मिसाल: रूमा देवी- झोंपड़ी से यूरोप तक

फैशन शो यानी तरहतरह के कपड़ों को नए अंदाज में पेश करने का जरीया. इसी तरह का एक फैशन शो चल रहा था, जिस में अनोखी कढ़ाई से सजे कपड़े पहन कर फैशनेबल मौडल रैंप पर आ कर सधी चाल में चल रही थीं.

आखिर में इन कपड़ों की डिजाइन तैयार करने वाली राजस्थानी अंदाज में सजीधजी मुसकराते हुए एक औरत स्टेज पर आई. यह वही औरत थी रूमा देवी, जिस ने अपनी क्षेत्रीय कला को मौडर्न रूप दे कर दुनियाभर में नाम दिलाया है.

रूमा देवी का जन्म नवंबर,1988 में राजस्थान के जिले बाड़मेर के एक छोटे से गांव रातवसर में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उन के पिता का नाम खेतारम तो मां का नाम इमरती देवी था.

जब रूमा देवी 5 साल की थीं, तभी उन की मां की मौत हो गई थी. मां की मौत के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली.

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सौतेली मां के साथ रहने के बजाय रूमा देवी अपने चाचा के साथ रहने लगीं. 7 बहनों और एक भाई में रूमा देवी सब से बड़ी थीं.

राजस्थान में तब पीने के पानी की बड़ी किल्लत थी. रूमा देवी ने वे दिन भी देखे हैं, जब पीने के लिए पानी  10 किलोमीटर दूर बैलगाड़ी से लाया जाता था.

8वीं जमात पास करने के बाद रूमा देवी की पढ़ाई छुड़वा दी गई. स्कूल छूटने के बाद वे अपनी चाची के साथ घरगृहस्थी के कामकाज सीखते हुए घर के कामों में मदद करने लगीं.

17 साल की ही छोटी उम्र में रूमा देवी की शादी बाड़मेर के ही गांव बेरी के रहने वाले टिकूराम से कर के उन्हें ससुराल भेज दिया गया.

टिकूराम नशामुक्ति संस्थान, जोधपुर के साथ मिल कर काम करते हैं. उसी छोटी उम्र में रूमा देवी ने एक बेटे को जन्म दिया, पर उन का मासूम बेटा उचित इलाज न मिलने की वजह से महज 48 घंटे बाद ही काल के गाल समा गया.

इस आघात से निकलना रूमा देवी के लिए आसान नहीं था, पर उन के घर की माली हालत काफी खराब थी, इसलिए उन्होंने घर से कुछ ऐसा करने के बारे में विचार किया, जिस से वे भी चार पैसे कमा कर घर वालों की मदद कर सकें.

रूमा देवी की दादी ने उन्हें कसीदाकारी की कला सिखाई थी. अपने बेटे की मौत के शोक में दिन काट रही रूमा देवी के मन में अपनी इस कला के जरीए आजीविका चलाने का विचार आया. उन्होंने परिवार वालों को बताया. पहले तो उन्होंने विरोध किया, पर किसी तरह राजी कर के रूमा देवी ने घर में ही हाथ द्वारा सिलाई कर के एक हैंडबैग बनाना शुरू किया.

रूमा देवी द्वारा बनाए गए पहले हैंडबैग को बेच कर कुल 70 रुपए की कमाई हुई. इस 70 रुपए से उन्होंने आगे के सफर के लिए कुशन, धागा, कपड़ा और प्लास्टिक का रैपर जैसा सामान खरीदा.

उन्हीं की तरह की दूसरी औरतें भी कुछ कमाई कर सकें, यह सोच कर रूमा देवी ने इस काम के लिए आसपड़ोस की दूसरी औरतों को साथ लेने का निश्चय किया.

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रूमा देवी द्वारा तैयार किए गए स्थानीय ‘महिला बाल विकास’ की  10 औरतों ने 100-100 रुपए जमा कर के अपने काम के लिए जरूरी सामान मंगाया. एक सैकंडहैंड सिलाई मशीन खरीदी.

दसों औरतों ने अलगअलग काम बांट लिए. उन्होंने खास शैली के बाड़मेरी कढ़ाई से सजे हैंडबैग, कुशन कवर, साड़ी और परदे बना कर उन्हें बेचना शुरू किया.

बाकी सहयोगी औरतों को काम मिलता रहे, इस के लिए रूमा देवी ने साल 2008 में बनी और विक्रम सिंह द्वारा चलाई जा रही संस्था ‘ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान’ से संपर्क किया. यह संस्था राजस्थान हस्तशिल्प उत्पादों द्वारा औरतों को आत्मनिर्भर बनाती है.

साल 2008 में रूमा देवी इस संस्था से जुड़ीं. इस संस्था से रूमा देवी को  3 दिनों का काम मिला. रूमा देवी और उन के साथ काम करने वाली औरतों में काम करने का इतना जोश था कि 3 दिनों का काम उन्होंने एक ही दिन में पूरा कर डाला. इस तरह उन्हें ज्यादा से ज्यादा काम मिलता गया और वे उसे समय से पहले कर के देती रहीं.

रूमा देवी ने संस्था से जुड़ कर उस के लिए हस्तशिल्प के नए डिजाइन तैयार किए. तैयार सामान की बाजार में मांग बढ़ाई, इसीलिए साल 2010 में संस्थान की कमान रूमा देवी को सौंप दी गई. उन्हें संस्था का अध्यक्ष बना दिया गया. इस संस्था का हैड औफिस बाड़मेर में ही है.

रूमा देवी के घर चार पैसे आने लगे, तो वे बाड़मेर के दूसरे गांवों में रहने वाली औरतों को अपने पैरों पर खड़ा करने का निश्चय किया. इस के लिए रूमा देवी ने खुद गाड़ी में बैठ कर दूरदूर तक गांवों  में जा कर वहां रहने वाली औरतों से मिलना शुरू किया.

राजस्थान के गांवदेहात के इलाके में लोग दूरदूर अलगअलग छोटेछोटे घर बना कर रहते हैं, इसलिए रूमा देवी पूरे दिन घूमतीं तो 4-6 परिवारों से ही मुलाकात होती.

रूमा देवी खुद औरत थीं. उन का घर से निकलना किसी को पसंद नहीं था. उन के घर से बाहर जाने पर लोग तरहतरह की बातें करते, ताने मारते, फिर भी हालात से हारे बगैर उन्होंने औरतों और उन के घर वालों को समझाते हुए  75 गांवों की तकरीबन 22,000 औरतों को अपने साथ काम करने के लिए बढ़ावा दिया.

आज रूमा देवी की कोशिशों से ये औरतें अपने परिवार की माली तौर पर मदद कर रही हैं. इन औरतों द्वारा अलगअलग तरह के कपड़ों पर खास तरह के पैचवर्क और कढ़ाई कर के दुपट्टा, कुरती और साड़ी, परदों को सजाया जाता है. उन के बिकने पर जो फायदा होता है, सीधे वह इन औरतों को मिलता है.

आज इस संस्था से जुड़ी औरतों के कामकाज का सालाना टर्नओवर करोड़ों रुपए का है. रूमा देवी द्वारा की गई कोशिशों को साल 2018 में औरतों के लिए सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘नारी शक्ति पुरस्कार’ से नवाजा गया.

15 व 16 फरवरी, 2020 को अमेरिका में आयोजित 2 दिवसीय हार्वर्ड इंडिया कौंफ्रैंस में भी रूमा देवी को बुलाया गया था. तब वहां उन्हें हस्तशिल्प उत्पाद प्रदर्शित करने के साथसाथ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के बच्चों को पढ़ाने का भी मौका मिला. इस के अलावा रूमा देवी को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में अमिताभ बच्चन के सामने हौट सीट पर बैठने का मौका मिल चुका है.

