भाजपा की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री होंगे…

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे जैसे आगे बढ़ रहे हैं, दलित और पिछड़ों में हिंदुत्व का उफान बढ़ रहा है. जिससे भाजपा को राहत और सपा बसपा को आफत नजर आ रही है. बढे हुये आत्मविश्वास के साथ अब भाजपा में सीएम के चेहरे को लेकर चर्चा शुरू हो चुकी है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह सबसे बड़े स्टार प्रचारक रहे हैं. राजनाथ सिंह पांच चरण के चुनावों में 100 से अधिक रैलियां कर चुके है. चुनाव के अंत तक 140 रैलियां हो जायेंगी. नरेन्द्र मोदी के बाद प्रदेश में सबसे ज्यादा मांग राजनाथ सिंह की ही रही है. ऐसे में मुख्यमंत्री पद के लिये सबसे प्रभावी असरदार चेहरा राजनाथ सिंह ही माने जा रहे हैं. खुद राजनाथ सिंह ऐसे सवालों को सही नहीं मानते और खुद को सीएम का फेस भी नहीं मानते. राजनाथ सिंह का कहना है कि भाजपा में चुने गये विधायक यह फैसला करते हैं कि मुख्यमंत्री कौन होगा?

राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद पार्टी का सबसे प्रमुख चेहरा हैं. संघ से लेकर बाकी संगठनों को भी राजनाथ के प्रभाव से कोई परेशानी नहीं है. भाजपा को अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सरकार बनाने के लायक सांसद देने हैं तो उत्तर प्रदेश में सरकार को बेहतर तरह से चलाना होगा. ऐसे में राजनाथ सिंह ही वह चेहरा हैं जो प्रदेश में 2 साल सरकार चला कर छवि को सुधार सकते हैं. लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिये नरेंद्र मोदी राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश की कमान सौंप सकते हैं. इससे एक लाभ यह भी होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले नंबर 2 ही हालत में दूसरा नेता नहीं उभर पायेगा.

राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री बनने से दूसरे किसी नेता की दावेदारी स्वतः खत्म हो जायेगी. नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली को देखते हुये कुछ राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि वह मुख्यमंत्री के रूप मे राजनाथ कि जगह किसी ऐसे नेता का नाम आगे लायेंगे जो उनकी बात को बिना किसी सवाल के मान ले. 2019 के चुनाव में भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश सबसे खास है. यहां नरेन्द्र मोदी परोक्ष रूप से अपना राज ही चलाना पसंद करेंगे. ऐसे में वह बहुत बड़े कद के नेता की जगह छोटे युवा चेहरे को प्राथमिकता देंगे. अभी की हालत को देखते हुये मुख्यमंत्री पद के लिये भाजपा के नेताओं की पहली पसंद राजनाथ सिंह ही हैं. चुनाव परिणाम आने के बाद असल सच सामने आयेगा.

जानकार लोग यह मान रहे हैं कि मुसलिम वोटर को लेकर जिस तरह से सपा-बसपा ने बयानबाजी की है, उसका लाभ भाजपा को मिल रहा है. दलित और पिछड़ा भी हिन्दुत्व के नाम पर जाति से अलग धर्म पर वोट दे रहा है. बसपा नेता मायावती का यह बयान कि बाहुबली मुख्तार नहीं राजा भैया है पूर्वांचल में बसपा को नुकसान पहुंचा सकता है. बसपा ने मुख्तार अंसारी के साथ उसके भाई और बेटे को भी टिकट दिया है. मुख्तार जेल में है. ऐसे में मायावती का उसे क्लीन चिट देना चुनावी दांव का उलटा पड जाना माना जा रहा है.

नितिभा ने कराया हॉट फोटोशूट, दिखा स्टनिंग अवतार

‘बिग बॉस-10’ कंटेस्टेंट नितिभा कॉल इन दिनों मॉडलिंग में हाथ आजमा रही हैं, ये बात तो सभी जानते हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने ‘माइन एन योर्स वेडिंग शो’ के साथ मॉडलिंग असाइनमेंट साइन कर शूट कराए पहले फोटोशूट फोटोज भी अपने इंस्टाग्राम पर शेयर की थीं. हाल ही में नितिभा ने एक और नया बोल्ड फोटोशूट कराया है जिसकी एक झलक उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर की हैं. नितिभा इस फोटो में ब्लैक ड्रैस में काफी बोल्ड लुक में नजर आ रही हैं.

गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले नितिभा ने पिंक फ्लोरल ड्रैस में बार्बी फोटोशूट कराया था. जिसमें वो बिल्कुल डॉल की तरह ब्यूटीफुल नजर आई थीं. नितिभा ने अपने पहले फोटोशूट की फोटोज इंस्टाग्राम पर शेयर की थीं.

