तुम्हारे हिस्से में- भाग 2: पत्नी के प्यार में क्या मां को भूल गया हर्ष?

लेखक- महावीर राजी 

फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डाक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देशी टोटकों को देह पर सहेजा. देखतेदेखते 9वां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमा कर बर्दाश्त करने की नाकाम कोशिश करती रही, तभी डाक्टर ने ऐलान किया, ‘केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है.’

रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, पर दूसरे ही पल उस ने दृढ़ता के साथ डाक्टर से कहा, ‘सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर. रमेसर की गोद में हमारे प्यार की निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’

डाक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति 15 दिनों तक बनी रही. डाक्टरों ने उस की जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. पर मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई.

हर्ष पढ़नेलिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जा कर आवारा लड़कों के संग इधरउधर मटरगश्ती करता रहता. राजमार्ग के पास वाली पुलिया पर बैठ कर आतीजाती लड़कियों को छेड़ा करता. इन सब बातों को ले कर रमेसर अकसर उस की पिटाई कर देता.

‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे,’ रमा उसे प्यार से समझाती, ‘पढ़लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटियां मिलने लगेंगी, नहीं तो अभावों और जलालत की जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’

किसी तरह मैट्रिक पास हो गया तो रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.

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‘पर वहां का खर्च क्या आसमान से आएगा?’ रमेसर ने शंका जाहिर की तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल आई, ‘आसमान से कभी कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्चा हम पूरा करेंगे. आधा पेट खा कर रह लेंगे. जरूरतों में और कटौती कर लेंगे. चाहे जैसे भी हो, हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उस की जिंदगी संवारनी होगी.’

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. एक सस्ते से पीजी होम में रहने का इंतजाम हुआ. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. रमा पैसे लगातार भेजती रही. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को कोई मतलब नहीं था. पहले इंटर, फिर बीए और फिर एमबीए. एकएक सीढि़यां तय करता हुआ हर्ष अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया.

एमबीए की डिगरी का झोली में आ जाना टर्निंग पौइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में एक बड़ी स्टील कंपनी में जौब मिल गया. फिर सुंदर और पढ़ीलिखी संजना से ब्याह हो गया. कोलकाता में पोस्ंिटग और अलीपुर में कंपनी के आवासीय कौंप्लैक्स में शानदार फ्लैट. अरसे से दानेदाने को मुहताज किसी वंचित को जैसे अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. एकबारगी ढेर सारी सुविधाएं, ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार क्रैडिट कार्ड में कैद.

उस स्टील कंपनी में जौब लगे 3 साल हो गए. जौब लगते ही हर्ष ने कहा था, ‘नई जगह है मम्मी, सैट होने में हमें वक्त लगेगा. सैट होते ही तुम्हें यहां अपने पास बुला लेंगे. इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’

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सुन कर अच्छा लगा. रफूगीरी का काम करतेकरते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पां हो गए हैं कि घिन्न आने लगी है इन से. अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन सी संपत्ति पड़ी है? सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में ही समा जाएगी.

लेकिन 3 साल गुजर गए. इसी बीच हर्ष कई बार आया यहां. 2 दिनों के प्रवास के डेढ़ दिन ससुराल में बीतते. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है,’ इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती रमा.

‘तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए, गिड़गिड़ाते हुए विनती करनी होगी? मां की तनहाइयों और मुसीबतों का एहसास खुद ही नहीं होना चाहिए उसे? न, वह ऐसा नहीं कर सकती. उस के जमीर को ऐसा कतई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ एक बार, कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करनी ही होगी. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.’

बलात्कारी की हार: भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘अरे, कैसा धोखा? अगर मैं ने कोई साधन नहीं अपनाया था, तो तुम तो किसी मैडिकल हौल से कोई टैबलेट ले कर खा लेतीं और यह बच्चे का किस्सा ही खत्म हो जाता,’’ अमित के स्वर में बेरुखी थी.

‘‘पर तुम ऐसा कैसे कर सकते हो, अमित,’’ प्रीति का स्वर अस्फुट हो चला.

‘‘अरे प्रीति, शायद तुम मु?ो सम?ा नहीं. मैं जो तुम को रोज लेने आता था, रोज छोड़ने जाता था, वह सब यों ही नहीं था. और फिर, जवानी में तो यह सब होना आम बात है.’’

‘‘मैं तुम्हारे खाते में 20 हजार रुपए भेज रहा हूं, किसी अच्छे डाक्टर से जा कर बच्चे का एबौर्शन करवा लो और यह ?ां?ाट खत्म करो. खुद भी जियो और मु?ो भी जीने दो,’’ अमित यह कह कर टेबल से उठ गया.

प्रीति को लगा कि उस के जीवन में सुनामी आ गई है. उस की जबान उस के तालू से चिपक गई. आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे.  कौफीहाउस में सब की निगाहें प्रीति पर थीं. जब प्रीति को कुछ सम?ा नहीं आया तो वह वहां से उठी और कमरे में जा कर बिस्तर पर गिर गई.

कितने दिन और कितनी रात प्रीति अपने कमरे में बंद रही, रोती रही, कुछ पता नहीं था उसे.

उस के कान में अमित के निर्मम शब्द गूंज रहे थे, ‘‘बच्चे का एबौर्शन करवा लो और ?ां?ाट खत्म करो.’’ नश्तरों की तरह धार थी इन शब्दों में. घायल हो चुकी थी प्रीति.

हर दर्द की एक सीमा होती है और उस के बाद वह दर्द ही खुद दवा बन जाता है. प्रीति के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उस ने भारी मन से ही सही पर, औफिस जाना शुरू किया.

अमित से भी मिलना हुआ. उस ने बच्चे और एबौर्शन के बारे में जानने की कोशिश की पर उस के सामने प्रीति ने कोई कमजोरी नहीं दिखाई बल्कि सामान्य बात करती रही. शायद वह बहुतकुछ सोच चुकी थी.

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समय बीता तो प्रीति के घर वालों ने प्रीति और अमित की शादी के बारे में पूछताछ की. आश्चर्यजनक रूप से हिम्मत दिखाते हुए प्रीति ने अपने घरवालों को सब सच बता दिया. उस की बिन ब्याहे ही गर्भवती होने की खबर सुन घरवाले भी परेशान हो उठे और अगले ही दिन मां और उस की बहन उस के पास आ गईं और उन्होंने भी प्रीति से इस बच्चे को गिरा देने की ही बात कही. पर अब तो प्रीति का नया रूप देखने को मिला.

‘‘मां, इस बच्चे को मैं तब खत्म करती जब इस बच्चे को किसी गलत नीयत के साथ इस दुनिया में लाया गया होता. उस ने मु?ा से शादी का वादा किया, मेरा विश्वास जीता और मु?ा से संबंध बनाया. एक तरह से अमित ने मेरा बलात्कार किया है मां, बलात्कार,’’ प्रीति कहे जा रही थी.

‘‘बलात्कार सिर्फ वह ही नहीं होता जिस में जबरन संबंध बनाया जाए. यह मानसिक भी होता है. मर्दों की लालची आंखें जब किसी औरत के अंगों को टटोलती हैं तो भी वे उन का बलात्कार कर रही होती हैं. मां जो मेरे साथ हुआ उस में मेरी कोई गलती नहीं, मैं ने तो अमित से प्यार किया था. जीना चाहती थी मैं उस के साथ. पर मु?ो क्या पता था कि वह सिर्फ मांस का भूखा एक भेडि़या है जो मु?ो शादी का ?ांसा दे कर मु?ो नोचेगा. तुम बिलकुल मत घबराओ मां, मैं आत्महत्या जैसी कोई चीज नहीं करूंगी और मैं ने तय कर लिया है कि इस बच्चे को भी जन्म दूंगी मैं.’’

‘‘कुछ ज्यादा ही पढ़लिख गई है तू.  अरे लोग थूकेंगे हमारे मुंह पर. एक बिनब्याही मां बनना क्या होता है, जानती है तू? यह समाज हमें जीने नहीं देगा,’’ मां लगभग चीख रही थी.

‘‘कौन सा समाज मां? कैसा समाज, वे महल्ले के 4 लोग, वे कुछ रिश्तेदार जो लगातार हम से जलन रखते हैं. उन से डर कर मैं अपनी जिंदगी को नरक कर दूं, जबकि मैं ने कुछ गलत किया ही नहीं मां. शर्म तो अमित को आनी चाहिए क्योंकि उस ने मेरे साथ संबंध ही नहीं बनाया बल्कि बलात्कार किया है मेरा. अमित को इस की सजा भी भुगतनी होगी.,’’ प्रीति का यह नया रूप था जो एक अग्नि में जल रहा था.

‘‘अरे, उस मर्द जात से कहां तक लड़ेगी तू? और क्या कर लेगी उस का?’’ मां ने तेजी से कहा.

‘‘मां…मां, अपने बच्चे और अपने हक के लिए किसी भी हद तक जाऊंगी और न्याय ले कर रहूंगी,’’ प्रीति ने कहा.

‘‘तो फिर तू ही लड़ अपनी लड़ाई. हम को इन ?ामेलों से अलग ही रख,’’ मां ?ाल्ला उठी.

और इस तरह प्रीति के घरवालों ने उस से मुंह मोड़ लिया. पर सिर्फ घरवालों के साथ न देने से प्रीति टूटी नहीं, बल्कि उन दिनों सोशल मीडिया पर ‘मी टू’ नामक अभियान में अपना उत्पीड़न भी सब के साथ शेयर किया और सब को बताया कि कैसे उस के साथ घात हुआ है.

सब ने उस की कहानी बड़े चाव से सुनी और कुछ लोग उस का साथ देने वाले भी मिले पर सोशल मीडिया पर लाइक और कमैंट चाहे जितने अच्छे मिल जाएं,  वास्तविकता का जीवन तो कुछ और ही होता है.

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वास्तविकता यह भी थी कि प्रीति अब बिलकुल अकेली थी और आगे की लड़ाई लड़ने के लिए वह वकील से मिली.