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साल 2016-17 में जरमनी में दुनिया का सब से बड़ा ट्रेड फेयर लगा था. उस में शामिल होने के लिए तकरीबन 15 लाख रुपए फीस लगती थी. पर रूमा देवी की टीम को उस ट्रेड फेयर में मुफ्त में बुलाया गया था.

साल 2019 में जब रूमा देवी को ‘फैशन डिजाइनर औफ द ईयर’ घोषित किया गया, तो उन्होंने कहा कि हर महिला में एक खास काबिलीयत होती है. अपनी खूबी की पहचान कर के उसे बाहर लाएं. रूमा देवी पर हाल में एक किताब भी लिखी गई है, जिस का नाम है ‘हौसले का हुनर’.

विवेक सागर प्रसाद: गांव का खिलाड़ी बना ओलंपिक का हीरो

‘पढ़ोगेलिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगेकूदोगे तो होगे खराब’… इस लोकोक्ति को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के छोटे से गांव चांदौन के खिलाड़ी विवेक सागर प्रसाद ने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में अर्जेंटीना के खिलाफ गोल दाग कर सच साबित कर दिया है.

टोक्यो ओलिंपिक में 29 जुलाई, 2021 का दिन विवेक सागर प्रसाद के नाम रहा. अर्जेंटीना से मुकाबले में भारतीय हौकी टीम को हर हाल में जीत की दरकार थी. टोक्यो ओलिंपिक में सुबह 6 बजे से जैसे ही अर्जेंटीना और भारत के बीच मुकाबला शुरू हुआ, भारतीय टीम ने दबदबा बना कर 3 गोल कर दिए. विवेक सागर प्रसाद ने भारतीय टीम की ओर से गोल दाग कर देश की जीत तय कर दी.

5 अगस्त, 2021 को टोक्यो ओलिंपिक में हुए हौकी मैच में भारतीय पुरुष हाकी टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए जरमनी की टीम को 5-4 से मात दे कर कांस्य पदक अपने नाम कर लिया. जैसे ही भारत को मैडल मिलने का रास्ता साफ हुआ, तो टीम में मध्य प्रदेश से नुमांइदगी कर रहे विवेक सागर प्रसाद का पूरा गांव खुशी से  झूम उठा.

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विवेक के भाई विद्या सागर बताते  हैं कि मैच के आखिरी 6 सैकंड तक पूरा परिवार दिल थाम कर बैठा रहा. जैसे ही मैच खत्म हुआ, पिता रोहित सागर और मां कमला देवी की आंखों से आंसू आ गए. विद्या सागर ने सुबह जीत के बाद विवेक से बात की तो विवेक ने टोक्यो से वीडियो कालिंग कर अपने भाई को मैडल दिखाया.

विवेक सागर के पिता रोहित प्रसाद सरकारी प्राइमरी स्कूल गजपुर में शिक्षक हैं. मां कमला देवी गृहिणी और बड़ा भाई विद्या सागर सौफ्टवेयर इंजीनियर है. इस के अलावा 2 बहनें पूनम और पूजा हैं. पूनम की शादी हो चुकी है और पूजा पढ़ाई कर रही है.

जीत के बाद विवेक सागर प्रसाद के गांव में दीवाली सा माहौल बन गया. गांव के नौजवान, बच्चे, महिलाएंपुरुष हाथ मे तिरंगा ले कर ढोल की थाप के साथ  झूम उठे. घर पर विवेक के पिता रोहित प्रसाद, मां कमला प्रसाद और भाई विद्यासागर भी जम कर नाचे. पूरा गांव उन्हें बधाई देने घर पर आ गया. पिता इतने खुश थे कि गांव में मिठाई बंटवाने के लिए बाहर आ गए.

जिला हौकी संघ के सदस्यों ने भी विजय जुलूस निकाल कर टीम इंडिया की जीत का जश्न मनाया. विवेक के पिता रोहित प्रसाद ने कहा कि आज विवेक ने पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन कर दिया है.

इटारसी के और्डिनैंस फैक्टरी निवासी खिलाड़ी सोनू अहिरवार ने पहली बार विवेक को हौकी खेलने के लिए प्रेरित किया था. विवेक की उम्र जब 8 साल की थी, तब सोनू ने उसे हौकी की स्टिक ला कर दी थी.

विवेक सागर प्रसाद के लिए इस मुकाम को पाना आसान नहीं था. विवेक सागर के प्रारंभिक कोच गजेंद्र पटेल ने बताया कि पहले विवेक क्रिकेट खेलता था. उन्होंने क्रिकेट मैदान में उस की फुरती और स्टैमिना देखते हुए हौकी टीम में शामिल कराने का प्रयास किया.

विवेक सागर प्रसाद के पिता रोहित प्रसाद उस के हौकी खेलने के शुरू से ही खिलाफ रहे, लेकिन तकरीबन 10 साल पहले एक मैच में लोगों ने उस के खेल की जम कर तारीफ की और उस मैच में विवेक को 500 रुपए के इनाम के साथ लोगों की वाहवाही मिली, तो उस के बाद पिता रोहित प्रसाद ने फिर कभी विवेक को हौकी खेलने से नहीं रोका.

12 साल की उम्र में विवेक सागर प्रसाद जब अकोला में एक टूर्नामैंट खेल रहे थे, तभी मशहूर हौकी खिलाड़ी अशोक ध्यानचंद की उन नजर पड़ी और उन्होंने विवेक की प्रतिभा को पहचान लिया.

अशोक ध्यानचंद ने विवेक सागर का नामपता लिया और फिर अपने पास अकादमी में बुला लिया. विवेक सागर प्रसाद ने बताया कि कुछ दिनों तक उन्होंने मुझे अपने घर में ही ठहराया था.

विवेक सागर प्रसाद का चयन मध्य प्रदेश हौकी अकादमी में 2012-13 में हुआ था. विवेक के खेल में अशोक ध्यानचंद की कोचिंग से खेल में निखार आया. उन्होंने मध्य प्रदेश हौकी अकादमी में 30 महीने तक कोचिंग ली. वहां से वे आगे की कोचिंग के लिए हौकी अकादमी दिल्ली चले गए.

विवेक सागर प्रसाद भी ऐसे खिलाडि़यों में से एक हैं, जिन्होंने अपने ऊपर आई बाधा को हौसले से पार कर लिया. साल 2015 में प्रैक्टिस के दौरान विवेक की गरदन की हड्डी टूट गई थी. दवाओं की हैवी डोज से उन की आंतों में छेद हो गया था और वे 22 दिनों तक जिंदगी और मौत से जू झते रहे. आखिरकार उन्होंने जिंदगी का मैच जीत लिया. इस के बाद जूनियर हौकी टीम की मलयेशिया में कप्तानी की और ‘मैन औफ द सीरीज’ पर कब्जा जमा लिया.

बातचीत में विवेक सागर प्रसाद बताते हैं कि किस तरह शुरुआती दौर में वे इटारसी के सीनियर प्लेयर को हौकी खेलता देखते थे, तो उन के मन में भी हौकी खेलने का विचार आता था.

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हौकी के प्रति जब विवेक सागर प्रसाद का लगाव बढ़ा, इस के बाद सीनियरों से हौकी स्टिक और दोस्तों से जूते मांग कर मिट्टी वाले ग्राउंड में प्रैक्टिस करने लगे.

भारतीय पुरुष हौकी टीम ने जरमनी को टोक्यो ओलिंपिक खेलों के कांस्य पदक मैच में 5-4 से शिकस्त दे कर  41 साल बाद पदक जीता.

भारत ने इस से पहले साल 1980 में मास्को ओलिंपिक में गोल्ड मैडल जीता था. भारतीय टीम की इस ऐतिहासिक जीत से पूरे देश में खुशी का माहौल है.

विवेक सागर प्रसाद ने ओलिंपिक तक का यह सफर इटारसी के पास के छोटे से गांव चांदौन से शुरू किया. उन्होंने अनेक नैशनल और इंटरनैशनल लैवल की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और लगातार अच्छे प्रदर्शन के बल पर भारतीय टीम में अपना स्थान बनाया.

