फीफा वर्ल्ड कप 2022 :धर्म के जाल में उलझा खूबसूरत खेल

इस बार का फीफा वर्ल्ड कप कतर देश में हुआ था और वहां की मेजबानी की हर जगह तारीफ भी हुई. हो भी क्यों न, यह फुटबाल वर्ल्ड कप अब तक का सब से महंगा खेल आयोजन जो था.

याद रहे कि कतर को साल 2010 में फुटबाल वर्ल्ड कप की मेजबानी मिली थी और तब से इस देश ने इस आयोजन को कामयाब बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया था. इस के लिए 6 नए स्टेडियम बनाए थे, जबकि 2 पुराने स्टेडियमों का कायाकल्प किया गया था. इस के अलावा दूसरे कामों पर भी जम कर पैसा खर्च किया गया था.

एक अंदाज के मुताबिक, कतर ने इस आयोजन पर कुल 222 अरब डौलर की भारीभरकम रकम खर्च की थी. इस से पहले का फुटबाल वर्ल्ड कप साल 2018 में रूस में कराया गया था, जिस पर कुल 11.6 अरब डौलर खर्च हुए थे.

कतर में हुए वर्ल्ड कप में दुनियाभर से आई 32 देशों की टीमें शामिल थीं और सभी चाहती थीं कि वे अपना बैस्ट खेल दिखाएं. जापान और मोरक्को ने तो सब को चौंकाया भी. जापान ने जरमनी को हराया था, तो मोरक्को कई दिग्गज टीमों को हराते हुए सैमीफाइनल मुकाबले तक जा पहुंची थी, जहां वह फ्रांस से हार गई थी. सऊदी अरब ने भी अर्जेंटीना पर जीत हासिल कर के बड़ा उलटफेर किया था.

पर इतने सारे रोमांच व खिलाडि़यों की कड़ी मेहनत के बावजूद फुटबाल वर्ल्ड कप के साथसाथ सोशल मीडिया पर एक अलग ही खेल चल रहा था, जिस पर धर्म का जाल कसा हुआ था. फीफा वर्ल्ड कप का आयोजन कराने को ले कर मिस्र के एक मौलाना यूनुस माखियान कतर पर ही बरस पड़े थे. उन्होंने अपने बयान में फुटबाल को समय की बरबादी बताते हुए लियोनेल मैसी और क्रिस्टियानो रोनाल्डो जैसे खिलाडि़यों को इसलाम का दुश्मन (काफिर) कह दिया था. उन की राय थी कि फुटबाल पर खर्च करने के बजाय परमाणु बम बनाने में पैसा खर्च करना चाहिए था.

भारत के केरल में नौजवान फुटबाल के दीवाने हैं. लेकिन वहीं के समस्त केरल जाम अय्यातुल उलमा के तहत कुतुबा समिति के महासचिव नासर फैजी कूडाथायी ने अर्जेंटीना के लियोनेल मैसी, पुर्तगाल के क्रिस्टियानो रोनाल्डो और नेमार जूनियर जैसे पसंदीदा फुटबाल सितारों के बड़े कटआउट लगाने को गलत बताया और कहा कि उन्हें इस में बहुत ज्यादा पैसा खर्च करने वाले फुटबाल प्रशंसकों की चिंता है. केरल में पुर्तगाल के झंडे लहराना भी गलत है, क्योंकि उस ने कई देशों पर जबरन राज किया था.

इस के अलावा इस वर्ल्ड कप में मोरक्को की सनसनीखेज जीतों को धर्म और इसलाम से जोड़ा जाने लगा था. सोशल मीडिया पर ऐसा माहौल बनाया जा रहा था मानो मोरक्को देश की शानदार टीम फुटबाल नहीं खेल रही थी, बल्कि धर्म का प्रचार कर रही थी. उस की हर जीत पर अल्लाह का रहम था और वह फुटबाल के मैदान पर नहीं, बल्कि किसी जंग के मैदान पर उतरी थी, जो पूरी दुनिया में इसलाम की जयजयकार करवाने को बेताब थी.

इस धार्मिक एंगल को ऐसे समझते हैं. इस टूर्नामैंट में मोरक्को ने जैसे क्रिस्टियानो रोनाल्डो की टीम पुर्तगाल को हराया, तो इस के बाद इंटरनैट पर मोरक्को की जीत के चर्चे तो हुए ही, इसे ‘इसलाम की जीत’ बताया जाने लगा, जबकि खेल एक ऐसी चीज है जो देशों, धर्मों और समुदायों के बीच की सीमा को मिटा देता है.

पर मोरक्को के सैमीफाइनल मुकाबले में पहुंचने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके इमरान खान ने लिखा, ‘पुर्तगाल पर जीत हासिल कर फुटबाल वर्ल्ड कप के सैमीफाइनल में पहुंचने के लिए मोरक्को को मुबारकबाद. यह पहली बार है, जब एक अरब, अफ्रीकी और मुसलिम टीम फीफा वर्ल्ड कप के सैमीफाइनल में पहुंची है. सैमीफाइनल और आगे की कामयाबी के लिए उन्हें शुभकामनाएं.’

इस बात में कोई दोराय नहीं है कि मोरक्को मुसलिम बहुल अफ्रीकी देश है, पर जिस तरह से इमरान खान ने इसे सियासी और धार्मिक रंग दिया, वह मामला गड़बड़ कर गया. और भी लोगों द्वारा इसे ‘देश की जीत’ से बढ़ कर ‘इसलाम की जीत’ कह कर मामला गरमाया गया. मिशिगन की वेन स्टेट यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ाने वाले प्रोफैसर खालिद बिदुन ने कहा कि मोरक्को के खिलाडि़यों ने हर गोल और जीत के बाद इबादत में सिर झुकाया. यह दुनियाभर के 2 बिलियन मुसलमानों की जीत है.

जरमनी के फुटबाल खिलाड़ी रह चुके मेसुत ओजिल ने ट्वीट किया, ‘यह अफ्रीकी महाद्वीप और मुसलिम जगत के लिए बड़ी उपलब्धि है.’

एक यूजर ने लिखा कि मोरक्को की जीत से ‘फिलिस्तीन को गर्व है’. अब मोरक्को की जीत फिलिस्तीन के लिए गर्व की बात कैसे हो सकती है? क्या इस गर्व को इसलाम नाम की कड़ी जोड़ती है?

दरअसल, ‘अल जजीरा’ की रिपोर्ट के मुताबिक, फिलिस्तीन में भी मोरक्को की जीत का जश्न मनाया जा रहा था. यह जश्न सिर्फ घरों में बैठ कर तालियां बजाने तक सीमित नहीं था, बल्कि लोग सड़कों पर निकल रहे थे और ड्रम बजा कर, नारे लगा कर मोरक्को के लिए अपना समर्थन जाहिर कर रहे थे.

सवाल उठता है कि अगर यह इसलाम या धर्म की जीत थी, तो सैमीफाइनल मुकाबले में फ्रांस से हारने के बाद मोरक्को के प्रशंसक उग्र क्यों हो गए थे और वे टीम की हार को क्यों पचा नहीं पाए? उन्होंने फ्रांस की राजधानी पैरिस और बैल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में क्यों उत्पात मचाया? खुद एक इसलामिक देश कतर अपने तीनों ही मैच क्यों हार गया? ईरान और सऊदी अरब भी क्यों कोई कमाल नहीं दिखा पाए?

हकीकत तो यह है कि जब लोग खेल को धर्म के चश्मे से देखने लगते हैं, तो वे खिलाडि़यों की उस लगन और मेहनत को नकार देते हैं, जिसे सालों का पसीना बहाने के बाद हासिल किया जाता है. अगर मोरक्को फुटबाल टीम की बात करें, तो इस टूर्नामैंट में उस की एकता ही सब से ज्यादा असरदार रही है.

हैरत की बात तो यह है कि 26 सदस्यीय मोरक्को टीम में से सिर्फ 12 सदस्य इस देश में पैदा हुए थे, बाकी 14 सदस्य फ्रांस, स्पेन, बैल्जियम, इटली, नीदरलैंड्स और कनाडा जैसे देशों में पैदा हुए थे.

मोरक्को को इस मुकाम तक लाने के लिए टीम के कोच वालिद रेगरागुई के रोल को भी नहीं नकारा जा सकता है, जिन्होंने चंद महीनों में ही टीम को नए रंग में रंग दिया. उन्हें साल 2022 के अगस्त महीने में टीम का कोच बनाया गया था.

इस के अलावा साल 1999 से मोरक्को पर राज कर रहे किंग मोहम्मद 6 का भी इस देश की फुटबाल टीम के विकास में खास रोल रहा है. उन्होंने इस देश में फुटबाल अकादमी बनाने के लिए पैसे से मदद की. इस का नतीजा यह हुआ कि ऐसे खिलाड़ी उभर कर सामने आए, जो मोरक्को की प्रोफैशनल लीग (बोटोला) के साथसाथ अपने देश और विदेशी लीगों में भी नाम कमा रहे हैं.

सच तो यह है कि मोरक्को की टीम ने चौथे नंबर पर रह कर भी फुटबाल की दुनिया में नाम कमाया है और यह सब खिलाडि़यों, कोच और प्रशासन की मिलीजुली और कड़ी मेहनत का नतीजा है. 18 दिसंबर, 2022 को फ्रांस और अर्जेंटीना की टीमें इसलिए फाइनल मुकाबले में आमनेसामने थीं, क्योंकि उन्होंने पूरे टूर्नामैंट में उम्दा खेल दिखाया था. इस मुकाबले का दुनियाभर के लोगों ने लाइव देख कर मजा लिया, फिर चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले थे.

दोनों में से एक टीम को जीतना था और ऐसा हुआ भी. एक बेहद रोमांचक मुकाबले में अर्जेंटीना ने फ्रांस को मात दी. फ्रांस ने 2 गोल से पिछड़ने के बाद मैच के आखिरी चंद मिनटों में जैसे 2 गोल किए, तो लगा कि पिछली बार के चैंपियन को हराना इतना आसान नहीं है. ऐक्स्ट्रा टाइम में दोनों टीमों ने 1-1 गोल और दागा, जिस से मुकाबला पैनल्टी शूटआउट में चला गया, जहां अर्जेंटीना के गोलकीपर एमिलियानो मार्टिनेज ने अपने शानदार क्षेत्ररक्षण से फ्रांस का लगातार 2 बार फीफा चैंपियन बनने का सपना तोड़ दिया.

