अपना घर: भाग 2

एक रात विजय ने शराब के नशे में मदहोश हो कर सुरेखा का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, ‘‘तुम ने मुझे जो धोखा दिया है, उस की सजा जल्दी ही मिलेगी. मुझे तुम से और तुम्हारे परिवार से नफरत है. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा. मुझे नहीं चाहिए एक चरित्रहीन और धोखेबाज पत्नी. अब तुम सारी उम्र विकास के गम में रोती रहना.’’

उधर से कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘सुन रही हो या बहरी हो गई हो?’’ विजय ने नशे में बहकते हुए कहा.

‘यह क्या आप ने शराब पी रखी है?’ वहां से आवाज आई.

‘‘हां, पी रखी है. मैं रोज पीता हूं. मेरी मरजी है. तू कौन होती है मुझ से पूछने वाली? धोखेबाज कहीं की.’’

उधर से फोन बंद हो गया.

विजय ने फोन एक तरफ फेंक दिया और देर तक बड़बड़ाता रहा.

औफिस और पासपड़ोस के कुछ साथियों ने विजय को समझाया कि शराब के नशे में डूब कर अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. इस परेशानी का हल शराब नहीं है, पर विजय पर कोई असर नहीं पड़ा. वह शराब के नशे में डूबता चला गया.

एक शाम विजय घर पर ही शराब पीने की तैयारी कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. विजय ने बुरा सा मुंह बना कर कहा, ‘‘इस समय कौन आ गया मेरा मूड खराब करने को?’’

विजय ने उठ कर दरवाजा खोला तो चौंक उठा. सामने उस का पुराना दोस्त अनिल अपनी पत्नी सीमा के साथ था.

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‘‘आओ अनिल, अरे यार, आज इधर का रास्ता कैसे भूल गए? सीधे दिल्ली से आ रहे हो क्या?’’ विजय ने पूछा.

‘‘हां, आज ही आने का प्रोग्राम बना था. तुम्हें 2-3 बार फोन भी मिलाया, पर बात नहीं हो सकी.’’

‘‘आओ, अंदर आओ,’’ विजय ने मुसकराते हुए कहा.

विजय ने मेज पर रखी शराब की बोतल, गिलास व खाने का सामान वगैरह उठा कर एक तरफ रख दिया.

अनिल और सीमा सोफे पर बैठ गए. अनिल और विजय अच्छे दोस्त थे, पर वह अनिल की शादी में नहीं जा पाया था. आज पहली बार दोनों उस के पास आए थे.

विजय ने सीमा की ओर देखा तो चौंक गया. 3 साल पहले वह सीमा से मिला था अगरा में, जब अनिल और विजय लालकिला में घूम रहे थे. एक बूढ़ा आदमी उन के पास आ कर बोला था, ‘‘बाबूजी, आगरा घूमने आए हो?’’

‘‘हां,’’ अनिल ने कहा था.

‘‘कुछ शौक रखते हो?’’ बूढ़े ने कहा.

वे दोनों चुपचाप एकदूसरे की तरफ देख रहे थे.

‘‘बाबूजी, आप मेरे साथ चलो. बहुत खूबसूरत है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. बस, कभीकभी आप जैसे बाहर के लोगों को खुश कर देती है,’’ बूढ़े ने कहा था.

वे दोनों उस बूढ़े के साथ एक पुराने से मकान पर पहुंच गए. वहां तीखे नैननक्श वाली सांवली सी एक खूबसूरत लड़की बैठी थी. अनिल उस लड़की के साथ कमरे में गया था, पर वह नहीं.

वह लड़की सीमा थी, अब अनिल की पत्नी. क्या अनिल ने देह बेचने वाली उस लड़की से शादी कर ली? पर क्यों? ऐसी क्या मजबूरी हो गई थी जो अनिल को ऐसी लड़की से शादी करनी पड़ी?

‘‘भाभीजी दिखाई नहीं दे रही हैं?’’ अनिल ने विजय से पूछा.

‘‘वह मायके गई है,’’ विजय के चेहरे पर नफरत और गुस्से की रेखाएं फैलने लगीं.

‘‘तभी तो जाम की महफिल सजाए बैठे हो, यार. तुम तो शराब से दूर भागते थे, फिर ऐसी क्या बात हो गई कि…?’’

‘‘ऐसी कोई खास बात नहीं. बस, वैसे ही पीने का मन कर रहा था. सोचा कि 2 पैग ले लूं…’’ विजय उठता हुआ बोला, ‘‘मैं तुम्हारे लिए खाने का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘अरे भाई, खाने की तुम चिंता न करो. खाना सीमा बना लेगी और खाने से पहले चाय भी बना लेगी. रसोई के काम में बहुत कुशल है यह,’’ अनिल ने कहा.

विजय चुप रहा, पर उस के दिमाग में यह सवाल घूम रहा था कि आखिर अनिल ने सीमा से शादी क्यों की?

सीमा उठ कर रसोईघर में चली गई. विजय ने अनिल को सबकुछ सच बता दिया कि उस ने सुरेखा को घर से क्यों निकाला है.

अनिल ने कहा, ‘‘पहचानते हो अपनी भाभी सीमा को?’’

‘‘हां, पहचान तो रहा हूं, पर क्या यह वही है… जब आगरा में हम दोनों घूमने गए थे?’’

‘‘हां विजय, यह वही सीमा है. उस दिन आगरा के उस मकान में वह बूढ़ा ले गया था. मैं ने सीमा में पता नहीं कौन सा खिंचाव व भोलापन पाया कि मेरा मन उस से बातें करने को बेचैन हो उठा था. मैं ने कमरे में पलंग पर बैठते हुए पूछा था, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

‘‘यह सुन कर वह बोली थी, ‘क्या करोगे जान कर? आप जिस काम से आए हो, वह करो और जाओ.’

‘‘तब मैं ने कहा था, ‘नहीं, मुझे उस काम में इतनी दिलचस्पी नहीं है. मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूं.’

‘‘वह बोली थी, ‘मेरे बारे में जानना चाहते हो? मुझ से शादी करोगे क्या?’

‘‘उस ने मेरी ओर देख कर कहा तो मैं एकदम सकपका गया था. मैं ने उस से पूछा था, ‘पहले तुम अपने बारे में बताओ न.’

‘‘उस ने बताया था, ‘मेरा नाम सीमा है. वह मेरा चाचा है जो आप को यहां ले कर आया है. आगरा में एक कसबा फतेहाबाद है, हम वहीं के रहने वाले हैं. मेरे मातापिता की एक बस हादसे में मौत हो गई थी. उस के बाद मैं चाचाचाची के घर रहने लगी. मैं 12वीं में पढ़ रही थी तो एक दिन चाचा ने आगरा ला कर मुझे इस काम में धकेल दिया.

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‘‘चाचा के पास थोड़ी सी जमीन है जिस में सालभर के गुजारे लायक ही अनाज होता है. कभीकभार चाचा मुझे यहां ले कर आ जाता है.’

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‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘जब चाचा ने इस काम में तुम्हें धकेला तो तुम ने विरोध नहीं किया?’

‘‘वह बोली थी, ‘किया था विरोध. बहुत किया था. एक दिन तो मैं ने यमुना में डूब जाना चाहा था. तब किसी ने मुझे बचा लिया था. मैं क्या करती? अकेली कहां जाती? कटी पतंग को लूटने को हजारों हाथ होते हैं. बस, मजबूर हो गई थी चाचा के सामने.’

‘‘फिर मैं ने उस से पूछा था, ‘इस दलदल में धकेलने के बजाय चाचा ने तुम्हारी शादी क्यों नहीं की?’

‘‘वह बोली, ‘मुझे नहीं मालूम…’

‘‘यह सुन कर मैं कुछ सोचने लगा था. तब उस ने पूछा था, ‘क्या सोचने लगे? आप मेरी चिंता मत करो और…’

‘‘कुछ सोच कर मैं ने कहा था, ‘सीमा, मैं तुम्हें इस दलदल से निकाल लूंगा.’

‘‘तो वह बोली थी, ‘रहने दो आप बाबूजी, क्यों मजाक करते हो?’

‘‘लेकिन मैं ने ठान लिया था. मैं ने उस से कहा था, ‘यह मजाक नहीं है. मैं तुम्हें यह सब नहीं करने दूंगा. मैं तुम से शादी करूंगा.’

‘‘सीमा के चेहरे पर अविश्वास भरी मुसकान थी. एक दिन मैं ने सीमा के चाचा से बात की. एक मंदिर में हम दोनों की शादी हो गई.

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प्रतिदिन: भाग 3

‘‘‘सुमित्रा मेरी सलाह लिए बिना भाभी को चाबी दे आई. आ कर भाभी की बड़ी तारीफ करने लगी. चूंकि इस का अभी तक चालाक लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था इसलिए भाभी इसे बहुत अच्छी लगी थीं. पर भाभी क्या बला है यह तो मैं ही जानता हूं. वैसे मैं ने इसे पिछली बार जब इंडिया भेजा था तो वहां जा कर इस का पागलपन का दौरा ठीक हो गया था. लेकिन इस बार रिश्तेदारों से मिल कर 1 महीने में ही वापस आ गई. पूछा तो बोली, ‘रहती कहां? बड़ी भाभी ने किसी को घर की चाबी दे रखी थी. कोई बैंक का कर्मचारी वहां रहने लगा था.’

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‘‘सुमित्रा आगे बताने लगी कि भाभी यह जान कर कि हम अब यहीं आ कर रहेंगे, खुश नहीं हुईं बल्कि कहने लगीं, ‘जानती हो कितनी महंगाई हो गई है. एक मेहमान के चायपानी पर ही 100 रुपए खर्च हो जाते हैं.’ फिर वह उठीं और अंदर से कुछ कागज ले आईं. सुमित्रा के हाथ में पकड़ाते हुए कहने लगीं कि यह तुम्हारे मकान की रिपेयरिंग का बिल है जो किराएदार दे गया है. मैं ने उस से कहा था कि जब मकानमालिक आएंगे तो सारा हिसाब करवा दूंगी. 14-15 हजार का खर्चा था जो मैं ने भर दिया.

‘‘‘रात खानेपीने के बाद देवरानी व जेठानी एकसाथ बैठीं तो यहांवहां की बातें छिड़ गईं. सुमित्रा कहने लगी कि दीदी, यहां भी तो लोग अच्छा कमातेखाते हैं, नौकरचाकर रखते हैं और बडे़ मजे से जिंदगी जीते हैं. वहां तो सब काम हमें अपने हाथ से करना पड़ता है. दुख- तकलीफ में भी कोई मदद करने वाला नहीं मिलता. किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि किसी बीमार की जा कर खबर ले आए.’

‘‘भाभी का जला दिल और जल उठा. वह बोलीं कि सुमित्रा, हमें भरमाने की बातें तो मत करो. एक तुम्हीं तो विलायत हो कर नहीं आई हो…और भी बहुत लोग आते हैं. और वहां का जो यशोगान करते हैं उसे सुन कर दिल में टीस सी उठती है कि आप ने विलायत रह कर भी अपने भाई के लिए कुछ नहीं किया.

‘‘सुमित्रा ने बात बदलते हुए पूछा कि दीदी, उस सुनंदा का क्या हाल है जो यहां स्कूल में प्रिंसिपल थी. इस पर बड़ी भाभी बोलीं, ‘अरे, मजे में है. बच्चों की शादी बडे़ अमीर घरों में कर दी है. खुद रिटायर हो चुकी है. धन कमाने का उस का नशा अभी भी नहीं गया है. घर में बच्चों को पढ़ा कर दौलत कमा रही है. पूछती तो रहती है तेरे बारे में. कल मिल आना.’

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‘‘अगले दिन सुमित्रा से सुनंदा बड़ी खुश हो कर मिली. उलाहना भी दिया कि इतने दिनों बाद गांव आई हो पर आज मिलने का मौका मिला है. आज भी मत आतीं.

‘‘सुनंदा के उलाहने के जवाब में सुमित्रा ने कहा, ‘लो चली जाती हूं. यह तो समझती नहीं कि बाहर वालों के पास समय की कितनी कमी होती है. रिश्तेदारों से मिलने जाना, उन के संदेश पहुंचाना. घर में कोई मिलने आ जाए तो उस के पास बैठना. वह उठ कर जाए तो व्यक्ति कोई दूसरा काम सोचे.’

‘‘‘बसबस, रहने दे अपनी सफाई,’ सुनंदा बोली, ‘इतने दिनों बाद आई है, कुछ मेरी सुन कुछ अपनी कह.’

‘‘आवभगत के बाद सुनंदा ने सुमित्रा को बताया तुम्हारी जेठानी ने तुम्हारा घर अपना कह कर किराए पर चढ़ाया है. 1,200 रुपए महीना किराया लेती है और गांवमहल्ले में सब से कहती फिरती है कि सुमित्रा और देवरजी तो इधर आने से रहे. अब मुझे ही उन के घर की देखभाल करनी पड़ रही है. सुमित्रा पिछली बार खुद ही मुझे चाबी दे गई थी,’ फिर आगे बोली, ‘मुझे लगता है कि उस की निगाह तुम्हारे घर पर है.’

‘‘‘तभी भाभी मुझ से कह रही थीं कि जिस विलायत में जाने को हम यहां गलतसही तरीके अपनाते हैं, उसी को तुम ठुकरा कर आना चाहती हो. तेरे भले की कहती हूं ऐसी गलती मत करना, सुमित्रा.’

‘‘सुनंदा बोली, ‘मैं ने अपनी बहन समझ कर जो हकीकत है, बता दी. जो भी निर्णय लेना, ठंडे दिमाग से सोच कर लेना. मुझे तो खुशी होगी अगर तुम लोग यहां आ कर रहो. बीते दिनों को याद कर के खूब आनंद लेंगे.’

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‘‘सुनंदा से मिल कर सुमित्रा आई तो घर में उस का दम घुटने लगा. वह 2 महीने की जगह 1 महीने में ही वापस लंदन चली आई.

‘‘‘विनोद भाई, तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ कि क्या करूं. इधर से सब बेच कर इंडिया रहने की सोचूं तो पहले तो घर से किराएदार नहीं उठेंगे. दूसरे, कोई जगह ले कर घर बनाना चाहूं तो वहां कितने दिन रह पाएंगे. बच्चों ने तो उधर जाना नहीं. यहां अपने घर में तो बैठे हैं. किसी से कुछ लेनादेना नहीं. वहां तो किसी काम से भी बाहर निकलो तो जासूस पीछे लग लेंगे. तुम जान ही नहीं पाओगे कि कब मौका मिलते ही तुम पर कोई अटैक कर दे. यहां का कानून तो सुनता है. कमी तो बस, इतनी ही है कि अपनों का प्यार, उन के दो मीठे बोल सुनने को नहीं मिलते.’’

‘‘‘बात तो तुम्हारी सही है. थोडे़ सुख के लिए ज्यादा दुख उठाना तो समझदारी नहीं. यहीं अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करो,’’ विनोद ने उन्हें सुझाया था.

‘‘अब जब सारी उम्र खूनपसीना बहा कर यहीं गुजार दी, टैक्स दे कर रानी का घर भर दिया. अब पेंशन का सुख भी इधर ही रह कर भोगेंगे. जिस देश की मिट्टीपानी ने आधी सदी तक हमारे शरीर का पोषण किया उसी मिट्टी को हक है हमारे मरने के बाद इस शरीर की मिट्टी को अपने में समेटने का. और फिर अब तो यहां की सरकार ने भारतीयों के लिए अस्थिविसर्जन की सुविधा भी शुरू कर दी है.

‘‘विनोद, मैं तो सुमित्रा को समझासमझा कर हार गया पर उस के दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं. एक बार बडे़ बेटे ने फोन क्या कर दिया कि मम्मी, आप दादी बन गई हैं और एक बार अपने पोते को देखने आओ न. बस, कनाडा जाने की रट लगा बैठी है. वह नहीं समझती कि बेटा ऐसा कर के अपने किए का प्रायश्चित करना चाहता है. मैं कहता हूं कि उसे पोते को तुम से मिलाने को इतना ही शौक है तो खुद क्यों नहीं यहां आ जाता.

