मौत का कारण: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

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यक्ष प्रश्न- भाग 2: निमी को क्यों बचाना चाहती थी अनुभा

अनुभा के पास तर्क थे, परंतु निमी के ऊपर उन का कोई असर न होता. कालेज के बाद दोनों सहेलियां अलग हो गईं. अनुभा के पिता केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति से वापस लखनऊ चले गए. अनुभा ने वहां से सिविल सर्विसेज की तैयारी की और यूपीएससी की गु्रप बी सेवा में चुन ली गई. कई साल लखनऊ, इलाहाबाद और बनारस में पोस्टिंग के बाद अब उस का दिल्ली आना हुआ था. इस बीच उस की शादी भी हो गई. पति केंद्र सरकार में ग्रुप ए अफसर थे. दोनों ही दिल्ली में तैनात थे. उस की 10 वर्ष की 1 बेटी थी.

अनुभा को निमी के जीवन के पिछले 15 वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं था. उसे उत्सुकता थी, जल्दी से जल्दी उस के बारे में जानने की. आखिर उस के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उस ने अपने शरीर का सत्यानाश कर लिया… तमाम रोगों ने उस के शरीर को जकड़ लिया. वह शाम होने का इंतजार कर रही थी. प्रतीक्षा में समय भी लंबा लगने लगता है. वह बारबार घड़ी देखती, परंतु घड़ी की सूइयां जैसे आगे बढ़ ही नहीं रही थीं.

किसी तरह शाम के 5 बजे. अभी भी 1 घंटा बाकी था, परंतु वह अपने सीनियर को अस्पताल जाने की बात कह कर बाहर निकल आई. गाड़ी में बैठने से पहले उस ने अपने पति को फोन कर के बता दिया कि वह अस्पताल जा रही है. घर देर से लौटेगी.

अनुभा को देखते ही निमी के चेहरे पर खुशी फैल गई जैसे उस के अंदर असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार होने लगा हो.

अनुभा उस के लिए फल लाई थी. उन्हें सिरहाने के पास रखी मेज पर रख कर वह निमी के पलंग पर बैठ गई. फिर उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’’

निमी के होंठों पर खुशी की मुसकान थी, तो आंखों में एक आत्मीय चमक… चेहरा थोड़ा सा खिल गया था. बोली, ‘‘लगता है अब मैं बच जाऊंगी.’’

रात में अनुभा ने अपने पति हिमांशु को निमी के बारे में सबकुछ बता दिया. सुन कर उन्हें भी दुख हुआ. अगले दिन सुबह औफिस जाते हुए वे दोनों ही निमी से मिलने गए. हिमांशु ने डाक्टर से मिल कर निमी की बीमारियों की जानकारी ली. डाक्टर ने जो कुछ बताया, वह बहुत दर्दनाक था. निमी के फेफड़े ही नहीं, लिवर और किडनियां भी खराब थीं. वह शराब और सिगरेट के अति सेवन से हुआ था. अनुभा को पता नहीं था कि वह इन सब का सेवन करती थी. हिमांशु ने जब उसे बताया, तो वह हैरान रह गई. पता नहीं किस दुष्चक्र में फंस गई थी वह?

खैर, हिमांशु और अनुभा ने यह किया कि रात में निमी के पास अपनी नौकरानी को देखभाल के लिए रख दिया. हिमांशु नियमित रूप से उस के इलाज की जानकारी लेते. उन के कारण ही अब डाक्टर विशेषरूप से निमी का ध्यान रखने लगे थे. वह बेहतर से बेहतर इलाज उसे मुहैया करा रहे थे.

इस सब का परिणाम यह हुआ कि निमी 1 महीने के अंदर ही इतनी ठीक हो गई कि अपने घर जा सकती थी. हालांकि दवा नियमित लेनी थी.

जिस दिन उसे अस्पताल से डिस्चार्ज होना था वह कुछ उदास थी. उस का सौंदर्य पूर्णरूप से तो नहीं, परंतु इतना अवश्य लौट आया था कि वह बीमार नहीं लगती थी.

अनुभा ने पूछा, ‘‘तुम खुश नहीं लग रही हो… क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि ठीक हो कर घर जा रही हो?’’

निमी ने खाली आंखों से अनुभा को देखा और फिर फीकी आवाज में कहा, ‘‘कौन सा घर? मेरा कोई घर नहीं है.’’

‘‘अपने दोस्त के यहां, जो तुम्हारा इलाज करवा रहा था…’’

एक फीकी उदास हंसी निमी के होंठों पर तैर गई, ‘‘जो व्यक्ति मुझ से मिलने अस्पताल में कभी नहीं आया, जिसे पता है कि मेरे शरीर के महत्त्वपूर्ण अंग बेकार हो चुके हैं. वह मुझे अपने घर रखेगा?’’

‘‘फिर वह तुम्हारा इलाज क्यों करवा रहा था?’’

‘‘बस एक यही एहसान उस ने मेरे ऊपर किया है. मेरे प्यार का कुछ कर्ज उसे अदा करना ही था. वह बहुत पैसे वाला है, परंतु एक बीमार औरत को घर में रखने का फैसला उस के पास नहीं है. उसे रोज अनगिनत सुंदर और कुंआरी लड़कियां मिल सकती हैं, तो वह मेरी परवाह क्यों करेगा. वैसे मैं स्वयं उस के पास नहीं जाना चाहती हूं. मैं किसी भी मर्द के पास नहीं जाना चाहती. मर्दों ने ही मुझे प्यार की इंद्रधनुषी दुनिया में भरमा कर मेरी यह दुर्गति की है… मैं किसी महिला आश्रम में जाना चाहूंगी,’’ उस के स्वर में आत्मविश्वास सा आ गया था.

अनुभा सोच में पड़ गई. उस ने हिमांशु से सलाह ली. फिर निमी से बोली, ‘‘तुम कहीं और नहीं जाओगी, मेरे घर चलोगी.’’

‘‘तुम्हारे घर?’’ निमी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां, और अब इस के बाद कोई सवाल नहीं, चलो.’’

अनुभा और हिमांशु को मोतीबाग में टाइप-5 का फ्लैट मिला था. उस में पर्याप्त कमरे थे. 1 कमरा उन्होंने निमी को दे दिया. निमी अनुभा और हिमांशु की दरियादिली, प्रेम और स्नेह से अभिभूत थी. उस के पास धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं थे.

निमी के पिता आर्मी औफिसर थे. मां भी उच्च शिक्षित थीं. आर्मी में रहने के कारण उन्हें तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं. पिता रोज क्लब जाते थे और शराब पी कर लौटते थे. मां भी कभीकभार क्लब जातीं और शराब का सेवन करतीं. उन के घर में शराब की बोतलें रखी ही रहतीं. कभीकभार घर में भी महफिल जम जाती. निमी के पिता के यारदोस्त अपनी बीवियों के साथ आते या कोई रिश्तेदार आ जाता, तो महफिल कुछ ज्यादा ही रंगीन हो जाती.

निमी बचपन से ही ये सब देखती आ रही थी. उस के कच्चे मन में वैसी ही संस्कृति और संस्कार घर कर गए. उसे यही वास्तविक जीवन लगता. 15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते उस ने शराब का स्वाद चोरीछिपे चख लिया था और सिगरेट के सूट्टे भी लगा लिए थे.