लेकिन खेल में हारजीत तो होती रहती है, पर इसे मनोरंजन का साधन ही रहने दिया जाए तो बेहतर रहेगा. सोशल मीडिया पर खिलाडि़यों की जाति, धर्म, रंग वगैरह को बीच में ला कर जो लोगों के दिलों में नफरत की दीवार ऊंची करने के मनसूबे पल रहे हैं, उन पर रोकथाम की जरूरत है, ताकि दुनिया का सब से मशहूर खेल यों ही सब का मनोरंजन करता रहे.अर्जेंटीना को जीत की बधाई और फ्रांस को सांस रोक देने वाले इस महानतम फाइनल मुकाबले का हिस्सा बनने के लिए शुक्रिया.

महिला इंजीनियर की मौत, गुत्थी में उलझी पुलिस

बिहार के जिला मुजफ्फरपुर के थाना अहियापुर की कोल्हुआ बजरंग विहार कालोनी के एक  निर्माणाधीन मकान में 23 अक्तूबर, 2016 की रात मुरौल प्रखंड में तैनात मनरेगा की जूनियर इंजीनियर सरिता देवी को कुरसी से बांध कर आग के हवाले कर दिया गया था. 24 अक्तूबर, 2016 की सुबह मकान मालिक और मोहल्ले वालों की सूचना पर पुलिस वहां पहुंची तो उसे एक जोड़ी लेडीज चप्पलें, अधजले कपड़े, पर्स, रूमाल, 4 गिलास, मिट्टी के तेल का डिब्बा और हड्डियों के अवशेष मिले. सरिता की मां कुसुम ने अधजली चप्पलें देख कर उस की पहचान की थी. सरिता सीतामढ़ी के सोनबरसा की रहने वाली थी. उस का विवाह नेपाल बौर्डर पर स्थित गांव कन्हौली फूलकाहां के रहने वाले विजय कुमार नायक से हुआ था, जिस से 2 बेटे हैं. पति से संबंध अच्छे  न होने की वजह से सरिता अलग रहती थी. पति गांव में रह कर खेती करता था और सरिता नौकरी कर रही थी. पति को उस का नौकरी करना अच्छा नहीं लगता था, इसलिए वह उसे नौकरी छोड़ कर गांव में रहने के लिए कहता, लेकिन सरिता को नौकरी छोड़ कर गांव में रहना ठीक नहीं लगता था. वह बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए नौकरी करना चाहती थी. उस का बड़ा बेटा ध्रुव दरभंगा में पौलिटैक्निक कर रहा है तो छोटा बेटा आर्यन उस के साथ रह कर पढ़ रहा था. सरिता पिछले 3 सालों से मुरौल प्रखंड में जूनियर इंजीनियर थी. बजरंग विहार कालोनी में वह विजय गुप्ता के मकान में किराए पर रहती थी. विजय मनरेगा की योजनाओं का एस्टीमेट बनाता था.

उसी मोहल्ले में विजय एक और मकान बनवा रहा था. उसी मकान में एक कमरा किराए पर ले रखा था, जिस में सरिता ने अपना औफिस बना रखा था. वह देर रात तक वहां बैठ कर औफिस के काम निपटाती थी. 24 अक्तूबर, 2016 की सुबह जब लोग उठे तो उन्हें विजय गुप्ता के निर्माणाधीन मकान से धुआं निकलता दिखाई दिया. उन्हें लगा कि शौर्ट सर्किट से मकान में आग लग गई है. उन्होंने शोर मचाया तो तमाम लोग इकटठे हो गए. विजय वहां मौजूद था. वह किसी को अंदर नहीं जाने दे रहा था. उस का कहना था कि किसी ने उस के घर में आग लगा दी है. विजय की इस हरकत से लोगों को दाल में कुछ काला नजर आया तो कुछ लोग उसे किनारे कर के जबरदस्ती मकान में घुस गए. कमरे के अंदर की हालत देख कर सभी के रोंगटे खड़े हो गए. कमरे में राख और हड्डियों के टुकड़े पड़े थे. जली हुई लकडि़यों से अभी भी धुआं निकल रहा था. पूरे मकान में मांस जलने की बदबू फैली हुई थी.

पड़ोसियों ने जब विजय से कहा कि लगता है यहां किसी आदमी को जलाया गया है? उस ने इस की खबर पुलिस को दी या नहीं तो उस ने सफाई देते हुए कहा कि उसे कुछ नहीं पता. सुबह जब वह यहां आया तो उस ने देखा कि उस के घर से धुआं उठ रहा है. लेकिन अभी उस ने कुछ किया नहीं है. वहां जमा लोग विजय से ही तरहतरह के सवाल करने लगे. जबकि उस का कहना था कि यह सब कैसे हुआ? उसे कुछ पता नहीं है. वह खुद ही घर में आग लगने से परेशान है. विजय ने तो पुलिस को इस घटना की जानकारी दी ही, मोहल्ले के भी कुछ अन्य लोगों ने भी पुलिस को फोन कर कर के विजय के घर में घटी घटना की सूचना दी. कुछ ही देर में पुलिस घटनास्थल पर पहुंच गई और विजय तथा मोहल्ले वालों से पूछताछ करने लगी. घटनास्थल के निरीक्षण के बाद पुलिस को लगा कि किसी को कुरसी से बांध कर जिंदा जलाया गया है. उस के बाद हड्डियों पर कैमिकल डाल कर गलाने की कोशिश की गई है, ताकि हत्या का कोई सबूत ही न रह जाए.

पुलिस ने जब सरिता के बारे में पूछताछ की तो मोहल्ले वालों से पता चला कि वह 23 अक्तूबर की शाम को वह अपने घर के पास नजर आई थी. उस के बाद वह दिखाई नहीं दी. मनरेगा से जुड़े लोगों से पूछताछ की गई तो वे उस के बारे में कुछ नहीं बता सके. इस से पुलिस को लगा कि सरिता को ही जला कर मारा गया है. पुलिस को केवल पैरों की हड्डियां मिली थीं, बाकी हड्डियों को कैमिकल से गला दिया गया था. अधजली चप्पलों से लाश की पहचान की गई थी. बेटी की इस हालत को देख कर वह दहाड़े मार कर रो रही थी. उन का कहना था कि उस की तो किसी से कोई दुश्मनी भी नहीं थी, वह दिनरात मन लगा कर काम करती थी, फिर उसे किस ने इस तरह बेरहमी से मार दिया.

कुसुम के बताए अनुसार सरिता की पति से नहीं पटती थी, इसलिए वह उस से अलग रहती थी. उस का पति कोई काम नहीं करता था. इस बात को ले कर दोनों में अकसर विवाद होता रहता था. पति के विवाद को भुला कर वह अपने बच्चों की बेहतर परवरिश और बेहतर कैरियर बनाने में लगी थी. वह अपने बच्चों को भी अपनी तरह इंजीनियर बनाने का सपना देख रही थी. उन्होंने बेटी की हत्या की आशंका तो जताई है, पर किसी पर शक नहीं जताया है. पुलिस ने सरिता के मकानमालिक विजय गुप्ता से पूछताछ की तो उस ने बताया कि सरिता से उस की पुरानी जानपहचान थी. वह उस के लिए मनरेगा की योजनाओं का स्टीमेट तैयार करता था. उसी के नए बन रहे मकान में वह विभागीय फाइलों का निपटारा करती थी. उस के पास मकान की एक चाबी भी रहती थी. वह उस के साथ मुरौल प्रखंड के अपने औफिस भी जाती थी. शुरुआती जांच में पुलिस को लगा कि सरिता की हत्या कहीं और कर के लाश को औफिस में ला कर जलाया गया था. जिस से हत्या का कोई सबूत न मिले. लेकिन जब सरिता के बेटे ध्रुव से पूछताछ की गई तो उस ने कुछ और ही बातें बताई थीं. हत्या की सूचना मिलने के बाद भी उस का पति सीतामढ़ी से अहियापुर नहीं आया था.

एक सवाल यह भी है कि हत्या करते समय या जब उसे कुरसी से बांध कर जिंदा जलाया जाने लगा था तो क्या वह चीखीचिल्लाई नहीं थी? अगर वह चीखीचिल्लाई तो आसपास के लोगों को उस की चीख सुनाई क्यों नहीं दी? कहीं ऐसा तो नहीं कि आसपड़ोस के लोग पुलिस के झमेले से बचने के लिए मुंह बंद किए बैठे हों? लाश को पूरी तरह से जलने में 3 से 4 घंटे लगते हैं. इस के अलावा मांस जलने की बदबू भी आती है. डीएसपी आशीप आनंद के अनुसार, मामले की जांच की जा रही है. पुलिस सरिता और उस के पति के बीच के विवाद, विजय गुप्ता के साथ उस के रिश्तों और मनरेगा के किसी ठेकेदार से विवाद की जांच कर रही है. मनरेगा के कामों को ले कर इंजीनियर, मुखिया और ठेकेदारों के बीच अकसर विवाद होते रहते हैं. विजय गुप्ता ने पुलिस को बताया था कि रोज की तरह वह सुबह मकान पर पहुंचा तो मकान के मेन गेट का ताला टूटा हुआ था. धक्का देते ही वह खुल गया तो अंदर से मांस के जलने की बदबू आई और धुआं उठता दिखाई दिया. इस के बाद उस ने तुरंत पुलिस को सूचना दे दी थी.

सरिता को जिंदा जलाने के मामले की जांच कर रही पुलिस का सिर तब चकरा गया, जब उसे सरिता के सुसाइड करने के संकेत मिले. सरिता की हत्या की गुत्थी सुलझाने में पुलिस के पसीने छूट रहे हैं. पुलिस और फोरैंसिक साइंस लैबोरेटरी की टीम कई बार राख में सुराग ढूंढ चुकी है, पर कुछ हाथ नहीं लगा है. घटनास्थल पर पुलिस को 4 गिलास मिले थे, जिस से अंदाजा लगाया गया था कि कत्ल वाली रात कुछ लोग सरिता से मिलने आए थे. अगले दिन कमरे की तलाशी में पुलिस को एक लिफाफा मिला था, जिसे लोगों ने सरिता का सुसाइड नोट समझा. लेकिन लिफाफे में क्या था, पुलिस यह बताने से बच रही है.

