Short Story : निम्मो

Short Story : नैशनल हाईवे की उस सुनसान सड़क पर ट्रक ड्राइवर ने जब विजय को उस के गांव से 8 किलोमीटर पहले उतारा, तो विजय को इस बात की तसल्ली थी कि गांव न सही, लेकिन गांव के करीब तो पहुंच ही गया. लेकिन इस बात का मलाल भी था कि जहां किराएभाड़े के तौर पर पहले 400-500 रुपए लगा करते थे, वहीं आज उसे 4,000 रुपए देने पर भी अपने गांव पहुंचने के लिए 8 किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ेगा.

अब विजय सुनसान दोपहर में गरम हवाओं के थपेड़े सहता हुआ नैशनल हाईवे से तेजी से अपने गांव की तरफ बढ़ रहा था. चारों तरफ सन्नाटा पसरा था. सामान के नाम पर साथ में बस एक बैग था, जिसे अपने कंधे पर लटकाए पसीने से तरबतर वह लगातार चल रहा था.

अभी गांव कुछ ही दूरी पर था कि एक ठंडी हवा के झोंके से उस का धूप से झुलस कर मुरझाया चेहरा खिल उठा.

गांव से पहले पड़ने वाले अपने खेत में लहलहाती फसल देख कर विजय के तेजी से चल रहे कदमों ने दौड़ना शुरू कर दिया. वह दौड़ते हुए ही अपने खेत में दाखिल हुआ और वहां काम कर रहे अपने बाबा से लिपट गया.

‘‘अरे, देखो तो कौन आया है…’’ विजय के बाबा ने खेत में बनी झोपड़ी में काम कर रही उस की मां को आवाज लगाई.

‘‘अरे विजय बेटा, कैसा है तू? और यह क्या हालत बना ली… देख, कितना दुबलापतला हो गया है,’’ कहते हुए विजय की मां झोपड़ी से भाग कर के पास आई.

‘‘इतने दिनों के बाद देखा है न मां, इसीलिए ऐसा लग रहा है तुम्हें. और वैसे भी अब तो गांव में तुम्हारे हाथों का ही बना खाना मिलेगा, खिलापिला कर कर मुझे कर देना मोटाताजा,’’ कहते हुए विजय ने मां को गले से लगा लिया.

‘‘धूप में चल कर आया है, देख कितना गरम हो गया है. यहां ज्यादा मत रुक, घर जा कर आराम कर ले… और हां, निम्मो को भी लेता जा साथ में, वह तुझे खाना बना कर खिला देगी.’’

‘‘निम्मो.. निम्मो यहां क्या कर रही है?’’ विजय ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘अरे, तुझे तो मालूम है कि निम्मो के मांबाबा हमारे गांव में बाहर से आ कर बसे हैं. उन का खुद का खेत तो है नहीं, इसलिए वे लोग काम करने किसी दूसरे के खेत में जाते हैं. निम्मो उन के साथ नहीं जाती.

‘‘निम्मो का भाई अपने मामा के यहां बिजली का काम सीखने शहर चला गया. यह बेचारी घर में बैठी बोर हो जाती है…’’

मां ने आगे कहा, ‘‘एक दिन मैं और तेरे बाबा खेत के लिए निकल रहे थे तो यह मुझ से बोली, ‘काकी, आते वक्त अपने खेत से बेर लेती आना, मुझे बेरी के बेर बहुत भाते हैं…’

‘‘तो मैं बोली, ‘खुद ही आ कर तोड़ ले और जितने मरजी ले जा…’

‘‘तब से जब भी मन करता है, यह हमारे खेत चली आती है,’’ कह कर मां ने निम्मो को आवाज लगाई.

बेर की गुठली थूकते हुए जैसे ही निम्मो झोपड़ी से बाहर आई, विजय हैरान रह गया. गांव के सरकारी स्कूल में उसी की क्लास में पढ़ने वाली निम्मो अब काफी बदल चुकी थी. पहले तो न कपड़ों का कोई अतापता था, न बालों की कोई सुधबुध होती थी.

लेकिन आज निम्मो की खूबसूरती देख कर विजय को यकीन नहीं हुआ. खुले बाल, गोरा रंग, भरापूरा बदन और बिना किसी मेकअप के चेहरे पर लाली दमक रही थी.

विजय भी यह सोच कर हैरान था कि इतने कम समय में इतना बदलाव कैसे आ सकता है. हालांकि पिछले 3 सालों में वह 2 बार गांव आया था, लेकिन दोनों बार ही निम्मो अपने मामा के यहां गई हुई थी.

‘‘हां काकी…’’ पास आ कर निम्मो विजय की मां से बोली.

‘‘तू विजय के साथ घर जा और इसे खाना बना कर खिला देना, फिर भले ही अपने घर चली जाना. हम लोग भी थोड़ा जल्दी आने की कोशिश करेंगे,’’ मां ने निम्मो से कहा, तो निम्मो ने हां में सिर हिलाया और इकट्ठा किए हुए बेरों से भरी अपनी थैली लेने झोपड़ी की ओर चली गई.

जब वह वापस आई तो विजय की ओर देख कर बोली, ‘‘चलिए.’’

मांबाबा को जल्दी घर आने की कह कर विजय निम्मो के साथ घर के लिए निकल पड़ा.

रास्ते में निम्मो बेर निकाल कर विजय की तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘ये लो बेर खाओ, रास्ते में अच्छा टाइमपास हो जाएगा.’’

विजय ने उस के हाथों से बेर ले लिए और चलते हुए उस की नजरों से बच कर उसे देखने लगा.

निम्मो थैली से बेर निकालती और उसे तब तक चूसती, जब तक उस का सारा रस न निकल जाता और फिर फीका पड़ने पर थूक देती.

विजय भी निम्मो के अंदाज में बेर खाते हुए उस के साथ चल रहा था. चलते वक्त निम्मो के सीने पर होने वाली हलचल बारबार उस का ध्यान खींच रही थी.

निम्मो की जब इस पर नजर पड़ी तो उस ने दुपट्टे से ढक लिया. लेकिन दुपट्टा भी विजय की नीयत की तरह बारबार फिसल रहा था.

‘‘लौकडाउन हुआ तो गांव की याद आ गई, वरना तुम्हारे तो दर्शन ही दुर्लभ थे,’’ बेर की गुठली थूकते हुए निम्मो बोली.

‘‘इस से पहले भी 2 बार आया था, लेकिन तू नहीं मिली. काकी से पूछा तो बोली मामा के यहां गई हुई है,’’ विजय ने भी शिकायती लहजे में कहा.

‘‘और जिस दिन मैं आई तो काकी बोली कि विजय आज सुबह ही शहर के लिए निकला है. मतलब, इस थोड़े से फासले की वजह से तुम्हारे दर्शन नहीं हो पाए,’’ निम्मो ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘हां, ऐसा ही समझ,’’ विजय ने कहा.

पूरे रास्ते निम्मो तीखे सवाल करती तो विजय उन का मीठा सा जवाब दे देता और विजय कोई मीठा सवाल करता तो निम्मो उस का खट्टामीठा जवाब दे देती.

बातों का यही स्वाद चलतेचलते एकदूसरे के दिलों में झांकने का जरीया बना और इसी की बदौलत दोनों एकदूसरे के दिल का हाल जान पाए.

बेरों से भरी थैली भी तकरीबन आधी हो चुकी थी और अब घर भी आ गया था.

घर पहुंच कर विजय नहाने चला गया और निम्मो रसोई में खाने की तैयारी करने लगी.

विजय नहाधो कर आया, तब तक खाना भी तैयार था. निम्मो ने उसे खाना खिलाया, फिर विजय ने उसे चाय बनाने को कह दिया और खुद कमरे में अपना बैग खोल कर उस में नीचे दबा कर लाए हुए कुछ रुपए अलमारी में रख कर निढाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़ा. थकावट की वजह से कब उस की आंख लग गई और उसे पता ही नहीं चला.

निम्मो जब तक चाय ले कर आई, तब तक विजय को नींद आ चुकी थी. निम्मो ने उसे उठाना मुनासिब नहीं समझ और वापस रसोई की ओर मुड़ी. तभी उस की नजर विजय के बैग के पास बिखरे सामान पर पड़ी तो वह हैरान रह गई. उस के सामान के साथ कुछ गरमागरम पत्रिकाएं भी पड़ी थीं.

यह देख एक बार तो निम्मो को बहुत गुस्सा आया, लेकिन बाद में उस ने धीरे से चाय की ट्रे नीचे रखी और उन पत्रिकाओं को उठा कर देखने लगी.

उस ने बैग के अंदर हाथ डाला तो 2-4 पत्रिकाएं और निकलीं, जो कुछ हिंदी में तो कुछ इंगलिश में थीं.

निम्मो ने एक के बाद एक उन के पन्ने पलटने शुरू किए. हर पलटते पन्ने के साथ उस के सांसों की रफ्तार भी बढ़ने लगी. सांसों में गरमाहट महसूस करते हुए वह कभी बिस्तर पर लेटे विजय की ओर देखती, तो कभी मैगजीन में छपी बोल्ड तसवीरें.

कुछ तसवीरें देख कर तो वह ऐसे ठहर जाती मानो यह सब उसी के साथ हो रहा हो, जबकि कुछ तसवीरों ने तो उस के दिलोदिमाग में घर कर लिया था.

तभी अचानक विजय ने करवट बदली तो वह सहम गई, जिस से उस के हाथ से मैगजीन छूट कर चाय की ट्रे पर जा गिरी.

इस आवाज से विजय की आंख खुली और निम्मो के हाथ में मैगजीन देख वह चौंक कर खड़ा हो गया.

एक बार तो निम्मो भी शर्म से पानीपानी हो गई थी. विजय अपनी सफाई में कुछ कहता, उस से पहले निम्मो ने आगे बढ़ कर उसे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘कमबख्त शहर में यही सब करते हो क्या तुम?’’ निम्मो ने पूछा.

खुद को निम्मो की बांहों में पा कर विजय हैरान तो था, साथ ही वह उस की मंशा जान चुका था.

विजय ने अपनी सफाई में कहा, ‘‘ये सब मेरी नहीं हैं, उस ट्रक ड्राइवर की हैं, जिस ने मुझे सड़क तक छोड़ा था. ट्रक में रखी इन पत्रिकाओं को देख कर मैं ने लौकडाउन में टाइमपास के लिए पढ़ने के लिए मांगी तो उस ने दे दीं.’’

‘‘जरा भी शर्म है तुम में? मेरे होते हुए इन से टाइमपास करोगे तुम? पता है, कितनी तरसी हूं मैं तुम्हारे लिए… हर दूसरे दिन काकी से तुम्हारे बारे में पूछती रहती थी. यह तो अच्छा हुआ कि मुझे मांबाबा ने फोन नहीं दिलाया वरना मैं फोन कर के रोज तुम्हें परेशान करती,’’ विजय को अपनी बांहों में जकड़ते हुए निम्मो ने कहा, तो विजय ने उसे बिस्तर पर धकेल दिया.

निम्मो के अंगों को प्यार से सहलाते हुए विजय ने कहा, ‘‘मैं भी तुझे बहुत चाहता हूं पगली, पर अब तक यह सोच कर चुप रहा कि न जाने तेरे मन में क्या होगा.’’

‘‘अब तो पता चल गया न कि मेरे मन में क्या है?’’ निम्मो ने पूछा, तो विजय पागलों की तरह उसे चूमने लगा और इस प्यार की सारी हदें पार करने के बाद विजय के साथ चादर में लिपटी निम्मो बोली, ‘‘विजय… आज तुम्हारा प्यार पा कर निम्मो विजयी हुई.’’

विजय ने निम्मो के माथे को चूमते हुए फिर से उसे अपनी बांहों में भर लिया.

लेखक – पुखराज सोलंकी

Social Story : पाखंडी तांत्रिक

Social Story : अचानक रिम्मी को पैरानौइड पर्सनालिटी डिसऔर्डर नाम की बीमारी के कुछ दौरे ही पड़े होंगे कि मां झट से गईं और चप्पल से रिम्मी पर अनगिनत वार करती चली गईं.

हालांकि उन्हें यह बहुत बाद में पता चला कि यह कोई बीमारी है, जिसे मैडिकल साइंस में पैरानौइड पर्सनालिटी डिसऔर्डर कहा जाता है. वरना उस दिन रिम्मी की मां ने तो किसी ऊपरी साए का चक्कर समझ कर उस साए पर चप्पलों की बरसात कर दी थी, जबकि दर्द रिम्मी को सहना पड़ रहा था.

रिम्मी की मां ने रिम्मी को दौरे पड़ने वाली बात को समाज से छिपाए रखी, शायद इसलिए क्योेंकि रिम्मी की शादी एक साल पहले ही विजय से तय हो चुकी थी.

विजय एक अच्छे परिवार और पढ़ेलिखे घर का सुशील और गुणवान लड़का था और पेशे से सीबीआई अफसर भी. रिम्मी और विजय दोनों ही एकदूसरे को कालेज से पसंद भी करते आए थे. ऐसे में मां नहीं चाहती थीं कि महल्ले वालों को रिम्मी की इस बीमारी के बारे में पता चले और इतनी अच्छी ससुराल हाथ से निकल जाए.

रिम्मी को जब कभी भी ऐसे दौरे पड़ते, उस के थोड़ी देर बाद ही वह अपनेआप शांत हो जाती. उसे बिलकुल भी याद नहीं रहता कि उस के साथ क्या हुआ और उस ने कैसीकैसी हरकतें कीं.

पर हुआ वही, जो रिम्मी की मां नहीं चाहती थीं. अब भला रिम्मी के घर से उस के चिल्लाने की अजीबोगरीब आवाज आना, रोनाबिलखना भला कोई कैसे अनसुना कर सकता था.

एक दिन ठेले पर सब्जी लेते समय सुनीता आंटी ने पूछ ही लिया, ‘‘अरे रिम्मी की मां, सुनो तो जरा. यह रिम्मी को क्या हो गया है? अगर कोई बात है तो बताओ?’’

सुनीता आंटी पड़ोस में ही रहती थीं और इसीलिए बाकियों से ज्यादा उन के साथ रिम्मी की मां के अच्छे संबंध थे.

मां ने अभी तक अपना यह दुख किसी के साथ नहीं बांटा था, शायद इसी वजह से सुनीता आंटी के जरा से पूछ लेने पर उन से रहा नहीं गया और दिल खोल कर सारी बात बता दी. उन्हें लगा कि शायद इन के पास इस मुसीबत का कोई हल हो.