ग्रैजुएशन करने के बाद निमी ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘मैं यूपीएसी का ऐग्जाम देना चाहती हूं.’’

‘‘तो तैयारी करो.’’

‘‘कोचिंग करनी पड़ेगी. अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट डीयू के आसपास मुखर्जी नगर में हैं.’’

‘‘क्या दिक्कत है? जौइन कर लो.’’

‘‘परंतु इतनी दूर आनेजाने में बहुत समय बरबाद हो जाएगा. मैं चाहती हूं कि यहीं आसपास बतौर पीजी रह लूं और सीरियसली कंपीटिशन की तैयारी करूं… तभी कुछ हो पाएगा,’’ निमी ने कहा.

मम्मीपापा ने एकदूसरे की आंखों में एक पल के लिए देखा, फिर पापा ने उत्साह से कहा,  ‘‘ओके माई गर्ल. डू व्हाटएवर यू वांट.’’

‘‘किंतु यह अकेले कैसे रहेगी?’’ मम्मी ने शंका व्यक्त की.

‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. शी इज ए बोल्ड गर्ल. आजकल लड़कियां विदेश जा रही हैं पढ़ने के लिए. यह तो दिल्ली शहर में ही रहेगी. जब मरजी हो जा कर मिल आया करना. यह भी आतीजाती रहेगी.’’

‘‘यस मौम,’’ निमी ने दुलार से कहा. जब बापबेटी राजी हों, तो मां की कहां चलती है. उसे परमीशन मिल गई. उस ने 1 साल का कन्सौलिडेटेड कोर्स जौइन कर लिया और मुखर्जी नगर में ही रहने लगी.

जैसाकि निमी का स्वभाव था, वह जल्दी लड़कों में लोकप्रिय हो गई. कोचिंग में पढ़ने वाले कई लड़के उस के दोस्त बन गए. सभी धनाढ्य घरों के थे. उन के पास अनापशनाप पैसे आते थे. आएदिन पार्टियां होतीं. निमी उन पार्टियों की शान समझी जाती थी.

प्रेम का निजी स्वाद- भाग 3: महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

स्त्रीमन अभेद्य दुर्ग सरीखा होता है. युक्ति लगा कर उस में प्रवेश पाना लगभग नामुमकिन है. लेकिन हां, अगर द्वार पर लटके ताले की चाबी किसी तरह प्राप्त हो जाए तो फिर इस की भीतरी तह तक सुगमता से पहुंचा जा सकता है. कमल को शायद अभी तक यह चाबी नहीं मिली थी.

अगले कुछ दिनों तक महिमा की क्लासेज बंद रहने वाली थीं. वतन अपनी शादी के सिलसिले में छुट्टी ले कर गया था. उस के बाद वह हनीमून पर जाने वाला था. महिमा की चिड़चिड़ाहट चरम पर थी. न ठीक से खापी रही थी न ही कमल की तरफ उस का ध्यान था. कितनी ही बार कमल ने उस का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की लेकिन महिमा के होंठों पर मुसकान नहीं ला सका. एकदो बार तो गिटार के तार छेड़ने की कोशिश भी की लेकिन महिमा ने इतनी बेदर्दी से उस के हाथ से गिटार छीना कि वह सकते में आ गया.

बीमारी यदि शरीर की हो तो दिखाई देती है, मन के रोग तो अदृश्य होते हैं. ये घुन की तरह व्यक्ति को खोखला कर देते हैं. महिमा की बीमारी जानते हुए भी कमल इलाज करने में असमर्थ था. वतन का प्यार कोई वस्तु तो थी नहीं जिसे बाजार खरीदा जा सके. दोतरफा होता, तब भी कमल किसी तरह अपने दिल पर पत्थर रख लेता. लेकिन यहां तो वतन को खबर ही नहीं है कि कोई उस के प्यार में लुटा जा रहा है.

कमल महिमा की बढ़ती दीवानगी को ले कर बहुत चिंतित था. उस ने तय किया कि वह कुछ दिनों के लिए महिमा को उस की मां के पास छोड़ आएगा. शायद जगह बदलने से ही कुछ सकारात्मक असर पड़े. बेटीदामाद को एकसाथ देखते ही मां खिल गईं. कमल सास के पांवों में झुका तो मां के मुंह से सहस्रों आशीष बह निकले.

एक दिन ठहरने के बाद कमल वापस चला गया. जातेजाते उस का उदास चेहरा मां की आंखों में तसवीर सा बस गया था. मां ने अकेले में महिमा को बहुत कुरेदा लेकिन उन के हाथ कुछ भी नहीं लगा. महिमा का उड़ाउड़ा रंग उन्हें खतरे के प्रति आगाह कर रहा था. मां महिमा के आसपास बनी रहने लगीं.

दाइयों से भी कभी पेट छिपे हैं भला? दोचार दिनों में ही मां ताड़ गईं कि मामला प्रेम का है. ऐसा प्रेम जिसे न स्वीकार करते बन रहा है और न परित्याग. लेकिन भविष्य को अनिश्चित भी तो नहीं छोड़ा जा सकता न? एक दिन जब महिमा बालकनी के कोने में कोई उदास धुन गुनगुना रही थी, मां उस के पीछे आ कर खड़ी हो गईं.

“बहुत अपसैट लग रही हो. कोई परेशानी है, तो मुझे बताओ. मां हूं तुम्हारी, तुम्हारी बेहतरी ही सोचूंगी,” मां ने महिमा के कंधे पर हाथ रख कर कहा. उन के अचानक स्पर्श से महिमा चौंक गई.

“नहीं, कुछ भी तो नहीं. यों ही, बस, जरा दिल उदास है,” महिमा ने यह कह कर उन का हाथ परे हटा दिया. मां उस के सामने आ खड़ी हुईं. उन्होंने महिमा का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया और एकटक उस की आंखों में देखने लगीं. महिमा ने अपनी आंखें नीची कर लीं.

“कहते हैं कि गोद वाले बच्चे को छोड़ कर पेट वाले से आशा नहीं रखनी चाहिए. यानी, जो हासिल है उसे ही सहेज लेना चाहिए बजाय इस के कि जो हासिल नहीं, उस के पीछे भागा जाए,” मां ने धीरे से कहा. महिमा की आंखें डबडबा आईं. वह मां के सीने से लग गई. टपटप कर उन का आंचल भिगोने लगी. मां ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया.

कुछ देर रो लेने के बाद जब महिमा ने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो बहुत शांत लग रही थी. शायद उस ने मन ही मन कोई निर्णय ले लिया था. मां ने उस का कंधा थपथपा दिया.

“कमल को फोन कर के आने को कह दे. अकेला परेशान हो रहा होगा,” मां ने उस के हाथ में मोबाइल थमाते हुए कहा. अगले ही दिन कमल आ गया. कमल को देखते ही महिमा लहक कर उस के सीने से लग गई. कमल फिर से हैरान था.

‘यह लड़की है या पहेली.’ कमल उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा लेकिन असफल रहा.

इधर महिमा समझ गई थी कि कुछ यादों को यदि दिल में दफन कर लिया जाए तो वे धरोहर बन जाती हैं. वतन की मोहब्बत को पाने के लिए कमल के प्रेम का त्याग करना किसी भी स्तर पर समझदारी नहीं कही जा सकती वह भी तब, जब वतन को इस प्रेम का आभास तक न हो. और वैसे भी, प्रेम कहां यह कहता है कि पाना ही उस का पर्याय है. यह तो वह फूल है जो सूखने के बाद भी अपनी महक बिखेरता रहता है.