गोपनीय सूत्रों से पता चला है कि उस में सुसाइड नोट ही था, जिस में उस ने बेटे को इंजीनियर बनाने का जिक्र किया है. उस में किसी मुखिया का भी जिक्र है. विजय के बारे में लिखा है कि वह इंसान नहीं, भेडि़या है. उस ने मुखिया पर जिंदगी तबाह करने का आरोप लगाया है. इस के बाद से पुलिस के शक की सुई मुखिया की ओर घूम गई है, पर उस में किसी का नाम और पता नहीं लिखा है, इसलिए पुलिस अभी तक उस तक पहुंच नहीं पाई है. लेकिन पता लगा रही है कि कहीं मुखिया ने सरिता की हत्या कर उसे इस तरह जला कर खुदकुशी का रूप देने की कोशिश तो नहीं की. पुलिस सुसाइड नोट की हैंडराइटिंग और सरिता की हैंडराइटिंग का मिलान करा रही है. पुलिस सुसाइड नोट में उलझी थी कि अगले दिन यानी 25 अक्तूबर, 2016 को सरिता के एक पड़ोसी ने पुलिस को एक लिफाफा दिया, जिसे पुलिस ने खोला तो उस में 3 पन्ने मिले. उन में लाखों रुपए के लेनदेन की बातें लिखी थीं. उस के कई लोगों के पास लाखों रुपए बकाया थे. लेकिन किसी का नाम नहीं लिखा था. नाम की जगह कोड वर्ड का इस्तेमाल किया गया था.

पुलिस नाम पता करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि यह भी हो सकता है कि रुपयों के विवाद में उस की हत्या की गई हो? मनरेगा की योजनाओं में फैले भ्रष्टाचार की वजह से इस में शामिल अफसरों, ठेकेदारों और मुखियाओं के बीच अकसर विवाद होता रहता है. सरिता की मौत से कुछ दिनों पहले ही जिला गोपालगंज के कलेक्ट्रेट में एसडीओ आशुतोष ठाकुर और विजयपुरी प्रखंड के जेई विवेक मिश्र के बीच जम कर मारपीट हुई थी. कलेक्ट्रेट के कौशल विकास केंद्र भवन में तकनीकी पदाधिकारियों की बैठक चल रही थी. उसी दौरान दोनों में पहले तूतू मैंमैं हुई, उस के बाद मारपीट होने लगी.

हंगामा होने के बाद सारे इंजीनियर बाहर आ गए और एसडीओ पर गलत व्यवहार का आरोप लगाने लगे. एसडीओ ने जेई से कहा था कि वह सभी योजनाओं के बिल सुपर चेक नहीं कराता है. इस पर जेई ने कहा था कि 5 लाख रुपए तक के बिल को सुपर चेक करने का अधिकार उस का है. यह सुन कर एसडीओ आगबबूला हो गए और गालीगलौज करने लगे थे. गाली देने पर जेई को भी गुस्सा आ गया था और वह मारपीट करने लगा था. मारपीट का यह मामला भी थाना और अदालत तक पहुंच चुका है. जूनियर इंजीनियर सरिता की हत्या हुई या उस ने खुदकुशी की? इस बात का खुलासा करने में पुलिस को अभी तक कामयाबी नहीं मिल सकी है. उस की मां ने न किसी पर हत्या का आरोप लगाया है और न ही किसी से विवाद की पुष्टि की है. इस की वजह से पुलिस के हाथ कोई सुराग नहीं लग रहा है. सरिता के जले जिस्म की राख की तरह इस केस से उठता धुआं अब धीरेधीरे ठंडा पड़ने लगा है.

सोशल मीडिया बना गु्स्सा निकालने का साधन

आजकल इंटरनैट का साधन आम आदमियों का अपना गुस्सा निकालने का सहज साधन बन गया है. दिल्ली, मुंबई एयरपोर्टों पर अब बहुत अधिक भीड़ होने लगी है और लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह वायदा खूब याद आ रहा है कि वे देश के रेलवे स्टेशनों के एयरपार्टों जैसा थानेदार क्या देंगे. लीग वह रहे हैं कि एयरपोर्टों और स्टेशनों में बराबर की भीड़, पीक ने निर्माण, बाहर गाडिय़ों की अफरातफरी, धक्कामुक्की बराबर है. स्टेशन तो एयरपोर्ट नहीं बन सके पर एयरपोर्ट भारतीय स्टेशन जरूर बन गए है.

नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई.

आम हवाई चप्पल पहनने वाला हवार्ई यात्रा तो आज भी नहीं कर रहा पर हवाई चप्पल ही ऐसी मंहगी और फैशेनबेल हो गई है कि गोवा, चैन्नै, बंगलौर में कितने ही रबड़ की ब्राडेंट चप्पलें पहने भी दिख जाएंगे. वह वादा भी भी उन्होंने पूरा कर दिया.

सोयासिटों के लिए सुविधा के नाम पर कुछ स्टेशन ठीकठाक हुए है, वंदे मातरम नाम की कुछ ट्रेनें चली हैं पर आज अब किराए इतने बढ़ा दिए गए हैं कि एक  बार ट्रेन में जा कर 4 दिन खराब करना और 4 दिन की मजूरी खराब करना से हवाई यात्रा करना ज्यादा सस्ता है. रेलों के बढ़ते दाम, हवाई यात्रा के घटते दामों ने यह वादा भी पूरा कर लिया.

वैसे भी देश की जनता हमेशा वादों को सच होता ऐसे ही मानती रही जैसी वे मूॢत के आगे मन्नत को पूरी आगे मानते रहे हैं, 4 में से 1 काम तो हरेक का अपनी मर्जी का अपनेआप हो ही जाता है बीमार ठीक हो जाते हैं, देरसबेर छोटीमोटी नौकरी लग ही जाती है, लडक़ी को काला अनपढ़ा सा पति भी मिल जाता है, 10-20 साल बाद अपना मकान बन ही जाता है, 10 में से 2-3 के धंधे भी चल निकलते हैं और इन सब को मूॢत की दया समझ कर सिर झुकाने वाले, अंटी खाली करने वालों, चुनावी में से कुछ को भी सही होता देख कर वोट डाल ही आते हैं.

जहां तक हवाई यात्रा का सवाल है, यह देश के लिए जरूरी है, जैसे आज बिजली और उस से चलने वाली चीजें जैसे फ्रिज, कूलर, पंखा, बत्ती, एसी, टीवी मोबाइल, लैटपटौप आज हरेक के लिए जरूरी है, वैसे ही हवाई यात्रा हरेक के लिए जरूरी है. पहले जो शान हवाई यात्रा में रहती थी, जब टिकट आज के रुपए की कीमत के हिसाब से मंहगे थे, वह अब कहां. उस के रुपए की कीमत वे हिसाब से मंहगे थे, वह अब कहां. उस के लिए अमीरों ने प्राईवेट जेट रखने शुरू कर दिए है. नरेंद्र मोदी भी या तो 8000 करोड़ के प्राईवेट जेट में सफर करते हैं या 20-25 किलोमीटर की यात्रा हो तो हैलीकौप्टर में आतेजाते हैं. हवाई चप्पल पहनने वाली जनता इस शान की बात भूल जाए.

हवाई यात्रा जरूरी इसलिए है कि देश बहुत बड़ा है और लोग गांवों से शहरों की ओर जा रहे हैं. उन्हें जब भी गांव वापिस जाना होता है तो उन के पास 7-8 दिन रेल के सफर के नहीं होते. वे यह काम हवाई यात्रा से घंटों में कर सकते हैं.

दुनिया भर में हवाई यात्रा अब रेल यात्रा की तरह हो गई है. ट्रेनें और पानी के जहाज तो अब खास लोगों के लिए रह जाएंगी जिन में होटलों जैसी सुविधाए होंगी. लोग चलते या तैरते होटलों का मजा लेंगे और हवाई यात्रा बस काम के लिए करेंगे.

चलन: जाति के बंधन तोड़ रहा है प्यार

गांवकसबे हों या शहर, आज नौजवान पीढ़ी अपने मनचाहे साथी के लिए जाति, धर्म और दूसरे सामाजिक बंधन तोड़ रही है. जरूरत पड़ने पर ऐसे प्रेमी जोड़े घरपरिवार छोड़ कर भाग भी रहे हैं. जाति हो या धर्म हो या फिर रुतबा, सभी पारंपरिक बेडि़यों को तोड़ते हुए आज नौजवानों का प्यार परवान चढ़ रहा है.

19 साल के विकास और 16 साल की स्नेहा की दोस्ती 2 साल पहले स्कूल में शुरू हुई थी. स्नेहा बताती है, ‘‘हमारी पहली मुलाकात स्कूल के रास्ते में हुई थी. यह पहली नजर का प्यार नहीं था. शुरुआत दोस्ती से हुई थी, फिर नंबर ऐक्सचेंज हुए और हमारी बातें होने लगीं.

‘‘मैं ने विकास से 3 वादे कराए थे. पहला, ये मुझे अपने परिवार से मिलाएंगे. दूसरा, मुझ से शादी करेंगे और तीसरा, अपना कैरियर बनाएंगे,’’ यह बताती हुई स्नेहा का चेहरा सुर्ख हो गया.

एक तरफ इन का इश्क परवान चढ़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ स्नेहा के मातापिता का पारा. उस के पिता ने उसे फोन पर विकास से बात करते हुए सुन लिया था. अगले ही पल स्नेहा का फोन तोड़ कर फेंका जा चुका था और वह पिटाई के बाद रोते हुए एक कोने में दुबक गई थी.

विकास को जब इस सब का पता चला, तो उस ने स्नेहा को कुछ औरदिन बरदाश्त करने की बात कही. उन दोनों को यकीन था कि वे जल्द ही शादी कर लेंगे.दिसंबर की सर्दियों में दोपहर के तकरीबन 2 बजे होंगे. विकास एक कंपनी में नाइट ड्यूटी के बाद घर वापस आया था. उस की मां उस के लिए खाना गरम कर रही थीं कि तभी स्नेहा अचानक उन के घर चली आई. कड़कड़ाती सर्दी में उस के शरीर पर सिर्फ एक ढीला टौप और जींस थी.स्नेहा ने विकास की बांह पकड़ कर रोते हुए कहा, ‘‘यहां से चलो, अभी चलो. मेरे घर वाले तुम्हें मार डालेंगे…’’ और विकास उस के साथ निकल गया.