‘‘हां प्रीति, तुम अमित पर केस तो कर सकती हो पर क्या तुम्हारे पास कोई ऐसा सुबूत है जिसे हम मजबूती से अदालत में अमित के खिलाफ अपना हथियार बना सकते हैं?’’ प्रीति की वकील मिसेज मेहता ने पूछा.

‘‘जी… वह बस मेरे मोबाइल में कुछ हमारे साथ की फोटोज हैं और व्हाट्सऐप पर की हुई चैटिंग के अलावा और कुछ भी नहीं है,’’ प्रीति ने पेशानी पर बल डालते हुए कहा.

‘‘हां, तो कोई बात नहीं है. वह सब मु?ो दे दो, देखती हूं कि और इस केस में क्याक्या किया जा सकता है,’’ मिसेज मेहता ने प्रीति के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

पता नहीं क्यों मिसेज मेहता की बातें घाव पर मलहम की तरह काम कर रही थीं.

अगले दिन जब प्रीति बैंक में पहुंची तो उसे बौस ने अपने केबिन में बुला कर उस के तबादले का पत्र पकड़ा दिया. प्रीति को सम?ाते देर न लगी कि अमित ने अपनी पहुंच का फायदा उठा कर उस का तबादला करा दिया है. सरकारी फरमान पर बहस करने से फायदा नहीं था, इसलिए प्रीति ने चुपचाप उसे स्वीकार कर लिया.

प्रीति घर पहुंच कर अपना सामान पैक ही कर रही थी कि अचानक उसे याद आया कि एक बार अमित ने उस से जिक्र किया था कि उस के मम्मी और पापा बहुत उदार और आदर्शों वाले हैं. प्रीति को घनघोर अंधेरे में कुछ टिमटिमाहट सी दिखाई दी और उस ने अमित के मांपापा से मिल कर सब बात बताने की सोची.

‘‘बेटे प्रीति, हमें तुम से सहानुभूति है पर तुम भी तो बालिग हो. घर से दूर नौकरी करने आई हो, तुम्हें भी तो कुछ सम?ा होनी चाहिए, सहीगलत तो तुम भी सम?ाती हो. इसलिए मैं अमित को दोष नहीं देता,’’ अमित के पिताजी कह रहे थे.

‘‘बुरा मत मानना प्रीति, पर मैं ने ऐसी लड़कियां भी देखी हैं जो पहले तो जवानी का मजा लेने के लिए हमबिस्तर हो जाती हैं और जब देखती हैं कि लड़का अच्छे घर का है तो उस को पैसे उगाहने के लिए ब्लैकमैल करने लगती हैं,’’ अमित के पिताजी कुछ ज्यादा ही प्रैक्टिकल बातें कर रहे थे.

‘‘और फिर अगर तुम्हें हमारा बेटा अच्छा लग गया था और तुम उस के साथ संबंध बनाना चाहती ही थीं तो कम से कम कोई साधन अपनाना चाहिए था और अगर वह भी नहीं हुआ था तो आजकल तो 24 से 72 घंटों बाद भी खाई जा सकने वाली दवाई मौजूद है, उस को ले सकती थीं तुम,’’ अमित की मां की आवाज में एकदम सूखापन था.

‘‘और हम तुम्हारी इतनी मदद कर सकते हैं कि अमित की मां की एक सहेली डाक्टर है. तुम्हें हम वहां ले कर तुम्हारे इस बच्चे को गिरवाने में मदद कर सकते हैं.  अगर तुम अमित जैसे सुदर्शन व्यक्तित्व वाले लड़के से शादी करना चाहती हो तो भूल जाओ, ऐसा नहीं हो सकता,’’ अमित के पिता ने फैसला सुनाते हुए कहा.

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प्रीति को सम?ा आ गया था कि अमित के मां और पिता से मिलने आना उस की गलती है.

प्रीति किसी तीर की तरह निकल आई थी. अपने कमरे पर आ कर बाकी का सामान भी रखने लगी. आखिरी आशा भी टूट चुकी थी और आशा टूटने की आवाज नहीं आती पर दर्द सब से ज्यादा होता है.

अगले दिन ही उस ने आगरा को अलविदा कह दिया था और मन में एक निश्चय लिए उसे लखनऊ की ब्रांच में जौइन करना था. अपनी ड्यूटी संभालने के बाद सब से पहला काम बैंक के जितना नजदीक हो सके, एक कमरा ढूंढ़ना था.

शहरों में एक अकेली लड़की की राह कभी आसान नहीं होती, यह बात प्रीति को तब सम?ा में आई जब उस ने एक मकान की घंटी बजाई और किराए पर एक कमरे की जरूरत की बात बताई.

‘‘जी कमरा तो मिल जाएगा, पर क्या आप शादीशुदा हैं?’’ मकान के मालिक ने पूछा.

‘‘जी नहीं, अभी मैं सिंगल हूं,’’ प्रीति ने नजरें नीची करते हुए कहा.

तलाक के बाद- भाग 3: जब सुमिता को हुआ अपनी गलतियों का एहसास

Writer- Vinita Rahurikar

फिल्म के इंटरवल में कुछ चिरपरिचित आवाजों ने सुमिता का ध्यान आकर्षित किया. देखा तो नीचे दाईं और आनंदी अपने पति और बच्चों के साथ बैठी थी. उस की बेटी रिंकू चहक रही थी. सुमिता को समझते देर नहीं लगी कि आनंदी का पहले से प्रोग्राम बना हुआ होगा, उस ने सुमिता को टालने के लिए ही रिंकू की तबीयत का बहाना बना दिया. आगे की फिल्म देखने का मन नहीं किया उस का, पर खिन्न मन लिए वह बैठी रही.

अगले कई दिन औफिस में भी वह गुमसुम सी रही. उस की और समीर की पुरानी दोस्त और सहकर्मी कोमल कई दिनों से देख रही थी कि सुमिता उदास और बुझीबुझी रहती है. कोमल समीर को बहुत अच्छी तरह जानती है. तलाक के पहले कोमल ने सुमिता को बहुत समझाया था कि वह गलत कर रही है, मगर तब सुमिता को कोमल अपनी दुश्मन और समीर की अंतरंग लगती थी, इसलिए उस ने कोमल की एक नहीं सुनी. समीर से तलाक के बाद फिर कोमल ने भी उस से बात करना लगभग बंद ही कर दिया था, लेकिन आज सुमिता की आंखों में बारबार आंसू आ रहे थे, तो कोमल अपनेआप को रोक नहीं पाई.

वह सुमिता के पास जा कर बैठी और बड़े प्यार से उस से पूछा, ‘‘क्या बात है सुमिता, बड़ी परेशान नजर आ रही हो.’’

उस के सहानुभूतिपूर्ण स्वर और स्पर्श से सुमिता के मन में जमा गुबार आंसुओं के रूप में बहने लगा. कोमल बिना उस से कुछ कहे ही समझ गई कि उसे अब समीर को छोड़ देने का दुख हो रहा है.

‘‘मैं ने तुम्हें पहले ही समझाया था सुमि कि समीर को छोड़ने की गलती मत कर, लेकिन तुम ने अपनी उन शुभचिंतकों की बातों में आ कर मेरी एक भी नहीं सुनी. तब मैं तुम्हें दुश्मन लगती थी. आज छोड़ गईं न तुम्हारी सारी सहेलियां तुम्हें अकेला?’’ कोमल ने कड़वे स्वर में कहा.

‘‘बस करो कोमल, अब मेरे दुखी मन पर और तीर न चलाओ,’’ सुमिता रोते हुए बोली.

‘‘मैं पहले से ही जानती थी कि वे सब बिना पैसे का तमाशा देखने वालों में से हैं. तुम उन्हें खूब पार्टियां देती थीं, घुमातीफिराती थीं, होटलों में लंच देती थीं, इसलिए सब तुम्हारी हां में हां मिलाती थीं. तब उन्हें तुम से दोस्ती रखने में अपना फायदा नजर आता था. लेकिन आज तुम जैसी अकेली औरत से रिश्ता बढ़ाने में उन्हें डर लगता है कि कहीं तुम मौका देख कर उन के पति को न फंसा लो. बस इसीलिए वे सतर्क हो गईं और तुम से दूर रहने में ही उन्हें समझदारी लगी,’’ कोमल का स्वर अब भी कड़वा था.

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सुमिता अब भी चुपचाप बैठी आंसू बहा रही थी.

‘‘और तुम्हारे बारे में पुरुषों का नजरिया औरतों से बिलकुल अलग है. पुरुष हर समय तुम से झूठी सहानुभूति जता कर तुम पर डोरे डालने की फिराक में रहते हैं. अकेली औरत के लिए इस समाज में अपनी इज्जत बनाए रखना बहुत मुश्किल है. अब तो हर कोई अकेले में तुम्हारे घर आने का मंसूबा बनाता रहता है,’’ कोमल का स्वर सुमिता की हालत देख कर अब कुछ नम्र हुआ.

‘‘मैं सब समझ रही हूं कोमल. मैं खुद परेशान हो गई हूं औफिस के पुरुष सहकर्मियों और पड़ोसियों के व्यवहार से,’’ सुमिता आंसू पोंछ कर बोली.

‘‘तुम ने समीर से सामंजस्य बिठाने का जरा सा भी प्रयास नहीं किया. थोड़ा सा भी धीरज नहीं रखा साथ चलने के लिए. अपने अहं पर अड़ी रहीं. समीर को समझाने का जरा सा भी प्रयास नहीं किया. तुम ने पतिपत्नी के रिश्ते को मजाक समझा,’’ कोमल ने कठोर स्वर में कहा.

फिर सुमिता के कंधे पर हाथ रख कर अपने नाम के अनुरूप कोमल स्वर में बोली, ‘‘समीर तुझ से सच्चा प्यार करता है, तभी

4 साल से अकेला है. उस ने दूसरा ब्याह नहीं किया. वह आज भी तेरा इंतजार कर रहा है. कल मैं और केशव उस के घर गए थे. देख कर मेरा तो दिल सच में भर आया सुमि. समीर ने डायनिंग टेबल पर अपने साथ एक थाली तेरे लिए भी लगाई थी.

