Harleen Deol: एक कैच ने बनाया “सुप्रीम गर्ल” 

जीवन के संघर्ष में कब कौन ऊंचाई को छूने लगता है, कोई नहीं जानता. 23 साल की हरलीन देओल को क्रिकेट के जुनून में “एक कैच” ने ऐसी पहचान दी है जिसे जादुई, मायावी या एंद्ररिक कहा जा सकता है. सिर्फ एक कैच के कारण हरलीन देओल आज लोगों की आंखों का तारा बन गई हैं. क्रिकेट की दुनिया में जहां उसकी बेहद प्रशंसा हुई है वहीं आम जनता, खेल प्रेमी क्रिकेट की “सुप्रीम गर्ल” संबोधित कर रहे हैं.

दरअसल,खेल के मैदान में ऐसा दृश्य भाग्य शाली लोग ही देख पाते हैं.  हरलीन देओल ने जो रोमांचित करने वाला कमाल किया वह सारी दुनिया में वायरल हो गया है . हरलीन देओल ने  बाउंड्री पर एक बेहतरीन कैच लपका और उसके बाद उसने अंदाज़ा लगाया कि मेरा पांव बाउंड्री के पार जा सकता है,तो  तुरंत गेंद को मैदान के अंदर उछाल दिया और बाउंड्री के पार से फिर अंदर छलांग लगाकर कैच को लपक लिया. खेल के मैदान में नृत्य की सी यह चपलता क्रिकेट के बड़े-बड़े दिग्गजों और खेल प्रेमियों को  बेहद रास आई है.

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आइए! आज आपको क्रिकेट के इस ऐतिहासिक क्षणों को जीने वाली और देश का नाम रोशन करने वाले क्रिकेटर हरलीन देओल के बारे में आपको बताते हैं. कैसे एक साधारण सी लड़की जो सिर्फ फील्डिंग कर रही थी, किस तरह उन्होंने एक सिर्फ एक कैच लेने के बाद मानो इतिहास रच दिया और जो प्रशंसा पाई है वैसी लोगों के नसीब में बहुत ऊंचाई पर पहुंचने के बाद ही मिल पाती है. हरलीन के इस बेहतरीन खेल एक्ट के बाद दुनिया भर में लोगों ने प्रशंसा की और आप भी वीडियो देख कर के दांतो तले उंगली दबा लेंगे.

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी क्रिकेट के दिग्गज सचिन तेंदुलकर ने भी हरलीन देओल की भूरी भूरी प्रशंसा की और बधाई दी है.

गजब: आंखों में खुशी के आंसू

खेल के मैदान में ऐसे दृश्य अविस्मरणीय होते हैं जिन्हें लोग देखते हैं धन्य हो जाते हैं और जो करते हैं वह महान.

हरलीन देओल के जीवन में
मैच का सबसे रोमांचक पल तब था जब इंग्लैंड की टीम बैटिंग कर रही थी और बाउंड्री पर फील्डिंग करने के लिए हरलीन देओल खड़ी थीं.

इंग्लैंड की पारी के 19वें ओवर की पांचवीं गेंद पर एमी जोन्स ने बाउंड्री की ओर एक बेहतरीन शॉट लगाया. हरलीन ने इस कैच को पकड़ने के लिए हवा में डाइव लगाया. उसके बाद जो लोगों ने देखा वह हैरान और रोमांचित करने वाला था जिसका वर्णन हमने ऊपर विस्तार से किया है.

यह दृश्य आज सोशल मीडिया में उपलब्ध है और इसे देख कर के आप भी उस रोमांच अद्भुत खेल का आनंद उठा सकते हैं और निश्चित रूप से आप देखने के बाद दांतो तले उंगली दबा लेंगे की वाह! ऐसा भी होता है, ऐसा भी होना चाहिए.

एक कैच ने दिलाई शोहरत

जुलाई माह में भारत महिला क्रिकेट टीम और इंग्लैंड के बीच टी20 सीरीज की शुरुआत हुई. पहले टी20 मुकाबले में इंग्लैंड ने भारत को 18 रन से शिकस्त दी. लेकिन बारिश से प्रभावित रहे इस मैच के बाद पटियाला पंजाब की बेटी हरलीन देओल चर्चा का बयास बन गई हैं. हरलीन देओल ने पहले टी20 के दौरान ऐसा कमाल का कैच पकड़ा जो एक इतिहास बन गया.

