इलाका नंबर ५२: आखिर रामजी पांडे ने रंजूबाई से क्या कहा?

पोस्ट मास्टर ने डाकिए रामजी पांडे को बुलाया और कहा, ‘‘आज से आप को इलाका नंबर 25 में चिट्ठियां बांटनी होंगी. उस इलाके का डाकिया जयदीप छुट्टी पर गया है.’’

इलाका नंबर 25 का नाम सुनते ही डाकिए रामजी पांडे को झटका लगा, क्योंकि उस पूरे इलाके में कोठेवालियां रहती हैं.

रामजी पांडे बेमन से अपने इलाके में जाने के लिए चिट्ठियों को थैले में रखने लगा. इस के बाद वह उस इलाके की तरफ चल पड़ा.

वह महल्ला कच्चेपक्के मकानों का था. पतली और संकरी गलियां थीं. नुक्कड़ पर पान की दुकान थी, जहां रसिक लोग पान खाते नजर आते थे.

रामजी पांडे गली में एक मकान के पास रुका. मकान पर नामपट्टी लगी थी, ‘रंजूबाई’.

रामजी पांडे ने पुकारा, ‘‘रंजूबाई, आप की चिट्ठी आई है.’’

थोड़ी देर बाद एक खूबसूरत तवायफ ने दरवाजा खोला, ‘‘अरे, डाक बाबू… मेरी चिट्ठी है? कहां से आई है?’’

‘‘शेरपुर से,’’ रामजी पांडे ने कहा.

‘‘अंदर आ जाओ और पढ़ कर सुना दो,’’ रंजूबाई ने कहा.

रामजी पांडे ने भीतर जा कर उस तवायफ को चिट्ठी पढ़ कर सुना दी.

‘‘एक चिट्ठी थी… इसे आप अपने साथ ले जाएं,’’ रंजूबाई ने कहा.

रामजी पांडे ने वह चिट्ठी डाकघर में छोड़ने के लिए ले ली.

यह काम अकसर डाकियों को करना होता था. वजह, तवायफें कोठे से बाहर जो नहीं निकलती थीं.

उस तवायफ के कमरे में फर्श पर दरी बिछी थी. कोने में हारमोनियम और तबला रखा था. दीवार पर 2-3 जोड़ी घुंघरुओं वाली पाजेब टंगी थीं. दरवाजे और खिड़कियों पर रेशमी परदे हवा के ?ोंके से ?ाल रहे थे.

तभी रंजूबाई ने शरबत का गिलास रामजी पांडे के हाथों में थमा दिया.

रंजूबाई की खूबसूरती ने रामजी पांडे को एकटक निहारने पर मजबूर कर दिया.

‘‘ये 2 हजार रुपए इस पते पर भेज दीजिएगा,’’ रंजूबाई ने कहा.

‘‘जी, मैं भेज दूंगा,’’ कह कर रामजी पांडे वहां से चला गया.

धीरेधीरे रामजी पांडे रंजूबाई के हुस्न का मुरीद बन गया.

‘‘रंजूबाई, यह मनीऔर्डर की रसीद रख लो,’’ रामजी पांडे ने कहा.

‘‘डाक बाबू, आज तो तुम बड़े छैलछबीले लग रहे हो,’’ रंजूबाई बोली.

‘‘तुम्हारे हुस्न के आगे मैं कुछ भी नहीं,’’ रामजी पांडे ने प्यार जताया.

‘‘जाओ डाक बाबू, यह भी कोई बात हुई,’’ रंजूबाई ने इठला कर कहा.

‘‘बिलकुल सच, मेरे दिल में ?ांक कर तो देख लो,’’ रामजी पांडे ने कहा.

यह सुन कर रंजूबाई के होंठों पर प्यार भरी मुसकान खिल उठी.

‘‘डाक बाबू, कल लिफाफा लेते आना. एक चिट्ठी भेजनी है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर रामजी पांडे कोठे से बाहर निकल गया.

दूसरे दिन तेज हवाएं चल रही थीं. दरवाजे पर रामजी पांडे ने आवाज लगाई, ‘‘रंजूबाई, यह लो लिफाफा.’’

