एकतरफा प्यार का गुनाह

सुबह के यही कोई साढ़े 3 बजे मुंबई के डोमेस्टिक एयरपोर्ट परिसर में स्थित थाना विलेपार्ले पुलिस को इर्ला कूपर अस्पताल से सूचना मिली कि एक युवती की हत्या कर के उस की लाश को जला दिया गया है. उस समय ड्यूटी पर तैनात इंसपेक्टर महादेव निवालकर ने इस सूचना की तुरंत डायरी बनवाई और थानाप्रभारी लक्ष्मण चव्हाण, पुलिस कंट्रोल रूम के अलावा अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को सूचना दे कर खुद एआई देवकाते, सांलुके, सबइंसपेक्टर पाटिल, महिला सबइंसपेक्टर कडव, सिपाही सुरेश छोत्रो, संतोष शिंदे, योगेंद्र सिंह शिंदे, गांवडे, सावडेकर, महांडिक और पालवे को साथ ले कर के इर्ला कूपर अस्पताल के लिए रवाना हो गए.

इंसपेक्टर महादेव निवालकर जिस समय सहयोगियों के साथ अस्पताल पहुंचे थे, डाक्टरों की एक टीम युवती के शव का निरीक्षण कर रही थी. युवती के साथ आए लोग अस्पताल परिसर में ही मौजूद थे. उन के बीच मातम का माहौल था. महादेव निवालकर ने देखा, युवती का चेहरा बुरी तरह से जला हुआ था.

पूछताछ में पता चला कि मृतका का नाम श्रद्धा पांचाल था. वह फिजियोथेरैपिस्ट थी. डाक्टरों के अनुसार, श्रद्धा की हत्या एक से डेढ़ घंटा पहले गला घोंट कर की गई थी. उस के दोनों पैरों पर खरोंच के निशान थे, जिस से आशंका जताई गई थी कि हत्या के पूर्व उस के साथ मनमानी भी की गई थी.

डाक्टरों से बातचीत के बाद महादेव निवालकर ने मृतका श्रद्धा के साथ आए लोगों से बातचीत शुरू की. घर वालों से तो उस समय कोई खास जानकारी नहीं मिल सकी, क्योंकि उस समय वे कुछ बताने की स्थिति में नहीं थे. साथ आए पड़ोसियों ने जो बताया था उस के अनुसार, मामला काफी संदिग्ध था. पड़ोसियों ने रात ढाई बजे के आसपास श्रद्धा के कमरे से धुआं निकलता देखा था. तब उन्हें लगा था कि यह धुआं शायद एयरकंडीशनर से निकल रहा है.

लेकिन आधे घंटे बाद जब श्रद्धा के घर वालों के रोनेचीखने की आवाजें आईं तो पता चला कि वह धुआं एसी से नहीं, बल्कि श्रद्धा के कमरे से निकल रहा था. किसी ने श्रद्धा की हत्या कर के उस की लाश को जलाने की कोशिश की थी. पड़ोसी भाग कर वहां पहुंचे तो कमरे की लाइट नहीं जल रही थी. टौर्च की रोशनी में उन्होंने जो दृश्य देखा, वह दिल को दहलाने वाला था. कमरे के बीचोबीच श्रद्धा की अधजली निर्वस्त्र लाश पड़ी थी. उसी की जींस से उस का गला कसा हुआ था.

पड़ोसी दीपक और सचिन ने जल्दी से जींस हटाई और उपचार के लिए उसे इर्ला कूपर अस्पताल ले आए. डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर इस बात की सूचना थाना विलेपार्ले पुलिस को दे दी थी. महादेव निवालकर ने मामले की प्राथमिक काररवाई निपटा कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल में रखवा दिया था. यह 6 दिसंबर, 2016 की बात थी.

अस्पताल की काररवाई निपटा कर महादेव निवालकर सहयोगियों के साथ घटनास्थल पर यानी श्रद्धा के घर पहुंचे. डा. श्रद्धा पांचाल मकान की ऊपरी मंजिल पर बने कमरे में रहती थी. उसी कमरे में उस ने सोने से ले कर पढ़ाई तक का इंतजाम कर रखा था. लेकिन डाक्टर होने के बावजूद वह समय की पाबंद नहीं थी. उस के आनेजाने का कोई निश्चित समय नहीं था.

घर वालों को किसी तरह की तकलीफ न हो, इस के लिए श्रद्धा ने अपने कमरे की सीढ़ी घर के बाहर से बनवा रखी थी. इसलिए वह जब भी देर से घर आती थी, सीधे अपने कमरे में चली जाती थी. अगर कभी वह सहेलियों के घर रुक जाती थी तो घर वालों को बता देती थी.

महादेव निवालकर श्रद्धा के कमरे का निरीक्षण करने लगे. उस के कमरे की सारी चीजें बिखरी हुई थीं. अलमारी के भी दोनों पट खुले हुए थे. उस के अंदर का सारा सामान बिखरा था. कमरे में बिखरे किताबों के पेज जले हुए थे. इस से पुलिस को लगा कि किताबों के पन्ने फाड़ कर श्रद्धा की लाश को जलाने की कोशिश की गई थी.

महादेव निवालकर घटनास्थल का निरीक्षण कर आसपड़ोस वालों से पूछताछ कर रहे थे कि जोन-8 के डीसीपी वीरेंद्र मिश्र, एसीपी प्रकाश गव्हाणे, थानाप्रभारी लक्ष्मण चव्हाण भी आ पहुंचे. इन्हीं अधिकारियों के साथ फोरैंसिक टीम और क्राइम ब्रांच यूनिट-8 के अधिकारी भी आए थे. फोरैंसिक टीम का काम निपट गया तो अधिकारियों ने भी घटनास्थल का निरीक्षण किया.

अधिकारियों के जाने के बाद महादेव निवालकर भी थाने लौट आए थे. उन्होंने श्रद्धा के घर वालों की ओर से हत्या का मुकदमा दर्ज कर मामले की जांच शुरू कर दी थी. चूंकि मामला दुष्कर्म और हत्या का था, इसलिए पुलिस हत्यारे को जल्दी से जल्दी गिरफ्तार करना चाहती थी. हत्यारे तक पहुंचने के लिए पुलिस ने श्रद्धा के घर वालों से गहराई से पूछताछ की, लेकिन उन लोगों से कोई खास जानकारी नहीं मिल सकी.

इस पूछताछ में पुलिस को सिर्फ इतना ही पता चला था कि उस रात श्रद्धा साढ़े 9 बजे घर आई थी. 10 बजे घर वालों के साथ खाना खा कर वह निपटी थी कि उस की 2 सहेलियां पूजा उर्फ पल्लवी और चैताली मुखर्जी उस से मिलने आ गई थीं. कुछ देर तीनों बातें करती रहीं, उस के बाद वे बाहर चली गई थीं. इस के बाद वे कब कमरे पर आईं, घर वालों को पता नहीं चला.

महादेव निवालकर ने श्रद्धा की दोनों सहेलियों को थाने बुला कर पूछताछ की तो पता चला कि वे श्रद्धा की जिगरी सहेलियां थीं. वे आपस में अकसर मिलती रहती थीं. कभीकभी एकदूसरे के घर रुक भी जाया करती थीं. उस दिन रात को वे श्रद्धा के यहां आईं तो थोड़ी देर घर में रुक कर सभी एटीएम पर पैसे निकालने चली गईं.

वहां से आ कर 12 बजे तक दोनों श्रद्धा के कमरे पर बातें करती रहीं. श्रद्धा को नींद आने लगी तो दोनों उठीं और श्रद्धा से दरवाजा बंद करने को कह कर दरवाजा उढ़का कर चली गईं. श्रद्धा की दोनों सहेलियों से भी हत्यारे तक पहुंचने का कोई सुराग नहीं मिला था. इस के बाद महादेव निवालकर ने अपना ध्यान श्रद्धा की क्लिनिक पर केंद्रित किया.

श्रद्धा फिजियोथेरैपिस्ट थी, ऐसे में उस के यहां हर तरह और हर उम्र के लोग आते थे. उन में कुछ ऐसे भी रहे होंगे, जो श्रद्धा को पसंद करते रहे होंगे. क्योंकि श्रद्धा आधुनिक फैशनपरस्त और खुले विचारों वाली युवती थी. वह हर किसी से खुल कर बात करती थी.

ऐसे में कोई ऐसा भी रहा होगा, जो उस के प्रति आकर्षित हो गया होगा. श्रद्धा ने उसे नजरअंदाज किया होगा, जिस की वजह से बात दुष्कर्म से हत्या तक पहुंच गई होगी. यही सोच कर पुलिस ने श्रद्धा के क्लिनिक और उस के यहां आनेजाने वालों के नामपते तथा टेलीफोन नंबर ले कर गहराई से जांच की, लेकिन कोई भी ऐसा आदमी नहीं मिला, जिस पर शक किया जाता. इस तरह मामला धीरेधीरे जटिल और पेंचीदा होता जा रहा था.

ऐसे में परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि पुलिस को श्रद्धा के घर वालों पर ही शक हो गया. पुलिस को लगा कि श्रद्धा की हत्या एक सोचीसमझी साजिश के तहत की गई थी, जिस में घर वाले ही शामिल हैं. वे श्रद्धा की किसी कमजोरी को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. यही सोच कर पुलिस पूछताछ के लिए श्रद्धा के एक मुंहबोले भाई तथा घर वालों को थाने ले आई.

इस बात की भनक जैसे ही मीडिया को लगी, उन्होंने श्रद्धा के घर वालों का जीना दूभर कर दिया. अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इलैक्ट्रौनिक और प्रिंट मीडिया ने इस मामले को तिल का ताड़ बना दिया. जिस के जो मन में आया, वह खबरों को रंगीन और चटपटी बना कर नोएडा के आरुषि हत्याकांड से जोड़ कर अनापशनाप खबरें पेश करने लगा.

मीडिया ने श्रद्धा के मांबाप को गुनाहों के कटघरे में खड़ा कर दिया. यही नहीं, डा. श्रद्धा के चरित्र को भी जम कर शर्मसार किया गया. और यह सब तब तक चलता रहा, जब तक श्रद्धा का असली कातिल पकड़ा नहीं गया. एक ओर जहां मीडिया नाक में दम किए था, वहीं दूसरी ओर मामले की जांच कर रही पुलिस टीम पर वरिष्ठ अधिकारियों का भी दबाव था. क्राइम ब्रांच और थाना पुलिस का मिलाजुला औपरेशन भी काम नहीं आ रहा था. पुलिस का सारा तंत्र बेकार हो चुका था.

परेशान पुलिस ने सभी रेलवे स्टेशनों, मुंबई के उपनगर नवी मुंबई, थाणे, वसई पालघर जनपद के नालासोपारा, विरार, कल्याण के सभी पुलिस थानों के संदिग्धों के रिकौर्ड चैक कर पूछताछ कर डाली, साथ ही श्रद्धा के फोन नंबरों के काल डिटेल्स निकलवा कर खंगाला. इस के अलावा करीब 5 सौ से अधिक लोगों से पूछताछ की गई, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा.

50 दिनों से अधिक बीत गए, पर पुलिस अंधेरे में ही हाथपैर मारती रही. पुलिस की समझ में नहीं आ रहा था कि श्रद्धा की हत्या का रहस्य क्या था और हत्यारा कौन था? इस मामले को ले कर पुलिस चिंतित जरूर थी, लेकिन निराश नहीं थी.

