परिवर्तन : शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा

जीने की इच्छा : कैसे अरुण ने दिखाया बड़प्पन

‘‘जल्दी करो मां. मुझे देर हो रही है. फिर ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी,’’ अरुण ने कहा.

मां बोलीं, ‘‘तेरी गाड़ी तो 12 बजे की है. अभी तो 7 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो. मैं यार्ड में ही जा कर डब्बे में बैठ जाऊंगा. प्लेटफार्म पर सभी जनरल डब्बे बिलकुल भरे हुए ही आते हैं,’’ अरुण बोला.

उन दिनों ‘श्रमजीवी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन पटना जंक्शन से 12 बजे खुल कर अगले दिन सुबह 5 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी. अरुण को एक इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था. अगले दिन सुबह के 11 बजे दिल्ली के दफ्तर में पहुंचना था.

अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. सब से छोटे बेटे अरुण ने बीए पास करने के बाद कंप्यूटर की ट्रेनिंग ली थी. वह एक साल से बेकार बैठा था.

अरुण 1-2 छोटीमोटी ट्यूशन करता था. उस के पास स्लीपर क्लास के भी पैसे नहीं थे, इसीलिए पटना से दिल्ली जनरल डब्बे में जाना पड़ रहा था.

मां ने कहा, ‘‘बस हो गया. मैं ने  परांठा और भुजिया एक पैकेट में पैक कर दिया है. तुम याद से अपने बैग में रख लेना.’’

पिता ने भी बिस्तर पर पड़ेपड़े कहा, ‘‘जाओ बेटे, अपने सामान का खयाल रखना.’’

अरुण मातापिता को प्रणाम कर स्टेशन के लिए निकल पड़ा. यार्ड में जा कर एक डब्बे में खिड़की के पास वाली सिंगल सीट पर कब्जा जमा कर उस ने चैन की सांस ली.

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची, तो चढ़ने वालों की बेतहाशा भीड़ थी. अरुण जिस खिड़की वाली सीट पर बैठा था, वह इमर्जैंसी खिड़की थी. एक लड़की डब्बे में घुसने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उस लड़की ने अरुण के पास आ कर कहा, ‘‘आप इमर्जैंसी खिड़की खोलें, तो मैं भी डब्बे में आ सकती हूं. मेरा इस ट्रेन से दिल्ली जाना बहुत जरूरी है.’’

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अरुण ने उसे सहारा दे कर खिड़की से अंदर डब्बे में खींच लिया.

लड़की पसीने से तरबतर थी. दुपट्टे से मुंह का पसीना पोंछते हुए उस ने अरुण को ‘थैंक्स’ कहा. थोड़ी देर में गाड़ी खुली, तो अरुण ने अपनी सीट पर जगह बना कर लड़की को बैठने को कहा. पहले तो वह झिझक रही थी, पर बाद में और लोगों ने भी बैठने को कहा, तो वह चुपचाप बैठ गई.

तकरीबन 2 घंटे बाद ट्रेन बक्सर पहुंची. यह बिहार का आखिरी स्टेशन था. यहां कुछ लोकल मुसाफिरों के उतरने से राहत मिली.

अरुण के सामने वाली सीट खाली हुई, तो वह लड़की वहां जा बैठी.

अरुण ने लड़की का नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘आभा.’’

अरुण बोला, ‘‘मैं अरुण.’’

दोनों में बातें होने लगीं. अरुण ने पूछा, ‘‘पटना में तुम कहां रहती हो?’’

आभा बोली, ‘‘सगुना मोड़… दानापुर के पास.’’

‘‘मैं बहादुरपुर… मैं पटना के पूर्वी छोर पर हूं और तुम पश्चिमी छोर पर. दिल्ली में कहां जाना है?’’

‘‘कल मेरा एक इंटरव्यू है.’’

‘‘वाह, मेरा भी कल एक इंटरव्यू है. बुरा न मानो, तो क्या मैं जान सकता हूं कि किस कंपनी में इंटरव्यू है?’’

आभा बोली, ‘‘लाल ऐंड लाल ला असोसिएट्स में.’’

अरुण तकरीबन अपनी सीट से उछल कर बोला, ‘‘वाह, क्या सुहाना सफर है. आगाज से अंजाम तक हम साथ रहेंगे.’’

‘‘क्या आप भी वहीं जा रहे हैं?’’

अरुण ने रजामंदी में सिर हिलाया और मुसकरा दिया. रातभर दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठेबैठे सोतेजागते रहे थे. ट्रेन तकरीबन एक घंटा लेट हो गई थी. इस के बावजूद काफी देर से गाजियाबाद स्टेशन पर खड़ी थी. सुबह के 7 बज चुके थे. अरुण नीचे उतर कर लेट होने की वजह पता लगाने गया.

अरुण अपनी सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘गाजियाबाद और दिल्ली के बीच में एक गाड़ी पटरी से उतर गई है. आगे काफी ट्रेनें फंसी हैं. ट्रेन के दिल्ली पहुंचने में काफी समय लग सकता है.’’

आभा यह सुन कर घबरा गई. अरुण ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी. हम दोनों यहीं उतर जाते हैं. यहीं फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लेते हैं. फिर यहां से आटोरिकशा ले कर सीधे कनाट प्लेस एक घंटे के अंदर पहुंच जाएंगे.’’

दोनों ने गाजियाबाद स्टेशन पर ही चायनाश्ता किया. फिर आटोरिकशा से दोनों कंपनी पहुंचे. दोनों ने अलगअलग इंटरव्यू दिए. इस के बाद कंपनी के मालिक मोहनलाल ने दोनों को एकसाथ बुलाया.

मोहनलाल ने दोनों से कहा, ‘‘देखो, मैं भी बिहार का ही हूं. दोनों की क्वालिफिकेशंस एक ही हैं. इंटरव्यू में दोनों की परफौर्मेंस बराबर रही है, पर मेरे पास तो एक ही जगह है. अब तुम लोग बाहर जा कर तय करो कि किसे नौकरी की ज्यादा जरूरत है. मुझे बता देना, मैं औफर लैटर इशू कर दूंगा.’’

अरुण और आभा दोनों ने बाहर आ कर बात की. अपनीअपनी पारिवारिक और माली हालत बताई.

आभा की मां विधवा थीं. उस की एक छोटी बहन भी थी. वह पटना के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम नौकरी करती थी, पर उसे बहुत कम पैसे मिलते थे. परिवार को उसी को देखना होता था.

अरुण ने आभा के पक्ष में सहमति जताई. आभा को वह नौकरी मिल गई. मालिक मोहनलाल अरुण से बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘नौकरी तो तुम भी डिजर्व करत थे. मैं तुम से बहुत खुश हूं. वैसे तो किराया देने का कोई करार नहीं था. फिर भी मैं ने अकाउंटैंट को कह दिया है कि तुम्हें थर्ड एसी का अपडाउन रेल किराया मिल जाएगा. जाओ, जा कर पैसे ले लो.’’

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अरुण ने पैसे ले लिए. आभा उसे धन्यवाद देते हए बोली, ‘‘यह दिन मैं कभी नहीं भूलूंगी. मिस्टर मोहनलाल ने मुझे बताया कि तुम ने मेरी खाितर बड़ा त्याग किया है.’’

दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर लिया और संपर्क में रहने को कहा.

अरुण जनरल डब्बे में बैठ कर पटना लौट आया. उस ने किराए का काफी पैसा बचा लिया था. मातापिता को जब पता चला कि उसे नौकरी नहीं मिली, तो वे दोनों उदास हो गए.

कुछ ही दिनों में अरुण के पिता चल बसे. अरुण किसी तरह 2-3 ट्यूशन कर अपना काम चला रहा था. जिंदगी से उस का मन टूट चुका था. कभी सोचता कि घर छोड़ कर भाग जाए, तो कभी सोचता गंगा में जाकर डूब जाए. फिर अचानक बूढ़ी मां की याद आती, तो आंखों में आंसू भर आते.

एक दिन अरुण बाजार से कुछ सामान खरीदने गया. एक 16-17 साल का लड़का अपने कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेच रहा था. उस के एक पैर में पोलियो का असर था. लाठी के सहारे चलता हुआ वह अरुण के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, क्या आप को पापड़ चाहिए? 10 रुपए का एक पैकेट है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘नहीं चाहिए पापड़.’’

लड़के ने थैले से एक शीशी निकाल कर कहा, ‘‘आम का अचार है. चाहिए? पापड़ और अचार दोनों घर के बने हैं. मां बनाती हैं.’’ अरुण के मन में दया आ गई. उस के पास 5 रुपए ही बचे थे. उस ने लड़के को देते हुए कहा, ‘‘मुझे कुछचाहिए तो नहीं, पर तुम इसे रख लो.’’

अरुण ने रुपए उस के हाथ में पकड़ा दिए. दूसरे ही पल वह लड़का गुस्से से बोला, ‘‘मैं विकलांग हूं, पर भिखारी नहीं. मैं मेहनत कर के खाता हूं. जिस दिन कुछ नहीं कमा पाता, मांबेटे पानी पी कर सो जाते हैं.’’

इतना बोल कर उस लड़के ने रुपए अरुण को लौटा दिए. पर वह अरुण की आंखों में उम्मीद की किरण जगा गया. वह सोचने लगा, ‘जब यह लड़का जिंदगी से हार नहीं मान सकता है, तो मैं क्यों मानूं?’