“हम कल ही अपने घर चलेंगे,” महिमा ने कहा. कमल ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

महिमा मन ही मन वतन की आभारी है. वह उस की जिंदगी में न आता तो प्रेम के वास्तविक स्वरूप से उस का परिचय कैसे होता? कैसे वह इस का स्वाद चख पाती. वह स्वाद, जिस का वर्णन तो सब करते हैं लेकिन बता कोई नहीं पाता. असल स्वाद तो वही महसूस कर पाता है जिस ने इसे चखा हो.

हरेक के लिए प्रेम का स्वाद नितांत निजी होता है और उस का स्वरूप भी.

प्रेम का निजी स्वाद- भाग 2: महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

वतन ने संगीत के 8वें सुर की तरह उस के जीवन में प्रवेश किया. महिमा की जिंदगी सुरीली हो गई. रंगों का एक वलय हर समय उसे घेरे रहता. वतन के साथ ने उस की सोच को भी नए आयाम दिए. उस ने महिमा को एहसास करवाया कि मात्र सुर-ताल के साथ गाना ही संगीत नहीं है. संगीत अपनेआप में संपूर्ण शास्त्र है.

कॅरिओके पर अभ्यास करने वाली महिमा जब वाद्ययंत्रों की सोहबत में गाने लगी तो उसे अपनी आवाज पर यकीन ही न हुआ. जब उस ने अपनी पहली रिकौर्डिंग सुनी तब उसे एहसास हुआ कि वह कितने मधुर कंठ की स्वामिनी है. पहली बार उसे अपनी आवाज से प्यार हुआ.

सुगम संगीत से ले कर शास्त्रीय संगीत तक और लोकगीतों से ले कर ग़ज़ल तक, सभीकुछ वतन इतने अच्छे से निभाता था कि महिमा के पांव हौलेहौले जमीन पर थपकी देने लगते और उस की आंखें खुद ही मुंदने लगतीं. महिमा आनंद के सागर में डूबनेउतरने लगती. उन पलों में वह ब्रह्मांड में सुदूर स्थित किसी आकाशगंगा में विचरण कर रही होती.

‘यदि संगीत को पूरी तरह से जीना है तो कम से कम किसी एक वाद्ययंत्र से दोस्ती करनी पड़ेगी. इस से सुरों पर आप की पकड़ बढती है,’ एक दिन वतन ने उस से यह कहा तो महिमा ने गिटार बजाना सीखने की मंशा जाहिर की. उस की बात सुन कर वतन मुसकरा दिया. वह खुद भी यही बजाता है.

कला की दुनिया बड़ी विचित्र होती है. यह तिलिस्म की तरह होती है. यह आप को अपने भीतर आने के लिए आमंत्रित करती है, उकसाती है, सम्मोहित करती है. यह कांटें से बांध कर खींच भी लेती है. जो इस में समा गया वह बाहर आने का रास्ता खोजना ही नहीं चाहता. महिमा भी वतन की कलाई थामे बस बहे चली जा रही थी.

गिटार पर नृत्य करती वतन की उंगलियां महिमा के दिल के तारों को भी झंकृत करने लगीं. कोई समझ ही न सका कि कब प्रेम के रेशमी धागों की गुच्छियां उलझने लगीं.

सीखना कभी भी आसान नहीं होता. चूंकि मन हमेशा आसान को अपनाने पर ही सहमत होता है, इसलिए वह सीखने की प्रक्रिया में अवरोह उत्पन्न करने लगता है और इस के कारण अकसर सीखने की प्रक्रिया बीच में ही छोड़ देने का मन बनने लगता है.

महिमा को भी गिटार सीखना दिखने में जितना आसान लग रहा था, हकीकत में उस के तारों को अपने वश में करना उतना ही कठिन था. बारबार असफल होती महिमा ने भी प्रारंभिक अभ्यास के बाद गिटार सीखने के अपने इरादे से पांव पीछे खींच लिए. लेकिन वतन अपने कमजोर विद्यार्थियों का साथ आसानी से छोड़ने वालों में न था. जब भी महिमा ढीली पड़ती, वतन इतनी सुरीली धुन छेड़ देता कि महिमा दोगुने जोश से भर उठती और अपनी उंगलियों को वतन के हवाले कर देती.

वतन जब उसे किसी युगल गीत का अभ्यास करवाता तो महिमा को लगता मानो वही इस गीत की नायिका है और वतन उस के लिए ही यह गीत गा रहा है. स्टेज पर दोनों की प्रस्तुति इतनी जीवंत होती कि देखनेसुनने वाले किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते.

अब महिमा गिटार को साधने लगी थी. अभ्यास के लिए वतन उसे कोई नई धुन बनाने को कहता, तो महिमा सबकुछ भूल कर, बस, दिनरात उसी में खोई रहती. घर में हर समय स्वरलहरियां तैरने लगीं. कमल भी उसे खुश देख कर खुश था.

महिमा सुबह से ही दोपहर होने की प्रतीक्षा करने लगती. कमल को औफिस के लिए विदा करने के बाद वह गिटार ले कर अपने अभ्यास में जुट जाती. जैसे ही घड़ी 3 बजाती, महिमा अपना स्कूटर उठाती और वतन के संगीत स्कूल के लिए चल देती. वहां पहुंचने के बाद उसे वापसी का होश ही न रहता. घर आने के बाद कमल उसे फोन करता तब भी वह बेमन से ही लौटती.

‘काश, वतन और मैं एकदूसरे में खोए, बस, गाते ही रहें. वह गिटार बजाता रहे और मैं उस के लिए गाती रहूं.’ ऐसे खयाल कई बार उसे बेचैन कर देते थे. वह अपनी सीमाएं जानती थी. लेकिन मन कहां किसी सीमा को मानता है. वह तो, बस, प्रिय का साथ पा कर हवा हो जाता है.

‘कल एक सरप्राइज पार्टी है. एक खास मेहमान से आप सब को मिलवाना है.’ उस दिन वतन ने क्लास खत्म होने पर यह घोषणा की तो सब इस सरप्राइज का कयास लगाने लगे. महिमा हैरान थी कि इतना नजदीक होने के बाद भी वह वतन के सरप्राइज से अनजान कैसे है. घर पहुंचने के बाद भी उस का मन वहीं वतन के इर्दगिर्द ही भटक रहा था.

“क्या सरप्राइज हो सकता है?” महिमा ने कमल से पूछा.

“हो सकता है उस की शादी तय हो गई हो. अपनी मंगेतर से मिलवाना चाह रहा हो,” कमल ने हंसते हुए अपना मत जाहिर किया. सुनते ही महिमा तड़प उठी. दर्द की लहर कहीं भीतर तक चीर गई. अनायास एक अनजानीअनदेखी लड़की से उसे ईर्ष्या होने लगी. रात बहुत बेचैनी में कटी. उसे करवटें बदलते देख कर कमल भी परेशान हो गया. दूसरे दिन जब महिमा संगीत स्कूल से वापस लौटी तो बेहद खिन्न थी.