एक बार फिर पुलिस ने वरिष्ठ अधिकारियों के निर्देश पर घटनास्थल पर जा कर मामले से संबंधित सारे तथ्यों को समझने की कोशिश की. इसी के साथ उस इलाके में लगे सभी सीसीटीवी कैमरों की फुटेज निकलवा कर उन्हें बारीकी से देखा गया. इस में उन्हें आशा के विपरीत फल मिला. आखिर इस से श्रद्धा की हत्या की कडि़यां जुड़ ही गईं.

पुलिस को एक फुटेज में एक ऐसा चेहरा दिखाई दिया, जिस पर शक हुआ. उस का चेहरा काफी धुंधला था, पर उस की गतिविधियां काफी संदिग्ध लग रही थीं. चेहरा स्पष्ट न होने की वजह से उसे पहचाना नहीं जा सकता था. फुटेज को सांताकु्रज की लैब भेजा गया तो चेहरा कुछ साफ हुआ. इस के बाद सच्चाई सामने आ गई. वह युवक उसी बस्ती में लगभग 7 सालों से रह रहा था, जहां श्रद्धा का परिवार रहता था.

उस युवक का नाम देवाशीष धारा था. पुलिस उस की तलाश में लग गई. वह जिस मकान में किराए पर रहता था, मकान मालिक ने बताया कि वह 8 जनवरी, 2017 को कमरा खाली कर के अपने गांव चला गया था. पुलिस ने इस मामले में देर करना उचित नहीं समझा. वैसे भी संभावित अभियुक्त उन की पहुंच से काफी दूर निकल चुका था.

थानापुलिस ने इस बात की जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को दी. इस के बाद अधिकारियों के निर्देश पर पुलिस की एक टीम पश्चिम बंगाल स्थित देवाशीष के गांव के लिए रवाना हो गई. पुलिस को उस का पता मकान मालिक से मिल गया था.

देवाशीष के गांव गई पुलिस टीम ने स्थानीय पुलिस की मदद से उसे गिरफ्तार कर लिया. उसे वहां की अदालत में पेश कर के प्रोडक्शन वारंट पर मुंबई ला कर अधिकारियों की उपस्थिति में उस से पूछताछ की गई तो पहले वह खुद को इस मामले से अनभिज्ञ बताता रहा. लेकिन जब पुलिस ने थोड़ी सख्ती की तो वह टूट गया और उस ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया.

27 वर्षीय देवाशीष धारा मूलरूप से पश्चिम बंगाल के जिला मिदनापुर के थाना दासपुर के गांव मेधूपुर का रहने वाला था. उस के पिता नंदलाल गांव के एक गरीब किसान थे. परिवार का सब से बड़ा बेटा देवाशीष ही था. बड़ा हुआ तो घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने की वजह से सन 2010 में वह काम की तलाश में मुंबई आ गया.

कहा जाता है कि मुंबई में कोई भूखा नहीं सोता, पर यहां काम नसीब से मिलता है. यही देवाशीष के साथ भी हुआ. उसे उस के मनमुताबिक काम नहीं मिला. उस के गांव के कुछ लोग वहां मेहनतमजदूरी करते थे, उन्हीं के साथ वह भी मेहनतमजदूरी करने लगा.

देवाशीष महत्त्वाकांक्षी युवक था. मेहनतमजदूरी से जो पैसे मिलते थे, उन्हें जोड़ कर रखता था. खर्चे के बाद जो भी पैसे बचते थे, वह उन्हें गांव भेज देता था. रहने के लिए उस ने विलेपार्ले पूर्व के श्रद्धानंद रोड पर साईंबाबा मंदिर के पास किराए का कमरा ले रखा था.

जहां देवाशीष रहता था, उसी के नजदीक की लीलाबाई सोसायटी के एक चालनुमा 2 मंजिले मकान में काशीनाथ पांचाल परिवार के साथ रहते थे. उन के परिवार में पत्नी और 2 बेटियां थीं. 50साल के काशीनाथ मुंबई लोअर परेल की सन मिल कंपाउंड की एक प्रतिष्ठित फर्म में नौकरी करते थे. उन्हें बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने बेटियों को ही बेटों की तरह पालापोसा. वह बेटियों को पढ़ालिखा कर किसी योग्य बनाना चाहते थे. बड़ी बेटी श्रद्धा पढ़लिख कर फिजियोथेरैपिस्ट बन गई थी और विलेपार्ले वेस्ट जुहू में अपनी क्लिनिक खोल ली थी, जो धीरेधीरे चलने भी लगी थी. छोटी बेटी भी इलैक्ट्रौनिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी.

24 साल की श्रद्धा खूबसूरत तो थी ही, वाचाल भी थी. वह किसी से भी बात करने में नहीं झिझकती थी. इस की एक वजह यह थी कि उस का काम ही ऐसा था.

जो दूसरों की फिटनेस का खयाल रखता हो, वह अपनी फिटनेस का ध्यान रखेगा ही. श्रद्धा के अधिकतर ग्राहक फिल्मी दुनिया और टीवी सीरियलों में काम पाने वाले युवकयुवतियां थे. वे क्लिनिक पर भी आते थे और घर पर भी. ऐसे लोगों के बीच रहने की वजह से श्रद्धा खुद भी मौडल की तरह रहती थी. वह कपड़े भी छोटेछोटे पहनती थी.

देवाशीष की नजर श्रद्धा पर पड़ी तो वह उसे चाहने लगा. वैसे तो वह श्रद्धा को कई सालों से देखता आ रहा था, लेकिन उस के मन में श्रद्धा के प्रति प्यार तब जागा, जब उस ने फिजियोथेरैपिस्ट डाक्टर बन कर अपनी क्लिनिक खोली थी. फिल्म और सीरियल में काम पाने के इच्छुक युवकयुवतियों के संपर्क में रहने की वजह से श्रद्धा का रहनसहन और बातव्यवहार उसी तरह हो गया था. वह बनसंवर कर घर से सुबह निकलती थी तो देर रात को ही लौटती थी.

श्रद्धा की खूबसूरती देवाशीष को अपनी ओर आकर्षित करने लगी थी. दिल के हाथों मजबूर देवाशीष श्रद्धा का सामीप्य पाने को बेचैन रहने लगा था. इस के लिए वह श्रद्धा का पीछा भी करने लगा था. लेकिन वह उस से अपने दिल की बात कह नहीं पा रहा था. इस की एक वजह यह थी कि उस की और श्रद्धा की हैसियत में बड़ा अंतर था. श्रद्धा के सामने वह कुछ नहीं था.

लेकिन दिल तो दिल है, वह किस पर आ जाए कौन जानता है. जब देवाशीष से रहा नहीं गया तो एक दिन उस ने श्रद्धा से दिल की बात कह ही दी. भला श्रद्धा उस के प्यार को कहां स्वीकार करने वाली थी. उस ने जो जवाब दिया, वह देवाशीष के कलेजे में तीर की तरह उतर गया.

देवाशीष को अपमानित कर श्रद्धा अपने काम पर चली गई और उसे भूल गई. उस ने यह बात किसी को बताई भी नहीं. श्रद्धा भले ही इस बात को भूल गई थी, लेकिन देवाशीष अपने अपमान को नहीं भुला सका था. वह बदले की आग में जलने लगा. वह श्रद्धा को सबक सिखाने का मौका ढूंढने लगा.

घटना वाली रात देवाशीष दोस्तों से मिल कर लौट रहा था, तभी उस ने श्रद्धा की सहेलियों को उस के कमरे से निकलते देखा. उसे यह मौका उचित लगा. वह कुछ देर श्रद्धा के मकान के आसपास घूमता रहा. उस के बाद मौका देख कर वह श्रद्धा के कमरे के दरवाजे पर जा पहुंचा.

उस ने दरवाजे पर हाथ रखा तो दरवाजा खुल गया, क्योंकि दरवाजा खुला ही था. दरअसल, श्रद्धा की सहेलियों ने जाते समय उस से दरवाजा बंद करने को कहा था, लेकिन नींद में होने की वजह से वह दरवाजा बंद नहीं कर सकी थी. गहरी नींद में सो रही श्रद्धा को देवाशीष ने इस तरह दबोचा कि वह अर्द्धबेहोशी की स्थिति में चली गई. उसी हालत में उस ने श्रद्धा के कपड़े उतार कर उस के साथ दुष्कर्म किया और अपना अपराध छिपाने के लिए उसी की जींस से उस का गला घोंट दिया.

श्रद्धा मर गई तो अलमारी में रखी किताबें निकाल कर उस ने फाड़ा और उन के पन्ने श्रद्धा की लाश पर रख कर आग लगा दी. आग जब तक जोर पकड़ती, उस ने कमरे की लाइट तोड़ कर बाहर आ गया. बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी बंद की और भाग गया.

इस हत्याकांड के बाद एक महीने तक वह अपने दोस्तों के यहां रह कर पुलिस काररवाई के बारे में पता करता रहा. जब उस ने देखा कि पुलिस हत्यारे के बारे में पता नहीं लगा पा रही है तो निश्चिंत हो कर वह गांव चला गया. लेकिन वह बच नहीं सका और 2 फरवरी, 2017 को पुलिस द्वारा पकड़ा गया.

इंसपेक्टर महादेव निवालकर ने पूछताछ के बाद देवाशीष के खिलाफ दुष्कर्म और हत्या का मुकदमा दर्ज कर उसे अदालत में पेश किया, जहां से उसे आर्थर रोड जेल भेज दिया गया.

जिस गली जाना नहीं: क्या हुआ था सोम के साथ- भाग 3

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

कातिल फिसलन: दारोगा राम सिंह के पास कौनसा आया था केस- भाग 1

‘‘देखिए… मैं अभी नहा कर आई हूं,’’ सुखलाल से खुद को छुड़ाने की कोशिश करते हुए सलोनी किसी तरह बोली, लेकिन वह शराबी कहां मानने वाला था. वह बेशर्मी से बोला, ‘‘इसीलिए तो अभी खासतौर से तुम को प्यार करने आया हूं. तरोताजा फल का स्वाद ही अलग होता है.’’

इसी पकड़धकड़ में सलोनी का सिर टेबल के कोने से जा टकराया और उस की चीख निकल गई, ‘‘आह…’’

लेकिन सलोनी की कमजोरी तो जिस्मानी से ज्यादा दिमागी थी. वह कसमसा कर रह गई और सुखलाल उस के ऊपर छा गया.

तकरीबन 15 मिनट बाद सलोनी के जलते दिल पर अपने जहर की बरसात करने के बाद संतुष्टि की सांसें भरता सुखलाल उठा और कहने लगा, ‘‘बस, हो तो गया. कोई ज्यादा समय थोड़े ही लगता है हम को काम करने में. तुम्हीं बेकार में टैंशन ले लेती हो और हम को भी दे देती हो,’’ इस के बाद वह बाहर चला गया.

सलोनी ने भरी आंखों से घड़ी देखी तो बच्चों के स्कूल से लौटने का समय हो रहा था. बुझे मन से वह दोबारा नहाने चली गई. बाहर आ कर अपने माथे की चोट पर एंटीसैप्टिक क्रीम लगा ही रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

सलोनी ने दरवाजा खोला. उस के दोनों बेटे स्कूल से आ चुके थे.

बड़े बेटे की नजर अपनी मां के माथे पर गई तो वह पूछ बैठा, ‘‘मम्मी, यह चोट कैसे लगी?’’

‘‘वह जरा टेबल से सिर टकरा गया. तुम दोनों फ्रैश हो लो. मैं आलू के परांठे बना रही हूं,’’ सलोनी ने जल्दी से उसे टाला और रसोईघर में चली गई.

