर में धनधान्य की बहार आ जाती है. उस का पति सही रास्ते पर आ जाता है और उस का जीवन फिर से खुशियों से भर जाता है.

इस कथा को पढ़ कर कई सवाल उत्पन्न होते हैं जैसे कि क्या कोई देवी स्वयं आ कर अपने भक्त से यह कह सकती है कि तुम मेरी पूजा करो? यदि लक्ष्मी माता शीला से प्रसन्न हो कर उस के घर पर स्वयं आई थी तो फिर शीला को व्रत रखने की क्या आवश्यकता थी? क्या लक्ष्मी माता अपनी सेवा करवाए बिना अपने भक्तों के दुखों को दूर नहीं कर सकती? और सब से महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह कि शीला के मात्र 21 शुक्रवार तक व्रत रखने से उस के सारे बिगड़े काम बन गए, जबकि इस देश में ऐसी करोड़ों शीलाएं हैं जो सैकड़ों शुक्रवारों का व्रत रख चुकी हैं लेकिन उन का कोई काम नहीं बना, ऐसा क्यों?

शीला कौन है

इस पुस्तिका के शुरू में लक्ष्मी के 6 विभिन्न स्वरूप दिए गए हैं जिस में हर स्वरूप के नीचे लिखा गया है कि ‘हे लक्ष्मी मां, आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुईं वैसे ही सब पर प्रसन्न हों और सब की मनोकामना पूरी करें.’

यहां प्रश्न यह उठता है कि जिस शीला को इस पुस्तिका में इतना महिमामंडित किया गया है वह कौन है? यदि वह माता लक्ष्मी की इतनी अनन्य भक्त है तो उस का उल्लेख इस पुस्तिका के अलावा किसी भी अन्य पुस्तक या धर्मग्रंथ में क्यों नहीं मिलता जबकि हिंदू शास्त्रों और पुराणों में भगवान के अलावा उन के अनन्य भक्तों जैसे कि राम भक्त हनुमान, कृष्ण भक्त सुदामा, विष्णु भक्त प्रह्लाद आदि का विशद वर्णन मिलता है तो फिर लक्ष्मी भक्त शीला की प्रविष्टि इस पुस्तिका के अलावा कहीं और क्यों नहीं हो पाती?

वास्तविकता यह है कि शीला का प्रमाण किसी पौराणिक ग्रंथ में मिल ही नहीं सकता क्योंकि यह पात्र आधुनिक युग के पंडितों की उपज है. जैसा कि इस कथा के पृष्ठ संख्या 14 पर शीला के पति के वर्णन से पता चलता है कि उसे शराब, जुआ, रेस, चरस, गांजा आदि की लत लग गई थी, ये सभी बुराइयां आधुनिक युग की ही देन हैं अत: यह निश्चित है कि शीला का कोई पौराणिक महत्त्व नहीं है.

विरोधाभासों का दस्तावेज

शुक्रवार व्रत कथा प्रारंभ से अंत तक विरोधाभासों का एक दस्तावेज भर है. पुस्तिका में पृष्ठ संख्या 19 पर लक्ष्मी माता शीला से कहती हैं कि हर इनसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं. अर्थात देवी माता खुद कर्म की प्रधानता का संदेश दे रही हैं जबकि अगले ही पृष्ठ पर वे कहती हैं कि माता लक्ष्मी का व्रत रखने से तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी. यह कैसी कर्मप्रधानता है जिस में कर्म का अर्थ केवल व्रत रखना है? पृष्ठ संख्या 17 पर व्रत रखने की विधि में बताया गया है कि सोने के गहनों की विधिविधान से पूजा करनी चाहिए. यहां यह बात समझ में नहीं आती है कि यदि व्यक्ति के पास सोना ही होगा तो उसे व्रत रखने की आवश्यकता ही क्या है? क्या लक्ष्मी माता सोनेचांदी की चमक के बिना प्रसन्न नहीं होतीं? क्या लक्ष्मी माता के पास खुद सोने की कमी है, जो उन्हें अपनी पूजन की थाली में सोने का गहना देखने का लालच है?

लाटरी और जुए का समर्थन

पुस्तिका के अंत में कुछ ऐसे कपोल कल्पित उदाहरण दिए गए हैं जो आप को लाफ्टर चैलेंज जैसी हंसी का एहसास करा सकते हैं. पहला ही उदाहरण नवसारी की किसी महिला (बिना नामपते वाली) का दिया गया है जिस में शुक्रवार व्रत रखने से उस की 50 हजार रुपए की लाटरी लग गई. क्या इस उदाहरण से आप को ऐसा नहीं लगता कि मानो साक्षात लक्ष्मी माता कह रही हों कि भविष्य में यदि लाटरी या जुआ खेलना हो तो उस से पहले मेरा व्रत रखना, तुम्हें अवश्य लाभ होगा.