‘‘वह आज भी अपने परिवार के रूप में बस तेरी ही कल्पना करता है और उसे आज भी तेरा इंतजार ही नहीं, बल्कि तेरे आने का विश्वास भी है. इस से पहले कि वह मजबूर हो कर दूसरी शादी कर ले उस से समझौता कर ले, वरना उम्र भर पछताती रहेगी.

‘‘उस के प्यार को देख छोटीमोटी बातों को नजरअंदाज कर दे. हम यही गलती करते हैं कि प्यार को नजरअंदाज कर के छोटीमोटी गलतियों को पकड़ कर बैठ जाते हैं और अपना रिश्ता, अपना घर तोड़ लेते हैं. पर ये नहीं सोचते कि घर के साथसाथ हम स्वयं भी टूट जाते हैं,’’ एक गहरी सांस ले कर कोमल चुप हो गई और सुमिता की प्रतिक्रिया जानने के लिए उस के चेहरे की ओर देखने लगी.

‘‘समीर मुझे माफ करेगा क्या?’’ सुमिता उस की प्रतिक्रिया जानने के लिए उस के चेहरे की ओर देखने लगी.

‘‘समीर के प्यार पर शक मत कर सुमि. तू सच बता, समीर के साथ गुजारे हुए 3 सालों में तू ज्यादा खुश थी या उस से अलग होने के बाद के 4 सालों में तू ज्यादा खुश रही है?’’ कोमल ने सुमिता से सवाल पूछा जिस का जवाब उस के चेहरे की मायूसी ने ही दे दिया.

‘‘लौट जा सुमि, लौट जा. इस से पहले कि जिंदगी के सारे रास्ते बंद हो जाएं, अपने घर लौट जा. 4 साल के भयावह अकेलेपन की बहुत सजा भुगत चुके तुम दोनों. समीर के मन में तुझे ले कर कोई गिला नहीं है. तू भी अपने मन में कोई पूर्वाग्रह मत रख और आज ही उस के पास चली जा. उस के घर और मन के दरवाजे आज भी तेरे लिए खुले हैं,’’ कोमल ने कहा.

घर आ कर सुमिता कोमल की बातों पर गौर करती रही. सचमुच अपने अहं के कारण नारी शक्ति और स्वावलंबन के नाम पर इस अलगाव का दर्द भुगतने का कोई अर्थ नहीं है.

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जीवन की सार्थकता रिश्तों को जोड़ने में है तोड़ने में नहीं, तलाक के बाद उसे यह भलीभांति समझ में आ गया है. स्त्री की इज्जत घर और पति की सुरक्षा देने वाली बांहों के घेरे में ही है. फिर अचानक ही सुमि समीर की बांहों में जाने के लिए मचल उठी.

समीर के घर का दरवाजा खुला हुआ था. समीर रात में अचानक ही उसे देख कर आश्चर्यचकित रह गया. सुमि बिना कुछ बोले उस के सीने से लग गई. समीर ने उसे कस कर अपने बाहुपाश में बांध लिया. दोनों देर तक आंसू बहाते रहे. मनों का मैल और 4 सालों की दूरियां आंसुओं से धुल गईं.

बहुत देर बाद समीर ने सुमि को अलग करते हुए कहा, ‘‘मेरी तो कल छुट्टी है. पर तुम्हें तो औफिस जाना है न. चलो, अब सो जाओ.’’

‘‘मैं ने नौकरी छोड़ दी है समीर,’’ सुमि ने कहा.

‘‘छोड़ दी है? पर क्यों?’’ समीर ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘तुम्हारे ढेर सारे बच्चों की परवरिश करने की खातिर,’’ सुमि ने शर्माते हुए कहा तो समीर हंस पड़ा. फिर दोनों एकदूसरे की बांहों में खोए हुए अपने कमरे की ओर चल पड़े.

सिंदूरी मूर्ति- भाग 2: जब राघव-रम्या के प्यार के बीच आया जाति का बंधन

खुद रम्या को तो रोज 2 ट्रेनें बदल कर अपने गांव से यहां आना पड़ता था. उन की बातों के दौरान ही ट्रेन आ गईं. जब तक वह कुछ समझता ट्रेन चल पड़ी. रम्या उस में सवार हो चुकी थी और वह प्लेटफौर्म पर ही रह गया. यह क्या अचानक रम्या प्लेटफौर्म पर कूद गई.

रम्या जब कूदी उस समय ट्रेन रफ्तार में नहीं थी. अत: वह कूदते ही थोड़ा सा लड़खड़ाई पर फिर संभल गई.

राघव हक्काबक्का सा उसे देखते रह गया. फिर सकुचा कर बोला, ‘‘तुम्हें इस तरह नहीं कूदना चाहिए था?’’

‘‘तुम अभी मुझ से ट्रेन के अप और डाउन के बारे में पूछ रहे थे… तुम यहां नए हो… मुझे लगा तुम किसी गलत ट्रेन में न बैठ जाओ सो उतर गई,’’ कह रम्या मुसकराई.

रम्या के सांवले मुखड़े को घेरे हुए उस के घुंघराले बाल हवा में उड़ रहे थे. चौड़े ललाट पर पसीने की बूंदों के बीच छोटी सी काली बिंदी, पतली नाक और पतले होंठों के बीच एक मधुर मुसकान खेल रही थी. राघव को लगा यह तो वही काली मिट्टी से बनी मूर्ति है जिसे उस के पिता बचपन में उसे रंग भरने को थमा देते थे.

‘‘क्या सोच रहे हो?’’ रम्या ने पूछा.

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‘‘यही कि तुम्हें कुछ हो जाता तो, मैं पूरी जिंदगी अपनेआप को माफ न कर पाता… तुम्हें ऐसा हरगिज नहीं करना चाहिए था.’’

‘‘ब्लड… ब्लड…’’ यही शब्द उन वाक्यों के उसे समझ आए, जो डाक्टर रम्या की फैमिली से तमिल में बोल रहा था.

राघव तुरंत डाक्टर के पास पहुंच गया. बोला, ‘‘सर, माई ब्लड ग्रुप इज ओ पौजिटिव.’’

‘‘कम विद मी,’’ डाक्टर ने कहा तो राघव डाक्टर के साथ चल पड़ा. उन्हीं से राघव को पता चला कि शाम तक 5-6 यूनिट खून की जरूरत पड़ सकती है. राघव ने डाक्टर को बताया कि शाम तक अन्य सहकर्मी भी आ रहे हैं. अत: ब्लड की कमी नहीं पड़ेगी.

रक्तदान के बाद राघव अस्पताल के एहाते में बनी कैंटीन में कौफी पीने के लिए आ गया. अस्पताल आए 6 घंटे बीत चुके थे. उस ने एक बिस्कुट का पैकेट लिया और कौफी में डुबोडुबो कर खाने लगा.

तभी उस की नजर सामने बैठे व्यक्ति पर पड़ी, जो कौफी के छोटे से गिलास को साथ में दिए छोटे कटोरे (जिसे यहां सब डिग्री बोलते हैं) में पलट कर ठंडा कर उसे जल्दीजल्दी पीए जा रहा था. रम्या ने बताया था कि उस के अप्पा जब भी बाहर कौफी पीते हैं, तो इसी अंदाज में, क्योंकि वे दूसरे बरतन में अपना मुंह नहीं लगाना चाहते. अरे, हां ये तो रम्या के अप्पा ही हैं. मगर वह उन से कोई बात नहीं कर सकता. वही भाषा की मुसीबत.

तभी उस की नजर पुलिस पर पड़ी, जिस ने पास आ कर उस से स्टेटमैंट ली और उसे शहर छोड़ कर जाने से पहले थाने आ कर अनुमति लेने की हिदायत व पुलिस के साथ पूरा सहयोग करने की चेतावनी दे कर छोड़ दिया.

शाम के 6 बज चुके थे. जब उस के सहकर्मी आए तो राघव की सांस में सांस आई. वे सभी रक्तदान करने के पश्चात रम्या के परिजनों से मिले और राघव का भी परिचय कराया.

तब उस की अम्मां ने कहा, ‘‘हां, मैं ने सुबह से ही इसे यहीं बैठे देखा था. मगर मैं नहीं जान पाई कि ये भी उस के सहकर्मी हैं,’’ और फिर वे राघव का हाथ थाम कर रो पड़ीं.

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उन लोगों के साथ राघव भी लौट गया. वह रोज शाम 7 बजे अस्पताल पहुंच जाता और 9 बजे लौट आता. पूरे 15 दिन तक आईसीयू में रहने के बाद जब रम्या प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट हुई तब जा कर उसे रम्या की झलक मिल सकी. रम्या की पीठ का घाव तो भरने लगा था, मगर उस के शरीर का दायां भाग लकवे का शिकार हो गया था, जबकि बाएं भाग में गहरा घाव होने से उसे ज्यादा हिलनेडुलने को डाक्टर ने मना किया था. रम्या निर्जीव सी बिस्तर पर लेटी रहती. अपनी असमर्थता पर आंसू गिरा कर रह जाती.

दुर्घटना के पूरे 6 महीनों के बाद स्वास्थ्य लाभ कर उस दिन रम्या औफिस जौइन करने जा रही थी. सुबह से रम्या को कई फोन आ चुके थे कि वह आज जरूर आए. उस दिन राघव की विदाई पार्टी थी. वह कंपनी की चंडीगढ़ ब्रांच में ट्रांसफर ले चुका था. वह दिन उस का अंतिम कार्यदिवस था.

कंपनी के गेट तक रम्या अपने अप्पा के साथ आई थी. वे वहीं से लौट गए, क्योंकि औफिस में शनिवार के अतिरिक्त अन्य किसी भी दिन आगंतुक का अंदर प्रवेश प्रतिबंधित था. उस का स्वागत करने को कई मित्र गेट पर ही रुके थे. उस ने मुसकरा कर सब का धन्यवाद दिया. राघव एक गुलदस्ता लिए सब से पीछे खड़ा था.

