लाली : क्या रोशन की हुई लाली ? – भाग 2

‘मुझे यहां नहीं रहना रोशन, मुझे यहां से ले चलो.’

‘क्यों, क्या हुआ लाली?’ रोशन ने लड़खड़ाते स्वर में पूछा.

‘मुझे यहां सभी अंधी कोयल कह कर बुलाते हैं. मैं और यह सब नहीं सुन सकती.’

‘अरे, बस इतनी सी बात, शुक्र मना, वे तुझे काली कौवी कह कर नहीं बुलाते या काली लाली नहीं बोलते.’

‘क्या मतलब है तुम्हारा. मैं काली हूं और मेरी आवाज कौवे की तरह है?’

‘अरे, तू तो बुरा मान गई. मैं तो मजाक कर रहा था. तेरी आवाज कोयल की तरह है तभी तो सभी तुझे कोयल कह कर बुलाते हैं और रोशन के रहते तेरी आंखों को रोशनी की जरूरत ही नहीं है,’ रोशन ने खुद की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘पर मुझे यहां नहीं रहना, मुझे यहां से ले चलो.’

‘लाली, मैं ने तुझे पहले भी बोला है कि कुछ दिन सब्र कर, मुझे कुछ रुपए जमा कर लेने दे फिर मैं तुझे मुंबई ले चलूंगा और बहुत बड़ी गायिका बनाऊंगा,’ रोशन ने खांसते हुए कहा.

‘देख, रोशन, मुझे गायिका नहीं बनना. तू बारूद के कारखाने में काम करना बंद कर दे. बाबा भी नहीं चाहते थे कि तू वहां काम करे. मुझे तेरी जान की कीमत पर गायिका नहीं बनना. मैं देख नहीं सकती, इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं महसूस भी नहीं कर सकती. तेरी हालत खराब हो रही है,’ लाली ने परेशान होते हुए कहा.

लाली की परेशानी बेवजह नहीं थी. रोशन सचमुच बीमार रहने लगा था. दिन- रात बारूद का काम करने के कारण उस की छाती में जलन होने लगी थी, लेकिन लाली को गायिका बनाने का सपना उसे दिनरात काम करने की प्रेरणा देता था.

आज रोशन की खुशी का ठिकाना नहीं था. टे्रन सपनों की नगरी मुंबई पहुंचने ही वाली थी. उस के साथसाथ लाली का वर्षों का सपना पूरा होने वाला था. बारबार वह अपनी जेब में रखे 10 हजार रुपयों को देखता और सोचता क्या इन रुपयों से वह अपना सपना पूरा कर पाएगा. इन रुपयों के लिए ही तो उस ने जीवन के 4 साल कारखाने की अंधेरी कोठरी में गुजारे थे. लाली साथ वाली सीट पर बैठी थी. नाबालिग होने के कारण आश्रम ने उसे रोशन के साथ जाने की इजाजत नहीं दी लेकिन वह सब की नजरों से बच कर रोशन के पास आ गई थी.

मुंबई की अट्टालिकाओं को देख कर रोशन को लगा कि लोगों के इस महासागर में वह एक कण मात्र ही तो है. उस ने अपने को इतना छोटा कभी नहीं पाया था. अब तो बस, एक ही सवाल उस के सामने था कि क्या वह अपने सपनों को सपनों की इस नगरी में यथार्थ रूप दे पाएगा.

काफी जद्दोजहद के बाद मुंबई की एक गंदी सी बस्ती में एक छोटा कमरा किराए पर मिल पाया. कमरे की खोज ने रोशन को एक सीख दी थी कि मुंबई में कोई काम करना आसान नहीं होगा. उस ने खुद को आने वाले दिनों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था.

आज सुबह रोशन और लाली को अपने सपने को सच करने की शुरुआत करनी थी अत: दोनों निकल पड़े अपने उद्देश्य को पूरा करने. उन्होंने कई संगीतकारों के दफ्तर के चक्कर काटे पर कहीं भी अंदर जाने की इजाजत नहीं मिली. यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा. लाली का धैर्य और आत्म- विश्वास खत्म होने लगा और खत्म होने लगी उन की पूंजी भी. लेकिन रोशन इतनी जल्दी हार मानने वाला कहां था. वह लाली को ले कर हर दिन उम्मीद क ी नई किरण अपनी आंखों में बसाए निकल पड़ता.

उस दिन रोशन को सफलता मिलने की पूरी उम्मीद थी, क्योंकि वह लाली को ले कर एक गायन प्रतियोगिता के चुनाव में जा रहा था, जिसे जीतने वाले को फिल्मों में गाने का मौका मिलने वाला था. रोशन को भरोसा था कि लाली इस प्रतियोगिता को आसानी से जीत जाएगी. हर दिन के रियाज और आश्रम में मिलने वाली संगीत की शिक्षा ने उस की आवाज को और भी अच्छा बना दिया था.

प्रतियोगिता भवन में हजारों लोगों की भीड़ अपना नामांकन करवाने के लिए आई हुई थी. करीब 3 घंटे के इंतजार के बाद एक चपरासी ने उन्हें एक कमरे में जाने को कहा. वहां एक बाबू प्रतियोगिता के लिए नामांकन करा रहे थे.

अंदर आते 2 किशोरों को देख उस व्यक्ति ने उन्हें बैठने का इशारा किया और अपने मोटे चश्मे को नीचे करते चुटकी लेते हुए कहा, ‘किस गांव से आ रहे हो तुम लोग और इस अंधी लड़की को कहां से भगा कर ला रहे हो?’

‘अरे, नहीं साहब, भगा कर नहीं लाया, मैं लाली को यहां गायिका बनाने लाया हूं,’ रोशन ने धीमे से कहा.

‘गायिका और यह…सुर की कितनी समझ है तुझे, गलीमहल्ले में गा कर खुद को गायिका समझने की भूल मत कर, यहां देश भर से कलाकार आ रहे हैं. मेरा समय बरबाद मत करो और निकलो यहां से,’ साहब ने गुर्राते हुए कहा.

‘अरे, नहीं साहब, लाली बहुत अच्छा गाती है. आप एक बार सुन कर तो देखिए,’ रोशन ने बात को संभालने के अंदाज से कहा.

‘देखो लड़के, यह कार्यक्रम सारे देश में टेलीविजन पर दिखाया जाएगा और मैं नहीं चाहता कि एक गंवार, अंधी लड़की इस का हिस्सा बने. तुम जाते हो या पुलिस को बुलाऊं,’ साहब ने चिल्लाते हुए कहा.

दोनों स्तब्ध, अवाक् खड़े रहे जैसे सांप सूंघ गया हो उन्हें. लाली खुद को ज्यादा देर रोक नहीं पाई और उस की आंखों से आंसू निकल आए और वह फौरन कमरे से बाहर निकल आई. अंदर रोशन अपने सपनों को टूट कर बिखरते हुए देख खुद टूट गया था.

मुंबई नगरी अब उसे सपनों की नगरी नहीं शैतानों की नगरी लग रही थी. ये बिलकुल वैसे ही शैतान थे जिन्हें वह बचपन में सपनों में देखा करता था. बस, एक ही अंतर था, इन के सिर पर सींग नहीं थे. पर यह सब सोचने का समय नहीं था उस के पास, अभी तो उसे लाली को संभालना था.

दोनों समंदर के किनारे बैठे अपने दुख को भूलने की कोशिश कर रहे थे. रोशन डूबते सूरज के साथ अपने सपने को भी डूबता देख रहा था. उस ने लाली को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे समझाना मुश्किल लग रहा था.

‘तुम्हें पता है लाली, डूबता सूरज बहुत खूबसूरत होता है,’ उस ने लाली को समझाने का अंतिम प्रयास किया, ‘और पता है यह खूबसूरत क्यों होता है, क्योंकि यह लाल रंग का होता है. और पता है तेरा नाम लाली क्यों है क्योंकि तू सब से सुंदर है. मेरा भरोसा कर लाली, तू मेरे लिए दुनिया की सब से खूबसूरत लड़की है.’

रोशन ने अनजाने में आज वह बात कह दी थी जिसे कहने की हिम्मत वह पहले कभी नहीं जुटा पाया था. डूबते सूरज की रोशनी में लाली का चेहरा पहले से ही लाल नजर आ रहा था, यह सुन कर उस का चेहरा और भी लाल हो गया और उस के होठों  पर मुसकान आ गई.

12 साल बाद की उस घटना को सोच कर रोशन के चेहरे पर हंसी आ गई जैसे सबकुछ अभी ही हुआ है. रात का तीसरा पहर भी बीत गया था. चारदीवारी के अंदर का कोलाहल शांत हो गया था. शायद लाली की शादी हो गई थी. उस के सीने की जलन बढ़ती जा रही थी. कारखाने में काम करने के कारण उस के फेफड़े जवाब दे चुके थे. डाक्टरों के लाख समझाने के बाद भी उस ने बारूद के कारखाने में काम करना नहीं छोड़ा था अब उसे मरने से डर नहीं लगता था वह जीना ही नहीं चाहता था. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं और फिर से उस के जेहन में अतीत की यादें सजीव होने लगीं.

अब लाली महल्ले के मंदिर के  सत्संग में गाने लगी थी और रोशन एक ढाबे में काम करने लगा था. शायद उन लोगों ने मुंबई की जिंदगी से समझौता कर लिया था. लाली के गाए भजनों की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी, अब आसपास के लोग भी उसे सुनने आते थे. लाली इसी में खुश थी.

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. रोशन ने दरवाजा खोला तो देखा एक अधेड़ व्यक्ति साहब जैसे कपड़े पहने खड़ा था.

‘बेटे, लाली है क्या? मैं आकाश- वाणी में सितार बजाता हूं. हमारा भक्ति संगीत का कार्यक्रम हर दिन सुबह 6 बजे रेडियो पर प्रसारित होता है. जो गायिका हमारे लिए गाया करती थी वह बीमार है,’ उस व्यक्ति ने कमरे के अंदर बैठी लाली को देखते हुए कहा.

लाली यह सुन कर बाहर आ गई.

‘लाली, क्या तुम हमारे रेडियो कार्यक्रम के लिए गाओगी?’

यह सब किसी सपने से कम नहीं था, रोशन को अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.

‘बेटे, मैं ने लाली को मंदिर में गाते हुए सुना है. मैं ने अपने संगीतकार को लाली के बारे में बताया है. वह लाली को एक बार सुनना चाहते हैं. अगर उन्हें लाली की आवाज पसंद आई तो लाली को रेडियो में गाने का काम मिल सकता है,’ उस व्यक्ति ने स्पष्ट करते हुए कहा.