क्या इस तरह के उदाहरण लोगों को जुए और लाटरी की लत के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं? इस के अलावा और भी 6 उदाहरण इस पुस्तिका में दिए गए हैं जिन में बताया गया है कि शुक्रवार का व्रत रखने से किसी व्यक्ति के खोए हुए हीरे वापस मिल गए तो किसी की बेटी की शादी हो गई. परंतु एक बात सभी में समान है कि इन उदाहरणों में जितने भी भक्तों का जिक्र किया गया है उन में से किसी का भी पता नहीं दिया गया है.

विदेशी सप्ताह, भारतीय व्रत

मैं अकसर व्रत रखने वाली महिलाओं से यह प्रश्न करता हूं कि सोमवार से ले कर रविवार तक जो महिलाएं व्रत रखती हैं (धन्य हैं वे पंडित जिन्होंने हफ्ते का एक दिन भी खाली नहीं छोड़ा) उन का पौराणिक महत्त्व क्या है और ये व्रत कब से प्रचलन में हैं. सभी महिलाएं बिना सोचेसमझे कहती हैं कि ये व्रत भारतीय परंपरा में हजारों वर्षों से हैं.

यह बात समझ के परे है क्योंकि साप्ताहिक दिनों पर आधारित कैलेंडर, रोमन कैलेंडर है, भारतीय कैलेंडर चंद्रमा पर आधारित कैलेंडर है, जो तिथियों पर आधारित है और यही कारण है कि कोई भी भारतीय त्योहार दिन के हिसाब से नहीं आता, तिथियों के हिसाब से आता है.

भारत में अंगरेजी कैलेंडर की शुरुआत तब हुई होगी जब अंगरेजों ने भारत को गुलाम बनाया था क्योंकि उस से पहले सप्ताह के दिनों पर आधारित कैलेंडर की कल्पना भारत में नहीं की गई थी. इस से साफ है कि दिनों पर आधारित ये व्रत आधुनिक काल की देन हैं जिन का कोई भी पौराणिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि किसी भी प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथ में इन व्रतों का कोई वर्णन नहीं मिलता है, फिर ये व्रत कैसे प्रचलन में आए, यह प्रश्न विचारणीय है.

इन तमाम बातों का निचोड़ यह है कि कोई भी व्रत, उपवास या पूजा आप को लखपति नहीं बना सकती है. लक्ष्मी की साधना साधनों से नहीं बल्कि कठिन परिश्रम से की जाती है.

इस दुनिया में करोड़ों लोग बिना लक्ष्मी की पूजा किए धनवान हैं क्योंकि वे अपना कर्म कर रहे हैं. वहीं, करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो लक्ष्मी की पूजा करते हुए भी गरीबी को भोग रहे हैं क्योंकि वे बिना कर्म किए लाटरी खोलने वाली लक्ष्मी में विश्वास करते हैं.

पूजापाठ नहीं मेहनत से पैसा

कुछ साल पहले ‘थ्री इडियट्स’ नाम की एक सुपरहिट फिल्म आई थी जिस में राजू नाम का एक किरदार इम्तिहान में पास होने के लिए होस्टल के कमरे में रखे मूर्तिरूपी बहुत से भगवानों की शरण में जाता है, हाथों की कई उंगलियों में तथाकथित चमत्कारी अंगूठियां पहनता है.

ऐसी बेवकूफी करने वाला वही अकेला नहीं होता है, बल्कि उस फिल्म के और भी कई दूसरे नौजवान छात्र किरदार ऐसा ही करते नजर आते हैं. कोई गाय को चारा देता है, ताकि इम्तिहान नतीजों में बेचारा साबित न हो जाए तो कोई सांप के आगे दूध का कटोरा रखता है, ताकि फेल के बाद इंजीनियर बनाने के बजाय दूध बेचने के लिए तबेला न खोलना पड़ जाए.

वह तो खैर फिल्म थी लेकिन असल जिंदगी में भी आप को बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी कड़ी मेहनत से ज्यादा पूजापाठ के भरोसे पैसा बनाने की सोच रखते हैं. इस में नई पीढ़ी भी काफी तादाद में शामिल दिखाई देती है. जिस का नतीजा कभीकभार तो इतना खतरनाक हो जाता है जो किसी की जान पर जा कर खत्म होता है.

साल 2017 की बात है. छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार जिले में एक पिता ने जल्द से जल्द अमीर बनने के चक्कर में अपनी 4 साल की मासूम बेटी की बलि दे दी थी.

हत्या की यह वारदात बलौदा बाजार जिले के तिल्दा इलाके की थी जहां आरोपी दीपचंद ने रातोंरात अमीर बनने के लालच में एक तांत्रिक की बातों में आ कर अपनी बेटी लक्ष्मी की बलि चढ़ा दी थी.

