पहचान – भाग 3 : मां की मौत के बाद क्या था अजीम का हाल

नीरद की मां का इस तरह बोल कर निकल जाना अम्मी को काफी मायूस कर गया. अब चोरों की तरह अपनी ही नजरों से खुद को छिपाना भारी हो गया था. हमेशा बस यही डर कि किसी को पता न लग जाए कि वे सरकारी लिस्ट के बाहर के लोग हैं. जाने कितनी पुश्तों से इस माटी में रचेबसे अब अचानक खुद को घुसपैठिए सा महसूस करने लगे हैं. जैसे धरती पर बोझ. जैसे चोरी की जिंदगी छिपाए नहीं छिप रही.

भरोसा उन्हें इस अनजान धरती पर भले ही नीरद का था, लेकिन काम के सिलसिले में वह भी तो अकसर शहर से बाहर ही रहता. इस घटना को अभी 4-5 दिन बीते होंगे. नीरद अभी भी शहर से बाहर ही था और दूसरे दिन आने वाला था. राबिया ने शाम को अपनी रसोई की खिड़की से एक साया सा देखा. वह साया एक पल को खिड़की के सामने रुक कर तुरंत हट गया.

उस रात थोड़ा डर कर भी वह शांत रह गई, किसी से कुछ नहीं कहा. नीरद दूसरे दिन घर वापस आया और उन से मिला भी, लेकिन बात आईगईर् हो गई. नीरद 3 दिनों बाद फिर शहर से बाहर गया. शाम को रसोई की खिड़की के बाहर राबिया ने फिर एक आकृति देखी. एक पल रुक कर वह आकृति सामने से हट गई. राबिया दौड़ कर बाहर गई. कोई नहीं था. राबिया पसोपेश में थी. अम्मी खामख्वाह परेशान हो जाएंगी. यह सोच कर वह बात को दबा गई.

हां, राबिया को इन सब से छुट्टी नहीं मिली. खिड़की, एक आकृति, इन सब का डर और फिर बाहर झपटना और कुछ न देख पाना. राबिया मानसिक रूप से लगातार टूट रही थी.

अगले हफ्ते नीरद वापस आया तो उसे सारी बातें बताने की सोच कर भी वह डर कर पहले चुप रह गई.

दरअसल, राबिया का डर लाजिमी था. एक तो नीरद ने उन दोनों के आपसी रिश्ते पर अब तक बात नहीं की थी, दूसरे, अम्मी और अजीम की जिंदगी राबिया की किसी गलती की वजह से अधर में न लटक जाए. दरअसल, राबिया तो अब तक नीरद की चुप्पी देख खुद के एहसासों को भी खत्म कर लेने का जिगर पैदा कर चुकी थी.

खिड़की पर रोजरोज किसी का दिखना कोई छोड़ा जाने वाला मसला नहीं लगा राबिया को और उस ने हिम्मत कर ही ली कि नीरद को सारी बातें बताई जाएं.

नीरद समझदार था. उसे अंदेशा हुआ कि हो न हो कोई राबिया के लिए ही आता हो. गिद्दों की नजर पड़ने में देर ही कहां लगती है. एक परिवार को वह खुद के भरोसे उन की जमीन से उखाड़ लाया है. क्या वह राबिया के लिए कोई जिम्मेदारी महसूस करता है? क्या यह सिर्फ जिम्मेदारी ही है?

अजीम बाहर खेल रहा था, और अम्मी टेलर की दुकान से अभी तक नहीं लौटी थीं. नीरद को यह सही वक्त लगा. उस ने राबिया से कहा, ‘‘राबिया, मैं तुम से एक बात पूछना चाहता हूं.’’

राबिया की धड़कनें धनसिरी के उफानों से भी तेज चलने लगीं. आशानिराशा के बीच डोलती उस की आंखों की पुतलियां भरसक स्थिर होने की कोशिश में लगीं नीरद की आंखों से जा टकराईं.

नीरद ने कहा, ‘‘राबिया, तुम्हारा नाम मुझे लंबा लगता है, मैं तुम्हें ‘राबी’ कह कर बुलाना चाहता हूं. इजाजत है?’’

‘‘है, है, सबकुछ के लिए इजाजत है.’’

राबिया का दिल खुशी के मारे मन ही मन बल्लियों उछल पड़ा. मगर शर्मीली राबिया बर्फ की मूरत बनी एक ही जगह शांत खड़ी रही और जमीन की ओर देखती स्वीकृति में बस सिर ही हिला सकी.

नीरद ने धीरे से पूछा, ‘‘तुम्हारी पसंद में कोई लड़का है जिस से तुम शादी कर सको? मुझे बता दो, यहां मैं ही तुम सब का अपना हूं?’’

‘इस की बातें किसी पराए की तरह चुभती हैं. कभी इस ने मेरे मन को टटोलने की कोशिश नहीं की. जबकि मैं न जाने इसे कब से अपना सबकुछ…’ राबिया आक्रोश पर काबू नहीं रख सकी और नीरद के सामने अपनेआप को जैसे पूरा खोल कर रख दिया अचानक, ‘‘चूल्हे में जाए

तुम्हारा अपनापन. आठों पहर दिल में कुढ़ती हूं, आंखों का पानी अब तेजाब बन गया है. अब सब्र नहीं मुझ में.’’

नीरद नजदीक आ कर उस की दोनों बांहें पकड़ उस की आंखों की गहरी झील में उतरता रहा. कितनी सीपियां यहां मोती छिपाए पड़ी हैं. वह कितना बेवकूफ था जो झिझकता ही रह गया.

राबिया प्रेम समर्पण और लज्जा से थरथरा उठी. धीरेधीरे वह नीरद के बलिष्ठ बाजुओं के घेरे में खुद को समर्पित कर उस के सीने से जा लगी.

नीरद ने उस पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए पूछा, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

‘‘पर कैसे? तुम कर पाओगे? मेरा तो कोई नहीं, लेकिन तुम्हारा परिवार और समाज?’’

‘‘तुम प्यार करती हो न मुझ से?’’

‘‘क्या अब और भी कुछ कहना पड़ेगा मुझे?’’

‘‘फिर तुम मेरी हो चुकी, राबी. कोईर् इस सच को अब झुठला नहीं सकता.’’

नीरद के मन की हूर अब नीरद के लिए सच बन कर जमीन पर उतर चुकी थी. लेकिन इस सच को परिवार और समाज की जड़बुद्धि को कुबूल करवाना कोई हंसीखेल नहीं था.

अपारदर्शी सच- भाग 3: किस रास्ते पर चलने लगी तनुजा

निशा उस की अच्छी सहेली थी. उस से तनुजा की कशमकश छिपी न रह सकी. तनुजा को दिल का बोझ हलका करने को एक साथी तो मिला जिस से सहानुभूति के रूप में फौरीतौर पर राहत मिल जाती थी. निशा उसे समझाती तो थी पर क्या वह समझना चाहती है, वह खुद भी नहीं समझ पाती थी. उस ने कई बार इशारे में उसे विकल्प तलाशने को कहा तो कई बार इस के खतरे से आगाह भी किया. कई बार तनुजा की जरूरत की अहमितयत बताई तो कई बार समाज, संस्कार के महत्त्व को भी समझाया. तनुजा की बेचैनी ने उस के मन में भी हलचल मचाई और उस ने खुद ही खोजबीन कर के कुछ रास्ते सुझाए.

धड़कते दिल और डगमगाते कदमों से तनुजा ने उस होटल की लौबी में प्रवेश किया था. साड़ी के पल्लू को कस कर लपेटे वह खुद को छिपाना चाह रही थी पर कितनी कामयाब थी, नहीं जानती. रिसैप्शन पर बड़ी मुश्किल से रूम नंबर बता पाई थी. कितनी मुश्किल से अपने दिल को समझा कर वह खुद को यहां तक ले कर आई थी. खुद को लाख मनाने और समझाने पर भी एक व्यक्ति के रूप में खुद को देख पाना एक स्त्री के लिए कितना कठिन होता है, यह जान रही थी.

अपनी इच्छाओं को एक दायरे से बाहर जा कर पूरा करना कितना मुश्किल होता है, लिफ्ट से कमरे तक जाते यही विचार उस के दिमाग को मथ रहे थे. कमरे की घंटी बजा कर दरवाजा खुलने तक 30 सैकंड में 30 बार उस ने भाग जाना चाहा. दिल बुरी तरह धड़क रहा था. दरवाजा खुला, उस ने एक बार आसपास देखा और कमरे के अंदर हो गई. एक अनजबी आवाज में अपना नाम सुनना भी बड़ा अजीब था. फुरफुराते एहसास उस की रीढ़ को झुनझुना रहे थे. बावजूद इस के, सामने देख पाना मुश्किल था. वह कमरे में रखे एक सोफे पर बैठ गई, उसे अपने दिमाग में मनीष का चेहरा दिखाई देने लगा.

क्या वह ठीक कर रही? इस में गलत क्या है? आखिर मैं भी एक इंसान हूं. अपनी इच्छाएं, अपनी जरूरतें पूरी करने का हक है मुझे. मनीष को पता चला तो?

कैसे पता चलेगा, शहर के इस दूसरे कोने में घरऔफिस से दसियों किलोमीटर दूर कुछ हुआ है, इस की भनक तक इतनी दूर नहीं लगेगी. इस के बाद क्या वह खुद से नजरें मिला पाएगी? यह सब सोच कर उस की रीढ़ की वह सनसनाहट ठंडी पड़ गई, उठ कर भाग जाने का मन हुआ. वह इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती. मनीष, मम्मी, बच्चे, जानपहचान वाले, रिश्तेदार सब की नजरों में वह नहीं गिर सकती.

वेटर 2 कौफी रख गया. कौफी की भाप के उस पार 2 आंखें उसे देख रही थीं. उन आंखों की कामुकता में उस के एहसास फिर फुरफुराने लगे. उस ने अपने चेहरे से हो कर गरदन, वक्ष पर घूमती उन निगाहों को महसूस किया. उस के हाथ पर एक स्पर्श उस के सर्वांग को थरथरा गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. वह स्पर्श ऊपर और ऊपर चढ़ते बाहों से हो कर गरदन के खुले भाग पर मचलने लगा. उस की अतृप्त कामनाएं सिर उठाने लगीं. अब वह सिर्फ एक स्त्री थी हर दायरे से परे, खुद की कैद से दूर, अपनी जरूरतों को समझने वाली, उन्हें पूरा करने की हिम्मत रखने वाली.

सहीगलत की परिभाषाओं से परे अपनी आदिम इच्छाओं को पूरा करने को तत्पर वह दुनिया के अंतिम कोने तक जा सकने को तैयार, उस में डूब जाने को बेचैन. तभी वह स्पर्श हट गया, अतृप्त खालीपन के झटके से उस ने आंखें खोल दीं. आवाज आई, ‘कौफी पीजिए.’

कामुकता से मुसकराती 2 आंखें देख उसे एक तीव्र वितृष्णा हुई खुद से, खुद के कमजोर होने से और उन 2 आंखों से. होटल के उस कमरे में अकेले उस अपरिचित के साथ यह क्या करने जा रही थी वह? वह झटके से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. लगभग दौड़ते हुए वह होटल से बाहर आई और सामने से आती टैक्सी को हाथ दे कर उस में बैठ गई. तनुजा बुरी तरह हांफ रही थी. वह उस रास्ते पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.

