बढ़ाने के चक्कर में कहीं कम न हो जाए सैक्स पावर

उत्तर प्रदेश के 28 साला राहुल को शादी के बाद हुआ. अपनी नईनवेली पत्नी के साथ जोरदार और पलंगतोड़ हमबिस्तरी करने की ख्वाहिश में उस ने वियाग्रा नाम की दवा की जरूरत से ज्यादा खुराक यानी ओवर डोज ले ली. वियाग्रा या कोई भी दवा आमतौर पर ज्यादा नुकसानदेह नहीं होती, थोड़ेबहुत साइड इफैक्ट हो सकते हैं, लेकिन वे समय रहते ठीक भी हो जाते हैं. अगर न हों तो तुरंत डाक्टर से मशवरा लेने की हर कोई कह देता है. यही बात वियाग्रा पर लागू होती है. रोहित ने गलती यह की कि एकसाथ 6-8 गोलियां वियाग्रा की खा लीं और कुछ दिन उन के असर को यह सोचते हुए छिपाता रहा कि इस बार भी सब अपनेआप ठीक हो जाएगा. सैक्स पावर और हमबिस्तरी की मीआद बढ़ाने के लिए 25 मिलीग्राम की एक गोली और ज्यादा ढीलापन रहता हो, तो 50 मिलीग्राम की एक गोली काफी होती है.

वैसे, प्राइवेट पार्ट में इरैक्शन यानी तनाव के लिए वियाग्रा की गोली का सेवन पिछले 20 सालों में तेजी से बढ़ा है. इस ने तो हद कर दी 5 जून, 2022 को राहुल को प्रयागराज के सब से बड़े सरकारी अस्पताल मोतीलाल नेहरू मैडिकल कालेज में भरती कराया गया, तो वहां मौजूद डाक्टर भी हैरान रह गए, क्योंकि उन की जिंदगी में आया यह पहला मामला था, जिस में प्राइवेट पार्ट में तनाव कम या खत्म नहीं हो रहा था वरना अब तक तो ऐसे ही नौजवान ज्यादा आते थे, जिन के अंग में या तो तनाव नहीं आता था या वे पूरी तरह तैयार नहीं होते थे या फिर वे जल्दी डिस्चार्ज हो जाते थे. लेकिन हो गया इलाज यूरोलौजी डिपार्टमैंट के मुखिया डाक्टर दिलीप चौरसिया ने केस अपने हाथ में लिया और इलाज शुरू किया. यह मामला प्राइवेट पार्ट की नसों में खामी आ जाने का था,

जो कभीकभार लाखों में से किसी एक को होता है. उन की टीम ने मुंबई के एक नामी डाक्टर रुपिन शाह के फार्मूले को अपनाया और पेनाइथल प्रोस्थैसिस के एक महीने के अंतर से 2 आपरेशन कर रोहित को ठीक कर दिया. रोहित तो डाक्टरों की कोशिशों के चलते ठीक हो गया, लेकिन देश में लाखोंकरोड़ों नौजवान ऐसे हैं, जो नीमहकीमों के चक्कर में पड़ कर अपनी जिंदगी तबाह कर लेते हैं और मारे शर्म और डर के किसी को बताते भी नहीं कि सैक्स पावर बढ़ाने के लालच में उन की सैक्स पावर या तो कम हो गई है या बिलकुल ही खत्म हो गई है. रोहित भी शायद यही करता, अगर उसे अंग उठे रहने की परेशानी पेश न आ रही होती. अब वह ठीक हो गया है, तो उम्मीद है कि उस की पत्नी भी इस बात को बुरा सपना मान कर वापस आ जाएगी.

जानलेवा टोटके रोहित का मामला तो जैसेतैसे सुलट और सुलझ गया, लेकिन भोपाल के 24 साला प्रतीक का मर्ज अभी तक ज्यों का त्यों है, जिस ने तकरीबन 2 साल पहले अपनी गर्लफ्रैंड पर रौब गांठने और सैक्स के पहले एमपी नगर के एक फुटपाथी नीमहकीम से सैक्स पावर बढ़ाने वाली दवाएं 500 रुपए में ली थीं. नीमहकीम की हिदायत के मुताबिक प्रतीक ने पुडिया में बंधी खुराक गरम दूध से हलक में उड़ेल ली और तयशुदा जगह पर माशूका का इंतजार करने लगा. इस बाबत ह्वाट्सएप पर बात हो चुकी थी कि वह शाम के 5 बजे तक पहुंच जाएगी, फिर दोनों खूब मस्ती करेंगे. पर थोड़ी देर बाद माशूका का मैसेज आया कि घर पर मेहमान आ गए हैं,

इसलिए अब वह शाम के 7 बजे तक पहुंच पाएगी. प्रतीक मन और तन मसोस कर रह गया, क्योंकि उस नीमहकीम की दवा असर दिखाने लगी थी, लेकिन पेट के नीचे नहीं, बल्कि ऊपर जहां गैस बन रही थी और जोरदार गुड़गुड़ हो रही थी. देखते ही देखते प्रतीक को दस्त होने का सिगनल मिला, तो वह सार्वजनिक शौचालय की तरफ भागा. थोड़ी देर बाद फारिग हो कर आया, तो पेट में तेज दर्द उठा, इतना तेज कि बरदाश्त नहीं हो रहा था. लिहाजा, उस ने अपने एक दोस्त को फोन किया और कहा कि भाई, जल्दी एमपी नगर आ कर मुझे डाक्टर के यहां ले चल.

अब तक उस पर से माशूका और सैक्स का नशा उतर चुका था. डाक्टर ने प्रतीक की जांच की और पूछा कि क्याक्या खायापीया था, तो वह हकीमजी की पुडि़या वाली बात छिपा गया. डाक्टर की दवा लेने से उस दिन तो आराम रहा, लेकिन दूसरे दिन फिर दस्त लगने लगे. अब उस का माथा ठनका कि हकीमजी तो उसे चूना लगा गए हैं. इस बार दूसरे डाक्टर को दिखाया, तो प्रतीक को यह सच बताने में ही अपनी भलाई लगी कि उस ने सैक्स पावर बढ़ाने की दवा ली थी. डाक्टर ने पहले तो तबीयत से प्रतीक को डांटा कि पढ़ेलिखे समझदार हो कर भी इन लुटेरों के चक्कर में पड़ते हो.

खैर, अब जाओ और इतनी जांचें करवा कर लाओ. अब तक इलाज में उस के 3,000 रुपए फुंक चुके थे, लेकिन परेशानी जबरदस्त थी, इसलिए वह इलाज करवाता रहा. इस के 2 साल बाद भी कभीकभी एकदम से दस्त लगने लगते हैं, तो उसे शौचालय की तरफ भागना ही पड़ता है. अब प्रतीक ने नीमहकीमों से तोबा कर ली है कि ये लोग जानतेसमझते कुछ नहीं हैं, बस पैसा कमाने की गरज से नौजवानों को खानदानी इलाज का झांसा दे कर अपना पेट भर रहे हैं, इसलिए इन से बचना चाहिए. पूरे देश में ऐसे तथाकथित नीमहकीमों का जाल बिछा है, जो नामर्द को मर्द बनाने का ठेका लिए बैठे हैं. शर्तिया औलाद पैदा करवाने के अलावा ये लोग वीर्य को इतना गाढ़ा करने के नुसखे बताते हैं कि गाढ़े और काढ़े में फर्क खत्म हो जाता है.

सैक्स ड्राइव बढ़ाने की जड़ीबूटियां भी इन के झोलों में रहती हैं. औरत को पूरी तरह से संतुष्ट करने की रामबाण औषधि भी इन के पास मिल जाती है. सैक्स पावर बढ़ाने की गारंटी देने वाले इन नीमहकीमों के नुकसानदेह इलाज के बारे में कई बार पोल खुल चुकी है. ‘सरस सलिल’ में भी न जाने कितनी बार ऐसे लेख छपे हैं, जो पाठकों को इन ठगों से बचने के लिए आगाह करते रहे हैं और सैक्स के बारे में उपयोगी जानकारियां देते रहे हैं कि इन बातों को समझें और करें, जो शादीशुदा जिंदगी में रंग घोल देती हैं. यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि मैं अपनी पत्नी या माशूका को बिस्तर में संतुष्ट नहीं कर पाऊंगा या ज्यादा देर तक टिक नहीं पाऊंगा. इस गलतफहमी से बचें,

क्योंकि पत्नी या माशूका आप से प्यार और इज्जत चाहती है और जब ये दोनों उसे मिलेंगे, तो वह सैक्स में भरपूर साथ और मजा देगी. बहुत सी आहें और चीखें संतुष्टि का पैमाना नहीं हैं. पैमाना है सैक्स करने का तरीका और ताकत, जो कुदरत जवान होते ही सभी को देती है. इस के बाद भी अगर कोई परेशानी या कमजोरी लगे, तो तुरंत बिना शरमाए डाक्टर से मिलें. वह आप की समस्या, जो आमतौर पर वहम होती है, को मिनटों में दूर कर देगा.

सीप में बंद मोती : भाग 1

 

टन…टन…दफ्तर की घड़ी ने साढ़े 4 बजने की सूचना दी तो सब एकएक कर के उठने लगे. आलोक ने जैसे यह आवाज सुनी ही नहीं.

‘‘चलना नहीं है क्या, यार?’’ नरेश ने पीठ में एक धौल मारी तो वह चौंक गया, ‘‘5 बज गए क्या?’’

‘‘कमाल है,’’ नरेश बोला, ‘‘घर में नई ब्याही बीवी बैठी  है और पति को यह भी पता नहीं कि 5 कब बज गए. अरे मियां, तुम्हारे तो आजकल वे दिन हैं जब लगता है घड़ी की सुइयां खिसक ही नहीं रहीं और कमबख्त  5 बजने को ही नहीं आ रहे, पर एक तुम हो कि…’’

नरेश के व्यंग्य से आलोक के सीने में एक चोट सी लगी. फिर वह स्वयं को संभाल कर बोला, ‘‘मेरा कुछ काम अधूरा पड़ा है, उसे पूरा करना  है. तुम चलो.’’

नरेश चल पड़ा. आलोक गहरी सांस ले कर कुरसी से टिक गया और सोचने लगा. वह नरेश को कैसे बताता कि नईनवेली बीवी है तभी तो वह यहां बैठा है. उस  के अंदर की उमंग जैसे मर सी गई है. पिताजी को भी न जाने क्या सूझी कि उस के गले में ऐसी नकेल डाल दी जिसे न वह उतार सकता है और न खुश हो कर पहन सकता है. वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था. अकेले रहने का आदी हो गया था…विवाह की इच्छा ही नहीं होती थी.

उस ने कई शौक पाले हुए थे. शास्त्रीय संगीत  के महान गायकों के  कैसटों का  अनुपम खजाना था उस के पास जिन्हें सुनतेसुनते वह न जाने कहां खो जाता था. इस के अलावा अच्छा साहित्य पढ़ना, शहर में आयोजित सभी चित्रकला प्रदर्शनियां देखना, कवि सम्मेलनों आदि में भाग लेना उस के प्रिय शौक थे और इन सब में व्यस्त रह कर उस ने विवाह के बारे  में कभी सोचा भी न था.

ऐसे में पिताजी का पत्र आया था,  ‘आलोक, तुम्हारे लिए एक लड़की देखी है. अच्छे खानदान की, प्रथम श्रेणी में  एम.ए. है. मेरे मित्र की बेटी है. फोटो साथ भेज रहा हूं. मैं तो उन्हें हां कर चुका हूं. तुम्हारी स्वीकृ ति का इंतजार है.’

अनमना सा हो कर उस ने फोटो उठाया और गौर से देखने लगा था. तीखे नाकनक्श की एक आकर्षक मुखाकृति थी. बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें जैसे उस के सारे वजूद पर छा गई थीं और जाने किस रौ में उस ने वापसी डाक से ही पिताजी को अपनी स्वीकृति  भेज  दी थी.