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रम्या ने खुद आगे बढ़ कर उस के हाथ से गुलदस्ता लेते हुए कहा, ‘‘शायद तुम इसे मुझे देने के लिए ही लाए हो.’’

एक सम्मिलित ठहाका गूंज उठा. ‘तुम्हारी यही जिंदादिली तो मिस कर रहे थे हम सब,’ राघव ने मन ही मन सोचा.

खुशी के आंसू- भाग 3: आनंद और छाया ने क्यों दी अपने प्यार की बलि?

लेखिका- डा. विभा रंजन  

“यही कि शादी हो गई होती, अब तक छाया और आनंद, मम्मीपापा बन गए होते,”

तबस्सुम ने सच्ची बात कह दी.

ज्योति ने यह सुना तो सन्न रह गई. जो उस ने सुना वह सच है या तबस्सुम दी ने ऐसे ही यह बात कह दी. पर वे आनंद का नाम क्यों ले रही हैं वे किसी और का भी तो नाम ले सकती हैं. इस का मतलब है, दीदी और आनंद जी… ज्योति को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस ने जैसेतैसे खुद को संभाला और अपने चेहरे के भाव को सामान्य कर कर लिया.

तबस्सुम दिनभर रही और रात होने से पहले वापस घर चली गई. पर ज्योति के मन में हलचल मचा गई. मतलब साफ है, पापा भी इन लोगों के बारे में जानते थे, वह कैसे नहीं जान पाई. पापा की बीमारी में अस्पताल में आनंदजी आते रहते थे. उस समय की परिस्थिति ऐसी थी जिस में इन सभी विषयों पर सोचने की फुरसत भी नहीं थी. जब पापा के कैंसर का पता चला तब हम सभी पापा में लग गए. एक बात तो स्पष्ट है कि आनंद और दीदी का प्यार बहुत गहरा है. एकदूसरे के प्रति अटूट विश्वास है. इसी कारण इन्हें किसी को दिखाने की जरूरत नहीं पडी. उसी प्यार में दीदी ने आनंदजी को मुझ से विवाह करने के लिए मना भी लिया. दीदी ने ऐसा क्यों किया? काश, एक बार मुझे सब सच बता दिया होता. यह तो अच्छा हुआ कि तबस्सुम दी ने मुझे सच से अवगत करा दिया वरना…

स्कूल की परीक्षा समाप्त होने के बाद छाया ने ज्योति से कहा, “ज्योति, पापा की बरसी के बाद  मैं तेरे विवाह की सोच रही हूं. बरसी को 2 महीने रह गए हैं. तब तक मैं धीरेधीरे शादी की तैयारियां भी करती रहूंगी.”

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“इतनी जल्दी क्या है दीदी,”  ज्योति ने कहा.

“नहीं ज्योति, शुभकार्य में विलंब ठीक नहीं,”  छाया को जैसे हड़बड़ी थी.

“हां, तो ठीक है. अगले सप्ताह 27 तारीख को तुम्हारा जन्मदिन है, उस दिन कुछ कार्यक्रम कर लो,”    ज्योति ने कहा.

“धत, मेरे जन्मदिन के समय ठीक नहीं है, किसी और दिन रखूंगी.” छाया ने मना कर दिया.

“दीदी, मुझे कुछ कहना है,” ज्योति ने आग्रह किया.

“हां, बोलो,” छाया ज्योति को देखते हुए बोली.

“दीदी, इस बार  मैं तुम्हारा जन्मदिन अपनी पसंद से सैलिब्रेट करना चाहती हूं,” ज्योति ने बहुत लाड़ से कहा.

“अरे, मेरा जन्मदिन क्या मनाना,” छाया ने टालना चाहा.

“मैं ने कहा न, इस बार मैं तुम्हारा जन्मदिन सैलिब्रेट करूंगी, फिर तो मैं ससुराल चली जाऊंगी, तुम तो मेरी हर इच्छा पूरी करती हो, इतनी सी बात नहीं मानोगी,” ज्योति  छाया से मनुहार करने लगी.

“अच्छा बाबा, तुम सैलिब्रेट करना, पर भीड़भाड़ नहीं, समझीं,” छाया ने अपनी बात रख दी.

“ठीक है, मैं समझ गई,” ज्योति खुश हो गई.

छाया स्कूल में आनंद से, बस, काम की बात किया करती थी. वह कोशिश करती कि आनंद से उस का सामना कम हो. उस ने आनंद को छोड़ने का फैसला तो कर लिया पर जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, उस का मन बोझिल होता जा रहा था. अपने जन्मदिन के दिन उस का मन खिन्न हो उठा क्योंकि हर जन्मदिन पर सब से पहले आनंद का ही फोन आता था. इस रास्ते को तो वह स्वयं ही बंद कर आई है.

छाया का मन बेचैन था, इंतजार करता रहा, आनंद का फोन नहीं आया. छाया ने ज्योति से काम का बहाना बनाया और आनंद से मिलने के लिए स्कूल चली आई. स्कूल आ कर पता चला आनंद ने 2 दिनों की छुट्टी ले रखी है. थोड़ी देर स्कूल में रुकने के बाद वह घर आ गई.

ज्योति उस की बेचैनी समझ रही थी. पर वह चुप थी. ज्योति ने पूरे घर को छाया की पसंद के फूलों से सजाया था. उस ने सारा खाना अपने हाथों से बनाया, यहां तक कि केक भी उस ने बडे प्यार से बनाया. छाया ने कहा था इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है, केक मंगा लेते हैं. पर वह तैयार नहीं हुई.

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ज्योति ने छाया को मां की साड़ी दे कर कहा, “दीदी, शाम को यही पहनना.”

“मां की साडी, क्यों?” छाया ने अचरज से पूछा.

“पहन लो न. बस, ऐसे ही. आज तो मेरी हर बात माननी है, याद है न,” ज्योति ने और्डर से कहा.

“अच्छा, हां.”  छाया ने कहा. छाया का मन हो रहा था वह ज्योति से पूछे कि आनंद को बुलाया है या नहीं. पर उस की हिम्मत नहीं हुई. “तुम क्या पहन रही हो?”  छाया ने प्यार से पूछा.

“आज तुम ने जो पीला सूट दिया था न, वह वाला पहनूंगी. ठीक है न?”  ज्योति खुशी से बोली.

शाम को दोनों बहनें तैयार हो रही थीं, तभी बाई ने बताया कि आनंद बाबू आए हैं. छाया का दिल जोर से धड़कने लगा. उसे लगा, वह गिर जाएगी. उस ने अपनेआप को संभाला.

“आ गए आप, मैं ने तो आप को और पहले से आने को कहा था. आप इतनी देर में क्यों आए?” ज्योति का आनंद से बेतकल्लुफ़ हो कर बोलना आनंद और छाया दोनों ने गौर किया.

“वह कुछ काम था, इसलिए देर हो गई, हैप्पी बर्थडे छाया,” आनंद ने रजनीगंधा का एक खुबसूरत बुके देते हुए छाया से सकुचाते हुए कहा.

छाया ने “थैक्स” कह बुके को झट से अपने कलेजे से लगा लिया और अंदर कमरे में जाने लगी.

“दीदी, कहां जा रही हो, केक नहीं काटोगी,” ज्योति ने छाया का हाथ पकड़ा और उसे खींचती हुई आनंद के पास ला कर सोफे पर बिठा दिया और फिर बोली, “मैं केक ले कर आ रही हूं.”

छाया को बड़ी बेचैनी हो रही थी. आनंद से मिलना भी चाह रही थी, जब आनंद सामने आया तब घबराहट सी होने लगी. तभी ज्योति केक ले आई, “हैप्पी बर्थडे टू यू डीयर दीदी, हैप्पी बर्थडे टू यू.”

ज्योति का उत्साह देखते बन रहा था. दोनों बहनों ने एकदूसरे को केक खिलाया फिर आनंद को केक दिया.”केक तो बहुत अच्छा है,” आनंद ने कहा.“ज्योति ने बनाया है,” छाया ने बड़े गर्व से कहा, “आज का सारा इंतजाम मेरी ज्योति ने किया है.”

“ओह, और गिफ्ट क्या दिया?”

“नहीं दी हूं, अभी दूंगी,” ज्योति ने तपाक से कहा, फिर ज्योति ने आनंद के दिए हुए रजनीगंधा के बुके से एक फूल की डंडी निकाल कर छाया को देते हुए कहा,

“त्वदीयं वस्तु दीदी तुभ्यमेव समर्पये.” यानी, “ तुम्हारी चीज तुम्हें ही सौपती हूं दीदी.”

“क्या बोल रही है,” छाया हड़बड़ा गई.

“सही बोल रही हूं दीदी, तुम्हारी चीज मैं तुम्हें वापस लौटा रही हूं,” ज्योति ने आनंद की ओर अपना हाथ दिखाते हुए कहा.

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“मुझे पता चल चुका है दीदी आप दोनों के बारे में. आप दोनों की तो शादी होने वाली थी, पर पापा के असमय मौत से टल गई. सब जानते हुए आप ने कैसे मेरी शादी आनंदजी से तय कर दी. मैं नहीं जानती आप ने आनंदजी को किस तरह मुझ से शादी के लिए मजबूर किया होगा, लेकिन यह सब करते आप ने एक बार भी नहीं सोचा कि जिस दिन मुझे इस सच का पता चलेगा, उस दिन मुझ पर क्या बीतेगी. यह सच जान कर मैं तो आत्महत्या ही कर लेती दीदी.”

“ज्योति, ऐसा मत बोल,” छाया ने उस की बात काटते हुए तड़प कर उस के मुंह पर अपना हाथ रख दिया.

“मैं ने, बस, तेरी खुशी चाही, और कुछ नहीं.”