‘‘तुम्हीं बताओ दोस्त, जिस ने हमारी इज्जत की तनिक परवा नहीं की, अच्छेभले रिश्ते को ठुकरा कर गोरी चमड़ी वाली से शादी कर ली, वह क्या जीवन के अनोखे सुख दे देगी इसे जो अपनी बिरादरी वाली लड़की न दे पाती. देखना, एक दिन ऐसा धत्ता बता कर जाएगी कि दिन में तारे नजर आएंगे.’’

‘‘यार मैं ने सुना है कि तुम भाभी को बुराभला भी कहते रहते हो. क्या इस उम्र में यह सब तुम्हें शोभा देता है?’’ एक दिन विनोद ने शर्माजी से पूछा था.

‘‘क्या करूं, जब वह सुनती ही नहीं, घर में सब सामान होते हुए भी फिर वही उठा लाती है. शाम होते ही खाना खा ऊपर जा कर जो एक बार बैठ गई तो फिर कुछ नहीं सुनेगी. कितना पुकारूं, सिर खपाऊं पर जवाब नहीं देती, जैसे बहरी हो गई हो. फिर एक पैग पीने के बाद मुझे भी होश नहीं रहता कि मैं क्या बोल रहा हूं.’’

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पूरी कहानी सुनातेसुनाते दीप्ति को लंच की छुट्टी का भी ध्यान न रहा. घड़ी देखी तो 5 मिनट ऊपर हो गए थे. दोनों ने भागते हुए जा कर बस पकड़ी.

घर पहुंचतेपहुंचते मेरे मन में पड़ोसिन आंटी के प्रति जो क्रोध और घृणा के भाव थे सब गायब हो चुके थे. धीरेधीरे हम भी उन के नित्य का ‘शबद कीर्तन’ सुनने के आदी होने लगे.

हिमशैल: भाग 2

रायबहादुर घर में आए इस बदलाव को महसूस तो कर रहे थे पर कारण समझने में असमर्थ थे इसलिए केवल मूकदर्शक ही बन कर रह गए थे. इनसान बाहर के दुश्मनों से तो लड़ सकता है किंतु जब घर में ही कोई विभीषण हो तो कोई क्या करे. अपनों से धोखा खाना बेहद सरल है. कहते हैं कि औरत ही घर बनाती है और वही बिगाड़ती भी है. यदि परिवार में एक भी स्त्री गलत मंतव्य की आ जाए तो विनाश अवश्यंभावी है.

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उम्र बढ़ने के साथसाथ आरती की चचिया सास के निरंकुश शासन का साम्राज्य भी बढ़ता रहा. इस बात का तकलीफदेह अनुभव तब हुआ जब चाचीजी के सौतेले भाई ने अपने बेटे के विवाह में बहन की नाराजगी के डर से अजय व रायबहादुर को विवाह का आमंत्रणपत्र ही नहीं भेजा. लोगों द्वारा उन के न आने का कारण पूछने पर उन का पैसों का अहंकार प्रचारित कर दिया गया. हालांकि चाचाजी ने इस का विरोध किया था किंतु तेजतर्रार चाची के सामने उन की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई थी.

मृतप्राय रिश्तों के ताबूत में आखिरी कील उन्होंने तब ठोंक दी जब अजय के बेटे अंशुल के जन्मदिन की पार्टी में रायबहादुर द्वारा सानुरोध सपरिवार आमंत्रित होेने के बाद भी केवल चाचाजी थोड़ी देर के लिए आ कर रस्म अदायगी कर गए. केवल लोकलाज के लिए रिश्तों को ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रह गया था. इसीलिए सगी भतीजी नेहा के विवाह आमंत्रण पर अजय ने साफ कह दिया कि यदि चाचाजी के परिवार को बुलाया गया तो हमारा परिवार नहीं जाएगा.

हमेशा की तरह बिना कारण पूछे विजय छूटते ही बोला, ‘अजय, तुम तो लड़ने का बहाना ढूंढ़ते रहते हो, इसीलिए सब तुम से दूर होते जा रहे हैं.’

‘अपने दूर क्यों हो रहे हैं, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि समझना ही नहीं चाहते. मैं न किसी से लड़ने जाता हूं और न अहंकारी हूं. हां, साफ कहने का माद्दा रखता हूं और गलत बात बरदाश्त नहीं करता. मुझे तो भाई आश्चर्य इस बात का है कि जब वे आप को गलत नहीं लगे तो मैं क्यों लग रहा हूं या तो आप को पूरी बातें पता ही नहीं हैं या मेरी इज्जत आप के लिए कोई माने नहीं रखती है. कोई हो या न हो पर पिताजी मेरे साथ हैं और यही मेरे लिए काफी है,’ अजय एक सांस में बोल गया.

‘तुम्हीं लोगों को शिकायतें रहती हैं. पिताजी तो मेरे यहां हर फंक्शन पर आते हैं और चाचाजी व अन्य सब से ठीक से बोलते भी हैं.’

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‘संतान का मोह ही उन्हें खींच कर ले जाता है. संतान चाहे कितना भी दुख दे मांबाप का प्यार तो निस्वार्थ होता है. आप ने कभी उन का दर्द महसूस ही नहीं किया. रही बात चाचाजी से पिताजी के बोलने की, तो हम लोग उस स्तर तक असभ्य नहीं हो सकते कि कोई बात करे तो जवाब न दें या अपने घर फंक्शन पर बुला कर खाने तक के लिए न पूछें. क्या आप के लिए चाचाजी, सगे भाई व पिता की खुशी से भी ज्यादा बढ़ कर हैं?’

‘जो भी हो…पर अजय…अब केवल तुम्हारे लिए मैं चाचाजी के पूरे परिवार को तो नहीं छोड़ सकता. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाऊंगा ही,’ विजय जैसे कुछ सुननेसमझने को तैयार ही न था.

‘तो ठीक है, हमें ही छोड़ दीजिए,’ भारी मन से कह अजय सब के बीच से उठ कर चला गया था. पर इस एक पल में अंदर कितना कुछ टूट गया, कौन जान सका. एक क्षण को विजय अपने ही शब्दों की चुभन से आहत हो उठा था. किंतु बंदूक से निकली गोली और मुंह से निकली बोली तो वापस नहीं हो सकती.

उस दिन का व्याप्त सन्नाटा आज तक नहीं टूट पाया था. तभी महरी की आवाज से आरती की तंद्रा भंग हो गई.

‘‘बीबीजी, आप नहीं जाएंगी नेहा बिटिया की गोदभराई पर?’’ आंखों में कुटिल भाव लिए पल्लू से हाथ पोंछती महरी ने पूछा था.

‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब है…जाओ, अपना काम करो,’’ उस की चुगलखोरी की आदत से अच्छी तरह परिचित आरती ने उसे झिड़क दिया. वह मुंह बनाती हुई चली गई. आरती ने जा कर दरवाजा बंद कर लिया. मन की थकान से तन भी क्लांत हो उठा था. वह कुरसी पर अधलेटी सी आंखें बंद कर बैठ गई.

घर में फैले तनाव को भांप कर दोनों बच्चे अंशुल व आकांक्षा स्कूल से आ कर चुपचाप खाना खा कर अपने कमरे में पढ़ने का उपक्रम कर रहे थे. अजय के आने में देर थी. विजय का बेटा शिशिर जब बुलाने आया तो पिताजी न चाहते हुए भी उस के साथ नेहा की गोदभराई में चले गए थे. घर के एकांत में लाउडस्पीकर पर गानों की आवाज से ज्यादा पुरानी यादों की गूंज थीं.

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आपसी रिश्तों में ख्ंिचाव व नया मकान बन जाने पर अजय अपने परिवार व पिता के साथ पुश्तैनी मकान, जिस में विजय का परिवार भी रहता था, छोड़ कर पास ही बने अपने नए बंगले में शिफ्ट हो गया था. दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार होते हुए भी न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति उन के संबंधों को पुन: मधुर बनने से रोकती रही. स्थान की दूरी तो इनसान तय कर सकता है पर दिलों के फासले दूर करना इतना आसान नहीं है.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. अन्यमनस्क सी आरती ने उठ कर द्वार खोला तो सगे देवर कमल व उस की पत्नी पूजा को आया देख सुखद आश्चर्य से भर उठीं.

‘‘आइए, अंदर आइए, कमल भैया. पूजा…कब आए लंदन से?’’ अपनों से मिलने की प्रसन्नता आंखें नम कर गई.

‘‘भाभी, बस, अभी 2 घंटे पहले ही पहुंचे हैं. पर यह सब हम क्या सुन रहे हैं. आप लोग सगाई में शरीक नहीं होंगे?’’

अंदर आ कर कमल और पूजा ने आरती को पेर छूते हुए पूछा तो अनायास ही उस की आंखें भर आईं. पूजा को उठा कर गले से लगाती हुई बोली, ‘‘लोग तो अपने देश में रह कर भी आपसी सभ्यता व संस्कार याद नहीं रखते. तुम लोग विदेश जा कर भी भूले नहीं हो.’’

‘‘हां, भाभी, विदेश में सबकुछ मिलता है. हर चीज पैसों से खरीदी जा सकती है पर बड़ों का आशीर्वाद और प्यार बाजार में नहीं बिकता. सच, आप सब की वहां बहुत याद आती है. चलिए, तैयार हो जाइए. ऐसा भी कहीं हो सकता है, घर में शादी है और आप लोग यहां अकेले बैठे हैं,’’ पूजा मनुहार करती सी बोली.

आरती के चेहरे पर कई रंग आ कर चले गए. तभी अजय भी आ गए. बरसों बाद मिले सब एकदूसरे का सुखदुख बांटते रहे. आखिर, कमल के बहुत पूछने पर अजय ने उन को अपने न जाने की वजह बता दी.

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‘‘यहां इतना कुछ हो गया और आप लोगों ने हमें कुछ बताया ही नहीं. उन सब की ज्यादतियों का हिसाब तो हम लोग ले ही लेंगे पर अभी तो आप लोग चलिए वरना हम भी नहीं जाएंगे और आप खुद को अकेला न समझें भैया. मैं हूं न आप के साथ,’’ कमल उत्तेजित हो कर बोला.

‘‘जहां इज्जत न हो वहां न जाना ही बेहतर है. यह हमारा अहंकार या जिद नहीं स्वाभिमान है. हद तो यह है कि चाचीजी के भाई सौतेले हो कर भी उन की गलत बात मान लेते हैं और हम अपने सगे भाइयों से सही बात मानने की आशा न रखें. वे मुझे ही गलत समझते हैं. और तो और पिताजी की इच्छा का भी उन के लिए कोई महत्त्व नहीं है,’’ उदासी अजय की आवाज से साफ झलक उठी थी. एक नजर सब पर डाल वह फिर कहने लगे, ‘‘इस निर्णय तक मुझे पहुंचने में तकलीफ तो बहुत हुई पर अब कोई दुख नहीं है. इसी बहाने मुझे अपने और बेगानों की पहचान तो हो गई.’’

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जाना पहचाना – क्या था प्रतिभा के सासससुर का अतीत?

‘उन की निगाहों में जाने कितने ही रंग समाए हैं….
पर हर रंग में मुझे अपना ही अक्स नजर आता है….’
अमर ने एकटक प्रतिभा को देखते हुए कहा तो वह हंस पड़ी.

“चलो आज तुम्हें अपने पैरंट्स से मिलवा दूं.” अमर ने प्रतिभा का हाथ थाम कर फिर से कहा. प्रतिभा खुशी से चीख पड़ी,
” सच”
उस के चेहरे पर शर्म की लाली बिखर गई.

माहौल में और भी रंग भरते हुए अमर ने कहा, “सोचता हूं लगे हाथ उन से हमारी शादी का दिन भी तय करवा लूं.”

प्रतिभा ने हौले से पलकें उठाते हुए कहा,” सीधे शब्दों में कहो न कि तुम मुझे प्रपोज कर रहे हो. इतने निराले अंदाज में तो कभी किसी ने प्रपोज नहीं किया होगा.”

प्रतिभा की बात सुन कर अमर हंस पड़ा फिर गंभीर होता हुआ बोला,” सच प्रतिभा बहुत प्यार करने लगा हूं तुम्हें और तुम से जुदा हो कर जीने की बात सोच भी नहीं सकता. इसलिए चाहता हूं जल्द से जल्द हमारे रिश्ते को घर वालों की भी स्वीकृति मिल जाए. ”

“जरूर मिल जाएगी स्वीकृति. तुम बताओ कब चलना है?”

“कल कैसा रहेगा? एक्चुअली कल सटरडे है. सुबह निकलेंगे तो शाम से पहले ही लखनऊ पहुंच जाएंगे. फिर संडे वापस दिल्ली.”

“वेरी गुड. मैं इंडियन ड्रैस पहन कर चलूंगी ताकि तुम्हारे पेरेंट्स को एक नजर में पसंद आ जाऊं. ” कह कर उस ने अपना सिर अमर के कंधों पर टिका दिया.

अमर और प्रतिभा एक ही ऑफिस में पिछले 4 सालों से साथ काम करते आ रहे हैं. प्रतिभा पटना की है और दिल्ली में पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जॉब करती है. इधर अमर भी लखनऊ से अपने सपनों को पूरा करने दिल्ली आया हुआ है. दोनों इतने दिनों से साथ हैं. एकदूसरे को पसंद भी करते हैं. पर आज पहली दफा अमर ने साफ तौर पर प्रतिभा से दिल की बात कही थी. दोनों के दिल सुनहरे सपनों की दुनिया में खो गए थे.

अगले दिन सुबहसुबह ट्रेन थी. प्रतिभा ने एक सुंदर हल्के नीले रंग का फ्रॉकसूट पहना. उस पर गुलाबी रंग का काम किया हुआ दुपट्टा लिया. माथे पर नीले रंग की बिंदी लगाई. होठों पर हल्का गुलाबी लिपस्टिक लगा कर बालों को खुले छोड़ दिए. हाई हील्स पहन कर जब वह अमर के सामने आई तो वह आहें भरता हुआ बोला,” आज तो महताब जमीन पर उतर आया है…..  साथसाथ चलेगी रोशनी सारी रात …. ”

“मिस्टर शायर, आप कहें तो हम प्रस्थान करें?” मुसकुरा कर प्रतिभा ने कहा और दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े आगे बढ़ गए.

पूरे रास्ते दोनों भावी जीवन के सपने देखते रहे. घर पहुंच कर अमर ने बेल बजाई तो प्रतिभा का दिल धड़क उठा. वह पहली बार अपनी भावी सासससुर से मिलने वाली थी. दरवाजा अमर की मां ने खोला. पीछे से उस के पिता भी आ गए. प्रतिभा ने जल्दी से दुपट्टा सिर पर रख कर सासससुर के पैर छूए और आशीर्वाद लिया. सास ने उसे गले से लगा लिया और प्यार से अंदर ले आई.

इधर प्रतिभा इस बात को ले कर चकित थी कि पहली बार मिलने के बावजूद उसे अमर के मातापिता का चेहरा जाना पहचाना सा लग रहा था. वह असमंजस की स्थिति में थी. थोड़ी देर की बातचीत के बाद आखिरकार उस ने अपने मन की बात बोल ही दी.

इस पर अमर के पिता एकदम हड़बड़ा से गए. मगर जल्द ही संभलते हुए बोले,” देखा होगा बेटी तुम ने कहीं आतेजाते.”

फिर बात बदलते हुए पूछने लगे,” तुम पटना में कहां रहती हो?”

जी कंकरबाग में. ”

जवाब दे कर प्रतिभा ने फिर सवाल किया,” पर अंकल आप दोनों तो लखनऊ में रहते हो और मैं दिल्ली में. आप कभी अमर से मिलने दिल्ली आए भी नहीं हो. फिर मैं ने आप दोनों को कहां देखा होगा?”

अमर की मां ने बात बात संभालने की कोशिश की और बोली,” बेटी एक जैसे चेहरे वाले भी बहुत से लोग होते हैं. वह सब छोड़ और यह बता कि तुझे पसंद क्या है वही बना देती हूं.”