“क्या हुआ? कुछ परेशान हो? क्या सरप्राइज था?” जैसे कई सवाल कमल ने एकसाथ पूछे तो महिमा झल्ला गई.

“बहुत काली जबान है आप की. वतन अपनी मंगेतर को ही सब से मिलाने लाया था. अगले महीने उस की शादी है,” कहतेकहते उस की रुलाई लगभग फूट ही पड़ी थी. आंसू रोकने के प्रयास में उस का चेहरा टेढ़ामेढ़ा होने लगा तो वह बाथरूम में चली गई. कमल अकबकाया सा उसे देख रहा था. वह महिमा की रुलाई के कारण को कुछकुछ समझने का प्रयास कर रहा था लेकिन वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे आखिर करना क्या चाहिए.

मौत का कारण- भाग 3: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

हंसतेखिलखिलाते बच्चे का एकाएक गुमसुम हो जाना उस के मानसिक रोगी बनने की निशानी है. अतएव उस पर गंभीरता से ध्यान दें.’’ उस की कक्षा अध्यापिका ने ठीक ही कहा था. उन्होंने वरुण का कितने अपनत्व से निरीक्षण किया और मेरे क्रोध की परवा किए बिना मुझे समझाया, सुझाव दिया. मेरा मन आदर से झुक गया.

‘ओह, मांजी आप इतनी जल्दी क्यों चली गईं. आप के न रहने के दुख के अलावा हमें और न जाने कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा,’ मैं मन ही मन बुदबुदाई. घर लौटने पर वरुण को नौकरानी सुशीला से गपशप करते देख कर जान में जान आई. मैं ने कपड़े बदले और सुशीला को छुट्टी दे दी. फिर वरुण को ममता से अंक में भर लिया. पर उस के मुखड़े पर मुसकान की एक क्षीण रेखा भी नहीं उभरी.

‘‘वरुण, सब को एक न एक दिन मरना पड़ता है,’’ मैं ने स्वयं ही अप्रिय विषय छेड़ दिया.

‘‘जानता हूं,’’ वरुण की आंखों में उदासी झलकने लगी.

‘‘सब लोग छोटे से बड़े होते हैं और बड़े से बूढे़, बूढ़े हो कर सब अपनेआप मर जाते हैं. कोई किसी को नहीं मारता.’’

‘‘पर गांधीजी तो बूढ़े थे, फिर भी गोली से…’’

‘‘ऐसी एकाध घटना होती है. अधिकतर सभी की मौत अपनेआप होती है.’’

‘‘आप और पिताजी की मौत भी बूढ़े हो कर होगी. फिर मैं अकेला कैसे रहूंगा? दादी भी चली गईं.’’

उस का नन्हा मस्तिष्क हमारे बूढ़े होने के साथसाथ स्वयं के बड़े होने की कल्पना नहीं कर पा रहा था.

‘‘हम बूढ़े होंगे तब तुम भी तो बहुत बड़े हो चुके होगे.’’

‘‘पिताजी के बराबर?’’ उस ने पूछा और शायद आश्वस्त भी हो गया क्योंकि पिताजी को दादी की मृत्यु का सदमा शांति से झेलते हुए उस ने देखा था. उस को मेरी बात पर कुछकुछ विश्वास हो चला था. उस की कक्षा अध्यापिका ने कहा कि उसे किसी न किसी हौबी में उलझा कर रखना बेहद जरूरी है. मगर ऐसा कौन सा काम हो सकता है. पेंटिंग? उसे अच्छी तो लगती है पर ज्यादा देर बैठ कर नहीं कर पाएगा. कहानियां सुनना? पर मेरे पास कहानियों का इतना स्टौक कहां? फिर अचानक दिमाग में खयाल कौंधा, ‘बागबानी.’ सुबहशाम सुशीला ही हमारी छोटी सी बगिया में पानी देती थी. मैं ने सोचा अब से बागबानी की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लूं और वरुण को भी अपने साथ  व्यस्त रखूं. मैं जितना अधिक समय बगीचे  में लगाऊंगी, वह उतना ही दर्शनीय  होता जाएगा. हां, इस के लिए मुझे अपने कढ़ाईबुनाई के शौक को थोड़ा कम करना होगा, पर वरुण की समस्या शायद सुलझ जाए. शायद नित्य उगती, बढ़ती हरियाली ही वरुण की सोच को आशावादी और सकारात्मक बना सके.

मेरा योजना सचमुच सफल होती दिखाई दे रही थी. वरुण भी बगीचे में कूदताफांदता छोटेमोटे काम करता. नए बीज बोने और नन्हे पौधे सींचने में भी वह मेरी मदद करता. उस का बचपन लौटता जा रहा था, लाल गुलाब को वह लालू कहता और हरीहरी घास को हरिया. लगता था पौधों, फूलों से उस की गहरी दोस्ती हो गई, यह भी तो एक समस्या ही थी कि पासपड़ोस में उस का हमउम्र कोई नहीं था वरना शायद बात इतनी बढ़ती भी नहीं. बाग की गंदगी साफ करतेकरते मैं उस के मन में भी जानेअनजाने पनपी अवांछित समस्याओं का निराकरण करने लगी. सचमुच, अच्छे संस्कार डालना कितना मुश्किल है. ठीक इस लौन की घास की तरह. एक भी जंगली घास गलती से उग जाए तो वह आननफानन फैल कर पूरे लौन की कोमल घास को ढक देती है, यदि उसे समय पर उखाड़ा न जाए. वरुण की दिनचर्या में अब ठहराव आता गया. स्कूल से लौट कर खाना खाना, फिर कुछ देर सोना, उठ कर होमवर्क करना, शाम को मेरे साथ बागबानी, फिर हम दोनों कुछ दूर तक टहलने निकल जाते.

इधर बगीचा भी फलताफूलता जा रहा था, उधर वरुण भी अपनी दादी की मौत की बात कुछकुछ भूलता जा रहा था. इन्होंने वरुण के बदलाव को लक्ष्य किया और मेरी सफलता पर मेरी पीठ ठोंकी. बागबानी धीरेधीरे मेरा पहला शौक बनता जा रहा था. एक दिन यों ही जब बगीचे में पानी दे रही थी, वरुण ने पूछा, ‘‘मां, पेड़पौधों में भी  जान होती है न?’’

‘‘हां, तभी तो हम उन्हें पानी पिलाते हैं और वे बढ़ते भी हैं.’’

‘‘वे बूढ़े भी होते हैं?’’ उस का अगला सवाल था.

मैं उस के इस सवाल पर कुछ चौकन्नी हो गई. उस के बाद बम की तरह उस का हमेशा का सवाल भी आ धमका, ‘‘क्या वे मर भी जाते हैं?’’

‘‘हां, बूढ़े होने के बाद मर जाते हैं,’’ मैं ने संयत स्वर में कहा.

‘‘मैं ने तो कभी पेड़ों को अपनेआप मरते हुए नहीं देखा.’’

‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो न, तुम ने अभी बहुतकुछ नहीं देखा.’’