दोनों ओर स्थितियां चरम पर थीं. दोनों ही अंदर से टूटने लगे थे. ऐसे ही जिए जाने की कल्पना भयावह थी. उस रात तनुजा की सिसकियां सुन मनीष ने उसे सीने से लगा लिया. उस का गला रुंध गया, आंसू बह निकले. ‘‘मैं तुम्हारा दोषी हूं तनु, मेरे कारण…’’

तनु ने उस के होंठों पर अपनी हथेली रख दी, ‘‘ऐसा मत कहो, लेकिन मैं करूं क्या? बहुत कोशिश करती हूं लेकिन बरदाश्त नहीं कर पाती.’’

‘‘मैं तुम्हारी बेचैनी समझता हूं, तनु,’’ मनीष ने करवट ले कर तनुजा का चेहरा अपने हाथों में ले लिया, ‘‘तुम चाहो तो किसी और के साथ…’’ बाकी के शब्द एक बड़ी हिचकी में घुल गए.

वह बात जो अब तक विचारों में तनुजा को उकसाती थी और जिसे हकीकत में करने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाई थी, वह मनीष के मुंह से निकल कर वितृष्णा पैदा कर गई.

तनुजा का मन घिना गया. उस ने खुद ऐसा कैसे सोचा, इस बात से ही नफरत हुई. मनीष उस से इतना प्यार करते हैं, उस की खुशी के लिए इतनी बड़ी बात सोच सकते हैं, कह सकते हैं लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगी? क्या ऐसा करना ठीक होगा? नहीं, कतई नहीं. उस ने दृढ़ता से खुद से कहा.

जो सच अब तक संकोच और शर्मिंदगी का आवरण ओढ़े अपारदर्शी बन कर उन के बीच खड़ा था, आज वह आवरण फेंक उन के बीच था और दोनों उस के आरपार एकदूसरे की आंखों में देख रहे थे. अब समाधान उन के सामने था. वे उस के बारे में बात कर सकते थे. उन्होंने देर तक एकदूसरे से बातें कीं और अरसे बाद एकदूसरे की बांहों में सो गए एक नई सुबह मेें उठने के लिए.

पापा के लिए: पिता के प्यार के लिए सौतेली बेटी ने क्या त्याग दिया

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पहचान – भाग 2 : मां की मौत के बाद क्या था अजीम का हाल

उस ने राबिया से कहा, ‘‘अभी मैं तुम्हें यहां से सामान दे दूं तो नैशनल रजिस्टर में नाम दर्ज का अलग ही बखेड़ा खड़ा होगा. तुम्हारे परिवार का नाम छूटा है इस पहचान रजिस्टर में.’’

‘‘क्या करें, हम भी उन 40 लाख समय के मारों में शामिल हैं, जिन के सरकारी रजिस्टर में नागरिक की हैसियत से नाम दर्ज नहीं हैं. अब्बा नहीं हैं. जिंदगी जीने के लाले पड़े हुए हैं. नाम दर्ज करवाने के झमेले कैसे उठाएं?’’

‘‘ठीक है, तुम लोग पास ही के सरकारी स्कूल में बने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हो न. मैं काम खत्म कर के 6 बजे तक सामान सहित वहां पहुंच जाऊंगा. तुम फिक्र न करो, मैं जरूर आऊंगा?’’

शिविर में आ कर राबिया की आंखें घड़ी पर और दिल दरवाजे पर अटका रहा. 2 कंबल, चादर और खानेपीने के सामान के साथ नीरद राबिया के पास पहुंच चुका था.

अम्मी तो धन्यवाद करते बिछबिछ जाती थीं. राबिया ने बस एक बार नीरद की आंखों में देखा. नीरद ने भी नजरें मिलाईं. क्या कुछ अनकहा सा एकदूसरे के दिल में समाया, यह तो वही जानें, बस, इतना ही कह सकते हैं कि धनसिरी की इस बाढ़ ने भविष्य के गर्भ में एक अपठित महाकाव्य का बीज ला कर रोप दिया था.

शरणार्थी शिविर में रोज का खाना तो दिया जाता था लेकिन नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स में जिन का नाम नहीं था, बिना किसी तकरार के वे भेदभाव के शिकार तो थे ही, इस मामले में आवाज उठाने की गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि स्थानीय लोगों की मानसिकता के अनुरूप ही था यह सबकुछ.

बात जब गलतसही की होती है, तब यह सुविधाअसुविधा और इंसानियत पर भी रहनी चाहिए. लेकिन सच यह है कि लोगों की तकलीफों को करीब से देखने के लिए हमेशा एक अतिरिक्त आंख चाहिए होती है.

बेबसी, अफरातफरी, इतिहास की खूनी यादें, बदले की झुलसाती आग, अपनेपरायों का तिकड़मी खेल और भविष्य की भूखी चिंता. राबिया के पास इंतजार के सिवा और कुछ न था.

नीरद जबजब आ जाता, राबिया, अजीम और उन की अम्मी की सांसें बड़ी तसल्ली से चलने लगतीं, वरना वही खौफ, वही बेचैनी.

राबिया नीरद से काफीकुछ कहना चाहती, लेकिन मौन रह जाती. हां, जितना वह मौन रहती उस का अंतर मुखर हो जाता. वह रातरातभर करवटें लेती. भीड़ और चीखपुकार के बीच भी मन के अंदर एक खाली जगह पैदा हो गई थी उस के. राबि?या के मन की उस खाली जगह में एक हरा घास का मैदान होता, शाम की सुहानी हवा और पेड़ के नीचे बैठा नीरद. नीरद की गोद में सिर रखी हुई राबिया. नीरद कुछ दूर पर बहती धनसिरी को देखता हुआ राबिया को न जाने प्रेम की कितनी ही बातें बता रहा है. वह नदी, हां, धनसिरी ही है. लेकिन कोई शोर नहीं, बदला नहीं, लड़ाई और भेदभाव नहीं. सब को पोषित करने वाली अपनी धनसिरी. अपनी माटी, अपना नीरद.

आज शाम को किराए के अपने मकान में लौटते वक्त आदतानुसार नीरद आया. नीरद के यहां आते अब महीनेभर से ऊपर होने को था.

राबिया एक  कागज का टुकड़ा झट से नीरद को पकड़ा उस की नजरों से ओझल हो गई.

अपनी साइकिल पर बैठे नीरद ने कागज के टुकड़े को खोला. असमिया में लिखा था, ‘‘मैं असम की लड़की, तुम असम के लड़के. हम दोनों को ही जब अपनी माटी से इतना प्यार है तो मैं क्या तुम से अलग हूं? अगर नहीं, तो एक बार मुझ से बात करो.’’

नीरद के दिल में कुछ अजीब सा हुआ. थोड़ा सा पहचाना, थोड़ा अनजाना. उस ने कागज के पीछे लिखा, ‘‘मैं तुम्हारी अम्मी से कल बात करूंगा?’’ राबिया को चिट्ठी पकड़ा कर वह निकल गया.

चिट्ठी का लिखा मजमून पढ़ राबिया के पांवों तले जमीन खिसक गई. ‘‘पता नहीं ऐसा क्यों लिखा उस ने? कहीं शादीशुदा तो नहीं? मैं मुसलिम, कहीं इस वजह से वह गुस्सा तो नहीं हो गया? क्या मैं ने खुद को असमिया कहा तो बुरा मान गया वह? फिर जो भी थोड़ाबहुत सहारा था, छिन गया तो?’’

राबिया का दिल बुरी तरह बैठ गया. बारबार खुद को लानत भेज कर भी जब उस के दिल पर ठंडक नहीं पड़ी तो अम्मी के पास पहुंची. उन्हें भरसक मनाने का प्रयास किया कि वे तीनों यहां से चल दें. जो भी हो वह नीरद को अम्मी से बात करने से रोकना चाहती थी.

अम्मी बेटी की खुद्दारी भी समझती थीं और दुनियाजहान में अपने हालात भी, कहा, ‘‘बेटी, बाढ़ से सारे रास्ते कटे पड़े हैं. कोई ठौर नहीं, खाना नहीं, फिर जिल्लत जितनी यहां है, उस से कई गुना बाहर होगी. जान के लाले भी पड़ सकते हैं. नन्हे अजीम को खतरा हो सकता है. तू चिंता न कर, मैं सब संभाल लूंगी.’’

शाम को कुछ रसद के साथ नीरद हाजिर हुआ और सामान राबिया को पकड़ा कर अम्मी के पास जा बैठा. अम्मी का हाथ अपने हाथों में ले कर उस ने कहा, ‘‘राबिया की वजह से आप से और अजीम से जुड़ा. अब मैं सचमुच यह चाहता हूं कि आप तीनों मेरे साथ गुवाहाटी चलें. जब मेरा यहां का काम खत्म हो जाए तब मैं आप सब से हमेशा के लिए बिछुड़ना नहीं चाहता. गुवाहाटी में मैं राबिया को एक एनजीओ संस्था में नौकरी दिलवा दूंगा. अजीम का दाखिला भी स्कूल में हो जाएगा. आप सिलाई वगैरह का कोई काम देख लेना. और रहने की चिंता बिलकुल न करिए. वहां हमारा अपना घर है. आप को किसी चीज की कोई चिंता न होने दूंगा.’’

राबिया की तो जैसे रुकी हुई सांस अचानक चल पड़ी थी. बारिश में लथपथ हवा जैसे वसंत की मीठी बयार बन गई थी. अम्मी ने नीरद के गालों को अपनी हथेलियों में भर कर कहा, ‘‘बेटा, जैसा कहोगे, हम वैसा ही करेंगे. अब तुम्हें हम सब अपना ही नहीं, बल्कि जिगर का टुकड़ा भी मानते हैं.’’

अजीम यहां से जाने की बात सुन नीरद की पीठ पर लद कर नीरद को दुलारने लगा. नीरद ने राबिया की ओर देखा. राबिया मारे खुशी के बाहर दौड़ गई. वह अपनी खुशी की इस इंतहा को सब पर जाहिर कर शर्मसार नहीं होना चाहती थी जैसे.

महीनेभर बाद वे गुवाहाटी आ गए थे. नीरद के दोमंजिला मकान से लगी खाली जगह में एक छोटा सा आउटहाउस किस्म का था, शायद माली आदि के लिए. छत पर ऐसबेस्टस था. लेकिन छोटा सा 2 कमरे वाला हवादार मकान था. बरामदे के एक छोर पर रसोई के लिए जगह घेर दी गई थी. वहां खिड़की थी तो रोशनी की भी सहूलियत थी. पीछे छोटा सा स्नानघर आदि था. एक अदद सूखी जमीन पैर रखने को, एक छत सिर ढांपने को, बेटी राबिया की एनजीओ में नौकरी, अजीम का सरकारी स्कूल में दाखिला और खुद अम्मी का एक टेलर की दुकान पर सिलाई का काम कर लेना- इस से ज्यादा उन्हें चाहिए भी क्या था.

