Social Story : ये भोलीभाली लड़कियां – हर लड़का जालसाज नजर आता है

Social Story : सचमुच लड़कियां बड़ी भोली होती हैं. हाय, इतनी भोलीभाली लड़कियां हमारे जमाने में नहीं होती थीं. होतीं तो क्या हम प्यार का इजहार करने से चूकते. तब लड़कियां घरों से बाहर भी बहुत कम निकलती थीं. इक्कादुक्का जो घरों से निकलती थीं, वे बस 8वीं तक पढ़ने के लिए. मैं गांवदेहात की बात कर रहा हूं. शहर की बात तो कुछ और रही होगी.

हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में मेरे साथ एक भी लड़की नहीं पढ़ती थी. निगाहों के सामने जो भी जवान लड़की आती थी, वह या तो अपने गांव की कोई बहन होती थी या फिर कोई रिश्तेदार जिस से नजर मिलाते हुए भी शर्म आती थी. इस का मतलब यह नहीं कि गांव में प्रेमाचार नहीं होता था. कुछ हिम्मती लड़केलड़कियां हमारे जमाने में भी होते थे जो चोरीछिपे ऐसा काम करते थे और उन के चर्चे भी गांव वालों की जबान पर चढ़े रहते थे.

लेकिन तब की लड़कियां इतनी भोली नहीं होती थीं, क्योंकि उन को बहलानेफुसलाने और भगा कर ले जाने के किस्से न तो आम थे, न ही खास. अब जब मैं बुढ़ापे के पायदान पर खड़ा हूं तो आएदिन न केवल अखबारों में पढ़ता हूं, टीवी पर देखता हूं, बल्कि लोगों के मुख से भी सुनता हूं कि हरदिन बहुत सारी लड़कियां बलात्कार का शिकार होती हैं. लड़कियां बयान देती हैं कि फलां व्यक्ति या लड़के ने बहलाफुसला कर उस के साथ बलात्कार किया और अब शादी करने से इनकार कर रहा है. यहां वास्तविक घटनाओं को अपवाद समझिए.

तभी तो कहता हूं कि आजकल की पढ़ीलिखी, ट्रेन, बस और हवाई जहाज में अकेले सफर करने वाली, अपने मांबाप को छोड़ कर पराए शहरों में अकेली रह कर पढ़ने वाली लड़कियां बहुत भोली हैं.

बताइए, अगर वे भोली और नादान न होतीं तो क्या कोई लड़का उन को मीठीमीठी बातें कर के बहलाफुसला कर अपने प्रेमजाल में फंसा सकता है और अकेले में ले जा कर उन के साथ बलात्कार कर सकता है.

पुलिस में लिखाई गई रिपोर्ट और लड़कियों के बयानों के आधार पर यह तथ्य सामने आता है कि आजकल की लड़कियां इतनी भोलीभाली हैं कि वे किसी भी जानपहचान और कई बार तो किसी अनजान व्यक्ति की बातों तक में आ जातीं और उस के साथ कार में बैठ कर कहीं भी चली जाती हैं.

वह व्यक्ति उन को बड़ी आसानी से होटल के कमरे या किसी सुनसान फ्लैट में ले जाता है और वहां उस के साथ बलात्कार करता है. बलात्कार के बाद लड़कियां वहां से बड़ी आसानी से निकल भी आती हैं. 3-4 दिनों तक  उन्हें अपने साथ हुए बलात्कार से पीड़ा या मानसिक अवसाद नहीं होता, लेकिन फिर जैसे अचानक ही वे किसी सपने से जागती हैं और बिलबिलाती हुई बलात्कार का केस दर्ज करवाने पुलिस थाने पहुंच जाती हैं.

लड़कियां केवल इस हद तक ही भोली नहीं होती हैं. वे किसी भी अनजान लड़के की बातों पर विश्वास कर लेती हैं और उस के साथ अकेले जीवन गुजारने के लिए तैयार हो जाती हैं. लड़कों की मीठीमीठी बातों में आ कर वे अपने शरीर को भी उन्हें समर्पित कर देती हैं. दोचार साल लड़के के साथ रहने पर उन्हें अचानक लगता है कि लड़का अब उन से शादी करने वाला नहीं है, तो वे पुलिस थाने पहुंच कर उस लड़के के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा दर्ज करवा देती हैं.

सच, आज लड़कियां क्या इतनी भोली हैं कि उन्हें यह तक समझ नहीं आता कि जिस लड़के को बिना शादी के ही मालपुआ खाने को मिल रहा हो और जिस मालपुए को जूठा कर के वह फेंक चुका है, वह उस जमीन पर गिरे मैले मालपुए को दोबारा उठा कर क्यों खाएगा.

मैं तो ऐसी लड़कियों का बहुत कायल हूं, मैं उन की बुद्धिमता की दाद देता हूं जो मांबाप की बातों को तो नहीं मानतीं, लेकिन किसी अनजान लड़के की बातों में बड़ी आसानी से आ जाती हैं. हाय रे, आज की लड़कियों का भोलापन.

लड़कियां इतनी भोली होती हैं कि वे अनजान या अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों की बातों में तो आ जाती हैं, लेकिन अपने मांबाप की बातों में कभी नहीं आतीं. जवान होने पर वे उन का कहना नहीं मानतीं, उन की सभी नसीहतें उन के कानों में जूं की तरह रेंग जाती हैं और वे अपनी चाल चलती रहती हैं. वे अपने लिए कोई भी टुटपुंजिया, झोंपड़पट्टी में रहने वाला टेढ़ामेढ़ा, बेरोजगार लड़का पसंद कर लेती हैं, लेकिन मांबाप द्वारा चुना गया अच्छा, पढ़ालिखा, नौकरीशुदा, संभ्रांत घरपरिवार का लड़का उन्हें पसंद नहीं आता. इस में उन का भोलापन ही झलकता है, वरना मांबाप द्वारा पसंद किए गए लड़के के साथ शादी कर के हंसीखुशी जीवन न गुजारतीं. फिर उन को किसी लड़के के साथ कुछ सालों तक बिना शादी के रहने के बाद बलात्कार का मुकदमा दर्ज कराने की नौबत नहीं आती.

आजकल की लड़कियों को तब तक अक्ल नहीं आती, जब तक कोई लड़का उन के शरीर को पके आम की तरह पूरी तरह चूस कर उस से रस नहीं निचोड़ लेता. जब लड़का उस को छोड़ कर किसी दूसरी लड़की को अपने प्रेमजाल में फंसाने के लिए आतुर दिखता है, तब वे इतने भोलेपन से भोलीभाली बन कर जवाब देती हैं कि आश्चर्य होता है कि इतनी पढ़ीलिखी और नौकरीशुदा लड़की इतनी भोली भी हो सकती है कि कोई भी लड़का उसे बहलाफुसला कर, शादी का झांका दे कर उस के साथ 4 साल तक लगातार बलात्कार करता रहता है.

हाय रे, मासूम लड़कियो, इतने सालों तक कोई लड़का तुम्हारे शरीर से खेल रहा था, लेकिन तुम्हें पता नहीं चल पाया कि वह तुम्हारे साथ बलात्कार कर रहा है.

अगर शादी करने के लिए ही लड़की उस लड़के के साथ रहने को राजी हुई थी तो पहले शादी क्यों नहीं कर ली थी. बिना शादी के वह लड़के के साथ रहने के लिए क्यों राजी हो गई थी.

एक बार शादी कर लेती, तब वह उस के साथ रहने और अपने शरीर को सौंपने के लिए राजी होती. लेकिन क्या किया जाए, लड़कियां होती ही इतनी भोली हैं कि उन्हें जवानी में अच्छाबुरा कुछ नहीं सूझता और वे हर काम करने को तैयार हो जाती हैं जिसे करने के लिए उन्हें मना किया जाता है.

वे खुलेआम चिडि़यों को दाना चुगाती रहती हैं और जब चिडि़यां उड़ जाती हैं तब उन के दाना चुगने की शिकायत करती हैं. ऐसे भोलेपन का कौन नहीं लाभ उठाना चाहेगा. यह तो मानना पड़ेगा कि लड़कियों के मुकाबले लड़के ज्यादा होशियार होते हैं, तभी तो वे लड़कियों के भोलेपन का फायदा उठाते हैं. लड़कियां भोली न होतीं तो क्या अपने घर से अपनी मां के जेवर और बाप की पूरी कमाई ले कर लड़के के साथ रफूचक्कर हो जातीं.

लड़के तो कभी अपने घर से कोई मालमत्ता ले कर उड़नछू नहीं होते. वे लड़की के साथसाथ उस के पैसे से भी मौज उड़ाते हैं और जब मालमत्ता खत्म हो जाता है तो लड़की उन के लिए बासी फूल की तरह हो जाती है और तब लड़के की आंखें उस से फिर जाती हैं. उस की आंखों में कोई और मालदार लड़की आ कर बस जाती है. तब लूटी गई लड़की की अक्ल पर पड़ा पत्थर अचानक ही हट जाता है. तब भारतीय दंड संहिता की सारी धाराएं उसे याद आती हैं और वह लड़के के खिलाफ सारे हथियार उठा कर खड़ी हो जाती है. वह लड़का जो उसे दुनिया का सब से प्यारा इंसान लगता था, अचानक अब उसे वह बद से बदतर लगने लगता है.

लड़कियां अगर जीवनभर भोली बनी रहीं तो पुलिस का काम आसान हो जाए. उन के क्षेत्र में होने वाली बलात्कार की घटनाएं समाप्त हो जाएंगी, क्योंकि तब कोई लड़की बलात्कार का मुकदमा दर्ज करवाने के लिए थाने नहीं जाएगी. कई साल तक लड़के के साथ बिना शादी के रहने पर भी उसे शादी का खयाल तक नहीं आएगा. जब लड़की शादी ही नहीं करना चाहेगी तो फिर उस के साथ बलात्कार होने का सवाल ही पैदा नहीं होता.

रही बात दूसरी लड़कियों की जो बिना कुछ सोचेविचारे लड़कों के साथ, रात हो या दिन, कहीं भी चल देती हैं, पढ़लिख कर भी उन की बुद्धि पर पत्थर पड़े रहते हैं तो उन का भला कोई नहीं कर सकता.

Short Story : फाइनैंसर – आखिर किसने की शरद की मदद

Short Story : शरद टैक्सी ड्राइवर था. वह उसी टैक्सी से अपने परिवार को पाल रहा था. उस के 3 बच्चे थे जिन्हें वह हमेशा ही ऊंची से ऊंची पढ़ाई कराना चाहता था ताकि वे उस की तरह अनपढ़ न रह जाएं.

शरद हमेशा सुबह ही टैक्सी ले कर निकल जाता था. इधर बच्चे बड़े होने लगे. उन की पढ़ाईलिखाई पर उस की एक बड़ी रकम खर्च होने लगी. उसे हमेशा यही फिक्र रहती थी कि बच्चे किसी भी तरह पढ़लिख लें.

शरद की टैक्सी धीरेधीरे पुरानी होने लगी थी. हर साल उस के रखरखाव पर 25 से 30 हजार रुपए खर्च हो जाते थे.

शरद की बीवी बीमार थी. उस की किडनी में दिक्कत थी. वह इलाज कराने में हमेशा कोताई बरतती थी.शरद जितना कमाता था उस से ज्यादा घर में खर्च हो जाता था, फिर भी वह संतुष्ट था. लेकिन इस बार उस की बेटी का कालेज में आखिरी साल था और एक बड़ी रकम बतौर फीस भरनी थी. बैंक पुरानी टैक्सी पर कर्ज देने से इनकार कर चुका था. शरद एक फाइनैंसर पप्पू सेठ के पास गया. पप्पू सेठ ने आसानी से उसे कर्ज दे दिया.

शरद अब और भी मेहनत करने लगा था और बराबर किस्त भरता था. कभीकभार जब समय पर किस्त नहीं पहुंचती थी, तब भी पप्पू सेठ कभी नाराज नहीं होते थे और मुसकरा कर ‘कोई बात नहीं’ कह देते थे. धीरेधीरे परेशानियों ने चारों तरफ से शरद को घेरना शुरू कर दिया. बेटी की पढ़ाई, पत्नी की बीमारी और कुछ प्राइवेट कंपनियों की टैक्सी आ जाने के चलते उस के धंधे पर बुरा असर पड़ने लगा और वह 4-5 हफ्तों तक किस्त नहीं दे पाया. पप्पू सेठ ने न चाहते हुए भी शरद की टैक्सी अपने पास रख ली.

शरद ने यह बात अपने घर में किसी को नहीं बताई और हमेशा की तरह सुबह घर से जल्दी निकल कर किसी दूसरे की टैक्सी चलाने लगा. अब वह अकसर देर रात ही घर आता था.

वक्त पंख लगा कर बहुत तेजी से आगे जा रहा था. पप्पू सेठ की बेटी की शादी होने वाली थी. उन्होंने न सिर्फ रिश्तेदारदोस्तों, बल्कि उन लोगों को भी न्योता दिया था जिन्होंने उन से कर्ज लिया था.

विदाई के वक्त अचानक पप्पू सेठ की तबीयत बिगड़ने लगी. उन के सीने में तेज दर्द व माथे पर पसीना आने लगा जो हार्टअटैक के लक्षण थे. सारे मेहमान घबरा गए. पूरा माहौल गमगीन हो चुका था. तब पप्पू सेठ की बेटी की सहेली सरिता ने न केवल उन्हें संभाला, बल्कि एंबुलैंस का इंतजाम किया और फोन से अस्पताल को पूरी जानकारी भी दी.

जब एंबुलैंस अस्पताल पहुंची तो पहले से अस्पताल में डाक्टरों की एक पूरी टीम तैयार थी जो पप्पू सेठ को आईसीयू में ले गई. सब को यह जान कर हैरानी हुई कि उस डाक्टर टीम की हैड सरिता ही थी और चंद घंटों में ही पप्पू सेठ पहले से बेहतर हो चुके थे.

जब पप्पू सेठ पूरी तरह ठीक हो गए तब एक मौके पर उन के दोस्तरिश्तेदारों ने सरिता को सम्मानित करना चाहा. यह सुन कर सरिता ने कहा, ‘‘अगर आप को सम्मानित करना ही है तो मेरे पिता को कीजिए जिन की जिंदगी में तमाम उतारचढ़ाव आने के बाद भी उन्होंने मुझे इस काबिल बनाया.’’

जिस दिन डाक्टर सरिता के पिता को सम्मान देने के लिए बुलाया गया तो उन्हें देख कर पप्पू सेठ अनायास ही अपनी सीट से खड़े हो गए और उन्होंने सरिता के पिता को गले लगा लिया.

डाक्टर सरिता के पिता कोई और नहीं, बल्कि टैक्सी ड्राइवर शरद ही थे. उस दिन से पप्पू सेठ और भी दयालु हो गए. उन्हें लगा कि शायद उन से अनजाने में कुछ गलती हुई होगी क्योंकि किसी की टैक्सी वापस लेने के बाद वे नहीं जान पाए कि उस परिवार पर क्या बीतती है.

पप्पू सेठ अब अपना ज्यादातर समय जरूरतमंदों की मदद करने में लगाते हैं. उन्होंने अपने बेटे लकी, जो एक गैराज चलाता था, से कह दिया है, ‘‘हमारे पास मजबूरी में लोग आते हैं. उन का हर तरह से सहयोग करना.’’

शरद और पप्पू सेठ का परिवार एकदूसरे के घर पर आताजाता रहता है, क्योंकि डाक्टर सरिता को पप्पू सेठ अपनी बेटी की तरह स्नेह करते हैं.

