लेखिका – अर्चना अनुप्रिया
बाहर बूंदाबादी हो रही थी. मौसम बड़ा ही सुहावना था. ठंडी हवा, हरियाली का नजारा और लौकडाउन में घर बैठने की फुरसत. मैं बड़े आराम से अपनी 7वीं मंजिल के फ्लैट के बरामदे में झूले पर बैठा अखबार उलटपुलट रहा था. दोपहर के 3 बजने वाले थे और चाय पीने की जबरदस्त तलब हो रही थी.
मैं ने वहीं से पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘अजी, सुनती हो, एक कप चाय भेज दो जरा.‘‘
कोई हलचल नहीं हुई और न ही कोई जवाब आया. सोचा, शायद किसी काम में व्यस्त होंगी, मेरी आवाज नहीं सुन पाई होंगी. एक बार फिर पुकार कर कहा, ‘‘अरे भाई, कहां हो, जरा चाय भिजवा दो.‘‘
अब की बार आवाज तेज कर दी थी मैं ने, परंतु जवाब फिर भी नहीं आया. सोचा, उठ कर अंदर जा कर चाय के लिए बोल आऊं, लेकिन इस लुभावने मौसम ने बदन में इतनी रूमानियत भर दी थी और मेरे चक्षु के पृष्ठ पटल पर हिंदी फिल्मों के बारिश से भीगने वाले गानों के ऐसेऐसे दृश्य उभरउभर कर आ रहे थे कि उठ कर एक जरा सी चाय के लिए वह तारतम्य तोड़ने का मन नहीं हुआ. आंखों के आगे रहरह कर भीगी साड़ी में नरगिस से ले कर दीपिका तक की छवि लहरा रही थी. अभी ‘टिपटिप बरसा पानी‘ की भीगती रवीना चक्षुपटल पर आई ही थी कि एक मोटी, थुलथुल 50-55 इंच की कमर वाली एक महिला मेरे आगे आ कर खड़ी हो गई, ‘‘हाय राम, ऐसी भयानक काया‘‘, मैं डरतेडरते बचा… लगा जैसे किसी ने पेड़ पर बैठ कर मीठे फल खाते हुए मुझे नीचे से टांग खींच कर धम्म से गिरा दिया हो.
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मैं ने प्रकट रूप में आ कर देखा, मेरी श्रीमतीजी हाथ में चाय की प्याली लिए खड़ी मुझ पर बरस रही थीं, ‘‘एक तो किसी काम में हाथ नहीं बंटाते, बस बैठेबैठे फरमाइशें करते रहते हो, कितना काम पड़ा है किचन में… ये तो होता नहीं कि आ कर जरा हाथ बंटा दें.‘‘
कहती हुई उन्होंने पास पड़े स्टूल को झूले के पास खींच कर उस पर चाय की प्याली रख दी. श्रीमतीजी का पति प्रेम देख कर मेरे अंदर से तत्काल हिंदी फिल्म का हीरो निकल कर बाहर आया और मैं ने दोनों हाथों से श्रीमतीजी की कलाई पकड़ ली, वैसे भी उस कलाई की तंदुरुस्ती मेरे जैसे दुबलेपतले इनसान के एक हाथ में तो आने वाली नहीं थी…
अपनी आवाज को सुरीला बनाने की कोशिश करते हुए मैं रोमांटिक हो कर गा उठा, ‘‘अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं…’’ बदले में मेरी पत्नी ने जिस तरह गुर्रा कर मेरी ओर देखा कि फिल्मों का हीरो जितनी तेजी से मेरे जिस्म से बाहर आया था, उस से दोगुनी तेजी से वह मेरे अंदर घुस कर कहीं दुबक गया.