पर बात यह भी थी कि उन के लिए इतना पाना ही काफी नहीं रहा. नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का सवाल तलवार बन कर सिर पर टंगा था. अगर जी लेना इतना आसान होता तो लोग पीढ़ी दर पीढ़ी एक आशियाने की तलाश में दरबदर क्यों होते? क्यों लोग अपनी कमाई हुई रोटी पर भी अपना हक जताने के लिए सदियों तक लड़ाई में हिस्सेदार होते? नहीं था इतना भी आसान जीना.

अभी 3-4 दिन हुए थे कि नीरद की मां आ पहुंची उन से मिलने. राबिया की मां ने सोचा था कि वे खुद ही उन से मिलने जाएंगी, लेकिन नीरद ने मना कर दिया था. जब तक वे दुआसलाम कर के उन के बैठने के लिए कुरसी लातीं, नीरद की मां ने तोप के गोले की तरह सवाल दागने शुरू किए.

‘‘नीरद ढंग से बताता कुछ नहीं, आप लोग हैं कौन? धर्मजात क्या है आप की? आप की बेटी रोज कहां जाती है? नीरद ने किराया कुछ बताया भी है या नहीं? हम ने यह घर माली के लिए बनवाया था. अब जब तक आप लोग हो, मेरा बगीचा फिर से सही कर देना. वैसे, हो कब तक आप लोग?’’

अम्मी ने हाथ जोड़ दिए, कहा, ‘‘दीदी, नीरद बड़ा अच्छा बच्चा है. बाढ़ में हमारा घरबार सब डूब गया. समय थोड़ा सही हो जाए, चले जाएंगे.’’

सिर से पांव तक राबिया की अम्मी को नीरद की मां ने निहारा और कहा, ‘‘घरवालों के सीने में मूंग दल कर बाहर वालों पर रहमकरम कर रहा है, अच्छा बच्चा तो होगा ही.’’

कफन: कैसे हटा रफीक मियां के सर से कफन सीने वाले दर्जी का लेबल

‘‘आजकल कितने कफन सी लेते हो?’’ रहमत अली ने रफीक मियां से पूछा.

‘‘आजकल धंधा काफी मंदा है,’’ रफीक मियां ने ठहरे स्वर में कहा.

‘‘क्यों, लोग मरते नहीं हैं क्या?’’

इस बेवकूफाना सवाल का जवाब वह भला रहमत अली को क्या दे सकता था. मौतें तो आमतौर पर होती ही रहती हैं. मगर सब लोग अपनी आई मौत ही मर रहे थे. आतंकवादियों द्वारा कत्लेआम का सिलसिला पिछले कई महीनों से कम सा हो गया था.

कश्मीर घाटी में अमनचैन की हवा फिर से बहने लगी थी. हर समय दहशत, गोलीबारी, बम विस्फोट भला कौन चाहता है. बीच में भारी भूकंप आ गया था. हजारों आदमी एकदम से मुर्दों में बदल गए थे.

सरकारी सप्लाई के महकमे में रफीक का नाम भी बतौर सप्लायर रजिस्टर्ड था. एकदम से बड़ा आर्डर आ गया था. दर्जनों अस्थायी दर्जियों का इंतजाम कर उसे आर्डर पूरा करना पड़ा था.

आर्डर से कहीं ज्यादा बड़े बिल और वाउचर पर उस को अपनी फर्म की नामपते वाली मुहर लगा कर दस्तखत करने पड़े थे. खुशी का मौका हो या गम का, सरकारी अमला सरकार को चूना लगाने से नहीं चूकता.

रफीक पुश्तैनी दर्जी था. उस के पिता, दादा, परदादा सभी दर्जी थे. कफन सीना दोयम दर्जे का काम था. कभी सिलाई मशीन का चलन नहीं था. हाथ से कपड़े सीए जाते थे. दर्जी का काम कपड़े सीना मात्र था. कफन कपड़े में नहीं गिना जाता था. कपड़े जिंदा आदमी या औरतें पहनती हैं न कि मुर्दे.

घर में मौत हो जाने पर संस्कार या जनाजे के समय ही कफन सीआ जाता था. कोई भी दुकानदार या व्यापारी सिलासिलाया कफन नहीं बेचता था और न ही तैयार कफन बेचने के लिए रखता था.

मगर बदलते जमाने के साथ आदमी ज्यादा पैदा होने लगे और ज्यादा मरने भी लगे. लिहाजा, तैयारशुदा कफनों की जरूरत भी पड़ने लगी थी. मगर अभी तक कफन सीने का काम बहुत बड़े व्यवसाय का रूप धारण नहीं कर पाया था.

फिर आतंकवाद का काला साया घाटी और आसपास के इलाकों पर छा गया तो अमनचैन की फिजा मौत की फिजा में बदल गई थी.

कामधंधा और व्यापार सब चौपट हो गया था. सैलानियों के आने के सीजन में भी बाजार, गलियां, चौक सब में सन्नाटा छा गया था. कभी कश्मीरी फैंसी डे्रसें, चोंगे, चूड़ीदार पायजामा, अचकन, लहंगा चोली, फैंसी जाकेट, शेरवानी, कुरतापायजामा, गरम कोट सीने वाले दर्जी व कारीगर सभी खाली हो भुखमरी का शिकार हो गए थे.

फिर जिस कफन को हिकारत या मजबूरी की वस्तु समझा जाता था वही सब से ज्यादा मांग वाली चीज बन गई थी. यानी थोक में कफनों की मांग बढ़ने लगी थी.

ढेरों आतंकी या दहशतगर्द मारे जाने लगे थे. उतने ही फौजी भी. आम आदमियों की कितनी तादाद थी कोई अंदाजा नहीं था. बस, इतना अंदाजा था कि कफन सिलाई का धंधा एक कमाई का धंधा बन गया था.

सफेद कपड़े से पायजामाकुरता भी बनता था. रजाइयों के खोल भी बनते थे और कभीकभार कफन भी बनता था. कपड़े की मांग तो बराबर पहले जैसी थी. मगर कपड़ा अब जिंदों के बजाय मुर्दों के काम ज्यादा आने लगा था. आखिर खुदा के घर भेजने से पहले मुर्दे को कपड़े से ढांकना भी जरूरी था. नंगा होने का लिहाज हर जगह करना ही पड़ता है…चाहे लोक हो या परलोक.

विडंबना की बात थी, आदमी नंगा ही पैदा होता है. दुनिया में कदम रखते ही उस को चंद मिनटों में ही कपड़े से ढांप दिया जाता और मरने के बाद भी कपड़े से ही ढका जाता है.

जिंदों के बजाय मुर्दों के कपड़ों का काम करना या सीना हिकारत का काम था. मगर रोजीरोटी के लिए सब करना पड़ता है. वक्त का क्या पता, कैसे हालात से सामना करा दे?

अलगअलग तरह के कपड़ों के लिए अलगअलग माप लेना पड़ता था. डिजाइन बनाने पड़ते थे. मोटा और बारीक दोनों तरह का काम करना पड़ता था. मगर, कफन का कपड़ा काटना और सीना बिना झंझट का काम था. लट््ठे के कपड़ों की तह तरतीब से जमा कर उस पर गत्ते का बना पैटर्न रख निशान लगा वह बड़ी कैंची से कपड़ा काट लेता था. फिर वह खुद और उस के लड़के सिलाई कर के सैकड़ों कफन एक दिन में सी डालते थे.

आतंकवाद के जनून के दौरान मरने वाले काफी होते थे. लिहाजा, धंधा अच्छा चल निकला था. दहशतगर्दी ने जहां साफसुथरा सिलाई का धंधा चौपट कर दिया था वहीं कफन सीने का काम दिला उस जैसे पुश्तैनी कारीगरों को काम से मालामाल भी कर दिया था.

जैसेजैसे काम बढ़ता गया वैसेवैसे मशीनों की और कारीगरों की तादाद भी बढ़ती गई. मगर जैसा काम होता है वैसा ही मानसिक संतुलन बनता है.

सिलाई का बारीक और डिजाइनदार काम करने वाले कारीगरों का दिमाग जहां नएनए डिजाइनों, खूबसूरत नक्काशियों और अन्य कल्पनाओं में विचरता था वहां सारा दिन कफन सीने वाले कारीगरों का दिमाग और मिजाज हर समय उदासीन और बुझाबुझा सा रहता था. उन्हें ऐसा महसूस होता था मानो वे भी मौत के सौदागरों के साथी हों और हर मुर्दा उन के सीए कफन में लपेटे जाते समय कोई मूक सवाल कर रहा हो.

दर्जीखाने का माहौल भी सारा दिन गमजदा और अनजाने अपराध से भरा रहता था. सभी कारीगरों को लगता था कि इतनी ज्यादा तादाद में रोजाना कफन सी कर क्या वे सब मौत के सौदागरों का साथ नहीं दे रहे. क्या वे सब भी गुनाहगार नहीं हैं?

दर्जीखाने में कोई भी खातापीता नहीं था. दोपहर का खाना हो या जलपान, सब बाहर ही जाते थे. रफीक के पास रुपया तो काफी आ गया था मगर वह भी खोयाखोया सा ही रहता था. कफन आखिर कफन ही था.

जैसे बुरे वक्त का दौर शुरू हुआ था वैसे ही अच्छे वक्त का दौर भी आने लगा. हुकूमत और आवाम ने दहशतगर्दी के खिलाफ कमर कस ली थी. हालात काबू में आने लगे थे.

फिर मौत का सिलसिला थम सा गया तो कफन की मांग कम हो गई. एक मशीन बंद हुई, एक कारीगर चला गया, फिर दूसरी, तीसरी और अगली मशीन बंद हो गई, फिर पहले के समान दुकान में 2 ही मशीनें चालू रह पाईं. बाकी सब बंद हो गईं.

उन बंद पड़ी मशीनों को कोई औनेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं था क्योंकि हर किसी को लगता था, कफन सीने में इस्तेमाल हुई मशीनों से मुर्दों की झलक आती है. तंग आ कर रफीक ने सभी मशीनों को कबाड़ी को बेच दिया.

कफन सीना कम हो गया या कहें लगभग बंद हो गया मगर थोड़े समय तक किया गया हिकारत वाला काम रफीक के माथे पर ठप्पा सा लगा गया. उस को सभी ‘कफन सीने वाला दर्जी’ कहने लगे.

धरती का स्वर्ग कही जाने वाली घाटी में दहशतगर्दी खत्म होते ही सैलानियों का आना फिर से शुरू हो गया था. ‘मौत की घाटी’ फिर से ‘धरती का स्वर्ग’ कहलाने लगी थी. मगर रफीक फिर से आम कपड़े का दर्जी या आम कपड़े सीने वाला दर्जी न कहला कर ‘कफन सीने वाला दर्जी’ ही कहलाया जा रहा था.

इस ‘ठप्पे’ का दंश अब रफीक को ‘चुभ’ रहा था. सारा रुपया जो उस ने दहशतगर्दी के दौरान कमाया था बेकार, बेमानी लगने लगा था. उस का मकान कभी पुराने ढंग का साधारण सा था मगर किसी को चुभता न था. आम आदमी के आम मकान जैसा दिखता था.

मगर अंधाधुंध कमाई से बना कोठी जैसा मकान अब एक ऐसे आलीशान ‘मकबरे’ के समान नजर आता था जिस के आधे हिस्से में कब्रिस्तान होता है. मगर जिस में कोई भी संजीदा इनसान रहने को राजी नहीं हो सकता.