विवेक सागर प्रसाद के यहां तक पहुंचने की कहानी भी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है. विवेक सागर प्रसाद का परिवार शीट की छत वाले घर में रहता है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब उन्हें बतौर एक करोड़ रुपए इनाम देने की घोषणा की, तो इस पर विवेक का कहना है कि वे इस पैसे से अपनी मां के लिए आलीशान मकान बना कर देंगे.

विवेक सागर प्रसाद के पिता बताते हैं कि वे तो विवेक को हमेशा से इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन उसे तो हौकी प्लेयर ही बनना था.

विवेक की मां कमला देवी बताती हैं कि बेटे की पिटाई नहीं हो, इसलिए कई बार उस के पिता से  झूठ बोलना पड़ा. वह घर नहीं आता तो वे कह देतीं कि वह सब्जी लेने गया है, फिर चुपके से बहन पूजा दूसरे दरवाजे से घर में बुला लेती.

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भाई विद्यासागर के मुताबिक, जब दोस्तों ने कहा कि विवेक टैलेंटेड है और खूब आगे जाएगा, तो उन्होंने अपने पापा को हौकी खेलने के लिए मनाया.

गांव की मिट्टी में पलाबढ़ा नौजवान विवेक सागर प्रसाद आज हीरो बन कर उभरा है. विवेक सागर प्रसाद की लगन, मेहनत और जुनून ने यह साबित कर दिया है कि हौसले बुलंद हों तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है.

पोंगापंथ: खरीदारी और अंधविश्वास

कुछ लोग शनिवार के दिन नए जूते पहनने या खरीदने को अच्छा नहीं मानते हैं. अब ऐसे लोगों से पूछें कि क्या जूते की दुकानें शनिवार को बंद रहती हैं या वहां कोईर् खरीदारी नहीं होती? जूते खरीदने हों तो उस के लिए कोई दिन अच्छा या बुरा नहीं होता.

इसी तरह एक अंधविश्वास यह भी है कि शनिवार को तेल नहीं खरीदना चाहिए, फिर चाहे वह मूंगफली का हो या सरसों का या फिर सोयाबीन का. समझ में नहीं आता कि इस दिन खरीदे गए तेल में क्या जहर घुल जाता है? क्या शनिवार को खरीदे गए तेल में बना भोजन स्वादिष्ठ नहीं होता?

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होटल, ढाबे और ठेले वाले क्या दिन देख कर तेल खरीदते हैं? क्या इस दिन तेल मिलें बंद रहती हैं या उन में उत्पादन नहीं होता? जब शनिवार को तेल बन सकता है, तो खरीदने में क्या दिक्कत है?

एक रिवाज यह भी है कि शनिवार को नमक नहीं खरीदना चाहिए, क्योंकि इस से आदमी कर्जदार होता है. कर्जदार कर्ज लेने से होता है, नमक खरीदने से नहीं. वैसे भी नमक इतना महंगा नहीं है कि एक किलो नमक खरीदने के लिए किसी को कर्ज लेना पड़े. नमक तो खाने में इस्तेमाल होने वाली एक चीज है, उसे किसी भी दिन खरीद सकते हैं.

शनिवार को लोहा या लोहे से बनी चीजें खरीदने को भी अपशकुन माना जाता है. कहा जाता है कि इस दिन कैंची तक नहीं खरीदनी चाहिए.

लोहा खरीदने में शकुनअपशकुन का बंधन क्यों? लोहे से बनी छोटी आलपिन या कील से ले कर घर बनाने में काम आने वाले सरिए वगैरह खरीदने से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

कुछ लोग शनिवार के दिन किसी भी तरह का ईंधन जैसे लकड़ी, कंडे, गैस सिलैंडर वगैरह तक खरीदना अच्छा नहीं समझते हैं. पता नहीं, इन्हें खरीदने से परिवार पर कौन सी बड़ी मुसीबत आ जाएगी? यह सब अंधविश्वास है.

हमारे यहां खास मौकों पर खास चीजें खरीदने को शुभ माना जाता है. किसी खास दिन जैसे धनतेरस को सोना, चांदी या बरतन खरीदने का अंधविश्वास?है. बहुत से लोग तो अपनी हैसियत से बाहर जा कर इस दिन खरीदारी करते हैं, जिस से उन का बजट गड़बड़ा जाता है.

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बरतन हो या सोनाचांदी, धनतेरस पर ही क्यों खरीदें? जब जरूरत हो तब क्यों नहीं? क्या धनतेरस को खरीदने पर दुकानदार कोई छूट देता है?

इसी तरह कुछ खास दिनों पर गाड़ी खरीदना शुभ माना जाता है. जब गाड़ी (दोपहिया या चारपहिया) खरीदनी ही है तो उस के लिए इंतजार क्यों? जब जरूरत हो, जेब में पैसा हो, खरीदना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि किसी खास दिन गाड़ी लेने से ही वह फलदायी होती है. पर गाड़ी बेचने वालों के यहां उस खास दिन खरीदारों की भीड़ देखी जा सकती है. कुछ को तो अपनी पसंद का रंग या मौडल तक नहीं मिलता है. इस के बावजूद भी उन्हें समझौता करना पड़ता है.

इसी तरह कुछ खास मौकों पर बहीचौपड़े या रजिस्टर वगैरह खरीदना शुभ माना जाता है. हैरत की बात तो यह है कि कंप्यूटर के जमाने में इन की जरूरत ही नहीं रह गई है, तो भी कारोबारी अंधविश्वास के चलते बहीचौपड़े खरीदते हैं और जो सालभर धूल खाते रहते हैं. अंधविश्वास की खातिर इन्हें खरीदने की क्या तुक है?

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गांव की औरतें: हालात बदले, सोच वही

राज कपूर ने साल 1985 में फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी, जो पहाड़ के गांव पर आधारित थी. इस में हीरोइन मंदाकिनी ने गंगा का किरदार निभाया था. फिल्म का सब से चर्चित सीन वह था, जिस में मंदाकिनी  झरने के नीचे नहाती है. वह एक सफेद रंग की सूती धोती पहने होती है. पानी में भीगने के चलते उस के सुडौल अंग दिखने लगते हैं.

उस दौर में गांव की औरतों का पहनावा तकरीबन वैसा ही होता था. सूती कपड़े की धोती के नीचे ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का रिवाज नहीं था. इस की वजह गांव की गरीबी थी, जहां एक कपड़े में ही काम चलाना पड़ता था.

गांव को ले कर तमाम दूसरी फिल्मों में भी ऐसे सीन देखने को मिल सकते हैं. ‘मदर इंडिया’, ‘शोले’, ‘नदिया के पार’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘तीसरी कसम’, ‘लगान’ जैसी तमाम फिल्मों में गांव के सीन दिखते हैं.

इन फिल्मों को देखने के बाद आज के गांव देखेंगे तो लगेगा कि गांव बेहद बदल गए हैं. अब गांव की लड़कियों को जींस, स्कर्ट, टौप में देख सकते हैं.

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फिल्म ‘नदिया के पार’ जैसे सीन अब गांवों में नहीं दिखते हैं. न वैसा पहनावा दिखता है और न ही वैसी बोली. 21वीं सदी के गांव ऊपर से देखने में

बहुत बदले दिखते हैं, विकसित दिखते हैं, पर अब वहां के लोगों की सोच में कट्टरपन आ गया है, जिस की वजह से गांव पहले के मुकाबले आज ज्यादा पिछड़े दिखने लगे हैं.

सोच में बढ़ रहा कट्टरपन

देश के ज्यादातर गांवों में पिछले 20-25 साल के मुकाबले हालात बदले हुए दिख रहे हैं. गांव वालों के पहनने के कपड़े बदल गए हैं. पहले की तरह कच्चे मकान कम दिखते हैं. गांव की गलियों में खड़ंजे लग गए हैं, जिस की वजह से गांव की गलियां पक्की दिखने लगी हैं. गांव की दुकानों में पैकेटबंद सामान मिलने लगे हैं. चाय, छाछ और दूध की जगह कोल्डड्रिंक पीने का चलन बढ़ गया है.