श्रीमतीजी चाय वहीं रख बड़बड़ाती हुई जाने को मुड़ी ही थीं कि मेरे अंदर के पति ने एक और दांव खेला, ‘‘चाय के साथ जरा गरमागरम पकोड़े भी मिल जाते तो…’’
बुझती हुई चिंगारी फिर से भड़क उठी. जाती हुई श्रीमतीजी एकदम से पलट कर वापस आ गईं और… साहब, फिर जो पति के निकम्मेपन की धुलाई शुरू हुई कि पूछिए मत… पासपड़ोस के पतियों से ले कर रिश्ते, परिवार, दोस्त, जितने लोगों के नाम याद थे, श्रीमतीजी ने चुनचुन कर गिनाने शुरू किए. कैसे मेरा छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ शौपिंग पर जाता है. कैसे हमारे पड़ोसी फलसब्जियां और सामान बाजार से लाते हैं, कामवाली न आए, तो घर की सफाई भी कर देते हैं.
मेरे एक करीबी दोस्त कैसे गहने गिफ्ट कर के पत्नी को सरप्राइज दिया करते हैं वगैरह…. सुन कर तो मैं भी दंग रह गया… हालत ऐसी होने लगी, जैसे दरवाजे पर सीबीआई वाले रेड करने आ पहुंचे हों. डर और घबराहट से मैं हीनभावना का शिकार होने ही वाला था कि मेरे अंदर के पति ने मुझे संभाल लिया, ‘‘अरी भग्यवान, उन की पत्नियां तुम्हारी तरह गुणवती थोड़े ही न हैं, मेरे जैसा हर व्यक्ति लकी थोड़े ही होता है इस दुनिया में… मेरी श्रीमतीजी जैसी उन की पत्नियां होतीं तो वे यह सब थोड़े ही करते… मेरी पत्नी तो साक्षात लक्ष्मी, सरस्वती है… मुझे उन के जैसे करने की जरूरत क्या है?‘‘
मैं ने मुसकराते हुए बड़े रोमांटिक अंदाज में कामुकता भरा एक तीर छोड़ा, पर श्रीमतीजी ने तुरंत मेरे उफनते भावावेश पर पानी डाल दिया, ‘‘और दुर्गा काली भी हूं… यह क्यों भूलते हो…? लौकडाउन में जरा फुरसत हुई तो सोचा कि चलो पापड़ बड़ियां बना दूं, पर वह भी चैन से नहीं करने दे रहे हो. पकौड़े खाने हैं तो खुद क्यों नहीं बना लेते..? दूसरों के सामने तो बड़े लैक्चर देते हो कि मर्दों को औरतों की सहायता करनी चाहिए… अब क्या हो गया…?‘‘ श्रीमतीजी ने गुस्से से एक ही सांस में सब कह डाला.
उन का यह रूप देख कर मेरे अंदर की भीगी नाजुक रवीना, दीपिका सब सूख चुकी थीं और उन के क्रोध से डर कर वे बेचारी न जाने कहां छुप गईं..? अंदर का पति भी सहम गया. सोचा, ‘‘चलो आज पकौड़े बना ही लिए जाएं, फिर आगे से श्रीमतीजी को जवाब देने का अच्छा उदाहरण मिल जाएगा,‘‘
मुसकराते हुए मैं ने कहा, ‘‘अरे प्राण प्रिये, मेरे दिल की रानी… तुम्हारा हुक्म सिरआंखों पर. चलो, हम दोनों मिल कर पकौड़े बनाते हैं, फिर साथसाथ बैठ कर चायपकौड़े का लुत्फ उठाएंगे. मैं तुम्हें खिलाऊंगा, तुम मुझे.‘‘
‘‘चलो हटो,‘‘ श्रीमतीजी ने मुंह बिचका कर, हाथ झटक कर कहा और वहां से चली गईं. गरम पकौड़े खाने की तीव्र इच्छा और रहरह कर मुझ पर मजनूं देवता का आगमन मैं भी पीछेपीछे रसोईघर में जा पहुंचा. वहीं बाहर बरामदे में श्रीमतीजी एक मोढ़ा ले कर बड़ी सी चादर बिछा कर पापड़ बड़ियां बनाने बैठ गईं.
आज से पहले मैं ने रसोईघर को इतनी गहराई से अंदर घुस कर कभी नहीं देखा था. ज्यों ही अंदर घुसा, पत्नी का हुक्म आया, ‘‘पहले हाथ तो धो लो, सिंक के सामने लिक्विड सोप रखा है.‘‘
अभी मैं अपने साफसुथरे धुले हाथ के विषय में कुछ कहने ही वाला था कि टीवी पर एक ऐड आया, ‘‘लाइफ बौय ही नहीं किसी भी सोप से रगड़रगड़ कर 20 सेकंड तक हाथ धोएं.‘‘
पत्नी ने मुझे घूर कर देखा. मैं ने चुपचाप हाथ धोने में ही अपनी भलाई समझी.
