बलात्कारी की हार: भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘सिंगल…’’ मकान के अधेड़ मालिक ने प्रीति के पेट पर उड़ती नजर डाल कर कहा और कुछ सोचते हुए अंदर चला गया. थोड़ी देर बाद वह आया और बोला, ‘‘जी बात कुछ ऐसी है कि अभी हमारा कमरा खाली नहीं है और हम उसे किराए पर देने वाले भी नहीं हैं. अजी, हमारे भी बच्चे हैं, आप जैसी लड़कियों को देख कर उन पर गलत असर पड़ेगा,’’ मकान मालिक कहता जा रहा था.

यह सब सुनने से पहले वह बहरी क्यों नहीं हो गई थी. प्रीति उस के मकान से बाहर निकल आई थी.

यह किन लोगों के बीच रही है वह, क्या इन लोगों के मन में कोई संवेदना बाकी नहीं रह गई है या ये सिर्फ स्त्री जाति का मजाक बनाना जानते हैं, परेशान हो उठी थी प्रीति.

पर अजनबी शहर में रात गुजारने के लिए उसे कोई छत तो चाहिए ही थी. सो, उस ने हार कर एक होटल की शरण ली.

नई जगह, नए लोग और मानसिक प्रताड़ना से गुजरते हुए प्रीति से बैंक के कामों में भी गलतियां होने लगीं. उसे परेशान देख उस की एक सहकर्मी ने उस की परेशानी का कारण पूछा.

‘‘वो… अरे कुछ नहीं मालती, वो… जरा मकान नहीं मिल पा रहा है. फिलहाल एक होटल में रह रही हूं. होटल काफी महंगा तो पड़ता है ही, साथ ही साथ एक अलग माहौल भी रहता है होटलों का,’’ प्रीति ने बात बनाई.

‘‘अरे बस, इतनी सी बात. चल मेरे एक जानने वाले का यहीं पास में मकान है, मैं आज ही शाम को तेरी बात और मुलाकात करा देती हूं,’’ मालती ने कहा.

मालती की बातों ने प्रीति के लिए मलहम का काम किया और वे दोनों शाम को औफिस के बाद औटो कर के मालती के जानपहचान वाले के यहां चल दीं.

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‘‘प्रीति, तू बुरा न मान तो एक बात पूंछू?’’ औटो में बैठते हुए मालती ने कहा.

‘‘हां, हां, पूछ न,’’ प्रीति बोली.

‘‘तू ने आज अपने परिचय में बताया था कि तू अविवाहित है. पर यह तेरा उभरा हुआ पेट तो कुछ और ही कह रहा है,’’ मालती ने पूछा.

‘‘हां, वह किसी के धोखे की निशानी है,’’ प्रीति ने खिन्न हो कर उत्तर दिया.

‘‘ओह… सम?ा, पर तब तू इस को गिरा क्यों नहीं देती. सारा किस्सा ही खत्म हो जाएगा,’’ मालती ने अपनी राय बताई.

‘‘क्यों… क्यों खत्म करूं मैं अपने इस बच्चे को? आखिर इस का क्या कुसूर है जो मैं इसे दुनिया में आने से पहले ही खत्म कर दूं? मैं ने कोई पाप तो नहीं किया, प्रेम किया था. पर अफसोस वह शख्स ही मेरे प्रेम के लायक नहीं था,’’ कराह उठी थी प्रीति.

अभी दोनों के बीच बातें आगे बढ़तीं, इस से पहले ही वह मकान आ गया जहां मालती को प्रीति को ले जाना था.

वह एक गंजा अधेड़ था, जिस के कंधे चौड़े थे और जिस तरह से चाटुकार उस के चारों ओर थे, उस से वह किसी पार्टी का नेता लग रहा था.

ददाजी से मिलने के बाद तो प्रीति ने काफी हलका महसूस किया और अगले ही दिन सामान ले कर ददाजी के घर पहुंच गई और अपना सामान भी सैट कर लिया.

दरवाजे पर खटखट की आवाज सुन कर प्रीति ने दरवाजा खोला तो देखा कि एक चंदनधारी सफेद साड़ी पहने एक स्त्री खड़ी थी, शायद वे ददाजी की मां थीं.

आदरवश प्रीति ने उन के पैर छुए और उन्हें अंदर आने को कहा, पर वे दरवाजे पर ही खड़ी रहीं और वहीं से उन्होंने एक सवाल दागा.

‘‘ब्याह हो गयो तेरो के नहीं?’’

‘‘अ… अभी नहीं,’’ प्रीति किसी आशंका से ग्रसित हो गई.

‘‘घोर कलजुग आ गयो है, खैर, हमें का करने, ‘‘कहती हुई वे बूढ़ी माता नीचे चली गईं.

आंसुओं में टूट चुकी थी प्रीति, निराश मन ने कई बार आत्महत्या के लिए उकसाया पर हर बार मन को यही सम?ाती रही कि वह सही रास्ते पर चल रही है और उसे कायरतापूर्ण कार्य करने की जरूरत नहीं है.

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रात में फिर से प्रीति के दरवाजे पर दस्तक हुई. अंदर तक सहम गई थी वह. भला इस समय कौन आ सकता है?

‘‘अरे प्रीति, जरा दरवाजा तो खोलो. अरे हमें भी तो इस ताजमहल का दीदार कर लेने दो भई.’’ यह आवाज ददाजी की थी जो शराब के नशे में प्रीति के कमरे के बाहर खड़ा दरवाजा पीट रहा था, ‘‘अरे खोल भी दो प्रीति, तुम तो बिन ब्याहे मां बन सकती हो तो मु?ा में कौन से कांटे लगे हैं? खोल दो प्रीति,’’ ददाजी नशे में चूर थे. नशे की अधिकता के कारण वहीं दरवाजे पर ही बेहोश हो गए थे दादाजी. प्रीति रातभर अपने कंबल को लपेट कर टौयलेट में बैठी रही. जब सुबह पेपर वाले ने पेपर की आवाज लगाई तब जा कर उस की जान में जान आई.

उस ने फौरन अपना सामान फिर से पैक किया और दबे पैर ही उस ने ददाजी का घर छोड़ दिया और फिर से दूसरे होटल में जा कर रहने लगी और उस दिन के कड़वे अनुभव के बाद उस ने मालती से भी दूरी बना ली.

प्रीति ने अमित के खिलाफ जो केस दायर कर रखा था उस की तारीख जब भी आती, प्रीति को छुट्टी लेगा कर आगरा जाना पड़ता. कभीकभी तो अमित पेशी पर पहुंचता ही नहीं, जिस के कारण प्रीति का पूरा दिन और पैसा बरबाद हो जाता.

अभी प्रीति को लखनऊ में आए कुछ ही दिन हुए थे कि उस का तबादला फिर से करा दिया गया. प्रीति को यह सम?ाते हुए देर न लगी कि इस में अमित का ही हाथ है.

लगातार हो रहे अपने तबादलों के कारण प्रीति ने सरकारी नौकरी से मजबूरी में त्यागपत्र दे दिया.

त्यागपत्र देने के बाद जीविका का प्रश्न प्रीति के सामने मुंह फाड़े खड़ा था. सोशल मीडिया पर ‘मी टू’ नामक आंदोलन से कुछ एनजीओ चलाने वाली महिलाओं से प्रीति का संपर्क बन गया था. संकट में होने पर प्रीति ने उन्हीं महिलाओं का सहारा लिया और बनारस के एक एनजीओ से जुड़ गई, जो विधवाओं, परित्यक्ताओं और बलात्कार पीडि़तों के लिए काम करती थी. इस काम में उसे साहस और आत्मिक संतोष दोनों मिलने लगा था. यहां उस से कोई सवाल नहीं किया गया और उसे यही लगा कि दुनिया में उस से भी ज्यादा दुखी लोग हैं और उन पहाड़ जैसे दुखों के आगे उस का दुख कुछ भी नहीं है.

पूरी दुनिया में अकेली थी प्रीति. दुनिया से भर कर उस के मांबाप ने उसे त्याग दिया था. प्रेमी ने धोखा दिया, जहां भी गई उसे तिरस्कार ही मिला, फिर भी कुछ ऐसा था जो उसे जीने पर मजबूर किए हुए था और वह था गर्भ में पल रहा उस का बच्चा. जमाने से लड़ते हुए, नदिया की धारा के खिलाफ चलते हुए वह दिन भी आ गया जब प्रीति ने एक सुंदर सी बच्ची को जन्म दिया.

प्रीति के साथ जबरन बलात्कार तो नहीं हुआ पर उस को धोखा दे कर जो संबंध बनाया गया वह भी एक प्रकार से बलात्कार ही था. प्रीति साहसी थी, उस ने अदालत में अपील की कि उस के गर्भ में पल रहे बच्चे और अमित का डीएनए टैस्ट कराया जाए और अमित बाकायदा उसे हर्जाना दे और अपनी जायदाद में उस के बच्चे का भी हिस्सा हो.

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प्रीति, हमारे समाज में भी ऐसी औरतें बड़ी आसानी से मिल जाती हैं, जिन की मजबूरी का फायदा उठाया जाता है.

जरूरी नहीं कि बलात्कारी कुछ अलग सी दिखने वाली शक्ल का हो, वह तो समाज में किसी भी शक्ल में हो सकता है- आसपास, घर में, औफिस में.

‘‘बच्चे के माता और पिता का नाम बताइए,’’ नर्स ने फौर्म भरते हुए पूछा.

‘‘जी, दोनों ही कौलम में आप प्रीति ही भरिए. मैं ही इस की मां और मैं ही इस का पिता हूं,’’ प्रीति के चेहरे पर जीत की आभा थी.

