कायरता का प्रायश्चित्त: भाग 1

लेखक-  शुचिता श्रीवास्तव

डा. मिहिर ने जैसे ही अपने चेहरे के सामने से किताब हटाई और सामने बैठे मरीज की तरफ देखा तो वह चौंक गए.

चौंकी तो मिताली भी थी पर उस ने अपनेआप को संयत कर लिया था.

‘‘अरे मिहिर, आप?’’ मिताली बोली, ‘‘मैं ने तो सोचा भी नहीं था कि आप यहां हो सकते हैं.’’

‘‘कहो, मिताली, कैसी हो और क्या हुआ तुम्हें जो एक डाक्टर की जरूरत पड़ गई?’’ डा. मिहिर सामान्य स्वर में बोले.

‘‘मिहिर, मैं तो ठीक हूं पर यहां मैं अपने पति नवीन को दिखाने आई हूं,’’ मिताली बोली, ‘‘पिछले 3-4 माह से उन की तबीयत कुछकुछ खराब रहती थी पर इधर कुछ दिनों से काफी अधिक अस्वस्थ रहने लगे हैं,’’ कह कर मिताली ने

डा. मिहिर का परिचय नवीन से करवाया, ‘‘नवीन, डा. मिहिर का घर कानपुर में मेरी बूआ के घर के बगल में है. मेरे फूफाजी और मिहिर के डैडी बचपन के दोस्त हैं.’’

डा. मिहिर ने नवीन का चेकअप किया व कुछ टेस्ट करवाने का परामर्श दिया जिस की रिपोर्ट ले कर अगले दिन आने को कहा.

मिताली व नवीन चले गए पर

डा. मिहिर का मन उचट गया. एक बार उन के मन में आया कि वह घर लौट जाएं लेकिन जब अपने मरीजों का ध्यान आया जो कई दिन पहले नंबर लगवा चुके थे और काफी दूरदूर से आए थे तो उन्होंने अपनेआप को संभाल लिया और चपरासी से मरीजों को अंदर भेजने के लिए कह दिया.

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शाम के समय मिहिर को किसी दोस्त के घर पार्टी में जाना था पर वह वहां न जा कर सीधे घर आ कर चुपचाप बिस्तर पर लेट गए.

डा. मिहिर को बारबार एक ही बात चुभ रही थी कि जिस मिताली के कारण अपना घर, डैडी का अच्छाखासा नर्सिंग होम छोड़ कर उसे इस अनजान शहर में आ कर अपनी प्रैक्टिस जमानी पड़ी वही मिताली उन के शांत जीवन में कंकड़ फेंकने के लिए यहां भी आ गई.

‘‘साहब, चाय लेंगे या कौफी?’’ हरिया ने अंदर आ कर पूछा.

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा,’’ मिहिर ने छोटा सा जवाब दिया तो वह चला गया.

उस के जाते ही मिहिर का मन अतीत के सागर में गोते लगाने लगा.

मिताली को पहली बार मिहिर ने रस्तोगी अंकल की बेटी रानी के जन्मदिन की पार्टी में देखा था. यों तो वह रानी के घर वालों के मुंह से मिताली की सुंदरता की चर्चा पहले भी सुन चुका था पर उस दिन जो देखा तो बस देखता ही रह गया था.

हालांकि मिहिर भी कम सुंदर न था. उस पर संपन्न परिवार का इकलौता लड़का, साथ में डाक्टरी की पढ़ाई. पार्टी में आई तमाम लड़कियों की नजरें उस पर टिकी थीं और वे उस से बातें करने को आतुर थीं. पर मिहिर जिस से बात करना चाहता था वह अपनी सहेलियों से बातें करने में व्यस्त थी.

काफी देर बाद मिहिर को मिताली से बात करने का मौका मिला.

‘आप का नाम मिताली है?’ बातचीत शुरू करने के उद्देश्य से मिहिर ने पूछा.

‘हां, पर आप को मेरा नाम कैसे पता चला?’ मिताली ने उसे आश्चर्य से देखते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘सिर्फ नाम ही नहीं, मैं तो आप के बारे में और भी बहुत कुछ जानता हूं,’ मिहिर ने कहा तो मिताली की आंखें आश्चर्य से फैल गईं.

‘अच्छा, और क्याक्या जानते हैं आप मेरे बारे में?’ उस ने पूछा.

‘यही कि आप रानी के मामा की बेटी हैं और एम.बी.ए. की छात्रा हैं. संगीत सुनना, बैडमिंटन खेलना, कविताएं लिखना आप की हौबी है,’ मिहिर बोला.

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‘हां, आप कह तो सच रहे हैं पर मेरे बारे में इतना सबकुछ आप कैसे जानते हैं? क्या मैं आप का परिचय जान सकती हूं?’ मिताली ने कहा.

‘मैं रानी का पड़ोसी हूं. मेरा नाम मिहिर है. मैं मेडिकल अंतिम वर्ष का छात्र हूं. आजकल छुट्टियों में घर आया हूं,’ मिहिर ने अपना परिचय दिया.

तभी मिताली को किसी ने पुकारा और वह वहां से चली गई. मिहिर भी घर लौट आया. उस की आंखों की नींद व मन का चैन उड़ चुका था. दिनरात, सोते- जागते, उठतेबैठते बस उसे मिताली ही नजर आती थी.

उस दिन मिहिर अपनी छोटी बहन रूपाली के साथ शापिंग करने गया था. रूपाली बुटीक में अपने लिए कपड़े पसंद कर रही थी. मिहिर बोर होने लगा तो वह बाहर आ गया. अचानक उस की नजर सामने की गिफ्ट शाप की तरफ गई तो वह चौंक पड़ा. वहां मिताली कुछ खरीद रही थी. मिहिर उस ओर बढ़ चला.

‘हाय, मिताली, कैसी हो और यहां कैसे?’ मिताली के करीब जा कर मिहिर ने पूछा.

‘अरे मिहिर, आप और यहां. दरअसल आज मेरी एक फैं्रड का जन्मदिन है. मैं उसी के लिए गिफ्ट खरीदने आई हूं, और आप?’ मिताली ने उस से कहा.

‘मैं अपनी बहन रूपाली के साथ आया हूं. वह सामने की दुकान से कपड़े खरीद रही है. बोर होने लगा तो अंदर से बाहर आ गया और तुम यहां दिख गईर्ं.’

मिताली ने एक टेबल लैंप पैक करवा लिया. वह पैसे देने के लिए मुड़ी तो मिहिर ने उसे फिर शो केसों की तरफ बुला लिया और एक सफेद संगमरमर से बने ताजमहल की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘मिताली, देखो तो जरा यह कैसा लग रहा है?’

‘बहुत खूबसूरत है,’ मिताली बोली.

मिहिर ने सोचा, क्यों न वह अपने प्यार का इजहार मिताली को यह सुंदर उपहार दे कर करे? यह सोच कर उस ने वह ताजमहल और साथ में एक खूबसूरत पत्थर का बना कीमती ब्रेसलेट भी खरीद लिया.

तभी मिहिर को ढूंढ़ते हुए वहां रूपाली भी आ गई और मिताली को देख कर उस से बातें करने लगी.

मिहिर मन ही मन खुश हुआ कि चलो वह सफाई देने से बच गया वरना न जाने कितनी देर तक उस की छोटी बहन उस से सिर्फ इसलिए लड़ती कि वह उसे बिना बताए क्यों चला आया.

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‘अच्छा अब मैं चलती हूं,’ घड़ी की तरफ नजर डालते हुए मिताली बोली.

‘मिताली, हमारे साथ ही चलो न, मुझे मेरी दोस्त के घर छोड़ कर मिहिर भैया तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देंगे.’

Family Story in Hindi: विश्वास- भाग 2: क्या अंजलि अपनी बिखरती हुई गृहस्थी को समेट पाई?

अंजलि ने शिखा के गाल पर थप्पड़ मारने के लिए उठे अपने हाथ को बड़ी कठिनाई से रोका और गहरीगहरी सांसें ले कर अपने क्रोध को कम करने के प्रयास में लग गई. दूसरी तरफ तनी हुई शिखा आंखें फाड़ कर चुनौती भरे अंदाज में उसे घूरती रहीं.

कुछ सहज हो कर अंजलि ने उस से पूछा, ‘‘वंदना के घर मेरे जाने की खबर तुम्हें उन के घर के सामने रहने वाली रितु से मिलती है न?’’

‘‘हां, रितु मुझ से झूठ नहीं बोलती है,’’ शिखा ने एकएक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया.

‘‘यह अंदाजा उस ने या तुम ने किस आधार पर लगाया कि मैं वंदना की गैर- मौजूदगी में कमल से मिलने जाती हूं?’’

‘‘आप कल सुबह उन के घर गई थीं और परसों ही वंदना आंटी ने मेरे सामने कहा था कि वह अपनी बड़ी बहन को डाक्टर के यहां दिखाने जाएंगी, फिर आप उन के घर क्यों गईं?’’

‘‘ऐसा हुआ जरूर है, पर मुझे याद नहीं रहा था,’’ कुछ पल सोचने के बाद अंजलि ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

‘‘मुझे लगता है कि वह गंदा आदमी आप को फोन कर के अपने पास ऐसे मौकों पर बुलाता है और आप चली जाती हो.’’

‘‘शिखा, तुम्हें अपनी मम्मी के चरित्र पर यों कीचड़ उछालते हुए शर्म नहीं आ रही है,’’ अंजलि का अपमान के कारण चेहरा लाल हो उठा, ‘‘वंदना मेरी बहुत भरोसे की सहेली है. उस के साथ मैं कैसे विश्वासघात करूंगी? मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारे पापा बसते हैं, और कोई नहीं.’’

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‘‘तब आप उन के पास लौट क्यों नहीं चलती हो? क्यों कमल अंकल के भड़काने में आ रही हो?’’ शिखा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘बेटी, तेरे पापा के और मेरे बीच में एक औरत के कारण गहरी अनबन चल रही है, उस समस्या के हल होते ही मैं उन के पास लौट जाऊंगी,’’ शिखा को यों स्पष्टीकरण देते हुए अंजलि ने खुद को शर्म के मारे जमीन मेें गड़ता महसूस किया.

‘‘मुझे यह सब बेकार के बहाने लगते हैं. आप कमल अंकल के कारण पापा के पास लौटना नहीं चाहती हो,’’ शिखा अपनी बात पर अड़ी रही.

‘‘तुम जबरदस्त गलतफहमी का शिकार हो, शिखा. वंदना और कमल मेरे शुभचिंतक हैं. उन दोनों का बहुत सहारा है मुझे. दोस्ती के पवित्र संबंध की सीमाएं तोड़ कर कुछ गलत न मैं कर रही हूं न कमल अंकल. मेरे कहे पर विश्वास कर बेटी,’’ अंजलि बहुत भावुक हो उठी.

‘‘मेरे मन की सुखशांति की खातिर आप अंकल से और जरूरी हो तो वंदना आंटी से भी अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लो, मम्मी. मुझे डर है कि ऐसा न करने पर आप पापा से सदा के लिए दूर हो जाओगी,’’ शिखा ने आंखों में आंसू ला कर विनती की.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में आया खिंचाव

‘‘तुम्हारे नासमझी भरे व्यवहार से मैं बहुत निराश हूं,’’ ऐसा कह कर अंजलि उठ कर अपने कमरे में चली आई.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में बहुत खिंचाव आ गया. आपस में बातचीत बस, बेहद जरूरी बातों को ले कर होती. अपने दिल पर लगे घावों को दोनों नाराजगी भरी खामोशी के साथ एकदूसरे को दिखा रही थीं.

शिखा की चुप्पी व नाराजगी वंदना और कमल ने भी नोट की. अंजलि उन के किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकी. वह कैसे कहती कि शिखा ने कमल और उस के बीच नाजायज संबंध होने का शक अपने मन में बिठा रखा था.