Crime Story : डांसर के इश्क में – जिस्म की चाहत में हुई भूल

Crime Story : मैक्स बीयरबार में सैक्स रैकेट चलने की सूचना मिलते ही नौदर्न टाउन थाने के सबइंस्पैक्टर भीमा सिंह ने अपने दलबल के साथ वहां छापा मारा. वहां किसी शख्स के जन्मदिन का सैलिब्रेशन हो रहा था. खचाखच भरे हाल में सिगरेट, शराब और तेज परफ्यूम की मिलीजुली गंध फैली हुई थी. घूमते रंगीन बल्बों की रोशनी में अधनंगी बार डांसरों के साथ भौंड़े डांस करते मर्द गदर सा मचाए हुए थे.

सबइंस्पैक्टर भीमा सिंह हाल में घुसा और चारों ओर एक नजर फेरते हुए तेजी से दहाड़ा, ‘‘खबरदार… कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा. बंद करो यह तमाशा और बत्तियां जलाओ.’’

तुरंत बार में चारों ओर रोशनी बिखर गई. सबकुछ साफसाफ नजर आने लगा.

सबइंस्पैक्टर भीमा सिंह एक बार डांसर के पास पहुंचा और उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए एक जोरदार तमाचा उस के गाल पर मारा. वह बार डांसर गिर ही पड़ती कि भीमा सिंह ने उसे बांहों का सहारा दे कर थाम लिया और बार मालिक को थाने में मिलने का आदेश देते हुए वह उस बार डांसर को अपने साथ ले र बाहर निकल गया.

भीमा सिंह ने सोचा कि उस लड़की को थाने में ले जा कर बंद कर दे, फिर कुछ सोच कर वह उसे अपने घर ले आया. उस रात वह बार डांसर नशे में चूर भीमा सिंह के बिस्तर पर ऐसी सोई, जैसे कई दिनों से न सोई हो.

दूसरे दिन भीमा सिंह ने उसे नींद से जगाया और गरमागरम चाय पीने को दी. उस ने चालाक हिरनी की तरह बिस्तर पर पड़ेपड़े अपने चारों ओर नजर फेरी. अपनेआप को महफूज जान उसे तसल्ली हुई. उस ने कनखियों से सामने खड़े उस आदमी को देखा, जो उसे यहां उठा लाया था.

भीमा सिंह उस बार डांसर से पुलिसिया अंदाज में पेश हुआ, तो वह सहम गई. मगर जब वह थोड़ा मुसकराया, तो उस का डर जाता रहा और खुल कर अपने बारे में सबकुछ सचसच बताने लगी कि वह जामपुर की रहने वाली है. वह पढ़ीलिखी और अच्छे घर की लड़की है. उस के पिता ने उस की बहनों की शादी अच्छे घरों में की है.

वह थोड़ी सांवली थी, इसलिए उस की अनदेखी कर दी. इस से दुखी हो कर वह एक लड़के के साथ घर से भाग गई. रास्ते में उस लड़के ने भी धोखा देते हुए उसे किसी और के हाथ बेचने की कोशिश की. वह किसी तरह से उस के चंगुल से भाग कर यहां आ गई और पेट पालने के लिए बार में डांस करने लगी.

भीमा सिंह बोला, ‘‘तुम्हारे जैसी लड़कियां जब रंगे हाथ पकड़ी जाती हैं, तो यही बोलती हैं कि वे बेकुसूर हैं. ‘‘ठीक है, तुम्हारा केस थाने तक नहीं जाएगा. बस, तुम्हें मेरा एक काम करना होगा. मैं तुम्हारा खयाल रखूंगा.’’

‘‘मुझे क्या करना होगा?’’ उस बार डांसर के मासूम चेहरे पर चालाकी के भाव तैरने लगे थे. भीमा सिंह ने उसे घूरते हुए कहा, ‘‘तुम मेरे लिए मुखबिरी करोगी.’’ उस बार डांसर को अपने बचाव का कोई उपाय नहीं दिखा. वह बेचारगी का भाव लिए एकटक भीमा सिंह की ओर देखने लगी.

भीमा सिंह एक दबंग व कांइयां पुलिस अफसर था. रिश्वत लिए बिना वह कोई काम नहीं करता था. जल्दी से वह किसी पर यकीन नहीं करता था. भ्रष्टाचार की बहती गंगा में वह पूरा डूबा हुआ था. लड़कियां उस की कमजोरी थीं. शराब के नशे में डूब कर औरतों के जिस्म के साथ खिलवाड़ करना उस की आदतों में शुमार था.

भीमा सिंह पकड़ी गई लड़कियों से मुखबिरी का काम कराता था. लड़कियां भेज कर वह मुरगा फंसाता था. पकड़े गए अपराधियों से केस रफादफा करने के एवज में उन से हजारों रुपए वसूलता था. शराब के नशे में कभीकभी तो वह बाजारू औरतों को घर पर भी लाने लगा था, जिस के चलते उस की पत्नी उसे छोड़ कर मायके में रहने लगी थी.

इस बार डांसर को भी भीमा सिंह यही सोच कर लाया था कि उसे इस्तेमाल कर के छोड़ देगा, पर इस लड़की ने न जाने कौन सा जादू किया, जो वह अंदर से पिघला जा रहा था.

भीमा सिंह ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘रेशमा.’’

‘‘जानती हो, मैं तुम्हें यहां क्यों लाया हूं?’’

‘‘जी, नहीं.’’

‘‘क्योंकि थाने में औरतों की इज्जत नहीं होती. तुम्हारी मोनालिसा सी सूरत देख कर मुझे तुम पर तरस आ गया है. मैं ने जितनी लड़कियों को अब तक देखा, उन में एक सैक्स अपील दिखी और मैं ने उन से भरपूर मजा उठाया. मगर तुम्हें देख कर…’’

भीमा सिंह की बातों से अब तक चालाक रेशमा भांप चुकी थी कि यह आदमी अच्छी नौकरी करता है, मगर स्वभाव से लंपट है, मालदार भी है, अगर इसे साध लिया जाए… रेशमा ने भोली बनने का नाटक करते हुए एक चाल चली.

‘‘मैं क्या सचमुच मोनालिसा सी दिखती हूं?’’ रेशमा ने पूछा.

‘‘तभी तो मैं तुम्हे थाने न ले जा कर यहां ले आया हूं.’’

रेशमा को ऐसे ही मर्दों की तलाश थी. उस ने मन ही मन एक योजना तैयार कर ली. एक तिरछी नजर भीमा सिंह की ओर फेंकी और मचल कर खड़ी होते हुए बोली, ‘‘ठीक है, तो अब मैं चलती हूं सर.’’ ‘‘तुम जैसी खूबसूरत लड़की को गिरफ्त में लेने के बाद कौन बेवकूफ छोड़ना चाहेगा. तुम जब तक चाहो, यहां रह सकती हो. वैसे भी मेरा दिल तुम पर आ गया है,’’ भीमा सिंह बोला.

‘‘नहींनहीं, मैं चाहती हूं कि आप अच्छी तरह से सोच लें. मैं बार डांसर हूं और क्या आप को मुझ पर भरोसा है?’’

‘‘मैं ने काफी औरतों को देखा है, लेकिन न जाने तुम में क्या ऐसी कशिश है, जो मुझे बारबार तुम्हारी तरफ खींच रही है. तुम्हें विश्वास न हो, तो फिर जा सकती हो.’’

रेशमा एक शातिर खिलाड़ी थी. वह तो यही चाहती थी, लेकिन वह हांड़ी को थोड़ा और ठोंकबजा लेना चाहती थी, ताकि हांड़ी में माल भर जाने के बाद ले जाते समय कहीं टूट न जाए.

वह एकाएक पूछ बैठी, ‘‘क्या आप मुझे अपनी बीवी बना सकते हैं?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. मैं नहीं चाहता कि मैं जिसे चाहूं, वह कहीं और जा कर नौकरी करे. आज से यह घर तुम्हारा हुआ,’’ कह कर भीमा सिंह ने घर की चाबी एक झटके में रेशमा की ओर उछाल दी. रेशमा को खजाने की चाबी के साथ सैयां भी कोतवाल मिल गया था. उस के दोनों हाथ में लड्डू था. वह रानी बन कर पुलिस वाले के घर में रहने लगी.

भीमा सिंह एक फरेबी के जाल में फंस चुका था. अगले दिन रेशमा ने भीमा सिंह को फिर परखना चाहा कि कहीं वह उस के साथ केवल ऐशमौज ही करना चाहता है या फिर वाकई इस मसले पर गंभीर है. कहीं वह उसे मसल कर छोड़ न दे. फिर तो उस की बनीबनाई योजना मिट्टी में मिल जाएगी.

रेशमा घडि़याली आंसू बहाते हुए कहने लगी, ‘‘मैं भटक कर गलत रास्ते पर चल पड़ी थी. मैं जानती थी कि जो मैं कर रही हूं, वह गलत है, मगर कर भी क्या सकती थी. घर से भागी हुई हूं न. और तो और मेरे पापा ने ही मेरी अनदेखी कर दी, तो मैं क्या कर सकती थी. मैं घर नहीं जाना चाहती. मैं अपनी जिंदगी से हारी हुई हूं.’’

‘‘रेशमा, तुम अपने रास्ते से भटक कर जिस दलदल की ओर जा रही थी, वहां से निकलना नामुमकिन है. तुम ने अपने मन की नहीं सुनी और गलत जगह फंस गई. खैर, मैं तुम्हें बचा लूंगा, पर तुम्हें मेरे दिल की रानी बनना होगा,’’ भीमा सिंह उसे समझाते हुए बोला.

‘‘तुम मुझे भले ही कितना चाहते हो, लेकिन मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. मैं बार डांसर बन कर ही अपनी बाकी की जिंदगी काट लूंगी. तुम मेरे लिए अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. तुम एक बड़े अफसर हो और मैं बार डांसर. मुझे भूल जाओ,’’ रेशमा ने अंगड़ाई लेते हुए अपने नैनों के बाण ऐसे चलाए कि भीमा सिंह घायल हुए बिना नहीं रह सका.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो रेशमा? अगर भूलना ही होता, तो मैं तुम्हें उस बार से उठा कर नहीं लाता. तुम ने तो मेरे दिल में प्यार की लौ जलाई है.’’

रेशमा के मन में तो कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी. उस ने भीमा सिंह को अपने रूपजाल में इस कदर फांस लिया था कि वह आंख मूंद कर उस पर भरोसा करने लगा था. भीमा सिंह के बाहर जाने के बाद रेशमा ने पूरे घर को छान मारा कि कहां क्या रखा है. वह उस के पैसे से अपने लिए कीमती सामान खरीदती थी. भीमा सिंह को कोई शक न हो, इस के लिए वह पूरे घर को साफसुथरा रखने की कोशिश करती थी.

भीमा सिंह को भरोसे में ले कर रेशमा अपना काम कर चुकी थी. अब भागने की तरकीब लगाते हुए एक शाम उस ने भीमा सिंह की बांहों में झूलते हुए कहा, ‘‘एक अच्छे पति के रूप में तुम मिले, इस से अच्छा और क्या हो सकता है. मैं तो जिंदगीभर तुम्हारी बन कर रहना चाहती हूं, लेकिन कुछ दिनों से मुझे अपने घर की बहुत याद आ रही है.

‘‘मैं तुम्हें भी अपने साथ ले जाना चाहती थी, मगर मेरे परिवार वाले बहुत ही अडि़यल हैं. वे इतनी जल्दी तुम्हें अपनाएंगे नहीं. ‘‘मैं चाहती हूं कि पहले मैं वहां अकेली जाऊं. जब वे मान जाएंगे, तब उन लोगों को सरप्राइज देने के लिए मैं तुम्हें खबर करूंगी. तुम गाड़ी पकड़ कर आ जाना.

‘‘ड्रैसिंग टेबल पर एक डायरी रखी हुई है. उस में मेरे घर का पता व फोन नंबर लिखा हुआ है. बोलो, जब मैं तुम्हें फोन करूंगी, तब तुम आओगे न?’’

‘‘क्यों नहीं जानेमन, अब तुम ही मेरी रानी हो. तुम जैसा ठीक समझो करो. जब तुम कहोगी, मैं छुट्टी ले कर चला आऊंगा,’’ भीमा सिंह बोला. रेश्मा चली गई. हफ्ते, महीने बीत गए, मगर न उस का कोई फोन आया और न ही संदेश. भीमा सिंह ने जब उस के दिए नंबर पर फोन मिलाया, तो गलत नंबर बताने लगा.

भीमा सिंह ने जब अलमारी खोली, तो रुपएपैसे, सोनेचांदी के गहने वगैरह सब गायब थे. घबराहट में वह रेशमा के दिए पते पर उसे खोजते हुए पहुंचा, तो इस नाम की कोई लड़की व उस का परिवार वहां नहीं मिला. भीमा सिंह वापस घर आया, फिर से अलमारी खोली. देखा तो वहां एक छोटा सा परचा रखा मिला, जिस में लिखा था, ‘मुझे खोजने की कोशिश मत करना. तुम्हारे सारे पैसे और गहने मैं ने पहले ही गायब कर दिए हैं.

‘मैं जानती हूं कि तुम पुलिस में नौकरी करते हो. रिपोर्ट दर्ज कराओगे, तो खुद ही फंसोगे कि तुम्हारे पास इतने पैसे कहां से आए? तुम ने पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी कब की?’

भीमा सिंह हाथ मलता रह गया.

Social Story : कहर – दोस्त ने अजीत की पत्नी के साथ लिया मजा

Social Story : अजीत की रेलगाड़ी 8 घंटे लेट थी. क्या करे? टिकटघर से टिकट लेते वक्त रेलगाड़ी को महज एक घंटा लेट बताया गया था. अब एक के बाद एक हो रही एनाउंसमैंट से रेलगाड़ी 8 घंटे लेट थी. टिकट वापस करने पर 10 फीसदी किराया कट जाता. बस स्टैंड जाने पर 50 रुपए खर्च होते, साथ ही समय ज्यादा लगता. टी स्टौल पर चाय की चुसकी लेता अजीत अभी सोच ही रहा था कि वह क्या करे, तभी उस का मोबाइल फोन घरघराया.

फोन अजीत की पत्नी का था, ‘तुम बस से चले आओ.’

‘‘देखता हूं,’’ अजीत बोला.

चाय के पैसे चुका कर अजीत जैसे ही मुड़ा, तभी उस से एक शख्स टकराया. दोनों एकदूसरे को देख कर चौंके. वह अजीत के स्कूल का सहपाठी कुलदीप था.

‘‘अरे अजीत,’’ इतना कह कर कुलदीप ने उसे गले लगा लिया और पूछा, ‘‘कहां जा रहा है?’’

‘‘अपने शहर और कहां… रेलगाड़ी 8 घंटे लेट है,’’ अजीत ने कहा.

‘‘मेरे होते क्या दिक्कत है,’’ कुलदीप बोला.

‘‘मगर तू तो मालगाड़ी का ड्राइवर है,’’ अजीत ने कहा.

‘‘तो क्या…? मेरे साथ इंजन में बैठ जाना. तेरे शहर से ही हो कर गुजरना है.’’

‘‘मेरे पास टिकट भी है.’’

‘‘वापस कर आ. तेरा किराया भी बचेगा.’’

अजीत टिकट खिड़की पर चला गया. कुलदीप चाय पीने लगा. 10 मिनट बाद मालगाड़ी चल पड़ी. मालगाड़ी के इंजन में बैठ कर सफर करना अजीत के लिएरोमांचक था. कुलदीप 12वीं जमात पास कर के रेलवे में भरती हो गया था. अजीत आगे पढ़ा व अब एक दवा कंपनी में मैडिकल प्रतिनिधि था. अजीत के शहर का रेलवे स्टेशन आने वाला था. आउटर पर गाड़ी एक पल को रुकी. अजीत अपना बैग पकड़ कर रेलवे पटरी के दूसरी तरफ कूद गया.