‘‘नहीं, मैं ने बहुतकुछ देखा है,’’ वरुण दृढ़ स्वर में बोला, ‘‘हमारी कालोनी में लगे हुए पेड़ों को लोग कुल्हाड़ी से काट रहे थे, काटने से वे मर गए. कल उन्हें होली में जलाया जाएगा जिस तरह दादी को…’’

उस के शब्द मेरे मस्तिष्क में हथौड़े की भांति पड़ रहे थे. वरुण का बचपन भी शायद असमय घटी घटनाएं देखसुन कर दम तोड़ देना चाहता था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया और हाथ से पानी का पाइप फिसल कर गिर गया. मैं ने देखा, वह पानी कच्ची मिट्टी के बजाय पक्के आंगन की ओर निष्फल, निरुद्देश्य बह रहा था, मेरे प्रयत्नों की तरह.

प्रेम का निजी स्वाद- भाग 1: महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

प्रेम… कहनेसुनने और देखनेपढ़ने में यह जितना आसान शब्द है, समझने में उतना ही कठिन. कठिन से भी एक कदम आगे कहूं तो यह कि यह समझ से परे की शै है. इसे तो केवल महसूस किया जा सकता है.

दुनिया का यह शायद पहला शब्द होगा जिस के एहसास से मूक पशुपक्षी और पेड़पौधे तक वाकिफ हैं. बावजूद इस के, इस की कोई तय परिभाषा नहीं है. अब ऐसे एहसास को अजूबा न कहें तो क्या कहें?

बड़ा ढीठ होता है यह प्रेम. न उम्र देखे न जाति. न सामाजिक स्तर न शक्लसूरत. न शिक्षा न पेशा. बस, हो गया तो हो गया. क्या कीजिएगा. तन पर तो वश चल सकता है, उस पर बंधन भी लगाया जा सकता है लेकिन मन को लगाम कैसे लगे? सात घोड़ों पर सवार हो कर दिलबर के चौबारे पहुंच जाए, तो फिर मलते रहिए अपनी हथेलियां.

महिमा भी आजकल इसी तरह बेबसी में अपनी हथेलियां मसलती रहती है. जबजब वतन उस के सामने आता है, वह तड़प उठती है. एक निगाह अपने पति कमल की तरफ डालती और दूसरी वतन पर जा कर टिक जाती है.

ऐसा नहीं है कि कमल से उसे कोई शिकायत रही थी. एक अच्छे पति होने के तमाम गुण कमल में मौजूद हैं. न होते तो क्या पापा अपने जिगर का टुकड़ा उसे सौंपते? लेकिन क्या भौतिक संपन्नता ही एक आधार होता है संतुष्टि का? मन की संतुष्टि कोई माने नहीं रखती? अवश्य रखती है, तभी तो बाहर से सातों सुखों की मालकिन दिखने वाली महिमा भीतर से कितनी याचक थी.

महिमा कभीकभी बहुत सोचती है प्रेम के विषय में. यदि वतन उस की जिंदगी में न आता तो वह कभी इस अलौकिक एहसास से परिचित ही न हो पाती. अधिकांश लोगों की तरह वह भी इस के सतही रूप को ही सार्थक मानती रहती. लेकिन वतन उस की जिंदगी में आया कहां था? वह तो लाया गया था. या कहिए कि धकेला गया था उस की तनहाइयों में.

कमल को जब लगने लगा कि अपनी व्यस्तता के चलते वह पत्नी को उस के मन की खुशी नहीं दे पा रहा है तो उस ने यह काम वतन के हवाले कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे अपराधबोध से ग्रस्त मातापिता समय की कमी पूरी करने के लिए बच्चे को खिलौनों की खेप थमा देते हैं.

हालांकि महिमा ने अकेलेपन की कभी कोई शिकायत नहीं की थी लेकिन कमल को दिनभर उस का घर में रह कर पति का इंतजार करना ग्लानि से भर रहा था. किट्टी पार्टी, शौपिंग और सैरसपाटा महिमा की फितरत नहीं थी. फिल्में और साहित्य भी उसे बांध नहीं पाता था. ऐसे में कमल ने उसे पुराने शौक जीवित करने का सुझाव दिया. प्रस्ताव महिमा को भी जंच गया और अगले ही रविवार तरुण सपनों में खुद को संगीत की भावी मल्लिका समझने वाली महिमा ने बालकनी के एक कोने को अपनी राजधानी बना लिया. संगीत से जुड़े कुछ चित्र दीवार की शोभा बढ़ाने लगे. गमलों में लगी लताएं रेलिंग पर झूलने लगीं. ताजा फूल गुलदस्ते में सजने लगे. कुल मिला कर बालकनी का वह कोना एक महफ़िल की तरह सज गया.

महिमा ने रियाज करना शुरू कर दिया. पहलेपहल यह मद्धिम स्वर में खुद को सुनाने भर जितना ही रहा. फिर जब कुछकुछ सुर नियंत्रण में आने लगे तो एक माइक और स्पीकर की व्यवस्था भी हो गई. कॅरिओके पर गाने के लिए कुछ धुनों को मोबाइल में सहेजा गया. महिमा का दोपहर के बाद वाला समय अब बालकनी में गुजरने लगा.

कला चाहे कोई भी हो, कभी भी किसी को संपूर्णरूप से प्राप्त नहीं होती. यह तो निरंतर अभ्यास का खेल है और अभ्यास बिना गुरु के मार्गदर्शन के संभव नहीं. तभी तो कहा गया है कि गुरु बिना ज्ञान नहीं. ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ. महिमा कुछ दिनों तो अपनेआप को बहलाती रही लेकिन फिर उसे महसूस होने लगा मानो मन के भाव रीतने लगे हैं. सुरों में एक ठंडापन सा आने लगा है. बहुत प्रयासों के बाद भी जब यह शिथिलता नहीं टूटी तो उस ने अपने रियाज को विश्राम दे दिया. जहां से चले थे, वापस वहीं पहुंच गए. महिमा फिर से ऊबने लगी.

और तब, उस की एकरसता तोड़ने के लिए कमल ने उसे वतन से मिलाया. संगीतगुरु वतन शहर में एक संगीत स्कूल चलाता है. समयसमय पर उस के विद्यार्थी स्टेज पर भी अपनी कला का प्रदर्शन करते रहते हैं. कंधे तक लंबे बालों को एक पोनी में बांधे वतन सिल्क के कुरते और सूती धोती में बेहद आकर्षक लग रहा था.

‘कौन पहनता है आजकल यह पहनावा.’ महिमा उसे देखते ही सम्मोहित सी हो गई और मन में उस के यह विचार आया. युवा जोश से भरपूर, संभावनाओं से लबरेज वतन स्वयं को संगीत का विद्यार्थी कहता था. नवाचार करना उस की फितरत, चुनौतियां लेना उस की आदत, नवीनता का झरना अनवरत उस के भीतर फूटता रहता. एक ही गीत पर अनेक कोणों से संगीत बनाने वाला वतन आते ही धूलभरे गुबार की तरह महिमा के सुरों को अपनी आगोश में लेता चला गया. महिमा तिनके की तरह उड़ने लगी.

मौत का कारण- भाग 2: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

वह फिर कुछ सोचता हुआ बोला, ‘‘हमारे घर पुलिस क्यों नहीं आई? दादी के कहीं खून भी नहीं बहा, ऐसा क्यों?’’

‘‘दादी की मौत अपनेआप हुई,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘हमारी छाती में बाईं ओर दिल होता है. वह घड़ी की तरह लगातार चलता रहता है. जब वह रुक जाता है तब मौत हो जाती है.’’