‘‘डाक बाबू अंदर आ जाओ. बाहर तेज हवाएं चल रही हैं,’’ रंजूबाई बोली.

रामजी पांडे मौसम का लुत्फ उठाता हुआ बोला, ‘‘रंजूबाई, कुदरत ने तुम्हें बेपनाह हुस्न से नवाजा है.’’

‘‘यह हुस्न तो आप की चाहत का दीवाना है,’’ रंजूबाई ने कहा.

इतना सुन कर रामजी पांडे रंजूबाई का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मेरा दिल तुम्हें पाने को बेकरार है.’’

इतना कह कर उस ने रंजूबाई के नाजुक होंठों को चूम लिया. वह भी रामजी पांडे की बांहों में सिमट गई.

इस के बाद तो जैसे रंजूबाई की जिंदगी में बहार आ गई थी, क्योंकि सालों से उसे जिस हमसफर की तलाश थी, वह उसे मिल गया था.

रामजी पांडे एक ब्राह्मण का बेटा था और रंजूबाई एक तवायफ थी. लेकिन उस ने दकियानूसी समाज को धता बता कर मुहब्बत की खिलाफत में उठने वाली सारी ऊंचीऊंची दीवारें गिरा दी थीं.

प्यार का सिलसिला चल निकला. अब रामजी पांडे को हरदम रंजूबाई का खयाल रहने लगा. वह डाकघर का काम खत्म कर के उस के कोठे पर जाना नहीं भूलता था.

‘‘रंजूबाई, आज बहुत खूबसूरत लग रही हो. मु?ो सरेआम लूटने का इरादा है क्या?’’ रामजी पांडे ने उसे बांहों में भरते हुए कहा.

वह उस की बांहों में कसमसाती हुई बोली, ‘‘रामजी, मु?ो जीने का मकसद मिल गया है. मेरे जिस्म में प्यार की प्यास भड़क उठी है.’’

इस के बाद दोनों जवानी की हद पार करते हुए दो जिस्म एक जान हो गए थे.

एक दिन डाकघर का काम खत्म करने के बाद रामजी पांडे शाम को रंजूबाई के कोठे पर आया. रंजूबाई ने आज गजब का मेकअप किया था. जब उस ने देखा, तो देखता ही रह गया.

‘‘रंजूबाई, आज तो तुम्हारे साथ कोठे से बाहर घूमने का इरादा है,’’ रामजी पांडे ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘चलो, चलते हैं कहीं,’’ रंजूबाई ने कहा.

वे दोनों बातें करते हुए बाजार में घूम रहे थे कि अचानक रंजूबाई का हाथ एक शख्स ने पकड़ लिया.

रंजूबाई चौंक उठी, ‘‘अरे, यह तो राजू है. इस शहर का नामी बदमाश.’’

‘‘कोठे पर तो बहुत नाच ली. अब चल मेरे साथ. आज की रात मैं तेरे संग रंगीन कर लूं,’’ राजू ने बेशर्मी से कहा.

तभी रामजी पांडे ने राजू की बांह पकड़ कर एक जोर का ?ाटका दिया.

‘‘रास्ता चलते मेरी बीवी को छेड़ता है,’’ रामजी पांडे ने कहा.

रंजूबाई का हाथ ?ाटके से छूट गया. राजू गुर्राया, ‘‘अच्छा, एक तवायफ तेरी बीवी हो गई. खबरदार, आज के बाद कभी इस के साथ दिखा, तो मैं तु?ो जान से मार दूंगा.’’

राजू धमकी दे कर चला गया. रामजी पांडे खून का घूंट पी कर रह गया. रंजूबाई बेहद डर गई.

‘‘रामजी, यह गुंडा इस शहर में हम लोगों को जीने नहीं देगा. मु?ो किसी दूसरे शहर में ले चलो,’’ रंजूबाई ने घबराई हुई आवाज में कहा.

दोनों एकदूसरे का हाथ थामे एक मंदिर में आ गए थे. मंदिर में रामजी पांडे ने रंजूबाई की मांग एक चुटकी सिंदूर से भर दी थी. उस ने एक ही पल में जमाने की सारी दीवारें गिरा दी थीं.