उसी दिन शाम को दोनों रेडियो स्टेशन पहुंच गए. लाली को माइक्रो- फोन के आगे खड़ा कर दिया गया. साजिंदों ने साज बजाने शुरू किए और लाली ने गाना :

‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम…’

गाना खत्म हुआ और अचानक सभी बाहर आ गए. लाली के आसपास भीड़ जुटने लगी. स्वर के जादू ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था, जैसे सभी उस आवाज को आत्मसात कर रहे हों. गाने के बाद तालियों की गूंज ने लाली को बता दिया था कि उस की नौकरी पक्की हो गई है. रोशन की खुशी का ठिकाना नहीं था.

श्रोताओं में शास्त्रीय संगीत के जानेमाने संगीतकार पंडित मदनमोहन शास्त्री भी थे. दूसरों की तरह वह भी लाली की आवाज से बेहद प्रभावित थे. उन्होंने लाली को बुलाया और कहने लगे, ‘बेटी, तुम्हारे कंठ में बेहद मिठास है पर तुम अभी सुर में थोड़ी कच्ची हो. मैं तुम्हें संगीत की विधिवत शिक्षा दूंगा.’

लाली मारे खुशी के कुछ बोल नहीं पाई. बस, स्वीकृति में सिर हिला दिया.

लाली की संगीत की शिक्षा शुरू हो गई. पंडितजी लाली के गाने से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लाली को गोद ले लिया और वह लाली से लालिमा शास्त्री बन गई. पंडितजी के इस फैसले के कारण लाली पंडितजी के घर में ही रहने लगी और नियति ने रोशन के एकमात्र सहारे को भी उस से छीन लिया.

कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी- भाग 2

‘‘साहब, कितने पैसे दोगे नाश्ता और 2 टाइम का खाना बनाने के?’’ जोरावर सिंह ने अपनी बात रखी.

‘‘तुम पैसे की चिंता मत करो, बस चायनाश्ता और खाना बिलकुल वैसा ही होना चाहिए, जैसा कल सुबह था.’’

‘‘साहब, इस का सीधा सा हिसाब है… 3 टाइम का खाना… 3,000 रुपए…’’ जोरावर सिंह ने अपने पीले दांत दिखाए.

‘‘मंजूर है, पर है कौन… कब से शुरू करेगा या करेगी?’’

‘‘अरे साहब, और कौन, राधा है न… वही बना देगी… आज और अभी से… मैं भेजता हूं उसे…’’ कह कर जोरावर सिंह ने चाय का कप उठाया और राधा को बुलाने चला गया.

राधा ने आते ही अपने सधे हुए हाथों से रसोई की कमान संभाल ली. टखनों से थोड़ा ऊंचा घाघरा और कुरती… ऊपर चटक रंग की ओढ़नी… पैरों में चांदी के मोटे कड़े और हाथों में पहना सीप का चूड़ा… कुलदीप की आंखों में ‘मारवाड़ की नार’ की छवि साकार हो उठी.

हालांकि कुलदीप ने उस का चेहरा नहीं देखा था, क्योंकि वह उन के सामने घूंघट निकालती थी, मगर कदकाठी से वह जोरावर से काफी कम उम्र की लगती थी.

सुबह की चाय जोरावर सिंह अपने घर से लाता था, उस के बाद कुलदीप का टिफिन पैक कर के राधा उन का चायनाश्ता टेबल पर लगा देती थी.

शाम का खाना कुलदीप के औफिस से लौटने से पहले ही बना कर राधा हौटकेस में रख देती थी. कुलदीप ने उसे अपने घर की एक चाबी दे रखी थी.

अभी 4-5 दिन ही बीते थे कि कुलदीप ने फिर से सर्वेंट क्वार्टर से चीखने की आवाज सुनी. उन के कदम उठे, मगर फिर ‘पतिपत्नी का आपसी मामला है’ सोच कर रुक गए.

अगले दिन उन्होंने देखा कि राधा कुछ लंगड़ा कर चल रही है. उन्होंने पूछा भी, मगर राधा ने कोई जवाब नहीं दिया.

4 दिन बाद फिर वही किस्सा… इस बार कुलदीप ने राधा के हाथ पर चोट के निशान देखे तो उन से रहा नहीं गया.

कुलदीप ने खाना बनाती राधा का हाथ पकड़ा और उस पर एंटीसैप्टिक क्रीम लगाई. राधा दर्द से सिसक उठी.

कुलदीप ने नजर उठा कर पहली बार राधा का चेहरा देखा. कितना सुंदर… कितना मासूम… नजरें मिलते ही राधा ने अपनी आंखें झुका लीं.

अब तो यह अकसर ही होने लगा. जोरावर सिंह अपनी शराब की तलब मिटाने के लिए हर 8-10 दिन में आबू जाता था. पर्यटन स्थल होने के कारण वहां हर तरह की शराब आसानी से मिल जाती थी. वहां से लौटने पर राधा की शामत आ जाती थी.

राधा जोरावर सिंह की दूसरी पत्नी थी. वह बेतहाशा शराब पी कर राधा से संबंध बनाने की कोशिश करता और नाकाम होने पर अपना सारा गुस्सा उस पर निकालता था, मानो यह भी मर्दानगी की ही निशानी हो.

राधा के जख्म कुलदीप से देखे नहीं जाते थे, मगर मूकदर्शक बनने के अलावा उन के पास कोई चारा भी नहीं था. वह चोट खाती रही… कुलदीप उन पर मरहम लगाते रहे. एक दर्द का रिश्ता बन गया था दोनों के बीच.

धीरेधीरे राधा उन से खुलने लगी थी… अब तो खुद ही दवा लगवाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा देती थी… कभीकभी घरपरिवार की बातें भी कर लेती थी… उन की पसंदनापसंद पूछ कर खाना बनाने लगी थी. एक अनदेखी डोर से दोनों के दिल बंधने लगे थे.

2 महीने बीत गए. इस बीच कुलदीप एक बार जयपुर हो आए थे. राधा के खाना बनाने से कुलदीप को ले कर पत्नी शशि की चिंता भी दूर हो गई थी.

एक दिन सुबह राधा नाश्ता टेबल पर रखने आई तो कुलदीप टैलीविजन पर ‘ई टीवी राजस्थान’ चैनल देख रहे थे, जिस में एक मौडल लहरिया के डिजाइन दिखा रही थी.

कुलदीप ने नोटिस किया कि राधा ठिठक कर लहरिया की ओढ़नी देखने लगी.

इस बार जब घर आए तो न जाने क्या सोच कर शशि से छिपा कर कुलदीप ने लालहरे रंग की एक लहरिया की ओढ़नी राधा के लिए खरीद ली.

ओढ़नी पा कर राधा खिल उठी.

अगले दिन राधा वह ओढ़नी ओढ़ कर आई तो कुलदीप उसे देखते ही रह गए… झीने घूंघट से झांकता उस का चेहरा किसी चांद से कम नहीं लग रहा था. उसे यों अपलक निहारता देख राधा शरमा गई.

समय मानो रेत की तरह हाथ से फिसल रहा था. हर सुबह कुलदीप को राधा का इंतजार रहने लगा.

राधा के आने में अगर जरा भी देर हो जाती तो वे बेचैनी से घर के बाहर चक्कर लगाने लगते.

राधा भी मानो रातभर सुबह होने का इंतजार करती थी. सुबह होते ही बंगले की तरफ ऐसे भागती सी आती थी जैसे किसी कैद से आजाद हुई हो.

आज भी कुलदीप सुबहसवेरे बंगले के अंदरबाहर चक्कर लगा रहे थे. सुबह के 8 बज गए थे, मगर राधा अभी तक नहीं आई थी. जोरावर सिंह भी अब तक दिखाई नहीं दिया था.?

कुलदीप ने सुबह की चाय किसी तरह से बना कर पी, मगर उन्हें मजा नहीं आया. उन्हें तो राधा के हाथ की बनी चाय पीने की आदत पड़ गई थी.

कुलदीप को यह सोच कर हंसी आ गई कि एक बार उन्होंने शशि से भी कह दिया था कि ‘चाय बनाने में राधा का जवाब नहीं’. यह सुन कर मुंह फुला लिया था शशि ने.

चाय का कप सिंक में रख कर कुलदीप सर्वेंट क्वार्टर की तरफ बढ़े. अंदर किसी तरह की कोई हलचल न देख कर कुलदीप को किसी अनहोनी का डर हुआ.

उन्होंने धीरे से दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा खुल गया. भीतर का सीन देखते ही उन के होश उड़ गए.

राधा जमीन पर बेसुध पड़ी थी. जोरावर सिंह का कहीं अतापता नहीं था.

कुलदीप ने राधा को होश में लाने की भरसक कोशिश की, मगर उस ने आंखें नहीं खोलीं.

कुलदीप ने उसे बड़ी मुश्किल से बांहों में उठाया और बंगले तक ले कर आए. उसे बैडरूम में सुला कर एसी चला दिया.

कुलदीप ने पहली बार राधा को इतना नजदीक से देखा था. उस की मासूम खूबसूरती देख कर वे अपनेआप को रोक नहीं सके और उन के हाथ राधा के माथे को सहलाने लगे.

चालाक लड़की: भाग 2

राजेश का आलीशान बंगला देख कुमुदिनी हैरान रह गई. दरबान ने बंगले का गेट खोला और नमस्ते की. नौकर ने राजेश की अटैची टैक्सी से निकाल कर बंगले में रखी.

‘‘मैडम, यह है अपनी कुटिया. आप के आने से हमारी कुटिया भी पवित्र हो जाएगी,’’ राजेश ने कुमुदिनी से कहा.

‘‘बहुत ही खूबसूरत बंगला बनाया है. कितनी भाग्यशाली हैं इस बंगले की मालकिन?’’

‘‘छोड़ो, इधर बाथरूम है. आप फ्रैश जाओ. मैं आप के लिए कपड़े लाता हूं,’’ कह कर राजेश दूसरे कमरे में जा कर एक बड़ी सी कपड़ों की अटैची ले आया. अटैची खोली तो उस में कपड़े तो कम थे, सोनेचांदी के गहने व नोटों की गड्डियां भरी पड़ी थीं.

‘‘नहींनहीं, यह अटैची मैं भूल से ले आया. कपड़े वाली अटैची इसी तरह की है,’’ और राजेश तुरंत अटैची बंद कर उसे रख कर दूसरी अटैची ले आया.

‘‘यह लो अपनी पसंद के कपड़े… मेरा मतलब, साड़ीब्लाउज या सूट निकाल लो. इस में रखे सभी कपड़े नए हैं.’’

‘‘पसंद तो आप की रहेगी,’’ तिरछी नजरों से कुछ मुसकरा कर कुमुदिनी ने कहा.