‘‘नहीं, आप गलत कह रही हैं. मौत चाकू, पिस्तौल, तलवार से होती है या फिर जल जाने से और जहर खाने से होती है,’’ वह फौरन बोल पड़ा. मैं अब समझी कि वह क्या कहना चाहता था. मौत का उस का ज्ञान और अनुभव टीवी पर दिखाई जाने वाली फिल्मों तक सीमित था. अतएव उसे फिल्मों में अकसर दिखाए जाने वाले मौत के कारणों  में से एक भी कारण नहीं मिल रहा था जो उस की दादी की मौत के लिए जिम्मेदार हो. ‘‘मेरी दादी सो रही थीं. आप लोगों ने जबरदस्ती उन्हें ले जा कर जला दिया,’’ उस ने अपने अनुभवों के तरकश से एक और तीर चलाया. यह जानते हुए भी कि उस की बातें उस की नादानी के फलस्वरूप उपजी हैं, मेरी रुलाई फूट पड़ी, ‘‘नहीं बेटे, हम ऐसा क्यों करने लगे?’’

‘‘क्योंकि आप उन की बहू हैं और सासबहू एकदूसरे की दुश्मन होती हैं.’’

‘‘यह भी सच नहीं है,’’ मैं ने सिसकियां भरते हुए कहा, पर वरुण मेरे रोने से भी नहीं पिघला. अपने दिल का गुबार निकाल कर वह आराम से पलंग पर लेट गया और थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई. पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. इस छोटे से मस्तिष्क में न जाने कितनी बातें समाई थीं, ‘उफ, ये सीरियल और फिल्में बनाने वाले कोई ढंग की चीज नहीं दिखा सकते.’ मैं मन ही मन उन्हें बुरी तरह कोसने लगी, उस के बाद मैं खुद को कोसने लगी कि हम लोगों ने ही उसे टीवी पर फालतू सीरियल देखने से रोका होता. पर छोटे बच्चों को ज्यादा रोकाटोेका भी तो नहीं जा सकता. मेरी विचारशृंखला तब तक चलती रही, जब तक ये घर नहीं आ गए.

‘‘जब देखो तब इतनी देर लगा कर आते हो? थोड़ा जल्दी नहीं आ सकते?’’ मेरी चिंता क्रोध बन कर इन पर बरस पड़ी.

‘‘बात क्या है, दफ्तर से लौटने में तो मुझे रोज ही इतनी देर हो जाती है,’’ ये नरमी से बोले तो मुझे अपनी तल्खी पर सचमुच शरम हो आई कि थोड़ी देर तो मुझे सब्र करना ही चाहिए था. दिनभर के थकेहारे इन के सामने आते ही शिकायतों का अध्याय थोड़े ही खोलना चाहिए था.

मैं ने वरुण से हुए संवाद के बारे में उन्हें बताया. ‘‘तो ये वजह है तुम्हारी चिंता की,’’ मेरी बात सुन कर ये हंसतेहंसते बोले, ‘‘बच्चा है, उस की बात का क्या बुरा मानना.’’ ‘‘बुरा मानने की बात नहीं है. मगर जरा सोचो, उस के विचार कितने दिग्भ्रमित हैं, उस का दृष्टिकोण कितना नकारात्मक है. जो बच्चा मृत्यु को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहा है वह जीवन को भी न जाने किस विकृत रूप में ग्रहण करे.’’ ‘‘इतना ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, कुछ दिनों में वह सबकुछ भूल जाएगा. मां के सब से करीब वही था. और यह उस के छोटे से जीवन का पहला हादसा है. इसलिए ऊलजलूल बातें उस के दिमाग में आ रही हैं. इसे अधिक तूल मत दो.’’

‘‘यही सच हो,’’ मैं ने भी आंखें मूंद लीं और सोने की कोशिश करने लगी. 10-15 दिन शांति से गुजरे. वरुण ने उस के बाद फिर इस तरह की कोई बात नहीं की थी. पहले जैसा ही था, पर मांजी की तसवीर के सामने खड़े होना, उसे एकटक घूरते रहना कुछ कम हो गया था. मैं भी कुछकुछ निश्ंिचत होती जा रही थी, वरुण पहले जितना बातूनी तो अभी भी नहीं था परंतु बेसिरपैर की बातें बोलने से तो न बोलना अच्छा. यह सोच कर मैं ने इस बात को अधिक महत्त्व नहीं दिया था. एक दिन सब्जी खरीद कर लौटते वक्त मेरी मुलाकात वरुण की कक्षा अध्यापिका नेहा से हुई.

‘‘अच्छा हुआ, आप से यहीं मुलाकात हो गई वरना मैं आप को स्कूल में बुलाने वाली थी.’’

‘‘क्यों, क्या वरुण ने कुछ…’’ मेरा कलेजा जोरजोर से धड़कने लगा.

‘‘क्या आप ने महसूस नहीं किया कि वह आजकल बेहद गुमसुम और गंभीर होता जा रहा है?’’

‘‘दरअसल, जब से उस की दादी की मृत्यु हुई है…’’

‘‘उस की दादी की मृत्यु कैसे हुई?’’ उन्होंने बिना लागलपेट के सीधे पूछा.

वरुण से यह सवाल सुनसुन कर मैं तंग आ चुकी थी. अब यही सवाल उन से सुन कर मैं गुस्से से भरभरा कर बोली, ‘‘भला और कैसे होगी. बुढ़ापा था, हार्टअटैक से मृत्यु हो गई, इस में इतना पूछने की क्या बात है?’’ मेरी तल्खी से शायद उन्हें कुछकुछ मेरी बेचैनी का एहसास हुआ. अतएव वे मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर बोलीं, ‘‘आप कृपया अन्यथा न लें. दरअसल 2-3 दिन पहले मैं ने कक्षा में महात्मा गांधी की कहानी सुनाई थी. सुन कर वरुण दोनों हाथों में मुंह छिपा कर रोने लगा. मेरे द्वारा रोने का कारण पूछे जाने पर वह बोला कि गांधीजी की मृत्यु गोली मारने से हुई और उस की दादी की मृत्यु जलाए जाने से हुई.’’

‘‘नहीं, यह सच नहीं है…’’ मैं लगभग चीखती हुई बोली, ‘‘वरुण की ऐसी बातें सुन कर लोग न जाने हमारे बारे में क्याक्या धारणा बनाएंगे.’’

‘‘मैं भी जानती हूं कि यह सच नहीं है, पर वरुण को फिल्में देखदेख कर यही पता चला है कि मौत किसी अस्वाभाविक कारण से ही होती है. उसे सुनीसुनाई बातों से अधिक देखी हुई चीजों पर विश्वास है. यह ठीक भी है. वरुण अपनी दादी से बहुत प्यार करता था, इसलिए उन की मृत्यु उस के लिए एक भयंकर हादसा है. उस का बालमन उन की मृत्यु को स्वाभाविक रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा है, इसीलिए मृत्यु के कारणों की तलाश में है,’’ वे कुछ क्षण रुक कर बोलीं, ‘‘उसे उस की रुचि के किसी काम में व्यस्त कर दें जिस से वह इस बारे में ज्यादा न सोच सके. साथ ही उसे टीवी पर भी सिर्फ मनोरंजन और बच्चों के लिए उपयुक्त कार्यक्रम ही देखने दें.