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हरलीन देओल के कैच की जमकर तारीफ हुई . इंग्लैंड की पारी के 19वें ओवर की पांचवीं गेंद पर हरलीन ने बाउंड्री लाइन पर हवा में अद्भुत उछाल भरकर  एमी जोन्स का कैच पकड़ा. इस कैच को पकड़ते वक्त हरलीन देओल ने गजब का टैलेंट  दिखाया. कैच पकड़ने के बाद हरलीन का पैर बाउंड्री लाइन के अंदर जाने ही वाला था कि हरलीन ने गेंद को हवा में उछाल दिया और फिर से हवा में उछाल भरकर  कैच पकड़ लिया.

इस तरह हरलीन देओल ने लॉन्ग ऑफ पर फील्डिंग करते हुए एमी जोन्स का शानदार कैच पकड़ा. इस कैच की हर कोई तारीफ हो रही है और  क्रिकेट की दुनिया का एक  बेहतरीन कैच में से एक माना जा रहा था.

यह सच है की हरलीन देओल के शानदार कैच के बावजूद पहले टी20 मुकाबले में भी भारत के हिस्से हार ही लिखी थी. बारिश से प्रभावित  इस मैच में इंग्लैंड ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 20 ओवर में 7 के नुकसान पर 177 रन बनाए. भारत को डकवर्थ लुइस नियम के आधार पर 8.4 ओवर में 73 रन का लक्ष्य मिला. लेकिन भारत 8.4 ओवर में तीन विकेट के नुकसान पर 54 रन ही बना पाया और उसने मैच को 18 रन से गंवा दिया.

संक्षिप्त कथा यह की महिला क्रिकेट में एक नया सितारा उदित हो गया है वही हरलीन देओल से अब और भी ज्यादा, खेल प्रेमियों को उम्मीदें हैं.

Online Harassment से डरें नहीं, मुकाबला करें

महिलाओं पर अश्लील फब्तियां कसना, ट्रोल या ब्लैकमेल करना, थ्रेट देना आदि दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और ये सब चीजें औनलाइन हेरासमैंट की कैटेगरी में आती हैं. ऐसे में महिलाएं इस सब से डरें नहीं, बल्कि मुकाबला करें.

लखनऊ की रहने वाली आयुषी वर्मा कत्थक आर्टिस्ट हैं. पिछले 5 सालों से वे बहरीन में रह कर वहां कत्थक सिखाने वाले स्कूल में डांस टीचर के रूप में काम करती हैं. आयुषी विदेश में रहते हुए बदल गई थी. वहां उस ने अपना सोशल मीडिया अकाउंट फेसबुक और इंस्टाग्राम पर खोला. उस ने डांस के साथ मौडलिंग और ऐक्ंिटग करने के लिए अपना एक फोटोशूट कराया और उस के कुछ फोटो इंस्टाग्राम पर पोस्ट किए.

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एक लड़के ने इंस्टाग्राम से उस की फोटो डाउनलोड की. उस को एडिट कर के पोर्न फोटो के साथ एक फर्जी इंस्टाग्राम अकाउंट बना कर प्रयोग करने लगा. आयुषी की किसी दोस्त ने उस को यह जानकारी दी तो उस ने धैर्य नहीं खोया. उस ने अपनी दोस्त से उस फेक फोटो वाले इंस्टाग्राम अकाउंट के खिलाफ रिपोर्ट करने को कहा. इस के बाद उस लड़के ने आयुषी की फोटो प्रोफाइल से हटाई. कुछ समय के बाद उस ने अपना इंस्टाग्राम अकाउंट डिलीट भी कर दिया.

आयुषी कहती हैं, ‘‘मैं ने बिना डरे और संकोच के अपने दोस्तों व घर वालों को यह बता दिया कि मेरी फोटो को एडिट कर के पोर्न फोटो को मेरे साथ जोड़ा गया है. दोस्तों और घर वालों को मेरी बात पर यकीन था. वे हमारे साथ थे. ऐसे में हमें कोई डर नहीं था. कई बार लड़कियां डर जाती हैं. बात को छिपाने लगती हैं. यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है. ऐसे में अगर कोई औनलाइन हेरासमैंट का शिकार हो तो डरें नहीं. हौसला न खोएं. परिवार और दोस्तों की मदद ले कर ऐसा करने वाले को सबक सिखाएं.’’ यह बात केवल आयुषी तक सीमित नहीं है. बहुत सारी लड़कियां इस का शिकार हो जाती हैं.

चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में अपना कैरियर शुरू करने वाली अंकिता वाजपेई ने अपनी मेहनत व लगन से डांस के क्षेत्र में खास मुकाम बनाया. कई रिकौर्ड उस के नाम पर हैं. लोग अंकिता वाजपेई को उस के नाम से जानते हैं. अंकिता डांस करने के दौरान कई मौडर्न और स्टाइलिश कपड़े भी पहनती थी. मुकेश नामक व्यक्ति हमेशा उस के डांस वीडियो बनाता और फोटो क्लिक करता था. इस बीच अंकिता की कुछ फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर के उस में भद्दाभद्दा कमैंट करने लगा. अंकिता ने यह बात अपनी मम्मी और समाज के कुछ लोगों को बताई. एक दिन सभी लोग मुकेश के घर गए. उस की बेटी और पत्नी के सामने पूरी जानकारी दी. मुकेश ने सभी से माफी मांगी और दोबारा ऐसा न करने का वादा किया.

अंकिता कहती हैं, ‘‘मेरी कम उम्र देख कर उस को लगा था कि मैं डर जाऊंगी. मैं चाइल्ड लाइन की ब्रैंड एम्बेसडर रही. वहां मैं ने देखा था कि बच्चों को अपनी बात सब के सामने रखनी चाहिए. मैं ने हिम्मत जुटाई और सब को पूरा सच बताया. मुकेश को अपनी गलती माननी पड़ी. क्षमा मांगी और मेरे खिलाफ लिखी हर पोस्ट को हटा लिया. औनलाइन हेरासमैंट भी गंभीर मसला होता है. इस में भी लोगों का साथ और भरोसा आप की मदद करता है. अब कानून भी आप के साथ है. ऐसे में हेरासमैंट को सहन नहीं करें, बल्कि उस का मुकाबला करें.’’

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हेरासमैंट की शिकार लड़कियों की संख्या अधिक

प्लान इंडिया नामक संस्था ने भारत सहित 22 देशों की 14 हजार लड़कियों के साथ एक सर्वे किया. सर्वे के बाद जारी अपनी रिपोर्ट में प्लान इंडिया ने बताया कि 58 फीसदी लड़कियों को औनलाइन हेरासमैंट का शिकार होना पड़ा. रिपोर्ट से पता चलता है कि हर 5 में से एक लड़की यानी करीब 19 फीसदी लड़कियां औनलाइन हेरासमैंट के बाद सोशल मीडिया पर अपनी एक्टिविटी कम कर देती हैं. हर 10 में एक लड़की सोशल मीडिया पर अपने अभिव्यक्त करने के अंदाज को बदल देती है.

सोशल मीडिया पर सब से अधिक 39 फीसदी हेरासमैंट फेसबुक पर होता है. इस के बाद 23 फीसदी इंस्टाग्राम का नंबर आता है. इस तरह व्हाट्सऐप पर 14 फीसदी, स्नैपचैट पर 10 फीसदी, ट्विटर पर 9 फीसदी और अन्य ऐप्स पर 6 फीसदी हेरासमैंट की जानकारी मिली थी. हेरासमैंट 2 तरह का होता है. एक तो उन को होता है जो किसी भी विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हैं. सब से अहम बात, धर्म की रूढि़वादी सोच के खिलाफ या राजनीतिक दलों के खिलाफ बोलने पर धमकियां दी जाती हैं. दूसरी तरह का हेरासमैंट सैक्सुअल होता है. सुंदर और खुलेपन वाली फोटो देख कर लोग इसलिए जुड़ना चाहते हैं क्योकि वे सोचते हैं कि वे सैक्सी बातें कर सकें. जब वे सफल नहीं होते तो बदनाम और हेरासमैंट करने लगते हैं.