सिंदूरी मूर्ति- भाग 3: जब राघव-रम्या के प्यार के बीच आया जाति का बंधन

रम्या को औफिस आ कर ही पता चला कि आज की लंच पार्टी रम्या की स्वागतपार्टी और राघव की विदाई पार्टी है. दोनों ही सोच में डूबे हुए अपनेअपने कंप्यूटर की स्क्रीन से जूझने लगे.

राघव सोच रहा था कि रम्या की जिंदगी के इस दिन का उसे कितना इंतजार था कि स्वस्थ हो दोबारा औफिस जौइन कर ले. मगर वही दिन उसे रम्या की जिंदगी से दूर भी ले कर जा रहा था.

रम्या सोच रही थी कि जब मैं अस्पताल में थी तो राघव नियम से मुझ से मिलने आता था और कितनी बातें करता था. शुरूशुरू में तो मां को उसी पर शक हो गया था कि यह रोज क्यों आता है? कहीं इसी ने तो हमला नहीं करवाया और अब हीरो बन सेवा करने आता है? और अप्पा को तो मामा पर शक हो गया था, क्योंकि मैं ने मामा से शादी करने को मना कर दिया था और छोेटा मामा तो वैसे भी निकम्मा और बुरी संगत का था. अप्पा को लगा मामा ने ही मुझ से नाराज हो कर हमला करवाया है. जब राघव को मैं ने मामा की शादी के प्रोपोजल के बारे में बताया तो वह हैरान रह गया. उस का कहना था कि उन के यहां मामाभानजी का रिश्ता बहुत पवित्र माना जाता है. अगर गलती से भी पैर छू जाए तो भानजी के पैर छू कर माफी मांगते हैं. पर हमारी तरफ तो शादी होना आम बात है. मामा की उम्र अधिक होने पर उन के बेटे से भी शादी कर सकते हैं.

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उन दिनों कितनी प्रौब्ल्म्स हो गई थीं घर में… हर किसी को शक की निगाह से देखने लगे थे हम. राघव, मामा, हमारे पड़ोसियों सभी को… अम्मां को भी अस्पताल के पास ही घर किराए पर ले कर रहना पड़ा. आखिर कब तक अस्पताल में रहतीं. 1 महीने बाद अस्पताल छोड़ना पड़ा. मगर लकवाग्रस्त हालत में गांव कैसे जाती? फिजियोथेरैपिस्ट कहां मिलते? राघव ने भी मुझ से ही पूछा था कि अगर वह शनिवार, रविवार को मुझ से मिलने घर आए तो मेरे मातापिता को कोई आपत्ति तो नहीं होगी. अम्मांअप्पा ने अनुमति दे दी. वे भी देखते थे कि दिन भर की मुरझाई मैं शाम को उस की बातों से कैसे खिल जाती हूं, हमारा अंगरेजी का वार्त्तालाप अम्मां की समझ से दूर रहता. मगर मेरे चेहरे की चमक उन्हें समझ आती थी.

मामा ने गुस्से में आना कम कर दिया तो अप्पा का शक और बढ़ गया. वह तो

2 महीने पहले ही पुलिस ने केस सुलझा लिया और हमलावर पकड़ा गया वरना राघव का भी अपने घर जाना मुश्किल हो गया था. मैं ने आखिरी कौल राघव को ही की थी कि मैं स्टेशन पहुंच गई हूं, तुम भी आ जाओ. उस के बाद उस अनजान कौल को रिसीव करने के बीच ही वह हमला हो गया.

राघव ने जब बताया था कि वह बाराबंकी के कुंभकार परिवार से है और उस का बचपन मूर्ति में रंग भरने में ही बीता है, तो मैं ने कहा था कि वह मूर्ति बना कर दिखाए. तब उस ने रंगीन क्ले ला कर बहुत सुंदर मूर्ति बनाई जो संभाल कर रख ली.

‘रम्या भी तो एक बेजान मूर्ति में परिवर्तित हो गई थी उन दिनों,’ राघव ने सोचा. वह हर शनिवाररविवार जब मिलने जाता तब उसे रम्या में वही स्वरूप दिखाई देता जैसा उस के बाबा दीवाली में लक्ष्मी का रूप बनाते थे. काली मिट्टी से बनी सौम्य मूर्ति. उस मूर्ति में जब वह लाल, गुलाबी, पीले और चमकीले रंगों में ब्रश डुबोडुबो कर रंग भरता, तो उस मूर्ति से बातें भी करता.

यही स्थिति अभी भी हो गई है. रम्या के बेजान मूर्तिवत स्वरूप से तो वह कितनी बातें करता था. लकवाग्रस्त होने के कारण शुरूशुरू में वह कुछ बोल भी नहीं पाती थी, केवल अपने होंठ फड़फड़ा कर या पलकें झपका कर रह जाती. बाद में तो वह भी कितनी बातें करने लगी थी. उस की जिंदगी में भी रंग भरने लगे थे. वह समझ ही नहीं पाया कि रंग भर कौन रहा है? वह रम्या की जिंदगी में या रम्या उस की जिंदगी में? अब रम्या जीवन के रंगों से भरपूर है. अपने अम्मांअप्पा के संरक्षण में गांव लौट गई है, उस की पहुंच से दूर. अब उस की सेवा की रम्या को क्या आवश्यकता? अब वह भी यहां से चला जाएगा. रम्या से फेसबुक और व्हाट्सऐप के माध्यम से जुड़ा रहेगा वैसे ही जैसे पंडाल में सजी मूर्तियों से मन ही मन जुड़ा रहता था.

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‘‘चलो, सब आज सब का लंच साथ हैं याद है न?’’ रमन ने मेज थपथपाई.

सभी एकसाथ लंच करने बैठ गए तो रम्या ने कहा, ‘‘धन्यवाद तो मुझे तुम सब का देना चाहिए जो रक्तदान कर मेरे प्राण बचाए…’’

‘‘सौरी, मैं तुम्हें रोक रहा हूं. मगर सब से पहले तुम्हें राघव को धन्यवाद करना चाहिए. इस ने सर्वप्रथम खून दे कर तुम्हें जीवनदान दिया है,’’ मुरली मोहन बोला.

‘‘ठीक है, उसे मैं अलग से धन्यवाद दे दूंगी,’’ कह रम्या हंस रही थी. राघव ने देखा आज उस ने काले की जगह लाल रंग की बिंदी लगाई थी.

‘‘वैसे वह तेरा वनसाइड लवर भी बड़ा खतरनाक था… तुझे अपने इस पड़ोसी पर पहले कभी शक नहीं हुआ?’’ सुभ्रा ने पूछा.

‘‘अरे वह तो उम्र में भी 2 साल छोटा है मुझ से. कई बार कुछ न कुछ पूछने को किसी न किसी विषय की किताब ले कर घर आ धमकता था. मगर मैं नहीं जानती थी कि वह क्या सोचता है मेरे बारे में,’’ रम्या अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

लगभग सभी खापी कर उठ चुके थे. राघव अपने कौफी के कप को घूरने में लगा था मानो उस में उस का भविष्य दिख रहा हो.

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है उस लड़के के बारे में?’’ रम्या ने पास आ कर उस से पूछा.

‘‘प्यार मेरी नजर में कुछ पाने का नहीं, बल्कि दूसरे को खुशियां देने का नाम है. अगर हम प्रतिदान चाहते हैं, तो वह प्यार नहीं स्वार्थ है और मेरी नजर में प्यार स्वार्थ से बहुत ऊपर की भावना है.’’

‘‘इस के अलावा भी कुछ और कहना है तुम्हें?’’ रम्या ने शरारत से राघव से पूछा.

‘‘हां, तुम हमेशा इसी तरह हंसतीमुसकराती रहना और अपनी फ्रैंड लिस्ट में मुझे भी ऐड कर लेना. अब वही एक माध्यम रह जाएगा एकदूसरे की जानकारी लेने का.’’

‘‘ठीक है, मगर तुम ने मुझ से नहीं पूछा?’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मुझे कुछ कहना है कि नहीं?’’ रम्या ने कहा तो राघव सोच में पड़ गया.

‘‘क्या सोचते रहते हो मन ही मन? राघव, अब मेरे मन की सुनो. अगले महीने अप्पा बाराबंकी जाएंगे तुम्हारे घर मेरे रिश्ते की बात करने.’’

‘‘उन्हें मेरी जाति के बारे में नहीं पता शायद,’’ राघव को अप्पा का कौफी पीना याद आ गया.

‘‘यह देखो इन रगों में तुम्हारे खून की लाली ही तो दौड़ रही है और जो जिंदगी के पढ़ाए पाठ से भी सबक न सीख सके वह इनसान ही क्या… मेरे अप्पा इनसानियत का पाठ पढ़ चुके हैं. अब उन्हें किसी बाह्य आडंबर की जरूरत नहीं है,’’ रम्या ने अपना हाथ उस की हथेलियों में रख कर कहा, ‘‘अब अप्पा भी चाह कर मेरे और तुम्हारे खून को अलगअलग नहीं कर सकते.’’

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‘‘तुम ने आज लाल बिंदी लगई है,’’ राघव अपने को कहने से न रोक सका.

‘‘नोटिस कर लिया तुम ने? यह तुम्हारा ही दिया रंग है, जो मेरी बिंदी में झलक आया है और जल्द ही सिंदूर बन मेरे वजूद में छा जाएगा,’’ रम्या बोली और फिर दोनों एकदूसरे का हाथ थामें जिंदगी के कैनवास में नए रंग भरने निकल पड़े.

