‘‘शुभम... ओ शुभम,’’ मीता देवी के चीखने का स्वर कुछ इस तरह का था कि शुभम सिर से पांव तक सिहर उठा. वह अचानक यह समझ नहीं सका कि उस से कहां क्या गड़बड़ हो गई. अपनी मां मीता के उग्र स्वभाव से वह क्या, घर और महल्ले तक के लोग परिचित थे. इसलिए शुभम अपनी ओर से कोशिश करता था कि ऐसा कोई काम न करे कि उस की मां को क्रोध आए. फिर भी जानेअनजाने कभी कुछ ऐसा हो ही जाता था कि मां का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता.
‘‘क्या हुआ, मां,’’ कहता हुआ शुभम तेजी से सीढि़यां फलांगते हुए मां के सामने आ खड़ा हुआ.
‘‘तुम से गेहूं पिसवाने के लिए कहा था, उस का क्या हुआ?’’ मां मीता ने छूटते ही शुभम से पूछा.
‘‘वह तो मैं सुबह ही चक्की पर पिसने को दे आया था.’’
‘‘वही तो मैं पूछ रही हूं कि ऐसी क्या आफत आ गई थी जो तुम सुबहसुबह ही गेहूं पिसने के लिए चक्की पर रख आए?’’ मीता कुछ इस तरह बोली थीं कि शुभम हक्का- बक्का रह गया.
‘‘आप को समझ पाना तो असंभव है, मां. आप ने इतनी जल्दी मचाई कि नूरे की चक्की बंद थी तो मैं 30 किलो गेहूं साइकिल पर रख कर चौराहे तक ले गया. वहां एक नई चक्की खुली है, जहां गेहूं रख कर आया हूं.’’
‘‘सत्यानाश, नूरे की चक्की बंद थी तो गेहूं वापस नहीं ला सकते थे क्या? यों तो 10 बार कहने पर भी तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंगती लेकिन आज इतने आज्ञाकारी बन गए कि फौरन ही हुक्म बजा लाए. अब क्या होगा? मैं तो बरबाद हो गई, लुट गई.’’