विकास के माबाप को लगा कि वे आसपास ही कहीं जा रहे होंगे, इसलिए उन्होंने दोनों को रोकने की कोशिश भी नहीं की.विकास ने उस दिन के बारे में बताया, ‘‘हम पैदल चल कर जयपुर पहुंचे और वहां हम ने रात बसअड्डे पर बिताई. हम पूरी रात जागते रहे. फिर हम ने जयपुर के पास ही एक गांव में किराए पर छोटा सा कमरा ले लिया और साथ रहने लगे.’’

स्नेहा बताती है कि वे दोनों वहां खुश थे, लेकिन विकास के परिवार को धमकियां मिल रही थीं. उस के मातापिता ने थाने में उन के लापता होने की शिकायत दर्ज कराई थी और स्नेहा के मातापिता जयपुर महिला आयोग जा चुके थे, इसलिए विकास ने अपने घर में फोन कर के अपना ठिकाना बताया.

इस बीच मैडिकल रिपोर्ट भी आगई थी, जिस में विकास और स्नेहा के बीच जिस्मानी संबंध होने की बात कही गई थी.पुलिस ने विकास को पोक्सो ऐक्ट यानी प्रोटैक्शन औफ चिल्ड्रेन फ्रोम सैक्सुअल औफैंस और रेप के आरोप में जेल में डाल दिया. उस ने जेल में 6 महीने बिताए. वहां रोज स्नेहा को याद कर के वह रोता था.क्या इस दौरान उन दोनों का भरोसा नहीं डगमगाया? एकदूसरे के पलटने का डर नहीं लगा? विकास के मन में थोड़ा डर जरूर था, लेकिन स्नेहा ने न में सिर हिलाया. उस ने कहा, ‘‘मैं ने सब समय पर छोड़ दिया था.’’

मामला अदालत में पहुंचा. स्नेहा ने जज के सामने अपने परिवार के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया. उस ने बताया, ‘‘मैं ने कोर्ट में सचसच बता दिया कि मैं इन्हें ले कर घर से निकली थी, ये मुझे नहीं. हम दोनों अपनी मरजी से साथ हैं. इस पूरे मामले में इन की कोई गलती नहीं है.’’

जज ने फैसला सुनाया, ‘‘दोनों याचिकाकर्ता अपनी मरजी से साथ हैं. यह भी नहीं कहा जा सकता कि लड़की समझदार नहीं है. लेकिन चूंकि अभी दोनों नाबालिग हैं, इन्हें साथ रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती.’’

जज ने विकास पर लगे पोक्सो ऐक्ट और रेप के आरोपों को भी खारिज कर दिया.राजस्थान के कोटा जिले के 28 साल के मनराज गुर्जर ने पिछले साल 30 दिसंबर को बांरा जिले की सीमा शर्मा से शादी कर ली. शादी में दोनों के परिवार खुशीखुशी शामिल हुए. राजस्थान यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान दोनों में प्यार हुआ. मनराज राजस्थान पुलिस में सबइंस्पैक्टर हैं, तो सीमा स्कूल में टीचर. पर हर किसी की कहानी इन दोनों की तरह नहीं है. जयपुर की रहने वाली दलित समाज की पूनम बैरवा को ओबीसी समुदाय के सचिन से शादी के लिए न सिर्फ सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, बल्कि उन के परिवार ने भी उन से नाता तोड़ लिया. ऐसा भी नहीं है कि यह हौसला बड़े शहरों की ओर रुख करने वाले ज्यादा पढ़ेलिखे नौजवानों में ही देखा जा रहा है, छोटे कसबों की कहानी तो और भी हैरानी भरी है.

अलवर जिले के तिजारा थाना इलाके के एक गांव की बलाई (वर्मा) जाति की खुशबू ने घर से भाग कर यादव जाति के किशन के साथ शादी रचा ली. जयपुर के महिला एवं बाल विकास संस्थान की सहायक निदेशक तारा बेनीवाल बताती हैं, ‘‘पिछले 2 साल में जयपुर में तकरीबन 30 लड़कियों ने अंतर्जातीय विवाह प्रोत्साहन राशि के लिए आवेदन किया है.’’ अजमेर के सरवाड़ इलाके के विजय कुमार ने जब सुनीता से अंतर्जातीय शादी की, तो उन्हें न केवल परिवार से अलग होना पड़ा, बल्कि पानी, बिजली और शौचालय जैसी सुविधाओं से भी वंचित कर दिया गया. समाज ने उन का बहिष्कार कर दिया. इस दर्द को विजय कुमार कुछ यों बयान करते हैं, ‘‘लोग कहते हैं कि मैं आवारा निकल गया, बिरादरी की नाक कटा दी. आखिरी समय तक शादी तोड़ने की कोशिश की गई.’’ यहां तक कि बेटियों की आजादी पर भी बंदिश लगाई जाती है. 26 सितंबर, 2020 को अंतर्जातीय शादी करने वाली ज्योति बताती हैं, ‘‘मेरे परिवार वाले समाज के तानों से दुखी हैं. लोग कहते हैं कि बेटी को ज्यादा छूट देने की वजह से उस ने नीच जाति के लड़के से शादी कर ली. मांबाबूजी को तो यह भी फिक्र है कि दूसरे बेटेबेटियों की शादी कैसे होगी?’’

विजय कुमार अपने प्यार का राज खोलते हैं, ‘‘हम दोनों का संपर्क मोबाइल फोन के जरीए हुआ और उसी के जरीए परवान भी चढ़ा.’’जाहिर है कि मोबाइल और दूसरी तकनीकों और पढ़ाईलिखाई ने दूरियां मिटा दी हैं. जयपुर के महारानी कालेज में इतिहास की प्रोफैसर नेहा वर्मा इसी ओर इशारा करती हैं, ‘‘मर्दऔरत के बीच समाज ने जो अलगाव गढ़े थे, वे खत्म हो रहे हैं. दोनों के बीच आपसी मेल बढ़ा है, खासकर औरतें घर की दहलीज लांघ रही हैं.’’ अंतर्जातीय प्यार या शादी करने वालों को थोड़ीबहुत रियायत तो मिल भी जाती है, लेकिन अंतर्धार्मिक रिश्तों के लिए परिवार और समाज कतई तैयार नहीं होता.

अजमेर जिले के किशनगढ़ की 20 साला सकीना बानो ने जब घर से भाग कर 22 साल के अमित जाट से शादी की, तो उन्हें न केवल सामाजिक बुराई सहनी पड़ी, बल्कि उन के परिवार वालों ने अमित और उस की मां को जान से मारने और घर जलाने की धमकी तक दी.

मजबूरन उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा और सकीना को पुनर्वास केंद्र भेज दिया गया. लेकिन अब अदालत के आदेश के बाद नवंबर, 2020 से दोनों पतिपत्नी की तरह रह रहे हैं. सकीना अब एक बेटे की मां बन गई है. उस के पिता अब बेहद बीमार हैं, पर बेटी से मिलना तक नहीं चाहते. अमित की मां भी सकीना को ले कर सहज नहीं हैं वहीं टोंक जिले की ही मनीषा की कहानी लव जिहाद की थ्योरी गढ़ने वाले संघी समूहों के मुंह पर करारा तमाचा है. 16 अप्रैल, 2022 को वह अपने प्रेमी मोहम्मद इकबाल के साथ घर से भाग गई.

भला समाज और परिवार को यह कैसे मंजूर होता. मनीषा के पिता जयनारायण ने इकबाल और उस के पिता हसन के खिलाफ अपहरण की प्राथमिकी दर्ज कराई. इस से बचने के लिए मनीषा और इकबाल ने अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया. समाज और परिवार का अडि़यल रुख ही है कि ऐसे ज्यादातर प्रेमी जोड़ों को प्यार या शादी के लिए घर से भागना पड़ रहा है. लेकिन वे उन से पीछा नहीं छुड़ा पाते, क्योंकि परिवार वाले उन के खिलाफ अपहरण और बहलाफुसला कर शादी करने का मामला दर्ज करा देते हैं. लेकिन इस से नौजवानों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा.

इस सिलसिले में राजस्थान पुलिस के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. प्यार के मामलों में घर छोड़ कर भागने वाले नौजवानों की  तादाद में तकरीबन 6 गुना की बढ़ोतरी हुई है. पुलिस ने राज्य में अपहरण के दर्ज मामलों की जांच के बाद खुलासा किया है कि साल 2013 में जहां प्यार की खातिर घर से भागने वालों की तादाद सिर्फ 172 थी, वहीं साल 2021 में 763 हो गई और यह तादाद सिर्फ अपहरण के दर्ज मामलों की है.ब्राह्मण जाति की अंकिता और बहुत पिछड़ी जाति से आने वाले उन के पति के परिवारों में रिश्ते सामान्य होने में 3 साल लग गए. इस के लिए अंकिता के भाई ने ही पहल की. दोनों के 2 बच्चे भी हो गए हैं, तो वहीं कई लड़कियां पुनर्वास केंद्र में अपने प्रेमी से मिलने के इंतजार में दिन काट रही हैं. तमाम दुखों के बावजूद उन का हौसला नहीं टूटा है.

बेडि़यां तोड़ते इस प्यार को मनीषा के इस हौसले में देखा जा सकता है, ‘‘हमारे रिश्ते को जाति और धर्म के बंधन में नहीं बांधा जा सकता. कोई भी मुश्किल हमें डिगा नहीं सकती.’’प्रोफैसर नेहा वर्मा कहती हैं, ‘‘समाज में जहां एक तरफ धर्म और जाति का राजनीतिकरण बढ़ा है, वहीं दूसरी तरफ इन में दरारें भी पैदा हो रही हैं. नौजवान उन को चुनौती भी दे रहे हैं. लिहाजा, बांटने वाली ताकतों की प्रतिक्रिया भी बढ़ी है. लव जिहाद का झूठा मिथक इस की मिसाल है.’’

इन 6 पाइंट्स से जानिए खुले में शौच का असली शिकार कौन

डकैत समस्या के चलते कभी दुनियाभर में कुख्यात रहे ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों की हालत यह हो गई है कि यहां के लोग अब लाइसैंसी हथियारों का इस्तेमाल डकैती डालने या खुद के बचाव के लिए नहीं, बल्कि इत्मीनान से खुले में शौच करने के लिए करने लगे हैं. इन इलाकों के कई गांवों के लोग सुबह जंगल में जाते वक्त एक हाथ में लोटा या पानी की बोतल और दूसरे हाथ में हथियार ले कर शौच के लिए जाते हैं. इन्हें खतरा दुश्मनों या फिर जंगली जानवरों से नहीं, बल्कि उन सरकारी मुलाजिमों से है जिन्होंने खुले में शौच रोकने का बीड़ा उठाया हुआ है, जिस से कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2 साल पहले शुरू की गई स्वच्छ भारत मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया जा सके.

