कुछ वर्षों पहले रसायन का नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले भारतीय मूल के अमेरिकीब्रिटिश वैज्ञानिक वी रामकृष्णन ने एक टिप्पणी भारत की कोचिंग इंडस्ट्री के बारे में की थी. इस संबंध में पहली बात उन्होंने यह कही थी कि शुद्ध विज्ञान (प्योर साइंस) की तरफ उन का आना इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन का दाखिला देश (भारत) के किसी मैडिकल या इंजीनियरिंग कालेज में नहीं हो पाया था. दाखिला इसलिए नहीं हुआ क्योंकि पुराने खयाल के उन के मातापिता यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि मैडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों का ऐंट्रैंस टैस्ट निकालने के लिए कोचिंग लेनी बहुत जरूरी है.

कोचिंग इंडस्ट्री को ले कर अपनी बात को और ज्यादा साफ करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि अब तो कोचिंग संस्थानों में दाखिले के लिए भी कोचिंग की जरूरत पड़ने लगी है. लिहाजा, जब तक ऐंट्रैंस टैस्ट का स्वरूप नहीं बदला जाता व छात्रों और अभिभावकों में कोचिंग के प्रति नफरत नहीं पैदा की जाती, तब तक इस बीमारी का इलाज संभव नहीं है.

कोचिंग बिना कामयाबी

कोचिंग के खिलाफ वी रामकृष्णन से मिलतीजुलती राय अपने देश में सुनाई पड़ती रही है. इधर यूपीएससी (आईएएस) की परीक्षा में देश में तीसरी रैंक हासिल करने और बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले 30 साल के गोपाल कृष्ण रोनांकी ने भी वैज्ञानिक वी रामकृष्णन जैसी बातें कही हैं.

सिविल सेवा की तैयारी के लिए समाज की परिपाटी के मुताबिक वे भी कोचिंग सैंटर जौइन करना चाहते थे, लेकिन पिछड़े इलाके से आने की वजह से किसी भी कोचिंग सैंटर ने उन्हें दाखिला नहीं दिया. ऐसे में गोपाल के पास सैल्फ स्टडी के अलावा कोई चारा नहीं बचा.

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