‘‘यह नीली ड्रैस बहुत ज्यादा फबेगी आप पर. यह रही मेरी पसंद.’’

वह ड्रैस ले कर कुमुदिनी बाथरूम में चली गई. तब तक राजेश भी अपने बाथरूम में नहा कर ड्राइंगरूम में आ कर कुमुदिनी का इंतजार करने लगा.

कुमुदिनी जब तक वहां आई, तब तक नौकर चायनाश्ता टेबल पर रख कर चला गया.

दोनों ने नाश्ता किया. राजेश ने पूछा, ‘‘खाने में क्या चलेगा?’’

‘‘आप तो मेहमानों की पसंद का खाना खिलाना चाहते हो. मैं ने कहा न आप की पसंद.’’

‘‘मैं तो आलराउंडर हूं. फिर भी?’’

‘‘वह सबकुछ तो ठीक है, पर मैं आप के बारे में कुछ…’’

‘‘क्या? साफसाफ कहो.’’

‘‘आप के नौकरचाकर श्रीमतीजी को जरूरत बता सकते हैं. मेरे चलते आप के घर में पंगा खड़ा हो, मुझे गवारा नहीं.’’

‘‘आप चाहो तो मैं परसों तक नौकरों को छुट्टी पर भेज देता हूं, पर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त?’’

‘‘खाना आप को बनाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मुझे मंजूर है, पर आप के घर में कोई पंगा न हो.’’

‘‘पहले यह तो बताओ खाने में…’’ राजेश ने पूछा.

‘‘आप जो खिलाओगे, मैं खा लूंगी,’’ आंखों में झांक कर कुमुदिनी ने कहा.

राजेश ने एक नौकर से चिकन और शराब मंगवाई और बाद में सभी नौकरों को छुट्टी पर भेज दिया. तब तक रात के 9 बज चुके थे.

‘‘आप ने तो…’’ शराब से भरे जाम को देखते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘जब मेरी पसंद की बात है तो साथ तो देना ही पड़ेगा,’’ राजेश ने जाम आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘मैं ने आज तक इसे छुआ भी नहीं है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं चलेगी. मैं अगर अपने हाथ से पिला दूं तो…?’’ और राजेश ने जबरदस्ती कुमुदिनी के होंठों से जाम लगा दिया.

‘‘काश, आप के जैसा जीवनसाथी मुझे मिला होता तो मैं कितनी खुशकिस्मत होती,’’ आंखों में आंखें डाल कर कुमुदिनी ने कहा.

‘‘यही तो मैं सोच रहा हूं. काश, आप की तरह घर मालकिन रहती तो सारा घर महक जाता.’’

‘‘अब मेरी बारी है. यह लो, मैं अपने हाथों से आप को पिलाऊंगी,’’ कह कर कुमुदिनी ने दूसरा रखा हुआ जाम राजेश के होंठों से लगा दिया.

शराब पीने के बाद राजेश से रहा न गया और उस ने कुमुदिनी के गुलाबी होंठों को चूम लिया.

‘‘आप तो मेहमान की बहुत ज्यादा खातिरदारी करते हो,’’ मुसकराते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘बहुत ही मधुर फूल है कुमुदिनी का. जी चाहता है, भौंरा बन कर सारा रस पी लूं,’’ राजेश ने कुमुदिनी को अपने आगोश में लेते हुए कहा.

‘‘आप ने ही तो यह कहा था कि कुमुदिनी रात में सारे माहौल को महका देती है.’’

‘‘मैं ने सच ही तो कहा था. लो, एक जाम और पीएंगे,’’ गिलास देते हुए राजेश ने कहा.

‘‘कहीं जाम होंठ से टकराते हुए टूट न जाए राजेश साहब.’’

‘‘कैसी बात करती हो कुमुदिनी. यह बंदा कुमुदिनी की मधुर खुशबू में मदहोश हो गया है. यह सब तुम्हारा है कुमुदिनी,’’ जाम टकराते हुए राजेश ने कहा और एक ही सांस में शराब पी गया.

कुमुदिनी ने अपना गिलास राजेश के होंठों से लगाते हुए कहा, ‘‘इस शराब को अपने होंठों से छू कर और भी ज्यादा नशीली बना दो राजेश बाबू, ताकि यह रात आप के ही नशे में मदहोश हो कर बीते.’’

नशे में धुत्त राजेश ने कुमुदिनी को बांहों में भर कर प्यार किया. कुमुदिनी भी अपना सबकुछ उस पर लुटा चुकी थी. राजेश पलंग पर सो गया.

थोड़ी देर में कुमुदिनी उठी और अपने पर्स से एक छोटी सी शीशी निकाल राजेश को सुंघाई. शीशी में क्लोरोफौर्म था. इस के बाद कुमुदिनी ने किसी को फोन किया.

राजेश जब सुबह उठा, उस समय 8 बजे थे. राजेश के बिस्तर पर कुमुदिनी की साड़ी पड़ी थी. साड़ी को देख उसे रात की सारी बातें याद हो आईं. उस ने जोर से पुकारा, ‘‘ऐ कुमुदिनी.’’

बाथरूम से नल के तेजी से चलने की आवाज आ रही थी. राजेश ने दोबारा आवाज लगाई, ‘‘कुमुदिनी, हो गया नहाना. बाहर निकलो.’’

पर, कुमुदिनी की कोई आवाज नहीं आई. तब राजेश ने बाथरूम का दरवाजा धकेला, तो उसे कुमुदिनी नहीं दिखी.

वह घर के अंदर गया. सारा सामान इधरउधर पड़ा था. रुपएपैसे व जेवर वाला सूटकेस, घर की कीमती चीजें गायब थीं. राजेश को समझते देर नहीं लगी. उस के मुंह से निकला, ‘‘चालाक लड़की…’’

बेटे की चाह : भाग 2

बाहर की बारिश थम चुकी थी और 2 जिस्मों का तूफान भी. दोनों की झिझक भी खत्म हो गई थी. उस दिन के बाद जब भी मौका मिलता, वे दोनों जम कर मस्ती करते, पर रसीली बहुत चालाक औरत थी. वह गर्भनिरोधक गोलियों का इस्तेमाल करती थी, जिस के चलते उसे बच्चा नहीं ठहरता था. वह तो बस मंगलू में अपने अकेलेपन और मौजमस्ती का इलाज ढूंढ़ रही थी.

जब कुछ महीने बीत चले और रसीली ने बच्चा ठहरने की खबर नहीं सुनाई तो मंगलू ने उस से कहा, ‘‘सुन रसीली… महीनों से मैं तुम्हारे घर आ रहा हूं और अनेक बार हम ने जिस्मानी संबंध बनाए हैं, पर अभी तक तुझे बच्चा क्यों नहीं ठहरा?’’

‘‘अरे, अब तुम 40 साल के हो गए हो. अब तुम में 25 साल के मर्द वाली रवानी तो रही नहीं, गांव के और गबरू जवान लड़कों को देखो, जमीन में पैर मार दें तो पानी निकल आए. अब तुम अपनी लटकी शक्ल देख लो. लगता है, 60 साल के हो गए हो.

‘‘अरे, जरा बादाम घोटो, जरा बदन बनाओ, लड़का पैदा करना आसान है क्या…?’’

जब रसीली ने कई बार इस तरह मजाक किया तो मंगलू का मन रसीली से पूरी तरह हटता चला गया. उस ने समझ लिया था कि रसीली एक खूंटे से बंधी रहने वाली गाय नहीं है, बल्कि उसे तो अपनी मस्ती के लिए नएनए आशिक चाहिए.

मन में ऐसा खयाल आते ही मंगलू सीधा गांव के बीच बने पीपल देवता के चबूतरे पर पहुंचा और माफी मांगी कि अब वह फिर कभी रसीली की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखेगा.

जब चबूतरे से मंगलू नीचे उतरा तो अपने सामने फौजी को खड़ा देख चौंक गया.

‘‘नमस्ते फौजी साहब.’’

‘‘नमस्ते… अरे भाई, पीपल देवता से क्या मांग रहे हो? तुम्हारे गांव के बाहर एक बहुत बड़े तांत्रिक आ कर ठहरे हुए हैं, जो हाथ देख कर ही किसी का भी आगापीछा सब बता देते हैं और बदले में कुछ लेते भी नहीं. जाओ, उन से जा कर मिल लो. हो सकता है कि तुम्हारा कल्याण भी उन के हाथों हो ही जाए,’’ फौजी ने अपना ज्ञान बांटा.

मंगलू अंदर से टूटा हुआ था और जब इनसान अंदर से टूटा होता है तो धर्म और तांत्रिकों में उस की दिलचस्पी अपनेआप ही बढ़ जाती है.

मंगलू तांत्रिक से जा कर मिला और जब वापस आया तो उस के चेहरे पर खुशी की हलकी सी रेखा साफ देखी जा सकती थी.

शायद उस तांत्रिक ने मंगलू को खुश रहने की कोई तरकीब बता दी थी, तभी तो वह अपनी पत्नी पर भी बातबात में चिल्लाता नहीं था.

पर मंगलू की यह खुशी ज्यादा दिन तक न रह पाई. एक दिन जब वह शाम ढले घर वापस आया तो उस की पत्नी रोरो कर हलकान हुई जाती थी.

‘‘अरे, क्या हुआ? क्यों रोए जा रही हो?’’

‘‘अरे रमिया के पापा, रमिया को तुम्हारे पास खाना देने को भेजा था. अब शाम होने को आई, पर अभी तक वह लौट कर नहीं आई है. सयानी लड़की है. कहीं कोई ऊंचनीच हो गई तो हम जमाने को क्या मुंह दिखाएंगे.’’

‘‘क्या कहा… रमिया घर नहीं लौटी… अभी जा कर देखता हूं,’’ कह कर मंगलू घर से बाहर निकल गया.

कुछ घंटे बाद पसीना पोंछता हुआ मंगलू अपना मुंह लटका कर वापस आ गया और अपनी पत्नी सरोज से बोला, ‘‘रमिया की मां, लगता है कि रमिया हम लोगों को छोड़ कर कहीं चली गई है. मैं सरपंचजी से भी मिला और गांव के बाकी लोगों को भी इकट्ठा किया और हम सब लोगों ने पूरे गांव में रमिया को ढूंढ़ा, पर रमिया नहीं मिली.’’

रमिया के घर छोड़ कर जाने वाली बात उस की मां को हजम नहीं हो रही थी, पर उस के पास इन बातों को मान लेने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था.

‘‘जब से फौजी ने गांव में आ कर कोठी बनवाई है, तभी से गांव में अजीब हादसे हो रहे हैं,’’ काकी बोल रही थी.