अजीत रेलवे लाइन के एक तरफ बनी पगडंडी पर आगे बढ़ा. रेलवे स्टेशन का चौराहा अभी दूर था. उस ने अपना मोबाइल फोन निकाला और पत्नी को फोन मिलाया. फोन स्विच औफ था. चौराहे पर कई आटोरिकशा खड़े थे. अजीत एक आटोरिकशा में बैठ गया. कालोनी के बाहर सन्नाटा पसरा था. अजीत ग्राउंड फ्लोर पर बने अपने फ्लैट के बाहर पहुंचा. वह घंटी बजाने को हुआ कि तभी उस के कानों में किसी अनजान मर्द की आवाज गूंजी.

अजीत ने घंटी पर से हाथ हटा लिया और दबे पैर फ्लैट के पिछवाड़े में पहुंचा. चारदीवारी ज्यादा ऊंची नहीं थी. वह दीवार फांद कर अंदर कूदा और चुपचाप बैडरूम के पिछवाड़े की खिड़की से अंदर झांका, तो हैरान रह गया.

भीतर अजीत की पत्नी उस के एक दोस्त के साथ रंगरलियां मना रही थी. अजीत कुछ देर तक भीतर का सीन देखता रहा, फिर धीरेधीरे पीछे हटता चारदीवारी के साथ पीठ लगा कर खड़ा हो गया. ऐसा तो उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.

अजीत स्वभाव का बड़ा सीधासादा था. उस की पत्नी सुंदर, सुघड़ और घरेलू थी. उन के 2 प्यारे बच्चे थे. अजीत के शहर से बाहर होने पर पत्नी मोबाइल फोन से उस का हालचाल पूछती थी. घर आने पर उस की सेवा में बिछ जाती थी. लेकिन अब जो सामने था, वह सब अजीत की सोच से बाहर था.

अजीत का माथा गुस्से से भिनभिनाने लगा था. वह बौखलाया हुआ सा इधरउधर देखने लगा. लौन में एक खुरपा पड़ा था. वह झुका और खुरपा उठा लिया. अजीत हाथ में खुरपा थामे आगे बढ़ा. कमरे के बंद दरवाजे को हलके से थपथपाया. सिटकिनी लगी थी. उस ने कंधे का एक तगड़ा वार किया. दरवाजा खुल कर एक तरफ हो गया.

सैक्स की मस्ती में डूबे वे दोनों घबरा कर अलग हो गए. अजीत खुरपा थामे आगे बढ़ा. उस का दोस्त पलंग से कूदा और उस को परे धकेल कर बिना कपड़ों के ही बाहर दौड़ गया. डर से थरथर कांपती अजीत की पत्नी कमरे के एक कोने में सिमटती सी खड़ी हो गई और बोली, ‘‘मुझे मत मारना.’’

‘‘भाग जा यहां से,’’ अजीत ने दांत भींचते हुए कहा.

सलवारकमीज उठा कर पत्नी भी बाहर दौड़ गई. अजीत थोड़ी देर खड़ा इधरउधर देखता रहा, फिर वह भी बाहर लौन में आया और खुरपा एक तरफ रख दिया. उस ने अपना बैग उठाया और अंदर आ गया.अजीत के दोनों बच्चे प्रियंका और एकांश सो रहे थे. इतने मासूम बच्चों की मां पति के दोस्त के साथ रंगरलि यां मना रही थी. पता नहीं, यह सिलसिला कब से चल रहा था.

इस के बाद वही हुआ, जिस का डर था. अजीत का अपनी पत्नी से तलाक हो गया. बच्चों की सरपरस्ती पत्नी को मिली. अजीत ने उसे भत्ता देना मंजूर किया और हर महीने एक तय रकम का चैक भेज देता था. एक दिन अजीत फ्लैट बेच कर दूसरे शहर में जा बसा. वह तरक्की करता हुआ मैनेजर बन गया. कंपनी के मालिक राजेंद्र की गैरहाजिरी में उन की पत्नी गीता कभीकभार दफ्तर में आ कर काम संभालती थीं. धीरेधीरे उन की अजीत से अच्छी जानपहचान हो गई.

‘‘अजीत, आप का तलाक हो गया है. आप दोबारा शादी क्यों नहीं करते?’’ एक शाम दफ्तर का काम खत्म होने पर गीता ने पूछा.

‘‘बस, दिल नहीं मानता,’’ अजीत बोला.

‘‘अकेले कब तक रहोगे?’’ गीता ने फिर पूछा.

अजीत खामोश रहा. उस के उदास चेहरे को गीता ने अपने हाथों में भरा और उस का माथा चूम लिया. अजीत हैरान सा खड़ा उन की तरफ देखने लगा. पत्नी के मुकाबले गीता भारी जिस्म की सांवले रंग की थीं. उन की आंखों में काम वासना के डोरे तैर रहे थे.

गीता ने अजीत की तुलना अपने पति से की. एक तरफ 30 साला नौजवान था, दूसरी ओर 50 साल की उम्र का अधेड़. अजीत को औरत की दरकार थी और गीता को अपनी संतुष्टि के लिए नौजवान मर्द की. कुछ ही दिनों में उन के बीच के सारे फासले मिट गए.

राजेंद्र कई कंपनियों के मालिक थे. काम के सिलसिले में वे ज्यादातर बाहर रहते थे. उन की गैरहाजिरी में गीता काम संभालती थीं. उन के 2 बच्चे थे, जो एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते थे. हैदराबाद में एक बड़ी कंपनी की मीटिंग खत्म हुई. राजेंद्र के सचिव ने ट्रैवल एजेंट को फोन किया.

‘सौरी सर, कल सुबह से पहले किसी फ्लाइट में भी सीट नहीं है,’ ट्रैवल एजेंट ने बताया.

इस पर राजेंद्र अपने होटल में चले गए. ‘घर आ रहे हो?’ गीता ने उन्हें फोन कर के पूछा.

‘‘कल सुबह आऊंगा,’’ राजेंद्र ने जवाब दिया.

अभी राजेंद्र होटल के कमरे में दाखिल हुए ही थे कि ट्रैवल एजेंट का फोन आ गया. ‘सर, एक पैसेंजर ने अपनी सीट कैंसिल कराई है. आप आधा घंटे में एयरपोर्ट आ जाएं.’

राजेंद्र तुरंत एयरपोर्ट पहुंचे. 2 घंटे बाद वे अपने शहर में थे. राजेंद्र ने मोबाइल फोन निकाला, फिर इरादा बदलते हुए सोचा कि अब आधी रात को क्यों ड्राइवर को तकलीफ दें. लिहाजा, वे टैक्सी से अपनी कोठी पहुंचे. वहां उन्हें अपने मैनेजर अजीत की कार खड़ी दिखी, तो वे चौंक गए. राजेंद्र ने इधरउधर देखा, फिर वे अपने घर के पिछवाड़े में पहुंचे. एक कार उन की कोठी के पिछवाड़े की दीवार को छूती खड़ी थी. वे उस की छत पर जा चढ़े और फिर दीवार पर चढ़ गए और लौन में कूद गए.

उन के अंदर कूदते ही पालतू कुत्ता भूंका, फिर मालिक को पहचानते हुए चुप हो कर उन के कदमों में लोटने लगा. राजेंद्र ब्रीफकेस थामे दबे पैर चोरी से पिछवाड़े के कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर दाखिल हुए. उन के कानों में ऊपर की मंजिल पर बने अपने बैडरूम से हंसनेखिलखिलाने की आवाज आई.

वे दबे पैर सीढि़यां चढ़ते हुए ऊपर पहुंचे. खिड़की से अंदर झांका. बैड पर मैनेजर अजीत के साथ उन की पत्नी गीता मस्ती कर रही थीं. अब वे क्या करें? दोनों को रंगे हाथ पकड़ें? नतीजा साफ था. शादी का टूटना. मैनेजर कहीं और नौकरी पा लेगा. पत्नी गुजारा भत्ता ले कर कहीं और जा बसेगी और उम्र के इस पड़ाव पर वे खुद क्या करेंगे?

दोबारा शादी करेंगे? दूसरी पत्नी भी ऐसी ही निकली तो? वे धीरेधीरे पीछे हटते गए. दूसरे कमरे में चले गए और कुरसी पर बैठ गए. उधर कमरे में जब वासना का ज्वार शांत हुआ, तो अजीत व गीता अलग हो गए.

‘‘क्या तुम्हारी बीवी ने दूसरी शादी कर ली?’’ गीता ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘औरत बदनाम हो जाए, तो दोबारा घर बसाना मुश्किल होता है.’’

‘‘और मर्द?’’

‘‘मर्द पर बदनामी का असर नहीं पड़ता.’’

‘‘तो तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मुझे किसी भी औरत पर अब भरोसा नहीं रहा.’’

इस पर गीता एकटक उस की तरफ देखने लगीं. साथ वाले कमरे में राजेंद्र उन की बातचीत सुन रहे थे. अजीत के जवाब ने गीता का सैक्स का मजा किरकिरा कर दिया था. वह उन के साथ जिस्मानी रिश्ता तो बना सकता था, पर उन्हें वफादार साथी नहीं मान रहा था. इस बीच राजेंद्र को शरारत सूझी. उन्होंने अपना मोबाइल फोन निकाला, पत्नी का नंबर मिलाया और धीमी आवाज में कहा, ‘मैं एयरपोर्ट पर हूं. दूसरी फ्लाइट में सीट मिल गई थी. 10 मिनट में घर पहुंच जाऊंगा.’

गीता ने अजीत को बताया. वे दोनों हड़बड़ाहट में कपड़े पहनने लगे. पालतू कुत्ता अभी तक मालिक के पास बैठा था. राजेंद्र ने उस को इशारा किया और धीमे से दरवाजा खोल कर उस को बाहर निकाल दिया.

अजीत सीढि़यां उतरता नीचे लौन में आया, तभी पालतू कुत्ता उस पर झपट पड़ा. बचाव के लिए गीता लपकीं, मगर तब तक कुत्ते ने अजीत को 3-4 जगह पर काट खाया था. अजीत किसी तरह अपनी कार में सवार हुआ. गेट बंद कर गीता कुत्ते की तरफ लपकीं और चेन पकड़ कर उस को एक जगह बांध दिया.

इस के बाद गीता अपने पति का इंतजार करने लगीं. ड्राइंगरूम में बैठेबैठे उन की आंख लग गई. मौका देखते ही राजेंद्र चुपचाप बैडरूम में जा कर सो गए. सुबह जब गीता जागीं, तो उन्होंने राजेंद्र को बैडरूम में पा कर घबराते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए?’’

‘‘3 बजे. तब तुम ड्राइंगरूम में सो रही थीं.’’

‘‘अपना डौगी अब खतरनाक हो गया है. उस को निकाल दो,’’ गीता ने बताया.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘कल एक पड़ोसी पर झपट पड़ा.’’

‘‘चेन से बांध कर रखना था…’’ इतना कह कर राजेंद्र बाथरूम में चले गए.

तैयार हो कर वे अपने दफ्तर पहुंचे. अब तक अजीत नहीं आया था. ‘‘कल किसी कुत्ते ने अजीत को काट खाया है,’’ असिस्टैंट मैनेजर ने राजेंद्र को बताया.

राजेंद्र के दफ्तर जाने के बाद गीता घर की सफाई करने लगीं. बैडरूम के साथ वाले कमरे में सिगरेट के जले टुकड़ों का ढेर लगा था. वे चौंकीं कि कल शाम तक तो कमरा साफसुथरा था, फिर इतनी सारी सिगरेटें किस ने पी? वे सारा माजरा समझ गईं. उन्होंने एयरपोर्ट इनक्वायरी फोन किया. वहां से पता चला कि राजेंद्र तो रात को ही घर आ गए थे. वे बेचैन हो गईं.

अजीत अस्पताल में था. उस के हाथपैरों पर पट्टियां बंधी थीं, तभी उस का मोबाइल फोन बजा. ‘मेरा अंदाजा है कि राजेंद्र को हमारे संबंध का पता चल चुका है. कल रात को वे 12 बजे ही घर आ गए थे,’ गीता ने बताया.

‘‘अब हम क्या करें?’’

‘खामोश रहो.’

7 दिन बाद अजीत दफ्तर आया.

‘‘आवारा कुत्ते आजकल कम होते हैं… आप पर कोई कुत्ता कैसे झपटा?’’ राजेंद्र के सवाल पर अजीत चुप रहा.

‘‘आप सिगरेट कौन सी पीते हैं?’’

अजीत ने अपना सिगरेट का पैकेट निकाल कर दिखाया. तब राजेंद्र ने अपनी मेज की दराज खोली और एक पैकेट निकाल कर सामने रखते हुए कहा, ‘‘यह पैकेट मेरी कोठी में कोई छोड़ गया था. आप का ही ब्रांड है. मेरा ब्रांड दूसरा है. आप ले लो.’’

अजीत को काटो तो खून नहीं. उस को राजेंद्र से ऐसे हमले की उम्मीद नहीं थी. वह चुपचाप अपने चैंबर में चला गया. अगले दिन उस ने इस्तीफा दे दिया. पत्नी को तलाक देने के बाद अजीत ने कभी उस के बारे में नहीं सोचा था. आज पहली बार सोच रहा था. अजीत का मालिक समझदार था. बदनामी और जगहंसाई से बचने के लिए उस ने कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिस से बात और बिगड़ जाए.

Family Story : काला धन – क्या वाकई में आ पाया काला धन

Family Story : और मौतों सरीखी वह भी एक मौत थी. एकदम साधारण. किसी 45 से 48 साल के आदमी की जो किसी प्राइवेट फैक्टरी में नाइट शिफ्ट में सुपरवाइजर था.

उस दिन जब उस ने मंत्रीजी को यह कहते सुना था कि काले धन को बाहर लाने के लिए हमें यह कड़ा कदम उठाना पड़ रहा है और यह फैसला लेना पड़ रहा है कि 500 व 1,000 के नोट बंद किए जाते हैं, तब दीपक कुमार, हां यही नाम था उस का, बहुत खुश हुआ था. वह फैक्टरी

में अपने साथियों से कहने लगा था, ‘‘देखना, अब अच्छे दिन जरूर आएंगे और धन्ना सेठों को अपना काला पैसा निकालना ही पड़ेगा.

‘‘अपनी फैक्टरी का मालिक भी कम थोड़े ही है. इन के पास भी बहुत काला धन है. अब तो सब सामने लाना ही पड़ेगा. देखना दोस्तो, अब तनख्वाह भी समय पर मिल जाया करेगी. अब तो कभी 10 तो कभी 15 तारीख को मिलती है.’’

उस महीने दीपक की बात सौ फीसदी सच हो गई थी. सभी मुलाजिमों को 25 तारीख को ही तनख्वाह मिल

गई थी, वह भी 500 व 1,000 के कड़कड़ाते नोट. सभी खुश थे.

दीपक तो सभी से कह रहा था, ‘‘देखो, मेरी बात सच हो गई न? अब आगेआगे देखो, होता है क्या.’’

वैसे, दीपक पिछले 17 सालों से इस फैक्टरी में काम कर रहा था. उस की समय पर सही फैसले लेने की कूवत को देखते हुए उसे परमानैंट नाइट शिफ्ट ही दे दी गई थी.

तनख्वाह के अलावा 2,000 रुपए हर महीने नाइट शिफ्ट भत्ता भी मिल जाता था. दीपक इसी में खुश था. नाइट शिफ्ट में तेज रफ्तार से हुए प्रोडक्शन

के चलते कई बार मैनेजमैंट ने ‘मजदूर दिवस’ पर उस का सम्मान भी किया था.

मैनेजमैंट तो मैनजमैंट ही होता है. निजी संस्थानों का मैनेजमैंट तो और भी सख्त होता है. यहां पर भी मैनेजमैंट द्वारा रखे गए आंखों और कानों ने दीपक की बातों का ब्योरा सभी मसालों के साथ मैनेजमैंट के सामने रख दिया.

हिंदी की एक कहावत है न कि दूध देती गाय की लात भी सहन की जाती है, शायद उसी तर्ज पर दीपक पर कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की गई थी.

अगले महीने की पहली तारीख आतेआते तक हालात साफ होने लगे. कारखाने में कच्चे माल की कमी होने लगी. इसी वजह से 5 तारीख से रात की पाली बंद करने का फैसला लेना पड़ा.

