शेव बनाते हुए शिव सहाय ने एक उड़ती नजर पत्नी पर डाली. उसे उस का बेडौल शरीर और फैलता हुआ सा लगा. वह नौकरानी को धुले कपड़े अच्छी तरह निचोड़ कर सुखाने का आदेश दे रही थी. उस ने खुद अपनी साड़ी झाड़ कर बताई तो उस का थुलथुल शरीर बुरी तरह हिल गया, सांस फूलने से स्थिति और भी बदतर हो गई, और वह पास पड़ी कुरसी पर ढह सी गई.

क्या ढोल गले बांध दिया है उस के मांबाप ने. उस ने उस के जन्मदाताओं को मन ही मन धिक्कारा-क्या मेरी शादी ऐसी ही औरत से होनी थी, मूर्ख, बेडौल, भद्दी सी औरत. गोरी चमड़ी ही तो सबकुछ नहीं.
‘तुम क्या हो?’ वह दिन में कई बार पत्नी को ताने देता, बातबात में लताड़ता, ‘जरा भी शऊर नहीं, घरद्वार कैसे सजातेसंवारते हैं? साथ ले जाने के काबिल तो हो ही नहीं. जबतब दोस्तयार घर आते हैं तो कैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.’

जब देखो सिरदर्द, माथे पर जकड़ कर बांधा कपड़ा, सूखे गाल और भूरी आंखें. उस के प्रति शिव सहाय की घृणा कुछ और बढ़ गई. उस ने सामने लगी कलाकृतियों को देखा.

वार्निश के डब्बों और ब्रशों पर सरसरी निगाह डाली. बिजली की फिटिंग के सामान को निहारा. कुछ देर में मिस्त्री, मैकेनिक सभी आ कर अपना काम शुरू कर देंगे. उस ने बेरहमी से घर की सभी पुरानी वस्तुओं को बदल कर एकांत के उपेक्षित स्थान में डलवा दिया था.

क्या इस औरत से भी छुटकारा पाया जा सकता है? मन में इस विचार के आते ही वह स्वयं सिहर उठा.

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