‘‘हां, देखने में भी तो फौजी कितना डरावना लगता है,’’ गांव की दूसरी औरत कह उठी.

‘‘पर सवाल यह है कि रमिया को आसमान खा गया या जमीन निगल गई,’’ बन्नो भाभी बोली.

‘‘मंगलू के खेत में जाते समय किनारे पर जो भुतही तलैया पड़ती है न, उस में कई कुंआरे भूत रहते हैं. हो न हो, उन्हीं कुंआरे भूतों ने रमिया का अपहरण कर लिया है और वे अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा करते होंगे,’’ सिबली की शक भरी आवाज आई.

‘‘अरे, मैं तो कहती हूं कि मंगलू से रमिया का ब्याह करते बन नहीं रहा था और फिर रमिया का चक्कर भी तो सरजू के साथ चल ही रहा था न. हो न हो, वह सरजू के साथ भाग गई है,’’ दया की अम्मां बोल रही थी.

रमिया की मां अपनी बेटी के गांव से गायब हो जाने से अंदर तक टूट भी गई थी और कहीं न कहीं उसे भी भुतही तलैया के भूतों पर ही शक था.

एक दिन रमिया की मां ने अपनी दूसरी बेटी श्यामा की कमर की करधन में 2 छोटी घंटियां बांध दी थीं, जिन के बजने से छुनछुन की आवाज आती थी.

‘‘कहते हैं कि कमर में लोहा बंधा हो तो भूत पास में नहीं आते और तुझे भी तो स्कूल आनाजाना रहता ही है, इसलिए ये लोहे की घंटियां तेरी हिफाजत के लिए हैं और फिर ये मुझे तेरी मौजूदगी का अहसास भी देती रहेंगी.’’

बदले में श्यामा सिर्फ मुसकरा दी.

अभी रमिया को गायब हुए 6 महीने भी न बीते थे कि जब एक दिन श्यामा स्कूल गई तो फिर लौट कर नहीं आई.

मंगलू की पत्नी का रोरो कर बुरा हाल था. मंगलू भी एक कोने में मुंह छुपाए बैठा था.

गांव के लोग आजा रहे थे और बातें बना रहे थे, हमदर्दी दिखा रहे थे.

श्यामा के इस तरह गायब होने की बात फौजी शमशेर सिंह के कानों तक पहुंची. वह सीधा मंगलू के घर जा पहुंचा.

फौजी शमशेर सिंह ने उस से कुछ बातें पूछीं, जिन का जवाब मंगलू बड़े ही अनमने ढंग से दे रहा था. फौजी हर तरह की मदद का भरोसा दे कर वहां से चला गया.

समय बीत रहा था. एक दिन जब रमिया की मां घर की साफसफाई कर रही थी, तो उसे एक बिस्तर के नीचे वही घंटियां मिलीं, जो उस ने अपनी बेटी श्यामा की कमर में बांधी थीं. वह परेशान हो उठी. पर उस ने यह बात किसी को नहीं बताई, मंगलू को भी नहीं.

चालाक लड़की: भाग 1

‘‘कौन सी गाड़ी का टिकट कट रहा है साहब?’’ एक सुरीली आवाज ने राजेश का ध्यान खींचा. बगल में एक खूबसूरत लड़की को देख कर वह जैसे सबकुछ भूल चुका.

‘‘मैं आप से ही पूछ रही हूं साहब… कौन सी गाड़ी आ रही है?’’

‘‘जी… जी, ‘महामाया ऐक्सप्रैस’, डोंगरपुर से नागझिरी जाने वाली.’’

‘‘आप कौन सी क्लास का टिकट ले रहे हो? मेरा मतलब, मेरे लिए भी एक टिकट कटा दोगे तो आप की बड़ी मेहरबानी होगी. कहां जा रहे हैं आप?’’

‘‘रौधा सिटी.’’

‘‘तब तो और भी अच्छी बात है. मुझे भी रौधा सिटी ही जाना है,’’ कह कर उस लड़की ने अपने बैग से नोटों की गड्डी निकाल कर 100-100 के 2 नोट राजेश के हाथ में थमा दिए.

‘‘माफ करना… मैं कब से टिकट लेने की कोशिश कर रही हूं, पर भीड़ इतनी ज्यादा है…’’ रुपए की गड्डी बैग में रखते हुए वह लड़की बोली.

‘‘कोई बात नहीं. आप आराम से सामने वाली बैंच पर बैठ जाइए.’’

जब ट्रेन आई तो राजेश अपने डब्बे में चादर बिछा कर एक सीट पर बैठ गया. वह जैसे उस लड़की के विचारों में खो गया. काश, वह लड़की उसी के पास आ कर बैठती…

‘‘अरे, आप…’’ थोड़ी ही देर बाद वह लड़की उसी डब्बे में आ कर राजेश से बोली.

‘‘आप को एतराज न हो, तो आप की बिछाई चादर पर…’’

‘‘जी बैठिए. जब हम और आप एक ही शहर जा रहे हैं, तो एतराज कैसा?’’ राजेश बोला.

वह लड़की राजेश की बिछाई चादर पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद वह अपने हैंडबैग की चेन खोलने लगी. कभी इस पौकेट की चेन तो कभी दूसरे पौकेट की चेन खोलती और बंद करती. वह बारबार बैग टटोल रही थी. वह बहुत परेशान लग रही थी.

राजेश से रहा न गया, तो पूछ ही लिया, ‘‘क्या हो गया? लगता है कि कुछ…’’

‘‘मेरे रुपए का बंडल…’’ उस लड़की ने बैग टटोलते हुए कहा.

‘‘कितने रुपए थे?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘2,000 रुपए थे,’’ मामूली सी बात समझ कर लड़की ने लापरवाही से कहा.

‘‘लगता है, किसी ने हाथ साफ कर दिया. आप के साथ और कोई नहीं है क्या?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘छोड़ो, शहर तो पहुंच जाऊंगी. कोई नहीं है तो आप तो हो ही? मुझे घर तक छोड़ देना. घर पर आप को टैक्सी का किराया वापस कर दूंगी.’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

तेज रफ्तार से ट्रेन चली जा रही थी. वह लड़की राजेश से सट कर बैठ गई. लड़की की छुअन पा कर राजेश को जैसे बिजली का झटका लगा. उस के बदन की खुशबू सेवह मदहोश हो रहा था.

‘‘आप रौधा सिटी के कौन से महल्ले में रहती हैं?’’

‘‘पटेल चौक में… और आप?’’ जवाब देने के बाद लड़की ने पूछा, ‘‘किसी सरकारी नौकरी में?’’

‘‘जी, मैं स्वास्थ्य विभाग में ट्यूटर हूं.’’

इसी बीच ट्रेन रुकी. वह लड़की राजेश से टकराई.

ऐसा भी होता है- भाग 1

नई से नई फिल्में घरबैठे देख लेते थे. इस से पहले कि नई फिल्म लगे, हम देखने के लिए उतावले हो जाते थे. यह शौक मुझे मां से विरासत में मिला था. मुझे याद है कि एक बार मौसी व मौसाजी पूरे परिवार के साथ हमारे यहां आए थे. खूब रौनक रही और खूब मजा आया. परंतु कोई भी सत्कार बिना फिल्म दिखाए अधूरा रहता है. इसलिए उन्हें फिल्म दिखाना बहुत जरूरी था. उन के भी अपने कई कार्यक्रम थे. समय मिल ही नहीं पा रहा था. अंत में एक दिन सब ने रात वाले आखिरी शो में जाने का फैसला किया.

हमारी कार छोटी थी. सब उस में आ नहीं रहे थे. आखिर में मेरे दोनों छोटे भाइयों को पीछे डिकी में बिठा दिया गया. वे ढक्कन ऊपर उठाए बैठे रहे. रास्ते भर न केवल हम बल्कि देखने वाले भी हमारी दीवानगी पर हंस रहे थे. अब भी जब कभी मिलना होता है, उस घटना की याद ताजा हो जाती है.

स्पष्ट है कि फिल्में मेरे दिल व दिमाग पर सदा छाई रहती थीं. यहां तक कि मैं अकसर फिल्मी नायकों को देख कर सपनों में डूब जाती. मेरा पति भी ऐसा ही होगा, जो जहां एक ओर रोमांस करने में बड़ा भावुक व नाजुक होगा वहीं कठिनाई के समय अकेले ही 10-12 गुंडों से लोहा लेगा. इन सपनों में जीते हुए वह दिन भी आ पहुंचा जब मुझे अपने पति का चुनाव करना पड़ा.

मोहन अपनी मां के साथ मुझे देखने आए थे. सुबह ही मैं सौंदर्य विशेषज्ञा के यहां से सज कर आई थी. नायक पाने के लिए नायिका को न जाने क्याक्या करना पड़ता है. पूर्ण औपचारिकता के बाद मोहन की मां ने इच्छा प्रकट की कि मोहन लड़की से बात करना चाहता है. इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी. हम दोनों को अकेला छोड़ दिया गया. न जाने क्यों, मेरा दिल धड़कने लगा, मानो कचहरी के कटघरे में खड़ी हूं.

मोहन पहली दृष्टि में ही मुझे अच्छे लगे थे. सुंदर और गोरेचिट्टे, सौम्य व बड़ीबड़ी भूरी आंखें. मेरे सपनों का नायक उभर रहा था. कद 190 सेंटीमीटर, वजन न कम न अधिक.

‘‘एक प्याला चाय और अपने हाथों से…’’

मैं चौंक पड़ी. मोहन मुसकरा रहे थे. मैं ने चाय बना कर प्याला आगे बढ़ाया तो हाथों में एक कंपन था. फिर भी मैं सावधान थी. मैं डर रही थी कि कहीं चाय छलक न जाए. अगर छलक ही गई तो? क्या मेरा नायक इस स्थिति पर कोई गाना गाने लगेगा?

‘‘क्या शौक हैं आप के?’’

मैं फिर चौंक पड़ी, ‘‘शौक? मेरे?’’

मोहन ने हंस कर कहा, ‘‘क्या यहां कोई तीसरा भी है?’’

मैं ने बौखला कर कहा, ‘‘नहीं तो.’’

‘‘तो फिर यह सवाल आप ही से पूछा है.’’

‘‘ओह.’’

‘‘ओह क्या?’’

‘‘हां, शौक के बारे में आप पूछ रहे थे. मुझे फिल्म देखने का बहुत शौक है.’’

‘‘खाना बनाना, सीनापिरोना, घर के काम…इन में शौक रखने की तो गलती नहीं करतीं आप?’’ मोहन की आंखों में शरारत थी.