दीपक ने जब यह सूचना सुनी तो वह कारखाने के मैनेजर से मिलने पहुंचा.

‘‘दीपक, तुम… नाइट शिफ्ट के बेताज बादशाह. आज दिन में कैसे?’’ मैनेजर ने बनावटी स्वांग के साथ पूछा.

‘‘सर, नाइट शिफ्ट का प्रोडक्शन का सामान न होने के चलते कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया है. मैं चाहता हूं कि इस दौरान मुझे दिन में ड्यूटी दी जाए,’’ दीपक गुजारिश करता हुआ बोला.

‘‘देखो दीपक, दिन में पूरा स्टाफ है और उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. और फिर तुम ने भी तो सुना है कि मंत्रीजी ने कहा है कि महीने 2 महीने

की दिक्कत है, फिर सब पहले जैसा हो जाएगा. बस, थोड़ा इंतजार करो.

‘‘वैसे भी तुम कई दिनों से अपने गांव नहीं गए हो, जरा गांव तक ही घूम आओ. जैसे ही नाइट शिफ्ट चालू होगी, तुम्हें सूचित कर दिया जाएगा,’’ मैनेजर ने उसे समझाने वाले लहजे में कहा.

दीपक ने सोचा कि यह भी ठीक है. मातापिता से भी वह कई दिनों से नहीं मिला. उन से मिलने चला जाता हूं. मातापिता से आराम से कुछ बातें भी हो जाएंगी.

गांव में दीपक के पिता के पास 10 बीघा जमीन है जिस में मातापिता का गुजारा आराम से हो जाता है.

जिस समय दीपक गांव में पहुंचा उस समय पिताजी घर के आंगन में ही खटिया डाल कर बैठे हुए थे. उन्होंने दूर से ही आते हुए दीपक को पहचान लिया और आवाज दे कर दीपक की मां को भी बाहर बुलवा लिया.

वे दोनों दीपक को इस तरह से बिना सूचना आए देख कर खुश भी थे और हैरान भी. जब दीपक ने अपने आने की वजह बताई और यह बताया कि वह इस बार लंबे समय तक रहेगा तो सभी खुश हो गए और मंत्री को दुआएं देने लगे.

वे दिन दीपक की जिंदगी के सब से अच्छे दिन गुजरे. गांव की ताजा व खुली हवा, पुराने यारदोस्त, मां के हाथ की ज्वार की रोटी. हालांकि पिताजी को फसलों के दाम पिछले साल की तुलना में कम मिले थे, फिर भी वे खुश थे.

धीरेधीरे एक महीना गुजर गया, पर दीपक के कारखाने से कोई फोन नहीं आया. वैसे, दीपक ने खुद कई बार फोन लगाया, पर जल्दी सूचना देने के सिर्फ आश्वासन ही मिले.

दीपक ने वापस शहर जाने का फैसला ले लिया, क्योंकि मातापिता की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी.

शहर में घर का किराया वगैरह चुकाने के बाद उस के पास नाममात्र के पैसे बचे थे, क्योंकि शहर से जाते समय वह मातापिता के लिए कपड़े व कुछ जरूरी सामान भी ले गया था. उसे यकीन था कि फैक्टरी में रात की पाली जल्दी ही चालू हो जाएगी.

दोपहर के तकरीबन 12 बजे दीपक फैक्टरी पहुंच गया. उसे फैक्टरी मैनेजर साहब औफिस के बाहर ही मिल गए. वह उन से अपनी ड्यूटी के सिलसिले में बातें करने लगा और वह हमेशा की तरह उसे उम्मीद बंधाने वाले जवाब दे रहे थे.

‘‘बस, अगले 15-20 दिनों में माली हालत में सुधार होते ही फैक्टरी की नाइट शिफ्ट चालू कर दी जाएगी. अभी तो जो लोग काम कर रहे हैं उन की तनख्वाह ही समय पर होना मुश्किल है.

‘‘मैं इसी उधेड़बुन में बाहर निकला हूं कि कारखाने का कौन सा स्क्रैप बेच कर मुलाजिमों की तनख्वाह निकाल सकूं. तुम्हारी जानकारी में ऐसा कोई स्क्रैप हो तो बताओ,’’ आश्वासन देते हुए मैनेजर ने दीपक से पूछा.

दीपक मैनेजर को अपनी जानकारी के मुताबिक स्क्रैप के बारे में बताने लगा. तभी एक लंबी चमचमाती सफेद कार कारखाने में दाखिल हुई.

‘‘अरे, सेठजी आ गए,’’ कहते हुए मैनेजर कार की तरफ लपका.

चूंकि दीपक उस कारखाने का पुराना मुलाजिम था, इसी वजह से मालिक भी उसे पहचानते थे.

‘‘नमस्ते सर,’’ दीपक ने मालिक को देखते ही हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘कैसे हो दीपक?’’ कार से उतर कर मालिक ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं सर,’’ दीपक ने जवाब दिया.

‘‘कैसे आना हुआ?’’ मालिक ने पूछा.

‘‘सर, पिछले डेढ़ महीने से नाइट शिफ्ट बंद है. यही जानकारी लेने आया था कि कब तक फिर से चालू हो जाएंगी,’’ दीपक ने जवाब दिया.

मालिक ने इशारे से उसे अपने औफिस में आने को कहा. दीपक को लगा कि अब तो उस की ड्यूटी फिर से चालू हो ही जाएगी. आखिर इतने दिनों तक उस ने अकेले रातरात भर जाग कर अच्छा प्रोडक्शन जो दिया था. कई बार मुश्किल हालात में भी कारखाने को अच्छे से चलाए रखने का इनाम शायद आज उसे मिल जाए.

औफिस के अंदर सिर्फ 2 ही लोग थे कारखाने के मालिक और दीपक.

मालिक ने ही बात शुरू की और बोले, ‘‘हां, तो दीपक उस दिन वर्करों

से क्या कह रहे थे तुम? सेठ का काला धन अब बाहर निकल आएगा… और देखो, निकल आया.

‘‘जिसे तुम काला धन कह रहे थे, उसी धन से तुम्हारे जैसे कितने लोगों के घर के चूल्हे जल रहे थे. तुम्हारे घर वालों को दवादारू मिल रही थी. तुम्हें मिलने वाला पैसा तुम्हारे जीने का आधार था.

‘‘अब बताओ कि इस से क्या साबित हुआ? काला धन किस के पास था? मेरे पास या तुम्हारे पास? मैं तो जितना खाना तब खाता था उतना ही अब भी खा रहा हूं. भूखा कौन मर रहा है? तुम्हारे जैसे मेहनती लोग न? तो फिर काला धन किस के पास हुआ और किस का निकला? तुम्हारा ही न?

‘‘देखो, मैं जो देख रहा हूं उस के मुताबिक कम से कम 6 महीने तक तो यह फैक्टरी पूरे तौर पर नहीं चल पाएगी. तुम चाहो तो दूसरी नौकरी ढूंढ़ लो, पर मैं जहां तक जानता हूं तकरीबन हर इंडस्ट्री की हालत ऐसी ही है. अब तुम जा सकते हो.’’

दीपक भारी कदमों से औफिस के बाहर निकल गया. घर जाते समय सोच रहा था कि इस से तो काला धन ही बेहतर था. कम से कम करोड़ों मजदूरों को रोजगार तो मिला हुआ था. घर चल रहा था, बच्चे पढ़ रहे थे.

सोचतेसोचते दीपक एक बगीचे में पहुंच गया. यहां लोग सुबहशाम घूमने के लिए आते हैं. पर इस दोपहरी में भी वहां पर कई लोग बैठे थे जो उस के जैसे ही थे. वे भी आसपास की फैक्टरियों में रोजगार तलाश रहे थे.

अब दीपक को मालिक के शब्द सही लगने लगे थे. पहले जो लोग मलाई खा रहे थे, वे तो अब भी गाढ़ा दूध पी रहे हैं, पर जो लोग सूखी रोटी खा रहे थे, वे बेचारे तो भूखे ही मर रहे हैं. गलती कौन कर रहा है और सजा कौन पा रहा है. ठीक है कि अगले 10-15 सालों का भारत अलग होगा, पर आज जो मर रहे हैं, उन का क्या? इस माहौल में जो बच्चे बड़े हो रहे हैं, क्या वे इन कमियों की वजह से अपराधी नहीं बनेंगे?

बेहतर होता कि इस के दूरगामी नतीजों की जांचपड़ताल कर इस फैसले को धीरेधीरे असरदार ढंग से लागू किया जाता. एक अपराध को रोकने की वजह दूसरे अपराधों की जन्मदाता तो नहीं होती.

पता नहीं, दीपक को कब गहरी नींद लग गई. इतनी गहरी कि फिर कभी उठ ही नहीं पाया. लोग कह रहे थे, दिल के दौरे से मौत हुई थी, पर असलियत…

Romantic Story : खुद ही – नरेन और रेखा के बीच क्या था

Romantic Story : रात के साढ़े 10 बजे थे. नरेन के आने का कोई अतापता नहीं था. हालांकि उस ने विभा को फोन कर दिया था कि उसे आने में देर हो जाएगी, सो वह खाना खा कर, दरवाजा बंद कर सो जाए, उस का इंतजार न करे. चाबी उस के पास है ही. वह आ कर दरवाजा खोल कर जोकुछ खाने को रखा है, खा कर सो जाएगा. यह जानते हुए भी विभा नरेन के आने के इंतजार में करवटें बदल रही थी. वह देखना चाहती थी कि आखिर उस के आने में कितनी देर होती है, जबकि बेटी अंशिता सो चुकी थी.

समय काटने के लिए विभा ने रेडियो पर पुराने गाने लगा दिए थे, जिन्हें सुनतेसुनते उसे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला. एकाएक विभा की नींद टूटी. उस ने चालू रेडियो को बंद करना चाहा कि उस गाने को सुन कर उस के हाथ रेडियो बंद करतेकरते रुक गए. गाने के बोल थे, ‘अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं. बीच भंवर में नाव है मेरी कैसे पार लगाऊं…’ गाने ने जैसे मन की बात कह दी. गाने जैसी खींचातानी उस की जिंदगी में भी हो रही थी.

‘कोई कामधाम नहीं है, यह सब बहानेबाजी है,’ विभा ने मन ही मन कहा. दरअसल, नरेन उस रेखा के चक्कर में है जिस से वह उस से एक बार मिलवा भी चुका था. विभा से वह घड़ी आज भी भुलाए नहीं भूलती. कितना जोश में आ कर उस ने परिचय कराया था. ‘इन से मिलो विभा, ये मेरे औफिस में ही हैं, हमारे साथ काम करने वाली रेखा. बहुत अच्छा स्वभाव है इन का… और रेखा, ये हैं मेरी पत्नी विभा…’

विभा को शक हो गया था. एक पराई औरत के प्रति ऐसा खिंचाव. और तो और बाद में वह उसे छोड़ने भी गया था. चाहता तो किसी बस में बिठा कर विदा भी कर सकता था, पर नहीं. गाना खत्म हुआ तो विभा ने रेडियो बंद कर दिया और सोने की कोशिश करने लगी. आखिरकार नींद लग ही गई.

पता नहीं, कितना समय हुआ कि उस ने अपने शरीर पर किसी का हाथ महसूस किया. उसे लग गया था कि यह नरेन ही है. उस ने उस के हाथ को अपने पर से हटाया और उनींदी में कहने लगी, ‘‘सोने दो. नींद आ रही है. कहां थे इतनी देर से. समय से आना चाहिए न.’’ ‘‘क्या करूं डार्लिंग, कोशिश तो जल्दी आने की ही करता हूं,’’ नरेन ने विभा को अपनी ओर खींचते हुए कहा.

‘‘आप रेखा से मिल कर आ रहे हैं न…’’ विभा ने अपनेआप को छुड़ाते हुए ताना सा कसा, ‘‘इतनी अच्छी है तो मुझ से शादी क्यों की? कर लेते उसी से…’’ ‘‘विभा, छोड़ो भी न. यह भी कोई समय है ऐसी बातों का. आज अच्छा मूड है, आओ न.’’

‘‘तुम्हारा तो अच्छा मूड है, पर मेरा तो मूड नहीं है न. चलो, सो जाओ प्लीज,’’ विभा दूसरी ओर मुंह कर के सोने की कोशिश करने लगी. ‘‘तुम पत्नियां भी न… कब समझोगी अपने पति को,’’ नरेन ने निराश हो कर कहा.

‘‘पहले तुम मेरे हो जाओ.’’ ‘‘तुम्हारा ही तो हूं बाबा. पिछले

15 सालों से तुम्हारा ही हूं विभा. मेरा यकीन मानो.’’ ‘‘तो सच बताओ, इतनी देर तक उस रेखा के साथ ही थे न?’’

‘‘देखो, जब तक मैं उस कंपनी में था, उस के पास था. जब मैं वहां से जौब छोड़ कर अपनी खुद की कौस्मैटिक की मार्केटिंग का काम कर रहा हूं तो अब वह यहां भी कहां से आ गई?’’ ‘‘मुझे तो यकीन नहीं होता. अच्छा बताओ कि तुम ने नहीं कहा था कि अब जब मैं अपना काम कर रहा हूं तब तो मैं समय से आ जाया करूंगा. तुम तो अब भी ऐसे ही आ रहे हो जैसे उसी कंपनी में काम करते हो.’’

‘‘अपना काम है न. सैट करने में समय तो लगता ही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. मेरी बात मानो. अब सब तुम्हारे हिसाब से चलने लगेगा. ठीक है, अच्छा अब तो मान जाओ.’’ ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. मुझे तो बिलकुल यकीन नहीं होता. तुम एक नंबर के झूठे हो. मैं कई बार तुम्हारा झूठ पकड़ चुकी हूं.’’

‘‘तो तुम नहीं मानोगी?’’ ‘‘जब तक मुझे पक्का यकीन नहीं हो जाता,’’ निशा ने कहा.

‘‘तो तुम्हें यकीन कैसे होगा?’’ ‘‘बस, सच बोलना शुरू कर दो और समय से घर आना शुरू कर दो.’’

‘‘अच्छी बात है. कोशिश करता हूं,’’ रंग में भंग पड़ता देख नरेन ने अपने कदम पीछे खींच लेने में ही भलाई समझी. वह नहीं चाहता था कि बात आगे बढ़े. वह भी करवट बदल कर सोने की कोशिश करने लगा. विभा का शक नरेन के प्रति यों ही नहीं था. दरअसल, कुछ महीने पहले की बात है. वह और विभा बच्ची अंशिता के साथ शहर के एक बड़े गार्डन में घूमने गए थे जहां वह रेखा के साथ भी घूमने जाता रहा था. वहां से वे अपने एक परिचित भेल वाले के यहां नाश्ते के लिए चले गए.

भेल वाले ने सहज ही पूछ लिया था कि आज आप के साथ वे बौबकट बालों वाली मैडमजी नहीं हैं? बस, यह सुनते ही विभा के तनबदन में आग लग गई थी और घर लौट कर उस ने नरेन की अच्छे से खबर ली थी.

नरेन ने लाख सफाई दी, पर विभा नहीं मानी थी. जैसेतैसे आगे न मिलने की कसम खा कर नरेन ने अपना पिंड छुड़ाया था. विभा की बातों में सचाई थी इसलिए नरेन कमजोर पड़ता था. नरेन रेखा के चक्कर में इस कदर पड़ा था कि वह चाह कर भी खुद को रेखा से अलग नहीं कर पा रहा था.

रेखा का खूबसूरत बदन और कटार जैसे तीखे नैन. नरेन फिदा था उस पर. अब एक ही रास्ता था कि रेखा शादी कर ले और अपना घर बसा ले, पर एक तरह से रेखा यह जानते हुए कि नरेन शादीशुदा है, वह खुद को उसे सौंप चुकी थी. नरेन में उसे पता नहीं क्या नजर आता था. यहां तक कि जब विभा गांव में कुछ दिनों के लिए अपनी मां के यहां जाती तो रेखा नरेन के यहां आ जाती और फिर दोनों मजे करते.