सलोनी के साथ इस तरह की घटनाओं की भूमिका तो उसी दिन से शुरू हो गई थी जब तकरीबन 6 महीने पहले उस के पति सुधीर ने पैसे की तंगी कम करने के लिए सुखलाल को ऊपर का कमरा किराए पर दिया था. उन को तब पता नहीं था कि कि 50 साल का सुखलाल किस कदर काइयां आदमी है. उस के तार इलाके के कुछ बड़े दबंगों से जुड़े थे और पुलिस से भी.

टीवीकूलरपंखे वगैरह की रिपेयरिंग की दुकान चलाने वाला सुधीर सीधासादा आदमी था. सुखलाल की गंदी नजरें यहां आते ही खुद से 10 साल छोटी सलोनी पर टिक गई थीं. पहली मुलाकात में ही वह उस के हुस्न को देखता रह गया था, जब वह उस के लिए चाय ले कर आई थी. इस के बाद तो सुखलाल ने उस पर लगातार डोरे डालने शुरू कर दिए थे.

जब सलोनी ने सुखलाल की दाल नहीं गलने दी तो उस ने एक दिन अपना गैरकानूनी कट्टा चुपके से सुधीर की दुकान में रखवा कर इलाके के अपने परिचित दारोगा से उस को गिरफ्तार

करा दिया.

अपने पति को दिलोजान से चाहने वाली सलोनी ने हर मुमकिन कोशिश कर ली लेकिन सुधीर को छुड़ा नहीं पाई. तब एक रात इसी सुखलाल ने सलोनी को अपने कमरे में इस बारे में बात करने के लिए बुलाया और अपने मन की कर ली. सुबह उस ने अपने नशे में होने का बहाना बनाया और सुधीर की रिहाई का लालच दे कर उसे किसी से कुछ भी न बताने के लिए राजी कर लिया.

रोजरोज थाने में थर्ड डिगरी झेल रहा बेकुसूर सुधीर अगले दिन ही रिहा कर दिया गया. सलोनी उस की हालत देख कर रो पड़ी.

सुखलाल ने उस के इलाज के लिए कुछ पैसे दे कर सलोनी की रहीसही हिम्मत भी तोड़ दी. उस ने सोचा कि अपनेआप को एक बार दागदार कर के उस ने अपना घर और सुहाग बचा लिया है, लेकिन उस का यह सोचना गलत निकला.

सुखलाल पर सलोनी का स्वाद लग चुका था. अब वह अकसर उस को मौका पाते ही दबोच लेता था.

आज भी सलोनी के साथ वही हुआ. वह बारबार सोचती कि सुधीर को सबकुछ बता दे, लेकिन सुखलाल का डर उस की जबान सिल देता.

शाम को सुधीर दुकान से आया और सलोनी के माथे पर लगी चोट देख कर शंका भरी आवाज में सवाल करने लगा.

दरअसल, सुधीर को यह सारा मामला किसी और ही नजरिए से दिखने लगा था. वह सोचता था कि सलोनी और सुखलाल के बीच कुछ है और उस का खमियाजा पति होने के नाते थाने में गिरफ्तार हो कर उसे भुगतना पड़ा.

सलोनी ने सुधीर से भी अपनी चोट का वही बहाना बनाया जो उस ने अपने बच्चों से बनाया था. सुधीर उस का जवाब सुन कर चुपचाप वहां से चला तो गया, लेकिन आज उस की आंखों में सलोनी ने एक ऐसी आग की झलक देखी जो उस ने पहले कभी महसूस नहीं की थी.

अगली सुबह बाहर हो रहे शोर से सलोनी जागी तो उस ने सुधीर को अपने पास नहीं पाया. वह हड़बड़ी में अपने बाल बांधती बाहर भागी. उस के घर के बगल वाली खाली जमीन के सामने लोगों की भीड़ लगी थी. कोई आदमी कह रहा था, ‘‘जिंदा है कि मर गया?’’

ये शब्द सुनते ही सलोनी को बेहोशी आने लगी. कहीं सुधीर ने तनाव में आ कर खुदकुशी तो…

घबराहट में वह बेतहाशा लोगों को धकियाती आगे बढ़ी तो पाया कि सामने सुखलाल खून से लथपथ गिरा पड़ा था. उस के पेट में लोहे की एक छड़ धंसी थी और जिस्म शांत हो चुका था.

इसी बीच पुलिस भी आ गई. नए दारोगा राम सिंह ने कुछ ही दिनों पहले इस इलाके का चार्ज लिया था और सुखलाल उस से भी मेलजोल बढ़ाने में लगा रहता था लेकिन राम सिंह की ईमानदारी के चलते वह कामयाब नहीं हो सका था.

सलोनी घर वापस आई और सुधीर को पूरे घर में तलाशा. उसे नहीं पा कर उस को फोन मिलाया. वह भी बंद मिला.

सलोनी सिर पकड़ कर रोने लगी कि आखिर वही हुआ जिस से बचने के लिए उस ने अपना सबकुछ लुटा दिया था… आखिरकार सुधीर कानून का मुजरिम बन ही गया.

सुखराम की लाश को कस्टडी में लेने के बाद दारोगा राम सिंह सलोनी

के घर आया क्योंकि सुखलाल उसी का किराएदार था. उस ने सुखलाल के कमरे की तलाशी ली. सीढ़ीघर के बाहर

की तरफ दीवार नहीं बनी थी जिस के चलते वहां से नीचे गिरने का खतरा बना रहता था.

दारोगा राम सिंह ने अंदाजा लगा लिया कि यहीं से सुखलाल भी नीचे गिरा है. उस के कमरे में रखी शराब की बोतलों को आगे की जांच के लिए जब्त कर उस ने सलोनी से सवाल किया, ‘‘आप के पति कहां हैं?’’

‘‘ज… जी, वे मेरे मायके गए हैं, कल रात को… मेरे चाचाजी की तबीयत अचानक खराब हो गई थी तो उन को ही देखने,’’ सलोनी ने झूठ बोल दिया ताकि राम सिंह का शक सुधीर पर न जाए. अपनी बात की तसदीक तो वह अपने मायके वालों को समझा कर करा ही सकती थी.

दादी अम्मा : आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा- भाग 3

शादी के कुछ दिनों बाद से ही बहू का मुंह फूलना शुरू हो गया. फिर एक दिन उस ने रेहान से साफतौर पर कह दिया, ‘मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, ऊपर से पूरे कुनबे की नौकरानी बना कर रख छोड़ा है. अब मुझ से और नहीं होगा.’

एक साल बीततेबीतते उस ने मनमुटाव कर के अपने शौहर से घर में अपने हिस्से में दीवारें खिंचवा लीं. नतीजा यह हुआ कि सकीना बेगम जिस चूल्हाचक्की से निकलने की आस लगाए बैठी थीं, दोबारा फिर उसी में जा फंसीं. रेहान की बड़ी बेटी आरजू उस के अपने हिस्से में ही पैदा हुई. उस के जन्म लेते ही सकीना बेगम दादी अम्मा बन गईं.

अब आस थी दूसरे बेटों की बहुओं से. लेकिन यह आस भी जल्द ही टूट गई. जब जुबैर और फिर फैजान का विवाह हुआ तो नई आई दोनों बहुएं भी बड़ी के नक्शेकदम पर चल पड़ीं. बड़ी ने छोटियों के भी ऐसे कान भरे कि उन्होंने भी अपनेअपने शौहरों को अपने कब्जे में कर उस संयुक्त घर में ही अपनेअपने घर बना डाले. अपने हिस्से में रह गए सुलेमान बेग और दादी अम्मा. बदलती परिस्थितियों में उन की बेगम अकेली न रहें, इसलिए सुलेमान बेग ने समय से 2 साल पहले ही रिटायरमैंट ले लिया. लेकिन फिर भी वे अपनी बेगम का साथ ज्यादा दिन तक नहीं निभा सके. रिटायरमैंट के कोई डेढ़ साल बाद सुलेमान बेग हाई ब्लडप्रैशर के झटके को झेल नहीं पाए और दादी अम्मा को अकेला छोड़ गए.

दादी अम्मा शौहर की मौत के सदमे से दिनोंदिन और कमजोर होती गईं. बीमारियों ने भी घेर लिया, सो अलग. पति की पैंशन से ही रोजीरोटी और दवा का खर्चा चल रहा था.

बेटी बहुत दूर ब्याही थी, इसलिए कभीकभार ही वह 2-3 दिन के लिए आ पाती थी.

दादी अम्मा सारा दिन अपने कमरे और बरामदे में अकेली पड़ी रहतीं और हिलते सिर के साथ कंपकंपाते हाथों से जैसेतैसे अपनी दो जून की रोटी सेंक लेतीं. सामने बेटों के घरों से पकवानों की खुशबू तो आती लेकिन पकवान नहीं. वे तरस कर रह जातीं. ठंड में पुराने गरम कपड़ों, जिन के रोंए खत्म हो चुके थे, के बीच ठिठुरती रहतीं. 3 बेटों और बहुओं के होते हुए भी वे अकेली थीं. वे कभीकभार ही दादी अम्मा वाले हिस्से में आते, वह भी बहुत कम समय के लिए. आते भी तो खटिया से थोड़ी दूर पर ही बैठते. दादी अम्मा के पास आना उन्हें एक बोझ सा लगता. बस, बच्चे ही उन के साथी थे. वे ‘दादी अम्मा, दादी अम्मा’ कहते हुए आते, उन की गोदी में घुस जाते और कभी उन का खाना खा जाते. इस में भी दादी अम्मा को खुशी हासिल होती, जैसेतैसे वे फिर कुछ बनातीं. बच्चों में आरजू दादी अम्मा के पास ज्यादा आयाजाया करती थी और उन की मदद करती रहती थी. सही माने में आरजू ही उन के दुखदर्द की सच्ची साथी थी.

पिछली सर्दियों में हाड़ गला देने वाली ठंड पड़ी तो लगा कि कहीं दादी अम्मा भी दुनिया न छोड़ दें. किसी बड़े चिकित्सालय के बजाय बेटे महल्ले के झोलाछाप डाक्टर से उन का इलाज करवा रहे थे. इस से रोग और बढ़ता गया. एक दिन जब तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो बेटे और बहुएं उन की चारपाई के आसपास बैठ गए. पता चलने पर दादी अम्मा के दूर के रिश्ते का भतीजा साजिद भी अपनी पत्नी मेहनाज के साथ आ गया. दोनों शिक्षित थे और दकियानूसी विचारों से दूर थे. दोनों सरकारी नौकरी पर थे और अवकाश ले कर अम्मा का हाल जानने आए थे.

आरजू के अलावा यही दोनों थे जो दूर रह कर भी उन का हालचाल पूछते रहते थे और मदद भी करते रहते थे.

‘बड़ी मुश्किल में हैं अम्मा. जान अटकी है. समझ में नहीं आता क्या करें,’ रेहान का गला भर आया.

‘सच्ची, अम्मा का दुख देखा नहीं जाता. इस से तो बेहतर है कि छुटकारा मिल जाए,’ बड़ी बहू ने अपने पति की हां में हां मिलाई.

‘अम्मा के मरने की बात कर रहे हैं, आप लोग. यह नहीं कि किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया जाए,’ जब रहा नहीं गया तो साजिद जोर से बोल पड़ा.

बेटेबहुओं ने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन नाकभौं चढ़ा लिए.

साजिद और मेहनाज ने समय गंवाना उचित नहीं समझा. वे दादी  अम्मा को अपनी कार से उच्चस्तरीय नर्सिंग होम में ले गए और भरती करा दिया. बेटे दादी अम्मा के भरती होने तक नर्सिंग होम में रहे, फिर वापस आ गए, भरती होने में खर्चे को ले कर भी तीनों बेटे एकदूसरे को देखने लगे. रेहान बोला, ‘इस वक्त तो मेरा हाथ तंग है. बाद में दे दूंगा.’