पिताजी ने 1 माह बाद ही विवाह की तारीख नियत कर दी थी. उस के दोस्त  नरेश, विपिन आदि हैरान थे और उसे सलाह दे रहे थे  कि सिर्फ फोटो देख कर ही वह विवाह को कैसे राजी हो गया. कम से कम एक बार लड़की से रूबरू तो हो लेता. पर जवाब में वह हंस कर बोला था, ‘फोटो तो मैं ने देख ही लिया है. अब पिताजी लंगड़ीलूली बहू तो चुनेंगे नहीं.’

पर कितना गलत सोचा था उस ने. विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस ने अरुणा के चेहरे पर  प्रथम दृष्टि डाली तो सन्न रह गया था. अरुणा की रंगत काफी सांवली थी. फिर तो वे बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें, जिन में वह अकसर कल्पना में डूबा रहता था, वे तीखे नाकनक्श जो धार की तरह सीधे उस के हृदय में उतर जाते थे, सब जैसे कपूर से  उड़ गए थे और रह गया था अरुणा का सांवला रंग.

अरुणा से तो उस ने कुछ नहीं कहा, पर सुबह पिताजी से लड़ पड़ा था, ‘कैसी लड़की देखी है आप ने मेरे लिए? आप पर भरोसा कर  के मैं ने बिना देखे ही विवाह के लिए हां कर दी थी और आप ने…’

‘क्यों, क्या कमी है लड़की में? लंगड़ीलूली है क्या?’ पिताजी टेढ़ी  नजरों से उसे देख कर बोले थे.

‘आप ने तो बस, जानवरों की तरह सिर्फ हाथपैरों की सलामती का ही ध्यान रखा. यह नहीं देखा कि उस का रंग कितना काला है.’

‘बेटे,’ पिताजी समझाते हुए बोले थे, ‘अरुणा अच्छे घर की सुशील लड़की है.

प्रथम श्रेणी में एम.ए. है. चाहो तो नौकरी करवा लेना. रंग का सांवला होना कोई बहुत बड़ी कमी नहीं है. और फिर अरुणा सांवली अवश्य है, पर काली नहीं.’

पिताजी और मां दोनों ने उसे अपने- अपने ढंग से समझाया था पर उस का आक्रोश कम न हुआ था. अरुणा के कानों में भी शायद इस वार्तालाप के  अंश पड़ गए थे. रात को वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘शायद यह विवाह आप की इच्छा के विरुद्ध हुआ है…’

वह खामोश रहा था. 15 दिन बाद ही वह काम पर वापस आ गया था. अरुणा भी उस के साथ थी. कानपुर आ कर अरुणा ने उस की अस्तव्यस्त गृहस्थी को सुचारु रूप से समेट लिया था.

‘‘साहब, घर नहीं जाना क्या?’’

चपरासी दीनानाथ का स्वर कान में पड़ा तो उस की विचारतंद्रा टूटी. 6 बज चुके थे. वह उठ खड़ा हुआ . घर जाने का भी जैसे कोई उत्साह नहीं था उस के अंदर. उसे आए 15 दिन हो गए हैं. अभी तक उस के दोस्तों ने अरुणा को नहीं देखा है. जब भी वे घर आने की बात करते हैं वह कोई  न कोई बहाना बना कर टाल जाता है.

आखिर वह करे भी क्या? नरेश की बीवी सोनिया कितनी सुंदर है और आकर्षक भी. और विपिन की पत्नी कौन सी कम है. राजेश की पत्नी लीना भी कितनी गोरी और सुंदर है. अरुणा तो इन सब के सामने कुछ भी नहीं. उस के दोस्त तो पत्नियों को बगल में सजावटी वस्तु की तरह लिए घूमते हैं. एक वह है कि दिन के समय भी अरुणा को साथ ले कर बाहर नहीं निकलता. न जाने कैसी हीन ग्रंथि पनप रही है उस के अंदर. कैसी बेमेल जोड़ी है उन की.

घर पहुंचा तो अरुणा ने बाहर कुरसियां निकाली हुई थीं. तुरंत ही वह चाय और पोहा बना कर ले आई. वह खामोश चाय की चुसकियां ले रहा था. अरुणा उस के मन का हाल काफी हद तक समझ रही थी. उस ने छोटे से घर को तो अपने कुशल हाथों और कल्पनाशक्ति से सजा  रखा था पर पति के मन की थाह वह नहीं ले पा सकी थी.

 

मेरा पिया घर आया: रवि के मन में नीरजा ने कैसे अपने प्रेम की अलख जगा दी?

रवि अपनी भाभी कविता और उन की सहेली निशा की सारी दलीलों को नजरअंदाज करते हुए शादी न करने की जिद पर कायम रहा, ‘‘मानवी से जुड़ी यादों के कारण अब किसी लड़की की तरफ देखने का मेरा मन नहीं करता,’’ शादी न करने का मुख्य कारण दोहराते हुए रवि का गला भर आया था.

‘‘पर मानवी अब जिंदा नहीं है,’’ निशा ने उत्तेजित लहजे में उसे याद दिलाया, ‘‘जिंदगी में हुए किसी एक हादसे के कारण इंसान को अपनी जीवनधारा को रोक नहीं देना चाहिए.’’

‘‘मैं मानवी की यादों के सहारे सारा जीवन गुजारने का फैसला कर चुका हूं, निशा भाभी.’’

कविता ने एकाएक नियंत्रण खो दिया और गुस्से से भरी आवाज में अपनी सहेली से कहा, ‘‘निशा, इन जनाब के साथ मगज मारने से कोई फायदा नहीं. अच्छा ही है कि ये शादी करने से इनकार कर रहे हैं. इन जैसे जिद्दी और नासमझ इंसान के साथ शादी कर के कोई लड़की खुश रह भी नहीं सकती.’’

अब तक खामोश बैठी निशा की छोटी बहन नीरजा एकाएक भावुक लहजे में बोल पड़ी, ‘‘ऐसा मत कहो कविता दीदी. इन जैसे संवेदनशील इंसान की जीवनसंगिनी बन कर कोई भी लड़की खुद पर गर्व करेगी.’’

निशा और कविता को उस का शरमातेलजाते अंदाज में अपनी बात कहने का यह ढंग हैरान कर गया. रवि भी उस के चेहरे को उलझन भरे अंदाज में पढ़ने की कोशिश कर रहा था.

‘‘नीरजा, तुम तो मानवी से जुड़ी सारी कहानी अच्छी तरह जानती हो. अगर तुम्हारे लिए इस का रिश्ता आए, तो क्या तुम हां कह दोगी?’’ कुछ देर की खामोशी के बाद कविता ने मजाकिया लहजे में नीरजा से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘मैं तो फौरन हां कह दूंगी,’’ नीरजा ने भावुक लहजे में ऐसा जवाब दिया तो तीनों को यह बात एकदम समझ आ गई कि वह रवि को मन ही मन प्यार करने लगी है.

कविता ने इस बार संजीदा हो कर अगला सवाल पूछा, ‘‘यह तो बता कि तू ने ऐसा क्या खास गुण देख लिया रवि में जो इसे अपना दिल दे बैठी?’’

नीरजा भावुक लहजे में बोली, ‘‘कुछ दिन पहले जब दीदी के बेटे मोहित की तबीयत खराब हुई, तो इन से उस की पीड़ा नहीं देखी गई थी. सब के रोकने के बावजूद ये ही उसे फौरन अस्पताल ले गए थे.’’

‘‘भाभी, आप या दीदी वक्तबेवक्त इन्हें कुछ भी काम बताओ, ये उसे करने में बिलकुल नानुकर नहीं करते. गुस्सा तो जैसे इन के स्वभाव में है ही नहीं. सब से हंस कर मिलते हैं. मैं ने इन्हें गरीब लोगों से भी हमेशा प्यार और इज्जत के साथ पेश आते देखा है. इन की तो जितनी तारीफ की जाए कम है.’’

रवि ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘ऐसी बातें सोचने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि मुझे तो कभी शादी ही नहीं करनी है.’’

‘‘इस मामले में मेरा अपने दिल पर कोई नियंत्रण नहीं रहा है,’’ नीरजा ने शरमाते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम पागल हो क्या? क्यों इन सब की हंसी का पात्र न रही हो?’’

‘‘आप जैसा संवेदनशील और नेकदिल जीवनसाथी मुझे ढूंढ़ने पर नहीं मिलेगा,’’ वह अपनी धुन में बोली, मानो उस ने रवि की बात सुनी ही न हो.

रवि को बिलकुल नहीं सूझा कि वह नीरजा से आगे क्या कहे. उसे यों बेबस देख निशा और कविता खुल कर मुसकराए जा रही थीं.

‘‘निशा, मुझे तो तेरी छोटी बहन को अपनी देवरानी बनाने में कोई एतराज नहीं…’’

‘‘भाभी, प्लीज. हम अभी आए,’’ ऐसा कह कर रवि ने नीरजा का हाथ पकड़ा और उसे उन के बीच से उठा कर बाहर लौन में ले आया.

‘‘तुम सब के सामने ऐसी पागलपन वाली बातें कर के अपना और मेरा मजाक मत उड़वाओ,’’ रवि नाराज नजर आ रहा था.

‘‘आप इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी मानवी के अलावा किसी और लड़की से प्रेम नहीं करते हो न?’’ नीरजा एकदम संजीदा हो गई.

‘नहीं.’’

‘‘तो मुझ से शादी कर लो.’’

‘‘तुम मेरी मजबूरी समझो, प्लीज. मैं मानवी को प्यार करता था, करता हूं और करता रहूंगा.’’

‘‘मुझे बिलकुल आप के जैसा ही जीवनसाथी चाहिए. अपनी मृत प्रेमिका के प्रति आप अगर इतने वफादार हो तो यकीनन मेरे प्यार के प्रति भी पूरी तरह से ईमानदार और वफादार रहोगे.’’

‘‘मैं मानवी से कभी बेवफाई नहीं करूंगा,’’ नाराजगी भरे अंदाज में उठ कर रवि अपने घर की तरफ चल पड़ा.

‘‘और मेरा दिल कह रहा है कि हमारी शादी जरूर हो कर रहेगी,’’ नीरजा की इस घोषणा का कोई जवाब देने के लिए रवि रुका नहीं था.

रवि का दिल जीतने की कोशिशें नीरजा ने उसी दिन से बड़े उत्साह के साथ शुरू कर दीं. पड़ोस में घर होने के कारण वह सुबहशाम खूब सजधज कर रवि से मिलने पहुंच जाती.

‘‘मैं कैसी लग रही हूं?’’ रवि के सामने आते ही वह उस से यह सवाल तब तक पूछती रहती जब तक वह उस की तारीफ नहीं कर देता.

अपने फोन के कैमरे से वह रवि के हर किसी के साथ खूब फोटो खींचती. उस का हर काम भागभाग कर खुद करती. उस के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने के लिए वह अकसर रात का खाना उसी के घर खाने लगी थी.

वह अकसर, ‘अपने पिया की मैं तो बनी रे दुलहनिया…’ और ‘मेरा पिया घर आया…’ जैसे गाने मस्त अंदाज में गाती हुई दोनों घरों में घूमती नजर आती, तो रवि के अलावा सब खूब दिल खोल कर हंसते.

परेशान रवि हर किसी से फरियाद करता, ‘‘कोई इस पगली को समझाओ, प्लीज. यह अपनी भावनाओं पर काबू रखे, नहीं तो बाद में इसे दुख होगा.’’

‘‘उसे समझाना हमारे बस की बात नहीं. वह तो तुम्हारे प्यार में पागल हो चुकी है, रवि,’’ हर किसी से कुछ ऐसा ही जवाब पा कर रवि की खीज निरंतर बढ़ती जाती थी.

