मौत के बाद, सबसे बड़ा अंधविश्वास!

आज भी “मौत” के बाद अंधविश्वास से घिरे लोग चाहते हैं कि हमारे परिजन पुन: जिंदा हो जाएं. इसके लिए अनेक तरह का अंधा प्रयास किया जाता हैं. जोकि सीधे-सीधे अंधश्रद्धा में तब्दील हो जाता है.

इससे आज की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था, जागरूकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है. छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर के निकट ऐसी ही घटना घटी. जिसमें एक युवक की मौत के बाद घंटों उसके जीवित होने का अंधा प्रयास किया गया और निरंतर प्रार्थना चलती रही लोगों की समझाइश भी काम नहीं आई और यह प्रयास का ढोंग दूर-दूर तक चर्चा का सबब बन गया.

और एक दफा पुनः साबित हो गया कि अंधविश्वास और ढोंग में, हमारा समाज किस तरह अभी भी पूरी तरह शिकंजे में है.

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अंधविश्वास के साये में..

ऐसी ही कुछ घटनाएं हाल ही में छत्तीसगढ़ में घटित हुई हैं. जो चर्चा का मुद्दा बनी हुई है.

दरअसल, ऐसी घटनाएं कभी-कभी हमारे आसपास घटित होती हैं और लोगों का अंधविश्वास सर चढ़कर बोलने लगता है. मगर देखते ही देखते सच्चाई जब सामने आती है तो “सच “स्वीकार करना ही पड़ता है.

छत्तीसगढ़ की न्यायधानी कहे जाने वाले बिलासपुर से 30 किलोमीटर दूर स्थित तखतपुर शहर में मनियारी नदी में डूब एक युवक की मौत हो गई. उसके शव को पोस्टमार्टम के लिए स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाया गया वहां परिजन पहुंच गए और घंटो ” प्रार्थना” और दूसरे तरीके से युवक को फिर जीवित करने की कोशिश की जाने लगी.चिकित्सक और स्टाफ उन्हें समझाता रहा कि युवक की मौत हो चुकी है.

मगर परिजन उसे मानने को तैयार नहीं थे और लगातार कर्मकांड आदि करते रहे. बहुत समय बाद परिवार यह मानने को तैयार हुआ कि युवक की मौत हो चुकी है. प्रशासन के अधिकारियों को इसके लिए आकर कड़े शब्दों में समझाइश देनी पड़ी.

स्थानीय एक पुलिस अधिकारी ने हमारे संवाददाता को बताया कि दरअसल जैकब हंस अपने दो दोस्तों के साथ पंजाब राज्य के जालंधर से अपने श्वसुर की अंत्येष्टि में शामिल होने तखतपुर आया था. घटना दिनांक को दोपहर वह अपने रिश्तेदारों के साथ नहाने के लिए मनियारी नदी के एनीकट में गया. यहां तैरना आता है कहकर गहरे पानी में चला लगा. उसे समझाया गया, मना किया गया, लेकिन जैकब नदी में आगे निकलता चला गया.

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आगे पानी के भंवर में उसकी सांस फूल गई और वह डूबने लगा. उसके फेफड़ों में पानी प्रवेश कर गया . किनारे पहुचाते उसकी मौत हो गई. पुलिस को सूचना दी गई और शव को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया.वहां डाक्टरों ने जैकब हंस को मृत घोषित कर दिया. इसके बाद शुरू हुआ परिचितों द्वारा उसे जिंदा करने का अभियान जो पूरी तरह से ढोंग सिद्ध हुआ.

युवक की मृत्यु की खबर सुनकर परिजन अस्पताल पहुंचते रहे और सभी ने जैकब को मृत मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद परिजन, उसके कुछ दोस्त विभिन्न प्रकार के प्रयास और प्रयोग करते रहे. शव के सीने को दबाकर उसके जीवित होने की बात कहते रहे . इस दौरान कई बार डाक्टरों और पुलिस ने परिजनों को समझाया, लेकिन वह मानने के लिए तैयार नहीं हुए. बाद में प्रशासनिक कड़ाई बरतने के पश्चात परिजनों को सद्बुद्धि आई और उन्होंने माना कि अब कुछ नहीं हो सकता.

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छत्तीसगढ़ः नक्सलियों का क्रूर चेहरा

छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद एक नासूर बन चुका है. लगभग 50 वर्षों से नक्सलवाद की घटनाएं कुछ इस तरह घट रही हैं, नक्सलवादी कुछ इस तरह पैदा हो रहे हैं मानो छत्तीसगढ़ में कानून और शासन नाम की चीज ही नहीं है. अगर कानून और सरकार अपना काम ईमानदारी से कर रहे होते तो क्या नक्सलवाद सर उठा कर छत्तीसगढ़ में अपने क्रूर तेवर दिखा पाता? शायद कभी नहीं.

यही कारण है कि अविभाजित मध्यप्रदेश हो अथवा सन 2000 में बना छत्तीसगढ़. यहां नक्सलवाद अपने उफान पर रहा है, कोई भी सरकार आई और चली गई, नेता, मंत्री आए और चले जाते हैं मगर नक्सलवाद एक ऐसी त्रासदी बन चुकी है जो छत्तीसगढ़ की रग रग में समाई हुई है.

नित्य प्रतिदिन नक्सलवादी घटनाएं छत्तीसगढ़ के बस्तर में घटित हो रही हैं, आए दिन मुठभेड़ हो रही है जनहानि धन हानि नित्य जारी है. मगर नक्सलवाद के खात्मे की कोई बात नहीं हो रही है. लाख टके का सवाल यह है कि जब सरकार के पास इतने वृहद संसाधन हैं इसके बावजूद नक्सलवाद समाप्त क्यों नहीं हो रहा.

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सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जिस कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को खोया हो जिनमें विद्याचरण शुक्ल पूर्व केंद्रीय मंत्री, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, बस्तर टाइगर के नाम से विख्यात महेंद्र कर्मा थे. इसके बावजूद कांग्रेस सत्ता में आने के बावजूद अखिर नक्सलवाद को खत्म क्यों नहीं कर पा रही है.

जवानों की जान जा रही है!

छत्तीसगढ़ में नक्सली और जवानों की मुठभेड़ जारी है. जैसा कि हमेशा होता है कभी नक्सली मारे जाते हैं तो कभी हमारे जवान शहीद हो रहे हैं. मगर चिंता का सबब यह है कि हमारे जवानों की जान ज्यादा जा रही है.

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित नारायणपुर जिले में 23 मार्च नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर सुरक्षा बलों के एक बस को उड़ा दिया. इस घटना में चार जवान शहीद हो गए हैं जबकि 14 जवान घायल हुए हैं.

बस्तर क्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी ने हमारे संवाददाता को बताया नारायणपुर जिले के धौड़ाई थाना क्षेत्र के अंतर्गत कन्हरगांव—कड़ेनार मार्ग पर नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर सुरक्षा बलों के बस को उड़ा है. घटना में वाहन चालक समेत चार जवान शहीद हो गए हैं तथा 14 अन्य जवान घायल हो गए हैं.

सुंदरराज ने बताया, -‘‘डीआरजी के जवान नक्सल विरोधी अभियान में रवाना हुए थे.अभियान के बाद जवान एक बस में से नारायणपुर जिला मुख्यालय वापस लौट रहे थे. रास्ते में कन्हरगांव—कड़ेनार मार्ग नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर दिया. घटना में चार जवान शहीद हो गए तथा 14 अन्य जवान घायल हो गए.’’

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पुलिस अधिकारी के मुताबिक घटना की जानकारी मिलने के बाद अतिरिक्त सुरक्षा बल को घटनास्थल के लिए रवाना किया गया तथा घायलों को वहां से निकाला गया। घायलों को बेहतर इलाज के लिए हेलीकॉप्टर से रायपुर भेजा जा रहा है उल्लेखनीय है कि बीते एक वर्ष के दौरान नक्सलियों ने डीआरजी के जवानों पर दूसरा बड़ा हमला किया है. इससे पहले 21 मार्च 2020 को नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमला कर दिया था. इस हमले में डीआरजी के 12 जवानों समेत 17 जवान शहीद हो गए थे.

राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र के जिलों में डीआरजी के जवान तैनात हैं. खास बात यह है कि डीआरजी के जवान स्थानीय युवक हैं और क्षेत्र के कोने-कोने से परिचित रहते हैं. मगर इसके बावजूद मुठभेड़ में जनहानि जारी आहे .

क्या नक्सलवाद का खात्मा हो पाएगा?

छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने नक्सलवाद में संभवत अपने सबसे बड़े नेताओं की हत्या देखी है. झीरम घाटी हत्याकांड भारतीय इतिहास में नक्सलवाद की भूमिका को लेकर एक “काला धब्बा” बन चुका है. जिसे शायद कभी नहीं भुलाया जा सकता.इस परिपेक्ष में कांग्रेस पार्टी की सरकार जब छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ हुई तो यह माना जा रहा था कि अब नक्सलियों का अंत समय आ गया है. क्योंकि जिस पार्टी ने अपने दर्जनों बड़े नेता नक्सलवाद की भेंट चढ़ा दिए जिन्हें क्रुर तरीके से नक्सलियों में मार डाला हो, ऐसी पार्टी सत्ता में आने के बाद नक्सलियों को आत्मसमर्पण कराने को विवश कर देगी.

ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि अब नक्सलियों का सफाया हो सकता है. मगर समय बीतता चला गया.आज लगभग कांग्रेस पार्टी का आधा कार्यकाल भी बीत चुका है मगर कहीं से भी नक्सलियों का अंत दिखाई नहीं देता. ऐसे में सवाल यही है कि क्या कांग्रेस पार्टी नक्सलियों को, उनके उन्मूलन को गंभीरता से नहीं ले रही है. क्या नक्सलवाद छत्तीसगढ़ की पहचान बनकर ही रह जाएगा. क्या इसी तरह मुठभेड़ में जनहानि होती रहेगी. प्रदेश और देश का हित इसी में है कि जितनी जल्द हो सके नक्सलवाद का खात्मा हो.

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दूसरी तरफ 23 मार्च को जब नारायणपुर जिला में जवान मारे गए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल असम में चुनाव प्रचार में व्यस्त थे. उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हमेशा की तरह एक दुखद घटना बताकर इतिश्री कर ली .

सुपरकॉप स्पेशल: जांबाज आशुतोष पांडेय

अगर पुलिस फोर्स में आशुतोष पांडेय जैसे दिलेर, ईमानदार और होश में रह कर काम करने वाले अधिकारी हों तो अपराधियों को सबक सिखाना मुश्किल नहीं है. अपने दम पर ही आशुतोष सुपरकौप बने. उन्होंने ऐसेऐसे कारनामे किए कि…

आशुतोष पांडेय साल 2012 में जब लखनऊ के डीआईजी, एसएसपी बने थे तब उन्होंने पुलिसकर्मियों को मुखबिर तंत्र इस्तेमाल करने का सब से अच्छा तरीका सिखाया था. मोबाइल नंबर पर शिकायत दर्ज कराने का हाइटेक सिस्टम भी उन्होंने ही लौंच किया था.

आशुतोष सादी वर्दी में घूमते थे और शहर में खोखा लगा कर पानबीड़ी बेचने वाले पनवाड़ी से ले कर रेहड़ी पटरी लगाने वालों, फल व चाय वालों से मिल कर इस निर्देश के साथ उन्हें अपना मोबाइल नंबर लिखा विजिटिंग कार्ड थमा देते थे कि कहीं कोई गड़बड़ दिखे तो उन्हें सीधे फोन करें.

बस कुछ ही दिनों में आशुतोष पांडेय के ऐसे हजारों मुखबिरों का नेटवर्क तैयार हो गया. परिणाम यह हुआ कि थानेदार की लोकेशन पता करने के लिए वह संबंधित थाना क्षेत्र के किसी भी पानवाले को फोन कर लेते थे. इस से कई सचझूठ सामने आ जाते थे.

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2016 में जब आशुतोष पांडेय कानपुर जोन के आईजी थे तो उन्होंने कानपुर पुलिस की छवि सुधारने के लिए भी सोशल मीडिया को माध्यम बना कर जनता के लिए एक फोन नंबर जारी किया, जिसे एक नंबर भरोसे का नाम दिया गया. यह नंबर खूब चर्चित हुआ और लोग आईजी आशुतोष पांडेय से सीधे जुड़ने लगे.

कानपुर आईजी के पद पर रहते हुए पांडेय ने हर वारदात को हर पहलू से समझने के लिए कानपुर के एक थाने में तैनात एसओ सहित वहां के सभी दरोगाओं की कार्यशैली देखने के लिए उन की बैठक ली. वहां पीडि़तों को भी बुलाया गया था. थानेदारों और पीडि़तों से आमनेसामने बात की गई तो पता चला कई थानेदारों ने जांच के नाम पर लीपापोती की थी. कई ने तो पीडि़तों को भटकाने की कोशिश की थी. कई ऐसे भी थे जिन की जांच सही दिशा में जा रही थी.

यह सब देख कर उन्होंने एफआईआर दर्ज करने से ले कर विवेचना तक में दरोगा और थानेदारों के खेल पर शिकंजा कसने के आदेश दिए. दरअसल पुलिस विभाग में किसी अधिकारी की संवेदनशीलता उस की कार्यशैली को दर्शाती है. फिलहाल आशुतोष पांडेय उत्तर प्रदेश पुलिस के अपर महानिदेशक अभियोजन महानिदेशालय हैं.

