औनर किलिंग- भाग 4: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

लेकिन अमृता को तो यह बात पहले से ही पता थी. छोटी भाभी को ऐसा ही तो होता था जब रुद्र पैदा होने वाला था. तब उन्हें भी तो कुछ खाने का मन नहीं होता था. तबीयत खराब रहती थी, उलटी होने का सा एहसास रहता था. अब ठीक अमृता को भी वैसा ही लग रहा है. इस का मतलब वह पेट से थी. अपने भीतर वह एक हलचल सी महसूस करने लगी थी.

अपने अजन्मे बच्चे के बारे में जान कर अतुल्य तो खुशी से बावला हो गया और कहने लगा कि वह जल्द ही वहां आ रहा है और हाथ जोड़ कर वह उस के भाइयों से उस का हाथ मांगेगा, जिसे उन्हें देना ही पड़ेगा.

अमृता अपने आने वाले बच्चे के बारे में सोच कर ही खुश हुए जा रही थी, लेकिन उस ने कितने बड़े तूफान को न्योता दिया था, उसे नहीं पता था.

रुक्मिणी के पूछने पर अमृता ने सब सचसच बता दिया और कहने लगी, ‘‘मैं और अतुल्य एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं.’’

यह सुन कर रुक्मिणी ने अपना माथा पीट लिया और बोली, ‘‘यह क्या अनर्थ कर डाला. पता भी है, अगर घर में किसी को यह बात पता चल गई तो क्या होगा? काट डालेंगे तुम दोनों को. अच्छा, वह लड़का… मेरा मतलब है, अतुल्य यहां कब आ रहा है?’’

‘‘वह आज रात आने वाला है और मैं उस से मिलने उसी पुरानी फैक्टरी में जाने वाली हूं. इस काम में आप को मेरी मदद करनी पड़ेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, पर मैं तुम्हारे भैया को क्या कहूंगी? देखो अमृता, मु झे बहुत डर लग रहा है. लग रहा है, जैसे कोई बहुत बड़ा तूफान आने वाला है.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. भैया को अभी कुछ बताने की जरूरत ही क्या है?’’

‘‘पर, कभी तो बताना ही पड़ेगा न,’’ रुक्मिणी बोली. लेकिन उन दोनों को नहीं पता था कि बाहर खड़ा रघुवीर उन की सारी बातें सुन चुका था. उस का खून ऐसे खौल रहा था, जैसे सब जला कर राख कर देगा.

रघुवीर को अचानक अपने सामने खड़ा देख कर रुक्मिणी और अमृता का तो जैसे खून ही सूख गया. अमृता अभी कुछ बोलती ही कि वह उस के बालों को पकड़ कर घसीटता हुआ बाहर आंगन में ले गया. तब तक घर के बाकी लोग भी वहां पहुंच चुके थे. सच जानने के बाद सब की आंखें गुस्से से लाल हो गई थीं.

‘‘गलती हो गई, जो इसे शहर पढ़ने भेजा. कहा था मैं ने इस की शादी करवा देते हैं, पर नहीं. कलक्टर जो बनाना था बेटी को. लेकिन सिर्फ इस लड़की की वजह से मेरे परिवार की नाक कटे, यह मैं सहन नहीं कर सकता पिताजी, इसलिए जितनी जल्दी हो इस की शादी करवानी होगी,’’ गरजते हुए रघुवीर ने जोर से दरवाजे पर अपना हाथ पीटा था.

रुक्मिणी दौड़ कर रघुवीर के पास गई, तो उस ने उसे जोर से धक्का दे दिया. भाई का यह रूप देख कर अमृता कुछ पल के लिए अंदर तक कांप उठी थी.

मगर अमृता में भी वही गरम खून था. वह कहने लगी, ‘‘मैं हरगिज किसी और से ब्याह नहीं करूंगी. शादी तो मैं अपने अतुल्य से ही करूंगी.’’

अमृता का यह कहना ही था कि घर के दूसरे लोगों ने उस पर लातघूंसों की ऐसी बारिश कर दी कि वह बेदम हो कर जमीन में लोट गई. वह तो रुक्मिणी बीच में आ गई, नहीं तो आज उस की जान ले ली जाती.

अमृता के दोनों भाई आज इस किस्से को खत्म कर देना चाहते थे. दोनों भाइयों को धारदार चाकू ले कर भागते देख अमृता उन के पीछे भागी, मगर घर के लोगों ने उसे कमरे में बंद कर दिया. और तो और गांव की दाई को बुलवा कर उस का बच्चा भी गिरवा दिया.

मोटी रकम ले कर दाई भी यह वादा कर के चली गई कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगी. वे लोग नहीं चाहते थे कि गांव के लोगों को इस बात की भनक भी लगे. अगर ऐसा हुआ, तो पूरे गांव में उन की थूथू हो जाएगी…

‘‘मैं अपना कुछ भी नहीं बचा पाई इंस्पैक्टर साहब… न अपने प्यार को और न उस की निशानी को ही…’’ बोल कर अमृता अपना पेट पकड़ते हुए बिलख पड़ी.

अमृता की दर्दनाक कहानी सुन कर इंस्पैक्टर माधव के साथ वहां खड़े बाकी लोगों की रूह भी कांप उठी थी कि कोई इनसान इतना जालिम कैसे हो सकता है कि अपनी ही बहनबेटी की खुशियां नोच डाले… मगर यह सब सच था.

‘‘लेकिन, तुम यहां तक कैसे पहुंची? तुम्हें तो कमरे में बंद कर पहरा बिठा दिया गया था?’’ इंस्पैक्टर माधव के पूछने पर अमृता बताने लगी कि जब उसे पता चला कि दोनों भाइयों ने अतुल्य को खत्म कर दिया, तो वह चीख उठी थी. लगा जैसे अब सबकुछ खत्म हो गया, तो उस के जीने का मतलब क्या रह गया? वह मर जाना चाहती थी. वह पंखे से  झूलने ही जा रही थी कि रुक्मिणी वहां पहुंच गई.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम… मरने जा रही हो?’’ उस के हाथों से दुपट्टा छीनते हुए रुक्मिणी चीखी थी.

‘‘तो और क्या करूं मैं भाभी… किस के लिए जीऊं? कौन है अब मेरा? नहीं, मु झे मर जाने दो,’’ भाभी के हाथ से दुपट्टा छीनते हुए अमृता बोली.

‘‘मर जा, ले अभी मर जा. चल, मैं तेरी मदद करती हूं मरने में. और आजाद घूमने दे इन हत्यारों को, ताकि ये फिर किसी मासूम की बलि चढ़ा सकें. क्या तू नहीं चाहती कि इन हत्यारों को सजा मिले? क्या अतुल्य और अपने अजन्मे बच्चे को इंसाफ नहीं दिलाएगी तू?

‘‘तू सोच रही होगी कि मैं अपने ही पति के बारे में कैसी बातें कर रही हूं, लेकिन रघुवीर जैसा इनसान न तो किसी का पति बनने के लायक है और न ही भाई…’’

भाभी का ऐसा रूप देख कर एक पल के लिए तो अमृता सिहर उठी, लेकिन फिर रुक्मिणी कहने लगी, ‘‘जब किसी का प्यार छिन जाता है, तो उसे कितना दर्द होता है, यह मैं भुगत चुकी हूं.

‘‘मैं भी किसी से प्यार करती थी. हम दोनों शादी करने वाले थे. परिवार भी राजी था. मगर ऐयाश रघुवीर की नजर जाने कब और कैसे मु झ पर पड़ गई. वह हर हाल में मु झे अपना बना लेना चाहता था. उस ने मेरे मांबाप को धमकी दी कि अगर उस की शादी रुक्मिणी से नहीं हुई, तो वह किसी को नहीं छोड़ेगा.

‘‘अपनी जान की सलामती के डर से मेरे मातापिता ने मेरी शादी रघुवीर से करवा तो दी, लेकिन बाद में जब उन्हें पता चला कि रघुवीर नामर्द है, तो उन्होंने अपना माथा पीट लिया था कि उन की बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई.’’

अपने भाई की सचाई सुन कर अमृता के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी.

‘‘तुम तो मर कर आजाद हो जाओगी. मगर सोचो उन बेचारे बूढ़े मांबाप के बारे में, जिन का एकलौता बेटा चला गया. अमृता, मैं तुम्हारा साथ दूंगी इस में…’’

अमृता के घर वालों को जब पता चला कि वह उन की कैद से भाग गई है, तो पुलिस के डर से वे लोग भी घर छोड़ कर भाग गए. लेकिन कहां यह रुक्मिणी को भी नहीं पता था, क्योंकि अब वह अपने पिता के घर चली गई थी.

इंस्पैक्टर माधव को पता था कि अब उस के भाई अमृता को छोड़ेंगे नहीं, इसलिए उन्होंने उसे महिला संरक्षणगृह में रखवा दिया और गुनाहगारों की खोज में लग गए.

पर कोई कामयाबी नहीं मिली, तो अमृता ने बताया कि अगर एक पकड़ा जाए, तो अपनेआप सब मिल जाएंगे. और वह जानती है कि उस का भाई रघुवीर कहां हो सकता है. पास के एक गांव में ही एक औरत रहती है लालबाई, उस के घर भाई का डेरा होता है.

और ऐसा ही हुआ. रघुवीर के पकड़ में आते ही बाकी सब लोग भी धीरेधीरे पुलिस की गिरफ्त में आ गए.

जब कोर्ट में उन से पूछा गया कि क्यों उन्होंने अतुल्य की हत्या की? उस पर रघुवीर ने आंखें लाल कर के कहा, ‘‘एक गांव में लड़कालड़की बहनभाई होते हैं, जिन में शादी नहीं हो सकती. और वैसे भी वह निचली जाति का लड़का था. कहीं से भी उन की बराबरी का नहीं था. ऐसे लोगों की हत्या कर देना बिलकुल ठीक है.’’

कोर्ट में अमृता ने उन सब के खिलाफ गवाही दी और कहा कि इन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए. क्योंकि इन्होंने सिर्फ उन के प्यार की हत्या नहीं की, बल्कि उस के बच्चे के खून से भी अपने हाथ रंगे हैं.

उस दाई ने भी कोर्ट में आ कर उन के खिलाफ गवाही दी. नतीजतन, अमृता के दोनों भाइयों को उम्रभर कैद की सजा सुनाई गई. और बाकी सभी लोगों को भी सजा हुई.