अरुण के पास दिल्ली में मिले कुछ रुपए बचे थे. वह कोलकाता गया. वहां के मंगला मार्केट से थोक में कुछ जुराबें, रूमाल और गमछे खरीद लाया. ट्यूशन के बाद बचे समय में न्यू मार्केट और महावीर मंदिर के पास फुटपाथ पर उन्हें बेचने लगा.

इस इलाके में सुबह से ले कर देर रात तक काफी भीड़ रहती थी. अरुण की अच्छी बिक्री हो जाती थी.

शुरू में अरुण को कुछ झिझक होती थी, पर बाद में उस का इस में मन लग गया. इस तरह उस ने देखा कि एक हफ्ते में तकरीबन 7-8 सौ रुपए, तो कभी हजार रुपए की बचत होती थी.

इस बीच बहुत दिन बाद उसे आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मेरी शादी होने वाली है. कार्ड पोस्ट कर दिया है. तुम जरूर आना और मां को भी साथ लाना.’’

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अरुण मां के साथ आभा की शादी में सगुना मोड़ उस के घर गया. आभा ने अपनी मां, बहन और पति से उन्हें मिलवाया और कहा, ‘‘मैं जिंदगीभर अरुण की कर्जदार रहूंगी. मुझे नौकरी अरुण की वजह से ही मिली थी.’’

शादी के बाद आभा दिल्ली चली गई. अरुण की दिनचर्या पहले जैसी हो गई.

एक दिन आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे पति गुड़गांव की एक गारमैंट फैक्टरी में डिस्पैच सैक्शन में हैं. फैक्टरी से मामूली डिफैक्टिव कपड़े सस्ते दामों में मिल जाते हैं. तुम चाहो, तो इन्हें बेच कर अच्छाखासा मुनाफा कमा सकते हो.’’

अरुण बोला, ‘नेकी और पूछपूछ… मैं गुड़गांव आ रहा हूं.’

इधर अरुण उस पापड़ वाले लड़के का स्थायी ग्राहक हो गया था. उस का नाम रामू था. हर हफ्ते एक पैकेट पापड़ और अचार की शीशी उस से लिया करता था. अब अरुण महीने 2 महीने में एक बार दिल्ली जा कर कपड़े लाता और उन्हें अच्छे दाम पर बेचता.

धीरेधीरे अरुण का कारोबार बढ़ता गया. उस ने कंकड़बाग में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली थी. बीचबीच में कोलकाता से भी थोक में कपड़े लाया करता. कारोबार बढ़ने पर उस ने एक बड़ी दुकान ले ली.

अरुण की शादी थी. उस ने आभा को भी बुलाया. वह भी पति के साथ आई थी. अरुण ने उस पापड़ वाले लड़के को भी अपनी शादी में बुलाया था.

शादी हो जाने के बाद जब अरुण अपनी मां के साथ मेहमानों को विदा कर रहा था, अरुण ने आभा को उस की मदद के लिए थैंक्स कहा.

आभा ने कहा, ‘‘अरे यार, नो मोर थैंक्स. हिसाब बराबर. हम दोस्त  हैं.’’

फिर अरुण ने रामू को बुला कर सब से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, इस लड़के की वजह से हूं. मैं तो जिंदगी से निराश हो चुका था. मेरे अंदर जीने की इच्छा को इस स्वाभिमानी मेहनती रामू ने जगाया.’’

तब अरुण रामू से बोला, ‘‘मुझे अपनी दुकान में एक सेल्समैन की जरूरत है. क्या तुम मेरी मदद करोगे?’’

रामू ने हामी भर कर सिर झुका कर अरुण को नमस्कार किया.

अरुण बोला, ‘‘अब तुम्हें घूमघूम कर सामान बेचने की जरूरत नहीं है. मैं ने यहां के विधायक को अर्जी दी है तुम्हें अपने फंड से एक तिपहिया रिकशा देने की. तुम उसे आसानी से चला सकते हो और आजा सकते हो.’’

अरुण, आभा, रामू और बाकी सभी की आंखें खुशी से नम थीं. तीनों एकदूसरे के मददगार जो बने थे.

ममा मेरा घर यही है

बेटी पारुल से फोन पर बात खत्म होते ही मेरे मस्तिष्क में अतीत के पन्ने फड़फड़ाने लगे. पति के औफिस से लौटने का समय हो रहा था, इसलिए डिनर भी तैयार करना आवश्यक था. किचन में यंत्रचालित हाथों से खाना बनाने में व्यस्त हो गई. लेकिन दिमाग हाथों का साथ नहीं दे रहा था.

बचपन से ही पारुल स्वतंत्र विचारों वाली, जिद्दी लड़की रही है. एक बार जो सोच लिया, सो सोच लिया. होस्टल में रहते हुए उस ने कभी मुझे अपनी छोटीबड़ी समस्याओं में नहीं उलझाया, उन को मुझे बिना बताए ही स्वयं सुलझा लेती थी. इस के विपरीत, मैं अपने परिचितों को देखती थी कि जबतब उन के बच्चों के फोन आते ही, उन की समस्याओं का समाधान करने के लिए उन के होस्टल पहुंच जाया करते थे.

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एक दिन अचानक जब पारुल ने अपना निर्णय सुनाया कि एक लड़का रितेश उसे पसंद करता है और वह भी उस को चाहती है, दोनों विवाह करना चाहते हैं तो मैं सकते में आ गई और सोच में पड़ गई कि जमाना खराब है, किसी ने अपने जाल में उसे फंसा तो नहीं लिया. देखने में सुंदर तो वह है ही, उम्र भी अभी अपरिपक्व है, पूरी 22 वर्ष की तो हुई है अभी. ये सब सोच कर मैं बहुत चिंतित हो गई कि यदि उस ने सही लड़के का चयन नहीं किया होगा और जिद की तो वह पक्की है ही, तो फिर क्या होगा.

कुछ दिनों के सोचविचार के बाद तय हुआ कि रितेश से मिला जाए. पारुल के जन्मदिन पर उस को आमंत्रित किया गया और वह आ भी गया. वह सुदर्शन था, एमबीए की पढ़ाई पूरी कर के किसी नामी कंपनी में सीनियर पोस्ट पर कार्यरत था. पढ़ाई में आरंभ से ही अव्वल रहा. वह हम सब को बहुत भा गया था. केवल विजातीय होने के कारण विरोध करने का कोई औचित्य नहीं लगा. हम ने विवाह की स्वीकृति दे दी. लेकिन रितेश के  मातापिता ने आरंभ में तो रिश्ता करने से साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इकलौते बेटे की जिद के कारण उन्हें घुटने टेकने पड़े और विवाह धूमधाम से हो गया. पारुल अनचाही बहू बन कर ससुराल चली गई.

पारुल अपने मधुर स्वभाव के कारण ससुराल में सब की चहेती बन गई. सब के दिल में स्थान बनाने के लिए उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि ऐसा करने में उसे रितेश का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ. उस ने पाया कि रितेश का अपने परिवार से तालमेल ही नहीं था. बिना लिहाज के अपने मातापिता को कभी भी कुछ भी बोल देता था. पारुल हैरान होती थी कि कोईर् अपने जन्मदाता से ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता था. उसे समझाने की कोशिश करती तो वह और भड़क जाता था.

धीरेधीरे उस को एहसास हुआ कि दोष उस में नहीं, उस की परवरिश में है. उस के अपने मातापिता के विपरीत, रितेश के मातापिता उस की भावनाओं की कभी भी कद्र नहीं करते थे. अब इतना बड़ा हो गया था, फिर भी उस की बात को महत्त्व नहीं देते थे, जिस का परिणाम होता था कि वह आक्रोश में कुछ भी बोल देता था. कभीकभी पारुल असमंजस की स्थिति में आ जाती थी कि किस का साथ दे, मातापिता की गलती देखते हुए भी बड़े होने का लिहाज कर के उन को कुछ भी नहीं बोल पाती थी.

एक दिन मांबेटे में विवाद इतना बढ़ गया कि रितेश ने तुरंत अलग घर लेने का निर्णय ले डाला. पारुल ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ. वह क्या करती, मां ने भी अपने अहं के कारण उसे नहीं रोका. वह दोनों के बीच पिस गई. अंत में उसे पतिधर्म निभाना ही पड़ा.

अपने परिवार से अलग होने के बाद तो रितेश और भी मनमाना हो गया. जो लड़का विवाह के पहले कभी अपनी मां से ही नहीं जुड़ा, वह अपनी पत्नी से क्या जुड़ेगा. विवाह जैसे प्यारभरे बंधन के रेशमी धागे उसे लोहे की जंजीरें लगने लगीं. आरंभ से ही होस्टल में स्वच्छंद रहने वाले रितेश को विवाह एक कैद लगने लगा.

एक दिन अचानक रितेश का फोन मेरे पास आया, बोला, ‘अपनी बेटी को समझाओ, बच्ची नहीं है अब…’ इस से पहले कि वह अपनी बात पूरी करे, पारुल ने उस के हाथ से फोन ले लिया और कहा, ‘ममा, आप बिलकुल परेशान मत होना. ऐसे ही इस ने बिना सोचेसमझे आप को फोन घुमा लिया. छोटेमोटे झगड़े तो होते ही रहते हैं.’ लेकिन रितेश को पहली बार इतनी अशिष्टता से बात करते हुए सुन कर मैं सकते में आ गई, सोचने लगी कि उन की अपनी पसंद का विवाह है, फिर क्या समस्या हो सकती है.