“ऐसी खुशी किस काम की दीदी, जिस में बाद में पछताना पडे. आप को क्या लगा, अगर आप सच बता देतीं, तब मैं आप से नफरत करने लगती, आप से दूर हो जाती? नहीं दीदी, मैं आप से कभी नफरत कर ही नहीं सकती दीदी, लेकिन आप ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया,” यह सब  बोल कर ज्योती हांफने लगी.

“बस कर ज्योति, बस कर. मैं ने इतनी गहरी बात कभी सोची ही नहीं. मैं बहुत बडी गलती करने जा रही थी, मुझे माफ कर दे. कभीकभी बड़ों से भी नादानियां हो जाती हैं. बस, एक बार मुझे माफ कर दे मेरी बहन.”

“एक शर्त पर,” ज्योति ने कहा.”मैं तेरी हर शर्त मानने को तैयार हूं, तू बोल कर तो देख,” छाया ने कहा.”आप अभी यह केक मेरे होने वाले आनंद जीजाजी को खिलाइए,” ज्योती ने आनंद की ओर इशारा करते हुए  कहा.

“ओके.” छाया ने केक का टुकड़ा आनंद के मुंह में डाला. उस की आंखें, उस का तनमन, उस का रोमरोम  उस से क्षमायाचना कर रहा था. तीनों की आंखें भरी थीं, पर ये आंसू खुशी के थे.

इधर-उधर- भाग 3: अंबर को छोड़ आकाश से शादी के लिए क्यों तैयार हो गई तनु?

Writer- Rajesh Kumar Ranga

आकाश ने वेटर को बिल लाने को कहा तो मैनेजर ने बिल लाने से इनकार कर दिया, ‘‘यह हमारी तरफ से.’’

‘‘नहीं मैनेजर साहब, अभी हम इस होटल के मालिक नहीं बने हैं और बन भी जाएं तो भी मैं नहीं चाहूंगा कि हमें या किसी और को कुछ भी मुफ्त में दिया जाए. मेरा मानना है कि मुफ्त में सिर्फ खैरात बांटी जाती है और खैरात इंसान की अगली नस्ल तक को बरबाद करने के लिए काफी होती है.’’

होटल के बाहर निकल कर आकाश ने तनु की ओर नजर डाली और कहा,

‘‘बहुत दिनों से लोकल में सफर करने की इच्छा थी, आज छुट्टी का दिन है भीड़भाड़ भी कम होगी. क्यों न हम यहां से लोकल ट्रेन में चलें फिर वहां से टैक्सी.’’

तनु ने अविश्वास से आकाश की ओर देखा और फिर दोनों स्टेशन की तरफ चल पड़े.

‘‘आप तो अकसर विदेश जाते रहते होंगे. क्या फर्क लगता है हमारे देश में और विदेशों में?’’

‘‘सच कहूं तो लंदन स्कूल औफ इकौनोमिक्स से डिगरी लेने के बाद मैं विदेश बहुत कम गया हूं. आजकल के जमाने में इंटरनैट पर सबकुछ मिल जाता है और जहां तक घूमने की बात है यूरोप की छोटीमोटी भुतहा इमारतें जिन्हें वे कैशल कहते हैं और किले मुझे ज्यादा भव्य लगते हैं… स्विटजरलैंड से कहीं अच्छा हमारा कश्मीर है, सिक्किम है, अरुणाचल है, बस जरूरत है सफाई की, सुविधाओं की और ईमानदारी की…’’

‘‘जो हमारे यहां नहीं है… है न?’’ तनु ने प्रश्न किया.

‘‘आप इनकार नहीं कर सकतीं कि बदलाव आया है और अच्छी रफ्तार से आया है. जागरूकता बढ़ी है, देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है, हमारे पासपोर्ट की इज्जत होनी शुरू हो गई है. आज का भारत कल के भारत से कहीं अच्छा है और कल का भारत आज के भारत से लाख गुना अच्छा होगा.’’

‘‘आप तो नेताओं जैसी बातें करने लगे आकाशजी,’’ तनु को उस की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी.

गेटवे के किनारे तनु ने फिर नारियल पानी पीने की इच्छा जाहिर कर दी. दोनों ने नारियल पानी पीया.

सही कहा गया है कि इंसान के हालात का और मुंबई की बरसात का कोई भरोसा नहीं. एक बार फिर बादलों ने पूरे माहौल को अपने आगोश में ले कर लिया और चारों ओर रात जैसा अंधेरा छा गया. अगले ही पल मोटीमोटी बूंदों ने दोनों को भिगोना शुरू कर दिया. दोनों भाग कर पास की एक छप्परनुमा दुकान में घुस कर गरमगरम भुट्टे खाने लगे.

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आकाश ने जेब से पैसे निकाले और भुट्टे वाली बुजुर्ग महिला के हाथ में थमा दिए. उस की नजर उमड़ते बादलों पर ही थी. प्रश्नवाचक दृष्टि से उस ने तनु की ओर देखा और दोनों बाहर निकल गए. टैक्सी लेने की तमाम कोशिशें नाकामयाब होने के बाद दोनों स्टेशन की ओर पैदल ही निकल पड़े. रास्ते में आकाश ने ड्राइवर को फोन कर के कामा होटल से गाड़ी ले कर स्टेशन आने को कह दिया.

घर पहुंचतेपहुंचते रात हो चुकी थी. आकाश और उस के परिवार वालों ने इजाजत

मांगी. उन के जाते ही जयनाथजी कुछ कहने के लिए मानो तैयार ही थे, ‘‘कितने पैसे वाले लोग हैं, मगर कोई मिजाज नहीं, कोई घमंड नहीं, हम जैसे मध्यवर्ग वालों की लड़की लेना चाहते हैं. कोई दहेज की मांग नहीं, यहां तक कि…’’

‘‘तो मुझे क्या करना चाहिए अंबर कि बजाय आकाश को पसंद कर लेना चाहिए, क्योंकि आकाश करोड़पति है, उस के मातापिता घमंडी नहीं हैं. वे धरातल से जुड़े हैं और सब से बड़ी बात कि उन्हें हम, हमारा परिवार, हमारी सादगी पसंद है. अपनी पसंद मैं भाभी को सुबह ही बता चुकी हूं, आकाश से मिलने के बाद उस में कोई तबदीली नहीं आई है…’’

‘‘ठीक है इस बारे में हम बाकी बातें कल करेंगे…’’ जयनाथजी ने लगभग पीछा छुड़ाते हुए कहा.

रात के करीब 2 बजे तनु ने भाभी को फोन मिलाया, ‘‘भाभी मुझे आप से मिलना है. भैया तो बाहर गए हैं. जाहिर है आप भी जग रही होंगी, मुझे अंबर के बारे में कुछ बातें करनी हैं, मैं आ जाऊं?’’

‘‘तनु मैं गहरी नींद में हूं… हम सुबह मिलें?’’

‘‘मैं तो आप के दरवाजे पर ही हूं… गेट खोलेंगी या खिड़की से आना पड़ेगा?’’

अगले ही पल तनु अंदर थी. बातों का सिलसिला शुरू करते हुए भाभी ने तनु से पूछा, ‘‘तुम मुझे अपना फैसला सुना चुकी हो. अब इतनी रात मेरी नींद क्यों खराब कर रही हो?’’

‘‘भाभी, अंबर को फोन कर के कहना है कि मैं उस से शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘क्या?’’ भाभी को लगा कि वह अभी भी नींद में ही है.

पलक झपकते ही तनु ने अंबर को फोन लगा दिया, ‘‘हैलो अंबर मैं तनु बोल रही हूं… मैं इधरउधर की बात करने के बजाय सीधा मुद्दे पर आना चाहती हूं…’’

‘‘ठीक है… जल्दी बता दो मैं इधर हूं या उधर…’’

‘‘इधरउधर की छोड़ो और सुनो सौरी यार मैं तुम से शादी नहीं कर सकती…’’

‘‘ठीक है मगर इतनी रात को क्यों बता रही हो… सुबह तक…’’

‘‘सुबह तक मेरा दिमाग बदल गया तो? तुम चीज ही ऐसी हो कि तुम्हें मना करना बहुत मुश्किल है…’’

‘‘अच्छा औल द बैस्ट, अब सो जाओ और मुझे भी सोने दो, किसी उधर वाले से शादी तय हो जाए तो जगह, तारीख वगैरह बता देना मैं आ जाऊंगा, मुफ्त का खा कर चला जाऊंगा…’’

‘‘मुफ्ती साहब, गिफ्ट लाना पड़ेगा. शादी में खाली लिफाफे देने का रिवाज दिल्ली में होगा, मुंबई में नहीं…’’

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‘‘ठीक है 2-4 फूल ले आऊंगा. अब मुझे सोने दो… सुबह मेरी फ्लाइट है…’’

भाभी बिलकुल सकते में थी, ‘‘ये सब क्या है तनु? तुम तो अंबर पर फिदा हो गई थी… क्या आकाश का पैसा तुम्हें आकर्षित कर गया? क्या उस की बड़ी गाड़ी अंबर की मोटरसाइकिल से आगे निकल गई?’’

‘‘भाभी अंबर पर फिदा होना स्वाभाविक है. ऐसे लड़के के साथ घूमनाफिरना,

मजे करना, अच्छा लगेगा मगर शादी एक ऐसा बंधन है, जिस में एक गंभीर, संजीदा इंसान चाहिए न कि कालेज से निकला हुआ एक हीरोनुमा लड़का.

‘‘हम घर से बाहर निकले तो आकाश ने पूरे शिद्दत से ट्रैफिक के सारे नियमों का पालन किया, मेरे लाख कहने के बावजूद उस ने गाड़ी नो ऐंट्री में नहीं घुमाई, अपने देश के बारे में उस के विचार सकारात्मक थे. उसे देश से कोई शिकायत न थी, रेस्तरां में वेटर से इज्जत से बात की न कि उसे वेटर कह कर आवाज दी, मुफ्त का खाने के बजाय उस ने पैसे देने में अपनी खुद्दारी समझ.