अमृता के पास जीने का कोई मकसद नहीं रह गया था. वह एक पुल से नदी में छलांग लगाने ही वाली थी कि पीछे से इंस्पैक्टर माधव ने उस का हाथ खींच लिया और कहने लगे, ‘‘क्या तुम नहीं चाहती कि औनर किलिंग के नाम पर दुनिया में जो अपराध हो रहे हैं, उन्हें रोका जाना चाहिए?’’

‘‘पर, मैं जब खुद के प्यार को नहीं बचा पाई, तो और लोगों की क्या मदद कर पाऊंगी? और कौन देगा मेरा साथ इंस्पैक्टर साहब?’’

‘‘मैं दूंगा,’’ कह कर इंस्पैक्टर माधव ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो अमृता ने उन का हाथ थाम लिया.

‘‘और तुम मु झे सिर्फ माधव बुला सकती हो, क्योंकि आज से हम दोनों दोस्त बन गए हैं.’’

अमृता माधव के कंधे पर सिर रख कर जी भर कर रोई और माधव ने भी उसे रोने दिया, ताकि उस के मन का सारा दुख आंसुओं के रास्ते बह जाए. उन दोनों ने एकसाथ प्रण लिया कि वे इस सामाजिक बुराई के खिलाफ मिल कर लड़ेंगे.

मां की उम्मीद- भाग 3 : क्या कामयाब हो पाया गोपाल

बाहर सड़क किनारे, बिजली के खंभे के नीचे पड़े, पेड़ के एक तने पर ही बैठ कर गोपाल की बाकी की पढ़ाई शुरू हो गई थी और तब तक चलती रही जब तक अगले दिन के इम्तिहान की तैयारी पूरी नहीं हो गई.

कुछ दिन बाद जब इंटरमीडिएट इम्तिहान का नतीजा निकला तो गोपाल को खुद भी विश्वास नहीं हुआ कि उस ने पूरे उत्तर प्रदेश राज्य में पहला नंबर हासिल किया था.

रिजल्ट देख कर बड़े भैया भी खुश हुए और बोले, ‘‘तुम्हारे नंबर अच्छे आए हैं, अब तुम्हे कहीं न कहीं क्लर्क की नौकरी तो मिल ही जाएगी. चलो, मैं कल ही कहीं बात करता हूं.’’

गोपाल ने तुरंत कहा, ‘‘नहींनहीं, मुझे नौकरी नहीं करनी है, बल्कि मुझे आगे पढ़ाई करनी है और मां के सपने को पूरा करना है. वे चाहती हैं कि मैं खूब पढ़ाई कर के एक बड़ा अफसर बनूं.’’

बड़े भैया ने कुछ अनमने से हो कर कहा था, ‘‘अब मैं तुम्हारा खर्चा और नहीं उठा सकता हूं. समय आ गया है कि अब तुम खुद कुछ कमाना शुरू करो.’’

यह सुन कर गोपाल को अच्छा नहीं लगा था, पर इतने अच्छे नंबर और बोर्ड में पहला नंबर आने से उस का आत्मविश्वास बढ़ गया था, ‘‘पर भैया, मैं ने बोर्ड में टौप किया है. मुझे लगता है कोई न कोई कालेज तो

मेरी फीस माफ कर ही देगा. आप मुझे बस 50 रुपए दे दीजिए.’’

‘‘अच्छा ठीक है. जब मुझे ट्यूशन के पैसे मिलेंगे, मैं तुम्हे दे दूंगा,’’ भाई की यह बात सुन कर गोपाल का दिल बल्लियों उछलने लगा था.

अगले महीने की पहली तारीख को बड़े भैया ने गोपाल के हाथ में 50 रुपए रख दिए और उस ने उसी रात कानपुर की ट्रेन पकड़ ली थी.  उस ने कानपुर के डीएवी कालेज के प्रिंसिपल कालका प्रसाद भटनागर के बारे में बहुत अच्छी बातें सुनी थीं. बस अपनी जिंदगी बनाने के लिए वह कानपुर चला आया था.

गरमी की छुट्टियां चालू हो गई थीं, पर प्रिंसिपल साहब अपने दफ्तर में बैठे थे. उस की हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की मार्कशीट देखी तो बोले, ‘‘तुम्हे कहीं जाने की जरूरत नहीं है. तुम्हारा एडमिशन बस यहां हो गया है. तुम्हारी फीस माफ और होस्टल का खर्चा भी. हमारे कालेज को तुम्हारे जैसे बच्चों की जरूरत है. मुझे पूरा यकीन है कि तुम हमारे कालेज का नाम रोशन करोगे.’’

प्रिंसिपल साहब के कमरे से निकला तो गोपाल का दिल खुशी से फूला न समा रहा था. अपना टिन का बक्सा उठाए वह होस्टल पहुंच गया और अपने 4 साल उस ने इसी कमरे में बिताए थे.  बीए के इम्तिहान में फर्स्ट डिवीजन आई तो उस की एमए की फीस भी माफ हो गई थी और आज एम ए का रिजल्ट भी आने वाला था.

‘अरे ओ भैया. यहां बैठ कर क्या दिन में ही सपने देख रहे हो.. चलोचलो, जल्दी चलो. प्रिंसिपल साहब अपने दफ्तर में आप को बुलाए हैं,’’ दफ्तर का चपरासी गोपाल को बुलाने आया था.

गोपाल तत्काल उठा और भाग कर कमरे में जा कर कमीज पहन कर आ गया. उस का दिल तेजी से धड़क रहा था कि प्रिंसिपल साहब ने उसे क्यों बुलाया है? शायद रिजल्ट आ गया होगा. अगर रिजल्ट अच्छा न हुआ तोड़ अगर फर्स्ट डिवीजन न आई तो क्या होगा? क्या उसे होस्टल खाली करना पड़ेगा? इम्तिहान देते हुए तबीयत इतनी खराब थी…

दफ्तर के पास पहुंच कर गोपाल ने देखा कि उस का सब से बड़ा प्रतिद्वंद्वी विद्या चरण भी वहां पहुंचा हुआ था. उसे भी दफ्तर में बुलाया गया था. दोनों की आंखें मिलीं तो लगा कि वे एकदूसरे को नापने की कोशिश कर रहे थे.

चपरासी ने दोनों को अंदर आने का इशारा किया.

प्रिंसिपल साहब बहुत गंभीर स्वभाव के इनसान थे. उन्होंने अपना चश्मा एडजस्ट किया और दोनों को देखा.

उन के स्वभाव के उलट आज उन के चेहरे पर मंद मुसकराहट थी, ‘‘तुम लोगों का रिजल्ट आ गया  है. तुम ने हमारे कालेज का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है. मैं ने सोचा कि तुम्हे खुद ही बता दूं…’’

ऐसा कहते हुए प्रिंसिपल अपनी कुरसी से उठ कर आगे आए और विद्या चरण से हाथ मिलाते हुए बोले,

‘‘मुबारक हो विद्या, तुमने कालेज में टौप किया है.’’

विद्या चरण का चेहरा खुशी से चमक उठा और वह तुरंत प्रिंसिपल साहब के पैर छूने को झुक गया. साथ ही वह तिरछी नजर से उसे भी देख रहा था मानो कह रहा हो, ‘ले बेटा, बड़ा चौड़ा हो रहा था कि फर्स्ट तो मैं ही आऊंगा. पता लग गई अपनी औकात.’

गोपाल का फर्स्ट आने का सपना चकनाचूर हो गया था, पर आंखें झुकाए वह वहां खड़ा रहा था. किसी तरह आंसू छिपाने की कोशिश कर रहा था.

उस का प्रतिद्वंद्वी आखिरकार उस से जीत गया था.

गोपाल वहां खड़ा हुआ अपने पैर के अंगूठे को देखे जा रहा था और उस ने ध्यान भी नहीं दिया कि कब प्रिंसिपल साहब उस के पास आकर खड़े हो गए और उसे अपने गले लगा लिया, ‘‘और तुम तो मेरे चमत्कारी बच्चे हो. तुम ने हम सब की छाती चौड़ी कर दी है. तुम ने यूनिवर्सिटी में टौप किया है. पहली बार हमारे कालेज से किसी लड़के ने यूनिवर्सिटी में टौप किया है. जल्दी ही अपना गोल्ड मैडल लेने के लिए तैयार हो जाओ.’’

यह सुन कर गोपाल सकते में आ गया. उसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. आंखों में आए दुख के आंसू अब खुशी के आंसुओं में बदल गए थे.

प्रिंसिपल साहब ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘हमारे कालेज में एक लैक्चरर की जगह खाली है. मैं चाहता हूं कि तुम यहां जौइन कर लो. मुझे पता है कि तुम प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहते हो पर तुम्हारी उम्र अभी कम है. अगले साल तक यहीं पढ़ाओ और अपनी तैयारी भी करो.

कालेज का भी फायदा और तुम्हारा भी. क्या खयाल है?’’

‘‘जैसी आप की आज्ञा सर,’’ कहते हुए गोपाल ने हाथ जोड़ कर सिर झुका दिया और उस के हाथ प्रिंसिपल साहब के पैरों की ओर बढ़ गए.

प्रिंसिपल साहब के दफ्तर से जब गोपाल बाहर निकला, उस की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी. कड़ी मेहनत, दृढ निश्चय और कुछ कर दिखाने की इच्छा और उन सब के पीछे थी उस की मां की उम्मीदें जिन की ताकत ने आज उसे एक कामयाब जिंदगी की चौखट पर ला कर खड़ा कर दिया था.

बुढ़ापे में जो दिल बारंबार खिसका-भाग 3

नेहा ने पलक झपकते ही कहे पर अमल किया और बाकी सहेलियों को आंख मारी. ‘‘हांहां, क्यों नहीं, अंकल, जरूर. हम 4 हैं, आप भी 4 स्कूटी पर बैठ सकेंगे? तो आइए, आप लोग भी क्या याद करेंगे.’’ ‘‘बुड्ढों का चौगड्डा खुशी की बौखलाहट में जल्दी ही एकएक कर के चारों लड़कियों के पीछे मजे लेने बैठ गया. लड़कियों ने आपस में एकदूसरे को आंख मारी, तो बुड्ढों ने अपने साथियों को. सब के अपने मंसूबे थे. लड़कियों ने जो झटके से स्कूटी स्टार्ट की तो अंकल लोगों की मानो हलक में सांस अटक गई. और जो स्पीड पकड़ी तो वे लाललाल हुए मुंह से रोकने के लिए चिल्लाते रहे. लड़कियां आज दूर निकल कर पहाड़ी के पीछे झरने के पास तक चली गईं, जिसे देखने की तमन्ना तो थी पर अकेली वे वहां जाने से डरती थीं. आज मौका मिल गया, एक पंथ दो काज. वे सोचने लगीं कि काश, जयंति भी साथ आ पाती तो कितना मजा आता.