‘मेरे घर में पैर भारी हैं, परेशानी में चल रहा हूं,’ कहते हुए जुबैर भी पीछे हट गया.

फैजान ने चुप्पी साधते हुए ही अपनी मौन अस्वीकृति दे डाली.

‘आप लोग परेशान न हों, हम हैं तो. सब हो जाएगा,’ मेहनाज ने सब को तसल्ली दे दी.

दादी अम्मा करीब 10 दिन भरती रहीं. बेटे वादा तो कर के गए थे बीचबीच में आने का, लेकिन ऐसे गए कि पलटे ही नहीं. बेटों ने अपने पास रहते हुए जब दादी अम्मा की खबर नहीं ली तो दूर जाने पर तो उन्होंने उन्हें बिलकुल ही भुला दिया. साजिद और मेहनाज ही उन के साथ रहे और एक दिन के लिए भी उन्हें छोड़ कर नहीं गए. दोनों पतिपत्नी ने अपनेअपने विभागों से छुट्टी ले ली थी. सही चिकित्सा और सेवा सुश्रूषा से दादी अम्मा की हालत काफी हद तक ठीक हो गई.

उदास क्षितिज की नीलिमा: आभा को बहू नीलिमा से क्या दिक्कत थी- भाग 2

नीचे सास आराम से बरगद पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठी पंडित जी से बतिया रही थीं.

आभा को डरने की बीमारी रही है शुरू से. जब से ब्याह कर आई थीं, इस मंदिर में शिव की पूजा कर के डर भगाने की कोशिश करती थीं. अब बहू है तो पूजा के लिए उसे ही ऊपर भेज पंडित जी से नाना तरह के डर भगाने के उपाय पूछा करती हैं. 10 सालों से सेवाराम पंडित इन के घर के पुरोहित हैं.

वे आएदिन इन्हें विधिविधान से पूजा बताते रहते और आभा नियम से  पंडित सेवाराम से पूजा करवाती रहतीं. भले ये लोग कुर्मी जाति से हैं, पंडित जी को इस घर से सेवामेवा खूब हासिल होता.

आजकल पंडित जी का बेटा ही ऊपर मंदिर में सुबह की पूजा देख लेता है. उस के औफिस चले जाने के बाद 11 बजे तक पंडित जी ऊपर जा कर दर्शनार्थियों की पूजा का भार संभालते. पत्नी रही नहीं, 25 साल का बेटा क्षितिज सुबह 7 बजे से मंदिर की साफसफाई और पूजा का दायित्व संभालता है. साढ़े 10 बजे नीचे अपने घर वापस आ कर जल्दी तैयार हो कर कचहरी निकलता है. कचहरी यानी उस का औफिस.

जिन सीनियर वकील के अंतर्गत वह जूनियर वकील की हैसियत से काम सीख रहा है और कानून की पढ़ाई के अंतिम वर्ष का समापन कर रहा है, उन रामेश्वर की एक बात वह कतई बरदाश्त नहीं कर पाता.

रामेश्वर उसे उस के नाम ‘क्षितिज’ से न बुला कर भरी सभा में ‘पंडी जी’ कहते हैं.

एक तो पंडित कहलाना उसे यों ही नागवार गुजरता, कम नहीं झेला था उस ने कालेज में, तिस पर सब के सामने पंडी जी. लगता है, धरती फटे और वह सब लोगों को उस गड्ढे में डाल गायब हो जाए.

शर्मिंदिगी यहीं खत्म होती, तो कोई बात थी.

रामेश्वर सर के क्लाइंट, कचहरी के लोगबाग जो भी सामने पड़े, ‘और, कैसी चल रही पूजापाठ पंडी जी?’ कह कर उस के आत्मविश्वास पर घड़ों पानी उलीच जाते. अरे, पूछना ही है तो क्षितिज के वकीली के बारे में पूछो, उस की जिंदगी और सपनों के बारे में पूछो. लेकिन नहीं. पूछेंगे पापा के काम यानी पूजापाठ और कर्मकांड.

क्या करे, इन्हें खफा भी नहीं कर पाता. मुक्का खा कर मुक्का छिपाने की आदत लगानी पड़ रही है क्षितिज को.

25 साल का क्षितिज गोरा, पौरुष से दमकते चेहरे वाला 5.9 फुट की हाइट का आकर्षक युवक है. वह आज का नवयुवक है, तार्किक भी, बौद्धिक भी. बस, जिस कमी के कारण वह अपनी जिंदगी खुशी से नहीं जी पा रहा है, वह है स्वयं के लिए आवाज उठाना, आत्मविश्वास से खुद को स्थापित करना.

रामेश्वर ठहरे धर्मकर्म से दूर के इंसान. बड़े दिनों से उन्हें क्षितिज की पूजापाठ की दिनचर्या पर टोकने की इच्छा थी. लेकिन क्षितिज जैसा होनहार युवक कहीं बुरा मान कर उन्हें छोड़ चला न जाए, वे सीधेमुंह उसे कुछ कह न पाते.

इधर क्षितिज से अब सहा नहीं जा रहा था. उस ने आखिर हिम्मत कर के कह ही डाली.

“सर, मुझे पंडी जी मत कहिए न, क्षितिज कहिए.”

“क्यों जनाब, बुरा लगता है? तो छोड़ दो न ये पंडी जी वाले काम. लोगों को अपनी भक्ति खुद ही करने दो न.  और भी काम हैं उन्हें करो. और तुम इतने होनहार हो…”

“सर, करूं क्या? मेरी तो बिलकुल भी इच्छा नहीं पंडिताई करने की. पापा की उम्र हो रही है, इसलिए मुझे उन के आधे से अधिक यजमानों की पूजा करवानी पड़ती है. एक तो पुराने घरों की प्रीत, दूसरे यजमानों से मिलने वाले सामानों व कमाई का मोह, पापा को काम छोड़ने नहीं देता.”

“अरे भाई, पापा से कहो उन से जो बन पड़े, करें. नई पीढ़ी को क्यों अकर्मण्यता वाले काम में झोंक रहे हैं? तुम जब तक हिम्मत नहीं करोगे, हम तो भाई तुम्हे पंडी जी ही कहेंगे, वह भी सब के सामने. अब तुम समझो कि कैसे निकलोगे इस पंडी जी की बेड़ी से.”

जब से रामेश्वर ने उस की सुप्त इच्छा में आग का पलीता लगाया है, दिल करता है वह पापा को मना ही कर दे. 12वीं क्लास पास करने के बाद से, बस, लालपीली धोतियां, पूजा, हवन, आरती, पूजा सामग्री, दान सामग्री आदि में उस की जिंदगी गर्क है. उस के सारे दोस्त अपनी जिंदगी में कितने खुश व मस्त हैं. वे एक सामान्य जिंदगी जीते हैं, कोई अपनी गर्लफ्रैंड और नौकरी में व्यस्त है, कोई नई शादी व व्यवसाय में.

उन्हें न तो यजमानों के घर दौड़ना पड़ता है, न यजमानों के दिए सामान बांध कर पीली धोती पहन स्कूटर से घर व मंदिर के बीच भागना पड़ता है. पापा से कहा भी था धोती पहन कर सड़क पर निकलने में उसे शर्म आती है, पूजा करवाने जाएगा भी, तो कुरतापजामा पहन कर. पापा ने साफ मना कर दिया. यजमानों को लगना चाहिए कि वह ज्ञानी पंडित हैं, वरना श्रद्धा न हुई तो अच्छे पैसे नही मिलेंगे. लेदे कर किसी तरह उस ने बालों में चोटी रखने को मना कर पाया, यह भी कम नहीं था.

दोस्त कहते, क्षितिज पर हमेशा उदासी क्यों छाई है. क्यों न रहे उदास वह. जब सारे दोस्त अपनी गर्लफ्रैंड के साथ जिंदगी का आनंद उठा रहे हैं, घूमफिर रहे हैं तब वह पापा के स्वार्थ के पीछे अपनी जिंदगी गंवा रहा है. यजमान देख लेंगे तो काम मिलना बंद हो जाएगा.

यहां तो सुबह से मंत्रतंत्र के पीछे किसी लड़की का ख्वाब भी क्या आए. कालेज के दिनों में  कभी किसी लड़की की ओर जरा साहस कर के आंख उठाई नहीं कि लड़कियां पंडित जी कह कर चिढ़ा देतीं, लड़के कहते, ‘तेरी ‘पूजा’ कहां है.’ वह मन में जब तक समझने की कोशिश करता, लड़के मौजूद लड़कियों के सामने ही कहते, ‘वही पूजा, जिसे तेरे पापा ने तुझे थमाई है.’

विश्वास: क्या थी कहानी शिखा की- भाग 2

‘‘क्यों है तुझे कमल अंकल से नफरत? अपने मन की बात मुझ से बेहिचक हो कर कह दे गुडि़या,’’ अंजलि का मन एक अनजाने से भय और चिंता का शिकार हो गया.

‘‘पापा के पास आप नहीं लौटो, इस में उस चालाक इनसान का स्वार्थ है और आप भी मूर्ख बन कर उन के जाल में फंसती जा रही हो.’’

‘‘कैसा स्वार्थ? कैसा जाल? शिखा, मेरी समझ में तेरी बात रत्ती भर नहीं आई.’’

‘‘मेरी बात तब आप की समझ में आएगी, जब खूब बदनामी हो चुकी होगी. मैं पूछती हूं कि आप क्यों बुला लेती हो उन्हें रोजरोज? क्यों जाती हो उन के घर जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं? पापा बारबार बुला रहे हैं तो क्यों नहीं लौट चलती हो वापस घर.’’

शिखा के आरोपों को समझने में अंजलि को कुछ पल लगे और तब उस ने गहरे सदमे के शिकार व्यक्ति की तरह कांपते स्वर में पूछा, ‘‘शिखा, क्या तुम ने कमल अंकल और मेरे बीच गलत तरह के संबंध होने की बात अपने मुंह से निकाली है?’’

‘‘हां, निकाली है. अगर दाल में कुछ काला न होता तो वह आप को सदा पापा के खिलाफ क्यों भड़काते? क्यों जाती हो आप उन के घर, जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं?’’

अंजलि ने शिखा के गाल पर थप्पड़ मारने के लिए उठे अपने हाथ को बड़ी कठिनाई से रोका और गहरीगहरी सांसें ले कर अपने क्रोध को कम करने के प्रयास में लग गई. दूसरी तरफ तनी हुई शिखा आंखें फाड़ कर चुनौती भरे अंदाज में उसे घूरती रहीं.

कुछ सहज हो कर अंजलि ने उस से पूछा, ‘‘वंदना के घर मेरे जाने की खबर तुम्हें उन के घर के सामने रहने वाली रितु से मिलती है न?’’

‘‘हां, रितु मुझ से झूठ नहीं बोलती है,’’ शिखा ने एकएक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया.

‘‘यह अंदाजा उस ने या तुम ने किस आधार पर लगाया कि मैं वंदना की गैर- मौजूदगी में कमल से मिलने जाती हूं?’’

‘‘आप कल सुबह उन के घर गई थीं और परसों ही वंदना आंटी ने मेरे सामने कहा था कि वह अपनी बड़ी बहन को डाक्टर के यहां दिखाने जाएंगी, फिर आप उन के घर क्यों गईं?’’

‘‘ऐसा हुआ जरूर है, पर मुझे याद नहीं रहा था,’’ कुछ पल सोचने के बाद अंजलि ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

‘‘मुझे लगता है कि वह गंदा आदमी आप को फोन कर के अपने पास ऐसे मौकों पर बुलाता है और आप चली जाती हो.’’ 