‘‘बड़ी गाड़ी छोड़ कर लोकल ट्रेन में जाने में उसे कोई परहेज नहीं, नारियल पानी पी कर उस ने नारियल एक ओर उछाला नहीं, बल्कि डस्टबिन की तलाश की, भुट्टे वाली माई को उस ने जब मुट्ठीभर पैसे दिए तो उस का सारा ध्यान इस पर था कि मैं कहीं देख न लूं.

‘‘इतने पैसे उस भुट्टे वाली ने एकसाथ कभी नहीं देखे होंगे… इतने संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक के सामने मैं एक प्यारे से हीरो को चुन कर जीवनसाथी बनाऊं? इतनी बेवकूफ मैं लगती जरूर हूं, मगर हूं नहीं.’’

भाभी सिर पर हाथ रख कर बैठ गई.

‘‘क्या सर दर्द हो रहा है.’’

‘‘नहीं बस चक्कर से आ रहे हैं…’’

‘‘रुको, अभी सिरदर्द दूर हो जाएगा…’’ तनु ने कहा.

भाभी बोल पड़ी, ‘‘अब क्या बाकी है?’’

तनु ने फोन उठाया और एक नंबर मिलाया, ‘‘हैलो आकाश, मैं ने फैसला कर लिया है… मुझे आप पसंद हैं. मैं आप से शादी करने को तैयार हूं. मुझे पूरा यकीन है कि मैं भी आप को पसंद हूं.’’

‘‘तुम ने फैसला ले कर मुझे बताने का जो समय चुना वह वाकई काबिलेतारीफ है,’’ दूसरी ओर से आवाज आई.

‘‘हूं… मगर भाभी इस बात को मानती ही नहीं… देखो मुझे धक्के मार कर अपने कमरे से बाहर निकालने पर उतारू है…’’

‘‘आकाश ने जेब से पैसे निकाले और भुट्टे वाली बुजुर्ग महिला के हाथ में थमा दिए.

उसकी नजर उमड़ते बादलों पर ही थी. प्रश्नवाचक दृष्टि से उस ने तनु की ओर देखा और दोनों बाहर निकल गए…’’

दूरियां- भाग 1: क्यों अपने बेटे को दोषी मानता था उमाशंकर

 ‘‘नेहा बेटा, जरा ड्राइंगरूम की सेंटर टेबल पर रखी मैगजीन देना. पढ़ूंगा तो थोड़ा टाइम पास हो जाएगा,’’ उमाशंकर ने अपने कमरे से आवाज लगाई.

आरामकुरसी पर वह लगभग लेटे ही हुए थे और खुद उठ कर बाहर जाने का उन का मन नहीं हुआ. पता नहीं, क्यों आज इतनी उदासी हावी है…खालीपन तो पत्नी के जाने के बाद से उन के अंदर समा चुका है, पर कट गई थी जिंदगी बच्चों को पालते हुए.

शांता की तसवीर की ओर उन्होंने देखा… बाहर ड्रांगरूम में नहीं लगाई थी उन्होंने वह तसवीर, उसे अपने पास रखना चाहते थे, वैसे ही जैसे इस कमरे में वह उन के साथ रहा करती थी, जाने से पहले.

नेहा तो उन की एक आवाज पर बचपन से ही दौड़दौड़ कर काम करने की आदी है. शांता के गुजर जाने के बाद वह उस पर ही पूरी तरह से निर्भर हो गए थे. बेटा तो शुरू से ही उन से दूर रहा था. पहले पढ़ाई के कारण होस्टल में और फिर बाद में नौकरी के कारण दूसरे शहर में.

एक सहज रिश्ता या कहें कंफर्ट लेवल उस के साथ बन नहीं पाया था. हालांकि वह जब भी आता था, पापा की हर चीज का खयाल रखता था, जरूरत की चीजें जुटा कर जाता था ताकि पापा और नेहा को कोई परेशानी न हो.

 

बेटे ने जब भी उन के पास आना चाहा, न जाने क्यों वह एक कदम पीछे हट जाते थे- एक अबूझ सी दीवार खींच दी थी उन्होंने. किसी शिकायत या नाराजगी की वजह से ऐसा नहीं था, और कारण वह खुद भी समझ नहीं पाए थे और न ही बेटा.

शांता की मौत की वजह वह नहीं था, फिर भी उन्हें लगता था कि अगर वह उन छुट्टियों में घर आ जाता तो शांता कुछ दिन और जी लेती. होस्टल में फुटबाल खेलते हुए उस के पांव में फ्रैक्चर हो गया था और उस के लिए यात्रा करना असंभव सा था…छोटा ही तो था, छठी क्लास में. घर से दूर था, इसलिए चोट लगने पर घबरा गया था. बारबार उसे बुखार आ रहा था और अकेले भेजना संभव नहीं था, और उमाशंकर शांता को ऐसी हालत में नन्ही नेहा के भरोसे उसे लेने भी नहीं जा सकते थे.

यह मलाल भी उन्हें हमेशा सताता रहा कि काश, वह चले जाते तो मां जातेजाते अपने बेटे को देख तो लेती. वह 2 साल से कैंसर जूझ रही थी, तभी तो तरुण को होस्टल भेजने का निर्णय लिया गया था. यही तय हुआ था कि 2 साल बाद जब नेहा 5वीं जमात में आ जाएगी, उसे भी होस्टल भेज देंगे.

आखिरी दिनों में नेहा को सीने से चिपकाए शांता तरुण को ही याद करती रही थीं.

तरुण ने भी बड़े होने के बाद नेहा से कहा था, “पापा मुझे लेने आ जाते या किसी को भेज देते तो मैं मां से मिल तो लेता.”

नेहा जो समय से पहले ही बड़ी हो गई थी, इस प्रकरण से हमेशा बचने की ही कोशिश करती थी. बेकार में दुख को और क्यों बढ़ाया जाए, किस की गलती थी, किस ने क्या नहीं किया… इसी पर अगर अटके रहोगे तो आगे कैसे बढ़ोगे. मां को तो जाना ही था…दोष देने और खुद को दोषी मानना फिजूल है. तभी से वह उन दोनों के बीच की कड़ी बन गई थी…चाहे, अनचाहे.

पापा को ले कर हालांकि तरुण ने कभी भी विरोधात्मक रवैया नहीं रखा था और न ही नेहा को ले कर कोई द्वेष था मन में. भाईबहन में खूब प्यार था और एक सहज रिश्ता भी. रूठनामनाना, लड़ाईझगड़ा और अपनी बातें शेयर करना…जैसा कि आम भाईबहन के बीच होता है. लेकिन पापा और भाई की यही कोशिश रहती कि उस के द्वारा एकदूसरे तक बात पहुंच जाए.

यह कहना गलत न होगा कि नेहा पापा और भाई के बीच एक सेतु का काम करती थी. उस के माध्यम से अपनीअपनी बात एकदूसरे तक पहुंचाना उन दोनों को ही आसान लगता था. कभीकभी नेहा को लगता था कि उस की वजह से ही पितापुत्र दो किनारों पर छिटके रहे, वह ऐसी नदी बन गई, जिस की लहरें दोनों किनारों पर जा कर बहाव को यहांवहां धकेलती रहती हैं. लेकिन दोनों किनारों के बहाव को चाह कर भी आपस में एक कर पाने में असमर्थ रही है.

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बचपन की बात अलग है, तब उसे उन दोनों के बीच माध्यम बनने में बहुत आनंद आता था, लगता था कि वह बहुत समझदार है. मां भी बहुत हंसा करती थी कि देखो छुटकी को बड़ा बनने में कितना आनंद आता है. अरे, अभी से क्यों इन पचड़ों में पड़ती है, बड़े होने पर तो जिम्मेदारियों के भारीभारी बोझ उठाने ही पड़ते हैं, वह अकसर कहती. लेकिन उसे तो पापा और भाई दोनों पर रोब झाड़ने में बहुत मजा आता था.

पर, अब जिंदगी और रिश्तों के मर्म को समझने के बाद उसे एहसास हो चुका था कि उस का माध्यम बने रहना कितना गलत है. दूरियां तभी खत्म होंगी, जब वह बीच में नहीं होगी. पर उस के बिना जीने की कल्पना दोनों ही नहीं करना चाहते थे. नदी बस निर्विघ्न बहती रहे तो रिश्ता रीतेगा नहीं, सूखेगा नहीं.

आवाज लगाने के बाद उमाशंकर को अपनी भूल का एहसास हुआ. नेहा तो अब है ही नहीं यहां.

दिशाएं और भी हैं- भाग 1

Writer- Sushila Dwivedi

दोपहर से बारिश हो रही थी. रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. घर सुनसान था. कमरा खामोश था. कभीकभी नमिता को नितांत सन्नाटे में रहना भला लगता था. टीवी, रेडियो, डैक सब बंद रखना, अपने में ही खोए रहना अच्छा लगता था.

वह अपने खयालों में थी कि तभी उसे लगा कि साथ वाले कमरे में कुछ आहट हुई है. वह ध्यान से सुनने लगी, पर फिर कोई आवाज नहीं हुई. शायद उस के मन में अकेलेपन का भय होगा. कमरे में शाम का अंधेरा वर्षा के कारण कुछ अधिक घिर आया था.

नमिता खिड़की से निहार रही थी. इसी बीच उसे फिर लगा कि कमरे में आहट हुई है. अंधेरे में ही उस ने कमरे में नजर दौड़ाई. जब उस ने दरवाजा बंद किया था तब चारों ओर देख कर बंद किया था. कहीं सिटकिनी लगाना तो नहीं भूल गई.

जाते वक्त मां ने कहा था, ‘‘घर के खिड़कीदरवाजे बंद रखना, शाम ढलने के पहले घर लौट आना.’’

मां की इस हिदायत पर नमिता हंसी थी, ‘‘मैं छुईमुई बच्ची नहीं हूं मां. कानून पढ़ चुकी हूं और अब पीएचडी कर रही हूं. जूडोकराटे में भी पारंगत हूं. किसी भी बदमाश से 2-2 हाथ कर सकती हूं.’’