‘‘अरे इतनी सी बात के लिए इतना घबरा रही थीं आप. एक बार मुझे पहले ही बता तो दिया होता, अब भला रिम्मी हमारी बेटी नहीं है क्या,’’ सुनीता आंटी के इतना कहने पर रिम्मी की मां को आशा की एक किरण दिखने लगी. मां को लगा कि शायद सुनीता आंटी के पास इस समस्या का कोई समाधान जरूर है.

‘‘अरे, मैं ने ऐसी कई लड़कियों को देखा है, जिन पर ऊपरी चक्कर या अन्य कोई दोष होता है और उस के चलते वे अजीबअजीब सी हरकतें करने लगती हैं.

‘‘डरो मत, मैं एक ऐसे तांत्रिक बाबा को जानती हूं, जो सिर्फ माथा छू कर सारी समस्याओं की जड़ बता देते हैं,’’ सुनीता आंटी ने रिम्मी की मां से कहा.

मां ने बिना कुछ सोचेसमझे सुनीता आंटी से तांत्रिक के यहां चलने की बात पक्की भी कर ली.

‘‘चलो रिम्मी उठो, जल्दी उठो और तैयार हो जाओ. हमें कहीं जाना है,’’ मां ने सुबहसुबह ही रिम्मी को नींद से जबरदस्ती उठा लिया.

‘‘क्या हुआ मां, कहां जाना है? बताओ पहले…’’ रिम्मी ने लेटेलेटे ही मां से पूछा.

‘‘वे सुनीता आंटी एक तांत्रिक बाबा को जानती हैं. वे बड़े ही पहुंचे हुए बाबा हैं. वे तुझे देखते ही बता देंगे कि क्या परेशानी है और फिर तेरा इलाज भी कर देंगे,’’ मां ने रिम्मी को समझाया.

‘‘मां, आप भी कैसेकैसे लोगों की बातों में आ जाती?हैं और वह भी आज के जमाने में. आप ने यह कैसे सोच लिया कि मैं आप के साथ चलने को तैयार हो जाऊंगी.’’

‘‘बेटी, एक बार चल कर देखने में क्या हर्ज है. और क्या पता, किस का तुक्का ठीक बैठ जाए. हमें तो बस तेरे ठीक होने से मतलब है. अभी तेरी शादी होने में सिर्फ 6 महीने ही बचे हैं न? उस से पहले ही ठीक होना है न तुझे?’’ पिताजी ने भी मां की तुक में तुक मिला कर रिम्मी को समझाया.

रिम्मी भी न नानुकुर करतेकरते मान ही गई और तांत्रिक के पास चलने के लिए राजी हो गई.

तांत्रिक का ठिकाना बड़ा ही घनचक्कर कर देने वाला था. पता नहीं कितनी पतलीपतली संकरी गलियों के अंदर उस ने अपना घर बना रखा था. सुनीता आंटी ने मां और रिम्मी को दरवाजे पर ही समझा दिया था कि जाते ही उन बाबा के पैर पकड़ कर आशीर्वाद ले लेना.

तांत्रिक के घर पर पहले से ही 4-5 लोग बैठे हुए थे. रिम्मी को बड़ी हैरत हुई कि आज भी इतने लोग डाक्टरों को छोड़ कर इन पाखंडियों के पास आते हैं. फिर सोचा कि अगर इतने लोग अपना इलाज कराने आए हैं, तो जरूर इस तांत्रिक में कोई तो बात होगी.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद रिम्मी का नंबर भी आ ही गया. रिम्मी ने इस से पहले कभी किसी तांत्रिक को रूबरू नहीं देखा था, सिर्फ टैलीविजन पर ही देखा था. उस को लगा था कि कोई काला कुरतापाजामा पहने खोपडि़यों की माला और ढेर सारी अंगूठियां पहने, काला टीका लगाए, आग जलाए बैठा होगा, पर अंदर जाते ही उस ने देखा कि तकरीबन 40-45 साल का एक आदमी फौर्मल कपड़ों में अपने सोफे पर बैठा हुआ था. हां, अंगूठियां तो उस ने भी पहनी थीं, पर इतनी नहीं. और माथे पर काला टीका भी लगाया हुआ था.

तांत्रिक सुनीता आंटी को जानता था, शायद इसलिए उस ने सब लोगों के लिए चाय और बिसकुट का भी इंतजाम किया.

रिम्मी से तांत्रिक ने उस की बीमारी के बारे में पूछा और अंदर बने एक कमरे में ले जा कर कुछ जादूटोना कर के कई तरह के प्रपंच करने लगा, जिन का रिम्मी पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

फिर रिम्मी को बाहर ले जा कर उस ढोंगी तांत्रिक ने मां को भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘देखो, किसी भटकती आत्मा ने रिम्मी के शरीर को अपना वास बना लिया है, पर घबराने वाली कोई बात नहीं है…

‘‘ऐसे केस मेरे पास आएदिन आते रहते हैं. मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं,’’ तांत्रिक अपनी बड़ाई करते थक नहीं रहा था कि अगले ही पल असली मुद्दे पर आ गया.

‘‘देखिए, इस तरह की आत्माओं से निबटने के लिए अकसर खास तरह की पूजा कराने की जरूरत पड़ती है और एक बकरे की बलि भी देनी ही पड़ती है.

‘‘इस सब पर कम से कम 40,000 से 50,000 रुपए का खर्चा तो मान कर ही चलिए, लेकिन आप लोग चिंता मत कीजिए, सारी सामग्री का इंतजाम हम खुद ही कर लेंगे. अगर आप को ठीक लगे तो बताना. आगे की विधि मैं आप को उस के बाद ही बताऊंगा.’’

रिम्मी चालाकी दिखाते हुए बोली, ‘‘बाबाजी, आप बस अपना खर्च बता दीजिए, सामग्री का इंतजाम हम खुद कर लेंगे.’’

‘‘नहीं बेटी, यह कोई ऐसीवैसी सामग्री नहीं है, जो कहीं पर भी मिल जाए. यह सारी सामग्री हमारे सिद्ध गुरुजी की आज्ञा से विशेष विधि से लाई जाती है, इसलिए यह काम तुम हम पर ही छोड़ दो.’’

तांत्रिक अपना उल्लू सीधा करने के मकसद से बोल रहा था. सब ने तांत्रिक से अलविदा ली और जैसे ही जाने के लिए मुड़े, वैसे ही तांत्रिक ने टोकते हुए फीस के नाम पर पहली ही मुलाकात में रिम्मी की मां से 5,000 रुपए ऐंठ लिए.

रिम्मी को तांत्रिक द्वारा 5,000 रुपए मांगने वाली बात पर कुछ शक हुआ. वे समझ चुकी थीं कि यह तांत्रिक के नाम पर पाखंडी है, पर उस की मां तांत्रिक की बातें आंख बंद कर मानने लगी थीं.

घर पहुंचते ही रिम्मी के फोन पर विजय का फोन आया, तो वह चुपचाप अपने कमरे की ओर निकल गई और तांत्रिक की बात बताने लगी.

मां और पिताजी ने रिम्मी से कहा कि वे तांत्रिक बाबा से विशेष क्रियाकर्म करवाएंगे.

रिम्मी ने भी इस बात का कोई विरोध नहीं किया और बड़ी आसानी से मान गई.

मां ने तुरंत तांत्रिक को फोन लगाया और आगे की सारी विधि समझ ली.

तांत्रिक ने उन्हें बताया, ‘अमावस्या की रात को मैं जो पता बताने जा रहा हूं, वहां पहुंच जाना. हम रिम्मी के अंदर बैठी उस दुष्ट आत्मा को बोतल में कैद कर अपने साथ ले जाएंगे और रिम्मी को उस दुष्ट आत्मा से हमेशा के लिए मुक्त कर देंगे.’

अमावस्या की रात भी आ चुकी थी और रिम्मी की मां और पिताजी उसे ले कर तांत्रिक के बताए उस पते पर पहुंच गए थे.

तांत्रिक पहले ही रिम्मी के पिताजी से पूरे 50,000 रुपए की दक्षिणा मांग लेता है और रिम्मी को अपने साथ खुफिया कमरे में ले जा कर उस से कहता है, ‘‘रिम्मी, अब अपने सारे कपड़े उतार कर इस आसन पर बैठ जाओ. इस विशेष पूजा में तन पर कोई कपड़ा नहीं होना चाहिए, वरना वह आत्मा कभी तुम्हारे अंदर से नहीं निकल पाएगी.’’

इतना कहते ही रिम्मी ने एक जोरदार तमाचा तांत्रिक के गाल पर जड़ दिया, उतने में ही विजय अपने कई साथियों के साथ दौड़ता हुआ उस कमरे का गेट तोड़ कर अंदर जा घुसा.

रिम्मी के मां और पिताजी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा है और जमाई राजा यहां कैसे आ गए, वह भी इतने आदमी ले कर.

विजय ने अंदर पहुंचते ही उस तांत्रिक के हाथों में हथकड़ी डाली, तो पिताजी ने विजय से पूछा, ‘‘बेटा, यह सब क्या है?’’

‘‘पापाजी, शायद आप लोगों को यह नहीं मालूम कि यह तांत्रिक नहीं, बल्कि डकैत?है. इस ने लोगों को ठगने का नया तरीका ढूंढ़ लिया है. पिछले कई महीनों से हमारे डिपार्टमैंट को इस की तलाश थी. यह अब लोगों को लूटने उन के घर नहीं जाता, बल्कि लोग इस के पास खुद आते हैं अपनेआप को लुटवाने के लिए.

‘‘यह पाखंडी लोगों को ठीक करने का झूठा वादा कर के उन से हजारोंलाखों रुपए तक वसूल लेता है और फिर किसी दूसरे शहर में अपना शिकार ढूंढ़ने के लिए निकल जाता है.’’

विजय ने उस पाखंडी बाबा की सचाई रिम्मी के पिताजी को बताई, जिसे रिम्मी की मां भी सुन रही थीं.

‘‘पर बेटा, तुम्हें कैसे पता चला कि हम लोग रिम्मी को ले कर इस तांत्रिक के पास आए हुए हैं?’’ मां ने हैरान होते हुए विजय से पूछा.

‘‘मांजी, जिस दिन आप रिम्मी को पहली बार इस डकैत के पास ले कर गई थीं, उस दिन मैं ने रिम्मी से बात करने के लिए उसे फोन लगाया था. तब रिम्मी ने मुझ सारी बात बताई.

‘‘रिम्मी ने मुझे इस के बारे में जोकुछ बताया और वह फीस के 5,000 रुपए के बारे में बताया, तो मेरे दिमाग की बत्ती जली. मुझे याद आया कि कहीं यह वही तांत्रिक तो नहीं जिस की तलाश मैं और मेरे साथी कई महीनों से कर रहे हैं.

‘‘मैं ने तुरंत इस तांत्रिक का स्टिंग आपरेशन करने का प्लान बनाया और फोन पर ही सारी योजना रिम्मी को समझा दी.

‘‘और आज जब आप लोग अपने घर से निकले, तब हम ने आप लोगों का पीछा किया था, क्योंकि इस के अड्डे तक हमें सिर्फ आप ही पहुंचा सकते थे.

‘‘अपनी योजना के मुताबिक हम सारे अफसर अपना हुलिया बदल कर गाड़ी में बैठेबैठे रिम्मी की माला पर लगे स्पाई कैमरे से सबकुछ लाइव देख रहे थे और जैसे ही रिम्मी ने इसे तमाचा मारा, हम समझ गए कि कोई बात जरूर है और अंदर इसे दबोचने चले आए.’’

इतना कह कर रिम्मी की ओर देखते हुए विजय ने बताया, ‘‘मांजी, मैं ने रिम्मी की बीमारी के बारे में कुछ दिनों पहले ही अपने दोस्त से फोन पर पूछा था, जो लंदन में एक मनोचिकित्सक है.

‘‘उस ने बताया कि रिम्मी के अंदर किसी आत्मा का वास नहीं, बल्कि पैरानौइड पर्सनालिटी डिसऔर्डर की बीमारी है. इस की वजह से अकसर मरीज अजीबअजीब सी हरकतें करने लगता है, जैसे बहुत गुस्सा आने के चलते अपना आपा खो देना, किसी पर विश्वास न करना, अकेले रहना, पर यह बीमारी डाक्टर के इलाज से जल्दी ठीक भी हो जाती है.’’

विजय यह सब बातें बताते समय तांत्रिक को गुस्से भरी आंखों से घूरे जा रहा था.

इस के बाद विजय ने उस तांत्रिक से रिम्मी के 50,000 और उस दिन की फीस के 5,000 रुपए भी वसूल कर रिम्मी के पिताजी को दे दिए.

लेखक – हेमंत कुमार

Family Story : न्याय अन्याय

Family Story : कुंडी खड़कने की आवाज सुन कर निम्मी ने दरवाजा खोला, ‘‘जी कहिए…’’ निम्मी ने बाहर खड़े 2 लड़कों को नमस्ते करते हुए कहा.

‘‘जी, हम आप के महल्ले से ही हैं. आप को राशन की जरूरत तो नहीं…’’ उन में से एक ने निम्मी से कहा.

‘‘जी शुक्रिया, अभी घर में राशन है…’’ निम्मी ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है… जब भी जरूरत होगी, तो इस मोबाइल नंबर पर फोन करना…’’ उन में से एक बड़ी मूंछों वाले लड़के ने निम्मी को एक कागज पर मोबाइल नंबर लिख कर देते हुए कहा.

लौकडाउन का तीसरा दिन था. पूरा शहर एक उदासी और सन्नाटे की ओर बढ़ रहा था. किसी को नहीं पता था कि कब बाजार खुलेगा, कब घर से बाहर निकल सकेंगे और कब हालात सही होंगे.

निम्मी का पति अमर किसी काम से दूसरे शहर गया हुआ था कि अचानक से ये कर्फ्यू से हालात हो गए.

निम्मी की शादी को अभी सालभर भी नहीं हुआ था. निम्मी बहुत खूबसूरत थी. न जाने कितने नौजवान निम्मी को किसी न किसी तरह पाना चाहते थे.

यह तालाबंदी भी निम्मी की जिंदगी में घोर अंधेरा ले कर आई थी. उसे अमर से मिलने की उम्मीद दिखने लगी थी कि लौकडाउन को आगे बढ़ा दिया गया. एक ओर राशन खत्म हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर अमर के खेत में गेहूं की खड़ी फसल. अब कौन फसल को काटे और कौन मंडी ले जाए.

निम्मी सोच ही रही थी कि अमर का फोन आया, ‘निम्मी, मु झे तो अभी वहां आना मुमकिन नहीं जान पड़ता… खेत का क्या हाल है… तुम गई क्या किसी दिन?’