मिसफिट पर्सन- भाग 3: जब एक जवान लड़की ने थामा नरोत्तम का हाथ

नरोत्तम ने अपना सिर धुन लिया. वह बारबार कहता रहा कि हवाई अड्डे पर उस का अघोषित सामान पकड़ा था उसी से वह उस को जानती है. और अब जानबूझ कर मजे लेने के लिए ड्रामा कर रही थी. मगर पत्नी को कहां विश्वास करना था.

‘‘सर, नरोत्तम की वजह से कोई भी सहजता से काम नहीं कर पाता,’’ डिप्टी डायरैक्टर, कस्टम ने अपने बौस से कहा.

नरोत्तम को कोई भी विभाग अपने यहां लेने को तैयार नहीं था. एक तो उस का स्वभाव ही ऐसा था, दूसरे, उस के कर्म खोटे थे. वह जहां जाता वहां कोई न कोई पंगा हो जाता था.

कार्गो कौम्प्लैक्स, कस्टम विभाग में सुरक्षा महकमा समझा जाता था. इस विभाग में ऊपर की कमाई के अवसर काफी कम थे. नरोत्तम को इस विभाग में भेज दिया गया.

नरोत्तम कर्तव्यनिष्ठ अफसर था. उस को कहीं भी ड्यूटी करने में संकोच नहीं था.

एक रोज एक शिपमैंट की चैकिंग के दौरान एक पेटी मजदूर के हाथों से गिर कर टूट गई. पेटी में फ्रूट जूस की बोतलें भरी थीं. कुछ बोतलें टूट गईं. उन में से छोटीछोटी पाउचें निकल कर बिखर गईं. सब चौंक पड़े. नरोत्तम ने पाउचें उठा लीं और एक को फाड़ कर सूंघा. उन में सफेद पाउडर भरा था, जो हेरोइन थी.

मामला पहले पुलिस, फिर मादक पदार्थ नियंत्रण ब्यूरो के हवाले हो गया. शिपमैंट भेजने वाले निर्यातक की शामत आ गई. उस के बाद हर कंटेनर को खोलखोल कर देखा जाने लगा. निर्यात में देरी होने लगी. कई अन्य घपले भी सामने आ गए. कार्गो कौम्प्लैक्स भी अब निगाहों में आ गया.

जिस निर्यातक की शिपमैंट में नशीला पदार्थ पकड़ा गया था उस ने नरोत्तम को मारने के लिए गुंडेबदमाशों को ठेका दे दिया. नरोत्तम नया रंगरूट था. उस को हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी मिला था और साथ ही सुरक्षा हेतु रिवौल्वर भी. एनसीसी कैडेट भी रह चुका था. वह दक्ष निशानेबाज था.

एक दिन वह ड्यूटी समाप्त कर अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हुआ. मेन रोड पर आते ही उस के पीछे एक काली कार लग गई. बैक व्यू मिरर से उस की निगाहों में वह पीछा करती कार आ गई.

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वह चौकस हो गया. उस ने कमर से बंधे होलेस्टर का बटन खोल दिया. शाम का धुंधलका अंधेरे में बदल रहा था. सड़क पर ट्रैफिक बढ़ रहा था. दफ्तरों से, दुकानों से घर लौटते लोग अपनेअपने वाहन तेजी से चलाते जा रहे थे.

कार लगातार पीछे चलती बिलकुल समीप आ गई. फिर साथसाथ चलने लगी. नरोत्तम ने देखा, कार में 4 आदमी सवार थे.

एक ने हाथ उठाया, उस के हाथ में रिवौल्वर थी. नरोत्तम ने मोटरसाइकिल को एक झोल दिया. एक फायर हुआ, झोल देने से निशाना चूक गया. कार आगे निकल गई. उस ने फुरती से अपनी रिवौल्वर निकाली. निशाना साध कर फायर किया.

कार का पिछला एक पहिया बर्स्ट हो गया. कार डगमगाती हुई रुक गई. नरोत्तम ने मोटरसाइकिल रोक कर सड़क के किनारे खड़ी कर दी. सड़क के किनारे थोड़ीथोड़ी दूरी पर बिजली के खंभे थे. उन के साथ कूड़ा डालने के ड्रम थे. वह लपक कर डम के पीछे बैठ गया. कार रुक गई. 4 साए अंधेरे में आगे बढ़ते उस की तरफ आए. रेंज में आते ही उस ने एक के बाद एक 3 फायर किए. 2 साए लहरा कर नीचे गिर पड़े. नरोत्तम फुरती से उठा और दौड़ कर पीछे वाले खंभे की ओट में जा छिपा.

जैसी उम्मीद थी वैसा हुआ. 2 रिवौल्वरों से ड्रम पर गोलियां बरसने लगीं. मगर नरोत्तम पहले से जगह छोड़ कर पीछे पहुंच गया था. उस ने निशाना साध गोली चलाई. एक साया हाथ पकड़ कर चीखा, फिर दोनों भाग कर कार की तरफ जाने लगे.

नरोत्तम मुकाबला खत्म समझ छिपने के स्थान से बाहर निकल आया. तभी भागते दोनों सायों में से एक मुड़ा और नरोत्तम पर फायर कर दिया. गोली नरोत्तम के कंधे पर लगी. वह कंधा पकड़ कर बैठ गया.

सड़क पर चलता ट्रैफिक लगातार होती गोलीबारी से रुक गया. टायर बर्स्ट हुई कार में बैठ कर चारों बदमाश भाग निकले. नरोत्तम पर बेहोशी छाने लगी. तभी 2 जनाना हाथों ने उसे थाम लिया. पुलिस की गाडि़यों के सायरन गूंजने लगे. नरोत्तम बेहोश हो गया.

नरोत्तम की आंख खुली तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. उस के कंधे और छाती पर पट्टियां बंधी थीं. उस के साथ स्टूल पर उस की पत्नी बैठी थी. दूसरी तरफ उस के मातापिता और संबंधी थे.

होश में आने पर पुलिस उस का औपचारिक बयान लेने आई. नरोत्तम फिर सो गया. शाम को उस की आंख खुली तो उस ने अपने सामने ज्योत्सना को हाथ में छोटा फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा पाया.

‘‘हैलो हैंडसम, हाऊ आर यू?’’ मुसकराते हुए उस ने पूछा.

उस ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. वह यहां कैसे?

‘‘उस शाम संयोग से मैं आप के पीछेपीछे ही अपनी कार पर आ रही थी. मैं ने ही पुलिस को फोन किया था.’’

तब नरोत्तम को याद आया, बेहोश होते समय 2 जनाना हाथों ने उसे थामा था. ज्योत्सना चली गई.

नरोत्तम 3-4 दिन बाद घर आ गया. उस का कुशलक्षेम पूछने बड़ेछोटे अधिकारी भी आए. ज्योत्सना भी हर शाम आने लगी. उस के यों रोज आने से उस की पत्नी का चिढ़ना स्वाभाविक था.

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पतिपत्नी में बनती पहले से ही नहीं थी. नरोत्तम के ठीक होते पत्नी मायके जा बैठी. उस के मातापिता, दामाद के मिसफिट नेचर की वजह से पहले ही क्षोभ में थे और अब उस की इस खामखां की प्रेयसी के आगमन ने आग में घी का काम किया. पतिपत्नी में संबंधविच्छेद यानी तलाक की प्रक्रिया शुरू हो गई.

बौयफ्रैंड को कमीज के समान बदलने वाली ज्योत्सना को कड़क जवान नरोत्तम जांबाजी के कारण भा गया था. वह अब उस के यहां नियमित आने लगी.

असमंजस में पड़ा नरोत्तम इस सोचविचार में था कि त्रियाचरित्र को क्या कोई समझ सकता था? रिश्वतखोर न होने के कारण उस की पत्नी उस को छोड़ कर चली गई थी. और अब एक तेजतर्रार नवयौवना उस के पीछे पड़ गई थी. एक तरफ जबरदस्ती के प्यार का चक्कर था तो दूसरी तरफ उस की नियति. दोनों पता नहीं भविष्य में क्या गुल खिलाएंगे?

दिशाएं और भी हैं- भाग 2

Writer- Sushila Dwivedi

‘‘नहीं बेटी, तू ने केस फाइल कर अच्छा नहीं किया. अब देख ही रही है उस का परिणाम… सब तरफ खबर फैल गई है… ऐसे हादसों को गुप्त रखने में ही भलाई होती है.’’

पापा की दलीलें सुन कर नमिता का सिर घूमने लगा, ‘‘यह क्या कह रहे हैं पापा? सत्यवीर, कर्मवीर पापा में कहां छिपी थी यह ओछी सोच जो मानमर्यादा के रूढ़ मानदंडों के लिए अन्याय सहने, छिपाने की बात कर रहे हैं? यही पापा कभी गर्व से कहा करते थे कि अपनी बेटियों को दहेज में दूंगा तो केवल शिक्षा, जो उन्हें आत्मनिर्भर बनाएगी. ये अपनी ऊंचनीच, अपने अधिकार और अन्याय के खिलाफ खुद ही निबटने में सक्षम होंगी. और आज जब मैं ने अपनी आत्मरक्षा अपने पूरे आत्मबल से की तो बजाय मेरी प्रशंसा के अन्याय को सहन करने, उसे बल देने की बात कह रहे हैं… मुझ पर गर्व करने वाले मातापिता अखबार में मेरी संघर्ष गाथा पढ़ कर यकायक संवेदनशून्य कैसे हो गए?’’