नरेंद्र मोदी की नोटबंदी तो बेअसर निकली

नोटबंदी का फरमान जारी हुए 100 से ज्यादा दिन गुजर चुके हैं, पर न तो देश में सोना बरसा है और न ही चौराहे के पुलिस वाले ने अपना हफ्ता लेना बंद किया है. देशभर में काले धन की कमाई, बेईमानी, आतंकवाद, नकली नोटों का कारोबार कोई कम नहीं हुआ दिख रहा. जो दिख रहा है, वह यह है कि गरीब आदमी अमीरों को मारने की कोशिश में मारा गया है. भारतीय जनता पार्टी के पंडों की अगुआई में फौज ने जम कर नारे लगाए हैं कि लाइनों में लग कर गरीबों ने अमीरों की अक्ल दुरुस्त की है, पर जरा सी आंख खोल कर देखें, तो न सड़कों पर गाडि़यों की कमी हुई है, न बडे़ बाजारों में भीड़ कम हुई?है और न ही शादियों का रंग फीका पड़ा है. सोने और हीरे के जवाहरात भी ठाट से उसी तरह बिक रहे हैं. अगर कुछ नहीं बिक रहा है तो वह है खेतों से अनाज, सब्जियां और मंडियों से कच्चा सामान.

नोटबंदी की गाज गिरनी थी अमीरों पर, लेकिन गिरी है छोटे आम आदमी पर, जिसे 45 सौ रुपए लेने के लिए अकाउंट खोलने पड़ रहे हैं, लाइनों में खड़ा होना पड़ रहा है. शुरू में तो इन लोगों को कमीशन का कुछ पैसा मिला, पर अब वह भी मिलना बंद हो गया, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार ही सारा धन, काला हो या सफेद, बैंकों में जमा हो कर रिजर्व बैंक के पास पहुंच गया है. नोटबंदी की वजह से सिवा छोटे हलके नोट आए और पूरे 50 दिन देशभर में भूचाल सा आया रहा, इस के अलावा कुछ लाभ नहीं हुआ.

हो सकता है कि जिन्होंने अपना पैसा फर्जी खातों में जमा कराया था, उन्हें बाद में आयकर विभाग के लोग पकड़ें, पर वे क्या नोटबंदी का अमृत पी कर शरीफ हो गए हैं? वे भी देश का हिस्सा हैं और जानते हैं कि रिश्वत लेनादेना न तो बंद हुआ है और न हो सकता है. वे क्यों न रिश्वत की मांग कर के उन लाखों मामलों को निबटाएंगे, जिन में शक होगा कि नोटों की हेराफेरी हुई है? या तो ये मामले ऐसे ही पड़े रहेंगे या जम कर उसी तरह आयकर वाले पैसा बनाएंगे, जैसा 50 दिन बैंक वालों ने बनाया है.

रही बात चुनावों में दलों को कमजोर करने की तो वह भी आधीअधूरी लग रही है. जिन 5 राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, वहां तैयारियों में कोई फीकापन नहीं. हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी को फायदा हो, पर यह उस की धर्म और जाति को इस्तेमाल करने और मुसलिमों व दलितों के बारे में सोच का नतीजा होगा. नरेंद्र मोदी के यज्ञ में आखिर ऊंचों ने भाग लिया है और वे ही दिखेंगे, इस में शक नहीं. चुनावी सोच नोटबंदी को सही साबित तो नहीं करेगी.

‘रोड शो’ बनाम ‘जनता दर्शन’ या ‘शक्ति प्रदर्शन’

 

 

विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह आक्रामक चुनाव प्रचार करते इससे पहले किसी प्रधानमंत्री को नहीं देखा गया. असल में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल मान रहे हैं. नरेंद्र मोदी को पता है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद उनके अंदर आत्मबल बढ़ जायेगा. पार्टी के रूप में राम के प्रदेश में वनवास काट रही भाजपा को सत्ता का राजकाज मिल जायेगा. राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा का प्रत्याशी चुनाव जीत जायेगा. राज्यसभा में आने वाले दिनों में भाजपा और ताकतवर हो जायेगी. उत्तर प्रदेश के चुनाव का केन्द्र की राजनीति पर प्रभाव पड़ेगा. इसलिये प्रधानमंत्री मोदी किसी भी तरह से कोई कोरकसर छोडना नहीं चाहते.