‘‘बस एक दिन गई थी… फसल पक चुकी है, पर अमर अब यह कटेगी कैसे… मजदूर भी नहीं मिल रहे इस वक्त यहां,’’ निम्मी ने बताया.

कुछ देर इधरउधर की बात कर के निम्मी ने फोन रख दिया.

तभी उस के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘अमर… बाहर आना.’’

महल्ले के धनी सेठ की आवाज सुन कर निम्मी बाहर आई.

‘‘अमर को बुलाओ तो बाहर. उस से कहो, अगर गेहूं की फसल जल्दी नहीं काटी तो सारी खराब हो जाएगी.’’

‘‘जी, वे तो शहर से बाहर गए थे किसी काम से और तालाबंदी के चलते वहीं फंस गए,’’ निम्मी ने बताया.

हालांकि धनी सेठ अच्छी तरह से जानता था कि अमर घर पर नहीं है, फिर भी अनजान बनने की अदाकारी बखूबी कर रहा था, ‘‘ओह, लेकिन अगर फसल नहीं कटेगी, तो भारी नुकसान उठाना पड़ेगा…’’

‘‘जी जरूर… जरूरत हुई तो आप के पास आ कर कह दूंगी. वैसे, इतनी खेती तो है नहीं कि मंडी तक पहुंचाई जाए. हमारा ही गुजर होने लायक अनाज होता है,’’ निम्मी ने हाथ जोड़ कर कहा.

धनी सेठ कई सवाल ले कर जा रहा था कि निम्मी मु झे बुलाएगी या नहीं, क्या कभी निम्मी के साथ गुफ्तगू मुमकिन है. वह खुद से ही बोलते जा रहा था कि पुजारी से सामना हो गया.

‘‘प्रणाम पुजारीजी… कैसे हैं आप?’’ धनी सेठ पुजारी से बोला.

‘‘चिरंजीवी रहो धनी सेठ… तरक्की तुम्हारे कदम चूमे,’’ दोनों हाथों से आशीष देते हुए पुजारी ने कहा.

‘‘इस दोपहरी में कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे हैं?’’ धनी सेठ ने पुजारी से पूछा.

पुजारी ने सकपकाते हुए जवाब दिया, ‘‘बस, एक यजमान के घर से आ रहा हूं… तो सोचा, थोड़ा नदी किनारे टहल आऊं.’’

‘‘अच्छा… नमस्ते,’’ कह कर धनी सेठ आगे बढ़ गया. इधर निम्मी ने अमर को फोन पर धनी सेठ के प्रस्ताव के बारे में बताया, तो अमर ने साफ इनकार करने को कहा, क्योंकि वह उसे अच्छी तरह जानता था और इस सहयोग के पीछे की मंशा पर भी उसे शक था.

निम्मी ने फोन रखा ही था कि किसी ने घर का दरवाजा खटखटाया. निम्मी ने दरवाजा खोल कर सामने खड़े पुजारी को प्रणाम किया.

पुजारी ने भी धनी सेठ की तरह हमदर्दी और सहयोग का प्रस्ताव दिया. इसी तरह हैडमास्टर किशोर कश्यप ने भी सहयोग का प्रस्ताव निम्मी के सामने रखा.

निम्मी असमंजस में थी. एक ओर उस की शुगर की दवा खत्म हो रही थी, वहीं दूसरी ओर राशन भी खत्म होने को था.

अगले दिन मुंह पर चुन्नी लपेटे निम्मी महल्ले की दुकान तक गई. वहां से जरूरी सामान ले कर वह वापस आ रही थी कि सामने से उसी मूंछ वाले लड़के ने उसे पहचान लिया. उस का नाम अनूप शुक्ला था. उस ने निम्मी से कहा, ‘‘अरे निम्मीजी, आप को किसी चीज की जरूरत थी, तो मु झ से कहती… आप क्यों इस धूप में बाहर निकलीं…’’

‘‘जी, इस में परेशानी की कोई बात नहीं… बस टहल भी ली और सामान भी ले लिया,’’ इतना कह कर निम्मी तेजी से घर की ओर बढ़ गई. पर एक परेशानी उस के सामने खड़ी हो गई कि उस की शुगर की दवा खत्म हो गई और मैडिकल स्टोर बहुत दूर था.

तभी निम्मी को अनूप के मोबाइल नंबर वाला कागज भी दिख गया, तो उस ने उसे फोन कर ही दिया. अनूप ने भी उसे दवा ला कर दे दी.

इसी तरह कुछ दिन बीत गए, पर गेहूं की फसल का कुछ तो करना था, निम्मी यह सोच ही रही थी कि धनी सेठ और पुजारी कुछ मजदूरों के साथ उस के घर पर आ गए.

‘‘आप तो संकोच करेंगी निम्मीजी, पर हमारा भी तो फर्ज बनता है कि नहीं?’’

‘‘मैं कुछ सम झी नहीं,’’ निम्मी बोली.

‘‘इस में न सम झने जैसा क्या है. बस तुम हां कह दो, तो खेत से गेहूं ले आएं.’’

निम्मी कुछ सम झती, इस से पहले ही उन दोनों ने मजदूरों को खेत में जाने का आदेश दे दिया. निम्मी ने उन को चाय पीने को कह दिया.

दोनों चाय पी कर चले गए. उसी शाम धनी सेठ फिर निम्मी के घर आया.

‘‘तुम ठीक हो न निम्मी… मेरा मतलब, खुश तो हो न?’’

‘‘जी, मैं ठीक हूं.’’

धीरेधीरे सेठ निम्मी की ओर बढ़ने लगा और पास आ कर बोला, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत और कमसिन हो…’’ इतना कह कर उस ने निम्मी की कमर को अपने आगोश में ले लिया.

निम्मी कुछ रोकती या कहती, उस ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया और उसे बेहिसाब चूमने लगा.

निम्मी रोती, कभी मिन्नत करती, पर जिस्म के भूखे सेठ को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. उस ने उसे हर तरीके से भोगा और वहां से चला गया.

निम्मी जोरजोर से रो रही थी, पर उस की चीख सुनने वाला कोई न था. अचानक उसे याद आया कि उस के महल्ले का देवेंद्र सिंह पुलिस में नौकरी करता है. किसी तरह निम्मी ने उस का पता लगाया और फोन किया.

‘हैलो, कौन बोल रहा है?’ देवेंद्र सिंह ने फोन रिसीव कर के पूछा.

‘‘जी, मैं आप के ही महल्ले से बोल रही हूं… मु झे आप की मदद चाहिए,’’ निम्मी ने जवाब दिया.

‘आप को अगर कोई भी परेशानी है, तो आप थाने में आ कर रिपोर्ट लिखा सकती हैं,’ देवेंद्र सिंह ने यह कह कर फोन रख दिया.

निम्मी ने फिर से फोन किया, ‘‘हैलो… प्लीज, फोन मत काटना… मैं निम्मी बोल रही हूं. आप के ही महल्ले में रहती हूं. मेरे पति अमर इस वक्त यहां नहीं हैं और मैं मुसीबत में हूं.’’

अमर का नाम सुनते ही वह निम्मी को पहचान गया, ‘अच्छाअच्छा, मैं सम झ गया. आप चिंता न करें. मैं शाम को आप के पास आता हूं.’

निम्मी अब निश्चिंत थी कि उसे मदद मिल जाएगी और वह धनी सेठ की रिपोर्ट लिखा सकेगी.

शाम को देवेंद्र सिंह उस के पास आया. निम्मी ने सारी बात बताई और मदद मांगी.

‘‘तुम घबराओ मत, मैं तुम्हारी पूरी मदद करूंगा,’’ देवेंद्र सिंह ने कहा.

चाय पी कर जब वह जाने लगा, तो अचानक तेज आंधी और बारिश होने लगी. अब तो देवेंद्र को वहीं रुकना पड़ा.

छत पर सूख रहे कपड़े उतारने के लिए निम्मी भागी, तो उस की साड़ी ही उड़ने लगी.
देवेंद्र सिंह ने उस से कहा, ‘‘मैं ले आता हूं कपड़े. आप बैठ जाइए.’’

बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी, इधर देवेंद्र सिंह अपने पर काबू नहीं कर पाया और जो उस की शिकायत सुनने आया था, उसी निम्मी को दबोच बैठा और एक लाचार को अपनी जिस्म की भूख मिटाने को मसलता रहा.

उस के जाने के बाद निम्मी मर जाना चाहती थी, पर जहर भी कहां से लाए इस तालाबंदी में.

थोड़ी देर में निम्मी को याद आया कि बीती सुबह एक ट्रेन यहां से गुजरी थी और उस ने सुना था कि श्रमिक ट्रेन इन दिनों चल रही है. उसे अब यही एक रास्ता दिखा.

निम्मी ने किसी तरह वह रात काटी और तड़के उठ कर घर से चल दी, पास ही पटरियों की ओर.
पौ फटने का समय था और निम्मी बदहवास जा रही थी. सामने से आते पुजारी ने उसे देख लिया. निम्मी पटरी पर लेट गई और ट्रेन की आवाज सुनाई दी. पुजारी ने भाग कर उसे पटरी से खींच लिया और सम झाबु झा कर घर ले आया. उस ने निम्मी की मजबूरी और अकेलेपन का फायदा उठाया और दबोच लिया.

निम्मी कुछ समझ पाती. इस से पहले ही उसे लूट लिया गया था. तालाबंदी खत्म होने का आदेश भी जारी हो गया. अब अमर के आने की भी उम्मीद होने लगी.

इधर निम्मी अमर की राह देख रही थी, उधर निम्मी के दीवाने दुखी हो रहे थे. निम्मी की मजबूरी का खूब फायदा उठा चुके ये लोग अभी संतुष्ट नहीं हुए थे. अनूप तो सोचने लगा कि अमर घर आता ही नहीं तो अच्छा था, क्योंकि उसे निम्मी के शरीर की मादक खुशबू से अभी तक मन नहीं भरा था. उस के साथ बिताया हर पल उसे याद आ रहा था.

एक शाम जब निम्मी चीनी लेने घर से बाहर निकली, तो वह जबरन उस के साथ अंदर आ गया. निम्मी ने उस से घर से बाहर जाने को कहा, तो उस ने मना कर दिया.

निम्मी मदद के लिए चिल्लाने लगी, तो उस ने उस का मुंह बंद कर दरवाजे की अंदर से कुंडी लगा दी.

निम्मी रोती रही, पर उस की मदद को भला कौन आता. पुलिस पर भरोसा भी कैसे करे. अनूप उसे अपनी हवस की आग में जला रहा था और वह रोए जा रही थी.

तभी वहां से कश्यप मास्टर गुजर रहे थे, तो उन्होंने उस की चीख सुनी तो फौरन घर की ओर मुड़े.

‘क्या हुआ बेटी… क्यों चीख रही हो. दरवाजा खोलो बेटी,’ बेटी सुनते ही निम्मी को न जाने कैसी ताकत आ गई और उस ने अनूप के बालों को खींच कर उस के अंग पर वार कर दिया.

अनूप दर्द से चीखने लगा और मौका पा कर निम्मी ने दरवाजा खोल दिया.

सामने कश्यप मास्टर खड़े थे. उन्होंने अपना अंगोछा निम्मी को ओढ़ा दिया. इस बीच अनूप भाग गया.

‘‘रो मत बेटी,’’ मास्टर साहब उसे दिलासा दे रहे थे. निम्मी रोतेरोते मास्टर साहब की गोद में ही सो गई.

मास्टर साहब ने अपनी बेटी को बुला कर निम्मी की देखभाल करने को कहा और चले गए.

अगले दिन अमर घर आ गया, तो वह बहुत खुश थी. अमर ने देखा कि गेहूं गोदाम में भरे हुए हैं, तो उस ने पूछा, ‘‘निम्मी, ये गेहूं किस ने काटे?’’

निम्मी ने उत्तर देते हुए कहा, ‘‘पुजारी और धनी सेठ ने.’’

अमर सम झ रहा था कि निम्मी कुछ कहने की कोशिश कर रही है, पर कुछ कह नहीं पा रही.

कुछ दिन बीते ही थे कि अमर की तबीयत खराब हो गई. उसे लोगों की मदद से अस्पताल ले जाया गया, जहां उस के टैस्ट चल रहे थे…

इधर निम्मी भी एक रोज चक्कर खा कर गिर पड़ी. पड़ोस की सुधा उसे अस्पताल ले गई. डाक्टर ने तुरंत उसे दवा दे कर कहा कि घबराने की बात नहीं है… कुछ कमजोरी है.

उधर, अमर के टैस्ट की रिपोर्ट आ चुकी थी. उसे डाक्टर ने एचआईवी पौजिटिव की पुष्टि की, तो उस के पैरों के तले से जमीन ही निकल गई. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया. वह सोचसोच कर परेशान था.

वह जैसेतैसे घर आया, तो निम्मी की तबीयत और ज्यादा खराब हो रही थी. उस की शुगर भी बढ़ रही थी.

अमर ने उसे तुरंत दवा दी, तो थोड़ा आराम हुआ. इस तरह दिन बीत रहे थे. अमर निम्मी को कैसे बताए, यह सोच रहा था. उधर निम्मी परेशान थी कि कैसे बताए कि कैसे उस के जिस्म के टुकड़ेटुकड़े हुए.

अमर ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘निम्मी, तुम मु झ पर भरोसा करती हो न?’’

‘‘यह पूछने की जरूरत है अमर?’’

‘‘तो सुनो… मेरी एचआईवी पौजिटिव की रिपोर्ट आई है,’’ अमर ने एक ही सांस में कह दिया, ‘‘पर, यकीन मानो कि मेरा किसी से कोई संबंध नहीं है. मु झे याद आ रहा है, जब पिछली बार मैं शहर काम से गया था, तो एक सैलून में मैं ने अपनी दाढ़ी बनवाई थी, क्योंकि मु झे मीटिंग के लिए देर हो रही थी, इसलिए मैं ने ही नाई को जल्दी शेव करने को कहा था… शायद उस ने ब्लेड बदला नहीं था,’’ गहरी सांस लेते हुए अमर ने कहा.

निम्मी चुप थी, बस आंखों से आंसू बहाए जा रही थी. कुछ देर बाद अचानक उस के चेहरे पर एक जीत की जैसी मुसकान दौड़ गई.

अमर अपनी बीमारी के चलते ही अधमरा हुआ जा रहा था और निम्मी मुसकरा रही थी.