ग्वालियर मैडिकल कालेज में पढ़ने वाली नमिता की छोटी बहन रितिका ने भी पेपर में पढ़ा तो वह भी आ गई. अपनी दीदी से लिपट कर उसे धैर्य बंधाने लगी. दीदी के प्रति मांपापा के बदले व्यवहार से वह दुखी हुई. ऐसी उपेक्षा के बीच नमिता को बहन का आना अच्छा लगा.

मम्मीपापा जिस भय से भयभीत थे वह उन के सामने आ ही गया. फोन पर योगेशजी ने बड़ी ही नम्रता से नमिता के साथ अपने बेटे की सगाई तोड़ दी. मम्मी के ऊपर तो जैसे वज्रपात हुआ. वे फिर नमिता पर बरसीं, ‘‘अपनी बहादुरी का डंका पीट कर तुझे क्या मिला? सुरक्षित बच गई थी, चुप रह जाती तो आज ये दिन न देखने पड़ते. अच्छाभला रिश्ता टूट गया.’’

‘‘अच्छा रहा मां उन की ओछी मानसिकता पता चल गई. सोचो मां यही सब विवाह के बाद होता तब क्या वे लोग मुझ पर विश्वास करते जैसे अभी नहीं कर रहे? मैं उन लोगों को क्या दोष दूं, मेरे ही घर में जब सब के विश्वास को सांप सूंघ गया,’’ नमिता भरे स्वर में बोली.

अविश्वास के अंधेरे में घिरी थी नमिता कि क्या होगा उस का भविष्य? अंगूठी उस के मंगेतर ने सगाई की बड़ी हसरत और स्नेह से पहनाई थी. वह छुअन, वह प्रतीति उसे स्नेह में डुबोती रही थी. रोमांचित करती रही थी. क्याक्या सपने बुना करती थी वह. उस ने अपनी अनामिका को देखा जहां हीरे की अंगूठी चमक रही थी. वही अंगूठी अब चुभन पैदा करने लगी थी. रिश्ते क्या इतने कमजोर होते हैं, जो बेबुनियाद घटना से टूट जाएं?

इस छोटी सी घटना ने विश्वास के सारे भाव जड़ से उखाड़ दिए. नमिता सोच रही थी कि केवल प्रांजल के मांबाप की बात होती तो मानती, अपनेआप को अति आधुनिक, विशाल हृदय मानने वाला उस का मंगेतर कितन क्षुद्र निकला. एक बार मेरा सामना तो किया होता, मैं उस को सारी सचाई बताती.

नमिता के साहस की, उस की बहादुरी की, उस की सूझबूझ की तारीफ नहीं हुई. उस के इन गुणों को उस के मांबाप तक ने कोसा. 1 सप्ताह से घर से बाहर नहीं निकली. आज वह यूनिवर्सिटी जाएगी. देखना है उस के मित्रसहयोगी की क्या प्रतिक्रिया होती है? कैसा व्यवहार होता है उस के साथ?

तैयार हो कर नमिता जब अपने कमरे से निकली तो मां ने टोक दिया, ‘‘बेटा, तू तैयार हो कर कहां जा रही है? कम से कम कुछ दिन तो रुक जा, घटना पुरानी हो जाएगी तो लोग इतना ध्यान नहीं देंगे.’’

नमिता बौखला उठी, ‘‘कौन सी घटना? क्या हुआ है उस के साथ? बेवजह क्यों पड़ी रहतीं मेरे पीछे मां? तुम कोई भी मौका नहीं छोड़तीं मुझे लहूलुहान करने का… कहां गई तुम्हारी ममता?’’ फिर शांत होती हुई बोली, ‘‘मां, तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं, जो होगा मैं निबट लूंगी,’’ और फिर स्कूटी स्टार्ट कर यूनिवर्सिटी चली गई.

परम संतुष्ट भाव से उस ने फैसला किया कि वह पीएचडी के साथसाथ भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा की भी तैयारी करेगी. निष्ठा और दृढ़ इरादे से ही काम नहीं चलता, समाज से लड़ने के लिए, प्रतिष्ठा पाने के लिए, पावर का होना भी अति आवश्यक है.

जो वह ठान लेती उसे पा लेना उस के लिए कठिन नहीं होता है. उस का परिश्रम, उस की

दृढ़ इच्छाशक्ति रंग लाई. आज वह खुश थी अपनी जीत से. देश के समाचार पत्रों में उस का यशोगान था, ‘‘डा. नमिता शर्मा भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा में प्रथम रहीं.’’ मम्मीपापा ने उसे गले लगाना चाहा पर वे संकुचित हो गए. उन के बीच दूरियां घटी नहीं वरन बढ़ती गईं. जिस समय मां के स्नेह, धैर्य और सहारे की सख्त जरूरत थी तब उन के व्यंग्यबाण उसे छलनी करते रहे. कठिन समय में अपनों की प्रताड़ना वह भूल नहीं सकती.

स्त्री सुलभ गुणों को ले कर क्या करेगी वह अब. स्त्री सुलभ लज्जा, संकोच, सेवा,

ममता जैसे भावों से मुक्त हो जाना चाहती है, कठोर हो जाना चाहती है. उस के प्रिय जनों ने उस की अवहेलना की. आज उस की सफलता, उपलब्धियां, सम्मान देख उस के सहयोगी, उस के मातहत सहम जाते हैं. फिर भी वह संतुष्ट क्यों नहीं? शायद इसलिए कि उस की सफलता का जश्न मनाने उस के साथ कोई नहीं.

उसे याद है उस के मन में भी उमंग उठी थी, सपने संजोए थे. आम भारतीय नारी की तरह एक स्नेहमयी बेटी, बहू, पत्नी और मां बनना चाहती थी. वह अपना प्यार, अपनी ममता किसी पर लुटा देना चाहती थी. रात के अकेलेपन में पीड़ा से भरभरा कर कई बार रोई है. एक आधीअधूरी जिंदगी उस ने खुद वरण की है… उसे भरोसा ही नहीं रहा है रिश्तों पर.

मेरी खातिर- भाग 2: माता-पिता के झगड़े से अनिका की जिंदगी पर असर

राइटर- मेहर गुप्ता

पापा को 20 साल पहले की अपनी पेशी याद आ गई जब पापा, बड़े पापा और घर के अन्य सब बड़े लोगों ने उन के पैतृक गांव के एक खानदानी परिवार की सुशील और पढ़ीलिखी कन्या अर्थात् निकिता से विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. घर वालों ने उन का पीछा तब तक नहीं छोड़ा था जब तक उन्होंने शादी के लिए हां नहीं कह दी थी.

पापा ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है… 19-20 की जोड़ी थी पर ठीक है. आधी जिंदगी निकल गई है आधी और कट ही जाएगी.’’

‘‘वाह पापा बिलकुल सही कहा आपने… 19-20 की जोड़ी है… आप उन्नीस है और मम्मा बीस… क्यों पापा सही कहा न मैं ने?’’

‘‘मम्मी की चमची,’’ कह पापा प्यार से उस का गाल थपथपा कर उठ गए.

उस दिन उस के जन्मदिन का जश्न मना कर सभी देर से घर लौटे थे. अनिका बेहद खुश थी. वह 1-1 पल जी लेना चाहती थी.

‘‘मम्मा, आज मैं आप दोनों के बीच में सोऊंगी,’’ कहते हुए वह अपनी चादर और तकिया उन के कमरे में ले आई. वह अपनी जिंदगी में ऐसे पलों का ही तो इंतजार करती थी. उस की उम्र की अन्य लड़कियों का दिल नए मोबाइल, स्टाइलिश कपड़े और बौयफ्रैंड्स के लिए मचलता था, जबकि अनकि को खुशी के ऐसे क्षणों की ही तलाश रहती थी जब उस के मम्मीपापा के बीच तकरार न हो.

पापा हाथ में रिमोट लिए अधलेटे से टीवी पर न्यूज देख रहे थे. मम्मी रसोई में तीनों के लिए कौफी बना रही थी.

तभी फोन की घंटी बजने लगी. अमेरिका से बूआ का वीडियोकौल थी. हमारे लिए दिन का आखिरी पहर था, जबकि बूआ के लिए दिन की शुरुआत थी उन्होंने अपनी प्यारी भतीजी को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिए फोन किया था. बोली, ‘‘हैप्पी बर्थडे माई डार्लिंग,’’

मैं ने और पापा ने कुछ औपचारिक बातों के बाद फोन मम्मी की तरफ कर दिया.

‘‘हैलो कृष्णा दीदी,’’ कह कुछ देर बात कर मम्मी ने फोन रख दिया.

‘‘दीदी ने कानों में कितने सुंदर सौलिटेयर पहन रखे थे न, दीदी की बहुत मौज है.’’

‘‘दीदी पढ़ीलिखी, आधुनिक महिला है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है. खुद कमाती है और ऐश करती है.’’

जब भी बूआ यानी पापा की बड़ी बहन की बात आती थी पापा बहुत उत्साहित हो जाते थे. बहुत फक्र था उन्हें अपनी बहन पर.

‘‘आप मुझे ताना मार रहे हैं.’’

‘‘ताना नहीं मार रहा, कह रहा हूं.’’

‘‘पर आप के बोलने का तरीका तो ऐसा ही है. मैं ने भी तो अनिका और आप के लिए अपनी नौकरी छोड़ अपना कैरियर दांव पर लगाया न.’’

‘‘तुम अपनी टुच्ची नौकरी की तुलना दीदी की बिजनैस ऐडमिनिस्ट्रेशन की जौब से कर रही हो?’’ कहां गंगू तेली, कहां राजा भोज.