आने वाले कुछ दिनों में नीरजा ने अपने उत्साहपूर्ण व्यवहार से रवि के पिता कैलाश, मां सावित्री और बड़े भाई राजीव के दिलों को भी जीत लिया. उन सब के मन में यह उम्मीद बंध  गई कि कभी शादी न करने के रवि के फैसले को शायद नीरजा बदलने में कामयाब हो जाएगी.

नीरजा की मां कांता ने विकास नाम के एक बिजनैसमैन के साथ नीरजा का रिश्ता पक्का करने का मन बना रखा था. जब नीरजा के रवि को दिल देने की खबर उन के कानों तक पहुंची, तो वे अपने पति रमेश के साथ अगले ही दिन मेरठ से दिल्ली आ गईं.

नीरजा को सामने बैठा कर उन्होंने सख्त लहजे में उसे समझाना शुरू किया, ‘‘शादी के बाद किसी भी लड़की की खुशियां सुनिश्चित करने में पैसा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. तुझे तो इस बात से खुश होना चाहिए कि इतने अमीर घर की बहू बनने का मौका मिल रहा है.’’

‘‘पर मैं रवि को पसंद करती हूं… उसे दिल की गहराइयों से प्यार करती हूं,’’ नीरजा ने रोंआसे स्वर में उन्हें अपने दिल की बात बता दी.

‘‘पैसा सबकुछ नहीं होता, कांता. हमें इस की पसंद नापसंद का भी खयाल रखना चाहिए,’’ रमेश ने अपनी बेटी का पक्ष लिया.

‘‘तुम तो अपना मुंह बंद ही रखो जी,’’ कांता एकदम गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘तुम्हारे साथ पिछले 30 साल से मैं अपने मन को मार कर कैसे जी रही हूं, यह मैं ही जानती हूं. कभी न मनचाहा पहना, न कहीं घूमीफिरी. बजट बना कर जीते हुए मेरी सारी जिंदगी बेकार हो गई.’’

रमेशजी ने आगे कुछ न बोलने में ही अपनी भलाई समझी. कांता ने उन से ध्यान हटाया और अपनी बेटी को गुस्से से घूरते हुए कहने लगीं, ‘‘अपने इस प्यार और पसंद के पागलपन को गोली मार और मुझे बता कि विकास के मुकाबले क्या है इस रवि के पास? 3 कमरों का फ्लैट, जिस में वह भैयाभाभी के साथ रहता है और खटारा सी पुरानी कार. अरे, रवि जितना सालभर में कमाता है, उतनी तो विकास की फैक्टरी एक महीने में उसे कमा कर देती है. तू जिंदगीभर ऐश करेगी उस के साथ.’’

नीरजा चिढ़ कर बोली, ‘‘मां, मेरी नजरों में विकास एक अहंकारी और रूखा इंसान है, जो अपनी तारीफ खुद कर के सब को बहुत बोर करता है.’’

‘‘उस काबिल लड़के में जबरदस्ती बेकार के नुक्स मत निकाल. देख, उन्हें सुंदर लड़की चाहिए और ऊपर से तेरी मौसी यह रिश्ता कराने के लिए खूब भागदौड़ कर रही है. तुझ में थोड़ी सी भी अक्ल है, तो फौरन विकास से शादी करने को हां कह दे.’’

‘‘शादी के मामले में किसी ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ ऐसी चेतावनी दे कर नीरजा उन के सामने से हट गई.

कुछ देर तक अपनी बेटी को कोसने के बाद कांता ने नीरजा पर दबाव बढ़ाने के लिए विकास को फौरन अगले दिन सुबह मेरठ से दिल्ली आने का हुक्म फोन कर के सुना दिया.

सफल बिजनैसमैन विकास बड़बोला इंसान था, जिसे अपनी अमीरी पर बहुत घमंड था. उसे पूरा विश्वास था कि नीरजा उस के साथ शादी करने से कभी इनकार नहीं करेगी.

‘‘नीरजा को मैं सारी दुनिया घुमाऊंगा… मेरी मां शादी में इतने जेवर चढ़ाएंगी कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी… हनीमून मनाने के लिए मैं ने स्विट्जरलैंड जाने का मन बना रखा है…’’ हर वक्त ऐसी डींगें मार कर उस ने कांता के अलावा सब को परेशान कर रखा था.

ये भी पढ़ें- सुबह का भूला: क्यों अपने देश लौटना चाहते थे बीजी और दारजी?

रवि ने अगले ही दिन नीरजा से अकेले में कहा, ‘‘इस विकास के साथ शादी करने को तुम हां मत करना. वह बोर इंसान तुम्हें अपने ढंग से कभी जीने नहीं देगा.’’

‘‘मैं तो आप की हमसफर बनना चाहती हूं, पर आप हो कि हां…’’

‘‘वह बात मत शुरू करो, प्लीज. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता,’’ रवि ने उसे फौरन टोक दिया.

‘‘आप मेरी आंखों में देखो और बताओ कि वहां आप को अपने लिए गहरा प्यार दिखाई दे रहा है या नहीं,’’ नीरजा एकदम से रवि के बहुत करीब आ गई थी.

‘‘वह सब तो ठीक है, पर…’’

‘‘मानवी के साथ आप ने सच्चा प्यार किया, पर अब वह इस दुनिया में नहीं है. उस की यादों से जुड़े रह कर मेरे सच्चे प्रेम को अपने दिल में जगह न देने का फैसला करना कहां की समझदारी है,’’ नीरजा का गला एकदम से भर आया.

‘‘मैं मजबूर हूं.’’

‘‘तो मैं भी मजबूर हूं. अगर आप ने हां नहीं की, तो मैं परसों शाम को होने वाली अपनी जन्मदिन पार्टी में विकास के साथ शादी करने को हां जरूर कह दूंगी,’’ नीरजा ने अपना फैसला सुनाने के बाद भावुक अंदाज में उस का हाथ चूमा और अपने कमरे की तरफ चली गई.

उस शाम को विकास के वापस मेरठ लौटने से पहले नीरजा ने सब के सामने उस से कहा, ‘‘मैं शादी को ले कर अपनी पक्की हां या ना आप को 2 दिन के अंदर जरूर बता दूंगी.’’

नीरजा की इस घोषणा के बाद सभी रवि की तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे. उस के गुस्से से डर कर कोई कुछ कह तो नहीं रहा था, पर उन सब की खामोशी भी रवि के ऊपर नीरजा से शादी के लिए हां कहने को जबरदस्त दबाव बना रही थी.

नीरजा की आशा के विपरीत रवि ने शादी को ले कर कोई बात नहीं की. वह तो अपने घर से सुबह से देर रात तक के लिए 2 दिन ऐसा गायब रहा कि उन दोनों की अगली मुलाकात उस की जन्मदिन पार्टी में ही हुई.

पार्टी में शामिल होने के लिए जैसे ही रवि ने ड्राइंगरूम में कदम रखा, तो उस से बेहद खफा नजर आ रही नीरजा ने ऊंची आवाज में सब को संबोधित किया, ‘‘अपने मातापिता की खुशी की खातिर मैं ने विकास से शादी करने का फैसला…’’

रवि ने ऊंची आवाज में टोक कर उसे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया, ‘‘नीरजा, तुम उस घमंडी इंसान के साथ कभी खुश नहीं रह सकोगी.’’

‘‘तो आप क्यों परेशान हो रहे हैं,’’ गुस्सा करना भूल कर नीरजा एकदम से रोंआसी हो उठी.

कविता ने भी चुभते लहजे में अपने देवर को डांटा, ‘‘यह बिलकुल ठीक कह रही है. तुम्हारे प्रेम में पागल इस प्यारी सी… इस भोली सी…इस सुंदर सी लड़की के सुखदुख की तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम तो जिंदगीभर अपनी मृत महबूबा को नाराज न करने की फिक्र ही करते रहना.’’

‘‘अब बस भी करो, भाभी. आप सब लोगों के ताने सुनसुन कर मैं इतना तंग आ गया हूं कि मैं ने…मुझे नीरजा से शादी करना मंजूर है,’’ रवि की इस घोषणा को सुन नीरजा के अलावा वहां उपस्थित हर इंसान तालियां बजा उठा.

सब की नजरों का केंद्र बन गई नीरजा ने उदास लहजे में अपने मन की बात कही, ‘‘शादी के मामले में मुझे इन की दया या एहसान नहीं चाहिए. ऐसी शादी करने का क्या फायदा कि इन के सामने मैं रहूं, पर ये मानवी के विचारों में खोए रहें?’’

‘‘पहले तुम ही शादी करने को मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई थी, तो अब क्यों इनकार कर रही हो?’’ रवि ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘मुझे लगता है कि मेरे साथ शादी करने का फैसला आप ने खुश हो कर नहीं किया है.’’

‘‘मेरे मन में क्या है, अब यह भी तुम बताओगी?’’

‘‘मुझे ही क्या, यह तो सब को पता है कि आप के दिलोदिमाग पर मानवी का कब्जा है.’’

‘‘तो तुम्हारे साथसाथ और सब भी कान खोल कर सुन लो कि मानवी ने ही मुझे तुम से शादी करने की इजाजत दी है,’’ रवि ने अपना पर्स खोल कर सब को दिखाया.

पर्स में अब तक मानवी का फोटो सभी ने लगा देखा था, पर इस वक्त वहां नीरजा की तसवीर लगी नजर आई.

एकाएक बेहद भावुक हो कर रवि नीरजा से बोला, ‘‘मानवी ने ही कल रात मुझे देर तक समझाया कि अब से तुम मेरे सुखदुख का खयाल रखोगी. कल रात के बाद से मैं आंखें बंद करता हूं, तो उस की जगह अब मुझे तुम नजर आती हो. मुझ से शादी न कर के क्या तुम मानवी को कष्ट पहुंचाना चाहोगी?’’

‘‘मैं भला ऐसा गलत काम क्यों करूंगी? हमारी शादी जरूर होगी,’’ नीरजा किसी छोटी बच्ची की तरह खुशी से तालियां बजाती उछली और फिर शरमाते हुए रवि की छाती से जा लगी.

एक दामाद और : पांच बेटी होने के बाद भी उसे कोई दिक्कत नहीं थी क्यों -भाग 3

अगले सप्ताह रूमा की वर्षगांठ थी. जाहिर था उस के लिए अच्छा सा तोहफा खरीदना होगा. सस्ते तोहफे से काम नहीं चलेगा. उस का अपमान हो जाएगा. बहन के आगे उस का सिर झुक जाए, यह वह कभी सहन नहीं करेगी.

‘‘मैं सोच रही थी कि उसे सलवार- कुरते का सूट खरीद दूं. उस दिन देखा था न काशीनाथ के यहां,’’ उर्मिला बोली.

‘‘क्या?’’ नरेश ने चौंक कर कहा, ‘‘मैं ने तो सोचा था कि तुम अपने लिए देख रही थीं. वह तो 150 रुपए का था.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ उर्मिला ने नरेश के गले में हाथ डालते हुए कहा, ‘‘मेरा पति कोई छोटामोटा आदमी थोड़े ही है. अरे, सहायक निदेशक है. पूरे दफ्तर में रोब मारता है.’’

‘‘छोड़ो भी. जरा खर्चा तो देखो. सब काम अपनी हैसियत के अनुसार करना चाहिए.’’

‘‘तो क्या मेरे मियां की इतनी भी हैसियत नहीं है?’’ उर्मिला ने रूठ कर कहा, ‘‘मैं पिताजी से उधार ले लूंगी.’’

नरेश को यह बात अच्छी नहीं लगती. पहले भी इस बात पर लड़ाई हो चुकी थी.