प्रतिभा तुरंत उठ गई और बोली,” अरे आंटी आप बैठो मैं बनाती हूं न.”

इस के बाद प्रतिभा ने कोई सवाल नहीं किया. खातेपीते और बातें करते कब रात हो गई पता ही नहीं चला. सास ने प्रतिभा को अपने कमरे में सोने के लिए बुला लिया. प्रतिभा ने टेबल पर रखी तस्वीरें देखते हुए पूछा,” आंटी जी अपनी पुरानी तस्वीरें दिखाइए न और आप दोनों की शादी की तस्वीर भी.”

“अरे बेटी अब पुरानी तस्वीरें कौन निकाले. अंदर कहीं संदूक में पड़ी होगी और वैसे भी हम ने कोर्ट मैरिज की थी.”

“कोर्ट मैरिज, क्या बात है आंटी. उस जमाने में आप ने कोर्ट मैरिज कर ली.”

“अब चल सो जा प्रतिभा. पुरानी बातें याद करने से क्या फायदा?” कह कर सास करवट बदल कर सो गई. इधर प्रतिभा सोच में डूबी रही.

अगले दिन दोनों दिल्ली के लिए वापस रवाना हो गए. प्रतिभा के मन में अभी भी कुछ उलझनें थी मगर अमर बहुत खुश था. प्रतिभा को ले कर उस के मांबाप का रिस्पांस पॉजिटिव जो था. प्रतिभा ने अपने मन की बात अमर को नहीं बताई. वह उस की खुशी में कोई बाधा पहुंचाना जो नहीं चाहती थी.

दिल्ली पहुंच कर प्रतिभा ने नेट पर खोजखबर निकालने की कोशिश की. मगर कुछ पता नहीं चला. फिर उस ने अमर के मांबाप के साथ अपनी फोटो अपने पैरेंट्स को शेयर की और लिखा,” यह फोटो मेरे सब से अच्छे दोस्त के मम्मीपापा की है. उन से पहली बार मिलने के बावजूद उन का चेहरा जानापहचाना सा लगा. क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

प्रतिभा के पिता ने जवाब दिया,”चेहरे पहचाने से लगते हैं पर याद नहीं आता कि कौन है.”

जवाब पढ़ कर प्रतिभा चुप रह गई. धीरेधीरे यह बात उस के दिलोदिमाग से उतरती गई.

कुछ दिन बाद गर्मी की छुट्टियों में प्रतिभा ने अपने घर पटना जाने की तैयारियां शुरू कर दी. पटना जाने को ले कर वह उत्साहित थी मगर अमर से बिछड़ने के अहसास से मन भारी भी हो रहा था. किसी तरह अमर से विदा ले कर वह ट्रेन में बैठ गई. सारे रास्ते वह अमर और अपने रिश्ते को ले कर सोचती रही. अब वह अमर के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पिछले कुछ दिनों में अमर उस के दिल के बहुत करीब आ गया था.

पटना जंक्शन पर उतरते ही उस का दिमाग दिल्ली के गलियारों को भूल कर पटना की सड़कों पर आ टिका. अपने घर के आगे रुकते ही पुराना समय आंखों के आगे नाचने लगा जब स्कूल में पढ़ने वाली प्रतिभा अपने घरआंगन को गुलजार रखती थी. वह मम्मीपापा की इकलौती लाडली बिटिया जो थी. दरवाजा खोलते ही मां ने उसे गले से लगा लिया.

अपने कमरे का दरवाजा खोलते ही पुरानी यादों के साये फिर से उस के मन को छूने लगे.  बैग एक कोने में पटक कर वह बिस्तर पर लुढ़क गई. 2 दिन प्रतिभा ने जम कर आराम किया और मम्मीपापा को अपनी नई जिंदगी से जुड़े किस्से सुनाए. तीसरे दिन वह थोड़ी एक्टिव हुई और घर की सफाई करने लगी. सफाई के दौरान उसे जाले लगी एक पुरानी तस्वीर दिखी. तस्वीर करीब 30 -35 साल पहले की थी जब उस के मम्मीपापा कॉलेज में थे. जाले पोंछ कर प्रतिभा ध्यान से तस्वीर देखने लगी कि अचानक उसे तस्वीर में अमर के पिता दिखाई दिए हालांकि वे काफी बदले हुए नजर आ रहे थे मगर वह उन का चेहरा एक नजर में ही पहचान गई थी.

बगल में ही उसे अमर की मां भी दिख गई. प्रतिभा को अब सारी बात समझ आने लगी थी कि क्यों उसे उन दोनों के चेहरे जानेपहचाने लग रहे थे. बचपन में उस ने कई बार वह फोटो बहुत ध्यान से देखी थी. पर उसे अब तक यह समझ नहीं आया था कि उस के मम्मीपापा ने अमर के पैरंट्स की फोटो पहचानी क्यों नहीं जबकि वे कॉलेज में साथ थे.

काफी देर तक प्रतिभा यही सब सोचती रही. तभी उसे सरला काकी का ख्याल आया. उस के परिवार के साथ उन का रिश्ता बहुत पुराना था. प्रतिभा ने अपने साथ वह तस्वीर भी ले ली. सरला आंटी का बेटा सुजय उस का बचपन का साथी था.

सरला काकी ने उसे देखते ही गले से लगा लिया. कुछ देर बैठने के बाद प्रतिभा ने वह तस्वीर निकाली और काकी को दिखाई. काकी तुरंत तस्वीर पहचान गई. तब प्रतिभा ने अमर के पैरंट्स की तस्वीर दिखाई जिस में वह भी थी. इस तस्वीर को देख कर काकी चौंकी और फिर बोलीं,” अरे तुम मुकुंद और सुधा से कब मिली? वे दोनों कैसे हैं बेटा?”

“आप जानती हैं इन्हें?”

“हां मेरी बच्ची. वे तस्वीर दिखा अपने पापा वाली. उस में भी तो वे दोनों खड़े हैं न.”

“पर मम्मीपापा ने तो इन्हें पहचाना नहीं.”

प्रतिभा की बात सुन कर काकी थोड़ी गंभीर हो गई फिर बोली,” कैसे पहचानेंगे? उस का घर जो जलाया था तेरे पापा ने.”

“घर जलाया था पर क्यों काकी?”

“क्योंकि उस वक्त तेरे पापा की बुद्धि मारी गई थी. सरपंच के इशारों पर चलते थे. सरपंच ने आदेश दिया था कि उन की बिरादरी का लड़का एक दलित लड़की से शादी नहीं कर सकता. सुधा दलित थी न. सरपंच ने लठैतों को भेजा उन का घर जलाने को. बस तेरे पापा भी निकल लिए साथ. यह भी नहीं सोचा कि अपने दोस्त का घर जलाने जा रहे हैैं. उस की आंख तो तब खुली जब उन का पुश्तैनी घर पूरी तरह जलाने के बाद सरपंच के लड़कों ने मुकुंद के बूढ़ेमां बाप को भी मार डाला. छोटी बहन को घर में जिंदा जला दिया. यह सब देख कर तेरे बाप की रूह कांप उठी और उस ने उसी दिन से सरपंच का साथ पूरी तरह छोड़ दिया. इधर मुकुंद और सुधा किसी तरह अपनी जान बचा कर कहीं भाग गए. वे कहां गए, उन के साथ क्या हुआ यह कोई नहीं जानता.”

प्रतिभा चुपचाप काकी से यह बीती कहानी सुनती रही. उस की आंखों के आगे अब सब कुछ स्पष्ट हो चुका था.

“क्या आप मुझे उन का जला हुआ घर दिखा सकती हो?”

“बेटा उन का पुश्तैनी घर तो सालों पहले खंडहर में तब्दील हो चुका है और आज तक खंडहर ही है. कोई नहीं जाता उधर. तू कहती है तो मैं सुजय को भेजती हूं तेरे साथ.”

प्रतिभा सुजय के साथ उस खंडहरनुमा घर को देखने पहुंची. टूटीजली इमारतें, खाली पड़े आधेअधूरे कमरे, दरकी हुई दीवारें, दम घोंटता वीरानापन, सब चीखचीख कर उस स्याह काली रात का दर्द बयां करते दिखे. प्रतिभा ने मोबाइल से तसवीरें खींचीं. एकएक जगह जा कर उस दर्द को महसूस किया. फिर अपने घर लौट आई.

दिल्ली आ कर वह अमर के पिता से मिली और भरी आंखों से उन्हें धन्यवाद कहा तो उन्होंने चौंकते हुए प्रतिभा की ओर देखा.

प्रतिभा ने कहा,” अंकल मैं पटना के कंकड़बाग में उसी मोहल्ले में रहती हूं जहां कभी आप दोनों भी…… इतनी मुसीबतें आने के बाद भी आप ने आंटी का साथ नहीं छोड़ा. अपने प्यार को निभाया. इतनी हिम्मत दिखाई. यू आर ग्रेट अंकल …. ”

उस की बातें सुन कर अमर के पिता की आँखें भर आई. वे समझ गए थे कि जो राज उन्होंने बेटे से भी छुपाया वह सब बहू जान चुकी है. अमर के पिता ने प्रतिभा के सर पर आशीर्वाद का हाथ रखा और फिर हौले से मुस्कुरा दिए.

प्रतिभा ने फैसला कर लिया था कि अब वह जल्द ही अमर से शादी कर लेगी मगर अपने पिता को इस शादी में नहीं बुलाएंगी. अमर से भी सच्चाई छिपा कर रखेगी. इस बीच मम्मी ने फोन पर बताया कि अगले सप्ताह पापा का कैटरैक्ट का ऑपरेशन होने वाला है.

यह सुन कर उस ने अमर से बात की और उसे कोर्ट मैरिज के लिए तैयार कर लिया. कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट मैरिज कर के आर्य समाजी तरीके से शादी करना तय हुआ. प्रतिभा ने जानबूझ कर शादी की तारीख 15 दिन बाद की रखवाई जब उस के पापा का ऑपरेशन हो चुका हो और उस की शादी में केवल उस की मम्मी ही आ सकें.

शादी वाले दिन प्रतिभा की मम्मी ने अमर की मम्मी को देखा तो खुद को रोक नहीं सकी और सुधा कह कर एकदम से उन के गले लग गई. 30 साल पुरानी सहेलियां जो मिली थी. अमर के पिता भी प्रतिभा की मम्मी को देख कर चकित थे. तीनों भीगी पलकों से पुराने दिन याद करने लगे.

नियत समय पर शादी भी हो गई. सारा कार्यक्रम अच्छी तरह निबट गया.

प्रतिभा की मम्मी अब घर लौटने वाली थी. ट्रेन में बैठने से पहले उन्होंने प्रतिभा को गले लगाया और रोती हुई बोली,” बेटा मैं समझ गई हूँ कि तूने ऐसा इंतजाम क्यों किया ताकि केवल मुझे ही शादी में बुलाना पड़े. देख बेटा तेरे पापा के हाथों तेरे सासससुर के साथ गलत हुआ था मैं यह मानती हूं. मगर उसी दिन से तेरे पापा बिल्कुल बदल भी गए और उन्हें अपने किए पर बहुत पछतावा भी है. मुझ से शादी होने के बाद उन्हें प्यार की गहराई का एहसास भी हो चुका है. जानती है मैं जब आ रही थी तो तेरे पापा ने क्या कहा था?”

“क्या कहा था मम्मी ?”

“उन्होंने कहा, ‘मुझे लग रहा है मेरी बच्ची मेरा पाप धोने वाली है. वह उसी दलित लड़की के बेटे से शादी करने वाली है जिन के परिवार को मेरी आंखों के आगे मार दिया गया और मैं ने कोई विरोध भी नहीं किया. मैं सालों से यह दर्द और पछतावा दिल में लिए जी रहा था. मेरी बच्ची उन से रिश्ता जोड़ कर मेरी जिंदगी का दर्द थोड़ा कम कर देगी.”

“सच मम्मी, पापा सब कुछ समझ गए?” प्रतिभा की आंखें भर आईं.

“हां बेटा और वे तुझ से बात कर के आशीर्वाद देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे. उन्हें लगता है कि तू उन्हें माफ नहीं कर पाएगी.”

“ऐसा नहीं है मम्मी. पापा को कहना हम जिंदगी की नई शुरुआत करेंगे.” कह कर उस ने मम्मी को गले से लगा लिया.

उस की आंखों में खुशी के आंसू थे.

भीतर का दर्द: क्यों सानिया घर से भाग गई थी?

Writer-  रमेश मनोहरा

रमजान मियां का आज पूरा कुनबा खुश था. उन का छोटा 2 कमरे का मकान खाने की खुशबू से महक रहा था. 20 साल बाद उन की सब से छोटी बेटी सानिया जो आ रही?थी.

सानिया ने खिलाफत कर के हिंदू लड़के से शादी की थी, तभी से उन्होंने बेटी से रिश्ता तोड़ दिया था. न तो कभी बुलाने की कोशिश की और न ही कभी मिलने गए.

रमजान मियां की 4 बेटियों के बाद सानिया पैदा हुई थी. मतलब, वह उन की 5वीं बेटी थी. आखिर में लड़का पैदा हुआ था.

रमजान मियां सरकारी मुलाजिम रहे थे. आज उन्हें रिटायर हुए 20 साल हो गए थे. वे जब सरकारी नौकरी में थे, तब 1-1 कर के 4 बेटियों की शादी कर चुके थे. जब वे रिटायर हुए, तब सानिया की शादी की जिम्मेदारी रह गई थी.

सानिया काफी खूबसूरत थी. वह सब से ज्यादा पढ़ीलिखी भी थी. जब वह निकाह के लायक हुई, उस के लिए दूल्हे की खोज शुरू हो गई थी.

कई लड़के देखने के बाद फिरोज खान से बात चल रही थी. इसी बीच सानिया और सुरेश शर्मा में इश्क परवान चढ़ गया था.

सुरेश शर्मा उस के कालेज में ही था.  जब उन्हें पता चला, तब फिरोज खान के घर वाले सानिया को देखने आने वाले थे.

फिरोज खान के साथ उस के अब्बा, अम्मी और परिवार के दूसरे लोग आए थे, मगर सानिया उस समय घर में नहीं थी.

मेहमान बैठकखाने में थे. जिस बेटी को देखने आ रहे थे, वही बेटी सुबह सहेली के यहां न्योता देने की कह कर गई थी. अभी तक आने का ठिकाना नहीं. जिस सहेली की कह कर गई थी, उस ने भी इनकार कर दिया था कि वह यहां नहीं आई.

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21 साल की सानिया कोई दूध पीती बच्ची नहीं थी. मगर कहां गई, उन की चिंता को बढ़ा दिया, जबकि होने वाले समधी कई बार कह चुके थे कि रमजान मियां लड़की को बुलाओ, मगर उस का कहीं पता नहीं चला. महल्ले के लड़के भी गाड़ी ले कर ढूंढ़ने निकल पड़े. सानिया के न आने से कई तरह के डर जन्म ले रहे थे.

अभी दोपहर के 12 बज रहे थे. महल्ले के कुछ लड़कों ने आ कर कहा कि सानिया आ रही है. यह सुनते ही सब के मुरझाए चेहरे खिल उठे.

पलभर बाद जब सानिया ने बैठक में प्रवेश किया, तब हमेशा सलवारकमीज पहनने वाली उस लड़की ने साड़ी पहन रखी थी और मांग में सिंदूर था. साथ में सुरेश शर्मा भी था.

रमजान मियां बोले, ‘‘सानिया बेटी कहां चली गई थी? हम ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा, कहांकहां नहीं फोन लगाया और तुम ने यह क्या हुलिया बना रखा है… और यह मांग में…’’

‘‘माफ करें अब्बा…’’ बीच में ही बात काटते हुए सानिया बोली, ‘‘मैं ने सुरेश से कोर्ट में जा कर शादी कर ली है. एक महीने पहले ही अर्जी दे दी थी. उन की बहन और मेरा कजिन दोनों गवाह भी हैं.’’

‘‘क्या कहा…? मेरे पूछे बिना शादी कर ली,’’ गुस्से से रमजान मियां बोले.