निम्मी बोली, ‘‘अभी चलो, मु झे भी यह टैस्ट करवाना है.’’

‘‘कल बुलाया है तुम को डाक्टर ने,’’ अमर ने कहा. दोनों के लिए पूरी रात काटनी मुश्किल हो रही थी. निम्मी ने अमर को सब बता दिया था. दोनों बस रोए जा रहे थे.

अगले दिन निम्मी का भी टैस्ट किया गया, तो वह भी एचआईवी पौजिटिव निकली.

निम्मी दुखी होने के बजाय खुश थी. पर दोनों के लिए जीना आसान न था. दोनों अपनी मजबूरियों पर रो रहे थे. जैसेतैसे संभलते हुए दोनों घर आए और एकदूसरे को दिलासा दे ही रहे थे कि अनूप, धनी सेठ, पुजारी सब निम्मी के घर आए और अमर का हालचाल पूछने लगे. इन सब को निम्मी ने ही फोन कर के बुलाया था.

पहले तो अमर को बहुत गुस्सा आ रहा था, पर जैसेतैसे संभल कर उस ने सब को निम्मी का साथ देने के लिए धन्यवाद दिया और निम्मी से चाय बनाने को कहा.

अमर और निम्मी को गुस्सा तो बहुत आ रहा था, पर दोनों ने खुद को संभाल लिया.

‘‘आप लोगों का मैं जितना भी धन्यवाद करूं कम ही होगा,’’ अमर ने कहा, तो धनी सेठ ने कहा, ‘‘इस में धन्यवाद कैसा अमर साहब… हम अगर एकदूसरे के काम नहीं आएंगे तो और कौन आएगा.’’

‘‘जी, कह तो आप सही रहे हैं… पर आप तो हमारे दुखसुख के सचमुच भागीदार हैं और इतना ही नहीं हमारी बीमारी के भी…’’ एक कुटिल हंसी के साथ अमर ने कहा.

‘‘हम कुछ सम झे नहीं… बीमारी के भागीदार कैसे?’’ पुजारी ने चौंकते हुए पूछा. वह घबरा गया था.

अमर ने राज खोला, तो सब के सब सकपका कर रह गए और एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

उधर निम्मी और अमर चैन की सांस ले रहे थे, एकदूसरे को हिम्मत दे रहे थे और कुदरत के इस न्यायअन्याय को सम झने की कोशिश कर रहे थे.

लेखिका – आरती लोहनी

Family Story : चंपा लौट आई – एहसान और बदले की कहानी

Family Story : ‘‘चंपा, मैं तुम से मिलने कल फिर आऊंगा,’’ नरेश अपने कपड़े समेटते हुए बोला.

‘‘नहीं, कल से मत आना. कल मेरा आदमी घर आने वाला है. मैं किसी भी तरह के लफड़े या बदनामी में नहीं पड़ना चाहती,’’ चंपा नरेश से बोली.

‘‘अरे नहीं, सूरत इतना नजदीक नहीं है. उस के आने में कम से कम 2-3 दिन तो लग ही जाएंगे,’’ नरेश चंपा को अपनी बांहों में कसते हुए बोला.

चंपा बांह छुड़ा कर बोली, ‘‘2 दिन पहले ही बता चुका है कि वह गाड़ी पकड़ चुका है. कल वह घर भी पहुंच जाएगा.’’

नरेश मायूस होता हुआ बोला, ‘‘जैसी तेरी मरजी. दिन में एक बार तुझे देखने जरूर आ जाया करूंगा.’’

‘‘ठीक है, आ जाना,’’ चंपा हंस कर उस से बोली.

नरेश पीछे के दरवाजे से बाहर हो गया. अपने घर जाते समय नरेश चंपा के बारे में वह सब सोचने लगा, जो चंपा ने उसे बताया था.

चंपा के घर में सासससुर और पति के अलावा और कोई नहीं था. चंपा का पति संजय अकसर काम के सिलसिले में गुजरात की कपड़ा मिल में जाया करता था. वह वहां तब से काम कर रहा है, जब उस की चंपा से शादी भी नहीं हुई थी.

संजय को गुजरात गए 2 महीने बीत गए थे. कसबे में मेला लगने वाला था.

चंपा संजय को फोन पर बोली, ‘तुम घर पर नहीं हो. इस बार का मेला मैं किस के साथ देखने जाऊंगी  मांपिताजी तो जा नहीं सकते.’

संजय ने चंपा को गांव की औरतों के साथ मेला देखने को कहा. यह सुन कर चंपा का चेहरा खुशी से खिल उठा.

एक रात गांव की कुछ औरतें समूह बना कर मेला देखने जा रही थीं. चंपा भी उन के साथ हो ली. घर पर रखवाली के लिए सासससुर तो थे ही.

मेले में रंगबिरंगी सजावट, सर्कस, झूले और न जाने मनोरंजन के कितने साजोसामान थे. उन सब को निहारती चंपा गांव की औरतों से बिछड़ गई.

अब चंपा घर कैसे जाएगी  वह डर गई थी. मेले से उस का मन उचटने लगा था. उसे घर की चिंता सताने लगी थी. उस ने उन औरतों की बहुत खोजबीन की, पर उन का पता नहीं चल पाया.

रात गहराती जा रही थी. लोग धीरेधीरे अपने घरों को जाने लगे थे. चंपा भी डरतेडरते घर की ओर जाने वाले रास्ते पर चल दी.

चंपा की शादी को अभी 2 साल हुए थे. अभी तक उसे कोई बच्चा भी नहीं हुआ था. तीखे नाकनक्श, होंठ लाल रसभरे, गठीला बदन, रस की गगरी की तरह उभार, सब मिला कर वह खिला चांद लगती थी, इसलिए तो संजय मरमिटा था चंपा पर और उस को खुश रखने के लिए हर ख्वाहिश पूरी करता था.

चंपा के गदराए बदन को देख कर 2 मनचले मेले में ही लार टपका रहे थे. अकेले ही घर की ओर जाते देख वे भी अंधेरे का फायदा उठाना चाहते थे.

चंपा भी उन की मंशा भांप गई थी. घर की ओर जाने वाली पगडंडी पर वह तेज कदमों से चली जा रही थी. वे पीछा तो नहीं कर रहे, इसलिए पीछे मुड़ कर देख भी लेती.

मनचले भी तेज कदमों से चंपा की ओर बढ़ रहे थे. वह बदहवास सी तेजी से चली जा रही थी कि अचानक ठोकर खा कर गिर पड़ी.

तभी एक नौजवान ने सहारा दे कर चंपा को उठाया और पूछा, ‘आप बहुत डरी हुई हैं. क्या बात है ’

‘कुछ नहीं,’ चंपा उठते हुए बोली.

‘शायद मेला देख कर आ रही हैं  कहां तक जाना है ’ नौजवान ने पूछा.

‘पास के सूरतपुर गांव में मेरा घर है. 2 मनचले मेरा पीछा कर रहे हैं. जिन औरतों के साथ मैं आई थी, वे पता नहीं कब घर चली गईं. मुझे मालूम नहीं चला,’ बदहवास चंपा ने एक ही सांस में सारी बातें उस नौजवान से बोल दीं.

जिस नौजवान ने चंपा को सहारा दिया, उस का नाम नरेश था. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो वहां कोई नहीं था.

‘डरने की कोई बात नहीं है. मैं भी उसी गांव का हूं. मैं आप को घर तक छोड़ दूंगा.’

चंपा डर गई थी. डर के मारे वह नरेश का हाथ पकड़ कर चल रही थी. कभीकभार दोनों के शरीर भी एकदूसरे से टकरा जाते.

कुछ देर बाद नरेश ने चंपा को उस के घर पहुंचा दिया. चंपा ने शुक्रिया कहा और अगले दिन नरेश से घर आने को बोली.

नरेश उसी दिन से चंपा के घर आया करता था, उस से ढेर सारी बातें करता, मजाकमजाक में चंपा को छूता भी था. चंपा को भी अच्छा लगता था.

एक दिन नरेश चंपा के गाल चूमते हुए बोला, ‘आप बहुत सुंदर हैं. मेरा बस चले तो…’ चंपा मुसकरा कर पीछे हट गई.

इस के बाद नरेश ने चंपा को बांहों में जकड़ कर एक बार और गालों को चूम लिया.

चंपा कसमसाते हुए बोली, ‘यह अच्छा नहीं है. क्या कर रहे हो ’

संजय अकसर घर से बाहर ही रहता था, इसलिए चंपा की जवानी भी प्यासी मछली की तरह तड़पती रहती. छुड़ाने की नाकाम कोशिश कर नरेश के आगे वह समर्पित हो गई और वे दोनों एक हो गए. दोनों ने जम कर गदराई जवानी का मजा उठाया. चंपा खुश थी.

उस दिन के बाद से ही यह सिलसिला चल पड़ा. दोनों एकदूसरे के साथ मिल कर बहुत खुश होते.

एक दिन नरेश ने चंपा से पूछा, ‘तुम सारी जिंदगी मुझ से इसी तरह प्यार करती रहोगी न ’

‘नहीं,’ चंपा बोली.

‘क्यों  लेकिन, मैं तो तुम से बहुत प्यार करता हूं.’

‘यह प्यार नहीं हवस है नरेश.’

‘आजमा कर देख लो,’ नरेश बोला.

‘नरेश, तुम अपने एहसानों का बदला चुकता कर रहे हो. जिस दिन मुझे लगेगा, तुम्हारा एहसान पूरा हो चुका है, मैं तुम से अलग हो जाऊंगी. और तुम भी अपनी अलग ही दुनिया बसा लेना,’ चंपा उसे समझाते हुए बोली.

आज नरेश को चंपा की कही हुई हर बात जेहन में ताजा होने लगी थी कि कल संजय के घर पहुंचते ही उस एहसान का कर्ज चुकता होने वाला है.

Funny Story : प्यार की तलाश में – क्या सोहनलाल को मिला प्यार

Funny Story : सोहनलाल बचपन से ही सच्चे प्यार की खोज में यहांवहां भटक रहे हैं. वैसे तो वे 60 साल के हैं, पर उन का मानना है कि दिल एक बार जवान हुआ तो जिंदगीभर जवान ही रहता है. रही बात शरीर की तो उस महान इनसान की जय हो जिस ने मर्दाना ताकत बढ़ाने वाली दवाओं की खोज की और जो उन्हें ‘साठा सो पाठा’ का अहसास करा रही हैं.

उन्होंने कसरत कर के अपने बदन को भी अच्छाखासा हट्टाकट्टा बना रखा है और नएनए फैशन कर के वे हीरो टाइप दिखने की भी लगातार कोशिश करते रहते हैं.

सोहनलाल का रंग भले ही सांवला हो, पर खोपड़ी के बाल उम्र से इंसाफ करते हुए विदाई ले चुके हैं, पान खाखा कर दांत होली के लाल रंग में रंगी गोपी से हो चुके हैं, पर ठीकठाक आंखें, नाक और कसरती बदन… कुलमिला कर वे हैंडसम होने के काफी आसपास हैं. उन के पास रुपएपैसों की कमी नहीं है इसलिए उन की घुमानेफिराने से ले कर महंगे गिफ्ट देने तक की हैसियत हमेशा से रही है. लिहाजा, न तो कल लड़कियां मिलने में कमी थी और न ही आज है.

ऐसी बात नहीं है कि सोहनलाल को प्यार मिला नहीं. प्यार मिलने में तो न बचपन में कमी रही, न जवानी में और न ही अब है, क्योंकि प्यार के मामले में हमारे ये आशिक मैगी को भी पीछे छोड़ दें. मैगी फिर भी 2 मिनट लेगी पकने में, पर इन्हें सैकंड भी नहीं लगता लड़की पटाने में. इधर लड़की से आंखें चार, उधर दिल ‘गतिमान ऐक्सप्रैस’ हुआ.

कुलमिला कर लड़की को देखते ही प्यार हो जाता है और लड़की को भी उन से प्यार हो, इस के लिए वे भी प्रेमपत्र से ले कर फेसबुक और ह्वाट्सऐप जैसी हाईटैक तकनीक तक का इस्तेमाल कर डालते हैं.

सोहनलाल अनेक बार कूटे भी गए हैं, पर ‘हिम्मत ए मर्दा, मदद ए खुदा’ कहावत पर भरोसा रखते हुए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी.

प्यार के मामले में सोहनलाल ने राष्ट्रीय एकता को दिखाते हुए ऊंचनीच, जातिभेद, रंगभेद जैसी दीवारों को तोड़ते हुए अपनी गर्लफ्रैंड की लिस्ट लंबी कर डाली, जिस में सब हैं जैसे धोबन की बेटी, मेहतर की भांजी, पंडितजी की बहन, कालेज के प्रोफैसर की बेटी, स्कूल मास्टर की भतीजी वगैरह.

सोहनलाल की पहली सैटिंग मतलब पहले प्यार का किस्सा भी मजेदार है. उन के महल्ले की सफाई वाली की भांजी छुट्टियों में ननिहाल आई हुई थी और अपनी मामी के साथ शाम को खाना मांगने आती थी (उन दिनों मेहतर शाम को घरघर बचा हुआ खाना लेने आते थे).

उन्हीं दिनों ये महाशय भी एकदम ताजेताजे जवान हो रहे थे. लड़कियों को देख कर उन के तन और मन दोनों में खनखनाहट होने लगी थी. हर लड़की हूर नजर आती थी. सो, जो पहली लड़की आसानी से मिली, उसी पर लाइन मारना शुरू हो गए.

दोनों के नैना चार हुए और इशारोंइशारों में प्यार का इजहार भी हो गया.

लड़की भी इन के नक्शेकदम पर चल रही थी यानी नईनई जवान हो रही थी इसलिए अहसास एकदम सेम टू सेम थे.

कनैक्शन एकदम सही लगा. दोनों के बदन में करंट बराबर दौड़ रहा था. सो, आसानी से पट गई. बाकी काम मां की लालीलिपस्टिक ने कर दिया जो इन्होंने चुरा कर लड़की को गिफ्ट में दी थी.

एक दिन मौका देख कर सोहनलाल उस लड़की को ले कर घर के पिछवाड़े की कोठरी में खिसक लिए, यह सोच कर कि किसी ने नहीं देखा.

अभी प्यार का इजहार शुरू ही हुआ था कि लड़की की मामी आ धमकीं और झाड़ू मारमार कर इन की गत बिगाड़ डाली और धमकी भी दे डाली, ‘‘आगे से मेरी छोरी के पीछे आया तो झाड़ू से तेरा मोर बना दूंगी और तेरे मांबाप को भी बता कर तेरी ठुकाई करा डालूंगी.’’