‘‘उधार लेने से तो यह फर्नीचर बेचना ठीक होगा,’’ उस ने गुस्से में आ कर कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उर्मिला ने नाराज हो कर कहा, ‘‘मेरे पिता का दिया फर्नीचर फालतू है न.’’

‘‘तो मैं ही फालतू हूं. मुझे बेच दो.’’

‘‘जाओ, मैं नहीं बोलती. बहन को एक अच्छी सी भेंट भी नहीं दे सकती.’’

‘‘भेंट देने को कौन मना करता है, पर इतनी महंगी देने की क्या आवश्यकता है? वर्षगांठ तो हर साल ही आएगी. और फिर एक थोड़े ही है, 4-4 हैं. अभी तो औरों की वर्षगांठ भी आने वाली होगी,’’ नरेश ने कहा.

‘‘क्यों, 5वीं को भूल गए?’’ उर्मिला ने व्यंग्य कसा. तभी नरेश को याद आया, 25 तारीख को तो उर्मिला की भी वर्षगांठ है.

‘‘जब मेरी वर्षगांठ मनाओगे तो मेरे लिए भी तो भेंट आएगी. पिताजी बंगलौर गए थे. जरूर मेरे लिए बढि़या साड़ी लाए होंगे. और सुनो,’’ उर्मिला ने आंख नचाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वर्षगांठ पर मैं सूट का कपड़ा दिलवा दूंगी.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए सूटवूट. तुम अपने तक ही रखो,’’ नरेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘एक तुम ही इतनी भारी भेंट पड़ रही हो.’’

‘‘ऐसी बात कह कर मेरा दिल मत दुखाओ,’’ उर्मिला ने नरेश का हाथ अपने दिल पर रखते हुए कहा, ‘‘देखो, कितना छोटा सा है और कैसा धड़क रहा है.’’

और नरेश फिर भूल गया.

दूसरे दिन जब उर्मिला सलवारकुरते का सूट ले आई तो नरेश ने आह भर कर कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी भी बड़े योजना- बद्ध हैं.’’

‘‘कैसे?’’ उर्मिला ने शंका से पूछा. उसे लगा कि नरेश कुछ कड़वी बात कहने जा रहा है.

‘‘तुम सारी बहनों की वर्षगांठें एकएक दोदो सप्ताह के अंतर पर हैं. उन्होंने जरा सा यह भी नहीं सोचा कि दामाद को कुछ तो सांस लेने का अवसर दें.’’

‘‘चलो हटो, ऐसा कहते शर्म नहीं आती?’’

‘‘नहीं. बिलकुल नहीं आती.’’

अब आ गई 25 तारीख, उर्मिला की वर्षगांठ. कई दिनों से तैयारी चल रही थी. शादी के बाद पहली वर्षगांठ थी. माता- पिता ने कहा था कि उन के यहां मनाना. परंतु उर्मिला ने न माना. उसे सब को अपने यहां बुलाने का बड़ा चाव था. अपना ऐश्वर्य व ठाटबाट जो दिखाना था. नरेश 400-500 के खर्च के नीचे आ गया. साड़ी मिलेगी उर्मिला को. हो सकता है बहनें भी कुछ थोड़ाबहुत भेंट के नाम पर दे दें. परंतु उस का खर्चा कैसे पूरा होगा? बैंक में रुपया शून्य तक पहुंच रहा था. वह बारबार उर्मिला को समझा रहा था. परंतु उसे वर्षगांठ मनाने का इतना शौक न था जितना दिखावा करने का. उत्साह न दिखाना नरेश के लिए शायद एक भद्दी बात होती. काफी नाजुक मामला था. नरेश ने सोचा कि पहला साल है. इस बार तो किसी तरह संभालना होगा, बाद में देखा जाएगा.

दावत तो रात की थी, पर बहनें सुबह से ही आ धमकीं. दीदी का हाथ जो बंटाना था. अकेली क्याक्या करेगी? दिन भर होहल्ला मचाती रहीं. फ्रिज में रखा सारा सामान चाट गईं. एक की जगह 2 केक बनाने पड़े. दिन में खाने के लिए गोश्त और मंगाना पड़ा. मिठाई भी और आई. एक दावत की जगह 2 दावतें हो गईं.

संध्या होते ही मातापिता भी आ गए. ‘मुबारक हो, मुबारक हो’ के नारे लग गए. सब के मुंह ऐसे खिले हुए थे जैसे आतशी अनार. उधर नरेश सोच रहा था कि वह अपने घर में है या ससुराल में. काश, यह जश्न एक निजी जश्न होता, केवल वह और उर्मिला ही उस में भाग लेते. अंतरंग क्षणों में यह दिन बीतता और शायद सदा के लिए एक सुखद यादगार होता. तब अगर 1,000 रुपए भी खर्च हो जाते तो वह परवा न करता. सब लोग उसे भूल कर एकदूसरे में इतने मगन थे कि किसी ने यह भी न सोचा कि वहां दामाद भी है या नहीं.

रात के 12 बजतेबजते न जाने कब यह तय हो गया कि 30 तारीख शनिवार को, जिस दिन नरेश की छुट्टी रहती है, सब लोग बहुत दूर एक लंबी पिकनिक पर चलेंगे और इतवार को ही लौटेंगे. रहने और खाने का प्रबंध ससुर की ओर से रहेगा. तब ही यह रहस्य भी खुला कि उर्मिला को 2 महीने का गर्भ है.

‘मुबारक हो, मुबारक हो,’ का शोर गूंज उठा.

‘‘दावत लिए बिना नहीं छोड़ेंगे, जीजाजी,’’ एक साली ने कहा और फिर तो बाकी सालियां भी चिपट गईं.

नरेश का तो भुरता ही बन गया. एकएक साली को चींटियों की तरह झाड़ रहा था और फिर से वे चिपट जाती थीं. उर्मिला मुसकरा रही थी और मां व्यर्थ ही उसे बताने का प्रयत्न कर रही थीं कि उसे क्याक्या सावधानी बरतनी चाहिए.

‘‘मां, मैं कल आ कर समझ लूंगी. अभी तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है,’’ उर्मिला ने शरमा कर कहा.

‘‘बेटी, कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए. मेरे विचार में तो तुझे अब हमारे पास ही आ कर रहना चाहिए. वहां तेरी देखभाल अच्छी तरह हो जाएगी.’’

‘‘अरे मां, अभी तो बहुत जल्दी है, मैं आ गई तो फिर इन के खाने का क्या होगा?’’

‘‘ओ हो, कितनी पगली है. अरे नरेश भी आ कर हमारे साथ रहेगा.’’

सालियों ने ताली बजा कर इस सुझाव का स्वागत किया, ‘‘जीजाजी हमारे साथ रहेंगे तो कितना मजा आएगा. जीजाजी, सच, अभी चलिए. हम सब सामान बांध देते हैं. बताइए, क्या ले चलना है?’’

नरेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘यह तो संभव नहीं है. अभी बहुत समय है. वैसे देखभाल तो मां को ही करनी है. बीचबीच में आ कर देखती रहेंगी.’’

‘‘जीजाजी, आप बहुत खराब हैं. पर दावत से नहीं बच सकते. क्यों दीदी?’’

‘‘हांहां,’’ उर्मिला ने कहा, ‘‘यह भी कोई बात हुई? क्या खाओगी, बोलो?’’

न सिर्फ फरमाइशों का ढेर लग गया बल्कि यह भी निर्णय ले लिया गया कि सारी सालियां शुक्रवार को ही आ जाएंगी. दिन में घर रहेंगी. दोनों समय का पौष्टिक भोजन करेंगी. रात में रहेंगी और फिर यहीं से शनिवार को पिकनिक के लिए प्रस्थान करेंगी. पिताजी कार ले कर आ जाएंगे.

नरेश की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी. सारे दिन इन छोकरियों के नखरे कौन उठाएगा?

सब लोग इतना पीछे पड़े कि नरेश को शुक्रवार की छुट्टी लेने के लिए राजी होना पड़ा. फिर एक बार हर्षध्वनि के साथ तालियां बज उठीं. उस ध्वनि में नरेश को ऐसा लगा कि वह एक ऐसा गुब्बारा है जिस में किसी ने सूई चुभो दी है और हवा धीरेधीरे निकल रही है.

रात में भिगोए हुए काले चनों का जब सुबह नरेश नाश्ता कर रहा था तो उर्मिला ने याद दिलाया कि आज शुक्रवार है और छोकरियां आती ही होंगी. अंडे, आइसक्रीम, मुर्गा, बेकन, केक, काजू की बर्फी इत्यादि का प्रबंध करना होगा, तो नरेश ने अपनी पासबुक खोल कर उर्मिला के आगे कर दी.

‘‘क्या मेरी नाक कटवाओगे?’’

‘‘तो फिर पहले सोचना था न?’’

‘‘क्या हम इतने गएगुजरे हो गए कि उन्हें खाना भी नहीं खिला सकते?’’

‘‘खाना खिलाने को कौन मना करता है. पर जश्न मनाने के लिए पास में पैसा भी तो होना चाहिए.’’

‘‘अब इस बार तो कुछ करना ही होगा.’’

‘‘तुम ही बताओ, क्या करूं? उधार लेने की मेरी आदत नहीं. ऐसे कब तक जिंदगी चलेगी?’’

‘‘देखो, कल पिकनिक पर जाना है. कुछ न कुछ तो खर्च होगा ही. अब ऐसे झाड़ कर खड़े हो गए तो मेरी तो बड़ी बदनामी होगी,’’ उर्मिला ने नरेश को अपनी बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘मेरी खातिर. सच तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘सुनो, अपना हार दे दो. बेच कर कुछ रुपए लाता हूं.’’

‘‘क्या कह रहे हो? क्या मैं अपना हार बेच दूं?’’

‘‘तो फिर रुपए कहां से लाऊं?’’

‘‘क्या अपने दोस्तों से उधार नहीं ले सकते?’’

‘‘वे सब तो मेरे ऊपर हंसते हैं. और वैसे वे लोग तो दफ्तर में होंगे. मैं कहां जाता फिरूंगा?’’

तभी घंटी बज उठी. दरवाजा खुलने में देर हुई इसलिए बजती रही, बजती रही. सालियां जो ठहरीं.

‘‘लो, आ गईं.’’

फिर वही खिलखिलाहट.

‘‘जीजाजी, आज तो फिल्म देखने चलेंगे. ऐसे नहीं मानेंगे.’’

‘‘क्यों नहीं, फिल्म जरूर देखेंगे.’’

‘‘ठीक है, तो आप फिल्म का टिकट ले कर आइए और हम लोग दीदी को ले कर बाजार जा रहे हैं.’’

चायपानी के बाद जब नरेश जाने लगा तो अकेले में उर्मिला ने कहा, ‘‘सुनो, रुपए जरूर ले आना. मेरे पास मुश्किल से 40 रुपए होंगे, और वे भी मां के दिए हुए. वापस जल्दी आ जाना.’’

‘‘हां, जल्दी आऊंगा,’’ नरेश ने कहा, ‘‘मेरे पास रुपए कहां हैं? टिकट के पैसे भी तो जेब में नहीं हैं, और फिर पिकनिक का खर्चा अलग.’’

‘‘कहा न, इतने बड़े अफसर होते हुए भी ऐसी बात करते हो,’’ उर्मिला ने कहा.

‘‘ठीक है, जाता हूं, पर संन्यास ले कर लौटूंगा.’’

नरेश चला तो गया, पर सोचने लगा कि इस ‘चंद्रकांता संतति’ पर कहीं न कहीं पूर्णविराम लगाना ही होगा.

कुछ देर भटक कर वह वापस आ गया. देखा तो चौकड़ी पहले से ही घर में बैठी हुई थी और सब का मुंह लटका हुआ था. उन को देखते ही नरेश ने भी अपना मुंह और लटका लिया.