हर कार्य दिवस की सुबह ठीक 10 बजे से अपने कक्ष में लगे कंप्यूटर के एक खास आइसीजेएस पोर्टल पर विभाग के प्रौसीक्यूटर्स की निगरानी में जुट जाते हैं. इस से गुमनामी में रहने वाला यूपी पुलिस का अभियोजन विभाग यूपी को देश में ई प्रौसीक्यूशन पोर्टल का उपयोग करने के लिए पहले नंबर पर आ खड़ा हुआ है.

बिहार के भोजपुर जिले में आरा के रहने वाले शिवानंद पांडेय के बड़े बेटे आशुतोष को बतौर सुपर कौप के रूप में पहचान दिलाई मुजफ्फरनगर जिले ने, जहां वे ढाई साल तक एसएसपी के पद पर तैनात रहे.

1998 में आशुतोष पांडेय की मुजफ्फरनगर जिले में एसएसपी के रूप में पहली नियुक्ति हुई. इस से पहले यहां केवल एसपी का पद था. दरअसल, प्रदेश सरकार ने आशुतोष पांडेय की मेहनत, लगन, ईमानदारी और कुछ नया करने की ललक को देखते हुए उन्हें एक खास मकसद से मुजफ्फरनगर में एसएसपी का पद सृजित कर भेजा था. साथ ही अपराधग्रस्त मुजफ्फरनगर से अपराध खत्म करने के लिए कुछ विशेष अधिकार भी दिए थे.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जिला मुजफ्फरनगर किसान बहुल और जाट बहुल है. यहां की शहरी और ग्रामीण जितनी आबादी जाटों की है, कमोबेश उतनी ही आबादी मुसलिमों की भी है.

1990 से 2000 के दशक की बात करें तो मुजफ्फरनगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में अपराध में अव्वल था. अपहरण, फिरौती और हत्याओं में सब से आगे. ज्यादातर पुलिस वाले बड़े अपराधियों और रसूखदार लोगों की जीहुजूरी करते थे. कोई भी पुलिस कप्तान जिले में 6 महीने से ज्यादा नहीं टिक पाता था.

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12 दिसंबर, 1998 को जब आशुतोष ने बतौर एसएसपी मुजफ्फरनगर में जौइंन किया उसी दिन बदमाशों ने पैट्रोल पंप की एक बड़ी लूट, एक राहजनी और एक व्यक्ति का अपहरण किया.

अभी 2-3 दिन ही बीते थे कि मुजफ्फरनगर के थाना गंगोह के रहने वाले कुख्यात बदमाश बलकार सिंह ने सहारनपुर के एक बड़े उद्योगपति के 8 वर्षीय बेटे का अपहरण कर लिया और उस की धरपकड़ और बच्चे की बरामदगी की जिम्मेदारी आशुतोष पांडेय पर आई.

आशुतोष खुद अपराधी बलकार सिंह के गांव पहुंचे. उन्होंने उस के करीबी लोगों को पकड़ कर पूछताछ की, लेकिन किसी ने मुंह नहीं खोला.

इसी दौरान अपहृत बच्चे के परिजनों ने बिचौलियों के माध्यम से अपहर्त्ताओं से बातचीत की और फिरौती की रकम ले कर एक व्यक्ति को बच्चे को छुड़ाने के लिए बलकार गिरोह के पास भेज दिया.

बलकार गिरोह ने फिरौती की रकम भी ले ली और बच्चे को भी नहीं छोड़ा. साथ ही फिरौती ले कर गए बच्चे के रिश्तेदार को भी बंधक बना लिया. अब उन्होंने बच्चे के साथ रिश्तेदार को छोड़ने के लिए भी फिरौती की रकम मांगनी शुरू कर दी.

इस वारदात के बाद मुजफ्फरनगर और सहारनपुर की पुलिस ने गन्ने के खेतों, जंगलों, गांवों की खूब कौंबिंग की, लेकिन सब बेनतीजा. अपहृत के परिजनों ने इस बार ठोस माध्यम तलाश कर बच्चे और अपने रिश्तेदार को फिरौती की रकम दे कर छुड़ा लिया. इस से पूरे प्रदेश में दोनों जिलों की पुलिस की बहुत किरकिरी हुई.

काफी माथापच्ची के बाद आशुतोष पांडेय की समझ में आया कि गन्ना इस इलाके में सिर्फ किसानों की ही नहीं, अपराध और अपराधियों के लिए भी रीढ़ का काम करता है.

मुजफ्फरनगर में 90 फीसदी से ज्यादा जमीन पर गन्ने की खेती होती है. इसी खेती से यहां का किसान, आढ़ती और व्यापारी सब समृद्ध हैं. हर गांव में 100-50 ट्रैक्टर और ट्यूबवैल हैं.

समृद्धि हमेशा अपराध को जन्म देती है. मुजफ्फरनगर इलाके में अपराधी पैदा होते हैं मूछों की लड़ाई और इलाके में अपनी हनक पैदा करने के कारण. लेकिन बाद में अपराध के जरिए पैसा कमा कर खुद को जिंदा रखना उन की मजबूरी बन जाता है.

इसी के चलते मुजफ्फरनगर में हर अपराधी और उस के गैंग ने बड़े किसानों, आढ़तियों और उद्योगपतियों को निशाना बना कर उन का अपहरण करने और बदले में फिरौती वसूलने का धंधा शुरू किया.

अपहर्त्ता कईकई दिन तक अपने शिकार को गन्ने के खेतों में छिपा कर रखते और इन खेतों व ट्यूबवैलों के मालिक किसान परिवार उन्हें खाने से ले कर दूसरी तरह का प्रश्रय देते.

उन दिनों मोबाइल फोन न के बराबर प्रचलन में थे. दूसरे इलेक्ट्रौनिक माध्यम भी नहीं थे, जिन के जरिए अपराधी अपहृत के परिजनों से संपर्क करते.

अपराधियों का एकमात्र माध्यम या तो लैंडलाइन फोन थे या फिर हाथ से लिखे पत्र, जिन्हें अपने शिकार के परिजनों तक पहुंचा कर वह फिरौती की मांग करते थे.

मुजफ्फरनगर के सामाजिक तानेबाने का अध्ययन करने के बाद आशुतोष पांडेय की समझ में यह बात भी आ गई कि इस इलाके में पंचायत व्यवस्था काफी मजबूत है. पंचायतों का असर इतना गहरा है कि जो मामले अदालतों तक जाने चाहिए, उन्हें पंचायत की मोहर लगा कर सुलझा दिया जाता था.

आशुतोष पांडेय ने ठान लिया कि वे मुजफ्फरनगर से असफल कप्तान का ठप्पा लगवा कर नहीं जाएंगे, बल्कि पंचायत और प्रभावशाली लोगों में पैठ बना कर बैठे अपराधियों का नेटवर्क तोड़ कर जाएंगे.

अपराध और अपराधियों की मनोवृत्ति तथा सामाजिक तानेबाने का विश्लेषण कर के आशुतोष पांडेय ने नए सिरे से जिला पुलिस के पुनर्गठन की शुरुआत की.

उन्होंने ऐसे पुलिसकर्मियों का पता लगाया, जिन का आचरण संदिग्ध था, मूलरूप से इसी इलाके के रहने वाले थे और जिन की अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से घनिष्ठता थी. जो गोपनीय सूचनाओं को लीक करते थे.

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उन्होंने सब से पहले सिपाही से ले कर दरोगा स्तर के ऐसे ही पुलिस वालों की सूची तैयार की. इस के बाद उन्होंने ऐसे पुलिस वालों को या तो जिले से बाहर ट्रांसफर कर दिया या फिर उन की नियुक्ति गैरजरूरी पदों पर कर दी.

फिर आशुतोष पांडेय ने ऐसे पुलिसकर्मियों को चिह्नित करना शुरू किया जो न सिर्फ ड्यूटी के प्रति समर्पित थे बल्कि उन में बहादुरी का जज्बा और कुछ कर गुजरने की ललक थी.

सभी थाना स्तरों पर ऐसे पुलिसकर्मियों का एक स्पैशल स्क्वायड तैयार कराया. सभी थाना प्रभारियों से कहा गया कि वे इस स्क्वायड के पुलिसकर्मियों से नियमित काम न करवा कर उन्हें अपराधियों की सुरागरसी और स्पैशल टास्क पर लगाएं.  आशुतोष पांडेय ने राज्य सरकार से संपर्क कर उन्हें जिला पुलिस की जरूरतों से अवगत कराया.

राज्य सरकार ने जिला पुलिस को 26 मोटरसाइकिल, मोटोरोला के शक्तिशाली वायरलैस सैट और कुछ मोबाइल फोन उपलब्ध करा दिए. संसाधन मिलने के बाद आशुतोष ने अलगअलग कई और दस्तों का गठन किया. इन दस्तों को लेपर्ड दस्तों का नाम दिया गया.

अपराध के खिलाफ अपनी व्यूह रचना को अंजाम देने से पहले आशुतोष पांडेय मुजफ्फरनगर की जनता, कारोबारियों और उस तबके को विश्वास में लेना चाहते थे, जिन का मकसद शहर में अमनचैन कायम रखना था. उन्होंने समाज के इन सभी तबकों के जिम्मेदार लोगों से मिलनाजुलना शुरू किया.

उन्होंने इन सब लोगों को भरोसा दिलाया कि वह मुजफ्फरनगर में कानूनव्यवस्था कायम करने आए हैं. लेकिन यह काम उन के सहयोग के बिना नहीं हो सकता. उन्होंने तमाम लोगों को अपना मोबाइल फोन नंबर दे कर कहा कि कोई आपराधिक सूचना हो या कोई भी निजी परेशानी हो तो वे 24 घंटे में कभी भी निस्संकोच उन्हें फोन कर सकते हैं. वह सूचना मिलते ही काररवाई करेंगे.

अचानक पुलिस कप्तान के इस वादे पर भरोसा करना लोगों के लिए मुश्किल तो था. लेकिन आशुतोष पांडेय ने हार नहीं मानी, वह लगातार प्रयास करते रहे. आखिरकार उन के प्रयास रंग लाने लगे.

समाज और कानून व्यवस्था से सरोकार रखने वाले लोग आशुतोष पांडेय को फोन करने लगे. अपराधियों के बारे में सूचना देने लगे. यह जो नया सूचना तंत्र विकसित हो रहा था, उस में शहर के अमन पसंद लोग जिम्मेदारी उठा रहे थे.

आशुतोष पांडेय ने अपने सिटिजन सूचना तंत्र से मिली जानकारी लेपर्ड दस्तों को दे कर उन्हें दौड़ानाभगाना शुरू किया तो जल्द ही नतीजे भी सामने आने लगे. रंगदारी, अपहरण, लूट और डकैती करने वाले गिरोह पुलिस के चंगुल में फंसने शुरू हो गए.

मुजफ्फरनगर में जनवरी, 1999 से शुरू हुए पुलिस के औपरेशन क्लीन की सब से बड़ी खूबी यह थी कि आशुतोष पांडेय के हर मिशन की व्यूह रचना भी उन्हीं की होती थी और संचार तंत्र भी उन्हीं का होता था. पांडेय ने जो लेपर्ड दस्ते तैयार किए थे, बस उस सूचना के आधार पर उन का काम अपराधियों को दबोचने भर का होता था.

शक्तिशाली वायरलैस सैट और मोबाइल फोन से लैस 26 मोटरसाइकिलों पर सवार इन हथियारबंद लेपर्ड दस्तों ने मुजफ्फरनगर के चप्पेचप्पे तक अपनी पहुंच बना ली थी.

इन दस्तों में ज्यादातर लोग सादी वर्दी में होते थे, जो खामोशी के साथ किसी नुक्कड़ पर व्यस्त बाजार में, बस अड्डे पर, स्टेशन पर या चाय पान की दुकान पर साधारण वेशभूषा में आम आदमी की तरह मौजूद रहते थे.

साल 1999 की शुरुआत होतेहोते आशुतोष पांडेय का सूचना तंत्र इतना विकसित हो गया कि अचानक कोई वारदात होती, तत्काल उस की सूचना कप्तान आशुतोष के पास आ जाती. वह इलाके के लेपर्ड दस्ते और स्थानीय पुलिस को सूचना दे कर औपरेशन क्लीन के लिए भेजते. इस के बाद या तो मुठभेड़ होती, जिस में बदमाश मारे जाते या फिर बदमाश पुलिस की गिरफ्त में आ जाते.

पांडेय ने जिस मिशन की शुरुआत की थी, उस की सफलताओं का आगाज हो चुका था. एक के बाद एक गैंगस्टर और गैंग पकड़े जाने लगे. लगातार मुठभेड़ होने लगीं, जिन में कुख्यात अपराधी मारे जाने लगे.

अपराध और अपराधियों से त्रस्त आ चुकी मुजफ्फरनगर की जनता का पुलिस पर भरोसा कायम होने लगा सूचना का जो तंत्र विकसित हुआ था, वह और तेजी से काम करने लगा.

नतीजा यह निकला कि 16 फरवरी, 1999 को जब आशुतोष पांडेय का मुजफ्फरनगर प्रभार संभाले हुए 66वां दिन था तो अचानक उन्हें भौंरा कला के एक किसान ने फोन पर सूचना दी कि कुख्यात अंतरराजीय अपराधी रविंदर उर्फ चीता भौंरा कलां में अमरपाल किसान के ट्यूबवैल में छिपा है.

आशुतोष पांडेय ने पीएसी और स्थानीय पुलिस के साथ मिल कर खुद उस इलाके की घेराबंदी की. दोनों तरफ से मुठभेड़ शुरू हो गई. मुठभेड़ करीब 5 घंटे तक चली. आसपास के हजारों लोगों ने दिनदहाड़े हुई वह मुठभेड़ देखी और आखिरकार जिले का टौप 10 बदमाश रविंदर मारा गया.