करीब 4 दिन बाद रात को शिखा ने मां के कमरे में आ कर अपने मन की बातें कहीं.

‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं कि मेरी सहेली रितु ने अन्य सहेलियों को सब बातें बता कर मेरे लिए इज्जत से सिर उठा कर चलना ही मुश्किल कर दिया है. अपनी ये सब परेशानियां मैं आप के नहीं, तो किस के सामने रखूं?’’

मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है

‘‘मुझे तुम्हारी सहेलियों से नहीं सिर्फ तुम से मतलब है, शिखा,’’ अंजलि ने शुष्क स्वर में जवाब दिया, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन क्यों मान लिया? मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है?’’

‘‘मम्मी, बात विश्वास करने या न करने की नहीं है. हमें समाज में मानसम्मान से रहना है तो लोगों को ऊटपटांग बातें करने का मसाला नहीं दिया जा सकता.’’

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‘‘तब क्या दूसरों को खुश करने के लिए तुम अपनी मां को चरित्रहीन करार दे दोगी? उन की झूठी बातों पर विश्वास कर के अपनी मां को उस की सब से प्यारी सहेली से दूर करने की जिद पकड़ोगी?’’

‘‘मुझ पर क्या गुजर रही है, इस की आप को भी कहां चिंता है, मम्मी,’’ शिखा चिढ़ कर गुस्सा हो उठी, ‘‘मैं आप की सहेली नहीं बल्कि सहेली के चालाक पति से आप को दूर देखना चाहती हूं. अपनी बेटी की सुखशांति से ज्यादा क्या कमल अंकल के साथ जुडे़ रहना आप के लिए जरूरी है?’’

‘‘कमल अंकल मेरे लिए तुम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं, शिखा? मुझे तो अफसोस और दुख इस बात का है कि मेरी बेटी को मुझ पर विश्वास नहीं रहा. मैं पूछती हूं कि तुम ही मुझ पर विश्वास क्यों नहीं कर रही हो?  अपनी सहेलियों की बकवास पर ध्यान न दे कर मेरा साथ क्यों नहीं दे रही हो? मेरे मन में खोट नहीं है, इस बात को मेरे कई बार दोहराने के बावजूद तुम ने उस पर विश्वास न कर के मेरे दिल को जितनी पीड़ा पहुंचाई है, क्या उस का तुम्हें अंदाजा है?’’ बोलते हुए अंजलि का चेहरा गुस्से से लाल हो गया.

‘‘यों चीखचिल्ला कर आप मुझे चुप नहीं कर सकोगी,’’ गुस्से से भरी शिखा उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘चित भी मेरी और पट भी मेरी का चालाकी भरा खेल मेरे साथ न खेलो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अंजलि फौरन उलझन का शिकार बन गई.

‘‘मतलब यह कि पापा ने अपनी बिजनेस पार्टनर सीमा आंटी को ले कर आप को सफाई दे दी तब तो आप ने उन की एक नहीं सुनी और यहां भाग आईं, और जब मैं आप से कमल अंकल के साथ संबंध तोड़ लेने की मांग कर रही हूं तो किस आधार पर आप मुझे गलत और खुद को सही ठहरा रही हो?’’

साहब- भाग 1: आखिर शादी के बाद दिपाली अपने पति को साहब जी क्यों कहती थी

महरू कामवाली बाई थी. बहुत ही ईमानदार. कपड़े इतने सलीके से पहनती थी कि अगर पोंछा या झाड़ू लगाने के लिए झुके तो मजाल है शरीर का कोई नाजुक हिस्सा दिख जाए. वह कई घरों में काम करती थी. उम्र होगी तकरीबन 42 साल.

रमेश अकेले रहते थे. उन्होंने शादी नहीं की थी और न करने की इच्छा थी. पिछले 4 सालों में महरू रमेश के बारे में और वे महरू के बारे में बहुतकुछ जान चुके थे.

अनपढ़ महरू ने जाति के बाहर शादी की थी. उस का पति शादी के पहले तो ठीक था, पर बाद में शराब पीने की लत लग गई थी. उस ने काम करना छोड़ दिया था. दिनरात शराब में डूबा रहता.

इस बीच महरू के एक बेटी हो गई. घर चलाने के लिए महरू को काम करना पड़ा. उस ने लोगों के घरों में झाड़ूपोंछा लगाने और बरतन धोने का काम शुरू कर दिया. उसे जो मजदूरी मिलती थी, पति छीन कर शराब पी जाता था.

शराब के नशे में बहकते कदमों के चलते एक दिन महरू का पति सड़क हादसे में मारा गया. अब महरू को अपनी बेटी के लिए जीना था.

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महरू जब रमेश के घर काम मांगने आई तो वे उस की सादगी से प्रभावित हुए थे. उन्होंने उस से साफ शब्दों में कहा था कि वे अकेले रहते हैं. घर पर कोई औरत नहीं है. खाना बाहर खाते हैं तो बरतन तो धोने के लिए निकलते नहीं. अब बचा झाड़ूपोंछा, चाहो तो कर सकती हो.

पहले महरू को कुछ डर हुआ, फिर पड़ोस की एक औरत ने उसे रमेश के अच्छे चरित्र के बारे में बताया. उसे काम की जरूरत भी थी. लिहाजा, वह काम करने को तैयार हो गई.

शुरूशुरू में जब महरू काम करने आती और रमेश उस के सामने पड़ते तो उस के चेहरे पर डर सा तैर जाता. अकेले होने की वजह से कुछ संकोच रमेश को भी होता और कभीकभार यह खयाल भी आता कि पता नहीं रुपएपैसे ऐंठने के चक्कर में महरू उन पर कौन सा आरोप लगा दे. महरू जिस कमरे में होती, रमेश दूसरे कमरे में चले जाते.

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आज होटल के भोजन में न जाने क्या था कि रमेश का सिर चकराने लगा. बुखार आ गया. उलटियां भी होने लगीं. वे रातभर बिस्तर पर पड़े रहे. घर के मैडिकल किट में बुखार और पेटदर्द की जो दवाएं थीं, वे खा चुके थे, लेकिन उन की हालत में कोई फर्क नहीं आया.

सुबह महरू ने जब दरवाजे की डोर बैल बजाई, तब रमेश ने बड़ी मुश्किल से दरवाजा खोला. महरू ने जब उन की हालत देखी तो वह घबरा गई. पूरा घर गंदा पड़ा था.

महरू ने सब से पहले गंदगी साफ की. रमेश के सिर पर हाथ रखा और देखा कि तेज बुखार था. उस ने अपने सस्ते से मोबाइल से फोन लगा कर अपनी बेटी को बुलाया.

जब तक महरू की बेटी वहां नहीं पहुंची, तब तक वह साफसफाई करती रही और रमेश को सुना कर बड़बड़ाती रही, ‘‘अकेले कब तक जिएंगे. कोई तो साथ चाहिए. शादी कर के घर बसा लेते तो एक देखभाल करने वाली होती. मैं नहीं आती तो पड़े रहते, पता भी नहीं चलता किसी को.’’

इस के बाद महरू ने रमेश को सहारा दे कर उठाया. उन के हाथमुंह धुलवाए. कपड़े बदलवाए और डाक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार कर लिया.

तभी एक आटोरिकशा आ कर रुका. महरू की बेटी उस में से उतरी. बिलकुल फूल सी. गोरी दूध सी.

उम्र 15-16 साल.

महरू ने उस से कहा, ‘‘तू यहीं रहना. मैं आती हूं साहब को डाक्टर से दिखा कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रमेश की हालत देख कर बेटी ने अपनी मां से पूछा.

‘‘कुछ नहीं. अभी आती हूं. तू घर देखना,’’ महरू ने कुछ तेज आवाज में कहा. फिर बेटी ने कुछ न पूछा.

महरू ने रमेश को सहारा दे कर आटोरिकशा में बिठाया और डाक्टर के पास ले गई. इलाज करवाया. घर वापस लाई. जब तक वे ठीक नहीं हुए तब तक वह उन की देखरेख करती रही. वह अपने घर से दलिया बना कर लाती. समय से दवा देती.

अब महरू रमेश के लिए महज औरत शरीर न रही और न रमेश उस के लिए मर्द शरीर. यह फर्क मिट चुका था. संकोच खत्म हो चुका था. अब वे दोनों एकदूसरे के लिए इनसान थे, मर्दऔरत होने से पहले. भरोसा था एकदूसरे पर.

Family Story in Hindi- अपना अपना रास्ता: भाग 3

उन्होंने समझ लिया था कि उन का और इंद्रा का निबाह होना कठिन था. इंद्रा की बड़ीबड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं, ऊंचेऊंचे सपने थे, जो उन के छोटे से घर की दीवारों से टकरा कर चूरचूर हो गए थे.

उन का छोटा सा घर, छोटा सा ओहदा, छोटीछोटी इच्छाएं और आवश्यकताएं, कोई भी चीज इंद्रा को पसंद नहीं आई थी. दिनदिनभर पड़ोसिनों के साथ फिल्में देखना और मौल्स के चक्कर लगाना अथवा किसी के घर में किट्टी पार्टियों के साथ नएनए फैशन की साडि़यों व गहनों की चर्चा करना, यही थी उस की कुछ चिरसंचित अभिलाषाएं जो मातापिता के कठोर नियंत्रण से मुक्त हो कर अब स्वच्छंद आकाश में पंख पसार कर उड़ना चाहती थीं.

दिनभर के थकेहारे सुरेंद्र घर लौट कर आते तो दरवाजे पर झूलते ताले को देख उन का तनमन सुलग उठता. ‘क्या तुम अपना घूमनाफिरना 5 बजे तक नहीं निबटा सकतीं, इंद्रा?’

‘ओहो, कौन सा आसमान टूट पड़ा, जो जरा सी देर इंतजार करना पड़ गया. ताश की बाजी चल रही थी, कैसे बीच से उठ कर आ जाती, बोलो?’ उस का स्वर सुरेंद्र को आरपार चीरता चला जाता. ‘खुद तो दिनभर दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते फिरते हैं, मैं कहीं जाऊं तो जवाबतलबी होती है.’

‘नहीं, इंद्रा, मुझे गलत मत समझो. मेरी तरफ से तुम्हें पूरी आजादी है. कहीं जाओ, कहीं घूमो. बस, मेरे आने तक घर लौट आया करो. तुम्हारी खिलीखिली सी मुसकान मेरी दिनभर की थकान हर लेती है.’

सुरेंद्र पत्नी की जिह्वा का हलाहल कंठ में उतार वाणी में मिठास सी घोल देते.

‘ओफ, इच्छाएं तो देखो, मीठीमीठी मुसकान चाहिए इन्हें. करते हैं क्लर्की और ख्वाब देखते हैं महलों के?हुंह, ऐसी ही पलकपांवड़े बिछाने वाली का शौक था तो ले आए होते कोई देहातिन. मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

इंद्रा का तीखा स्वर सुरेंद्र के कानों में लावा सा पिघलाता उतर जाता. अंदर ही अंदर तिलमिला कर वे जबान पर नियंत्रण कर लेते. जितना बोलेंगे, बात बढ़ेगी, अड़ोसीपड़ोसी तमाशा देखेंगे. अभी नईनई शादी हुई है, और अभी से…

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चुपचाप कपड़े बदल कर वे बिस्तर पर पड़ जाते. वे सोचते, ‘क्या विवाह का यही अर्थ है? दिनभर के बाद घर आओ तो पत्नी नदारद. फिर ऊपर से जलीकटी सुनो? क्या शिक्षा का यही अर्थ है कि पति को हर क्षण नीचा दिखाया जाए?’