ग्वालियर जिला पंचायत के सीईओ नीरज कुमार को अपर जिला दंडाधिकारी शिवराज शर्मा से झक मार कर यह सिफारिश करनी पड़ी थी कि आधा दर्जन गांवों के तकरीबन 55 बंदूकधारियों के लाइसैंस रद्द किए जाएं क्योंकि ये बंदूक के दम पर खुले में शौच जाते हैं और अगर सरकारी मुलाजिम इन्हें रोकते हैं तो ये गोली चला देने की धौंस देते हैं. मजबूरन सरकारी अमले को उलटे पांव वापस लौटना पड़ता है. ये लोग बदस्तूर खुले में शौच करते रहते हैं. 10 जनवरी को ऐसी ही शिकायत एक ग्राम रोजगार सहायक घनश्याम सिंह दांगी ने उकीता गांव के निवासी अजय पाठक के खिलाफ दर्ज कराई थी. इस बारे में जनपद पंचायत मुरार के सीईओ राजीव मिश्रा की मानें तो गांव में स्वच्छ भारत मुहिम के तहत सुबहसुबह निगरानी करने के लिए टीम गठित की गई थी. उकीता गांव में अजय खुले में शौच कर रहा था. जब उसे खुले में शौच न करने की समझाइश दी गई तो उस ने जान से मारने की धमकी दे दी.

  1. कार्यवाही या ज्यादती

खुले में शौच से लोगों को रोकने के लिए सरकारी मुलाजिम किस कदर मनमानी करने पर उतारू हो गए हैं, यह अब आएदिन उजागर होने लगा है. मध्य प्रदेश के ही उज्जैन से एक वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था जिस में सरकारी मुलाजिम खुले में शौच करते एक बेबस, बूढ़े आदमी से उठकबैठक लगवा रहे हैं और उसे अपना मैला हाथ से उठा कर फेंकने को मजबूर भी कर रहे हैं. वायरल हुए इस वीडियो पर खूब बवाल मचा था पर इस बिगड़ैल सरकारी मुलाजिम का कुछ नहीं बिगड़ा था. इस से यह जरूर साबित हुआ था कि स्वच्छ भारत अभियान अब एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर जा पहुंचा है जिस के शिकार वे गरीब दलित ज्यादा हो रहे हैं, जिन के यहां शौचालय इसलिए नहीं हैं कि उन का अपना कोई घर ही नहीं है.

जिन गरीबों के पास अपने घर हैं भी, तो उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे जैसे भी हो, पहले घर में शौचालय बनवाएं जिस के पीछे छिपी मंशा यह है कि जिस से गांव देहातों के रसूखदार लोगों को बदबू व बीमारियों का सामना न करना पड़े. ग्वालियर और उज्जैन के मामलों में फर्क इतनाभर है कि ग्वालियर के लोग हथियारों के दम पर ही सही, सरकारी मुलाजिमों से जूझ पा रहे हैं लेकिन उज्जैन और देश के दूसरे देहाती व शहरी इलाकों के लोग न तो दबंग हैं और न ही उन के पास शौच करने जाने के लिए हथियार हैं. इसलिए वे खामोशी से ऊंचे वर्गों व सरकारी मुलाजिमों की गुंडागर्दी बरदाश्त करने को मजबूर हैं. उज्जैन का वायरल वीडियो इस की एक उजागर मिसाल थी, जिस में एक गरीब, कमजोर, बूढ़े के साथ जानवरों से भी ज्यादा बदतर बरताव किया गया.

जाहिर है जान पर नहीं बन आती तो ग्वालियर व चंबल संभागों के इलाकों में भी उज्जैन सरीखा शर्मनाक वाकेआ दोहराया जाता. हथियारों से निबटते बीते साल अगस्त में ग्वालियर प्रशासन ने यह फरमान जारी किया था कि जो लोग खुले में शौच करते पाए जाएंगे उन के हथियारों के लाइसैंस रद्द कर दिए जाएंगे. इस पर भी बात न बनी तो प्रशासन ने जुर्माने का रास्ता अख्तियार कर लिया. इस साल जनवरी के दूसरे हफ्ते में ग्वालियर की घाटीगांव जिला पंचायत के 2 गांवों सुलेहला और आंतरी के 21 लोगों पर प्रशासन ने 7 लाख 95 हजार रुपए की भारीभरकम राशि का जुर्माना ठोका था, तो भी खूब बवाल मचा था कि यह तो सरासर ज्यादती है. इतनी भारी रकम गरीब लोग कहां से लाएंगे जो पिछड़े और दलित हैं. यह तो इन पर जुल्म ही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सरकारी अफसरों व मुलाजिमों के हाथ में एक कानूनी डंडा थमा दिया है जिस के आगे दूसरे हथियार ज्यादा दिनों तक टिक पाएंगे, ऐसा लगता नहीं क्योंकि खुले में शौच पर जुर्माने की रकम अब मजिस्ट्रेटों के जरिए वसूली जाएगी. अगर जुर्माने की राशि नकद नहीं भरी गई तो शौच करने वालों की जमीनजायदाद कुर्क करने का हक भी सरकार को है. जिस के पास जमीनजायदाद नहीं होगी, उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा. बात अकेले ग्वालियर, चंबल या उज्जैन संभागों की नहीं है, बल्कि देशभर में सरकारी मुलाजिम शौच की आड़ में गरीब, दलित और पिछड़ों पर तरहतरह के जुल्म ढा रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि जिन राज्यों में भाजपा का राज है वहां ऐसा ज्यादा हो रहा है. कुछ पीडि़तों को 1975 वाली इमरजैंसी याद आ रही है जब गरीब नौजवानों को पकड़पकड़ कर उन की नसबंदी कर दी गई थी. इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी में फर्क नहीं रह गया जिन के मुंह से निकली ख्वाहिश ही कानून बन जाती है.

होना तो यह चाहिए था कि प्रशासन हर जगह लोगों में पल्स पोलियो मुहिम की तरह जागरूकता पैदा कर खुले में शौच के नुकसान गिनाते लोगों को उन की सेहत के बाबत आगाह करता, उन्हें शौचालय में शौच करने के फायदे गिनाता. पर, हो उलटा रहा है. सरकारी तंत्र 1975 की तरह बेलगाम हो कर कार्यवाही कर रहा है जिस की बड़ी गाज गांवदेहातों के गरीबों, दलितों और पिछड़ों पर गिर रही है. खुलेतौर पर खुले में शौच और जाति का कोई सीधा ताल्लुक नहीं है पर यह हर कोई जानता है कि अधिकांश दलित गरीब हैं, उन के पास रहने को पक्के तो दूर, कच्चे घर भी नहीं हैं. इसलिए वे खुले में शौच करने को मजबूर होते हैं. ऐसे में इसे जुर्म मानना, उन के साथ नाइंसाफी नहीं तो क्या है?

शौचालय बनवाने के नाम पर हर जगह हेरफेर और घोटाले सामने आने लगे हैं तो लगता है कि भ्रष्टाचार और मनमानी का लाइसैंस सरकारी मुलाजिमों के साथ उन दबंगों को भी मिल गया है जिन का समाज पर खासा दबदबा है. ये दोनों मिल कर शौच के नाम पर कार्यवाही नहीं, बल्कि गुंडागर्दी कर रहे हैं. दिक्कत यह है कि कोई इन के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा. लोगों का पहला अहम काम जुर्माने और सजा से खुद को बचाना है. हालात नोटबंदी जैसे शौच के मामले में भी हो चले हैं कि अगर नए नोट चाहिए तो बदलने के लिए बैंक की लाइनों मेें खामोशी से खड़े रहो वरना मेहनत से कमाए नोट रद्दी हो जाएंगे. जो भी किया जा रहा है वह तुम्हारे उस भले के लिए है जिसे तुम नहीं जानतेसमझते.

यज्ञ, हवन, उपवास, दान, दक्षिणा क्यों कराए जाते हैं? ताकि तुम्हारा यह जन्म व अगला जन्म सुधरे. कैसे सुधारोगे, यह हम कुछ विशेष लोग जानते हैं, आम दलित, गरीब को जानने की जरूरत नहीं. वह पिछले जन्मों के पाप का दंड भोगता रहे. नोटबंदी और खुले में शौच का दिलचस्प कनैक्शन यह है कि अब बैंकों की तरह सार्वजनिक और सुलभ शौचालयों में भीड़ उमड़ने लगी है. कार्यवाही के डर से खुले में शौच करने वाले एक बार पेट हलका करने के लिए 5 रुपए खर्च कर रहे हैं जिस से उन का रोजाना का एक खर्च बढ़ गया है. अगर एक परिवार में 4 सदस्य हैं तो वह 20 रुपए की मार भुगत रहा है जबकि उस की कमाई ज्यों की त्यों है. बल्कि, अब तो नोटबंदी के बाद कमाई और कम हो गई है.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में आधा दर्जन सुलभ कौंपलैक्स हैं. इस इलाके में झुग्गीझोंपडि़यों की भी भरमार है. कुछ दिनों पहले तक झुग्गी के लोग 2-4 किलोमीटर दूर जा कर रेल पटरियों के किनारे या सुनसान में मुफ्त में पेट हलका कर आते थे पर अब सरकारी टीमें कभी सीटियां, तो कभी कनस्तर बजा कर उन्हें ढूंढ़ने लगी हैं. ये लोग अब सुलभ और सार्वजनिक शौचालयों की लाइनों में खड़े नजर आने लगे हैं. अगर सहूलियत से और समय पर शौच करना है तो सुलभ कौंपलैक्स में 5 रुपए इन्हें देने पड़ते हैं. मुफ्त वाले शौचालयों में हफ्तों सफाई नहीं होती, गंदगी और बदबू की वजह से इन के आसपास मवेशी भी नहीं फटकते. पर, वे गरीब जरूर कभीकभार हिम्मत कर इन में चले जाते हैं जिन की जेब में 5 रुपए भी नहीं होते.