कुछ ही दिनों में रामजी पांडे ने अपना तबादला दूसरे शहर में करा लिया  और वह रंजूबाई को वहां ले गया.

मेरे कपड़े उन के कपड़े : कैरैक्टर की कहानी

खैर, कैरैक्टर तो मैं अपना बहुत पहले नीलाम कर चुका हूं. यह जो मेरे पास दोमंजिला मकान, आलीशान गाड़ी है, सब मैं ने अपना कैरैक्टर नीलाम करने के बाद ही हासिल की है. इनसान जिंदगी में चाहे कितनी ही मेहनत क्यों न करे, पर जब तक वह अपने कैरैक्टर को बंदरिया के मरे बच्चे सा अपने से चिपकाए रखता है, तब तक भूखा ही मरता है.

इधर बंदे ने अपना कैरैक्टर नीलाम किया, दूसरी ओर हर सुखसुविधा ने उसे सलाम किया. कहने वाले जो कहें सो कहते रहें, पर अपना तजरबा है कि जब तक बंदे के पास कैरैक्टर है, उस के पास केवल और केवल गरीबी है.

पर कैरैक्टर नीलाम करने के बाद कमबख्त फिर गरीबी आन पड़ी. जमापूंजी कितने दिन चलती है? अब मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं अपना क्या नीलाम करूं? अनारकली होता, तो मीना बाजार जा पहुंचता.

जब मुझे पता चला कि उन के कपड़े डेढ़ करोड़ रुपए में बिके, तो अपना तो कलेजा ही मुंह को आ गया. लगा, मेरे लिए नीलामी का एक दरवाजा और खुल गया. जिस के कपड़े ही डेढ़ करोड़ के नीलाम हो रहे हों, वह बंदा आखिर कितना कीमती होगा?

बस, फिर क्या था. मुझे उन के कपड़ों की नीलामी की बोली के अंधेरे में उम्मीद की किरण नहीं, बल्कि दोपहर का चमकता सूरज दिखा और मैं ने आव देखा न ताव, अपने और बीवी के सारे कपड़ों के साथ पड़ोसी की बीवी के भी चार फटेपुराने कपड़ों की गठरी बांधी और लखपति होने के सपने लेता बाजार चलने को हुआ, तो बीवी ने टोका, ‘‘अब ये मेरे कपड़े कहां लिए जा रहे हो? पागलपन की भी हद होती है.’’

‘‘मैं बाजार जा रहा हूं… नीलाम करने,’’ मैं ने ऐसा कहा, तो बीवी चौंकी, ‘‘अपना सबकुछ नीलाम करने के बाद अब कपड़े भी नीलाम करने की नौबत आ गई क्या?’’

‘‘आई नहीं. नौबत क्रिएट कराई है उन्होंने. तेरेमेरे इन कपड़ों में मुझे लाखों रुपए की कमाई दिख रही है. चल फटाफट बंधी गांठ उठवा और शाम को मेरे आते ही लखटकिया की बीवी हो जा.’’

‘‘पर, इन कपड़ों को कौन गधा खरीदेगा?’’ कहते हुए वह परेशान हो गई.

‘‘अरी भागवान, ये कोई मामूली कपड़े नहीं हैं, बल्कि ये लैलामजनूं, हीररांझा, शीरींफरहाद के ऐतिहासिक कपड़े हैं.

‘‘तू भी न… सारा दिन टैलीविजन के पास बैठीबैठी बस सासबहू के सीरियल ही देखती रहती है. कभी समाचार सुनने नहीं, तो कम से कम देख ही लिया कर. उन के कपड़े की एक जोड़ी डेढ़ करोड़ रुपए में बिकी. हो सकता है कि लाखों रुपए में न सही, तो कम से कम हजारों रुपए में अपने ये कपड़े भी कोई खरीद ले.’’

‘‘घर में कोई जोड़ी बदलने के लिए भी छोड़ी है कि नहीं? कोई क्या पागल है, जो हमारे न पहनने लायक कपड़ों की बोली लगाएगा?’’