कैसे खिंचेगी जीवन की यह गाड़ी, जहां पगपग पर आलोचना और अपमान की बड़ीबड़ी शिलाएं हैं. कहां तक ठेल सकेंगे अकेले इस गाड़ी को, जहां दूसरा पहिया साथ देने से ही इनकार कर दे? क्या इन कठोर शिलाखंडों से टकरा कर एक दिन सबकुछ अस्तव्यस्त नहीं हो जाएगा?

जीवन को हतोत्साहित करने वाले इन निराशावादी विचारों को धकेलते हुए मन में आशा की किरण भी झिलमिला जाती कि अभी इंद्रा ने जीवन में देखा ही क्या है? सिर्फ मातापिता का स्नेह, बहनभाइयों का प्यारदुलार. गृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ेंगी तो स्वयं रास्ते पर आ जाएगी. अभी नादान है. 20-22 की भी कोई आयु होती है.

लेकिन इंद्रा ने तो जैसे पति की हर झिलमिलाती आशा को पांवों तले रौंद कर चूरचूर कर देने का फैसला कर लिया था. 2-2 वर्षों के अंतराल से विनोद, प्रमोद और अचला आते गए. उन के साथ आई उन की नन्हींनन्हीं समस्याएं, उन के नाजुककोमल बंधन, उन के नन्हेनन्हे सुखदुख.

लेकिन इंद्रा को उन के वे भोलेभाले चेहरे, उन की मीठीतुतली वाणी, उन के स्नेहसिक्तकोमल बंधन भी बांध कर न रख सके. नौकरों के सहारे बच्चे छोड़ वह अपने महिला क्लब की गतिविधियों में दिनबदिन उलझती चली गई. वक्तबेवक्त आंधी की तरह घर में आती और तूफान की तरह निकल जाती.

हर दिन एक नया आयोजन, जहां पति और बच्चों का कोई अस्तित्व नहीं था. कोई आवश्यकता भी नहीं थी. शायद इंद्रा गृहस्थी के संकुचित दायरे में बंध कर जीने के लिए बनी ही नहीं थी. उस का अपना अस्तित्व था. अपना रास्ता था. जहां मान था, आदर था, यश और प्रशंसा की फूलमालाएं थीं. जहां से उसे वापस लौटा लाने का हर प्रयत्न सुरेंद्र को पहले से और अधिक तोड़ता चला गया था.

जबजब वे उसे गृहस्थी के दायित्वों के प्रति सजग रहने की सलाह देते, वह कु्रद्ध बाघिन सी भन्ना उठती, ‘तुम चाहते क्या हो? क्या मैं दिनभर अनपढ़गंवार औरतों की तरह बच्चों और चूल्हेचौके में सिर खपाया करूं? क्या मांबाप ने मुझे इसलिए कालेज में पढ़ाया था?’

‘नहीं तो क्या इसलिए पढ़ाया था कि अपनी जिम्मेदारियां नौकरों और पड़ोसियों पर छोड़ कर तुम दिनदिनभर सड़कों की धूल फांकती फिरो. जानती हो तुम्हारा यह घूमनाफिरना, यह सोशल लाइफ इन नन्हेनन्हे बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहा है, इन्हें असभ्य और लावारिस बना रहा है. अनाथाश्रम में जा करतुम उन बिन मांबाप के बच्चों को सभ्य और सुशिक्षित बनाने की शिक्षा दिया करती हो, पर यह क्यों नहीं सोचतीं कि तुम्हारी अनुपस्थिति में तुम्हारे इन 3 बच्चों का क्या होगा?

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‘जानती हो, इंदु, भूख लगने पर इन्हें क्या मिलता है? नौकरों की झिड़कियां, थप्पड़. बीमारी में तुम्हारे स्नेहभरे संरक्षण की जगह मिलती है उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार. सच, इंदु, क्या तुम्हें इन अनाथों पर तनिक भी दया नहीं आती?’

किंतु इंद्रा पर सुरेंद्र के इन तमाम उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

पत्नी से उपेक्षित सुरेंद्र देरदेर तक दफ्तर में बैठे कंप्यूटर में दिमाग खपाया करते. पर वहां का वातावरण भी धीरेधीरे असहनीय होने लगा. आतेजाते फब्तियां कसी जातीं, ‘अरे भई, इस बार तरक्की मिलेगी तो मिस्टर सुरेंद्र को. पत्नी शहर की प्रसिद्ध समाजसेविका, बड़ेबड़े लोगों के साथ उठनाबैठना, अच्छेअच्छे आदमियों का पटरा बैठ जाएगा, देख लेना.’

यह कैसा प्यार- भाग 2

‘अंकल, आप कैसी बातें कर रहे हैं? आप की इज्जत मेरी इज्जत. रमा मेरी पत्नी बने, मेरे लिए गर्व की बात होगी.’’

विजय की बात सुन कर रमा के मन में फिर से एक बार कंपन हुई. इस कंपन में प्यार के साथ सम्मान भी था और आभार भी. विजय ने अपने घर में दोटूक उत्तर दिया, ‘‘मैं रमा से ही शादी करूंगा. यह मेरा पहला और आखिरी फैसला है. आप मना करेंगे तो भी मैं शादी करूंगा, चाहे कोर्ट में ही क्यों न करनी पडे़?’’

विजय के परिवार के लोग भी सहमत हो गए. शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. रमा खुश थी, बहुत खुश. उसे बचपन से जवानी तक देखाभला युवक पति के रूप में मिल रहा था. रही विजय के बेरोजगार होने की बात, तो रमा के पिता ने स्पष्ट कह दिया कि ऐसे नेक लड़के के रोजगार लगने की प्रतीक्षा की जा सकती है. यदि नौकरी नहीं मिली तो अपनी जमा पूंजी से विजय के लिए रोजगार की व्यवस्था मैं करूंगा.

रमा के मोबाइल की रिंगटोन बजी. रमा ने मोबाइल उठा कर पूछा ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘आप का शुभचिंतक.’’

‘‘नाम बताइए.’’

‘‘मैं बंगाली बाबा. आप को वशीभूत करने के लिए एक व्यक्ति ने मुझे रुपए दिए थे. यदि आप नाम जानना चाहें तो 10 हजार रुपए मेरे अकाउंट में जमा करवा दीजिए.’’

‘‘मुझे नहीं जानना.’’

‘‘हो सकता है जो तंत्रमंत्र के द्वारा आप का वशीकरण चाहता हो, कल आप को दूसरे तरीके से भी नुकसान पहुंचा दे.’’

‘‘कौन है वह?’’

‘‘पहले अकाउंट में रुपए.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं, इस का क्या सुबूत है?’’

‘‘मेरे पास आप का फोटो, घर का पता, मातापिता का नाम, सारी जानकारी है आप की.’’

रमा का माथा ठनका. पिछले दिनों जो कुछ उस के साथ हुआ कहीं ये सब उसी व्यक्ति का कियाधरा तो नहीं है. रमा ने उस के अकाउंट में रुपए जमा करवा कर नाम पूछा. नाम सुन कर रमा भौचक्की रह गई. रमा सीधे पुलिसस्टेशन पहुंची. थाना इंचार्ज सीमा तिवारी से मिली. अपनी बदनामी और उन पत्रों की जानकारी दे कर बाबा द्वारा बताया गया नाम भी बताया.

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‘‘आप चिंता मत करिए. मैं बारीकी से जांच कर के अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाऊंगी.’’

पुलिस ने अपनी जांच शुरू की. रमा की शादी जिस लड़के से होने वाली थी उस लड़के और उस के परिवार वालों को थाने बुला कर पूछताछ की. लड़के को जिस नंबर से फोन पर जान से मारने की धमकी मिली थी, उस नंबर की जांच के साथ उन तमाम पत्रों की भी जांच की गई जो रमा के विरुद्ध महल्ले, कालेज में और लड़के वालों के घर भेजे गए थे. जांच का परिणाम यह निकला कि सबकुछ विजय द्वारा किया गया था. पुलिस की थर्ड डिगरी के आरंभिक दौर में ही विजय ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. रमा ने गुस्से में आ कर कई थप्पड़ विजय को जड़ दिए.

‘‘क्यों किया तुम ने ऐसा?’’

‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम्हें पाने के लिए, तुम से शादी करने के लिए किया सब.’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम्हें. जिस से प्यार करते हो उसी को सारे शहर में बदनाम कर दिया. यह कैसा प्यार है? यह प्यार है तो नफरत किसे कहते हो? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. मैं तुम्हें अपना दोस्त समझती रही. तुम पर भरोसा करती रही और तुम ने भरोसा तोड़ा, मेरी शादी तुड़वाई. गिर चुके हो तुम मेरी नजरों से. मैं चाहूं तो जेल भिजवा सकती हूं अभी लेकिन फिर तुम्हारी बहन की शादी कैसे होगी? तुम्हारे मातापिता कैसे जी पाएंगे?’’

रमा ने थाना प्रभारी सीमा तिवारी से निवेदन किया, ‘‘मैडम, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. मैं इस व्यक्ति के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करना चाहती. इसे क्षमा करना ही इस की सब से बड़ी सजा होगी.’’

विजय नजरें झुकाएं हवालात में खड़ा था. रमा की डांट से, थप्पड़ से वह अंदर ही अंदर टूट चुका था. रमा थाने के बाहर आई. सामने शादी तोड़ने वाला परिवार खड़ा था. रमा से माफी मांग कर लड़के ने कहा, ‘‘दूसरे के बहकावे में आ कर मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी. मैं शादी करने को तैयार हूं.’’

‘‘लेकिन मैं तैयार नहीं हूं. किसी के बहकावे में आ कर शादी तोड़ने वालों पर विश्वास नहीं कर सकती. शादी के बाद यदि यही बातें तुम तक पहुंचतीं तब क्या करते, तलाक दे देते? विवाह के लिए भरोसा जरूरी है. पहले विश्वास करना सीखिए.’’

रमा ने अपनी स्कूटी उठाई और घर की ओर चल दी. धीरेधीरे यह बात सब जगह पहुंच गई कि रमा को बदनाम करने में विजय का हाथ था. वह तो रमा भली लड़की है जिस ने विजय के परिवार को ध्यान में रख कर उस पर कोई केस नहीं किया.

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रमा अब सरकारी नौकरी करती है. इसी शहर में उस का विवाह हो चुका है एक डाक्टर से. रमा के 2 बच्चे हैं. वह खुशहाल भरापूरा जीवन जी रही है. पुलिस थाने से निकलने के बाद विजय न घर आया न किसी ने उसे देखा. विजय की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज है.

मेरा कुसूर क्या है: भाग 1

लेखक- एस भाग्यम शर्मा

मेरा नाम आकांक्षा है. अब बड़ी होने के बाद अकसर सोचती हूं कि मेरा यह नाम क्यों पड़ा.

सभी कहते थे कि तुम्हारा नाम बहुत प्यारा है. मम्मी कहती थीं, ‘मैं ने तो पंडितजी से पूछा था. उन्होंने कहा था कि इस का नाम आकांक्षा रखना ताकि इस लड़की की सारी इच्छाएं पूरी हों.’

सारी इच्छाएं तो जाने दें, यहां तो जरूरी इच्छाएं भी पूरी नहीं हुईं. आप सोच रहे होंगे कि यह मैं कैसी पहेली बु झा रही हूं.  मगर यह पहेली नहीं, मेरी जिंदगी का सत्य है.

मेरे मम्मीपापा पढ़ेलिखे और नौकरी करने वाले थे. मेरी मां एमए पास थीं. उन्होंने मुझे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाया. आजकल तो गलीगली में इंग्लिश मीडियम के स्कूल हैं. उस समय तो एक ही स्कूल था. जानेमाने स्कूल में मेरा दाखिला करवाया था. मम्मीपापा दोनों ही बड़े खुले विचारों व आधुनिक सोच वाले थे.