बेचारे आशिकजी का यह प्यार तो हाथ से गया, पर जान में जान आई कि घर वालों को पता नहीं चला.

इस के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. वे पूरी हिम्मत से नईनई लड़कियों पर हाथ आजमाने लगे. कभी पत्थर में प्रेमपत्र बांध कर फेंके तो कभी आंखें झपका कर मामला जमा लिया और सच्चे प्यार की तलाश ही जिंदगी का एकमात्र मकसद बना डाला.

वैसे भी बाप के पास रुपएपैसों की कमी नहीं थी और जमाजमाया कारोबार था. सो, लाइफ सैट थी.

यह बात और है कि लड़की के साथ थोड़े दिन घूमफिर कर सोहनलाल को अहसास हो जाता था कि यह सच्चा प्यार नहीं है और फिर वे दोबारा जोरशोर से तलाश में जुट जाते.

सोहनलाल की याददाश्त तो इतनी मजबूत है कि शंखपुष्पी के ब्रांड एंबेसडर बनाए जा सकते हैं. मिसाल के तौर पर उन की गर्लफ्रैंड की लिस्ट पढ़ कर किसी भी भले आदमी को चक्कर आ जाएं, पर मजाल है सोहनलाल एक भी गर्लफ्रैंड का नाम और शक्लसूरत भूले हों.

कृपया सोहनलाल को चरित्रहीन टाइप बिलकुल न समझें. उन का मानना है कि हम कपड़े खरीदते वक्त कई जोड़ी कपड़े ट्राई करते हैं तब जा कर अपनी पसंद का मिलता है. तो बिना ट्राई करे सच्चा प्यार कैसे मिलेगा?

एक बार तो लगा भी कि इस बार तो सच्चा प्यार मिल ही गया. सो, उन्होंने चटपट शादी कर डाली.

सोहनलाल बीवी को ले कर घर पहुंचे तो मां और बहनों ने खूब कोसा. बाप ने तो पीट भी डाला… दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाने की वजह से. पर उन पर कौन सा असर होने वाला था, क्योंकि इतनी बार लड़कियों के बापभाई जो उन्हें कूट चुके थे, इसलिए उन का शरीर यह सब झेलने के लिए एकदम फिट हो चुका था.

सब सोच रहे थे कि प्यार का भूत सिर पर सवार था इसलिए शादी की, पर बेचारे सोहनलाल किस मुंह से बताते कि इस बार वे सच्ची में फंस चुके थे. यह रिश्ता प्यार का नहीं, बल्कि मजबूरी का था.

दरअसल, कहानी में ट्विस्ट यह था कि वह लड़की यानी वर्तमान पत्नी सोहनलाल के एक खास दोस्त की बहन थी और दोस्त से मिलने अकसर उस के घर जाना होता था, इसलिए इन का नैनमटक्का भी दोस्त की बहन से शुरू हो गया.

दोस्त चूंकि उन पर बहुत भरोसा करता था और उस कहावत में विश्वास रखता था कि ‘चुड़ैल भी सात घर छोड़ कर शिकार बनाती है’ तो बेफिक्र था.

लेकिन सोहनलाल तो आदत से मजबूर थे और ऐसे टू मिनट मैगी टाइप आशिक का किसी चुड़ैल से मुकाबला हो भी नहीं सकता, इसलिए उन्होंने लड़की पूरी तरह पटा भी ली और पा भी ली जिस के नतीजे में सोहनलाल ने कुंआरे बाप का दर्जा हासिल करने का पक्का इंतजाम कर लिया था.

पर चूंकि मामला दोस्त के घर की इज्जत का था और दोस्त पहलवान था इसलिए छुटकारा पाने के बजाय पत्नी बनाने का रास्ता सेफ लगा. इस में दोस्त की इज्जत और अपनी बत्तीसी दोनों बच गए.

प्यार का भूत तो पहले ही उतर चुका था सोहनलाल का, अब जो मुसीबत गले पड़ी थी, उस से छुटकारा भी नहीं पा सकते थे… इसलिए मारपीट और झगड़ों का ऐसा दौर शुरू हुआ जो आज तक नहीं थमा और न ही थमी है सच्चे प्यार की तलाश.

इन लड़ाईझगड़ों के बीच जो रूठनेमनाने के दौर चलते थे, उन्होंने सोहनलाल को 4 बच्चों का बाप भी बना डाला. उन की बीवी ने भी वही नुसखा आजमाया जो अकसर भारतीय बीवियां आजमाती हैं यानी बच्चों के पलने तक चुपचाप भारतीय नारी बन कर जितना हो सके सहन करो और बच्चों के लायक बनते ही उन के नालायक बाप को ठिकाने लगा डालो.

सोहनलाल की हालत घर में पड़ी टेबलकुरसी से भी बदतर हो गई.

बीवी ने घर में दानापानी देना बंद कर दिया था. अब बेचारे ने पेट की आग शांत करने के लिए ढाबों की शरण ले ली और बाकी की भूख मिटाने के लिए फेसबुक व दूसरे जरीयों से सहेलियों की तलाश में जुट गए, जिस में काफी हद तक वे कामयाब भी रहे.

वैसे भी 60 पार करतेकरते बीवी के मर्डर और सच्चे प्यार की तलाश 2 ही सपने तो हैं जो वे खुली आंखों से भी देख सकते थे.

सोहनलाल में एक सब से बड़ी खासीयत यह है, जिस से लोग उन्हें इज्जत की नजर से देखते हैं. उन्होंने हमेशा अपनी हमउम्र लड़की या औरत के अलावा किसी को भी आंख उठा कर नहीं देखा. छिछोरों या आशिकमिजाज बूढ़ों की तरह हर किसी को देख कर लार नहीं टपकाते, न ही छेड़खानी में यकीन रखते हैं.

बस, जो औरत उन के दिल में उतर जाए, उसे पाने के सारे हथकंडे आजमा डालते हैं. वह ऐसा हर खटकरम कर डालते हैं जिस से उस औरत के दिल में उतर जाएं.

प्यार की कला में तो वे इतने माहिर?हैं कि कोई भी तितली माफ कीजिए औरत एक बार उन के साथ कुछ वक्त बिता ले तो उन के प्यार के जाल में खुदबखुद फंसी चली आएगी और तब तक नहीं जाएगी जब तक सोहनलाल खुद आजाद न कर दें.

वैसे भी महोदय को इस खेल को खेलते हुए 40 साल से ऊपर हो चुके हैं इसलिए वे इस कला के माहिर खिलाड़ी बन चुके हैं. साइकिल के डंडे से लेकर कार की अगली सीट तक अनेक लड़कियों और लड़कियों की मांओं को वे घुमा चुके हैं.

आज सोहनलाल जिस तरह की औरत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहते हैं, उसे छोड़ कर हर तरह की औरत उन्हें मिल रही है.

सब से बड़ी बात तो यह है कि वे अपनी वर्तमान पत्नी को छोड़े बिना ही किसी का ईमानदार साथ चाहते हैं.

एक बार धोखा खा चुके हैं इसलिए इस बार अपनी ही जाति की सुंदर, सुशील, भारतीय नारी टाइप का वे साथ पाना चाहते हैं.

अब कोई उन से पूछे कि कोई सुंदर, सुशील और भारतीय नारी की सोच रखने वाली औरत इस उम्र में नातीपोते खिलाने में बिजी होगी या प्रेम के चक्कर में पड़ेगी? लेकिन सोहनलाल पर कोई असर होने वाला नहीं. वे बेहद आशावादी टाइप इनसान हैं और खुद को कामदेव का अवतार मानते हुए अपने तरकश के प्रेम तीर को छोड़ते रहते हैं, इस उम्मीद के साथ कि किसी दिन तो उन का निशाना सही बैठेगा ही और उस दिन वे अपने सच्चे प्यार के हाथों में हाथ डाल कर कहीं ऐसी जगह अपना आशियाना बनाएंगे जहां यह जालिम दुनिया उन्हें तंग न कर पाए.

हमारी तो यही प्रार्थना है कि हमारे सोहनलालजी को उन की खोज में जल्दी ही कामयाबी मिले.

Family Story : ऐसा तो होना ही था

Family Story : आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे : ‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’ भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

Funny Story : एक अंधसमर्थक से मुलाकात

Funny Story : आज सौभाग्य या कहें दुर्भाग्य से, सत्ता के एक “अंध समर्थक” से मुलाकात हो गई.

हमने छुटते ही कहा,- आपके “आलाकमान” और पार्टी नेताओं को  सोशल मीडिया ने बड़ी बुरी तरह घेरा है .

उन्होंने कहा- यह सब षड्यंत्र है .

हमने कहा- षड्यंत्र ? क्या विदेशी….

अंध समर्थक- नहीं, सत्ता की लालच में विपक्षी दल .

हमने कहा- मगर हमने सुना है, वे तो विपक्षियों की पोल भी खोल  रहे हैं .

अंध समर्थक- अरे! आप नहीं समझेंगे . बड़ी ऊंची राजनीति और खेल चल रहा है .

हमने कहा- खैर! छोड़िए हम आपकी प्रतिक्रिया चाहते हैं, आप क्या कहेंगे .

अंध समर्थक- मैं सोशल मीडिया के बारे में यही कहूंगा की पहले अपना गिरेबां झाके . यह लोग खुद करप्ट हैं और सम्मानीय नेताओं पर आक्षेप लगाते हैं.

हमने कहा- मगर उनकी बात में दम तो है . सारा देश चर्चा करने लगा है, यह उनकी विश्वसनीयता का परिचायक नहीं है क्या ?

अंघ समर्थक- अरे! आप बहुत भोले हैं . यह स्वयं पार्टी बनाकर, सत्ता का उपभोग करने की रणनीति के तहत काम कर रहे हैं . यह लोग, कोई महान देशभक्त पैदा नहीं हुए हैं .

हमने कहा- मगर यह तो देखिए उनकी बात में,सबूतों में कितना दमखम है . उनकी बात, आप काट नहीं सकते.

अंध समर्थक- मेरी निगाह में उनके पास कोई खास साक्ष्य नहीं है .

हमने कहा- क्या बात करते हो, आपकी पार्टी के दांए जी के सुपुत्र  50 लाख से 500 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक बन गए और कहते हो कोई साक्ष्य नहीं है .इस देश में दूसरा कोई है जो रातों-रात इस तरह करोड़पति हो गया….

अंध समर्थक- आप हमारे आलाकमान के बारे में कहिए, नाते रिश्तेदार अगर कमा रहे हैं तो पार्टी दोषी नहीं है, यह उनका व्यक्तिगत मामला है .

हमने कहा- मगर यह भी सत्य है कि अगर वे “सुपुत्र” नहीं होते तो अरबों रुपए कतई नहीं कमा सकते थे. उन्हें निःसंदेह सत्ता का लाभ मिला है.

अंध समर्थक- नो कॉमेंट्स . मै आप की सोची हुई अवधारणा कल्पना पर, कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.

हमने कहा- सच को नकारने से, सच झूठ नहीं हो जाता . आप जानते हैं पार्टी की कितनी साख गिरी है .यही हाल रहा तो आपके नेता और आप जमीन पर होंगे .

अंध समर्थक- हमने देश सेवा का व्रत लिया है. जनता जिस भूमिका में रखेगी, हम रहेंगे.हम तो जनता के सेवक हैं .सेवा करते रहेंगे .

हमने कहा- अर्थात देश का पिंड नहीं छोड़िएगा .

अंध समर्थक- भाई क्या कहते हो .बापू जी ने कहा था -नि:स्वार्थ सेवा करते रहो, सो हम करते रहेंगे…

हमने कहा- मगर नि:स्वार्थ भावना कहां है, आपकी प्रत्येक सेवा का कर्ज, देश की जनता को बेतरह उतारना पड़ता है.

अंध समर्थक- ही ही ही ( हंसते हुए ) क्या बात कर रहे हो . अगर हम पर कोई उंगली भी उठाए तो हम सर झुका कर विनम्रता पूर्वक प्रतिउत्तर करते हैं .हमारे खून में ईमानदारी और सच्ची भावना समाई हुई है .

हमने कहा- अर्थात भ्रष्टाचार को आपने ईमानदारी का समनार्थी बना  दिया है .कोई गंभीर आरोप लगता है तो आप तब भी सहज रहते हैं .

अंध समर्थक- तो क्या करें ? हाथ तो चला नहीं सकते, सरे राह तो उठवा नहीं सकते, पिटवा नहीं सकते, इसलिए हमने सहजता को अंगीकार कर लिया है .हमारे आलाकमान और वरिष्ठ नेताओं का यही प्रेम भरा संदेश है. किसी भी हालत में आपा नहीं खोना है .

हमने कहा- मगर हमारी बात तो वहीं की वहीं रह गई. हम जानना चाहते हैं  निजी करण की आड़ में देश को लूटने का संगीन आरोप आप के नेताओं और पर लग रहे हैं . आप दो टूक शब्दों में बताइए आरोप सही मानते हैं या गलत .

अंध समर्थक- गलत! में हमेशा गलत ही कहूंगा. अगर मुझे पार्टी में रहना है तो गलत ही कहूंगा . क्योंकि यह पार्टी लाइन है.

हमने अंध समर्थक को हाथ जोड़े और दीर्ध नि:श्वास लेकर यह कहते आगे बढ़ गए-” इस “देश” को भगवान ही बचा सकता है.”

Love Story : शब्बो

Love Story : मजहब की दीवारें कितनी भी ऊंची और मजबूत क्यों न हों, प्यार का बुलडोजर उन्हें आसानी से गिरा ही देता है. प्यार अंधा नहीं होता, बल्कि वह सबकुछ देखता है और यकीन की पटरी पर अपनी रफ्तार पकड़ता है.

जटपुर का बाशिंदा लाखन जाट 42 साल का हट्टाकट्टा किसान था. उस का हंसताखेलता परिवार था. 2 जवान होते बेटे नरेंद्र और सुरेंद्र और एक 15 साल की बेटी थी, जिस का नाम माधवी था.

लाखन दूध पीने का बड़ा शौकीन था. इस के लिए उस ने मुर्रा नस्ल की एक नई भैंस खरीदी थी. लाखन की पत्नी सुलोचना उस भैंस की खूब सेवा किया करती थी.

एक दिन सुलोचना उस भैंस को नहला रही थी, तभी उस भैंस का पैर पानी से भरी बालटी से टकराया और वह हड़बड़ा गई. इसी हड़बड़ाहट में सुलोचना भैंस से टकरा कर फिसल गई और उस के कूल्हे में गंभीर चोट लग गई.