बैंक डकैती से ले कर अपहरण की वारदातों में वांछित इस बदमाश के मारे जाते ही इलाके में आशुतोष पांडेय जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे.

आशुतोष पांडेय ऐसे नहीं थे, जिन पर अपनी जयकार का नशा चढ़ता. मुजफ्फरनगर जिले को अपराधमुक्त करना चाहते थे. रविंदर उर्फ चीता को ठिकाने लगाते ही वह इलाके से निकल लिए, क्योंकि एक और खबर उन का इंतजार कर रही थी.

पांडेय को उन के सिटिजन सूचना तंत्र से जानकारी मिली थी कि बाबू नाम का एक बदमाश जिस पर करीब 1 लाख  का ईनाम है, सिविल लाइन में किसी व्यापारी से रंगदारी वसूलने के लिए आने वाला है.

आशुतोष पांडेय सीधे सिविल लाइन पहुंचे, यहां नई टीम को बुलाया गया. फिर पुलिस टीम को एकत्र कर के बताया कि सूचना क्या है और उस पर क्या ऐक्शन लेना है.

सूचना सही थी. बताए गए समय और जगह पर कुख्यात अपराधी बाबू पहुंचा. पुलिस ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और आत्मसमर्पण की चेतावनी दी. लिहाजा क्रौस फायरिंग शुरू हो गई. करीब 1 घंटे तक गोलीबारी हुई. घेरा तोड़ कर भागे बाबू को भी आखिरकार पुलिस ने धराशाई कर दिया.

मुजफ्फरनगर के इतिहास में शायद यह पहला दिन था जब एक ही दिन में पुलिस ने एक साथ 2 बड़े अपराधियों का एनकाउंटर कर उन्हें धराशाई कर दिया था.

इस एनकाउंटर के बाद मुजफ्फरनगर की जनता का पुलिस पर भरोसा वापस लौट आया. लोगों को लगने लगा कि आशुतोष पांडेय के रहते या तो बदमाश दिखाई नहीं देंगे. अगर दिखे तो उन के सिर्फ दो अंजाम होंगे या तो वे श्मशान में होंगे या सलाखों के पीछे.

आशुतोष पांडेय पर जिम्मेदारियां बहुत बड़ी थीं. क्योंकि यह सिर्फ शुरुआत थी इसे अंजाम तक पहुंचाना बेहद मुश्किल काम था. पांडेय सुबह 10 बजे तक अपने दफ्तर पहुंच जाते थे, जहां जनता से मुलाकात करते, शिकायतें सुनते.

उस के बाद कोई सूचना मिलने पर उन का काफिला अनजान मंजिल की तरफ निकल पड़ता. वे किसी गांव में किसानों के बीच बैठक लगाते या व्यापारियों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए बैठक करते.

आशुतोष पांडेय कईकई दिन तक अपनी पत्नी और दोनों बच्चों से नहीं मिल पाते थे. घर जाने की फुरसत नहीं होती थी इसलिए गाड़ी में ही हर वक्त 1-2 जोड़ी कपड़े रखते थे.

गाड़ी में हमेशा पानी की बोतलें, भुने हुए चने और गुड़ मौजूद रहता था. जरूरत पड़ने पर गुड़ और चने खा कर ऊपर से पानी पी लेते थे. थकान हो जाती थी तो गाड़ी में बैठ कर ही कुछ देर झपकी मार लेते थे.

आशुतोष पांडेय अकेले ऐसा नहीं करते थे. जिले के हर पुलिस कर्मचारी के लिए उन्होंने शहर के अपराधमुक्त होने तक ऐसी ही दिनचर्या अपनाने का वादा ले रखा था.

रविंदर उर्फ चीता और बाबू के एनकाउंटर के बाद आशुतोष पांडेय ही नहीं, पूरे जिले की पुलिस के हौसले बुलंदी पर थे. आईजी जोन से ले कर लखनऊ में उच्चस्तरीय अधिकारियों में भी आशुतोष पांडेय के काम की सराहना हो रही थी.

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लेकिन आशुतोष इतने भर से संतुष्ट नहीं थे. इस के बाद उन्होंने अगस्त, 1999 में मंसूरपुर इलाके में ईनामी बदमाश नरेंद्र औफ गंजा को मुठभेड़ में मार गिराया. चंद रोज बाद ही बड़ी रकम के इनामी बदमाश इतवारी को सिविल लाइन इलाके में ढेर कर दिया गया. 8 नवंबर, 1999 को उन्होंने खतौली के कुख्यात अपराधी सुरेंद्र को मुठभेड़ में धराशाई कर दिया.

मुजफ्फरनगर में जिस तरह से एक के बाद एक ताबड़तोड़ एनकाउंटर हो रहे थे, सक्रिय अपराधियों को सलाखों के पीछे भेजा जा रहा था. उस ने अपराधियों के बीच आशुतोष पांडेय के नाम का खौफ भर दिया था. उन्हें बड़ी कामयाबी तब मिली जब 27 अगस्त, 2000 को एक सूचना के आधार पर उन्होंने शामली के जंगलों में खड़े एक ट्रक को अपने कब्जे में लिया.

इस ट्रक में सवार 2 लोगों ने पुलिस पर फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस की तरफ से भी फायरिंग शुरू हो गई. फलस्वरूप दोनों बदमाश मारे गए. बाद में जिन की पहचान पंजाब के सुखबीर शेरी ओर दिल्ली के नरेंद्र नांगल के रूप में हुई.

पता चला कि ये दोनों आतंकवादी थे और दिल्ली में एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान विस्फोट करना चाहते थे. ये दोनों 5 लोगों की हत्या में वांछित थे. जिस ट्रक में दोनों बैठे थे उसे उन्होंने सहारनपुर से लूटा था और ट्रक में 50 लाख  रुपए की सिगरेट भरी थी. पुलिस को उन के कब्जे से हथियार व गोलाबारूद भी मिला.

आशुतोष पांडेय द्वारा छेड़े गए मिशन के तहत बदमाश पकड़े भी जा रहे थे और मारे भी जा रहे थे. लेकिन पांडेय जानते थे कि मुजफ्फरनगर इलाके में अपराध की मूल जड़ गन्ना है. क्योंकि गन्ना बढ़ने के साथ उस की बिक्री से किसानों व क्रेशर मालिकों के पास पैसा आने लगता है.

बदमाश उसी पैसे को लूटने या फिरौती में लेने के लिए अपहरण की वारदातों को अंजाम देते हैं. कुल मिला कर इलाके के अपराधियों के लिए गन्ने की फसल मुनाफे का धंधा बन गई थी. आशुतोष पांडेय चाहते थे कि किसी भी तरह मुनाफे के इस धंधे को घाटे में बदल दिया जाए.

आशुतोष ने अब अपना सारा ध्यान अपहरण करने वाले गिरोह और बदमाशों पर केंद्रित कर दिया. उन्होंने पिछले 2-3 सालों में हुए अपहरणों की पुरानी वारदातों की 1-1 पुरानी फाइल को देखना शुरू किया.

अपहरण के इन मामलों में जो भी लोग संदिग्ध थे, जिन लोगों ने अपहर्त्ताओं को पनाह दी थी अथवा बिचौलिए का काम किया था, उन्होंने ऐसे तमाम लोगों की धरपकड़ शुरू करवा दी. रोज ऐसे 30-40 लोग पकड़े जाने लगे.

इस से अपराधियों के शरणदाता अचानक बदमाशों से कन्नी काटने लगे. जिस का नतीजा यह निकला कि मुजफ्फरनगर में अचानक साल 2000 में फिरौती के लिए अपहरण की वारदातों में भारी कमी आ गई.

लेकिन इस के बावजूद कुछ मुसलिम गैंग अभी तक अपहरण की वारदात छोड़ने को तैयार नहीं थे.

दिसंबर 2000 में चरथावल कस्बे के दुधाली गांव में बदमाशों ने भट्ठा मालिक जितेंद्र सिंह का अपहरण कर लिया और परिवार से मोटी फिरौती मांगी. शिकायत कप्तान आशुतोष पांडेय तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत मुखबिरों के नेटवर्क को सक्रिय किया. पता चला कि जितेंद्र सिंह का अपहरण शकील, अकरम और दिलशाद नाम के अपराधियों ने किया है. यह भी पता चल गया कि बदमाशों ने जितेंद्र सिंह को दुधाहेड़ी के जंगलों में रखा हुआ है.

उन्होंने खुद इस मामले की कमान संभाली और पूरे जंगल की घेराबंदी कर दी. दिनभर पुलिस और बदमाशों की मुठभेड़ चलती रही, जिस के फलस्वरूप शाम होतेहोते तीनों बदमाश मुठभेड़ में धराशाई हो गए और जितेंद्र सिंह को सकुशल मुक्त करा लिया गया.

1999 से ले कर साल 2000 तक मुजफ्फरनगर जिले में कई ऐसे अपहरण हुए, जिस में आशुतोष पांडेय की अगुवाई में पुलिस ने न सिर्फ अपहृत व्यक्ति को सकुशल मुक्त कराया. बल्कि अपहर्त्ताओं को या तो गिरफ्तार किया या फिर मुठभेड़ में धराशाई कर दिया. पांडेय ने ऐसे सभी मामलों में अपहर्त्ताओं को अपने खेतों, ट्यूबवैल और घरों में शरण देने वाले किसानों और उन के परिवार की महिलाओं तक को आरोपी बना कर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.

परिणाम यह निकला कि लोग अपराधियों को शरण देने से बचने लगे. कल तक अपहरण को मुनाफे का धंधा मानने वाले अपराधियों को अब वही धंधा घाटे का लगने लगा. यही वजह रही कि साल 2001 में मुजफ्फरनगर जिले में फिरौती के लिए अपहरण की एक भी वारदात नहीं हुई.

इस बीच जिले के सभी 28 थानों पर पांडेय की इतनी मजबूत पकड़ कायम हो चुकी थी कि अगर वहां कोई मामूली सी भी गड़बड़ या घटना होती तो इस की सूचना उन तक पहुंच जाती थी.

लोगों से मिली सूचनाओं के बूते पर उन्होंने जिले के करीब 525 ऐसे लोगों की सूची बनाई थी, जो या तो सफेदपोश थे या फिर किसी पंचायत अथवा राजनीतिक दल से जुड़े थे. इन सभी लोगों पर आशुतोष पांडेय ने अपनी टीम के लोगों को नजर रखने के लिए छोड़ा हुआ था.

ऐसे लोगों की अपराध में जरा सी भी भूमिका सामने आने पर आशुतोष पांडेय मीडिया के माध्यम से जनता के बीच उन के चरित्र का खुलासा करके उन्हें जेल भेजते थे. इसलिए तमाम सफेदपोश लोग भी आशुतोष पांडेय के खौफ से डरने लगे थे.

सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ की गई काररवाई में सब से चर्चित और उल्लेखनीय मामला समाजवादी पार्टी से विधान परिषद सदस्य कादिर राणा के भतीजे शाहनवाज राणा की गिरफ्तारी का था.

शाहनवाज राणा की शहर में तूती बोलती थी. किसी के साथ भी मारपीट कर देना किसी की गाड़ी को अपनी गाड़ी से टक्कर मार देना शाहनवाज राणा का शगल था. पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर प्रभाव रखने और धमक दिखाने के लिए शाहनवाज राणा ने एक अखबार भी निकाल रखा था. शाहनवाज राणा पर कोई हाथ नहीं डाल पाता था. शाहनवाज राणा पहले हत्या के एक मामले में गिरफ्तार हो चुका था लेकिन सबूत न होने की वजह से बाद में अदालत से रिहा हो गया था. इस से मुजफ्फरनगर में शाहनवाज की गुंडागर्दी और भी बढ़ गई थी. लेकिन आशुतोष पांडेय ने शाहनवाज को भी नहीं छोड़ा.

दरअसल, मुजफ्फरनगर के रमन स्टील के मालिक रमन कुमार ने आशुतोष पांडेय को फोन कर के बताया कि शाहनवाज राणा और उस के साथी उस की फैक्ट्री से लोहे के कबाड़ का ट्रक लूट रहे हैं.

सूचना मिलते ही आशुतोष पांडेय अपने स्पैशल दस्ते के साथ मौके पर पहुंचे और शाहनवाज राणा व उस के साथियों को पकड़ कर थाने ले आए.

शाहनवाज राजनीतिक पकड़ वाला व्यक्ति था. चाचा कादिर राणा प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का एमएलसी था. थाने पर एक खास समुदाय के समर्थकों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई.

आशुतोष पांडेय पर शाहनवाज को छोड़ने के लिए उच्चाधिकारियों से ले कर विपक्षी पार्टी के नेताओं का दबाव बढ़ने लगा.

लेकिन आशुतोष पांडेय उसूलों के पक्के थे. उन्होंने शाहनवाज को खुद मौके पर जा कर पकड़ा था. लिहाजा छोड़ने का सवाल ही नहीं था.

अगर दबाव में आ कर वह शाहनवाज को छोड़ देते तो न सिर्फ ढाई साल में की गई उन की मेहनत पर पानी फिर जाता बल्कि शाहनवाज राणा के हौसले और ज्यादा बुलंद हो जाते.

आशुतोष पांडेय ने तबादले और दंड की परवाह किए बिना शाहनवाज राणा के खिलाफ मामला दर्ज करवाया और उसे साथियों के साथ जेल भिजवा दिया.

मुजफ्फरनगर जिले में यह मामला एक आईपीएस अफसर के ईमानदार फैसले की नजीर बन गया और लोगों ने आशुतोष पांडेय की हिम्मत का लोहा मान लिया.