‘‘क्या हुआ, जीजाजी? आप को क्या हुआ?’’

‘‘बहुत बुरा हुआ. कुछ कहने योग्य बात नहीं है. पर तुम लोगों का मुंह क्यों लटका हुआ है? तुम लोग तो खानेपीने का सामान लेने गई थीं न?’’

‘‘हां, गए तो थे, पर दीदी के पर्स में रुपए ही नहीं थे. सारा सामान खरीदा हुआ दुकान पर ही छोड़ कर आना पड़ा. आप कैसे हैं, जीजाजी? पत्नी को घरखर्च का रुपया भी नहीं देते?’’

‘‘लो, यह तो ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली बात हो गई. अरे, मैं तो सारा वेतन तुम्हारी दीदी के हाथ में रख देता हूं. मेरे पास तो सिनेमा के टिकट खरीदने के भी पैसे नहीं थे. जल्दीजल्दी में मांगना भूल गया था, सो रास्ते से ही लौट आया.’’

‘‘तो क्या आप टिकट नहीं लाए?’’

‘‘क्या करूं, उधार टिकट मांगने की हिम्मत नहीं हुई, पर मैं ने तसल्ली के लिए एक काम किया है.’’

‘‘हाय जीजाजी, हम आप से नहीं बोलते.’’

उर्मिला ने कहा, ‘‘पर पूछो तो सही क्या लाए हैं?’’

औपचारिकता के लिए छोटी ने पूछा, ‘‘आप क्या लाए हैं, जीजाजी?’’

जेब में से 4 पुस्तिकाएं निकालते हुए नरेश ने कहा, ‘‘सिनेमा के बाहर 50 पैसे में फिल्म के गानों की यह किताब बिक रही थी. मैं ने सोचा कि फिल्म न सही, उस की किताब ही सही. लो, आपस में एकएक बांट लो.’’

जब किसी ने भी किताब न ली तो नरेश आराम से सोफे पर पैर फैला कर बैठ गया और हंसहंस कर किताब जोरजोर से पढ़ कर सुनाने लगा और जहां गाने आए वहां अपनी खरखरी आवाज में गा कर पढ़ने लगा. एक समय आया जब सालियों से भी हंसे बिना नहीं रहा गया.

उर्मिला ने किताब हाथ से छीनते हुए कहा, ‘‘अब बंद भी करो यह गर्दभ राग. कुछ खाने का ही बंदोबस्त करो.’’

‘‘बोलो, हुक्म करो. बंदा हाजिर है. बिरयानी, चिकनपुलाव, कोरमा, पनीर, कोफ्ते, शामी कबाब, सींक कबाब, मुगलई परांठे, मखनी तंदूरी मुर्गा?’’

‘‘बस भी करो, जीजाजी, पता लग गया कि आप वही हैं कि थोथा चना बाजे घना. मैं तो 2 दिन से उपवास किए बैठी थी. लगता है सूखा चना भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘भई, सूखा चना तो जरूर मिलेगा.  क्यों, उर्मिला? बस, तो फिर आज चना पार्टी ही हो जाए. जरा टटोलो बटुआ अपना, कहीं उस के लिए भी चंदा इकट्ठा न करना पड़ जाए.’’

बड़ी साली ने कहा, ‘‘अच्छा, दीदी, हम चलते हैं. कल ही आएंगे. तैयार रहना.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसे कैसे जाओगी. कुछ तो खा के जाओ. जरा बैठो, कुछ न कुछ तो खाना बन ही जाएगा. बात यह है कि सारी गलती मेरी है. वेतन तो तुम्हारे जीजाजी सब मेरे हाथ में देते हैं, पर मैं झूठी शान में सारा एक ही सप्ताह में खर्च कर देती हूं. अब कब तक तुम से छिपाऊंगी.’’

‘‘नहीं, दीदी, थोड़ी गलती तो हमारी भी है. हमें भी तुम्हारे साथ मिलबैठ कर आनंद लेना चाहिए. तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहिए,’’ बड़ी ने कहा.

छोटी ने शैतानी से कहा, ‘‘देखा, दीदी, नंबर 2 कितनी चालाक हैं. अपना रास्ता पहले ही साफ कर लिया कि कोई हम में से जा कर उस के ऊपर बोझ न बने.’’

नरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘तो फिर अब जब पोल खुल गई है तो सिनेमा देखने के लिए तैयार हो जाओ.’’

और फिर जो चीखपुकार मची तो लगा सारा महल्ला सिर पर उठा लिया है. टिकट बालकनी के नहीं, पहले दरजे के थे, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हुई. फिल्म देखने के बाद नरेश उन्हें ढाबे में तंदूरी रोटी और दाल खिलाने ले गया. वह भी सब ने बहुत मजे से पेट भर कर खाया.

 

अमूल्य धरोहर : क्या बच पाई रवि बाबू की कुर्सी

धुंधली तस्वीरें – भाग 1: क्या बेटे की खुशहाल जिंदगी देखने की उन की लालसा पूरी हुई

सुभद्रा देवी अकेली बैठी कुछ सोच रही थीं कि अचानक सुमि की आवाज आई, ‘‘बूआजी.’’

पलट कर देखा तो सुमि ही खड़ी थी. अपने दोनों हाथ पीछे किए मुसकरा रही थी.

‘‘क्या है री, बड़ी खुश नजर आ रही है?’’

‘‘हां, बूआजी, मुंह मीठा कराइए तो एक चीज दूं.’’

‘‘अब बोल भी, पहेलियां न बुझा.’’

‘‘ऊंह, पहले मिठाई,’’ सुमि मचल उठी.

‘‘तो जा, फ्रिज खोल कर निकाल ले, गुलाबजामुन धरे हैं.’’

‘‘ऐसे नहीं, अपने हाथ से खिलाइए, बूआजी,’’ 10 वर्ष की सुमि उम्र के हिसाब से कुछ अधिक ही चंचल थी.

‘‘अब तू ऐसे नहीं मानेगी,’’ वे उठने लगीं तो सुमि ने खिलखिलाते हुए एक भारी सा लिफाफा बढ़ा दिया उन की ओर, ‘‘यह लीजिए, बूआजी. अमेरिका से आया है, जरूर विकी के फोटो होंगे.’’

उन्होंने लपक कर लिफाफा ले लिया, ‘‘बड़ी शरारती हो गई है तू. लगता है, अब तेरी मां से शिकायत करनी पड़ेगी.’’

‘‘मैं गुलाबजामुन ले लूं?’’

‘‘हांहां, तेरे लिए ही तो मंगवा कर रखे हैं,’’ उन्होंने जल्दीजल्दी लिफाफा खोलते हुए कहा.

उन के एकाकी जीवन में एक सुमि ही तो थी जो जबतब आ कर हंसी बिखेर जाती. मकान का निचला हिस्सा उन्होंने किराए पर उठा दिया था, अपने ही कालेज की एक लेक्चरर उमा को. सुमि उन्हीं की बेटी थी. दोनों पतिपत्नी उन का बहुत खयाल रखते थे. उमा के पति तो उन्हें अपनी बड़ी बहन की तरह मानते थे और ‘दीदी’ कहा करते थे. इसी नाते सुमि उन्हें बूआ कहा करती थी.

लिफाफे में विकी के ही फोटो थे. वह अब चलने लगा था. ट्राइसाइकिल पर बैठ कर हाथ हिला रहा था. पार्क में फूलों के बीच खड़ा विकी बहुत सुंदर लग रहा था. उस के जन्म के समय जब वे न्यूयार्क गई थीं, हर घड़ी उसे छाती से लगाए रहतीं. लिंडा अकसर शिकायत करती, ‘आप इस की आदतें बिगाड़ देंगी. यहां बच्चे को गोद में लेने को समय ही किस के पास है? हम काम करने वाले लोग…बच्चे को गोद में ले कर बैठें तो काम कैसे चलेगा भला?’

विक्रम का भी यही कहना था, ‘हां, मां, लिंडा ठीक कहती है. तुम उस की आदतें मत खराब करो. तुम तो कुछ दिनों बाद चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा इसे? झूले में डाल दो, पड़ा झूलता रहेगा.’ विक्रम खुद ही विकी को झूले में डाल कर चाबी भर देता, ‘अब झूलने दो इसे, ऐसे ही सो जाएगा.’

गोलमटोल विकी को देख कर उन का मन करता कि उसे हर घड़ी गोद में ले कर निहारती रहें, फिर जाने कब देखने को मिले. जन्म के दूसरे दिन जब नामकरण की समस्या उठी तो विक्रम ने कहा, ‘नाम तो अम्मा तुम ही रखो, कोई सुंदर सा.’

और तब खूब सोचसमझ कर उन्होंने नाम चुना था, ‘विवेक.’ ‘विवेक बन कर हमेशा तुम लोगों को राह दिखाता रहेगा.’

विक्रम हंसने लगा था, ‘खूब कहा मां, हमारे बीच विवेक की ही तो कमी है. जबतब बिना बात के ही ठन जाती है आपस में.’

‘और क्या, अब इस तरह लड़नाझगड़ना बंद करो. वरना बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा.’

पूरे 5 वर्ष हो गए थे विक्रम का विवाह हुए. इंजीनियरिंग की डिगरी लेने के बाद अमेरिका गया एमटेक करने तो वहीं रह गया.

पत्र में लिखा था, ‘यहां अच्छी नौकरी मिल गई है, मां. यहां रह कर मैं हर साल भारत आ सकता हूं, तुम से मिलने के लिए. वहां की कमाई में क्या रखा है. घुटघुट कर जीना, जरूरी चीजों के लिए भी तरसते रहना.’

उस का पत्र पढ़ कर जवाब में सुभद्रा देवी लिख नहीं सकीं कि हां बेटे, वहां हर बात का आराम तो है पर अपना देश अपना ही होता है.

उन्हें लगा कि आजकल सिद्धांत की बातें भला कौन सुनता है. इस भौतिकवादी युग में तो बस सब को सिर्फ पैसा चाहिए, आराम और सुख चाहिए. देश के लिए प्यार और कुरबानी तो गए जमाने की बातें हो गईं.

 

हीरोइन : महरी की चिंता उसे क्यों थी

पहले तो सरकारी मकान की दिक्कत और दूसरे, घर पर कामकाज करने वालों की किल्लत. घर के बाकी सब काम तो जैसेतैसे हो जाते थे किंतु बरतन साफ करना, झाड़ ूपोंछा करना ऐसे काम थे जिन्हें सुन कर ही पत्नी का तापमान सामान्य से ऊपर पहुंच जाता था. पूरे घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता था. दिन भर पत्नी मुझ पर, बच्चों पर और खुद पर भी झल्लाती रहती थी. बच्चों के दोचार थप्पड़ भी लग जाना स्वाभाविक ही था. इसलिए लगभग 5 वर्ष पूर्व जब मैं लखनऊ स्थानांतरित हो कर आया था तो इस आशंका से भयंकर रूप से त्रस्त था.

भागदौड़ कर के दारुलशफा (विधायक निवास) के चक्कर काट कर मुझे कालोनी में मकान मिल गया था. वह मेरे लिए कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था. किराए के मकानों की दशा से कौन परिचित नहीं है. खुशामद और सामर्थ्य से परे किराया और दिनप्रतिदिन की कहासुनी. तनाव का एक छोटा हिस्सा मकान मिलने से अवश्य कम हुआ था किंतु उस का अधिकांश भाग तब तक घर पर मंडराता रहा जब तक चौकाबासन करने वाली महरी की व्यवस्था नहीं हो गई.