‘‘शिखा, तुम्हें अपनी मम्मी के चरित्र पर यों कीचड़ उछालते हुए शर्म नहीं आ रही है,’’ अंजलि का अपमान के कारण चेहरा लाल हो उठा, ‘‘वंदना मेरी बहुत भरोसे की सहेली है. उस के साथ मैं कैसे विश्वासघात करूंगी? मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारे पापा बसते हैं, और कोई नहीं.’’

‘‘तब आप उन के पास लौट क्यों नहीं चलती हो? क्यों कमल अंकल के भड़काने में आ रही हो?’’ शिखा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘बेटी, तेरे पापा के और मेरे बीच में एक औरत के कारण गहरी अनबन चल रही है, उस समस्या के हल होते ही मैं उन के पास लौट जाऊंगी,’’ शिखा को यों स्पष्टीकरण देते हुए अंजलि ने खुद को शर्म के मारे जमीन मेें गड़ता महसूस किया.

‘मुझे यह सब बेकार के बहाने लगते हैं. आप कमल अंकल के कारण पापा के पास लौटना नहीं चाहती हो,’’ शिखा अपनी बात पर अड़ी रही.

‘‘तुम जबरदस्त गलतफहमी का शिकार हो, शिखा. वंदना और कमल मेरे शुभचिंतक हैं. उन दोनों का बहुत सहारा है मुझे. दोस्ती के पवित्र संबंध की सीमाएं तोड़ कर कुछ गलत न मैं कर रही हूं न कमल अंकल. मेरे कहे पर विश्वास कर बेटी,’’ अंजलि बहुत भावुक हो उठी.

‘‘मेरे मन की सुखशांति की खातिर आप अंकल से और जरूरी हो तो वंदना आंटी से भी अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लो, मम्मी. मुझे डर है कि ऐसा न करने पर आप पापा से सदा के लिए दूर हो जाओगी,’’ शिखा ने आंखों में आंसू ला कर विनती की.

‘‘तुम्हारे नासमझी भरे व्यवहार से मैं बहुत निराश हूं,’’ ऐसा कह कर अंजलि उठ कर अपने कमरे में चली आई.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में बहुत खिंचाव आ गया. आपस में बातचीत बस, बेहद जरूरी बातों को ले कर होती. अपने दिल पर लगे घावों को दोनों नाराजगी भरी खामोशी के साथ एकदूसरे को दिखा रही थीं.

शिखा की चुप्पी व नाराजगी वंदना और कमल ने भी नोट की. अंजलि उन के किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकी. वह कैसे कहती कि शिखा ने कमल और उस के बीच नाजायज संबंध होने का शक अपने मन में बिठा रखा था.

करीब 4 दिन बाद रात को शिखा ने मां के कमरे में आ कर अपने मन की बातें कहीं.

‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं कि मेरी सहेली रितु ने अन्य सहेलियों को सब बातें बता कर मेरे लिए इज्जत से सिर उठा कर चलना ही मुश्किल कर दिया है. अपनी ये सब परेशानियां मैं आप के नहीं, तो किस के सामने रखूं?’’

‘‘मुझे तुम्हारी सहेलियों से नहीं सिर्फ तुम से मतलब है, शिखा,’’ अंजलि ने शुष्क स्वर में जवाब दिया, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन क्यों मान लिया? मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है?’’

‘‘मम्मी, बात विश्वास करने या न करने की नहीं है. हमें समाज में मानसम्मान से रहना है तो लोगों को ऊटपटांग बातें करने का मसाला नहीं दिया जा सकता.’’

मोक्ष: क्या गोमती मोक्ष की प्राप्ति कर पाई? – भाग 3

गोमती डेरे पर लौट आईं. गिरतीपड़ती गंगा भी नहा लीं और मन ही मन प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, मेरा श्रवण जहां कहीं भी हो कुशल से हो, और वहीं घाट पर बैठ कर हर आनेजाने वाले को गौर से देखने लगीं. उन की निगाहें दूरदूर तक आनेजाने वालों का पीछा करतीं. कहीं श्रवण आता दीख जाए. गंगाघाट पर बैठे सुबह से दोपहर हो गई. कल शाम से पेट में पानी की बूंद भी न गई थी. ऐंठन सी होने लगी. उन्हें ध्यान आया, यदि यहां स्वयं ही बीमार पड़ गईं तो अपने श्रवण को कैसे ढूंढ़ेंगी? उसे ढूंढ़ना है तो स्वयं को ठीक रखना होगा. यहां कौन है जो उन्हें मनुहार कर खिलाएगा. गोमती ने आलू की सब्जी के साथ 4 पूरियां खाईं. गंगाजल पिया तो थोड़ी शांति मिली. 4 पूरियां शाम के लिए यह सोच कर बंधवा लीं कि यहां तक न आ सकीं तो डेरे में ही खा लेंगी या भूखा श्रवण लौटेगा तो उसे खिला देंगी. श्रवण का ध्यान आते ही उन्होंने कुछ केले भी खरीद लिए. ढूंढ़तीढूंढ़ती अपने डेरे पर पहुंच गईं. पुलिस चौकी में भी झांक आईं. देखते ही देखते 8 दिन निकल गए. मेला उखड़ने लगा. श्रवण भी नहीं लौटा. अब पुलिस वालों ने सलाह दी, ‘‘अम्मां, अपने घर लौट जाओ. लगता है आप का बेटा अब नहीं लौटेगा.’’ ‘‘मैं इतनी दूर अपने घर कैसे जाऊंगी. मैं तो अकेली कहीं आईगई नहीं,’’ वह फिर रोने लगीं. ‘‘अच्छा अम्मां, अपने घर का फोन नंबर बताओ. घर से कोई आ कर ले जाएगा,’’ पुलिस वालों ने पूछा. ‘‘घर से मुझे लेने कौन आएगा? अकेली बहू, बच्चों को छोड़ कर कैसे आएगी.’’ ‘‘बहू किसी नातेरिश्तेदार को भेज कर बुलवा लेगी. आप किसी का भी नंबर बताओ.’’ गोमती ने अपने दिमाग पर लाख जोर दिया, लेकिन हड़बड़ाहट में किसी का नंबर याद नहीं आया.

दुख और परेशानी के चलते दिमाग में सभी गड्डमड्ड हो गए. वह अपनी बेबसी पर फिर रोेने लगीं. बुढ़ापे में याददाश्त भी कमजोर हो जाती है. पुलिस चौकी में उन्हें रोता देख राह चलता एक यात्री ठिठका और पुलिस वालों से उन के रोने का कारण पूछने लगा. पुलिस वालों से सारी बात सुन कर वह यात्री बोला, ‘‘आप इस वृद्धा को मेरे साथ भेज दीजिए. मैं भी उधर का ही रहने वाला हूं. आज शाम 4 बजे टे्रन से जाऊंगा. इन्हें ट्रेन से उतार बस में बिठा दूंगा. यह आराम से अपने गांव पीपला पहुंच जाएंगी.’’ सिपाहियों ने गोमती को उस अनजान व्यक्ति के साथ कर दिया. उस का पता और फोन नंबर अपनी डायरी में लिख लिया. गोमती उस के साथ चल तो रही थीं पर मन ही मन डर भी रही थीं कि कहीं यह कोई ठग न हो. पर कहीं न कहीं किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा, वरना इस निर्जन में वह कब तक रहेंगी. ‘‘मांजी, आप डरें नहीं, मेरा नाम बिट्ठन लाल है. लोग मुझे बिट्ठू कह कर पुकारते हैं. राजकोट में बिट्ठन लाल हलवाई के नाम से मेरी दुकान है. आप अपने गांव पहुंच कर किसी से भी पूछ लेना. भरोसा रखो आप मुझ पर. यदि आप कहेंगी तो घर तक छोड़ आऊंगा. यह संसार एकदूसरे का हाथ पकड़ कर ही तो चल रहा है.’’ अब मुंह खोला गोमती ने, ‘‘भैया, विश्वास के सहारे ही तो तुम्हारे साथ आई हूं. इतना उपकार ही क्या कम है कि तुम मुझे अपने साथ लाए हो. तुम मुझे बस में बिठा दोगे तो पीपला पहुंच जाऊंगी. पर बेटे के न मिलने का गम मुझे खाए जा रहा है.’’ अगले दिन लगभग 1 बजे गोमती बस से अपने गांव के स्टैंड पर उतरीं और पैदल ही अपने घर की ओर चल दीं. उन के पैर मनमन भर के हो रहे थे. उन्हें यह समझ में न आ रहा था कि बहू से कैसे मिलेंगी. इसी सोचविचार में वह अपने घर के द्वार तक पहुंच गईं. वहां खूब चहलपहल थी. घर के आगे कनात लगी थीं और खाना चल रहा था. एक बार तो उन्हें लगा कि वह गलत जगह आ गई हैं. तभी पोते तन्मय की नजर उन पर पड़ी और वह आश्चर्य और खुशी से चिल्लाया,

‘‘पापा, दादी मां लौट आईं. दादी मां जिंदा हैं.’’ उस के चिल्लाने की आवाज सुन कर सब दौड़ कर बाहर आए. शोर मच गया, ‘अम्मां आ गईं,’ ‘गोमती आ गई.’ श्रवण भी दौड़ कर आ गया और मां से लिपट कर बोला, ‘‘तुम कहां चली गई थीं, मां. मैं तुम्हें ढूंढ़ कर थक गया.’’ बहू श्वेता भी दौड़ कर गोमती से लिपट गई और बोली, ‘‘हाय, हम ने सोचा था कि मांजी…’’ ‘‘नहीं रहीं. यही न बहू,’’ गोमती के जैसे ज्ञान चक्षु खुल गए, ‘‘इसीलिए आज अपनी सास की तेरहवीं कर रही हो और तू श्रवण, मुझे छोड़ कर यहां चला आया. मैं तो पगला गई थी. घाटघाट तुझे ढूंढ़ती रही. तू सकुशल है… तुझे देख कर मेरी जान लौट आई.’’ मांबेटे दोनों की निगाहें टकराईं और नीचे झुक गईं. ‘‘अब यह दावत मां के लौट आने की खुशी के उपलक्ष्य में है. सब खुशीखुशी खाओ. मेरी मां वापस आ गई हैं,’’ खुशी से नाचने लगा श्रवण. औरतों में कानाफूसी होने लगी, लेकिन फिर भी सब श्वेता और श्रवण को बधाई देने लगे. वे सभी रिश्तेदार जो गोमती की गमी में शामिल होने आए थे, गोमती के पांव छूने लगे. कोई बाजे वालों को बुला लाया. बाजे बजने लगे. बच्चे नाचनेकूदने लगे. माहौल एकदम बदल गया. श्रवण को देख कर गोमती सब भूल गईं. शाम होतेहोते सारे रिश्तेदार खापी कर विदा हो गए. रात को थक कर सब अपनेअपने कमरों में जा कर सो गए. गोमती को भी काफी दिन बाद निश्ंिचतता की नींद आई. अचानक रात में मांजी की आंखें खुल गईं, वह पानी पीने उठीं. श्रवण के कमरे की बत्ती जल रही थी और धीरेधीरे बोलने की आवाज आ रही थी. बातों के बीच ‘मां’ सुन कर वह सट कर श्रवण के कमरे के बाहर कान लगा कर सुनने लगीं. श्वेता कह रही थी, ‘तुम तो मां को मोक्ष दिलाने गए थे. मां तो वापस आ गईं.’ ‘मैं तो मां को डेरे में छोड़ कर आ गया था.