यह मेरी बीवी भी न, जब देखो शक में ही जीती रहती है.

‘‘क्यों न लगाएगा… मैं अपने कपड़ों को चमत्कारी रंग दे कर ऐसा प्रचार करूंगा कि… मसलन, ये कपड़े मेरी बीवी को हीर ने उसे तब दिए थे, जब वह पहली बार मुझ से मंदिर जाने के बहाने मिलने आई थी.

‘‘और ये कपड़े मेरी बीवी को लैला ने हमारी फर्स्ट मैरिज एनिवर्सरी पर दिए थे. यह वाला सूट हीर ने उसे उस की बर्थडे पर गिफ्ट किया था.

‘‘यह सूट तो तुम्हें महारानी विक्टोरिया ने खुद अपने हाथों से सिल कर दिया था. और मेरा कुरतापाजामा मजनूं ने मेरी शादी पर तब मुझे पहनाया था, जब मैं घोड़ी लायक पैसे न होने के चलते गधे पर शान से बैठ कर तुम्हें ब्याहने गया था.

‘‘यह तौलिया महात्मा गांधी का है, जिस से वे अपनी नाक पोंछा करते थे. यह उन्होंने मेरे दादाजी को भेंट में दिया था. यह रूमाल जवाहरलाल नेहरू का है. मेरे पिताजी जब 15 अगस्त को उन से मिलने गए थे, तो लालकिले पर झंडा फहराने के बाद इसे उन्होंने उन्हें उपहार के तौर पर दिया था.’’

‘‘और यह मफलर?’’

‘‘रहने दे. इसे बाद में देखेंगे. इसे कुछ काम तो करने दे,’’ जब मैं बोला, तो पहली बार उसे मुझ पर यकीन हुआ और उस ने कोई सवाल नहीं उठाया.

उलटे सुनहरे ख्वाब बुनते हुए मैं ने अपने सिर पर कपड़ों की बंधी गांठ रखी और मैं एक बार फिर अपने माल को नीलाम करने बाजार में जा खड़ा हुआ.

बाजार में पहुंचते ही खाली जगह देख कर दरी बिछाई और अपने और अपनी परीजादी को गिफ्ट में मिले सारे कपड़े उस पर बिखेर दिए.

पर यह क्या… एक घंटा बीता… 2 घंटे बीते… कोई कपड़ों के पास आ ही नहीं रहा था. उलटा, जो भी हमारे कपड़ों के पास से गुजर रहा था, नाक पर हाथ रख लेता. शाम तक मैं नीलामी करने वालों को टुकुरटुकुर ताकता रहा. अब समस्या यह कि गांठ जो बांध भी लूं, तो उठवाए कौन?

तभी एक पुलिस वाला आ धमका. वह डंडे से मेरी बीवी के कपड़ों को टटोलने लगा, तो मुझे उस की इस हरकत पर बेहद गुस्सा आया. पर बाजार की बात थी, सो चुप रहा.

‘‘अरे, यह सब क्या है? चोरी के कपड़े हैं क्या? यमुना के किस छोर से चिथड़े उठा लाया?’’

‘‘नहीं साहब, ये वाले हीर के हैं, ये वाले लैला के हैं. ये वाले मजनूं के हैं और ये वाले ओबामा की जवानी के दिनों के…

‘‘और ये…

‘‘फरहाद के…’’

‘‘छि:, इतने गंदे?’’

‘‘बरसों से धोए नहीं हैं न साहब. जस के तस संभाल कर रखे हैं.’’

‘‘मतलब, पुलिस वाले को उल्लू बना रहा है?’’

‘‘उल्लू… और आप को? मर जाए, जो आप को उल्लू बनाए,’’ कह कर मैं ने उस के दोनों पैरों को हाथ लगाया, तो वह आगे बोला, ‘‘म्यूजियम से चुरा कर लाया है क्या?’’ कह कर वह मुसकराता हुआ मेरी जेब में झांकने लगा, तो मैं ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘साहब, उन की देखादेखी मैं भी इन्हें नीलाम करने ले आया था.’’