वास्तव में पत्नी से अधिक महरी की चिंता मुझे थी. मैं ने लखनऊ आते ही पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी थी. आसपास के घरों में सुबहशाम आतीजाती महरीनुमा औरतों पर निगाह रखना शुरू कर दिया था. 1-2 महरियां दीख पड़ीं, लेकिन उन्होंने बात करते ही ‘खाली नहीं’ की तख्ती दिखा दी. एक सप्ताह बाद पत्नी का धैर्य तेज धूप में कच्ची दीवार सा चटखने लगा. 15 दिन बीततेबीतते उस के चेहरे पर तनाव भी परिलक्षित होना स्वाभाविक ही था.

इतनी बड़ी कालोनी में मेरे ही विभाग के अनेक अधिकारी निवास करते थे. धीरेधीरे मैं ने सभी के सामने महरी की समस्या रखी. अंतत: कमला के बारे में मुझे पता चला किंतु सहयोगी अरविंदजी ने मुझे उस की चर्चा के साथ ही सचेत करते हुए कह दिया था, ‘‘भाई, कालोनी की हीरोइन है कमला, एकदम आधुनिका. बड़ी नखरेबाज. उस की हर किसी के साथ निभ पाना संभव नहीं है.’’

मैं ने पत्नी को आ कर सब बता दिया था और कमला को बुलाने का आग्रह किया था.

कमला आई थी तो उसे देख कर मैं भी पहले दिन ही चकित रह गया था. वह देखने में 30 के आसपास थी. सांवला रंग किंतु तीखे नाकनक्श, सलीके से संवरी हुई आकृति और साफसुथरे कपड़े, अंगूठी से घिरी 2 उंगलियां, कलाई में घड़ी और साधारण एड़ी वाली चप्पलें. उसे देख कर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह स्त्री घरों में बरतन मांजने और झाड़ ूपोंछे का काम करती थी.

प्रारंभिक वार्त्ता के बाद कमला ने कार्य प्रारंभ कर दिया था. बाद में पता चला था कि वह इत्तफाक ही था कि एक अधिकारी के स्थानांतरण के फलस्वरूप कमला अभी हाल में ही खाली हुई थी. वरना उस का नियम था कि वह एक ही समय में 5 से अधिक घरों में काम नहीं करती थी.

कमला का काम जहां एक ओर अति स्वच्छ व व्यवस्थित था वहीं दूसरी ओर उस में स्वयं एक सौम्यता व गंभीरता दीख पड़ती थी. घड़ी की सूइयों के साथ वह प्रात: सवा 8 बजे आती थी और 45 मिनट में सारे कार्यों से निवृत्त हो कर चली जाती थी. सायं ठीक सवा 5 बजे कमला घर में घुसती थी और पौने 6 बजे तक घर से निकल जाती थी. न तो वह अधिक बोलती थी और न ही उसे सुनने की कोई आदत थी.

जैसेजैसे समय बीतता गया, हम कमला के बारे में और अधिक जानते गए. उस का पति बीमा कार्यालय में चपरासी था. 3 बच्चे थे उन के. बड़ा लड़का और 2 लड़कियां. कमला को देख कर हम तो यही सोचते थे कि अभी बच्चे छोटे ही होंगे. किंतु मुझे उस दिन घोर आश्चर्य हुआ जब एक 16-17 वर्षीय लड़के ने घर आ कर पूछा था, ‘‘मां आई थीं?’’

‘‘किस की मां?’’ पत्नी ने सकपका कर पूछा था.

‘‘मेरी मां, कमलाजी.’’

‘‘कमला,’’ पत्नी हतप्रभ सी धीरे से मुसकरा दी. फिर सहजता धारण कर के बोली, ‘‘हमारे यहां तो सवा 5 बजे आती है. अभी तो देर है.’’

वह लड़का अभिवादन कर के लौट गया.

पता नहीं क्यों पत्नी के हृदय में एक कुलबुलाहट सी हुई. उस दिन कमला के आने पर पत्नी ने उस के लड़के के आने के बारे में बताते हुए बातों का सिलसिला शुरू कर दिया.

‘‘जी, बीबीजी,’’ कमला ने बताया, ‘‘घर पर अचानक कुछ मेहमान आ गए थे. जल्दी में थे. इसलिए लड़का ढूंढ़ रहा था.’’

‘‘मगर तुम्हारा लड़का और इतना बड़ा?’’ पत्नी रोक न सकी अपनी जिज्ञासा को.

कमला ने शरम से मुंह नीचे कर लिया. पहली बार उस के चेहरे पर स्मित की लहरें उभर आईं.

‘‘तुम देखने में तो इतनी बड़ी उम्र की नहीं लगती हो?’’ पत्नी ने धीरे से बात बनाई थी.

कमला हंसने लगी. फिर दबे स्वर में बोली, ‘‘बीबीजी, कुछ तो शादी ही जल्दी हो गई थी. वैसे अब 33 की तो हो ही रही हूं.’’

कमला ने आगे बताया था कि उस के पिता बरेली में एक स्कूल में अध्यापक थे. घर में पढ़नेलिखने का वातावरण भी था. कमला की 2 बहनों ने इंटर पास किया था. उन की शादी हो गई थी. छोटा भाई बी.ए. कर के कचहरी में बाबू हो गया था.

कमला जब केवल 15 वर्ष की ही थी तो पड़ोस में रह रहे नवयुवक के प्रेमजाल में फंस कर वह उस के साथ लखनऊ चली आई थी. उस समय वह 9वीं की परीक्षा दे चुकी थी. नवयुवक यानी उस के पति के मामा ने उन्हें शरण दी थी तथा कचहरी में विवाह कराया था. उस का पति हाईस्कूल पास था. मामा ने ही सिफारिश कर के उस की बीमा दफ्तर में नौकरी लगवा दी थी.

कमला के पिता और घर के अन्य सदस्य उस घटना के बाद इतने अपमानित व क्षुब्ध थे कि उन्होंने कमला से सदा के लिए अपने संबंध विच्छेद कर लिए थे. उधर पति के घर वाले भी उतने ही नाराज थे किंतु धीरेधीरे उन से संबंध सुधर गए थे.

लगभग 1 वर्ष बाद पुत्र का जन्म हुआ था और बाद में 2 लड़कियों का. अब उन में से एक 15 साल की थी और दूसरी 9 साल की.

हमें लखनऊ में आए लगभग 3 साल बीत चुके थे. अब सब व्यवस्थित हो चला था. कमला से कभीकभार खुल कर बातें भी होने लगी थीं किंतु न तो उस के नित्यक्रम में कोई अंतर आया था और न ही उस में.

कमला की कुछ और भी विशिष्टताएं थीं. वह कभी हमारे घर पर कुछ खातीपीती नहीं थी. और तो और वह कभी चाय भी नहीं लेती थी. घर से खाने का कोई सामान स्वीकार न करना और न ही तीजत्योहार पर किसी अतिरिक्त पैसे, कपड़े या वस्तु की मांग करना. प्रारंभ में हमें लगा कि संभवत: महानगर की ऐसी ही प्रथा हो, किंतु बाद में यह भ्रांति भी दूर हो गई.

उस दिन के बाद कमला का लड़का भी कभी हमारे घर नहीं आया था. पता चला था कि वह हाईस्कूल की परीक्षा में 2 बार फेल हो चुका था. अब तीसरी बार परीक्षा दी थी.

कमला की लड़कियों का हमारे घर पर आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.

एक दिन जब पत्नी ने कमला से उस की 2 दिन की अनुपस्थिति में किसी लड़की को काम पर भेजने को कहा था तो पहली बार कमला रोष व खीज भरे स्वर में बोली थी, ‘‘नहीं, बीबीजी, मैं अपनी लड़की को नहीं भेज सकती. जो काम मैं उन बच्चों के लिए करती हूं वह उन को करते नहीं देख सकती हूं.’’

उस वर्ष जब हाईस्कूल बोर्ड का परीक्षाफल आया और कमला का लड़का तीसरी बार अनुत्तीर्ण हुआ तो कमला क्षोभ व यंत्रणा से टूटी सी लगती थी. पत्नी के पूछने पर उस के नेत्र छलछला उठे. फिर सिसकियां ले कर रोने लगी. साथ ही भरभराए स्वर में कहने लगी, ‘‘बीबीजी, सिर्फ इन बच्चों के लिए यह काम करना शुरू किया था, जिस से वे अच्छी तरह रह सकें, अच्छा पहनेंखाएं और पढ़लिख कर लायक बन जाएं.’’

कुछ पल शांत रही कमला. फिर बताने लगी, ‘‘बाबूजी, हमारे पूरे खानदान में यह काम किसी ने नहीं किया था, लेकिन मैं ने सिर्फ बच्चों की खातिर यह धंधा अपनाया था.’’

साड़ी का पल्लू निकाल कर कमला ने आंसू पोंछे. फिर आगे बोली, ‘‘मेरा आदमी मुझ से इस धंधे के पीछे बड़ा नाराज हुआ. दुखी भी हुआ. घर के गुजारे लायक उस को पैसा मिलता था. उस के साथ के चपरासी ऐसे ही रह रहे हैं, लेकिन मैं ने जिद कर के यह काम किया. जानती थी कि उस की आमदनी में काम तो चल जाएगा. लेकिन मैं बच्चों को पढ़ालिखा नहीं सकूंगी. उन्हें ठीक तरह नहीं रख पाऊंगी.

‘‘मैं ने मुन्ना को बड़े चाव से पढ़ाना चाहा था, लेकिन वह पढ़ता ही नहीं है. उस के पापा तो पिछले साल ही पढ़ाई बंद करा रहे थे. उसे कपड़े की दुकान पर लगवा भी दिया था, लेकिन मैं ने जिद कर के वह काम छुड़वाया और पढ़ने भेजा.

‘‘आज सुबह जब नतीजा आया तो मुन्ना को तो डांटाडपटा ही मेरे आदमी ने, मुझे भी बुराभला कहा. फिर आज ही मुन्ना काम पर चला गया उस दुकान पर.’’

कहतेकहते कमला का स्वर बोझिल हो कर टूट सा गया.

‘‘कैसी दुकान है?’’ कुछ देर शांत रह कर कुछ न सूझते हुए पत्नी ने पूछ लिया.

‘‘कपड़े की, जनपथ में है.’’

‘‘कितना देंगे?’’

‘‘यही करीब 300-350 रुपए. मगर बीबीजी, मुझे पैसे का क्या करना है. मुन्ना पढ़ लेता तो जीवन की आस पूरी हो जाती. मेरा यों दरदर ठोकरें खाना सफल हो जाता,’’ कहते हुए कमला की आंखों में एक गीली परत सी जम गई.

कमला की व्यथा सुन कर मैं भी दुखित हो चला था. सचमुच एक विडंबना ही तो थी यह उस की.

उस घटना के बाद कमला दुखी व परेशान सी रहने लगी थी. ऐसा लगता था जैसे कोई दुख उस के हृदय को लगातार बरमे की तरह सालता था. मानो काले बादलों का साया उस के अंतरंग में घुटन सी पैदा कर रहा था. सब काम नियमित रूप से करते हुए भी कमला स्फूर्तिहीन व निस्पंद सी दीख पड़ती थी. कभीकभी यह आशंका होती थी कि कहीं वह काम करना ही न छोड़ दे. किंतु जब 6 माह बीत गए तो पत्नी आश्वस्त हो गई. कमला भी धीरेधीरे सामान्य हो चली थी.

एक दिन कमला ने एक सप्ताह के अवकाश के संबंध में पत्नी से कहा तो उस का आशंकित हो उठना स्वाभाविक था, ‘‘क्या कामवाम छोड़ने का विचार है?’’ अपने संदेह व आशंका को एक धीमी मुसकान से ढांपते हुए पत्नी ने पूछा था.

‘‘नहीं, बीबीजी, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ कमला ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘मेरी लड़की की शादी है.’’

‘‘सचमुच?’’ पत्नी ने अचंभे से कमला को देखा.

‘‘हां, बीबीजी. 17 पूरे कर चली है. लड़का मिल गया है सो शादी पक्की कर डाली है.’’