एमपी नगर इलाके में ही सरगम टाकीज के पास एक झुग्गीझोंपड़ी बस्ती के बाशिंदे गजानंद, जो महाराष्ट्र से मजदूरी करने यहां आए, का कहना है कि उस के परिवार में 6 लोग हैं जो शौच के लिए अब हबीबगंज रेलवे स्टेशन के सुलभ कौंप्लैक्स में जाते हैं जिस से 30 रुपए रोज अलग से खर्च होते हैं. अगर शाम को भी जाना पड़े तो यह खर्च दोगुना हो जाता है. गजानंद बताता है, हम जैसे गरीबों पर यह दोहरी मार है. सरकार हल्ला तो बहुत मचा रही है पर मुफ्त वाले शौचालय बहुत कम हैं.

2. यहां है गड़बड़झाला

खुले में शौच करने वाले आज स्थानीय निकायों की आमदनी का एक बड़ा जरिया बन गए हैं. पंचायतों से ले कर नगरनिगमों तक ने फरमान जारी कर दिए हैं कि जो भी खुले में शौच करता पाया जाएगा, उस से जुर्माना वसूला जाएगा. यह जुर्माना राशि 50 रुपए से ले कर 5 हजार रुपए तक है. मध्य प्रदेश के तमाम नगरनिगम, नगरपालिकाएं, नगरपंचायतें और ग्रामपंचायतें रोज खुले में शौच करने वालों से जुर्माना वसूलते अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं.

स्थानीय निकायों को ऐसे नियम, कायदे व कानून बनाने के हक होने चाहिए कि नहीं, यह अलग और बड़ी बहस का मुद्दा है पर प्रधानमंत्री को खुश करने की होड़ में यह कोई नहीं सोच रहा कि जिस की जेब में जुर्माना देने लायक राशि होती, वह भला खुले में शौच करने जाता ही क्यों. यह मान भी लिया जाए कि कोई 8-10 फीसदी लोगों की खुले में शौच करने की ही आदत पड़ गई है जबकि उन के घर पर शौचालय हैं तो इस की सजा बाकी 90 फीसदी लोगों को क्यों दी जा रही है?

3. परेशानियां तरह तरह की

जो लोग जुर्माना नहीं भर पा रहे हैं, उन के खिलाफ तरहतरह की दिलचस्प लेकिन चिंताजनक कार्यवाहियां की जा रही हैं. इन्हें देख लगता है कि देश में लोकतंत्र और उसे ले कर जागरूकता नाम की चीज कहीं है ही नहीं. इन वाकेओं को देख ऐसा लगता है कि खुले में शौच करने वालों को जागरूक नहीं, बल्कि जलील किया जा रहा है.

कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के ही सागर जिले में बसस्टैंड पर सुबहसुबह एक ड्राइवर और बसकंडक्टर को नगरनिगम के मुलाजिमों अशोक पांडेय व वसीम खान ने मुरगा बनाया. बसकंडक्टर और ड्राइवर का गुनाह इतना भर था कि वे खुले में शौच करते पकड़े गए थे.

इतना ही नहीं, सागर के ही लेहदरा नाके के इलाके में तो बेलगाम हो चले मुलाजिमों ने खुले में शौच करने वालों को पकड़ कर उन्हें राक्षस का मुखौटा पहना कर उन के साथ मोबाइल फोन से सैल्फी ली. महाराष्ट्र के बुलढाना जिले में प्रशासन ने फरमान जारी किया था कि जो भी खुले में शौच करने वालों के साथ सैल्फी खींच कर लाएगा, उसे इनाम में नकद 5 सौ रुपए दिए जाएंगे. इस का नतीजा यह हुआ कि लोग सुबहसुबह अपना मोबाइल फोन हाथ में ले कर झाडि़यों में झांकते फिरे ताकि कोई शौच करता मिल जाए तो उस के साथ सैल्फी ले कर 5 सौ रुपए कमाए जा सकें.

मनमानी और ज्यादती का आलम यह है कि रतलाम के मैदानों में नगरपरिषद हैलोजन लैंप और बल्ब लगा कर रोशनी के इंतजाम कर रही है जिस से खुले में शौच करने वालों पर नकेल डाली जा सके. हैलोजन बल्ब को लगाने का पैसा है पर गांवों, गंदी बस्तियों में सीवर लगाने का पैसा नहीं है ताकि घरों में ढंग के शौचालय बन सकें.

इस से भी एक कदम आगे चलते सागर नगरनिगम के कमिश्नर कौशलेंद्र विक्रम सिंह ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को हुक्म दिया हुआ है कि खुले में शौच को रोकने के लिए वे कलशयात्राएं निकालें, शाम को भजन गाएं और जगहजगह तुलसी के पौधे लगाएं. तुलसी को हिंदू पवित्र पौधा मानते हैं, इसलिए उस के आसपास शौच करने में हिचकिचाएंगे, ऐसा इन साहब का सोचना था.

4. जाति और धर्म से गहरा नाता

कोई अगर यह सोचे कि भला खुले में शौच से जाति और धर्म से क्या वास्ता, तो यह खयाल नादानी और गलतफहमी ही है. हकीकत यह है कि खुले में शौच का उम्मीद से ज्यादा और गहरा ताल्लुक जाति व धर्म से है जो अधिकांश लोगों की समझ में नहीं आ रहा. 2014 के लोकसभा चुनावप्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने साफ कहा था कि देवालयों यानी मंदिरों से ज्यादा जरूरी शौचालय हैं. तब गरीब लोग यह समझ कर खुश हुए थे कि मोदी सरकार जगहजगह पक्के शौचालय बनवाएगी और उन्हें जिल्लत व जलालत से छुटकारा मिल जाएगा.

केंद्र सरकार ने जैसे ही यह फरमान जारी किया कि खुले में शौच करने वालों पर 5 हजार रुपए तक का जुर्माना लगाया जाए तो सब से पहले जैन समुदाय के लोग चौकन्ना हुए. क्योंकि जैन मुनि हिंसा के अपने उसूल का पालन करते खुले में ही शौच करते हैं. जगहजगह से मांग उठी कि जैन मुनियों को खुले में शौच की छूट दी जाए.

ये लाइनें लिखे जाने तक केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने खुलेतौर पर इस बात की  घोषणा नहीं की थी पर चर्चा है कि केंद्र सरकार ने जैन मुनियों को खुले में शौच करने की छूट देने का मन बना लिया है. दरअसल, भाजपा जैन वोटरों को नाराज नहीं करना चाहती. अगर सरकार इस तरह की किसी छूट का ऐलान करेगी तो तय है देशभर में बवाल मच जाएगा क्योंकि फिर गरीब, दलित भी अपने लिए इस तरह की छूट की मांग करते आसमान सिर पर उठा लेंगे.

बात अकेले जैन मुनियों की नहीं है, बल्कि लाखों की तादाद में नदियों के किनारे रह रहे हिंदू साधुसंतों की भी है जिन का कोई घर नहीं होता. ये साधु मंदिरों में रहते हैं और धड़ल्ले से खुले में शौच करते हैं. अभी तक एक भी मामला ऐसा सामने नहीं आया है जिस में निगरानी टीमों या सरकारी मुलाजिमों ने किसी साधु, संत या मुनि पर खुले में शौच करने के जुर्म के एवज में जुर्माना लगाया हो या समझाइश दी हो.

5. असल मार इन पर

आजादी के समय देश की 70 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी. इस में से अधिकतर लोग दलित, पिछड़े और आदिवासी होते थे. हालात अब और बदतर हैं. अब खुले में शौच जाने वाले 90 फीसदी लोग इन्हीं जातियों के हैं. इन्हें आज कानून के नाम पर तंग किया व हटाया जा रहा है. दलित, आदिवासी तबके के लोगों को मुद्दत तक शौचालयों से दूर रखा गया क्योंकि खुले में शौच जाना इन की एक अहम पहचान होती थी. ठीक वैसे ही, जैसे गले में लटकता जनेऊ ब्राह्मण की पहचान होती थी, जो आज भी है.

यह कड़वा सच आजादी के बाद आज तक कायम है कि अभी भी 85 फीसदी दलित गरीब ही हैं जो झुग्गीझोंपड़ी बना कर रहते हैं. पढ़ेलिखे होने के बावजूद ये शौचालय की अहमियत नहीं समझते थे. अब आरक्षण के जरिए जो लोग सरकारी नौकरी पा गए हैं, वे घरों में शौचालय बनवा रहे हैं. इस सच का एक दूसरा पहलू यह है कि वे घर बनाने लगे हैं.

अब न केवल सियासी बल्कि सामाजिक तौर पर यह हो रहा है कि पैसे वाले दलितों को सवर्णों के बराबर माना जाने लगा है. वे पूजापाठ कर सकते हैं और दानदक्षिणा भी पंडों को दे सकते हैं. जाहिर है सवर्ण जैसे हो गए इन्हीं दलितों के यहां शौचालय हैं. इन की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. इन्हें देखदेख कर ही ऊंची जाति वाले चिल्लाचिल्ला कर यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, जातिवाद और छुआछूत खत्म हो गई क्योंकि दलित अब खुलेआम मंदिर में जा रहा है. पूजापाठ भी कर रहा है और तो और, उस के यहां शौचालय भी है जो पहले नहीं हुआ करता था.

दरअसल, हकीकत सामने आ न जाए, इस का नया टोटका खुले में शौच का मुद्दा है. बढ़ते शहरीकरण के चलते अब जंगल और जमीन कम हो चले हैं जिस सेपक्के मकानों में रहने वाले ऊंची जाति वालों को खुले में शौच जाने वालों से परेशानी होने लगी थी. गांवों में भी जमीनें कम हो चली हैं. गरीब, मजदूर और किसान अपनी जमीनें बेच कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं. गांवों में पहले सार्वजनिक जमीन बहुत होती थी जो अब न के बराबर हो गई है. कुछ सरकार या ग्राम सभाओं ने बेच खाई तो कुछ पर कब्जा हो गया. आम गरीब, जिन में दलित ज्यादा हैं, के लिए शौचालय न गांव में था और न ही शहर में है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक बिछी रेल की पटरियां इस की गवाह हैं जहां रोज करोड़ों लोग हाथ में पानी की बोतल ले कर उकड़ूं बैठे देखे जा सकते हैं. चूंकि रेल की जमीन सरकारी है, कोई स्थानीय दबंग रेलवे की जमीन पर शौच करते किसी को धमका नहीं सकता.