मुझे क्या पता कि मां लौट आएंगी. मां का हाथ गंगा में छोड़ नहीं पाया. पिछले 8 दिन से मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी. मैं ने मां को मारने या त्यागने का पाप किया था. मैं सारा दिन यही सोचता कि भूखीप्यासी मेरी मां पता नहीं कहांकहां भटक रही होंगी. मां ने मुझ पर विश्वास किया और मैं ने मां के साथ विश्वासघात किया. मां को इस प्रकार गंगा घाट पर छोड़ कर आने का अपराध जीवन भर दुख पहुंचाता रहेगा. अच्छा हुआ कि मां लौट आईं और मैं मां की मृत्यु का कारण बनतेबनते बच गया.’ बेटे की बातें सुन कर गोमती के पैरों तले जमीन कांपने लगी. सारा दृश्य उन की आंखों के आगे सजीव हो उठा. वह इन 8 दिनों में लगभग सारा मेला क्षेत्र घूम लीं. उन्होंने बेटे के नाम की जगह- जगह घोषणा कराई पर अपने नाम की घोषणा कहीं नहीं सुनी. इतना बड़ा झूठ बोला श्रवण ने मुझ से? मुझ से मुक्त होने के लिए ही मुझे इलाहाबाद ले कर गया था. मैं इतना भार बन गई हूं कि मेरे अपने ही मुझे जीतेजी मारना चाहते हैं. वह खुद को संभाल पातीं कि धड़ाम से वहीं गिर पड़ीं. सब झेल गईं पर यह सदमा न झेल सकीं. उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वह सचमुच मोक्ष…

सहारे की तलाश: क्या प्रकाश को जिम्मेदार बना पाई वैभवी?

प्यार का ऐसा भयानक अंजाम आपने सोचा न होगा

नींद न आने की वजह से सुशीला बेचैनी से करवट बदल रही थी. जिंदगी ने उसे एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया था, जहां वह पति प्रदीप से जुदा हो सकती थी. चाहत हर किसी की कमजोरी होती है और जब कोई इंसान किसी की कमजोरी बन जाता है तो वह उस से बिछुड़ने के खयाल से ही बेचैन हो उठता है. सुशीला और प्रदीप का भी यही हाल था. प्रदीप उसे कई बार समझा चुका था, फिर भी सुशीला उस के खयालों में डूबी रातरात भर बेचैनी से करवट बदलती रहती थी. उस रात भी कुछ वैसा ही था. रात में नींद न आने की वजह से सुबह भी सुशीला के चेहरे पर बेचैनी और चिंता साफ झलक रही थी. उसे परेशान देख कर प्रदीप ने उसे पास बैठाया तो उस ने उसे हसरत भरी निगाहों से देखा. उस की आंखों में उसे बेपनाह प्यार का सागर लहराता नजर आया.

कुछ कहने के लिए सुशीला के होंठ हिले जरूर, लेकिन जुबान ने साथ नहीं दिया तो उस की आंखों में आंसू उमड़ आए. प्रदीप ने गालों पर आए आंसुओं को हथेली से पोंछते हुए कहा, ‘‘सुशीला, तुम इतनी कमजोर नहीं हो, जो इस तरह आंसू बहाओ. हम ने कसम खाई थी कि हर पल खुशी से बिताएंगे और एकदूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे.’’

‘‘साथ ही छूटने का तो डर लग रहा है मुझे.’’ सुशीला ने झिझकते हुए कहा.

‘‘सच्चा प्यार करने वालों की खुशियां कभी अधूरी नहीं होतीं सुशीला.’’

‘‘मैं तुम्हारे बिना जिंदा नहीं रह सकती प्रदीप. तुम मेरी जिंदगी हो. यह जिस्म मेरा है, दिल मेरा है, लेकिन मेरे दिल की हर धड़कन तुम्हारी नजदीकियों की मोहताज है.’’

सुशीला के इतना कहते ही प्रदीप तड़प उठा. अपनी हथेली उस के होंठों पर रख कर उस ने कहा, ‘‘मुझे कुछ नहीं होगा सुशीला. मैं तुम्हें सारे जहां की खुशियां दूंगा. तुम्हारे चेहरे पर उदासी नहीं, सिर्फ खुशी अच्छी लगती है, इसलिए तुम खुश रहा करो. इस फूल से खिलते चेहरे ने मुझे हमेशा हिम्मत दी है, वरना हम कब के हार चुके होते.’’

‘‘मैं ने सुना है कि मेरे घर वालों ने धमकी दी है कि वे हमें जिंदा नहीं छोड़ेंगे?’’ सुशीला ने चिंतित हो कर पूछा.

‘‘अब तक कुछ नहीं हुआ तो आगे भी कुछ नहीं होगा, इसलिए तुम बेफिक्र रहो. अब तो हमारे प्यार की एक और निशानी जल्द ही दुनिया में आ जाएगी. हम हमेशा इसी तरह खुशी से रहेंगे.’’ प्रदीप ने कहा.

पति के कहने पर सुशीला ने बुरे खयालों को दिल से निकाल दिया. नवंबर, 2016 के पहले सप्ताह की बात थी यह. अगर सुशीला ने प्रदीप से प्यार न किया होता तो उसे यह डर कभी न सताता. प्यार के शिखर पर पहुंच कर दोनों खुश थे. यह बात अलग थी कि इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने काफी विरोध का सामना किया था.

उन्होंने ऐसी जगह प्यार का तराना गुनगुनाया था, जहां कभी सामाजिक व्यवस्था तो कभी गोत्र तो कभी झूठी शान के लिए प्यार को गुनाह मान कर अपने ही खून के प्यासे बन जाते हैं.

प्रदीप हरियाणा के सोनीपत जिले के खरखौदा कस्बे के बरोणा मार्ग निवासी धानक समाज के सुरेश का बेटा था. वह मूलरूप से झज्जर जिले के जसौर खेड़ी के रहने वाले थे, लेकिन करीब 17 साल पहले आ कर यहां बस गए थे. उन के परिवार में पत्नी सुनीता के अलावा 2 बेटे एवं एक बेटी थी. बच्चों में प्रदीप बड़ा था. सुरेश खेती से अपने इस परिवार को पाल रहे थे.

3 साल पहले की बात है. प्रदीप जिस कालेज में पढ़ता था, वहीं उस की मुलाकात नजदीक के गांव बिरधाना की रहने वाली सुशीला से हुई. सुशीला जाट बिरादरी के किसान ओमप्रकाश की बेटी थी. दोनों की नजरें चार हुईं तो वे एकदूसरे को देखते रह गए. इस के बाद जब भी सुशीला राह चलती मिल जाती, प्रदीप उसे हसरत भरी निगाहों से देखता रह जाता.

सुशीला खूबसूरत थी. उम्र के नाजुक पायदान पर कदम रख कर उस का दिल कब धड़कना सीख गया था, इस का उसे खुद भी पता नहीं चल पाया था. वह हसीन ख्वाबों की दुनिया में जीने लगी थी. प्रदीप उस के दिल में दस्तक दे चुका था.

सुशीला समझ गई थी कि खुद उसी के दिल की तरह प्रदीप के दिल में भी कुछ पनप रहा है. दोनों के बीच थोड़ी बातचीत से जानपहचान भी हो गई थी. यह अलग बात थी कि प्रदीप ने कभी उस पर कुछ जाहिर नहीं किया था. वक्त के साथ आंखों से शुरू हुआ प्यार उन के दिलों में चाहत के फूल खिलाने लगा था.

एक दिन सुशीला बाजार गई थी. वह पैदल ही चली जा रही थी, तभी उसे अपने पीछे प्रदीप आता दिखाई दिया. उसे आता देख कर उस का दिल तेजी से धड़कने लगा. वह थोड़ा तेज चलने लगी. प्रदीप के आने का मकसद चाहे जो भी रहा हो, लेकिन सामाजिक लिहाज से यह ठीक नहीं था.

प्रदीप ने जब सुशीला का पीछा करना काफी दूरी तक नहीं छोड़ा तो वह रुक गई. उसे रुकता देख कर प्रदीप हिचकिचाया जरूर, लेकिन वह उस के निकट पहुंच गया. सुशीला ने नजरें झुका कर शोखी से पूछा, ‘‘मेरा पीछा क्यों कर रहे हो?’’

‘‘तुम्हें ऐसा क्यों लग रहा है?’’ प्रदीप ने सवाल के जवाब में सवाल ही कर दिया.

‘‘इतनी देर से पीछा कर रहे हो, इस में लगने जैसा क्या है.’’

‘‘तुम से बातें करने का दिल हो रहा था मेरा.’’ प्रदीप ने कहा.

‘‘इस तरह मेरे पीछे मत आओ, किसी ने देख लिया तो…’’ सुशीला ने कहा.

प्रदीप उस दिन जैसे ठान कर आया था, इसलिए इधरउधर नजरें दौड़ा कर उस ने कहा, ‘‘अगर किसी से 2 बातें करने की तड़प दिल में हो तो रहा नहीं जाता सुशीला. तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. तुम पहली लड़की हो, जिसे मैं प्यार करने लगा हूं.’’

सुशीला ने उस की बातों का जवाब नहीं दिया और मुसकरा कर आगे बढ़ गई. हालांकि प्रदीप की बातों से वह मन ही मन खुश हुई थी. वह भी प्रदीप को चाहने लगी थी. उस रात दोनों की ही आंखों से नींद गायब हो गई थी.

इस के बाद उन की मुलाकात हुई तो सुशीला प्रदीप को देख कर नजरों में ही इस तरह मुसकराई, जैसे दिल का हाल कह दिया हो. इस तरह प्यार का इजहार होते ही उन के बीच बातों और मुलाकातों का सिलसिला चल निकला. प्यार के पौधे को रोपने में भले ही वक्त लगता है, लेकिन वह बढ़ता बहुत तेजी से है.

यह जानते हुए भी कि दोनों की जाति अलगअलग हैं, वे प्यार के डगर पर चल निकले. सुशीला प्रदीप के साथ घूमनेफिरने लगी. प्यार अगर दिल की गहराइयों से किया जाए तो वह कोई बड़ा गुला खिलाता है. दोनों का यह प्यार वक्ती नहीं था, इसलिए उन्होंने साथ जीनेमरने की कसमें भी खाईं.

समाज प्यार करने वालों के खिलाफ होता है, यह सोच कर उन के दिलों में निराशा जरूर काबिज हो जाती थी. यही सोच कर एक दिन मुलाकात के क्षणों में सुशीला प्रदीप से कहने लगी, ‘‘मैं हमेशा के लिए तुम्हारी होना चाहती हूं प्रदीप, लेकिन शायद ऐसा न हो पाए.’’

‘‘क्यों?’’ कड़वी हकीकत को जानते हुए भी प्रदीप ने अंजान बन कर पूछा.

‘‘मेरे घर वाले शायद कभी तैयार नहीं होंगे.’’

‘‘बस, तुम कभी मेरा साथ मत छोड़ना, मैं तुम्हारे लिए हर मुश्किल पार करने को तैयार हूं.’’

‘‘यह साथ तो अब मरने के बाद ही छूटेगा.’’ सुशीला ने प्रदीप से वादा किया.

प्यार उस शय का नाम है, जो कभी छिपाए नहीं छिपता. सुशीला के घर वालों को जब बेटी के प्यार के बारे में पता चला तो घर में भूचाल आ गया. ओमप्रकाश के पैरों तले से यह सुन कर जमीन खिसक गई कि उन की बेटी किसी अन्य जाति के लड़के से प्यार करती है. उन्होंने सुशीला को आड़े हाथों लिया और डांटाफटकारा, साथ ही उस की पिटाई भी की. उन्होंने जमाना देखा था, इसलिए उस पर पहरा लगा दिया.