राहुल-अखिलेश की जोडी बनने के बाद विधानसभा चुनाव में इस जोड़ी का प्रचार अभियान और जनता की भीड़ को देखकर भाजपा के रणनीतिकर सकते में पड़ गये थे. राहुल- अखिलेश की जोड़ी को देखने उतरी भीड़ का जवाब देने के लिये जरूरी हो गया था कि भाजपा की रैली में भी भीड़ दिखाई दे. पहली बार वाराणसी में इस तरह का चुनाव प्रचार देखने को मिला.ऐ सा लग रहा है जैसे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ न हो कर वाराणसी हो गई हो. इस तरह के प्रचार में चुनाव आचार संहिता का पूरी तरह उल्लघंन हुआ.

बसपा की नेता मायावती कहती हैं ‘उच्च पद पर बैठे शख्स के द्वारा आचार संहिता का उल्लघंन पूरी तरह से अनुचित है. निर्वाचन आयोग को तत्काल इस पर कार्रवाई करनी चाहिये.’ भाजपा इसको रोड शो नहीं मानती. केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा ‘पीएम विश्वनाथ मंदिर और काल भैरव दर्शन के लिये गये थे. रास्ते में जन सैलाब उमड आया.’ उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता हदृय नारायण दीक्षित कहते हैं यह रोड शो नहीं जनता का दर्शन था. प्रधानमंत्री अपने क्षेत्र की जनता का दर्शन कर रहे थे.

वाराणसी में रह रहे लोग इसको शक्ति प्रदर्शन मानते हैं. चुनाव आचार संहिता के मसले को देखा जाये तो यह हर दल अपनी अपनी तरह से करता है. जितना बड़ा नेता होता है उतना बड़ा वह चुनाव उल्लघंन करता है. सभी नेता जानते हैं कि चुनाव आचार संहिता के जुड़े मसले केवल चुनाव भर के लिये होते हैं. चुनाव बीत जाने के बाद यह सब फाइलों की शोभा बढ़ाने लगते हैं. ऐसे में नेताओं को चुनाव आचार संहिता का डर खत्म हो गया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये यह चुनाव साख का सवाल है. उत्तर प्रदेश की विधानसभा चुनाव का सबसे बड़ा प्रभाव उनकी इमेज पर पड़ेगा. अगर भाजपा यहां सरकार बनाने में सफल नहीं होती तो भाजपा के अंदर मोदी और उनके मनचाहे फैसलों के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हो जायेगी. अगर यहां जीत मिलती है तो पार्टी में मोदी की हर चुनौती खत्म हो जायेगी. उत्तर प्रदेश विधानसभा के पहले और दूसरे चरण की वोटिंग में भाजपा को बढ़त नहीं दिखी तब नरेंद्र मोदी को आक्रामक प्रचारशैली का सहारा लेकर चुनाव मैदान में उतरना पड़ा.

विकास की बात करने वाली भाजपा ने वोटर धुव्रीकरण का काम शुरू किया. वोटर धुव्रीकरण को लेकर देखने वाली बात यह है कि जितना भाजपा को अपने प्रयासों से सफलता नहीं मिली उतनी सफलता विरोधियों के प्रचार से मिली. राहुल-अखिलेश गठबंधन के बाद बसपा ने जिस तरह से मुसलिमों को सबसे ज्यादा टिकट दिया उसका जवाब देते भाजपा ने एक भी मुसलिम को विधानसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया. इससे बसपा का दलित भी हिन्दुत्व के पक्ष में खडा हो गया. चुनाव में आगे चल रही बसपा इसी दांव से पिछड़ गई और भाजपा मजबूत होती गई.

चुनावी रोजगार : भीड़ से लेकर साधन जुटाने तक में कमाई

उत्तर प्रदेश में मोहनलालगंज, लखनऊ की एक सुरक्षित विधानसभा सीट है. यहां पर पिछड़ी जातियों की आबादी सब से ज्यादा है. मोहनलालगंज, निगोहां, नगराम और गोसाईंगंज थाना क्षेत्रों तक इस की सीमा फैली हुई है. एक गांव से दूसरे गांव तक जाने के लिए कार और दूसरी महंगी गाडि़यों से चुनाव प्रचार होता है. अब साइकिल और ट्रैक्टर जैसे साधनों से चुनाव प्रचार नहीं होता. कार और मोटरसाइकिल में पैट्रोल डलवाने का काम उम्मीदवारों का होता है. उम्मीदवार केवल खुद के साथ चलने के लिए ही भीड़ का इंतजाम नहीं करता, बल्कि उस के कुछ खास लोग भी चुनाव प्रचार करते हैं. भीड़ जुटाने का काम पैसे दे कर किया जाता है. भीड़ कम होती है, तो विरोधी को उम्मीदवार ताकतवर नहीं लगता. ऐसे में हर उम्मीदवार अपने साथ भीड़ ले कर चलना पसंद करता है. उस के प्रचार में नारा लगाती यह भीड़ चुनाव प्रबंधन का नतीजा होती है. बहुत सारे लोगों के लिए चुनाव रोजगार का जरीया बन जाता है.