‘‘ठीक ही तो किया तुम ने.’’

‘‘और करती भी क्या. उस को भी पढ़ाने की लाख कोशिश की, लेकिन 9वीं से आगे नहीं पढ़ सकी. मेरी ही तरह रही,’’ कह कर हंस दी वह, ‘‘मैं ने सोचा कि कुछ और न हो इस से पहले ही उस के हाथ पीले कर दूं और छुट्टी पा लूं.’’

कमला के आग्रह पर हम दोनों विवाह में सम्मिलित हुए थे. पत्नी एक बार पहले भी उस के घर जा चुकी थी. उस ने मुझे कमला के घर के रखरखाव के बारे में बताया था. टीवी, सोफा, खाने की मेजकुरसियां, ड्रेसिंग टेबल, सबकुछ उस के घर में था.

आज उस का घर देख कर मैं भी चकित रह गया था. शादी का स्तर भी मध्यवर्गीय परिवार जैसा ही था. कहीं कोई कमी नहीं दीख पड़ी. वह सब देख कर जाने क्यों मेरे हृदय में कहीं अंदर अतीव सुख व संतोष की भावना प्रवाहित हो गई थी.

लड़की के विवाह के बाद एक बार फिर हमें ऐसा लगा कि अब कमला अवश्य काम छोड़ देगी, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ.

एक दिन पत्नी ने मुझे बताया कि कमला मुझ से कोई बात करना चाहती थी. सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ. अगले दिन मैं ने स्वयं कमला से पूछा था, ‘‘कमला, तुम्हें कुछ बात करनी थी?’’

‘‘जी, बाबूजी,’’ हाथ धो कर वह मेरे पास आ कर नीचे जमीन पर बैठ गई, ‘‘कुछ काम था.’’

‘‘बोलो?’’ आत्मीयता भरे स्वर में मैं ने इजाजत दी थी.

‘‘छोटी मुन्नी का किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करा दीजिए.’’

‘‘किस क्लास में?’’

‘‘जी, उस ने कानवेंट से 5वीं पास की है. क्लास में दूसरे नंबर पर आई है. अब छठी में जाएगी. उस की अध्यापिका उस की बड़ी तारीफ कर रही थीं. कह रही थीं कि मैं उसे खूब पढ़ाऊं. मैं उसे किसी अच्छे अंगरेजी स्कूल या सेंट्रल स्कूल में डालना चाहती हूं. मेरी हिम्मत नहीं पड़ती थी. इसलिए आप से ही विनती करने आई हूं.’’

मैं स्तंभित सा सुनता रहा.

‘‘क्यों नहीं. आज ही ले आओ उसे. मैं ले कर चला जाऊंगा. दाखिला भी करवा दूंगा,’’ मैं ने कमला को आश्वासन दिया.

कमला मेरे पैरों को छूने लगी, ‘‘मुझ पर बड़ा एहसान होगा आप का. यह लड़की पढ़ लेगी तो जीवनभर आप को याद करूंगी.’’

‘‘लेकिन तुम ने कभी बताया ही नहीं कि तुम्हारी लड़की कानवेंट में है और पढ़ने में इतनी अच्छी है.’’

‘‘बाबूजी, क्या बताती, मेरी तो आखिरी आशा है वह. कभी लगता है उस को दूसरों से ज्यादा मेरी ही नजर न लग जाए.’’

मैं सुन कर हंसने लगा. वातावरण की गंभीरता टूट चुकी थी. इसलिए मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘मगर तुम ने उसे दोनों बच्चों के बीच कैसे पाला?’’

‘‘बस, बाबूजी, शुरू से छोटी मुन्नी को एकदम अलग ही रखा दोनों बच्चों से. उस के लिए अध्यापक लगाए, पढ़ाने से ज्यादा उस को अलग रखने के लिए. वह जो मांगती है, उसे देती हूं,’’ कुछ क्षण रुक कर फिर धीमे से कहने लगी कमला, ‘‘उसे आज तक यह नहीं मालूम कि मैं क्या काम करती हूं. बाबूजी, हो सकता है कि वह जान कर अच्छे बच्चों में खुल कर घुलमिल न पाए.’’

कमला की आंखें डबडबा उठी थीं. मेरे दिल के तार भी जैसे झंकृत हो उठे थे.

कमला उठ कर अपने काम में लग गई.

तब से मैं भी यह मानता हूं कि कमला वास्तव में हीरोइन है. उस रूप में नहीं जिस में लोग उसे कहतेसमझते हैं बल्कि एक नए अर्थ में, एक नए संदर्भ में. द्य

हम शर्मिंदा हैं उजरिया -भाग 2

तो अभय सिंह का मन थोड़ा खिन्न हो गया. उस ने ध्यान हटाया और तेज आवाज में बोला, ‘‘खाना तो अच्छा बनाती हो. किस महल्ले में रहती हो?’’ ‘‘जी, गोमती पुल के नीचे वाली बस्ती में,’’ उजरिया धीरे से बोली. ‘‘गोमती पुल के नीचे वाली बस्ती में… पर वहां तो सब मलिन लोग रहते हैं,’’ अभय सिंह ने जल्दीजल्दी खाना खाते हुए कहा. उजरिया उस की बात सुन कर चुप रही और नीचे देखने लगी. ‘‘ठीक है… कोई बात नहीं… जहां भी रहती हो, पर कल से थोड़ा नहाधो कर और चंदन का टीका लगा कर आना… ठाकुरब्राह्मण हो तो दिखना भी तो चाहिए न… लो, हम तो बातोंबातों में तुम्हारी जाति पूछना तो भूल ही गए. ठाकुर हो कि ब्राह्मण?’’ अभय सिंह ने सवाल किया, पर उस का जवाब देने के बजाय उजरिया चुप रही. ‘‘अरे, कौन जात हो… बताओ तो सही?’’ अभय सिंह तेज आवाज में बोला. ‘‘जी, हम जात से खटीक हैं. खाना बनाना सीख लिए हैं,’’ उजरिया के गले से बड़ी मुश्किल से इतनी बात निकली. यह सुनते ही जैसे अभय सिंह को करंट लग गया, ‘‘आक… थू…’

’ अभय सिंह ने मुंह में भरा हुआ सारा दालचावल बाहर की ओर थूक दिया. उस के चेहरे पर नफरत झलक रही थी और उस की आंखों से गुस्से की चिनगारियां निकल रही थीं. उस ने चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘नीच जात हो कर हमें अपने हाथ का खाना बना कर खिलाती है… हमारा धर्म खराब करना चाहती है…’’ और खाने की थाली उजरिया की तरफ फेंक दी. पलभर में सभी लड़कों ने खाने की थाली नीचे फेंक दीं. ‘‘क्या रे वार्डन, तू भी इस औरत के साथ मिला है. हम को नीच जात के हाथ का खाना खिलाना चाह रहा था तू…’’ अभय सिंह ने लपक कर वार्डन का गरीबान पकड़ लिया. वार्डन ने अभय सिंह से झूठ बोल दिया कि उसे उजरिया ने अपनी जात सवर्ण ही बताई थी. अभय सिंह ने वार्डन का गरीबान छोड़ दिया और गुजरिया की ओर लपका. पंकज तिवारी भी अपनी थाली फेंक कर उजरिया की तरफ बढ़ चला था. दोनों दोस्तों की आंखें एकदूसरे से मिलीं और पंकज तिवारी ने अभय सिंह से कहा, ‘‘इस ने हम से झूठ बोल कर हमारा धर्म खराब किया है… इसे सजा तो देनी ही पड़ेगी… वही सजा, जो हमारे पिताजी गांव की औरतों को दिया करते हैं…’’

इतना कह कर पंकज तिवारी ने आगे बढ़ कर उजरिया की साड़ी का एक कोना पकड़ा और उसे उजरिया के तन से अलग करने लगा. उजरिया ने इस का विरोध किया. वह रोनेगिड़गिड़ाने लगी, पर पंकज पर उस के रोने का कोई असर नहीं हुआ. अभय सिंह और उस के सभी दोस्त एक दलित औरत के हाथ का बना खाना खा कर अपनेआप को दूषित महसूस कर रहे थे और मैस में दूसरे छात्रों के सामने अपनी बेइज्जती का बदला उजरिया से लेने के लिए उसे नंगा कर के बाहर सब के सामने घुमाना चाहते थे, जिस से बाकी छात्रों के सामने उन की धर्मांधता और कट्टरता साबित हो जाती और सवर्ण छात्रों के बीच अभय सिंह का दबदबा और भी बढ़ जाता. अभय सिंह मंडली की इस हरकत को वहां पर बैठे हुए डिमैलो ग्रुप के कुछ समर्थक छात्र भी देख रहे थे. उन लोगों की कुछ इनसानियत जागी, तो उन में से एक ने उजरिया को अभय के चंगुल से बचाते हुए अलग किया और जमीन पर पड़ी हुई उस की साड़ी पहनने को दी, जिसे उजरिया ने तुरंत ही अपने तन से लपेटना शुरू कर दिया.

‘‘तुम लोग बीच में मत आओ. हम ऊंची जाति वाले हैं, किसी नीच के हाथ का बना खाना नहीं खाते,’’ अभय सिंह नफरत भरे अंदाज में बोल रहा था. ‘‘नीच के हाथ का खाना खा नहीं सकते, पर नीच औरत को चाटने में तो तुम लोगों को बहुत मजा आता है न…’’ उजरिया का सब्र जवाब दे चुका था और विद्रोह की चिनगारी उस की आंखों में साफ नजर आ रही थी. उजरिया को इस तरह विद्रोह करता देख कर डिमैलो ग्रुप के लोगों ने उजरिया को और उकसाना शुरू कर दिया. एक लड़के ने पूछा, ‘‘तुम्हारे कहने का क्या मतलब है? खुल कर कहो… हमारे होते हुए तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.’’ उन लड़कों की शह पा कर उजरिया ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘ये लोग जो बड़े ऊंची जाति के बनते हैं और हमारे हाथ का बना खाना खाने से इनकार करते हैं, ये सिर्फ बहुरुपिए हैं, जो शराफत का चोला ओढ़ कर रात के अंधेरे में दलित लड़कियों के साथ मुंह काला करते हैं, तब इन का जाति का बड़ापन कहां चला जाता है…’’ कहे जा रही थी उजरिया. ‘‘ऐ…

क्या बके जा रही है…’’ हरीश सिंह हुनक कर बोला, तो उसे डिमैलो ग्रुप के एक तेजतर्रार लड़के ने चुप करा दिया और उजरिया को अपनी बात जारी रखने के लिए कहा. उजरिया ने अपनी बात आगे कहते हुए बताया, ‘‘गोमती नदी के पुल के नीचे जो मलिन लोगों की बस्ती है, वहां पर सभी लोग बेहद गरीब हैं और अपनी रोजीरोटी के लिए मेहनतमजदूरी करते हैं. वहां रहने वाली अनेक लड़कियां, जो अच्छी पढ़ाईलिखाई की कमी में कुछ नहीं कर पाती हैं, वे अपना जिस्म बेचने के लिए मजबूर हैं. ‘‘बस्ती में बहते हुए नाले को पार करने के बाद एक छोटा सा होटल है, जिस के पीछे के कमरे में सैक्स का धंधा होता है, जिस में काम करने वाली लड़कियां इसी मलिन बस्ती की हैं, जबकि वहां पर आने वाले कस्टमर ज्यादातर ऊंची जाति वाले लोग होते हैं. ‘‘अभी परसों ही ये तीनों भी उसी होटल के कमरे में थे और इन लोगों ने पहले तो एक दलित लड़की के साथ बारीबारी से मुंह काला किया और उस के बाद भी उन का मन नहीं भरा, तो इन तीनों ने उस बेचारी के साथ एकसाथ बहुत बुरा काम किया. ‘‘ये उस लड़की के जिस्म के हर हिस्से को अपनी जीभ से चाट रहे थे और चूम रहे थे,