देशद्रोही आफरीन: क्या थी उसकी कहानी

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सबको साथ चाहिए- भाग 1: क्या सही था माधुरी का फैसला

सुधीर के औफिस के एक सहकर्मी   रवि के विवाह की 25वीं वर्षगांठ थी. उस ने एक होटल में भव्य पार्टी का आयोजन किया था तथा बड़े आग्रह से सभी को सपरिवार आमंत्रित किया था. सुधीर भी अपनी पत्नी माधुरी और बच्चों के साथ ठीक समय पर पार्टी में पहुंच गए. सुधीर और माधुरी ने मेजबान दंपती को बधाई और उपहार दिया. रविजी ने अपनी पत्नी विमला से माधुरी का और उन के चारों बच्चों का परिचय करवाया, ‘‘विमला, इन से मिलो. ये हैं सुधीरजी, इन की पत्नी माधुरी और चारों बच्चे सुकेश, मधुर, प्रिया और स्नेहा.’’  ‘‘नमस्ते,’’ कह कर विमला आश्चर्य से चारों को देखने लगी. आजकल तो हम दो हमारे दो का जमाना है. भला, आज के दौर में 4-4 बच्चे कौन करता है? माधुरी विमला के चेहरे से उन के मन के भावों को समझ गई पर क्या कहती.

तभी प्रिया ने सुकेश की बांह पकड़ी और मचल कर बोली, ‘‘भैया, मुझे पानीपूरी खानी है. भूख लगी है. चलो न.’’

‘‘नहीं भैया, कुछ और खाते हैं, यह चटोरी तो हमेशा पहले पानीपूरी खिलाने ही ले जाती है. वहां दहीबड़े का स्टौल है. पहले उधर चलो,’’ स्नेहा और मधुर ने जिद की.

‘‘भई, पहले तो वहीं चला जाएगा जहां हमारी गुडि़या रानी कह रही है. उस के बाद ही किसी दूसरे स्टौल पर चलेंगे,’’ कह कर सुकेश प्रिया का हाथ थाम कर पानीपूरी के स्टौल की तरफ बढ़ गया. मधुर और स्नेहा भी पीछेपीछे बढ़ गए.

‘‘यह अच्छा है, छोटी होने के कारण हमेशा इसी के हिसाब से चलते हैं भैया,’’ मधुर ने कहा तो स्नेहा मुसकरा दी. चाहे ऊपर से कुछ भी कह लें पर अंदर से सभी प्रिया को बेहद प्यार करते थे और सुकेश की बहुत इज्जत करते थे. क्यों न हो वह चारों में सब से बड़ा जो था. चारों जहां भी जाते एकसाथ जाते. मजाल है कि स्नेहा या मधुर अपनी मरजी से अलग कहीं चले जाएं. थोड़ी ही देर में चारों अलगअलग स्टौल पर जा कर खानेपीने की चीजों का आनंद लेने लगे और मस्ती करने लगे.

सुधीर और माधुरी भी अपनेअपने परिचितों से बात करने लगे. किसी काम से माधुरी महिलाओं के एक समूह के पास से गुजरी तो उस के कानों में विमला की आवाज सुनाई दी. वह किसी से कह रही थी, ‘‘पता है, सुधीरजी और माधुरीजी के 4 बच्चे हैं. मुझे तो जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ. आजकल के जमाने में तो लोग 2 बच्चे बड़ी मुश्किल से पाल सकते हैं तो इन्होंने 4 कैसे कर लिए.’’

‘‘और नहीं तो क्या, मैं भी आज ही उन लोगों से मिली तो मुझे भी आश्चर्य हुआ. भई, मैं तो 2 बच्चे पालने में ही पस्त हो गई. उन की जरूरतें, पढ़ाई- लिखाई सबकुछ. पता नहीं माधुरीजी 4 बच्चों की परवरिश किस तरह से मैनेज कर पाती होंगी?’’ दूसरी महिला ने जवाब दिया.

माधुरी चुपचाप वहां से आगे बढ़ गई. यह तो उन्हें हर जगह सुनने को मिलता कि उन के 4 बच्चे हैं. यह जान कर हर कोई आश्चर्य प्रकट करता है. अब वह उन्हें क्या बताए? घर आ कर चारों बच्चे सोने चले गए. सुधीर भी जल्दी ही नींद के आगोश में समा गए. मगर माधुरी की आंखों में नींद नहीं थी. वह तो 6 साल पहले के उस दिन को याद कर रही थी जब माधुरी के लिए सुधीर का रिश्ता आया था. हां, 6 साल ही तो हुए हैं माधुरी और सुधीर की शादी को. 6 साल पहले वह दौर कितना कठिन था. माधुरी को बड़ी घबराहट हो रही थी. पिछले कई दिनों से वह अपने निर्णय को ले कर असमंजस की स्थिति में जी रही थी.

माधुरी का निर्णय अर्थात विवाह का निर्णय. अपने विवाह को ले कर ही वह ऊहापोह में पड़ी हुई थी. घबरा रही थी. क्या होगा? नए घर में सब उसे स्वीकारेंगे या नहीं.

विवाह को ले कर हर लड़की के मन में न जाने कितनी तरह की चिंताएं और घबराहट होती है. स्वाभाविक भी है, जन्म के चिरपरिचित परिवेश और लोगों के बीच से अचानक ही वह सर्वथा अपरिचित परिवेश और लोगों के बीच एक नई ही जमीन पर रोप दी जाती है. अब इस नई जमीन की मिट्टी से परिचय बढ़ा कर इस से अपने रिश्ते को प्रगाढ़ कर यहां अपनी जड़ें जमा कर फलनाफूलना मानो नाजुक सी बेल को अचानक ही रेतीली कठोर भूमि पर उगा दिया जाए.

लेकिन माधुरी की घबराहट अन्य लड़कियों से अलग थी. नई जमीन पर रोपे जाने का अनुभव वह पहले भी देख चुकी थी. उस जमीन पर अपनी जड़ें जमा कर खूब पल्लवित हो कर नाजुक बेल से एक परिपक्व लताकुंज में परिवर्तित भी हो चुकी थी, लेकिन अचानक ही एक आंधी ने उसे वहां से उखाड़ दिया और उस की जड़ों को क्षतविक्षत कर के उस की जमीन ही उस से छीन ली.

2 वर्ष पहले मात्र 43 वर्ष की आयु में ही माधुरी के पति की हृदयगति रुक जाने से आकस्मिक मृत्यु हो गई. कौन सोच सकता था कि रात में पत्नी और बच्चों के साथ खुल कर हंसीमजाक कर के सोने वाला व्यक्ति फिर कभी उठ ही नहीं पाएगा. इतना खुशमिजाज, जिंदादिल इंसान था प्रशांत कि सब के दिलों को मोह लेता था, लेकिन क्या पता था कि उस का खुद का ही दिल इतनी कम उम्र में उस का साथ छोड़ देगा.

माधुरी तो बुरी तरह टूट गई थी. 18 सालों का साथ था उन का. 2 प्यारे बच्चे हैं, प्रशांत की निशानी, प्रिया और मधुर. मधुर तो तब मात्र 16 साल का हुआ ही था और प्रिया अपने पिता की अत्यंत लाडली बस 12 साल की ही थी. सब से बुरा हाल तो प्रिया का ही हुआ था.