एक बार मैं ने और मेरे पति ने मन बनाया कि पारुल के यहां जा कर उस का घर देखा जाए. उस ने कईर् बार बुलाया भी था. विचार आते ही हम दोनों पुणे पहुंच गए. वे दोनों स्टेशन लेने आए थे. सालभर बाद हम उन से मिल रहे थे. मिलते ही मेरी दृष्टि पारुल के चेहरे पर टिक गई. उस का चेहरा पहले से अधिक कांतिमय लग रहा था. सुंदर तो वह पहले से ही थी, अब अधिक लावण्यमयी लग रही थी. मुझे याद आया कि जब रितेश के मातापिता ने विवाह से इनकार कर दिया था तो उस का चेहरा कितना सूखा और निस्तेज लगता था, तब हम कितना घबरा गए थे. आज उस को देख कर बहुतबहुत तसल्ली हुई थी.

10 किलोमीटर की दूरी पर उन का घर था. वहां पहुंच कर मैं ने पाया कि वह 2 बैडरूम का घर था. पारुल ने अपने घर को बहुत व्यवस्थित ढंग से सजा रखा था. घर के रखरखाव में तो उसे बचपन से ही बहुत रुचि थी. यह देख कर बहुत संतोष हुआ कि सासससुर के साथ रहते हुए, रितेश का उन से तालमेल न होने के कारण रातदिन  जो विवाद होते थे, वे समाप्त हो गए हैं और वे दोनों आपस में बहुत प्रसन्न हैं.

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लेकिन मेरा यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया. अगले दिन ही सुबह मैं ने देखा कि रितेश पारुल को छोटीछोटी बातों में नीचा दिखाने से नहीं चूकता था, चाहे उस के खाने का, कपड़े पहनने का या खाना बनाने का ढंग हो. वह उस के किसी भी कार्यकलाप से खुश नहीं रहता था. बातबात में उसे ताने देता रहता था कि उस को कुछ नहीं आता, वह कुछ नहीं कर सकती.

पारुल चुपचाप सुनती रहती थी. रितेश की उस से इतनी अधिक अपेक्षाएं रहती थीं कि उन को पूरा करना उस के वश की बात नहीं थी. उस के जिन गुणों, उस का मासूम लुक देता चेहरा, उस की नाजुकता, उस की मीठी आवाज, के कारण विवाह से पहले उस पर रीझा था, वे सब उस के लिए बेमानी हो गए थे.

हम दोनों अवाक उस की बेसिरपैर की बातें सुनते थे. मैं मन ही मन सोचती रहती थी कि क्या यही प्रेमविवाह की परिणति होती है. रितेश ने जिस से विवाह करने के लिए एक बार अपने मातापिता का गृह तक त्याग कर दिया था, आज उसी का व्यंग्यबाणों से कलेजा छलनी कर रहा था. दामाद था इसलिए उसे क्या कहते, लेकिन, आखिर कब तक?

एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं पारुल से बोली, ‘चल, अभी हमारे साथ वापस चल. हम ने देख लिया और बहुत झेल लिया तुम लोगों का तमाशा.’ मेरे बोलते ही रितेश उठ कर घर से चला गया.

पारुल बोली, ‘ममा, मुझे उस की तो आदत पड़ गई है. मेरा उस को छोड़ कर आप के साथ जाना ठीक है क्या? ऐसी बातें तो होती रहती हैं. देखना थोड़ी देर में वह सबकुछ भूल जाएगा और सामान्य हो जाएगा.’ मैं अपनी बेटी पारुल की बात सुन कर दंग रह गई. इतनी सहनशील तो वह कभी नहीं थी पर आत्मसम्मान भी तो कोई चीज होती है. मैं ने कहा, ‘बेटा, तूने उस के इस बरताव के बारे में हमें कभी कुछ बताया नहीं.’

‘क्या बताती ममा, शादी भी तो मेरी मरजी से हुई थी, आप सुन कर करतीं भी क्या? लेकिन इस में रितेश की भी गलती नहीं है, ममा. आप को पता है उस की मां ने बचपन में ही उसे होस्टल में डाल दिया था. उस ने कभी जाना ही नहीं परिवार क्या होता है और उस का सुख क्या होता है. कभी उस की इच्छाओं को प्राथमिकता दी ही नहीं गई, न ही कभी कोई कार्य करने पर उसे प्रोत्साहन के दो बोल ही सुनने को मिले. इसलिए ही ऐसा है. वह दिल का बुरा नहीं है. आज उस की बदौलत ही इतनी अच्छी जिंदगी जी रही हूं. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आप चिंता न करें.’

लेकिन मुझ पर उस के तर्क का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा था. पारुल ने मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर रितेश को फोन कर के घर आने के लिए कहा. और वह आ भी गया. दोनों ने एक ओर जा कर कोईर् बात की. उस के बाद रितेश हमारे पास आया और बोला, ‘सौरी ममापापा.’ हम दोनों का मन यह सुन कर थोड़ा हलका हुआ. हमारे लौटने का दिन करीब होने पर हम पारुल के सासससुर से मिलने गए. उस की सास ने कहा, ‘मेरी बहू पारुल तो बहुत स्वीट नेचर की है. मुझे उस से कोई शिकायत नहीं है.’ हमें यह सोच कर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम उस की सास तो उस से बहुत प्रसन्न रहती है.

एक दिन पारुल ने जब मुझे मेरे नानी बनने का समाचार दे कर हमें चौंका दिया तो हम खुशी से फूले नहीं समाए. उस का कहना था कि उस की डिलीवरी के समय मुझे ही उस के पास रहना होगा, नहीं तो रितेश और अपनी सास के विवादों से उस समय वह परेशान हो जाएगी.

नियत समय पर मैं उस के पास पहुंच गई. उस ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. दोनों ओर के परिवार वालों के साथ रितेश भी बहुत प्रसन्न हुआ. मैं ने मन में सोचा, पारुल के मां बनने के बाद शायद उस का बरताव उस के प्रति बदल जाए, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मैं जब भी पारुल से उस के स्वभाव के बारे में जिक्र करती, उस का कहना होता, ‘ममा, आप उस की अच्छाइयां भी तो देखो, कितना स्वावलंबी और मेहनती है, मेरा कितना खयाल रखता है. थोड़ा जबान का वह कड़वा है, तो होने दो. अब उस की आदत पड़ गई है, जो मुश्किल से ही छूटेगी.’

मैं मां थी, मुझे तो रितेश के रवैये से तकलीफ होनी स्वाभाविक थी. 2 महीने किसी तरह निकाल कर मैं भारी मन से वापस लौट आई.

प्रिशा के जन्म के बाद पारुल ने नौकरी छोड़ दी और उस के लालनपालन में मग्न रहने लगी. लेकिन रितेश उस के इस निर्णय से बहुत क्षुब्ध रहता था. उस का कहना था कि प्रिशा को क्रैच में छोड़ कर भी तो वह नौकरी जारी रख सकती थी. उस के विचारानुसार उस के लिए सुखसुविधाओं के साधन जुटाने मात्र से उन का उस के प्रति कर्तव्यों की पूर्ति हो सकती है.

इस के विपरीत, पारुल सोचती थी कि कोई भी संस्था बच्चे के पालनपोषण में मां का विकल्प हो ही नहीं सकती. वह नहीं चाहती थी कि उस से दूर रहने के कारण वह भी अपने पापा का पर्याय बने. ऐसा कोई आर्थिक कारण भी नहीं था कि उसे मजबूरी में नौकरी करनी पड़े.

पारुल अपनी बेटी प्रिशा की बढ़ती हुई उम्र की एकएक गतिविधि का आनंद उठाना चाहती थी. उस के लालनपालन में वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहती थी. उस की तो पूरी दुनिया ही बेटी में सिमट कर आ गई थी. जो भी देखता, उस के पालने के ढंग को देख कर प्रशंसा किए बिना नहीं रहता था. इस का परिणाम बहुत जल्दी प्रिशा की गतिविधियों में झलकने लगा था. प्रिशा अपने हावभाव से सब का मन मोह लेती थी. मुझे भी यह देख कर पारुल पर गर्व होता था. लेकिन रितेश ने तो उस के विरोध में बोलने का जैसे प्रण ले रखा था.

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पारुल की सास तो मेरे सामने उस की प्रशंसा करते हुए नहीं थकती थीं. पोती होने के बाद तो वे अकसर पारुल के पास जाती रहती थीं. अपने बेटे के पारुल के प्रति उग्र स्वभाव से वे भी बहुत दुखी रहती थीं. उन्होंने कई बार पारुल से कहा कि वह उन के साथ आ कर रहे, लेकिन उस ने मना कर दिया. उसे लगा कि रितेश के अकेले की गलती तो है नहीं.