बावजूद इस के मां ने चेतावनी देते हुए कहा था, ‘‘मत भूल बेटी कि तू एक लड़की है और लड़की को ऊंचनीच और अपनी इज्जतआबरू के लिए डरना चाहिए.’’

‘‘मां तुम फिक्र मत करो. मैं पूरा एहतियात और खयाल रखूंगी,’’ वह बोली थी.

आज तो वह घर से बाहर निकली ही नहीं थी कि कोई घर में आ कर छिप गया हो. मां को गए अभी पूरा दिन भी नहीं गुजरा था. वह अभी इसी उधेड़बुन में थी कि उसे लगा जैसे कमरे में कोई चलफिर रहा है. हाथ बढ़ा कर नमिता ने स्विच औन किया. पर यह क्या लाइट नहीं थी. भय से उसे पसीना आ गया.

वह मोमबत्ती लेने के लिए उठी ही थी कि लाइट आ गई. बारिश फिर शुरू हो गई थी. वह सोचने लगी शायद बारिश के कारण आवाज हो रही थी. वह बेकार डर गई. अंधेरा भी डर का एक कारण है. अभी रात की शुरुआत थी. केवल 7 बजे थे.

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नमिता को प्यास लग रही थी. किचन की लाइट औन कर जैसे ही फ्रिज की ओर बढ़ी कि उस की चीख निकल गई. सप्रयास वह इतना ही बोल पाई, ‘‘कौन हो तुम?’’

पुरुष आकृति के चेहरे पर नकाब था. उस ने बढ़ कर उस का मुंह अपनी हथेली से दबा दिया. बोला, ‘‘शोर करने की कोशिश मत करना वरना अंजाम ठीक नहीं होगा.’’

‘‘क्या चाहते हो? कौन हो तुम?’’

‘‘नासमझ लड़की कोई मनचला जवान पुरुष लड़की के पास क्यों आता है? तुझे मैं आतेजाते देखता था. मौका आज मिला है.’’

‘‘अपनी बकवास बंद करो… मैं इतनी कमजोर नहीं कि डर जाऊंगी. तुरंत निकल जाओ यहां से वरना मैं पुलिस को खबर करती हूं.’’

वह फोन की ओर बढ़ ही रही थी कि उस ने पीछे से उसे दबोच लिया. अचानक इस स्थिति से वह विवश हो गई. नकाबपोश ने उसे पलंग पर पटक दिया और कपड़े उतारने की कोशिश करने लगा.

‘‘वासना के कीड़े हर औरत को इतना कमजोर मत समझ. एक अकेली औरत अपने बल से एक अकेले पुरुष का सामना न कर पाए, यह संभव नहीं.’’ कहते हुए उस गुंडे की गिरफ्त से बचने के लिए नमिता अपना पूरा जोर लगा रही थी.

जैसे वह दरिंदा उस पर झुका नमिता ने उस की दोनों टांगों के मध्य अपने दोनों पैरों से जबरदस्त प्रहार किया. इस अप्रत्याशित प्रहार से वह तिलमिला उठा और दूर जा गिरा. वह उठ पाता उस से पहले ही नमिता भागी और कमरे का दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में पहुंच गई. उस ने पुलिस को फोन कर दिया. तुरंत पुलिस घटनास्थल पर पहुंच गई. दरवाजा खोला गया पर दरिंदा खिड़की की राह भागने में कामयाब हो गया. चारों ओर बिखरी चीजें. अस्तव्यस्त कमरे से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि नमिता को कितना संघर्ष करना पड़ा होगा.

खबर मिलते ही नमिता के मम्मीपापा रातोंरात टैक्सी कर के आ गए. नमिता मां से लिपट कर बहुत रोई.

मां सहमी बेटी को सहलाती रहीं. उस के पूरे शरीर में नीले निशान और खरोंचें थीं.

‘‘बेटा, पूरी घटना बता… डर छोड़… तू तो बहादुर बेटी है न.’’

‘‘हां मां, मैं ने उस दरिंदे को परास्त कर दिया,’’ कह नमिता ने पूरी घटना बयां कर दी.

सुबह का पेपर आ चुका था. जंगल की आग की तरह कल रात की घटना पड़ोसियों और परिचितों में फैल चुकी थी.

छात्रा के साथ बलात्कार की घटना छपी थी. मां को पढ़ कर सदमा लगा कि यह सब तो बेटी ने नहीं बताया.

मां को परेशान देख नमिता बोली, ‘‘मां, तुम परेशान क्यों होती हो… मेरे तन पर वह दरिंदा अभद्र हरकत करता उस के पहले ही मेरे अंदर की शक्ति ने उस पर विजय पा ली थी. मेरा विश्वास करो मां,’’ कह कर नमिता अंदर चली गई.

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मां पापा से कह रही थीं, ‘‘घरघर में पढ़ी जा रही होगी हमारी बेटी के साथ हुई घटना की खबर… मुझे तो बहुत डर लग रहा है.’’

तभी फोन की घंटी बजने लगी. लोग अफसोस जताने के बहाने कुछ सुनना चाहते थे.

मांपापा बोले, ‘‘हमें अपनी बेटी की बहादुरी पर नाज है… पेपर झूठ बता रहे हैं.’’

शाम होतेहोते इंदौर से योगेशजी का फोन आ गया जहां नमिता की सगाई हुई थी. दिसंबर में उस की शादी होने जा रही थी.

‘‘पेपर में आप की बेटी के बारे में पढ़ा, अफसोस हुआ… मैं फिर आप से बात करता हूं.’’

योगेशजी के लहजे से भयभीत हो उठे नमिता के पिता विमल. पत्नी से बोले, ‘‘पेपर में छपी यह खबर हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी. योगेशजी का फोन था. उन के आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे. कह रहे थे अभी आप परेशान होंगे, आप की और परेशानी बढ़ाना नहीं चाहता, बाद में बात करते हैं.’’

पुलिस और मीडिया वाले फिर घर के चक्कर लगा रहे थे, ‘‘हम नमिता का इंटरव्यू लेने आए हैं.’’

‘‘क्यों इतना कुछ छाप देने के बाद भी आप लोगों का जी नहीं भरा? लड़की ने अपनी सुरक्षा स्वयं कर ली, इतना काफी नहीं है?’’

‘‘नहीं सर, हम तो अपराधी को सजा दिलाना चाहते हैं… नमिता उस की पहचान बयां करती तो अच्छा था.’’

पापा बोले, ‘‘पुलिस में रिपोर्ट कर के तुम ने अच्छा नहीं किया बेटी. कितनी जलालत का सामना करना पड़ रहा है…’’

‘‘आप ने अन्याय के खिलाफ बोलने की आजादी दी है पापा,’’ नमिता उन्हें परेशान देख बोली, ‘‘मैं ने आप दोनों को सहीसही सारी घटना बता दी… मुझ पर भरोसा कीजिए.’’

मेरी खातिर- भाग 1: माता-पिता के झगड़े से अनिका की जिंदगी पर असर

राइटर- मेहर गुप्ता

‘‘निक्की तुम जानती हो कि कंपनी के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं छोटेछोटे कामों के लिए बारबार बौस के सामने छुट्टी के लिए मिन्नतें नहीं कर सकता हूं. जरूरी नहीं कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ चलूं. तुम अकेली भी जा सकती हो न. तुम्हें गाड़ी और ड्राइवर दे रखा है… और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘चाहती? मैं तुम्हारी व्यस्त जिंदगी में से थोड़ा सा समय और तुम्हारे दिल के कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह चाहती हूं.’’

‘‘बस शुरू हो गया तुम्हारा दर्शनशास्त्र… निकिता तुम बात को कहां से कहां ले जाती हो.’’

‘‘अनिकेत, जब तुम्हारे परिवार में कोई प्रसंग होता है तो तुम्हारे पास आसानी से समय निकल जाता है पर जब भी बात मेरे मायके

जाने की होती है तो तुम्हारे पास बहाना हाजिर होता है.’’

‘‘मैं बहाना नहीं बना रहा हूं… मैं किसी भी तरह समय निकाल कर भी तेरे घर वालों के हर सुखदुख में शामिल होता हूं. फिर भी तेरी शिकायतें कभी खत्म नहीं होती हैं.’’

‘‘बहुत बड़ा एहसान किया है तुम ने इस नाचीज पर,’’ मम्मी के व्यंग्य पापा के क्रोध की अग्निज्वाला को भड़काने का काम करते थे.

‘‘तुम से बात करना ही बेकार है, इडियट.’’

‘‘उफ… फिर शुरू हो गए ये दोनों.’’

‘‘मम्मा व्हाट द हैल इज दिस? आप लोग सुबहशाम कुछ देखते नहीं… बस शुरू हो जाते हैं,’’ आंखें मलते हुए अनिका ने मम्मी से कहा.

‘‘हां, तू भी मुझे ही बोल… सब की बस मुझ पर ही चलती है.’’

पापा अंदर से दरवाजा बंद कर चुके थे, इसलिए मुझे मम्मी पर ही अपना रोष डालना पड़ा था.

अनिका अपना मूड अच्छा करने के लिए कौफी बना, अपने कमरे की खिड़की के पास जा खड़ी हो गई. उस के कमरे की खिड़की सामने सड़क की ओर खुलती थी, सड़क के दोनों तरफ  वृक्षों की कतारें थीं, जिन पर रात में हुई बारिश की बूंदें अटकी थीं मानो ये रात में हुई बारिश की चुगली कर रही हों. अनिका उन वृक्षों के हिलते पत्तों को, उन पर बसेरा करते पंछियों को, उन पत्तियों और शाखाओं से छन कर आती धूप की उन किरणों को छोटी आंखें कर देखने पर बनते इंद्रधनुष के छल्लों को घंटों निहारती रहती. उसे वक्त का पता ही नहीं चलता था. उस ने घड़ी की तरफ देखा 7 बज गए थे. वह फटाफटा नहाधो कर स्कूल के लिए तैयार हो गई. कमरे से बाहर निकलते ही सोफे पर बैठे चाय पीते पापा ने ‘‘गुड मौर्निंग’’ कहा.