एक खुशहाल परिवार एक ही झटके में तहसनहस हो गया. महीनों लगे थे माधुरी को इस सदमे से बाहर आ कर संभलने में. उम्र ही क्या थी उस की. मात्र 37 साल. वह तो उस के मातापिता ने अपना कलेजा मजबूत कर के उसे सांत्वना दे कर इतने बड़े दुख से उबरने में उस की मदद की. प्रिया और मधुर के कुम्हलाए चेहरे देख कर माधुरी ने सोचा था कि अब ये दोनों ही उस का जीवन हैं. अब इन के लिए उसे मजबूत छत बनानी है.

मौत का कारण- भाग 1: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

मेरा 5 वर्षीय बेटा वरुण उन दिनों बहुत गुमसुम रहने लगा था. जब से उस की दादी की मृत्यु हुई तभी से उस का यह हाल था. मांजी की अचानक मृत्यु ने हमें भी हतप्रभ कर दिया था, पर वरुण पर तो यह दुख मानो पहाड़ बन कर टूट पड़ा था. मुझे आज भी याद है, हमें रोते देख कर किस तरह वरुण भी अपनी दादी की मृतदेह पर गिर कर पछाड़ें खाखा कर रो रहा था. उस की हालत देख कर मैं ने अपनेआप को संभाला और उसे वहां से उठा कर भीतर वाले कमरे में ले गई थी. मेरे साथ मेरा देवर प्रवीर भी भीतर आ गया था.

‘दादी हिलडुल क्यों नहीं रहीं?’ उस ने सिसकियों के बीच पूछा.

‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं,’ प्रवीर बोला.

‘पर वे तो यहीं हैं. बाहर लेटी हैं. आप लोगों ने उन्हें जमीन पर क्यों लिटा रखा है?’

‘उन की मृत्यु हो चुकी है,’ प्रवीर दुखी स्वर में बोला.

‘मृत्यु, क्या मतलब?’

उस ने पूछा तो मैं एक क्षण के लिए चुप हो गई फिर उसे डांटते हुए कहा, ‘बेकार सवाल नहीं पूछते.’ मगर वह मेरी डांट से अप्रभावित फिर अपना सवाल दोहराने लगा. इस बार प्रवीर ने शांत स्वर में उसे समझाया कि उस की दादी अब उसे कभी नजर नहीं आएंगी. न वे उसे कहानियां सुनाएंगी, न उस से स्कूल की बातें सुनेंगी.

‘ये सब तुम क्यों बता रहे हो उस नन्ही जान को?’ मैं ने भर्राए कंठ से पूछा.

‘बताना जरूरी है भाभी, आजकल के बच्चों को बहलाया नहीं जा सकता. सचसच बता देना ही ठीक रहता है,’ प्रवीर की आवाज नम हो आई थी.

इधर वरुण यह सुन कर जोर से रो पड़ा. उस का करुण रुदन सन्नाटे को चीर कर हर एक के हृदय में उतर गया. वरुण अपनी दादी से बेहद प्यार करता था और वे भी अपने इस इकलौते पोते पर अपना सर्वस्व लुटाती थीं. सुबह जैसे ही वरुण की नींद खुलती, वे उस समय बिस्तर पर बैठी माला फेर रही होती थीं. वरुण धम से उन की गोद में बैठ जाता और दादीपोत का वार्त्तालाप शुरू हो जाता.

‘दादी, आप कितने साल की हैं?’

‘65 साल की.’

‘यानी मेरे पिताजी से भी बड़ीं,’ वरुण अपनी दोनों बांहें फैला कर आश्चर्य प्रकट करता.

‘हां, तेरे पिताजी से भी बड़ी,’ मांजी उस के भोलेपन पर हंस पड़तीं.

‘पर आप तो पिताजी से छोटी हैं?’ वरुण का इशारा उन के लंबे कद की ओर होता.

कद से छोटे होने पर भी उम्र में बड़ा हुआ जा सकता है, यह बात मांजी उसे उदाहरण सहित समझातीं कि उस की बूआ उस के पिताजी से उम्र में बड़ी हैं इसलिए उस के पिताजी उन्हें दीदी कहते हैं लेकिन कद में वे उन से छोटी हैं. इस बात को सुन कर वरुण कुछ क्षण सोच में डूब जाता, फिर कुछ समझने की मुद्रा में आंखें झपका कर कहता, ‘इस का मतलब यह हुआ कि मां भी पिताजी से बड़ी हैं.’ उस की नादानी पर मांजी हंसतेहंसते दोहरी हो जातीं. हर 2-3 दिन बाद इस तरह के संवाद दोनों दादीपोते के बीच अवश्य होते. फिर उस की अविराम चलती बातों पर रोक लगाती हुई वे कहतीं, ‘अब बस भी कर. मैं तुझे गरमागरम हलवा बना कर खिलाती हूं.’ ‘सुबह का नाश्ता ताकत देने वाला होना चाहिए, हलवा या मक्खन व परांठा, फुसफुसी डबलरोटी नहीं,’ वे कहतीं. लेकिन अपने मतों को वे हम पर कभी थोपती नहीं थीं. मेरी समझ से यही गुण उन्हें उन की उम्र के अन्य बुजुर्गों से अलग करता था. मनुष्य की दूसरों पर शासन करने की इच्छा सदा से रही है. रिश्तों के दायरे में बड़ों द्वारा छोटों पर शासन करने की छूट ने ही हमारे पारिवारिक संबंधों में कड़वाहट घोल दी है. वरुण की दादी में यह बात नहीं थी. सास होने के नाते वे मुझ पर अधिकार जताने के बजाय स्नेह लुटाती थीं. यह उन्हीं के व्यवहार की विशेषता थी कि वे मुझे सदा मां से भी अधिक अपनी लगीं.

उन की मृत्यु को 15 दिन हो गए थे. एकएक कर के सभी रिश्तेदार विदा हो गए. प्रवीर भी कलकत्ता लौट गया. उस की नईनई नौकरी थी, ज्यादा छुट्टी लेना संभव नहीं था. जब व्यस्तता से उबरने का मौका मिला तब मेरा ध्यान अचानक वरुण की

अस्वाभाविक गंभीरता पर गया. निरंतर बोलते रहने वाला वरुण एकदम गुमसुम  हो गया था. उस का जबतब मांजी की तसवीर को एकटक देखते रहना, उन की अलमारी खोल कर  उन की साडि़यों पर हाथ फेरना, सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा था. ‘‘कल से तुम्हें स्कूल जाना है, पुस्तकें बैग में ठीक से रख लो,’’ मैं ने वरुण को  याद दिलाते हुए कहा मगर वह वैसे ही भावमुद्रा लिए बैठा रहा, जैसे मैं ने  उस से नहीं, किसी और से कहा हो.

‘‘कल स्केचपैन भी ले जाना बैग में रख कर,’’ मुझे उम्मीद थी कि स्केचपैन  स्कूल में ले जाने के मेरे प्रस्ताव से वह अवश्य खुश होगा, मगर इस बार भी वह उसी तरह निर्लिप्त बैठा रहा. मुझे उस की चुप्पी से अब भय लगने लगा. मगर कुछ क्षण बाद वह स्वयं ही अपनी चुप्पी तोड़ कर बोला, ‘‘मां, दादी की मौत कैसे हुई? उन्हें किस ने मारा?’’ उस का यह सवाल मुझे उस की चुप्पी से भी डरावना लगा. मैं अवाक् रह गई.

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