मुझे पारुल पर गुस्सा भी आता था कि आखिर स्वाभिमान भी तो कुछ होता है, पढ़ीलिखी है, अकेले रह कर भी नौकरी कर के प्रिशा को पाल सकती है. पहले वाला जमाना तो है नहीं कि विवश हो कर लड़कियां पति के अत्याचार सहते हुए भी उन के साथ रहें. मैं ने उसे कई बार समझाया, ‘वह सुधरने वाला नहीं है. आदमी दिल का कितना भी अच्छा हो, उसे अपनी जबान पर भी तो कंट्रोल होना चाहिए. तू उस से अलग हो जा, हम तुझे पूरा सहयोग देंगे. मैं रितेश से बात करूं क्या?’ तो उस ने आज जो फोन पर उत्तर दिया, उस ने तो मेरी सोच पर पूर्णविराम लगा दिया था.

‘ममा, शादी का निर्णय मेरा था. आप मेरी चिंता बिलकुल न करें. आगे मेरे भविष्य के लिए मुझे ही सोचने दीजिए. मेरे ही जीवन का प्रश्न नहीं है, मुझे प्रिशा के भविष्य के बारे में भी सोचना है. बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए मांबाप दोनों का उस के साथ होना आवश्यक है. फिर रितेश उसे कितना प्यार करता है और उस के पालनपोषण में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ता है.

‘आप जानती हैं, मेरी ससुराल वाले भी मुझे और प्रिशा दोनों को कितना प्यार करते हैं. रितेश से रिश्ता टूटने पर हम दोनों का उन से भी रिश्ता टूट जाएगा. आखिर उन का क्या कुसूर है? प्रिशा को उस के पापा और दादादादी के प्यार से वंचित रखने का मुझे क्या अधिकार है? प्रिशा को थोड़ा बड़ा हो जाने दो. 3 साल की हो गई है. आज के बच्चे पहले की तरह दब्बू नहीं हैं. देखना, वही अपने पापा का सुधार करेगी.

‘शादी एक समझौता है. यह 2 व्यक्तियों का ही नहीं, 2 परिवारों का बंधन है. इस के टूटने से बहुत सारे लोग प्र्रभावित हो सकते हैं. अभी ऐसी स्थिति नहीं है कि मैं रितेश से संबंध तोड़ लूं. आखिर मैं ने उस से प्यार किया है. उस को आदत पड़ गई है छोटीछोटी बातों पर रिऐक्ट करने की, जो, हालांकि, अर्थहीन होती हैं. कभी न कभी उसे समझ आएगी ही, ऐसा मुझे विश्वास है.’

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पारुल ने धाराप्रवाह बोल कर मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया. एक बार तो यह लगा कि मैं उस की मां नहीं, वह मेरी मां है. विवाह के बाद कितनी समझदार हो गई है वह. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं कभी कि पति से रिश्ता तोड़ने पर पूरे परिवार से संबंध टूट जाते हैं. मुझे अपनी बेटी पर गर्व होने लगा था.

एक जहां प्यार भरा: भाग 3

“मतलब?”

“मतलब हम चाइनीज तरीके से भी शादी करें और इंडियन तरीके से भी.”

“ऐसा कैसे होगा रिद्धिमा?”

“आराम से हो जाएगा. देखो हमारे यहां यह रिवाज है कि दूल्हा बारात ले कर दुलहन के घर आता है. सो तुम अपने खास रिश्तेदारों के साथ इंडिया आ जाना. इस के बाद हम पहले भारतीय रीतिरिवाजों को निभाते हुए शादी कर लेंगे उस के बाद अगले दिन हम चाइनीज रिवाजों को निभाएंगे. तुम बताओ कि चाइनीज वैडिंग की खास रस्में क्या हैं जिन के बगैर शादी अधूरी रहती है?”

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“सब से पहले तो बता दूं कि हमारे यहां एक सैरिमनी होती है जिस में कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट हाउस या गवर्नमैंट औफिस में लड़केलड़की को कानूनी तौर पर पतिपत्नी का दरजा मिलता है. कागजी काररवाई होती है.”

“ठीक है, यह सैरिमनी तो हम अभी निबटा लेंगे. इस के अलावा बताओ और क्या होता है?”

“इस के अलावा टी सैरिमनी चाइनीज वैडिंग का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इसे चाइनीज में जिंग चा कहा जाता है जिस का अर्थ है आदर के साथ चाय औफर करना. इस के तहत दूल्हादुलहन एकदूसरे के परिवार के प्रति आदर प्रकट करते हुए पहले पेरैंट्स को, फिर ग्रैंड पेरैंट्स को और फिर दूसरे रिश्तेदारों को चाय सर्व करते हैं. बदले में रिश्तेदार उन्हें आशीर्वाद और तोहफे देते हैं.”

“वह तो ठीक है इत्सिंग, पर इस मौके पर चाय ही क्यों?”

“इस के पीछे भी एक लौजिक है.”

“अच्छा वह क्या?” मैं ने उत्सुकता के साथ पूछा.

“देखो, यह तो तुम जानती ही होगी कि चाय के पेड़ को हम कहीं भी ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते. चाय का पेड़ केवल बीजों के जरीए ही बढ़ता है. इसलिए इसे विश्वास, प्यार और खुशहाल परिवार का प्रतीक माना जाता है.”

“गुड,” कह कर मैं मुसकरा उठी. मुझे इत्सिंग से चाइनीज वैडिंग की बातें सुनने में बहुत मजा आ रहा था.

मैं ने उस से फिर पूछा,” इस के अलावा और कोई रोचक रस्म?”

“हां, एक और रोचक रस्म है और वह है गेटक्रशिंग सैशन. इसे डोर गेम भी कह सकती हो. इस में दुलहन की सहेलियां तरहतरह के मनोरंजक खेलों के द्वारा दूल्हे का टैस्ट लेती हैं और जब तक दूल्हा पास नहीं हो जाता वह दुलहन के करीब नहीं जा सकता.”

इस रिवाज के बारे में सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने हंसते हुए कहा,”थोड़ीथोड़ी यह रस्म हमारे यहां की जूता छुपाई रस्म से मिलतीजुलती है.”

“अच्छा वही रस्म न जिस में दूल्हे का जूता छिपा दिया जाता है और फिर दुलहन की बहनों द्वारा रिश्वत मांगी जाती है? ”

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया,”हां, यही समझ लो. वैसे लगता है तुम्हें भी हमारी रस्मों के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी है.”

“बिलकुल मैडम जी, यह गुलाम अब आप का जो बनने वाला है.”

उस की इस बात पर हम दोनों हंस पड़े.

“तो चलो यह पक्का रहा कि हम न तुम्हारे पेरैंट्स को निराश करेंगे और न मेरे पेरैंट्स को,” मैं ने कहा.

“बिलकुल.”

और फिर वह दिन भी आ गया जब दिल्ली के करोलबाग स्थित मेरे घर में जोरशोर से शहनाइयां बज रही थीं. हम ने संक्षेप में मगर पूरे रस्मोरिवाजों के साथ पहले इंडियन स्टाइल में शादी संपन्न की जिस में मैं ने मैरून कलर की खूबसूरत लहंगाचोली पहनी. इत्सिंग ने सुनहरे काम से सजी हलके नीले रंग की बनारसी शाही शेरवानी पहनी थी जिस में वह बहुत जंच रहा था. उस ने जिद कर के पगड़ी भी बांधी थी. उसे देख कर मेरी मां निहाल हो रही थीं.

अगले दिन हम ने चीनी तरीके से शादी की रस्में निभाई. मैं ने चीनी दुल्हन के अनुरूप खास लाल ड्रैस पहनी जिसे वहां किपाओ कहा जाता है. चेहरे पर लाल कपड़े का आवरण था. चीन में लाल रंग को खुशी, समृद्धि और बेहतर जीवन का प्रतीक माना जाता है. इसी वजह से दुलहन की ड्रैस का रंग लाल होता है.

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सुबह में गेटक्रैशिंग सेशन और टी सैरिमनी के बाद दोपहर में शानदार डिनर रिसैप्शन का आयोजन किया गया. दोनों परिवारों के लोग इस शादी से बहुत खुश थे. इस शादी को सफल बनाने में हमारे रिश्तेदारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी. दोनों ही तरफ के रिश्तेदारों को एकदूसरे की संस्कृति और रिवाजों के बारे में जानने का सुंदर अवसर भी मिला था.

इसी के साथ मैं ने और इत्सिंग ने नए जीवन की शुरुआत की. हमारे प्यारे से संसार में 2 फूल खिले. बेटा मा लोंग और बेटी रवीना. हम ने अपने बच्चों को इंडियन और चाइनीज दोनों ही कल्चर सिखाए थे.

आज दीवाली थी. हम बीजिंग में थे मगर इत्सिंग और मा लोंग ने कुरतापजामा और रवीना ने लहंगाचोली पहनी हुई थी.

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व्हाट्सएप वीडियो काल पर मेरे मम्मीपापा थे और बच्चों से बातें करते हुए बारबार उन की आंखें खुशी से भीग रही थीं.

सच तो यह है कि हमारा परिवार न तो चाइनीज है और न ही इंडियन. मेरे बच्चे एक तरफ पिंगपोंग खेलते हैं तो दूसरी तरफ क्रिकेट के भी दीवाने हैं. वे नूडल्स भी खाते हैं और आलू के पराठों के भी मजे लेते हैं. वे होलीदीवाली भी मनाते हैं और त्वान वू या मिड औटम फैस्टिवल का भी मजा लेते हैं. हर बंधन से परे यह तो बस एक खुशहाल परिवार है. यह एक जहान है प्यार भरा.