शायद उन्हें पता नहीं था कि सुशीला का प्यार हद से गुजर चुका है. इस से पहले कि कोई ऊंचनीच हो, ओमप्रकाश ने उस के लिए लड़के की तलाश शुरू कर दी. सुशीला ने दबी जुबान से मना किया कि वह शादी नहीं करना चाहती, लेकिन उस की किसी ने नहीं सुनी.

प्यार करने वालों पर जितने अधिक पहरे लगाए जाते हैं, उन की चाहत का सागर उतना ही उफनता है. सुशीला के साथ भी ऐसा ही हुआ. एक दिन किसी तरह मौका मिला तो उस ने प्रदीप को फोन किया. उस से संपर्क न हो पाने के कारण वह भी परेशान था.

फोन मिलने पर सुशीला ने डूबे दिल से कहा, ‘‘मेरे घर वालों को हमारे प्यार का पता चल गया है प्रदीप. अब शायद मैं तुम से कभी न मिल पाऊं. वे मेरे लिए रिश्ता तलाश रहे हैं.’’

यह सुन कर प्रदीप सकते में आ गया. उस ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता सुशीला. तुम सिर्फ मेरा प्यार हो. तुम जानती हो, अगर ऐसा हुआ तो मैं जिंदा नहीं रहूंगा.’’

‘‘उस से पहले मैं खुद भी मर जाना चाहती हूं. प्रदीप जल्दी कुछ करो, वरना…’’ सुशीला ने कहा और रोने लगी.

प्रदीप ने उसे हौसला बंधाते हुए कहा, ‘‘मुझे सोचने का थोड़ा वक्त दो सुशीला. पहले मैं अपने घर वालों को मना लूं.’’

दोनों के कई दिन चिंता में बीते. प्रदीप ने अपने घर वालों को दिल का राज बता कर उन्हें सुशीला से विवाह के लिए मना लिया. जबकि सुशीला का परिवार इस रिश्ते के सख्त खिलाफ था. उन्होंने उस पर पहरा लगा दिया था. मारपीट के साथ उसे समझाने की भी कोशिश की गई थी, लेकिन वह प्रदीप से विवाह की जिद पर अड़ी थी.

सुशीला बगावत पर उतर आई थी, क्योंकि प्रदीप के बिना उसे जिंदगी अधूरी लग रही थी. कई दिनों की कलह के बाद भी जब वह नहीं मानी तो उसे घर वालों ने अपनी जिंदगी से बेदखल कर के उस के हाल पर छोड़ दिया.

प्रदीप ने भी सुशीला को समझाया, ‘‘प्यार करने वालों की राह आसान नहीं होती सुशीला. हम दोनों शादी कर लेंगे तो बाद में तुम्हारे घर वाले मान जाएंगे.’’

एक दिन सुशीला ने चुपके से अपना घर छोड़ दिया. पहले दोनों ने कोर्ट में, उस के बाद सादे समारोह में शादी कर के एकदूसरे को जीवनसाथी चुन लिया. इसी के साथ परिवार से सुशीला के रिश्ते खत्म हो गए.

सुशीला और प्रदीप ने प्यार की मंजिल पा ली थी. इस बीच प्रदीप ने एक फैक्ट्री में नौकरी कर ली. एक साल बाद प्यार की निशानी के रूप में सुशीला ने बेटी को जन्म दिया, जिस का नाम उन्होंने प्रिया रखा. वह 3 साल की हो चुकी थी. अब एक और खुशी उन के आंगन में आने वाली थी.

इतने दिन हो गए थे, फिर भी एक अंजाना सा डर सुशीला के दिल में समाया रहता था. इस की वजह थी उस के परिवार वाले. उन से उसे धमकियां मिलती रहती थीं. उस दिन भी सुशीला इसीलिए परेशान थी. सुशीला के घर वालों की नाराजगी बरकरार थी.

अपने रिश्ते को उन्होंने सुशीला से पूरी तरह खत्म कर लिया था. एक बार प्रदीप की होने के बाद सुशीला भी कभी अपने मायके नहीं गई थी. उसे मायके की याद तो आती थी, लेकिन मजबूरन अपने जज्बातों को दफन कर लेती थी. उस ने सोच लिया था कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा.

प्रदीप और सुशीला अपने घर में नए मेहमान के आने की खुशी से खुश थे, लेकिन जिंदगी में खुशियों का स्थाई ठिकाना हो, यह जरूरी नहीं है. कई बार खुशियां रूठ जाती हैं और वक्त ऐसे दर्दनाक जख्म दे जाता है, जिन का कोई मरहम नहीं होता. सुशीला और प्रदीप की भी खुशियां कितने दिनों की मेहमान थीं, इस बात को कोई नहीं जानता था.

18 नवंबर, 2016 की रात की बात है. प्रदीप के घर के सभी लोग सो रहे थे. प्रदीप और सुशीला बेटी के साथ अपने कमरे में सो रहे थे, जबकि उस के मातापिता सुरेश और सुनीता, भाई सूरज अलग कमरे में सो रहे थे. बहन ललिता अपने ताऊ के घर गई थी. समूचे इलाके में खामोशी और सन्नाटा पसरा था. तभी किसी ने प्रदीप के दरवाजे पर दस्तक दी. प्रदीप ने दरवाजा खोला तो सामने कुछ हथियारबंद लोग खड़े थे.

प्रदीप कुछ समझ पाता, उस से पहले ही उन्होंने उस पर गोलियां चला दीं. गोलियां लगते ही प्रदीप जमीन पर गिर पड़ा. सुशीला बाहर आई तो उसे भी गोली मार दी गई. प्रदीप के पिता सुरेश और मां सुनीता के बाहर आते ही हमलावरों ने उन पर भी गोलियां चला दीं. सूरज की भी आंखें खुल गई थीं. खूनखराबा देख कर उस के होश उड़ गए. हमलावरों ने उसे भी नहीं बख्शा.

गोलियों की तड़तड़ाहट से वातावरण गूंज उठा था. आसपास के लोग इकट्ठा होते, उस के पहले ही हमलावर भाग गए थे. घटना की सूचना स्थानीय थाना खरखौदा को दी गई. थानाप्रभारी कर्मबीर सिंह पुलिस बल के साथ मौके पर आ पहुंचे. पुलिस आननफानन घायलों को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गई. तीनों की हालत गंभीर थी, लिहाजा प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें रोहतक के पीजीआई अस्पताल रेफर कर दिया गया.

उपचार के दौरान सुरेश, सुनीता और प्रदीप की मौत हो गई, जबकि डाक्टर सुशीला और सूरज की जान बचाने में जुट गए. सूरज के कंधे में गोली लगी थी और सुशीला की पीठ में. डाक्टरों ने औपरेशन कर के गोलियां निकालीं. सुरक्षा के लिहाज से अस्पताल में पुलिस तैनात कर दी गई थी. सुशीला गर्भ से थी. उस के शिशु की जान को भी खतरा हो सकता था.

डाक्टरों ने उस की सीजेरियन डिलीवरी की. उस ने स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. डाक्टरों ने दोनों को खतरे से निकाल लिया था. पति और सासससुर की मौत ने उसे तोड़ कर रख दिया था. सुशीला बहुत दुखी थी. अचानक हुई घटना ने उस के जीवन में अंधेरा ला दिया था. वह दर्द और आंसुओं की लकीरों के बीच उलझ चुकी थी.

घायल सूरज ने पुलिस को जो बताया था, उसी के आधार पर अज्ञात हमलावरों के खिलाफ हत्या और हत्या के प्रयास का मुकदजा दर्ज किया गया. एसपी अश्विन शैणवी ने अविलंब आरोपियों की गिरफ्तारी के निर्देश दिए. 3 लोगों की हत्या से क्षेत्र में दहशत फैल गई थी.

अगले दिन एसपी अश्विन शैणवी और डीएसपी प्रदीप ने भी घटनास्थल का दौरा किया. उन के निर्देश पर पुलिस टीमों का गठन किया गया. एसआईटी इंचार्ज राज सिंह को भी टीम में शामिल किया गया. पुलिस ने जांच शुरू की तो सुशीला और प्रदीप के प्रेम विवाह की बात सामने आई.

पुलिस ने सुशीला से पूछताछ की, लेकिन वह सही से बात करने की स्थिति में नहीं थी. फिर भी उस ने हमले का शक मायके वालों पर जताया. मामला औनर किलिंग का लगा. पुलिस ने सुशीला के पिता के घर दबिश दी तो वह और उन के बेटे सोनू एवं मोनू फरार मिले.

इस से पुलिस को विश्वास हो गया कि हत्याकांड को इन्हीं लोगों के इशारे पर अंजाम दिया गया था. पुलिस के हाथ सुराग लग गया कि खूनी खेल खेलने वाले कोई और नहीं, बल्कि सुशीला के घर वाले ही थे. पुलिस सुशीला के पिता और उस के बेटों की तलाश में जुट गई.

उन की तलाश में झज्जर, बेरी, दादरी, रिवाड़ी और बहादुरगढ़ में दबिशें दी गईं. पुलिस ने उन के मोबाइल नंबर हासिल कर के जांच शुरू कर दी. 22 नवंबर को पुलिस ने सुशीला के एक भाई सोनू को गिरफ्तार कर लिया. उस से पूछताछ की गई तो नफरत की जो कहानी निकल कर सामने आई, वह इस प्रकार थी—

दरअसल, सुशीला के अपनी मरजी से अंतरजातीय विवाह करने से पूरा परिवार खून का घूंट पी कर रह गया था. सोनू और मोनू को बहन के बारे में सोच कर लगता था कि उस ने उन की शान के खिलाफ कदम उठाया है. उन्हें सब से ज्यादा इस बात की तकलीफ थी कि सुशीला ने एक पिछड़ी जाति के लड़के से शादी की थी.

उन के दिलों में आग सुलग रही थी. मोनू आपराधिक प्रवृत्ति का था. उस की बुआ का बेटा हरीश भी आपराधिक प्रवृत्ति का था. हरीश पर हत्या का मुकदमा चल रहा था और वह जेल में था. समय अपनी गति से बीत रहा था. समाज में भी उन्हें समयसमय पर ताने सुनने को मिल रहे थे. जब भी सुशीला का जिक्र आता, उन का खून खौल उठता था.

मोनू ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी बहन को उस के किए की सजा दे कर रहेगा. उस के इरादों से परिवार वाले भी अंजान नहीं थे. जुलाई, 2016 में मोनू की बुआ का बेटा हरीश पैरोल पर जेल से बाहर आया तो वह मोनू का साथ देने को तैयार हो गया. मोनू लोगों के सामने धमकियां देता रहता था कि वह बहन को तो सजा देगा ही, प्रदीप से भी अपनी इज्जत का बदला ले कर रहेगा.

मोनू शातिर दिमाग था. वह योजनाबद्ध तरीके से वारदात को अंजाम देना चाहता था. उस ने छोटे भाई सोनू को सुशीला के घर भेजना शुरू कर दिया. इस के पीछे उस का मकसद यह जानना था कि वे लोग कहांकहां सोते हैं, कोई हथियार आदि तो नहीं रखते. इस बीच जबजब सुशीला को पता चलता कि मोनू प्रदीप और उस के घर वालों को मारने की धमकी दे रहा है, वह परेशान हो उठती थी.

मोनू का भाई सोनू और पिता भी इस खतरनाक योजना में शामिल थे. जब मोनू पहली प्लानिंग में कामयाब हो गया तो उस ने वारदात को अंजाम देने की ठान ली. हरीश के साथ मिल कर उस ने देशी हथियारों के साथ एक कार का इंतजाम किया. इस के बाद वह कार से अपने साथियों के साथ रात में सुशीला के घर जा पहुंचा और वारदात को अंजाम दे कर फरार हो गया.