पर विभा को किसी तरह इस बात की भनक लग गई थी, इसलिए उस ने अब मां के यहां जाना कम कर दिया था. विभा संबंधों की असलियत को समझ नहीं पा रही थी क्योंकि जहां एक ओर वह मां बनने के बाद नरेन से प्यार में कम दिलचस्पी लेती थी या लेती ही नहीं थी, वहीं दूसरी ओर नरेन अब भी विभा से पहले वाले प्यार की उम्मीद रखता था. उस की तो इच्छा होती थी कि हर रात सुहागरात हो. पर जब विभा से उस की मांग पूरी नहीं होती तो वह रेखा की तरफ मुड़ जाता था. इस तरह नरेन का रेखा से जुड़ाव एक मजबूरी था जिसे विभा समझ नहीं पा रही थी.

विभा ने रेखा वाली सारी बातें अपने तक ही सीमित रखी थीं. अगर वह नरेन के रेखा से प्रेम संबंध वाली बात अपने मां या बाबूजी को बताती तो उन्हें बहुत दुख पहुंचता, जो वह नहीं चाहती थी. विभा के सामने यह जो रेखा वाली उलझन है वह इसे खुद ही सुलझा लेना चाहती थी.

2 बच्चों में से एक बच्चा यानी अंशिता से बड़ा लड़का अर्पित तो अपने ननिहाल में पढ़ रहा है, क्योंकि यहां पैसे की समस्या है. अभी मकान हो जाएगा, तो हो जाएगा, फिर बच्चों का कैरियर, उन की शादी का काम आ पड़ेगा. ऐसे में खुद का मकान तो होने से रहा. नरेन के प्यार के इस तेज बहाव को ले कर विभा एक बार डाक्टर से मिलने की कोशिश भी कर चुकी थी कि प्यार में अति का भूत उस पर से किसी तरह उतरे. ऐसा होने पर वह रेखा से भी दूर हो सकेगा. उस ने यह भी जानने की कोशिश की थी कि कहीं वह कुछ करता तो नहीं है, पर ऐसी कोई बात नहीं थी. अब वह अंशिता को ज्यादातर अपने आसपास ही रखती थी ताकि नरेन को भूल कर भी एकांत न मिले.

अगले दिन नरेन ने काम पर जाते हुए विभा के हाथ में 200 रुपए रखे और मुसकराते हुए उस की कलाई सहलाई. विभा ने आंखें तरेरीं. नरेन सहमते हुए बोला, ‘‘जानू, आज साप्ताहिक हाट है. सब्जी के लिए पैसे दे रहा हूं. भूलना मत वरना फिर रोज आलू खाने पड़ेंगे,’’ कहते हुए टीवी देख रही अंशिता को प्यार से अपने पास बुलाते हुए उस से शाम को आइसक्रीम खिलाने का वादा करते हुए अपने बैग को थामते हुए बाहर निकल गया. विभा दरवाजा बंद कर अपने काम में जुट गई. उसे तो याद ही नहीं था कि सचमुच आज तो हाट का दिन है और उसे हफ्तेभर की सब्जी भी लानी है. वह अंशिता की मदद ले कर फटाफट काम पूरा करने में जुट गई.

कामकाज खत्म कर अंशिता को पढ़ाई की हिदायत दे कर बड़ा सा झोला उठाए विभा दरवाजा लौक कर बाजार की ओर निकल गई. उसे अंशिता के चलते घर जल्दी लौटने की फिक्र थी. अभी विभा कुछ सब्जियां ही ले पाई थी और एक सब्जी का मोलभाव कर रही थी कि किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रखा. विभा पलटी तो एक अजनबी औरत को देख कर अचरज करने लगी.

‘‘तुम विभा ही हो न,’’ उस अजनबी औरत ने विभा को हैरानी में देखा तो पूछा, ‘‘जी. पर, आप कौन हैं? ‘‘अरे, तारा दीदी आप… दरअसल, आप को जूड़े में देखा तो…’’ झटपट विभा ने तारा टीचर के पैर छू लिए.

‘‘सही पहचाना तुम ने. कितनी कमजोर थी तुम पढ़ने में, जब तुम मेरे घर ट्यूशन लेने आती थी. इसी से तुम मुझे याद हो वरना एक टीचर के पास से कितने स्टूडैंट पढ़ कर निकलते हैं. कितनों को याद रख पाते हैं हम लोग,’’ आशीर्वाद देते हुए तारा दीदी ने कहा. ‘‘मेरा घर यहां नजदीक ही है. आइए न. घर चलिए,’’ विभा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, फिर कभी. अब मैं रिटायर हो चुकी हूं और पास की कालोनी में रहती हूं. लो, यह है मेरा विजिटिंग कार्ड. घर आना. खूब बातें करेंगे. अभी इस वक्त थोड़ा जल्दी है वरना रुकती. अच्छा चलती हूं विभा.’’ विभा ने कार्ड पर लिखा पता पढ़ा और अपने पर्स में रख कर सब्जी के लिए आगे बढ़ गई.

विभा ने तय किया कि वह अगले दिन तारा दीदी से मिलने उन के घर जरूर जाएगी. उसे लगा कि तारा दीदी उस की उलझन को सुलझाने में मदद कर सकती हैं. अगले दिन सारा काम निबटा कर वह अंशिता को पड़ोस में रहने वाली उस की हमउम्र सहेली के पास छोड़ कर तारा दीदी के घर की ओर चल पड़ी. उसे घर ढूंढ़ने में जरा भी परेशानी नहीं हुई. उस ने डोर बेल बजाई तो दरवाजा खोलने वाली तारा दीदी ही थीं.

‘‘आओ विभा,’’ कह कर अपने साथ अंदर ड्राइंगरूम में ले जा कर बिठाया. सबकुछ करीने से सजा हुआ था. शरबत वगैरह पीने के बाद तारा दीदी ने विभा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा, ‘‘कहो, क्या बात है विभा. सबकुछ ठीकठाक है. जिंदगी किस तरह चल रही है? तुम्हारे मिस्टर, तुम्हारे बच्चे…’’ विभा फिर जो शुरू हुई तो बोलती चली गई. तारा दीदी बड़े गौर से सारी बातें सुन रही थीं. उन्हें लगा कि विभा की मुश्किल हल करने में अभी भी एक टीचर की जरूरत है. स्कूल में विभा सवाल ले कर जाती थी, आज वह अपनी उलझन ले कर आई है.

अपनी उलझन बता देने से विभा काफी हलका महसूस हो रही थी जैसे कोई सिर पर से बोझ उतर गया हो. तारा दीदी ने गहरी सांस ली. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे गर्व है कि तुम मेरी स्टूडैंट हो. अपना यह सब्र बनाए रखना. ऐसा कोई गलत कदम मत उठाना जिस से घर बरबाद हो जाए. आखिर ये 2 बच्चों के भविष्य का भी सवाल है.’’

‘‘तो बताओ न दीदी, मुझे क्या करना चाहिए?’’ विभा ने पूछा. ‘‘देखो विभा, समस्या होती तो छोटी है, केवल हमारी सोच उसे बड़ा बना देती है. एक तो तुम अपनी तरफ से किसी तरह से नरेन की अनदेखी मत करो. उसे सहयोग करो. आखिर तुम बीवी हो उस की. अगर वह तुम से प्यार चाहता है तो उसे दो. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. रहा सवाल रेखा का तो इतना समझ लो इस मामले में जो भी मुझ से हो सकेगा मैं करूंगी.’’

‘‘मैं अब आप के भरोसे हूं दीदी. अच्छा चलती हूं क्योंकि घर पर अंशिता अकेली है.’’ ‘‘बिलकुल जाओ, अपना फर्ज, अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाओ.’’

विभा अब ठीक थी. उसे लगा नरेन पर से अब रेखा का साया उठ जाएगा और उस की जिंदगी में खुशहाली छा जाएगी. शाम को जब नरेन घर लौटा तो उन के साथ एक साहब भी थे. नरेन ने विभा से उन का परिचय कराया और बताया, ‘‘आज जब मैं एक बड़े मौल में मार्केटिंग के काम से गया था तो एक शौप पर इन से मुलाकात हुई.

‘‘दरअसल, इन का वडोदरा में कौस्मैटिक का कारोबार है और इन्हें वहां एक मैनेजर की सख्त जरूरत है. जब इन्होंने उस दुकानदार से मेरा बातचीत का लहजा और स्टाइल देखी तो ये बहुत प्रभावित हुए. मुझ से मेरा सारा जौब ऐक्सपीरियंस सुना. मेरी लाइफ के बारे में जाना और कहने लगे कि तुम में मुझे मैनेजर की सारी खूबियां दिखती हैं. मैं तुम्हें अपने यहां मैनेजर की पोस्ट औफर करता हूं. अच्छी तनख्वाह, फ्लेट, गाड़ी, सब सहूलियतें मिलेंगी. ‘‘मैं ने इन से कहा कि अपनी पत्नी से बात किए बिना मैं कोई फैसला नहीं ले सकता, इसलिए इन्हें यहां ले आया हूं. क्या कहती हो. क्या मैं इन का प्रस्ताव स्वीकार कर लूं?’’

‘‘पहले तुम कुछ दिनों के लिए वहां जा कर सारा कामकाज देख लो, समझ लो. अच्छा लगे तो स्वीकार कर लो,’’ विभा ने खुश होते हुए कहा. विभा को यह अच्छा लगा कि नरेन कितनी तवज्जुह देते हैं उसे. आज पहली बार उसे लगा कि वह अब तक नरेन से बुरा बरताव करती रही है, वह भी सिर्फ एक रेखा के पीछे. और यह उलझन भी अब उसे सुलझती नजर आ रही थी.

नरेन वडोदरा की ओर निकल पड़ा था. रोज रात को विभा से बात करने का नियम था उस का. विभा भी बातचीत में पूरी दिलचस्पी लेती. प्रतिदिन के कामकाज के बारे में, मालिक के बरताव के बारे में वह सबकुछ बताता. नए मिलने वाले फ्लैट जो वह देख भी आया था, के बारे में बताया और कहा कि अब वडोदरा शिफ्ट होने में फायदा ही है. विभा ने झटपट तारा दीदी के घर की ओर रुख किया. उन्हें नरेन के वडोदरा की जौब और वहीं शिफ्ट होने के बारे में बताया.

तारा दीदी के मुंह से निकला, ‘‘तब तो तुम्हारी सारी उलझनें अपनेआप ही सुलझ रही हैं विभा. जब तुम लोग शहर ही बदल रहे हो तो रेखा इतनी दूर तो वहां आने से रही.’’ सबकुछ इतना जल्दी तय हुआ कि विभा का इस पहलू की ओर ध्यान ही नहीं गया. तारा दीदी की इस बात में दम था. एक तीर से दो शिकार हो रहे थे. अब इस के पहले कि रेखा के पीछे नरेन का मन पलट जाए, उस ने वडोदरा जाना ही सही समझा.

रात को नरेन का फोन आया तो उस ने झटपट यह काम कर लेने को कहा. अभी छुट्टियां भी चल रही हैं. नए सैक्शन में बच्चों के एडमिशन में भी दिक्कत नहीं होगी. लगे हाथ अर्पित को भी मां के यहां से बुलवा लिया जाएगा. अब वह उस के पास ही रह कर आगे की पढ़ाईलिखाई करेगा. आननफानन यह काम कर लिया जाने लगा. पूरी गृहस्थी के साथ नरेन ने शिफ्ट कर लिया. विभा नए शहर में नया घर देख कर अवाक थी. ऐसे ही घर का तो उस ने कभी सपना देखा था. दोनों बच्चे तो यह सब देख कर चहक उठे.

नरेन में शुरूशुरू में उदासी जरूर नजर आई. विभा समझ गई थी कि ऐसा क्यों है. पर उस ने अब अपना प्यार नरेन पर उड़लेना शुरू कर दिया था. एक शाम जब नरेन काम से घर लौटा तो बुझाबुझा सा था. यह कामकाज की वजह से नहीं हो सकता था. उसे कुछ खटका हुआ जिसे उस ने जाहिर नहीं होने दिया. बालों में उंगलियां घुमाते हुए विभा ने बस इतना ही कहा, ‘‘क्यों न एकएक कप कौफी हो जाए.’’

नरेन ने हामी भरी. विभा कुछ सोचते हुए किचन में दाखिल हो गई. अगले ही दिन दोपहर में कामकाज से फुरसते पाते ही उस ने तारा दीदी को फोन घुमा दिया.

तब तारा दीदी ने उसे यह सूचना सुनाई कि रेखा की शादी हो गई है. सुन कर विभा उछल पड़ी, ‘‘थैंक्यू,’’ बस इतना ही कह पाई विभा और फोन बंद कर बिस्तर पर बिछ गई.

अब उसे नरेन के बुझे चेहरे की वजह भी समझ में आ गई थी. लेकिन अब सबकुछ ठीक भी हो गया था. गृहस्थी की गाड़ी बिना रुकावट एक बार फिर पटरी पर सरपट दौड़ने के लिए तैयार थी.

Family Story : वापसी – वीरा के दिमाग में था कौन सा बवंडर

Family Story : दिल्ली पहुंचने की घोषणा के साथ विमान परिचारिका ने बाहर का तापमान बता कर अपनी ड्यूटी खत्म की, लेकिन वीरा की ड्यूटी तो अब शुरू होने वाली थी. अंडमान निकोबार से आया जहाज जैसे ही एअरपोर्ट पर रुका, वीरा के दिल की धड़कनें यह सोच कर तेज होने लगीं कि उसे लेने क्या विजेंद्र आया होगा?

अपने ही सवालों में उलझी वीरा जैसे ही बाहर आई कि सामने से दौड़ कर आती विपाशा ‘मांमां’ कहती उस से आ कर लिपट गई.

वीरा ने भी बेटी को प्यार से गले लगा लिया.

‘5 साल में तू कितनी बड़ी हो गई,’ यह कहते समय वीरा की आंखें चारों ओर विजेंद्र को ढूंढ़ रही थीं. शायद आज भी विजेंद्र को कुछ जरूरी काम होगा. विपाशा मां को सामान के साथ एक जगह खड़ा कर गाड़ी लेने चली गई. वह सामान के पास खड़ी- खड़ी सोचने लगी.

5 साल पहले उस ने अचानक अंडमान निकोबार जाने का फैसला किया, तो  महज इसलिए कि वह विजेंद्र के बेरुखी भरे व्यवहार से तिलतिल कर मर रही थी.

विजेंद्र ने भरपूर कोशिश की कि अपनी पत्नी वीरा से हमेशा के लिए पीछा छुड़ा ले. उस ने तो कलंक के इतने लेप उस पर चढ़ाए कि कितना ही पानी से धो लो पर लेप फिर भी दिखाई दे.

यही नहीं विजेंद्र ने वीरा के सामने परेशानियों के इतने पहाड़ खड़े कर दिए थे कि उन से घबरा कर वह स्वयं विजेंद्र के जीवन से चली जाए. लेकिन वीरा हर पहाड़ को धीरेधीरे चढ़ कर पार करने की कोशिश में लगी रही.

अचानक ही अंडमान में नौकरी का प्रस्ताव आने पर वह एक बदलाव और नए जीवन की तैयारी करते हुए वहां जाने को तैयार हो गई.

अंडमान पहुंच कर वीरा ने अपनी नई नौकरी की शुरुआत की. उसे वहां चारों ओर बांहों के हार स्वागत करते हुए मिले. कुछ दिन तो जानपहचान में निकल गए लेकिन धीरेधीरे अकेलेपन ने पांव पसारने शुरू कर दिए. इधर साथ काम करने वाले मनचलों में ज्यादातर के परिवार तो साथ थे नहीं, सो दिन भर नौकरी करते, रात आते ही बोतल पी कर सोने का सहारा ढूंढ़ लेते.