मम्मी कालेज के समय से पहले एक स्कूल में और बाद में कालेज में हिंदी पढ़ाती थीं. वे पापा के इस व्यंग्य से तिलमिला गईं.

‘‘बहुत गर्व है न तुम्हें अपनी दीदी और खुद पर… हम लोगों ने आप को किसी धोखे में नहीं रखा था. बायोडेटा पर साफ लिखा था पोस्टग्रैजुएशन विद हिंदी मीडियम. हम लोग नहीं आए थे आप लोगों के घर रिश्ता मांगने… आप के पिताजी ही आए थे हमारे खानदान की आनबान देख कर हमारी चौखट पर नाक रगड़ने…’’

‘‘निकिता, जुबान को लगाम दो वरना…’’

‘‘पहली बार अनिका ने पापा का ऐसा रौद्र रूप देखा था. इस से पहले पापा ने मम्मी पर कभी हाथ नहीं उठाया था.’’

‘‘पापा, आप मम्मी पर हाथ नहीं उठा सकते हैं. आप भी बाज नहीं आएंगे… मम्मी का दिल दुखाना जरूरी था?’’

‘‘तू भी अपनी मम्मी का पक्ष लेगी. तेरी मम्मी ठीक तरह से 2 शब्द इंग्लिश के नहीं बोल पाती.’’

‘‘पापा, आप मम्मी की एक ही कमी को कब तक भुनाते रहोगे, मम्मी में बहुत से ऐसे गुण भी हैं जो मेरी किसी फ्रैंड की मम्मी में नहीं हैं.’’

क्षणभर में अनिका की खुशी काफूर हो गई. वह भरी आंखों के साथ उलटे पैर अपने कमरे में लौट गई.

पापा ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था जबकि मम्मी ने सूरत के लोकल कालेज से एमए. शायद दोनों का बौद्धिक स्तर दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठने देता था.

अनिका ने एक बात और समझी थी पापा के गुस्से के साथ मम्मी के नाम में प्रत्ययों की संख्या और सर्वनाम भी बदलते जाते थे. वैसे पापा अकसर मम्मी को निक्कु बुलाते थे. गुस्से के बढ़ने के साथसाथ मम्मी का नाम निक्की से होता हुआ निकिता, तुम से तू और उस में ‘इडियट’ और ‘डफर’ जैसे विशेषणों का समावेश भी हो जाता था. अपने बचपन के अनुभवों से पापा द्वारा मम्मी को पुकारे गए नाम से ही अनिका पापा का मूड भांप जाती थी.

इस साल मार्च महीने से ही सूरज ने अपनी प्रचंडता दिखानी शुरू कर दी थी. ऐग्जाम की सरगर्मी ने मौसम की तपिश को और बढ़ा दिया था. वह भी दिनरात एक कर पूरे जोश के साथ अपनी 12वीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा में जुटी हुई थी. सुबह घर से निकलती, स्कूल कोचिंग पूरा करते हुए शाम 8 बजे तक पहुंच पाती. मम्मीपापा के साथ बिलकुल समय नहीं बिता पा रही थी. इतवार के दिन उस की नींद थोड़ी जल्दी खुल गई थी. वह सीधे हौल की तरफ गई तो नजर डाइनिंग टेबल पर रखे थर्मामीटर की तरफ गई.

‘‘मम्मा यह थर्मामीटर क्यों निकला है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘तेरे पापा को कल से तेज बुखार है. पूरी रात खांसते रहे. मुझे जरा देर को भी नींद नहीं लग पाई.’’

‘‘एकदम से गला इतना कैसे खराब हो गया? डाक्टर को दिखाया?’’

‘‘बच्चे थोड़े हैं जो हाथ पकड़ कर डाक्टर के पास ले जाऊं,’’ मम्मी के स्वर में झुंझलाहट थी.

‘‘मम्मा आप भी हद करती हैं… पापा को तेज बुखार है और आप… मानती हूं आप सारी रात परेशान हुईं. पर अपनी बात को रखने का भी एक समय होता है.’’

‘‘तू भी अपने पापा की ही तरफदारी करेगी न…’’

मेरी हालत भी पेंडुलम की तरह थी… कभी मेरी संवेदनाएं मम्मी की तरफ और कभी मम्मी से हट कर बिलकुल पापा की तरफ हो जाती थी. प्रकृति पूरा साल अपने मौसम बदलती पर हमारे घर में बारहों मास एक ही मौसम रहता था कलह और तनाव का. मैं उन दोनों के बीच की वह डोर थी जिस के सहारे उन के रिश्ते की गाड़ी डगमग करती खिंच रही थी.

उस दिन मेरा अंतिम पेपर था. मैं बहुत हलका महसूस कर रही थी. मैं अपने अच्छे परिणाम को ले कर आश्वस्त थी. आज बहुत दिनों बाद हम तीनों इकट्ठे डिनर टेबल पर थे. मम्मी ने आज सबकुछ मेरी पसंद का बनाया था.

‘‘मम्मीपापा, मैं आप दोनों से कुछ कहना चाहती हूं.’’ आज अनिका की भावभंगिता कुछ गंभीरता लिए थी, जिस के मम्मीपापा अभ्यस्त नहीं थे.

‘‘बोलो बेटे… कुछ परेशान सी लग रही हो?’’ वे दोनों एकसाथ बोल चिंतित निगाहों से उसे देखने लगे.

उस ने बहुत आहिस्ता से कहना शुरू किया जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य उजागर करने जा रही हो, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई सूरत में नहीं, बल्कि अहमदाबाद से करना चाहती हूं.’’

‘‘ये कैसी बातें कर रही हो बेटा… तुम्हें तो सूरत के एनआईटी कालेज में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा.’’

‘‘मिल तो जाएगा पापा, पर सूरत के कालेजों की रेटिंग काफी नीचे है.’’

‘‘बेटे, यह तुम्हारा ही फैसला था न कि ग्रैजुएशन सूरत से ही कर पोस्टग्रैजुएशन विदेश से कर लोगी, तुम्हारे अचानक बदले इस फैसले का कारण क्या हम जान सकते हैं?’’ पापा के माथे पर तनाव की रेखाएं साफ झलक रही थी.

घर में अनजानी खामोशी पसर गई. यह खामोशी उस खामोशी से बिलकुल अलग थी जो मम्मीपापा की बहस के बाद घर में पसर जाती थी…बस आ रही थी तो घड़ी की टिकटिक की आवाज.

Romantic Story in Hindi: भोर- भाग 1: क्यों पति का मजाक उड़ाती थी राजवी?

Writer- Kalpana Mehta

उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’ यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी. इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था. मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

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फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी. मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’

पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सकती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं. तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया. नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

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‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली. अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

उस मुलाकात के बाद दोनों ने एकदूसरे को दूसरे दिन जवाब देना तय किया. पर उसी दिन रात में राजवी ने अक्षय को फोन लगाया, ‘‘एक बात का डिस्कशन तो रह गया. क्या शादी के बाद मैं आगे पढ़ाई कर सकती हूं? और क्या मैं आगे जा कर जौब कर सकती हूं? अगर आप को कोई एतराज नहीं तो मेरी ओर से इस रिश्ते को हां है.’’

‘‘ओह. इस में पूछने वाली क्या बात है? मैं मौडर्न खयालात का हूं क्योंकि मौडर्न समाज में पलाबढ़ा हूं. नारी स्वतंत्रता मैं समझता हूं, इसलिए जैसी तुम्हारी मरजी होगी, वैसा तुम कर सकोगी.’’

अक्षय को भी राजवी पसंद आ गई थी, उसे इतनी सुंदर पत्नी मिलेगी, उस की कल्पना ही उस को रोमांचित कर देने के लिए काफी थी. फिर तो जल्दी ही दोनों की शादी हो गई. रिश्तेदारों की उपस्थिति में रजिस्टर्ड मैरिज कर के 4 ही दिनों के बाद अक्षय ने अमेरिका की फ्लाइट पकड़ ली और उस के 2 महीने बाद आंखों में अमेरिका के सपने संजोए और दिल में मनपसंद जिंदगी की कल्पना लिए राजवी ने ससुराल का दरवाजा खटखटाया. ये ऐसे सपने थे जिन्हें हर कुंआरी, महत्त्वाकांक्षी और उत्साही लड़की देखती है. राजवी खुश थी, लेकिन एक हकीकत उसे खटक रही थी. वह इतनी सुंदर और पति था सांवला. जोड़ी कैसे जमेगी उस के साथ उस की? पर रोमांचित कर देने वाली परदेशी धरती ने उसे ज्यादा सोचने का समय ही कहां दिया.

दूरियां- भाग 2: क्यों अपने बेटे को दोषी मानता था उमाशंकर

‘‘ये लीजिए पापाजी,’’ अनुभा ने जैसे ही उन की आवाज सुनी, मैगजीन ले कर तुरंत उन के कमरे में उपस्थित हो गई.

‘‘पापाजी, और कुछ चाहिए…?’’ उस ने बहुत ही शालीनता से पूछा.

‘‘नहीं. कुछ चाहिए होगा तो खुद ले लूंगा. भूल गया था पलभर को कि नेहा नहीं है,’’ तिरस्कार, कटुता, क्रोध मिश्रित तीक्ष्ण स्वर और चेहरे पर फैली कठोरता… इस तरह की प्रतिक्रिया और व्यवहार की अनुभा को आदत हो गई है अब. पापा उस से सीधे मुंह बात नहीं करते… कोई बात नहीं, पर वह अपना फर्ज निभाने में कभी पीछे नहीं हटती.