‘‘अंकल, आप लोग यहां पत्थरों पर चैन से बैठो. हम थोड़ा दूसरी ओर से भी देख कर आती हैं.’’ उन्होंने कहा. ‘‘ओके गर्ल्स,’’ बुड्ढे मस्त थे.

‘‘हां जयंति, तुम्हारे कहे अनुसार हम ने चारों बुड्ढों को वहीं झरने के पास धोखे से छोड़ दिया है. अब हम वापस आ रही हैं, आधे घंटे में मिलते हैं, ओके,’’ आगे बढ़ कर नेहा ने जयंति को मिशन पहाड़ी सफल हुआ बता दिया था.

अंकल लोग तो अभी अपनी सांसें ही ठीक कर रहे थे, वे दूसरी ओर के दूसरे रास्ते से निकल कर वापस पार्क पहुंच कर देर तक मजा लेती रहीं. जयंति वहीं इंतजार कर रही थी. मोबाइल पर सारा डायरैक्शन उन्हें वही दे रही थी. ‘‘काश, तू भी साथ चल सकती तो सब की बिगड़ी शक्लें देखती.’’

‘‘कोई नहीं, अब घर पर बिगड़ी शक्लों के साथ बुरी हालत भी देख लूंगी, वह हंसी थी.’’ ‘‘बुरे फंसे सारे बुढ़ऊ. वहां न कोई सवारी, न कोई आदमी. पैदल जब इतनी दूर चल कर आएंगे हांफतेकांपते, तब असली मजा आएगा.’’

‘‘आज अच्छी तरह ले लिया होगा लड़कियों के संग सैर का मजा.’’ ‘‘अब शायद सुधर जाएं और हमें छेड़ने की हिमाकत न करें,’’ सब अपने मिशन पर खूब हंसीं.

अब यह देखो, चारचांद लगाने के लिए और क्या लाई हूं.’’ जयंति बैग से कुछ निकालने लगी तो सभी उत्सुकतावश देखने लगीं. ‘‘अरे वाह, कैप्स, स्कार्फ. कितना प्यारा रैड कलर. पर एक ही कलर क्यों? किस के लिए? हमारे लिए?’’ शिखा, सीमा, नेहा, ज्योति सब खुश भी थीं, हैरान भी.

‘‘अब सीक्रेट सुनो, मेरे फादर इन लौ नई कैप के लिए मेरे हबी से कह रहे थे. मैं ने कहा कि मैं ले आऊंगी, और मैं एक नहीं, 4-4 लाल रंग की टोपियां उठा लाई, इसी चौकड़ी के लिए. जानती हो क्यों? क्योंकि मस्ताना, द हीरो, को लाल रंग से सख्त चिढ़ है. कल पार्क में आ कर बैठने तो दो बुड्ढों को. जब ज्यादा लोग टहल के चले जाते हैं, पार्क तकरीबन खाली हो जाता है. ये बुड्ढे तब भी बैठे मजे ले रहे होते हैं. बस, तभी इन्हें ये गिफ्ट पहना कर और फिर उन्हें मजा दिलाएंगे. आइडिया कैसा लगा?’’ ‘‘हां, स्कार्फ की गांठ जरा कस के लगाना सभी, ताकि जल्दी खोल न सकें वे,’’ शिखा ने कहा तो सभी हंस पड़ीं.

‘‘हां, मैं और शिखा पार्क के दोनों गेट बंद कर के रखेंगी,’’ नेहा ने योजना को सफल बनाने में एक और टिप जोड़ा. ‘‘और मस्ताना को पार्क के अंदर छोड़ कर वहां से थोड़ी देर के लिए बाहर निकल जाऊंगी. फिर मस्ताना अपना काम करेगा और मैं 5-7 मिनट बाद लौट आऊंगी स्थिति संभालने,’’ हाहा, सब खूब हंसीं.

‘‘बुढ़ापे में जब रेबीज की कईकई सुइयां लगेंगी, तो सारी लोफरी निकल जाएगी.’’ उन के सम्मिलित ठहाकों से पार्क गुंजायमान हो उठा. दूसरे दिन कांड हो चुका था. टोपियां संभालते स्कार्फ खोलने की कोशिश में गिरतेपड़तेचिल्लाते उन आशिकमिजाज बुड्ढों की हालत देखने लायक थी. बाकी खड़े लोगों ने भी लड़कियों का साथ दिया.

‘‘जो हुआ, ठीक हुआ इन के साथ.’’ ‘‘अच्छा सबक है. सभी को तंग कर रखा था.’’

‘अच्छा हुआ, सबक तो मिला. जोर किस का बुढ़ापे में जो दिल खिसका,’ रेवती भी चिढ़ से बुदबुदा उठी. पास खड़ी जयंति ने सुना, उन की आंखों में कोई दर्द भी न दिखा तो उसे राहत मिली कि वह उन की दोषी नहीं है. पास के अस्पताल में रोज इंजैक्शन लगवाने जाते दोस्त आंसुओं में कराहते हुए मिलते, पर कुछ न कह पाते न आपस में, न घर वालों से, न ही और किसी से. जयंति की टीम ने उन्हें एक नारे से सावधान कर दिया था, ‘जब तक बहूबेटियों के लिए इज्जत आप के पास, तब तक खैर मनाओ आप…वरना और भी तरीके हैं अपने पास…’

रणवीर सोच रहा था चारों में से किसी के घर वालों ने रिपोर्ट क्यों नहीं की. उस ने आंगन में मस्ताना के साथ बैठी पेपर पर कुछ लाइनें खींचती जयंति की ओर देखा तो पास चला आया, देखा तो वह मुसकराने लगा. पार्क में कैपस्कार्फ में गिरतेपड़ते मस्ताना के डर से भाग रहे उन चारों बुड्ढों का कितना सटीक कार्टून बनाया था जयंति ने.

कम्मो डार्लिंग – भाग 3 : इच्छाओं के भंवरजाल में कमली

कौफी पीते समय आकाश ने मुझ से कहा था, ‘‘भाभीजी, उस दिन आप वह गुलाबी रंग की साड़ी नहीं खरीद पाईं. इस का मुझे आज भी अफसोस है. मेरा तो मन था कि वह साड़ी मैं आप को गिफ्ट कर दूं, लेकिन मैं आप के पति की वजह से ऐसा नहीं कर पाया था.’’

मैं ने आकाश से कहा था, ‘‘छोडि़ए आकाशजी, मेरे नसीब में वह साड़ी नहीं थी.’’

आकाश बोला था, ‘‘बात नसीब की नहीं होती है भाभीजी, बात होती है प्यार की. काश, आप मेरी पत्नी होतीं, तो मैं आप के लिए एक साड़ी तो क्या दुनियाजहान की खुशियां ला कर आप के कदमों में डाल देता. सचमुच, आप की हर ख्वाहिश, पूरी करता.’’

‘‘आकाश की आंखों में अपने लिए इतना प्यार देख कर मैं खुद को रोक नहीं पाई. मैं ने कहा था, ‘‘आकाश, सचमुच अगर मैं तुम्हारी पत्नी होती, तो तुम मुझ से इतना ही प्यार करते…?’’

वह बोला था, ‘‘भाभीजी, एक बार आप मेरे प्यार की गहराई नाप कर तो देखिए, आप को खुद पता चल जाएगा कि इस दिल में आप के लिए कितना प्यार है.’’

‘‘बस, उसी दिन से मैं आकाश के प्यार में डूबती चली गई.’’

‘‘नीतेश, मैं तो तुम्हें छोड़ कर आकाश के पास चली गई थी, लेकिन वह चाहता था कि मैं तुम्हें अंधेरे में न रख कर अपने प्यार के बारे में बता दूं. मगर मैं तुम्हें कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी, इसीलिए मुझे शराब का सहारा लेना पड़ा.’’

‘‘कमली, मैं तुम से यह नहीं कहूंगा कि तुम ने मेरे साथ बेवफाई की है, क्योंकि यह सब कहने का कोई फायदा भी नहीं होगा. हां, इतना जरूर कहूंगा कि आकाश जैसे पैसे वाले लोगों के पास दिल नहीं होता है, वे अपनी दौलत के बल पर तुम जैसी बेवकूफ और लालची औरतों के जिस्म से तो खेल सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी जिंदगी में शामिल नहीं कर सकते.’’

‘‘आकाश उन लोगों में से नहीं है. वह मुझ से सच्ची मुहब्बत करता है.’’

‘‘ऐसा तुम इसलिए कह रही हो, क्योंकि इस समय तुम्हारे दिमाग पर आकाश और उस की दौलत का नशा छाया हुआ है, पर हकीकत जल्दी ही तुम्हारे सामने आ जाएगी. लिहाजा, कोई भी कदम उठाने से पहले एक बार अच्छी तरह सोच लेना.’’

इतना कह कर नीतेश कमली के पास से उठ कर दूसरे कमरे में चला गया. उस ने सोचा कि जब कमली का नशा उतर जाएगा, तो उसे अपनी भूल का एहसास जरूर होगा और वह कोई भी गलत कदम नहीं उठाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अगले दिन सुबह जब नीतेश सो कर उठा, तो कमली को दुलहन की ड्रैस में देख कर चौंक गया. वह कमली से कुछ कहता, इस से पहले ही वह बोल पड़ी,

‘‘नीतेश, अच्छा हुआ तुम जाग गए, वरना मैं तुम से मिले बिना ही चली जाती.’’

‘‘चली जाती…. कहां चली जाती?’’ ‘‘आज आकाश ने मुझे एक अलग फ्लैट ले कर दे दिया है. मैं और वह साथ रहेंगे.’’

कमली की यह बात सुन कर नीतेश को ऐसा झटका लगा, जैसे उस के कान पर किसी ने बम फोड़ दिया हो. उसी समय आकाश ने कार का हौर्न बजा दिया, जिसे सुन कर कमली उठ खड़ी हुई और अपना ब्रीफकेस उठा कर बोली, ‘‘मैं जा रही हूं. हो सके, तो मुझे माफ कर देना.’’

नीतेश चुपचाप उसे जाता हुआ देखता रह गया. वह चाहता तो उसे रोक भी सकता था, फिर भी उस ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह जानता था कि जिस कमली ने अपनी इच्छाओं को पूरा करने की गरज से उस की भावनाओं को भी नहीं समझा, उसे रोकने से भी क्या फायदा.

‘‘नीतेश…’’ कमली की आवाज ने नीतेश की यादों की कड़ी को तोड़ दिया. ऐसा लगा, जैसे 15 साल पहले मिले जख्म फिर से हरे हो गए, जिन की टीस को वह बरदाश्त नहीं कर पाया और चुपचाप वहां से उठ कर जाने लगा.कमली ने मायूस हो कर कहा, ‘‘नीतेश, जो जख्म मैं ने तुम्हें दिए हैं, मैं उन की दवा तो नहीं बन सकती, लेकिन इतना जरूर है कि बेवफाई का जो जहर मैं ने तुम्हारी जिंदगी में घोला था, उस की कड़वाहट से मेरा वजूद जरूर कसैला हो चुका है.’’

‘‘तुम ने ठीक ही कहा था नीतेश कि अमीरजादों के पास धनदौलत और ऐश करने की चीजें तो होती हैं, लेकिन प्यार करने वाला दिल नहीं होता. काश, उस समय मैं तुम्हारी बात मान लेती और अपनी इच्छाओं को काबू कर पाती, तो आकाश जैसा धोखेबाज, चालबाज और मक्कार इनसान मेरी जिंदगी बरबाद नहीं कर पाता.

वह मुझे बड़ेबड़े सपने दिखा कर तब तक मेरी जिंदगी से खेलता रहा, जब तक मुझ से उस का दिल नहीं भर गया. इस के बाद उस ने मुझे उस दलदल में धकेलने की कोशिश की, जहां औरत मर्दों का दिल बहलाने वाला खिलौना बन कर रह जाती है. लेकिन मैं उस के नापाक इरादों को भांप गई और उस के चंगुल से निकल आई.’’

‘‘यहां आ कर मैं एक अनाथ आश्रम में गरीब और बेसहारा बच्चों की देखभाल करने लगी, क्योंकि इस के अलावा मैं कुछ कर भी नहीं सकती थी. तुम्हारे पास आने के सारे हक मैं पहले ही खो चुकी थी, इसलिए तुम्हारे पास आने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाई.’’

‘‘मैं जीना नहीं चाहती थी, पर यही सोच कर अब तक जिंदा थी कि कभी तुम से मुलाकात होगी, तो तुम से माफी मांग कर मरूंगी. तुम चाहते, तो मुझे आकाश के साथ जाने से रोक सकते थे. मेरे साथ मारपीट भी कर सकते थे, पर तुम ने ऐसा नहीं किया. चुपचाप अपनी दुनिया को लुटता हुआ देखते रहे, सिर्फ मेरी खुशी के लिए.

‘‘नीतेश, मैं ने तुम्हारी हंसतीखेलती दुनिया को बरबाद किया है, हो सके तो मुझे माफ कर देना.’’ नीतेश ने ज्यादा बात नहीं की, उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे, क्या करे. वह खुद कमली के जाने के बाद अकेला था, पर उसे मालूम न था कि कमली पर भरोसा करा जा सकता है.

उस ने उठ कर कहा, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं. फिर आऊंगा, तब बात करेंगे.’’

कमली ने कहा, ‘‘चलो, मैं आटोस्टैंड तक छोड़ आती हूं. मुझे लौटते हुए कुछ खरीदना भी है.’’

दोनों चाल से बाहर आए. नीतेश का ध्यान कमली की बातों में था और उस ने देखा ही नहीं कि बाएं से एक बस तेजी से आ रही है. वह बस उसे कुचल देती कि कमली ने उसे अपनी ओर खींच लिया. उस की जान बच गई, पर कमली को दाएं से आते एक आटो ने जोर से टक्कर मार दी.

यह देख नीतेश घबरा गया और तुरंत उसे अस्पताल ले गया. कई घंटों की मेहनतमशक्कत के बाद डाक्टरों ने कमली को खतरे से बाहर बताया, तो नीतेश ने राहत की सांस ली. इन घंटों में वह कमली के पास बैठा यही सोचता रहा कि जितनी गुनाहगार कमली है, उतना ही गुनाहगार वह खुद भी है. क्योंकि कमली तो दुनिया की भीड़ में भटक गई थी, लेकिन उस ने भी तो उसे सही रास्ता नहीं दिखाया. हो सकता है, उस समय वह उसे आकाश के पास जाने से रोक लेता, तो शायद आज कमली को घर छोड़ने जैसा काम करने की जरूरत ही न होती.

हलकी सी कराह के साथ कमली ने आंखें खोलीं, तो नीतेश ने उस से कहा, ‘‘अब कैसा महसूस कर रही हो?’’ ‘‘तुम ने मुझे क्यों बचाया? मुझे मर जाने दिया होता.’’

‘‘पगली कहीं की. एक गलती के बाद दूसरी गलती. यह कहां की समझदारी है. अरे, अपने बारे में नहीं तो कम से कम मेरे बारे में तो सोचा होता.’’ नीतेश की इस बात पर कमली हैरान सी आंखें फाड़ कर उसे देखने लगी.

उसे इस तरह अपनी तरफ देखते हुए नीतेश ने कहा, ‘‘हां कमली, तुम से मिलने के बाद और तुम्हारी सचाई जानने के बाद तो मैं ने भी जीने का मन बना लिया.’’ इतना सुनते ही कमली खुद को रोक नहीं पाई और नीतेश से लिपट कर सिसक पड़ी.

पति परदेस में तो फिर डर काहे का – भाग 3

सूचना मिलते ही गोंडा थानाप्रभारी सुभाष यादव पुलिस टीम के साथ गांव पींजरी के लिए रवाना हो गए. तब तक घटनास्थल पर गांव के सैकड़ों लोग एकत्र हो चुके थे. थानाप्रभारी ने भीड़ को अलग हटा कर लाश देखी. तत्पश्चात उन्होंने इस हत्या की सूचना अपने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भी दे दी और प्रारंभिक काररवाई में लग गए.

थोड़ी देर में एसपी ग्रामीण संकल्प शर्मा और क्षेत्राधिकारी पंकज श्रीवास्तव भी पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर जा पहुंचे. लाश के मुआयने से पता चला कि दिव्या की हत्या उस खेत में नहीं की गई थी, क्योंकि लाश को वहां तक घसीट कर लाने के निशान साफ नजर आ रहे थे. मृत दिव्या के शरीर पर चाकुओं के कई घाव मौजूद थे.

जब जांच की गई तो जहां लाश पड़ी थी, वहां से 300 मीटर दूर पुलिस को डालचंद के खेत में हत्या करने के प्रमाण मिल गए. ढालचंद के खेत में लाल चूडि़यों के टुकड़े, कान का एक टौप्स, एक जोड़ी लेडीज चप्पल के साथ खून के निशान भी मिले.

जांच चल ही रही थी कि डौग एक्वायड के अलावा फोरेंसिक विभाग के प्रभारी के.के. मौर्य भी अपनी टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.

घटनास्थल से बरामद कान के टौप्स और चप्पलें मृतका दिव्या की ही थीं. जबकि लाल चूडि़यों के टुकड़े उस के नहीं थे. इस से यह बात साफ हो गई कि दिव्या की हत्या में कोई औरत भी शामिल थी. डौग टीम में आई स्निफर डौग गुड्डी लाश और हत्यास्थल को सूंघने के बाद सीधी दिव्या के घर तक जा पहुंची. इस से अंदेशा हुआ कि दिव्या की हत्या में घर का कोई व्यक्ति शामिल रहा होगा.

पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में पंचनामा भर कर दिव्या की लाश को पोस्टमार्टम के लिए अलीगढ़ भिजवा दिया गया. पूछताछ में दिव्या के परिवार से किसी की दुश्मनी की बात सामने नहीं आई. अब सवाल यह था कि दिव्या की हत्या किसने और किस मकसद के तहत की थी.

हत्या का यह मुकदमा उसी दिन थाना गोंडा में अज्ञात के खिलाफ भादंवि की धारा 302 के अंतर्गत दर्ज हो गया. पोस्टमार्टम के बाद उसी शाम दिव्या का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

दूसरे दिन थानाप्रभारी ने महिला सिपाहियों के साथ पींजरी गांव जा कर व्यापक तरीके से पूछताछ की. दिव्या की तीनों चाचियों से भी पूछताछ की गई. सुभाष यादव अपने स्तर पर पहले दिन ही दिव्या की हत्या की वजह के तथ्य जुटा चुके थे. बस मजबूत साक्ष्य हासिल कर के हत्यारों को पकड़ना बाकी था.

दिव्या की सब से छोटी चाची मोना से जब चूडि़यों के बारे में सवाल किया गया तो उस ने बताया कि वह चूड़ी नहीं पहनती, लेकिन जब तलाशी ली गई तो उस के बेड के पीछे से लाल चूडि़यां बरामद हो गईं, जो घटनास्थल पर मिले चूडि़यों के टुकड़ों से पूरी तरह मेल खा रही थीं. सुभाष यादव का इशारा पाते ही महिला पुलिस ने मोना को पकड़ कर जीप में बैठा लिया. पुलिस उसे थाने ले आई.

थाने में थानाप्रभारी सुभाष यादव को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी. मोना ने हत्या का पूरा सच खुद ही बयां कर दिया. सच सामने आते ही बिना देर किए गांव जा कर मोना के प्रेमी सोनू को भी गिरफ्तार कर लिया गया.

सोनू के अलावा नगला मोनी के रहने वाले मनीष को भी धर दबोचा गया. दोनों को थाने ला कर पूछताछ के बाद हवालात में डाल दिया गया. दिव्या हत्याकांड के खुलासे की सूचना एसपी ग्रामीण संकल्प शर्मा और सीओ इगलास पंकज श्रीवास्तव को दे दी गई.

दोनों अधिकारियों ने थाना गोंडा पहुंच कर थानाप्रभारी सुभाष यादव को शाबासी देने के साथ अभियुक्तों से खुद भी पूछताछ की.

पूछताछ में मोना के साथ उस के प्रेमी सोनू व उस के दोस्त ने जो कुछ बताया वह कुछ इस तरह था-

दिव्या ने सोनू को मोना के साथ शारीरिक संबंध बनाते देख लिया था. उस ने चाचा के घर लौटने पर उसे सब कुछ सचसच बता देने की बात भी कही थी. उस समय बात खत्म जरूर हो गई थी. फिर भी डर यही था कि बाल बुद्धि की दिव्या ने अगर यह बात जयकिंदर को बता दी तो उस का क्या हश्र होगा, इसी से चिंतित मोना व सोनू ने योजना बनाई कि जयकिंदर के आने से पहले दिव्या की हत्या कर दी जाए.

दिव्या हर रोज मोना के साथ ही सोती थी और अलसुबह चाची के साथ दौड़ लगाने जाती थी. कभीकभी वह दौड़ने के लिए वहीं रुक जाती थीं. जब कि मोना अकेली लौट आती थी. दिव्या को दौड़ का शौक था, ये बात घर के सभी लोग जानते थे. इसी लिए हत्या में मोना का हाथ होने की संभावना नहीं मानी जाएगी, यह सोच कर मोना ने सोनू के साथ योजना बना डाली, जिस में सोनू ने दूसरे गांव के रहने वाले अपने दोस्त मनीष को भी शामिल कर लिया.

26 दिसंबर को सोनू व मनीष पहले ही वहां पहुंच गए. मोना दिव्या को ले कर जब डालचंद के खेत के पास पहुंची तो घात में बैठे सोनू और मनीष ने दिव्या को दबोच कर चाकुओं से वार करने शुरू कर दिए. दिव्या ने बचने के लिए मोना का हाथ पकड़ा, जिस से उस के हाथ से 2 चूडि़यां टूट कर वहां गिर गईं. हत्यारे उसे खींच कर खेत में ले गए, जहां गर्दन काट कर उस की हत्या कर डाली. इसी छीनाझपटी में दिव्या के कान का एक टौप्स भी गिर गया था और चप्पलें भी पैरों से निकल गई थीं.

दिव्या की हत्या के बाद ये लोग लाश को खींचते हुए लगभग 300 मीटर दूर गजेंद्र के खेत में ले गए. इस के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए.

हत्यारा कितना भी चतुर हो फिर भी कोई न कोई सुबूत छोड़ ही जाता है. जो पुलिस के लिए जांच की अहम कड़ी बन जाता है. ऐसा ही साक्ष्य मोना की चूडि़यां बनीं, जिस ने पूरे केस का परदाफाश कर दिया.

एक थी मां- भाग 3: कहानी एक नौकरानी की

मेरे आते ही गोलू का पास के ही एक नर्सरी स्कूल में एडमिशन करा दिया गया था. गोलू को स्कूल छोड़ने और लाने के लिए मैं ही जाती थी.

वह जब मुझे प्यार से अपनी आवाज में ‘कश्मीरा दीदी’ कहता था, तो सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगता था. गोलू को देख कर मुझे बारबार मेरे अपने भाई अमर की याद आती रहती थी. पता नहीं, अब वह घर में अकेले कैसे रहता होगा.

साकेत अंकल ने गोलू को घर पर पढ़ाने के लिए एक टीचर रख लिया था. आंटी के कहने पर वे टीचर मुझे भी पढ़ाने लगे थे. मैं भी मन लगा कर पढ़ने लगी थी.

समय बीतता रहा. कैसे 2 साल बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला. अब तो मुझे कभी एहसास भी नहीं होता था कि मैं इस घर की नौकरानी हूं. मैं भी घर के एक सदस्य की तरह वहां रह रही थी.

मैं सिर्फ रक्षाबंधन के दिन ही हर साल अपने घर जाती थी और भाई को राखी बांध कर वापस आ जाती थी. मैं गोलू को भी राखी बांधती थी.

देखतेदेखते अंकल के यहां 6 साल गुजर गए. अब गोलू 10 साल का हो गया था. इसी साल अंकल ने एक सरकारी स्कूल से मुझे मैट्रिक का इम्तिहान दिलवा दिया था और मैं अच्छे अंक से पास भी हो गई थी.

सिकंदरपुर में अब मेरा भाई भी पढ़ने लगा था. इतने साल में अंकल द्वारा दिए हुए पैसे से पिताजी ने अपना कर्जा चुका दिया था और अब वे एक ठेले पर फल बेचने लगे थे.

मां अभी भी पहले जैसे ही अपनी दुनिया में मस्त रहती थीं. उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं थी. इसी बीच मेरे दादाजी इस दुनिया से चल बसे थे.

बाकी सबकुछ अब ठीक से चल रहा था, मगर अचानक एक दिन मुझे एक ऐसी बुरी खबर मिली कि सुन कर मेरी जान हलक में आ गई. मेरे मासूम भाई अमर को किसी ने मार कर सड़क किनारे फेंक दिया था. सुबह सड़क के किनारे उस की लाश मिली थी.

मैं यह खबर सुन कर मानो मर सी गई थी, मगर मेरे मुंहबोले भाई गोलू और अंकलआंटी के प्यार के चलते मैं अपनेआप को संभाल पाई थी.

अमर की मौत के बाद अब मेरा अपने घर जाना भी बंद हो गया था. पिताजी जब कभी बलिया आते तो मुझ से मिल लेते थे. कभीकभार फोन कर के भी बात कर लेते थे, पर अपनी मां के लिए तो मैं कब की पराई हो गई थी.

धीरेधीरे सबकुछ पहले जैसा होता जा रहा था. इसी बीच मैं ने इंटर भी पास कर लिया था. भले ही मैं स्कूल या कालेज कभी गई नहीं थी, मगर घर पर ही पढ़पढ़ कर मैं सभी इम्तिहान अच्छे नंबरों से पास करती जा रही थी.

अंकल ने अब मेरा कालेज में भी एडमिशन करा दिया था. मैं अपनेआप को बहुत खुशनसीब समझती थी कि मुझे अपने मांबाप से भी ज्यादा चाहने वाले पराए मांबाप मिले थे.

मगर मेरी खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रह सकी थी, तभी तो एक दिन सुबह एक और दिल दहला देने वाली खबर मुझे मिली. पिताजी का भी किसी ने रात में घर के अंदर ही खून कर दिया था.

यह सुनते ही मेरे ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. कोई धीरेधीरे हमेशा के लिए मुझ से दूर करता जा रहा था. पहले भाई और अब पिताजी को भी किसी ने जान से मार दिया था. आखिर मेरे भाई या पिताजी ने किसी का क्या बिगाड़ा था? कौन था, जो ये हत्याएं कर रहा था?

पर कहते हैं न कि पाप का घड़ा एक न एक दिन तो भरता ही है और जब भरता है तो वह किसी न किसी दिन फूटता ही है. ऐसा ही कुछ हुआ इस बार.

पिताजी का खून करने वाले गुनाहगार के गुनाह की काली करतूत का काला चिट्ठा इस बार पुलिस ने खोल दिया था. खून किसी और ने नहीं, बल्कि मेरी अपनी मां ने ही अपनी ऐयाशी को छिपाने के लिए अपने प्रेमी के साथ मिल कर किया था.

इतना ही नहीं, जिस रात मैं ने मां के कमरे में एक अनजान आदमी को देखा था, अपनी उसी पोल के खुलने के डर से चाल चल कर मुझे घर से दूर नौकरानी बना कर मेरी मां ने ही मुझे बलिया भेजा था. मां ने ही दुकान में आग लगवा कर मुझे घर से दूर करने की चाल चली थी.

यही नहीं, मेरी उस अपनी मां ने ही अपनी हवस की आग को जलाए रखने के लिए अपने ही हाथों अपने बेटे का भी गला दबा कर जान से मारा था. शायद अमर को जन्म देने वाली अपनी मां की हकीकत का पता चल गया था.

मेरी मां और उन के प्रेमी को कोर्ट से आजीवन कैद की सजा मिली थी. यह सुन कर मेरे सीने में अपनी मां के प्रति धधकती आग को कुछ ठंडक मिली थी.

एक बार फिर से अपने मुंहबोले भाई गोलू और पराए मातापिता के प्यार के चलते मैं बीती बातें भुला कर पहले जैसी होने की कोशिश करने लगी थी.

अब मैं ने ग्रेजुएशन कर ली थी. गोलू भी 12वीं पास कर गया था. अब वह आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाने वाला था. इसी बीच मेघना आंटी ने अपनी नौकरी भी छोड़ दी थी.

साकेत अंकल के औफिस में काम करने वाला एक लड़का पंकज हमेशा किसी न किसी काम से घर आया करता था. वह देखने में हैंडसम था. मैं भी अब 24 साल की बला की खूबसूरत लड़की हो गई थी.

अचानक एक दिन मैं अंकल और आंटी के साथ बैठी बातें कर रही थी कि आंटी ने मेरे सामने पंकज के साथ शादी करने की बात रख दी. मैं उन की बात को कैसे टालती और वह भी पंकज जैसे अच्छे लड़के के साथ.

अंकल ने पंकज को मेरी हकीकत बता दी थी. पंकज या उन के परिवार वालों ने भी कोई एतराज नहीं जताया.

आज मेरी यानी आप की कश्मीरा की शादी पंकज से हो रही थी.

मैं अभी अपने बैडरूम में आईने के सामने खड़ी हो कर अपनी जिंदगी के उतारचढ़ाव रूपी भंवर में गोते लगा रही थी कि अचानक पीछे से किसी ने छू कर मेरी तंद्रा भंग कर दी.

मैं जब खयालों की दुनिया से हकीकत में आई, तो देखा कि सामने मेरा मुंहबोला भाई गोलू और मुंहबोली मां मेघना खड़ी थीं.

दोनों की आंखों में मेरे इस घर को छोड़ कर अब नए घर में जाने की टीस आंसू के रूप में साफ झलक रही थी. मैं दोनों से लिपट कर जोरजोर से रोने लगी. जिंदगी में पहली बार आज मुझे बेपनाह सुख हो रहा था. सब को ऐसी मां मिले, भले पराई ही सही.

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : भाग 3- रूपल क्या बचा पाई इज्जत

अगले दिन मामी की योजना के तहत रूपल बाबा के खास कमरे में थी. दूसरी सेवादारिनों ने उसे देवी की तरह कपड़े व गहने वगैरह पहना कर दुलहन की तरह सजा दिया था.

पलपल कांपती रूपल को आज अपनी इज्जत लुट जाने का डर था. लेकिन वह किसी भी तरह से हार नहीं मानना चाहती थी. अभी भी वह अपने बचाव की सारी उम्मीदों पर सोच रही थी कि गुरु कमलाप्रसाद ने कमरे में प्रवेश किया. आमजन का भगवान एक शैतान की तरह अट्टहास लगाता रूपल की तरफ बढ़ चला.

‘‘बाबा, मैं पैर पड़ती हूं आप के, मुझ पर दया करो. मुझे जाने दो,’’ उस ने दौड़ कर बाबा के चरण पकड़ लिए.

‘‘देख लड़की, सुहाग सेज पर मुझे किसी तरह का दखल पसंद नहीं. क्या तुझे समर्पण का भाव नहीं समझाया गया?’’

बाबा की आंखों में वासना का ज्वार अपनी हद पर था. उस के मुंह से निकला शराब का भभका रूपल की सांसों में पिघलते सीसे जैसा समाने लगा.

‘‘बाबा, छोड़ दीजिए मुझे, हाथ जोड़ती हूं आप के आगे…’’ रूपल ने अपने शरीर पर रेंग रहे उन हाथों को हटाने की पूरी कोशिश की.

‘‘वैसे तो मैं किसी से जबरदस्ती नहीं करता, पर तेरे रूप ने मुझे सम्मोहित कर दिया है. पहले ही मैं बहुत इंतजार कर चुका हूं, अब और नहीं… चिल्लाने की सारी कोशिशें बेकार हैं. तेरी आवाज यहां से बाहर नहीं जा सकती,’’ कह कर बाबा ने रूपल के मुंह पर हाथ रख उसे बिस्तर पर पटक दिया और एक वहशी दरिंदे की तरह उस पर टूट पड़ा.

तभी अचानक ‘धाड़’ की आवाज से कमरे का दरवाजा खुला. अगले ही पल पुलिस कमरे के अंदर थी. बाबा की पकड़ तनिक ढीली पड़ते ही घबराई रूपल झटक कर अलग खड़ी हो गई.

पुलिस के पीछे ही ‘रूपल…’ जोर से आवाज लगाती उस की मां ने कमरे में प्रवेश किया और डर से कांप रही रूपल को अपनी छाती से चिपटा लिया.

इस तरह अचानक रंगे हाथों पकड़े जाने से हवस के पुजारी गुरु कमलाप्रसाद के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. फिर भी वह पुलिस वालों को अपने रोब का हवाला दे कर धमकाने लगा.

तभी उस की एक पुरानी सेवादारिन ने आगे बढ़ कर उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद किया. पहले वह भी इसी वहशी की हवस का शिकार हुई थी. वह बाबा के खिलाफ पुलिस की गवाह बनने को तैयार हो गई.

बाबा का मुखौटा लगाए उस ढोंगी का परदाफाश हो चुका था. आखिरकार एक नाबालिग लड़की पर रेप और जबरदस्ती करने के जुर्म में बाबा को

तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. उस के सभी चेलेचपाटे कानून के शिकंजे में पहले ही कसे जा चुके थे.

मां की छाती से लगी रूपल को अभी भी अपने सुरक्षित बच जाने का यकीन नहीं हो रहा था, ‘‘मां… मामी ने मुझे जबरदस्ती यहां…’’

‘‘मैं सब जान चुकी हूं मेरी बच्ची…’’ मां ने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा. ‘‘तू चिंता मत कर, भाभी को भी सजा मिल कर रहेगी. पुलिस उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है.

‘‘मैं अपनी बच्ची की इस बदहाली के लिए उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तू मेरे ही पास रहेगी मेरी बच्ची. तेरी मां गरीब जरूर है, पर लाचार नहीं. मैं तुझ पर कभी कोई आंच नहीं आने दूंगी.

‘‘मेरी मति मारी गई थी कि मैं भाभी की बातों में आ गई और सुनहरे भविष्य के लालच में तुझे अपने से दूर कर दिया.

‘‘भला हो तुम्हारे उस पड़ोसी का, जिस ने तुम्हारे दिए नंबर पर फोन कर के मुझे इस बात की जानकारी दे दी वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ शर्मिंदगी में मां अपनेआप को कोसे जा रही थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो दीदी. मैं रमा की असलियत से अनजान था. गलती तो मुझ से भी हुई है. मैं ने सबकुछ उस के भरोसे छोड़ दिया, यह कभी जानने की कोशिश नहीं की कि रूपल किस तरह से कैसे हालात में रह रही है,’’ सामने से आ रहे मामा ने अपनी बहन के पैर पकड़ लिए.

बहन ने कोई जवाब न देते हुए भाई पर एक तीखी नजर डाली और बेटी का हाथ पकड़ कर अपने घर की राह पकड़ी. रूपल मन ही मन उस पड़ोसी का शुक्रिया अदा कर रही थी जिसे सेवइयों के लिए दूध लाते वक्त उस ने मां का फोन नंबर दिया था और उस ने ही समय रहते मां को मामी की कारगुजारी के बारे में बताया था जिस के चलते ही आज वह अंधविश्वास की बलिवेदी पर भेंट चढ़ने से बच गई थी.

मां का हाथ थामे गांव लौटती रूपल अब खुली हवा में एक बार फिर सुकून की सांसें ले रही थी.

अम्मा- भाग 3: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

‘तड़ाक,’ एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा नीरा के गाल पर, ‘यह क्या हो गया?’ अम्मां क्षुब्ध मन से सोचने लगीं, ‘मेरे दिए हुए संस्कार, शिक्षा, सभी पर पानी फेर दिया अजय ने?’

अश्रुपूरित दृष्टि से अपर्णा की ओर अम्मां ने देखा था. जैसे पूछ रही हों कि यह सब क्यों हो रहा है इस घर में. कुछ देर तक नेत्रों की भाषा पढ़ने की कोशिश की पर एकदूसरे के ऊपर दृष्टि निक्षेप और गहरी श्वासों के अलावा कोई वार्तालाप नहीं हो सका था.

अचानक अपर्णा का स्वर उभरा, ‘सारी लड़ाईर् पैसे को ले कर है. बाबूजी थे तो इन पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब खर्च करना पड़ रहा है तो परेशानी हो रही है.’

अम्मां ने दीर्घनिश्वास भरा, ‘मैं ने तो नीरा से कहा है कि कोई नौकरी तलाश ले. कुछ पेंशन के पैसे अजय को मैं दे दूंगी.’

जीवन में ऐसे ढेरों क्षण आते हैं जो चुपचाप गुजर जाते हैं पर उन में से कुछ यादों की दहलीज पर अंगद की तरह पैर जमा कर खड़े हो जाते हैं. मां के साथ बिताए कितने क्षण, जिस में वह सिर्फ याचक है, उस की स्मृति पटल पर कतार बांधे खडे़ हैं.

बच्चे दादी को प्यार करते, अड़ोसीपड़ोसी अम्मां से सलाहमशविरा करते, अपर्णा और अजय मां को सम्मान देते तो नीरा चिढ़ती. पता नहीं क्यों? चाहे अम्मां यही प्यार, सम्मान अपनी तरफ से एक तश्तरी में सजा कर, दोगुना कर के बहू की थाली में परोस भी देतीं फिर भी न जाने क्यों नीरा का व्यवहार बद से बदतर होता चला गया.

अम्मां के हर काम में मीनमेख, छोटीछोटी बातों पर रूठना, हर किसी की बात काटना, घरपरिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता, उस के व्यवहार के हिस्से बनते चले गए.

एक बरस बाद बाबूजी का श्राद्ध था. अपर्णा को तो आना ही था. बेटी के बिना ब्राह्मण भोज कैसा? उस दिन पहली बार, स्थिर दृष्टि से अपर्णा ने अम्मां को देखा. कदाचित जिम्मेदारियों के बोझ से अम्मां बुढ़ा गई थीं. हर समय तनाव की स्थिति में रहने की वजह से घुटनों में दर्द होना शुरू हो गया था.

ब्राह्मण भोज समाप्त हुआ तो अम्मां धूप में खटोला डाल कर बैठ गईं. अजय, अपर्णा और नीरा को भी अपने पास आ कर बैठने को कहा. तेल की तश्तरी में से तेल निकाल कर अपने टखनों पर धीरेधीरे मलती हुई अम्मां बोलीं, ‘याद है, अजय, मैं ने एक बार कहा था कि घर में कोई भी नया सामान तभी जगह पा सकता है जब पुराने सामान को अपनी जगह से हटाया जाए. इसी तरह जब परिवार के लोग पुराने सामान को कूड़ा समझ कर फेंकने पर ही उतारू हो जाएं तो भलाई इसी में है कि उस सामान को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाए. शायद वह सामान तब भी किसी के काम आ सके? जो इनसान समझौता करते हैं वे ही सार्थक जीवन जीते हैं पर जो समझौता करतेकरते टूट जाते हैं वे कायर कहलाते हैं. और मैं कायर नहीं हूं.’

अम्मां के बच्चे उन का मंतव्य समझे या नहीं पर अगले दिन वह कमरे में नहीं थीं. तकिये के नीचे एक नीला लिफाफा ही मिला था.

विचारों में डूबताउतराता अजय आश्रम के जंग खाए, विशालकाय गेट के सामने आ खड़ा हुआ. सड़क पतली, वीरान और खामोश थी. न जाने उसे यहां आ कर ऐसा क्यों लग रहा था कि अम्मां पूर्ण रूप से यहां सुरक्षित हैं. उस की सारी चिंताएं, तनाव न जाने कहां खो गए. गेट खोल कर अजय अंदर आया तो अम्मां अपने कमरे में बैठी एक बच्ची को वर्णमाला का पाठ पढ़ा रही थीं. अजय को देखते ही उन की आंखें भर आईं.

‘‘तू कब आया?’’ आंसू भरी आंखों को छिपाने के लिए इधरउधर देखने लगीं. दोबारा पूछा, ‘‘अकेले ही आया? मेरी बहू नीरा कहां है? लवकुश कैसे हैं? होमवर्क करते हैं कि नहीं?’’

अजय ने अम्मां का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और बोला, ‘‘मां, सबकुछ एक ही पल में पूछ लोगी?’’

अम्मां को धैर्य कहां था, अजय को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, तू बहू को काम पर जाने से मत रोकना. जानता है, जब बच्चे सैटिल हो जाते हैं तो औरत को खालीपन का एहसास होने लगता है. ऐसा लगता है जैसे वह एक निरर्थक सी जिंदगी जी रही है, एक ऐसी जिंदगी, जिस का इस्तेमाल कर के बच्चे और पति अपनेअपने क्षेत्र में सफल हो गए और वह उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी है.’’

अपने भीतर के दर्द को ढांपने के लिए अम्मां ने हलकी मुसकान के साथ अपनी नजरें अजय पर टिका दी थीं. अजय बारबार अम्मां को शांत करता, उन का ध्यान दूसरी बातों में लगाने का प्रयास करता पर जहां यादों का खजाना और पीड़ा का मलबा हो वहां अपने लिए छोटा सा कोना भी पा सकना मुश्किल है.

‘‘अजय, क्या खाएगा तू? मठरी, पेठा, लड्डू?’’ और अम्मां दीवार की तरफ हो कर अलमारी में से डब्बे निकालने लगीं.

‘‘अम्मां, अब भी अपनी अलमारी में आप यह सब रखती हो? कौन ला कर देता है ये सारा सामान तुम्हें?’’ अजय ने छोटे से बच्चे की तरह मचल कर पूछा.

‘‘चौकीदार को 5 रुपए दे कर मंगा लेती हूं. यहां भी लवकुश की तरह कई नन्हेनन्हे बालगोपाल हैं. कमरे में आते ही कुछ भी मांगने लगते हैं. सच में अजय, ऐसा लगता है, खाते वह हैं, तन मेरे लगता है.’’

अजय सोच रहा था, भावनाओं और अनुराग की कोई सीमा नहीं होती. जिन का आंचल प्यार, दया और ममता से भरा होता है वह कहीं भी इन भावनाओं को बांट लेते हैं. अम्मां अलमारी में रखे डब्बे में से सामान निकाल रही थीं कि अचानक नीरा का स्वर उभरा, ‘‘अम्मां, मुझे कुछ नहीं चाहिए. सिर्फ अपनी गोदी में सिर रख कर हमें लेटने दीजिए.’’

‘‘तू कब आई?’’ अम्मां आत्म- विभोर हो उठी थीं.

‘‘अजय के साथ ही आई, अम्मां. जानती हैं, आप के जाने के बाद कितने अकेले हो गए थे हम. कितना सहारा मिलता था आप से? निश्ंिचत हो कर स्कूल जाती. लौटती तो सबकुछ बना- बनाया, पकापकाया मिलता था. घर का दरवाजा तो खुला ही रहता था. अहंकार और अहं की अग्नि में राख हुई मैं यह भी नहीं जान पाई कि बच्चों को जो सुख, आनंद, नानीदादी के मुख से सुनी कहानियों में मिलता है वह वीडियो कैसेट में कहां?

‘‘बच्चों के स्कूल बैग टटोलती तो छोटेछोटे चोरी से लाए सामान मिलते. अजय घंटों आप के फोटो के पास बैठे रोते. फिर मन का संताप दूर करने के लिए नशे का सहारा लेते तो मन तिरोहित हो उठता कि क्यों जाने दिया मैं ने आप को?

‘‘मैं ने अजय से अनुनय की कि मुझे एक बार मां से मिलना है पर वह नहीं माने. कैसे मानते? मेरे दुर्व्यवहार की परिणति से ही तो आप को घर से बेघर होना पड़ा था. मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या स्नेह की आंच से मां के मन में ठोस हुई कोमल भावनाओं को पिघलाया नहीं जा सकता. मां का आंचल तो सुरक्षा प्रदान करता है. एक ऐसे प्यार की भावना देता है जिस के उजास से तनमन भीग जाता है.’’

अम्मां चुप्पी साधे रहीं. शुरू से ही चिंतन, मनन, आत्मविश्लेषण करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचती थीं.

‘‘इतना बड़ा ब्रह्मांड है, अम्मां. आकाश, तारे, नक्षत्र, सूर्य सब अपनीअपनी जगह पर अपना दायित्व निभाते रहते हैं. कमाल का समायोजन है. लेकिन हम मानव ही इतने असंतुलित क्यों हैं?’’

अम्मां समझ रही थीं, अजय बेचैन है. अंदर ही अंदर खौल रहा था. अम्मां ने उस की जिज्ञासा शांत की, ‘‘क्योंकि इनसान ही एक ऐसा प्राणी है जो राग, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्धा जैसी भावनाओं से घिरा रहता है.’’

‘‘सच अम्मां, मेरा विरोधात्मक तरीका आज मुझे उस मुकाम पर ले आया जहां आत्मसम्मान के नाम पर रुपया, पैसा, आरामदायक जिंदगी होते हुए भी घर खाली है. साथ है तो केवल अकेलापन. यह सब मैं अब समझ पाई हूं.’’

अपने मन के सामने अपराधिनी बनी नीरा अम्मां के कथन की सचाई को सहन कर, हृदय की पीड़ा के चक्र से अपनेआप को मुक्त करती बोली तो अम्मां की आंखों से भी आंसुओं की अविरल धारा बह निकली.

‘‘अम्मां, हम तो बातोें में ही उलझ गए. आप को लिवाने आए हैं. कहां चोट लगी आप को?’’ अजय नन्हे बालक की तरह मचल उठा.

‘‘अरे, कुछ नहीं हुआ. तुम से मिलने को जी चाहा तो बहाना बना दिया. महंतजी से फोन करवा दिया. जानती थी, मैं तुम्हें याद करती हूं तो तुम लोग भी जरूर याद करते होगे. दिल से दिल के तार मिले होते हैं न.’’

‘‘तो फिर अम्मां, चलोगी न हमारे साथ?’’ अजय ने पूछा, तो अम्मां हंस दीं, ‘‘मैं ने कब मना किया.’’

अजय ने नीरा की ओर देखा. अपने ही खयालों में खोई नीरा भी शायद यही सोच रही थी, ‘घरपरिवार की दौलत छोटीछोटी खुशियां होती हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का सम्मान करने से प्राप्त होती हैं.’ आज सही मानों में दोनों को खुशी प्राप्त हुई थी.

औनर किलिंग- भाग 3: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

‘‘ओह… यह बात है. इतना प्यार करते हो तुम मु झ से?’’ यह सुन कर  झटके से उठ बैठी थी अमृता.

‘‘बिलकुल… कहो, कैसे यकीन दिलाऊं कि मैं तुम्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता हूं. बोलो तो इस पहाड़ से नीचे खाई में छलांग लगा दूं…’’ कह कर अतुल्य ने अपना एक पैर आगे बढ़ाया ही था कि अमृता ने उस का हाथ खींच लिया.

‘‘अतुल्य, पागल हो गए हो क्या? अरे, मैं तो मजाक कर रही थी और तुम… जाओ, मैं तुम से बात नहीं करती.’’

इतना सुन कर अतुल्य ने अमृता को अपनी बांहों में भर के चूम लिया  था. शर्म के मारे अमृता की नजरें  झुक गई थीं…

अमृता अपनी यादों से बाहर निकल आई. अपने प्यार भरे दिन याद कर के वह मुसकराई, लेकिन फिर एकदम से फफक पड़ी और कहने लगी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मेरे जालिम भाइयों ने उसे

इंमार  डाला…’’स्पैक्टर माधव ने उठ कर उसे चुप कराते हुए पानी पीने को दिया, तो वह जरा सामान्य हुई. उसे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि जिन पिता और

भाइयों ने उसे इतना प्यार दिया, उन्होंने ही उस की खुशियों का कत्ल कर दिया. बड़ी जाति का घमंड और पैसे के गुमान में वे यह भी भूल गए कि अतुल्य भी किसी का प्यार था, किसी का बेटा था.

अपने बहते आंसू पोंछ कर अमृता फिर बताने लगी कि पढ़ाईलिखाई में तो उस का मन कभी लगा ही नहीं. लेकिन अपने प्यार की खातिर उस ने शहर के कालेज में दाखिले की जिद की थी, ताकि अतुल्य के और करीब रह सके.

अमृता की सखियों ने उस से कहा भी था कि वह लड़का कुम्हार है. लेकिन अतुल्य के कुम्हार होने का मतलब अमृता ठीक से सम झ नहीं पाई थी. जब तक उसे कुम्हार जाति का ठीक से मतलब सम झ आता, तब तक उस का दिल उस के हाथ से निकल कर अतुल्य का हो चुका था.

कई बार अतुल्य ने कहा भी था कि उन का मिलन होना इतना भी आसान नहीं है, क्योंकि वह एक ठाकुर परिवार की बेटी है और वह एक कुम्हार का बेटा. दोनों परिवारों के बीच जमीनआसमान का फर्क है. लेकिन अमृता का कहना था कि प्यार का कोई धर्मजाति, मजहब नहीं होता. प्यार का तो एक ही जातिधर्म है और वह है प्यार. अब अंजाम चाहे कुछ भी हो, वह पीछे नहीं हटने वाली.

उस दिन कालेज में इम्तिहान का आखिरी परचा देने के बाद वे दोनों अकेले में कुछ समय बिताना चाहते थे. वे तारों से भरी चांदनी रात में दीनदुनिया से बेखबर एकदूसरे में खोए हुए थे. लेकिन कब और कैसे दोनों मर्यादा का बांध तोड़ कर तनमन से एक हो गए, पता ही नहीं चल पाया उन्हें. उन के बीच की अब सारी दूरियां खत्म हो चुकी थीं.

कुछ दिन बाद अमृता का भाई उसे आ कर ले गया. अतुल्य उसी शहर में नौकरी तलाशने लगा.

एक दिन फोन पर अतुल्य ने बताया कि एक कंपनी में उस की नौकरी लग गई है. उतनी अच्छी तो नहीं है, पर ठीक है.

यह सुन कर अमृता खुश तो हुई थी, पर वह चाहती थी कि और 1-2 जगह उसे नौकरी की तलाश करनी चाहिए थी. इतनी हड़बड़ी करने की क्या जरूरत थी?

अमृता को लगा था कि अगर अतुल्य की किसी बड़ी कंपनी में नौकरी लग जाती, तो वह उस के बारे में अपने परिवार को बता सकती थी.

लेकिन अतुल्य को नौकरी की सख्त जरूरत थी. वजह, उस के पिताजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहने लगी थी. सारे रखेधरे पैसे तो छोटी बहन की शादी में लग गए, इसलिए अतुल्य चाहता था कि कहीं भी नौकरी लग जाए, वह मना नहीं करेगा, फिर बाद में और अच्छी नौकरी तलाशता रहेगा. अतुल्य नौकरी करने के साथसाथ आईएएस की तैयारी भी कर रहा था. यह बात उस ने अमृता को भी बताई थी.

अतुल्य से विदा लेते समय अमृता ने उसे विश्वास दिलाया था कि वह अपने परिवार से इस रिश्ते के बारे में बात कर लेगी. उस ने कई बार कोशिश भी की, पर उस की हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी मुंह खोलने की.

अमृता के निखरे रूप को देख कर उस की भाभी रुक्मिणी ने एक दिन छेड़ते हुए कहा था कि कहीं उस के दिल में कोई समा तो नहीं गया? किस के खयालों में खोई रहती है उस की ननद रानी?

यह सुन कर अमृता के गाल शर्म से गुलाबी हो गए थे.

एक दिन अमृता अपनी भाभी को अपने और अतुल्य के बारे में सब बताने ही वाली थी कि तभी ‘तड़ाक’ की आवाज से चौंक पड़ी थी. देखा तो बड़े भैया रघुवीर गरजते हुए भाभी पर थप्पड़ बरसाते हुए बोल रहे थे, ‘‘अगर दोबारा मुंह से ऐसी बात निकली तो जबान खींच ली जाएगी…

‘‘हमारे घर की लड़कियां कभी प्यारमुहब्बत में नहीं पड़तीं, बल्कि वे वहीं चुपचाप ब्याह कर लेती हैं, जहां परिवार वाले चाहते हैं…’’

भैया का गुस्सा देख कर अमृता सहम उठी थी, इसलिए उस ने चुप रहना ही बेहतर सम झा.

रघुवीर अपनी पत्नी रुक्मिणी के साथ बहुत ही गंदा बरताव करता था, मगर वह इसलिए सब सहन कर लेती थी, क्योंकि इस के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रुक्मिणी को गांव में सब बां झ सम झते थे, क्योंकि शादी के 8 साल बाद भी वह मां नहीं पाई थी. मगर उसे पता था कि उस में कोई कमी नहीं है. शक तो उसे रघुवीर पर था कि शायद उस में ही कोई कमी हो, इसलिए एक दिन दबे मुंह ही उस ने उस से शहर जा कर डाक्टर से जांच कराने की बस गुजारिश की थी.

इसी बात पर रघुवीर ने उसे इतना मारा था कि बेचारी कई दिनों तक बिछावन पर से उठ नहीं पाई थी.

रघुवीर का कहना था कि उस की हिम्मत कैसे हुई उसे जांच कराने को बोलने की? अरे, नामर्द वह नहीं, बल्कि बां झ रुक्मिणी है. तब से रुक्मिणी ने अपना मुंह सिल लिया था.

पहले तो शहर जा कर पढ़ाई करने का बहाना था, पर अब अमृता शादी न करने का क्या बहाना बनाती? उसे सम झ नहीं आ रहा था कि कैसे वह शादी के लिए मना करे? कैसे कहे कि वह किसी और से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है?

‘‘अरे अमृता, खा क्यों नहीं रही हो? क्या सोच रही हो? देख रही हूं कि कुछ दिनों से तुम खोईखोई सी रहती हो. सब ठीक तो है न?’’ एक दिन रुक्मिणी ने टोका, तो अमृता ने सोचा कि वह कैसे बताए. पिछले 2-3 दिन से उस की तबीयत अच्छी नहीं लग रही थी. खाना खाना तो दूर देखने तक का मन नहीं हो रहा है.

‘‘देखो, आज मैं ने तुम्हारी पसंद की सब्जी बनाई है, खाओ अच्छे से…’’ बोल कर रुक्मिणी अमृता की थाली में और सब्जी डालने ही लगी कि उसे लगा जैसे यहीं पर उलटी हो जाएगी.

अमृता अपने कमरे की तरफ भागी और रुक्मिणी हैरान सी उसे देखती रह गई. मर्द भले ही न सम झ पाए, पर एक औरत को सम झते देर नहीं लगती और रुक्मिणी ने भी भांप लिया था कि बात बहुत आगे बढ़ चुकी है.

मैं अहम हूं- भाग 3: शशि की लापरवाही

फिर उस के कमाने से क्या फायदा हुआ, सिवा इस के कि घर का खर्चा पहले से बढ़ गया. सब कपड़े धोबी को जाने लगे और कपड़ों का नुकसान भी ज्यादा होने लगा. अब महरी को भी काम बढ़ जाने से ज्यादा पैसे देने पड़ते थे. आटो का खर्च अलग, इस प्रकार मासिक खर्च बढ़ ही गया. इस के अलावा घर और बच्चे अव्यवस्थित हो गए सो अलग. सास बेचारी दिनभर काम में पिसती रहती. और जब  नहीं कर पाती तो बड़बड़ाती रहती. इन्हीं 2 महीनों में घर की शांति भंग हो गई. जिस पर उस ने जो कल्पना की थी कि अपनी तनख्वाह से घर की सजावट के लिए कुछ खरीदेगी, उसे कार्यरूप से परिणत करना कितना मुश्किल है, यह उसे तुरंत पता लग गया. उसे कुछ कहने में ही झिझक हो रही थी. कहीं अजय यह न समझ ले कि उस ने सिर्फ इन दिखावे की चीजों के लिए ही नौकरी की है. अजय के मन में हीनभावना भी आ सकती है. पर यह सब उसे पहले क्यों नहीं सूझा? खैर, अब तो सुध आई. ‘बाज आई ऐसी नौकरी से,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘बच्चे जरा बड़े हो जाएं तो देखा जाएगा.’

अगले दिन उस ने अजय के चपरासी के हाथों एक महीने का नोटिस देते हुए अपना त्यागपत्र तथा एक दिन के आकस्मिक अवकाश की अरजी भेज दी. अजय ने यही समझा कि शायद तबीयत खराब होने से 1-2 दिन की छुट्टी ले रखी है. बादल उमड़घुमड़ रहे थे और बारिश की हलकीहलकी बूंदें भी पड़नी शुरू हो चुकी थीं. बहुत दिनों बाद उस रात को दोनों चहलकदमी को निकले. अजय ने पूछा, ‘‘क्यों, अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हो गया, तुम ने कितने दिन की छुट्टी ले ली है?’’

शशि बोली, ‘‘हमेशा के लिए.’’ अजय परेशान सा उस की ओर देखने लगा, ‘‘सच, शशि, सच, अब तुम नहीं जाओगी स्कूल? चलो, अब कमीजपैंट में बटन नहीं टांकने पड़ेंगे. धोबी को डांटने का काम भी अब तुम संभाल लोगी. हां, अब रात को थके होने का बहाना भी नहीं कर सकतीं. पर यह तो बताओ, नौकरी छोड़ क्यों दी?’’

शशि उस के उतावलेपन को देख कर हंसते हुए मजा ले रही थी. उसे पति पर दया भी आई, बोली, ‘‘हां, मुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी, जनाब दरजी तो बन ही जाते. अजीब आदमी हो, कम से कम एक बार तो मुंह से कहा होता कि शशि, तुम्हारे स्कूल जाने से मुझे कितनी परेशानी होती है.’’ डियर, हम तो शुरू से कहना चाहते थे, पर हमारी बात आप को तब जंचती थोडे़ ही. हम ने भी सोचा कर लेने दो थोड़े मन की, अपनेआप सब हाल सामने आएगा तो जान जाएगी. पर यह उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी जल्दी नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाओगी. खैर, तुम ने अपनी परिस्थिति पहचान ली तो सब ठीक है,’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘हां, शशि सद्गृहिणी बनना कितना कठिन है. तुम जब अपने इस दायित्व को अच्छे से निभाती हो तो मुझे कितना गर्व होता है, मालूम है? यह मत सोचो कि मैं तुम्हें घर से बांधने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी ओर से पूरी छूट है, तुम पढ़ोलिखो, कुछ नया सीखो, पर अपने दायित्व को समझ कर.’’

फिर कुछ दूर दोनों मौन चलते रहे. अजय को लग रहा था कि शशि कुछ पूछना चाह रही है, पर हिचक रही है. 2-3 बार उस ने शशि की ओर देखा, मानोे हिम्मत बंधा रहा हो. ‘‘इंदु को देख कर आप को यह नहीं लगता कि वह कितनी लायक औरत है, उस ने अपना घर कैसे सजा लिया है. तब आप को मुझ में कमी नहीं लगती?’’ आखिर शशि ने पूछ ही लिया. अजय इतना खुल कर हंसे कि राह के इक्कादुक्का लोग भी मुड़ कर उन की ओर देखने लगे. आखिर हंसने का यह कैसा और कौन सा मौका है, शशि समझ न पाई. जब उन की हंसी रुकी तो बोले, ‘‘तुम को क्या लगता है कि मनोज बहुत खुश है. वह क्या कह रहा था मालूम है? ‘यार, जबान का स्वाद ही चला गया. मनपसंद चीजें खाए अरसा हो गया. श्रीमतीजी दफ्तर से आ कर परांठे सेंक देती हैं, बस. इतवार के दिन वे छुट्टी के मूड में रहती हैं. देर से उठना, आराम से नहानाधोना, फिर होटल में खाना, पिक्चर, बस. यार, तू बड़ा सुखी है. यहां तो हर महीने मांबाप को रुपए भेजने पर टोका जाता है. आखिर मांबाप के प्रति कुछ फर्ज भी तो है कि नहीं?

‘‘और सुनोगी? उस दिन हमारे बच्चों को देख कर बोला, ‘यार, तुम्हारे बच्चे कितने सलीके से रहते हैं. इच्छा तो होती है कि इंदु को बताऊं कि देखो, इन बच्चों को शिष्टचार की कोई सीख कौन्वैंट या पब्लिक स्कूल से नहीं, बल्कि मां के सिखाने से मिली है.’

‘‘मैं ने यह सुन कर कैसा अनुभव किया होगा, तुम अनुमान लगा सकती हो, यही तुम्हारी जीत थी, और तुम्हारी जीत यानी मेरी जीत. इंदु की आधी तनख्वाह तो अपनी साडि़यों, मेकअप, होटल और सैरसपाटे में खर्च हो जाती है. बेटे को छात्रावास में रखने का खर्च अलग. उस में अहं की भावना है, और ‘मेरे’ की भावना से ग्रस्त वह यही समझती है कि उस के नौकरी करने से ही घर में इतनी चीजें आई हैं. जहां यह ‘मेरे’ की भावना आई, घर की सुखशांति नष्ट समझो.’’ कुछ रुक कर अजय बोले, ‘‘चलो, शशि, अब घर चलें, काफी दूर निकल आए हैं,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘आज के बाद रात को थकान का बहाना न चलेगा.’’

शशि को गुदगुदी सी हुई और बहुत दिनों बाद उस के मन में बसी बेचैनी दूर जाती लगी.

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