नेताओं के लिए चुनाव किसी कारोबार जैसा हो गया है, जहां पर वे पैसे के बल पर हर साधन जुटाते हैं. पहले पार्टियों के कार्यकर्ता अपने दल के उम्मीदवार के लिए जीतोड़ मेहनत करते थे.  कई बार तो उम्मीदवार के पास इतना पैसा भी नहीं होता था कि वह अपने प्रचार में लगे लोगों के खानेपीने का इंतजाम कर सके. कई बार तो प्रचार करने वाले अपने खानेपीने का इंतजाम खुद करते थे.

अब नेताओं को कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलती. भीड़ से ले कर चुनाव के दूसरे साधन जुटाने में पैसों का इंतजाम करना पड़ता है. चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के खर्च की सीमा को तय कर रखा है. इस खर्च को देखें तो पता चलेगा कि नेता चुनाव लड़ने में तय सीमा के मुकाबले बेहिसाब खर्च करते हैं, पर खर्च हिसाब से दिखाते हैं. कोई नेता यह नहीं कहता कि उस ने पैसे के बल पर भीड़ जुटाई है. यह काम खुद नेताओं द्वारा न कर के उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो उम्मीदवार का चुनाव संचालन करते हैं. ऐसे में भीड़ जुटाना भी एक तरह का प्रबंधन हो गया है.

भीड़ जुटाने का यह काम गांव से ले कर शहर तक में खूब चल रहा है. गांवों में भीड़ के साथ वाहनों का अलग से इंतजाम करना पड़ता है. नोटबंदी के चलते ज्यादातर उम्मीदवार अब अपने करीबी सहयोगियों को आगे कर के उन को चुनाव प्रबंधन के लिए सहारा बना रहे हैं. नोटबंदी के चलते बहुत सारे छोटेमोटे कलकारखाने और मजदूरी के काम बंद हैं. ऐसे में खाली बैठे लोग चुनाव प्रचार कर के ही कुछ दिनों की कमाई के जुगाड़ में नेता के समर्थन में नारे लगाते दिख रहे हैं. गांव के मुकाबले शहरों में भीड़ जुटाना ज्यादा मुश्किल और खर्चीला काम होता है. कई लोग अपनी फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों को उम्मीदवार के साथ लगा देते हैं.

इस तरह के प्रचारतंत्र में काम कर रहे लोगों का कहना है कि केवल प्रचार करने वाले को ही पैसा नहीं मिलता, बल्कि इंतजाम करने वाले को भी पैसा मिलता है. वह उस में कटौती कर के ही आगे लोगों को पैसा देता है. खानेपीने और वाहन के नाम पर अलग से पैसा लिया जाता है. पैसों के लेने और देने की प्रक्रिया बेहद गोपनीय होती है, जिस से किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगती. इस प्रक्रिया को गापनीय रखना भी सब से बड़ी शर्त होती है, जिस से यह नहीं पता चलता कि पैसा आया कहां से है और जाता कहां है.

पढ़े लिखों की डिमांड

एक तरफ नारा लगाने वाले ऐसे लोगों को भी रोजगार मिलता है, जो कम पढ़ेलिखे या अनपढ़ हैं, दूसरी तरफ उन लोगों के लिए भी रोजगार हैं, जो ठीकठाक पढे़लिखे हैं. ऐसे लोग नारा लगाने का काम नहीं करते हैं. ये उम्मीदवार के दफ्तर का काम देखते हैं. कंप्यूटर, मोबाइल और लैपटौप चलाने वालों को खास अहमियत दी जाती है. ये लोग ही दफ्तर के जरीए उम्मीदवार के चुनाव प्रचार के लिए रणनीति बनाते हैं. दूसरा उम्मीदवार कैसे अपना चुनाव संचालन कर रहा है, इस पर भी नजर रखते हैं. अब ह्वाट्सएप और सोशल मीडिया को हैंडिल करने के लिए अलग से टीमें बनने लगी हैं.

दफ्तर में काम करने वाले यही लोग चुनाव में वोटर परची तैयार करने, उन को घरघर तक पहुंचाने का काम भी करते हैं. चुनाव के दिन वोटर घर से निकल कर उन के उम्मीदवार को वोट दे, यह कोशिश भी उन्हें करनी पड़ती है. ऐसे काम करने के लिए अलगअलग तरह के ‘पेड वर्कर’ होने लगे हैं. कई उम्मीदवार तो चुनाव के सालों पहले से ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ लेते हैं. चुनाव के समय ऐसे लोगों की तादाद बढ़ जाती है. शहर से ले कर देहात तक कई स्वयंसेवी संगठन भी अपने लैवल पर उम्मीदवार के प्रचार का जरीया बन जाते हैं.