यही कारण रहा कि मुजफ्फरनगर में अपनी तैनाती के दौरान इकहरे शरीर के मालिक आशुतोष पांडेय हमेशा लौह पुलिस अफसर बन कर खड़े रहे.

मुजफ्फरनगर में ढाई साल के लंबे कार्यकाल के बाद आशुतोष पांडेय की नियुक्ति अलगअलग जगहों पर रही. हर जगह उन्होंने जो काम किए, वह सब से हट कर थे. पांडेय 2005 में वाराणसी और साल 2012 में लखनऊ के एसएसपी डीआईजी रहे.

सभी जगह आशुतोष पांडेय का नाम सुनते ही गैरकानूनी काम करने वाले लोग डरते थे. 2008 में आशुतोष पांडेय को प्रोन्नत कर उन्हें डीआईजी का पद सौंपा गया. इस के बाद उन्हें 18 मई, 2012 में प्रमोशन देते हुए आईजी बना दिया गया.

कानुपर के अलावा उन की नियुक्ति आगरा जोन में भी रही और 1 जनवरी, 2017 को वह यूपी के एडीजी बना दिए गए. अपहरण मामलों को सुलझाने के विशेषज्ञ, मुजफ्फरनगर में 100 से ज्यादा अपराधियों के एनकाउंटर में 30 एनकांउटर में खुद मोर्चा संभालने और कानपुर में बहुचर्चित ज्योति हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने में अहम रोल निभाने वाले आशुतोष पांडेय को राष्ट्रपति मैडल मिल चुका है.

सुपरकॉप सोनिया नारंग: राजनीतिज्ञों को सिखाया सबक

लेखक- पुष्कर 

सोनिया नारंग वह दबंग महिला आईपीएस हैं जो न मुख्यमंत्री के सामने झुकीं, न लोकायुक्त के सामने. उन्होंने वही किया जो एक ईमानदार पुलिस अधिकारी को करना चाहिए. यही वजह है कि कर्नाटक के लोग सीबीआई से ज्यादा सोनिया की जांच पर…

जिंदगी में कुछ कर गुजरने का जज्बा ले कर जब कोई महिला ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अपना वर्चस्व कायम करती है तो उस की एक अलग ही छवि निखर कर आती है, बेखौफ, दबंग और ईमानदार अफसर की छवि. जिस के लिए उस का कर्तव्य पहले होता है, बाकी सब बाद में.

जोश और जुनून से लबरेज सोनिया नारंग भी उन्हीं विशेष अफसरों में अपनी खास उपस्थिति दर्ज कराती हैं जिन के लिए आम से ले कर खास व्यक्ति तक के लिए कानून की एक ही परिभाषा है. फिर चाहे वो खास अफसरशाही पर हुकूमत चलाने वाले नेता ही क्यों न हों.

सोनिया नारंग का जन्म और परवरिश चंडीगढ़ में हुई. उन के पिता भी प्रशासनिक अधकारी थे. उन से प्रेरणा ले कर सोनिया ने बचपन से ही सिविल सर्विस जौइन करने को अपना लक्ष्य बना लिया था. इस लक्ष्य को पाने की तैयारी उन्होंने हाईस्कूल के बाद से ही शुरू कर दी थी. 1999 में पंजाब यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र में गोल्ड मेडल पाने वाली सोनिया नारंग की लगन और मेहनत रंग लाई. वह कर्नाटक कैडर के 2002 बैच की आईपीएस बन गईं.

उन के कैरियर की पहली पोस्टिंग 2004 में कर्नाटक के गुलबर्ग में हुई. सोनिया ने जौइंन करते ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे. 2006 की बात है. तब सोनिया नारंग दावणगेरे जिले की एसपी थीं. होनाली में हो रहे एक प्रदर्शन के दौरान कांग्रेस और बीजेपी के दो बड़े नेता व उन के समर्थक आपस में भिड़ गए.

इस बात की सूचना मिलते ही सोनिया नारंग मौके पर जा पहुंची. तब तक प्रदर्शनकारी हिंसा पर उतर आए थे और दोनों दलों के नेता आपस में उलझे हुए थे. मामला गंभीर होता देख सोनिया नारंग ने लाठी चार्ज का आदेश दे दिया. इस पर भाजपा नेता रेनुकाचार्य ने पीछे हटने से मना कर दिया और एसपी सोनिया नारंग से ही उलझ कर अभद्रता पर उतर आए.

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तब सोनिया नारंग ने एमएलए रेनुकाचार्य को कानून का सबक सिखाने के लिए सब के सामने थप्पड़ जड़ दिया.

इस बेइज्जती पर भाजपा नेता बुरी तरह से बौखला गए. कई दिन तक हंगामा होता रहा, लेकिन एसपी सोनिया निडरता से अपनी बात पर अडिग बनी रहीं. बाद में यही भाजपा नेता रेनुकाचार्य मंत्री बन गए थे.

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सोनिया नारंग ने अपने हौसले और मजबूत इरादों का परिचय तब भी दिया था जब कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने 16 करोड़ के खदान घोटाले में उन का नाम भी शामिल कर दिया था.

मुख्यमंत्री ने विधानसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में 16 करोड़ के खदान घोटाले से जुड़े अधिकारियों में सोनिया नारंग का नाम भी सर्वजनिक किया. मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने सदन को बताया कि खदान घोटाले में आईपीएस सोनिया नारंग का नाम भी सामने आया है. सरकार उन के खिलाफ काररवाई पर विचार कर रही है.

मुख्यमंत्री सिद्दारमैया पर भी भारी

इस के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में तूफान सा मच गया. एक बेदाग छवि की आईपीएस अधिकारी का नाम किसी घोटाले में लिया जाना दुर्भाग्यपूर्ण था. लेकिन सोनिया नारंग घोटाले से उठी आंधी के बीच भी अविचल रहीं.

उन्होंने सीएम द्वारा लगाए गए आरोप के बाद न तो सफाई देने की जरूरत समझी और न ही अन्य अधिकारियों की तरह सदन के सदस्यों से मिल कर अपना पक्ष रखने की. इस सब की बजाय सोनिया नारंग ने सीएम के आरोप के खिलाफ मजबूती से मोर्चा खोल दिया और सीधे प्रेस के लिए स्टेटमेंट जारी किए.

सोनिया ने कहा, ‘मेरी अंतरात्मा साफ है. आप चाहें तो किसी भी तरह की जांच करा लें. मैं इस आरोप का न सिर्फ खंडन करती हूं, बल्कि इस का कानूनी तरीके से हर स्तर पर विरोध भी करूंगी.’ उन्होंने ऐसा ही किया भी. सोनिया नारंग ने बेबाकी से अपनी बात रखते हुए बताया, ‘मैं इस तरह के किसी भी आरोप को सिरे से खारिज करती हूं. मैं ने उन इलाकों में अपने कैरियर के दौरान कभी काम ही नहीं किया है, जहां पर खनन घोटाले की बात की जा रही है.’

कानून को सर्वोपरि मानने वाली सोनिया ने किसी भी अवैध खनन को बढ़ावा देने या खनन माफिया से सांठगांठ करने से स्पष्ट रूप से इनकार करते हुए तत्कालिन मुख्यमंत्री सिद्दारमैया के आरोप का पुरजोर विरोध किया था. मुख्यमंत्री से सीधे टकराने का साहस सोनिया नारंग जैसी दबंग और ईमानदार आईपीएस ही कर सकती थीं. आखिरकार उन का विश्वास जीता और उन्हें इस मामले में क्लीन चिट भी मिली.

यही वजह है कि कर्नाटक के लोग सोनिया नारंग पर अटूट विश्वास करते हैं. यहां तक कि निष्पक्ष जांच के लिए उन्हें सीबीआई से ज्यादा भरोसा अपनी अफसर सोनिया पर है.

ऐसा ही एक मामला तब सामने आया था जब सोनिया नारंग कर्नाटक लोकायुक्त की एसपी थीं. लोकायुक्त जस्टिस वाई भास्कर राव के बेटे अश्विन राव और कुछ रिश्तेदारों पर राज्य के संदिग्ध भ्रष्ट अफसरों से फिरौती वसूली का रैकेट चलाने का आरोप लगा था.

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पीडब्ल्यूडी के एक एग्जीक्यूटिव इंजीनियर को झूठे मामले में फंसाने की धमकी दे कर एक करोड़ रुपए मांगे गए थे. उक्त इंजीनियर को जांच से बचने के लिए 25 लाख रुपए तुरंत देने को कहा गया था. तब इंजीनियर ने इस बात की शिकायत लोकायुक्त पुलिस एसपी सोनिया नारंग से की.

उन्होंने मौखिक शिकायत के आधार पर स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले की विधिवत जांच कर के अपनी रिपोर्ट लोकायुक्त के रजिस्ट्रार को सौंप दी. इस पर केस खुल कर सामने आया. परिणामस्वरूप  जस्टिस वाई भास्कर राव को इस्तीफा देना पड़ा और उन के बेटे सहित 11 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया.

एक प्रशासनिक अधिकारी की बेटी और एक आईपीएस की पत्नी सोनिया नारंग को उन के मजबूत हौसले, बुलंद इरादे और ईमानदारी के लिए जाना जाता है. इसी से पे्ररित हो कर उन के जीवन पर कन्नड़ भाषा में ‘अहिल्या’ नाम की फिल्म बनी है.

पंजाब यूनिवर्सिटी से समाज शास्त्र में 1999 की गोल्ड मेडलिस्ट सोनिया नारंग चंडीगढ़ में पली बढ़ीं. किशोरावस्था से उन्होंने एक ही सपना देखा था सिविल सर्विस जौइन करने का जिसे साकार करने के लिए उन्होंने हाईस्कूल के बाद से ही तैयारी शुरू कर दी थी. उन की

लगन और मेहनत रंग लाई, सोनिया कर्नाटक कैडर के 2002 बैच की आईपीएस बन गईं.

उन के कैरियर की पहली पोस्टिंग 2004 में कर्नाटक के गुलबर्गा में हुई. जिस में उन्हें चुनावों के प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गई थी. सोनिया नारंग ने जौइन करते ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे. 2006 की बात है. तब सोनिया नारंग दावणगेरे जिले की एसपी थीं. होनाली में एक कार्यक्रम के दौरान कांग्रेस और बीजेपी के दो बड़े नेता और उन के समर्थक आपस में भिड़ गए.

इस बात की सूचना मिलते ही सोनिया नारंग मौके पर जा पहुंचीं. तब तक प्रदर्शनकारी हिंसा पर उतर आए थे और दोनों दलों के नेता आपस में उलझे हुए थे. मामला गंभीर होता देख सोनिया नारंग ने लाठी चार्ज का आदेश दे दिया. इस पर भाजपा नेता रेनुकाचार्य ने पीछे हटने से मना कर दिया और एसपी सोनिया से ही भिड़ बैठे.

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तब सोनिया नारंग ने तत्कालीन एमएलए रेनुकाचार्य को सबक सिखाने के लिए सब के सामने थप्पड़ जड़ दिया. इस बेइज्जती पर भाजपा नेता बौखला गए. कई दिन तक हंगामा होता रहा, लेकिन एसपी सोनिया अपनी बात पर अडिग बनी रहीं. बाद में रेनुकाचार्य मंत्री बन गए थे.

सोनिया नारंग ने अपने मजबूत इरादों से तब भी परिचित कराया था जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने 16 करोड़ के खदान घोटाले में उन का नाम भी शामिल किया था. मुख्यमंत्री ने विधानसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में 16 करोड़ के खदान घोटाले से जुड़े अधिकारियों में सोनिया नारंग का नाम भी सार्वजनिक किया था. मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने सदन को बताया कि खद्यान घोटाले में आईपीएस सोनिया नारंग का नाम सामने आया है और सरकार उन के खिलाफ काररवाई पर विचार कर रही है.

इस के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारे में तूफान सा मच गया. लेकिन सोनिया नारंग ने इस आंधी के बीच अविचल रहते हुए सीएम के आरोपों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया और खुल कर विरोध किया. उन्होंने कहा, ‘मैं इस तरह के किसी भी आरोप को सिरे से खारिज करती हूं. मैं ने उन इलाकों में अपने कैरियर के दौरान कभी काम ही नहीं किया है जहां पर खनन घोटाले की बात की जा रही है.’

सोनिया नारंग ने सीएम द्वारा लगाए गए आरोप के बाद न तो सफाई देने की जरूरत समझी और न ही सदन के सदस्यों से मिल कर अपना पक्ष रखने की. उन्होंने सीधे मुख्यमंत्री के खिलाफ उसी शैली में मोर्चा खोल कर अपना विरोध जाहिर किया.

एक प्रशासनिक अधिकारी की बेटी और एक आईपीएस की पत्नी सोनिया नारंग को उन के मजबूत हौसले, बुलंद इरादे और ईमानदारी के लिए जाना जाता है. सोनिया नारंग के जीवन पर कन्नड़ भाषा में अहिल्या नाम की फिल्म बनी है. देश को ऐसे ही अधिकारियों की जरूरत है, जो नेताओं के हथकंडों से न डर कर अपने फर्ज को अहमियत दें.

प्यार का ‘पागलपन’

प्यार की चाहत स्वाभाविक है. स्त्री हो या पुरुष सबको एक साथी की जरूरत होती है. मगर जब यह प्यार दीवानगी और पागलपन की हद को छूने लगे तो यहां से मर्यादा और कानून की सीमाओं का उल्लंघन शुरू हो जाता है, बात जब बढ़ती है तो बात “अपराध” तक जा पहुंचती है. और अपने जीवन के साथ साथ दूसरों का जीवन भी बर्बाद हो जाता है.