‘‘हां अब्बा, अगर मैं आप से पूछती, तब क्या आप यह शादी करने देते…?’’ सानिया ने पूछा.

‘‘अरे, होने वाले समधीजी…’’ उठते हुए फिरोज खान के अब्बा बोले, ‘‘हमें यहां बुला कर हमारी बेइज्जती की. चलो फिरोज, अच्छा हुआ, सगाई के पहले ही लड़की के चालचलन का पता चल गया.

‘‘ऐसी लड़की को जन्म दे कर आप ने मुसलिम कौम की बेइज्जती की है. मेरी लड़की अगर किसी हिंदू लड़के के साथ शादी करती, तब मैं उसे काट कर फेंक देता. क्या आप ने अपनी बेटी को यही तालीम दी है…’’ कह कर फिरोज खान के अब्बा समेत पूरा कुनबा गुस्से में उठ कर चल दिया.

कुछ पल के लिए वहां सन्नाटा रहा, फिर रमजान मियां बोले, ‘‘कटा दी न तुम ने हमारी नाक. अरे, मुझे कहीं का नहीं रखा… अब यहां क्या लेने आई हो?’’

‘‘आप का आशीर्वाद लेने अब्बा,’’ सानिया ने कहा.

‘‘अब्बा की नाक काट कर अब आशीर्वाद लेने आई हो…’’ रमजान मियां गुस्से से उफन पड़े थे, ‘‘चली जा… अब मुझे अपनी सूरत भी मत दिखाना.’’

‘‘बिना आशीर्वाद लिए कैसे जाऊं अब्बा?’’ सानिया बोली.

‘‘किस मुंह से आशीर्वाद लेने आई हो? अपने अब्बा की टोपी तो तुम ने उछाल दी. अरे, तू पैदा होते ही मर गई होती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता. चली जा, मुझे तेरी सूरत से भी नफरत है.

‘‘तुम अपनी अम्मां को देख रही हो, जिस की आंखों से आंसू बह रहे हैं. इस का भी खयाल तुझे नहीं आया.

‘‘अरे, तेरे रिश्ते के लिए जो लोग आए थे, उन की नजर में तू ने मेरी इज्जत गिरा दी. क्या कह कर गए हैं वे, सुना तुम ने. अब आ गई आशीर्वाद लेने.

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‘‘चले जाओ तुम दोनों. अब कभी अपनी मनहूस सूरत मत दिखाना. मेरे लिए अब तुम मर चुकी हो. सुना कि नहीं, चले जाओ तुम दोनों…’’

तब सानिया और सुरेश शर्मा बाहर निकल गए. सारा घर और महल्ला उन्हें जाते हुए देखता रहा.

कुछ गुस्साए नौजवानों ने ‘सानिया मुरदाबाद’ के नारे लगाए. कुछ उग्र लड़के सुरेश शर्मा को मारना चाहते थे, मगर कुछ समझदार बुजुर्गों ने समझाया कि कानून को हाथ में मत लो.

इस घटना को घटे 20 साल हो गए. उस दिन के बाद से उन्होंने न बेटी से रिश्ता रखा और न बेटी यहां आई. वे उसे तकरीबन भूल चुके थे.

इन 20 सालों में रिश्तों के दरिया से न जाने कितना पानी बह चुका था. बेटीबाप का रिश्ता खत्म हो चुका था. सानिया को उस के एकलौते भाई की शादी में भी नहीं बुलाया गया.

मगर सानिया उन की सब से समझदार बेटी थी. उस से रिश्ता तोड़ना उन को पछतावा दे रहा है. मगर गैरकौम में शादी कर के खुद हिंदू बन जाना यही उन्हें अंदर ही अंदर कचोट रहा था. वह अपनी ही बिरादरी में शादी कर लेती, तब उन्हें कोई पछतावा नहीं होता.

इन 20 सालों में माहौल भी बदलने लगा था. हिंदूमुसलिम को अपना जानी दुश्मन बनाने में टैलीविजन कोई कसर नहीं छोड़ रहा था. रमजान मियां ने कभी यह नहीं पूछा कि कैसी है, क्या तकलीफ है, मगर उस की तरफ से भी कोई खबर नहीं आती. वह कैसे देती, उस को तो उन्होंने बेइज्जत कर के सिर्फ इसलिए निकाल दिया था कि वह मुसलमान से हिंदू बन गई है.

चलो बन गई तब कोई बात नहीं, मगर उसे तो सब सच बता देना था. उस ने भी सबकुछ छिपा कर रखा. उस की याद में कितनी रातें उन्हें ठीक से नींद नहीं आई. कई बार उन की इच्छा हुई थी कि सानिया को बुला लें, मगर अंदर के कठोर चेहरे ने हर बार इनकार कर दिया.

ऐसे में उन के एक रिश्तेदार आबिद हुसैन आ कर बोले, ‘‘तुम्हारी चारों बेटियों में से सानिया ही अपने घर में सुखी है. पैसों की बचत भी हो जाती है और वह जिस हिंदू परिवार में गई है, वह परिवार दकियानूसी नहीं है और न ही उस पर किसी तरह की रोकटोक है. आजादी से घूमती है. उस के प्रति अभी इतने कठोर मत बनो.

‘‘माना कि उस ने जवानी में आ कर अपनी मरजी का कदम उठा लिया. यह उम्र ही ऐसी होती है. वह मर चुकी?है, कह देने से बापबेटी का रिश्ता खत्म नहीं हो जाता है. उसे एक बार बुला कर तो देखो.’’

‘‘मेरे बुलाने से क्या वह आ जाएगी?’’ रमजान मियां ने पूछा.

‘‘वह तो आने के लिए तैयार बैठी थी, मगर जब तक आप नहीं बुलाएंगे, वह नहीं आएगी.’’

‘‘मगर, आप यह कैसे कह सकते हो आबिद हुसैन भाई?’’

‘‘मेरी उन से बात हुई है. उसी ने यह कहा है कि अब्बा जब तक आने को नहीं कहेंगे, तब तक नहीं आएगी…’’ आबिद हुसैन ने अपनी बात कह दी, ‘‘ठीक है, चलता हूं. मेरा काम था समझाने का मैं ने समझा दिया. अब तुम जानो. तुम उसे बुलाओ या मरी हुई समझो.’’

सानिया के प्रति उस के अब्बा ने अब तक नफरत पाल रखी थी. आबिद हुसैन उन के भीतर एक बाप का प्यार डाल गए. सचमुच सानिया को देखे 20 साल हो गए थे. बाप और बेटी का रिश्ता भी उन्होंने खत्म कर दिया था. उन की चारों बेटियों को दुखी देख कर उन का मन कितना पिघल जाता था. जब भी वे अपनी ससुराल से पीहर में आती हैं, अपना दुखड़ा सुना कर उन का मन और पिघल उठता था.

उन की बड़ी बेटी नसीम बानो ने तो यहां तक कह दिया था, ‘‘अब्बा, किस खानदान में मेरा निकाह कर दिया. रोकटोक इतनी कि खुली हवा में सांस भी न ले सकें. हर चीज के लिए तरसो. हर साल बच्चे पैदा करो, जैसे औरत को मशीन समझ रखा है.’’

जब चारों बेटियां घर में आती हैं, सब आपस में अपनी ससुराल का दुखड़ा रोया करती हैं. उन के दुखड़ों से वे खुद परेशान तो रहते ही हैं, साथ में उन की बेगम रजिया भी दुखी रहती हैं. मगर वे सब जैसेतैसे जिंदगी की गाड़ी घसीट रही हैं.

उन की चारों लड़कियों का एक ही मत है कि सानिया ने अपनी मरजी से शादी की, इसलिए आज वह सुखी है. दोनों कमा रहे हैं और बचत भी हो रही है. बच्चे भी 2 हैं, एक लड़का और एक लड़की. सानिया के सुखी परिवार को देख कर उन चारों बहनों को जलन होने लगती है.

तभी बेगम रजिया आ कर बोलीं, ‘‘आबिद हुसैन क्या कह कर गए हैं?’’

‘‘कह गए हैं कि सानिया को

बुला लो.’’

‘‘बुला लीजिए न, उसे देखने के लिए आंखें तरस गई?हैं,’’ रजिया की ममता एकदम जाग उठी.

तब नाराजगी से रमजान मियां बोले, ‘‘अरे बेगम, सानिया तो उस दिन से ही मेरे लिए मर गई, जिस दिन उस ने…’’

‘‘यह आप नहीं, बाप का कट्टर दिल बोल रहा?है…’’ बीच में ही बात काट कर रजिया बोलीं, ‘‘एक मां का दिल क्या होता है, आप क्या जानें? फिर वह हमारी बेटी है. मर गई कह देने से क्या रिश्ता खत्म हो जाएगा.’’

‘‘बेगम, तुम भी वही भाषा बोल रही हो, जो आबिद मियां बोल गए हैं…’’ नाराज हो कर रमजान मियां बोले, ‘‘मैं नहीं बुला सकता हूं. भरी बिरादरी में उस ने मेरी नाक कटा दी. आज तक बिरादरी वाले ताने मार रहे हैं.’’

‘‘हां, उस समय उस ने आप की नाक कटा दी…’’ रजिया भी जरा नाराज हो कर बोलीं, ‘‘मगर सोचो, रजिया से भले ही हम ने रिश्ते खत्म कर लिए हैं, उस ने हिंदू धर्म अपना लिया है, मगर जातबिरादरी में सुनने को मिलता है कि वह अपनी चारों बहनों से ज्यादा सुखी है…

‘‘मैं ने आप का अब तक हर कहना माना है. जैसा आप ने कहा, वैसा मैं ने किया है. आप के हर सुखदुख में मैं ने साथ दिया है. आज आप की चारों बेटियां किस कदर दुखी हैं. उन के दुख में हम कितने दुखी होते हैं. उन का दुख हमारा दुख होता है. मगर, सानिया ने हमारी मरजी के खिलाफ शादी की, पर आज वह सुखी तो है.

‘‘हम अपने भीतर का दर्द किसी को बयां नहीं कर सकते हैं. मगर सानिया को सुखी देख कर खुशियां तो मना सकते हैं कि उस ने अच्छे खानदान में निकाह किया है. अब यह अलग बात है कि कौम अलग है. कौम अलग होने से क्या इनसानियत मर जाती है? मैं कहती हूं कि जोकुछ हुआ, उसे भूल जाओ और सानिया को बुला लो.’’

रमजान मियां ने सानिया घर फोन

कर दिया. उधर से आने की रजामंदी भी मिल गई.

‘‘अब्बा,’’ रमजान मियां की सारी सोच टूट गई. सामने सानिया खड़ी थी, साथ में सुरेश और उन के दोनों बच्चे. रमजान मियां का चेहरा खुशी से खिल उठा. उन की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए.

इन 20 सालों में सानिया कितनी बदल गई. साड़ी पहन रखी थी. बदन भरा था. गले में सोने का हार था. हाथ में 4-4 सोने की चूडि़यां, महंगी साड़ी और महंगी जूती उस की अमीरी बयां कर बना रही थी. अनजान आदमी कोई मिल जाता तो उसे मुसलिम नहीं हिंदू कहेगा.

रमजान मियां अंदर आवाज देते हुए बोले, ‘‘बेगम बाहर आओ. हमारी सानिया आई है.’’

रजिया, उन की बहू आयशा बाहर आ गए. सानिया को देख कर उस की भी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला पड़े.

सानिया ने अपने बच्चों से कहा, ‘प्रभात और कुसुम, ये तुम्हारे नाना और नानी हैं… और ये तुम्हारी मामी हैं. इन के पैर छुओ.’

उन्होंने बारीबारी से पैर छुए. इस समय घर का गमगीन माहौल ऐसा हो गया कि बहुत दिनों के बाद खुशियां लौटी हैं. रजिया तो खुश थीं.

‘‘कैसी हो बेटी, तुझे तो बहुत सालों के बाद देखा है…’’ अम्मी अपने आंसू पोंछते हुई बोलीं, ‘‘क्या तुम्हें हमारी याद नहीं आई?’’

‘‘मैं तो एकदम ठीक हूं अम्मी…’’ चहक कर सानिया बोली, ‘‘जब आप लोगों ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए, तब मैं कैसे आती? फिर भी आप लोगों की याद मुझे आती रही.’’

‘‘अरे ओ बेगम, सालों बाद तो बेटी आई है और उलट इस से शिकायत करने बैठ गई,’’ रमजान मियां ने टोका.

‘‘हां बेटी, मैं भी कैसी मां हूं, जो आते ही शिकायत करने बैठ गई,’’ अपनी गलती स्वीकार करती हुई रजिया बोलीं, ‘‘आज तुझे पास पा कर बहुत खुश हूं. बहुत खुश हूं और तुझे खुश देख कर तो और भी खुश हूं.

‘‘बता बेटी, तेरे सासससुर कैसे हैं?

वे तुझे…’’

‘‘अम्मी, मेरे सासससुर एकदम ठीक हैं…’’ बीच में ही बात काट कर सानिया बोली, ‘‘वे मुझे बहू नहीं बेटी मानते हैं. सच अम्मी मैं वहां बहुत सुखी हूं. वहां हम न हिंदू त्योहार मनाते हैं, न मुसलिम. सिर्फ हर बार बड़ा सा खर्चा होता है. सारे रिश्तेदार मिलते हैं. कोई मुझ से भेदभाव नहीं करता है.’’

मां की ममता एक बार फिर जाग उठी. उस की आंखों से फिर आंसू

बह निकले.

पलभर के सन्नाटे के बाद सानिया बोली, ‘‘अम्मी, चारों बहनों की हालत देख कर और उन का दकिनानूसी परिवार देख कर ही मैं ने फैसला लिया था कि मैं शादी अपनी इच्छा से करूंगी. तभी तो आप से खिलाफत कर के मैं ने सुरेश से शादी करने का फैसला लिया था. आज मैं वहां बहुत सुखी हूं अब्बा. मैं वहां रोरो कर जिंदगी नहीं गुजार रही हूं,’’ सानिया ने कहा.

सानिया की इस बात से रमजान मियां और रजिया की आंखों से कितनी ही गंगाजमाना बह चुकी थीं. उन के भीतर का जो दर्द था, वह मर चुका था.      द्य

गंगासागर: सपना अपनी बुआ से क्यों नाराज थी?

Writer- माला वर्मा

‘सब तीर्थ बारबार, गंगासागर एकबार,’ इस वाक्य को रटते हुए गांव से हर साल कुछ परिचित टपक ही पड़ते. जैसेजैसे गंगासागर स्नान की तारीख नजदीक आती जाती, वैसेवैसे सपना को बुखार चढ़ने लगता.

विकास का छोटा सा घर गंगासागर स्नान के दिनों में गुलजार हो जाता. बबुआ, भैया व बचवा  कह कर बाबूजी या दादाजी का कोई न कोई परिचित कलकत्ता धमक ही पड़ता. गंगासागर का मेला तो 14 जनवरी को लगता, पर लोग 10-11 तारीख को ही आ जाते. हफ्तेभर पहले से घर की काया बदल देनी पड़ती, ताकि जितने लोग हों, उसी हिसाब से बिस्तरों का इंतजाम किया जा सके.

इस दौरान बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होता. वैसे उन की तो मौज हो जाती, इतने लोगों के बीच जोर से डांटना भी संभव न होता.

फिर सब के जाने के बाद एक दिन की खटनी होती, नए सिरे से घर को व्यवस्थित करना पड़ता था. यह सारा तामझाम सपना को ही निबटाना पड़ता, सो उस की भृकुटि तनी रहती. पर इस से बचने का कोई उपाय भी न था. पिछले लगातार 5 वर्षों से जब से उन का तबादला पटना से कलकत्ता हुआ, गंगासागर के तीर्थयात्री उन के घर जुटते रहते.

विकास के लिए आनाकानी करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. साल में जब भी वे एक बार छुट्टियों में गांव जाते, सभी लोग आत्मीयता से मिलते थे. जितने दिन भी वे गांव में रहते, कहीं से दूध आ जाता तो कहीं से दही, कोई मुरगा भिजवाता तो कोई तालाब से ताजा मछली लिए पहुंच जाता.