मैं पढ़ने में तेज और औलराउंडर थी. पढ़ने के साथ ऐक्ंिटग व संगीत में भी मैं माहिर थी. मम्मी को गाने का बहुत शौक था, इसलिए उन्होंने स्कूल के बाद गायन क्लास में भी ऐडमिशन दिलवाया.

पापा मेरी किसी भी बात को मना नहीं करते थे. उन से मैं ने बहुतकुछ सीखा. तब स्कूल के सभी प्रोग्राम्स में मैं भाग लेती थी. क्या नाटक, क्या वादविवाद प्रतियोगिता और क्या गानाबजाना, सभी में मैं ने पुरस्कार प्राप्त किए थे. मैं टीचर्स की फेवरेट स्टूडैंट्स में से थी.

स्कूल के बाद मैं कालेज में आई. मैं ने नाटकों और लगभग सभी ऐक्टिविटीज में भाग लिया. कालेज के शिक्षकों ने भी मु झे बहुत प्रोत्साहित किया.

मेरी मम्मी आकाशवाणी में प्रोग्राम देती थीं. मैं भी उन के साथ बच्चों के प्रोग्राम में भाग लेती थी. बड़ी होने पर वहां पर मु झे दूसरे प्रोग्राम में लेने लगे. मैं कंपेयरिंग करने लगी.

थोड़े दिनों बाद तो जयपुर शहर में दूरदर्शन भी खुल गया था. मु झे वहां भी जाने का अवसर प्राप्त हुआ. आकाशवाणी में न्यूजरीडर और ड्रामा विभाग में मेरा सलैक्शन हो गया था.

मैं ने पढ़ाई के साथसाथ दूरदर्शन में न्यूजरीडर और ड्रामा आर्टिस्ट के लिए इंटरव्यू दिया. दोनों ही में मेरा सलैक्शन हो गया. मम्मीपापा बड़े खुश हुए. मैं तो खुश  थी ही क्योंकि मेरी मनोकामनाएं जो पूरी हो गई थीं.

सब ठीकठाक चल रहा था. मम्मी को मेरी शादी की चिंता होने लगी. इसी समय मेरे पापा का ऐक्सिडैंट हो गया. उन को आंखों से कम दिखाई देने लगा. जब मोतियाबिंद का औपरेशन कराया तो वह बिगड़ गया. पापा डिप्रैशन में आ गए थे. सो, उन का बाहर आनाजाना कम हो गया.

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अब तो मम्मी को मेरी बहुत चिंता सताने लगी कि बेटी की शादी कैसे होगी? जैसे ही मेरे एमए प्रीवियस का रिजल्ट आया और मैं अच्छे नंबरों से पास हो गई तो अब मेरी मम्मी ज्यादा ही शोर मचाने लगीं, ‘अभी से देखना शुरू करेंगे, तभी लड़का मिलेगा. ढूंढ़ने में भी 2 साल लगेंगे,’ ऐसा वे हरेक से कहती रहतीं.

पता नहीं पापा के डिप्रैशन से उन्हें भी डिप्रैशन हो गया, जिसे मैं पहचान नहीं पाई. मु झ में कोई कमी तो थी नहीं. शक्लसूरत भी मेरी अच्छी थी. पढ़ाई के साथ लगभग हर ऐक्टिविटी में भी आगे थी ही, इस के अलावा मम्मी ने मु झे घर के कामों में भी निपुण बना दिया था.

ननिहाल वालों ने एक लड़का बताया जो लैक्चरार था. पर उन की फैमिली बहुत बैकवर्ड थी. पापा उसे बड़े परेशान हो कर देखने गए. उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आया.

मम्मी को यह बात अच्छी नहीं लगी. वे कहने लगीं, ‘शादी के बाद सब ठीक  हो जाएगा. कालेज में लैक्चरार है और  क्या चाहिए?’

वे कई दिनों तक नाराज रहीं.

पापा बोले, ‘लड़का इंग्लिश मीडियम का पढ़ा हुआ नहीं है, छोटीछोटी जगहों पर उस की पोस्ंिटग होगी. बेटी आकांक्षा को तकलीफ होगी.’

खैर, मेरे तक तो बात पहुंची नहीं, वहीं समाप्त हो गई. अब किसी ने मम्मी को बता दिया एक लड़का सरकारी कालेज में लैक्चरार है. पापामम्मी दोनों देखने गए. लड़का सचमुच अच्छा था, देखने में भी और योग्यता में भी, पर वे लोग बहुत ही पारंपरिक, अंधविश्वासी और पूजापाठ करने वाले थे. मेरे पापा तो आर्यसमाजी थे. उन को ये सब बातें पसंद नहीं आईं. पर मेरी मम्मी तो पीछे ही पड़ गईं. लड़का पढ़ालिखा है, बाहर जा कर तेज हो जाएगा. उदाहरण दे कर सम झाने लगीं.

पापा बोले, ‘ठीक है, शादी कर लेते हैं पर लड़की को एमए पास कर लेने दो.’

लड़के के पापा अड़ गए, ‘नहीं, एक महीने के अंदर ही शादी होगी. नहीं तो यह शादी नहीं होगी?’

पापा तो हरगिज तैयार नहीं थे. उन को लगा दाल में कुछ काला है, पर मम्मी तो पीछे पड़ गईं, ‘लड़के वाले हैं, उन की बात तो माननी ही पड़ेगी. वे कह रहे हैं कि हम उसे पढ़ने के लिए नहीं रोकेंगे, फिर क्या बात है.’

मु झे भी लड़का पसंद तो आया था पर घरपरिवार से मैं संतुष्ट नहीं थी. मम्मी ने अपने पीहर वालों को भी इस बारे में बताया. मामाजी और नानीजी भी आ गए.

लड़का देख कर मामाजी ने कहा, ‘यह तो हीरा है. ऐसे लड़के को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए.’

पापा बोले, ‘देखिए, वे लोग कर्मकांडी लोग हैं. हमारी बिटिया आकांक्षा आधुनिक विचारों की है. कर्मकांड और अंधविश्वास उसे पसंद नहीं.’

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मम्मी बोलीं, ‘अरे लड़का नामी कालेज में पढ़ा हुआ है. अभी तो मांबाप के कहे पर है पर वह बाद में अंधविश्वास, कर्मकांड में विश्वास नहीं करेगा. आप भी तो गांव के थे, अब कैसे बदल गए?’

मेरे घर में सभी खुले विचारों के थे, ‘आप की बहन के घर में तो ऐसा ही वातावरण था. पर सब बच्चे पढ़लिख कर बड़ीबड़ी पोस्टों पर आ गए और सब बदल गए. राजीव भी बदल जाएगा.’

मामा और नानी के बहुत कहने के बाद पापा ने परेशान हो कर ‘हां’ कह दिया. पर उन्होंने कहा कि एक महीने में मैं तैयारी नहीं कर सकता?

‘अजी हम लोग हैं न. हम कर लेंगे.’

पापा को मजबूरी में मानना पड़ा. शादी की तारीख तय कर दी गई. तैयारियां शुरू हो गईं. मैं बात को ठीक से सम झ नहीं पाई, क्योंकि मैं तब सिर्फ 20 साल की थी. मु झे सोचनेसम झने का समय ही नहीं दिया गया.

एक दिन जब सगाई की अंगूठी के लिए हम बाजार गए तो वे लोग भी आए. जब मेरी बात राजीव से हुई तब मैं सम झ चुकी थी कि घर के सभी लोगों की सोच एकजैसी है और सब के सब अंधविश्वासी व रूढि़वादी हैं. तब तक पापा भी सम झ चुके थे.

वहां से वापस आ कर जब मैं ने शादी के लिए मना किया तो सारे रिश्तेदार, जो घर पर आ चुके थे, ने कहा, ‘इस में तो बचपना है. कार्ड छप चुका है, खानेपीने का ऐडवांस दे चुके हैं. अब कुछ नहीं हो सकता. हमारी बदनामी होगी. यह शादी तो करनी होगी.’

मेरे मन में तो आया कि मैं भाग जाऊं. पर पापा के बारे में सोच कर ऐसा न कर सकी.

2-3 दिनों बाद पता चला कि होने वाले ससुरजी का व्यवहार भी बड़ा अजीब है. पापा से कुछ बात हुई थी और तब वे खासा परेशान हुए थे.

घर के बुजुर्गों ने पापा को सम झा दिया, ‘शादी में ऐसी बातें होती रहती हैं, उस पर ध्यान मत दो.’

मेरा मन बहुत ही आहत हुआ. मैं तो रोने लगी.

‘तू हम से ज्यादा सम झती है क्या? समय आने पर सब ठीक हो जाएगा,’ मामानाना कहने लगे.

मम्मी को अपने पीहर वालों पर बहुत भरोसा था. उन्हें लगा कि वे कह रहे हैं तो सब ठीक ही हो जाएगा.

शादी हो गई. शादी भी लड़के वालों ने अपने घर से नहीं की, एक धर्मशाला से की.

पापा बोले, ‘इस में भी कोई राज है जो वे लोग कुछ छिपा रहे हैं. वरना अपनी बहू का गृहप्रवेश अपने घर में करते हैं, धर्मशाला में नहीं.’

‘आकांक्षा, तुम घूंघट करोगी,’ यह हिदायत पहले ही दिन मैं सुन चुकी थी.

जयपुर शहर की बात है. गलती से भी थोड़ा सिर दिखता, तो ससुरजी देवर से कहते, ‘जा पंकज,  भाभी का घूंघट खींच ले.’

मु झे बहुत बुरा लगता पर मैं खून के घूंट पी कर रह जाती.

एक दिन तो मु झ से रहा नहीं गया, ‘पापाजी, आप तो अंडरवियर पहन कर बहूबेटियों के सामने घूमते हो, मेरे सिर ने ऐसा क्या कर दिया, जो उसे ढंकने की जरूरत है?’

ससुरजी ने इसे अपनी इंसल्ट तो मानी पर मु झे घूंघट पर छूट नहीं दी.

फिर नागपंचमी आई. तब मु झ से पारंपरिक ड्रैस लहंगा पहना कर सिर में बोड़ला लगा कर घूंघट में जहां पर सांपों के बिल थे वहां जा कर पूजा करने और बिल में दूध डालने को कहा गया. इसे मु झे सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था.

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उसी समय इस तमाशे को देखने के लिए मेरे साथ पढ़ने वाली एक सहेली वहां आई. वहां सब औरतें कह रही थीं कि नई बहू है. बहुत सुंदर है. इंग्लिश स्कूल में पढ़ी हुई है. इंग्लिश में एमए कर रही है.

उस लड़की ने उत्सुकतावश मेरा घूंघट हटा कर मु झे देखा, तो हैरान रह गई, ‘अरे आकांक्षा, तेरी शादी कब हुई? तू ने हमें क्यों नहीं बुलाया? तू ने तो बताया भी नहीं? तुम तो कहती थीं  कि तुम्हारी फैमिली बहुत आधुनिक सोच वाली है और पापा दकियानूसी सोच वाले लोगों से शादी नहीं करेंगे? मगर तू यहां कैसे फंस गई? ये लोग तो बहुत ही अंधविश्वासी हैं?’

उस का इतना कहना था कि मेरा रोना फूट पड़ा. मैं ने उसे बड़ी मुश्किल से रोका. वह सहेली मेरे साथ ही मेरी ससुराल भी आ गई. जब उस ने घर की हालत देखी तो बोली, ‘आकांक्षा, तू तो सचमुच में फंस गई?’

उस का इतना कहना था कि मु झे बहुत तेज रोना आया. दूसरे दिन जब मैं अपने पीहर आई तो बुरी तरह रोई.

मम्मी कहने लगीं, ‘बेटी, सहन करो, थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने कहा, ‘मु झे छत पर जाने नहीं देते. सब लोग कपड़े छत पर सुखाते हैं और मु झ से कहते हैं कि अपने देवर को दे दो वह सुखा देगा. मम्मी बताओ अंडरगारमैंट्स अपने जवान देवर को कैसे दूं फैलाने के लिए?’’