सवाल है संबंधों के और सामाजिक दायरे के भीतर रहने का. इसके उल्लंघन के साथ ही कानून का भी उल्लंघन शुरू हो जाता है और अपराध की श्रेणी में आ जाता है. आज इस रिपोर्ट में इस महत्वपूर्ण सामाजिक और अपराधिक मसले में होते तब्दीली पर हम कुछ ऐसे तथ्य आपके सामने रखने जा रहे हैं जो बेहद जरूरी हैं. और जनहित के महत्वपूर्ण सवाल भी.

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देखिए कुछ ऐसे अपराधिक घटनाक्रम जो हमारी इस रिपोर्ट की पुष्टि करते हैं.

पहला घटनाक्रम–  छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिला में एक शख्स सुरजीत सिंह ने अपने पड़ोसन के खातिर अपने पत्नी परिवार को छोड़कर दूसरी महिला का दामन थामा और दो परिवार एक साथ तबाही के दहलीज पर पहुंच गए .

दूसरा घटनाक्रम– जिला राजनांदगांव में एक महिला ने पड़ोस के एक शादीशुदा व्यक्ति रमेश शर्मा से प्यार की पेंगे बढ़ाई और अपने घर परिवार को छोड़कर भाग गई.इस तरह दो परिवार तबाह हो गए.

तीसरा घटनाक्रम– छत्तीसगढ़ के न्यायधानी बिलासपुर के जबरा पारा के सुदामा वर्मा नामक शख्स ने एक महिला के फेर में पड़कर अपने तीन बच्चों और पत्नी को छोड़ दूसरा विवाह रचा लिया. पहली पत्नी ने बच्चों से आखिरकार आत्महत्या कर ली.

और जलाकर मारने की कोशिश

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट सेरीखेड़ी गांव आदिवासी बाहुल्य है. 9 मार्च 2021 को रात एक शादीशुदा शख्स ने पड़ोस में जाने वाली एक नाबालिग आदिवासी लड़की को जलाकर मारने की कोशिश की. प्यार के पागलपन में उसने मिट्‌टी तेल (किरोसीन आइल) डालकर उसके शरीर में आग लगाने की हिमाकत कर दी.

इस दौरान झूमाझटकी में आरोपी भी झुलस गया. लेकिन जब उसे अपराध का संज्ञान हुआ तो वहां से भाग निकला. नाबालिग चीख पुकार करते हुए बाहर आई. परिजनों ने आग बुझायी. उसके बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया.

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डाक्टरों के मुताबिक नाबालिग 50 फीसदी झुलस गई है. हादसे के बाद से सेरीखेड़ी में सनसनी फैल गई. सवाल यह है कि आरोपी नाबालिग युवती के घर के भीतर कैसे पहुंच गया.इतनी बड़ी घटना के बाद कैसे भाग गया.

पुलिस बताती है कि यह सारा मामला एक तरफा प्यार का है.

सेरीखेड़ी में 16 साल की रानू (काल्पनिक नाम) परिवार के साथ रहती है‌ . वहीं पास में आरोपी करन पोर्ते (22) का घर है. वह पिछले कुछ महीने से रानू काे परेशान कर रहा था वह जहां भी जाती वह उसका पीछा करते हुए पहुंच जाता. करन नाबालिग से शादी करना चाहता था, जबकि नाबालिग उसे पसंद नहीं करती. वह करन को बातचीत करने से भी इंकार करती रही.

नाबालिग के पिता ने कई बार करन काे समझाया और चेतावनी भी दी कि वह रानू को परेशान करना छोड़ दे. इसके बाद भी करन ने उसका पीछा करना नहीं छोड़ा.वह पिछले कुछ दिनों से उसे फोन कर परेशान करने लगा था खास बात यह कि करन एक मजदूर है और विवाहित भी उसके दो बच्चे हैं.

घटना रात्रि को 3 बजे करन मौका देख कर रानू के घर घुस गया. नाबालिग के माता-पिता और बहन सो रहे थे.वह नाबालिग के कमरे में घुस गया. वहां दोनों के बीच विवाद हुआ. करन ने अचानक ही रानू पर मिट्टी तेल डालकर आग लगा दी. इस दौरान उसके शरीर पर भी आग लग गई. उसने तुरंत अपने कपड़ों की आग बुझाई और वहां से भाग गया.

रानू चींखती बाहर आई. उसकी आवाज सुनकर परिजनों ने आग की लपटों में घिरा देख किसी तरह आग बुझाई और उसे अस्पताल ले गए.

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प्यार का अपराधीकरण

दरअसल, जब कोई विवाहित किसी नाबालिग अथवा अविवाहित लड़की से प्यार का इजहार करने लगे और शादी करने की जिद तो यहीं से अपराध के बीज पड़ने लगते हैं. समाज और कानून के नियमों परंपराओं का उल्लंघन करने के कारण जहां अपराध होने लगते हैं वही विकृति भी पैदा हो जाती है.
उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता बीके शुक्ला के मुताबिक उनके पेशेवर समय में ऐसे अनेक मामले उनके पास आए हैं जिनमें ऊपर घटित अपराध घटनाक्रम के पात्र रानू और करन जैसे हालात रहे हैं. ऐसे मामलों में कुल मिलाकर दोनों ही परिवारों का जीवन बर्बाद होते मैंने देखा है. कानून की अपनी मर्यादा होती है, सीमाएं हैं. अच्छा हो कि इस लेख को पढ़कर समझ कर अगर कुछ लोग भी अपनी मर्यादा लक्ष्मण रेखा खींच लें, तो उनका जीवन सुखमय हो जाएगा.

पुलिस अधिकारी इंद्र भूषण सिंह के मुताबिक अक्सर इस तरह के घटनाक्रम पुलिस के पास आते ही रहते हैं. मैंने विवेचना की है और पाया है कि पुरुष हो या स्त्री दोनों में से किसी के भी पैर भटक सकते हैं और जब जब ऐसा होता है तो सामाजिक परंपराओं का उल्लंघन होता है. और परिवार टूट जाते हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता शिव दास महंत के मुताबिक उनके सामाजिक जीवन में भी ऐसे कुछ उदाहरण उन्होंने देखे समझे हैं. और जीवन की डगर में भटकती हुई महिला पुरुषों को समझाइश देकर उन्हें सही मार्ग पर लाने का छोटा सा सफल प्रयास किया है.

अप्राकृतिक कृत्य के जाल में नौनिहाल

चाइल्ड पोर्नोग्राफी का कानून सख्त से सख्त हो चुका है, उसी के बरक्स नौनिहालों.. बच्चों के साथ होने वाले अप्राकृतिक कृत्य भी समाज के लिए एक चिंता का विषय है.

दरअसल, यह कुछ ऐसी मानसिक बुनावट का गंभीर कुकृत्य… अपराध होता है जिसके शिकार न जाने कितने बच्चे होते रहते हैं और अक्सर अपनी जान से भी हाथ धो बैठते हैं.

आज हम इस रिपोर्ट में इस गंभीर मसले पर अपराध के ताने-बाने और बच्चों की सुरक्षा कैसे की जा सकती है, इस पर चर्चा कर रहे हैं.

वस्तुतः सच यह है कि बच्चे मासूम होते हैं और वह जल्द ही किसी के साथ भी हिल मिल जाते हैं. ऐसे में अगर मानसिक विकृति का कोई व्यक्ति बालक के साथ अप्राकृतिक कृत्य करने की मंशा रखता है तो अक्सर सफल भी हो जाता है और स्थिति बिगड़ने पर बालक की हत्या भी हो जाती है.

ऐसा ही एक मसला छत्तीसगढ़ के जिला सूरजपुर में हाल में घटित हुआ जिसमें एक बच्चे के साथ अप्राकृतिक कृत्य करने की कोशिश के बाद हत्या कर एक मजदूर गायब हो गया.

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सूरजपुर के गोपालपुर में 5 मार्च 2021 को 9 साल के एक मासूम बच्चे की खेत में लाश मिली थी. बच्चा गोपालपुर का ही रहने वाला था, वह घटना के एक दिन पूर्व शाम से लापता था. बच्चे की गायब होने की सूचना परिवार वालों ने थाने में की, तत्पश्चात बच्चे की तलाश शुरू हुई. बच्चे की खोजबीन शुरू की तो घर से कुछ ही दूर पर खेत में लाश मिली.

पुलिस ने बच्चे के शव का निरीक्षण कर प्रथम दृष्टया हत्या की परिस्थितियां पाई. आगे हत्या के कारणों पर पुलिस ने कई पहलुओं पर बारीकी से जांच शुरू की, गोपालपुर के निर्माणाधीन स्टेडियम में जहां बालक हमेशा खेलने जाया करता था, वहां मजदूरी कर रहे रूपनारायण से सख्ती से पूछताछ की गई, जिस पर उसने बच्चे के साथ शौच जाने के दौरान अनैतिक कृत्य करना स्वीकार किया. बच्चे के इनकार करने व शोर मचाने पर गला और मुंह दबाकर हत्या करने सच्चाई स्वीकार कर ली. जिस पर पुलिस ने आरोपी को विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार कर लिया है.

अप्राकृतिक कृत्य आया सामने

जांच के दौरान पुलिस ने कई संदिग्धों से बारीकी से पूछताछ की . ग्राम गोपालपुर मे स्टेडियम में कार्यरत् मजदूरों से भी सख्ती से पूछताछ शुरू हुई. इसी दरमियान जानकारी मिली कि मजदूर के रूप नारायण को अंतिम बार गुम बालक के साथ देखा गया था. संदेही रूप नारायण से घटना के संबंध में पूछताछ की गई . उसने पुलिस को काफी गुमराह करने के बाद अंततः घटना को अंजाम देना स्वीकार किया. आरोपी रूपनारायण पिता सुखदेव उम्र 19 वर्ष निवासी ग्राम मकरबंधा थाना रामानुजनगर जो लगभग 1 माह से ग्राम गोपालपुर के स्टेडियम में अन्य मजदूरों के साथ झोपड़ी नुमा घर बना मजदूरी का काम कर रहा था. चॅूकि मृत बालक का घर स्टेडियम से नजदीक था, बालक खेलते-खेलते ग्राउण्ड आ जाता था और इससे मिलता और बात करता था जिससे बालक से आरोपी रूप नारायण अच्छी पहचान हो गई जिसका फायदा उठाकर दिनांक 4 मार्च की रात्रि करीब 7 बजे शौच जाने के बहाने बालक को अपने साथ खेत की तरफ ले गया जहां शौच करने के बाद आरोपी ने मृत बालक को खेत से लगे झाडियों के पास ले गया जहां उसके साथ अनैतिक संबंध बनाने की कोशिश करने लगा. तब बालक के द्वारा इसका विरोध किया गया इस पर घबराकर आरोपी ने बालक का नाक मुंह को दबा दिया. बच्चा खामोश हो गया और बेहोश होकर पास के गढडे में गिर गया. अपनी जान बचाने के लिए मजदूर रूपनारायण ने बालक को वहां से उठाकर झाड़ी में फेंक कर छुपा दिया और फरार हो गया.

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जरूरत, परिजन सावधान रहें!

सूरजपुर जिला के पुलिस अधीक्षक राजेश कुकरेजा ने हमारे संवाददाता से बातचीत में कहा कि मासूम के साथ हुआ यह अपराध बेहद शर्मनाक और दिल को हिला देने वाला था. वस्तुत: आज समाज में इस बात के लिए “जागरूकता” की दरकार है की हम अपने बच्चों को कैसे इस तरह के अपराध से बचा सकते हैं.
इसे हेतु परिजनों को चाहिए कि मासूम बच्चों को किसी भी अपरिचित से मेल मुलाकात के समय ध्यान रखें क्योंकि कई मामलों में यह तथ्य सामने आया है की बच्चों के साथ अप्राकृतिक कृत्य कुछ इसी तरह के लोगों द्वारा होता है.

डॉक्टर जी. आर. पंजवानी के मुताबिक ऐसे मामलों में बच्चों के परिजनों को जागरूक रहना होगा क्योंकि थोड़ी सी चूक बड़ी सी घटना का बुलावा बन सकती है.

पुलिस अधिकारी विवेक शर्मा के मुताबिक उनके 20 वर्षों के कार्यकाल में कुछ बच्चों के साथ अप्राकृतिक कृत्य के मामले सामने आए है जिनमें आरोपी आसपास के परिजन अथवा परिचित या नौकर चाकर हुआ करते हैं.

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Women’s Day Special- साइबर अपराध: महिलाएं हैं सौफ्ट टारगेट

तकनीक जितनी ताकतवर होती है, उतनी ही तीखी और तेजतर्रार भी. किसी भी समाज और देश के लिए वहां होने वाले अपराध उस के माथे पर कलंक जैसे होते हैं. अब जब से दुनिया ‘साइबर वर्ल्ड’ के दमघोंटू गुब्बारे में बंद हो कर रह गई है, तब से वहां इस तकनीक से होने वाले अपराध भी बेलगाम होने लगे हैं.

इस कड़ी में साइबर उत्पीड़न सब से आगे और बड़ी मजबूती से इनसानियत को शर्मसार कर रही है. आमतौर पर यह उत्पीड़न समाज के उस हिस्से को चोट पहुंचा रहा है जिसे हम बड़ी शान से ‘आधी दुनिया’ का तमगा दे चुके हैं यानी महिला समाज. यही वजह है कि साइबर उत्पीड़न के ऐसेऐसे किस्से हमारे सामने आते हैं कि डर के मारे रोंगटे तक खड़े हो जाते हैं.