अनुभा समझती है कि नेहा की कमी उन्हें खलती है, इसलिए बहुत खिन्न रहने लगे हैं. आखिर बरसों से नेहा पर निर्भर रहे हैं, वह उन की हर आदत से परिचित है, जानती है कि उन्हें कब क्या चाहिए.

रिटायर होने के बाद से तो वे छोटीछोटी बातों पर ज्यादा ही उखड़ने लगे हैं. शुरुआत में अनुभा को बुरा लगता था, पर अब नहीं.

शादी हुए डेढ़ साल ही हुए हैं, और एक साल से नेहा यहां नहीं है. पता नहीं, क्यों दूसरे शहर की नौकरी को उस ने प्राथमिकता दी, जबकि यहां भी औफर थे उस के पास नौकरी के. कुछकुछ तो वह इस की वजह समझती थी, नेहा कोई भी फैसला बिना सोचेसमझे नहीं करती थी.

अनुभा ने तब मन ही मन उसे सराहा भी था, पर उस के जाने की बात वह सहम भी गई थी. कैसे संभालेगी वह घर को…पितापुत्र के बीच पसरे ठंडेपन को… कितने कम शब्दों में संवाद होता है, बाप रे, वह तो अपने पापा से इतनी बातें करती थी कि सब उसे चैटरबौक्स कहते हैं. उस का भाई भी तो पापा से ही चिपका रहता है और मां दिखावटी गुस्सा करती हैं कि मां से तो तुम दोनों को कोई लगाव ही नहीं है… पर भीतर ही भीतर बहुत खुशी महसूस करती है.

बच्चों का पिता से लगाव होना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि मां से प्यार और आत्मीयता का संबंध सहज और स्वाभाविक ही होता है, उस के लिए प्रयत्न नहीं करने पड़ते.

उस पर ठहरी वह एक विजातीय लड़की. बेटे ने लवमैरिज की, यह बात भी पापा को बहुत खटकती है, अनुभा जानती है.

वह तो नेहा ने स्थिति को संभाल लिया था, वरना तरुण उसे ले कर अलग हो जाने पर आमादा हो गया था. दोनों के बीच सेतु बन रिश्तों पर किसी तरह पैबंद लगा दिया था.

अनुभा भी शादी के बाद नेहा पर बिलकुल निर्भर थी. ननदभाभी से ज्यादा उन के बीच दोस्त का रिश्ता अधिक था. जब उस ने तरुण से शादी करने का फैसला लिया था तो मां के मन में आशंकाएं थीं, ‘इतने समय से नेहा ही घर संभालती आ रही है. पूरा राज है उस का. कहीं वह तुम्हें तुम्हारे अधिकारों से वंचित न कर दे. तरुण भी तो उस की कोई बात नहीं टालता है, जबकि है उस से छोटी. कहीं सास बनने की कोशिश न करे, संभल कर रहना और अपने अधिकार न छोड़ना. कुंआरी ननद वैसे भी जी का जंजाल होती है.’

अनुभा को न तो अपने अधिकार पाने के लिए लड़ना पड़ा और न ही उसे लगा कि नेहा निरंकुश शासन करना चाहती है.

हनीमून से जब वे लौट कर आए थे और सहमे कदमों से जब अनुभा ने रसोई में कदम रखा था तो घर की चाबियों का गुच्छा उसे थमाते हुए नेहा ने कहा था, ‘‘भाभी संभालो अपना घर. बहुत निभा लीं मैं ने जिम्मेदारियां. थोड़ा मैं भी जी लूं.

“अरुण को, पापा को जैसे चाहे संभालो, पर मुझे मुक्ति दे दो. आप की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहूंगी. ऐसे टिप्स भी दूंगी, जिन से आप इन 2 मिसाइलों से निबट भी लेंगी. बचपन से बड़े पैतरे अपनाने पड़े हैं तो सब दिमाग में रजिस्टर्ड हो चुके हैं. सब आप को दे दूंगी, ताकि मेरा दिमाग खाली हो और उस में कुछ नई और फ्रेश चीजें भरें,’’ मुसकराते हुए जिस अंदाज से नेहा ने कहा था, उस से अनुभा को जहां हंसी आ गई थी, वहीं सारा भय भी दूर हो गया था. नाहक ही कुंआरी ननदों को बदनाम किया जाता है… उन से अच्छी सहेली और कौन हो सकती है ससुराल में.

उस के बाद नेहा ने जैसे एक बैक सीट ले ली थी और अनुभा ने मोरचा संभाल लिया था.

पापा को अनुभा को दिल से स्वीकारने और बेटी जैसा सम्मान व स्नेह मिलने के लिए नेहा को यही सही लगा था कि वह एक दूरी बना ले. इस से नेहा पर पापा की निर्भरता कम होगी, साथ ही अनुभा को वह समझ पाएंगे और तरुण को भी. सेतु नहीं होगा तो खुद ही संवाद स्थापित करना होगा उन दोनों को.

‘‘भाभी, आप उन दोनों के बीच सेतु बनने की गलती मत करना. आप को बहुतकुछ नजरअंदाज करना होगा. बेशक इन लोगों को लगे कि आप उन की उपेक्षा कर रही हैं,’’ नेहा ने कहा था तो अनुभा ने उस का माथा चूम लिया था.

2-3 साल ही तो छोटी है उस से, पर एक ठोस संबल उसे भी चाहिए होता ही होगा.

‘‘लाओ, तुम्हारे बालों में तेल लगा देती हूं,’’ अनुभा ने कहा था, तो नेहा झट से अपने लंबे बालों को खोल कर फर्श पर बैठ गई थी.

‘‘कोई पैम्पर करे तो कितना अच्छा लगता है,’’ तब अनुभा ने उसे अपनी गोदी में लिटा लिया था.

‘‘भाभी, लगता है मानो मां की गोद में लेटी हूं. तरस गई थी इस लाड़ के लिए. लोगों को लगता है कि घर की सत्ता मेरे हाथ में है, इसलिए मैं खुशनसीब हूं, किसी की हिम्मत नहीं कि रोकेटोके, पर उन्हें कौन समझाए कि रोकनाटोकना, प्रतिबंध लगाना या डांट सुनना कितना अच्छा लगता है, तब यह नहीं लगता कि हम किसी जिम्मेदारी के नीचे दबे हैं.’’

दूरियां कभीकभी कितनी अच्छी हो सकती हैं, अनुभा को एहसास हो रहा था. नेहा के जाने के बाद उसे बहुत दिक्कतें आईं.

पितापुत्र के बीच अकसर छाया रहने वाला मौन और बातबात पर पापा का उसे अपमानित करना, उस की गलतियां निकालना और विजातीय होने के कारण उस की सही बात को भी गलत ठहराना.

अनुभा ने भी ठान लिया था कि वह कभी पापा की बात को नहीं काटेगी, अपमान का घूंट पीना उस के लिए कोई आसान नहीं था, पर तरुण और नेहा के सहयोग से उस ने धैर्य की कुछ घुट्टी यहां पी ली थी और कुछ वह अपने साथ सहनशीलता को एक तरह से दहेज में ही ले कर आई थी.

मां ने यह पाठ बचपन से पढ़ाया था, क्योंकि वह इतना तो जानती थी कि चाहे आप कितना ही क्यों न पढ़लिख जाएं, कितने ही पुरुषों से आगे क्यों न निकल जाएं, सहनशीलता की आवश्यकता हर मोड़ पर पड़ती है गृहस्थी चलाने के लिए. शायद इसे वह परंपरा ही मानती थी.

वह चुपचाप पापा के सारे काम करती, समय पर उन को खाना देती, दवा देती और सुबहशाम सैर करने के लिए जिद कर के भेजती.

व्रत उपवास- भाग 1: नारायणी के व्रत से घर के सदस्य क्यों घबराते थे?

आज सारा घर कांप रहा था. सुबह से ही किसी का मन स्थिर नहीं था. कारण यह था कि आज नारायणी का उपवास था. कुछ दिन पहले ही उस ने करवाचौथ का व्रत रखा था. उस की याद आते ही सब के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. आननफानन में अहोई अष्टमी का दिन आ गया.

नारायणी का नाम उस की दादी ने रखा था. वह चौबीसों घंटे नारायणनारायण जपती रहती थीं. जब दादी का देहांत हुआ तो यह रट उस की मां ने अपना ली. ऐसा लगता था कि साल में 365 दिनों में 365 त्योहारों के अलावा और कुछ काम ही नहीं है. मतलब यह है कि जैसे ही नारायणी ब्याह कर ससुराल पहुंची, उस ने मौका देखते ही पूजाघर का उद्घाटन कर डाला. वह स्वयं बन गई पुजारिन. इतने वर्ष गुजर गए, 3-3 बच्चों की मां बन गई, पर मजाल है कि एक ब्योरा भी भूली हो.

देवीलाल की नींद खुल गई थी, पर वह अलसाए से बिस्तर पर पड़े थे. सोच रहे थे कि उठ कर कुल्लामंजन किया जाए तो चाय का जुगाड़ बैठे.

एकाएक नारायणी का कर्कश स्वर कान में पड़ा, ‘‘अरे, सुना, आज अहोई अष्टमी का व्रत है. सारे दिन निर्जल और निराहार रहना है. बड़ा कष्ट होगा, सो मैं अभी से कहे देती हूं कि मुझ से दिन भर कोई खटपट मत करना.’’