रफीक मियां और उस के कुनबे को इस हालात में आने से पहले हर पड़ोसी, जानपहचान वाला, ग्राहक सभी अपने जैसा ही समझते थे. सभी उस से बतियाते थे. मिलतेजुलते थे. मगर एक दफा कफन सीने वाला दर्जी मशहूर हो जाने के बाद सभी उस से ऐसे कतराते थे मानो वह अछूत हो.

पिछली कई पीढि़यों से दर्जी चले आ रहे खानदानी दर्जी के कई पीढि़यों के खानदानी ग्राहक भी थे. कफन सीने का काम थोक में करने के कारण या मोटी रकम आने के कारण रफीक उन की तरफ कम देखने या कम ध्यान देने लगा था. धीरेधीरे वे भी उस को छोड़ गए थे.

दहशतगर्दी खत्म हो जाने के बाद हालात आम हो चले थे. मगर रफीक के पुराने और पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ग्राहक वापस नहीं लौटे थे.

कफन सीना बंद हो चला था, लिहाजा, कमाई बंद हो गई थी. सैलानियों से काम ले कर देने वाले या सैलानियों को आम कश्मीरी पोशाकें, कढ़ाईदार कपड़े बेचने वाले दुकानदारों ने उस पर लगे ठप्पे की वजह से उसे काम नहीं दिया था.

जिस तरह झंझावात, अंधड़, आंधी या मूसलाधार बरसात में कुछ नहीं सूझता उसी तरह दहशतगर्दी की आंधी में बहते आ रहे आवाम को वास्तविक जिंदगी का एहसास माहौल शांत होने पर ही होता था.

यही हालात अब रफीक के थे. आतंकवाद से पहले इलाके में दोनों समुदाय के लोग थे. एक समुदाय थोड़ा बड़ा था दूसरा थोड़ा छोटा. जान की खैर के लिए एक समुदाय बड़ी तादाद में पलायन कर गया था.

अब घाटी में मुसलमान ही थे. हिंदू बराबर मात्रा में होते और वे भी काम न देते तो रफीक को मलाल न होता मगर अब जब सारी घाटी में मुसलमान ही मुसलमान थे और जब उसी के भाईबंदों ने उसे काम नहीं दिया तो महसूस होना ही था.

कफन सिर्फ कफन होता है. उस को हिंदू, मुसलमान, सिख या अन्य श्रेणी में नहीं रखा जा सकता मगर उस को आम हालात में कौन छूना पसंद करता है?

एक कारीगर दर्जी से कफन सीने वाला दर्जी कहलाने पर रफीक को महसूस होना स्वाभाविक था. उसी तरह क्या उस की कौम भी दुनिया की नजरों में आने वाले समय या इतिहास में दहशतगर्दी फैलाने या मौत की सौदागरी करने वाली कहलाएगी?

रफीक से भी ज्यादा मलाल उस के परिवार की महिला सदस्यों को होता था कि उन का अपना ही मुसलिम समाज उन को अछूत मानने लगा था.

रफीक को खानापीना नहीं सुहाता. शरीर सूखने लगा था. हरदम चेहरे पर शर्मिंदगी छाई रहती थी.

शुक्रवार की नमाज का दिन था. जुम्मा होने की वजह से आज छुट्टी भी थी. नमाज पढ़ी जा चुकी थी. वह मसजिद के दालान में अभी तक बैठा था तभी वहां बड़े मौलवी साहब आ पहुंचे. दुआसलाम हुई.

‘‘क्या हाल है, रफीक मियां? क्या तबीयत नासाज है?’’

‘‘नहीं जनाब, तबीयत तो ठीक है मगर…’’ रफीक से आगे बोला न गया.

‘‘क्या कोई परेशानी है?’’ मौलवी साहब उस के समीप आ कर बैठ गए.

‘‘आजकल काम ही नहीं आता.’’

‘‘क्यों…अब तो माहौल ठीक हो चुका है. सैलानी तफरीह करने खूब आ रहे हैं. बाजारों में रश है.’’

‘‘मगर मुझ पर हकीर काम करने वाले का ठप्पा लग गया है.’’

‘‘तो क्या?’’

रफीक की समस्या सुन कर मौलवी साहब भी सोच में पड़ गए. क्या कल की तारीख या इतिहास में उन की कौम भी आतंकवादियों का समुदाय कहलाएगी?

रफीक की परेशानी तो फौरी ही थी. काम आ ही जाएगा, नहीं आया तो पेशा बदल लेगा. मगर जिस पर उस का अपना समुदाय चलता आ रहा था उस का नतीजा क्या होगा?

‘‘अब्बाजान, हमारा धंधा अब नहीं जम सकता. क्यों न कोई और काम कर लें?’’ बड़े लड़के अहमद मियां ने कहा.

रफीक खामोश था. पीढि़यों से सिलाई की थी. अब क्या नया धंधा करें?

‘‘क्या काम करें?’’

‘‘अब्बाजान, दर्जी के काम के सिवा क्या कोई और काम नहीं है?’’

‘‘वह तो ठीक है, मगर कुछ तो तजवीज करो कि क्या नया काम करें?’’ रफीक के इस सीधे सवाल का जवाब बेटे के पास नहीं था. वह खामोश हो गया.

रफीक दुकान पर काम हो न हो बदस्तूर बैठता था. दुकान की सफाई भी नियमित होती थी. बेटा अपने दोस्तों में चला गया था. पेट भरा हो तो भला काम करने की क्या जरूरत थी? बाप की कमाई काफी थी. खाली बातें करने या बोलने में क्या जाता था?

हुक्के का कश लगा कर रफीक कुनकुनी धूप में सुस्ता रहा था कि उस की दुकान के बाहर पुलिस की जीप आ कर रुकी.

पुलिस? पुलिस क्या करने आई थी? रफीक हुक्का छोड़ उठ खड़ा हुआ. तभी उस का चेहरा अपने पुराने ग्राहक सिन्हा साहब को देख कर चमक उठा.

एक दशक पहले 3 सितारे वाले सदर थाने में एस.एच.ओ. होते थे. अब शायद बड़े अफसर बन गए थे.

‘‘आदाब अर्ज है, साहब,’’ रफीक ने तनिक झुक कर सलाम किया.

‘‘क्या हाल है, रफीक मियां?’’ पुलिस कप्तान सिन्हा साहब ने पूछा.

‘‘सब खैरियत है, साहब.’’

‘‘क्या बात है, बाहर बैठे हो…क्या आजकल काम मंदा है?’’

‘‘बस हुजूर, थोड़ा हालात का असर है.’’

‘‘ओह, समझा, जरा हमारी नई वरदी सी दोगे?’’

‘‘क्यों नहीं, हुजूर, हमारा काम ही सिलाई करना है.’’

एस.एच.ओ. साहब एस.पी. बन गए थे. कई साल वहां रहे थे. ट्रांसफर हो कर कई जगह रहे थे. अब यहां बड़े अफसर बन कर आए थे.

रफीक मियां की उदासी, निरुत्साह सब काफूर हो गया था. वह आग्रहपूर्वक कप्तान साहब को पिस्तेबादाम वाली बरफी खिला रहा था, साथ ही मसाले वाली चाय लाने का आर्डर दे रहा था. आखिर उस के माथे से कफन सीने वाले दर्जी का लेबल हट रहा था.

कप्तान साहब नाप और कपड़ा दे कर चले गए थे. रफीक मियां जवानी के जोश के समान उन की वरदी तैयार करने में जुट गए थे.

कप्तान साहब की भी वही हालत थी जो रफीक की थी. 2 परेशान जने हाथ मिला कर चलें तो सफर आसान हो जाता है.

पैसा बना देता है अपनों का दुश्मन: जब खूनी बनी शादीशुदा प्रेमिका

उस रात वह मेरा इंतजार करती रही. मन में चल रही उल  झन व सवालों ने बेचैनी को और भी बढ़ा दिया था. मन में एक ही सवाल था कि क्या हुआ होगा. आखिरकार चैन आ गया, जब प्रेमी का फोन ही आ गया. उस की बातों को सुन कर यही लगा कि अपने पति की यादों से बाहर निकल जाएगी और वह  अपने प्रेमी के साथ एक प्यार भरी जिंदगी बिताने का सपना देख कर सो गई. लेकिन यह सपना एक चुटकी में ही ढेर हो जाएगा, इस बात का अंदाजा नहीं था. एक ऐसा प्यार, जिस ने सिर्फ इनसानियत का खून नहीं किया, बल्कि एक परिवार को भी तबाह कर दिया.

पहली मुलाकात

बात साल 2013 की है. मोहनदास की 34 वर्षीय पत्नी सीमा केरल के मुख्य शहर कोच्चि में एक कंपनी में काम करती थी. वहीं उसी औफिस टौवर में गिरीश एक गारमेंट शौप में अकाउंटैंट की जौब करता था.

एक ही बिल्डिंग में काम करने की वजह से सीमा और गिरीश की मुलाकात हो गई और यह सिलसिला चलता रहा. उन की दोस्ती प्यार का रूप ले चुकी थी. वे दोनों आपस में एकदूसरे से अपने सुखदुख बांटने लगे.

सीमा ने गिरीश को अपने कर्ज के बारे में बताया. सीमा ने पैसे की मदद करने के लिए ही गिरीश से दोस्ती की थी. गिरीश ने कई बार सीमा की मांग के मुताबिक उस की मद्द करने के लिए पैसा भी दिया और कभी भी यह दी गई रकम वापस नहीं मांगी.

इस तरह सीमा की कई जरूरतें पूरी होने लगीं. गिरीश के बारे में सीमा ने मोहनदास को बताया तो था, लेकिन वह असलियत से फिर भी अनजान ही था. मोहनदास को इन रिश्ते में कोई छिपी बात महसूस नहीं हुई.

दोस्त बन कर गिरीश वैकेम से एर्नाकुलम तक  हर दिन बाइक से आताजाता था. सीमा से रिश्ता बनाए रखने के लिए गिरीश और पैसा कमाने में लगा रहता और इस के लिए उस ने अपने दफ्तर में हेराफेरी भी शुरू कर दी.

अकाउंटैंट होने की वजह से गिरीश बहुत जल्दी लाखों रुपए की हेरफेर करने में सफल भी हुआ और उस ने वह सारे पैसे सीमा के अकाउंट में ट्रांसफर कर दिए.

शुरुआत में सीमा इस बात से अनजान थी कि गिरीश के पास यह पैसे कहां से आ रहे हैं. मोहनदास ने भी कभी नहीं पूछा. इन लोगों ने 17 लाख रुपए की गाड़ी भी खरीद ली थी.

अचानक से जिंदगी में आया इतना बदलाव देख कर जब रिश्तेदारों को भी शक हुआ, तब सीमा और मोहनदास ने अपने रिएल ऐस्टेट के धंधे में मुनाफा बताया.

कभी न बिछुड़ने वाले प्रेमी

गिरीश का सीमा को पैसे देने का सिलसिला जारी रहा. एक बार मोहदनदास अपने दोस्तों व परिवार के सदस्यों के साथ घूमने चले गए. इसी बीच सीमा और गिरीश के बीच निकटता ज्यादा बढ़ गई. एकसाथ बाहर जाना, खाना खाना और वह सीमा के घर भी जाने लगा.