लाखन ने सुलोचना का खूब इलाज कराया, लेकिन केस बिगड़ने के चलते उसे बचाया न जा सका.

सुलोचना के गुजरने पर लाखन के सामने बड़ी समस्या पैदा हो गई. जब तक सुलोचना थी, लाखन को घर की कोई चिंता न थी, पर अब घर कौन संभाले?

माधवी ने रसोई संभालने की कोशिश की, लेकिन अभी वह इस काम में इतनी कुशल नहीं थी. अभी उस की पढ़नेलिखने की उम्र थी और लाखन माधवी को और आगे पढ़ाना चाहता था.

लाखन ने बड़े बेटे नरेंद्र का ब्याह करने का फैसला किया, पर घर में नईनवेली बहू के आने पर लाखन का
घर के अंदर आनाजाना तकरीबन बंद सा हो गया. वह अपनी बैठक तक सिमट कर रह गया. वहीं उस का भोजनपानी आ जाता. इस से वह अपनेआप को अलगथलग और अकेला महसूस करने लगा.

लाखन के गांव का ही शकील धोबी के घर उस का उठनाबैठना था. वह अपने कपड़े वहीं धुलवाता था.

शकील से उस की पुरानी जानपहचान थी. शकील पहले से ही गांवभर के कपड़े धोता आ रहा था.

नए जमाने में वाशिंग मशीन आने पर भी शकील अब भी गांव की जरूरत बना हुआ था. भारी कपड़े अभी भी उस के पास धुलने के लिए लाए जाते थे. उस ने घर में ही कपड़े इस्तरी करने की दुकान भी खोल ली थी.

शकील के इस काम में उस की बेटी शबनूर भी हाथ बंटाती थी. शबनूर से बड़ी 3 बेटियों की शादी शकील पहले ही कर चुका था. शबनूर को सब ‘शब्बो’ कह कर पुकारते थे. वह भी शादी के लायक हो चुकी थी.

शकील की बेटियां लाखन को चाचा कहती थीं. जब से सुलोचना नहीं रही थी, तब से लाखन का अकेलापन उस को भीतर ही भीतर कचोटता था.

हालांकि, लाखन का अपना परिवार था, लेकिन इस उम्र में पत्नी के गुजर जाने का अहसास और उस की कमी वही जानता है, जिस ने यह दर्द झेला हो.

इस उम्र में विधुर होने पर आदमी न इधर का रहता है और न उधर का. शादी की उम्र निकल चुकी होती है और पत्नी के बिना काम भी नहीं चलता. पका आम या तो गिरता है या फिर सड़ता है.

शब्बो भी जानती थी कि लाखन चाचा अब अपनेआप को अकेला सा महसूस करते हैं. उस की उम्र भी किसी साथी की चाहत में थी. दोनों ही कुदरत की मांग के मुताबिक जरूरतमंद थे. दोनों की आंखें कब लड़ गईं, कब दोनों के दिलों में प्यार का बीज फूट गया, पता ही नहीं चला.

अब लाखन और शबनूर को एकदूसरे का इंतजार रहता था. एकदूसरे से मिले बिना उन्हें चैन नहीं मिलता था.

लाखन उम्रदराज होने के चलते समुद्र सा शांत था, लेकिन शब्बो का मन तो चंचल था. वह अपने प्यार को ले कर नदी की तरह मचलती, उस का भावुक मन लहरों की तरह ऊंची उछाल मारता. वह चाहती थी कि लाखन उसे अपनी मजबूत बांहों में जकड़ कर खूब प्यार करे. दिन तो किसी तरह से कट जाता, लेकिन रातभर शब्बो लाखन की याद में करवटें बदलती रहती.

लाखन को अपनी इज्जत का डर था, इसलिए वह चाह कर भी शब्बो से संबंध नहीं बना पा रहा था.

आखिरकार शब्बो की शादी का भी समय आ गया. उस की शादी जलालाबाद के दानिश से तय हुई.
दानिश की एक टांग पोलियो से खराब हो गई थी.

शब्बो को जब यह पता चला तो वह बहुत रोई, लेकिन शब्बो को समझा दिया गया कि दानिश जरा सा लंगड़ाता है और एक प्राइवेट फर्म में कोई छोटीमोटी नौकरी करता है.

शब्बो ने लाखन से भी कहा, ‘‘आप तो अब्बू को समझ सकते हैं कि वह लंगड़े आदमी से मेरा निकाह न पढ़वाएं.’’

लाखन शब्बो को दिल से बहुत चाहता था और वह भी इस बात से दुखी था कि शब्बो की शादी किसी लंगड़े से की जा रही है, लेकिन वह शब्बो के घर की माली हालत जानता था और किसी के घर के मामले में दखलअंदाजी नहीं करना चाहता था.

लाखन ने शब्बो से कहा, ‘‘शब्बो, जो तुम्हारे अब्बू कर रहे हैं, सोचसमझ कर ही कर रहे होंगे. क्या पता, दानिश तुम्हारी ?ाली खुशियों से भर दे? वह तुम्हें बेइंतहा चाहेगा.’’

‘‘लेकिन, इस का उलटा हुआ, तो क्या आप मुझे संभालोगे? ’’ शब्बो ने आंखों में आंखें डाल कर पूछा.

शब्बो के दिल की बात होंठों तक आ गई थी. लाखन कहना तो बहुतकुछ चाहता था, लेकिन अपनी उम्र का लिहाज कर उस ने चुप्पी साध ली. उस का दिल कह रहा था कि शब्बो कहीं न जाए. वहीं रहे, उसी के पास.
शब्बो लाखन के कंधे से लग कर खूब रोई. आंसू तो लाखन की आंखों में भी आए. शब्बो लाखन की मजबूरी समझ कर शांत हो गई.

हर बार की तरह लाखन ने इस बार भी शकील की बेटी शब्बो की शादी में खूब मदद की, बल्कि इस बार तो कुछ ज्यादा ही की. वह शब्बो को खुश देखना चाहता था.

शब्बो अपनी ससुराल चली गई. लाखन को लगा जैसे उस की दुनिया उजड़ गई, लेकिन लाखन की तो केवल भावनाओं का संसार ही उजड़ा था, शब्बो की तो पूरी जिंदगी ही तबाह हो गई थी.

शब्बो को ससुराल जा कर पता चला कि दानिश लंगड़ा ही नहीं है, शराब पीने का टैंकर भी है. सुहागरात को भी वह बिस्तर पर नशे में चूर पड़ा रहा और शब्बो ने रात रोरो कर गुजारी. उस के बाद जो उस पर बीती, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता.

शब्बो ने अपनी आपबीती अब्बू और अम्मी को बताई, लेकिन वे शब्बो को हालात से समझौता करने की बात कह कर चुप हो गए.

लेकिन शब्बो के लिए एक आस बची थी और वह आस थी लाखन. एक दिन मौका पा कर शब्बो ने लाखन से फोन पर बात की.

‘‘कैसी हो शब्बो?’’

‘नरक भोग रही हूं, नरक. ऐसा सुलूक तो किसी के साथ जहन्नुम में भी नहीं होता होगा.’

‘‘यह क्या कह रही हो शब्बो?’’

‘जो कह रही हूं, सच कह रही हूं. याद करो, मैं ने शादी से पहले आप से कहा था कि इस का उलटा हो जाए, तो क्या आप मुझे संभालोगे? समझ लो, उलटे से भी उलटा हो गया. अब अपना वादा पूरा करो.’

‘‘हुआ क्या है, यह तो बताओ?’’

‘जो नहीं होना चाहिए था, वह सब हुआ है. एक ब्याहता के साथ इस से बुरा और क्या हो सकता है.’

‘‘शब्बो, पहेलियां मत बुझाओ, सब साफसाफ बताओ?’’

‘मेरा शौहर दानिश किसी काम का नहीं है. वह नकारा तो है ही, शराबी और बेवकूफ भी एक नंबर का है. उसे इस दुनिया में शराब के सिवा कुछ नहीं चाहिए.’

‘‘क्या दानिश तुम्हारा जरा भी खयाल नहीं रखता?’’

‘खयाल तो वह तब रखे, जब उसे जरा सा होश हो. हर समय नशे में चूर रहता है. उसे शौहर कहने में भी मुझे शर्म आती है.’

‘‘तुम्हारे तीनों देवर और सासससुर… क्या वे भी तुम्हारा खयाल नहीं रखते?’’

तभी लाखन ने फोन पर शब्बो के रोने की आवाज सुनी. शब्बो ने जोकुछ सिसकते हुए कहा, उस से लाखन पर बिजली सी गिरी.

शब्बो ने बताया, ‘खूब खयाल रखते हैं, पर मेरा नाड़ा खोलने का. न दिन देखते हैं, न रात और न ही सुबह या शाम. बस भेडि़ए बन कर नोचने को आ जाते हैं बारीबारी से.’

यह सुनते ही लाखन दहल गया. गुस्से से उस का पूरा शरीर कांप गया. वह बोला, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम शब्बो? क्या वह सब से छोटा देवर भी? अभी तो उस की दाढ़ीमूंछ भी ठीक से नहीं आई.’’

‘पता है, क्या कहता है वह?’

‘‘क्या कहता है?’’ लाखन ने बड़े अचंभे से पूछा.

‘कहता है कि भाभी, कल बड़ा मजा आया था. आज और ज्यादा चाहिए.’

यह सुन कर लाखन का दिल मिचला गया. उस का मन हुआ कि अभी जा कर शब्बो के छोटे देवर का टेंटुआ दबा दे. उस ने बड़ी कड़वाहट से कहा, ‘‘क्या तुम ने अपने ससुर से इस की शिकायत नहीं की?’’

अब तो शब्बो फफकने लगी थी. वह रोते हुए बोली, ‘बताने में भी शर्म आती है. मैं उन से क्या शिकायत करूं. वे मेरे बाप की उम्र के और इस उम्र में भी इतने रंगीले और शैतान हैं कि मुझ से चाहते हैं कि मैं उन्हें भी…’

‘‘बस कर शब्बो, बस कर. किन जालिमों में फंस गई हो तुम. किसी को अगर यह सब बताओगी, तो कोई तुम्हारा यकीन भी नहीं करेगा.’’

‘जिस पर बीतती है, वही जानता है,’ शब्बो ने कहा.

‘‘तुम यह सब कैसे सहन कर रही हो? क्या तुम ने कभी इस का विरोध नहीं किया?’’

‘किया था. पहले मुझे कमरे में बंद कर सब ने मुझ पर लट्ठ तुड़ाई की और फिर सब ने जबरदस्ती… मैं तो इन सब को जहर दे कर मार डालना चाहती थी, लेकिन इन कंगलों के यहां तो गेहूं में रखने वाली सल्फास भी नहीं. रोज मजदूरी कर के शाम को राशनपानी ले कर आते हैं.’

लाखन शब्बो के दर्द की हद जान चुका था. मर्दों का जुल्म सुन चुका था. अब उस ने सोचा कि मुसीबत में एक औरत दूसरी औरत के लिए क्या करती है, यह भी जान ले.

लाखन ने कहा, ‘‘शब्बो, क्या तुम्हारी सास भी तुम्हारी कोई मदद नहीं करतीं, वे भी तो एक औरत हैं?’’

‘वह बहरी बस मुरगियों को दाना डालने और उन के दड़बे साफ करने का काम करती है. वह अपने बेटों और आदमी के साथ है. अच्छा है वह औरत है, नहीं तो मुझे एक और मर्द को झेलना पड़ता.’

लाखन को समझ में आ गया था कि नरक कहीं आसमान में नहीं होता, बल्कि धरती पर ही फैला है. शब्बो जो भोग रही है, वह नरक ही तो है.

तब कुछ सोच कर लाखन ने कहा, ‘‘शब्बो, तुम चिंता मत करो. अब चाहे कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हें उस नरक से निकाल कर ही रहूंगा. मैं कुछ करता हूं. तुम मुझे कुछ दिन बाद फिर फोन करना. मेरा फोन करना ठीक नहीं रहेगा.’’

‘ठीक है, मैं वैसे ही करूंगी, जैसा आप कहते हैं. बस, मुझे अब न जाने क्यों आप पर ही भरोसा है? मैं तो मौका देख कर यहां से भाग जाती, लेकिन मुझे पनाह देने वाले तो मेरे मांबाप भी नहीं. मैं क्या करूं… आप को मैं अलग से मुश्किल में डाल रही हूं,’ कह कर शब्बो फिर से सिसकने लगी.

‘‘शब्बो, अब तुम्हें किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम ने मुझे किसी मुश्किल में नहीं डाला है, बल्कि तू ने अपना समझ कर मुझ से अपने दिल की बात कही है. अपना ही अपनों के काम आता है. मैं तुम्हें पनाह भी दूंगा और अपनाऊंगा भी. अब फोन रखो और बेफिक्र हो जाओ.’’

यह सुन कर शब्बो को बड़ी तसल्ली हुई. उसे लाखन पर पूरा यकीन था. आखिर प्यार भरोसे का ही तो नाम है.

लाखन ने बहुत सोचविचार किया. उसे पता था कि शब्बो को बचाने के लिए उसे कई कुरबानियां देनी पड़ेंगी. उसे अपना घरपरिवार, गांव सब छोड़ना पड़ेगा. बिरादरी वाले उस पर थूथू करेंगे, लेकिन वह जानता था कि प्यार कुरबानी मांगता ही है और इस से भी बड़ी बात तो यह थी कि वह जालिमों के चंगुल से एक अबला को बचाने जा रहा था.

अगर शब्बो खुश रहती तो लाखन को यह सब करना ही क्यों पड़ता? उस ने तो खुशीखुशी शब्बो की शादी करा दी थी. वह यह भी जानता था कि कुछ कट्टरपंथी इसे सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश करेंगे, लेकिन लाखन ने भी अब कठोर फैसला कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह शब्बो को उस नरक से निकाल कर ही दम लेगा. वह किसी भी कीमत पर शब्बो का भरोसा टूटने नहीं देगा.

इस के लिए लाखन ने एक काबिल वकील से बात की. वकील ने कहा, ‘‘लाखन साहब, यह बड़ा रिस्की मामला है. अगर शबनूर ने आप का साथ न दिया और उस ने अदालत में गलत बयानबाजी कर दी, तो आप को लेने के देने पड़ जाएंगे. आप को जेल भी हो सकती है.’’

‘‘वकील साहब, अब जो होगा देखा जाएगा. मैं ने शब्बो से जो वादा किया है, उस को निभा कर रहूंगा. उस ने मुझ पर भरोसा किया है, तो मैं उस भरोसे पर खरा उतर कर दिखाऊंगा.’’