क्षितिज के उस पार: भाग -1

Dr. Kshama Chaturvedi

‘‘मां, क्या इस शनिवार भी पिताजी नहीं आएंगे?’’  अंजू ने मुझ से तीसरी बार पूछा था. मैं खुद समझ नहीं पा रही थी. अभय का न तो पिछले कुछ दिनों से फोन ही आया था, न कोई खबर. सोचने लगी कि क्या होता जा रहा है उन्हें. पहले तो कितने नियमित थे. हर शनिवार को हम लोग उन के पास चले जाते थे 2 दिन के लिए और अगले शनिवार को उन्हें आना होता था. सालों से यह क्रम चला आ रहा था, पर पिछले 2 महीनों से उन का आना हो ही नहीं पाया था. बच्चियों के इम्तिहान करीब थे, इसलिए उन्हें भी ले जाना संभव नहीं था. मैं ही 2 बार हो आई थी, पर क्या अभय को बच्चियों की भी याद नहीं आती होगी?

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‘‘मां, पिताजी तो इस बार मेरे जन्मदिन पर भी आना भूल गए…’’ मंजू ने रोंआसे स्वर में कहा था.

‘‘हां…और क्या…इस बार वह आएंगे न तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी…मैं नहीं जाऊंगी कहीं भी उन की कार में घूमने…’’

‘‘अरे, पहले पिताजी आएं तो सही…’’ अंजू ने मंजू को चिढ़ाते हुए कहा था.

‘‘ऐसा करते हैं, शाम तक उन का इंतजार कर लेते हैं, नहीं तो फिर मैं ही सुबह की बस से चली जाऊंगी…आया रह लेगी तुम लोगों के पास…क्या पता, उन की तबीयत ही ठीक न हो या फिर दादीजी बीमार हों,’’ मैं आशंकाओं में घिरती जा रही थी. रात को ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी. मन देर तक उधेड़बुन में ही लगा रहा. अगर बीमार थे या कोई और बात थी तो खबर तो भेज ही सकते थे. यों अहमदाबाद से आबूरोड इतना अधिक दूर भी तो नहीं है. फिर इतने सालों से आतेजाते तो यह दूरी और भी कम लगने लगी है.

इन गरमियों में हमारी शादी को पूरे 9 वर्ष हो जाएंगे. मुझे आज भी याद है वह घटना जब अभय से मेरी गृहस्थी से संबंधित बातचीत हुई थी. शुरूशुरू में जब मुझे अहमदाबाद में नौकरी मिली थी तब मैं कितना घबराई थी, ‘तुम राजस्थान में हो…हम लोग एक जगह तबादला भी नहीं करवा पाएंगे.’

‘तो क्या हुआ…मैं हर हफ्ते आता रहूंगा,’ अभय ने समझाया था.

समय अपनी गति से गुजरता रहा.

अभय को अभी 2 छोटी बहनों की शादी करनी थी. पिता का देहांत हो चुका था. बैंक में मात्र क्लर्क की ही तो नौकरी थी उन की. मेरा अचानक ही कालेज में व्याख्याता पद पर चयन हो गया था. यह अभय की ही हिम्मत और प्रेरणा थी कि मैं यहां अलग फ्लैट ले कर बच्चियों के साथ रह पाई थी. छोटी ननद भी तब मेरे साथ ही आ गई थी. यहीं से कोई कोर्स करना चाहती थी. अलग रहते हुए भी मुझे कभी लगा नहीं था कि मैं अभय से दूर हूं. वह अकसर दफ्तर से कालेज फोन कर लेते. शनिवार, इतवार को हम लोग मिल ही लेते थे.

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घर की आर्थिक दशा भी धीरेधीरे सुधरने लगी थी. बड़ी ननद का धूमधाम से विवाह कर दिया था. फिर पिछले साल छोटी भी ब्याह कर ससुराल चली गई. कुछ समय बाद अभय की भी पदोन्नति हो गई थी. महीने पहले ही आबूरोड में बैंक मैनेजर हो कर आए थे. नई कार ले ली थी, पर अब एक नई जिद शुरू हो गई थी. वे अकसर कहते, ‘रितु, तुम अब नौकरी छोड़ दो…मुझे अब स्थायी घर चाहिए. यह भागदौड़ मुझ से नहीं होती है और फिर मां का भी स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है…’

मैं हैरान हो गई थी, ‘5 साल हो गए, इतनी अच्छी नौकरी है, फिर जब बच्चियां छोटी थीं, इतनी परेशानियां थीं तब तो मैं नौकरी करती रही. अब तो मुझ में आत्म- विश्वास आ गया है. बच्चियां भी स्कूल जाती हैं. इतनी जानपहचान यहां हो गई है कि कोई परेशानी नहीं. अब भला नौकरी छोड़ने में क्या तुक है?’

पिछली बार यही सब जब मैं ने कहा था तो अभय झल्ला कर बोले थे, ‘तुम समझती क्यों नहीं हो, रितु. तब जरूरत थी, मुझे बहनों की शादी करनी थी, पैसा नहीं था, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है.’

‘क्यों, अंजू, मंजू के विवाह नहीं करने हैं?’ मैं ने भी तुनक कर जवाब दिया था.

‘उन के लिए मेरी तनख्वाह काफी है,’ उन्होंने एक ही वाक्य कहा था.

मैं फिर कुछ नहीं बोली थी, पर अनुभव कर रही थी कि पिछले कुछ दिनों से यही मुद्दा हम लोगों के आपसी तनाव का कारण बना हुआ था. कितनी ही बहस कर लो, हल तो कुछ निकलने वाला नहीं था. पर अब मैं नौकरी कैसे छोड़ दूं? इतने साल तक एक कामकाजी महिला रहने के बाद अब नितांत घरेलू बन कर रह जाना शायद मेरे लिए संभव भी नहीं था.

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ठीक है, मां बीमार सी रहती थीं पर नौकर भी तो था. फिर हम लोग भी आतेजाते ही रहते थे. अहमदाबाद में बच्चियां अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं.

‘साल दो साल बाद तुम्हारा तबादला भी तो होता रहता है,’ मैं ने तनिक गुस्से में कहा था.

‘जिन के तबादले होते रहते हैं उन के बच्चे क्या पढ़ते नहीं?’ अभय ने चिढ़ कर कहा था. मैं क्या कहती? सोचने लगी कि इन्हें मेरी नौकरी से इतनी चिढ़ क्यों होने लगी है? कारण मेरी समझ से परे था. यों भी हम लोग कुछ समय के लिए ही मिल पाते थे. इसलिए जब भी मिलते, समय आनंद से ही गुजरता था.

शुरू में बातों ही बातों में एक दिन उन्होंने कहा था, ‘रितु, मेरा तो अब मन करता है कि तुम लोग सदा मेरे साथ ही रहो. अब और अलग रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’ मैं तो तब भी नहीं समझी थी कि यह सब अभय गंभीरता से कह रहे हैं. बाद में जब उन्होंने यही सब बारबार कहना शुरू कर दिया, तब मैं चौंकी थी, ‘आखिर तुम अब क्यों नहीं चाहते कि मैं नौकरी करूं? अचानक तुम्हें क्या हो गया है?’ ‘रितु, मैं ने बहुत सोच कर देखा है, इस तरह तो हम हमेशा ही अलगअलग रहेंगे. फिर अब जब आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर है, तब क्यों अनावश्यक रूप से यह तनाव झेला जाए? बारबार आना मुश्किल है, मेरा पद भी जिम्मेदारी का है, इसलिए छुट्टियां भी नहीं मिल पातीं.’

मुझे अब यह प्रसंग अरुचिकर लगने लगा था, इसलिए मैं ने उन्हें कोई जवाब ही नहीं दिया था.

रात को नींद देर से ही आई थी. सुबह फिर मैं ने आया को बुला कर सारा काम समझा दिया था. बच्चियों की पढ़ाई आवश्यक थी. इसलिए उन्हें साथ ले जाने का इरादा नहीं था.

बस का 4-5 घंटे का सफर ही तो था, पर रात को सो न पाने की वजह से बस में ही झपकी लग गई थी. जब एक जगह बस रुकी और सब लोग चायनाश्ते के लिए उतरे, तभी ध्यान आया कि सुबह मैं ने ठीक से नाश्ता नहीं किया था, पर अभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं थी. बस, एक प्याला चाय मंगा कर पी. मन फिर आशंकित होने लगा था कि पता नहीं, अभय क्यों नहीं आ पाए.

आबूरोड बस स्टैंड से घर पास ही था. रिकशा कर के जब घर पहुंची तो अभय घर से निकल ही रहे थे.

‘‘रितु, तुम?’’ अचानक मुझे इस तरह आया देख शायद वह चौंके थे.

‘‘इतने दिनों से आए क्यों नहीं?’’ मैं ने अटैची रख कर सीधे प्रश्न दाग दिया था.

‘‘अरे, छुट्टी ही नहीं मिली… आवश्यक मीटिंग आ गई थी. आज भी दोपहर को कुछ लोग आ रहे हैं, इसीलिए तो तुम्हें फोन करने जा रहा था. चलो, अंदर तो चलो.’’