गांव के करीब तक पक्की सड़कें पहुंच गई हैं. शादीब्याह और दूसरे मौकों पर होने वाली रौनक बढ़ गई है. गांव में सरकारी स्कूल हैं, पर उन में पढ़ने वाले बच्चे कम हैं. प्राइवेट स्कूलों का चलन बढ़ गया है.

पर अगर नहीं बदली है तो गांव के रहने वालों की सोच. इस सोच में जाति और धर्म के लैवल पर कट्टरपन और छुआछूत पहले के मुकाबले बढ़ गई है. एकदूसरे के प्रति सहयोग की भावना कम हो गई है.

गांव में चौपालें अब लगती नहीं दिखती हैं. एकएक गांव में कईकई गुट बन गए हैं. नई उम्र के लोग गांव में कम दिखते हैं. गांव की जगह कसबों के बाजारों और शहरों में लोग काम करने चले जाते हैं.

पहले के लोग कम पढ़ेलिखे होते थे, पर सम झदार और सहनशील होते थे. इस वजह से गांव में  झगड़े कम होते थे और जब होते थे तो आपस में मिलबैठ कर लोग सुल झा लेते थे. पंचों का कहना सभी मानते थे. पर अब जब तक कोई मसला थाने और तहसील तक नहीं पहुंचता है, तब तक वह हल नहीं होता है.

इस की वजह से थाने और तहसील की नजर में गांव दुधारू पशु जैसे हो गए हैं. अगर गांव के  झगड़े वहीं निबट जाएं तो पुलिस और वकील पर खर्च होने वाला इन का पैसा भी बचेगा.

गांवदेहात में दलित और ऊंचे तबके के लोगों के बीच आपसी दुश्मनी में दलित ऐक्ट का इस्तेमाल तेजी से बढ़ गया है. इस से समस्या का समाधान नहीं होता है. पुलिस जांच के नाम पर ज्यादा पैसा मांगती है. कई बार दलित ऐसे  झगड़ों में मोहराभर होते हैं. दलित ऐक्ट लगने से जमानत जल्दी नहीं मिलती. आरोपी को ज्यादा दिन जेल में रहना पड़ता है.

एसपी रैंक के एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘‘गांव के  झगड़ों में औरतें और दलित मोहरा बन कर रह गए हैं. लोग दलित और औरतों को आगे कर के दलित ऐक्ट और बलात्कार के  झूठे मुकदमे लिखा कर अपने विरोधी को परेशान करने लगे हैं.’’

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पहनावा बदला, सोच नहीं

पुराने समय में गांव की ज्यादातर औरतें सूती धोती पहनती थीं. इस के नीचे वह पेटीकोट या ब्लाउज नहीं पहनती थीं. पैरों में चप्पल कम ही होती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बाल दिखने लगते थे. साबुन, क्रीम, पाउडर का इस्तेमाल कम होता था. गांव की औरतें बाल नहीं कटाती थीं. वे हाटबाजार में खरीदारी करने नहीं जाती थीं. घर के बाहर कम निकलती थीं, परदा प्रथा ज्यादा थी.

अब हालात में बदलाव दिखता है. औरतें पहले से भी ज्यादा कट्टर हो गई हैं. करवाचौथ की पूजा पहले गांवदेहात में कम होती थी. अब ज्यादा होने लगी है. गांवगांव में देवी की पूजा ज्यादा होने लगी है. प्रवचन और भजन होने लगे हैं. गांव में ऐसे मौकों पर सब से ज्यादा औरतें ही वहां दिखती हैं.

गांव की औरतें पहले खेतों में काम और पशुओं की देखभाल करती थीं, पर अब वे यह नहीं करती हैं. हां, भजन और प्रवचन सुनने में समय जरूर गंवाने लगी हैं. पढ़ीलिखी लड़कियां भी पूजापाठ में लगी रहती हैं. अच्छा दूल्हा मिल जाए, अच्छी शादी हो जाए, इस के लिए सावन के 16 सोमवार का व्रत रखने लगती हैं.

धार्मिक कहानियों में बताया जाता है कि जो लड़की सावन के 16 सोमवार  का व्रत रखेगी, उसे अच्छा दूल्हा यानी वर मिलेगा. पुराणवादियों ने यह सोच इसलिए फैलाई है, ताकि नौजवान पीढ़ी दिमागी तौर से उन की गुलाम बनी रहे.

गांव की लड़कियों के जागरूकता कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वाली शालिनी माथुर कहती हैं, ‘‘गांव की लड़कियों की सोच में कट्टरपन आ गया है. वे यह सोचती हैं कि पूजापाठ और धार्मिक कर्मकांड से ही उन का भला होगा. पिछले कुछ सालों में यह सोच तेजी से बढ़ रही है.

‘‘सब से ज्यादा कड़वाहट तो हिंदूमुसलिम को ले कर बढ़ी है. पहले गांव के लोग ईद हो या होलीदीवाली, सब साथ मिल कर मनाते थे, पर अब ये त्योहार भी आपसी दूरियों को कम नहीं कर पा रहे हैं.

‘‘परेशानी की बात यह है कि कट्टरपन का विरोध करने वालों की संख्या में कमी आती जा रही है. लव जिहाद जैसे मसले ये दूरियां और भी ज्यादा बढ़ा रहे हैं. हिंदूमुसलिम लड़केलड़की की दोस्ती को केवल लव जिहाद के रूप में देखना बेहद खतरनाक सोच बन गई है.’’

सेहत पर भारी पुरानी सोच

माहवारी को आज भी गंदगी से जोड़ कर देखा जाता है. आज भी माहवारी होने पर औरतें अछूत सी हो कर रह जाती हैं. उन्हें नहाने तक नहीं दिया जाता है. लोगों से मिलनेजुलने की भी मनाही होती है.

माहवारी के दिनों में औरतों को कहा जाता है कि वे अचार को न छुएं. उन के ऐसा करने से अचार के खराब हो जाने का खतरा हो जाता है. माहवारी में औरतों को खाना बनाने और रसोई में जाने से रोका जाता है.

महिलाओं में माहवारी सुरक्षा को ले कर जागरूकता अभियान में लगी अंजलि श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘गांव में माहवारी को ले कर पुरानी सोच अभी भी कायम है. गांव की 70 फीसदी औरतें माहवारी के दिनों में कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी वे सैनेटरी पैड इस्तेमाल करने को तैयार नहीं हैं.

‘‘बहुत सारे ऐसे घर हैं, जो पक्के बने हैं. जिन की माली हालत अच्छी दिखती है. जिन घरों में पैसों को ले कर कोई परेशानी नहीं है, वहां की औरतें भी सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं.

‘‘पहले की औरतें इसलिए इस्तेमाल नहीं करती थीं, क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं होती थी. आज की औरतों को टैलीविजन और दूसरे जरीयों से यह पता तो चल जाता है कि सैनेटरी पैड को इस्तेमाल न करना खराब होता है, इस के बाद भी वे कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. इस से उन के अंगों में इंफैक्शन का खतरा बढ़ जाता है. सफेद पानी की समस्या और खुजली भी होने लगती है.

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‘‘कई बार ऐसी औरतें इंफैक्शन होने के चलते बच्चे पैदा करने लायक नहीं रहती हैं. इस के बाद भी वे अपनी सेहत की चिंता नहीं करती हैं.’’

पढ़ाईलिखाई पर नहीं जोर

पहले गांव के लड़केलड़कियां इसलिए पढ़ते थे कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. पर आज के दौर में सरकारी और निजी दोनों ही किस्म की नौकरियां खत्म सी हो गई हैं. ऐसे में गांव के लड़केलड़कियां पढ़ाई की उम्र में ही मेहनतमजदूरी करने शहर चले जाते हैं, जहां वे घरेलू नौकर के रूप में भी काम करने लगते हैं.