छुट्टी होने पर घर और घरवाली की याद आती तो फोन घुमा कर झूठासच्चा प्यार दिखा कर कुछ धर्मपत्नी को बेवकूफ बनाते और कुछ अपने को भी. ऐसी नाजुक स्थिति में वे हर जगह हर किसी महिला की ओर बढ़ने की कोशिश करते, पट गई तो ठीक वरना भाभीजी जिंदाबाद. अंडमान में वीरा अपने कमरे की खिड़की पर बैठ कर अकसर यह नजारे देखती. कई बार बाहर आने के लिए उसे भी न्योते मिलते पर उस का पहला जख्म ही इतना गहरा था कि दर्द से वह छटपटाती रहती.

कंपनी से वीरा को रहने के लिए जो फ्लैट मिला था, उस फ्लैट के ठीक सामने पुरुष कर्मचारियों के फ्लैट थे. बूढ़ा शिवराम शर्मा भी अकसर शराब पी कर नीचे की सीढि़यों पर पड़ा दिख जाता. कैंपस के होटलों में शिवराम खाना कम खाता रिश्ते ज्यादा बनाने की कोशिश करता. उस के दोस्ती करने के तरीके भी अलगअलग होते थे. कभी धर्म के नाते तो कभी एक ही गांव या शहर का कह कर वह महिलाओं की तलाश में रहता था. शिवराम टेलीफोन डायरेक्टरी से अपनी जाति के लोगों के नाम से घरों में भी फोन लगाता. हर रोज दफ्तर में उस के नएनए किस्से सुनने को मिलते. कभीकभी उस की इन हरकतों पर वीरा को गुस्सा भी आता कि आखिर औरत को वह क्या समझता है?

कभीकभी उस का साथी बासु दा मजाक में कह देता, ‘बाबू शिवराम, घर जाने की तैयारी करो वरना कहीं भाभीजी भी किसी और के साथ चल दीं तो घर में ताला लग जाएगा,’ और यह सुनते ही शिवराम उसे मारने को दौड़ता.

3 महीने पहले आए राधू के कारनामे देख कर तो लगता था कि वह सब का बाप है. आते ही उस ने एक पुरानी सी गाड़ी खरीदी, उसे ठीकठाक कर के 3-4 महिलाओं को सुबहशाम दफ्तर लाने और वापस ले जाने लगा था. शाम को भी वह बेमतलब गाड़ी मैं बैठ कर यहांवहां घूमता फिरता.

एक दिन अचानक एक जगह पर लोगों की भीड़ देख कर यह तो लगा कि कोई घटना घटी है लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था. भीड़ छंटने पर पता चला कि राधू ने किसी लड़की को पटा कर अपनी कार में लिफ्ट दी और फिर उस के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी तो लड़की ने शोर मचा दिया. जब भीड़ जमा हो गई तो उस ने राधू को ढेरों जूते मारे.

वीरा अकसर सोचती कि आखिर यह मर्दों की दुनिया क्या है? क्यों औरत को  बेवकूफ समझा जाता है. दफ्तर में भी वीरा अकसर सब के चेहरे पढ़ने की कोशिश करती. सिर्फ एकदो को छोड़ कर बाकी के सभी एक पल का सुख पाने के लिए भटकते नजर आते.

वीरा की रातें अकसर आकाश को देखतेदेखते कट जातीं. जीने की तलाश में अंडमान आई वीरा को अब धरती का यह हिस्सा भी बेगाना सा लग रहा था. बहुत उदास होने पर वह अपनी बेटी विपाशा से बात कर लेती. फोन पर अकसर विपाशा मां को समझाती रहती, उस को सांत्वना देती.

5 साल बाद विजेंद्र ने बेटी विपाशा के माध्यम से वीरा को वापस आने का न्योता भेजा, तो वह अकसर यही सोचती, ‘आखिर क्या करे? जाए या न जाए. पुरुषों की दुनिया तो हर जगह एक सी ही है.’ आखिरकार बेटी की ममता के आगे वीरा, विजेंद्र की उस भूल को भी भूल गई, जिस के लिए उस ने अलग रहने का फैसला किया था.

वीरा को याद आया कि घर छोड़ने से पहले उस ने विजेंद्र से कहा था कि मैं ने सिर्फ तुम्हें चाहा है, कभी अगर मेरे कदम डगमगाने लगें या मुझे जीवन में कभी किसी मर्द की जरूरत पड़ी तो वापस तुम्हारे पास लौट आऊंगी. आखिर हर जगह के आदमी तो एक जैसे ही हैं. इस राह पर सब एक पल के लिए भटकते हैं और वह भटका हुआ एक पल क्या से क्या कर देता है.

कभी वीरा सोचती कि बेटी के कहने का मान ही रख लूं. आज वह ममता की भूखी, मानसम्मान से बुला रही है, कहीं ऐसा न हो, कल को उसे भी मेरी जरूरत न रहे.

अचानक वीरा के कानों में विपाशा के स्वर उभरे, ‘‘मां, तुम कहां खोई हो जो तुम्हें गाड़ी का हार्न भी नहीं सुनाई पड़ रहा है.’’

वीरा हड़बड़ाती हुई गाड़ी की ओर बढ़ी. घर पहुंच कर विपाशा परी की तरह उछलने लगी. कमला से चाय बनवा कर ढेर सारी चीजों से मेज सजा दी.

सामने से आते हुए विजेंद्र ने एक पल को उसे देखा, उस की आंखों में उसे बेगानापन नजर आया. घर का भी एक अजीब सा माहौल लगा. हालांकि गीतांजलि अब  विजेंद्र के जीवन से जा चुकी थी, फिर भी वीरा को जाने क्यों अपने लिए शून्यता नजर आ रही थी. हां, विपाशा की हंसी जरूर उस के दिल को कुछ तसल्ली दे देती.

वह कई बार अपनेआप से ही बातें करती कि ऊपरी तौर पर वह लोगों के लिए प्रतिभासंपन्न है लेकिन हकीकत में वह तिनकातिनका टूट चुकी थी. जीने के लिए विपाशा ही उस की एकमात्र आशा थी.

विजेंद्र की कुछ मीठी यादों के सहारे वीरा अपना दुख भूलने की कोशिश करती, वह तो बेटी के प्रति मां की ममता थी जिस की खुशी के लिए उस ने अपनी वापसी स्वीकार कर ली थी. वह सोेचती, जब जीना ही है तो क्यों न अपने इस घर के आंगन में ही जियूं, जहां दुलहन बन के आई थी.

वीरा की वापसी से विपाशा की खुशी में जो इजाफा हुआ उसे देख कर काम वाली दादी अकसर कहती, ‘‘बेटा, निराश मत हो. विजेंद्र एक बार फिर से वही विजेंद्र बन जाएगा, जो शादी के कुछ सालों तक था. मैं जानती हूं कि तुम्हें विजेंद्र की जरूरत है और विपाशा को तुम्हारी. क्या तुम विपाशा की खुशी के लिए विजेंद्र की वापसी का इंतजार नहीं कर सकतीं?

‘‘आखिर तुम विपाशा की मां हो और समाज ने जो अधिकार मां को दिए हैं वह बाप को नहीं दिए. तुम्हारी वापसी इस घर के बिखरे तिनकों को फिर से जोड़ कर घोंसले का आकार देगी. खुद पर भरोसा रखो, बेटी.’’

Short Story : गायब – क्या था भाईजी का राज

Short Story : ‘‘भाईजी, क्या बात है, आप को जब भी देखता हूं आप अपना पेट दाईं तरफ पकड़े रहते हैं. मैं समझता हूं कि खाना खाने के समय या वैसा ही कोई जरूरी काम के समय आप अपना हाथ पेट से हटाते होंगे, वरना उठतेबैठते, चलते, बतियाते, हमेशा देखता हूं कि आप का हाथ अपने पेट पर ही रहता है.’’

‘‘हां, रहता तो है…रखना पड़ता है. आजकल तो बच्चे हों या जवान, सभी  हम को देख कर हंसते भी हैं. चिढ़ाते हैं, ‘पकड़े रहो, पकड़े रहो.’ बाकी हम पर इस सब का कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है.’’

‘‘वह तो मैं देखता हूं कि कोई कुछ भी कहे, आप बिना किसी प्रतिक्रिया के हरदम इसी मुद्रा में रहते हैं. आखिर बात क्या है? बुरा नहीं मानिएगा, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं…मैं आप की बड़ी इज्जत करता हूं. क्या आप को पेट में कोई तकलीफ है, जो हरदम पेट पर हाथ रखे रहते हैं?’’

‘‘पकड़ कर इसलिए रखता हूं, ताकि कोई चुरा न ले.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां, रात को भी पेट पकड़ कर सोता हूं. कभी नींद में हट गया और नींद टूटी तो फिर झट से पेट पकड़ लेता हूं. वैसे तो अब आदत हो गई है. नींद में भी हाथ पेट पर ही रहता है.’’

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘अरे भाई, अंदर कीमती सामान है. कब क्या गायब हो जाए, कौन जानता है.’’

‘‘कैसी बात कर रहे हैं? कैसा कीमती सामान? भला पेट से किस चीज के गायब होने का डर है?’’

‘‘लंबा किस्सा है.’’

‘‘सुनाइए तो, बात क्या है?’’

और उन्होंने अपनी कहानी कुछ इस तरह सुनाई थी :

‘‘मेरे पेट में यहां बीच में ऊपर की ओर हमेशा दर्द रहता था. अकसर गैस से भी मैं परेशान रहता था. लोगों ने कहा कि गैस्ट्रिक है. कभी ठीक से इलाज नहीं करवाया. इधरउधर से कुछ गोली ले कर खा लेता था. दोचार दिन आराम रहता था फिर दर्द उभर आता था. भाईजी, आप तो जानते ही हैं, हम निम्नमध्य वर्ग के लोग हैं, बड़े डाक्टर की फीस और महंगे इलाज का खर्चा कहां से लाते?

‘‘हमारे 2 बेटे हैं. एक दिन बड़े बेटे ने कहा, ‘चलिए पिताजी, मैं आप का इलाज ठीक से करवाता हूं. इतने दिनों से आप तकलीफ झेल रहे हैं. कभी ठीक से इलाज नहीं करवाते. यह बात ठीक नहीं है. बीमारी को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. बढ़ जाएगी तो लेने के देने पड़ जाएंगे. बिस्तर पकड़ लीजिएगा. मेरे एक दोस्त ने बताया है कि अमृतसर में एक बहुत अच्छा अस्पताल है. वहां बड़ेबड़े डाक्टर हैं. वहां पेट का इलाज पूरे देश में सब से बढि़या होता है.’

‘‘मैं ने बेटे से कहा, ‘इतना रुपया कहां से आएगा?’

‘‘इस पर वह बोला, ‘आप चिंता न करें. मैं सब इंतजाम कर दूंगा. आप का एक भी पैसा खर्च नहीं होगा. जरूरत पड़ी तो उधार ले लूंगा. फिर कमा के वापस कर देंगे. मांबाप की सेवा करना बेटे का फर्ज बनता है.’

‘‘बेटा बहुत जिद करने लगा तो मैं तैयार हो गया. तकलीफ तो थी ही. हम लोग अमृतसर पहुंचे. वहां मुझ को एक बहुत बड़े अस्पताल में बेटे ने भरती करवा दिया. अस्पताल क्या, समझिए कि महल था. बड़ेबड़े अमीर लोग वहां इलाज के लिए आते हैं. विदेश के रोगी तक आते हैं. बस, समझिए कि एक अकेला मैं ही वहां दरिद्र था. वहां का इंतजाम देख कर तो मैं दंग रह गया. जिंदगी में नहीं सोचा था कि ऐसा अस्पताल होता है.

‘‘जाते ही उन्होंने मुझे अस्पताल में भरती कर लिया और एक कमरा भी मिल गया. वह कमरा खास तरह का था इसलिए किराया 1 हजार रुपए रोज का था. वहां 3 हजार रोज तक के खास कमरे भी हैं.

‘‘फिर सब डाक्टरों ने मुझे अच्छी तरह से देखा, जांच की. फिर खून, पेशाब आदि की जांच करवाई. एक्स-रे, स्कैन… न जाने क्याक्या हुआ. कई दिन तक तो जांच ही होती रही.’’

‘‘गैस्ट्रिक के लिए इतनी जांच?’’ मैं भाईजी की बातें सुन कर बीच में बोला.

‘‘वही तो, मैं ने भी बेटे को कई बार बोला कि इतनी जांच, इतना खर्चा काहे हो रहा है? गैस्ट्रिक की बीमारी है, पेट की जांच करवा के कुछ दवाई लिखवा दो, ठीक हो जाएगी.

‘‘इस पर बेटा बिगड़ गया. बोला कि आप डाक्टर हैं? गैस्ट्रिक है कि कैंसर है, आप को क्या मालूम? बाद में बीमारी बढ़ जाएगी तो दोगुना खर्च करना पड़ेगा. आप चुपचाप इलाज करवाइए. आप खर्च की चिंता मत कीजिए, सब इंतजाम कर के आया हूं.

‘‘सब जांचपड़ताल के बाद डाक्टरों ने फैसला किया कि आपरेशन करना पड़ेगा. मैं तो बुरी तरह डर गया, लेकिन बड़े डाक्टर साहब बोले कि डरने की कोई बात नहीं है, बहुत मामूली आपरेशन है.

‘‘खैर, आपरेशन हो गया. कोई दिक्कत नहीं हुई. दूसरे ही दिन हाथ पकड़ कर घुमाफिरा कर दिखा दिया गया. हां, कमजोरी 10-15 दिन जरूर रही. बाकी कमजोरी भी महीना होतेहोते दूर हो गई. ताकत की बहुत सी दवा खाई. देखिए निशान,’’ कह कर भाईजी ने आपरेशन का निशान दिखाया.

‘‘आप ने तो कहा कि छोटा आपरेशन था, लेकिन आप के आपरेशन का निशान तो काफी लंबा है. बाईं तरफ पेट से पीठ तक.’’

‘‘अब जो वहां के डाक्टर लोगों ने कहा था वही तो मैं ने आप को बताया है. मुझे क्या पता कि कौन आपरेशन छोटा होता है और कौन बड़ा. खैर, आपरेशन के बाद दवा चली. घाव सूख गया. 10 दिन बाद बेटे के साथ मैं घर लौट आया. डाक्टर साहब ने कुछ गोलियां खाने को दी थीं, सो महीनों तक खाते रहे. पेट में दर्द भी नहीं हुआ. मैं पूरी तरह से चंगा हो गया. बेटे का काम भी शायद बढि़या चलने लगा था. खर्च के बारे में उस से पूछा तो वह बोला कि इलाज के लिए जितने रुपए उधार लिए थे सब वापस कर दिए.’’

‘‘आप का बेटा काम क्या करता है भाईजी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मुझे पक्का पता नहीं है. कुछ प्राइवेट बिजनेस है… बताता नहीं है. अलग मकान बनाया है. उसी में अपने परिवार के साथ रहता है. जवान बेटा है, शादीशुदा, बालबच्चे वाला है. ज्यादा पूछताछ ठीक नहीं है, लेकिन देखता हूं कि आराम से रहता है. कार भी खरीदी है.’’

‘‘फिर दुख की क्या बात है?’’

‘‘बताते हैं. आपरेशन के 1 साल बाद मेरे पेट में फिर दर्द उठा. ठीक वहीं पर जहां पहले होता था. मैं तो घबरा गया कि आपरेशन के बाद फिर दर्द क्यों शुरू हो गया. दोबारा बेटा को बोलने में हिचक महसूस हुई कि पहले ही इतना खर्च कर चुका है.

‘‘संयोग ऐसा हुआ कि एक बरात के साथ मुझे पटना जाना पड़ा. वहां भी जानपहचान के एक डाक्टर हैं. उन्हीं के यहां अपना पेट दिखाने चला गया. डाक्टर साहब ने देख कर सब कागज और रिपोर्ट के साथ मुझे दोबारा बुलाया. फीस भी नहीं ली.