‘‘देख लो, लाखन साहब. भावनाओं में मत बहो. इस मामले में आप जीत भी गए, तो आप को बहुतकुछ गंवाना पड़ेगा. परिवार, इज्जत, सबकुछ.’’

‘‘वकील साहब, आप तो बस अपनी कार्यवाही को अंजाम देना. और हां, इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील साहब से भी बात कर के रखना. बाकी मुझ पर छोड़ दो.’’

‘‘कानूनी कार्यवाही की चिंता मत करो. वह तो सब मैं संभाल लूंगा. बस, मैं तो आप को आगाह कर रहा था.’’

वकील और लाखन ने अपनीअपनी कमान संभाल ली थी. इस के बाद जैसे ही शब्बो का फोन लाखन के पास आया, तो लाखन ने कहा, ‘‘शब्बो, इस जुम्मे की दोपहर की नमाज के वक्त, जब तुम्हारे देवर मसजिद में नमाज पढ़ने जाएं, तब तुम बुरका पहन कर सरकारी स्कूल के पास मिलना. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

जुम्मे के दिन नमाज के बाद शब्बो के गायब होने की खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गई. शब्बो के देवरों और ससुर ने उस को खूब तलाशा, फिर जटपुर में उस के मायके फोन किया गया, लेकिन शब्बो का कहीं अतापता नहीं था. तब पुलिस को सूचना दी गई.

अगले दिन पता चला कि लाखन भी गायब है. कडि़यां से कडि़यां जुड़ती चली गईं. पुलिस को दोनों की लोकेशन प्रयागराज में मिली, फिर लोकेशन मिलनी बंद हो गई.

हफ्तेभर बाद दोनों को पुलिस ने बिजनौर बसस्टैंड से गिरफ्तार कर लिया. उन दोनों को मंडावली थाने लाया गया.

जैसे ही गांव वालों को इस की खबर मिली, माहौल गरमा गया. कुछ कट्टरपंथी मुल्लामौलवियों ने इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की. गांव में पंचायत करने की योजना बनाई गई, लेकिन पुलिस की सख्ती से ऐसा नहीं हो पाया.

तब भीड़ मंडावली थाने का घेराव करने पहुंच गई. मंशा यही थी कि किसी भी तरीके से शब्बो को थाने से छुड़ा लिया जाए, लेकिन थानेदार सत्यपाल होशियार निकला. वह जानता था कि ऐसे मामलों में क्या किया जाना चाहिए.

थानेदार सत्यपाल ने अपनी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद शब्बो को बुरके में ही छिपा कर भीड़ के बीच से ही सादा वरदी में 2 महिला पुलिस कांस्टेबल की मदद से थाने से बाहर निकलवा दिया. पुलिस की गाड़ी शब्बो को ले कर मुरादाबाद नारी निकेतन पहुंच गई और कट्टरपंथी हाथ मलते रह गए.

शब्बो ने पहले ही पुलिस से बोल दिया था कि उसे किसी से नहीं मिलना है. शब्बो की मां तो उस से मिलने के लिए बहुत गिड़गिड़ाई थी.

लाखन का परिवार उसी के खिलाफ खड़ा हो गया था. सब यही कह रहे थे कि लाखन को इस मामले में नहीं पड़ना चाहिए था. लाखन उम्रदराज है और शब्बो अभी जवान है, कैसे निभेगी दोनों में?

लेकिन लाखन ने सबकुछ सोचसमझ कर किया था, इसलिए इन बातों की उसे कोई चिंता नहीं थी.

सब के मन में अभी भी यह बात थी कि शब्बो मजिस्ट्रेट के सामने बयान क्या देगी? कहीं वह पलट न जाए, फिर तो लाखन को पक्का जेल होगी.

लाखन की बिरादरी और मुसलिम कट्टरपंथी तो लाखन को जेल भिजवाने पर तुले हुए थे. वे यही सोच कर खुश हो रहे थे कि कुछ भी हो जाए, शब्बो उस के हक में बयान नहीं देगी और अपने परिवार के पास वापस आ जाएगी. लाखन को तो वह चाचा कहती है, फिर उस के साथ कैसे रहेगी? फिर वह कहां रहेगी? ऐसे कई सवाल लोगों के जेहन में उठ रहे थे.

कुछ दिन बाद मजिस्ट्रेट के सामने शब्बो के कलमबंद बयान होने थे. तहसील में सुबह से ही चहलपहल बढ़ गई थी. मामला अपनेआप ही 2 समुदायों का बन गया था.

कुछ हिंदू संगठन लाखन के हक में बिन बुलाए आ गए थे. उन्हें अपनी रोटी सेंकनी थी. गोल टोपी वाले तो पहले से ही बड़ी तादाद में भीड़ लगाए हुए थे. इन सब हालात को देखते हुए पुलिस बंदोबस्त भी चाकचौबंद था.

दोपहर के ठीक 12 बजे शब्बो को कड़ी पुलिस कस्टडी में मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया. गोल टोपी वालों ने आगे बढ़ने की कोशिश की, तो पुलिस ने डंडा फटकार दिया.

इधर मजिस्ट्रेट के सामने शब्बो के कलमबंद बयान हो रहे थे, उधर बाहर खड़े लोगों की धड़कनें बढ़ रही थीं.

शब्बो ने अपने बयान में खुद के बालिग होने और अपनी मरजी से लाखन के साथ जाने की इच्छा जताई. यह सुन कर कट्टरपंथियों के मुंह लटक गए.

मजिस्ट्रेट के आदेश से शब्बो को लाखन के साथ जाने की छूट दे दी गई.

पुलिस कस्टडी में दोनों को उन के द्वारा बताई गई जगह पर छोड़ दिया गया. प्यार की जीत हुई. लाखन और शब्बो साथसाथ रहने लगे.

लाखन ने बिजनौर में किराए का मकान ले लिया और एक पैट्रोलपंप पर नौकरी करने लगा. दोनों वहीं सुख से रहने लगे.

डेढ़ साल बाद शब्बो ने एक बेटी को जन्म दिया और उस का नाम लखनूर रखा गया, जिसे दोनों प्यार से ‘लक्खो’ बुलाते हैं.

Romantic Story : रसीली बेवफा

Romantic Story : आसिफ अपनी बीवी सना के साथ 10 साल से बड़े प्यारमुहब्बत से मुंबई में रह रहा था. उस के 4 बच्चे थे, 2 बेटियां और 2 बेटे, जिन की उम्र महज 9 साल, 7 साल, 3 साल और एक साल थी. घर में सभी तरह की खुशहाली थी. किसी बात की कोई कमी न थी. आसिफ की सास साजिदा भी अपनी बेटी सना के साथ मुंबई में ही रह रही थी.

आसिफ एक मेहनती इनसान था. यही वजह थी कि उस ने बहुत कम समय में मुंबई में अपना खुद का कारोबार और घर बना लिया था.

आसिफ की सास साजिदा एक खर्चीली औरत थी, जबकि आसिफ की बीवी सना एक घर संभालने वाली जिम्मेदार औरत थी. यही वजह थी कि आसिफ ने काफी तरक्की की, क्योंकि सना फालतू के खर्च से हमेशा बचती थी, जिस से आसिफ को काफी बचत होती थी और धीरेधीरे वह बचत एक मोटी रकम बन जाती थी.

इस के उलट आसिफ की सास साजिदा दिनरात अपनी बेटी सना के कान भरती रहती थी कि क्यों इतने साधारण कपड़े पहनती हो, क्यों सीधीसादी बन कर रहती हो, जेवर खरीदो, अच्छे महंगे कपड़े पहनो. शौहर को बस में करना है, तो अपनी खूबसूरती में हर वक्त चार चांद लगाए लगाए रखो.

अपनी मां साजिदा की यें बात सुन कर सना बोलती, ‘‘अम्मी, मैं ऐसे ही इतनी खूबसूरत हूं. मुझे और क्या बननेसंवरने की जरूरत है. आसिफ मुझे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है. वह एक सीधासादा इनसान है और उसे खुद सीधीसादी बीवी पसंद है.’’इस पर साजिदा बोलती, ‘‘तू नहीं जानती मर्दों की असलियत. जहां खूबसूरत औरत देखी नहीं, बस उन के दीवाने हो जाते हैं. आजकल मौडर्न जमाना है. मौडर्न बन कर रहा कर सना. इसी में तेरी भलाई है.’’

वक्त गुजरता गया. साजिदा अपनी बेटी सना को भड़काती रही. सना आखिर कब तक अपनी मां की बातों में न आती. आखिर एक दिन सना ने मां साजिदा की बातों में आ कर उन के बताए रास्ते को अपना ही लिया.

आसिफ ने जब सना का यह बदला रूप देखा, तो उसे बहुत हैरानी हुई. वह सना से बोला, ‘‘क्या तुम ब्यूटीपार्लर भी जाने लगी हो?’’

सना बोली, ‘‘हां, अम्मी वहां जबरदस्ती ले गई थीं और उन्होंने मेरी आईब्रो बनवा दीं, फिर बाल स्ट्रेट करवाए. अब कैसी लग रही हूं मैं?’’

आसिफ ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो. पर बुरा मत मानना कि तुम तो वैसे ही जन्नत की हूर लगती हो. तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है?’’

सना ने पूछा, ‘‘क्या तुम मुझे देख कर खुश नहीं हो?’’

आसिफ बोला, ‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और मैं तुम से हमेशा खुश रहता हूं. मैं ने तो बस यही कहा कि तुम बिना ब्यूटीपार्लर जाए ही इतनी हसीन लगती हो कि मैं तुम्हारे हुस्न का दीवाना हो उठता हूं.’’

सना ने जब आसिफ से यह सुना, तो बड़े प्यार से उसे गले लगा कर एक प्यारा सा चुम्मा रसीद कर दिया.

आसिफ ने भी सना के प्यार का जवाब प्यार से दिया.

अगले दिन सना की अम्मी बोलीं, ‘‘सना, चलो बाजार चलते हैं. तुम्हारे लिए मैं ने कुछ कपड़े पसंद किए हैं. वहां तुम वे कपड़े पहनना, बिलकुल अंगरेजी मेम लगोगी.’’

सना ने बाजार जाने से मना कर दिया, ‘‘मुझे इन सब चीजों की कोई जरूरत नहीं है.’’

इस पर साजिदा बोली, ‘‘कल आसिफ ने तुम से कुछ कहा था क्या?’’

सना ने कहा, ‘‘उन्हें यह सब पसंद नहीं है. वे बोलते हैं कि तुम ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो. तुम्हें इन सब चीजों की क्या जरूरत है?’’

‘‘हर औरत इस होड़ में लगी रहती है कि वह दूसरी औरत से ज्यादा खूबसूरत लगे. जब तुम खूबसूरत हो तो क्यों एक घरेलू औरत की तरह सादगी से जिंदगी गुजार रही हो?

‘‘आसिफ तो पागल है. न तो वह खुद बनसंवर कर रहता है और न ही स्मार्ट दिखता है. बस, पैसा कमाने के पीछे इतना पागल हो गया है कि उसे अपनेआप को फिट और स्मार्ट रखने का ध्यान ही नहीं. अभी से उस ने कैसी बूढ़ों वाली दाढ़ी रख ली है.

‘‘जब तुम उस के साथ कहीं बाहर जाती हो, तो तुम दोनों को देख कर ऐसा लगता है जैसे बापबेटी जा रहे हो.’’

सना ने कहा, ‘‘क्या अम्मी, तुम भी कुछ भी बोलती हो. मेरा वे कितना खयाल रखते हैं, मुझे कितना प्यार
करते हैं.’’

‘‘प्यार तो करेगा ही न. जब कोई और औरत उसे घास नहीं डालती तो वह तेरा ही दीवाना बनेगा न. पता नहीं, मेरी क्या मति मारी गई थी, जो ऐसे बूढ़े से तेरी शादी कर दी.’’

सना अपनी अम्मी के मुंह से ऐसी बातें सुन कर सोच में पड़ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अम्मी ने ऐसा क्यों बोला.

सना को आज भी वह बात याद है, जब आसिफ का रिश्ता उस के लिए आया था. तब सना की अम्मी ने आसिफ को देखते ही इस रिश्ते के लिए मना कर दिया था, पर उस के अब्बू और भाई की जिद थी कि आसिफ एक मेहनती इनसान है, इसलिए अब्बू और भाई ने अम्मी की एक न चलने दी और सना की शादी आसिफ से हो गई.

हालांकि, साजिदा को आसिफ से सना की शादी करना अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि वे उस की शादी अपनी बहन के बेटे से करवाना चाहती थीं, जो कि बहुत ही खूबसूरत, स्मार्ट और कमउम्र था.

शादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी सना आसिफ के साथ बहुत खुश थी, मगर साजिदा उसे ऐसी सीख दे रही थी, जिस से उस के घर में कभी भी बड़ा तूफान आ सकता था.

साजिदा ने अपनी चालाकियों से सना को उस रास्ते पर ले जाना शुरू कर दिया, जिस की वजह से आसिफ और सना के रिश्ते में दरार पड़ने लगी.

हुआ यों था कि साजिदा ने सना को मौडर्न कपड़े पहनने का शौक डाल दिया. अब वह जींसटौप पहनने लगी थी, जिस से आसिफ को बुरा लगने लगा. उस ने उसे समझाने की कोशिश की, तो फौरन साजिदा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘तुम सना के मौडर्न बनने से जलते हो. उस के ब्यूटीपार्लर जाने से तुम्हें नफरत है.’’

आसिफ बोला, ‘‘अम्मी, मुझे कोई जलन नहीं है. हमारी शादी को इतने साल हो गए हैं. हमारे 4 बच्चे हैं.
2 बेटियां हैं. अगर सना इस तरह के कपड़े पहनेगी, तो उन सब पर क्या असर पड़ेगा.’’

‘‘आजकल कौन परदे में रहना पसंद करता है. तुम लोग तो औरत को चारदीवारी में कैद कर के रखना चाहते हो. औरत को भी जीने का हक है. पर तुम लोग तो औरत को घर की नौकरानी बना कर रखना चाहते हो.’’

अपनी सास साजिदा के मुंह से ये अल्फाज सुन कर आसिफ खामोश हो गया, पर सना को अपनी अम्मी की बातों में दम लगा और उस ने भी अपनी अम्मी का साथ दिया.

आसिफ चुप रहा. वह सोचता रहा कि सना नादान है. एक न एक दिन उसे अपनी गलती का अहसास होगा.