मेरे सासससुर कहते हैं कि अब तेरा घर यही है. अब तू पीहर नहीं जाएगी. बहुत रह लिया पीहर में.

मेरी मम्मी सुन कर बहुत रोईं.

मेरे मम्मीपापा मु झे जान से भी ज्यादा चाहते थे. पापा तो मु झे आकांक्षा भी नहीं बुलाते आकांक्षाजी कहते थे. उन्होंने हमेशा मु झे प्रेम, प्यार और इज्जत से रखा.

जब मैं पीहर आती तो मेरे ससुरजी मेरे पर्स की तलाशी लेते और कहते कि हमारे घर से क्या ले जा रही हो? उन के घर में कुछ भी नहीं था जो मैं साथ ले जाती. और ले भी क्यों जाती क्योंकि पीहर में कोई कमी नहीं थी.

एक दिन तो मु झे बहुत तेज गुस्सा आया. जैसे ही उन्होंने कहा कि पर्स दो तो मैं ने कह दिया, ‘पापाजी, आप तो बहू से घूंघट करवाते हो. फिर आप कैसे बहू के पर्स को खोल कर देख सकते हो? हमें अपने पर्स में सैनिटरी पैड्स भी रखना पड़ता है… हम आप को दिखाएं?’

सास अनपढ़ थीं. उन को कुछ सम झ में नहीं आता. वह भी ससुर से उलटा चुगली करती थीं. ससुरजी हमेशा लड़ने को तैयार रहते थे.

इस बीच ऐसा हुआ कि मेरे दूर के मामाजी, जो जयपुर में ही रहते थे, मेरे ससुरजी उन के औफिस में पहुंच गए.

उन से बोले, ‘आप की भांजी देवरों के अंडरवियर नहीं धोती.’

मामाजी भौचक्के रह गए.

मामाजी ने सिर्फ इतना कहा, ‘साहब, छोटी बात को बड़ा मत कीजिए. अभी तो  वह 20 साल की ही है. घर में लाड़प्यार  से पलीबढ़ी बच्ची है. धीरेधीरे सब ठीक  हो जाएगा.’

शाम को मामाजी घर आए. उन्होंने पूछा, ‘बिटिया आकांक्षा कैसी है?’

‘बहुत बढि़या,’ मम्मी बोलीं.

पापा से पूछा. उन का भी यही जवाब था.

तब वे बोले, ‘मेरी तो कुछ सम झ में नहीं आ रहा. मैं तो जब आप से पूछता हूं कि आकांक्षा कैसी है, सब बढि़या कहते हो. आज आकांक्षा के ससुरजी मेरे औफिस आए. वे जो भी कह रहे थे, बहुत हास्यास्पद था. आप क्यों छिपा रहे हो?’

अब फटने की बारी पापा की थी, ‘मैं ने तो पहले ही कहा था ये लोग बेकार आदमी हैं. आप की बहन मानी नहीं और अपनी जिद पर अड़ी रही. आज मेरी लड़की तकलीफ में है. अब हम क्या कर सकते हैं?’

तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं: भाग 1

सरकारी नौकरियों में लंबे समय तक एकसाथ काम करते और सरकारी घरों में साथ रहते कुछ सहकर्मियों से पारिवारिक रिश्तों से भी ज्यादा गहरे रिश्ते बन जाते हैं, मगर रिटायरमैंट के बाद अपने शहरोंगांवों में वापसी व दूसरे कारणों के चलते मिलनाजुलना कम हो जाता है. फिर भी मिलने की इच्छा तो बनी ही रहती है. उस दिन जैसे ही मेरे एक ऐसे ही सहकर्मी मित्र का उन के पास जल्द पहुंचने का फोन आया तो मैं अपने को रोक नहीं सका.

मित्र स्टेशन पर ही मिल गए. मगर जब उन्होंने औटो वाले को अपना पता बताने की जगह एक गेस्टहाउस का पता बताया तो मैं ने आश्चर्य से उन की ओर देखा. वे मुझे इस विषय पर बात न करने का इशारा कर के दूसरी बातें करने लगे.

गेस्टहाउस पहुंच कर खाने वगैरह से फारिग होने के बाद वे बोले, ‘‘मेरे घर की जगह यहां गेस्टहाउस में रहने की कहानी जानने की तुम्हें उत्सुकता होगी. इस कहानी को सुनाने के लिए और इस का हल करने में तुम्हारी मदद व सुझाव के लिए ही तुम्हें बुलाया है, इसलिए तुम्हें तो यह बतानी ही है.’’ कुछ रुक कर उन्होंने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘मित्र, महिलाओं की तरह उन की बीमारियां भी रहस्यपूर्ण होती हैं. हर महिला के जीवन में उम्र के पड़ाव में मीनोपौज यानी प्राकृतिक अंदरूनी शारीरिक बदलाव होता है, जो डाक्टरों के अनुसार भी कोई बीमारी तो नहीं होती, मगर इस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव हर महिला पर अलगअलग तरह से होता है. कुछ महिलाएं इस में मनोरोगों से ग्रस्त हो जाती हैं.

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‘‘इसी कारण मेरी पत्नी भी मानसिक अवसाद की शिकार हो गई, तो मेरा जीवन कई कठिनाइयों से भर गया. घरपरिवार की देखभाल में तो उन की दिलचस्पी पहले ही कम थी, अब इस स्थिति में तो उन की देखभाल में मुझे और मेरी दोनों नवयुवा बेटियों को लगे रहना पड़ने लगा जिस का असर बेटियों की पढ़ाई और मेरे सर्विस कैरियर पर पड़ रहा था.

‘‘पत्नी की देखभाल के लिए विभाग में अपने अहम पद की जिम्मेदारी के तनाव से फ्री होने के लिए जब मैं ने विभागाध्यक्ष से मेरी पोस्ंिटग किसी बेहद सामान्य कार्यवाही वाली शाखा में करने की गुजारिश की, तो उन्होंने नियुक्ति ऐसे पद पर कर दी जो सरकारी सुविधाओं को भोगते हुए नाममात्र का काम करने के लिए सृजित की गई लगती थी.’’

‘‘काम के नाम पर यहां 4-6 माह में किसी खास मुकदमे के बारे में सरकार द्वारा कार्यवाही की प्रगति की जानकारी चाहने पर केस के संबंधित पैनल वकीलों से सूचना हासिल कर भिजवा देना होता था.

‘‘मगर मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. मेरे इस पद पर जौइन करने के 3 हफ्ते बाद ही उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार से विभिन्न न्यायालयों में सेवा से जुड़े 10 वर्ष से ज्यादा की अवधि से लंबित मामलों में कार्यवाही की जानकारी मांग ली. मैं ने सही स्थिति जानने के लिए वकीलों से मिलना शुरू किया. विभाग में ऐसे मामले बड़ी तादाद में थे, इसलिए वकील भी कई थे.

‘‘इसी सिलसिले में 3-4 दिनों में कई वकीलों से मिलने के बाद में एक महिला पैनल वकील के दफ्तर में पहुंचा. उन पर नजर डालते ही लगा कि उन्होंने अपने को एक वरिष्ठ और व्यस्त वकील दिखाने के लिए नीली किनारी की मामूली सफेद साड़ी पहन रखी है और बिना किसी साजसज्जा के गंभीरता का मुखौटा लगा रखा है. और 2-3 फाइलों के साथ कानून की कुछ मोटी किताबें सामने रख कर बैठी हुई हैं. मेरे आने का मकसद जानते ही उन्होंने एक वरिष्ठ वकील की तरह बड़े रोब से कहा, ‘देखिए, आप के विभाग के कितने केस किसकिस न्यायाधीश की बैंच में पैडिंग हैं और इस लंबे अरसे में उन में क्या कार्यवाही हुई है, इस की जानकारी आप के विभाग को होनी चाहिए. मैं वकील हूं, आप के विभाग की बाबू नहीं, जो सूचना तैयार कर के दूं.’

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‘‘इस प्रसंग में वकील साहिबा के साथ अपने पूर्व अधिकारियों के व्यवहार को जानते व समझते हुए भी मैं ने उन से पूरे सम्मान के साथ कहा, ‘वकील साहिबा, माफ करें, इन मुकदमों में सरकार आप को एक तय मानदेय दे कर आप की सेवाएं प्राप्त करती है, तो आप से उन में हुई कार्यवाही कर सूचना प्राप्त करने का हक भी रखती है. वैसे, हैडऔफिस का पत्र आप को मिल गया होगा. मामला माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मांगी गई सूचना का है. यह जिम्मेदारीभरा काम समय पर और व्यवस्था से हो जाए, इसलिए मैं आप लोगों से संपर्क कर रहा हूं, आगे आप की मरजी.’

‘‘मेरी बात सुन कर वकील साहिबा थोड़ी देर चुप रहीं, मानो कोई कानूनी नुस्खा सोच रही हों. फिर बड़े सधे लहजे में बोलीं, ‘देखिए, ज्यादातर केसेज को मेरे सीनियर सर ही देखते थे. उन का हाल  में बार कोटे से न्यायिक सेवा में चयन हो जाने से वे यहां है नहीं, इसलिए मैं फिलहाल आप की कोई मदद नहीं कर सकती.’

‘ठीक है मैडम, मैं चलता हूं और आप का यही जवाब राज्य सरकार को भिजवा दिया जाएगा.’ कह कर मैं चलने के लिए उठ खड़ा हुआ तो वकील साहिबा को कुछ डर सा लगा. सो, वे समझौते जैसे स्वर में बोलीं, ‘आप बैठिए तो, चलिए मैं आप से ही पूछती हूं कि यह काम 3 दिनों में कैसे किया जा सकता है?’

‘‘अब मेरी बारी थी, इसलिए मैं ने उन्हीं के लहजे में जवाब दिया, ‘देखिए, यह न तो मेरा औफिस है, न यहां मेरा स्टाफ काम करता है. ऐसे में मैं क्या कह सकता हूं.’ यह कह कर मैं वैसे ही खड़ा रहा तो अब तक वकील साहिबा शायद कुछ समझौता कर के हल निकालने जैसे मूड में आ गई थीं. वे बोलीं, ‘देखिए, सूचना सुप्रीम कोर्ट को भेजी जानी है, इसलिए सूचना ठोस व सही तो होनी ही चाहिए, और अपनी स्थिति मैं बता चुकी हूं, इसलिए आप कड़वाहट भूल कर कोई रास्ता बताइए.’

‘‘वकील साहिबा के यह कहने पर भी मैं पहले की तरह खड़ा ही रहा. तो वकील साहिबा कुछ ज्यादा सौफ्ट होते हुए बोलीं, ‘देखिए, कभीकभी बातचीत में अचानक कुछ कड़वाहट आ जाती है. आप उम्र में मेरे से बड़े हैं. मेरे फादर जैसे हैं, इसलिए आप ही कुछ रास्ता बताइए ना.’

‘‘देखिए, यह कोई इतना बड़ा काम नहीं है. आप अपने मुंशी से कहिए. वह हमारे विभाग के मामलों की सूची बना कर रिपोर्ट बना देगा.’