‘‘पता है, वे किस के कपड़े थे? चल उठा जल्दी से इन गंदे कपड़ों को, वरना…’’

तभी सामने से पुराने कपड़े लेने वाली एक औरत आ धमकी और कमर नचाते हुए बोली, ‘‘ऐ, क्या लोगे इन सब पुराने कपड़ों का? 2 पतीले लेने हों, तो जल्दी बोलो…’’

मास्साबों का दर्द : गांवभर की भौजाई क्यों हो गए हैं मास्साब

हमारे गांवदेहात में एक कहावत मशहूर है कि ‘गरीब की लुगाई गांवभर की भौजाई’. कुछ यही हाल हमारे देश के मास्साबों का हो गया है. सरकार ने इन्हें भी गांवभर की भौजाई समझ लिया है. जनगणना से ले कर पशुगणना तक, ग्राम पंचायत के पंच से ले कर संसद सदस्य तक के चुनाव मास्साबों के जिम्मे है.

किस गांव में कितने कमउम्र बच्चों को पोलियो की खुराक देनी है, गांव के कितने मर्दऔरतों ने नसबंदी कराई है, कितने बच्चों के जाति प्रमाणपत्र कचहरी में धूल खा रहे हैं, कितनों की आईडी रोजगार सहायक के कंप्यूटर में कैद है, कितने परिवार गरीबी की रेखा के नीचे दब कर छटपटा रहे हैं और कितने गरीबी की रेखा को पीछे सरकाते हुए आगे निकल गए हैं, कितने परिवार घर में शौचालय न होने के चलते खुले में शौच करते हैं. कितने लोगों के आधार कार्ड नहीं बने हैं, कितनों के बैंक में लिंक नहीं हुए, बच्चों का वजीफा, साइकिल, खाता खोलने के लिए बैंकों के कितने चक्कर लगाने हैं, इन सब बातों की जानकारी भला मास्साबों से बेहतर कौन जान सकता है. सरकार ने मास्साबों के इसी हुनर को देख कर पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सारे काम उन्हें दे रखे हैं. सरकार जानती है कि पढ़ाई का क्या है, वह तो बच्चे को जिंदगीभर करनी है. पढ़ाईलिखाई के महकमे की बैठकों में अफसर पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सारी बातें करते हैं. किसी गांव को पूरी तरह पढ़ालिखा बनाना मास्साबों को बाएं हाथ का खेल लगता है.

मास्साब कहते हैं कि हम तो सरकारी आदेशों के गुलाम हैं. सरकार जो चाहे खुशीखुशी कर देते हैं. आखिर पगार काहे की लेते हैं. सरकार द्वारा दिए गए लोगों के भले के कामों की वजह से मास्साब की ईमानदारी पर शक किया जाने लगा है. जब सरकारी स्कूलों में मास्साब कभी किचन शैड, शौचालय या ऐक्स्ट्रा कमरा बनाने का काम कराते हैं, तो वे देश के लिए इंजीनियर और ठेकेदार का रोल भी निभाते हैं. यही बात गांव वालों को खलती है और वे मास्साब की ईमानदारी पर भी बेवजह शक करने लगते हैं. गांवों में अकसर ही लोगों को यह शिकायत रहती है कि मास्साब नियमित स्कूल नहीं आते, बच्चों को ठीक से नहीं पढ़ाते, घर में कोचिंग क्लास चलाते हैं.

अरे जनाब, आप को पता होना चाहिए कि बच्चे मास्साब के कंधों पर कितना बड़ा बोझ हैं. बच्चे भी क्या कम हैं, वे स्कूल पढ़ने नहीं रिसर्च करने आते हैं. बच्चे मास्साब के स्मार्टफोन का मजा लेते हैं. ह्वाट्सऐप पर भेजे वीडियो व फोटो को भी वे शेयर करते हैं. मास्साब की फेसबुक पर वे कमैंट करने में भी पीछे नहीं हैं. कभी मास्साब को समय मिलता है और वे लड़कों को भारत का इतिहास पढ़ाते हैं, तो भी क्लास की लड़कियों के इतिहास की जानकारी लेने में बिजी रहते हैं. लड़कियों के इतिहास पर लड़कों