‘‘अमृतसर से कोई खास कागज तो मिला नहीं था. जो था सब ले कर मैं दोबारा गया. डाक्टर ने सब कागज देख कर अपने साथी डाक्टरों को बुलाया और उन के साथ बहुत देर तक मेरे बारे में डिसकस किया. उन की बातें तो मेरी समझ से बाहर थीं, लेकिन इतना याद है, उन्होंने कहा था कि सब सिम्प्टम्स तो पेपटिक अलसर के लगते हैं, लेकिन एन्डोस्कोपी की रिपोर्ट नहीं है और आपरेशन यहां… रीनल एंगिल में क्यों है?

‘‘वे लोग गंभीर मुद्रा में यही बतियाते रहे. कई बार मुझ से आपरेशन के बारे में पूछा. मैं तो उन की बातों से काफी नर्वस हो गया. फिर डाक्टर बोले, ‘जांच करेंगे, अल्ट्रासाउंड करेंगे.’ मैं ने कहा कि डाक्टर साहब, आप जिन जांचों की बात कर रहे हैं उन के लिए पैसा मेरे पास नहीं है. अब तो मैं बेटे से भी नहीं मांग सकता. पहले ही उस ने इतना खर्च किया. तब डाक्टर साहब बोले कि चिंता मत कीजिए, हम आप की सब जांच मुफ्त करवा देंगे. बड़े दयालु हैं.

‘‘उन की मेहरबानी से जांच हो गई. मुझ को कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा. अल्ट्रासाउंड के बाद उन्होंने दोबारा सब रिपोर्ट देखी. कई बार पूछा कि कभी पेशाब में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? कभी यहां, कमर के पास दर्द तो नहीं हुआ. मैं ने बता दिया कि मुझ को वैसी कोई तकलीफ कभी नहीं हुई, तब उन्होंने पूछा कि अमृतसर में कभी डाक्टर ने किडनी आपरेशन के बारे में कुछ कहा था. मैं ने कहा, ‘नहीं, किडनी की कोई बात नहीं हुई.’ तब वे बोले कि आप की एक किडनी आपरेशन कर के निकाल ली गई है.

‘‘मैं तो यह सुन कर सन्न रह गया. कुछ देर तक मुंह से बोल नहीं निकला. डाक्टर साहब मुझ को नर्वस देख कर बोले कि घबराने की कोई बात नहीं है. आदमी को जीने के लिए एक किडनी काफी है. आप को कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन आप की किडनी क्यों निकाली गई, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है. खैर, अब क्या कर सकते हैं… लेकिन आगे सावधान रहिएगा. एक किडनी बची है, इस को संभाल कर रखिएगा.’’

‘‘आप ने अपने बेटे को यह सब बताया नहीं? उस से पूछा नहीं कि किडनी क्यों निकाली गई?’’

‘‘पूछा था, गुस्सा हो गया. बोला कि यहां के ये बेवकूफ डाक्टर क्या जानते हैं. आप का इलाज देश के सब से बड़े डाक्टर से करवाया था. लाखों खर्च किया. आप ने देखा नहीं, कहांकहां के रोगी वहां आते हैं. आप अंटशंट बकना बंद कीजिए और यह सब फालतू बात किसी से कहिएगा भी मत. लोग हंसेंगे, आप को पागल समझेंगे.’’

‘‘बड़ी अजीब बात है?’’

‘‘जी हां, अजीब तो है ही.’’

‘‘लेकिन इस घटना के और आप के पेट पकड़े रहने से क्या संबंध है?’’

‘‘अजीब बात करते हैं? संबंध तो साफ है. आप को मैं ने बताया न कि मेरे 2 बेटे हैं,’’ कह कर भाईजी मेरी ओर देखने लगे.

Family Story : नारीवाद – एक अनोखा व्यक्तित्व था जननी का

Family Story : मैं पत्रकार हूं. मशहूर लोगों से भेंटवार्त्ता कर उन के बारे में लिखना मेरा पेशा है. जब भी हम मशहूर लोगों के इंटरव्यू लेने के लिए जाते हैं उस वक्त यदि उन के बीवीबच्चे साथ में हैं तो उन से भी बात कर के उन के बारे में लिखने से हमारी स्टोरी और भी दिलचस्प बन जाती है.

मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. मैं मशहूर गायक मधुसूधन से भेंटवार्त्ता के लिए जिस समय उन के पास गया उस समय उन की पत्नी जननी भी वहां बैठ कर हम से घुलमिल कर बातें कर रही थीं. जननी से मैं ने कोई खास सवाल नहीं पूछा, बस, यही जो हर पत्रकार पूछता है, जैसे ‘मधुसूधन की पसंद का खाना और उन का पसंदीदा रंग क्या है? कौनकौन सी चीजें मधुसूधन को गुस्सा दिलाती हैं. गुस्से के दौरान आप क्या करती हैं?’ जननी ने हंस कर इन सवालों के जवाब दिए. जननी से बात करते वक्त न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि बाहर से सीधीसादी दिखने वाली वह औरत कुछ ज्यादा ही चतुरचालाक है.

लिविंगरूम में मधुसूधन का गाते हुए पैंसिल से बना चित्र दीवार पर सजा था.

उस से आकर्षित हो कर मैं ने पूछा, ‘‘यह चित्र किसी फैन ने आप को तोहफे में दिया है क्या,’’ इस सवाल के जवाब में जननी ने मुसकराते हुए कहा, ‘हां.’

‘‘क्या मैं जान सकता हूं वह फैन कौन था,’’ मैं ने भी हंसते हुए पूछा. मधुसूधन एक अच्छे गायक होने के साथसाथ एक हैंडसम नौजवान भी हैं, इसलिए मैं ने जानबूझ कर यह सवाल किया.

‘‘वह फैन एक महिला थी. वह महिला कोई और नहीं, बल्कि मैं ही हूं,’’ यह कहते हुए जननी मुसकराईं.

‘‘अच्छा है,’’ मैं ने कहा और इस के जवाब में जननी बोलीं, ‘‘चित्र बनाना मेरी हौबी है?’’

‘‘अच्छा, मैं भी एक चित्रकार हूं,’’ मैं ने अपने बारे में बताया.

‘‘रियली, एक पत्रकार चित्रकार भी हो सकता है, यह मैं पहली बार सुन रही हूं,’’ जननी ने बड़ी उत्सुकता से कहा.

उस के बाद हम ने बहुत देर तक बातें कीं? जननी ने बातोंबातों में खुद के बारे में भी बताया और मेरे बारे में जानने की इच्छा भी प्रकट की? इसी कारण जननी मेरी खास दोस्त बन गईं.

जननी कई कलाओं में माहिर थीं. चित्रकार होने के साथ ही वे एक अच्छी गायिका भी थीं, लेकिन पति मधुसूधन की तरह संगीत में निपुण नहीं थीं. वे कई संगीत कार्यक्रमों में गा चुकी थीं. इस के अलावा अंगरेजी फर्राटे से बोलती थीं और हिंदी साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था. अंगरेजी साहित्य में एम. फिल कर के दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करते समय मधुसूधन से उन की शादी तय हो गई. शादी के बाद भी जननी ने अपनी किसी पसंद को नहीं छोड़ा. अब वे अंगरेजी में कविताएं और कहानियां लिखती हैं.

उन के इतने सारे हुनर देख कर मुझ से रहा नहीं गया. ‘आप के पास इतनी सारी खूबियां हैं, आप उन्हें क्यों बाहर नहीं दिखाती हैं?’ अनजाने में ही सही, बातोंबातों में मैं ने उन से एक बार पूछा. जननी ने तुरंत जवाब नहीं दिया. दो पल के लिए वे चुप रहीं.

अपनेआप को संभालते हुए उन्होंने मुसकराहट के साथ कहा, ‘आप मुझ से यह  सवाल एक दोस्त की हैसियत से पूछ रहे हैं या पत्रकार की हैसियत से?’’

जननी के इस सवाल को सुन कर मैं अवाक रह गया क्योंकि उन का यह सवाल बिलकुल जायज था. अपनी भावनाओं को छिपा कर मैं ने उन से पूछा, ‘‘इन दोनों में कोई फर्क है क्या?’’

‘‘हां जी, बिलकुल,’’ जननी ने कहा.

‘‘आप ने इन दोनों के बीच ऐसा क्या फर्क देखा,’’ मैं ने सवाल पर सवाल किया.

‘‘आमतौर पर हमारे देश में अखबार और कहानियों से ऐसा प्रतीत होता है कि एक मर्द ही औरत को आगे नहीं बढ़ने देता. आप ने भी यह सोच कर कि मधु ही मेरे हुनर को दबा देते हैं, यह सवाल पूछ लिया होगा?’’

कुछ पलों के लिए मैं चुप था, क्योंकि मुझे भी लगा कि जननी सच ही कह रही हैं. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘आप सच कहती हैं, जननी. मैं ने सुना था कि आप की पीएचडी आप की शादी की वजह से ही रुक गई, इसलिए मैं ने यह सवाल पूछा.’’

‘‘आप की बातों में कहीं न कहीं तो सचाई है. मेरी पढ़ाई आधे में रुक जाने का कारण मेरी शादी भी है, मगर वह एक मात्र कारण नहीं,’’ जननी का यह जवाब मुझे एक पहेली सा लगा.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब मैं रिसर्च स्कौलर बनी थी, ठीक उसी वक्त मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन की इकलौती संतान होने के नाते उन के कारोबार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी बन गई थी. सच कहें तो अपने पिताजी के व्यवसाय को चलातेचलाते न जाने कब मुझे उस में दिलचस्पी हो गई. और मैं अपनी पीएचडी को बिलकुल भूल गई. और अपने बिजनैस में तल्लीन हो गई. 2 वर्षों बाद जब मेरे पिताजी स्वस्थ हुए तो उन्होंने मेरी शादी तय कर दी,’’ जननी ने अपनी पढ़ाई छोड़ने का कारण बताया.

‘‘अच्छा, सच में?’’

जननी आगे कहने लगी, ‘‘और एक बात, मेरी शादी के समय मेरे पिताजी पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे. मधु के घर वालों से यह साफ कह दिया कि जब तक मेरे पिताजी अपना कारोबार संभालने के लायक नहीं हो जाते तब तक मैं काम पर जाऊंगी और उन्होंने मुझे उस के लिए छूट दी.’’

मैं चुपचाप जननी की बातें सुनता रहा.

‘‘मेरी शादी के एक साल बाद मेरे पिता बिलकुल ठीक हो गए और उसी समय मैं मां बनने वाली थी. उस वक्त मेरा पूरा ध्यान गर्भ में पल रहे बच्चे और उस की परवरिश पर था. काम और बच्चा दोनों के बीच में किसी एक को चुनना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन मैं ने अपने बच्चे को चुना.’’

‘‘मगर जननी, बच्चे के पालनपोषण की जिम्मेदारी आप अपनी सासूमां पर छोड़ सकती थीं न? अकसर कामकाजी औरतें ऐसा ही करती हैं. आप ही अकेली ऐसी स्त्री हैं, जिन्होंने अपने बच्चे की परवरिश के लिए अपने काम को छोड़ दिया.’’

जननी ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

‘‘नहीं शंकर, यह सही नहीं है. जैसे आप कहते हैं उस तरह अगर मैं ने अपनी सासूमां से पूछ लिया होता तो वे भी मेरी बात मान कर मदद करतीं, हो सकता है मना भी कर देतीं. लेकिन खास बात यह थी कि हर औरत के लिए अपने बच्चे की परवरिश करना एक गरिमामयी बात है. आप मेरी इस बात से सहमत हैं न?’’ जननी ने मुझ से पूछा.

मैं ने सिर हिला कर सहमति दी.

‘‘एक मां के लिए अपनी बच्ची का कदमकदम पर साथ देना जरूरी है. मैं अपनी बेटी की हर एक हरकत को देखना चाहती थी. मेरी बेटी की पहली हंसी, उस की पहली बोली, इस तरह बच्चे से जुड़े हर एक विषय को मैं देखना चाहती थी. इस के अलावा मैं खुद अपनी बेटी को खाना खिलाना चाहती थी और उस की उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाना चाहती थी.

‘‘मेरे खयाल से हर मां की जिंदगी में ये बहुत ही अहम बातें हैं. मैं इन पलों को जीना चाहती थी. अपनी बच्ची की जिंदगी के हर एक लमहे में मैं उस के साथ रहना चाहती थी. यदि मैं काम पर चली जाती तो इन खूबसूरत पलों को खो देती.

‘‘काम कभी भी मिल सकता है, मगर मेरी बेटी पूजा की जिंदगी के वे पल कभी वापस नहीं आएंगे? मैं ने सोचा कि मेरे लिए क्या महत्त्वपूर्ण है-कारोबार, पीएचडी या बच्ची के साथ वक्त बिताना. मेरी अंदर की मां की ही जीत हुई और मैं ने सबकुछ छोड़ कर अपनी बच्ची के साथ रहने का निर्णय लिया और उस के लिए मैं बहुत खुश हूं,’’ जननी ने सफाई दी.

मगर मैं भी हार मानने वाला नहीं था. मैं ने उन से पूछा, ‘‘तो आप के मुताबिक अपने बच्चे को अपनी मां या सासूमां के पास छोड़ कर काम पर जाने वाली औरतें अपना फर्ज नहीं निभाती हैं?’’

मेरे इस सवाल के बदले में जननी मुसकराईं, ‘‘मैं बाकी औरतों के बारे में अपनी राय नहीं बताना चाहती हूं. यह तो हरेक औरत का निजी मामला है और हरेक का अपना अलग नजरिया होता है. यह मेरा फैसला था और मैं अपने फैसले से बहुत खुश हूं.’’

जननी की बातें सुन कर मैं सच में दंग रह गया, क्योंकि आजकल औरतों को अपने काम और बच्चे दोनों को संभालते हुए मैं ने देखा था और किसी ने भी जननी जैसा सोचा नहीं.

‘‘आप क्या सोच रहे हैं, वह मैं समझ सकती हूं, शंकर. अगले महीने से मैं एक जानेमाने अखबार में स्तंभ लिखने वाली हूं. लिखना भी मेरा पसंदीदा काम है. अब तो आप खुश हैं न, शंकर?’’ जननी ने हंसते हुए पूछा.

मैं ने भी हंस कर कहा, ‘‘जी, बिलकुल. आप जैसी हुनरमंद औरतों का घर में बैठना गलत है. आप की विनम्रता, आप की गहरी सोच, आप की राय, आप का फैसला लेने में दृढ़ संकल्प होना देख कर मैं हैरान भी होता हूं और सच कहूं तो मुझे थोड़ी सी ईर्ष्या भी हो रही है.’’

मेरी ये बातें सुन कर जननी ने हंस कर कहा, ‘‘तारीफ के लिए शुक्रिया.’’

मैं भी जननी के साथ उस वक्त हंस दिया मगर उस की खुद्दारी को देख कर हैरान रह गया था. जननी के बारे में जो बातें मैं ने सुनी थीं वे कुछ और थीं. जननी अपनी जिंदगी में बहुत सारी कुरबानियां दे चुकी थीं. पिता के गलत फैसले से नुकसान में चल रहे कारोबार को अपनी मेहनत से फिर से आगे बढ़ाया जननी ने. मां की बीमारी से एक लंबी लड़ाई लड़ कर अपने पिता की खातिर अपने प्यार की बलि चढ़ा कर मधुसूधन से शादी की और अपने पति के अभिमान के आगे झुक कर, अपनी ससुराल वालों के ताने सह कर भी अपने ससुराल का साथ देने वाली जननी सच में एक अजीब भारतीय नारी है. मेरे खयाल से यह भी एक तरह का नारीवाद ही है.