कई बार पूरे के पूरे परिवार अपने गांव से दूर शहर में घरेलू नौकरी करने लगते हैं. लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में तमाम ऐसे अपार्टमैंट्स बने हैं, जहां सैकड़ों की तादाद में औरतें घरेलू काम करती मिल जाती हैं.

वे खाना बनाने और साफसफाई करने के एवज में हर घर से तकरीबन 1,500 रुपए से ले कर 2,500 रुपए तक हर महीना लेती हैं. ऐसे में बहुत सी तो 15,000 से 20,000 रुपए महीना कमा लेती हैं. वे अपनी छोटी उम्र की लड़कियों को भी स्कूल भेजने की जगह पर घरेलू काम पर लगा देती हैं.

35 साल उम्र की शिवानी अपनी  12 साल की बेटी के साथ यही काम करने जाती है. वह कहती है, ‘‘पति अब मजदूरी नहीं कर पाते. डाक्टर ने उन्हें बो झा उठाने के लिए मना किया है. ऐसे में अब हम मांबेटी ही काम कर के घर का खर्च चलाती हैं.’’

थोड़ाबहुत पैसा आने के बाद ये लोग अपने हालात को भूल कर बड़े लोगों की तरह रहने के लिए उन की बराबरी करने लगते हैं. बड़े लोगों की तरह ही पूजापाठ, व्रत, तीजत्योहार मनाने लगते हैं. पैसा बचाने के लिए कम ही कोशिश करते हैं. ज्यादातर मर्द नशे और जुए की लत के शिकार हो जाते हैं. फिर वे अपनी औरतों को पीटने से बाज नहीं आते हैं.

समाजसेवी इंदु सुभाष कहती हैं, ‘‘पढ़ीलिखी होने के बाद भी बहुत सी औरतें पति द्वारा की गई पिटाई को अपनी किस्मत मान कर चुप रहती हैं. उन्हें लगता है कि उन का पति ही उन का देवता है. जो पति कर रहा है, वह उचित ही होता है. कमाई करने के बाद भी ऐसी औरतें मर्द के पैर की जूती बने रहने में ही फख्र महसूस करती हैं, जिस की वजह से घरेलू हिंसा बढ़ती है. इस का बुरा असर बच्चों पर भी पड़ता है.

‘‘पढ़नेलिखने और नए कानूनों के बाद भी इस रूढि़वादी सोच में बदलाव नहीं आ रहा है. देखने में गांव के हालात और औरतों की जिंदगी भले ही बदली दिखती हो, पर सही माने में सोच वही पुरानी और दकियानूसी है.’’

“ठग” जब स्वयं ठगी का शिकार बना!

ऐसा ही एक मसला है शंकर रजक का जिसने जाने कितने लोगों को ठगी का शिकार बनाया. यही नहीं ठगी के  पैसों के बल पर राजनीतिक पहुंच भी बना ली, एक समय ऐसा भी था जब उसका चारों तरफ डंका बज रहा था. ठगी के पैसों के दम पर शासन प्रशासन को अपने हथेली पर रखने वाला शंकर रजक कैसे बर्बाद हो गया और किस तरह खुद ठगी का शिकार हुआ, यह एक रोचक कहानी है जो यह बताती है कि ईमान की रोटी और ईमानदारी का व्यवहार लंबे समय तक टिकता है. और ठगी करने वाले अंततः कानून के शिकंजे में फंस कर जेल में चक्की पीसते हैं.

ठगी से अकूत संपत्ति बनाई

दर्जनों ठगी की घटनाओं को अंजाम देकर करोड़ों रूपए ठगने वाला शंकर रजक एक किंवदंती बनता चला गया है.

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आपको यह बताते चलें कि ठगी के इस बेताज बादशाह को निकट से देखने का अवसर इस लेखक को भी मिला है. उसने यह बताया था कि वह एक ठेकेदार के यहां नौकरी करता था एक दिन खेत में उसे हीरे मोती और सोना चांदी का बॉक्स मिल गया था और फिर जिंदगी बदल गई.

दरअसल, शंकर रजक बहुत ही शातिर किस्म का ठग था. वह झूठी कहानी गढ़ करके अपनी इमेज बनाता रहा लोगों को ठगता चला गया. निसंदेह उसके जीवन पर एक रोचक फिल्म भी बन सकती है.

अब आपको बताते चलें कि किस तरह शंकर रजक ठगी का शिकार हो गया है. आज वह जेल में बंद ठगी के मुकदमों में उलझा हुआ है. इस दरमियान एक व्यक्ति ने अपने दो बेटों के साथ मिलकर रजक की मां से बोलेरों की चाबी ले ली और पीपी फार्म में फर्जी हस्ताक्षर कर उसे बेच दिया.

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वस्तुत: शंकर रजक और छुरी निवासी शत्रुहन लाल देवांगन के बीच गहरी दोस्ती थी. करीब चार साल पहले शंकर के खिलाफ जमीन बेचने के नाम पर ठगी किए जाने के नाम से सिलसिले वार मामले सामने आने शुरू हुए. जिले में ही नहीं बल्कि राज्य के अन्य जिलों में भी एक दर्जन से अधिक धोखाधड़ी के मामले शंकर व उसके पुत्र के खिलाफ दर्ज किए गए.

यहां यह जानना आपके लिए जरूरी होगा कि बड़े-बड़े नेताओं के संबंध के बावजूद कानून से शंकर रजक बच नहीं पाया और अपने पुत्र सहित जेल पहुंच गया  इस बीच शत्रुहन उसका पुत्र आकाश देवांगन व कमल देवांगन शंकर के घर पहुंचे और उसकी मां मुलरिया बाई को गुमाराह कर बोलेरो क्रमांक सीजी 12 एजी 8997 की चाबी प्राप्त कर ली.  बाद में शंकर रजक ने शत्रुहन से बोलेरो की जानकारी ली तो पुराना पैसे की लेन देन का हवाला देते हुए गाड़ी बेच देने की बात कहने लगा.ठगों के सरदार शंकर को यह जानकारी हाथ लगी कि उसका फर्जी हस्तारक्षर कर गाड़ी का रजिस्ट्रेशन करा दिया गया है तो आवाक रह गया.  अब नई परिस्थितियों में ठग शंकर रजक की शिकायत पर पुलिस शत्रुहन व उसके दोनों पुत्रों के खिलाफ मामला पंजीबद्ध कर लिया है.

प्यार की झूठी कसमें

लेखिका- किरण बाला

‘‘तुम्हारी कसम, मैं तुम से दिल से प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर एक पल भी नहीं रह सकता. यकीन न हो तो तुम्हारे कहने पर अपनी जान भी दे सकता हूं.’’

विशाल और नेहा के बीच कुछ समय से अफेयर चल रहा था. पहले वे लुकछिप कर मिलते थे. फिर उन के बीच फिजिकल रिलेशन भी बनने लगे. नेहा ने कईर् बार उस से कहा कि यदि तुम मुझ से प्यार करते हो तो घर आ कर मेरे पापा या भैया से बात क्यों नहीं करते?

विशाल यह कह कर बात टाल देता कि शीघ्र ही वह आ कर उस के परिजनों से बात करेगा. इसी बीच उसे पता चला कि विशाल ने किसी अन्य लड़की से सगाई कर ली.

नेहा के पैरोंतले जमीन खिसक गई. जो विशाल कल तक प्यार की कसमें खाते नहीं थकता था, वह उसे इस तरह धोखा दे देगा, यह उस ने सपने में भी न सोचा था.

विशाल को फोन कर नेहा ने व्यंग्य किया, ‘‘सगाई की बहुतबहुत बधाई.’’