‘‘देखिए, आप मेरे फादर जैसे हैं, आप को अनुभव होगा कि मुंशी इस बेगार जैसे काम में कितनी दिलचस्पी लेगा, वैसे भी आजकल उस के भाव बढ़े हुए हैं. सीनियर सर के जाने के बाद कईर् वकील लोग उस को बुलावा भेज चुके हैं,’ कह कर उन्होंने मेरी ओर थोड़ी बेबसी से देखा. मुझे उन का दूसरी बार फादर जैसा कहना अखर चुका था. सो, मैं ने उन्हें टोकते हुए कहा, ‘मैडम वकील साहिबा, बेशक आप अभी युवा ही है और सुंदर भी हैं ही, मगर मेरी व आप की उम्र में 4-5 साल से ज्यादा फर्क नहीं होगा. आप व्यावसायिक व्यस्तता के कारण अपने ऊपर ठीक से ध्यान नहीं दे पाती हैं, नहीं तो आप…

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‘‘महिला का सब से कमजोर पक्ष उस को सुंदर कहा जाना होता है. इसलिए वे मेरी बात काट कर बोलीं, ‘आप कैसे कह रहे हैं कि मेरी व आप की उम्र में सिर्फ 4-5 साल का फर्क है और आप मुझे सुंदर कह कर यों ही क्यों चिढ़ा रहे हैं.’ उन्होंने एक मुसकान के साथ कहा तो मैं ने सहजता से जवाब दिया, ‘वकील साहिबा, मैं आप की तारीफ में ही सही, मगर झूठ क्यों बोलूंगा? और रही बात आप की उम्र की, तो धौलपुर कालेज में आप मेरी पत्नी से एक साल ही जूनियर थीं बीएससी में. उन्होंने आप को बाजार वगैरह में कई बार आमनासामना होने पर पहचान कर मुझे बतलाया था. मगर आप की तरफ से कोई उत्सुकता नहीं होने पर उन्होंने भी परिचय को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं की.’

‘‘अब तक वकील साहिबा अपने युवा और सुंदर होने का एहसास कराए जाने से काफी खुश हो चुकी थीं. इसलिए बोलीं, ‘अच्छा ठीक है, मगर अब आप बैठ तो जाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं, फिर आप ही कुछ बताएं,’ कह कर वे कुरसी के पीछे का दरवाजा खोल कर अंदर चली गईं.

‘‘थोड़ी देर में वे एक ट्रे में 2 कप चाय और नाश्ता ले कर लौटीं और बोलीं, ‘आप अकेले बोर हो रहे होंगे. मगर क्या करूं, मैं तो अकेली रहती हूं, अकेली जान के लिए कौन नौकरचाकर रखे.’ उन की बात सुन कर एकदफा तो लगा कि कह दूं कि सरकारी विभागों के सेवा संबंधी मुदकमों के सहारे वकालत में इतनी आमदनी भी नहीं होती? मगर जनवरी की रात को 9 बजे के समय और गरम चाय ने रोक दिया.

‘‘चाय पीने के बाद तय हुआ कि मैं अपने कार्यालय में संबंधित शाखा के बाबूजी को उन के मुंशी की मदद करने को कह दूंगा और दोनों मिल कर सूची बना लेंगे. फिर उन की फाइलों में अंतिम तारीख को हुई कार्यवाही की फोटोकौपी करवा कर वे सूचना भिजवा देंगी.

‘‘सूचना भिजवा दी गई और कुछ दिन गुजर गए मगर कोई काम नहीं होने की वजह से मैं उन से मिला नहीं. तब उस दिन दोपहर में औफिस में उन का फोन आया. फोन पर उन्होंने मुझे शाम को उन के औफिस में आ कर मिलने की अपील की.

‘‘शाम को मैं उन के औफिस में पहुंचा तो एकाएक तो मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया. आज तो वे 3-4 दिनों पहले की प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़ी वरिष्ठ गंभीर वकील लग ही नहीं रही थीं. उन्होंने शायद शाम को ही शैंपू किया होगा जिस से उन के बाल चमक रहे थे, हलका मेकअप किया हुआ था और एक बेहद सुंदर रंगीन साड़ी बड़ी नफासत से पहन रखी थी जिस का आंचल वे बारबार संवार लेती थीं.

‘‘मुझे देखते ही उन के मुंह पर मुसकान फैल गई तो पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गया, ‘क्या बात है मैडम, आज तो आप,’ मगर कहतेकहते मैं रुक गया तो वे बोलीं, ‘आप रुक क्यों गए, बोलिए, पूरी बात तो बोलिए.’ अब मैं ने पूरी बात बोलना जरूरी समझते हुए बोल दिया, ‘ऐसा लगता है कि आप या तो किसी समारोह में जाने के लिए तैयार हुई हैं, या कोई विशेष व्यक्ति आने वाला है.’ मेरी बात सुन कर उन के चेहरे पर एक मुसकान उभरी, फिर थोड़ा अटकती हुई सी बोलीं, ‘आप के दोनों अंदाजे गलत हैं, इसलिए आप अपनी बात पूरी करिए.’ तो मैं ने कहा, ‘आज आप और दिनों से अलग ही दिख रही हैं.’

‘‘और दिनों से अलग से क्या मतलब है आप का,’ उन्होंने कुछ शरारत जैसे अंदाज में कहा तो मैं ने भी कह दिया, ‘आज आप पहले दिन से ज्यादा सुंदर लग रही हैं.’

‘‘मेरी बात सुन कर वे नवयुवती की तरह मुसकान के साथ बोलीं, ‘आप यों ही झूठी तारीफ कर के मुझे चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं.’ तो मैं ने हिम्मत कर के बोल दिया, ‘मैं झूठ क्यों बोलूंगा? वैसे, यह काम तो वकीलों का होता है. पर हकीकत में आज आप एक गंभीर वकील नहीं, किसी कालेज की सुंदर युवा लैक्चरर लग रही हैं?’ यह सुन कर वे बेहद शरमा कर बोली थीं, ‘अच्छा, बहुत हो गई मेरी खूबसूरती की तारीफ, आप थोड़ी देर अकेले बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं. चाय पी कर कुछ केसेज के बारे में बात करेंगे.’

Social Story in Hindi: व्रत उपवास- भाग 3: नारायणी के व्रत से घर के सदस्य क्यों घबराते थे?

अभी करवाचौथ बीते 4 दिन भी नहीं हुए थे कि अष्टमी आ पहुंची. इसी- लिए नारायणी को छोड़ कर सब कांप रहे थे. और जैसे ही नारायणी ने चेतावनी दी कि कोई खटपट न करे तो शत्रु दल में भगदड़ मच गई. तनाव के कुछ तार बाकी थे, वे सब एकसाथ झनझना उठे. जैसे ही देवीलाल ने कहा कि खटपट वह शुरू कर रही है तो रोनापीटना शुरू हो गया.

एक दिन पहले ही नारायणी सब बच्चों से पूछ रही थी कि अष्टमी के दिन क्या बनाएं. बच्चों ने बड़े चाव से अपनी- अपनी पसंद बताई थी. काफी तैयारी भी हो चुकी थी. बच्चे बेसब्री से अष्टमी की प्रतीक्षा कर रहे थे. मन ही मन कह भी रहे थे कि चाहे कुछ भी हो वे मां को प्रसन्न रखेंगे.

पर ऐसा न पिछले कई वर्षों से हुआ था और न इस साल होने के आसार दिखाई दे रहे थे. नारायणी तो आंसू टपका कर बिस्तर पर जा गिरी और घर का भार आ पड़ा निर्मला के नन्हेनन्हे नाजुक कंधों पर. उस ने जैसेतैसे चाय बनाई, नाश्ता बनाया और सब को खिलाया. पर उस के गले से कुछ न उतरा.

देवीलाल ने गला खंखारते हुए पूछा, ‘‘बाजार से कुछ लाना है?’’

नारायणी चुप रही.

‘‘अरे, बाजार से कुछ लाना है?’’

नारायणी फिर भी चुप रही.

निर्मला ने मां के पास जा कर कंधा हिलाते हुए कहा, ‘‘अम्मां, बाबूजी बाजार जा रहे हैं, कुछ मंगाना है क्या?’’

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‘‘भाड़ में जाओ सब.’’

‘‘वह तो चले जाएंगे, पर अभी कुछ लाना हो तो बताओ,’’ देवीलाल ने कहा.

‘‘थोड़े मखाने ले आना. खरबूजे के बीज और एक नारियल. खोया मिले तो ले आना. जो सब्जी समझ में आए, ले लेना पर मटर लाना मत भूलना. आज आलूमटर की कचौडि़यां बनाऊंगी. सोनू का बड़ा मन था. मूंगदाल की पीठी ले आना, हलवा बनाना है. दहीबड़े खाने हों तो उड़द की दाल की पीठी और दही ले आना,’’ नारायणी एक सांस में बोल गई.

देवीलाल ने गहरी सांस भर कर कहा, ‘‘एकसाथ इतना सामान कैसे लाऊंगा?’’

‘‘सोनू को साथ ले जाओ.’’

‘‘चल बेटा, सोनू चल. बरतन और थैला उठा ले. पूछ ले अम्मां से घीतेल तो है न? कहीं ऐन मौके पर उस के लिए भी भागना पड़े.’’

‘‘अरे, अभी तो लाए थे करवाचौथ के दिन. सब का सब रखा है. खर्च ही कहां हुआ?’’

करवाचौथ के नाम से फिर एक बार दहशत छा गई. इस से पहले कि कुछ गड़बड़ हो, देवीलाल बाहर सड़क पर आ गए और सोनू की प्रतीक्षा करने लगे.

कुछ देर तक तो शांतिअशांति के उतारचढ़ाव में दिन निकला. पर जहां नारायणी जैसी धार्मिक तथा कट्टर व्रत वाली औरत हो, वहां तूफान न आए यह असंभव था. वह बारीबारी से देवीलाल और बच्चों को आड़े हाथों लेती रही. कभी इसे झिड़कती तो कभी उसे डांटती. देवीलाल को तो एक क्षण चैन नहीं लेने दिया.

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बोली, ‘‘मेरी मां तो सीधी थी, एकदम गऊ. आज उसी की शिक्षा है कि मैं भी इतनी सीधी हूं. मुंह से एक शब्द नहीं निकलता. दूसरी औरतों को देखो, कितनी तेजतर्रार हैं. सारे महल्ले का मुंह बंद कर देती हैं, बस, एक बार बोलना शुरू कर दें.’’

देवीलाल ने बच्चों की ओर देखा. वे मुसकराने का असफल प्रयत्न कर रहे थे. ठंडी सांस भर कर देवीलाल ने कहा, ‘‘सो तो है. तुम्हारे जैसी सीधी तो अंगरेजी कुत्ते की पूंछ भी नहीं होती.’’

नारायणी पहले तो समझी कि उस की प्रशंसा हो रही है, पर जब उस की समझ में आया तो चिढ़ कर बोली, ‘‘तुम मेरी मां की हंसी तो नहीं उड़ा रहे?’’

‘‘तुम्हारी मां तो गऊ थीं. कोई उन की हंसी उड़ाएगा. मैं तो बैल की सोच रहा था.’’

नारायणी ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘क्या कुछ मजाक कर रहे हो?’’

‘‘नहीं तो,’’ देवीलाल ने बात बदल कर कहा, ‘‘बेटी निर्मला, खाली हो तो एक प्याला चाय ही बना दे.’’

कुछ देर शांति रही, पर कब तक? फिर वही शाम और पूजा की तैयारी. फिर वही चांद की प्रतीक्षा. लो कल सप्तमी के दिन तो ऐसी फुरती से निकल आया कि पूछो मत और आज अष्टमी है तो ऐसा गायब जैसे गधे के सिर से सींग. सारा परिवार पागलों की तरह चांद की तलाश में ऊपरनीचे, अंदरबाहर घूम रहा था.

9 बज गए. पिछली बार की तरह फिर एक बार खतरे की घंटी बजी. पर वह चांद न था, केवल उस की परछाईं थी.

‘‘अरे, जा न,’’ नारायणी ने सोनू को डांटा, ‘‘जाता है कि नहीं.’’

‘‘अभी तो देख कर आ कर बैठा हूं,’’ सोनू ने झल्ला कर कहा, ‘‘अब नहीं जाता.’’