‘‘गुड मौर्निंग… गुड तो आप लोग मेरी मौर्निंग कर ही चुके हैं. सब के घर में सुबह की शुरुआत शांति से होती पर हमारे घर में टशन और टैंशन से…’’ उस ने व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी भौंहें चढ़ाते हुए कहा.

‘‘चलिए बाय मम्मी, बाय पापा. मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है.’’

‘‘पर बेटे नाश्ता तो करती जाओ,’’ मम्मी डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगाते हुए बोली.

‘‘सुबह की इतनी सुहानी शुरुआत से मेरा पेट भर गया है,’’ और वह चली गई.

अनिका जानती थी अब उन लोगों के बीच इस बात को ले कर फिर से बहस छिड़ गई होगी कि सुबह की झड़प का कुसूरवार कौन है. दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराने पर तुल गए होंगे. शाम को अनिका देर से घर लौटी. घर जाने से बेहतर उसे लाइब्रेरी में बैठ कर

पढ़ना अच्छा लगा. वैसे भी वह उम्र के साथ बहुत एकांतप्रिय और अंतर्मुखी बनती जा रही थी. घर में तो अकेली थी ही बाहर भी वह ज्यादा मित्र बनाना नहीं सीख पाई.

‘‘मम्मी मेरा कोई छोटा भाईबहन क्यों नहीं है? मेरे सिवा मेरे सब फ्रैंड्स के भाईबहन हैं और वे लोग कितनी मस्ती करती हैं… एक मैं ही हूं… बिलकुल अकेली,’’ अनगिनत बार वह मम्मी से शिकायत कर अपने मन की बात कह चुकी थी.

‘‘मैं हूं न तेरी बैस्ट फ्रैंड,’’ हर बार मम्मी यह कह कर अनिका को चुप करा देतीं. अनिका अपने तनाव को कम करने और बहते आंसुओं को छिपाने के लिए घंटों खिड़की के पास खड़ी हो कर शून्य को निहारती रहती.

घर में मम्मीपापा उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दरवाजे की घंटी बजते ही दोनों उस के पास आ गए.

‘‘आज आने में बहुत देर कर दी… फोन भी नहीं उठा रही थी… कितनी टैंशन हो गई थी हमें,’’ कह मम्मी उस का बैग कंधे से उतार कर उस के लिए पानी लेने चली गई.

‘‘हमारी इन छोटीमोटी लड़ाइयों की सजा तुम स्वयं को क्यों देती हो,’’ ?पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘किस के मम्मीपापा ऐसे होंगे, जिन के बीच अनबन न रहती हो.’’

‘‘पापा, इसे हम साधारण अनबन का नाम तो नहीं दे सकते. ऐसा लगता है जैसे आप दोनों रिश्तों का बोझ ढो रहे हो. मैं ने भी दादू, दादी, मां, चाची, चाचू, बूआ, फूफाजी को देखा है पर ऐसा अनोखा प्रेम तो किसी के बीच नहीं देखा है,’’ अनिका के कटाक्ष ने पापा को निरुत्तर कर दिया था.

‘‘बेटे ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम अतिसंवेदनशील हो?’’

पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, मम्मी से शादी आप ने दादू के दबाव में आ कर की थी क्या?’’

तुम्हारे हिस्से में- भाग 3: पत्नी के प्यार में क्या मां को भूल गया हर्ष?

लेखक- महावीर राजी 

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा. जींसटौप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी खरीद ली. क्रैडिट कार्ड पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के गुच्छों में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज से चलते हुए मुख्यद्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.

‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उन के लिए साड़ी,’’ हर्ष मिमियाया.

‘‘ओह,’’ संजना भी थम गई.

‘‘एक बार फिर वापस अप्सरा,’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने को मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़ कर रोक लिया, ‘‘अब उतर ही आए हैं तो चलो न, बाहर के किसी स्टोर से ले लेंगे.’’

‘‘बाहर के स्टोर से?’’ हर्ष सकपका गया.

‘‘ऐनी प्रौब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाईं, ‘‘मां ही तो हैं, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि साउथ मौल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी. हुंह…वैसे भी उन जैसी कसबाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहां से खरीदी गई है. बाहर के स्टोर से खरीदने पर सस्ती भी तो मिलेगी, आखिर बचत ही तो होगी.’’

‘‘सचमुच, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस, जेन,’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा, ‘‘पर लेनी तो प्योर सिल्क ही है यार.’’

‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी, ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’

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‘‘पिछली बार वहां गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वादा कर के आया था,’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.

‘‘उफ, तुम भी न…’’ संजना बड़बड़ाई, ‘‘इस तरह के उलटेसीधे वादे करने से पहले थोड़ा तो सोचना चाहिए था न.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता, जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दी तो मम्मी क्या सोचेंगी?’’

‘‘ठीक है. कोई उपाय करते हैं,’’ संजना सोच में पड़ गई.

बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जा कर हर्ष की कमर को लपेट लिया. संजना की सांसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भर दे रही थी.

रासबिहारी मैट्रो स्टेशन के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उन के हाथों में भारीभरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके. ऐसे हाईफाई ग्राहक का उन के साधारण से शोरूम में क्या काम?

‘‘वैलकम मैडम, क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.

‘‘प्योर सिल्क की एक साड़ी लेनी है हमें. कुछ बढि़या डिजाइनें दिखाइए.’’

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिया. देखते ही देखते काउंटर पर दसियों साडि़यां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एकएक साड़ी खोल कर डिजाइन व रंगों की प्रशंसा करने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली, 3 से 4 हजार की थीं साडि़यां. उस ने हर्ष की ओर देखा.

‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना धीमे से बोली.

‘‘मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छी क्वालिटी की प्योर सिल्क नहीं आएगी. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, ‘इतना मालदार आसामी प्राइस देख कर हड़क क्यों रहा है?’

‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंगरेजी में बातें करने लगे.

‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है. माना 40-45 की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. यह बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हुंह. प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का चाव चढ़ा है.’’

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‘‘आय एम सौरी, जेन. वायदा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं,’’

हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया.

उसे अच्छी तरह याद है. उस दिन दोस्तों के संग घूमफिर कर घर लौटा तो रात के 10 बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उस का इंतजार कर रही थीं. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा. ऊपर चेहरे पर उस के ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसा सम्मोहन घुला था इन में कि झपकी आ गई. काफी दिनों के बाद एक सुकून भरी नींद. 3 घंटे बाद अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों की त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही हैं.

उन्हीं क्षणों के दौरान उस के मुंह से निकल गया, ‘इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क की साड़ी दूंगा तुम्हें.’ यह सुन कर मम्मी सिर्फ मुसकरा भर दी थीं.

हर्ष और जेन के बीच बातचीत भले ही अंगरेजी में हो रही थी और मुखर्जी बाबू को अंगरेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी.

‘‘मैडम,’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किस के लिए ले रही हैं?’’

इस के पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने झट से स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया, ‘‘न, न, मैडम, अन्यथा न लें, सिर्फ इसलिए पूछा कि हम उस के अनुकूल दूसरा किफायती औप्शन बता सकें.’’

संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी, ‘‘साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए.’’

पलक झपकते मुखर्जी बाबू के जेहन में पूरा माजरा बेपरदा हो गया. मैडम ने साहब की मां को ‘मम्मी’ नहीं कहा, ‘सासूमां’ भी नहीं कहा, बल्कि ‘साहब की विडो मदर’ कहा और साहब कार्टून की तरह खड़ा दुम हिलाता ‘खीखी’ करता रहा.

‘‘आप का काम हो गया,’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए. थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क का नया बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरा. एक से एक खूबसूरत प्रिंट. एक से एक लुभावने कलर.

‘‘वैसे तो ये साडि़यां भी 4 हजार से ऊपर की ही हैं मैडम, पर हम इन्हें सिर्फ 800 रुपए में सेल कर रहे हैं. लोडिंगअनलोडिंग के समय हुक लग जाने से या चूहे के काट देने से माल में छोटामोटा छेद हो जाता है. हमारा ट्रैंड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी कर के उस नुक्स को इस माफिक ठीक करता है कि साड़ी एकदम नई हो जाती है. सरसरी नजर से देखने पर नुक्स बिलकुल भी पता नहीं चलेगा.’’

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‘‘यानी कि रफू की हुई,’’ संजना हकला उठी.

‘‘रफू नहीं मैडम, प्लास्टिक सर्जरी बोलिए. रफू तो देहाती शब्द है. आप खुद देखिए न.’’

सचमुच, बिलकुल नई और बेदाग साडि़यां. जहांतहां छोटेछोटे डिजाइनर तारे नजर आ रहे थे जो साड़ी की खूबसूरती को बढ़ा ही रहे थे. सरसरी तौर पर कोई भी नुक्स नहीं दिख रहा था साडि़यों में, दोनों की बाछें खिल उठीं. आंखों में ‘यूरेकायूरेका’ के भाव उभर आए, मन तनावमुक्त हो गया जैसे जेन का.

आननफानन ढेर में से एक साड़ी चुनी गई और पैक हो कर आ गई. यह नया पैकेट मौल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था जैसे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के बीच किसी सरकारी स्कूल का बच्चा आ घुसा हो.

‘‘मैं ने कहा था न, सही मौका आते ही क्रैडिट कार्ड की खरोंचों पर रफू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा भी पूरा हो गया और चिराग पर पूरे 3 हजार का रफू भी लग गया.’’

‘‘यू आर जीनियस, जेन,’’ हर्ष की प्रशंसा सुन कर संजना खिलखिलाई तो बालों की कई महीन लटें पहले की ही तरह आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आईं. बाइक की ओर बढ़ते हुए दोनों के चेहरे खिले हुए थे.

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