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अटैची उठा कर अभय भीतर आ गए थे.घर इस बार साफसुथरा और सजासंवरा लग रहा था, नहीं तो यहां पहुंचते ही मेरा पहला काम होता था सबकुछ व्यवस्थित करना. मांजी भी अब कुछ स्वस्थ लगी थीं.

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क्षितिज के उस पार: भाग -2

‘‘शालू…चाय बनाना अच्छी सी…’’ अभय ने कुछ जोर से कहा था. मैं सहसा चौंकी थी.

‘‘अरे, शालिनी है न…पड़ोस ही में तो रहती है. वही आ जाती है मां को संभालने…बीच में तो ये काफी बीमार हो गई थीं…मुझे दिन भर बाहर रहना पड़ता है, शालिनी ने ही इन्हें संभाला था.’’

तभी मुझे कुछ ध्यान आया. पिछली बार आई थी, तब मांजी ने ही कहा था, ‘पड़ोस में रामबाबू हैं न…रिटायर्ड हैडमास्टर साहब, उन की बेटी यहीं स्कूल में पढ़ाती है. बापबेटी ही हैं. बड़ी समझदार बिटिया है. मां नहीं है उस की, दिन में 2 बार पूछ जाती है.’

‘‘दीदी, चाय लीजिए,’’ शालिनी चाय के साथ बिस्कुटनमकीन भी ले आई थी. दुबलीपतली, सुंदर, घरेलू सी लड़की लगी थी. फिर वह बोली, ‘‘आप जल्दी से नहाधो लीजिए. मैं ने खाना बना लिया है. आप तो थकी होंगी, मैं अभी गरमागरम फुलके सेंक देती हूं.’’

मैं कुछ कह न पाई थी. मुझे लगा कि अपने ही घर में जैसे मेहमान बन कर आई हूं. मैं सोचने लगी कि यह शालिनी घर की इतनी जिम्मेदार सदस्या कब से हो गई?

अटैची से कपड़े निकाल कर मैं नहाने चली गई थी.

‘‘वह बहादुर कहां गया है?’’ बाथरूम से निकल कर मैं ने पूछा.

‘‘छुट्टी पर है. आजकल तो शालू सुबहशाम खाना बना देती है, इसलिए घर चल रहा है. वाह, कोफ्ते…और मटर पुलाव…वाह, शालूजी, दिल खुश कर दिया आप ने,’’ अभय चटखारे ले कर खा रहे थे.

मेरे मन में कुछ चुभा था. रसोई का काम छोड़े मुझे काफी समय हो गया था. नौकरी और फिर घर पर बच्चों की संभाल के कारण आया ही सब कर लेती थी. यहां पर बहादुर था ही.

‘रितु, तुम्हारे हाथ का खाना खाए अरसा हो गया. कहीं खाना पकाना भूल तो नहीं गईं,’ अभय कभी कह भी देते थे.

‘यह भी कोई भूलने की चीज है. फिर ये लोग ठीक ही बना लेते हैं.’

‘पर गृहिणी की तो बात ही और होती है.’

मैं समझ जाती थी कि अभय चाहते हैं कि मैं खुद उन के लिए कुछ बनाऊं पर फिर बात आईगई हो जाती.

अचानक अभय बोले, ‘‘तुम्हें पता है, शालू बहुत अच्छा सितार बजाती है?’’

अभय ने कहा तो मुझे लगा कि जैसे मैं यहां शालू के ही बारे में सबकुछ जानने आई हूं. मन खिन्न हो उठा था. खाना खातेखाते ही फिर अभय ने कहा, ‘‘शालू, तुम्हें बाजार जाना था न. दफ्तर जाते समय तुम्हें छोड़ता जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी भी मुसकराई थी.

मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद मैं यहां आई हूं, अभय को न तो मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा है, न घर के बारे में और न ही बच्चियों के बारे में. बस, एक ‘शालू…शालू’ की रट लगा रखी थी.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने अंदर से ही कह दिया था. तभी खिड़की से देखा, शालिनी कार में अगली सीट पर अभय के बिलकुल पास बैठी थी. पता नहीं अभय ने क्या कहा था, उस के मंद स्वर में हंसने की आवाज यहां तक आई थी.

मन हुआ कि अभी इसी क्षण लौट जाऊं. सोचने लगी कि आखिर मैं यहां आई ही क्यों थी?

मांजी खाना खा कर शायद सो गई थीं. मेज पर रखा अखबार उठाया, पर मन पढ़ने में नहीं लगा था.

अभय शायद 2 घंटे बाद लौटे थे. मैं ने उठ कर चाय बनाई.

‘‘रितु, रात का खाना हमारा शालू के यहां है,’’ अभय ने कहा था.

‘‘शालू…शालू…शालू…मैं क्या खाना भी नहीं बना सकती. समझ में नहीं आता कि तुम लोग क्यों उस के इतने गुलाम बने हुए हो. बहादुर छुट्टी पर क्या गया, लगता है, उस छोकरी ने इस घर पर आधिपत्य ही जमा लिया है.’’

‘‘रितु, क्या हो गया है तुम्हें? इस तरह तो तुम कभी नहीं बोलती थीं. घर का कितना ध्यान रखती है शालिनी…तुम्हें कुछ पता भी है? तुम्हें तो अपनी नौकरी… अपने कैरियर के सिवा…’’

‘‘हां, सारी अच्छाइयां उसी में हैं…मैं अभद्र हूं…बहुत बुरी हूं…कह लो जो कुछ कहना है…मैं क्या जानती नहीं कि उस का जादू तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोल रहा है. उसे घुमानेफिराने के लिए समय है तुम्हारे पास…और बीवी, जो इतने दिनों बाद मिली है, उस के पास दो घड़ी बैठ कर बात भी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह बात करने लायक भी तो हो…’’ अभय भी चीखे थे…और चाय का प्याला परे सरका दिया था. फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्यों बात का बतंगड़ बनाने पर तुली हो?’’

‘‘बतंगड़ मैं बना रही हूं कि तुम? क्या देख नहीं रही कि जब से आई हूं तब से शालू…शालू की रट लगा रखी है…यह सब तो मेरे सामने हो रहा है…पता नहीं पीठ पीछे क्याक्या गुल…’’

‘‘रितु…’’ अभय का एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. मैं सचमुच अवाक् थी. अभय कभी मुझ पर हाथ भी उठा सकते हैं, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. मेरा इतना अपमान…वह भी इस लड़की की खातिर…

तकिए में मुंह छिपा कर मैं सिसक पड़ी थी…अभय चुपचाप बाहर चले गए थे. शायद उन्होंने महरी से कहा था कि शालिनी के यहां खाने के लिए मना कर दे. मांजी तो शाम को खाना खाती नहीं थीं. उन्हें दूध दे दिया था. मैं सोच रही थी कि अभय कुछ तो कहेंगे, माफी मांगेंगे फिर मैं रसोई में जा कर कुछ बना दूंगी…पर वे तो बैठक में बैठे सिगरेट पर सिगरेट पीते जा रहे थे. मन फिर जल उठा कि आखिर ऐसा क्या कर दिया मैं ने. शायद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के आ कर उन के कार्यक्रम को चौपट कर दिया था, उसी का इतना गम होगा. गुस्से में आ कर मैं ने फिर अटैची में कपड़े ठूंस लिए थे.

‘‘मैं जा रही हूं…अहमदाबाद…’’ मैं ने ठंडे स्वर में कहा था.

‘‘अभी…इस समय?’’

‘‘हां…अभी बस मिल जाएगी…’’

‘‘कल चली जाना, अभी तो रात काफी हो गई है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ मैं भी जिद पर आमादा थी. शायद अभय के थप्पड़ की कसक अब तक गालों पर थी.

‘‘ठीक है, मैं छोड़ आता हूं…’’

अभय चुपचाप कार निकालने चले गए थे. मैं और भी जलभुन गई थी कि कितने आतुर हैं मुझे वापस छोड़ आने को. मैं चुप थी…और अभय भी चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. मेरी आंखें छलछला आईं कि कभी यह रास्ता कितना खुशनुमा हुआ करता था.

‘‘रितु, मैं ने बहुत सोचविचार कर देख लिया है…तुम्हें अब यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी…और कोई चारा नहीं है…’’ अभय ने जैसे एक हुक्म सा सुना डाला था.

‘‘क्यों, क्या कोई लौंडीबांदी हूं मैं आप की, कि आप ने फरमान दे दिया, नौकरी करो तो मैं नौकरी करने लगूं…आप कहें नौकरी छोड़ दो…तो मैं नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘हां, यही समझ लो…क्योंकि और किसी तरह से तो तुम समझना ही नहीं चाहती हो और ध्यान से सुन लो, अगर तुम अब अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो मैं भी मजबूर हो कर…’’

‘‘क्या? क्या करोगे मजबूर हो कर, मुझे तलाक दे दोगे? दूसरी शादी कर लोगे उस…अपनी चहेती…क्या नाम है, उस छोकरी का…शालू के साथ?’’ गुस्से में मेरा स्वर कांपने लगा था.

‘‘बंद करो यह बकवास…’’ अभय का कंपकंपाता बदन निढाल सा हो गया था. गाड़ी डगमगाई थी. मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. सामने से एक ट्रक आता दिखा था और गाड़ी काबू से बाहर थी.