रसोई क्या थी, एक रहस्यमयी दुनिया थी. कहीं कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. बस, सिंक में भोजन बनाते समय उपयोग किए गए कुछ बरतन पड़े थे, जिन्हें शायद श्रीमतीजी पापड़ बड़ी बनाने के बाद धोने वाली थीं.
मैंने इधरउधर नजर दौड़ाई, पर मुझे कुछ भी पता नहीं चला कि पकौड़े बनाने की शुरुआत कैसे करूं… श्रीमतीजी से पूछा तो कहने लगीं, ‘‘पहले यह तो बताओ कि पकौड़े किस चीज के खाओगे…?‘‘
‘‘बेसन के, और काहे के…‘‘
‘‘अरे, पर बेसन में डालोगे क्या…? प्याज, गोभी, आलू, मटर और क्या…?‘‘ पापड़ डालतीडालती पत्नी बोलीं.
‘‘प्याज के,’’ मैं ने कहा.
‘‘तो पहले प्याज काट लो.‘‘
‘‘पर, प्याज है कहां…? यहां तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा.‘‘
‘‘सामने ही तो स्टील के बने जालीदार स्टैंड पर रखे हैं प्याज.‘‘
मैं ने नजर घुमा कर देखा, कोने में स्टील के जालीदार 3-4 रैकों वाला स्टैंड लगा था, जिस की तीसरी रैक पर गोलगोल लाललाल प्याज पैर फैलाए आराम फरमा रहे थे. बड़ी ईष्र्या सी हुई कमबख्तों से. वे भी मेरी हालत पर मुसकरा उठे.
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मैं ने एक बड़ा सा प्याज वहां से उठा लिया, तो उस ने मेरा मुंह चिढ़ाया. मैं ने सोचा, ‘‘अभी चाकू से वार कर मैं इस का अहंकार तोड़ता हूं.‘‘
‘‘पर, अब काटूं कैसे? चाकू तो दिख नहीं रहा.‘‘
‘‘दराज तो खोलो,‘‘ पत्नी की सलाह आई.
दराज खोली तो थालियां सजी थीं, दूसरे में कटोरे रखे थे, तीसरे में पानी के गिलास थे… धीरेधीरे सारे दराज खोलता गया, रसोई का तिलिस्म मेरे सामने एकएक कर खुलता रहा, लेकिन कमबख्त चाकू नहीं मिला. दफ्तर में फाइलों को ढूंढने की मेरी मास्टरी यहां कोई काम नहीं आ रही थी. पता नहीं, ये पत्नियां हर चीज इतने सलीके से क्यों रखती हैं कि कुछ मिलता ही नहीं… चीजें इधरउधर रखी हों तो उन्हें ढूंढ़ लेना मेरे बाएं हाथ का खेल था. खैर, नही चाहते हुए भी पत्नी से फिर पूछना पड़ा. इस बार फिर मैं ने अपने अंदर के पति के कंधे पर बंदूक रखी, ‘‘अरे भई, कोई चीज जगह पर क्यों नहीं रखती हो? तब से ढूंढ़ रहा हूं, एक चाकू तक नहीं मिल रहा.‘‘
इस दफा पत्नी ने कुछ कहा नहीं. वह तमतमा कर उठी और जहां मैं खड़ा था, वहां ठीक सामने रखे चाकू के स्टैंड से एक चाकू निकाल कर मुझे देती हुई अंदर तक आहत करती हुई कह गई, ‘‘आंखों पर चश्मा डालो, बुढ़ापा आ गया है, लगता है कम दिखने लगा है.‘‘
ओह, भीतर का वीर पति फिर परास्त हो गया. मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा. अब समस्या आई कि प्याज काटा कैसे जाए… पहले तो जीवन में ऐसा कुछ किया नहीं. तो, छिलके उतार कर काटें या काट कर छिलका उतारें… लाचार बच्चे की तरह फिर मैं पत्नी को आवाज देना चाहता था, परंतु ऐन वक्त पर मेरे अंदर के मर्द ने ऐसा करने से मना कर दिया. कहा, ‘‘कैसे भी काटो यार, छिलके उतार कर ही तो पकाने हैं.‘‘ श्रीमतीजी के प्रवचन से मैं बालबाल बचा.