देवीलाल की आंखें फटी की फटी रह गईं. बोले, ‘‘नारायणी, अभीअभी तो नींद से उठा हूं. चाय भी नहीं पी. कोई बात तक नहीं की और तुम मुझ से ऐसी बात करने लगी हो. अरे, खटपट तो खुद तुम ने ही चालू कर दी और इलजाम थोप रही हो मेरे सिर पर.’’

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नारायणी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बस, कर दिया न दिन खराब. अरे, कम से कम व्रतउपवास के दिन तो शांति रखा करो. आखिर व्रत कोई अपने लिए तो रख नहीं रही हूं. बालबच्चों की उम्र बनी रहे, उसी के मारे इतना कठिन उपवास करती हूं.’’

देवीलाल को चाय की तलब लग रही थी, सो आगे बात न बढ़ा कर कुल्लामंजन करने चले गए.

अभी 4 दिन पहले की बात है. नारायणी ने करवाचौथ का व्रत रखा था, पति की उम्र लंबी होने की कामना करते हुए. पर पहला ही वाक्य जो मुंह से निकला था उस ने उन की उम्र 10 वर्ष कम कर दी थी.

‘सुनते हो?’ देवीलाल के कानों में गूंज रहा था, ‘आज करवाचौथ है. सुबह ही बोल देती हूं कि अपनी बकझक से दिन कड़वा मत कर देना.’

देवीलाल ने छटपटा कर उत्तर दिया था, ‘अरे, अब तो तुम ने कड़वा ही कर दिया. कसर क्या रही अब? लग रहा है आज हर साल की तरह से फिर करवाचौथ आ गया.’

नारायणी ने माथा पीट कर कहा, ‘हाय, कौन से खोटे करम किए थे मैं ने, जो तुम्हारे जैसा पति मिला. न जाने कौन से जन्मों का फल भुगत रही हूं. हे भगवान, अगर तू बहरा नहीं है तो मुझे इसी दम इस धरती से उठा ले.’

देवीलाल ने क्रोध में कहा, ‘तुम्हारा भगवान अगर बहरा नहीं है तो वह इस चीखपुकार को सुन कर अवश्य बहरा हो जाएगा. कितनी बार कहा है कि व्रत मत रखा करो. तुम तो यही चाहती हो न कि मेरी जितनी लंबी उम्र होगी उतने ही अधिक दिनों तक तुम मुझे सता सकोगी?’

नारायणी की आंखों से गंगाजमुना बह निकली. उस ने सिसकसिसक कर कहा, ‘हाय, किस नरक में आ गई. सुबहसुबह अपने पति से गालियां सुनने को मिल रही हैं. जिस पति की मंगलकामना के लिए व्रत रख रही हूं, वही मुझे जलाजला कर मार रहा है. क्या इस दुनिया में न्याय नाम की कोई चीज नहीं है?’

देवीलाल से पत्नी का रोनापीटना बरदाश्त नहीं हुआ. वह चिल्ला कर बोले, ‘न्याय तो इस दुनिया से उसी दिन उठ गया जिस दिन से तुम्हारे जैसा ढोल मेरे गले में डाल दिया गया.’

नारायणी जरा मोटी थी. उसे ढोल की संज्ञा से बड़ी चिढ़ थी. जोरजोर से रोने लगी और फिर हिचकियां ले कर बिसूरने लगी. जब किसी ने ध्यान न दिया तो औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ गई.

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बच्चे सब सकते में आ गए थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हो गया. वैसे अकसर उन के मांबाप का झगड़ा चलता रहता था, परंतु झगड़े का कारण कभी उन के पल्ले नहीं पड़ता था.

बड़ी बेटी निर्मला ने साहस कर के रसोई में जा कर जल्दी से पिता के लिए चाय बनाई. देवीलाल आंखें बंद कर के आरामकुरसी पर लेट गए थे. उन्हें झगड़े से चिढ़ थी. वह अकसर चुप रहते थे, पर कभीकभी बरदाश्त से बाहर हो जाता था. उन्हें अकसर खांसी का दौरा पड़ जाया करता था. खांसी का कारण दमा नहीं था. डाक्टरों के हिसाब से यह एक एलर्जी थी जो मानसिक तनाव से होती थी. जैसे ही गले में कुछ खुजली सी हुई, देवीलाल ने समझ लिया कि अब खांसी शुरू ही होने वाली है. ठीक होतेहोते 2 घंटे लग जाते. बड़ी मुश्किल से चाय पी कर प्याला नीचे रखा ही था कि खांसी ने जोर पकड़ लिया.

वह खांसते जाते थे और घड़ीघड़ी उठ कर बलगम थूकने जाते थे. सांसें भर्राने लगी थीं और लगता था जैसे अब दम निकल जाएगा.

नारायणी ने आवाज लगाई, ‘ओ निर्मला, जा कर थोड़ी सौंफ ले आ. उसे खाने से खांसी कुछ दब जाएगी. कितनी बार कहा है कि सिगरेट मत फूंका करो, पर मानें तब न.’

देवीलाल ने पिछले 7 दिनों से एक भी सिगरेट नहीं पी थी. जो कारण था उसे वह खुद समझ रहे थे, पर नारायणी को कैसे समझाएं? चुपचाप बच्चे की तरह निर्मला के हाथ से सौंफ ले कर मुंह में डाल ली. फिर भी थोड़ीथोड़ी देर में खांसते रहे.

दिशाएं और भी हैं- भाग 3

Writer- Sushila Dwivedi

ढेरों रिश्ते आ रहे थे. मांबाप विवाह के लिए जोर डाल रहे थे कि वह विवाह के लिए हां कर दे. वह नकार देती, ‘‘मां, इस विषय पर कभी बात न करना और फिर तुम देख ही रही हो मुझे फुरसत ही कहां है घरगृहस्थी के लिए… मैं ऐसे ही खुश हूं… विवाह करना जरूरी तो नहीं?’’

किस्सेकहानियों और सिनेमा की तर्ज पर वास्तविक जिंदगी में भी ऐसे संयोग आ सकते हैं. विश्वास करना पड़ता है. देशप्रदेश के दौरे नमिता के पद के आवश्यक सोपान थे. ऐसे ही एक कार्य से नमिता दिल्ली जा रही थी. अपनी सीट पर व्यवस्थित हो उस ने पत्रिका निकाली और टाइम पास करने लगी.

गाड़ी चलने में चंद क्षण ही शेष थे कि अचानक गहमागहमी का एहसास हुआ. नमिता की पास वाली सीट पर सामान रखने में एक सज्जन व्यस्त थे. नमिता ने पत्रिका को हटा कर अपने सहयात्री पर ध्यान केंद्रित किया, तो उस के आश्चर्य की सीमा न रही. वे प्रांजल थे. क्षणांश में उस ने निर्णय ले लिया कि सीट बदल लेगी.

विपरीत इस के प्रांजल खुशी से उछल पड़ा. बिना किसी भूमिका के बोला, ‘‘नमिता, मैं बरसों से ऐसे ही चमत्कार के लिए भटक रहा था.’’

नमिता किसी तरह उस से वार्त्तालाप नहीं करना चाहती थी, पर प्रांजल आप बीती कहने के लिए बेताब था.

प्रायश्चित का हावभाव लिए नमिता को कोई मौका दिए बिना ही बोलता चला गया, ‘‘तुम आईएएस में प्रथम आईं उस दिन चाहा था तुम्हें बधाई दूं, पर हिम्मत नहीं हुई. मैं तुम्हारा अपराधी था, कायर. मैं ने भी इस परीक्षा में बैठने का निर्णय लिया. तनमन से जुट गया. मन ही मन चाहा कि एक न एक दिन हम अवश्य मिलेंगे और आज तुम्हारे सामने हूं. मैं तुम्हारा अपराधी हूं नमिता, मैं कुछ भी नहीं कर सका.

‘‘मां ने पापा से कहा था कि मुझे इस तरह की दुस्साहसी बहू नहीं, मुझे तो सौम्य, सरल, सीधीसादी बहू चाहिए. मैं तुम से मिलने आना चाहता था पर मां ने जान देने की धमकी दी थी. बस मैं ने तभी निश्चित कर लिया था कि मैं तुम्हारे अलावा किसी से विवाह नहीं करूंगा. मां मेरी प्रतिज्ञा से परेशान हैं. उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका है पर मैं तुम से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा सका.’’

नमिता बुत बनी बैठी थी. मन में विचारों के बवंडर न जाने कहां उड़ाए लिए जा रहे थे. नमिता प्रांजल से कह देना चाहती थी कि उस का अंतर रेगिस्तान हो चुका है. प्रेम की धारा सूख चुकी है. अंतर की सौम्यता, सहजता, सरलता सब खो चुकी है. प्रांजल बात यहीं खत्म कर दे. फिर कभी मिलने की कोशिश न करे. वे अपने काम में सब कुछ भूल चुकी है.

प्रांजल की उंगली में आज भी सगाई की अंगूठी चमक रही थी. प्रांजल सब कुछ कह चुका था. नमिता खामोश ही रही. यात्रा का शेष समय खामोशी में कट गया.

सप्ताह के अंतराल बाद शाम जब नमिता कार्यालय से लौटी तो देखा कि प्रांजल के मम्मीपापा बैठक में बैठे हैं और लंबे अरसे बाद मां की उल्लासित आवाज सुनाई दी, ‘‘नमिता, यहां तो आ बेटा. देख कौन आया है.’’

‘लगता है उन दोनों ने मां के मन से कलुष धो दिया है, पिछले अपमान का,’ नमिता ने मन ही मन सोचा. वह जिन की शक्ल तक नहीं देखना चाहती थी, विवश सी उन लोगों के बीच आ खड़ी हुई.