बगैर इस बात की परवाह किए कि वह किस जाति या किस धर्म की है. ‘‘खाना खाते समय इन लोगों का यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि उसे पकाने वाली औरत किस जाति की है, पर यह बात किसी के साथ रंगरलियां मनाने से पहले क्यों नहीं सोचते? दलित औरत के हाथ का भोजन नहीं खा सकते, पर दलित औरत के जिस्म को भोगते समय इन का ऊंचापन कहां चला जाता है?’’ उजरिया की ये बातें सुन कर अभय सिंह मंडली के होश उड़ने लगे, तो उन्होंने उसे डांट कर चुप कराना चाहा, पर डिमैलो ग्रुप के लड़कों को बहुत मजा आ रहा था. उन्होंने उजरिया को अपनी बात जारी रखने के लिए कहा. उजरिया काफी गुस्से में लग रही थी. उस ने अभय सिंह की तरफ इशारा करते हुए आगे कहना शुरू किया, ‘‘आज ये वाले साहब… जो ऊंची जाति वाले बनने का ढिंढोरा पीट रहे हैं, उस दिन उस होटल के कमरे में लड़की के पैरों को अपनी जीभ से चाट रहे थे और बीचबीच में उस के मुंह के अंदर अपनी जबान डालने से भी बाज नहीं आ रहे थे…’’ उजरिया ने पंकज की तरफ उंगली दिखाते हुए कहा, ‘‘ये जो दूसरे वाले हैं, ये शायद शराब के बहुत शौकीन हैं, तभी तो उस दलित लड़की के नंगे जिस्म और सीने पर बारबार शराब फेंकते और जब वह शराब फिसल कर उस लड़की के जिस्म के निचले हिस्से में आती, तो ये अपने मुंह से उस शराब को चाटते और फिर मस्त हो जाते…’’

अभय सिंह, पंकज तिवारी और हरीश सिंह को बहुत गुस्सा आ रहा था और शर्म भी… भला इस उजरिया को उन सब की करतूतों के बारे में कैसे पता चल गया और वह भी सबकुछ ऐसे बयान कर रही है, जैसे इस ने अपनी आंखों से देखा हो. ‘‘आगे के कुछ और सीन तो बताओ न…’’ डिमैलो ग्रुप में से एक शोहदा सिसकी भरते हुए बोला. उजरिया ने आगे कहा, ‘‘फिर क्या था, ये तीनों उस अकेली लड़की के हर हिस्से को चूमतेचाटते रहे और उस के जिस्म को तब तक भोगते रहे, जब तक इन के शरीर ने इन का साथ देना नहीं छोड़ दिया.’’ अभय सिंह का गुस्सा उजरिया की बातें सुन कर रफूचक्कर हो चुका था और अब उस की जगह बेशर्मी ने ले ली थी. उस ने दावा किया कि अगर वह कोठे पर जाता है या किसी होटल में किसी लड़की के साथ रंगरलियां मनाता है, तो इस में बुरा ही क्या है? आखिर वह उन लड़कियों को उन के जिस्म की कीमत देता है और फिर वह उन लड़कियों को जबरदस्ती तो वहां नहीं लाता, वे सब तो अपनी मरजी से ही वहां आती हैं. ‘‘मरजी नहीं, वे अपनी मजबूरी से वहां आती हैं और अपना जिस्म बेचती हैं,’’ उजरिया ने हताश भाव से कहा. ‘‘पर, यह सब तुम्हें कैसे पता? और तुम्हारे बताने के ढंग से ऐसा लग रहा है कि जैसे तुम खुद एक धंधे वाली हो और उस होटल के कमरे में जाती रही हो?’’ पंकज तिवारी ने बड़ी मुश्किल से अपना सवाल किया,

 

साथ साथ: कौन-सी अनहोनी हुई थी रुखसाना और रज्जाक के साथ

धुंधली तस्वीरें – भाग 2 : क्या बेटे की खुशहाल जिंदगी देखने की उन की लालसा पूरी हुई

उन्होंने लिख दिया, ‘बेटे, तुम खुद समझदार हो. मुझे पूरा विश्वास है, जो भी करोगे, खूब सोचसमझ कर करोगे. अगर वहां रहने में ही तुम्हारी भलाई है तो वहीं रहो. लेकिन शादीब्याह कर अपनी गृहस्थी बसा लो. लड़की वाले हमेशा चक्कर लगाया करते हैं. तुम लिखो तो दोचार तसवीरें भेजूं. तुम्हें जो पसंद आए, अपनी राय दो तो बात पक्की कर दूं. आ कर शादी कर लो. मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगी.’

बहुत दिनों तक विक्रम ब्याह की बात टालता रहा. आखिर जब सुभद्रा देवी ने बहुत दबाव डाला तो लिखा उस ने, ‘मैं ने यहीं एक लड़की देख ली है, मां. यहीं शादी करना चाहता हूं. लड़की अच्छे परिवार की है, उस के पिता यहां एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं. अगर तुम्हें एतराज न हो तो…बात कुछ ऐसी है न मां, जब यहां रहना है तो भारतीय लड़की के साथ निभाने में कठिनाई हो सकती है. यहां की संस्कृति बिलकुल भिन्न है. लिंडा एक अच्छी लड़की है. तुम किसी बात की चिंता मत करना.’

पत्र पढ़ कर वे सहसा समझ नहीं पाईं कि खुश हों या रोएं. नहीं, रोएं भी क्यों भला? उन्होंने तुरंत अपने को संयत कर लिया, विक्रम शादी कर रहा है. यह तो खुशी की बात है. हर मां यही तो चाहती है कि संतान खुश रहे.

बेटे की खुशी के सिवा और उन्हें चाहिए भी क्या? जब त्रिपुरारि बाबू का निधन हुआ तब विक्रम हाई स्कूल में था. नीमा भी अविवाहित थी, तब कालेज में लेक्चरर थी, अब तो रीडर हो गई है. बच्चों पर कभी बोझ नहीं बनीं, बल्कि उन्हें ही देती रहीं. अब इस मौके पर भी विक्रम को खुशी देने में वे कृपण क्यों हों भला.

खुले दिल से लिख दिया, बिना किसी शिकवाशिकायत के, ‘बेटे, जिस में तुम्हें खुशी मिले, वही करो. मुझे कोई एतराज नहीं बल्कि मैं तो कहूंगी कि यहीं आ कर शादी करो, मुझे अधिक खुशी होगी. परिवार के सब लोग शामिल होंगे.’

पर लिंडा इस के लिए राजी नहीं हुई. वह तो भारत आना भी नहीं चाहती थी. विक्रम के बारबार आग्रह करने पर कहीं जा कर तैयार हुई.

कुल 15 दिनों के लिए आए थे वे लोग. सुभद्रा देवी की खुशी की कोई सीमा नहीं थी, सिरआंखों पर रखा उन्हें. पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था इस खुशी के अवसर पर. सब ने लिंडा को उपहार दिए.

कैसे हंसीखुशी में 10 दिन बीत गए, किसी को पता ही नहीं चला. घर में हर घड़ी गहमागहमी छाई रहती. लेकिन इस दौरान लिंडा उदास ही रही. उसे यह सब बिलकुल पसंद नहीं था.

उस ने विक्रम से कहा भी, ‘न हो तो किसी होटल में चले चलो, यहां तो दिनभर लोगों का आनाजाना लगा रहता है. वहां कम से कम अपने समय पर अपना तो अधिकार होगा.’

आखिर भारत दर्शन के बहाने विक्रम किसी तरह निकल सका घर से. 4-5 दिन दिल्ली, आगरा, लखनऊ घूमने के बाद वे लोग लौट आए थे.

एक दिन लिंडा ने हंसते हुए कहा, ‘सुना था तुम्हारा देश सिर्फ साधुओं और सांपों का देश है. ऐसा ही पढ़ा था कहीं. पर साधु तो दिखे दोएक, लेकिन सांप एक भी नहीं दिखा. वैसे भी अब सांप रहे भी तो कहां, तुम्हारे देश में तो सिर्फ आदमी ही आदमी हैं. जिधर देखो, उधर नरमुंड. वाकई काबिलेतारीफ है तुम्हारा देश भी, जिस के पास इतनी बड़ी जनशक्ति है वह तरक्की में इतना पीछे क्यों है भला?’

विक्रम कट कर रह गया. कोई जवाब नहीं सूझा उसे. लिंडा ने कुछ गलत तो कहा नहीं था.

‘मैं तो भई, इस तरह जनसंख्या बढ़ाने में विश्वास नहीं रखती,’ एक दिन लिंडा ने यह कहा तो विक्रम चौंक पड़ा, ‘क्या मतलब?’

‘मतलब कुछ खास नहीं. अभी कुछ दिन मौजमस्ती में गुजार लें. दुनिया की सैर कर लें, फिर परिवार बढ़ाने की बात भी सोच लेंगे.’

विक्रम मुसकराया, ‘आखिर परिवार की बात तुम्हारे दिमाग में आई तो. कुछ दिनों बाद तुम खुद महसूस करोगी, हमारे बीच एक तीसरा तो होना ही चाहिए.’

ब्याह के पूरे 4 वर्ष बाद वह स्थिति आई. विक्रम के उत्साह का ठिकाना नहीं था. मां को पहले ही लिख दिया, ‘तुम कालेज से छुट्टियां ले लेना, मां. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा. ऐसे समय तुम्हारा यहां रहना बहुत जरूरी है, मैं टिकट भेज दूंगा. आने की तैयारी अभी से करो.’

इस के पहले भी कई बार बुलाया था विक्रम ने, पर वे हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर टालती रही थीं. इस बार तो वे खुद जाने को उत्सुक थीं, ‘भला अकेली बहू बेचारी क्याक्या करेगी. घर में कोई तो होना चाहिए उस की मदद के लिए, बच्चे की सारसंभाल के लिए,’ सब से कहती फिरतीं.

अमेरिका चली तो गईं पर वहां पहुंच कर उन्हें ऐसा लगा कि लिंडा को उन की बिलकुल जरूरत नहीं. मां बनने की सारी तैयारी उस ने खुद ही कर ली थी. उन से किसी बात में राय भी नहीं ली. विक्रम ने बताया, ‘यहां मां बनने वाली महिलाओं के लिए कक्षाएं होती हैं, मां. बच्चा पालने के सारे तरीके सिखाए जाते हैं. लिंडा भी कक्षाओं में जाती रही है.’

लिंडा पूरे 6 दिन अस्पताल में रही. पोता होने की खुशी से सराबोर सुभद्रा देवी के अचरज का तब ठिकाना न रहा जब विक्रम ने बताया, ‘यहां पति के सिवा और किसी को अस्पताल में जाने की इजाजत नहीं, मां. मुलाकात के समय चल कर तुम बच्चे को देख लेना.’

बड़ी मुश्किल से तीसरे दिन दादीमां होने के नाते उन्हें दिन में अस्पताल में रहने की इजाजत मिली. लेकिन वे एक दिन में ही ऊब गईं वहां से. लिंडा को उन की कोई जरूरत नहीं थी और बच्चा तो दूसरे कमरे में था नर्सों की देखभाल में.

लिंडा घर आई तो उन्होंने भरसक उस की सेवा की थी. सुबहसुबह अपने हाथों से कौफी बना कर देतीं. बचपन से मांसमछली कभी छुआ नहीं था, खाना तो दूर की बात थी, पर वहां लिंडा के लिए रोज ही कभी आमलेट बनातीं तो कभी चिकन बर्गर.

काम से फुरसत मिलते ही वे विकी को गोद में उठा लेतीं और मन ही मन गुनगुनाते हुए उस की बलैया लिया करतीं.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें