

उत्तर प्रदेश में मोहनलालगंज, लखनऊ की एक सुरक्षित विधानसभा सीट है. यहां पर पिछड़ी जातियों की आबादी सब से ज्यादा है. मोहनलालगंज, निगोहां, नगराम और गोसाईंगंज थाना क्षेत्रों तक इस की सीमा फैली हुई है. एक गांव से दूसरे गांव तक जाने के लिए कार और दूसरी महंगी गाडि़यों से चुनाव प्रचार होता है. अब साइकिल और ट्रैक्टर जैसे साधनों से चुनाव प्रचार नहीं होता. कार और मोटरसाइकिल में पैट्रोल डलवाने का काम उम्मीदवारों का होता है. उम्मीदवार केवल खुद के साथ चलने के लिए ही भीड़ का इंतजाम नहीं करता, बल्कि उस के कुछ खास लोग भी चुनाव प्रचार करते हैं. भीड़ जुटाने का काम पैसे दे कर किया जाता है. भीड़ कम होती है, तो विरोधी को उम्मीदवार ताकतवर नहीं लगता. ऐसे में हर उम्मीदवार अपने साथ भीड़ ले कर चलना पसंद करता है. उस के प्रचार में नारा लगाती यह भीड़ चुनाव प्रबंधन का नतीजा होती है. बहुत सारे लोगों के लिए चुनाव रोजगार का जरीया बन जाता है.
नेताओं के लिए चुनाव किसी कारोबार जैसा हो गया है, जहां पर वे पैसे के बल पर हर साधन जुटाते हैं. पहले पार्टियों के कार्यकर्ता अपने दल के उम्मीदवार के लिए जीतोड़ मेहनत करते थे. कई बार तो उम्मीदवार के पास इतना पैसा भी नहीं होता था कि वह अपने प्रचार में लगे लोगों के खानेपीने का इंतजाम कर सके. कई बार तो प्रचार करने वाले अपने खानेपीने का इंतजाम खुद करते थे.
अब नेताओं को कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलती. भीड़ से ले कर चुनाव के दूसरे साधन जुटाने में पैसों का इंतजाम करना पड़ता है. चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के खर्च की सीमा को तय कर रखा है. इस खर्च को देखें तो पता चलेगा कि नेता चुनाव लड़ने में तय सीमा के मुकाबले बेहिसाब खर्च करते हैं, पर खर्च हिसाब से दिखाते हैं. कोई नेता यह नहीं कहता कि उस ने पैसे के बल पर भीड़ जुटाई है. यह काम खुद नेताओं द्वारा न कर के उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो उम्मीदवार का चुनाव संचालन करते हैं. ऐसे में भीड़ जुटाना भी एक तरह का प्रबंधन हो गया है.
भीड़ जुटाने का यह काम गांव से ले कर शहर तक में खूब चल रहा है. गांवों में भीड़ के साथ वाहनों का अलग से इंतजाम करना पड़ता है. नोटबंदी के चलते ज्यादातर उम्मीदवार अब अपने करीबी सहयोगियों को आगे कर के उन को चुनाव प्रबंधन के लिए सहारा बना रहे हैं. नोटबंदी के चलते बहुत सारे छोटेमोटे कलकारखाने और मजदूरी के काम बंद हैं. ऐसे में खाली बैठे लोग चुनाव प्रचार कर के ही कुछ दिनों की कमाई के जुगाड़ में नेता के समर्थन में नारे लगाते दिख रहे हैं. गांव के मुकाबले शहरों में भीड़ जुटाना ज्यादा मुश्किल और खर्चीला काम होता है. कई लोग अपनी फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों को उम्मीदवार के साथ लगा देते हैं.
इस तरह के प्रचारतंत्र में काम कर रहे लोगों का कहना है कि केवल प्रचार करने वाले को ही पैसा नहीं मिलता, बल्कि इंतजाम करने वाले को भी पैसा मिलता है. वह उस में कटौती कर के ही आगे लोगों को पैसा देता है. खानेपीने और वाहन के नाम पर अलग से पैसा लिया जाता है. पैसों के लेने और देने की प्रक्रिया बेहद गोपनीय होती है, जिस से किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगती. इस प्रक्रिया को गापनीय रखना भी सब से बड़ी शर्त होती है, जिस से यह नहीं पता चलता कि पैसा आया कहां से है और जाता कहां है.
पढ़े लिखों की डिमांड
एक तरफ नारा लगाने वाले ऐसे लोगों को भी रोजगार मिलता है, जो कम पढ़ेलिखे या अनपढ़ हैं, दूसरी तरफ उन लोगों के लिए भी रोजगार हैं, जो ठीकठाक पढे़लिखे हैं. ऐसे लोग नारा लगाने का काम नहीं करते हैं. ये उम्मीदवार के दफ्तर का काम देखते हैं. कंप्यूटर, मोबाइल और लैपटौप चलाने वालों को खास अहमियत दी जाती है. ये लोग ही दफ्तर के जरीए उम्मीदवार के चुनाव प्रचार के लिए रणनीति बनाते हैं. दूसरा उम्मीदवार कैसे अपना चुनाव संचालन कर रहा है, इस पर भी नजर रखते हैं. अब ह्वाट्सएप और सोशल मीडिया को हैंडिल करने के लिए अलग से टीमें बनने लगी हैं.
दफ्तर में काम करने वाले यही लोग चुनाव में वोटर परची तैयार करने, उन को घरघर तक पहुंचाने का काम भी करते हैं. चुनाव के दिन वोटर घर से निकल कर उन के उम्मीदवार को वोट दे, यह कोशिश भी उन्हें करनी पड़ती है. ऐसे काम करने के लिए अलगअलग तरह के ‘पेड वर्कर’ होने लगे हैं. कई उम्मीदवार तो चुनाव के सालों पहले से ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ लेते हैं. चुनाव के समय ऐसे लोगों की तादाद बढ़ जाती है. शहर से ले कर देहात तक कई स्वयंसेवी संगठन भी अपने लैवल पर उम्मीदवार के प्रचार का जरीया बन जाते हैं.
हिसाब किताब का बोझ
चुनाव आयोग की बंदिशों ने बहुत सारी कागजी कार्यवाही को बढ़ा दिया है. उन को पूरा करने के लिए जानकार लोगों की जरूरत होती है. ऐसे में वकीलों और हिसाबकिताब रखने वालों की मांग भी चुनाव में बढ़ जाती है. इस के लिए भी पैसा देना पड़ता है. तहसील लैवल पर काम करने वाले बहुत सारे वकील चुनाव में ऐसे कामों में लग जाते हैं. कई लोग ऐसे भी होते हैं, जो कई बार दूसरों को चुनाव लड़ाते हैं. ऐसे लोगों को चुनाव प्रबंधन में माहिर माना जाता है.
ऐसे ही प्रबंधन को संभाल रहे एक आदमी का कहना है, ‘‘उम्मीदवार अपने प्रचार में मसरूफ रहता है. उस के पास समय की कमी होती है. वह प्रचार के लिए फंड का इंतजाम तो कर सकता है, पर उस को कैसे खर्च करना है और उसे लिखतपढ़त में कैसे दिखाना है, जानकार लोग आसानी से कर लेते हैं.
‘‘ये लोग केवल लिखतपढ़त में ही माहिर नहीं होते, बल्कि चुनाव आयोग में उम्मीदवार के नामांकन को दाखिल करने तक में मदद करते हैं. वकील साथ होता है, तो काम आसान हो जाता है.’’
पीआर प्रबंधन भी जरूरी
उम्मीदवारों के लिए यह भी जरूरी होने लगा है कि वे अपनी बात को कैसे कहें. आज केवल अखबारों का ही दौर नहीं है, टैलीविजन चैनलों में भी बात रखनी पड़ती है. अखबारों में छपने वाली खबर को तैयार करने और बातचीत की कला को समझाने वाले लोग भी उम्मीदवार के लिए मददगार होने लगे हैं. ये लोग अखबारों में उम्मीदवार की इमेज को बेहतर तरीके से सामने रखने का काम करते हैं. अब पीआर प्रबंधन करने वाले पैसे ले कर ऐसे कामों को अंजाम देने लगे हैं.
पीआर प्रबंधन वाले लोगों में अखबारों में काम करने वाले ज्यादा होते हैं. ये लोग अखबारों में खबरों को परोसने के माहिर होते हैं. इन को राजनीतिक विषयों और नेताओं के बयानों पर टिप्पणी करने की जानकारी होती है. किस तरह से बयान अखबारों में सुर्खियां बनते हैं, ऐसी बातें नेता पीआर प्रबंधन करने वालों की सलाह मान कर करते हैं.
गांव से ले कर शहरों तक में ह्वाट्सएप ग्रुप चलने लगे हैं. इन ग्रुपों में उम्मीदवार अपने प्रचार की बातें और मुद्दे पोस्ट कराते रहते हैं. पीआर प्रबंधन वाले लोग इस तरह के नएनए रास्ते खोजने लगते हैं, जिन से कम से कम पैसे और समय में ज्यादा से ज्यादा प्रचार होता रहे. नारा लिखने का काम भी ऐसा ही है. पहले कार्यकर्ता और पार्टी के लोग इस काम को अंजाम देते थे, पर अब पीआर प्रबंधन में लगे लोग इस को करते हैं. चुनाव में बजने वाली सीडी बनाने के लिए भी ऐसे लोगों को खोजा जाता है.
पीआर प्रबंधन के एक जानकार कहते हैं, ‘‘जितना अच्छा पैसा होगा, उतना बड़ा जानकार काम करने को तैयार होगा. पैसा अच्छा होता है, तो दिल्ली, मुंबई तक के लोगों से मदद ली जाती है.
‘‘उम्मीदवार के कहने पर प्रचार करने के लिए कुछ महिला चेहरों का भी इंतजाम हो जाता है. कई बार नामचीन लोगों को बुलाने का काम भी पीआर ही करता है.’’
कम शब्दों में कहें, तो नेता की शख्सीयत कैसी भी हो, मगर उस को चमकाने वाले मिल जाएं, तो चुनाव की बाजी जीती जा सकती है.
बदल गया है पहनावा भी
राजनीति में नेताओं का पहनावा बदल रहा है. आज के दौर में ‘मोदी जैकेट’ का बहुत चलन है. गहरे और हलके रंगों में बिकने वाली यह जैकेट 2 सौ रुपए से ले कर हजारों रुपए की रेंज में मिलती है. चुनाव के समय ऐसे कपड़ों की खपत बढ़ जाती है. कपड़ों के साथ नए किस्म के जूते, तौलिए और गमछे भी खूब बिकते हैं. कुछ फैशनेबल नेताओं ने लिनन के कपडे़ पहनने शुरू किए हैं. बड़ी तादाद में नेता खादी और हैंडलूम के कपड़े पहनने लगे हैं. छोटे नेताओं में पावरलूम से बने कपडे़ पहनने का क्रेज है. नेताओं की जेब के हिसाब से खादी के कपडे़ दुकानों में मिलने लगे हैं. इस महंगाई के दौर में भी इन दुकानों में एक हजार रुपए खर्च कर के नेता बना जा सकता है.
कपड़ों के एक दुकानदार राम प्रसाद का कहना है, ‘‘लखनऊ के दारुलशफा में छोटेछोटे नेता अपने जिले से यहां आते हैं. रास्ते में उन के कपड़े गंदे हो गए या वे लाना भूल गए, तो यहां दुकान से कुरतापाजामा और गमछा ले कर नेता बन जाते हैं. यहां सस्ती दरों पर कपड़े मिल जाते हैं, इसलिए लोग यहां कपड़े लेना पसंद करते हैं.’’
यहां कुरतापाजामा और शर्ट का कपड़ा सौ रुपए से ले कर 250 सौ रुपए प्रति मीटर मिलता है. पैंट का कपड़ा 2 सौ रुपए से ले कर 5 सौ रुपए प्रति मीटर में बिकता है. यहां जैकेट 3 सौ रुपए से 4 सौ रुपए में मिलती है.
दारुलशफा के अलावा कुछ नेता श्री गांधी आश्रम में भी खरीदारी करते हैं. यहां खादी के कपड़े दारुलशफा से महंगे मिलते हैं. नई उम्र के नेता कुरते की जगह शर्ट पहनना पसंद करने लगे हैं. खादी की शर्ट 4 सौ रुपए से 12 सौ रुपए के बीच मिलती है. ऐसे कपड़ों को पहनने वाले नेताओं का मानना है कि आजकल खादी की जगह मसलिन खादी का चलन बढ़ रहा है. यह खादी 250 रुपए से 17 सौ रुपए प्रति मीटर तक में मिलती है. खादी और सिल्क की बनी सदरी भी रेडीमेड मिलने लगी हैं. इन की कीमत 13 सौ रुपए से ले कर 21 सौ रुपए तक हो सकती है.
सिल्क से बने कुछ कपडे़ महिला नेताओं को भी पसंद आते हैं. इन में सलवारसूट और साड़ी खास होती हैं. इन की कीमत 75 सौ रुपए तक होती है. लिनन से तैयार कपड़े आजकल लोगों को खूब पसंद आने लगे हैं. कई बड़े नेता इस को पहनना पसंद करते हैं. लिनन का कुरता, शर्ट और पाजामे का कपड़ा एक हजार रुपए प्रति मीटर से ले कर 4 हजार रुपए प्रति मीटर में मिलता है. लिनन से तैयार जैकेट 2 हजार रुपए से 3 हजार रुपए तक में मिल जाती है. खादी के कुरतों में अब सफेद रंग के अलावा रंगीन कपड़ों का भी चलन बढ़ रहा है.
कुछ बडे़ नेताओं की पसंद पर भी खादी का कपड़ा तैयार किया जाता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कई बार गांधी जयंती के मौके पर गांधी आश्रम आते हैं. यहां उन्हें महीन खादी के सूत को दोगुना कर तैयार किए गए कपडे़ पसंद आते हैं. मुलायम सिंह यादव सुपरफाइन मसलिन खादी पहनते हैं. यह बहुत पतली और आरामदायक होती है.
भारतीय जनता पार्टी की असल जान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊंचे पदों पर बैठे लोग अकसर शास्त्रों में दी गई जाति को फिर से जिंदा करने की बात करने लगते हैं और जाति के तोड़ आरक्षण को खत्म करने पर सोचने का सुझाव दे डालते हैं. यह बात दूसरी है कि पार्टी में ही खलबली मचने पर वे कहते फिरते हैं कि उन का मतलब कुछ और था. इन महानों में मोहन भागवत व मनमोहन वैद्य शामिल हैं. सही बात तो यह है कि जाति का सवाल हमारी सोच में इस तरह घुलामिला है कि इसे खत्म करने की कोशिश नाकाम है. पैदा होते ही हर बच्चे के गले में जाति की तख्ती लटका दी जाती है, जो उसे जिंदगीभर ढोनी होती है. जो ऊंची जातियों के हैं, वे भी खुश हैं, जरूरी नहीं. अगर ब्राह्मण का बेटा दूसरों के साथ खेलता है, तो उसे ‘ओ पंडे’, ‘ओ शास्त्री’ सुनने को मिलता है. अछूत का बच्चा ऊंचों के साथ खेलता है, तो दुत्कारा जाता है.
मजेदार बात यह है कि नीची सताई जातियां भी अपनों में ऊंचनीच का जम कर खयाल रखती हैं और शादी के समय खयाल रखती हैं कि कहीं लड़का किसी नीची जाति की लड़की को घर न ले आए. मोहन भागवत और मनमोहन वैद्य ने जाति के आरक्षण को खत्म करने की बात कर के गलत नहीं कहा, क्योंकि 70 साल के आरक्षण ने कुछ बदलाव नहीं किया. यह हमारे समाज की पथरीली सोच का नतीजा है. डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सोचा था कि 10-20 साल में आजादी के बाद आई साइंस की सोच सब को साथ कर देगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज भी सारी राजनीति और सारी सरकारी मशीनरी जाति पर टिकी है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चुनावों में जाति व धर्म के नाम पर वोट न लिए जाएं, पर देने वालों को कौन कैसे रोक सकता है. जाति, जो पैदा होते ही माथे पर लिख दी जाती है, वोट डालते हुए जोर मारती है और चुनावी हारजीत इस पर ही टिकी है.
भारतीय जनता पार्टी जिस जाति व्यवस्था को चाहती है, उस में सब से ऊंचे ब्राह्मणों को सब से ऊंची जगह देने की सिफारिश ही नहीं हुक्म है, पर शास्त्रों के कहने के बाद भी ब्राह्मणों में से भी कुछ को छोड़ कर बाकी गरीब केवल जाति का बिल्ला लगाए जैसेतैसे पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदा रहे हैं. अगर उन्होंने जाति छोड़ दी होती तो वे आज ज्यादा खुशहाल होते, पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे शास्त्रसम्मत मान कर गले से उतारने की कोशिश कर रहा है और नतीजा यह है कि इज्जत व सत्ता दोनों हाथ से निकल रही है.
मोहन भागवत और मनमोहन वैद्य को समझना चाहिए कि 2 हजार सालों में विदेशियों के राज ने उन का ज्यादा नुकसान किया है. वे पढ़ेलिखे, नई जानकारी ली तो पैसा कमाया है. शास्त्रसम्मत हवनपूजा करते रहे तो कुछ न मिला. आरक्षण का सवाल उठा कर वे अपनी कमजोरी ही दिखा रहे हैं.
एक्ट्रेस सोनम कपूर का कहना है कि वो सेंसरशिप में विश्वास नहीं करती हैं. सोनम मानती हैं कि सबको अपनी पसंद के कपड़े पहने का, अपनी सेक्सुएलिटी का और अपने पसंद से शादी करने का पूरा हक है. भारतीय समाज में महिलाओं के फैशन विकल्पों पर प्रतिबंध के बारे में बोलते हुए सोनम ने कहा, ‘हर लड़की का खुद का निर्णय होना चाहिए कि वो बिकिनी पहना चाहती हैं या बुर्का. यही बात उनके धर्म, कपड़ें, पढ़ाई औैर शादी पर भी लागू होती है. आप जितना लोगों पर प्रतिबंध लगाएंगे वो उतने ही आक्रमक होते जाएंगे.’
सोनम ने आगे कहा, ‘हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं इसलिए लोगों को उनक मर्जी के हिसाब से जीने का हक होना चाहिए.’ इवेंट में सोनम अपने आलचकों पर भी निशाना साधती नजर आईं. जब उनसे पूछा गया कि क्या वो भी अपनी फिल्मों में गाना गाएंगी तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘मुझे गाना नहीं आता. अगर मैंने फिल्मों में गाना शुरू कर दिया तो सब कहेंगे कि पहले तो एक्टिंग भी नहीं आती थी और अब गाना भी नहीं आता. इतनी कोशिशों के बाद भी मुझे केवल दो या तीन अवॉर्डस ही मिले हैं. इसलिए मैं गाना बिल्कुल भी नहीं चाहती हूं.’
सोनम ने यह भी कहा कि उन्होंने ‘दिल्ली 6’ में गाया भी है लेकिन वो किसी को याद नहीं है. बता दें कि सोनम ‘पैडमैन’ और ‘वीरे दी वेडिंग’ जैसी फिल्मों में नजर आएंगी.
गोवा और पंजाब के चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस को टक्कर तो जरूर दे रही है, जीतेगी या नहीं, यह 11 मार्च को पता चलेगा. आम आदमी पार्टी की शुरुआत ही अपनेआप में एक खुश करने वाली बात है, क्योंकि इस तरह की पार्टियों में न तो वंशवाद चलता है, न ये लकीर की फकीर होती हैं.
लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट डालना नहीं होता, कुछ नई सोच लाना और नए नेता भी पैदा करना होता है और आम आदमी पार्टी यह काम जरूर कर रही है. 2014 के लोकसभा के चुनावों में मात खाने के तुरंत बाद दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीत कर इस ने भारतीय जनता पार्टी की हवा निकाल दी थी, पर भारतीय जनता पार्टी के तेवर ढीले न कर पाई. पंजाब और गोवा में सत्ता में बैठी पार्टी को हिला देना ही काफी है.
सत्ता में बदलाव लोकतंत्र का असल मुनाफा है. अगर वही लोग बारबार जीत कर आते रहें, तो वोट देने का मतलब नहीं रह जाता. 1947 के बाद कांग्रेस लगातार जीतती रही है और यही देश के नुकसान की वजह रही है. भारतीय जनता पार्टी जीती तो कम है, पर इस में सिरमौर वही लोग बने रहे हैं, जो धर्म, जाति, संस्कारों, रीतिरिवाजों से बंधे हैं और इसीलिए जहां भी जीतते हैं, कुछ नया नहीं कर पाते.
दूसरे देशों में जब भी तरक्की हुई है तब हुई है, जब सरकार की सोच, रवैया और नेता बदले. चीन 1960 में भारत के बराबर था. आज औसत चीनी औसत भारतीय से 5-6 गुना ज्यादा अमीर है, क्योंकि माओत्से तुंग के बाद नए लोगों ने नए तौरतरीके अपनाए. भारत में 1991 में नरसिंह राव व मनमोहन सिंह ने नया दौर शुरू किया और मंडल आयोग लागू किया, जिस से नई सोच आई और देश चमका, पर फिर पुराने दलदल में जा बैठा.
2014 में जिस बदलाव की उम्मीद की थी, वह नहीं दिख रही. उलटे नोटबंदी की सजा मिल गई. ऐसे में नई उम्र वाले अरविंद केजरीवाल और कुछ हद तक नए धुलेपुछे अखिलेश यादव व राहुल गांधी से नए की उम्मीद की जा रही है. गोवा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में कोई भी जीते, नए पौधे लग गए हैं, यह पक्का सा है. इस का लाभ जरूर होगा.
जरूरत यह है कि गांवगांव, कसबेकसबे में नए लोगों की पौध उपजे. शासन पुरानी लकीर पर न चले, यही आज की जरूरत है. दुनिया अब थम रही है और भारत जैसे देशों के लिए यह बात फायदेमंद साबित हो सकती है कि जब अमेरिकायूरोप अपने में सिमट जाएं, तो हम पैर फैला सकें.
सेंसर बोर्ड ने हाल ही में ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ पर बैन लगा दिया है. जिस कारण से कई फिल्म निर्माताओं ने सेंसर बोर्ड के खिलाफ सोशल मीडिया पर बयान दिए थे. फिर भी सेंसर बोर्ड ने फिल्म को सर्टिफिकेट नहीं दिया. ऐसा ही अब एक और फिल्म के साथ हुआ है. न्यूयॉर्क बेस्ड मलयाली फिल्म निर्माता जयन चेरियन की अगली फिल्म ‘का बॉडीस्केप्स’ पर सेंसर बोर्ड ने बैन लगा दिया है.
ये फिल्म एलजीबीटीक्यू (गे, लेज्बियन,बाइसेक्शुअल,ट्रांसजेंडर,क्वीयर) समूदाय और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर आधारित है. सेसंर बोर्ड का कहना है कि फिल्म हिंदू धर्म का मजाक बना रही है.
सेंसर बोर्ड ने फिल्म निर्माता को फिल्म को बैन करने कारण बताते हुए को पत्र भेजा. उसमें लिखा था कि फिल्म का विषय वस्तु हिंदू धर्म के लिए अपमानजनक है. फिल्म में हिंदू धर्म का मजाक बनाया गया है. खासतौर से हिंदू देवी-देवताओं को गलत तरीके से दर्शाया जा रहा है. अभी फिल्म के निर्माताओं की तरफ से किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं आई है.
चुनाव हो या खेल सट्टा बाजार का अपना अलग महत्व होता है. उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सट्टा बाजार का अपना अलग अंदाज चल रहा है. उत्तर प्रदेश के विषय गुजरात, मुम्बई, मध्य प्रदेश और दिल्ली के सट्टा बाजार में मुख्य टक्कर सपा और भाजपा के बीच दिखाई जा रही है. इस सट्टा के बाजार में सबसे अधिक झटका बहुजन समाज पार्टी को लगा है. जहां प्रदेश में लोग बसपा को सत्ता का मुख्य दावेदार मान रहे थे वही सट्टा बाजार में बसपा धडाम से गिर कर तीसरे नम्बर पर हांफ रही है. सट्टा बाजार में पंजाब में आप को सबसे आगे और भाजपा-अकाली को कांग्रेस के बाद तीसरे नम्बर का भाव मिला है. सट्टा बाजार में भाजपा गोवा में सरकार बनाते दिख रही है वहां कांग्रेस दूसरे और आप पार्टी तीसरे नम्बर पर है. उत्तराखंड में सट्टा ने भाजपा को सत्ता के करीब माना है. कांग्रेस और बसपा को दूसरे तीसरे नम्बर पर रखा है.
सट्टा बाजार के जानकार कहते हैं कि यहां पर भाव पलपल में बदलता रहता है. यहां का भाव सही तरह से चुनावी नतीजो का आकलन नहीं करता, वह चुनावी प्रचार, खबरें और लोगों की बातचीत से अंदाजा लगाता है. सबसे बड़ा सट्टा उत्तर प्रदेश में बनने वाली सरकार को लेकर लगा है. उत्तर प्रदेश के बाद पंजाब और गोवा का नम्बर आता है. पहाडी राज्यों में केवल उत्तराखंड को थोडा बहुत महत्व इस बाजार में मिला है. मणिपुर का इस सट्टा बाजार में कोई जिक्र भी नहीं है. असल में सट्टा बाजार में जिसका भाव सबसे कम होता है अगर वह बडा उलटफेर करता है तो उस पर पैसा लगाने वालों को लाभ का सबसे अधिक होता है. उत्तर प्रदेश में बसपा को सबसे बड़ा खिलाडी माना जा रहा है जो उलटफेर करने में माहिर है. ऐसे में बसपा के भाव को सबसे कम रखा गया है. जिससे बसपा के पक्ष में सट्टा लगाने वालों को सबसे बड़ा मुनाफा हो सकता है.
राजनीतिक हलकों में बसपा को लेकर जानकार लोगों का उत्साह इसलिये खत्म हो गया है. सभी को लग रहा है कि वोटों के धुव्रीकरण के कारण बसपा को सबसे अधिक नुकसान होगा है. धर्म के मसले पर बसपा का दलित वर्ग भी भाजपा के साथ खडा हो जाता है. यही हालत सपा की भी है. सपा के यादव वर्ग को छोड़कर बाकी पिछडी जातियां धार्मिक धुव्रीकरण का शिकार होकर भाजपा के पक्ष में खड़ी हो जाती हैं. यही कारण है कि बहुत सारी परेशानियों के बाद भी भाजपा केवल अपने प्रचार के बल पर सबसे आगे खड़ी नजर आ रही है.
उत्तर प्रदेश में नेताओं रूप में सीधा मुकाबला मायावती, अखिलेश यादव, राहुल गांधी, अमित शाह और नरेन्द्र मोदी के बीच चल रहा है. नरेंद्र मोदी की केन्द्र सरकार की योजनाओं को घेरने का कोई काम सपा, बसपा और कांग्रेस के नेता नहीं कर पाये. नोटबंदी से लेकर बाकी किसी भी मसले पर यह लोग भाजपा को घेरने में सफल नहीं हुये. भाजपा ने राहुल और अखिलेश को निशाने पर लेकर प्रचार अभियान चलाया. भाजपा के मुकाबले सपा बसपा और कांग्रेस बहुत मुखर होकर काम नहीं कर पायें. इसका प्रभाव चुनाव प्रचार पर पड़ रहा है. अगर विरोधी दल भाजपा को मुद्दों पर घेर पाते तो भाजपा के लोग जुमलेबाजी करके नहीं निकल पाते. केवल आक्रामक प्रचार के बल पर ही भाजपा सबसे आगे दिख रही है. इस चुनाव में साफ दिख रहा है कि चुनाव प्रबंधन जीत के लिये सबसे जरूरी हो गया है.
चीन की हिस्सेदारी वाली कंपनी पेटीएम के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरते हुए लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि ऐसा कोई प्रधानमंत्री होता है क्या, जो दूसरे देश की कंपनी का प्रचार करते हुए कहता है कि पेटीएम कर लो पेटीएम. ठेठ लहजे में पेटीएम का मतलब समझाते हुए वे आगे कहते हैं कि पेटीएम यानी पे टू मी. मतलब, मुझे पैसा दो. ऐसा प्रधानमंत्री तो कभी देखा ही नहीं. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की गरिमा का तो खयाल रखना चाहिए.
राहुल गांधी के सामने नरेंद्र मोदी बौने दिखने लगे हैं. इसे साबित करने के लिए लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि वाराणसी की सभा में नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी की खिल्ली उड़ाई थी. उस के तुरंत बाद राहुल गांधी ने जौनपुर में सभा की थी, तो उस में ‘मोदी मुरदाबाद’ के नारे लगने लगे. राहुल गांधी ने बड़प्पन दिखाते हुए नारे लगाने वालों को रोक दिया. उन्होंने मुरदाबाद का नारा लगाने वालों से कहा कि नरेंद्र मोदी हमारे प्रधानमंत्री हैं और उन के खिलाफ ऐसा नारा नहीं लगाना चाहिए. विरोध विचारों का है और भारतीय जनता पार्टी को चुनाव से ही हराना है.
नोटबंदी का हाल भी नसबंदी जैसा ही होगा. नसबंदी की वजह से कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ गई थी और अब नोटबंदी की वजह से जनता भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकेगी. प्रधानमंत्री ने 90 फीसदी लोगों को गरीब बना दिया है.
एक के बाद एक ताबड़तोड़ सभाएं, बैठकें, धरने वगैरह कर के लालू प्रसाद यादव एक बार फिर अपने पुराने रंग में लौटते नजर आने लगे हैं. देश और राज्य के मसलों पर वे खुल कर अपनी राय रखने लगे हैं और अपने वोटरों को नए सिरे से गोलबंद करने में लगे हैं. खुद को और अपनी पार्टी को नीतीश कुमार की छाया से निकालने की कवायद में लग गए हैं और पूरे ठसक के साथ जनता से रूबरू होने लगे हैं.
पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के सब से बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बाद लालू प्रसाद यादव ने अपने दोनों बेटों को नीतीश कुमार सरकार में मंत्री बनवा दिया और बेटी मीसा भारती को राज्यसभा में भेज कर आराम फरमा रहे थे.
पिछले कुछ दिनों से नीतीश कुमार के भाजपा से हाथ मिलाने और कई मसलों पर उन के द्वारा नरेंद्र मोदी का समर्थन करने के बाद उठी सियासी अटकलों के बीच लालू प्रसाद यादव फिर पुराने तेवर के साथ सियासी अखाड़े में उतर आए हैं.
नोटबंदी के 50 दिन पूरे होने पर राष्ट्रीय जनता दल ने 28 दिसंबर, 2016 को महाधरना का आयोजन किया था, लेकिन उस में महागठबंधन के साथी दल नहीं पहुंचे.
गौरतलब है कि नीतीश कुमार ने पहले ही नोटबंदी को सही करार दे कर इस से पल्ला झाड़ लिया, तो कांग्रेस ने उसी दिन पार्टी ‘स्थापना दिवस’ होने का बहाना बना कर इस महाधरने से कन्नी काट ली. इस के बाद भी लालू प्रसाद यादव ने अकेले अपने बूते भाजपा के खिलाफ हुंकार भरी और उस में काफी हद तक कामयाब भी रहे.
अब उन्हें यह महसूस हो गया है कि महागठबंधन के साथी जद (यू) और कांग्रेस से इतर उन्हें अपनी ताकत फिर से दिखाने का समय आ गया है. अब उन्होंने भाजपा के साथसाथ महागठबंधन में शामिल दलों से भी निबटने के लिए कमर कस ली है.
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने पटना समेत बिहार के सभी 38 जिलों के हैडक्वार्टरों पर महाधरने का आयोजन किया था और उस की कामयाबी से खुश हो कर नए साल में नोटबंदी के खिलाफ बड़ी रैली के आयोजन का ऐलान भी कर डाला.
महागठबंधन के दूसरे साथियों के महाधरने में शामिल नहीं होने से नाराज लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि ईगो प्रोब्लम की वजह से सभी विरोधी दल एकजुट नहीं हो पा रहे हैं, जबकि गैरभाजपाई दलों की एक ही मंजिल है. सभी दल दिल्ली से भाजपा को उखाड़ने की कोशिश में लगे हुए हैं.
राजद को मजबूत बनाने के लिए उन्होंने दूसरे दलों में गए राजद नेताओं की घर वापसी का दरवाजा खोल दिया है. अपनी पार्टी राजद के 20वें स्थापना दिवस के मौके पर आयोजित जलसे में उन्होंने पार्टी छोड़ कर भागने वालों को दोबारा पार्टी में शामिल होने का खुला न्योता दिया. खास बात यह रही कि न्योते के साथसाथ उन्होंने धमकी भी दे डाली. उन्होंने साफ कहा कि जिसे राजद में आना है, आ सकता है, पर आने के पहले अपनी आदतों को सुधार ले. पुरानी आदतों को सुधारने के बाद ही राजद में जगह मिलेगी.
सियासी हलकों में चर्चा है कि लालू प्रसाद यादव के बुलावे पर उन के कुछ पुराने दोस्तों का मन डोलने लगा है.
एक बार फिर पुराने तेवर में नजर आने वाले लालू प्रसाद यादव को अब अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं का भी खासा खयाल आने लगा है, तभी तो उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं की बैठक में उन की दुखती रग पर हाथ रखते हुए कहा कि जो अफसर राजद कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनेंगे, उन पर कार्यवाही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बात कर के की जाएगी. सरकार में शामिल सभी दलों में सब से बड़ा दल होने के बाद भी राजद को दरकिनार रखा गया है. इस से कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट रहा है.
लालू प्रसाद यादव ने कार्यकर्ताओं को आगाह करते हुए कहा कि भाजपा सरकार आरक्षण को खत्म करने की साजिश रच रही है. वह धर्म के नाम पर देश को तोड़ने में लगी हुई है. इस के साथ ही वह भाजपा को चुनौती देने वाले लहजे में कहते हैं, ‘‘ऐ भाजपा वालो, जब तक लालू के शरीर के खून का एक कतरा भी रहेगा, वह आरक्षण को खत्म नहीं होने देगा.’’
लालू प्रसाद यादव केंद्र की भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं. वे हर मौके पर केंद्र की मोदी सरकार पर भी जम कर तीर चलाते हैं. वे बारबार जोर दे कर अपने वोटरों से कह रहे हैं कि केंद्र सरकार ने अडानी का 2 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ कर दिया. रिलायंस को फायदा पहुंचाया जा रहा है.
मोदी सरकार को अमीरों की सरकार करार देते हुए लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है, नहीं तो गरीबों का जीना मुहाल हो जाएगा.
लालू प्रसाद यादव के पुराने रंग में लौटने की सब से बड़ी वजह यह भी है कि उन्हें नीतीश कुमार का अकेले दूसरे राज्यों में जा कर सभाएं करना और भाजपा और नरेंद्र मोदी पर निशाना साधना हजम नहीं हो रहा था. उन्होंने नीतीश कुमार की बेरुखी पर काफी दिनों तक चुप्पी साधे रखी, पर अब उन्हें लगने लगा है कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है. अब खुल कर सामने आने का समय आ गया है.
राजद के थिंक टैंक माने जाने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं कि अपने सियासी फायदे के लिए नीतीश कुमार महागठबंधन के दूसरे साथियों की अनदेखी कर रहे हैं. उन्होंने नीतीश कुमार से कुछ तल्ख सवाल पूछे हैं, ‘आखिर उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार किस ने बना दिया? किस हैसियत से वे मिशन-2019 की बात कर रहे हैं? क्या अकेले घूम कर नीतीश कुमार सैकुलर ताकतों को कमजोर और सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत नहीं कर रहे हैं?
दूसरे राज्यों में सभाएं करने से पहले नीतीश कुमार को क्या सहयोगी दलों से बात नहीं करनी चाहिए थी? क्या उन्हें भरोसे में नहीं लेना चाहिए था?’ वगैरह.
अभी तक राजद को इन सवालों के जवाब नहीं मिल सके हैं.लालू प्रसाद यादव इस बात से भी नाराज बताए जाते हैं कि नीतीश कुमार उन से कोई सलाहमशवरा किए बगैर उत्तर प्रदेश के बनारस, कानपुर, नोएडा और लखनऊ में अकेले ही लगातार रैलियां करते रहे. इस मामले में महागठबंधन को भरोसे में नहीं लिया गया.
गौरतलब है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुर्मी जाति की खासी आबादी है और नीतीश कुमार की नजर उन पर गड़ी हुई है. उस के बहाने वे वहां अपना जनाधार बढ़ाने की चाहत रखते हैं.
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच तनातनी की हवा के तूफान में बदलने से पहले लालू प्रसाद यादव बड़े भाई की भूमिका में खुल कर सामने आ गए. राजद और जद (यू) के नेताओं के बेवजह की बयानबाजी पर लगाम लगाने के लिए उन्होंने नीतीश कुमार से बातचीत की. दोनों नेताओं के बीच एक घंटे तक गुफ्तगू चली.
राजद सूत्रों ने बताया कि लालू प्रसाद यादव ने दोनों पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बनाने और सरकार को सही तरीके से काम करने के मसले पर बात की.
लालू प्रसाद यादव को महागठबंधन में अपनी ताकत का अहसास है और इस के साथ उन्हें यह भी डर सता रहा है कि महागठबंधन में बवाल मचने से भाजपा उस का फायदा उठा सकती है, इसलिए वे ताल ठोंक कर एक बार फिर बिहार की राजनीति के अखाड़े में कूद पड़े हैं.
सोशल मीडिया पर भी छाए लालू
लालू प्रसाद यादव के साथसाथ उन के बेटे व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, स्वास्थ्य मंत्री तेजप्रताप यादव, बेटी और सांसद मीसा भारती और उन की बीवी और पूर्व मुख्यमंत्री रह चुकी राबड़ी देवी भी सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं. अपने फेसबुक अकाउंट पर लालू प्रसाद यादव ने लिखा है, ‘रोजगार छीना, मजदूरी छीनी और मारी पेट पर लात, अंबानीअडानी के दलालों की झूठी है नोटबंदी की बिसात.’ दूसरा नारा है, ‘नोटबंदी से हुआ देश का नुकसान, अर्थव्यवस्था पस्त, गरीब परेशान.’
25 दिसंबर, 2016 को लालू प्रसाद यादव ने अपने अकाउंट पर लिखा, ‘नोटबंदी की आड़ में गरीबों के घर डाका डाल, उन्हें बंधक बना कर अमीरों की तिजोरी भरी जा रही है. गरीब लाइन में हैं और अमीर उन के जमा धन से पार्टी कर रहा है.’ राबड़ी देवी भी भला कहां पीछे रहने वाली थीं. उन्होंने अपने फेसबुक पर लिख डाला, ‘नोटबंदी की क्या पहचान, भ्रष्ट मस्त गरीब परेशान.’
तेजस्वी यादव ने अपने फेसबुक वाले पेज पर लिखा, ‘निष्ठुर सरकार को पूंजीवादी नींद से जगाएं.’ तेजप्रताप ने नारा दिया, ‘क्या अच्छे दिन का यही था वादा, गरीब और युवाओं का रोजगार छीन कर मौज में बैठा अंधा राजा.’ मीसा भारती ने अपने फेसबुक वाल पर ‘फोर्ब्स’ मैगजीन के हवाले से लिखा है, ‘नोटबंदी से भारत को लगेगा खरबों का झटका.’
नोटबंदी के कुछ दिनों बाद ही लालू प्रसाद यादव ने ट्वीट के जरीए कहा है कि प्रधानमंत्री अंकल पोजर की तरह काम करते हैं. किसी काम को शुरू कर के उसे बिगाड़ कर रख देते हैं और उस के बाद अपनी गलती का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ देते हैं. अपने कारनामों से वे भाजपा का नुकसान कर रहे हैं.
बौलीवुड सिंगर शाल्मली खोलगडे के गाने ‘बेबी को बेस पसंद है…’, ‘मुझे तो तेरी लत लग गई…’, ‘बलम पिचकारी…’, ‘मैं परेशां…’ हर पार्टी की शान बन गए हैं. वैसे, शाल्मली खोलगडे को केवल गाने गाना ही पसंद नहीं है, बल्कि वे डांस और ऐक्टिंग का भी शौक रखती हैं. स्कूली दिनों में उन को यह तय करने में बहुत मुश्किल आई थी कि कैरियर के रूप में वे इस दिशा में जाएं. शाल्मली खोलगडे की मां उमा खोलगडे क्लासिकल सिंगर और थिएटर आर्टिस्ट हैं. वे बेटी को भी उसी दिशा में ले जाना चाहती थीं. शाल्मली खोलगडे ने अपने कैरियर की शुरुआत एक मराठी फिल्म से की थी. उन को असल पहचान फिल्म ‘इशकजादे’ के गाने ‘मैं परेशां…’ से मिली. इस के बाद उन्होंने एक के बाद कई हिट गाने गाए. पेश हैं, उन के साथ की गई बातचीत के खास अंश:
ऐक्टिंग और डांस के शौक के बाद आप सिंगिंग की लाइन में कैसे आईं?
मेरी मां क्लासिकल सिंगर हैं. उन की कोशिश थी कि मैं भी क्लासिकल सिंगर बनूं. मैं उन दिनों गानों को ले कर बहुत गंभीर नहीं थी. 8वीं क्लास में मां ने मेरी बात मान ली और कहा कि जो तुम को बनना है, बनो.
स्कूल के बाद कालेज तक मैं यह समझ नहीं पा रही थी कि किस राह पर आगे जाऊं. मैं ऐक्टिंगडांस सबकुछ पसंद कर रही थी. हमारे कालेज में मल्हार फैस्टिवल हुआ था. उस में सोलो सिंगिंग का एक कंपीटिशन था. उस में मैं गाना गा रही थी. गाने के साथ म्यूजिक और सबकुछ देख कर मैं काफी प्रभावित हुई और सोच लिया कि अब तो मुझे सिंगर ही बनना है.
क्या अब सिंगिंग महज प्लेबैक सिंगिंग नहीं रह गई है?
अब गायकी का दौर बदल रहा है. गायकों को स्टेज पर एक अच्छा परफौर्मर होना भी जरूरी होता है. इस में आप का ग्लैमर और लुक भी अहम रोल अदा करता है.
मेरा डांस और ऐक्टिंग का जो शौक था, वह परफौर्मर के रूप में मुझे काम देता है. टैलीविजन चैनल ‘स्टार प्लस’ के सिंगिंग रिएलिटी शो ‘दिल है हिंदुस्तानी’ में करन जौहर और शेखर रविजानी के साथ जज की भूमिका में मुझे बहुतकुछ सीखने को मिला है.
सिंगिंग के रिएलिटी शो के कई विजेता बौलीवुड सिंगिंग में अपनी जगह क्यों नहीं बना पाते हैं?
बौलीवुड में भी कंपीटिशन बहुत है. रिएलिटी शो में केवल वे लोग होते हैं, जो उस शो में हिस्सा ले रहे होते हैं. बौलीवुड सिंगिंग में और लोग भी मुकाबले में होते हैं.
शो जीतने के बाद ही किसी सिंगर का असल कैरियर शुरू होता है. कई बार विजेता संघर्ष करना बंद कर देता है. ऐसे में उस की पहचान वहीं खो जाती है.
यह बात जरूर है कि आज के दौर में अगर आप की आवाज में दम है, तो मौके जरूर मिलेंगे. कई ऐसे कलाकार भी हैं, जो शो में विजेता नहीं बन सके, पर बाद में सिंगिंग में बेहतर कैरियर बनाने में कामयाब हो गए.
आप मराठी हैं, पर हिंदी बहुत अच्छी तरह से बोलती हैं. कैसे?
स्कूल में हिंदी गलत लिखने और बोलने को ले कर मुझे कई बार मार भी खानी पड़ी है. हिंदी बोलने में मुझे काफी मुश्किलें आईं. मुझे मराठी और अंगरेजी अच्छी आती थी. जब हिंदी गाना शुरू किया, तो हिंदीं सीखना शुरू किया. सच कहूं, तो गाना सीखने से ज्यादा मुश्किल हिंदी सीखने में आई. अब मेरी हिंदी अच्छी है, यह सुन कर अच्छा लगता है.
आप सिंगिंग में किस तरह का कंपीटिशन देखती हैं?
एक सिंगर के रूप में मुझे हर गाने के लिए कंपीटिशन से गुजरना पड़ता है. एक गाने को म्यूजिक डायरैक्टर अलगअलग सिंगर के साथ गवा कर देखता है. इस के बाद किसी एक सिंगर की आवाज में उस को फाइनल करता है. यह हर किसी के साथ होता है, चाहे सिंगर नया हो या पुराना.
क्या आप को वैस्टर्न गाने ज्यादा पसंद हैं?
ऐसा नहीं है. ज्यादातर म्यूजिक डायरैक्टरों को लगता है कि मुझ पर वैस्टर्न गाने ज्यादा अच्छे लगते हैं. यही वजह है कि मेरे हिस्से में पार्टी गाने ज्यादा आए हैं. मेरे कई स्लो गाने भी पसंद किए गए हैं.
वैसे, अच्छा सिंगर वही माना जाता है, जो हर तरह के गाने को बखूबी गा सके.
हीरो अक्षय कुमार ने बड़े जोश में केपटाउन से साल 2017 के पहले दिन अपने प्रशंसकों को नए साल का तोहफा देने के लिए अपनी फिल्म के पोस्टर ट्विटर पर रिलीज किए, लेकिन कुछ देर बाद ही अक्षय कुमार के प्रचारक का ईमेल आ गया कि उस खबर में कुछ गलती है, इसलिए उस का इस्तेमाल न करें. बाद में राज खुला कि अक्षय कुमार पर उन की 2 फिल्मों ‘पैडमैन’ और ‘टायलैट: एक प्रेमकथा’ पर कहानी चोरी का ऐसा इलजाम लग रहा है, जिस का जवाब किसी के पास नहीं है.
मसला ‘पैडमैन’ का
अक्षय कुमार की पत्नी ट्विंकल खन्ना एक फिल्म ‘पैडमैन’ बना रही हैं, जिस का डायरैक्शन आर. बाल्की करेंगे. अक्षय कुमार, अमिताभ बच्चन, सोनम कपूर व राधिका आप्टे जैसे कलाकारों से लैस इस फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के महेश्वर में नर्मदा नदी के तट के अलावा भोपाल में होनी है.
अक्षय कुमार ने जो पोस्टर ट्विटर पर दिया है, उस में लिखा है, ‘पैडमैन: बेस्ड औन एन ऐक्स्ट्रा और्डिनरी स्टोरी’. फिल्म के पोस्टर पर नाम के साथ ही सैनेटरी नैपकिन की तसवीर भी है. जी हां, फिल्म ‘पैडमैन’ की कहानी कोयंबटूर के एक कारोबारी अरुणाचलम मुरुगननाथम की जीवनी है.
ट्विंकल खन्ना फिल्म ‘पैडमैन’ को अपनी 4 कहानियों वाली किताब ‘द लीजैं ड औफ लक्ष्मी प्रसाद’ की कहानियों में से एक कहानी पर आधारित बता रही हैं. मगर इस फिल्म की पटकथा ट्विंकल खन्ना नहीं लिख रही हैं.
यह कहानी एक ऐसे आदमी की है, जो समाज के निचले तबके की औरतों को उन की अच्छी सेहत के लिए कम कीमत पर सैनेटरी नैपकिन मुहैया कराता है.
कौन हैं मुरुगननाथम
साल 2016 में भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ अवार्ड से सम्मानित किए गए अरुणाचलम मुरुगननाथम ने अपनी पत्नी की तकलीफ को देख कर सैनेटरी नैपकिन बनाने की एक सस्ती मशीन ईजाद करने के साथसाथ उसे गांवगांव तक इस तरह प्रचारित किया था कि आज भारत के 29 राज्यों में से 23 राज्यों में सैनेटरी नैपकिन बनाने वाली ऐसी मशीनें लग चुकी हैं.
बाजार में आमतौर पर मौजूद सैनेटरी नैपकिनों के मुकाबले अरुणाचलम मुरुगननाथम के बनाए सैनेटरी नैपकिन एकतिहाई लागत में ही आ जाते हैं. उन्होंने गांव की औरतों को सैनेटरी नैपकिन के उपयोग के लिए जागरूक भी किया है.
अब लोग सोच रहे होंगे कि ट्विंकल खन्ना और अक्षय कुमार तो अच्छा काम कर रहे हैं कि वे सस्ते सैनेटरी नैपकिन बनाने वाले की जिंदगी को रुपहले परदे पर लाने जा रहे हैं. मगर असली कहानी यह है कि अरुणाचलम मुरुगननाथम की जिंदगी पर पहले से ही डायरैक्टर अमित राय ‘आईपैड’ नामक फिल्म बना चुके हैं, जो निर्माता मोनीष सेखरी व डायरैक्टर अमित राय के बीच आपसी झगड़े के चलते रिलीज नहीं हो पाई थी, जबकि यह फिल्म साल 2015 में ही बन गई थी.
अमित राय ने इस फिल्म की शूटिंग साल 2014 में भोपाल में पूरी की थी और फिल्म को बेचने के लिए 2015 में गोवा के ‘इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल’ में भी इसे ले जाया गया था.
वैसे, अमित राय का दावा है कि वे मार्च, 2017 में इस फिल्म को सिनेमाघरों में दिखाने वाले हैं. वे चाहते हैं कि फिल्म को रिलीज किया जाए, जबकि मोनीष सेखरी की सोच है कि इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में उन की फिल्म चर्चा बटोरे, पर इस फिल्म का चयन किसी भी इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में नहीं हो पाया.
अक्षय कुमार की फिल्म ‘पैडमैन’ ही विवादों में नहीं आई है, बल्कि उन की एक और फिल्म ‘टायलेट: एक प्रेमकथा’ भी विवादों में आ गई है.
ऐडिटर से डायरैक्टर बने श्रीनारायण सिंह की पहली फिल्म ‘टायलेट: एक प्रेमकथा’ में अक्षय कुमार और भूमि पेडणेकर की जोड़ी है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की वकालत करती है.
मगर गुजराती फिल्मों के मशहूर डायरैक्टर कृष्णदेव याज्ञनिक का दावा है कि यह कहानी उन की बन रही फिल्म ‘नारायण दास पे ऐंड यूज’ से चुराई गई है. इस फिल्म की शूटिंग वे जनवरी, 2017 के दूसरे हफ्ते से अहमदाबाद में शुरू करने वाले थे.
इन दिनों फिल्मों की कहानी में ‘पे ऐंड यूज टायलेट’ चलाने वाले एक नौजवान को झुग्गीझोंपड़ी में रहने वाली लड़की से प्यार हो जाता है. यह लड़की हर दिन टायलेट का उपयोग करने आती थी, तभी इन का प्यार परवान चढ़ता है.
कृष्णदेव याज्ञनिक कहते हैं, ‘‘मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मेरी फिल्म की कहानी, किरदार व किरदार का नाम सबकुछ उन तक कैसे पहुंच गया. मैं ने तो इस फिल्म की कहानी आज से 5 साल पहले लिखी थी.’’
मजेदार बात यह है कि ‘पैडमैन’ और ‘टायलेट: एक प्रेमकथा’ को ले कर उठे विवादों पर अक्षय कुमार की तरफ से कोई सफाईनामा नहीं आया है.