गिरीश का सीमा के प्रति पागलपन का सा प्यार था. 6 साल तक का लंबा परिचय कभी न टूटने वाले रिश्ते में बदल गया था. इतने सालों तक गिरीश सीमा को तकरीबन 1 करोड़ रुपए तक दे चुका था, जो उस ने कंपनी के अकाउंट से चुराए थे.

गिरीश के औफिस वालों को भी उस की बेईमानी का पता चलने लगा. कंपनी उस से अपने सारे पैसे वापस मांगने लगी.

हत्या की योजना

सीमा गिरीश की असलियत से वाकिफ हो गई थी, लेकिन वह गिरीश को सारे पैसे वापस न करने की हालत में थी. पति के सामने कोई भी माली हेराफेरी मुमकिन नहीं थी. वे दोनों गुरुवायूर में कमरा ले कर समस्याओं के समाधान सोचते रहे.

इसी बीच सीमा ने बताया कि मोहनदास के तमिलनाडु में ट्रांसफर होने की योजना बन रही है. अब हम सब वहीं चले जाएंगे.

सीमा की यह बात सुन कर गिरीश को लगा कि भविष्य में वह फिर सीमा से कभी भी नहीं मिल पाएगा. सीमा को दिया हुआ सारा पैसा व रिश्ता खत्म होते सोच गिरीश डर गया. फिर इन दोनों ने मिल कर मोहनदास की हत्या की योजना बनाई.

रची साजिश

सीमा और गिरीश दोनों ने मिल कर मोहनदास की हत्या का दिन 2 दिसंबर तय किया. जिस दिन सीमा के भाई के बच्चों का जन्मदिन होता है. मोहनदास भी वहीं पार्टी में गया हुआ था और दोपहर तक वापस लौट आया. शाम को साढ़े 7 बजे वह कहीं जाने की तैयारी में था. इस मौके का उन दोनों ने भरपूर फायदा उठाया.

7 बज कर 40 मिनट पर सीमा ने मोहनदास से यह कहा कि गिरीश अमृत अस्पताल में एक दोस्त से मिलने गया है. वापस लौटते समय पालम जंक्शन पर वह आप का इंतजार करेगा. उसे बाइक में लिफ्ट दे कर किसी सुविधाजनक जगह पर उतार देना.

मोहनदास के घर से निकलते ही सीमा ने गिरीश को फोन कर दिया. मोहनदास पालम जंक्शन पर पहुंच गया, तो उस ने वहां गिरीश को खड़े देखा. वह बाइक पर सवार हो गया और उस ने मोहनदास को फाक्ट आनवातिल जंक्शन जैसी वीरान जगह पर गाड़ी रोकने को कहा.

फिर गिरीश ने एक तौलए पर क्लोरोफोम डाल कर उस की नाक पर लगाने की कोशिश की. मोहनदास ने भागने की कोशिश की, तो गिरीश ने उसे पीछे से पकड़ कर चाकू मार दिया. गहरे घाव और लगातार खून बहने की वजह से मोहनदास की मौके पर ही मौत हो गई. चाकू मारने के बाद गिरीश कमलेश्वरी की ओर चला गया, जहां उस की बाइक थी.

पुलिस की जांचपड़ताल

8 बजे के करीब मौका ए वारदात पर लोगों की भीड़ जमा हो गई थी. मोहनदास की हत्या जहां उस की बाइक खड़ी थी वहां से कुछ ही दूरी पर की गई थी. मौका ए वारदात पर एक चश्मा पाया गया. उस के गले की चेन के 2 टुकड़े हो चुके थे. 40,000 रुपए का कीमती मोबाइल फोन व पर्स से 30,000 रुपए गायब थे, जिसे गिरीश ने निकाल लिया था, क्योंकि वह यह साबित करना चाहता था कि हत्या सामान की लूट व मार से हुई है. लेकिन पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि मोहनदास की हत्या की गई है.

हत्या के बाद गिरीश ने सीमा को बताने के लिए फोन किया था. मोहनदास के सभी परिचितों के नंबर पर जांच विभाग द्वारा जांच की गई. जब पुलिस द्वारा सीमा जहां नौकरी करती थी, वहां से जांचपड़ताल की गई तो पता चला कि वह काम पर 17 नवंबर से ही नहीं गई थी. सीमा ने वहां तबीयत खराब होने व अस्पताल जाने का कारण बताया था.

सीमा के मोबाइल पर ज्यादातर गिरीश के ही फोन देख पुलिस ने उस के औफिस में जा कर पूछताछ की, तो वहां पता चला कि पैसे की हेराफेरी करने की वजह से वह यहां पर नहीं आ रहा है, तभी दोनों के संबंध सामने आए.

कोच्चि टाउन नौर्थ पुलिस सबइंस्पैक्टर एस. जयशंकर का कहना है, ‘‘ये दोनों जहां काम कर रहे थे, वहां के लोग इन के रिश्ते से अनजान थे. पुलिस ने गिरीश के घर के आसपास जांच की. पुलिस ने जब सीमा से पूछताछ की, तो उस के जवाब व बरताव में घबराहट महसूस हुई. इतना ही नहीं, मोहनदास के रिश्तेदारों को भी सीमा पर शक होने लगा था. सख्ती से पूछताछ करने पर गिरीश का हत्या में हाथ सामने आया. घटना के 10 दिनों के अंदर ही मुजरिम सामने आ गए.’’

पछतावा नहीं

पकड़े जाने के बाद भी बिना किसी शर्म व डर के दोनों सामने खड़े थे. दोनों को घटनास्थल पर ले जाया गया, तो गिरीश ने फेंके हुए विदेशी चाकू, जिस से मोहनदास की हत्या की थी, को   झुरमुट से ढूंढ़ निकाला. फोरैंसिक विभाग द्वारा की गई जांच में बाइक पर खून के धब्बे भी पाए गए.

सीमा और गिरीश ने सोचा था कि इस हत्या के बारे में कभी भी किसी को पता नहीं चलेगा, पर दोनों के फोन की काल हिस्ट्री ने इन का जुर्म उजागर कर दिया. मोहनदास व सीमा के बच्चे अब रिश्तेदारों के सहारे ही पलने लगे.

प्यार और पैसे का चोलीदामन का साथ है. हर प्रेमिका चाहती है कि उस का प्रेमी उस पर खर्च करे, चाहे कहीं से भी पैसा आए. अगर प्रेमिका शादीशुदा है तो वह बहुत लालची भी हो जाती है और अपनी कामुक अदाओं का भी इस्तेमाल करती है. आमतौर पर पति चुप ही रहते हैं, क्योंकि पत्नी के साथ पैसे का फायदा उसे भी मिलता है. सोने के अंडे देने वाली पत्नी किसे नहीं भाती?

जयादेवन आर.      

अपारदर्शी सच- भाग 2: किस रास्ते पर चलने लगी तनुजा

करीब सालभर पहले तक सब सामान्य था. मनीष और तनुजा जिंदगी के उस मुकाम पर थे जहां हर तरह से इतमीनान था. अपनी जिंदगी में एकदूसरे की अहमियत समझतेमहसूस करते एकदूसरे के प्यार में खोए रहते.

इस निश्चितता में प्यार का उछाह भी अपने चरम पर था. लगता, जैसे दूसरा हनीमून मना रहे हों जिस में अब उत्सुकता की जगह एकदूसरे को संपूर्ण जान लेने की तसल्ली थी. मनीष अपने दम भर उसे प्यार करते और वह पूरी शिद्दत से उन का साथ देती. फिर अचानक यों ही मनीष जल्दी थकने लगे तो उसी ने पूरा चैकअप करवाने पर जोर दिया.

सबकुछ सामान्य था पर कुछ तो असामान्य था जो पकड़ में नहीं आया था. वह उन का और ध्यान रखने लगी. खाना, फल, दूध, मेवे के साथ ही उन की मेहनत तक का. उस की इच्छाएं उफान पर थीं पर मनीष के मूड के अनुसार वह अपने पर काबू रखती. उस की इच्छा देखते मनीष भी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते लेकिन वह अतृप्त ही रह जाती.

हालांकि उस ने कभी शब्दों में शिकायत दर्ज नहीं की, लेकिन उस की झुंझलाहट, मुंह फेर कर सो जाना, तकिए में मुंह दबा कर ली गई सिसकियां मनीष को आहत और शर्मिंदा करती गईं. धीरेधीरे वे उन अंतरंग पलों को टालने लगे. तनुजा कमरे में आती तो मनीष कभी तबीयत खराब होने का बहाना बनाते, कभी बिजी होने की बात कर लैपटौप ले कर बैठ जाते.

कुछकुछ समझते हुए भी उसे शक हुआ कि कहीं मनीष का किसी और से कोई चक्कर तो नहीं है? ऐसा कैसे हो सकता है जो व्यक्ति शाम होते ही उस के आसपास मंडराने लगता था वह अचानक उस से दूर कैसे होने लगा? लेकिन उस ने यह भी महसूस किया कि मनीष

अब भी उस से प्यार करते हैं. उस की छोटीछोटी खुशियां जैसे सप्ताहांत में सिनेमा, शौपिंग, आउटिंग सबकुछ वैसा ही तो था. किसी और से चक्कर होता तो उसे और बच्चों को इतना समय वे कैसे देते? औफिस से सीधे घर आते हैं, कहीं टूर पर जाते नहीं.

शक का कीड़ा जब कुलबुलाता है तब मन जितना उस के न होने की दलीलें देता है उतना उस के होने की तलाश करता. कभी नजर बचा कर डायरी में लिखे नंबर, तो कभी मोबाइल के मैसेज भी तनुजा ने खंगाल डाले पर शक करने जैसा कुछ नहीं मिला.

उस ने कईकई बार खुद को आईने में निहारा, अंगों की कसावट को जांचा, बातोंबातों में अपनी सहेलियों से खुद के बारे में पड़ताल की और पार्टियों, सोशल गैदरिंग में दूसरे पुरुषों की नजर से भी खुद को परखा. कहीं कोई बदलाव, कोई कमी नजर नहीं आई. आज भी जब पूरी तरह से तैयार होती है तो देखने वालों की नजर एक बार उस की ओर उठती जरूरी है.

हर ऐसे मौकों पर कसौटी पर खरा उतरने का दर्प उसे कुछ और उत्तेजित कर गया. उस की आकांक्षाएं कसमसाने लगीं. वह मनीष से अंतरंगता को बेचैन होने लगी और मनीष उन पलों को टालने के लिए कभी काम में, कभी बच्चों और टीवी में व्यस्त होने लगे.

अधूरेपन की बेचैनी दिनोंदिन घनी होती जा रही थी. उस दिन एक कलीग को अपनी ओर देखता पा कर तनुजा के अंदर कुछ कुलबुलाने लगा, फुरफुरी सी उठने लगी. एक विचार उस के दिलोदिमाग में दौड़ कर उसे कंपकंपा गया. छी, यह क्या सोचने लगी हूं मैं? मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती. मेरे मन में यह विचार आया भी कैसे? मनीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, प्यार का मतलब सिर्फ यही तो नहीं है. कितना धिक्कारा था तनुजा ने खुद को लेकिन वह विचार बारबार कौंध जाता, काम करते हाथ ठिठक जाते, मन में उठती हिलोरें पूरे शरीर को उत्तेजित करती रहीं.