‘‘अभय…’’ मैं ने चीख कर अभय को खींचा था और तभी एक जोरदार धमाका हुआ था. गाड़ी किसी बड़े से पत्थर से टकराई थी.

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क्षितिज के उस पार: भाग -3

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ 2-3 साइकिल सवार उतर कर पूछने लगे थे. ट्रक ड्राइवर भी आ गया था, ‘‘बाबूजी, क्या मरने का इरादा है? भला ऐसे गाड़ी चलाई जाती है…मैं ट्रक न रोक पाता तो… वह तो अच्छा हुआ कि गाड़ी पत्थर से ही टकरा कर रुक गई, मामूली ही नुकसान हुआ है.’’

मैं ने अचेत से पड़े अभय को संभालना चाहा था, डर के मारे दिल अभी तक धड़क रहा था.

‘‘अभय, तुम ठीक तो हो न…?’’ मेरा स्वर भीगने लगा था.

‘‘यह तो अच्छा हुआ बहनजी…आप ने इन्हें खींच लिया वरना स्टियरिंग पेट में घुस जाता तो…’’ ट्रक ड्राइवर कह रहा था. अभय ने मेरी तरफ देखा तो मैं ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘बाबूजी, इस समय गाड़ी चलाना ठीक नहीं है, आगे की पुलिया भी टूटी हुई है. आप पास के डाकबंगले में रुक जाइए, सुबह जाना ठीक होगा…गाड़ी की मरम्मत भी हो जाएगी,’’ ड्राइवर ने राय दी.

‘‘हां…हां, यही ठीक है…’’ मैं सचमुच अब तक डरी हुई थी.

डाकबंगला पास ही था. मैं तो निढाल सी बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर ही बैठ गई थी. अभय शायद चौकीदार से कमरा खोलने के लिए कह रहे थे.

‘‘बाबूजी, खाना खाना चाहें तो अभी पास के ढाबे से मिल जाएगा…फिर तो वह भी बंद हो जाएगा,’’ चौकीदार ने कहा था.

‘‘रितु, तुम अंदर कमरे में बैठो, मैं खाना ले कर आता हूं,’’ कहते हुए अभय बाहर चले गए थे.

साधारण सा ही कमरा था. एक पलंग बिछा था. कुछ सोच कर मैं ने बैग से चादर, कंबल निकाल कर बिछा दिए थे. फिर मुंह धो कर गाउन पहन लिया. अभय को बड़ी देर हो गई थी खाना लाने में. सोचने लगी कि पल भर में ही क्या हो जाता है.

एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ था. अभय शायद खाना ले कर लौट आए थे. अभय ने साथ आए लड़के से प्लेटें मेज पर रखने को कहा था. खाना खाने के बाद अभय ने एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी सिगरेट सुलगानी चाही थी.

‘‘बहुत सिगरेट पीने लगे हो…’’ मैं ने धीरे से उन के हाथ से लाइटर ले लिया था और पास ही बैठ गई थी, ‘‘इतनी सिगरेट क्यों पीने लगे हो?’’

‘‘दूर रहोगी तो कुछ तो करूंगा ही…’’ पहली बार अभय का स्वर मुझे स्वाभाविक लगा था, ‘‘थक गया हूं रितु, ठीक है तुम नौकरी मत छोड़ना, मैं ही समय से पहले सेवानिवृत्त हो जाऊंगा, बस, अब तो खुश हो,’’ उन्होंने और सहज होने का प्रयास किया था…और मुझे पास खींच लिया था. फिर धीरे से मेरे उस गाल को सहला दिया था जहां शाम को थप्पड़ लगा था.

‘‘नहीं अभय, मैं नौकरी छोड़ दूंगी… आखिर मेरी सब से बड़ी जरूरत तो तुम्हीं हो,’’ कहते हुए मेरा गला रुंध गया था.

‘‘सच…क्या सच कह रही हो रितु?’’ अभय ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘हां सच, बिलकुल सच,’’ मैं ने धीरे से कहते हुए अपना सिर अभय के कंधे पर टिका दिया था.

साक्षी के बाद: भाग 2

‘बसबस, तुम्हें इस हाल में टैंशन नहीं लेनी है, साक्षी. मम्मीजी भी जल्द ही बदल जाएंगी. तुम इतनी प्यारी हो कि कोई भी तुम से ज्यादा दिन नाराज नहीं रह सकता.’

साक्षी को बेटी हुई. परियों सी प्यारी, गुलाबी, गोलमटोल. बिलकुल साक्षी की तरह. मां को पोते की चाह थी शिद्दत से, लेकिन आई पोती. साक्षी डर रही थी कि न जाने उसे क्याक्या सुनना पड़ेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मम्मीजी ने नवजात कन्या को झट से उठा कर सीने से लगा लिया. खुशी से उन की पलकें भीग गईं, ‘मेरी सोनीसुहानी बच्ची,’ वे बोलीं और बस, उसी दिन से बच्ची का नाम ‘सुहानी’ हो गया.

अच्छी जिंदगी गुजर रही थी साक्षी की. वह न के बराबर ही मायके जाती थी. 4 बरस की थी सुहानी, जब फिर से साक्षी गर्भवती हुई पर इस बार वह बेटा चाहती थी.

‘पूर्वा भाभी, मैं सोनोग्राफी करवाऊंगी, अगर लड़का हुआ तो रखूंगी, नहीं तो…’

‘नहीं तो क्या?’

साक्षी ने खामोशी से सिर झुका लिया.

‘इतनी पढ़ीलिखी हो कर कैसी सोच है तुम्हारी साक्षी? मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी. ऐसा कभी सोचना भी नहीं, समझीं?’

‘भाभी, लड़कियों के साथ कितने झंझट हैं, आप क्या जानें. आप की तो कोई बहन नहीं, बेटी नहीं, आप के पास तो बेटा है भाभी, इसीलिए आप ऐसा कह रही हैं.’

‘मैं भी लड़की चाहती थी साक्षी, सूर्य आया तो इस में मेरा क्या कुसूर? रही बात बेटी की तो क्या सुहानी मेरी बेटी नहीं?’

‘वह तो है भाभी, फिर भी…’

‘जाने दो न. कौन जाने बेटा ही हो तुम्हें.’

बात आईगई हो गई. अभी तो कुछ ही दिन चढ़े थे साक्षी को.

‘‘पूर्वा, लो चाय लो.’’

पूर्वा जैसे गहरी बेहोशी से बाहर आई. अरुण कब लौटे, कब ताला खोल कर भीतर आए और कब चाय भी बना लाए, वह जान ही नहीं पाई.

‘‘पी लो पूर्वा, थोड़ा आराम मिलेगा, फिर हमें चलना भी है. साक्षी घर आ गई है.’’

पूर्वा के पेट में जैसे एक गोला सा उठा. दर्द की एक तीखी लहर पोरपोर दुखा गई. नहीं भर सकी वह चाय का 1 घूंट भी.

वह दिसंबर की एक सुबह थी. हड्डियां कंपा देने वाली ठंड पड़ रही थी, लेकिन पूर्वा पर जैसे कोई असर नहीं कर रही थी ठंड. जब अरुण का हाथ थामे वह साक्षी के घर पहुंची, तो उस का कलेजा मुंह को आ गया यह देख कर कि उस हाड़ कंपा देने वाली ठंड में बर्फीले संगमरमर के फर्श पर मात्र एक चटाई पर साक्षी की निष्प्राण देह पड़ी थी.

साक्षी की सास बिलख रही थीं. अब तक रुके पूर्वा के आंसू जैसे बांध तोड़ कर बह निकले. साक्षी से लिपट कर चीखचीख कर रोने लगी वह. इसी ड्राइंगरूम में ही तो 6 साल पहले, पहला पग धरा था साक्षी ने. यहीं, इसी जगह बिछे कालीन पर बैठ कर ही तो कंगना खुलवाया था संदीप से साक्षी ने. सहसा पीठ पर एक स्नेहिल स्पर्श का आभास हुआ और किसी ने सुबकते हुए उसे बांहों में बांध लिया. वह सुनंदा दीदी थीं.

साक्षी की मां सूना मन और भरी आंखें लिए उस के सिरहाने बैठी थीं मौन भाव से, एकटक बेटी को निहारती. एक आंसू भी नहीं टपका उन की आंखों से.

साक्षी की बहन स्वाति कंबल में लिपटी सोई हुई सुहानी को कस कर सीने से लगाए एक कोने में बैठी थी… खामोश… बस आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी.

हाय, कितनी बार मना किया बिटिया को पर एक न सुनी इस ने… कहते हुए साक्षी की सास फिर से रोने लगीं.

पूर्वा का जी चाहा कि चीख कर कहे कि नहीं मम्मीजी, झूठ न बोलिए. आप ने बिलकुल मना नहीं किया साक्षी को, बल्कि उस से ज्यादा तो आप चाहती थीं कि दूसरी बेटी न आए.

उसे याद आया, उस के आगरा जाने से 1 दिन पहले की ही तो बात है. संदीप और सुहानी को दफ्तरस्कूल भेज कर सुबह 9 बजे ही आ गई थी साक्षी. चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. बोली, ‘पूर्वा भाभी, वही हुआ जिस का मुझे डर था.’

‘क्या हुआ साक्षी?’

‘सोनोग्राफी रिपोर्ट आ गई है, पूर्वा भाभी. लड़की ही है. मुझे अबौर्शन करवाना ही होगा.’