‘अब जहां से इतना मानसम्मान, स्नेह मिलता है, वहां से कोई गंगासागर के नाम पर उस के घर पहुंचता हो तो कैसे इनकार किया जा सकता है?’ विकास सपना को समझाने की बहुत कोशिश करते थे.

पर सपना को हर साल नए सिरे से समझाना पड़ता. वह भुनभुनाती रहती, ‘थोड़ा सा दूधदही खिला दिया और बापदादा का नाम ले कर कलकत्ता आ गए. आखिर जब हम कलकत्ता में नहीं थे, तब कैसे गंगासागर का पुण्य कमाया जाता था? इतनी दूर से लोग गठरियां उठाए हमारे भरोसे आ पहुंचते हैं. हमारी परेशानियों का तो किसी को ध्यान ही नहीं. क्या कलकत्ता में होटल और धर्मशाला नहीं, वे वहां नहीं ठहर सकते? न जाने तुम्हें क्या सुख मिलता है उन बूढ़ेबूढि़यों से बातचीत कर के. अगले साल से देखना, मैं इन्हीं दिनों मायके चली जाऊंगी, अकेले संभालना पड़ेगा, तब नानी याद आएगी.’

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एक दिन पत्नी की भाषणबाजी पर विराम लगाते हुए विकास कह उठे, ‘‘क्या बच्चों जैसी बातें करती हो. हमें अपना समझते हैं तभी तो अधिकार सहित पहुंचते हैं. उन के पास पैसों की कमी नहीं है, चाहें तो होटल या धर्मशाला में ठहर सकते हैं. पर जब हम यहां मौजूद हैं तो उन्हें ऐसा करने की क्या जरूरत है. फिर वे कभी खाली हाथ नहीं आते, गांव का शुद्ध घी, सत्तू, बेसन, दाल, मसाले वगैरा ले कर आते हैं. अब तुम्हीं बताओ, ऐसी शुद्ध चीजें यहां कलकत्ता में मिल सकती हैं?

‘‘तुम तो सब भूल जाती हो. लौटते वक्त वे बच्चों को रुपए भी पकड़ा जाते हैं. आखिर वे हमारे बुजुर्ग हैं, 2-4 दिनों की सेवा से हम छोटे तो नहीं हो जाएंगे. गांव लौट कर वे हमारी कितनी तारीफ करते हैं तब माई व बाबूजी को कितनी खुशी होती होगी.’’

सपना मुंह बिचकाती हुई कह उठी, ‘‘ठीक है भई, हर साल यह झमेला मुझे ही सहना है तो सहूंगी. तुम से कहने का कोई फायदा नहीं. अब गंगासागर स्नान का समय फिर नजदीक आ गया है. देखें, इस बार कितने लोग आते हैं.’’

विकास ने जेब में हाथ डाला और एक पत्र निकालते हुए कह उठे, ‘‘अरे हां, मैं भूल गया था. आज ही सरस्वती बूआ की चिट्ठी आई है. वे भी गंगासागर के लिए आ रही हैं. तुम जरा उन का विशेष खयाल रखना. बेचारी ने सारा जीवन दुख ही सहा है. वे मुझे बहुत चाहती हैं. शायद मेरे ही कारण उन की गंगासागर स्नान की इच्छा पूर्ण होने जा रही है.’’

सपना, जो थोड़ी देर पहले समझौते वाले मूड में आ गई थी, फिर बिफर पड़ी, ‘‘वे तो न जाने कहां से तुम्हारी बूआ बन बैठीं. हर कोई चाची, बूआ बन कर पहुंचता रहता है और तुम उन्हें अपना करीबी कहते रहते हो. इन बूढ़ी विधवाओं के खानेपीने में और झंझट है. जरा कहीं भी लहसुन व प्याज की गंध मिली नहीं कि खाना नहीं खाएंगी. मैं ने तो तुम्हारी इस बूआ को कभी देखा नहीं. बिना पूछे कैसे लोग मुंह उठाए चले आते हैं, जैसे हम ने पुण्य कमाने का ठेका ले रखा हो.’’

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विकास शांत स्वर में बोले, ‘‘उस बेचारी के लिए कुछ न कहो. उस दुखियारी ने घरगृहस्थी का सुख देखा ही नहीं. बचपन में शादी हो गई थी. गौना हुआ भी नहीं था कि पति की मृत्यु हो गई. शादी का अर्थ भी नहीं समझा और विधवा का खिताब मिल गया. अपने ही गांव की बेटी थी. ससुराल में स्थान नहीं मिला. सब उन्हें अभागी और मनहूस समझने लगे. मायके में भी इज्जत कम हो गई.

‘‘जब भाइयों ने दुत्कारना शुरू कर दिया तो एक दिन रोतीकलपती हमारे दरवाजे आ पहुंचीं. बाबूजी से उन का दुख न देखा गया. उसी क्षण उन्होंने फैसला किया कि सरस्वती मुंहबोली बहन बन कर इस घर में अपना जीवन गुजार सकती है. उन के इस फैसले से थोड़ी देर के लिए घर में हंगामा मच गया कि एक जवान लड़की को सारा जीवन ढोना पड़ेगा, पर बाबूजी के दृढ़ व्यक्तित्व के सामने फिर किसी की जबान न हिली.

‘‘दादादादी ने भी सहर्ष सरस्वती को अपनी बेटी मान लिया और इस तरह एक दुखी, लाचार लड़की अपना परिवार रहते दूसरे के घर में रहने को बाध्य हुई. हमारी शादी में उन्होंने बहुत काम किया था. तुम ने देखा होगा, पर शायद अभी याद नहीं आ रहा. करीब 10 साल वे हमारे घर में रहीं. फिर एक दिन उन के भाईभतीजों ने आ कर क्षमा मांगी. पंचायत बैठी और सब के सामने आदरसहित सरस्वती बूआ को वे लोग अपने घर ले गए.

‘‘सरस्वती बूआ इज्जत के साथ अपने मायके में रहने लगीं. पर खास मौकों पर वे जरूर हमारे घर आतीं. इस तरह भाईबहन का अटूट बंधन अभी तक निभता चला आ रहा है. सो, सरस्वती बूआ को यहां किसी बात की तकलीफ नहीं होनी चाहिए.’’

सपना का गुस्सा फिर भी कम न हुआ था. वह भुनभुनाती हुई रसोई की तरफ चली गई.

12 जनवरी को सुबह वाली गाड़ी से सरस्वती बूआ के साथ 2 अन्य बुजुर्ग भी आ पहुंचे. नहानाधोना, खानापीना हुआ और विकास बैठ गए गांव का हालचाल पूछने. सरस्वती बूआ सपना के साथ रसोई में चली गईं तथा खाना बनाने में कुछ मदद करने का इरादा जाहिर किया.

सपना रूखे स्वर में कह उठी, ‘‘आप आराम कीजिए, थकीहारी आई हैं. मेरे साथ महरी है. हम दोनों मिल कर सब काम कर लेंगी. आप से काम करवाऊंगी तो ये नाराज हो जाएंगे. वैसे भी यह तो हर साल का नियम है. आखिर सब अकेले ही करती हूं. आप आज मदद कर देंगी, अगले साल कौन करेगा?’’

सरस्वती बूआ को सपना का लहजा कड़वा लगा. वे बड़े शौक से आई थीं, पर मुंह लटका कर वापस बैठक में चली गईं. एक कोने में उन की खाट लगी थी. खाट की बगल में छोटा स्टूल रखा था, जिस पर उन की गठरी रखी थी. वे चुपचाप गईं और अपने बिस्तर पर लेट गईं. विकास की घरगृहस्थी देखने की उन की बड़ी साध थी. बचपन में विकास ज्यादातर उन के पास ही सोता था. बूआ की भतीजे से खूब पटती थी.

बूआ की इच्छा थी, गंगासागर घूमने के बाद कुछ दिन यहां और रहेंगी. जीवन में गांव से कभी बाहर कदम नहीं रखा था. कलकत्ता का नाम बचपन से सुनती आई थीं, पूरा शहर घूमने का मन था. परंतु बहू की बातों से उन का मन बुझ गया था.

पर विकास ताड़ गए कि सपना ने जरूर कुछ गलत कहा होगा. बात को तूल न देते हुए वे खुद बूआ की खातिरदारी में लगे रहे. शाम को उन्होंने टैक्सी ली तथा बूआ को घुमाने ले गए. दूसरे दोनों बुजुर्गों को भी कहा, पर उन्होंने अनिच्छा दिखाई.

विकास बूआ को घुमाफिरा कर रात 10 बजे तक लौटे. बूआ का मन अत्यधिक प्रसन्न था. बिना कहे विकास ने उन के मन की साध पूरी कर दी थी. महानगर कलकत्ता की भव्यता देख कर वे चकित थीं.

इधर सपना कुढ़ रही थी. बूआ को इतनी तरजीह देना और घुमानाफिराना उसे रत्तीभर नहीं सुहा रहा था. वह क्रोधित थी, पर चुप्पी लगाए थी. मौका मिलते ही पति को आड़ेहाथों लिया, ‘‘अब तुम ने सब के सैरसपाटे का ठेका भी ले लिया? टैक्सी के पैसे किस ने दिए थे? जरूर तुम ने ही खर्च किए होंगे.’’

विकास खामोश ही रहे. इतनी रात को बहस करने का उन का मूड नहीं था. वे समझ रहे थे कि बूआ को घुमाफिरा कर उन्होंने कोई गलती नहीं की है, आखिर पत्नी उस त्यागमयी औरत को कितना जानती है. मैं जितना बूआ के करीब हूं, पत्नी उतनी ही दूर है. बस, 2-4 दिनों की बात है, बूआ वापस चली जाएंगी. न जाने फिर कभी उन का दोबारा कलकत्ता आना हो या नहीं.

खैर, 3-4 दिन गुजर गए. गांव से आए सभी लोगों का गंगासागर तीर्थ पूरा हुआ. शाम की गाड़ी से सब को लौटना था. रास्ते के लिए पूड़ी, सब्जी के पैकेट बनाए गए.

बूआ का मन बड़ा उदास हो रहा था. बारबार उन की आंखों से आंसू छलक पड़ते. विकास और उस के बच्चों से उन का मन खूब हिलमिल गया था. बहू अंदर ही अंदर नाखुश है, इस का एहसास उन्हें पलपल हो रहा था, पर उसे भी वह यह सोच कर आसानी से पचा गई कि नई उम्र है, घरगृहस्थी के बोझ के अलावा मेहमानों का अलग से इंतजाम करना,  इसी सब से चिड़चिड़ी हो गई है. वैसे, सपना दिल की बुरी नहीं है.

बूआ के कारण सपना को भी स्टेशन जाना पड़ा. निश्चित समय पर प्लेटफौर्म पर गाड़ी आ कर लग गई. चूंकि गाड़ी को हावड़ा से ही बन कर चलना था, इसलिए हड़बड़ी नहीं थी. विकास ने आराम से आरक्षण वाले डब्बे में सब को पहुंचा दिया. सामान वगैरा भी सब खुद ही संभाल कर रखवा दिया ताकि उन बुजुर्गों को सफर में कोईर् तकलीफ न हो.

गाड़ी चलने में थोड़ा वक्त रह गया था. विकास और उन की पत्नी डब्बे से नीचे उतरने लगे. बूआ को अंतिम बार प्रणाम करने के लिए सपना आगे बढ़ी और उन के पैरों पर झुक गई. जब उठी तो बूआ ने एक रूमाल उस के हाथों में थमा दिया. कहा, ‘‘बहू, इसे तू घर जा कर खोलना, गरीब बूआ की तरफ से एक छोटी सी भेंट है.’’

सिगनल हो गया था. दोनों पतिपत्नी नीचे उतर पड़े. गाड़ी चल पड़ी और धीरेधीरे उस ने गति पकड़ ली.

सपना को बेचैनी हो रही थी कि आखिर बूआ ने अंतिम समय में क्या पकड़ाया है? वे टैक्सी से घर लौट रहे थे. रास्ते में सपना ने रूमाल खोला तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. अंदर सोने का सीताहार अपनी पूरी आभा के साथ चमचमा रहा था.

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सपना उस हार को देख कर सुखद आश्चर्य से भर उठी, ‘बूआ ने यह क्या किया? इतना कीमती हार इतनी आसानी से पकड़ा कर चली गईं. क्या अपनी सगी बूआ भी ऐसा उपहार दे सकती हैं? धिक्कार है मुझ पर, सिर्फ एक बार ही सही, बूआ को कहा होता… ‘कुछ दिन यहां और ठहर जाइए,’ यह सोचते हुए सपना की आंखों से आंसू बहने लगे.

मृदुभाषिणी: सामने आया मामी का चरित्र

सुहागरात को दुलहन बनी शुभा से पति ने प्रथम शब्द यही कहे थे, ‘मेरी एक मामी हैं. वे बहुत अच्छी हैं. हमारे घर में सभी उन की प्रशंसा करते हैं. मैं चाहता हूं, भविष्य में तुम उन का स्थान लो. सब कहें कि बहू हो तो शुभा जैसी. मैं चाहता हूं जैसे वे सब को पसंद हैं, वैसे ही तुम भी सब की पसंद बन जाओ.’

पति ने अपनी धुन में बोलतेबोलते एक आदर्श उस के सामने प्रस्तुत कर दिया था. वास्तव में शुभा को भी पति की मामी बहुत पसंद आई थीं, मृदुभाषिणी व धीरगंभीर. वे बहुत स्नेह से शुभा को खाना खिलाती रही थीं. उस का खयाल रखती रही थीं. नई वधू को क्याक्या चाहिए, सब उन के ध्यान में था. सत्य है, अच्छे लोग सदा अच्छे ही लगते हैं, उन्होंने सब का मन मोह रखा था.

वक्त बीतता गया और शुभा 2 बच्चों की मां बन गई. मामी से मुलाकात होती रहती थी, कभी शादीब्याह पर तो कभी मातम पर. शुभा की सास अकसर कहतीं, ‘‘देखा मेरी भाभी को, कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करतीं.’’

शुभा अकसर सोचती, ‘2-3 वर्ष के अंतराल के उपरांत जब कोई मनुष्य किसी सगेसंबंधी से मिलता है, तब भला उसे ऊंचे स्वर में बात करने की जरूरत भी क्या होगी?’ कभीकभी वह इस प्रशंसा पर जरा सा चिढ़ भी जाती थी.

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एक शाम बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते उस ने जरा डांट दिया तो सास ने कहा, ‘‘कभी अपनी मामी को ऊंचे स्वर में बात करते सुना है?’’

‘‘अरे, बच्चों को पढ़ाऊंगी तो क्या चुप रह कर पढ़ाऊंगी? क्या सदा आप मामीमामी की रट लगाए रखती हैं. अपने घर में भी क्या वे ऊंची आवाज में बात नहीं करती होंगी?’’ बरसों की कड़वाहट सहसा निकली तो बस निकल ही गई, ‘‘अपने घर में भी मुझे कोई आजादी नहीं है. आप लोग क्या जानें कि अपने घर में वे क्याक्या करती होंगी. दूसरी जगह जा कर तो हर इंसान अनुशासित ही रहता है.’’

‘‘शुभा,’’ पति ने बुरी तरह डांट दिया. वह प्रथम अवसर था जब उस की मामी के विषय में शुभा ने कुछ अनचाहा कह दिया था.

कुछ दिन सास का मुंह भी चढ़ा रहा था. उन के मायके की सदस्य का अपमान उन से सहा न गया. लेदे कर वही तो थीं, जिन से सासुमां की पटती थी.

धीरेधीरे समय बीता और मामाजी के दोनों बच्चों की शादियां हो गईं. शुभा उन के शहर न जा पाई क्योंकि उसे घर पर ही रहना था. सासुमां ने महंगे उपहार दे कर अपना दायित्व निभाया था.

ससुरजी की मृत्यु के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी शुभा के कंधों पर आ गई थी. सीमित आय में हर किसी से निभाना अति विकट था, फिर भी जोड़जोड़ कर शुभा सब निभाने में जुटी रहती.