अतृप्त इच्छाएं, हर निगाह में खुद के प्रति आकर्षण और उस आकर्षण को किस अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, वह यह सोचने लगी. संस्कारों के अंकुश और नैसर्गिक प्यास की कशमकश में उलझी वह खोईखोई सी रहने लगी.

उस दिन दोपहर तक बादल घिर आए थे. खाना खा कर वह गुदगुदे कंबल में मनीष के साथ एकदूसरे की बांहों में लिपटे हुए कोई रोमांटिक फिल्म देखना चाहती थी. उस ने मनीष को इशारा भी किया जिसे अनदेखा कर मनीष ने बच्चों के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम बना लिया. वे नासमझ बन तनुजा से नजरें चुराते रहे, उस के घुटते दिल को नजरअंदाज करते रहे. वह चिढ़ गई. उस ने जाने से मना कर दिया, खुद को कमरे में बंद कर लिया और सारा दिन अकेले कमरे में रोती रही.

तनुजा ने पत्रपत्रिकाएं, इंटरनैट सब खंगाल डाले. पुरुषों से जुड़ी सैक्स समस्याओं की तमाम जानकारियां पढ़ डालीं. परेशानी कहां है, यह तो समझ आ गया लेकिन समाधान? समाधान निकालने के लिए मनीष से बात करना जरूरी था. बिना उन के सहयोग के कोई समाधान संभव ही नहीं था. बात करना इतना आसान तो नहीं था.

शब्दों को तोलमोल कर बात करना, एक कड़वे सच को प्रकट करना इस तरह कि वह कड़वा न लगे, एक ऐसी सचाई के बारे में बात करना जिसे मनीष पहले से जानते हैं कि तनुजा इसे नहीं जानती और अब उन्हें बताना कि वह भी इसे जानती है, यह सब बताते हुए भी कोई आक्षेप, कोई इलजाम न लगे, दिल तोड़ने वाली बात पर दिल न टूटे, अतिरिक्त प्यारदेखभाल के रैपर में लिपटी शर्मिंदगी को यों सामने रखना कि वह शर्मिंदा न करे, बेहद कठिन काम था.

दिन निकलते गए. कसमसाहटें बढ़ती गईं. अतृप्त प्यास बुझाने के लिए वह रोज नए मौकेरास्ते तलाशती रही. समाज, परिवार और बच्चे उस पर अंकुश लगाते रहे. तनुजा खुद ही सोचती कि क्या इस एक कमी को इस कदर खुद पर हावी होने देना चाहिए? तो कभी खुद ही इस जरूरी जरूरत के बारे में सोचती जिस के पूरा न होने पर बेचैन होना गलत भी तो नहीं. अगर मनीष अतृप्त रहते तो क्या ऐसा संयम रख पाते? नहीं, मनीष उसे कभी धोखा नहीं देते या शायद उसे कभी पता ही नहीं चलने देते.

पहचान – भाग 1 : मां की मौत के बाद क्या था अजीम का हाल

बाढ़ राहत शिविर के बाहर सांप सी लहराती लंबी लाइन के आखिरी छोर पर खड़ी वह बारबार लाइन से बाहर झांक कर पहले नंबर पर खड़े उस व्यक्ति को देख लेती थी कि कब वह जंग जीत कर लाइन से बाहर निकले और उसे एक कदम आगे आने का मौका मिले.

असम के गोलाघाट में धनसिरी नदी का उफान ताडंव करता सबकुछ लील गया है. तिनकातिनका जुटाए सामान के साथ पसीनों की लंबी फेहरिस्त बह गई है. बह गए हैं झोंपड़े और उन के साथ खड़ेभर होने तक की जमीन भी. ऐसे हालात में राबिया के भाई 8 साल के अजीम के टूटेफूटे मिट्टी के खिलौनों की क्या बिसात थी.

खिलौनों को झोंपड़ी में भर आए बाढ़ के पानी से बचाने के लिए अजीम ने न जाने क्याक्या जुगतें की, और जब झोंपड़ी ही जड़ से उखड़ गई तब उसे जिंदगी की असली लड़ाई का पता मालूम हुआ.

राबिया ने 20 साल की उम्र तक क्याक्या न देखा. वह शरणार्थी शिविर के बाहर लाइन में खड़ीखड़ी अपनी जिंदगी के पिछले सालों के ब्योरे में कहीं गुम सी हो गई थी.

राबिया अपनी मां और छोटे भाई अजीम को पास ही शरणार्थी शिविर में छोड़ यहां सरकारी राहत कैंप में खाना व कपड़ा लेने के लिए खड़ी है. परिवार के सदस्यों के हिसाब से कंबल, चादर, ब्रैड, बिस्कुट आदि दिए जा रहे थे.

2 साल का ही तो था अजीम जब उस के अब्बा की मौत हो गई थी. उन्होंने कितनी लड़ाइयां देखीं, लड़ीं, कब से वे भी शांति से दो वक्त की रोटी को दरबदर होते रहे. एक टुकड़ा जमीन में चार सांसें जैसे सब पर भारी थीं. कौन सी राजनीति, कैसेकैसे नेता, कितने छल, कितने ही झूठ, सूखी जमीन तो कभी बाढ़ में बहती जिंदगियां. कहां जाएं वे अब? कैसे जिएं? लाखों जानेअनजाने लोगों की भीड़ में तो बस वही चेहरा पहचाना लगता है जो जरा सी संवेदना और इंसानियत दिखा दे.

पैदा होने के बाद से ही देख रही थी राबिया एक अंतहीन जिहाद. क्यों? क्यों इतना फसाद था, इतनी बगावत और शोर था?

अब्बा के पास एक छोटी सी जमीन थी. धान की रोपाई, कटाई और फसल होने के बाद 2 मुट्ठी अनाज के दाने घर तक लाने के लिए उन्हें कितने ही पापड़ बेलने पड़ते. और फिर भूख और अनाज के बीच अम्मी की ढेरों जुगतें, ताकि नई फसल होने तक भूख का निवाला खुद ही न बन जाएं वे.

इस संघर्ष में भी अम्मी व अब्बा को कभी किसी से शिकायत नहीं रही. न तो सरकार से, न ग्राम पंचायती व्यवस्था से और न जमाने से. जैसा कि अकसर सोनेहीरों में खेलने वाले लोगों को रहती है. शिकायत भी क्या करें? मुसलिम होने की वजह से हर वक्त वे इस कैफियत में ही पड़े रहते कि कहीं वे बंगलादेशी घुसपैठिए न करार दे दिए जाएं. अब्बा न चाहते हुए भी इस खूनी आग की लपटों में घिर गए.

वह 2012 के जुलाई माह का एक दिन था. अब्बा अपने खेत गए हुए थे. खेत हो या घर, हमेशा कई मुद्दे सवाल बन कर उन के सिर पर सवार रहते. ‘कौन हो?’ ‘क्या हो?’ ‘कहां से हो?’ ‘क्यों हो?’ ‘कब से हो?’ ‘कब तक हो?’

इतने सारे सवालों के चक्रव्यूह में घिरे अब्बा तब भी अमन की दुआ मांगते रहते. बोडो, असमिया लोगों की आपत्ति थी कि असम में कोई बाहरी व्यक्ति न रहे. उन का आंतरिक मसला जो भी हो लेकिन आम लोग जिंदगी के लिए जिंदगी की जंग में झोंके जा चुके थे.अब्बा खेत से न लौटे. बस, तब से भूख ने मौत के खौफ की शक्ल ले ली थी. भूख, भय, जमीन से बेदखल हो जाने का संकट, रोजीरोटी की समस्या, बच्चों की बीमारी, देशनिकाला, अंतहीन अंधेरा. घर में ही अब्बा से या कभी किसी पहचान वाले से राबिया ने थोड़ाबहुत पढ़ा था.

पागलों की तरह अम्मी को कागज का एक टुकड़ा ढूंढ़ते देखती. कभी संदूकों में, कभी बिस्तर के नीचे, कभी अब्बा के सामान में. वह सुबूत जो सिद्ध कर दे कि उन के पूर्वज 1972 के पहले से ही असम में हैं. नहीं मिल पाया कोई सुबूत. बस, जो था वह वक्त के पंजर में दफन था. अब्बा के जाने के बाद अम्मी जैसे पथरा गईर् थीं. आखिरकार 14 साल की राबिया को मां और भाई के लिए काम की खोज में जाना ही पड़ा.

कभी कहीं मकान, कभी दुकान में जब जहां काम मिलता, वह करती. बेटी की तकलीफों ने अम्मी को फिर से जिंदा होने को मजबूर कर दिया. इधरउधर काम कर के किसी तरह वे बच्चों को संभालती रहीं.

जिंदगी जैसी भी हो, चलने लगी थी. लेकिन आएदिन असमिया और अन्य लोगों के बीच पहचान व स्थायित्व का विवाद बढ़ता ही रहा. प्राकृतिक आपदा असम जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए नई बात नहीं थी, तो बाढ़ भी जैसे उनकी जिंदगी की लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा ही था. राबिया अब तक लाइन के पहले नंबर पर पहुंच गई थी.

सामने टेबल बिछा कर कुरसी पर जो बाबू बैठे थे, राबिया उन्हें ही देख रही थी.

‘‘कार्ड निकालो जो एनआरसी पहचान के लिए दिए गए हैं.’’

‘‘कौन सा?’’ राबिया घबरा गई थी.

बाबू ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा, ‘‘एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का पहचानपत्र, वह दिखाओ, वरना सामान अभी नहीं दिया जा सकेगा. जिन का नाम है, पहले उन्हें मिलेगा.’’

‘‘जी, दूसरी अर्जी दाखिल की हुई है, पर अभी बहुतों का नाम शामिल नहीं है. मेहरबानी कर के सामान दे दीजिए. मैं कई घंटे से लाइन में लगी हूं. उधर अम्मी और छोटा भाई इंतजार में होंगे.’’

मिलने, न मिलने की दुविधा में पड़ी लड़की को देख मुहरवाले कार्डधारी पीछे से चिल्लाने लगे और किसी डकैत पर टूट पड़ने जैसा राबिया पर पिल पड़ते हुए उसे धकिया कर निकालने की कोशिश में जुट गए. राबिया के लिए जैसे ‘करो या मरो’ की बात हो गई थी. 2 जिंदगियां उस की राह देख रही थीं. ऐसे में राबिया समझ चुकी थी कि कई कानूनी बातें लोगों के लिए होते हुए भी लोगों के लिए ही तकलीफदेह हो जाती हैं.

बाबू के पीछे खड़े 27-28 साल के हट्टेकट्टे असमिया नौजवान नीरद ने राबिया को मुश्किल में देख उस से कहा, ‘‘आप इधर अंदर आइए. आप बड़े बाबू से बात कर लीजिए, शायद कुछ हो सके.’’

राबिया भीड़ के पंजों से छूट कर अंदर आ गई थी. लोग खासे चिढ़े थे. कुछ तो अश्लील फब्तियां कसने से भी बाज नहीं आ रहे थे. राबिया दरवाजे के अंदर आ कर उसी कोने में दुबक कर खड़ी हो गई.

नीरद पास आया और एक मददगार की हैसियत से उस ने उस पर नजर डाली. दुबलीपतली, गोरी, सुंदर, कजरारी आंखों वाली राबिया मायूसी और चिंता से डूबी जा रही थी. उस ने हया छोड़ मिन्नतभरी नजरों से नीरद को देखा.