‘‘और हां, मधुसूधनजी, आप सोच रहे होंगे कि जननी के बारे में यह सब जानते हुए भी मैं ने क्यों उन से ऐसे सवाल पूछे. दरअसल, मैं भी एक पत्रकार हूं और आप जैसे मशहूर लोगों की सचाई सामने लाना मेरा पेशा है न?’’

अंत में एक बात कहना चाहता हूं, उस के बाद जननी को मैं ने नहीं देखा. इस संवाद के ठीक 2 वर्षों बाद मधुसूदन और जननी ने आपसी समझौते पर तलाक लेने का फैसला ले लिया.

Social Story : टीसता जख्म – उमा पर अनवर ने लगाए दाग

Social Story : अचानक उमा की आंखें खुलती हैं. ऊपर छत की तरफ देखती हुई वह गहरी सांस लेती है. वह आहिस्ता से उठती है. सिरहाने रखी पानी की बोतल से कुछ घूंट अपने सूखे गले में डालती है. आंखें बंद कर वह पानी को गले से ऐसे नीचे उतारती है जैसे उन सब बातों को अपने अंदर समा लेना चाहती है. पर, यह हो नहीं पा रहा. हर बार वह दिन उबकाई की तरह उस के पेट से निकल कर उस के मुंह में भर आता है जिस की दुर्गंध से उस की सारी ज्ञानेंद्रियां कांप उठती हैं.

पानी अपने हलक से नीचे उतार कर वह अपना मोबाइल देखती है. रात के डेढ़ बजे हैं. वह तकिए को बिस्तर के ऊंचे उठे सिराहने से टिका कर उस पर सिर रख लेट जाती है.

एक चंदन का सूखा वृक्ष खड़ा है. उस के आसपास मद्धिम रोशनी है. मोटे तने से होते हुए 2 सूखी शाखाएं ऊपर की ओर जा रही हैं, जैसे कि कोई दोनों हाथ ऊपर उठाए खड़ा हो. बीच में एक शाखा चेहरे सी उठी हुई है और तना तन लग रहा है. धीरेधीरे वह सूखा चंदन का पेड़ साफ दिखने लगता है. रोशनी उस पर तेज हो गई है. बहुत करीब है अब… वह एक स्त्री की आकृति है. यह बहुत ही सुंदर किसी अप्सरा सी, नर्तकी सी भावभंगिमाएं नाक, आंख, होंठ, गरदन, कमर की लचक, लहराते सुंदर बाजू सब साफ दिख रहे हैं.

चंदन की खुशबू से वहां खुशनुमा माहौल बन रहा है कि तभी उस सूखे पेड़ पर उस उकेरी हुई अप्सरा पर एक विशाल सांप लिपटा हुआ दिखने लगता है. बेहद विशाल, गहरा चमकीला नीला, हरा, काला रंग उस के ऊपर चमक रहा है. सारे रंग किसी लहर की तरह लहरा रहे हैं. आंखों के चारों ओर सफेद चमकीला रंग है. और सफेद चमकीले उस रंग से घिरी गोल आंख उस अप्सरा की पूरी काया को अपने में समा लेने की हवस लिए हुए है. रक्त सा लाल, किसी कौंधती बिजली से कटे उस के अंग उस काया पर लपलपा रहे हैं.

वह विशाल सांप अपनी जकड़ को घूमघूम कर इतना ज्यादा कस रहा है कि वह उस पेड़ को मसल कर धूल ही बना देना चाह रहा है. तभी वह काया जीवित हो जाती है. सांप उस से दूर गिर पड़ता है. वह एक सुंदर सी अप्सरा बन खड़ी हो जाती है और सांप की तरफ अपनी दृष्टि में ठहराव, शांति, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति से ज्यों ही नजर डालती है वह सांप गायब हो जाता है और उमा जाग जाती है. सपने को दोबारा सोच कर उमा फिर बोतल से पानी की घूंट अपने हलक से उतारती है. अब उसे नींद नहीं आ रही.

भारतीय वन सेवा के बड़े ओहदे पर है उमा. उमा को मिला यह बड़ा सा घर और रहने के लिए वह अकेली. 3 तो सोने के ही कमरे हैं जो लगभग बंद ही रहते हैं. एक में वह सोती है. उमा उठ कर बाहर के कमरे में आ जाती है. बड़ी सी पूरे शीशे की खिड़की पर से परदा सरका देती है. दूरदूर तक अंधेरा. आईजीएनएफए, देहरादून के अहाते में रोशनी करते बल्ब से बाहर दृश्य धुंधला सा दिख रहा था. अभीअभी बारिश रुकी थी. चिनार के ढलाव से नुकीले पत्तों पर लटकती बूंदों पर नजर गड़ाए वह उस बीते एक दिन में चली जाती है…

उन दिनों वह अपनी पीएचडी के अध्ययन के सिलसिले में अपने शहर रांची के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (कांके) आई हुई थी. पूरा बचपन तो यहीं बीता उस का. झारखंड के जंगलों में अवैध खनन व अवैध जंगल के पेड़ काटने पर रोक व अध्ययन के लिए जिला स्तर की कमेटी थी. आज उमा ने उस कमेटी के लोगों को बातचीत के लिए बुलाया था. उसे जरा भी पता नहीं था, उस के जीवन में कौन सा सवाल उठ खड़ा होने वाला है.

मीटिंग खत्म हुई. सारे लोग चाय के लिए उठ गए. उमा अपने लैपटौप पर जरूरी टिप्पणियां लिखने लग गई. तभी उसे लगा कोई उस के पास खड़ा है. उस ने नजर ऊपर की. एक नजर उस के चेहरे पर गड़ी हुई थी. आप ने मुझे पहचाना नहीं?

उमा ने कहा, ‘सौरी, नहीं पहचान पाई.’ ‘हम स्कूल में साथ थे,’ उस शख्स ने कहा.

‘क्षमा करें मेरी याददाश्त कमजोर हो गई है. स्कूल की बातें याद नहीं हैं,’ उमा ने जवाब दिया.

‘मैं अनवर हूं. याद आ रहा है?’

अनवर नाम तो सुनासुना सा लग रहा है. एक लड़का था दुबलापतला, शैतान. शैतान नहीं था मैं, बेहद चंचल था,’ वह बोला था.

उमा गौर से देखती है. कुछ याद करने की कोशिश करती है…और अनवर स्कूल के अन्य दोस्तों के नाम व कई घटनाएं बनाता जाता है. उमा को लगा जैसे उस का बचपन कहीं खोया झांकने लगा है. पता नहीं कब वह अनवर के साथ सहज हो गई, हंसने लगी, स्कूल की यादों में डूबने लगी.

अनवर की हिम्मत बढ़ी, उस ने कह डाला, ‘मैं तुम्हें नहीं भूल पाया. मैं साइलेंट लवर हूं तुम्हारा. मैं तुम से अब भी बेहद प्यार करता हूं.’

‘यह क्या बकवास है? पागल हो गए हो क्या? स्कूल में ही रुक गए हो क्या?’ उमा अक्रोशित हो गई.

‘हां, कहो पागल मुझे. मैं उस समय तुम्हें अपने प्यार के बारे में न बता सका, पर आज मैं इस मिले मौके को नहीं गंवाना चाहता. आइ लव यू उमा. तुम पहले भी सुंदर थीं, अब बला की खूबसूरत हो गई हो.’

उमा झट वहां से उठ जाती है और अपनी गाड़ी से अपने आवास की ओर निकल लेती है. आई लव यू उस के कानों में, मस्तिष्क में रहरह गूंज रहा था. कभी यह एहसास अच्छा लगता तो कभी वह इसे परे झटक देती.

फोन की घंटी से उस की नींद खुलती है. अनवर का फोन है. वह उस पर ध्यान नहीं देती. फिर घड़ी की तरफ देखती है, सुबह के 6 बज गए हैं. इतनी सुबह अनवर ने रिंग किया? उमा उठ कर बैठ जाती है. चेहरा धो कर चाय बनाती है. अपने फोन पर जरूरी मैसेज, कौल, ईमेल देखने में लग जाती है. तभी फिर फोन की घंटी बज उठती है. फिर अनवर का फोन है.

‘हैलो, हां, हैलो उठ गई क्या? गुडमौर्निंग,’ अनवर की आवाज थी.

‘इतने सवेरे रिंग कर दिया,’ उमा बोली.

‘हां, क्या करूं, रात को मुझे नींद ही नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा,’ अनवर बोला.

‘मुझे अभी बहुत काम है, बाद में बात करती हूं,’ उमा ने फोन काट दिया.

आधे घंटे बाद फिर अनवर का फोन आया.

‘अरे, मैं तुम से मिलना चाहता हूं.’

‘नहींनहीं, मुझे नहीं मिलना है. मुझे बहुत काम है,’ और उस ने फोन जल्दी से रख दिया.

आधे घंटे बाद फिर अनवर का फोन आया और वह बोला, ‘सुनो, फोन काटना मत. बस, एक बार मिलना चाहता हूं, फिर मैं कभी नहीं मिलूंगा.’

‘ठीक है, लंच के बाद आ जाओ,’ उमा ने अनवर से कहा.

लंच के समय कमरे की घंटी बजती है. उमा दरवाजा खोलती है. सामने अनवर खड़ा है. अनवर बेखौफ दरवाजे के अंदर घुस जाता है.

‘ओह, आज बला की खूबसूरत लग रही हो, उमा. मेरे इंतजार में थी न? तुम ने अपनेआप को मेरे लिए तैयार किया है न?’

उमा बोली, ‘ऐसी कोई बात नहीं है? मैं अपने साधारण लिबास में हूं. मैं ने कुछ भी खास नहीं पहना.’

अनवर डाइनिंग रूम में लगी कुरसी पर ढीठ की तरह बैठ गया. उमा के अंदर बेहद हलचल मची हुई है पर वह अपनेआप को सहज रखने की भरपूर कोशिश में है. वह भी दूसरे कोने में पड़ी कुरसी पर बैठ गई. अनवर 2 बार राष्ट्रीय स्तर की मुख्य राजनीतिक पार्टी से चुनाव लड़ चुका था, लेकिन दोनों बार चुनाव हार गया था. अब वह अपने नेता होने व दिल्ली तक पहुंच होने को छोटेमोटे कार्यों के  लिए भुनाता है. उस के पास कई ठेके के काम हैं. बातचीत व हुलिया देख कर लग रहा था कि वह अमीरी की जिंदगी जी रहा है. अनवर की पूरी शख्सियत से उमा डरी हुई थी.

‘उमा, मैं तुम से बहुत सी बातें करना चाहता हूं. मैं तुम से अपने दिल की सारी बातें बताना चाहता हूं. आओ न, थोड़ा करीब तो बैठो प्लीज,’ अनवर अपनी कुरसी उस के करीब सरका कर कहता है, ‘तुम भरपूर औरत हो.’

अचानक उमा का बदन जैसे सिहर उठा. अनवर ने उस का हाथ दबा लिया था. अनवर की आंखें गिद्ध की तरह उमा के चेहरे को टटोलने की कोशिश कर रही थीं. उमा ने झटके से अपना हाथ खींच लिया.

‘मैं चाय बना कर लाती हूं,’ कह कर उमा उठने को हुई तो अनवर बोल उठा.

‘नहींनहीं, तुम यहीं बैठो न.’

उमा पास रखी इलैक्ट्रिक केतली में चाय तैयार करने लगी. तभी उमा को अपने गले पर गरम सांसों का एहसास हुआ. वह थोड़ी दूर जा कर खड़ी हो गई.

‘क्या हुआ? तुम ने शादी नहीं की पर तुम्हें चाहत तो होती होगी न,’ अनवर ने जानना चाहा.

‘कैसी बकवास कर रहे हो तुम,’ उमा खीझ कर बोली.

‘हम कोई बच्चे थोड़े हैं अब. बकवास तो तुम कर रही हो,’ अनवर भी चुप नहीं हुआ और उस के होंठ उमा के अंगों को छूने लगे. उमा फिर दूर चली गई.

‘अनवर, बहुत हुआ, बस करो. मुझे यह सब पसंद नहीं है,’ उमा ने संजीगदी से कहा.

‘एक मौका दो मुझे उमा, क्या हो गया तुम्हें, अच्छा नहीं लगा क्या?  मैं तुम से प्यार करता हूं. सुनो तो, तुम खुल कर मेरे साथ आओ,’ उस ने उमा को गोद में उठा लिया. अनवर की गोद में कुछ पल के लिए उस की आंखें बंद हो गईं. अनवर ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और उस पर हावी होने लगा. तभी बिजली के झटके की तरह उमा उसे छिटक कर दूर खड़ी हो गई.

‘अभी निकलो यहां से,’ उमा बोल उठी.

अनवर हारे हुए शिकारी सा उसे देखता रह गया.

उमा बोली, ‘मैं कह रही हूं, तुम अभी जाओ यहां से.’

अनवर न कुछ बोला और न वहां से गया तो उमा ने कहा, ‘मैं यहां किसी तरह का हंगामा नहीं करना चाहती. तुम बस, यहां से चले जाओ.’

अनवर ने अपना रुमाल निकाला और चेहरे पर आए पसीने को पोंछता हुआ कुछ कहे बिना वहां से निकल गया. उमा दरवाजा बंद कर डर से कांप उठी. सारे आंसू गले में अटक कर रह गए. अपने अंदर छिपी इस कमजोरी को उस ने पहली बार इस तरह सामने आते देखा. उसे बहुत मुश्किल से उस रात नींद आई.

फोन की घंटी से उस की नींद खुली. फोन अनवर का था.

‘मैं बहुत बेचैन हूं. मुझे माफ कर दो.’

उमा ने फोन काट कर उस का नंबर ब्लौक कर दिया. फिर दोबारा एक अनजान नंबर से फोन आया. यह भी अनवर की ही आवाज थी.

‘मुझे माफ कर दो उमा. मैं तुम्हारी दोस्ती नहीं खोना चाहता.’

उमा ने फिर फोन काट दिया. वह बहुत डर गई थी. उमा ने सोचा कि उस के वापस जाने में 2 दिन बाकी हैं. वह बेचैन हो गई. किसी तरह वह खुद को संयत कर पाई.

कई महीने बीत गए. वह अपने कामों में इतनी व्यस्त रही कि एक बार भी उसे कुछ याद नहीं आया. हलकी याद भी आई तो यही कि वह जंग जीत गई है.

‘जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग

चंदन विष व्याप्त नहीं, लपटे रहत भुजंग.’

एक दिन अचानक एक फोन आया. उस तरफ अनवर था, ‘सुनो, मेरा फोन मत काटना और न ही ब्लौक करना. मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पा रहा है. बताओ न तुम कहां हो? मैं तुम से मिलना चाहता हूं. मैं मर रहा हूं, मुझे बचा लो.’

‘यह किस तरह का पागलपन है. मैं तुम से न तो बात करना चाहती हूं और न ही मिलना चाहती हूं,’ उमा ने साफ कहा.

‘अरे, जाने दो, भाव दिखा रही है. अकेली औरत. शादी क्यों नहीं की, मुझे नहीं पता क्या? नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली चली हज को. मजे लेले कर अब मेरे सामने सतीसावित्री बनती हो. तुम्हें क्या चाहिए मैं सब देने को तैयार हूं,’ अनवर अपनी औकात पर उतर आया था.

ऐसा लगा जैसे किसी ने खौलता लावा उमा के कानों में उडे़ल दिया हो. उस ने फोन काट दिया और इस नंबर को भी ब्लौक कर दिया. यह परिणाम बस उस एक पल का था जब वह पहली बार में ही कड़ा कदम न उठा सकी थी.

इस बात को बीते 4 साल हो गए हैं. अनवर का फोन फिर कभी नहीं आया. उमा ने अपना नंबर बदल लिया था. पर आज भी यह सपना कहीं न कहीं घाव रिसता है. दर्द होता है. कहते हैं समय हर घाव भर देता है पर उमा देख रही है कि उस के जख्म रहरह कर टीस उठते हैं

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