पति श्रीनगर गए तो उस के लिए महंगी शौल ले आए. इस पर शुभा बोली, ‘‘इतनी महंगी शौल की क्या जरूरत थी. अम्मा के लिए क्यों नहीं लाए?’’

‘‘अरे भई, इस पर किसी का नाम लिखा है क्या. दोनों मिलजुल कर इस्तेमाल कर लिया करना.’’

शुभा ने शौल सास को थमा दी.

कुछ दिनों बाद कहीं जाना पड़ा तो शुभा ने शौल मांगी तो पता चला कि अम्मा ने मामी को पार्सल करवा दी.

यह सुन शुभा अवाक रह गई, ‘‘इतनी महंगी शौल आप ने…’’

‘‘अरे, मेरे बेटे की कमाई की थी, तुझे क्यों पेट में दर्द हो रहा है?’’

‘‘अम्मा, ऐसी बात नहीं है. इतनी महंगी शौल आप ने बेवजह ही भेज दी. हजार रुपए कम तो नहीं होते. ये इतने चाव से लाए थे.’’

‘‘बसबस, मुझे हिसाबकिताब मत सुना. अरे, मैं ने अपने बेटे पर हजारों खर्च किए हैं. क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं, जो अपने किसी रिश्तेदार को कोई भेंट दे सकूं?’’

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अम्मा ने बहू की नाराजगी जब बेटे के सामने प्रकट की, तब वह भी हैरान रह गया और बोला, ‘‘अम्मा, मैं पेट काटकाट कर इतनी महंगी शौल लाया था. पर तुम ने बिना वजह उठा कर मामी को भेज दी. कम से कम हम से पूछ तो लेतीं.’’

इस पर अम्मा ने इतना होहल्ला मचाया कि घर की दीवारें तक दहल गईं. शुभा और उस के पति मन मसोस कर रह गए.

‘‘पता नहीं अम्मा को क्या हो गया है, सदा ऐसी जलीकटी सुनाती रहती हैं. इतनी महंगाई में अपना खर्च चलाना मुश्किल है, उस पर घर लुटाने की तुक मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती,’’ शौल का कांटा शुभा के पति के मन में गहरा उतर गया था.

कुछ समय बीता और एक शाम मामा की मृत्यु का समाचार मिला. रोतीपीटती अम्मा को साथ ले कर शुभा और उस के पति ने गाड़ी पकड़ी. बच्चों को ननिहाल छोड़ना पड़ा था.

क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार विदा होने लगे. मामी चुप थीं, शांत और गंभीर. सदा की भांति रो भी रही थीं तो चुपचाप. शुभा को पति के शब्द याद आने लगे, ‘हमारी मामी जैसी बन कर दिखाना, वे बहुत अच्छी हैं.’

शुभा के पति और मामा का बेटा अजय अस्थियां विसर्जित कर के लौटे तो अम्मा फिर बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘कहां छोड़ आए रे, मेरे भाई को…’’

शुभा खामोशी से सबकुछ देखसुन रही थी. मामी का आदर्श परिवार पिछले 20 वर्षों से कांटे की शक्ल में उस के हलक में अटका था. उन के विषय में जानने की मन में गहरी जिज्ञासा थी. मामी की बहू मेहमाननवाजी में व्यस्त थी और बेटी उस का हाथ बंटाती नजर आ रही थी. एक नौकर भी उन की मदद कर रहा था.

बहू का सालभर का बच्चा बारबार रसोई में चला जाता, जिस के कारण उसे असुविधा हो रही थी. शुभा बच्चा लेना चाहती, मगर अपरिचित चेहरों में घिरा बच्चा चीखचीख कर रोने लगता.

‘‘बहू, तुम कुछ देर के लिए बच्चे को ले लो, नाश्ता मैं बना लेती हूं,’’ शुभा के अनुरोध पर बीना बच्चे को गोद में ले कर बैठ गई.

जब शुभा रसोई में जाने लगी तो बीना ने रोक लिया, ‘‘आप बैठिए, छोटू है न रसोई में.’’

मामी की बहू अत्यंत प्यारी सी, गुडि़या जैसी थी. वह धीरेधीरे बच्चे को सहला रही थी कि तभी कहीं से मामी का बेटा अजय चला आया और गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारे मांबाप कहां हैं? वे मुझ से मिले बिना वापस चल गए? उन्हें इतनी भी तहजीब नहीं है क्या?’’

‘‘आप हरिद्वार से 2 दिनों बाद लौटे हैं. वे भला आप से मिलने का इंतजार कैसेकर सकते थे.’’

‘‘उन्हें मुझ से मिल कर जाना चाहिए था.’’

‘‘वे 2 दिन और यहां कैसे रुक जाते? आप तो जानते हैं न, वे बेटी के घर का नहीं खाते. बात को खींचने की क्या जरूरत है. कोई शादी वाला घर तो था नहीं जो वे आप का इंतजार करते रहते.’’

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‘‘बकवास बंद करो, अपने बाप की ज्यादा वकालत मत करो,’’ अजय तिलमिला गया.

‘‘तो आप क्यों उन्हें ले कर इतना हंगामा मचा रहे हैं? क्या आप को बात करने की तमीज नहीं है? क्या मेरा बाप आप का कुछ नहीं लगता?’’

‘‘चुप…’’

‘‘आप भी चुप रहिए और जाइए यहां से.’’

शुभा अवाक रह गई. उस के सामने  ही पतिपत्नी भिड़ गए थे. ज्यादा  दोषी उसे अजय ही नजर आ रहा था. खैर, अपमानित हो कर वह बाहर चला गया और बहू रोने लगी.

‘‘जब देखो, मेरे मांबाप को अपमानित करते रहते हैं. मेरे भाई की शादी में भी यही सब करते रहे, वहां से रूठ कर ही चले आए. एक ही भाई है मेरा, मुझे वहां भी खुशी की सांस नहीं लेने दी. सब के सामने ही बोलना शुरू कर देंगे. कोई इन्हें मना भी नहीं करता. कोई समझाता ही नहीं.’’

शुभा क्या कहती. फिर जरा सा मौका मिलते ही शुभा ने मामी की समझदार बेटी से कहा, ‘‘जया, जरा अपने भाई को समझाओ, क्यों बिना वजह सब के सामने पत्नी का और उस के मांबाप का अपमान कर रहा है. तुम उस की बड़ी बहन हो न, डांट कर भी समझा सकती हो. कोई भी लड़की अपने मांबाप का अपमान नहीं सह सकती.’’

‘‘उस के मांबाप को भी तो अपने दामाद से मिल कर जाना चाहिए था. बीना को भी समझ से काम लेना चाहिए. क्या उसे पति का खयाल नहीं रखना चाहिए. वह भी तो हमेशा अजय को जलीकटी सुनाती रहती है?’’

शुभा चुप रह गई और देखती रही कि बीना रोतेरोते हर काम कर रही है. किसी ने उस के पक्ष में दो शब्द भी नहीं कहे.

खाने के समय सारा परिवार इकट्ठा हुआ तो फिर अजय भड़क उठा, ‘‘अपने बाप को फोन कर के बता देना कि मैं उन लोगों से नाराज हूं. आइंदा कभी उन की सूरत नहीं देखूंगा.’’

तभी शुभा के पति ने उसे बुरी तरह डपट दिया, ‘‘तेरा दिमाग ठीक है कि नहीं? पत्नी से कैसा सुलूक करना चाहिए, यह क्या तुझे किसी ने नहीं सिखाया? मामी, क्या आप ने भी नहीं?’’

लेकिन मामी सदा की तरह चुप थीं. शुभा के पति बोलते रहे, ‘‘हर इंसान की इज्जत उस के अपने हाथ में होती है. पत्नी का हर पल अपमान कर के, वह भी 10 लोगों के बीच में, भला तुम अपनी मर्दानगी का कौन सा प्रमाण देना चाहते हो? आज तुम उस का अपमान कर रहे हो, कल को वह भी करेगी, फिर कहां चेहरा छिपाओगे? अरे, इतनी संस्कारी मां का बेटा ऐसा बदतमीज.’’

वहां से लौटने के बाद भी शुभा मामी के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में ही सोचती रही कि अजय की गलती पर वे क्यों खामोश बैठी रहीं? गलत को गलत न कहना कहां तक उचित है?

एक दिन शुभा ने गंभीर स्वर में पति से कहा, ‘‘मैं आप की मामी जैसी नहीं बनना चाहती. जो औरत पुत्रमोह में फंसी, उसे सही रास्ता न दिखा सके, वह भला कैसी मृदुभाषिणी? क्या बहू के पक्ष में वे कुछ नहीं कह सकती थीं, ऐसी भी क्या खामोशी, जो गूंगेपन की सीमा तक पहुंच जाए.’’

यह सुन कर भी शुभा के पति और सास दोनों ही खामोश रहे. उन्हें इस समय शायद कोई जवाब सूझ ही नहीं रहा था.

Valentine’s Special- मिलने का वादा: क्या राज को मिल पाई नीलू

नीलू ससुराल से मायके महीनाभर रहने को आई थी. नीलू यानी नीलोफर की शादी को 2 साल गुजर गए थे. ऐसा लगता था कि कल ही की बात हो. राज के जेहन में जो यादें धुंधली पड़ गई थीं, वे एकएक कर सामने आने लगीं. नीलू की शादी में दर्द देने वाले डरावने मंजर धीरेधीरे जिंदा होने लगे थे.

यह राज नीलू की अधूरी मुहब्बत का अंजाम था. निगाहों में हर पल बसने वाली नीलोफर को वह आज तक नहीं भुला पाया था. राज अपनी अधूरी मुहब्बत का इलजाम पूरी तरह नीलू पर नहीं लगा सकता था. अपनी नाकाम मुहब्बत का वह खुद भी जिम्मेदार था. आने वाले तूफान से वह घबरा गया था.

चांद सी सूरत वाली नीलोफर राज पर अपनी जान लुटाती थी, पर नीलोफर का बाप अकरम गांव का दबंग, शातिर, झगड़ालू किस्म का आदमी था. गांव में कहीं भी झगड़ाफसाद, राहजनी, आगजनी… यहां तक कि कई हत्याओं में उस का नाम जुड़ा होता था. आधे गांव ने तो अकरम का हुक्कापानी बंद कर रखा था.

अकरम और राज के घरों की दीवारें आपस में मिली हुई थीं. बचपन के दिनों में मासूम राज गांव के स्कूल में पढ़ता था. नीलू भी वहीं पढ़ती थी.

राज और नीलू घर से साथसाथ ही स्कूल जाते थे और घर आ कर अपने घरों के सामने एकसाथ खेलते थे. उन दिनों राज शाम के समय अपनी छत पर पतंग भी उड़ाया करता था. उस समय नीलू भी अपने घर की छत पर चढ़ जाया करती थी और राज को पेंच लड़ाने को उकसाया करती थी.

जब राज नीलू के कहने पर किसी की पतंग काट देता था, तो नीलू उछलउछल कर अपनी खुशी जाहिर किया करती थी. अगर पेंच लड़ाने के मुकाबले में राज की पतंग कट जाती, तो वह उदास हो जाती थी.

एक दिन राज बड़ी सी पतंग खरीद कर लाया. उस ने स्कैच पैन से पतंग पर कार्टून बना कर नीचे शरारत से नीलू का नाम लिख दिया. कार्टून के नीचे अपना नाम लिखा देख कर नीलू गुस्से से भर उठी थी. राज बारबार उड़ती पतंग को नीलू पर झुका कर उस के गुस्से को बढ़ा रहा था.

अचानक राज की पतंग जरा ज्यादा झुक गई और नीलू के हाथ में आ गई. उस ने राज की पतंग दबोच कर धागा खींचा और अपने घर के अंदर भाग गई. नीलू की इस शरारत पर राज को बहुत गुस्सा आया. वह चीखताचिल्लाता हुआ सीधा नीलू के घर पहुंच गया. वह नीलू को उस के घर में ही दबोच कर पीटने लगा.

उस समय नीलू का बाप अकरम घर पर ही मौजूद था. छोटे से राज की इतनी हिम्मत देख उस ने उसे 2 तमाचे मारे और अपने घर से भगा दिया.

उस समय राज की उम्र 12 साल की रही होगी. वह रोताबिलखता अपने घर चला गया और पापा को बताया. राज के पापा रामदयाल शांत स्वभाव के थे. वे एक स्कूल में टीचर थे. उन्होंने अपराधी अकरम के मुंह लगना ठीक नहीं समझा और राज को ही डांटडपट कर खामोश कर दिया.

अब रामदयाल ने राज को जेबखर्च देना बंद कर दिया. इस तरह राज की पतंगबाजी पर रोक लग गई.

राज नीलू से बेहद नाराज था. वह नीलू को अकेला देख कर उसे पीटने की फिराक में था. एक दिन स्कूल में खेलकूद का पीरियड चल रहा था. उस समय क्लास के तमाम सहपाठी अपनेअपने मनपसंद खेल खेलने में मसरूफ थे, तभी राज ने देखा कि नीलू नलके से पानी पी कर अकेली आ रही है.

उसी समय राज ने नीलू को लपक कर उस का एक बाजू पकड़ा और गुर्राया, ‘‘परसों शाम को मेरी पतंग पकड़ कर क्यों खींची थी? वह पतंग मैं 2 रुपए की खरीद कर लाया था, जिस की तू ने ऐसी की तैसी कर के रख दी.’’

‘‘उस पर तो मेरा नाम लिखा था, इसलिए मैं ने अपनी पतंग ले ली. तुम दूसरी पतंग उड़ा लेते,’’ नीलू बोली.

‘‘मैं तेरे दोनों हाथ और मुंह तोड़ दूंगा. तुझे बचाने इस समय कोई नहीं आएगा,’’ राज चिल्लाया.

‘‘लो मारो मुझे. मेरे दोनों हाथ तोड़ दो. सामने पड़ी ईंट उठा कर मेरे मुंह पर दे मारो. अगर मुझे मारने से तुम्हारी पतंग जुड़ जाए, तो अपने मन की इच्छा पूरी कर लो,’’ नीलू ने कहा. मगर राज का हाथ नीलू पर उठा नहीं.

राज ने चेतावनी देते हुए नीलू को छोड़ दिया. 4-5 दिनों तक नीलू से उस की कोई बात नहीं हुई. अब उस ने घर जाना बंद कर दिया. उसे अपने पापा का डर भी था. सालाना इम्तिहान सिर पर आ गएथे. वह मन लगा कर अपनी पढ़ाई में जुट गया. एक दिन शाम के समय नीलू अपनी मां के साथ राज के घर आई. उन दिनों नीलू के बड़े भाई की शादी होने वाली थी. नीलू की मां उस के परिवार को शादी में शामिल होने का न्योता देने आई थीं.

नीलू सब की नजरें बचा कर राज के कमरे में आ गई और उस से पूछने लगी कि वह अब पतंग क्यों नहीं उड़ाता है?

राज ने उदास मन से बताया कि अब उसे जेबखर्च नहीं मिलता. इतना सुनते ही नीलू ने छिपा कर साथ लाई एक छोटी सी पोटली राज की तरफ उछाल दी और पतंग उड़ाने को कह कर चली गई. राज ने पोटली खोली, तो उस के चेहरे पर बेशुमार खुशियों के भाव चमक उठे. उस के सामने सिक्कों का अंबार सा लग गया. शायद नीलू ने अपनी गुल्लक खाली कर के दी थी. धीरेधीरे समय गुजरता चला गया. प्यार भरी शरारतें कब चाहत में बदल गईं, उन दोनों को पता ही नहीं चला. वे दोनों पलभर भी एकदूसरे से दूर होने पर बुरी तरह तड़प उठते थे.

अकरम को इस इश्क की भनक लग गई. वह दोनों प्रेमियों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो गया. वह किसी भी सूरत में अपनी बेटी को गैरजात में ब्याहना नहीं चाहता था. उस ने आननफानन बेटी नीलोफर यानी नीलू का रिश्ता दूसरे गांव के गुलेमान, जो जुआघरों, शराब की दुकानों का मालिक था, के साथ पक्का कर दिया. अकरम अपनी बेटी को जल्दी ब्याह कर ससुराल भेजना चाहता था, पर उसे डर भी था कि कहीं नीलोफर बगावत न कर दे.