नीरद ने आहिस्ते से कहा, ‘‘सामान की जिम्मेदारी मेरी ही है, मैं राहत कार्य निबटा कर शाम को शिविर आ कर तुम्हें सामान दे जाऊंगा. तुम अपना नाम बता दो.’’

राबिया ने नाम तो बता दिया लेकिन खुद की इस जिल्लत के लिए खुद को ही मन ही मन कोसती रही.

नीरद भोलाभाला, धानी रंग का असमिया युवक था. वह गुवाहाटी में आपदा नियंत्रण और सहायता विभाग में सरकारी नौकर था. नौकरी, पैसा, नियम, रजिस्टर, सरकारी सुबूतों के बीच भी उस का अपना एक मानवीय तंत्र हमेशा काम करता था. और इसलिए ही वह मुश्किल में पड़े लोगों को अपनी तरफ से वह अतिरिक्त मदद कर देता जो कायदेकानूनों के आड़े आने से अटक जाते थे.

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सत्यकथा: सविता के जिस्म की आग ने ही ले ली जान

27 फरवरी, 2022 की सुबह करीब 9 बजे ग्वालियर के थाना जनकगंज के थानाप्रभारी संतोष यादव अपने कक्ष में बैठे थे. तभी एक युवक उन के पास आया. उस के चेहरे पर परेशानी के भाव और आंखों में चिंता झलक रही थी. वह बेहद घबराया हुआ लग रहा था. उस युवक की शक्ल देख कर ही लगा कि वह किसी भारी मुसीबत में है.

उन्होंने उसे बैठा कर उस की परेशानी पूछी तो उस ने रोते हुए बताया, ‘‘साहब, बीती रात किसी ने मेरी बहन सविता की गुप्तेश्वर पहाड़ी के जंगल में गला रेत कर हत्या कर दी.’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा? तुम कहां रहते हो और क्या काम करते हो?’’ थानाप्रभारी ने पूछा.

युवक ने रोते हुए बताया, ‘‘साहब, मेरा नाम परमाल बंजारा है और मैं काली माता मंदिर के सामने गोल पहाडि़या इलाके में बंजारों की बस्ती में रहता हूं. मैं लक्ष्मीगंज सब्जीमंडी में पल्लेदारी का काम करता हूं.’’

‘‘अपनी बहन के बारे में पूरी बात विस्तार से बताओ, वह घर से बाहर गुप्तेश्वर पहाड़ी के जंगल में कब गई थी और वह करती क्या थी?’’

‘‘साहब, उस का नाम सविता बंजारा था. उस के पति प्रकाश बंजारा की 10 साल पहले बिलौआ में स्थित महाकालेश्वर स्टोन क्रैशर वालों की खदान में काम करते समय हुए ब्लास्ट में मौत हो गई थी. पति की अचानक हुई मौत का सविता को काफी सदमा लगा था. पति की मौत के बाद उस के देवर ने उसे रख लिया था.

‘‘लेकिन वह आपराधिक प्रवृत्ति का है. एक केस में उसे जेल जाना पड़ा. उस के जेल जाते ही ससुराल वाले उसे ताने देने लगे थे कि वह डायन है, उस ने पति को डंस लिया. ससुराल में दिए जाने वाले तानों से जब वह बहुत ज्यादा दुखी रहने लगी तो फिर एक दिन अपनी ससुराल को हमेशा के लिए छोड़ बेटे रवि और बेटी खुशी को साथ ले कर मायके में ग्वालियर आ गई और अपना मकान बनवा कर रहने लगी थी.

‘‘साहब, धीरेधीरे उस का जीवन सामान्य होता जा रहा था. हालांकि उस की माली हालत कोई खास नहीं थी, किसी तरह मेहनतमजदूरी कर के अपने बच्चों को पाल रही थी. वह मेरे साथ लक्ष्मीगंज सब्जी मंडी में भी काम पर जाने लगी थी.

‘‘हम लोगों को इस बात की चिंता सताने लगी कि विधवा होने के कारण बहन का पहाड़ सा जीवन कैसे कटेगा. हम उस के लिए बिरादरी में ही लड़का तलाशने में लगे हुए थे. इसी बीच यह घटना घट गई.’’

थानाप्रभारी ने परमाल से पूछा, ‘‘तुम्हें सविता की हत्या की जानकारी कैसे मिली?’’

‘‘साहब, मैं वहां पर नहीं गया था. सुबह होते ही मेरी भतीजी सपना नित्यक्रिया के लिए जंगल में गई थी. उस ने ही सुबहसुबह यह खबर दी. हत्या की खबर सुन कर घर में रोनाधोना शुरू हो गया तो पड़ोसी भी हमारे घर पर जमा हो गए. इस के बाद जब पहाड़ी पर पहुंचे तो वहां सविता की खून में सनी लाश झाडि़यों में पड़ी मिली.’’

कत्ल की सूचना मिलते ही थानाप्रभारी संतोष यादव तुरंत सविता के भाई परमाल बंजारा को साथ ले कर घटनास्थल की तरफ निकल गए.

पुलिस के पहुंचने तक घटनास्थल पर काफी भीड़ जमा हो चुकी थी. पुलिस ने लाश का निरीक्षण किया. मृतका की उम्र 35 साल के आसपास थी और वह सलवारसूट पहने हुए थी.

उस का गला किसी धारदार हथियार से रेता हुआ था. थानाप्रभारी की सूचना पर फोरैंसिक और डौग स्क्वायड  की टीमें भी घटनास्थल पर पहुंच गईं.

फोरैंसिक टीम का काम खत्म हो गया तो खबर पा कर एसपी अमित सांघी, एएसपी (सिटी पश्चिम) सत्येंद्र सिंह तोमर, एसपी (सिटी लश्कर) आत्माराम शर्मा भी मौकाएवारदात पर पहुंच गए थे.

इन पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल एवं लाश का निरीक्षण किया. पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल और मृतका की लाश का अवलोकन करने के बाद अनुमान लगाया कि हत्यारा मृतका का कोई करीबी हो सकता है. इस की कुछ खास वजह भी थी जैसे कि सुनसान जगह पर रात के वक्त कोई क्यों जाएगा.

आसपड़ोस के किसी भी व्यक्ति को इस हत्या के बारे में सुबह होने तक भी बिलकुल पता नहीं चल सका था. घटनास्थल पर किसी को आतेजाते भी नहीं देखा गया था.

पुलिस अधिकारियों ने परमाल बंजारा से पूछा, ‘‘तुम्हें किसी पर संदेह है?’’

कुछ पल के लिए खामोश रहने के बाद उस ने शून्य में ताकते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब.’’

‘‘तुम आखिरी बार सविता से उस के घर पर कब मिले थे?’’

‘‘साहब, 26 फरवरी की  रात 10 बजे,’’ परमाल ने बिलखते हुए कहा.

घटनास्थल की जरूरी काररवाई निपटा कर थानाप्रभारी ने सविता की लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दी.

प्राथमिक काररवाई के बाद थानाप्रभारी ने मोहल्ले के कुछ लोगों से बात की तो पता चला कि शफीकुल से सविता के गहरे ताल्लुकात थे. दोनों के बीच प्रेम प्रसंग था, वह सविता के परिवार का खर्च भी उठाता था.

इस महत्त्वपूर्ण जानकारी से थानाप्रभारी को पक्का यकीन हो गया कि सविता की हत्या अवैध संबंधों के कारण ही हुई होगी. हकीकत जानने के लिए थानाप्रभारी ने उसी दिन सविता और शफीकुल  के मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स निकलवाई.

काल डिटेल्स देख कर पुलिस हैरान रह गई. उस से पता चला कि उन दोनों की एकदूसरे से अकसर बातें होती रहती थीं. इस घटना से पहले भी दोनों की बातें हुई थीं. पुलिस उस वक्त और ज्यादा चौंकी, जब शफीकुल के मोबाइल की लोकेशन रात के 11 बजे गुप्तेश्वर पहाड़ी के जंगल की मिली.

इस का मतलब हत्या वाली रात वह गुप्तेश्वर पहाड़ी के जंगल में ही था. पुलिस के शक की सुई उसी पर जा कर ठहर गई. पुलिस टीम ने आरोपी के बिलौआ, ग्वालियर में स्थित घर पर दबिश डाली तो वह अपने  घर से नदारद मिला, जिस से पुलिस का शक और बढ़ गया. उस की तलाश के लिए पुलिस ने अपने मुखबिरों को अलर्ट कर दिया. तब एक मुखबिर ने आरोपी शफीकुल के बारे में एक महत्त्वपूर्ण जानकारी थानाप्रभारी को दी.

इस के बाद थानाप्रभारी अपनी टीम के साथ मुखबिर द्वारा बताए स्थान बिजली घर रोड गोल पहाडि़या पर पहुंच गए. वहां से उन्होंने शफीकुल को हिरासत में ले लिया.

पुलिस को देखते ही शफीकुल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई थी. उस ने बिना किसी हीलहुज्जत के अपना अपराध स्वीकार करते हुए सविता की हत्या के पीछे की सारी सच्चाई बयां कर दी.

पुलिस ने शफीकुल की निशानदेही पर खून से सने कपड़े और हत्या में प्रयुक्त उस्तरा भी बरामद कर लिया.

शफीकुल पश्चिम बंगाल का रहने वाला था और 14 साल पहले वहां से भाग कर ग्वालियर के कस्बा बिलौआ आया था. वह सविता के पति प्रकाश के साथ महाकालेश्वर स्टोन क्रेशर की खदान में काम करता था, इसलिए प्रकाश का अच्छा दोस्त बन गया था.

प्रकाश की मौत के बाद शफीकुल ने प्रकाश के बच्चों और पत्नी सविता की खैरखबर लेने के बहाने नजदीकी बढ़ा ली और काफी देर तक सविता के बच्चों से बतियाता रहता था. उस की बातचीत का यह सिलसिला तभी टूटता, जब सविता उस के लिए चाय बना कर ले आती.

एक दिन सविता ने चाय की प्याली उस के हाथ में थमाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘शफीकुल भाई, क्या आप सिर्फ बच्चों से ही बतियाते रहोगे? हम से बात नहीं करोगे?’’

‘‘क्यों मजाक कर रही हो भाभी, अगर आप को सच में मुझ से बात करनी होती तो इतनी दूरदूर न रहती,’’ शफीकुल ने सविता को ऊपर से नीचे तक गहरी नजरों से देखते हुए जवाब दिया.

शफीकुल का जवाब सुन सविता के चेहरे पर दिलकश मुसकान दौड़ गई. उस की निगाहें शफीकुल की चौड़ी छाती और बलिष्ठ भुजाओं का मुआयना करने लगीं, क्योंकि पति की मौत के बाद तन्हा जिंदगी उसे उबाऊ लगने लगी थी. दिन तो मंडी में काम में कट जाता था पर रातें कटनी मुश्किल थीं.

महीनों से अतृप्त सविता की देह समुद्री ज्वार की तरह ठाठे मारमार कर शफीकुल से संसर्ग करने को उकसाने लगी. सविता सोचने लगी कि शफीकुल सचमुच कुंवारा और एकदम जिंदादिल मर्द है. उस की बाहों में अलग ही आनंद आएगा.