की रिसर्च चलती रहती है. इस के लिए थीसिस, जिसे नासमझ प्रेमपत्र भी कहते हैं, लिखने का काम भी करते हैं, तभी उन्हें पीएचडी यानी शादी बतौर अवार्ड मिल पाती है. यह बात और है कि ज्यादातर लड़कों का इस काम में भूगोल बिगड़ने का खतरा रहता है. रिजल्ट भी खराब आता है, जिस की जिम्मेदारी मास्साबों पर थोपी जाती है. लड़कों की गलतियों की सजा मास्साबों की वेतन वृद्धि रोक कर वसूल की जाती है.

यही वजह है कि मास्साब कभीकभी नकल की खुली छूट दे देते हैं. इस से रिजल्ट भी अच्छा बन जाता है और छात्रों की नजर में मास्साब की इज्जत भी बढ़ जाती है. इस तरह मास्साब एक पंथ दो काज निबटा लेते हैं. मास्टरी के क्षेत्र में औरतों की चांदी है. मैडमजी सुबहसवेरे ही सजसंवर कर स्कूल चली जाती हैं और चूल्हाचौका सासूजी के मत्थे मढ़ जाती हैं.

कुमारियां तो स्कूल को किसी फैशन परेड का रैंप समझती हैं, तो श्रीमतियां अपने घर के काम निबटा लेती हैं. वे स्कूल समय में मटर छील लेती हैं, पालकमेथी के पत्तों को तोड़ कर सब्जी बनाने की पूरी तैयारी कर लेती हैं. कभीकभार जब समय नहीं रहता, तो स्कूल के मिड डे मील की बची हुई रेडीमेड सब्जीपूरी भी घर ले जाती हैं. ठंड के दिनों में स्वैटर बुनने की सब से अच्छी जगह सरकारी स्कूल ही होती है, जहां पर कुनकुनी धूप में बच्चों को मैदान में बिठा कर उन्हें जोड़घटाने के सवालों में उलझा कर मैडम अपने पति के स्वैटर के फंदों का जोड़घटाना कर ह्वाट्सऐप के मजे लेती हैं.

कुछ मैडमें अपने नन्हेमुन्ने बच्चों को भी साथ में स्कूल ले आती हैं, जिन के लालनपालन की जिम्मेदारी क्लास के गधा किस्म के बच्चों की होती है. उन की इस सेवा के बदले उन का प्रमोशन अगली क्लास में कर दिया जाता है. जब से सरकार ने मास्साबों की भरती में औरतों को 50 फीसदी रिजर्वेशन व उम्र की सीमा को खत्म किया है, तब से सास बनी बैठी औरतों ने भी मास्टरनी बनने की ठानी है. अब देखना यही है कि रसोई की कमान मर्दों के हाथों में आती है या नहीं?

देश के महामहिम राष्ट्रपति रह चुके डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जाता है. स्कूली बच्चे चंदा कर के मास्साब के लिए शाल और चायबिसकुट का इंतजाम करते हैं.

देश के राष्ट्रपति द्वारा इस दिन दिल्ली में होनहार मास्साबों को सम्मानित किया जाता है. कुछ मास्साब यहां भी अपने हुनर को दिखा कर टैलीविजन चैनलों पर अवार्ड लेते दिख जाते हैं. अवार्ड लेने के बाद मास्साबों को गांवगांव, गलीगली में सम्मानित किया जाता है. इसी चक्कर में मास्साब कईकई दिनों तक स्कूल नहीं पहुंच पाते. पर कभीकभार स्कूल के हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत कर उसे भी गौरवान्वित कर आते हैं.

ठीक ही तो है कि सारी ईमानदारी का बोझ अकेले मास्साबों के कंधों पर नहीं डाला जा सकता. जब से देश को बनाने की जिम्मेदारी अंगूठा लगाने वाले जनप्रतिनिधि निभाने लगे हैं, तब से मास्साबों को शर्म आने लगी है. इतनी पढ़ाई के बाद भी मास्साब अंगूठे की छाप नहीं बदल सके? काश, मास्साबों का यह दर्द कोई समझ पाता.

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