मैं हंस पड़ी, ‘‘नहीं, ऐसी भूल नहीं करती. यह सब काम मां कर लेती हैं. वैसे मां के साथ मैं सब कामों में हाथ बंटाती हूं. आप ने वह फिल्म देखी है…’’

मैं ने फिल्म की कहानी शुरू कर दी. नायक, नायिकाओं के नाम गिनाने शुरू कर दिए. मोहन शांति से सुन रहे थे. मुझे लगा कि मेरी कहानी कुछ लंबी हो रही थी.

अचानक मुझे अपने धाराप्रवाह कथावाचन में अर्धविराम लगाते देख मोहन ने कहा, ‘‘आप को तो मालूम है कि मेरे पिता नहीं हैं. कई वर्ष पहले उन की मृत्यु हो चुकी है. मेरे लिए सबकुछ मेरी मां हैं. मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूं.’’

उफ, मैं ने सोचा कि यह खलनायक कहां से आ गया. मैं ने शीघ्रता से कहा, ‘‘हां, मुझे मालूम है. आप ने ‘कभीकभी’ फिल्म देखी? उस में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी,’’ और मैं फिर शुरू हो गई.

मोहन हंस रहे थे. कुछ देर सुन कर बीच में टोक दिया, ‘‘मैं यह कहना चाह रहा था कि मुझे ऐसी पत्नी चाहिए जो मेरी इन भावनाओं को समझ सके.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो हर पत्नी का कर्तव्य है. आप ने वह फिल्म देखी…’’

‘‘जानम, सिलसिला, अनाड़ी, खंडहर…’’

अब हम दोनों हंस रहे थे. कितने भोले हैं मोहन. नाम तो फिल्मों के गिना दिए पर इन में से कोई भी स्थिति यहां लागू नहीं होती थी. ओह, समझी. शायद ज्यादा चतुर होने की कोशिश कर रहे थे.

‘‘मैं यही कहना चाहता था. अगर आप को स्वीकार हो तो मैं बात पक्की करने के लिए मां से कह दूंगा.’’

कौन सी फिल्म थी वह? हां, ठीक तो है. मैं ने याद करते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘क्यों, क्या आप की मां मेरी मां नहीं हैं? ऐसा भी हो सकता है कि शायद आप से अधिक मैं उन्हें प्यार व आदर दे सकूं.’’

हमारा विवाह हो गया और मैं मोहन के यहां आ गई. और तो सब ठीक लगा पर सोने का कमरा देख कर बड़ी निराशा हुई. न वह बड़ा गोल पलंग और न फूलों से महकती सुहागरात की सेज, रात भी यों ही गुजर गई. मोहन अपनी मां का बखान कर के मुझे उबा रहे थे और मैं फिल्मी स्थितियां बना कर माहौल दिलचस्प करने का प्रयत्न कर रही थी. आखिर उन्हें ही हथियार डालने पड़े. मैं बोल रही थी और वह सुन रहे थे.

‘‘वाह, कितने अच्छे परांठे बने हैं,’’ मोहन कह रहे थे, ‘‘गोभी भर के बनाए हैं. जरूर मां ने बनाए होंगे. क्यों?’’

‘‘हां,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तुम भी सीख लो. मां मूली के परांठे भी बहुत बढि़या बनाती हैं.’’

‘‘सीख लूंगी,’’ मुझे न जाने क्यों अच्छा न लगा. कल तो मैं ने भी बनाए थे, पर कुछ बोले नहीं थे.

मां ने रसोई से आवाज लगाई, ‘‘बहू, परांठे और ले जाओ. बन गए हैं. हां, तुम भी खा लो. गरमगरम सेंक रही हूं.’’

मैं परांठे ले आई. एक मोहन को दे कर दूसरा स्वयं खाने लगी.

मोहन ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हैं न स्वादिष्ठ. एक काम करो. एक मेरे साथ खा लो और दूसरा मां के साथ खा लेना. उन्हें भी अच्छा लगेगा कि बहू उन का साथ दे रही है, क्यों?’’

मैं ने सिर हिला दिया. परंतु उन का आशय समझ रही थी. मुझे मां के साथ खाना चाहिए या उन के बाद. मेज पर कल मैं ने एक ताजा गुलदस्ता रखा था. देखा कि किनारे वाले फूलों की पखंडि़यां झड़ने लगी थीं. मोहन दफ्तर जाने के लिए उठ खड़े हुए थे.

‘‘मां, मैं जा रहा हूं,’’ जोर से बोले, और फिर धीरे से मुझ से कहा, ‘‘जाऊं? जाने की आज्ञा है?’’

मैं तय नहीं कर पा रही थी कि हंसूं कि रूठ जाऊं. अब मां से तो कह दिया है, मैं कौन होती हूं? मेरे गाल पर चुटकी काटते हुए वह शैतानी से हंसते हुए बाहर निकल गए.

दिन भर ऐसे ही काम में या सोतेजागते निकल जाता है. शाम होने की प्रतीक्षा है. मैं पत्नी हूं, मोहन की प्रतीक्षा में आकुल हो जाती हूं. एक यह मां हैं जिन्हें चिंता हो जाती है. बारबार खड़ी हो कर बाहर झांकती हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता.

‘‘बहू, साढ़े 5 बज रहे हैं. मोहन आता ही होगा. बेसन तैयार है न. मोहन को पकौडि़यां बहुत अच्छी लगती हैं. आते ही बना लेना. चाय का पानी बाद में चढ़ा देना.’’

मैं चिढ़ जाती हूं. भुनभुनाती हूं मन में. दिन भर से कार्यक्रम बना रही हूं. मुझे क्या मालूम नहीं है कि आते ही पकौडि़यां बनानी हैं और फिर चाय का पानी रखना है. एक दिन मैं ने मोहन को टोका भी था.

उन्होंने हंस कर कहा था, ‘‘मां हैं न, उन्हें चिंता रहती है बेटे की. समझा करो.’’

‘‘मैं कुछ नहीं हूं? क्या मुझे नहीं पता कि कब आप के लिए क्या करना है?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ उन्होंने उसी शरारती मुसकराहट से कहा, ‘‘जो चीज समझने में मां ने सारी जिंदगी निकाल दी, तुम तो 2 ही दिन में सीख गई हो.’’

बात उन्होंने हंस कर कही थी पर उस में जो तीखापन था वह मन में चुभ गया था. जब कभी बाजार जाते थे तो पहले मां से पूछते थे कि कुछ लाना है बाजार से? लेकिन मुझे उन से कहना पड़ता था कि आज यह लेते आना. मेरा संदेह अब विश्वास में बदलने लगा था कि मैं इस घर की दूसरी श्रेणी की व्यक्ति हूं. मेरा दरजा दूसरा है. पहले मां हैं यानी मेरी सास. यह परछाईं मेरे आगेपीछे कब तक रहेगी? ओह, मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए.

मोहन कोई भी चीज लाते हैं तो बिना मुझे बताए मां के हाथ में रख देते हैं, जैसे मैं एक अदृश्य व्यक्ति हूं, जो मौजूद तो है पर दिखाई नहीं देता. मैं ने न जाने कितनी बार कल्पना की थी कि आज आते हुए मिठाई लाएंगे और मां की नजर बचा कर कमरे में ले आएंगे. डब्बा खोलेंगे और प्यार से एक टुकड़ा उठा कर मुझे बांहों में समेटते हुए मुंह में रख देंगे.

लाली : क्या रोशन की हुई लाली ? – भाग 1

वह दीवार के सहारे बैठा था. उस के चेहरे पर बढ़ी दाढ़ी को देख कर लगता था कि उसे महीने से नहीं छुआ गया हो. दाढ़ी के काले बालों के बीच झांकते कुछ सफेद बाल उस की उम्र की चुगली कर रहे थे. जिंदगी की कड़वी यादें और अनुभव के बोझ ने उस की कमर को भी झुका दिया था.

रात का दूसरा पहर और सड़क के किनारे अंधेरे में बैठा वह अपनी यादों में खोया था. यादें सड़क से गुजरने वाले वाहनों की रोशनी की तरह ही तो थीं, जो थोड़ी देर के लिए अंधेरी दुनिया को रोशन कर जाती थीं, लेकिन आज क्षणभंगुर रोशनी का भी आखिरी दिन था. आज लाली की शादी जो हो रही थी, उसी चारदीवारी के अंदर जिस के सहारे वह बैठा था. वह अपने 12 साल पुराने अतीत में चला गया.

रेल के डब्बे के पायदान पर बैठा वह बहुत खुश था. उम्र करीब 14 साल रही होगी. उस दिन बड़ी तन्मयता के साथ वह अपनी कमाई गिन रहा था.

2…4…10…15… वाह, आज पूरे 15 रुपए की कमाई हुई है. अब देखता हूं उस लाली की बच्ची को…कैसे मुझ से ज्यादा पैसे लाती है. हर बार मुझ से ज्यादा पैसे ला कर खुद को बहुत होशियार समझती है. आज आने दो उसे…आज तो वह मुझ से जीत ही नहीं सकती. 15 रुपए तो उस ने एकसाथ देखे भी नहीं होंगे. जो टे्रन की रफ्तार के साथ भाग रहे थे.

‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम…’ भजन के स्वर कान में पड़ते ही वह अपने खयालों से बाहर आ गया. यह लाली की आवाज ही थी, जैसे दूर किसी मंदिर में घंटी बज रही हो.

उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो लाली खड़ी थी. उम्र करीब 12 वर्ष, आंखों में चमक मगर रोशनी नहीं, दाएं हाथ में 2 संगमरमर के छोटेछोटे टुकड़े जो साज का काम करते थे, सिर के बाल पीछे की ओर गुंथे हुए.

‘लाली, मैं यहां हूं. तू इधर आ. कब से तेरा इंतजार कर रहा हूं. स्टेशन आने वाला है. आज कितने पैसे हुए?’

‘रोशन, तू यहां है,’ लाली बोली और अपने दोनों हाथों को आगे की ओर उठा कर आवाज आने की दिशा की ओर मुड़ गई. इन 12 सालों में लाली ने हाथों से ही आंखों का काम लिया था. रोशन ने उसे अपने साथ पायदान पर बिठा लिया.

‘रोशन, जरा मेरे पैसे गिन दे.’

‘अभी तू इन्हें अपने पास रख. स्टेशन आने वाला है. उतरने के बाद पार्क में बैठ कर इन पैसों को गिनेंगे.’

स्टेशन आते ही दोनों टे्रन से उतर कर पार्क की ओर चल दिए.

पार्क की बेंच पर बैठते ही लाली ने अपने सभी पैसे रोशन को पकड़ा दिए.