आसिफ का यह सोचना उस की भूल था. अब सना बिना परदे के बाहर घूमने जाने लगी और उस ने अपनेआप को पूरी तरह मौडर्न बना लिया था.

उधर साजिदा ने अपनी बहन के बेटे सनी को मुंबई बुला लिया था. वह मुंबई के एक इलाके में रहने लगा, जहां साजिदा सना को उस से मिलवाने ले जाने लगी.

सनी सना को घुमानेफिराने लगा, तो सना को एक नई खुशी मिलने लगी. अब वह कोई न कोई बहाना बना कर अपना ज्यादातर वक्त सनी के साथ गुजारने लगी.

दोनों का एकदूसरे से मिलनाजुलना शुरू हुआ, तो उन के बीच जिस्मानी ताल्लुकात भी जल्दी ही बन गए.

धीरेधीरे सना का लगाव सनी की तरफ बढ़ता गया और आसिफ से दूरियां बनने लगीं. वह बातबात पर आसिफ को नीचा दिखाने लगी, जिस से उन में ?ागड़ा होने लगा.

एक दिन मौका देख कर सना और उस की अम्मी साजिदा ने आसिफ के 7 लाख रुपए और जेवर घर से गायब कर दिए.

जब आसिफ को इस बात का पता चला, तो वह उन से इस बारे में पूछने लगा. पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया कि उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं पता.

आसिफ चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया, क्योंकि वह सना से बहुत मुहब्बत करता था. वह नहीं चाहता था कि उस की किसी हरकत से सना नाराज हो जाए और उस का घर टूट जाए.

आसिफ का यह सोचना ही उस की सब से बड़ी भूल थी. अब सना के पास काफी पैसा हो गया था. उस ने सनी के साथ मिल कर उन पैसों से और ज्यादा घूमनाफिरना शुरू कर दिया. अब तो वह रातरातभर गायब रहने लगी थी.

आसिफ ने सना की इस हरकत का विरोध किया, तो उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना है. तुम अब मेरे काबिल नहीं हो.’’

आसिफ सना की यह बात सुन कर दंग रह गया. उस ने उसे सम?ाने की काफी कोशिश की, पर वह नहीं मानी.

आसिफ ने उसे अपने बच्चों का वास्ता दिया, तो सना की अम्मी साजिदा बोल पड़ी, ‘‘तेरे बच्चे हैं, तू पाल इन्हें.’’

आसिफ की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. उस ने इन सब बातों की जानकारी अपने ससुर को दी, तो वे अगले ही दिन मुंबई के लिए चल दिए.

यह खबर सुन कर सना और साजिदा घर छोड़ कर गायब हो गईं.

एक दिन इंतजार करने के बाद आसिफ और उस के ससुर ने उन दोनों के गायब होने की सुचना पुलिस को दी.

तकरीबन 3 दिन बाद पुलिस ने सना से बात कर के उसे पुलिस स्टेशन बुलाया. साथ ही, आसिफ और उस के ससुर को भी पुलिस स्टेशन आने को कहा.

अगले दिन आसिफ और उस के ससुर पुलिस स्टेशन पहुंचे, तो देखा कि सना और उस की अम्मी साजिदा पहले से ही वहां मौजूद थीं.

पुलिस के पूछने पर सना बोली, ‘‘मुझे इस आदमी के साथ बिलकुल नहीं रहना. यह मेरे साथ मारपीट करता है. मुझ पर शक करता है. मुझे जानवरों की तरह मारता है, इसलिए मैं अपनी अम्मी के साथ अपने एक रिश्तेदार के यहां चली गई थी.’’

पुलिस इंस्पैक्टर ने कहा, ‘‘अगर तुम्हारे शौहर ने तुम पर जुल्म किया था, तो तुम्हें थाने में इस की रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए थी.’’

सना रोते हुए बोली, ‘‘इस के पास पैसा है, ताकत है. अगर मैं कुछ करती तो यह मुझे जान से भी मार सकता था, इसलिए मुझे जो अच्छा लगा, मैं ने वह किया.’’

पुलिस इंस्पैक्टर को उस पर तरस आया और वह आसिफ को डांटते हुए बोला, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती, जो एक लाचार औरत पर जुल्म करते हो. अगर चार डंडे पड़ेंगे, तो तुम्हारे होश ठिकाने आ जाएंगे.’’

जब पुलिस इंस्पैक्टर ने आसिफ को हड़काया, तो सना की मां साजिदा बोली, ‘‘हम कभी इस के साथ नहीं जाएंगे और न ही कोई शिकायत दर्ज करेंगे. कुछ दिनों अकेला रहने और बच्चों की देखभाल करने पर इसे खुद ही पता चल जाएगा कि बच्चे कैसे पलते हैं.’’

पुलिस ने उन दोनों मांबेटी को छोड़ दिया और आसिफ को सख्त हिदायत दी, ‘‘आइंदा कुछ ऐसावैसा किया, तो जेल में बंद कर दूंगा.’’

आसिफ का घर टूट चूका था. उस के ससुर कुछ दिन वहां रहे और बाद में अपने घर लौट गए.

आसिफ अपने बच्चों को ले कर मुंबई से अपने गांव आ गया. अब उस के ऊपर अकेले बच्चों को पालने की जिम्मेदारी थी.

आसिफ का घर देखते ही देखते एक कब्रिस्तान की तरह बन गया. आज उस की मदद करने वाला कोई न था, पर आसिफ अभी भी सना की याद में तड़पता रहता था. उसे उम्मीद थी कि एक न एक दिन सना लौट आएगी.

आसिफ ने नशा करना शुरू कर दिया. अपनी बीवी के गम में वह रातरातभर सो नहीं पाता था. उस ने खुद को एक कमरे में कैद कर लिया था. उस के बच्चे भूखेप्यासे इधरउधर फिरते रहते थे. उन को देखने वाला अब कोई न था.

धीरेधीरे आसिफ को कई बीमारियों ने घेर लिया. वह शराब पीने के चक्कर में पहले से ही जिस्म से कमजोर था, फिर मन से भी कमजोर होता चला गया. सना के बिना उस की जिंदगी उजड़ गई थी.

आसिफ और उस के बच्चों की ऐसी बदहाली देख कर उस की बहन को उस पर तरस आया और उस के बच्चों को अपने साथ ले गई. इन सब के बावजूद आसिफ को कोई फर्क नहीं पड़ा.

आज इस घटना को पूरे 3 साल हो गए थे. न सना वापस आई और न ही आसिफ को होश रहा.

Family Story : सस्ते का चक्कर पड़ा महंगा

Family Story : गौतम की नासिक में नईनई नौकरी लगी थी. अब नासिक में घर जमाना था. दफ्तर की ओर से क्वार्टर तो मिलता था, पर इस के लिए इंतजार करना पड़ता था. हो सकता है कि 6 महीने लग जाएं क्वार्टर मिलने में, इसलिए गौतम ने किराए पर एक मकान ले लिया था.

पर, घर के लिए सामान तो चाहिए था. अपने घर में सुविधाओं के बीच रहा हुआ आदमी था गौतम, इसलिए बैड, सोफा, एसी, फ्रिज तो चाहिए ही उसे, पर इस के लिए तो उसे एक से डेढ़ लाख रुपए चाहिए. घर वाले एकसाथ सभी सुविधा नहीं देना चाहते थे. उन का कहना था कि हर महीने कुछकुछ सामान लेते रहना, पर उस का मन तो शुरू से ही सारी सुविधाओं के लिए उतावला था.

जौइन करने के बाद लगातार 3 दिनों की छुट्टियां थीं, इसलिए गौतम अपने घर मेरठ वापस आ गया था. उस के दिमाग में हमेशा यही बात चलती रहती थी कि कैसे सारी सुविधाएं जल्द से जल्द ले ले. उस ने औनलाइन मार्केट के बारे में सुना था, जहां सस्ते में सामान खरीदेबेचे जाते हैं.

गौतम ने एक अनुरोध डाल दिया सभी सामानों की लिस्ट के साथ. एक घंटे के अंदर उस के पास ह्वाट्सएप पर एक प्रस्ताव आ गया. सभी सामान के फोटो के साथ बताया गया था कि उस आदमी का ट्रांसफर मुंबई में हो गया है. उस की कंपनी जितना पैसे उसे सामान के परिवहन के लिए देगी, उस में वह जा नहीं पाएगा और जितना खर्च लगेगा उतने में नया सामान आ जाएगा, इसलिए वह औनेपौने दाम पर अपना सभी सामान बेच रहा है.

गौतम को सामान बहुत पसंद आया. इन सामानों को खरीदने में एक लाख रुपए खर्च होते, पर वह सिर्फ 30,000 रुपए में दे रहा था.

गौतम ने उस नंबर पर फोन किया.

‘हैलो…’ दूसरी तरफ से किसी आदमी की आवाज आई.

‘‘मैं गौतम बोल रहा हूं मेरठ से. आप का सामान मुझे पसंद है. मैं 1 तारीख को नासिक आ रहा हूं. वहां भुगतान कर के सामान ले लूंगा.’’

‘असल में मुझे 30 तारीख को ही मुंबई जाना है. मेरा ट्रांसफर हो गया है. आप अपना पता बता दें, मैं उस पते पर सामान भेज दूंगा. आप पेटीएम से भुगतान कर देना,’ बड़ी ही मीठी आवाज में उस ने जवाब दिया.

‘‘मैं चाहता था कि सामान मैं खुद देखूं, फिर बात करूं. फोटो में तो वैसे ठीक लग रहा है,’’ गौतम ने कहा.

‘सामान के लिए आप जरा भी चिंता मत करो. बिलकुल ब्रांड न्यू है. अगर मेरा ट्रांसफर नहीं हुआ होता या मुझे सामान ले जाने के पैसे सही मिलते, तो मैं ले जाता. अभी 6 महीने भी नहीं हुए हैं इन्हें खरीदे हुए,’ उस आदमी ने समझते हुए कहा.

‘‘अगर मुझे कोई सामान पसंद नहीं आएगा, तो फिर…?’’ गौतम ने शक जाहिर किया.

‘पसंद न आने का तो सवाल ही नहीं है भाई साहब. बिलकुल नया सामान है और इस्तेमाल भी न के बराबर हुआ है.’

‘‘फिर कैसे करें, बताइए? मेरा रिजर्वेशन पहली तारीख का है और आप कह रहे हैं कि आप को 30 तारीख को ही निकलना है,’’ गौतम चिंतित हो गया.

‘आप तो फिलहाल सिर्फ 5,000 रुपए पेटीएम कर दो, बाकी पैसा आप आने के बाद दे देना. मैं सामान अपने किसी दोस्त से कह कर आप के बताए पते पर भिजवा दूंगा. और कुछ…?’ उस ने प्रस्ताव रखा.

‘‘आजकल इतने फ्रौड होते हैं कि यकीन करना मुश्किल होता है,’’ गौतम के मन में अभी भी थोड़ा शक था.

‘मैं डिफैंस में हूं और डिफैंस वाले फ्रौड नहीं करते. हम किसी को अपना आईडी कार्ड नहीं देते. पर, आप के यकीन के लिए अपना आईडी कार्ड ह्वाट्सएप कर रहा हूं. अगर यकीन हो, तो फिर पेमेंट करना, वरना कोई बात नहीं,’ उस ने जवाब दिया.

थोड़ी ही देर में गौतम के मोबाइल फोन पर उस का आईडी कार्ड का फोटो भी आ गया. गोविंद शर्मा नाम था उस का. अब शक की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी. उस ने 5,000 रुपए उस के खाते में भेज दिए और अपना पता उसे बता दिया. जवाब में भी ‘ओके’ आ गया.

गौतम निश्चिंत हो गया. अब जरूरत की सारी चीजें उस के पास हो जाएंगी. जब दफ्तर से क्वार्टर मिलेगा, तो शिफ्ट करना ही एक काम रहेगा.

अगले दिन जब गौतम अपने दोस्तों के बीच बैठा गपें मार रहा था, तभी गोविंद का फोन आया. गौतम ने फोन उठा लिया और बोला, ‘‘हैलो.’’

‘अरे गौतमजी, एकाएक मुझे और्डर मिला है कि 29 तारीख को ही मुंबई जाना है. आप 5,000 रुपए और पेटीएम कर दो प्लीज,’ गोविंद ने कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं, 5,000 रुपए तो मैं पहले ही आप को दे चुका हूं, बाकी पैसे जैसे ही सामान कब्जे में ले लूंगा, तब दे दूंगा,’’ गौतम बोला.

‘हम डिफैंस वाले आप लोगों की हिफाजत के लिए कितनी मुसीबतें झेलते हैं और आप हैं कि 5,000 रुपए के लिए मुझ पर यकीन नहीं कर रहे हैं,’ गोविंद ने कहा.

‘‘देखिए, मेरे पास अभी पैसे हैं भी नहीं. 1 तारीख को आ कर मैं आप को पूरे पैसे दे दूंगा,’’ गौतम ने कहा.
इस तरह गोविंद गौतम को पैसे भेजने के लिए कहता रहा और गौतम इस बात पर अड़ा रहा कि सामान मिलते ही वह पैसे दे देगा.

‘फिर, मैं ऐसा करता हूं कि सामान किसी और को बेच देता हूं और आप के पैसे वापस कर देता हूं,’ इतना कह कर गोविंद ने फोन काट दिया.

‘‘क्या बात है… किस से इतना उलझ रहे थे?’’ गौतम के दोस्त सिद्धार्थ ने पूछा.

गौतम ने उसे सारी बात बता दी.

‘‘तुम किसी ठग के चक्कर में पड़ चुके हो. चलो, उस का नंबर बताओ, मैं ट्रू कौलर पर देख कर बताता हूं,’’ सिद्धार्थ ने कहा.

गौतम ने उसे गोविंद का नंबर बताया, जिसे सिद्धार्थ ने ट्रू कौलर पर सर्च कर के देखा. ट्रू कौलर उस नंबर को फ्रौड बता रहा था.

गौतम ने उसी समय गोविंद को फोन लगाया और बोला, ‘‘मुझे तुम्हारी असलियत का पता चल चुका है. मैं पुलिस में शिकायत करने जा रहा हूं.’’

‘ठीक है, ऐसी कई शिकायतें हो चुकी हैं मेरे खिलाफ, एक और सही. चलो, फोन रखो, मुझे दूसरे लोगों को भी फंसाना है,’’ इतना कह कर गोविंद ने फोन काट दिया.

गौतम ने दोबारा फोन किया, तो नंबर स्विच औफ आ रहा था.

‘सस्ते का चक्कर बड़ा महंगा पड़ा,’ गौतम ने सोचा.

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