‘‘नेहा, तुम मेरी मजबूरी समझो. पेरैंट्स के दबाव की वजह से मुझे रिश्ता स्वीकारना पड़ा. मुझे माफ कर देना.’’ ऐसा कह कर विशाल ने पल्ला  झाड़ लिया.

प्रेमी द्वारा प्यार की  झूठी कसमें खाने और फिर उस के मुकर जाने से नेहा का प्यार पर से विश्वास उठ गया.

यह तो एक उदाहरण मात्र है. विशाल की भांति ऐसे कई लड़के हैं जो प्रेम का नाटक करने में माहिर हैं और  झूठी कसमें खा कर लड़की के जज्बातों से खेलते हैं. उन के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं और जब वे प्रैग्नैंट हो जाती हैं तो उन का अबौर्शन करा देते हैं या उन की कोख में पल रहे बच्चे को अपना मानने से इनकार कर देते हैं. उन से शादी करना तो दूर, दूध में मक्खी की भांति उन्हें बाहर निकाल फेंकते हैं.

आमतौर पर लड़कियां भोली होती हैं. वे अपने प्रेमियों पर भरोसा कर लेती हैं. जब प्रेमी प्यार की कसमें खाता है तो उस पर अविश्वास करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता. लेकिन जब प्रेमी के मन में पहले से ही दुर्भावना हो तो उसे प्रेमिका को धोखा देते देर नहीं लगती. वक्त पर वह पाला बदल लेता है और प्रेमिका देखती रह जाती है.

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उन प्रेमियों की कमी नहीं है जो आसमान से चांदतारे तोड़ कर लाने की कसमें खाते हैं, लेकिन क्या आज तक कोई भी प्रेमी अपनी यह कसम पूरी कर सका है?

प्रेमिका को रिझाने के लिए या अपने प्यार का यकीन दिलाने के लिए प्रेमी अपनी जान देने की बात करते हैं, लेकिन क्या प्रेमियों ने अपनी जान दे कर अपनी कसम को पूरा किया है? जाहिर है ये कसमें छलावा मात्र हैं.

जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे किसी तरह की कसमें नहीं खाते और न ही उन्हें इस की जरूरत होती है. ये तो उन कथित प्रेमियों के हथकंडे हैं जो लड़कियों को एक भोग वस्तु सम झते हैं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. इसलिए उन का शारीरिक और मानसिक शोषण करने में उन्हें जरा भी लाजशर्म नहीं आती.

आप का प्रेमी सच्चा है या  झूठा, इस का परीक्षण आप कई स्तरों पर कर सकती हैं. जो सच्चा प्यार करता है वह कभी भी आप से शरीर की मांग नहीं करेगा. अन्य शब्दों में, शारीरिक संबंध के लिए न तो बाध्य करेगा, न इस के लिए उकसाएगा. बल्कि यदि आप आगे हो कर इस की पहल करती हैं तो वह सख्ती से रोकेगा. उस की नजर में शादी के पूर्व शारीरिक संबंध बनाना ठीक नहीं.

सच्चा प्रेमी शारीरिक संबंधों के लिए शादी तक इंतजार करेगा. इस के विपरीत, प्रेम का नाटक करने वाला येनकेन प्रकारेण आप से शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करेगा. शादी करने का वादा कर के संबंध बनाने हेतु विवश कर देगा. वह तरहतरह की झूठी कसमें खा कर आप को यकीन दिला देगा ताकि आप शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति दे दें. लेकिन वह आप से शादी कभी करेगा ही नहीं. उस का इरादा तो शुरू से ही धोखा देना होता है.

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सच्चा प्रेमी सुखदुख में साथ देने की कसमें खाता नहीं बल्कि जरूरत पड़ने पर हाजिर होता है. जबकि  झूठे प्रेमी विपत्ति की घड़ी का बहाना बना कर कन्नी काट लेते हैं क्योंकि उन्हें उस के सुखदुख से कोई वास्ता नहीं होता.

हर लड़की को इस बात की सम झ होनी चाहिए कि वह सच्चे और  झूठे प्रेमी में अंतर कर सके. कसमें तो होती ही तोड़ने के लिए हैं. इसलिए उन पर यकीन न करें. एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि शादी से पूर्व अपना शरीर उस के हवाले न करें. सच्चा प्रेमी आप के कहने पर आप के परिजनों से मिलेगा. जबकि  झूठा प्रेमी परिजनों से मिलने का वादा तो करेगा लेकिन मिलेगा कभी नहीं. इसलिए सावधान रहें,  झूठे प्रेमी और उन की  झूठी कसमों से.

जादू टोना : और एक महिला ने  दी अग्नि परीक्षा!

हम चाहे जितना भी आधुनिक होने का ढोल पीट लें, हम चाहे जितना भी दुनिया जहान में आधुनिक होने, विकासशील होने का दंभ भरें. मगर सच्चाई यह है कि आज भी देश के ग्रामीण अंचल में महिला को अग्नि परीक्षा देकर के अंगारों पर चलना पड़ता है, तब जाकर के समाज और परिवार की भौंहे ढीली पड़ती है.

कोई आपसे यह कहें कि आज भी भारत में अग्नि परीक्षा का वही समय चल रहा है जो कथित रूप से राम राज्य में था तो आप निश्चित रूप से इसे नहीं मानेंगे. और आपकी ही तरह शासन प्रशासन ने भी इसे व्यक्तिगत मामला कह कर के पल्ला झाड़ लिया है इसका अभिप्राय यह है कि कानून की किताब में इसका कोई उल्लेख नहीं होगा और ना ही संसद या विधानसभा में इस पर कोई चर्चा होगी.

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जी हां!  यह सच्चाई एक बार पुनः देश के सामने है. जब घर परिवार की एक घरेलू महिला को परिवार में प्रताड़ित होकर के इस दफा सास के समक्ष अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है.और सबसे मजेदार बात यह है कि समाज कानून शासन आज भी  आंख बंद करके कानों को ढक करके मौन है.

यह सच्ची कहानी है मध्य प्रदेश के जिला छिंदवाड़ा के सौसर विकास खंड की. जहां एक महिला (लक्ष्मी बदला हुआ नाम) को अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी. लक्ष्मी पर कथित रूप से सास ने आरोप लगाया  कि उसने टोना-टोटका करके अपने पति को अपने वश में कर लिया है!

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और इस छोटी सी साधारण बात पर  महिला को नंगे पैर सुलगते अंगारों पर चलना पड़ा. सौसर तहसील के  रामकोना गांव में 15 अगस्त आजादी के दूसरे दिन मोहर्रम पर्व के बीच एक दरगाह का वीडियो इंटरनेट मीडिया पर वीडियो वायरल  है, जिसमें एक बाबा महिला पर उसके रिश्तेदारों द्वारा कलंक लगाए जाने के बात कर रहा है. वह उस महिला को पाक साफ साबित करने के लिए बलते हुए अंगारों पर चलने का आदेश देता है. वीडियो आज लोग देख रहे हैं उसमें साफ देखा जा सकता है कि  महिला दो दफा गर्म अंगारों पर चल रही है. और जैसा कि सीता की अग्नि परीक्षा में दिखाया गया था यहां भी महिला का संयोग वश बाल भी बांका नहीं हुआ. अब सवाल यह है कि यह वीडियो कितना तथ्य पूर्ण है यह प्रशासन की जांच का विषय है.

पति को वश में करने का अपराध?

लक्ष्मी के मुताबिक  उसकी सास और ससुराल पक्ष के अन्‍य परिजन उस पर अपने ही पति को अपने वश में करने का आरोप लगा रहे थे.

अब समझने वाली बात यह है कि कोई पत्नी अपने पति को वश में नहीं रखेगी तो भला किसे रखेगी. अब इस बात पर भी किसी महिला को अग्नि परीक्षा देनी पड़े तो यह समाज की एक ऐसी त्रासदी है जिसका प्रतिउत्तर भी समाज को ही देना होगा.

कुल मिलाकर के पति को अपने कब्जे में करने के आरोप को लेकर ससुराल पक्ष के द्वारा महिला को  सबूत देने के लिए  बाबा की दरगाह में लाया गया था. मामला जब शासन प्रशासन तक पहुंचा है तब महिला का यह बयान सामने लाया गया है कि  उसने अपनी मर्जी से अंगारों पर चलकर अपनी बेगुनाही का सबूत दिया है. याने कि मामला खत्म! अब इस पर ना पुलिस कोई कार्रवाई करेगी और नहीं संसद में कोई चर्चा होगी. व्यक्तिगत मामला बताकर इस एक गंभीर प्रश्न को उसकी गर्भ में ही भ्रूण हत्या कर दी जाएगी.

ऑनलाइन वर्क: युवाओं में बढ़ता डिप्रेशन

कोरोना के बाद से वर्क फ्रौम होम और औनलाइन क्लासेज का कल्चर पूरे विश्व में बढ़ा है. इस कल्चर के जहां कुछ शुरुआती नफे दिखे, वहीं इस के उलट नुकसान भी दिखाई दे रहे हैं, खासकर, युवाओं को इन से अधिक जू झना पड़ रहा है.

वर्क फ्रौम होम और औनलाइन क्लासेज युवाओं की मैंटल हैल्थ को प्रभावित कर रहे हैं. आज साइकोलौजिस्ट के पास आने वालों में बड़ी संख्या युवाओं की है. वर्क फ्रौम होम और औनलाइन क्लासेज के साइड इफैक्ट्स युवाओं को बीमार बना रहे हैं.

कोरोना के चलते कालेज से ले कर औफिस तक में युवाओं की निर्भरता मोबाइल और नैटवर्क पर बढ़ गई है. शुरूआत के दिनों में इस सिस्टम की सभी ने तारीफ की. कुछ लोगों ने माना कि बढि़या व्यवस्था है. बिना औफिस और कालेज जाए काम चल रहा है. पेरैंट्स इस बात को ले कर खुश थे कि युवाओं की निगरानी नहीं करनी पड़ रही. खासतौर पर लड़कियां अगर घर में हैं तो पेरैंट्स एकदम से चिंतामुक्त थे. बड़े शहरों में काम करने वाले युवा अपने घर वापस आ गए थे और वर्क फ्रौम होम से काम करने लगे थे. शुरुआती दिनों में अच्छा लगने वाला यह माहौल धीरेधीरे मैंटल हैल्थ पर भारी पड़ने लगा.

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साइकोलौजिस्ट डाक्टर नेहा आनंद कहती हैं, ‘‘मेरी क्लीनिक में कई पेरैंट्स अपने युवा बच्चों को ले कर आ रहे हैं जो कालेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले होते हैं या नईनई जौब में होते हैं. कुछ दिनों से या तो वे काफी गुस्से में रहने लगे हैं या फिर एकदम गुमसुम से हो गए हैं. कई में हाई ब्लडप्रैशर के लक्षण दिखने लगे हैं. उन से जब अच्छी तरह से बात की जाती है तो यह पता चलता है कि ‘वर्क फ्रौम होम’ और ‘औनलाइन क्लासेज’ की वजह से परेशानी बढ़ी है. ‘‘दरअसल, इन का उन के स्वास्थ्य पर ही प्रभाव नहीं पड़ रहा बल्कि उन के कार्य की क्षमता भी प्रभावित हो रही है और काम में गलतियां भी निकलने लगी हैं. सामान्य दिनों में अच्छी तरह से काम करने वाले लोग अब गलतियां करने लगे हैं.’’

बोझ बन गईं औनलाइन क्लासेज

ग्रेजुएशन में पढ़ रही वर्तिका बताती हैं, ‘‘शुरू में कुछ दिन तो औनलाइन क्लासेज अच्छी लगीं, लेकिन अब इस में दिक्कत आने लगी है. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा है सम झ नहीं आ रहा. नैटवर्क के कमजोर होने से कनैक्टिविटी सही नहीं होती. कोई जरूरी बात पूछनी हो तो समय निकल जाता है. कई युवा ऐसे होते हैं जो पढ़ाई को गंभीरता से नहीं ले रहे होते हैं. जिन की वजह से और दिक्कतें आती हैं. लगातार औनलाइन क्लासेज से आंखों पर जोर पड़ रहा है. इस के अलावा जब हम क्लासरूम में होते हैं तो केवल वहीं का ध्यान रखना पड़ता है. औनलाइन क्लासेज करते समय हमें पेरैंट्स और घर के दूसरे लोगों की बातें सुननी पड़ती हैं. बीचबीच में कुछ घर के काम भी मैनेज करने होते हैं. इन सब की वजह से अब औनलाइन क्लासें बो झ सी लगने लगी हैं.’’

क्लास ही नहीं, कोचिंग और ट्यूशन भी औनलाइन चल रहे हैं. कालेज और क्लासरूम में एकाग्रता बनी रहती थी. घर में पेरैंट्स की टोकाटाकी लगी रहती है. कालेज के दिनों में जब क्लासरूम में युवा होते थे तब उन का मोबाइल या तो बंद रहता था या फिर साइलैंट मोड पर होता था. औनलाइन क्लासों के समय मोबाइल खुला रहता है. इस वजह से तमाम मैसेज और नोटिफिकेशन आते रहते हैं. इस के कारण पढ़ाई से ध्यान भंग होता रहता है. एक ही जगह बंद रह कर काम करने से टैंशन और गुस्सा बढ़ने लगा है. जो डिप्रैशन और ब्लडप्रैशर को बढ़ाने का काम कर रहा है.

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वर्क फ्रौम होम ने बढ़ाए काम के घंटे

साइकोलौजिस्ट डाक्टर सोनल गुप्ता बताती हैं, ‘‘मैंटल हैल्थ की परेशानियों को ले कर आने वालों में सब से अधिक संख्या युवाओं की है. निजी कंपनियों में काम कर रहे युवा इस वजह से परेशान होते हैं कि उन के काम के घंटे खत्म हो गए हैं. वर्क फ्रौम होम में कंपनी यह मानती है कि हम घर से काम कर रहे हैं तो हमारे खर्चे घट गए हैं. उस ने तमाम तरह के इंसैंटिव खत्म कर दिए. सैलरी में कटौती कर दी. जब औफिस में काम करते थे तो काम के घंटे तय थे. अब सारे दिन और रात काम में लगे रहना पड़ता है. घरों में औफिस जैसा काम करने का माहौल नहीं है. ऐसे में काम करने में असुविधा होती है. औफिस में काम कई लोगों में बंट जाता था. कुछ सम झ नहीं आ रहा हो तो किसी सहयोगी से सलाह मिल जाती थी. अब ऐसा नहीं होता है, जिस की वजह से उन में तनाव बढ़ने लगा है.’’

यह सही है कि औफिस में काम करते समय दिनचर्या का रूटीन होता था. सुबह तैयार हो कर औफिस जाना, वहां दोस्तोंसहयोगियों से मिलना, रास्ते में शहर को देखते जाना आदि.

अब सुबह से शाम घर से ही काम करने में बोरियत होने लगी है. ऐसे में नौकरी के जाने, वेतन के कटने और दूसरी तमाम तरह की मुसीबतों से डिप्रैशन बढ़ने लगा है. यह युवाओं में तमाम तरह के हैल्थ इशू ले कर आ रहा है. हार्ट की बीमारियां ज्यादा बढ़ रही हैं.