जिन के पास 5 रुपए शौच के लिए सुलभ कौंप्लैक्स में जाने के नहीं हैं उन की जेब से खुले में शौच के जुर्माने के नाम पर 5 सौ या 5 हजार रुपए निकालना लोकतंत्र तो दूर, इंसानियत की बात भी नहीं कही जा सकती.

धर्म और जाति के नाम पर अत्याचार खत्म हो गए हैं, यह नारा पीटने वालों को एक दफा खुले में शौच के लिए जाने वालों की हालत देख लेनी चाहिए कि वे जस के तस हैं. बस, अत्याचार करने का तरीका बदल गया है. दलित की जगह गरीब शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा है जिस से जाति छिपी रहे. भोपाल नगरनिगम के एक मुलाजिम का नाम न छापने की गुजारिश पर कहना है कि यह सच है कि लोग खुले में शौच करते पकड़े जा रहे हैं, इन में 70 फीसदी दलित, 20 फीसदी पिछड़े और 10 फीसदी सवर्ण, मुसलमान व दूसरी जाति के लोग हैं.

दरअसल, सारा खेल वे दबंग लोग खेल रहे हैं जिन के हाथ में समाज और राजनीति की डोर है. उन्होंने अब खुले में शौच को अत्याचार करने का हथियार बना डाला है. मंशा पहले की तरह समाज और राजनीति पर खुद का दबदबा बनाए रखने की है. और अगर कोई भेदभाव नहीं हो रहा, तो यह बताने को कोई तैयार नहीं

कि साधुसंतों और मुनियों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की जाती. साफ है कि सिर्फ इसलिए कि वे धर्म के ठेकेदार हैं. उन्हें कोई रोकेगा तो तथाकथित पाप का भागीदार हो जाएगा.

6. गरीबी का सच और शौच

लोगों को साफसफाई की अहमियत कानून के डंडे से सिखाया जाना न तो मुमकिन है और न ही तुक की बात है. इस की जिम्मेदार एक हद तक सरकार की नीतियां भी हैं. ग्वालियर व चंबल संभागों के लोगों के पास हथियार हैं पर शौचालय नहीं, इस का राज क्या है? कुछ लोग घर में शौचालय बनाने की माली हैसियत रखते हैं पर नहीं बनवा रहे, तो इस की वजह क्या है?

राज और वजह यह है कि अधिकतर दलित आदिवासी और अति पिछड़े बीपीएल कार्ड वाले हैं. स्वच्छ भारत मुहिम ने इन के गरीब होने के माने और पैमाने बदल दिए हैं. बीपीएल सूची में शामिल लोगों को काफी सरकारी सहूलियतें और रियायती दामों पर राशन वगैरा खरीदने की छूट मिली हुई है. सरकार गरीब उसे ही मानती है जिस के बीपीएल ग्रेडिंग सिस्टम में 14 या उस से कम नंबर हों. जिस के घर में शौचालय होता है उसे सर्वे में 4 अंक दे दिए जाते हैं. जिन के 10 या 12 अंक हैं, उन में से अधिकतर लोग शौचालय इसलिए नहीं बनवा रहे कि अगर ये 4 अंक भी जुड़ गए तो वे 14 अंक पार कर जाएंगे और गरीब नहीं माने जाएंगे यानी उन से सारी सहूलियतें छिन जाएंगी.

ऐसे में सरकारी इमदाद से ही सही, शौचालय बनवा कर गरीब लोग अगर अपनी गरीबी नहीं छोड़ना चाह रहे हों तो इस में उन की गलती क्या, गलती तो सरकारी योजनाओं की खामियों और पैमाने की है. अभी, खुले में शौच के लिए जाने वालों को जीरो अंक दिया जाता है. जो लोग सामूहिक शौचालय में जाते हैं उन्हें एक या दो अंक पानी मुहैया होने न होने की बिना पर दिए जाते हैं. अब सरकार जबरदस्ती गरीबों को उन के छोटेतंग घरों में शौचालय, जिस की लागत 4-6 हजार रुपए आती है, बनवाने के साथ उन्हें 4 अंक दे कर उन की गरीबी का तमगा छीनना चाह रही है. ऐसा होने से उन से सस्ता राशन, प्रधानमंत्री आवास योजना वगैरा जैसी दर्जनों सहूलियतें छिन जाएंगी. ऐसे में उन का घबराना स्वाभाविक है.

ई मंडी किसानों के लिए दूर की कौड़ी

काफी तामझाम के साथ पिछले साल कुछ राज्यों में शुरू की गई ई मंडी फिलहाल किसानों से काफी दूर नजर आ रही है. ज्यादातर किसान इस में खास दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. पिछले दिनों केंद्र सरकार ने माना है कि ई कृषि बाजार में किसानों की दिलचस्पी नहीं जग सकी है. इस में किसानों की दिलचस्पी बढ़ाने और ज्यादा किसानों को इस से जोड़ने के लिए योजना बनाने की दरकार है. अब ई मंडी को सहकारी बैंकों से जोड़ने की बात की जा रही है. जानकार बताते हैं कि किसानों को ई मंडी से जोड़ने के लिए सहकारी बैंकों को भी उस से जोड़ने की जरूरत है. गौरतलब है कि अधिकतर किसानों के खाते सहकारी बैंकों में ही हैं. ई मंडी किसानों और अनाज कारोबारियों के बीच जगह नहीं बना सकी है. कृषि विभाग का दावा है कि पिछले साल तक 10 राज्यों में 250 अनाज मंडियों को इलेक्ट्रोनिक सिस्टम से जोड़ा जा चुका है, जबकि हकीकत यह है कि 250 ई मंडियों में से केवल 100 ही काम कर रही हैं.

केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह का मानना है कि सभी राज्यों के कृषि विभागों को अपनेअपने राज्यों में ई मंडी को ले कर वर्कशाप आयोजित करने और किसानों को इस के बारे में जानकारी देने की जरूरत है. अभी किसानों के लिए यह मुश्किल और समझ के बाहर की चीज लग रही है, जिस वजह से किसान ई मंडी से कतरा रहे हैं. नकदी की किल्लत को दूर करने में ई मंडी की खासी भूमिका हो सकती है. औनलाइन भुगतान से किसानों और कारोबारियों को नकदी के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा.

किसान रामप्रवेश सिंह कहते हैं कि ई मंडी से जुड़ने पर बड़े किसानों और कारोबारियों को फायदा हो सकता है. कोई संगठन या समूह यदि इस से जोड़ा जाए तो उन्हें ई मंडी से ज्यादा फायदा हो सकता है. छोटे और मंझोले किसानों को खास फायदा नहीं है, इसलिए वे ई मंडी में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं.

गौरतलब है कि इलैक्ट्रानिक कृषि बाजार को पिछले 1 जुलाई को मंजूरी दी गई थी. किसानों, व्यापारियों, आयातकों, निर्यातकों को उस से जोड़ा गया है. सरकार का दावा है कि आनलाइन ट्रेडिंग होने से कृषि बाजार में पारदर्शिता आएगी. इस का सब से बड़ा मकसद किसानों को बिचौलियों से बचाना है. देश के 8 राज्यों में 21 कृषि मंडियों को इलेक्ट्रानिक मंडी का रूप दिया गया. इस के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार पोर्टल की शुरुआत की गई.

कृषि बाजार में बिचौलयों की गहरी पैठ है और वे किसानों के उत्पादों को काफी कम कीमत पर खेतों से ही उठा लेते हैं. किसान भी औनेपौने भाव में अपने उत्पादों को बेच देते है, क्योंकि उन्हें बाजार की जरा सी भी समझ नहीं है और न ही बाजार तक उन की पहुंच है.

गुजरात, तेलंगाना, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में ई मंडी की शुरुआत की गई थी. उस के जरीए गेहूं, मक्का, ज्वार, चना, बाजरा, आलू, कपास समेत 25 फसलों को सूचीबद्ध किया गया है. 1 जुलाई 2018 तक 585 व्यापार बाजारों को ई मंडी से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है.

केंद्रीय कृषि मंत्री दावा करते हैं कि ई मंडी से किसानों को उन की उपज की बेहतर से बेहतर कीमत मिल सकेगी. किसानों को यह पता नहीं होता है कि उन के उत्पाद की बाजार में क्या कीमत है  किसानों के लिए किसी लाइसेंसधारी खरीदार के बारे में पता लगाना भी मुश्किल होता है. ई मंडी के जरीए किसान अपने घर बैठे ही अपने उत्पादों की कीमत और मांग का पता लगा सकेंगे.

सरकार ने काफी ई मंडियों का बुनियादी ढांचा तो तैयार कर लिया है, लेकिन किसानों की दिलचस्पी नहीं होने से वे सफेद हाथी बन कर रह गई हैं. कृषि विभाग का दावा है कि सितंबर 2016 तक करीब 47000 कारोबारियों, 26000 कमीशन एजेंटों और करीब डेढ़ लाख किसानों का ई मंडी में रजिस्ट्रेशन किया जा चुका है. इतना ही नहीं 14 राज्यों से 400 मंडियों को इलेक्ट्रोनिक सिस्टम से जोड़ने का प्रस्ताव केंद्रीय कृषि मंत्रालय को मिल चुका है. हर मंडी को विकसित करने पर 5 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. मंडी के कारोबार को अपडेट करने के लिए 1 वाच टावर बनाया गया है और फसलों की कीमतों को दिखाने के लिए 5 एलईडी टीवी लगाए गए हैं.

किसान भले ही ई मंडी से कम जुड़ रहे हों, लेकिन सरकार इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है कि पायलट परियोजना में ही करीब 450 करोड़ रुपए मूल्य के डेढ़ लाख टन कृषि उत्पादों का ई कारोबार हो चुका है. पायलट परियोजना में केवल 25 उत्पादों को कारोबार की मंजूरी दी गई थी, जो अब बढ़ कर 69 हो चुकी है. पहले चरण में मार्च 2018 तक 585 मंडियों के जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था, पर मार्च 2017 तक ही 400 मंडियों के ई मंडी में तब्दील होने का अंदाजा है. कुछ पढ़े लिखे किसान ई मंडी की ओर कदम बढ़ाने लगे हैं. मंडी के सीजन में रोजाना काफी ज्यादा अनाज बिखर कर बरबाद हो जाता है.