नीलोफर के लिए अकरम ने जो शौहर पसंद किया था, वह उम्र में नीलू से दोगुना बड़ा था. जल्दबाजी में शादी की तारीख भी तय कर दी गई. 2-4 दिन बाद अकरम 4-5 बदमाश ले कर रामदयाल मास्टर के घर जा पहुंचा और धमकी दे आया कि वे अपने बेटे को समझा कर रखे, वरना पूरे परिवार को इसी घर में बंद कर के आग लगा देगा.

राज के पापा लड़ाईझगड़े से दूर रहना पसंद करते थे. उन्होंने प्यार से अपने बेटे पर दबाव डाला कि वह नीलू को भूल जाए. राज ने मन ही मन अपने पापा का कहना मानने का मन बना लिया, मगर कामयाब नहीं हो पा रहा था.

एक दिन राज दोपहर के समय गांव के बाहर नीलू से मिला. नीलू ने उलाहना देते हुए न मिलने की वजह पूछी, तो राज खामोश रहा. नीलू ने अपनी बात पर जोर देते हुए दोबारा पूछा, पर राज को कुछ भी बताना मुनासिब नहीं लग रहा था. राज की खामोशी देख नीलू ने राज का कौलर पकड़ते हुए सारा माजरा पूछा.

राज ने आखिरकार दुखी मन से सारी बातें नीलू को बता दीं. नीलू गरजते हुए बोली कि उसे अपने निजी मामलों में बाप की दखलअंदाजी बिलकुल मंजूर नहीं है. वह जिस से प्यार करती है, उसी से शादी करेगी.

राज ने नीलू को जिद न करने की सलाह दी. यह भी समझाया कि अगर उन दोनों ने गलत कदम उठाया, तो उस का अपराधी बाप उस के परिवार की हत्या कर देगा. मगर नीलू सारी बात सुन कर भी अपनी जिद पर अड़ी थी. कुछ देर सोचने के बाद नीलू ने एक सलाह दी, तो राज सोच में पड़ गया.

नीलू बोली, ‘‘हम दोनों इस जालिम जमाने से बहुत दूर भाग चलते हैं, जहां हमारे प्यार का कोई दुश्मन न हो. जब हमारे 4-5 बच्चे हो जाएंगे, तब पापा का गुस्सा अपनेआप ठंडा हो जाएगा.’’

यह सुन कर राज डर गया और बोला, ‘‘नहींनहीं, मेरी प्यारी नीलू, यह रास्ता बदनामी और तबाही की तरफ जाता है. ऐसा करने से हमारे परिवारों की बदनामी तो होगी ही, तुम्हारा बाप मेरे परिवार पर कहर बन कर टूट पड़ेगा. इस का अंजाम बहुत बुरा होगा.’’

राज ने खतरे का सुलगता हुआ आईना दिखाया, तो नीलू थोड़ा सहम गई. नीलू बोली, ‘‘सोच लो राज, आया समय एक बार हाथ से निकल गया, तो दोबारा हमारे हाथ कभी नहीं आएगा. हिम्मत और कोशिश करने से हमारी समस्या का हल हो सकता है.’’

मगर राज को अकरम का डर था. वह जल्लाद से कम न था. राज अपने मांबाप और बहन से बहुत प्यार करता था, इसलिए उस ने अपनी मुहब्बत को कुरबान करने का मन बना लिया. उस दिन के बाद से वह नीलू से नहीं मिला. मगर नीलू को दिल से भुलाना इतना आसान कहां था?

अकरम ने हफ्तेभर में ही नीलू की शादी कर के उसे ससुराल भेज दिया. आज जब राज को पता चला कि नीलू अपने मायके आई है, उस का दिल मिलने को मचल उठा. मिलने की चाहत लिए राज धीरेधीरे कदमों से चलता हुआ नीलू के घर पहुंच गया. घर का मेन गेट अंदर से बंद था. उस ने नीलू के घर का गेट खटखटाया, तो वह खुल गया. सामने उस की प्यारी नीलू ही खड़ी थी. शायद नहा कर निकली थी, पानी के मोती उस के काले लंबे बालों से गिर रहे थे.

‘‘अरे राज, कैसे हो? अंदर आओ न…’’ राज को देखते ही नीलू खुशी से चहक उठी, ‘‘अपनी क्या हालत बना ली है तुम ने? अपनेआप को संभालो राज?’’

‘‘नीलू, जो मुसाफिर अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचते, उन का यही अंजाम होता है. लेकिन, तुम मेरी हालत पर मत जाओ, अपनी सुनाओ?’’ राज ने कांपती आवाज में पूछा.

नीलू को लगा कि हालात से घबरा कर राज उस से दूर तो हो गया, मगर अपनी महबूबा को भूल नहीं पाया.

‘‘मैं खुश हूं या नहीं, इस का कोई माने नहीं है. जब तुम ने ही हालात से घबरा कर मेरा कहा मानने से इनकार कर दिया, तो मुझे तो हालात से समझौता करना ही था. मगर आज तुम्हारी हालत देख कर ऐसा लग रहा है कि तुम अधूरी मुहब्बत की आग में बुरी तरह झुलस रहे हो. बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?’’ कहते हुए नीलू ने राज के दोनों हाथ थाम लिए.

‘‘नीलू, मैं जो देखना और महसूस करना चाहता था, वह सब देख कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि मेरी कुरबानी कामयाब हो गई है. मैं जिंदगीभर तुम्हारी यादों को अपने दिल में सहेज कर रखूंगा. तुम खुशहाल रहोगी, तो मैं समझूंगा कि मुझे सबकुछ मिल गया,’’ राज ने कहा.

‘‘नहीं राज, तुम मुझे कभी अपने से अलग मत समझना. मैं आज भी तुम्हारे साथ हूं. जहां चाहे ले चलो, मैं तुम्हारी बन कर रहूंगी,’’ कहते हुए नीलू ने राज को अपनी बांहों में कस कर चूमना चाहा.

‘‘मेरी वजह से जमाना तुम्हें बदचलन कहे, मैं यह सब सह नहीं पाऊंगा,’’ राज ने कहा.

नीलू बोली, ‘‘अब पता नहीं कब आ सकूंगी. थोड़ी देर अंदर आओ. अपने मन की बात मैं तुम्हारे सामने रखना चाहती हूं,’’ इतना कह कर नीलू ने राज का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाना चाहा.

‘‘नहीं नीलू, मुझ से यह नहीं हो पाएगा. मुझे माफ कर देना,’’ इतना कह कर राज उलटे कदमों से गेट से बाहर आ गया. नीलू राज को रोकना तो चाहती थी, मगर उसे रोक नहीं सकी.

तू आए न आए – भाग 2: शफीका का प्यार और इंतजार

शफीका के दिन कपड़े सिलते, स्वेटर बुनते हुए कट जाते लेकिन रातें नागफनी के कांटों की तरह सवाल बन कर चुभतीं. ‘जिन की बांहों में मेरी दुनिया सिमट गई थी, जिन के चौड़े सीने पर मेरे प्यार के गुंचे महकने लगे थे, उन की जिंदगी में दूसरी औरत के लिए जगह ही कहां थी भला?’ खयालों की उथली दुनिया के पैर सचाई की दलदल में कईकई फुट धंस गए. लेकिन सच? सच कुछ और ही था. कितना बदरंग और बदसूरत? सच, डाक्टर शादी के बाद दूसरी बीवी को ले कर इंगलैंड चला गया.

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मलयेशिया से उड़ान भरते हुए हवाईजहाज हिमालय की ऊंचीऊंची प्रहरी सी खड़ी पहाडि़यों पर से हो कर जरूर गुजरा होगा? शफीका की मुहब्बत की बुलंदियों ने तब दोनों बाहें फैला कर उस से कश्मीर में ठहर जाने की अपील भी की होगी. मगर गुदाज बीवी की आगोश में सुधबुध खोए डाक्टर के कान में इस छातीफटी, दर्दभरी पुकार को सुनने का होश कहां रहा होगा?

शफीका को इतने बड़े जहान में एकदम तनहा छोड़ कर, उन के यकीन के कुतुबमीनार को ढहा कर, अपनी बेवफाई के खंजर से शफीका के यकीन को जख्मी कर, उन के साथ किए वादों की लाश को चिनाब में बहा दिया था डाक्टर ने, जिस के लहू से सुर्ख हुआ पानी आज भी शफीका की बरबादी की दास्तान सुनाता है.

शफीका जारजार रोती हुई नियति से कहती थी, ‘अगर तू चाहती, तो कोई जबरदस्ती डाक्टर का दूसरा निकाह नहीं करवा सकता था. मगर तूने दर्द की काली स्यायी से मेरा भविष्य लिखा था, उसे वक़्त का ब्लौटिंगपेपर कभी सोख नहीं पाया.’

शफीका के चेहरे और जिस्म की बनावट में कश्मीरी खूबसूरती की हर शान मौजूद थी. इल्म के नाम पर वह कश्मीरी भाषा ही जानती थी. डाक्टर की दूसरी बीवी, जिंदगी की तमाम रंगीनियों से लबरेज, खुशियों से भरपूर, तनमन पर आधुनिकता का पैरहन पहने, डाक्टर के कद के बराबर थी.

इंगलैंड की चमकदमक, बेबाकपन और खुद की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए हाथ आई चाचा की बेशुमार दौलत ने एक बेगर्ज मासूम मुहब्बत का गला घोंट दिया. शफीका ने 19 साल, जिंदगी के सब से खूबसूरत दिन, सास के साथ रह कर गुजार दिए. दौलत के नशे में गले तक डूबे डाक्टर को न ही मां की ममता बांध सकी, न बावफा पत्नी की बेलौस मुहब्बत ही अपने पास बुला सकी.

डाक्टर की वादाखिलाफी और जवान बहन की जिंदगी में फैलती वीरानी और तनहाई के घनघोर अंधेरे के खौफ से गमगीन हो कर शफीका के बड़े भाई ने अपनी बीवी को तलाक देने का मन बना लिया जो डाक्टर की सगी बहन थी. लेकिन शफीका चीन की दीवार की तरह डट कर सामने खड़ी हो गई, ‘शादी के दायित्व तो इन के भाई ने नहीं निभाए हैं न, दगा और फरेब तो उन्होंने मेरे साथ किया है, कुसूर उन का है तो सजा भी उन्हें ही मिलनी चाहिए. उन की बहन ने आप की गृहस्थी सजाई है, आप के बच्चों की मां हैं वे, उस बेकुसूर को आप किस जुर्म की सजा दे रहे हैं, भाई जान? मेरे जीतेजी यह नहीं होगा,’ कह कर भाई को रोका था शफीका ने.

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खौफजदा भाभी ने शफीका के बक्से का ताला तोड़ कर उस का निकाहनामा और डाक्टर के साथ खींची गई तसवीरों व मुहब्बतभरे खतों को तह कर के पुरानी किताबों की अलमारी में छिपा दिया था. जो 15 साल बाद रद्दी में बेची जाने वाली किताबों में मिले. भाभी डर गई थीं कि कहीं उन के भाई की वजह से उन की तलाक की नौबत आ गई तो कागजात के चलते उन के भाई पर मुकदमा दायर कर दिया जाएगा. लेकिन शफीका जानबूझ कर चुपचाप रहीं.

लंबी खामोशी के धागे से सिले होंठ, दिल में उमड़ते तूफान को कब तक रोक पाते. शफीका के गरमगरम आंसुओं का सैलाब बड़ीबड़ी खूबसूरत आंखों के रास्ते उन के गुलाबी गालों और लरजाते कंवल जैसे होंठों तक बह कर डल झील के पानी की सतह को और बढ़ा जाता. कलैंडर बदले, मौसम बदले, श्रीनगर की पहाडि़यों पर बर्फ जमती रही, पिघलती रही, बिलकुल शफीका के दर्दभरे इंतजार की तरह.

फूलों की घाटी हर वर्ष अपने यौवन की दमक के साथ अपनी महक लुटा कर वातावरण को दिलकश बनाती रही, लेकिन शफीका की जिंदगी में एक बार आ कर ठहरा सूखा मौसम फिर कभी मौसमेबहार की शक्ल न पा सका. शफीका की सहेलियां दादी और नानी बन गईं. आखिरकार शफीका भी धीरेधीरे उम्र के आखिरी पड़ाव की दहलीज पर खड़ी हो गईं.

बड़े भाईसाहब ने मरने से पहले अपनी बहन के भविष्य को सुरक्षित कर दिया. अपनी पैंशन शफीका के नाम कर दी. पूरे 20 साल बिना शौहर के, सास के साथ रहने वाली बहन को छोटे भाईभाभी ले आए हमेशा के लिए अपने घर. बेकस परिंदे का आशियाना एक डाल से टूटा तो दूसरी डाल पर तिनके जोड़तेजोड़ते

44 साल लग गए. चेहरे की चिकनाई और चमकीलेपन में धीरेधीरे झुर्रियों की लकीरें खिंचने लगीं.

प्यार, फिक्र और इज्जत, देने में भाइयों और उन के बच्चों ने कोई कमी नहीं छोड़ी. भतीजों की शादियां हुईं तो बहुओं ने सास की जगह फूफीसास को पूरा सम्मान दिया. शफीका के लिए कभी भी किसी चीज की कमी नहीं रही, मगर अपने गर्भ में समाए नुकीले कंकड़पत्थर को तो सिर्फ ठहरी हुई झील ही जानती है. जिंदगी में कुछ था तो सिर्फ दर्द ही दर्द.

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अपनी कोख में पलते बच्चे की कुलबुलाहट के मीठे दर्द को महसूस करने से महरूम शफीका अपने भतीजों के बच्चों की मासूम किलकारियों, निश्छल हंसी व शरारतों में खुद को गुम कर के मां की पहचान खो कर कब फूफी से फूफीदादी कहलाने लगीं, पता ही नहीं चला.

शरीर से एकदम स्वस्थ 80 वर्षीया शफीका के चमकते मोती जैसे दांत आज भी बादाम और अखरोट फोड़ लेते हैं. यकीनन, हाथपैरों और चेहरे पर झुर्रियों ने जाल बिछाना शुरू कर दिया है लेकिन चमड़ी की चमक अभी तक दपदप करती हुई उन्हें बूढ़ी कहलाने से महफूज रखे हुए है.

पैरों में जराजरा दर्द रहता है तो लकड़ी का सहारा ले कर चलती हैं, लेकिन शादीब्याह या किसी खुशी के मौके पर आयोजित की गई महफिल में कालीन पर तकिया लगा कर जब भी बैठतीं, कम उम्र औरतों को शहद की तरह अपने आसपास ही बांधे रखतीं.

उन के गाए विरह गीत, उन की आवाज के सहारेसहारे चलते चोटखाए दिलों में सीधे उतर जाते. शफीका की गहरी भूरी बड़ीबड़ी आंखों में अपना दुलहन वाला लिबास लहरा जाता, जब कोई दुलहन विदा होती या ससुराल आती. उन की आंखों में अंधेरी रात के जुगनुओं की तरह ढेर सारे सपने झिलमिलाने लगते. सपने उम्र के मुहताज नहीं होते, उन का सुरीला संगीत तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर बिना साज ही बजने लगता है.

एक घर, सजीधजी शफीका, डाक्टर का चंद दिनों का तिलिस्म सा लगने वाला मीठा मिलन, बच्चों की मोहक मुसकान, सुखदुख के पड़ाव पर ठहरताबढ़ता कारवां, मां, दादी के संबोधन से अंतस को सराबोर करने वाला सपना…हमेशा कमी बन कर चुभता रहता. वाकई, क्या 80 साल की जिंदगी जी या सिर्फ जिंदगी की बदशक्ल लाश ढोती रहीं? यह सवाल खुद से पूछने से डरती रहीं शफीका.

शफीका ने एक मर्द के नाम पूरी जिंदगी लिख दी. जवानी उस के नाम कर दी, अपनी हसरतों, अपनी ख्वाहिशों के ताश के महल बना कर खुद ही उसे टूटतेबिखरते देखती रहीं. जिस्म की कसक, तड़प को खुद ही दिलासा दे कर सहलाती रहीं सालों तक.