हिसाब किताब का बोझ

चुनाव आयोग की बंदिशों ने बहुत सारी कागजी कार्यवाही को बढ़ा दिया है. उन को पूरा करने के लिए जानकार लोगों की जरूरत होती है. ऐसे में वकीलों और हिसाबकिताब रखने वालों की मांग भी चुनाव में बढ़ जाती है. इस के लिए भी पैसा देना पड़ता है. तहसील लैवल पर काम करने वाले बहुत सारे वकील चुनाव में ऐसे कामों में लग जाते हैं. कई लोग ऐसे भी होते हैं, जो कई बार दूसरों को चुनाव लड़ाते हैं. ऐसे लोगों को चुनाव प्रबंधन में माहिर माना जाता है.

ऐसे ही प्रबंधन को संभाल रहे एक आदमी का कहना है, ‘‘उम्मीदवार अपने प्रचार में मसरूफ रहता है. उस के पास समय की कमी होती है. वह प्रचार के लिए फंड का इंतजाम तो कर सकता है, पर उस को कैसे खर्च करना है और उसे लिखतपढ़त में कैसे दिखाना है, जानकार लोग आसानी से कर लेते हैं.

‘‘ये लोग केवल लिखतपढ़त में ही माहिर नहीं होते, बल्कि चुनाव आयोग में उम्मीदवार के नामांकन को दाखिल करने तक में मदद करते हैं. वकील साथ होता है, तो काम आसान हो जाता है.’’

पीआर प्रबंधन भी जरूरी

उम्मीदवारों के लिए यह भी जरूरी होने लगा है कि वे अपनी बात को कैसे कहें. आज केवल अखबारों का ही दौर नहीं है, टैलीविजन चैनलों में भी बात रखनी पड़ती है. अखबारों में छपने वाली खबर को तैयार करने और बातचीत की कला को समझाने वाले लोग भी उम्मीदवार के लिए मददगार होने लगे हैं. ये लोग अखबारों में उम्मीदवार की इमेज को बेहतर तरीके से सामने रखने का काम करते हैं. अब पीआर प्रबंधन करने वाले पैसे ले कर ऐसे कामों को अंजाम देने लगे हैं.

पीआर प्रबंधन वाले लोगों में अखबारों में काम करने वाले ज्यादा होते हैं. ये लोग अखबारों में खबरों को परोसने के माहिर होते हैं. इन को राजनीतिक विषयों और नेताओं के बयानों पर टिप्पणी करने की जानकारी होती है. किस तरह से बयान अखबारों में सुर्खियां बनते हैं, ऐसी बातें नेता पीआर प्रबंधन करने वालों की सलाह मान कर करते हैं.

गांव से ले कर शहरों तक में ह्वाट्सएप ग्रुप चलने लगे हैं. इन ग्रुपों में उम्मीदवार अपने प्रचार की बातें और मुद्दे पोस्ट कराते रहते हैं. पीआर प्रबंधन वाले लोग इस तरह के नएनए रास्ते खोजने लगते हैं, जिन से कम से कम पैसे और समय में ज्यादा से ज्यादा प्रचार होता रहे. नारा लिखने का काम भी ऐसा ही है. पहले कार्यकर्ता और पार्टी के लोग इस काम को अंजाम देते थे, पर अब पीआर प्रबंधन में लगे लोग इस को करते हैं. चुनाव में बजने वाली सीडी बनाने के लिए भी ऐसे लोगों को खोजा जाता है.

पीआर प्रबंधन के एक जानकार कहते हैं, ‘‘जितना अच्छा पैसा होगा, उतना बड़ा जानकार काम करने को तैयार होगा. पैसा अच्छा होता है, तो दिल्ली, मुंबई तक के लोगों से मदद ली जाती है.

‘‘उम्मीदवार के कहने पर प्रचार करने के लिए कुछ महिला चेहरों का भी इंतजाम हो जाता है. कई बार नामचीन लोगों को बुलाने का काम भी पीआर ही करता है.’’

कम शब्दों में कहें, तो नेता की शख्सीयत कैसी भी हो, मगर उस को चमकाने वाले मिल जाएं, तो चुनाव की बाजी जीती जा सकती है.