कमबख्त प्याज भी खार खाए बैठा था. चाकू रखते ही मेरी आंखें फोड़ने लगा. मोटेमोटे आंसू भरी आंखों से प्याज को छोटेछोटे टुकड़ों में काटा और काट कर अभी आंखें पोंछने ही वाला था कि श्रीमतीजी का आदेश आया, ‘‘जब काट ही रहे हो तो 3-4 प्याज और काट लेना… रात की सब्जी के काम आएंगे.‘‘
सच कहता हूं कि इस बार मेरी आंखों में आंसू यह सोच कर आने लगे कि मैं ने पकौड़ों की बात ही क्यों की?
पत्नी की बात सुन कर कमबख्त प्याज बड़े व्यंग्य से मुसकरा कर मुझे घूरने लगे और मैं उन पर अपना गुस्सा उतारते हुए उन के टुकड़ेटुकड़े करने लगा. किसी तरह आंखें फोड़तेफोड़ते मैं ने 3-4 प्याज काटे… जी चाहा, पकौड़ेवकौड़े छोड़ कर फिर वहीं झूले पर जूही, रवीना, दीपिका का दीदार करूं, पर अंदर के मर्द ने मुझे फंसा दिया था… मैदाने पकौड़े से यों पीठ दिखा कर जाना उम्रभर पत्नी के सामने ताने तंज की जमीन बना देता और अंदर का मर्द आंखें दिखाने से वंचित हो जाता… इसीलिए चुपचाप डटा रहा.
अब बारी आई कड़ाही की कि जिस में पकौड़े तलने की व्यवस्था होती. सिंक में नजर डाली तो कड़ाही नजर आ गई, पर वह गंदी थी. मैं ने किसी अनुशासित बच्चे की तरह कड़ाही लिक्विड सोप से ही साफ कर नल के नीचे धोना शुरू किया. बरतन की खड़खड़ाहट से बाहर बैठी मल्लिका को पता चल गया कि सिपाही तलवारें तेज कर रहा है. लगभग हुक्म चलाती हुई वह बोली, ‘‘कड़ाही धो ही रहे हो तो बाकी के दोचार पड़े बरतन भी धो लेना, मुझे पापड़ बड़ी डालतेडालते देर हो जाएगी… फिर रात का खाना भी तो बनाना है.‘‘
अंदर से खीज खाता, पकौड़े खाने की तीव्र इच्छा पर खुद को कोसता, फिल्मी दुनिया का अभीअभी पैदा हुआ मजनूं अपनी विवशता पर कराह उठा, ‘‘क्यों वह औरतों को मर्दों की बराबरी करने की बात कहता रहता है… नहींनहीं… अब ऐसे गलतसलत सिद्धांतों पर बात कभी नहीं करनी है. ख्वाहमख्वाह पत्नियों को बोलने का मौका दे देते हैं हम बेचारे पति लोग. ये पत्नियां भी न…. हर बात दिल पर ले लेती हैं. अरे भाई, आदमी बोल देता है कि औरत और मर्द बराबर होने चाहिए, पर ऐसा सच में थोड़े ही होना चाहिए… ऐसा हुआ तो प्रकृति का संतुलन नहीं बिगड़ जाएगा. कहां आदमी अर्जुन सा वीर योद्धा, देशदुनिया की सुध लेने वाला और कहां औरत नाजुक, कमसिन नरगिस, श्रीदेवी, ऐश्वर्या की तरह नृत्य करने और मर्दों को रिझाने वाली… भला दोनों की बराबरी किस कदर हो सकती है? मैं भी न बेकार की ही ऐसी बातें करता हूं…. ‘‘
अब बारी थी बेसन, हलदी, नमक और पानी की… ‘‘अब इन्हें कहांकहां खोजता फिरूं?‘‘
पति के मन की बात पत्नियां बिना कहे ही जान लेती हैं, यह बात चरितार्थ इस बात से हुई कि पत्नी ने मेरे बिना पूछे ही बाहर से पुकार कर कहा, ‘‘बाईं तरफ दूसरी दराज में छोटी पतीली रखी है और उस के बगल वाली दराज में मसाले का डब्बा है… हलदी, नमक सब उसी में है.‘‘
‘‘और बेसन..?‘‘ मैं ने तपाक से पूछ लिया. क्या पता थोड़ी देर और हो जाए और पत्नी का मूड न रहे तो ख्वाहमख्वाह लेक्चर सुनना पड़े.