दोस्त और सहयोगियों से दूरी

औफिस में तमाम ऐसे काम होते थे जो एकदूसरे की सलाह और सहयोग से पूरे हो जाते थे. वर्क फ्रौम होम में सारे काम खुद करने पड़ रहे हैं. ईमेल, व्हाट्सऐप, वीडियोकौल और जूम मीटिंग अब बोरियत का कारण होने लगे हैं. वर्क फ्रौम होम में घर वालों को लगता है कि अब तो औफिस भी नहीं जाना पड़ता है. औफिस वालों को लगता है घर से काम चल रहा है. ऐसे में युवा औफिस और घर दोनों की नजरों में काम नहीं कर रहा. औफिस से घर आने पर पहले स्वागत होता था. अच्छाअच्छा खाना मिलता था. अब ऐसा लग रहा जैसे खाना मांग कर अपराध कर रहे हों. घर के लोग भी ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे हम घर के काम न कर के केवल टाइमपास कर रहे हों.

वर्क फ्रौम होम में काम कर रहे हरीश नौटियाल कहते हैं, ‘‘घर और औफिस दोनों की नजरों में हम मेहनत नहीं कर होते हैं. इस से भी अधिक कमी हम दोस्तों, सहयोगियों के साथ चाय की चुस्कियों, उन के साथ हंसीखुशी के पलों, चुहलबाजियों और गौसिप को मिस कर रहे हैं. इस की वजह से हम तमाम तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. हमें रविवार की छुट्टी का रोमांच नहीं रह गया. हम वीकैंड की मस्ती को जी नहीं पा रहे. वर्क फ्रौम होम हमें युवावस्था में ही बुढ़ापे की तरफ ले कर जा रहा है.’’

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कैसे संभालें हालात

कोरोना का प्रभाव कम होने के साथ ही साथ हालात को धीरेधीरे पटरी पर लाने का प्रयास करना चाहिए.

वर्चुअल वर्क से ही काम नहीं चलेगा. ऐसे में वापस औफिस कल्चर पर आना चाहिए.

वर्क फ्रौम होम में काम के घंटे तय हों. ऐसे लोगों के प्रोत्साहन के लिए प्रयास किए जाएं.

आर्थिक हालात के लिए तमाम दूसरे कारण जिम्मेदार हैं. केवल कर्मचारियों को ही जिम्मेदार नहीं मानना चाहिए.

लौकडाउन के पहले जो स्टाफ था, अचानक उसे खराब बताना तार्किक नहीं है. आपसी सामंजस्य से ही हालात बेहतर होंगे.

युवाओं को अपनी डाइट और ऐक्सरसाइज पर ध्यान देना चाहिए. उन को अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने की जरूरत है.

युवाओं को अपने दोस्तोंसहयोगियों से बात करते रहना चाहिए. सावधानी से खुली हवा में घूमना चाहिए.

आंखों में धूल झोंकने का नया ड्रामा!

ग्रामीण अंचल के सीधे साधे लोगों के अलावा शहर के पढ़े-लिखे लोग भी नटवरलाल बनकर घूमने वाले अपने आसपास के लोगों के शिकार हो रहे हैं. क्या है इसका मूल कारण और कैसे आप ठगी से बच सकते हैं, पढ़िए यह आलेख.

रूपए चार गुना करने के नाम पर ठगी  का  तरीका सामने आया है.  दरअसल, एक काले रंग के कपड़े में रुपए लपेट कर चार गुना करने का सपना दिखाकर 10 लाख रुपए की ठगी हो गई. पुलिस ने मामले में एक ढोंगी बाबा समेत 4 लोगों को  गिरफ्त में लिया है .  पूछताछ में फर्जी बाबा ने ठगे गए पैसे से ऐश करने शराब पीने और जमीन खरीदने की बात कबूल कर ली है.

ठगी के इस हैरतअंगेज मामले में प्रार्थी को पहले डेमो दिखाकर विश्वास जीत लिया गया. तरुण साहू ने ठगी का अहसास होने पर पुलिस में  एक शिकायत दर्ज कराई . उसने बताया   संतोष विश्वकर्मा ने अपने साथी संतराम जोशी और यादव बाबा के साथ मिलकर उसके साथ 10 लाख रुपए की ठगी की है. तरुण साहू ने बताया कि तीनों ने उसे पैसे को चार गुना करने का झांसा देकर उसे अपने मायाजाल में फंसाया. उन्होंने डेमो दिखाकर  उसका विश्वास जीत लिया . इसके बाद  जुलाई के अंतिम सप्ताह में  10 लाख रुपए को एक काले कपड़े में लपेटकर रकम चार गुना करने का दावा करने लगे, लेकिन जैसी ही पीड़ित किसी काम के लिए अपने कमरे में घुसा. वैसे ही आरोपियों  10 लाख रुपए लेकर गायब कर स्वयं भी नदारद हो गए.   पुलिस ने 24 घंटे के अंदर ही संतोष विश्वकर्मा और संतराम जोशी को गिरफ्तार कर लिया  था.इधर ढोंगी बाबा अपने साथियों को धोखा देकर भाग गया था दोनों ने पूछताछ में अपना अपराध स्वीकार कर लिया और पुलिस को बताया कि उन्होंने यादव बाबा के फेर में आ कर ठगी की घटना को अंजाम दिया था.

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मजे की बात यह है कि कथित यादव बाबा उन्हें भी गच्चा दे कर सारे रूपए लेकर रफूचक्कर हो गया था.

अब आगे पुलिस के समक्ष ढोंगी बाबा एक चुनौती के रूप में सामने थे और उस यादव बाब की  तलाश कर रही थी. पुलिस के अनुसार  उसका कुछ पता नहीं चल रहा था . भारी मशक्कत के बाद दूसरे जिले से पुलिस टीम ने उसे गिरफ्तार किया .इधर पुलिस ने  आरोपियों से 2 लाख 40 हजार नकद और अन्य सामग्री बरामद की  है. बताया जा रहा है बाकी रुपयों से ढोंगी बाबा ने मोह माया के चक्कर में जमीन खरीद ली है.

लालच से बचिए

अक्सर लालच में पड़कर आदमी अपनी गाढ़ी कमाई को लूटा बैठता है. ऐसी प्रतिदिन जाने कितनी घटनाएं देशभर में घटित हो रही हैं.

हमने इस संदर्भ में आपके लिए पुलिस अधिकारी विधि के जानकार लोगों से बातचीत करके यह आलेख तैयार किया है. जिसमें हम यह स्पष्ट रूप से बताना चाहते हैं कि आप किस तरह समाज में होने वाली ठगी और लूट से बच सकते हैं. आपकी थोड़ी भी लापरवाही और लालच आपको ठगी का शिकार बना सकती है.

इस महत्वपूर्ण सामाजिक त्रासदी पर हमने पुलिस की अधिकारी इंद्र भूषण सिंह से  चर्चा की उनके मुताबिक मेरे पुलिसिया कार्यकाल के लगभग 30 वर्षों के समय में अनेक मामले ठगी के  हमारे जांच में आते रहे हैं और अगर मैं इसका मूल स्रोत आपको बताऊं तो वह सिर्फ एक है, और वह है लालच.

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आमतौर पर गांव के सीधे-साधे ग्रामीण लोगों के अलावा शहर के चतुर चालाक समझे जाने वाले शिक्षित वर्ग के लोग भी रुपए पैसों की लालच में पड़कर के ढोंगी ठगों के शिकार बन जाते हैं.

हाईकोर्ट के अधिवक्ता अविनाश शुक्ला के मुताबिक समाज में हो रही ठगी की मामलों की जो बारीक समझ मैं आपके पाठकों को बताना चाहता हूं, वह यह है कि अगर कोई आपको यह कहे कि बिना श्रम के आपको यह रुपए मिलने वाले हैं तो आप समझ जाइए कि आगे आप ठगी का शिकार हो सकते हैं.

संगीत मनोविज्ञान के जानकार घनश्याम तिवारी एक शिक्षक हैं आपके मुताबिक रुपए पैसों की लालच में आकर के लोग ठगी का शिकार बन जाते हैं, आम लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि अगर कोई आपको 1 का 4 गुना देने की बात कर रहा है तो फिर वह स्वयं अपना पैसा 4 गुना क्यों नहीं कर लेता.

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