तुरंत करें रिपोर्ट

साइबर क्राइम विषय को ले कर पीएचडी करने वाली प्रोफैसर दिव्या तंवर कहती हैं, ‘‘सोशल मीडिया ने अपने भरोसे को बनाए रखने के लिए ऐसे इंतजाम किए हैं कि गलत काम करने वाले की शिकायत की जा सकती है. जिस के बाद उस का सोशल मीडिया अकांउट बंद हो सकता है. कई बार चेतावनी दे कर छोड़ दिया जाता है. यही नहीं, इस को ले कर पुलिस में मुकदमा लिखाया जा सकता है. यह मुकदमा आईटी एक्ट की धारा 66 के तहत दर्ज कराया जा सकता है. अगर कोई अश्लील कमैंट करता है तो इस में धारा 67 भी जुड़ सकती है. आईटी एक्ट के अलावा आईपीसी की धाराओं के तहत भी औनलाइन हेरासमैंट करने वाले के खिलाफ मुकदमा दायर किया जा सकता है.

इस के अलावा भारत सरकार की वैबसाइट ‘साइबर क्राइम डौट गवर्नमैंट डौट इन’ में भी शिकायत दर्ज कराई जा सकती है. अगर लड़की नहीं चाहती कि उस की पहचान उजागर हो तो उस में भी गोपनीयता पुलिस बरतेगी. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी गाइडलाइन में कह रखा है कि जरूरत होने पर गोपनीयता का पूरी तरह से पालन हो. इस तरह औनलाइन हेरासमैंट को ले कर लड़कियों को डरने की जरूरत नहीं है. खुल कर शिकायत करें. उन को मदद मिलेगी. दिव्या तंवर कहती हैं कि साइबर क्राइम एक्ट में ही औनलाइन फ्रौड को भी रोकने के तमाम उपाय किए गए हैं.

प्रेम संबंधों को लीलता कोविड

कोविड का काला साया हजारों प्रेमसंबंधों को लील जाएगा. हम मौतों की बात नहीं कर रहे. शहरों में पनप रहे लवअफेयर युवाओं के अब अपने शहरगांव लौटने की वजह से आधेअधूरे रह गए. जिन को मिल कर बर्थडे मनाने थे, मांबाप के घर में मातम मना रहे हैं. जो उसी शहर में हैं तो भी एकदूसरे से मिल नहीं पा रहे. आज आधुनिक दौर की मोहब्बत/दोस्ती का दस्तूर यह है कि जो दिखा नहीं, वह दूर हुआ. सिर्फ फेसबुक, वीडियो चैट पर देखा जाएगा तो सिर्फ चेहरा दिखेगा, हाथों का टच नहीं होगा, बांहों की गिरफ्त नहीं. जो प्रेमसंबंध अभी अधपके थे वे तो गारंटी से सूख जाएंगे.

वैसे भी, युवा मन चंचल होता है. अगर शहर की डैशिंग पर्सनैलिटी नहीं है तो पड़ोस की आधीअधूरी से ही काम चला लो. सैक्सुअल अट्रैक्शन का न तो जेब से सीधा संबंध है, न स्मार्टनैस से. अगर 2 जवां हों तो यह कहीं भी पैदा हो सकता है. पुराना वाला छूट गया, तो कोई बात नहीं, नया हाजिर है जो कम से कम कोविड तक तो गारंटी से चलेगा.

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अब कोविड के बाद कौन, कहां पहुंचेगा, यह कौन जानता है. शहर बदल सकते हैं, चेहरे लटक सकते हैं, समस्याएं बदल सकती हैं. कोविड की डैथ किसी से लव सौंग छीन सकती है. डैथ की वजह से आई नई जिम्मेदारियां रंग में भंग डाल सकती हैं.

आज जो युवा पनपते प्रेम का पौधा छोड़ कर आए हैं उन्हें यह सोच कर चलना चाहिए कि उस की मार को सहने की क्षमता उन में बहुत कम है. सो, ज्यादा सपने न देखें. यदि व्हाट्सऐप संदेश सूखने लगें,  डीपी धूमिल होने लगे, आई लव यू की जगह बिजी दिखने लगे तो बेचैन न हों, यह कोविड की पैदा की गई नई सिचुएशन है. कोई बिट्रेयल हो, जरूरी नहीं.