किसान उमेश कुमार बताते हैं कि किसान मंडी में अनाज बेचने आते हैं, तो वहां तक लाने, बेचने के लिए जमीन पर रखने और उसे दोबारा पैक करने के दौरान काफी अनाज गिर कर बरबाद होता है. नीलामी के दौरान प्लेटफार्म से ले कर तोल स्टैंड तक किसानों की मेहनत से पैदा किया गया काफी अनाज बरबाद होता है. ई मंडी से किसानों के जुड़ने से उन की मेहनत की कमाई बरबाद नहीं होगी और उन की आमदनी में भी इजाफा हो सकेगा.

ई मंडी : एक नजर

 * ई मंडी एक साफ्टवेयर है, जिस में किसान अपने उत्पादों से संबंधित डाटा अपलोड कर सकते हैं.

* आनलाइन देश की विभिन्न मंडियों के उत्पादों की कीमत पता लगा सकेंगे.

* ई मंडी से जुड़ने के लिए किसानों को मंडी लाइसेंस लेना होगा, उस के बाद तमाम राज्यों की मंडियों में उत्पाद बेचने की छूट होगी.

* किसान किसी भी मंडी से अपनी फसलों का सौदा तय कर सकते हैं.

* इस से किसानों को बिचौलियों और कालाबाजारियों से छुटकारा मिल सकेगा.

* खरीदार फसलों की खरीद पर पैसा सीधे किसान या व्यापारी के बैंक एकाउंट में जमा करेंगे. मंडी शुल्क की राशि मंडी के एकाउंट में जमा करनी होगी.

कोचिंग की बैसाखी पर रेंगती शिक्षा व्यवस्था

कुछ वर्षों पहले रसायन का नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले भारतीय मूल के अमेरिकीब्रिटिश वैज्ञानिक वी रामकृष्णन ने एक टिप्पणी भारत की कोचिंग इंडस्ट्री के बारे में की थी. इस संबंध में पहली बात उन्होंने यह कही थी कि शुद्ध विज्ञान (प्योर साइंस) की तरफ उन का आना इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन का दाखिला देश (भारत) के किसी मैडिकल या इंजीनियरिंग कालेज में नहीं हो पाया था. दाखिला इसलिए नहीं हुआ क्योंकि पुराने खयाल के उन के मातापिता यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि मैडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों का ऐंट्रैंस टैस्ट निकालने के लिए कोचिंग लेनी बहुत जरूरी है.

कोचिंग इंडस्ट्री को ले कर अपनी बात को और ज्यादा साफ करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि अब तो कोचिंग संस्थानों में दाखिले के लिए भी कोचिंग की जरूरत पड़ने लगी है. लिहाजा, जब तक ऐंट्रैंस टैस्ट का स्वरूप नहीं बदला जाता व छात्रों और अभिभावकों में कोचिंग के प्रति नफरत नहीं पैदा की जाती, तब तक इस बीमारी का इलाज संभव नहीं है.

कोचिंग बिना कामयाबी

कोचिंग के खिलाफ वी रामकृष्णन से मिलतीजुलती राय अपने देश में सुनाई पड़ती रही है. इधर यूपीएससी (आईएएस) की परीक्षा में देश में तीसरी रैंक हासिल करने और बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले 30 साल के गोपाल कृष्ण रोनांकी ने भी वैज्ञानिक वी रामकृष्णन जैसी बातें कही हैं.

सिविल सेवा की तैयारी के लिए समाज की परिपाटी के मुताबिक वे भी कोचिंग सैंटर जौइन करना चाहते थे, लेकिन पिछड़े इलाके से आने की वजह से किसी भी कोचिंग सैंटर ने उन्हें दाखिला नहीं दिया. ऐसे में गोपाल के पास सैल्फ स्टडी के अलावा कोई चारा नहीं बचा.

कोचिंग से महरूम होने को उन्होंने कमजोरी के बजाय अपनी ताकत बनाई. परीक्षा के लिए उन्होंने कोई कोचिंग अटैंड नहीं की और कड़ी मेहनत व लगन की बदौलत सिविल सर्विस एग्जाम में कामयाब हो कर दिखा दिया कि बिना कोचिंग के भी सफलता पाई जा सकती है.

गोपाल कृष्ण रोनांकी भले ही कोचिंग सैंटर में दाखिला नहीं मिलने के कारण सैल्फ स्टडी के लिए प्रेरित हुए, लेकिन सीबीएसई की 12वीं परीक्षा की इस साल की टौपर नोएडा की रक्षा गोपाल के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी. उस ने अपनी मरजी से कोचिंग की बैसाखी लिए बिना खुद बेहतर पढ़ाई की योजना बनाई और परीक्षा में टौप कर के दिखा दिया कि अगर हौसला हो तो किसी भी परीक्षा की चुनौती ऐसी नहीं है, जिसे पार न किया जा सके. रक्षा गोपाल ने बिना ट्यूशनकोचिंग के 99.6 फीसदी अंक ला कर टौप किया है.

उपरोक्त उदाहरणों के बावजूद हमारे समाज में ट्यूशनकोचिंग का दबदबा बढ़ता जा रहा है. मांबाप कोचिंग सैंटरों और ट्यूशन पढ़ाने वाले अध्यापकों का स्तर जाने बगैर अपने बच्चों को कोचिंग के लिए भेज रहे हैं और सामान्य पढ़ाई से ज्यादा ट्यूशनकोचिंग पर खर्च कर रहे हैं.

लाइसैंस भी जरूरी नहीं है

कोचिंग का जाल इतना गहरा है कि सरकार को भी इस की चिंता है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय कई बार इस पर चिंता जताता रहा है. कुछ ऐसी ही टिप्पणी पिछले साल मशहूर फिल्म अभिनेता और लोकसभा सांसद परेश रावल ने संसद में की थी. उन्होंने प्राइवेट कोचिंग संस्थानों को शैक्षिक आतंकवाद फैलाने वाला बताते हुए देश में प्राइवेट कोचिंग के लिए नियमकानून बनाने की मांग की थी.

इस मर्ज का एक सिरा इस विरोधाभासी तथ्य से भी जुड़ा है कि लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहते हैं, लेकिन उन कोचिंग सैंटरों में जरूर भेजते हैं जहां कई बार सरकारी स्कूलों के ही टीचर पढ़ाते हैं. इन तथ्यों के केंद्र में यह इशारा बारबार मिलता है कि कुछ ऐसे उपाय किए जाएं ताकि बोर्ड परीक्षाओं, मैडिकल और इंजीनियरिंग ऐंट्रैंस में कोचिंग की भूमिका घटाई जा सके.

लेकिन ऐसा लगता है कि यह भूमिका कम करने को ले कर समाज से ले कर सरकार तक कोई गहरी दुविधा है जो उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ने से रोक देती है.

जब से मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों का बोलबाला बढ़ा और इन संस्थानों से निकले डाक्टर इंजीनियर लाखोंकरोड़ों कमाते दिखे, तो हर कोई अपने बच्चे को जैसेतैसे इसी लाइन में खड़ा करने की तैयारी में जुट गया.

आज स्थिति यह है कि देश के सभी इंजीनियरिंग व मैडिकल कालेजों में कुल मिला कर 40 से 45 हजार सीटें हैं, पर इन में दाखिला पाने को ले कर हर साल 10 लाख छात्रों के बीच होड़ सी मची रहती है. वे चाहे इन सीटों के लिए पूरी तरह काबिल न हों, लेकिन हर हाल में उन्हें इन्हीं में दाखिला चाहिए. इस का फायदा उठाया है देश में कुकुरमुत्ते की तरह राजस्थान के कोटा और दिल्ली से ले कर हर छोटेबड़े शहर की गलीकूचों में खुले कोचिंग सैंटरों ने.

ये अपने एकाध पूर्व छात्र की सफलता का ढोल पीटते हुए बच्चे को इंजीनियर और डाक्टर बनाने का सपना देखने वाले मांबाप से लाखों रुपए ऐंठने में कामयाब होते हैं. पर क्या कोई यह देख पा रहा है कि आखिर इस गोरखधंधे में किस का भला हुआ है?

अरबों डौलर का बिजनैस

देश के वित्तीय कारोबारों पर नजर रखने वाली आर्थिक संस्था एसोचैम ने इस बारे में एक आकलन पेश करते हुए दावा किया था कि 2015 के अंत तक देश में कोचिंग का कारोबार 40 अरब डौलर तक पहुंच चुका है. यह आकलन बेमानी नहीं कहा जाएगा क्योंकि इस में यह आंकड़ा भी निकल कर आया था कि प्राइमरी में पढ़ने वाले 87 फीसदी और सैकंडरी में पढ़ने वाले करीब 95 फीसदी बच्चे ट्यूशन या कोचिंग लेते हैं.

इस ट्यूशन की वजह से अभिभावकों की जेब पर भारी बोझ पड़ा है पर चूंकि वे बच्चे के भविष्य की खातिर कोई रिस्क नहीं लेना चाहते, इसलिए वे कोचिंग से परहेज नहीं करते हैं. यही नहीं, 78 फीसदी अभिभावकों ने एसोचैम के अध्ययन में यह तक कहा कि आज बच्चों पर ज्यादा नंबर लाने का दबाव है और बिना कोचिंग के ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं लगता है.

महानगरों और छोटे शहरों में प्राइमरी स्तर तक के बच्चों की हर महीने की ट्यूशन फीस जहां 1,000 से 3,000 रुपए है वहीं सैकंडरी के बच्चों के ट्यूशन पर हर महीने औसतन करीब 5,000 रुपए या इस से अधिक का खर्चा आता है. बड़े शहरों में तो स्कूल की फीस के बाद कोचिंग पर औसतन 10,000 रुपए तक का हर महीने का खर्चा पेरैंट्स पर आ रहा है.

एसोचैम ने यह सर्वे रिपोर्ट दिल्ली, एनसीआर, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर और चंडीगढ़ में 1,200 पेरैंट्स से बातचीत के बाद तैयार की थी.

सर्वे में शामिल 78 प्रतिशत पेरैंट्स ने कहा कि पढ़ाई का स्तर और माहौल काफी बदल गया है. बच्चों पर ज्यादा नंबर लाने का दबाव है. बिना ट्यूशन के ऐसा मुमकिन नहीं है. इन में करीब 86 प्रतिशत अभिभावकों ने माना था कि उन के पास अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं है. पति और पत्नी दोनों कामकाजी होने की वजह से उन के पास तो अपने बच्चों के साथ गुजारने के लिए भी वक्त नहीं होता. ऐसे में उन के पास बच्चों को प्राइवेट कोचिंग में भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता.

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