बदल गया है पहनावा भी

राजनीति में नेताओं का पहनावा बदल रहा है. आज के दौर में ‘मोदी जैकेट’ का बहुत चलन है. गहरे और हलके रंगों में बिकने वाली यह जैकेट 2 सौ रुपए से ले कर हजारों रुपए की रेंज में मिलती है. चुनाव के समय ऐसे कपड़ों की खपत बढ़ जाती है. कपड़ों के साथ नए किस्म के जूते, तौलिए और गमछे भी खूब बिकते हैं. कुछ फैशनेबल नेताओं ने लिनन के कपडे़ पहनने शुरू किए हैं. बड़ी तादाद में नेता खादी और हैंडलूम के कपड़े पहनने लगे हैं. छोटे नेताओं में पावरलूम से बने कपडे़ पहनने का क्रेज है. नेताओं की जेब के हिसाब से खादी के कपडे़ दुकानों में मिलने लगे हैं. इस महंगाई के दौर में भी इन दुकानों में एक हजार रुपए खर्च कर के नेता बना जा सकता है.

कपड़ों के एक दुकानदार राम प्रसाद का कहना है, ‘‘लखनऊ के दारुलशफा में छोटेछोटे नेता अपने जिले से यहां आते हैं. रास्ते में उन के कपड़े गंदे हो गए या वे लाना भूल गए, तो यहां दुकान से कुरतापाजामा और गमछा ले कर नेता बन जाते हैं. यहां सस्ती दरों पर कपड़े मिल जाते हैं, इसलिए लोग यहां कपड़े लेना पसंद करते हैं.’’

यहां कुरतापाजामा और शर्ट का कपड़ा सौ रुपए से ले कर 250 सौ रुपए प्रति मीटर मिलता है. पैंट का कपड़ा 2 सौ रुपए से ले कर 5 सौ रुपए प्रति मीटर में बिकता है. यहां जैकेट 3 सौ रुपए से 4 सौ रुपए में मिलती है.

दारुलशफा के अलावा कुछ नेता श्री गांधी आश्रम में भी खरीदारी करते हैं. यहां खादी के कपड़े दारुलशफा से महंगे मिलते हैं. नई उम्र के नेता कुरते की जगह शर्ट पहनना पसंद करने लगे हैं. खादी की शर्ट 4 सौ रुपए से 12 सौ रुपए के बीच मिलती है. ऐसे कपड़ों को पहनने वाले नेताओं का मानना है कि आजकल खादी की जगह मसलिन खादी का चलन बढ़ रहा है. यह खादी 250 रुपए से 17 सौ रुपए प्रति मीटर तक में मिलती है. खादी और सिल्क की बनी सदरी भी रेडीमेड मिलने लगी हैं. इन की कीमत 13 सौ रुपए से ले कर 21 सौ रुपए तक हो सकती है.

सिल्क से बने कुछ कपडे़ महिला नेताओं को भी पसंद आते हैं. इन में सलवारसूट और साड़ी खास होती हैं. इन की कीमत 75 सौ रुपए तक होती है. लिनन से तैयार कपड़े आजकल लोगों को खूब पसंद आने लगे हैं. कई बड़े नेता इस को पहनना पसंद करते हैं. लिनन का कुरता, शर्ट और पाजामे का कपड़ा एक हजार रुपए प्रति मीटर से ले कर 4 हजार रुपए प्रति मीटर में मिलता है. लिनन से तैयार जैकेट 2 हजार रुपए से 3 हजार रुपए तक में मिल जाती है. खादी के कुरतों में अब सफेद रंग के अलावा रंगीन कपड़ों का भी चलन बढ़ रहा है.

कुछ बडे़ नेताओं की पसंद पर भी खादी का कपड़ा तैयार किया जाता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कई बार गांधी जयंती के मौके पर गांधी आश्रम आते हैं. यहां उन्हें महीन खादी के सूत को दोगुना कर तैयार किए गए कपडे़ पसंद आते हैं. मुलायम सिंह यादव सुपरफाइन मसलिन खादी पहनते हैं. यह बहुत पतली और आरामदायक होती है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अब नया शिगूफा

भारतीय जनता पार्टी की असल जान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊंचे पदों पर बैठे लोग अकसर शास्त्रों में दी गई जाति को फिर से जिंदा करने की बात करने लगते हैं और जाति के तोड़ आरक्षण को खत्म करने पर सोचने का सुझाव दे डालते हैं. यह बात दूसरी है कि पार्टी में ही खलबली मचने पर वे कहते फिरते हैं कि उन का मतलब कुछ और था. इन महानों में मोहन भागवत व मनमोहन वैद्य शामिल हैं. सही बात तो यह है कि जाति का सवाल हमारी सोच में इस तरह घुलामिला है कि इसे खत्म करने की कोशिश नाकाम है. पैदा होते ही हर बच्चे के गले में जाति की तख्ती लटका दी जाती है, जो उसे जिंदगीभर ढोनी होती है. जो ऊंची जातियों के हैं, वे भी खुश हैं, जरूरी नहीं. अगर ब्राह्मण का बेटा दूसरों के साथ खेलता है, तो उसे ‘ओ पंडे’, ‘ओ शास्त्री’ सुनने को मिलता है. अछूत का बच्चा ऊंचों के साथ खेलता है, तो दुत्कारा जाता है.