‘‘सामने ऊपर के खाने में है, निकाल लो… नया पैकेट है… पास ही स्टील का डब्बा पड़ा है, पैकेट काट कर बेसन उस डब्बे में भर देना.‘‘
चुपचाप किसी आज्ञाकारी बालक की तरह मैं अपनी ज्ञानगुरु का कहा करता रहा. खैर, बेसन और प्याज का घोल तैयार हुआ. कड़ाही चढ़ा दी गई… पर, अब तेल कहां से आए…?
‘‘एक पकौड़े के लिए क्याक्या पापड़ बेलने पड़ रहे हैं,‘‘ मैं बुदबुदाया.
पत्नी का वाईफाई कनैक्शन चरम सीमा पर था. वहीं से सुन कर ताना देते हुए वह बोलीं, ‘‘पापड़ बेलने पड़ें तो न जाने क्या हाल हो मियां मजनूं का…पकौड़े तक तो बना नहीं पा रहे… बारबार मुझे डिस्टर्ब कर रहे हैं… एक भी बड़ी ढंग की नहीं बन पा रही… अब मैं इधर ध्यान दूं कि तुम्हारी बातों का जवाब देती रहूं?‘‘
मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया. ‘‘बाप रे यह औरत है या एंटीना, धीरे से बोलो तो भी सुन लेती है… अब परेशान आदमी भला बुदबुदाए भी नहीं… इतना बोल गई, बस इतना ही बता देती कि तेल कहां है ?‘‘
मैं फिर बुदबुदाया. श्रीमतीजी का एंटीना फिर फड़का… पर, इस बार मेरे काम की बात हो गई, ‘‘अरे, जहां से बेसन निकाला है, वहीं तो पीछे तेल की बोतल रखी है, निकाल लो… एक चीज नहीं मिलती इन्हें.‘‘
मैं ने झट तेल की बोतल निकाल कर तेल कड़ाही में डाल दिया, पर अब की बार मैं श्रीमतीजी के एंटीने से सचमुच डर गया, ‘‘मैडम के सामने धीरे से बोलना भी भारी पड़ सकता है,‘‘ मैं ने मन ही मन सोचा.
अब सबकुछ तैयार था. बस गैस जलाने की देर थी और गरमागरम पकौड़े मेरे मुंह में. मन ही मन स्वाद लेता मैं लाइटर ढूंढने लगा. कमबख्त चूल्हे के नीचे पीछे की तरफ छुपा बैठा था. काफी देर ढूंढ़ने के बाद जब मिला तब लगा मैं ने जंग जीत ली… वरना बीच में तो फिर पत्नी से पूछने के भय से मेरा ब्लड प्रेशर लो होने लगा था. गैस जलाई, तेल गरम हो गया, फिर पत्नी की हिदायत के हिसाब से मैं ने छोटेछोटे गोले बना कर तेल में डाल दिए. महाराज, क्या बताऊं, ये पकौड़े देखने में ही छोटे थे… उछलउछल कर कैसे मेरा मुंह चिढ़ा रहे थे, मैं बता नहीं सकता. मैं भी उन्हें खुशी से उछलता देख भरा बैठा था, सोचा-‘‘कमबख्तों को जलाजला कर लाल कर दूंगा, फिर तेज दांतों से काटकाट कर चटनी बनाबना कर खा जाऊंगा… तब समझ में आएगा. इतना खूबसूरत मौसम, बाहर झूले पर पतली साड़ी में लिपटी भीगती रवीना मुझे खींच रही है और मैं यहां पकौड़े तल रहा हूं, बरतन धो रहा हूं… हाय री, मेरी किस्मत.‘‘