प्रांजल की मां ने नमिता के दोनों हाथ स्नेह से अपनी हथेलियों में भर लिए और फिर भावुक होती हुई बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर दो बेटी. मैं हीरे की पहचान नहीं कर पाई. मैं बेटे का दुखसंताप नहीं सह पा रही हूं. मेरी भूल, मेरे अहंकार का फल बेटा भोग रहा है. तुम्हारी अपराधी मैं हूं बेटा, मेरा बेटा नहीं… मुझे एक अवसर नहीं दोगी बेटी?’’

नमिता रुद्ररूप न दिखा सकी और फिर बिना कुछ बोले वहां से चली आई.

उस दिन आधी रात बीत जाने पर भी वह जागती रही. सप्ताह में घटी घटना पर विचार करती रही. ट्रेन में प्रांजल की क्षमायाचना याद आती रही, ‘‘बोलो, बताओ मुझे क्षमा किया? मेरे परिवार ने तुम्हारा अपमान किया, मैं स्वयं को तुम्हारा अपराधी मानता हूं.’’

प्रांजल, यह अलाप अब नमिता को धोखा या बकवास नहीं लग रहा था. पर उस के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे. स्पष्ट पूछना चाहती थी कि अब कौन सा प्रयोग करना चाहते हो हमारी जिंदगी में… क्या उस समय इतना साहस नहीं था कि अपनी मां को समझा पाते? उस दिन वह भी तो उन की मां के सामने चुप ही रही. संस्कार की बेडि़यों ने उस की जबान पर ताला लगा दिया था. फिर आंसुओं की राह सारा विद्रोह न जाने कैसे बह गया.

एक दिन निकट बैठी मां बोलीं, ‘‘बेटा, इतने दिन तुझे सोचने को समय दिया… योगेशजी के यहां से बारबार फोन आ रहे हैं. मैं क्या जवाब दूं?’’

एक सहज सी नजर मां पर डाल नमिता यह कहती हुई उठ खड़ी हुई, ‘‘तुम जैसा चाहो करो मां.’’

मां निहाल हो गईं. घर में फिर से खुशियों ने डेरा डाल दिया था. अगले ही दिन मांपापा विवाह की तिथि तय करने इंदौर चले गए.

मेरी खातिर- भाग 3: माता-पिता के झगड़े से अनिका की जिंदगी पर असर

राइटर- मेहर गुप्ता

अपनी जान से प्यारे अपने मम्मीपापा को उदास देख अनिका के गले से रोटी कैसे उतर सकती थी. वह एक रोटी खा कर वाशबेसिन पर पर हाथ धोने लगी. मुंह धोने के बहाने नल से निकलते पानी के साथ उस के आंसू भी धुल गए. वह नैपकिन से अपना मुंह पोंछ रही थी तो सामने लगे आइने में उस ने देखा मम्मीपापा की निगाहें उस पर ही टिकी हैं जिन में बेबस सी अनुनय है.

‘‘आज मुझे महसूस हो रहा है कि सच में जमाना बहुत फौरवर्ड हो गया है… आखिर हमारी बेटी भी इस जमाने के तौरतरीकों बहाव में खुद को बहने से नहीं रोक पाई,’’ पापा के रुंधे स्वर में कहा.

‘‘ये सब आप के लाडप्यार का नतीजा है, और सुनाओ उसे अपने हौस्टल लाइफ के किस्से चटखारे ले कर… तुम तो चाहते ही थे न कि तुम्हारी बेटी तुम्हारी तरह स्मार्ट बने. तो चली हमारी बेटी आजाद पंछी बन जमाने के साथ ताल मिलाने. उस ने एक बार भी हमारे बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘पापामम्मी के बीच चल रही बातचीत के कुछ अंश अनिका के कानों में भी पड़ गए थे. मम्मी ने रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली थीं, नाक लाल हो गई थी. पर क्या किया जा सकता था, आखिर यह उस की पूरी जिंदगी का सवाल था.’’

आज अनिका स्कूल गई थी. उस ने अपने सारे कागजात निकलवा कर उन की फोटोकौपी बनवानी थी. वहां जा कर उसे ध्यान आया वह अपनी 10वीं और 11वीं कक्षा की मार्कशीट्स घर पर ही भूल गई है. उस ने तुरंत मम्मी को फोन लगाया, ‘‘मम्मा, मेरी अलमारी में दाहिनी तरफ की दराज में आप को लाल रंग की एक फाइल दिखेगी, उस में से प्लीज मेरी 10वीं और 11वीं की मार्कशीट्स के फोटो भेज दो.’’

फोटो भेजने के बाद उस फाइल के नीचे दबी एक गुलाबी डायरी पर लिखे सुंदर शब्दों ने मम्मी का ध्यान अपनी ओर खींचा-

‘‘की थी कोशिश, पलभर में काफूर उन लमहों को पकड़ लेने की जो पलभर पहले हमारे घर के आंगन में बिखरे पड़े थे.’’

शायद मेरे चले जाने के बाद उन दोनों का अकेलापन उन्हें एकदूसरे के करीब ले आए. इसीलिए तो अपने दिल पर पत्थर रख उसे इतना कठोर फैसला लेना पड़ा था. पेज पर तारीख 15 जून अंकित थी यानी अनिका का जन्मदिन.

मम्मी के मस्तिष्क में उस रात हुई कलह के चित्र सजीव हो गए. एक मां हो कर मैं अपनी बच्ची की तकलीफ को नहीं समझ पाई. अपने अहम की तुष्टि के लिए वक्तबेवक्त वाक्युद्ध पर उतर जाते थे बिना यह सोचे कि उस बच्ची के दिल पर क्या गुजरती होगी.

उन की नजर एक अन्य पेज पर गई,

‘‘मुझे आज रात रोतेरोते नींद लग गई और मैं सोने से पहले बाथरूम जाना भूल गई और मेरा बिस्तर गीला हो गया. अब मैं मम्मा को क्या जवाब दूंगी.’’

पढ़कर निकिता अवाक रह गई थी. जगहजगह पर उस के आंसुओं ने शब्दों की स्याही को फैला दिया था, जो उस के कोमल मन की पीड़ा के गवाह थे. जिस उम्र में बच्चे नर्सरी राइम्ज पढ़ते हैं उस उम्र में उन की बच्ची की ये संवेदनशीलता और जिस किशोरवय में लड़कियां रोमांटिक काव्य में रुचि रखती हैं उस उम्र में

यह गंभीरता. आज अगर यह डायरी उन के हाथ नहीं लगी होती तो वे तो अपनी बेटी के फैसले के पीछे का कठोर सच कभी जान ही नहीं पातीं.

‘‘आप आज अनिका के घर पहुंचने से पहले घर आ जाना, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ मम्मी ने तुरंत पापा को फोन मिलाया.

‘‘निक्की, मुझे ध्यान है नया फ्रिज खरीदना है पर मेरे पास अभी उस से भी महत्त्वपूर्ण काम है… और फिलहाल सब से जरूरी है अनिका का कालेज में एडमिशन.’’

‘‘और मैं कहूं बात उस के बारे में ही है.’’

‘‘मम्मी के इस संयमित लहजे के पापा आदी नहीं थे. अत: उन की अधीरता जायज थी,’’

‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘आप घर आ जाइए, फिर शांति से बैठ कर बात करते हैं.’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ क्यों नहीं कहती हो, जब बात अनिका से जुड़ी थी तो पापा कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे. अत: काम छोड़ तुरंत घर के लिए निकल गए.’’

‘‘देखिए यह अनिका की डायरी.’’

पापा जैसेजैसे पन्ने पलटते गए, अनिका के दिल में घुटी भावनाएं परतदरपरत खुलने लगीं और पापा की आंखें अविरल बहने लगीं. मम्मी भी पहली बार पत्थर को पिघलते देख रही थी.

‘‘कितना गलत सोच रहे थे हम अपनी बेटी के बारे में इस तरह दुखी कर के तो हम उसे घर से हरगिज नहीं जाने दे सकते,’’ उन्होंने अपना फोन निकाल अनिका को मैसेज भेज दिया.

‘‘कोशिश को तेरी जाया न होने देंगे, उस कली को मुरझाने न देंगे,

जो 17 साल पहले हमारे आंगन में खिली थी.’’

‘‘शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर… वाह पापा आप का यह कवि रूप तो पहली बार दिखा,’’ कहती हुई अनिका घर में घुसी और मम्मीपापा को गले लगा लिया.

‘‘हमें माफ कर दे बेटा.’’

‘‘अरे, माफी तो आप लोगों से मुझे मांगनी चाहिए, मैं ने आप लोगों को बुद्धू जो बनाया.’’

‘‘मतलब?’’ मम्मीपापा आश्चर्य के साथ बोले.

‘‘मतलब यह कि घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. इतनी आसानी से आप लोगों का पीछा थोड़े छोड़ने वाली हूं. हां, बस यह अफसोस है कि मुझे अपनी डायरी आप लोगों से शेयर करनी पड़ी. पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है न?’‘‘अच्छा तो यह बाहर जा कर पढ़ने का फैसला सिर्फ नाटक था…’’

‘‘सौरी मम्मीपापा आप लोगों को करीब लाने का मुझे बस यही तरीका सूझा,’’ अनिका अपने कान पकड़ते हुए बोली.

‘‘नहीं बेटे, कान तुम्हें नहीं, हमें पकड़ने चाहिए.’’

‘‘हां, और मुझे इस ऐतिहासिक पल को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए,’’ कह वह तीनों की सैल्फी लेने लगी.

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