मजेदार बात यह है कि नीची सताई जातियां भी अपनों में ऊंचनीच का जम कर खयाल रखती हैं और शादी के समय खयाल रखती हैं कि कहीं लड़का किसी नीची जाति की लड़की को घर न ले आए. मोहन भागवत और मनमोहन वैद्य ने जाति के आरक्षण को खत्म करने की बात कर के गलत नहीं कहा, क्योंकि 70 साल के आरक्षण ने कुछ बदलाव नहीं किया. यह हमारे समाज की पथरीली सोच का नतीजा है. डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सोचा था कि 10-20 साल में आजादी के बाद आई साइंस की सोच सब को साथ कर देगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज भी सारी राजनीति और सारी सरकारी मशीनरी जाति पर टिकी है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चुनावों में जाति व धर्म के नाम पर वोट न लिए जाएं, पर देने वालों को कौन कैसे रोक सकता है. जाति, जो पैदा होते ही माथे पर लिख दी जाती है, वोट डालते हुए जोर मारती है और चुनावी हारजीत इस पर ही टिकी है.

भारतीय जनता पार्टी जिस जाति व्यवस्था को चाहती है, उस में सब से ऊंचे ब्राह्मणों को सब से ऊंची जगह देने की सिफारिश ही नहीं हुक्म है, पर शास्त्रों के कहने के बाद भी ब्राह्मणों में से भी कुछ को छोड़ कर बाकी गरीब केवल जाति का बिल्ला लगाए जैसेतैसे पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदा रहे हैं. अगर उन्होंने जाति छोड़ दी होती तो वे आज ज्यादा खुशहाल होते, पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे शास्त्रसम्मत मान कर गले से उतारने की कोशिश कर रहा है और नतीजा यह है कि इज्जत व सत्ता दोनों हाथ से निकल रही है.

मोहन भागवत और मनमोहन वैद्य को समझना चाहिए कि 2 हजार सालों में विदेशियों के राज ने उन का ज्यादा नुकसान किया है. वे पढ़ेलिखे, नई जानकारी ली तो पैसा कमाया है. शास्त्रसम्मत हवनपूजा करते रहे तो कुछ न मिला. आरक्षण का सवाल उठा कर वे अपनी कमजोरी ही दिखा रहे हैं.

‘लड़की बिकिनी पहने या बुर्का उसकी मर्जी’

एक्ट्रेस सोनम कपूर का कहना है कि वो सेंसरशिप में विश्वास नहीं करती हैं. सोनम मानती हैं कि सबको अपनी पसंद के कपड़े पहने का, अपनी सेक्सुएलिटी का और अपने पसंद से शादी करने का पूरा हक है. भारतीय समाज में महिलाओं के फैशन विकल्पों पर प्रतिबंध के बारे में बोलते हुए सोनम ने कहा, ‘हर लड़की का खुद का निर्णय होना चाहिए कि वो बिकिनी पहना चाहती हैं या बुर्का. यही बात उनके धर्म, कपड़ें, पढ़ाई औैर शादी पर भी लागू होती है. आप जितना लोगों पर प्रतिबंध लगाएंगे वो उतने ही आक्रमक होते जाएंगे.’

सोनम ने आगे कहा, ‘हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं इसलिए लोगों को उनक मर्जी के हिसाब से जीने का हक होना चाहिए.’ इवेंट में सोनम अपने आलचकों पर भी निशाना साधती नजर आईं. जब उनसे पूछा गया कि क्या वो भी अपनी फिल्मों में गाना गाएंगी तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘मुझे गाना नहीं आता. अगर मैंने फिल्मों में गाना शुरू कर दिया तो सब कहेंगे कि पहले तो एक्टिंग भी नहीं आती थी और अब गाना भी नहीं आता. इतनी कोशिशों के बाद भी मुझे केवल दो या तीन अवॉर्डस ही मिले हैं. इसलिए मैं गाना बिल्कुल भी नहीं चाहती हूं.’

सोनम ने यह भी कहा कि उन्होंने ‘दिल्ली 6’ में गाया भी है लेकिन वो किसी को याद नहीं है. बता दें कि सोनम ‘पैडमैन’ और ‘वीरे दी वेडिंग’ जैसी फिल्मों में नजर आएंगी.