रोशन के चेहरे पर विजयी मुसकान आ गई, आज तो उस की जीत होनी ही थी. उस ने पैसे लिए और गिनने लगा.

‘2…4…10…12…15…20…22, ओह, आज फिर हार गया और अब फिर से इस के ताने सुनने होंगे.’ रोशन ने मन ही मन सोचा और चिढ़ कर सारे पैसे लाली के हाथ में पटक दिए.

‘बता न कितने हैं?’

‘मैं क्यों बताऊं, तू खुद क्यों नहीं गिनती, मैं क्या तेरा नौकर हूं.’

‘समझ गई,’ लाली हंसते हुए बोली.

‘तू क्या समझ गई.’

‘आज फिर मेरे पैसे तुझ से ज्यादा हैं, तू मुझ से जल रहा है.’

‘अरे, जले मेरी जूती,’ रोशन ने बौखलाते हुए कहा.

‘तेरे पास तो जूते भी नहीं हैं जलाने को, देख खाली पैर बैठा है,’ लाली यह कह कर हंसने लगी. लाली की इस बात ने जैसे आग में घी डाल दिया. रोशन गुस्से में बोला, ‘अरे, तू अंधी है तभी तुझ पर तरस खा कर लोग पैसे दे देते हैं, वरना तेरे गाने को सुन कर तो जिंदा आदमी भी मर जाए और मरे आदमी का भूत भाग जाए.’

यह सुन कर लाली जड़ हो गई और उस की आंखों से आंसू निकल पड़े. लाली के आंसुओं ने रोशन के गुस्से को धो डाला. वह पछताने लगा मगर माफी मांगे तो कैसे?

‘लाली, माफ कर दे मुझे, मैं तो पागल हूं. किसी पागल की बात का बुरा नहीं मानते.’

लाली ने दूसरी तरफ मुंह मोड़ लिया.

‘अरे, लाली, मैं ने तुझ से अच्छा गाने वाला आज तक नहीं सुना. मैं सच बोल रहा हूं. तुझ से अच्छा कोई गा ही नहीं सकता.’

वह सच बोल रहा था. काश, लाली उस की आंखों में देख पाती तो जरूर विश्वास कर लेती. लाली के चेहरे पर अविश्वास की झलक साफ पढ़ी जा सकती थी.

‘लाली, मैं सच कह रहा हूं…बाबा की कसम. देख तुझे पता है मैं बाबा की झूठी कसम नहीं खाता. अब तू चुप हो जा.’

लाली के चेहरे पर अब मुसकान लौटने लगी थी.

‘अब मैं कभी तुझे अंधी नहीं बोलूंगा, तुझे आंखों की जरूरत ही नहीं है, ये रोशन तेरी आंखों की रोशनी है,’ अब लाली के चेहरे पर मुसकान लौट आई थी.

कमरे में खाट पर जर्जर काया लेटी हुई थी. टूटी हुई छत से झांकते हुए धूप के टुकड़ों ने कमरे में कुछ रोशनी कर रखी थी.

माखन खाट पर लेटा रोशन के आने का इंतजार कर रहा था. ‘आज इतनी देर हो गई रोशन आया नहीं है.’

माखन की उम्र करीब 65 वर्ष होगी. खाट पर लेटे हुए वह अपने अंतिम दिनों को गिन रहा था. लोगों की घृणा भरी नजरें और अपने शरीर को गलता देख माखन में जीने की चाह खत्म हो गई थी पर मौत भी शायद उस के साथ आंखमिचौली का खेल खेल रही थी.

दिल की इच्छा थी कि रोशन पढ़लिख कर साहब बने. उस ने वादा भी किया था रोशन से कि जिस दिन वह मैट्रिक पास कर लेगा उस दिन वह उसे अपने रिकशे में साहब की तरह बिठा कर पूरा शहर घुमाएगा. लेकिन गरीब का सपना पूरा कहां होता है.

4 साल पहले कोढ़ ने उसे रिकशा चलाने लायक भी नहीं छोड़ा और वह बोझ बन गया रोशन पर. रोशन को स्कूल छोड़ना पड़ा. गरीब की जिंदगी में बचपन नहीं होता, गरीबी और जिम्मेदारी ने रोशन को उम्र से पहले ही बड़ा कर दिया. कलम की जगह झाड़ू ने ले ली, स्कूल की जगह रेलगाड़ी ने और शिक्षक की प्यार भरी डांटफटकार की जगह लोगों के कटु वचनों और गाली ने ले ली.

‘अरे, तू आ गया रोशन. कहां था अब तक और यह तेरे हाथ में क्या है?’

‘बाबा, यह लो अपनी दवाई, तुम्हें जलेबी पसंद है न. लो, खाओ और यह भी लो,’ यह कहते हुए उस ने देसी शराब की बोतल माखन की ओर बढ़ा दी.

‘अरे, बेटा, इतने पैसे खर्च करने की क्या जरूरत थी.’

रोशन के चेहरे पर मुसकान आ गई. उस ने बाबा की आंखों की चमक को पढ़ लिया था. उसे पता था कि बाबा को रोज शराब की तलब होती है, लेकिन पैसों की तंगी के कारण कई महीने बाद बाबा के लिए वह बोतल ला पाया था.

रोशन हर दिन की तरह उस दिन भी टे्रन के पायदान पर लाली के साथ बैठा था.

‘वह देख लाली, इंद्रधनुष, कितना खूबसूरत है,’ टे्रन के पायदान पर बैठे रोशन ने इंद्रधनुष की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘इंद्रधनुष कैसा होता है, कहां रहता है?’

‘अरे, तुझे इतना भी नहीं पता. इंद्रधनुष 7 रंगों से बना होता है. उस में लाल रंग सब से सुंदर होता है और पता है यह आसमान में लटका रहता है.’

स्कूल में सीखे हुए इंद्रधनुष के सारे तथ्य उस ने लाली को बता दिए लेकिन उसे खुद इन बातों में भरोसा नहीं था. जैसे इंद्रधनुष के 7 रंग.

उस ने 5 रंग बैगनी, नीला, हरा, पीला और लाल से ज्यादा रंग कभी इंद्रधनुष में नहीं देखे थे. और भी मास्टरजी की कई बातों पर उसे भरोसा नहीं होता था जैसे धरती गोल है, सूरज हमारी धरती से बड़ा है…इन सारी बातों पर कोई पागल ही भरोसा करेगा.

लेकिन दूसरे बच्चों पर अपनी धौंस जमाने के लिए ये बातें वह अकसर बोला करता था.

अपनी आंखों के सामने अंधेरा छाता देख माखन समझ गया अब उस का अंतिम समय आ गया है. रोशन को अंतिम बार देखने के लिए उस ने अपनी सांसें रोक रखी थीं, उस ने अपनी आंखें दरवाजे पर टिका रखी थीं. लेकिन जितनी सांसें उस के जीवन की थीं शायद सारी खत्म हो चुकी थीं. आत्मा ने शरीर का साथ छोड़ दिया था. बस, बचा रह गया था उस का ठंडा शरीर और इंतजार करती दरवाजे की ओर देखती आंखें.

बाबा को गुजरे 1 साल हो गया था. रोशन ने ट्रेन की सफाई के साथसाथ घर भी छोड़ दिया था. जब भी वह घर जाता उसे लगता बाबा का भूत सामने खड़ा है और बारबार उसे बारूद के कारखाने में काम करने से मना कर रहा है. टे्रन का काम रोशन को कभी पसंद नहीं था लेकिन बाबा के दबाव में वह कारखाने में काम नहीं कर पाया था. बाबा ने उस से वादा भी किया था कि उन के मरने के बाद रोशन बारूद के कारखाने में काम नहीं करेगा, लेकिन वह उस वादे को निभा नहीं पाया.

लाली को भी घर से निकलना पड़ा. उस के चाचा से अंधी लड़की का बोझ संभाला नहीं गया और अनाथ लड़की को अनाथ आश्रम में शरण लेनी पड़ी. शायद अच्छा ही हुआ था उस के साथ. आश्रम की पढ़ाई में उस का मन नहीं लगता था. पूरे दिन उसे बस, संगीत की कक्षा का इंतजार रहता और उस के बाद वह इंतजार करती रोशन का. रोज शाम को आधे घंटे के लिए बाहर वालों से मिलने की इजाजत होती थी. पर समय तो मुट्ठी में रखी रेत की तरह होता है, जितनी जोर से मुट्ठी बंद करो रेत उतनी ही जल्दी फिसल जाती है.

आज बेसब्री से लाली रोशन का इंतजार कर रही थी. जैसे ही रोशन के आने की आहट हुई उस की आंखों के बांध को तोड़ आंसू छलक पड़े.

चोरी का फल : दोस्ती की आड़ – भाग 1

शिखा पर पहली नजर पड़ते ही मेरे मन ने कहा, क्या शानदार व्यक्तित्व है. उस के सुंदर चेहरे पर आंखों का विशेष स्थान था. उस की बड़ीबड़ी आंखों में ऐसी चमक थी कि सामने वाले के दिल को छू ले. वह एक दिन रविवार की सुबह मेरे छोटे भाई की पत्नी रेखा के साथ मेरे घर आई. शनिवार को शिखा हमारी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी के लिए इंटरव्यू दे कर आई थी. रेखा के पिता उस के पिता के अच्छे दोस्त थे. मेरी सिफारिश पर उसे नौकरी जरूर मिल जाएगी, ऐसा आश्वासन दे कर रेखा उसे मेरे पास लाई थी.

‘‘सर, मुझे नौकरी की सख्त जरूरत है. आप मेरी सहायता कीजिए, प्लीज,’’ यों प्रार्थना करते हुए उस की आंखों में एकाएक आंसू छलक आए.

अब तक शिखा ने मेरे दिल में अपनी खास जगह बना ली थी. मेरे मन ने कहा कि मैं भविष्य में उस से संपर्क बनाए रखूं.

‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आप का काम हो जाए. इस कागज पर आप जरूरी ब्योरा लिख दें,’’ मैं ने पैड और पैन उसे पकड़ा दिया.

करीब 10 मिनट बाद शिखा रेखा के साथ चली गई, लेकिन इन कुछ मिनटों में उस ने मेरा दिल जीत लिया था.

शिखा को क्लर्क की नौकरी दिलाना मेरे लिए कठिन काम नहीें था. करीब 10 दिन बाद मैं उस की नियुक्ति की अच्छी खबर ले कर शाम को उस के घर पहुंच गया.

वहां मेरी मुलाकात उस के पति संजीव, सास निर्मला व 4 वर्षीय बेटे रोहित से हुई. शिखा की नियुक्ति की खबर सुन घर का माहौल खुशी से भर गया.