रिश्तेदार, शफीका से मिलते लेकिन कोई भी उन के दिल में उतर कर नहीं देख पाता कि हर खुशी के मौके पर गाए जाने वाले लोकगीतों के बोलों के साथ बजते हुए कश्मीरी साजों, डफली की हर थाप पर एक विरह गीत अकसर शफीका के कंपकंपाते होंठों पर आज भी क्यों थिरकता जाता है-

‘तू आए न आए

लगी हैं निगाहें

सितारों ने देखी हैं

झुकझुक के राहें

ये दिल बदगुमां है

नजर को यकीं है

तू जो नहीं है

तो कुछ भी नहीं है

ये माना कि महफिल

जवां है हसीं है.’

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अब आज पूरे 3 महीनों बाद मुझे अचानक डायरी में फूफीदादी का दिया हुआ परचा दिखाई दिया तो इंटरनैट पर कश्मीरी मुसलमानों के नाम फिर से सर्च कर डाले. पता वही था, नाम डा. खालिद अनवर, उम्र 90 साल. फोन मिलाया तो एक गहरी लेकिन थकी आवाज ने जवाब दिया, ‘‘डाक्टर खालिद अनवर स्पीकिंग.’’

‘‘आय एम फ्रौम श्रीनगर, इंडिया, आई वांट टू मीट विद यू.’’

‘‘ओ, श्योर, संडे विल बी बैटर,’’ ब्रिटिश लहजे में जवाब मिला.

जी चाहा फूफीदादी को फोन लगाऊं, दादी मिल गया पता…वैसे मैं उन से मिल कर क्या कहूंगा, अपना परिचय कैसे दूंगा, कहीं हमारे खानदान का नाम सुन कर ही मुझे अपने घर के गेट से बाहर न कर दें, एक आशंका, एक डर पूरी रात मुझे दीमक की तरह चाटता रहा.

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Valentine’s Special- वेलेंटाइन डे: वो गुलाब किसका था

अपने देश में विदेशी उत्पाद, पहनावा, विचार, आचारसंहिता आदि का चलन जिस तरह से जोर पकड़ चुका है उस में वेलेंटाइन डे को तो अस्तित्व में आना ही था. वैसे अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि वेलेंटाइन डे के दिन होता क्या है. फिर भी बात चली है तो खुलासा कर देते हैं कि चाहने वाले जवान दिलों ने इस दिन को प्रेम जाहिर करने का कारगर माध्यम बना लिया है. इस अवसर पर बाजार सजते हैं, चहकते, इठलाते लड़केलड़कियों की सड़कों पर आवाजाही बढ़ जाती है, वातावरण में खुमार, खनक, खुशी भर जाती है.

सेंट जोंसेफ कानवेंट स्कूल के कक्षा 11 के छात्र अभिराम ने इसी दिन अपनी सहपाठिनी निष्ठा को ग्रीटिंग कार्ड के ऊपर चटक लाल गुलाब रख कर भेंट किया था. निष्ठा ने अंदरूनी खुशी और बाहरी झिझक के साथ भेंट स्वीकार की थी तो कक्षा के छात्रछात्राओं ने ध्वनि मत से उन का स्वागत कर कहा, ‘‘हैप्पी फोर्टीन्थ फैब.’’

विद्यालय का यह पहला इश्क कांड नहीं था. कई छात्रछात्राओं का इश्क चोरीछिपे पहले से ही परवान चढ़ रहा था. आप जानिए, वे पढ़ाई की उम्र में पढ़ाई कम दीगर हरकतें ज्यादा करते हैं. चूंकि यह विद्यालय अपवाद नहीं है इसलिए यहां भी तमाम घटनाएं हुआ करती हैं.

एक छात्रा स्कूल आने और उस के निर्धारित समय का लाभ ले कर किसी के साथ भाग चुकी है. एक छात्रा को रसायन शास्त्र के अध्यापक ने लैब में छेड़ा था. इस के विरोध में विद्यार्थी तब तक हड़ताल पर बैठे रहे जब तक उन को प्रयोगशाला से हटा नहीं दिया गया. इस के बावजूद स्कूल का जो अनुशासन, प्रशासन और नियमितता होती है वह आश्चर्यजनक रूप से यहां भी है.

हां, तो बात निष्ठा की चल रही थी. उस ने दिल की बढ़ी धड़कनों के साथ ग्रीटिंग की इबारत पढ़ी- ‘निष्ठा, सेंट वेलेंटाइन ने कहा था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है. मैं संत का बहुत आभारी हूं-अभिराम.’

प्रेम की घोषणा हो गई तो उन के बीच मिलनमुलाकातें भी होने लगीं. दोनों एकदूसरे को मुग्धभाव से देखने लगे. साथसाथ ट्यूशन जाने लगे, फिल्म देखने भी गए.

कक्षा की सहपाठिनें निष्ठा से पूछतीं, ‘‘प्रेम में कैसा महसूस करती हो?’’

‘‘सबकुछ अच्छा लगने लगा है. लगता है, जो चाहूंगी पा लूंगी.’’

‘‘ग्रेट यार.’’

अपने इस पहले प्रेम को ले कर उत्साहित अभिराम कहता, ‘‘निष्ठा, मेरे मम्मीपापा डाक्टर हैं और वे मुझे भी डाक्टर बनाना चाहते हैं. यही नहीं वे बहू भी डाक्टर ही चाहते हैं तो तुम्हें भी डाक्टर बनना होगा.’’

‘‘और न बन सकी तो? क्या यह तुम्हारी भी शर्त है?’’

‘‘शर्त तो नहीं पर मुझे ले कर मम्मीपापा ऐसा सोचते हैं,’’ अभिराम बोला, ‘‘तुम्हारे घरवालों ने भी तो तुम्हें ले कर कुछ सोचा होगा.’’

‘‘यही कि मेरी शादी कैसे होगी, दहेज कितना देना होगा? आदि…’’ सच कहूं अभिराम तो पापामम्मी विचित्र प्राणी होते हैं. एक तरफ तो वे दहेज का दुख मनाएंगे, किंतु लड़की को आजादी नहीं देंगे कि वह अपने लिए किसी को चुन कर उन का काम आसान करे.’’

‘‘यह अचड़न तो विजातीय के लिए है हम तो सजातीय हैं.’’

‘‘देखो अभिराम, धर्म और जाति की बात बाद में आती है, मांबाप को असली बैर प्रेम से होता है.’’

‘‘मैं अपनी मुहब्बत को कुरबान नहीं होने दूंगा,’’ अभिराम ने बहुत भावविह्वल हो कर कहा.

‘‘बहुत विश्वास है तुम्हें अपने पर.’’

‘‘हां, मेरे पापामम्मी ने तो 25 साल पहले प्रेमविवाह किया था तो मैं इस आधुनिक जमाने में तो प्रेमविवाह कर ही सकता हूं.’’

‘‘अभि, तुम्हारी बातें मुझे भरोसा देती हैं.’’

अभिराम और निष्ठा अब फोन पर लंबीलंबी बातें करने लगे. अभि के मातापिता दिनभर नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे अत: उस को फोन करने की पूरी आजादी थी. निष्ठा आजाद नहीं थी. मां घर में होती थीं. फोन मां न उठा लें इसलिए वह रिंग बजते ही रिसीवर उठा लेती थी.

मां एतराज करतीं कि देख निष्ठा तू घंटी बजते ही रिसीवर न उठाया कर. आजकल के लड़के किसी का भी नंबर डायल कर के शरारत करते हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं ने एक फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, ‘‘पहचाना? मैं ने कहा कौन? तो बोला, तुम्हारा होने वाला.’’

इस तरह अभिराम और निष्ठा का प्रेम अब एक साल पुराना हो गया.

अभिराम ने योजना बनाई कि निष्ठा, वेलेंटाइन डे पर कुछ किया जाए.

निष्ठा ने सवालिया नजरों से अभिराम को देखा, जैसे पूछ रही हो क्या करना है?

‘‘देखो निष्ठा, इस छोटे से शहर में कोई बीच या पहाड़ तो है नहीं,’’ अभिराम बोला. ‘‘अपना पुष्करणी पार्क अमर रहे.’’

‘‘पार्क में हम क्या करेंगे?’’

‘‘अरे यार, कुछ मौजमस्ती करेंगे. और कुछ नहीं तो पार्क में बैठ कर पापकार्न ही खा लेंगे.’’

‘‘नहीं बाबा, मैं वेलेंटाइन डे पर तुम्हारे साथ पार्क में नहीं जा सकती. जानते हो हिंदू संस्कृति के पैरोकार एक संगठन के कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है, जो लोग वेलेंटाइन डे मनाते हुए मिलेंगे उन्हें परेशान किया जाएगा.’’

‘‘निष्ठा, यही उम्र है जब मजा मार लेना चाहिए. स्कूल में यह हमारा अंतिम साल है. इन दिनों की फिर वापसी नहीं होगी. हम कुछ तो ऐसा करें जिस की याद कर पूरी जिंदगी में रौनक बनी रहे. हम पार्क में मिलेंगे. मैं तुम्हें कुछ गिफ्ट दूंगा, इंतजार करो,’’ अभिराम ने साहबी अंदाज में कहा.

निष्ठा आखिर सहमत हो गई. मामला मुहब्बत का हो तो माशूक की हर अदा माकूल लगती है.

शाम को दोनों पार्क में मिले. निष्ठा खास सजसंवर कर आई थी. पार्क के कोने की एकांत जगह पर बैठ कर अभिराम निष्ठा को वाकमैन उपहार में देते हुए बोला, ‘‘इस में कैसेट भी है जिस पर तुम्हारे लिए कुछ रिकार्ड किया है.’’

‘‘वाह, मुझे इस की बहुत जरूरत थी. अब मैं अपने कमरे में आराम से सोते हुए संगीत सुन सकूंगी.’’

अभिराम ने निष्ठा के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘भारतीय संस्कृति ही नहीं बल्कि विकसित और आधुनिक देशों की संस्कृति भी प्रेम को बुरा कहती रही है. कैथोलिक ईसाइयों में प्रेम और शादी की मनाही थी. तब वेलेंटाइन ने कहा था कि मनुष्य को प्रेम की अभिव्यक्ति का अधिकार है. तभी से 14 फरवरी के दिन प्रेमी अपने प्रेम का इजहार करते हैं.’’

संगठन के कुछ कार्यकर्ता प्रेमियों को खदेड़ने आ पहुंचे हैं, इस से बेखबर दोनों प्रेम के सागर में हिचकोले ले रहे थे कि अचानक संगठन के कार्यकर्ताओं को लाठी, हाकी, कालारंग आदि लिए देख अभिराम व निष्ठा हड़बड़ा कर खड़े हो गए. कुछ लोग पार्क छोड़ कर भाग रहे थे, तो कुछ तमाशा देख रहे थे.

उधर संगठन के ऐलान को ध्यान में रख स्थानीय मीडिया वाले रोमांचकारी दृश्य को कैमरे में उतारने के लिए शाम को वहां आ डटे थे. उन्होंने कैमरा आन कर लिया. अभिराम व निष्ठा स्थिति को भांपते इस के पहले कार्यकर्ताओं ने दोनों के चेहरे काले रंग से पोत दिए.

निष्ठा ने बचाव में हथेलियां आगे कर ली थीं. अत: चेहरे पर पूरी तरह से कालिख नहीं पुत पाई थी.

‘‘क्या बदतमीजी है,’’ अभिराम चीखा तो एक कार्यकर्ता ने हाकी से उस की पीठ पर वार कर दिया.

हाकी पीठ पर पड़ते ही अभिराम भाग खड़ा हुआ. उसे इस तरह भागते देख निष्ठा असहाय हो गई. वह किस तरह अपमानित हो कर घर पहुंची यह तो वही जानती है. डंडा पड़ते ही भगोड़े का इश्क ठंडा हो गया. वेलेंटाइन डे मना कर चला है क्रांतिकारी बनने. अरे अभिराम, अब तो मेरी जूती भी तुझ से इश्क न करेगी.

निष्ठा देर तक अपने कमरे में छिपी रही. वह जब भी पार्क की घटना के बारे में सोचती उस का मन अभिराम के प्रति गुस्से से भर जाता. बारबार मन में पछतावा आता कि उस ने प्रेम भी किया तो किस कायर पुरुष से. फिल्मों में देखो, हीरो अकेले ही कैसे 10 को पछाड़ देते हैं. वे तो कुल 4 ही थे.

तभी उस के कानों में बड़े भाई विट्ठल की आवाज सुनाई पड़ी जो मां से हंस कर कह रहा था, ‘‘मां, कुछ इश्कमिजाज लड़केलड़कियां पुष्करणी पार्क में वेलेंटाइन डे मना रहे थे. एक संगठन के लोगों ने उन के चेहरे काले किए हैं. रात को लोकल चैनल की खबर जरूर देखना.’’

खबर देख विट्ठल चकित रह गया, जिस का चेहरा पोता गया वह उस की बहन निष्ठा है?

‘‘मां, अपनी दुलारी बेटी की करतूत देखो,’’ विट्ठल गुस्से में भुनभुनाते हुए बोला, ‘‘यह स्कूल में पढ़ने नहीं इश्क लड़ाने जाती है. इस के यार को तो मैं देख लूंगा.’’

मां और बेटा दोनों ही निष्ठा के कमरे में घुस आए. मां गुस्से में निष्ठा को बहुत कुछ उलटासीधा कहती रहीं और वह ग्लानि से भरी चुपचाप सबकुछ सुनती व सहती रही. उस के लिए प्रेम दिवस काला दिवस बन गया था.

उधर अभिराम को पता ही नहीं चला कि वह पार्क से कैसे निकला, कैसे मोटरसाइकिल स्टार्ट की और कैसे भगा. उसे अब लग रहा था जैसे सबकुछ अपने आप हो गया. निष्ठा उस की कायरता पर क्या सोच रही होगी? बारबार यह प्रश्न उसे बेचैन किए जा रहा था.

पिताजी घर में थे, रात को टेलीविजन पर बेटे को देख कर वह चौंके और फौरन उन की आवाज गूंजी, ‘‘अभिराम, इधर तो आना.’’

‘‘जी पापा…’’

‘‘तो तुम पढ़ाई नहीं इश्क कर रहे हो. मैं तुम्हें डाक्टर बनाना चाहता हूं और तुम रोड रोमियो बन रहे हो.’’

‘‘पापा, वो… मैं वेलेंटाइन डे मना रहा था.’’

‘‘बता तो ऐसे गौरव से रहे हो जैसे एक तुम्हीं जवान हुए हो. मैं तो कभी जवान था ही नहीं. देखो, मैं इस शहर का मशहूर सर्जन हूं. क्या कभी तुम ने इस बारे में सोचा कि तुम्हें टेलीविजन पर देख कर लोग क्या कहेंगे कि इतने बड़े सर्जन का बेटा इश्क में मुंह काला करवा कर आ गया. जाओ पढ़ो, चार मार्च से सालाना परीक्षा है और तुम इश्क में निकम्मे बन रहे हो. आज से इश्कबाजी बंद.’’

अभिराम अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गया. इन बाप लोगों की चरित्रलीला समझ में नहीं आती. खुद इश्क लड़ाते रहे तो कुछ नहीं अब बेटे की बारी आई तो बड़ा बुरा लग रहा है. फिल्मों में बचपन का इश्क भी शान से चलता है और यहां सिखाया जा रहा है, इश्क में निकम्मे मत बनो. निष्ठा तुम ठीक कहती हो कि इन बड़े लोगों को असली बैर प्रेम से है.

बेचैन अभिराम निष्ठा को फोन करना चाह रहा था पर न साहस था न स्फूर्ति, न स्थिति.

4 मार्च को पहले परचे के दिन दोनों ने एकदूसरे को पत्र थमाए. अभिराम ने लिखा था, ‘निष्ठा, मैं तुम से सच्चा प्रेम करता हूं, साबित कर के रहूंगा.’

निष्ठा ने लिखा था, ‘यह सब प्रेम नहीं छिछोरापन है, और छिछोरेपन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं.’.

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