लोकतंत्र मतलब बदलाव और बदलाव मतलब…

गोवा और पंजाब के चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस को टक्कर तो जरूर दे रही है, जीतेगी या नहीं, यह 11 मार्च को पता चलेगा. आम आदमी पार्टी की शुरुआत ही अपनेआप में एक खुश करने वाली बात है, क्योंकि इस तरह की पार्टियों में न तो वंशवाद चलता है, न ये लकीर की फकीर होती हैं.

लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट डालना नहीं होता, कुछ नई सोच लाना और नए नेता भी पैदा करना होता है और आम आदमी पार्टी यह काम जरूर कर रही है. 2014 के लोकसभा के चुनावों में मात खाने के तुरंत बाद दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीत कर इस ने भारतीय जनता पार्टी की हवा निकाल दी थी, पर भारतीय जनता पार्टी के तेवर ढीले न कर पाई. पंजाब और गोवा में सत्ता में बैठी पार्टी को हिला देना ही काफी है.

सत्ता में बदलाव लोकतंत्र का असल मुनाफा है. अगर वही लोग बारबार जीत कर आते रहें, तो वोट देने का मतलब नहीं रह जाता. 1947 के बाद कांग्रेस लगातार जीतती रही है और यही देश के नुकसान की वजह रही है. भारतीय जनता पार्टी जीती तो कम है, पर इस में सिरमौर वही लोग बने रहे हैं, जो धर्म, जाति, संस्कारों, रीतिरिवाजों से बंधे हैं और इसीलिए जहां भी जीतते हैं, कुछ नया नहीं कर पाते.

दूसरे देशों में जब भी तरक्की हुई है तब हुई है, जब सरकार की सोच, रवैया और नेता बदले. चीन 1960 में भारत के बराबर था. आज औसत चीनी औसत भारतीय से 5-6 गुना ज्यादा अमीर है, क्योंकि माओत्से तुंग के बाद नए लोगों ने नए तौरतरीके अपनाए. भारत में 1991 में नरसिंह राव व मनमोहन सिंह ने नया दौर शुरू किया और मंडल आयोग लागू किया, जिस से नई सोच आई और देश चमका, पर फिर पुराने दलदल में जा बैठा.

2014 में जिस बदलाव की उम्मीद की थी, वह नहीं दिख रही. उलटे नोटबंदी की सजा मिल गई. ऐसे में नई उम्र वाले अरविंद केजरीवाल और कुछ हद तक नए धुलेपुछे अखिलेश यादव व राहुल गांधी से नए की उम्मीद की जा रही है. गोवा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में कोई भी जीते, नए पौधे लग गए हैं, यह पक्का सा है. इस का लाभ जरूर होगा.

जरूरत यह है कि गांवगांव, कसबेकसबे में नए लोगों की पौध उपजे. शासन पुरानी लकीर पर न चले, यही आज की जरूरत है. दुनिया अब थम रही है और भारत जैसे देशों के लिए यह बात फायदेमंद साबित हो सकती है कि जब अमेरिकायूरोप अपने में सिमट जाएं, तो हम पैर फैला सकें.

इस फिल्म पर गिरी सेंसर बोर्ड की गाज

सेंसर बोर्ड ने हाल ही में ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ पर बैन लगा दिया है. जिस कारण से कई फिल्म निर्माताओं ने सेंसर बोर्ड के खिलाफ सोशल मीडिया पर बयान दिए थे. फिर भी सेंसर बोर्ड ने फिल्म को सर्टिफिकेट नहीं दिया. ऐसा ही अब एक और फिल्म के साथ हुआ है. न्यूयॉर्क बेस्ड मलयाली फिल्म निर्माता जयन चेरियन की अगली फिल्म ‘का बॉडीस्केप्स’ पर सेंसर बोर्ड ने बैन लगा दिया है.

ये फिल्म एलजीबीटीक्यू (गे, लेज्बियन,बाइसेक्शुअल,ट्रांसजेंडर,क्वीयर) समूदाय और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर आधारित है. सेसंर बोर्ड का कहना है कि फिल्म हिंदू धर्म का मजाक बना रही है.

सेंसर बोर्ड ने फिल्म निर्माता को फिल्म को बैन करने कारण बताते हुए को पत्र भेजा. उसमें लिखा था कि फिल्म का विषय वस्तु हिंदू धर्म के लिए अपमानजनक है. फिल्म में हिंदू धर्म का मजाक बनाया गया है. खासतौर से हिंदू देवी-देवताओं को गलत तरीके से दर्शाया जा रहा है. अभी फिल्म के निर्माताओं की तरफ से किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं आई है.

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