पुलिस हिरासत में दीपचंद ने बताया कि उसे गांव के ही एक तांत्रिक ने अमीर बनने के लिए तंत्रमंत्र करने की सलाह दी थी. दीपचंद ने उस के कहने के मुताबिक ही अपनी बेटी का गला घोंट कर उसे मौत के घाट उतार दिया था. हत्या के बाद वह भगवान के सामने खड़े हो कर मंत्र जाप करने लगा था.

इस तरह किसी अपने की बलि दे कर जल्दी पैसा बनाने की यह हद ही मानी जाएगी, लेकिन हमारे देश की बहुत सारी आबादी अभी भी अपनी मेहनत के बजाय पूजापाठ के भरोसे ही पैसा बनाने की जुगत भिड़ाती रहती है और अपनी तमाम जिंदगी नकारा गुजार देती है, जिस का फायदा पंडेपुजारी और मुल्लामौलवी उठाते हैं.

हिंदू धर्म में तो पैसे को लक्ष्मी का रूप कह दिया गया है और दिलचस्प बात तो यह है कि वह आप से रूठ भी सकती है. लक्ष्मी के रूठने का यही डर लोगों को भाग्यवादी बनाता है और वे मेहनत से ज्यादा पूजापाठ पर यकीन करने लगते हैं.

पंडेपुजारी इसी बात की ताक में रहते हैं. वे मंदिर में आए ऐसे लोगों को समझाते हैं कि जब तक भाग्य बलवान नहीं होगा तब तक हाथ आया पैसा भी किसी काम नहीं आएगा या काम में बरकत तभी होगी जब इस लक्ष्मी को रूठने से बचा लोगे.

ऐसे ठग लोगों का नैटवर्क इतना बड़ा हो गया है कि वे अब घरमहल्ले से ऊपर उठ कर सोशल साइट्स बना कर लोगों को ठगने के लिए तकनीक का भी सहारा लेने लगे हैं. वे बड़े ही शातिराना ढंग से लोगों की भावनाओं से खेलते हैं, उन्हें चमत्कारी यंत्र और दूसरे सामान का गुणगान कर के इस तरह गुमराह करते हैं कि सामने वाले को लगता है कि अगर उस के पास वही चमत्कारी चीज आ जाएगी तो उस की गरीबी छूमंतर हो जाएगी.

इस चक्कर में वह नासमझ अपनी जेब की गाढ़ी कमाई भी उन को सौंप देता है, जबकि उस की गरीबी में रत्तीभर भी फर्क नहीं आता है.

यह सब शुरू होता है घरघर, महल्लेमहल्ले, गांवगांव, शहरशहर में बने धार्मिक स्थलों से, जहां पहले से ही घर के बड़े लोग नई पीढ़ी के मन में बैठा देते हैं कि कर्म से बड़ा भाग्य होता है और अगर आप का भाग्य अच्छा है तो पैसा बिना मेहनत किए ही छप्पर फाड़ कर बरसता है.

‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सब के दाता राम’ जैसी बातों ने ही लोगों को भटकाया है जबकि ऐसा होता तो सीता को बचाने के लिए खुद राम को इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती.

अगर दुनिया के किसी भी अमीर देश को देखेंगे तो पता चलेगा कि वहां के लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत से उसे इतना आगे बढ़ाया है.

अमेरिका द्वारा जापान के 2 शहरों पर परमाणु बम के हमले के बाद वह देश काफी पीछे चला गया था, पर वहां के लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और ऊपर वाले के बजाय अपने हाथों, पढ़ाईलिखाई, नई तकनीक और कड़ी मेहनत पर भरोसा कर के जापान को दोबारा अमीर देशों में शुमार कर दिया. अगर वे उन हमलों को ऊपर वाले का कहर मान कर उस के चमत्कार के भरोसे बैठे रहते तो आज भी पिछड़े रहते.

दूर क्यों जाते हैं. आजादी के बाद पंजाब ने तरक्की में बाजी मार ली थी, जबकि भारत के हर राज्य के पास ऐसा करने का मौका था. इस की एक बड़ी वजह यह थी कि बंटवारे के बाद वहां सब से पहले तो सोशल सिस्टम टूट गया था. लोग दीनधर्म के चक्कर में न पड़ कर मेहनत पर ज्यादा ध्यान देने लगे थे. उन्हें यह भी साबित करना था कि भारत को मिली यह आजादी कोई खैरात नहीं है बल्कि उन की मेहनत का नतीजा है.

इस बात को उन्होंने अपने खेतों में पसीना बहा कर सच भी कर दिखाया था. और जो काम करता है उस के पास पूजापाठ करने का समय ही नहीं होता है.

इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि मेहनत से बड़ा कोई ऊपर वाला नहीं है. जो इनसान इस बात को जितना जल्दी समझ लेता है, वह हर पल का सही इस्तेमाल कर के समय को ही पैसे में तबदील करने की कला जान जाता है.

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