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मेरी बेचैनी देख कुछ अच्छे ग्रह मेरी मदद के लिए आगे आए और तभी मेरी पत्नी अपना काम खत्म कर के रसोई में अंदर आई. अंदर घुसते ही वह लगभग चीख पड़ी, ‘‘यह क्या है…? चारों तरफ गंदगी फैला दी है तुम ने… अभीअभी किचन साफ किया था. उधर प्याज के छिलके पड़े हैं… इधर बेसन जमीन पर धूल चाट रहा है… मसाले के डब्बे में नमक, हलदी, मिर्च, पाउडर सब उलटेपलटे पड़े हैं… गैस के चूल्हे को बेसन के घोल से रंग दिया है तुम ने… चलो, निकलो रसोईघर से… एक काम करते नहीं कि दस काम बढ़ा देते हो… जाओ, जा कर बाहर बैठो झूले पर… मैं ले कर आती हूं तुम्हारे पकौड़े चाय के साथ,‘‘ कहते हुए श्रीमतीजी ने हाथ धोया, मेरे हाथ से करछी लगभग छीन ली और मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, ‘‘चलो जाओ, मैं बनाती हूं.‘‘
मौसम वैसे तो अभी भी बाहर बहुत रोमांटिक था, पर मैं ने इस बार कूटनीति से काम लेते हुए अपने अंदर के मजनूं को बिलकुल बाहर आने की इजाजत नहीं दी. कहीं अगर मैं प्यार दिखाने के चक्कर में यों ही कह देता कि जानेमन, मैं बना कर खिलाऊंगा तुम्हें और श्रीमतीजी मान जातीं कि ठीक है बनाओ…? तब मेरा क्या हाल होता?
एक आज्ञाकारी पति की तरह बात मान कर मैं रसोई से निकल कर फिर से झूले पर जा बैठा. रवीना, जूही, दीपिका सब नाराज दिख रही थीं, ‘‘कहां चले गए थे? ऐसी बेवकूफी भी कोई करता है क्या..? पत्नियों को तो आदत होती है, इस तरह रसोई के कामों में पतियों को ललकारने की, पर उन की ललकार सुन कर ऐसी मूर्खता कोई थोड़े ही न करता है… आगे से ऐसी बेवकूफी मत करना… चाणक्य नीति नहीं पढ़ी है क्या..?‘‘
उन्हें अपने लिए विकल देख कर मैं फिर रूमानी होने लगा. अभी मैं ने उन्हें अपनी आंखों में उतारना आरंभ ही किया था कि श्रीमतीजी पकौड़ों से भरी प्लेट और चाय ला कर रख गईं.
इस बार मैं ने समझदारी से काम लिया और अपनी रूमानियत फिल्मी तारिकाओं के लिए बचा कर रखी, पत्नी के सामने मुंह ही नहीं खोला. श्रीमतीजी दोबारा आईं और पानी का गिलास रख कर चली गईं.
मैं ने पकौड़े मुंह में डाले तो इतने स्वादिष्ठ लगे कि पूछो मत. हालांकि नमक कुछ ज्यादा ही था, पर फिर भी मैं ने पत्नी के सामने मुंह नहीं खोला.
चाय की चुसकियों के साथ गरमगरम लौकडाउन के पकौड़ों का चुपचाप मैं लुफ्त उठाता रहा. बाहर बारिश तेज हो गई थी और पत्नी अंदर अपने काम की तेजी में व्यस्त थी. मेरे अंदर का मर्द बारबार मुझे धिक्कार रहा था, ‘‘तू औरतों की बराबरी नहीं कर सकता है दोस्त, बस खयालों में खोना ही आता है तुझे… पति की ख्वाहिशों को आकार केवल पत्नियां ही दे पाती हैं, वरना तो पकौड़े पकौड़े को तरस जाए तू.‘‘
मैं समझदार तो हो ही चुका था, लिहाजा मैं ने तर्क न कर के चुप रहने में ही भलाई समझी और अखबार उठा कर पढ़ने लगा.
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