हाल ही में दिल्ली के दक्षिणपश्चिमी जिले की साइबर सैल ने सोशल मीडिया पर 50 से ज्यादा लड़कियों और महिलाओं को परेशान करने वाले 19 साल के एक लड़के रहीम खान को फरीदाबाद, हरियाणा से पकड़ा. वह इतना शातिर दिमाग था कि महिला के नाम पर फर्जी आईडी बना कर पहले तो सोशल मीडिया प्लेटफार्म से लड़कियों और महिलाओं को दोस्ती की रिक्वैस्ट भेजता था, फिर वहां मौजूद उन के फोटो से छेड़छाड़ कर वायरल करने की धमकी देता था. साथ ही, पीड़िता को अपना अश्लील फोटो भेजने को भी कहता था. रहीम खान की इस घटिया हरकत के चलते एक लड़की तो डर की वजह से डिप्रैशन में चली गई थी.

डीसीपी इंगित प्रताप सिंह के मुताबिक, आरके पुरम की एक पीड़िता ने अपनी शिकायत में कहा था कि कोई उसे उस के ही अश्लील फोटो इंस्टाग्राम आईडी के जरीए भेज रहा है. इतना ही नहीं, वह उस से अश्लील फोटो भी मांग रहा था.

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मामले की गंभीरता को देखते हुए इस की जांच साइबर सैल को सौंपी गई. साइबर सैल प्रभारी रमन कुमार सिंह की देखरेख में टीम ने जांच शुरू की और तकनीकी जांच के बाद एसआई नीरज कुमार की टीम ने फरीदाबाद के ऊंचा गांव के रहीम खान को पकड़ लिया.

पुलिस ने रहीम खान के मोबाइल फोन से कई चैट डिटेल, महिलाओं व लड़कियों के वीडियो क्लिप और फोटो बरामद किए.

ऐसे अपराध कोई महीनेसाल में नहीं होते हैं, बल्कि भारत जैसे देश में हर दूसरे सैकंड, एक महिला साइबर उत्पीड़न का शिकार होती है. एक नया शब्द ‘ट्रोलिंग’ तो जैसे आम हो गया है. सोशल मीडिया पर महिलाओं खासकर जवान लड़कियों से गालीगलौज करना, उन्हें धमकी देना, घूरना, बदनाम करना, पीछा करना, बदला लेना और अश्लील बातें करना इसी साइबर उत्पीड़न का ही घिनौना रूप है.

हैरत और शर्म की बात है कि देश में साल 2017 से साल 2019 के बीच धोखाधड़ी, यौन उत्पीड़न और घृणा से जुड़े साइबर अपराध के 93,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए. गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने एक सवाल के लिखित जवाब में राज्यसभा को यह जानकारी दी थी.

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2017 में 21,796, साल 2018 में 27,248 और साल 2019 में 44,546 साइबर अपराध मामले दर्ज किए गए.

जी. किशन रेड्डी ने बताया, “देश में होने वाले साइबर अपराध के पीछे जो विभिन्न मंशा रही हैं, उन में निजी दुश्मनी, धोखाधड़ी, यौन उत्पीड़न, नफरत फैलाना, पायरेसी का विस्तार, सूचनाओं की चोरी आदि शामिल हैं.”

साइबर उत्पीड़न में ज्यादातर मामले प्रेमप्रसंग के होते हैं. अगर किसी लड़की या महिला ने अपने पुरुष साथी से पीछा छुड़ाना चाहा (जब ऐसा युगल शादीशुदा नहीं है) तो तिलमिलाए आशिक ने उसे सोशल मीडिया पर बदनाम करने की धमकी दे डाली. जैसे वह उन के प्रेम दर्शाते फोटो या वीडियो या फिर चैटिंग को वायरल कर देगा. दुनिया को बता देगा कि वह कितनी चरित्रहीन है.

बहुत बार तो बहुत से सिरफिरे एकतरफा आशिक भी तकनीक का गलत इस्तेमाल कर के महिलाओं को ब्लैकमेल करते हैं. घबराई महिलाएं परेशान हो कर मैसेज डिलीट कर देती हैं. पर यह समस्या का हल नहीं है, बल्कि सामने वाले को बढ़ावा देना होता है. होना तो यह चाहिए कि जो महिलाएं ऐसे अपराध या साइबर हमलों का शिकार हुई हैं, उन्हें अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए. पहले अपने परिवार वालों और फिर पुलिस में इस अपराध की शिकायत करनी चाहिए.

सवाल उठता है कि कानून इस में क्या और कितनी मदद कर सकता है? सब से पहले तो यह समझिए कि जब कोई लड़की या महिला के खिलाफ साइबर अपराध होता है, तो कानून का सहारा कैसे लिया जा सकता है? याद रखिए कि कंप्यूटर या मोबाइल फोन आदि का सहारा ले कर किए जाने वाले ऐसे मामले सीधेसीधे एक महिला की इज्जत को चोट पहुंचाने से जुड़े होते हैं. ऐसे अपराधों को भारतीय दंड संहिता की धारा 354, धारा 509 और 292(ए) में डाला जा सकता है.

भारतीय दंड संहिता की धारा 354 कहती है कि अगर किसी महिला की लज्जा भंग करने के लिए उस पर हमला या आपराधिक बल का इस्तेमाल किया जाए तो इस धारा के तहत मामला आता है. ऐसे मामलों में अपराधी को कम से कम एक साल से 5 साल की सजा और आर्थिक दंड का भी प्रावधान है.

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वहीं धारा 509 के अनुसार अगर कोई शब्द, इशारा, ध्वनि या किसी वस्तु को इस आशय से दिखाया जाए जिस से किसी स्त्री की लज्जा का अनादर होता है या जिस से उस की निजता पर अतिक्रमण होता है तो ऐसी हालत में अपराधी को 3 साल तक जेल या आर्थिक दंड या दोनों ही सजा दी सकती हैं.

गृह मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल भी बनाया गया है जिस में बताया गया है कि औनलाइन कैसे सुरक्षित रह सकते हैं. इस पोर्टल पर बच्चों और महिलाओं के साथ हो रहे साइबर अपराध की शिकायत भी दर्ज कराई जा सकती है.

ऐसा करने से बचें

-सोशल मीडिया पर अपने निजी फोटो डालने से बचें. किसी अनजान से चैटिंग करते हुए निजी बातें न करें. वीडियो भी न शेयर करें.

-सोशल मीडिया पर अपनी प्राइवेसी सैटिंग्स को पब्लिक न करें. सैटिंग्स ऐसी ही रखें कि आप के जानपहचान वाले ही आप के फोटो आदि देख सकें.

-सोशल मीडिया पर किसी अनजान को न जोड़ें. एकदम से भरोसा तो कतई न करें. अगर वह कहीं बाहर मिलने के लिए बुलाता है तो सावधान हो जाएं.

-अगर आप किसी समस्या में फंस भी जाएं तो घबराएं नहीं, बल्कि पुलिस को इस की जानकारी दें.

याद रखिए, तकनीक का यह तीखापन कानून और आप की जागरूकता व हिम्मत से ही कुंद किया जा सकता है, इसलिए सोशल मीडिया इस्तेमाल करते हुए हमेशा जागरूक रहें.

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रोजगार: अटकी भर्तियां, दांव पर करियर

1. आरएएस भर्ती. पद : 980.

कोर्ट में मामला और वजह : विभागीय मंत्रालयिक कर्मचारी व भूतपूर्व सैनिक कोटे में अपात्र अभ्यर्थी बुलाए. 3 गुना के बजाय डेढ़ गुना अभ्यर्थी बुलाए.

2. पुलिस कांस्टेबल. पद : 5,438.

कोर्ट में मामला और वजह : जिला स्तर की जगह राज्य स्तर पर मैरिट बना दी.

3. स्टेनोग्राफर. पद : 1,085.

कारण : 2018 की भरती, टाइप टैस्ट, सर्वर डाउन का विवाद.

4. प्रीप्राइमरी टीचर, 2018. पद : 1310.

कोर्ट में मामला और वजह : दूसरे राज्यों से एनटीटी की डिगरी पर विवाद.

5. पटवारी भर्ती.

कोर्ट में मामला और वजह : ओबीसी आरक्षण व विवादित आंसरकी मामला.

6. एलडीसी भर्ती, 2018. पद : 11,322.

कोर्ट में मामला और वजह : मैरिट अनुसार संभाग व गृह जिले का आवंटन नहीं. हाईकोर्ट में चुनौती दी गई तो कोर्ट को भरती में दखल देना पड़ा.

7. पशु चिकित्सा अधिकारी भर्ती. कुल पद : 900.

कोर्ट में मामला और वजह : अंक और कटऔफ जारी किए बिना इंटरव्यू के लिए बुलाया.

8. पशुधन सहायक भर्ती.

कोर्ट में मामला और वजह : सवाल व आंसरकी में गड़बड़ी. हाईकोर्ट ने रोक लगाई.

9. हैडमास्टर भर्ती. कुल पद : 1,200. कोर्ट में मामला और वजह : भूतपूर्व सैनिकों को आरक्षण का लाभ न देने का मामला विवादित.

पिछले 2 साल में जिस तरह से हर भरती पेपर लीक या कोर्ट के चक्कर में लंबित पड़ी है, उस से साफ है कि सरकार में बैठे अफसर इन भर्तियों को लेकर संवेदनशील नहीं हैं. हर साल लाखों की तादाद में इंटर, ग्रेजुएशन पास करने वाले बच्चे जब किसी सरकारी नौकरी की लिखित परीक्षा दे कर वापस अपने घर तक नहीं पहुंंच पाते हैं, तब तक परीक्षा संबंधी वैबसाइट पर पेपर लीक या परीक्षा स्थगित होने की जानकारी अपलोड कर दी जाती है.

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भरती चाहे स्थगित हो या कोर्ट में जाए, पर इन सभी बातों का नतीजा अभ्यर्थी को ही भुगतना पड़ता है. वह अभ्यर्थी जो सालोंसाल दिनरात मेहनत कर के एक अदद सी नौकरी के सपने देखता है, पर उसे पेपर लीक या स्थगित होने से निराशा ही हाथ लगती है. जिस युवाशक्ति के दम पर हम दुनियाभर में इतराते घूमते हैं, देश की वही युवाशक्ति एक नौकरी के लिए दरदर भटकने को मजबूर है.

5 लाख कर्ज, जमीन गिरवी

हरिराम बताते हैं, “पिताजी ने 5 लाख रुपए कर्ज ले कर कई सरकारी नौकरी के लिए कोचिंग कराई. सोचा था कि मैं घर में बड़ा हूं, नौकरी लग जाएगी तो छोटों को भी रास्ता दिखा सकूंगा, लेकिन सब खत्म हो गया.”

हरिराम नागौर के मेड़तासिटी इलाके के रहने वाले हैं. उन्हें पहले लाइब्रेरियन भरती में नौकरी मिल जाने की पूरी उम्मीद थी, पर पेपर ही आउट हो गया. सरकार ने इम्तिहान रद्द कर दिया. अब जब दोबारा इम्तिहान कराया जा चुका है तो रिजल्ट जारी नहीं किया जा रहा है. भरोसा है कि इस इम्तिहान में पास हो जाएंगे, लेकिन हर दिन उम्मीद धीरेधीरे टूटती जा रही है. कर्ज इतना ज्यादा हो चुका है कि जमीन बेचने के सिवाय अब कोई रास्ता नहीं दिखता.

पति की मौत, बहाली भी अटकी

सुगना दौसा के प्रेमपुरा गांव की रहने वाली हैं. साल 2009 में एनटीटी किया था. साल 2018 में सरकार ने भरती निकाली. चयन भी हो गया. अंतिम परिणामों में भी नाम था. खुशी थी कि 1-2 महीने में नौकरी मिलेगी, लेकिन इंतजार लंबा होता गया.

इसी दौरान सुगना के पति की मौत हो गई. सोचा कि नौकरी होगी तो जिंदगी ठीक से कटेगी. लेकिन सरकार की लापरवाही से नियुक्ति आदेश पर रोक लग गई.

सुगना कहती हैं, “साल 2014 में शादी हो गई थी. साल 2018 में सरकार ने एनटीटी भरती निकली तो नौकरी की आस बंधी थी.”

सुगना का नियुक्ति आदेश इसलिए रुका कि सरकार ने गीता बजाज कालेज को इम्तिहान के बाद दायरे से बाहर कर दिया.

हाईकोर्ट में जीते, अब सुप्रीम कोर्ट में

प्रभु सिंह और उन की पत्नी अंजू बीकानेर के रहने वाले हैं. प्रभु सिंह ने बताया कि साल 2010 में बीएड की थी. 2012 की शिक्षक भरती में नंबर आ गया, लेकिन रिशफल नतीजे में बाहर हो गया. इस के बाद साल 2016 की शिक्षक भरती के लैवल 2 में इंगलिश विषय में नंबर आया. इस में भी रिशफल नतीजे में बाहर कर दिया गया.

हाईकोर्ट की सिंगल और डबल बैंच ने उन के हक में फैसला दिया. लेकिन सरकार ने नौकरी देने के बजाय सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर कर दी. अब इंसाफ का इंतजार है.

प्रभु सिंह के साथ उन की पत्नी अंजू शेखावत की कहानी भी ऐसी ही है. इसी भर्ती में चयन हुआ था, लेकिन रिशफल नतीजे में बाहर कर दिया गया.

चयन हुआ, बहाली नहीं

बाड़मेर के तेज सिंह का कहना है, “हम 4 भाई और 5 बहनें हैं. घर की माली हालत अच्छी नहीं थी. पिताजी के पैसे तो मेरी और भाईबहनों की शादी और घर चलाने में ही खर्च हो गए. मुझे बीएड कराने के लिए उन्होंने 60,000 रुपए लोन लिया था.