शिखा के घर की हर चीज इस बात की तरफ इशारा कर रही थी कि वे लोग आर्थिक रूप से संपन्न नहीं थे. संजीव बातूनी किस्म का इनसान था. उस की बातों से यह भी मालूम हो गया कि उस की स्टौक मार्किट में बहुत दिलचस्पी थी.

कुछ देर बाद संजीव मुंह मीठा कराने के लिए बाजार मिठाई लेने चला गया. मैं ने तब आग्रह कर के शिखा को अपने सामने बैठा लिया.

अपनी सास की मौजूदगी में वह ज्यादा नहीं बोल रही थी. उस से पूछे गए मेरे अधिकतर सवालों के जवाब उस की सास ने ही दिए.

बातोंबातों में मुझे इस परिवार के बारें में काफी जानकारी मिली. संजीव एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंटैंट था. उस की पगार अच्छी थी, फिर भी वे लोग भारी कर्जे से दबे हुए थे. शेयर मार्किट में संजीव ने बारबार घाटा उठाया, पर बहुत अमीर बनने की धुन के चलते इस लत ने अब तक उस का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘सर, आप की कृपा से मुझे नौकरी मिली है और मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी. अब दो वक्त की रोटी और रोहित की पढ़ाई का खर्च मैं अपने बलबूते पर उठा सकूंगी,’’ शिखा की बड़ीबड़ी आंखों में मुझे अपने लिए सम्मान के भाव साफ नजर आए.

‘‘शिखा, तुम्हें नौकरी दिलाने वाली बात अब खत्म हुई. इस के बाद तुम ने मुझे ‘धन्यवाद’ कहा तो मैं फौरन उठ कर चला जाऊंगा,’’ अपनी आवाज को मैं ने नाटकीय रूप से सख्त किया, पर मेरे होंठों पर मुसकराहट बनी रही.

‘‘अब नहीं दूंगी धन्यवाद, सर,’’ वह मुसकराई और फिर उठ कर रसोई की ओर चली गई.

कुछ देर बाद बडे़ अच्छे माहौल में हम सब ने चायनाश्ता किया. फिर मैं उन से विदा लेना चाहता था, पर ऐसा संभव नहीं हुआ क्योंकि बेहद अपनेपन के साथ आग्रह कर के शिखा ने मुझे रात का खाना खा कर जाने के लिए रोक लिया.

उस शाम के बाद से मेरा उस घर में जाना नियमित सा हो गया. कुछ दिनों बाद रोहित के जन्मदिन की पार्टी में मैं शामिल हुआ. फिर एक त्योहार आया और शिखा ने मुझे घर खाने के लिए आमंत्रित किया. मैं छुट्टी वाले दिन उन के यहां कुछ न कुछ खानेपीने की चीज ले कर पहुंच जाता. एक बार मेरी कार में सब पिकनिक मना आए. धीरेधीरे इस परिवार के साथ मेरे संबंध गहरे होते चले गए.

चाय पीने के लिए मैं फोन कर के शिखा को अपने कक्ष में बुला लेता. ऐसा अकसर लंच के समय में होता. उस के साथ बिताया हुआ वह आधा घंटा मेरी रगरग में चुस्तीफुरती भर जाता.

शिखा जैसी खूबसूरत और खुशमिजाज युवती के साथ सिर्फ मैत्रीपूर्ण संबंध रखना अब मेरे लिए दिन पर दिन कठिन होने लगा था. अगर मैं किसी कार्य में व्यस्त न होता तो वह मेरे खयालों में छाई रहती. हमारे संबंध दोस्ती की सीमा को लांघ कर कुछ और खास हो जाएं, यह इच्छा मेरे मन में लगातार गहराती जा रही थी.

एक दिन अपने कक्ष में चाय पीते हुए मैं ने शिखा से पूछा, ‘‘तुम्हें पता है शिखा, मैं किस दिन को अपने लिए भाग्यशाली मानता हूं.’’

‘‘आप बताओगे नहीं तो मुझे कैसे पता चलेगा,’’ उस ने जवाब सुनने के लिए अपना ध्यान मेरे चेहरे पर केंद्रित कर लिया.

‘‘जिस दिन तुम मेरे घर नौकरी पाने के सिलसिले में आई थीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘मेरे लिए तो वह यकीनन महत्त्वपूर्ण दिन था,’’ शिखा बोली, ‘‘पर आप क्योें उसे अपने लिए भाग्यशाली मानते हैं?’’

‘‘वह दिन मेरे जीवन में न आया होता तो आज मैं तुम्हारे जैसी अच्छी दोस्त कैसे पाता.’’

मेरे स्वर की भावुकता को पहचान कर शिखा नजरें झुका कर फर्श को निहारने लगी.

‘‘तुम मेरी अच्छी दोस्त हो न, शिखा?’’ यह सवाल पूछते हुए अपने गले में मैं ने कुछ अटकता सा महसूस किया.

उस ने मेरी तरफ देख कर एक बार सिर हिला कर ‘हां’ कहा और फिर से नीचे फर्श देखने लगी.

‘‘दुनिया वाले कुछ न कुछ गलत हमारे संबंध में देरसवेर जरूर कहेंगे, पर उस कारण तुम मुझ से दूर तो नहीं हो जाओगी?’’ मैं ने व्याकुल भाव से पूछा.

‘‘जब हमारे दिलों में पाप नहीं है तो लोगों की बकवास को हम क्यों अहमियत देंगे?’’ शिखा ने मजबूत स्वर में मुझ से उलटा सवाल पूछा, ‘‘बिलकुल नहीं देंगे.’’

मैं ने अपना दायां हाथ बढ़ा कर उस के हाथ पर रखा और उस की आंखों में आंखेें डाल कर बोला, ‘‘तुम मुझे अपना समझ कर हमेशा अपने दुखदर्द मेरे साथ बांट सकती हो.’’

‘‘थैंक्स,’’ उस के होंठों पर उभरी छोटी सी मुसकान मुझे अच्छी लगी.

उस के हाथ पर मेरी पकड़ थोड़ी मजबूत थी. उस ने अपना हाथ आजाद करने का प्रयत्न किया, पर असफल रही. कुछ घबराए से अंदाज में उस ने मेरे चेहरे पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली.

पछतावा: थर्ड डिगरी का दर्द- भाग 1

‘‘सर, मुझे छोड़ दीजिए, मैं आप के पैर पड़ता हूं. मैं अपराधी नहीं, मुसीबत का मारा इनसान हूं…’’

जब इंस्पैक्टर राजन छेत्री ने उसे टौर्चर करते हुए थर्ड डिगरी का इस्तेमाल किया, तब रतन बापबाप बोल उठा. मारे दर्द के उस का रोमरोम कांप उठा. उसे ऐसा लगा, जैसे प्राण शरीर छोड़ कर उड़ जाएगा.

रतन ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह पुलिस के हत्थे चढ़ेगा, क्योंकि उसे अपनी काबीलियत और होशियारी पर कुछ ज्यादा ही घमंड था. पर वह जैसे ही ओम सिनेमा के पास पहुंचा, वहां सादे लिबास में तैनात पुलिस वालों ने उसे दबोच लिया. उस की चीते जैसी फुती और कुत्ते जैसी सतर्कता न जाने कहां फुर्र हो गई. उस पर सिलसिलेवार बम धमाके करने का गंभीर आरोप था, जिस में पुलिस उस को सरगर्मी के साथ तलाश कर रही थी.

रतन की गिरफ्तारी के बाद उसे जिला हैडक्वार्टर में लाया गया. जहां आरक्षी निरीक्षक राजन छेत्री उस से कुछ गुप्त चीजें उगलवाने की कोशिश में था.

‘‘बोल, तेरा नाम क्या है?’’

‘‘सर, अभी बताता हूं… सर…, पहले थोड़ा सा पानी पिला दीजिए न… मारे प्यास के मेरा गला सूखा जा रहा है. बिलकुल कांटे की तरह चुभ रहा है…’’ उस ने अपनी जबान को अपने होंठों पर फेरते हुए कहा.

‘‘कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती, तू ऐसे नहीं मानेगा?’’

‘‘सर….सर…सर…, मेहरबानी कर के मुझे थोड़ा सा पानी… प्लीज सर…’’

‘‘अच्छा, ठीक है…,’’ इतना बोल कर इंस्पैक्टर राजन छेत्री ने 2 गरम समोसे और एक गिलास गरम चाय मंगवा कर उसे दिया. साथ ही, जलती निगाहों से उसे घूरते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो यही मिलेगा…, तू समोसे खा कर चाय पी ले, प्यास मिट जाएगी.’’

मरता क्या न करता, भूखप्यास से बेहाल रतन उस के हाथों से समोसे झटक कर जल्दीजल्दी खाने लगा. लेकिन गला सूखा होने की वजह से निगलने में उसे दिक्कत होने लगी तो उस ने गरम चाय सुड़क ली. किसी तरह उस ने समोसा खाया और चाय पी, लेकिन प्यास कम होने की जगह और बढ़ गई.

‘‘सर… सर… थोड़ा सा पानी… चुल्लू में ही दे दीजिए न, नहीं तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा,’’ वह मारे प्यास के तड़पते हुए हाथ जोड़ कर बोला. लेकिन इंस्पैक्टर राजन छेत्री पर उस का कोई असर नहीं दिखा.

‘‘पहले अपना नाम बता?’’

‘‘रतन विश्वास.’’

‘‘तेरे बाप का नाम क्या है?’’

‘‘सपन विश्वास.’’

‘‘सर, नेताजी आए हैं. उन्होंने आप को याद किया है,’’ इसी बीच थाने का एक सिपाही कस्टडी रूम में पहुंचा और आते के साथ ही एक पार्टी के कार्यकर्त्ता के आने की सूचना दी.

नेता का नाम सुनते ही इंस्पैक्टर राजन छेत्री गुस्से से लाल हो गया. कमरे से निकलते हुए उस ने एक बार रतन को घूरा जरूर, जैसे कह रहा हो कि तुम्हें छोड़ेंगे नहीं.

कमरे से इंस्पैक्टर राजन छेत्री के बाहर निकलते ही रतन ने गहरी सांस ली. वह समझ नहीं पा रहा था कि उस की मुखबिरी किस ने पुलिस से की है. उसे गिरफ्तार कराने में किस का हाथ है? कहीं मयंक और उस की प्रेमिका नैना थापा का हाथ तो नहीं. दार्जिलिंग के टाइगर हिल पर पिछले दिनों हुई थी उन से मुलाकात.