अभी सविता यह सब सोच ही रही थी कि शफीकुल ने चारपाई से उठते हुए कहा, ‘‘अच्छा भाभी, अब मैं चलता हूं.’’

सविता तुरंत बोल पड़ी, ‘‘शफीकुल, कल कुछ जल्दी आना, तुम्हारे देर से आने की वजह से बच्चों के सामने मुझे तुम से बात करने का मौका ही नहीं मिलता.’’

सविता ने जिस अदा और अंदाज से यह बात कही, उस से शफीकुल के दिल में कुछकुछ होने लगा. वह मुसकराते हुए अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो कर अपने घर चला गया.

उस दिन के बाद शफीकुल नियमित रूप से बच्चों से मिलने के बहाने सविता के घर आने लगा. शफीकुल की जाति ही नहीं धर्म भी अलग था, इस के बावजूद सविता ने उस में ऐसा न जाने क्या देखा कि उस का मन उस पर रीझ गया.

नियमित रूप से सविता के घर इस आवाजाही से जहां सविता के दोनों बच्चे उस से काफी घुलमिल गए थे, वहीं उसे सविता पर डोरे डालने का भरपूर मौका मिल गया.

2 बच्चों की मां होने के बाद भी सविता के शरीर में कसाव था, ऊपर से वह बनसंवर कर रहती  थी.

शफीकुल ने पहले सविता से हंसीमजाक शुरू की, फिर थोड़ीबहुत शारीरिक छेड़खानी भी करने लगा. लेकिन सविता को इतने से संतोष नहीं हुआ. वह चाहती थी कि शफीकुल और आगे बढ़े.

संकोच और डर की वजह से शफीकुल ज्यादा आगे नहीं बढ़ पा रहा था तो सविता ने खुद ही पहल करने का फैसला ले लिया. एक दिन ऐसा भी आया, जब दोपहर को शफीकुल सविता के  घर जा पहुंचा. दरवाजे पर पहुंच कर हलकी सी दस्तक दी और हौले से दरवाजा धकेला. दरवाजा खुद ही अंदर की तरफ खुल गया.

उस वक्त दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे. दरवाजे से ही उस ने आवाज दी, ‘‘भाभी, कहां हो?’’

सविता भीतर चारपाई पर लेटी हुई थी. शफीकुल की आवाज सुन कर वह बोली, ‘‘मैं भीतर वाले कमरे में हूं. दरवाजे की कुंडी बंद कर के यहीं चले आओ. दरवाजा ठीक से बंद कर देना, वरना बिल्ली चौके में घुस जाएगी और सारा दूध पी जाएगी. आज मेरी तबीयत कुछ खराब है.’’

शफीकुल ने दरवाजा बंद कर के कुंडी लगा दी और सीधे भीतर वाले कमरे में जा पहुंचा. उस ने देखा सविता अस्तव्यस्त लेटी हुई थी. उस की साड़ी, पेटीकोट जांघ तक सरका हुआ था. ब्लाउज के ऊपरी हुक भी खुले हुए थे. बेताब हुस्न अपने जलवे दिखा रहा था.

सविता का उघड़ा बदन देख कर उत्तेजना से शफीकुल का हलक सूखने लगा. बड़ी मुश्किल से थूक निगल कर वह बोला, ‘‘भाभी, कल तो तुम बिलकुल ठीक थी, फिर अचानक तुम्हारी तबीयत कैसे खराब हो गई?’’

कह कर शफीकुल चारपाई के सिरहाने बैठ कर सविता के माथे पर हाथ रख बोला, ‘‘भाभी तुम्हें बुखार तो नहीं है, फिर क्या तकलीफ है?’’

‘‘बुखार तो बदन में चढ़ा हुआ है, पर तुम्हें एहसास नहीं हो रहा,’’ कहते हुए सविता ने शफीकुल का हाथ थाम लिया. फिर उसे हौलेहौले सहलाने लगी.

अब उस का इरादा शफीकुल की समझ में आने लगा. सविता उस का हाथ अपने वक्ष के ऊपर रखते हुए बोली, ‘‘अंदर हाथ डाल कर तो देखो, तब तुम्हें पता चलेगा कितना बुखार चढ़ा हुआ है.’’

‘‘भाभी, अभी सारा बुखार उतार देता हूं, क्यों परेशान हो रही हो.’’ कहते हुए उस ने सविता के ब्लाउज के बाकी हुक भी खोल दिए.

सविता के सुडौल वक्ष अब पूरी तरह आजाद हो चुके थे. शफीकुल ने उन्हें हाथों में भर कर आहिस्ताआहिस्ता दबाना शुरू किया तो सविता को भी मजा आने लगा.

जिस्म की आग ने सविता को इतना झुलसा रखा था कि वह सारी लोकलाज, मानमर्यादा भूल गई थी.

सविता से चारपाई पर लिपटा शफीकुल धीरेधीरे मदहोश हो रहा था, उत्तेजना से उस का भी जिस्म आग सा तप रहा था. सविता के वक्ष का मर्दन करतेकरते उस ने फुसफुसा कर पूछा, ‘‘भाभी, बुखार कुछ कम हुआ?’’

‘‘हां,’’ सविता ने स्वीकारते हुए कहा, ‘‘मुआ छाती से नीचे उतर गया है.’’

‘‘चिंता मत करो भाभी,’’ शफीकुल उस की साड़ी पलटते हुए बोला, ‘‘मुझे मालूम है कि छाती का ताप जब नीचे उतर जाए तो उसे कैसे कम किया जाता है.’’

कुंवारेपन से उस ने ऐसे ही ठोस जवाब की तमन्ना की थी. शफीकुल उस की कसौटी पर एकदम खरा उतरा.

शफीकुल सविता से 10 साल छोटा था, लेकिन उस का गठीला बदन सविता को भा गया, उस ने अपनी मर्दानगी के ऐसेऐसे जौहर दिखाए कि सविता की कलीकली खिल गई.

अवैध संबंधों की राह एक मर्तबा खुली तो शफीकुल और सविता अकसर वासना के कुंड में गोते लगाने लगे. सविता अब हरदम खिलीखिली रहने लगी थी.

इसी तरह महीनों बीत गए, उन दोनों के अवैध संबंधों की किसी को भनक तक नहीं लगी. शफीकुल सविता के सान्निध्य में मस्त था. उधर शफीकुल ने सविता के दिल में अपने लिए जगह बना ली, सविता शफीकुल की ऐसी दीवानी हुई कि सुबह से शाम तक उसी के खयालों में खोई रहने लगी.

सविता अपने घर में एक बेटी और एक बेटे के साथ रहती थी. उसे रोकनेटोकने वाला कोई न होने की वजह से वह पूरी तरह से स्वच्छंद हो गई थी.

उसे अपने प्रेमी को घर में बुलाने के लिए किसी मौके की जरूरत नहीं रहती थी. जब भी दोनों का जिस्म वासना की आग मे दहकने लगता तो दोनों अपनी हसरतें पूरी कर लेते थे.

वक्त गुजरता रहा, प्रेमी के साथ मौजमस्ती करते 9 साल बीत गए. इन 9 सालों में सविता और शफीकुल खूब खुल कर खेले. अवैध संबंध छिपते कहां हैं सविता और शफीकुल के साथ भी ऐसा ही हुआ.

बंजारा बस्ती वालों को ही नहीं, रिश्तेदारों को भी सविता और शफीकुल के नाजायज रिश्तों की जानकारी हो गई, इस के बावजूद भी दोनों ने किसी की परवाह नहीं की और पापलीला करते रहे.

सविता के बेटे के जन्मदिन के मौके पर शफीकुल ने सविता को बाजार ले जा कर जम कर खरीदारी भी कराई थी.

बाजार से सामान खरीद कर दोनों जैसे ही घर वापस आए, सविता का कोई जानपहचान वाला उस से मिलने आ गया. उसे देख कर शफीकुल का माथा ठनका.

उसे सविता के साथ बातचीत में मशगूल होते देख शफीकुल उस के घर से अपने घर बिलौआ वापस लौट गया था. उसे शक हो गया कि यह जरूर सविता का कोई यार ही होगा. अपने घर पहुंच कर उस ने धोखेबाज सविता को ठिकाने लगाने की योजना बना ली थी.

दरअसल, शफीकुल के दिमाग में शक का कीड़ा घर कर गया था. वह अपनी प्रेमिका सविता के चरित्र पर शक करने लगा था. उसे शक हो गया कि सविता के किसी और युवक के साथ भी संबंध हैं. शफीकुल के शक्की स्वभाव ने उसे शैतान बना दिया था.

26 फरवरी, 2022 को जब उसे लगा कि सविता के दोनों बच्चे सोने चले गए होंगे तो उस ने अपनी योजनानुसार रात 11 बजे सविता को फोन कर उसे बात करने के बहाने गुप्तेश्वर पहाड़ी के जंगल में बुलाया.

जैसे ही सविता अपने घर से शौच के बहाने शफीकुल की बताई जगह पर पहुंची, हैवान बने शफीकुल ने अपनी प्रेमिका पर जरा भी दया न दिखाते हुए उस का उस्तरे से गला रेत कर उसे मौत के घाट उतार दिया.

इस के बाद जब शफीकुल को पूरी तरह इत्मीनान हो गया कि सविता मर चुकी है तो उस ने खून से सने हाथ और मुंह पर लगे खून के दागों को रास्ते में एक नल पर साफ किया और अपने घर जा कर बिस्तर पर लेट गया.

सवा 4 बजे उस ने उस्तरा और खून लगे अपने कपड़ों को साथ लिया और घर से ग्वालियर के लिए निकल पड़ा. यह संयोग ही था कि उसे आते हुए किसी ने नहीं देखा था. फिर ग्वालियर आ कर उस ने उस्तरा और कपड़े छिपा दिए. इस के बाद दिन निकलने का इंतजार करने लगा.

सुबह का उजाला होने पर वह सविता के घर से अपनी प्रेमिका की हत्या होने की सूचना मिलने का इंतजार करने लगा था. सूचना मिलते ही वह सविता के घर पहुंच कर दुखी होने का नाटक करने लगा.

वहां मौजूद शोकग्रस्त लोगों में से किसी को अंदाजा नहीं था कि शफीकुल इतना जघन्य अपराध भी कर सकता है. उस ने नाटक तो बहुत बढि़या किया था, लेकिन पुलिस के शिकंजे से बच नहीं सका.

जनकगंज थाने के प्रभारी संतोष यादव ने इस अंधे कत्ल को पहली तफ्तीश में ही 6 घंटे के भीतर कातिल के गिरेबान पर हाथ डाल कर सुलझा दिया.

सविता की हत्या का जुर्म शफीकुल कुबूल कर चुका था और पुलिस ने उस की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त उस्तरा और खून से सने कपड़े भी बरामद कर लिए थे.

थानाप्रभारी ने सविता के भाई परमाल बंजारा की तरफ से शफीकुल के खिलाफ भादंवि की धारा 302 के तहत रिपोर्ट दर्ज कर अभियुक्त शफीकुल को न्यायालय में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

सविता के 10 और 14 वर्षीय दोनों बच्चों को उन के मामा परमाल बंजारा अपने घर ले गए थे.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

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