एक दिन बाद पुलिस ने सुशीला के षडयंत्रकारी पिता ओमप्रकाश को गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ के बाद दोनों आरोपियों को पुलिस ने अदालत में पेश कर के न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया. इस बीच खरखौदा थाने का चार्ज इंसपेक्टर प्रदीप के सुपुर्द कर दिया गया. वह मुख्य आरोपी मोनू की तलाश में जुटे हैं.

सुशीला ने सोचा भी नहीं था कि उसे प्यार करने की इतनी बड़ी सजा मिलेगी. ओमप्रकाश और उस के बेटे ने सुशीला के विवाह को अपनी झूठी शान से न जोड़ा होता तो शायद ऐसी नौबत न आती. सुशीला का सुहाग उजाड़ कर वे सलाखों के पीछे पहुंच गए हैं. कथा लिखे जाने तक आरोपियों की जमानत नहीं हो सकी थी और पुलिस मोनू और उस के अन्य साथियों की सरगर्मी से तलाश कर रही थी.

कच्ची गली: खुद को बदलने पर मजबूर हो गई दामिनी- भाग 3

फिर दामिनी को पानी की बोतल पकड़ाते हुए विपिन आगे कहने लगे, ‘‘मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं. मैं तुम्हारे साथ हूं. इस घटना के कारण तुम्हारे प्रति मेरे प्यार में कोई कमी नहीं आएगी. तुम मेरी पत्नी हो और हमेशा रहोगी. अपने मन से आज की इस रात को हमेशा के लिए मिटा दो. आज के बाद हम इस का जिक्र कभी नहीं करेंगे.’’

तभी विपिन का फोन बजा. स्क्रीन पर सृष्टि का नाम देख उन्होंने लपक कर फोन उठाया.

‘‘सौरी पापा, मेरा फोन स्विचऔफ हो गया था, बैटरी डैड हो गई थी. मुझे आज घर लौटने में देर हो गई. वह असल में एक फ्रैंड का बर्थडे था और पार्टी में थोड़ी लेट हो गई. पर अब मैं घर आ चुकी हूं, लेकिन मम्मा घर पर नहीं हैं. आप दोनों कहां हैं?’’ सृष्टि ने पूछा.

सृष्टि घर आ चुकी है. लेकिन उस के कुछ समय देर से आने के कारण उस के अभिभावक इतना घबरा गए कि एक ऐसा कटु अनुभव अपने जीवन में जोड़ बैठे जिसे भूलना शायद संभव नहीं. दामिनी के मन में अब झंझावत चल रहा है. क्या करे वह? क्या उस के लिए इस दुर्घटना को भुलाना संभव होगा? क्या इतना आसान है यह? इन्हीं सब विचारों में उलझी दामिनी घर के सामने आ रुकी अपनी गाड़ी से उतरना नहीं चाह रही थी. काश, वह समय की सूई उलटी घुमा पाती और सबकुछ पहले की तरह खुशहाल हो जाता. उस की गृहस्थी, प्यारी सी बिटिया, स्नेह लुटाता पति अब तक सबकुछ कितना स्वप्निल रहा उस के जीवन में.

विपिन की आवाज पर दामिनी धीरे से उतर कर घर में प्रविष्ट हो गई.

‘‘कहां गए थे आप दोनों?’’ सृष्टि के प्रश्न पर दामिनी से पहले विपिन बोल उठे, ‘‘तेरी मम्मा की तबीयत कुछ ठीक नहीं है. डाक्टर के पास गए थे.’’

अगले 2 दिनों तक दामिनी यों ही निढाल पड़ी रही. उस का मन किसी भी  काम, किसी भी बात में नहीं लग रहा था. रहरह कर जी चाहता कि पुलिस के पास चली जाए और उन दरिंदों को सजा दिलवाने के लिए संघर्ष करे. फिर विपिन द्वारा कही बातें दिमाग में घूमने लगतीं. बात तो उन की भी सही थी कि उस के पास पुलिस को बताने के लिए कोई ठोस बात नहीं, कोई पुख्ता सुबूत नहीं है.

इन दिनों विपिन ने घर संभाल लिया क्योंकि वे दामिनी को बिलकुल परेशान नहीं करना चाहते थे. वे उस के दिल और दिमाग की स्थिति से अनजान नहीं थे और इसीलिए उसे सामान्य होने के लिए पूरा समय देने को तैयार थे.

सृष्टि जरूर बर्थडे पार्टी की तैयारी में लगी हुई थी. अब पार्टी में केवल 3 दिन शेष थे. विपिन दामिनी की मानसिक हालत समझ रहे थे, इसलिए वे पार्टी को ले कर जरा भी उत्साहित न थे. लेकिन सृष्टि को क्या बताते भला, इसलिए उस के सामने वे चुप ही थे.

अगली सुबह विपिन के औफिस चले जाने  के बाद सृष्टि दामिनी से साथ मार्केट चलने का आग्रह करने लगी, ‘‘मम्मा, आप के लिए एक न्यू ड्रैस लेनी है. आखिर आप पार्टी की शान होने वाली हैं. सब से स्टाइलिश ड्रैस लेंगे.’’

सृष्टि चहक रही थी. लेकिन दामिनी का मन  उचट चुका था. वह अपने मन को शांत करने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. सृष्टि की बात से दामिनी के घाव फिर हरे होने लगे. ‘पार्टी’ शब्द सुन दामिनी को उस रात की बर्थडे पार्टी के कारण वह देर से घर लौटी थी. न सृष्टि पार्टी के चक्कर में पड़ती और न ही दामिनी के साथ यह हादसा होता.

अपने बिगड़ते मूड से दामिनी ने उस रात सृष्टि के देर से घर आने को ले कर कुछ उखड़े लहजे में कहा, ‘‘पार्टी, पार्टी, पार्टी… उस रात किस की बर्थडे पार्टी थी? क्या तुम एक फोन भी नहीं कर सकती थीं? इतनी लापरवाह कब से हो गईं तुम, सृष्टि?’’

अचानक नाराज दामिनी को देख सृष्टि चौंक गई, ‘‘वह… उस दिन… वह मम्मा… अब क्या बताऊं आप को. उस शाम मुझे कुछ ऐसी बात पता चली कि न तो मुझे समय का आभास रहा और न ही अपने डिस्चार्ज हुए फोन को चार्ज करने का होश रहा.’’

कुछ पल सोचने के पश्चात सृष्टि आगे कहने लगी, ‘‘पहले मैं ने सोचा था कि आप को यह बात बता कर चिंतित नहीं करूंगी पर अब सोचती हूं कि बता दूं.’’

सृष्टि और दामिनी का रिश्ता भले ही मांबेटी का था लेकिन उन का संबंध दोस्तों जैसा था. सृष्टि अपनी हर बात बेझिझक अपनी मां से बांटती आई थी. आज भी उस ने अपनी मां को उस शाम हुई देरी के पीछे का असली कारण बताने का निश्चय किया.

‘‘मां, मेरी सहेली है न निधि. उस का एक बौयफ्रैंड है. निधि अकसर उस से मिलने उस के पीजी रूम पर जाया करती थी. यह बात केवल उन दोनों को ही पता थी. मुझे भी नहीं. लेकिन पिछले कुछ दिनों से निधि और उस लड़के में कुछ अनबन चल रही थी.

निधि ने ब्रेकअप करने का मन बना लिया. यह बात उस ने अपने बौयफ्रैंड से कह डाली. वह निधि से अपने निर्णय पर दोबारा विचार करने की जिद करने लगा. फिर उस ने निधि को एक लास्ट टाइम इस विषय पर बात करने के लिए अपने पीजी रूम में बुलाया. बस, निधि से गलती यह हुई कि वह उस लड़के की बात पर विश्वास कर आखिरी बार उस से मिलने को राजी हो गई.’’

दामिनी ध्यान से सृष्टि की बात सुन रही थी. साथ ही, उस का मन इस उलझन में गोते लगा रहा था कि क्या उसे भी सृष्टि को अपनी आपबीती सुना देनी चाहिए.

‘‘उस दिन रूम में निधि के बौयफ्रैंड के अलावा 3 लड़के और मौजूद थे, जिन्हें उस ने  अपने दोस्त बताया. जब निधि ब्रेकअप के अपने निर्णय पर अडिग रही तो उन चारों ने मिल कर उस का रेप कर डाला. उस के बौयफ्रैंड को उस से बदला लेना था. उफ, कितनी घिनौनी सोच है. या तो मेरी या किसी की भी नहीं. ऊंह,’’ कह कर सृष्टि के चेहरे पर पीड़ा, दर्द, क्रोध और घिन के मिलेजुले भाव उभर आए.

वह आगे बोली, ‘‘आप ही बताओ मम्मा, जब निधि मुझ से ये सारी बातें शेयर कर रही थी तब ऐसे में समय का ध्यान कैसे रहता?’’

सृष्टि की बात सही थी. उस समय अपनी बात ढकने के लिए उस ने बर्थडे पार्टी का झूठा बहाना बना दिया था. मगर आज असलियत जानने के बाद दामिनी के पास भी कोई जवाब न था. वह चुपचाप सृष्टि का हाथ थामे बैठी रही, ‘‘निधि ने अब आगे क्या करने का सोचा है?’’ बस, इतना ही पूछ पाई वह.

‘‘इस में सोचना क्या है, मम्मा? जो हुआ उसे एक दुर्घटना समझ कर भुला देने में ही निधि को अपनी भलाई लग रही है. वह कहती है कि जिस नीयत से उस के बौयफ्रैंड ने उस का रेप किया, वह नहीं चाहती कि वह उस में कामयाब हो. वह इस घटना को अपने वजूद पर हावी नहीं होने देना चाहती. वैसे देखा जाए मम्मा, तो उस की बात में दम तो है. एक घटना हमारे पूरे व्यक्तित्व का आईना नहीं हो सकती.

‘‘आखिर रेप को इतनी वरीयता क्यों दी जाए कि उस से पहले और बाद के हमारे जीवन में इतना बड़ा फर्क पड़े. ठीक है, हो गई एक दुर्घटना, पर क्या अब जीना छोड़ दें या फिर बस मरमर कर, अफसोस करते हुए, रोते हुए जिंदगी गुजारें? इस बात को अपने मन में दफना कर आगे क्यों न बढ़ा जाए, वह भी पूरे आत्मविश्वास के साथ,’’ सृष्टि न जाने क्या कुछ कहे जा रही थी.

आज दामिनी के सामने आज की लड़कियों की केवल हिम्मत ही नहीं, उन के सुलगते विचार और क्रांतिशील व्यक्तित्व भी उजागर हो रहे थे. वे सिर्फ हिम्मत ही नहीं रखतीं, बल्कि समझदारी से भी काम लेती हैं. जिन बातों से अपना जीवन सुधरता हो, वे ऐसे निर्णय लेना चाहती हैं, न कि भावनाओं में बह कर खुद को परेशानी में डालने के कदम उठाती हैं. अपनी बेटी के मुंह से ऐसी बातें सुन कर दामिनी के अंदर भी कुछ बदल गया.

जब सृष्टि की बात पूरी हुई तब तक मांबेटी चाय के खाली कप मेज पर रख चुकी थीं.

‘‘तो चल, कौन सी मार्केट ले चलेगी एक शानदार सी ड्रैस खरीदने के लिए,’’ दामिनी ने कहा तो सृष्टि खुशी से उछल पड़ी, ‘‘मैं ने तो शौप भी तय कर रखी है. बस, आप की ड्रैस की फिटिंग चैक करनी है मेरी प्यारी मम्मा,’’ कह उस ने अपनी दोनों बांहें दामिनी के गले में डाल दीं. दामिनी भी सृष्टि को बांहों में ले हंसती हुई झूम उठी.

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