‘‘जा, गोलू, तू ही जा. यह तो मेरी जान ले कर छोड़ेगा. मरा, न जाने किस घड़ी में पैदा हुआ था,’’ नारायणी ने कोसा.

‘‘अम्मां, मैं नहीं जाता. मेरी टांगें तो टूट गई हैं ऊपरनीचे होते,’’ गोलू ने घुटने दबाते हुए कहा, ‘‘सोनू को कहो. यह बीच सीढ़ी से ही लौट आता है.’’

‘‘सत्यानास,’’ नारायणी एकदम आपा खो बैठी, ‘‘एक तो तुम्हारे लिए भूखप्यास से तड़प रही हूं और तुम लोगों से इतना सा भी नहीं होता.’’

‘‘छोड़ो, अम्मां,’’ सोनू ने हलके से कहा, ‘‘जा कर पिताजी की चांद देख लो. असली चांद से ज्यादा चमकती है.’’

नारायणी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मर जाओ एकएक कर के. मजाल है कि तुम्हारा मुंह भी देखूं.’’

देवीलाल ने कहा, ‘‘क्या कह रही हो, नारायणी? बच्चों के लिए व्रत रख रही हो और उन्हें ही कोस रही हो? ऐसा व्रत रखने का क्या लाभ है?’’

‘‘करम फूट गए जो ऐसी औलाद पैदा हुई. इस से तो बिना संतान ही भली थी,’’ नारायणी ने क्रोध में कहा. वह तनाव के अंतिम क्षणों में पहुंच गई थी.

इतने में ‘चांद निकल आया’ का शोर आने लगा. नारायणी ने फिर से अपनी गोटे वाली साड़ी को ठीक किया और सजीसजाई पूजा की थाली को ले कर छत की भीड़ में गुम हो गई. सोचती जा रही थी कि बाईं आंख फड़क रही है, कहीं फिर कुछ बदशगुनी न हो जाए.

जब खाना खाने बैठे तो किसी की इच्छा खाना खाने की न हुई. सब थोड़ा- बहुत खापी कर उठ गए. इस तरह मंगल कामना करते हुए बच्चों के लिए अष्टमी का व्रत पूरा हुआ.

दूसरे दिन पड़ोस वाली शीला ने पूछा, ‘‘अरे, नारायणी चाची, कल श्याम चाचा के यहां खाने पर क्यों नहीं आईं?’’

‘‘खाने पर,’’ नारायणी ने पूछा, ‘‘कैसा खाना था श्याम के यहां?’’

‘‘अरे, क्या तुम्हें निमंत्रण नहीं मिला? उन के बेटे की सगाई थी न.’’

‘‘पता नहीं,’’ नारायणी ने मुरझा कर कहा.

सहसा शीला को याद आया, ‘‘पर वैसे भी तुम कहां आतीं. कल तो तुम ने अहोई अष्टमी का व्रत रखा होगा. सच, बड़ा कठिन है. मैं तो एक बार भी व्रत नहीं रख पाई. मुझे तो चक्कर आने लगते हैं.’’

नारायणी ने कहा, ‘‘अगर निमंत्रण आया होता तो मैं अवश्य आती.’’

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‘‘क्यों, क्या व्रत नहीं रखतीं?’’

‘‘व्रत?’’ नारायणी ने क्रोध में कहा, ‘‘ऐसे नासपीटे बच्चों के लिए व्रत रखना तो महान अपराध है.’’

शीला अवाक् हो कर नारायणी का मुंह देख रही थी. उस ने कभी उसे इतना उत्तेजित नहीं देखा था.

सहज हो कर नारायणी ने पूछा, ‘‘क्याक्या बना था दावत में?’’

दिल वर्सेस दौलत: भाग 1

लेखिका- रेणु गुप्ता

‘‘किस का फोन था, पापा?’’

‘‘लाली की मम्मी का. उन्होंने कहा कि किसी वजह से तेरा और लाली का रिश्ता नहीं हो पाएगा.’’

‘‘रिश्ता नहीं हो पाएगा? यह क्या मजाक है? मैं और लाली अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. नहीं, नहीं, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी. लाली मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती है? आप ने ठीक से तो सुना था, पापा?’’

‘‘अरे भाई, मैं गलत क्यों बोलने लगा. लाली की मां ने साफसाफ मु झ से कहा, ‘‘आप अपने बेटे के लिए कोई और लड़की ढूंढ़ लें. हम अबीर से लाली की शादी नहीं करा पाएंगे.’’

पापा की ये बातें सुन अबीर का कलेजा छलनी हो आया. उस का हृदय खून के आंसू रो रहा था. उफ, कितने सपने देखे थे उस ने लाली और अपने रिश्ते को ले कर. कुछ नहीं बचा, एक ही  झटके में सब खत्म हो गया, भरे हृदय के साथ लंबी सांस लेते हुए उस ने यह सोचा.

हृदय में चल रहा भीषण  झं झावात आंखों में आंसू बन उमड़नेघुमड़ने लगा. उस ने अपना लैपटौप खोल लिया कि शायद व्यस्तता उस के इस दर्द का इलाज बन जाए लेकिन लैपटौप की स्क्रीन पर चमक रहे शब्द भी उस की आंखों में घिर आए खारे समंदर में गड्डमड्ड हो आए.  झट से उस ने लैपटौप बंद कर दिया और खुद पलंग पर ढह गया.

लाली उस के कुंआरे मनआंगन में पहले प्यार की प्रथम मधुर अनुभूति बन कर उतरी थी. 30 साल के अपने जीवन में उसे याद नहीं कि किसी लड़की ने उस के हृदय के तारों को इतनी शिद्दत से छुआ हो. लाली उस के जीवन में मात्र 5-6 माह के लिए ही तो आई थी, लेकिन इन चंद महीनों की अवधि में ही उस के संपूर्ण वजूद पर वह अपना कब्जा कर बैठी थी, इस हद तक कि उस के भावुक, संवेदनशील मन ने अपने भावी जीवन के कोरे कैनवास को आद्योपांत उस से सा झा कर लिया. मन ही मन उस ने उसे अपने आगत जीवन के हर क्षण में शामिल कर लिया. लेकिन शायद होनी को यह मंजूर नहीं था. लाली के बारे में सोचतेसोचते कब वह उस के साथ बिताए सुखद दिनों की भूलभुलैया में अटकनेभटकने लगा, उसे तनिक भी एहसास नहीं हुआ.

शुरू से वह एक बेहद पढ़ाकू किस्म का लड़का था जिस की जिंदगी किताबों से शुरू होती और किताबों पर ही खत्म. उस की मां लेखिका थीं. उन की कहानियां विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में छपती रहतीं. पिता को भी पढ़नेलिखने का बेहद शौक था. वे एक सरकारी प्रतिष्ठान में वरिष्ठ वैज्ञानिक थे. घर में हर कदम पर किताबें दिखतीं. पुस्तक प्रेम उसे नैसर्गिक विरासत के रूप में मिला. यह शौक उम्र के बढ़तेबढ़ते परवान चढ़ता गया. किशोरावस्था की उम्र में कदम रखतेरखते जब आम किशोर हार्मोंस के प्रभाव में लड़कियों की ओर आकर्षित होते हैं,  उन्हें उन से बातें करना, चैट करना, दोस्ती करना पसंद आता है, तब वह किताबों की मदमाती दुनिया में डूबा रहता.

बचपन से वह बेहद कुशाग्र था. हर कक्षा में प्रथम आता और यह सिलसिला उस की शिक्षा खत्म होने तक कायम रहा. पीएचडी पूरी करने के बाद एक वर्ष उस ने एक प्राइवेट कालेज में नौकरी की. तभी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर्स की भरती हुई और उस के विलक्षण अकादमिक रिकौर्ड के चलते उसे वहीं लैक्चरर के पद पर नियुक्ति मिल गई. नौकरी लगने के साथसाथ घर में उस के रिश्ते की बात चलने लगी.

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वह अपने मातापिता की इकलौती संतान था. सो, मां ने उस से उस की ड्रीमगर्ल के बारे में पूछताछ की. जवाब में उस ने जो कहा वह बेहद चौंकाने वाला था.

मां, मु झे कोई प्रोफैशनल लड़की नहीं चाहिए. बस, सीधीसादी, अच्छी पढ़ीलिखी और सम झदार नौनवर्किंग लड़की चाहिए, जिस का मानसिक स्तर मु झ से मिले. जो जिंदगी का एकएक लमहा मेरे साथ शेयर कर सके. शाम को घर आऊं तो उस से बातें कर मेरी थकान दूर हो सके.

मां उस की चाहत के अनुरूप उस के सपनों की शहजादी की तलाश में कमर कस कर जुट गई. शीघ्र ही किसी जानपहचान वाले के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गई.

उस का नाम था लाली. मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की हुई थी. संदली रंग और बेहद आकर्षक, कंटीले नैननक्श थे उस के. फूलों से लदीफंदी डौलनुमा थी वह. उस की मोहक शख्सियत हर किसी को पहली नजर में भा गई.

उस के मातापिता दोनों शहर के बेहद नामी डाक्टर थे. पूरी जिंदगी अपने काम के चलते बेहद व्यस्त रहे. इकलौती बेटी लाली पर भी पूरा ध्यान नहीं दे पाए. लाली नानी, दादी और आयाओं के भरोसे पलीबढ़ी. ताजिंदगी मातापिता के सान्निध्य के लिए तरसती रही. मां को ताउम्र व्यस्त देखा तो खुद एक गृहिणी के तौर पर पति के साथ अपनी जिंदगी का एकएक लमहा भरपूर एंजौय करना चाहती थी.

विवाह योग्य उम्र होने पर उस के मातापिता उस की इच्छानुसार ऐसे लड़के की तलाश कर रहे थे जो उन की बेटी को अपना पूरापूरा समय दे सके, कंपेनियनशिप दे सके. तभी उन के समक्ष अबीर का प्रस्ताव आया. उसे एक उच्चशिक्षित पर घरेलू लड़की की ख्वाहिश थी. आजकल अधिकतर लड़के वर्किंग गर्ल को प्राथमिकता देने लगे थे. अबीर जैसे नौनवर्किंग गर्ल की चाहत रखने वाले लड़कों की कमी थी. सो, अपने और अबीर के मातापिता के आर्थिक स्तर में बहुत अंतर होने के बावजूद उन्होंने अबीर के साथ लाली के रिश्ते की बात छेड़ दी.

संयोगवश उन्हीं दिनों अबीर के मातापिता और दादी एक घनिष्ठ पारिवारिक मित्र की बेटी के विवाह में शामिल होने लाली के शहर पहुंचे. सो, अबीर और उस के घर वाले एक बार लाली के घर भी हो आए. लाली अबीर और उस के परिवार को बेहद पसंद आई. लाली और उस के परिवार वालों को भी अबीर अच्छा लगा.

दोनों के रिश्ते की बात आगे बढ़ी. अबीर और लाली फोन पर बातचीत करने लगे. फिर कुछ दिन चैटिंग की. अबीर एक बेहद सम झदार, मैच्योर और संवेदनशील लड़का था. लाली को बेहद पसंद आया. दोनों में घनिष्ठता बढ़ी. दोनों को एकदूसरे से बातें करना बेहद अच्छा लगता. फोन पर रात को दोनों घंटों बतियाते. एकदूसरे को अपने अनुकूल पा कर दोनों कभीकभार वीकैंड पर मिलने भी लगे. एकदूसरे को विवाह से पहले अच्छी तरह जाननेसम झने के उद्देश्य से अबीर  शुक्रवार की शाम फ्लाइट से उस के शहर पहुंच जाता. दोनों शहर के टूरिस्ट स्पौट्स की सैर करतेकराते वीकैंड साथसाथ मनाने लगे. एकदूसरे को गिफ्ट्स का आदानप्रदान भी करने लगे.