“पहले साल 2013 की भरती में नंबर नहीं आया और फिर साल 2016 की भरती में नंबर आया तो मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया. मातापिता बुजुर्ग हो गए हैं. प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर किसी तरह घर चला रहा था, लेकिन कोरोना में लगे लौकडाउन के बाद से उस का भी वेतन अटक गया.”

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शादी का पैसा पढ़ाई पर खर्च

सांचौर तहसील में चौरा गांव है. रामशरण वहीं के रहने वाले हैं. पिता ने बेटियों की शादी के लिए खेत गिरवी रख कर 7 लाख रुपए का कर्ज लिया था. इसी रकम में से एक लाख रुपए खर्च कर रामशरण को रीट के लिए कोचिंग कराई गई. लेकिन सरकार न तो रिशफल नतीजा जारी कर रही और न ही प्रतीक्षा सूची.

रामशरण का कहना है कि रीट में 77 फीसदी से ज्यादा अंक हासिल किए. भरती के 863 पद आज भी खाली हैं. सरकार प्रतीक्षा सूची जारी करे तो नंबर आ जाएगा. मन में दर्द यह है कि बहन की शादी का पैसा पढ़ाई पर खर्च कर लिया, लेकिन नतीजा सिफर है.

नौकरी नहीं तो छोड़ गई पत्नी

गांव हसामपुर, सीकर के महेश कुमार लखेरा ने 2006-07 में ‘विद्यार्थी मित्र’ के रूप में नौकरी शुरू की. साल 2013 में शिक्षा सहायक भरती निकली, फिर 2015 में विद्यालय सहायक भरती, लेकिन दोनों ही भरतियां कोर्ट में अटक गई हैं.

दिसंबर, 2012 में शादी हुई, लेकिन कुछ दिन बाद पत्नी की मौत हो गई. दिसंबर, 2013 में दूसरी शादी की, लेकिन शादी के 4 महीने बाद अप्रैल, 2014 में सरकार ने ‘विद्यार्थी मित्रों’ को हटा दिया. बेरोजगार हो गए तो पत्नी बेटी को उन्हीं के पास छोड़ कर चली गई.

पढ़ाई में अव्वल, कर्ज की चिंता

राजसमंद के रहने वाले आदित्य शर्मा के घर वालों ने तकरीबन पौने 3 लाख रुपए कर्ज ले कर उन्हें जीएनएम का कोर्स कराया. वे हर बार फर्स्ट डिवीजन लाए. साल 2013 में जीएनएम भरती में आवेदन किया. दस्तावेज सत्यापन तक हो चुके, लेकिन नौकरी नहीं मिली.

एक बार उदयपुर मैडिकल कालेज में अर्जेन्ट टैंपरेरी बेस पर नौकरी के लिए आवेदन किया, लेकिन आदित्य बताते हैं कि वे पहली लिस्ट में 11वें नंबर पर, दूसरी लिस्ट में 21वें पर थे और तीसरी लिस्ट में बाहर कर दिए गए.

गिरवी जमीन बिकने की नौबत

अलवर के रोशनलाल सैनी ने जमीन गिरवी रख कर 11 साल पहले ढाई लाख रुपए कर्ज ले कर डीएमएलटी और बीएससी एमएलटी कोर्स किया. कुछ दिन एसएमएस अस्पताल में संविदा पर काम किया. लैब टैक्निशियन भरती 2018 में आवेदन किया. नंबर भी आ गया. दस्तावेज सत्यापन भी हो गया, लेकिन भरती कोर्ट पहुंच गई.

रोशनलाल सैनी कहते हैं, “कर्ज बढ़ कर 7 लाख रुपए से ऊपर पहुंच चुका है. चुकाने की हालत नहीं है. अब जमीन बेच कर कर्ज चुकाने की सलाह देते हैं लोग.”

जमीन बेची, करनी पड़ रही मजदूरी

बयाना, भरतपुर के रहने वाले विनोद कुमार 10वीं जमात में थे तो पिता की मौत हो गई. इस से परिवार की हालत खराब हो गई. 35,000 रुपए में जमीन बेच कर आयुर्वेद नर्सिंग का कोर्स में दाखिला लिया. जमीन का पैसा एक साल में ही खर्च हो गया तो दूसरे साल की फीस बहनोई से उधार ले कर जमा कराई.

साल 2013 में आयुर्वेद नर्सिंग की भरती में आवेदन किया, जो अब तक अटकी पड़ी है. 2014 में शादी हो गई, 2 बच्चे भी हो गए. अब बच्चों को पालने के लिए मजदूरी करनी पड़ रही है.

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गहने गिरवी, मजदूरी ही सहारा

बीपीएल परिवार के बाबूलाल सैनी को मां ने मजदूरी कर और पत्थरों को तोड़ने का काम कर के पढ़ाया. बीफार्मा का कोर्स कराते समय पैसे कम पड़े तो गहने गिरवी रखे जो आज तक नहीं छुड़ा पाए हैं.

3 बहनों के भाई बाबूलाल कहते हैं कि फार्मासिस्ट भरती निकली, लेकिन 4 बार स्थगित होने के बाद हाल में 5वीं बार रद्द हो गई. मां का सपना था कि बेटा सरकारी नौकरी कर गहने छुड़ा कर लाएगा और बहनों की शादी करेगा, लेकिन कुछ नहीं कर सका.

भरती बोर्ड में न अध्यक्ष, न सचिव

सरकारी महकमों में मुलाजिमों की भरती करने वाला राजस्थान कर्मचारी चयन बोर्ड खुद ही भरतियों की बांट जोह रहा है. बोर्ड में अब न तो अध्यक्ष है, न ही सचिव. इतना ही नहीं, बोर्ड में सदस्य तक नहीं है. ऐसे में अब बोर्ड सिर्फ कर्मचारियों के भरोसे ही चल रहा है. बोर्ड में नियुक्तियां नहीं होने से प्रदेश के लाखों अभ्यर्थियों का भविष्य अंधकार में है.

गौरतलब है कि एक साल में 2 भरती परीक्षाओं के पेपर आउट होने के बाद विवादों में आए राजस्थान कर्मचारी चयन बोर्ड के अध्यक्ष बीएल जाटावट को इस्तीफा देना पड़ा था, वहीं सचिव का तबादला होने के बाद यहां कोई अधिकारी नहीं लगाया गया है. सदस्यों का कार्यकाल पहले ही पूरा हो चुका है.

अटकी भरतियों को ले कर छात्रों की सुनवाई करने वाला बोर्ड में कोई नहीं बचा. हालत यह है कि छात्रों ने बोर्ड पर प्रदर्शन करना बंद कर दिय. ज्ञापन भी किसे दें. अब छात्रों को बोर्ड भरतियों के मामले में राजस्थान यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन करना पड़ रहा है.

दरदर भटकने को मजबूर

ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश में बेरोजगारी का ग्राफ काफी बढ़ा है. जिन नौजवानों के दम पर हम भविष्य की मजबूत इमारत की आस लगाए बैठे हैं, उस की बुनियाद की हालत बेहद निराशाजनक है. सालों से तैयारी कर रहे नौजवानों के लिए, जब अपनी राजनीति चमकाने वाले नेताओं का बयान ‘प्रदेश में नौकरी की नहीं योग्यता की कमी है’ कहा जाता है तो इसी सोच के एक दूसरे पक्ष की ओर सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता कि 21वीं सदी में मौडर्न टैक्नोलौजी अपनाने के बाद भी हम एक ऐसा सिस्टम नहीं खड़ा कर पाए हैं जो एक भरती परीक्षा को सकुशल पूरा करा सके.

बेरोजगारी नामक शब्द देश का ऐसा सच है, जिस से राजनीतिबाजों, खुद को देश का रहनुमा समझने वालों ने अपनी आंखें मूंद ली हैं. दरअसल, सरकारें चुनावी मौसम में इन लंबित भर्तियों का विज्ञापन निकाल कर वोट पाने की लालसा में रहती है. देश में बेरोजगारी की दर कम किए बिना विकास का दावा करना कभी भी न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता. देश का शिक्षित बेरोजगार युवा आज स्थायी रोजगार की तलाश में है. ऐसे में बमुश्किल किसी निजी संस्थान में अस्थायी नौकरी मिलना भविष्य में नौकरी की सुरक्षा के लिहाज से एक बड़ा खतरा है.

प्राइवेट कंपनियों या फैक्टरियों के मालिको को इस बात का आभास अच्छी तरह से है कि बेरोजगारों का दर्द क्या है. इसी की आड़ में वे कर्मचारियों का शोषण कर रहे हैं. कम तनख्वाह में काम करने के लिए कोई शख्स तभी तैयार होता है जब उस को कहीं और काम मिलने में दिक्कत हो. इन हालात में देश के युवा क्या करें, जब उन के पास रोजगार के लिए मौके नहीं है, उचित संसाधन नहीं हैं, सरकारी योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित हैं.

नौकरियों में नए पदों के सृजन पर रोक लगी हुई है, उस पर बढ़ती बेरोजगारी आग में घी डालने का काम कर रही है. सरकारों को देश में बढ़ती बेरोजगारी के लिए केवल चुनावी मौसम में कही जाने वाली बातों तक ही सीमित नही रहना होगा, बल्कि उस को धरातल पर भी उतारना होगा, वरना कहीं ऐसा न हो कि सत्ता में बैठाने वाले युवा विमुख हो कर सत्ता से बेदखल भी कर दें.

बेबस रोजगार कार्यालय

जयपुर के जिला रोजगार कार्यालय में बीते 2 साल में 2 लाख, 50 हजार, 373 युवाओं ने पंजीयन कराया है, जबकि बेरोजगारों का गैरसरकारी आंकड़ा 5 लाख से ज्यादा है, जिन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिली. प्राइवेट नौकरी के आंकड़े विभाग के पास उपलब्ध नहीं हैं.

राज्य सरकार इन युवाओं को सालाना 6,000 रुपए बेरोजगारी भत्ता देती है यानी 500 रुपए महीना, जबकि महंगाई दर तेजी से बढ़ रही है. सवाल यह है कि क्या कोई भी युवा 500 रुपए महीने में घर चला सकता है, जबकि प्रदेश के आंकड़े और भी चिंताजनक हैं? 2 साल में 8 लाख बेरोजगार रोजगार विभाग पहुंचे, लेकिन विभाग 349 करोड़ रुपए खर्च कर के सिर्फ 765 लोगों को प्राइवेट नौकरी दिला पाया.

रोजगार विभाग कहता है कि 2016 के बाद कोर्ट की रोक के बाद जिले में कोई भी चपरासी, ड्राइवर ग्रुप सी व डी तक की सरकारी नौकरी नहीं लग पाया है. जिला रोजगार विभाग का कहना है कि रोजगार मेलों में युवाओं को प्राइवेट कंपनियों में नौकरी दिलाई है, लेकिन इस में ज्यादातर को वाटरमैन, फायरमैन, गार्ड जैसे पदों पर 8,000 से 10,000 रुपए महीने की नौकरी ही मिली.

जल्द निकालेंगे हल

लंबित भरतियों के मसले पर राज्य के शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा कहते है, “प्रदेश के मुख्यमंत्री भरतियां समय पर पूरा करने को ले कर गंभीर हैं. लंबित मामलों में वित्त व विधि विभाग के अफसरों के साथ समीक्षा करेंगे. जो मामले कोर्ट में हैं, उन में देखेंगे कि किस तरह से रिलीफ दे सकते हैं. शिथिलता की जरूरत पड़े तो वह भी देखेंगे.”

सीमा ढाका: बहादुरी की मिसाल

सीमा ढाका पुलिस में जरूर हैं, लेकिन मां भी हैं. उन की संवेदनशीलता और बहादुरी ही उन्हें खास बनाती है, जिस के चलते उन्होंने 76 ऐसे बच्चों को उन के परिवारों तक पहुंचाया जो अपने जिगर के टुकड़ों के लिए तरस रहे थे. सीमा का यह सफर कतई…

कुछ देर के लिए जिगर का टुकड़ा दूर हो जाए तो कैसी छटपटाहट होती है, सभी जानते हैं. उस परिवार के लोगों पर क्या बीतती है जिन के

बच्चों को कोई चुरा ले जाए या अपहरण हो जाए. उम्मीदों के आंसू हर पल दरवाजे पर टिके रहते हैं. ऐसे ही परिवारों के लिए उम्मीद बनी हैं दिल्ली पुलिस की सीमा ढाका. जिन्होंने एकदो नहीं बल्कि 76 परिवारों की खुशियां लौटाई हैं.

उन के परिवार में त्यौहार का माहौल सा बना दिया है. महज ढाई माह में 76 बच्चों की बरामदगी सीमा के लिए आसान नहीं थी. वो भी अलगअलग राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, हरियाणा से. अधिकांश मामले भी अपहरण के थे.

दिल्ली के समयपुर बादली थाने में तैनात 33 वर्षीय सीमा ढाका दिनरात बच्चों की तलाश में लगी रहती थीं. उन्होंने 2013 से 2020 के बीच हुए सभी थानों से बच्चों के अपहरण की सूची तैयार की. एफआइआर के जरीए उन परिवारों की तलाश कर उन से बात की, बच्चों के बारे में जानकारी जुटाई.

फिर साइलैंट सिंघम बनीं सीमा ने एकएक कर हर एफआइआर के आधार पर अलगअलग तरीके से बच्चों की बरामदगी के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया.