‘एक मां हो कर अपने ही बच्चे को मारोगी साक्षी, तो क्या चैन से जी पाओगी?’

‘मुझे नहीं चाहिए लड़की बस,’ दोटूक फैसला सुना दिया दृढ़ स्वर में साक्षी ने.

‘क्यों नहीं चाहिए? क्या संदीप भाई नहीं चाहते?’

‘नहीं, ऐसा होता तो प्रौब्लम ही क्या थी. संदीप को तो बहुत पसंद हैं बेटियां, भाभी.’

‘तो क्या मम्मीजी नहीं चाहतीं?’

‘पूर्वा भाभी, बहुत सहा है लड़की बन कर मैं ने, मेरी मां ने औैर बहन स्वाति ने भी. जानती हैं भाभी, हम 3 बहनें थीं. पापा जब गए तब मैं सिर्फ 10 साल की थी, स्वाति 6 साल की और सब से छोटी सिमरन, जो बेटे की आस में हुई थी, सिर्फ सवा साल की थी. पापा के गम में डूबी मां उस की ठीक से देखभाल नहीं कर पाईं और उसे डायरिया हो गया.

इलाज के लिए पैसे नहीं थे मां के पास…उस का डायरिया बिगड़ता गया और वह मर गई. मैं ने, मां और स्वाति ने बहुत तकलीफें उठाई हैं. मैं तो निकल आई पर वे दोनों अब भी… उन के दर्द की आंच हर पल झुलसाती है मुझे, पूर्वा भाभी. संघर्षों की आग में झोंकने के लिए एक और लड़की को मैं दुनिया में नहीं ला सकती.’

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नया ठिकाना- भाग 3: क्या मेनका और रवि की शादी हुई?

रवि बोलने लगा, ‘‘आप लोग चिंता मत कीजिए. हम आप को 6,000 रुपए महीना भेजते रहेंगे. किसी तरह वहां का घरजमीन बेच कर मामा के गांव में ही जमीन ले लीजिए. अगर दिक्कत होगी, तो आप दोनो को यहां शहर भी ला सकते हैं.’’

‘नहीं बेटा, हम लोग यहीं रहेंगे. शहर में नहीं आएंगे.’

रवि 12,000 रुपए महीने पर सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करने लगा था. मेनका एक ब्यूटीपार्लर में रिसैप्शन पर 8,000 रुपए महीना पर काम करने लगी थी. दोनों के दिन खुशीखुशी बीत रहे थे.

इसी बीच कोरोना बीमारी की चर्चा होने लगी. आज प्रधानमंत्री का भाषण टैलीविजन पर आने वाला था. प्रधानमंत्री ने सभी लोगों को एक दिन के ‘जनता कर्फ्यू’ की कह कर घर पर बिठा दिया. 21 मार्च को शाम 5 बजे 5 मिनट तक अपने घर की छत से थाली और ताली बजाने को कहा गया.

देशभर के लोगों ने थाली और ताली, घंटी और शंख तक बजा दिए. प्रधानमंत्री सम झ गए कि वे जो बोलेंगे, जनता मानेगी. इस के बाद उन्होंने टैलीविजन पर बड़ा फैसला सुनाया कि अब देश में 21 दिन का लौकडाउन होगा और जो जहां है, वहीं रहेगा. सभी गाडि़यां, बस, ट्रेन और हवाईजहाज तक बंद रहेंगे. सिर्फ राशन और दवा की दुकानें खुली रहेंगी.

दूसरे दिन से हर जगह पर पुलिस प्रशासन मुस्तैद हो गया. किसी तरह बंद कमरे में 21 दिन बिताए, पर फिर 19 दिन का और लौकडाउन बढ़ा दिया गया. अब जितने भी काम करने वाले लोग थे, वे हर हाल में घर जाने का मन बनाने लगे. कंपनी के मालिक ने पैसा देना बंद कर दिया.

रवि और मेनका के अगलबगल के सारे लोग अपनेअपने घर के लिए निकल पड़े. संजय ने भी 1,200 रुपए में एक पुरानी साइकिल खरीद कर चलने का मन बना लिया.

रवि ने अपने मामा के पास फोन किया, तो मामा ने कहा, ‘यहां भूल कर भी मत आना. अगर लड़की वालों को मालूम हो गया तो तुम्हारे साथसाथ हम लोग भी मुश्किल में पड़ जाएंगे.’

आखिर मेनका और रवि जाएं तो जाएं कहां? मेनका पेट से थी. संजय दूसरे दिन साइकिल ले कर निकल गया था. पूरे मकान में सिर्फ रवि और मेनका ही बच गए थे. कोरोना के मरीज हर रोज बढ़ रहे थे. कुछ हो गया, तो कोई साथ नहीं देगा.

रवि ने भी एक साइकिल खरीद ली और मेनका को बोला, ‘‘चलो, हम लोग भी निकल चलें. चाहे जो भी हो, एक दिन तो सब को मरना ही है.’’

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रवि अपना सारा सामान मकान मालिक को 15,000 रुपए में बेच कर निकल पड़ा. रास्ते के लिए कुछ खाना बना लिया. 4 बजे भोर में रवि मेनका को साइकिल की पीछे वाली सीट पर बैठा कर चल पड़ा.

धीरेधीरे शाम हो गई थी. रवि को तेज प्यास लगी थी. सड़क के किनारे एक आलीशान मकान था. गेट के पास एक नल था. रवि रुक कर बोतल में पानी भर रहा था.

उस आलीशान मकान से गेट तक एक बुढि़या आई और पूछने लगी, ‘‘बेटा, तुम लोग कहां से आ रहे हो?’’

‘‘माताजी, हम लोग दिल्ली से आ रहे हैं और बिहार जाएंगे.’’

‘‘अरे, साइकिल से तुम लोग इतनी दूर जाओगे?’’

‘‘हां माताजी, क्या करें. जिस कंपनी में काम करते थे, वह बंद हो गई. मकान मालिक किराया मांगने लगा, तो सभी किराएदार निकल गए. हम लोग क्या करते?’’

‘‘अब रात में तुम लोग कहां रुकोगे?’’

‘‘माताजी, कहीं भी रुक जाएंगे.’’

‘‘अरे, तुम दोनों यहीं रुक जाओ. यहां मेरे घर में कोई नहीं रहता. एक हम हैं और एक खाना बनाने वाली नौकरानी. तुम लोग चिंता मत करो. तुम लोग जैसे मेरे भी बेटाबहू हैं, जो अमेरिका में रहते हैं. वहां दोनों डाक्टर हैं.’’

रवि ने हां कर दी. वह औरत उन  दोनों को घर में ले गई और नौकरानी को बोली, ‘‘2 लोगों का और खाना बना देना.’’

रवि बोला, ‘‘माताजी, हम लोगों के पास खाना है. आप ने रुकने के लिए जगह दे दी, यही बहुत है.’’

‘‘कोई बात नहीं. वह खाना तुम लोगों को रास्ते में काम आएगा.’’

‘‘अच्छा, ठीक है माताजी.’’

इस के बाद वे दोनों फ्रैश हुए. उस के बाद मेनका और बूढ़ी माताजी आपस में बातें करने लगीं.

बूढ़ी माताजी कहने लगीं, ‘‘मेरा भी एक ही बेटा है. वह अमेरिका में डाक्टर है. वहीं उस ने शादी कर ली. 10 साल के बाद पिछले साल जब वह यहां आया था, तब उस के पिताजी इस दुनिया में नहीं रहे थे.

‘‘मेरे पति आईएएस अफसर थे. बहुत अरमान से बेटे को डाक्टरी पढ़ाई थी. मु झे पैसे की कोई कमी नहीं है. 40,000 रुपए पैंशन मिलती है. जमीनजायदाद से साल में 5 लाख रुपए की आमदनी हो जाती है.’’

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खाना खा कर बात करतेकरते काफी रात बीत गई. सुबह जब रवि और मेनका उठे, तो दिन के 8 बज गए थे. नहानाधोना करतेकरते 9 बज गए थे. जब दोनों निकलने की तैयारी करने लगे, तो बूढ़ी माता ने कहा, ‘‘धूप बहुत हो गई है. अब तुम दोनों कल सुबह जल्दी निकलना.’’

दोनों आज भी वहीं रुक गए थे. मेनका नौकरानी के साथ खाना बनाने में मदद करने लगी थी.

बूढ़ी माता रात को अपना दुखदर्द सुनाते हुए रोने लगीं, ‘‘सिर्फ पैसे से ही खुशी नहीं मिलती. मेरे बेटे को शादी किए 10 साल हो गए हैं. मैं ने आज तक अपनी बहू को देखा तक नहीं. एक पोता भी हुआ है, पर उसे भी आज तक देखने का मौका नहीं मिला.’’

मेनका को लगा जैसे उसे नई मां मिल गई है. रात को उस ने बूढ़ी माताजी के पैर दबाए और तेल लगाया. बूढ़ी माताजी को आज असली सुख का एहसास होने लगा था.

सुबह जब रवि ने निकलने के लिए बोला, तो बूढ़ी माता जिद पर अड़ गईं, ‘‘तुम लोग हमेशा यहीं रहो न…’’

रवि और मेनका को भी नया ठिकाना मिल गया था और वे खुशीखुशी यहीं रहने लगे.

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