दिन बीतने के साथ दोनों के मन में एकदूसरे के लिए चाहत का बिरवा फूट चुका था. सो, दोनों की तरफ से ग्रीन सिगनल पा कर लाली के मातापिता अबीर का घरबार देखने व उन के रोके की तारीख तय करने अबीर के घर पहुंचे. अबीर का घर, रहनसहन, जीवनशैली देख कर मानो आसमान से गिरे वे.

अबीर का घर, जीवनस्तर उस के पिता की सरकारी नौकरी के अनुरूप था. लाली के रईस और अतिसंपन्न मातापिता की अमीरी की बू मारते रहनसहन से कहीं बहुत कमतर था. उन के 2 बैडरूम के फ्लैट में ससुराल आने पर उन की बेटी शादी के बाद कहां रहेगी, वे दोनों इस सोच में पड़ गए. एक बैडरूम अबीर के मातापिता का था, दूसरा बैडरूम उस की दादी का था.

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अबीर की दादी की घरभर में तूती बोलती. वे काफी दबंग व्यक्तित्व की थीं. बेटाबहू उन को बेहद मान देते. उन की तुलना में अबीर की मां का व्यक्तित्व उन्हें तनिक दबा हुआ प्रतीत हुआ.

अबीर के घर सुबह से शाम तक एक पूरा दिन बिता कर उन्होंने पाया कि उन के घर में दादी की मरजी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. उन की सीमित आय वाले घर में उन्हें बातबात पर अबीर के मातापिता के मितव्ययी रवैए का परिचय मिला.

अगले दिन लाली के मातापिता ने बेटी को सामने बैठा उस से अबीर के रिश्ते को ले कर अपने खयालात शेयर किए.

लाली के पिता ने लाली से कहा, ‘सब से पहले तो तुम मु झे यह बताओ, अबीर के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’

‘पापा, वह एक सीधासादा, बेहद सैंटीमैंटल और सुल झा हुआ लड़का लगा मु झे. यह निश्चित मानिए, वह कभी दुख नहीं देगा मु झे. मेरी हर बात मानता है. बेहद केयरिंग है. दादागीरी, ईगो, गुस्से जैसी कोई नैगेटिव बात मु झे उस में नजर नहीं आई. मु झे यकीन है, उस के साथ हंसीखुशी जिंदगी बीत जाएगी. सो, मु झे इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं.’

तभी लाली की मां बोल पड़ीं, ‘लेकिन, मु झे औब्जेक्शन है.’

‘यह क्या कह रही हैं मम्मा? हम दोनों अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. अब मैं इस रिश्ते से अपने कदम वापस नहीं खींच सकती. आखिर बात क्या है? आप ने ही तो कहा था, मु झे अपना लाइफपार्टनर चुनने की पूरीपूरी आजादी होगी. फिर, अब आप यह क्या कह रही हैं?’

‘लाली, मैं तुम्हारी मां हूं. तुम्हारा भला ही सोचूंगी. मेरे खयाल से तुम्हें यह शादी कतई नहीं करनी चाहिए.’

‘मौम, सीधेसीधे मुद्दे पर आएं, पहेलियां न बु झाएं.’

‘तो सुनो, एक तो उन का स्टेटस, स्टैंडर्ड हम से बहुत कमतर है. पैसे की बहुत खींचातानी लगी मु झे उन के घर में. क्यों जी, आप ने देखा नहीं, शाम को दादी ने अबीर से कहा, एसी बंद कर दे. सुबह से चल रहा है. आज तो सुबह से मीटर भाग रहा होगा. तौबा उन के यहां तो एसी चलाने पर भी रोकटोक है.

‘फिर दूसरी बात, मु झे अबीर की दादी बहुत डौमिनेटिंग लगीं. बातबात पर अपनी बहू पर रोब जमा रही थीं. अबीर की मां बेचारी चुपचाप मुंह सीए हुए उन के हुक्म की तामील में जुटी हुई थी. दादी मेरे सामने ही बहू से फुसफुसाने लगी थीं, बहू मीठे में गाजर का हलवा ही बना लेती. नाहक इतनी महंगी दुकान से इतना महंगी मूंग की दाल का हलवा और काजू की बर्फी मंगवाई. शायद कल हमारे सामने हमें इंप्रैस करने के लिए ही इतनी वैराइटी का खानापीना परोसा था. मु झे नहीं लगता यह उन का असली चेहरा है.’

‘अरे मां, आप भी न, राई का पहाड़ बना देती हैं. ऐसा कुछ नहीं है. खातेपीते लोग हैं. अबीर के पापा ऐसे कोई गएगुजरे भी नहीं. क्लास वन सरकारी अफसर हैं. हां, हम जैसे पैसेवाले नहीं हैं. इस से क्या फर्क पड़ता है?’

Social Story in Hindi: डुप्लीकेट- भाग 2: आखिर क्यों दुखी था मनोहर

नीलू भी मजबूर हो गई थी. उस का सब से पहला यौन शोषण मामा ने किया. स्क्रीन टैस्ट के नाम पर कई बार यौन शोषण हुआ, पर उसे किसी फिल्म में काम नहीं मिला.

शूटिंग देखतेदेखते नीलू की दोस्ती निशा से हो गई थी. निशा फिल्मों में डुप्लीकेट का काम करती थी. कभीकभी छोटामोटा रोल भी उसे मिल जाता था.

एक दिन एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. निशा के डुप्लीकेट के रूप में कुछ शौट फिल्माए जाने थे. अचानक निशा की तबीयत खराब हो गई तो उस ने अपना काम नीलू को दिला दिया.

इतने साल हो गए हैं डुप्लीकेट का रोल करतेकरते, पर किसी फिल्म में कोई ढंग का रोल नहीं मिला.

इस के बाद मनोहर व नीलू का मिलनाजुलना बढ़ता रहा. एक दिन वह आया जब उस ने नीलू से शादी कर ली.

शादी के बाद उस ने नीलू को किसी भी फिल्म में डुप्लीकेट का काम करने को बिलकुल मना कर दिया था.

2 साल बाद उन के घर में एक नन्हामुन्ना मेहमान आ गया. बेटे का नाम कमल रखा गया.

एक दिन नीलू ने उस से कहा, ‘मैं तो चाहती हूं कि तुम भी डुप्लीकेट का काम छोड़ दो. जब तुम शूटिंग पर चले जाते हो, मुझे बहुत डर लगता है. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम दोनों का क्या होगा?’

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‘हां नीलू, तुम ठीक कहती हो. मैं भी यही सोच रहा हूं. मेरा मन भी इस काम से ऊब चुका है. इस काम में इज्जत तो बिलकुल है ही नहीं. कभीकभी तो अपनेआप से ही नफरत होने लगती है.

क्या हम बेइज्जती के ही हकदार हैं, शाबाशी के नहीं?

‘जब कोई मामूली सा डायरैक्टर भी सब के सामने डांट देता है तब लगता है कि क्या हम इतने गिरे हुए हैं जो हमारी इस तरह बेइज्जती कर दी जाती है? क्या हम बेइज्जती के ही हकदार हैं, शाबाशी के नहीं?

‘अब तो यहां मुंबई में रहते हुए मेरा मन ऊब गया है,’ नीलू ने कहा था.

‘तुम ठीक कहती हो. हम जल्द ही यहां से चले जाएंगे किसी छोटे से शहर में या किसी पहाड़ी इलाके में. वहीं पर मैं कोई छोटामोटा काम कर लूंगा. हम अपने बेटे कमल को इस फिल्मी दुनिया से दूर ही रखेंगे.’

नीलू ने मुसकराते हुए उस की ओर देखा था.

एक दिन मनोहर की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई. इलाज शुरू हुआ. कई डाक्टरों को दिखाया गया, पर बीमारी कम नहीं हो रही थी. जो भी पास में पैसा था, बीमारी की भेंट चढ़ गया.

एक स्पैशलिस्ट डाक्टर को दिखाया गया तो उस ने कुछ जरूरी जांच, दवा, इंजैक्शन वगैरह लिख दिए थे.

मनोहर बिस्तर पर लेटा हुआ कुछ सोच रहा था. उस की आंखों से पता नहीं कब आंसू बह निकले.

नीलू ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘आप अपना मन दुखी न करो. डाक्टर ने कहा है कि तुम ठीक हो जाओगे.’

‘नीलू, इतने रुपए कहां से आएंगे? तुम रहने दो, जो होगा वह हो जाएगा.’

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‘तुम किसी भी तरह की चिंता मत करो. मैं प्रकाश स्टूडियो जाऊंगी. वहां फिल्म ‘अपना कौन’ की शूटिंग चल रही है. डायरैक्टर प्रशांत राय तुम्हें और मुझे जानता है.’

‘नहीं नीलू, तुम्हें चौथा महीना चल रहा है. तुम दोबारा पेट से हो. ऐसे में तुम्हें मैं कहीं नहीं जाने दूंगा.’

मनोहर  ने मन ही मन यह फैसला किया…

‘तुम्हारी यह नीलू कोई गलत काम कर के पैसे नहीं लाएगी. मुझे जाने दो,’ कह कर नीलू चली गई थी.

मनोहर चुपचाप लेटा रहा. उस ने मन ही मन यह फैसला कर लिया था कि बीमारी ठीक होते ही वह नीलू व बेटे कमल के साथ यहां से चला जाएगा. उसे नींद आने लगी थी.

रात के 3 बज रहे थे. दरवाजे पर खटखटाहट हुई तो उस ने उठ कर दरवाजा खोल दिया. सामने खड़े विजय को देख कर मनोहर बुरी तरह चौंका.

विजय एकदम बोल उठा, ‘मनोहर, जल्दी अस्पताल चलना है. भाभी बहुत सीरियस हैं.’

मनोहर ने घबराई आवाज में पूछा, ‘क्या हुआ नीलू को?’

‘प्रकाश स्टूडियो में ‘अपना कौन’ की शूटिंग चल रही थी. नीलू भाभी ने तुम्हारी बीमारी की बता कर डायरैक्टर प्रशांत राय से काम मांगा. डायरैक्टर ने डुप्लीकेट का काम दे दिया. हीरोइन को सीढि़यों से लुढ़क कर नीचे फर्श पर गिरना था.

‘यही सीन नीलू भाभी पर फिल्माया गया. वे फर्श पर गिरीं तो फिर उठ न सकीं. बेहोश हो गईं. शायद वे पेट से थीं,’ विजय ने बताया था.

यह सुन कर मनोहर सन्न रह गया था. विजय ने एक टैक्सी की और उसे व कमल को साथ ले कर चल दिया.

विजय ने रास्ते में बताया था, ‘जब नीलू भाभी बेहोश हो गईं तो डायरैक्टर प्रशांत राय ने कहा था कि आजकल किसी के साथ हमदर्दी करना भी ठीक नहीं. इस ने हम को बताया नहीं था अपनी प्रैगनैंसी के बारे में. यह सीरियस है. इसे अभी अस्पताल ले जाओ और इस के घर पर खबर कर दो,’ कहते हुए डायरैक्टर ने मुझे कुछ रुपए भी दिए थे.

मनोहर के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था.

अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि नीलू आपरेशन थिएटर में है. कुछ देर बाद लेडी डाक्टर ने बाहर आ कर कहा था, ‘सौरी, ज्यादा खून बह जाने के चलते नीलू को नहीं बचाया जा सका. उसे इस हालत में यह काम नहीं करना चाहिए था.’

मनोहर चुपचाप सुनता रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था.

नीलू ने तो उस से यह डुप्लीकेट का काम न करने का वादा ले लिया था, पर यही काम नीलू को हमेशा के लिए उस से बहुत दूर ले गया था.

फिर उस की जिंदगी में आई निशा. वह निशा को भी कई सालों से जानता था. निशा नीलू की सहेली थी. निशा पड़ोस में ही रहती थी. उसे भी नीलू के इस तरह मरने का बहुत दुख था.

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