नैना टाइगर हिल में उगते सूरज को निहार रही थी. दूरदूर तक फैला हुआ नीला आकाश, उस के नीचे पहाड़ पर खूबसूरत कुदरती नजारे, रंगबिरंगी चिडि़यों का शोर मनभावन लग रहे थे. वह इन सब में खोई हुई थी कि अचानक रतन ने पीछे से आ कर उस की आंखों को अपनी उंगलियों से बंद कर दिया. वह हड़बड़ा कर अपनी आंखों पर से हथेलियों को हटाने की कोशिश करने लगी और बोली, ‘अरे मयंक, यह क्या मजाक है. मेरी आंखों के ऊपर से हटाओ हाथ, टाइगर हिल की वादियों का नजारा जीभर कर देख तो लेने दो.’

‘ऊहूं, पहले बुझो, मैं कौन हूं?’

अचानक पीछे से आई आवाज को नैना ने पहचान लिया. वह मयंक की आवाज नहीं, बल्कि रतन की आवाज थी. मयंक ने उसे बताया था कि रतन अच्छा इनसान नहीं है. उस का साथ आतंकवादियों से है.

रतन की आवाज पहचानते ही वह आगबबूला हो उठी और उस का हाथ अपनी आंखों से जबरन हटा दिया. उस की तरफ मुड़ कर नफरत भरी नजरों से देखते हुए वह बोली थी, ‘तू ने मुझे छुआ क्यों? मेरी आंखें बंद करने वाले तुम होते कौन हो? दफा हो जाओ मेरी नजरों के सामने से…’’

‘अरे नैना, इतनी छोटी सी बात पर इतना बड़ा गुस्सा. ऐसी आंखमिचौनी तो हम कितनी बार खेल चुके हैं. प्लीज नैना, गुस्सा थूक दो. मैं अपने किए की माफी मांगता हूं,’ ‘रतन ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘यह मयंक कौन है, जो तुम्हारे कान भरता रहता है. अनजान लोगों से दूर ही रहो तो अच्छा है. तुम उस के साथ यहां आई हो और वह तुम्हें ही अकेला छोड़ कर अपने दोस्तों के साथ किसी मसले पर बातचीत कर रहा है. मैं उधर से गुजर रहा था तो तुम पर नजर ठहर गई.’

कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी- भाग 1

पत्नी शशि गुमसुम सी सामान पैक करने में उन की मदद कर रही थी. उस की उदास आंखें भी सरकार की इस पौलिसी के प्रति अपनी नाराजगी की गवाही दे रही थीं.

अभी 2 साल भी पूरे नहीं हुए थे कुलदीप को अपने होम टाउन जयपुर में ट्रांसफर हुए कि फिर से ट्रांसफर और वह भी गुजरात सीमा के पास… एक आदिवासी इलाके में… सिरोही जिले में एक छोटी सी जगह पिंडवाड़ा…

हालांकि राज्य सरकार की तरफ से अपने प्रशासनिक अधिकारियों को सभी तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं, मगर परिवार की अपनी जिम्मेदारियां भी होती हैं.

पिंडवाड़ा में सभी चीजें मुहैया होने के बावजूद भी कुलदीप की मजबूरी थी कि वे शशि और बच्चों को अपने साथ नहीं ले जा सकते थे.

बड़ी बेटी रिया ने अभी हाल ही में इंजीनियरिंग कालेज के फर्स्ट ईयर में एडमिशन लिया है और छोटा बेटा राहुल तो इस साल 10वीं जमात में बोर्ड के एग्जाम देगा. ऐसे में उन दोनों को ही बीच सैशन में डिस्टर्ब नहीं किया जा सकता, इसलिए शशि को बच्चों के साथ जयपुर में ही रहना पड़ेगा.

अगर दूरियां नापी जाएं तो जयपुर और पिंडवाड़ा के बीच ज्यादा नहीं है, मगर प्रशासनिक अधिकारियों की जिम्मेदारियां ही इतनी होती हैं कि हर हफ्ते इन दूरियों को तय कर पाना कुलदीप के लिए मुमकिन नहीं था. महीने में सिर्फ 1 या 2 बार ही कुलदीप का जयपुर आना मुमकिन होगा. यह बात पतिपत्नी दोनों ही बिना कहे समझ रहे थे.

कुलदीप की सब से बड़ी समस्या घर के खाने को ले कर थी. खाने के नाम पर उन्होंने कालेज में पढ़ाई के दौरान सिर्फ चावल बनाने ही सीखे थे और बाद में मैगी बनाना भी सीख लिया था. हां, शादी के बाद उन्हें चाय बनाना जरूर आ गया था.

हमेशा तो ट्रांसफर होने पर शशि व बच्चे उन के साथ ही शिफ्ट हो जाते थे, मगर अब बच्चों की पढ़ाई उन की सुविधा से ज्यादा जरूरी हो गई है.

इधर जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी, होटलों और ढाबों के तेज मसालों वाले खाने से कुलदीप को एसिडिटी होने लगी थी. नौकरी वगैरह का तनाव होने के चलते शरीर में ब्लड शुगर का लैवल भी बढ़ने लगा था.

डाक्टरों ने कसरत करने के साथसाथ कम मसाले वाला खाना और हरी पत्तेदार सब्जियों के खाने की सख्त हिदायत दे रखी थी. पत्नी शशि परेशान थी कि उन के खाने का इंतजाम कैसे होगा.

पिंडवाड़ा पहुंचते ही जोरावर सिंह ने गरमागरम चाय के साथ कुलदीप का स्वागत किया.

जोरावर सिंह कुलदीप का सहायक होने के साथसाथ बंगले का चौकीदार और माली सबकुछ था.

जोरावर सिंह बंगले के पीछे बने सर्वेंट क्वार्टर में अपनी पत्नी राधा के साथ रहता था. चाय सचमुच बहुत अच्छी बनी थी. पीते ही कुलदीप बोले, ‘‘तुम्हें देख कर तो नहीं लगता कि यह चाय तुम ने ही बनाई है.’’

‘‘सही कहा साहब, यह चाय मैं ने नहीं, बल्कि मेरी जोरू ने बनाई है,’’ जोरावर सिंह अपने पीले दांत निकाल कर हंसा.

कुलदीप ने इस बार ध्यान से देखा उसे. बड़ीबड़ी मूंछें, कानों में सोने की मुरकी, सिर पर पगड़ी और धोतीअंगरखा पहने दुबलापतला जोरावर सिंह कुलदीप के पास जमीन पर उकड़ू बैठा हुआ उसे एकटक देख रहा था.

‘‘यहां खाने का क्या इंतजाम है?’’ कुलदीप ने पूछा.

‘‘आसपास कई गुजराती ढाबे हैं… आप को राजस्थानी खाना भी मिल जाएगा… और विदेशी खाना चाहिए तो फिर शहर में अंदर जाना पड़ेगा…’’ जोरावर सिंह ने अपनी जानकारी के हिसाब से बताया.

‘‘कोई यहां बंगले पर आ कर खाना बनाने वाला या वाली नहीं है क्या?’’ कुलदीप ने पूछा.

‘‘साहब, मैं पूछ कर बताता हूं,’’ कह कर जोरावर सिंह चाय का कप उठाने लगा.

‘कहां राजधानी जयपुर और कहां पिंडवाड़ा…’ सोच कर कुलदीप को अच्छा तो नहीं लगा, मगर उन्होंने देखा कि अरावली की पहाडि़यों की गोद में बसा पिंडवाड़ा एक खूबसूरत और शांत कसबा है.

यह एक हराभरा आदिवासी बहुल इलाका है. उन्हें यहां के लोग भी बहुत सीधेसादे और अपने काम से काम रखने वाले लगे.

कुलदीप का सरकारी बंगला अंदर से काफी बड़ा और शानदार था. वैल फर्निश्ड घर में 2 बैडरूम अटैच बाथरूम समेत, एक ड्राइंगरूम, गैस स्टोव और चिमनी के साथ बड़ी सी किचन. एक लौबी के अलावा छोटा सा स्टोर भी था… लौबी में 4 कुरसी वाली डाइनिंग टेबल भी रखी थी.

चारों तरफ से खुलाखुला बंगला कुलदीप को बेहद पसंद आया. एक बैडरूम में एयरकंडीशनर भी लगा था. कुलदीप ने अपना सूटकेस बैडरूम में रखा और नहाने की तैयारी करने लगे.

औफिस का टाइम हो रहा था. कुलदीप नाश्ते के बारे में सोच रहे थे कि क्या किया जाए. अब तो मैगी बनाने जितना टाइम भी नहीं था. वे पहले ही दिन लेट नहीं होना चाहते थे.

‘वहीं कुछ खा लूंगा,’ सोचते हुए कुलदीप तैयार हो कर बाहर निकले तो डाइनिंग टेबल पर एक डोंगे में ढका हुआ नाश्ता रखा देखा. ढक्कन उठाया तो करीपत्ते से सजे हुए गरमागरम पोहे की खुशबू पूरे घर में फैल गई.

कुलदीप के मुंह में पानी आ गया… उन्होंने तुरंत प्लेट में डाल लिया. खाया तो स्वाद सचमुच लाजवाब था, मगर तारीफ सुनने के लिए आसपास कोई भी नहीं था. जोरावर सिंह भी नहीं…

औफिस में कुलदीप का दिन काफी थकाने वाला था. काम तो वही पुराना था, मगर नया माहौल… नए लोग… सब का परिचय लेतेलेते ही दिन बीत गया.

घर पहुंचते ही पत्नी शशि का फोन आ गया. बिजी होने के चलते दिन में बात ही नहीं कर पाए थे उस से…

यों भी शशि की बातें बहुत लंबी होती हैं, इसलिए फुरसत में ही वे उसे फोन करते हैं. अभी दोनों बातें कर ही रहे थे कि एक चीख की आवाज ने कुलदीप को चौंका दिया.

‘‘बाद में बात करता हूं,’’ कह कर उन्होंने शशि का फोन काटा और आवाज की दिशा में दौड़े.

‘आवाज तो सर्वेंट क्वार्टर में से आ रही है… तो क्या जोरावर सिंह अपनी पत्नी को पीट रहा है?’ कुलदीप कुछ देर खड़े सोचते रहे. धीमी होतीहोती सिसकियां बंद हो गईं तो वे बंगले की तरफ पलट गए.

चपरासी से कह कर रात का खाना पैक करा लिया था. सुबह नाश्ते के लिए ब्रैडजैम भी मंगवा लिया था, मगर सुबह की चाय का इंतजाम नहीं हो सका था.

सुबह उठ कर कुलदीप बंगले के गार्डन में सैर के लिहाज से चक्कर लगा रहे थे, मगर उन की आंखें सर्वेंट क्वार्टर की तरफ ही लगी थीं, तभी उन्हें जोरावर सिंह आता हुआ दिखाई दिया.

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