सीमा चूंकि दिल्ली पुलिस आयुक्त के गुमशुदा बच्चों को तलाशने के लिए मिशन के तहत काम कर रही थीं. इसलिए उन के वरिष्ठ अधिकारियों का भी उन्हें पूरा सहयोग मिला.

स्टाफ उन के लिए हर समय उपलब्ध रहता था. रात बे रात कई बार दूसरे राज्यों में जाना पड़ता था.

बच्चों के अपहरणकर्ता तक पहुंचने के लिए, जिन राज्यों में बच्चों की लोकेशन मिलती, वहां पहुंच कर उस क्षेत्र की पुलिस के सहयोग से आरोपितों को पकड़ना और उन के चंगुल से बच्चों को छुड़ाने के लिए पूरा जाल बुनना आसान नहीं होता था.

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कहीं फोन पर आधारकार्ड अपडेट करने के बहाने जैसी काल कर जाल में फंसाया तो कहीं बगैर वर्दी के पहुंच पुलिस की भूमिका निभाई. पश्चिम बंगाल के डेबरा थानाप्रभारी और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में पुलिस का भरपूर सहयोग मिला. यहां आरोपितों के चंगुल को तोड़ कर किशोर को निकालना कड़ी चुनौती था.

सीमा ने चुनौतियों का सामना करना और दूसरों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहना स्कूल के समय से ही सीखा था. मूल रूप से उत्तर प्रदेश के शामली में भाज्जू गांव निवासी सीमा ने पढ़ाई भी वहीं से की. स्कूल और कालेज में सिर्फ पढ़ाई में ही अव्वल नहीं रहीं बल्कि खेलकूद, ज्ञानविज्ञान, वादविवाद की हर प्रतियोगिता में वह सब से आगे रहती थीं. गांव में घरों में इन के कौशल की मिसाल दी जाती तो किसान पिता का सिर फख्र से ऊंचा हो जाता और खुशी से आंखें भर आती थीं.

वर्ष 2006 में सीमा जब दिल्ली पुलिस में भर्ती हुईं तो उस समय उन के आसपास के गांव से भी कोई लड़की दिल्ली पुलिस में नहीं थी. हां, बाद में गांव की अन्य लड़कियों को जरूर प्रेरणा मिली, बाहर पढ़ने के लिए निकलीं और पुलिस में भी भर्ती हुईं.

पति अनीत ढाका भी दिल्ली पुलिस में हेडकांस्टेबल हैं, वह उत्तरी रोहिणी थाने में तैनात हैं. कई बार रात में जब कहीं किसी बच्चे की बरामदगी के लिए अचानक ही मिशन पर निकलना पड़ता था तो अनीत को ले कर ही निकल जाती थीं.

सुबह अपने समय से दोनों ड्यूटी पर भी मुस्तैद हो जाते थे. सीमा को परिवार के अन्य सदस्यों और सासससुर का पूरा सहयोग मिलता. जब काम का बहुत दबाव रहता तो मां जैसी सास थाने तक ब्रेकफास्ट या लंच पहुंचा देतीं. सीमा भी अपनी जिम्मेदारियों का ध्यान रखती थीं. वर्दी और सामाजिक कर्तव्यों के बीच परिवार के लिए कुछ समय जरूर निकालती हैं.

33 वर्षीय सीमा ढाका को दिल्ली पुलिस में हेडकांस्टेबल से पदोन्नत कर एएसआई बनाया गया है. दरअसल दिल्ली पुलिस आयुक्त ने 15 बच्चों को ढूंढने वाले पुलिसकर्मियों को असाधारण कार्य पुरस्कार और 14 वर्ष तक के 50 लापता बच्चों को उन के परिजनों को सौंपने पर पुलिसकर्मियों

को समय से पहले पदोन्नति देने की घोषणा की थी.

लेकिन दिल्ली पुलिस में तैनात महिला हेड कांस्टेबल सीमा ढाका ने तो अपनी बहादुरी के दम पर तकरीबन 3 महीने के दौरान 76 बच्चों को तलाश करने में कामयाबी हासिल की. इस उपलब्धि के बाद सीमा ढाका को आउट औफ टर्न प्रमोशन दिया गया है. उन्होंने जिन 76 बच्चों को खोज निकाला उन में 56 की उम्र 14 साल से भी कम है.

सीमा ढाका मूलरूप से शामली की रहने वाली हैं. शामली वही जिला है, जहां पर कुछ वर्ष पहले लड़कियों के जींस पहनने और मोबाइल फोन रखने जैसी बातों पर कई फरमान जारी हुए थे. पेशे से किसान पिता की संतान सीमा का भाई निजी क्षेत्र में जौब करता है.

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सीमा के गांव में उन के रिश्तेदार और परिवार में काफी लोग टीचिंग प्रोफेशन से जुड़े हैं. वो कहती हैं कि मैं बचपन से ही सुनती आ रही थी कि महिलाओं के लिए टीचिंग प्रोफेशन सब से बढि़या है. यही वजह थी कि उन्होंने भी शिक्षक बनने का निर्णय लिया था, इतना ही नहीं उन्होंने तो ऐसे विषय पढ़ाई के लिए चुने, जिस से शिक्षक बन सकें.

इसी दौरान दिल्ली पुलिस की भर्ती का फार्म भर दिया. संयोग से उन का चयन भी हो गया. इस तरह 2006 से वह दिल्ली पुलिस से जुड़ गईं.

सीमा का कहना है कि पढ़ाई के प्रति लगाव और जुनून ही था कि गांव से कालेज की दूरी करीब 6 किलोमीटर थी, लेकिन साइकिल से रोजाना आतीजाती थी. सीमा के पति अनीत ढाका बड़ौत के रहने वाले हैं. आउट औफ टर्न प्रमोशन पाने वालीं सीमा ढाका की उपलब्धि पर उत्तर प्रदेश के 2-2 जिलों में जश्न का माहौल है.

सीमा बेहद भावुक महिला हैं. कहा जाता है कि पुलिस काफी सख्त होती है, लेकिन सीमा को देख कर ऐसा नहीं लगता.  8 साल के बच्चे की मां सीमा की मानें तो जब भी बच्चों की गुमशुदगी की बात आती थी तो गुस्सा आता था.

यही वजह थी कि पुलिस टीम के साथ बैठक में उन्होंने खुद गुमशुदा बच्चों को तलाशने वाली सेल में काम करने की इच्छा जाहिर की थी. अधिकारियों ने भी सीमा ढाका की कमिटमेंट पर भरोसा किया और नतीजा सामने है. अब महकमा अपनी हेड कांस्टेबल सीमा ढाका पर गर्व कर रहा है.

समयपुर बादली पुलिस थाने में तैनात महिला हेड कांस्टेबल सीमा ढाका को खुद दिल्ली पुलिस कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव ने आउट आफ टर्न प्रमोशन देते हुए एएसआई का बैज लगाया. आउट औफ टर्न प्रमोशन पाने वाली सीमा दिल्ली पुलिस की पहली महिला कर्मचारी बन गई.

सीमा ढाका ने दिल्ली, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब के बच्चों को बचाया है. उन के लिए हर बच्चे को अपहर्ताओं के चंगुल से छुड़ाना एक नई तरह की चुनौती से कम नहीं था.

पिछले साल अक्तूबर में पश्चिम बंगाल से एक नाबालिग को छुड़ाना था. पुलिस दल ने नावों में यात्रा की और बच्चे को खोजने के लिए बाढ़ के दौरान दो नदियों को पार किया. लड़के की मां ने साल भर पहले शिकायत दर्ज की थी, लेकिन बाद में अपना पता और मोबाइल नंबर बदल दिया था.

सीमा उसे ट्रेस नहीं कर सकीं. लेकिन वे जानती थीं कि वे पश्चिम बंगाल से ही हैं. तलाशी अभियान शुरू किया गया. वे एक छोटे से गांव पहुंचीं, जहां बाढ़ के दौरान 2 नदियों को पार किया. किसी तरह वह बच्चे को उस के रिश्तेदार के पास से छुड़ाने में कामयाब रहीं.

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नुजहत परवीन: छोटे शहर की बड़ी क्रिकेटर

भारतीय महिला ट्वैंटी20 क्रिकेट टीम की सदस्य नुजहत परवीन सिंगरौली जैसे एक छोटे शहर से आती हैं. बेहद सीमित संसाधनों और बड़े स्तर पर क्रिकेट का माहौल न होने के बाद भी वे लगातार आगे बढ़ी हैं. शुरुआती दिनों में वे क्रिकेट नहीं, बल्कि फुटबाल खेलती थीं, लेकिन एक दिन जब वे क्रिकेट के मैदान में पहुंचीं, तो कोच ने उन्हें विकेटकीपर के दस्ताने पहना दिए. क्रिकेट और उसके नियमों से एकदम अनजान नुजहत परवीन ने पहले मैच में ही अपने हुनर का शानदार प्रदर्शन किया. विकेट के पीछे तो वे कामयाब रहीं ही, विकेट के आगे बल्ले से भी उन्होंने धमाल मचाया. संभाग स्तर पर ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से उन में आत्मविश्वास आ गया और फिर उन का वह सफर शुरू हो गया, जिस की कल्पना खुद उन्होंने भी कभी नहीं की होगी.

नुजहत परवीन अपने अंदाज में खेलती गईं और उनका हुनर उनकी कामयाबी की कहानी लिखता गया. आज खेल के दम पर ही वे भारतीय रेलवे के साथ जुड़ी हैं और उन के परिवार में भी खुशहाली का माहौल है.

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देशप्रदेश की राजनीति में अपनी पहचान बनाने के बाद अब रीवा संभाग देश और प्रदेश के खेल नक्शे पर भी उसी अंदाज में दिखने लगा है खासकर क्रिकेट में हाल के सालों में रीवा ने बहुत ज्यादा तरक्की की है. अवधेश प्रताप सिंह स्टेडियम में क्रिकेट टर्फ विकेट बनने के बाद यहां खेल में बड़ा शानदार बदलाव आया है.

रीवा के तेज गेंदबाज ईश्वर पांडे भारतीय क्रिकेट टीम में चुने जाने वाले इस संभाग के पहले खिलाड़ी थे. अब सिंगरौली से निकली विकेटकीपर बल्लेबाज नुजहत परवीन नैशनल लैवल पर अपनी पहचान तेजी से बना रही हैं. उन्हें एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 7 मार्च से शुरू हुई ट्वैंटी20 महिला क्रिकेट सीरीज के लिए टीम में शामिल किया गया.

वे पहले भी देश की टीम का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं. हाल में हुए महिला आईपीएल की 3 टीमों में से एक टीम में वे भी शामिल थीं. उन की एक विस्फोटक बल्लेबाज के रूप में पहचान है. एक तरह से वे ट्वैंटी20 टीम की अब नियमित सदस्य बन गई हैं. उन के आतिशी अंदाज के चलते ही उन्हें भारतीय महिला क्रिकेट का ‘धौनी’ कहा जाता है. राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कई बेहतरीन पारियां खेली हैं.

सनद रहे कि नुजहत परवीन एक मध्यमवर्गीय परिवार से आती हैं. उन के परिवार में कोई क्रिकेट के बारे न अच्छी तरह जानता था और न ही इस खेल में कोई खास दिलचस्पी ही थी. नुजहत परवीन आज जिस मुकाम पर हैं, वहां पहुंचने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है, लेकिन उन को परखने, निखारने और आगे बढ़ने का जज्बा पैदा करने वाला और कोई है. रीवा संभाग के बीसीसीआई के ए लैवल के कोच एरिल एंथोनी ने ही उन के हुनर को परखा और फिर जीजान से उसे निखारने में जुट गए.

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एरिल एंथोनी की पारखी निगाहों ने पहली नजर में ही नुजहत परवीन के टैलेंट को पहचान लिया था. उन के आक्रामक अंदाज को बनाए रखने के लिए उन्होंने उन में शौट सलैक्शन की समझ, गेंद की चाल और दिशा को भांपने की कला पैदा की. उन का तकनीकी पक्ष मजबूत करने के लिए भी कोच ने उन्हें वे सारे गुर सिखाए जो एक बेहतर बल्लेबाज बनने के लिए जरूरी होते हैं.

नुजहत परवीन आज विकेट के पीछे भी उतनी ही चपल हैं जितनी विकेट के आगे मुस्तैद रहती हैं. उन के जुनून और कोच की मेहनत ने उन में एक विस्फोटक बल्लेबाज पैदा कर दिया है.

इस समय रीवा के कई क्रिकेटर मध्य प्रदेश रणजी टीम में अपने हुनर का लोहा मनवा रहे हैं. रीवा के महज 24 साल के कुलदीप सेन इस समय मध्य प्रदेश के प्रमुख तेज गेंदबाज हैं. वे भी ईश्वर पांडे की ही तरह के तेज गेंदबाज हैं.

कुलदीप सेन के आंकड़ों की बात की जाए तो वे अब तक प्रथम श्रेणी, लिस्ट ए और ट्वैंटी20 के तकरीबन 32 मैचों में 55 से ज्यादा विकेट ले चुके हैं. उन के हुनर को भी खोजने, निखारने और संवारने का काम एरिल एंथोनी ने किया है. एरिल खुद भी कभी एमआरएफ पेस फाउंडेशन में आस्ट्रेलिया के तेज गेंदबाज डेनिस लिली की निगरानी में निखरे हैं. एरिल खतरनाक तेज गेंदबाज थे, पर किन्हीं वजह से वह बड़े फलक पर नही आ सके, लेकिन आज वे उसी जुनून के साथ रीवा संभाग के खिलाड़ियों की राष्ट्रीय स्तर की फौज तैयार करने में जुटे हैं.

यहां “डाल डाल” पर ठग बैठे हैं

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