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कोविड तो शादियों तक को खाने लगा हैप्रेमसंबंधों को तो छोड़ ही दें. यह महामारी ऐसी है जिस के फुटप्रिंट न जाने जीवन में कहांकहां पड़ेंगे. सफल वही होंगे जो हर एंगल से सोच रहे हैं.

सोनिया पांडे: लड़के से बना लड़की, तब मिली पहचान

काफी जद्दोजहद के बाद अब मैं असली जिंदगी जी रही हूं और जिंदगी के मजे ले रही हूं. इस के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा. संघर्ष भी किसी और से नहीं, बल्कि अपने परिवार से और समाज से, तब कहीं जा कर मैं अपनी असली पहचान बना पाई हूं. जिसे अब मेरा परिवार और समाज भी स्वीकार करने लगा है.

मैं कौन हूं, क्या हूं और मेरे परिवार में कौनकौन हैं, इस के बारे में मैं बताए देती हूं. इस की शुरुआत मैं अपने घर से ही करती हूं.

दरअसल, मेरे पिता ख्यालीराम पांडेय मूलरूप से उत्तराखंड के शहर अल्मोड़ा के रहने वाले थे. वह 1960 में उत्तर प्रदेश के शहर बरेली आ गए.

वह पूर्वोत्तर रेलवे में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे. बरेली की इज्जतनगर रेलवे की वर्कशाप में वह काम करते थे. परिवार में मेरी मां निर्मला और एक बड़ा भाई था. मेरा परिवार बरेली आ गया. बरेली में ही मेरा जन्म हुआ. मातापिता ने मेरा नाम राजेश रखा. मेरे बाद मेरी 2 छोटी बहनें हुईं.

मैं कहने को तो लड़का थी, लेकिन मेरी आत्मा, मेरी भावना मुझे लड़की होने का एहसास कराती थी. जब मैं 5 साल की थी, तभी से मुझे लड़कियों की तरह रहना पसंद था, लड़कों की तरह नहीं.

पापा मार्केट से मेरे लिए लड़कों वाली कोई ड्रेस ले कर आते तो मैं लड़कियों की डे्रस पहनने की जिद करती थी. मैं लड़कियों के कपड़े पहनना पसंद करती थी. कभी मां या बड़ी बहनें मुझे फ्रौक पहना देती थीं तो उन को उस फ्रौक को उतारना मुश्किल हो जाता था, मैं उन से बच के घर से बाहर भाग जाती थी.

तब शायद मुझे इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि मेरी यह इच्छा आगे चल कर मजाक का सबब भी बनेगी. जैसेजैसे मेरी उम्र बढ़ती गई, मेरे अंदर की जो लड़की थी, उस की इच्छाएं भी जवान होती गईं.

जब मैं 14 साल की थी तो किशोरावस्था में कदम रखते ही मेरे चेहरे पर हलकेहलके बाल आने लगे. चेहरे पर ये बाल मुझे किसी अभिशाप की तरह लगने लगे थे. आईने में चेहरा देखती तो बहुत गुस्सा आता था. मेरे पड़ोस में ही मेरे एक भाई जैसे रहते थे. मैं ने उन से इन बालों को हटाने के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि हेयर रिमूवर क्रीम लगाओ.

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तब से मैं ने चेहरे पर हेयर रिमूवर क्रीम लगानी शुरू कर दी. मैं खुद ही हमेशा से एक लड़की की तरह दिखना चाहती थी. उम्र का बहुत ही मुश्किल दौर था, जहां एक तरफ मेरी उम्र के लड़के लड़कियों की ओर आकर्षित होते थे, वहीं मैं लड़कियों के बजाय लड़कों की तरफ आकर्षित होती थी.

समझ नहीं आता था कि ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा है, पर मैं ने अपनी भावनाओं को किसी को नहीं बताया. वह इसलिए कि मुझे पता था कि लोग मेरा मजाक बनाएंगे.

मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता था. एक अजीब सी घुटन होती थी. लड़कों से दोस्ती करने का मन होता था. मैं चाहती थी कि स्कूल में लड़कियों के साथ बैठ कर ही लड़कों को निहारूं, उन से बातें करूं, पर कुछ कह पाने की हिम्मत नहीं होती थी. कुछ कहती भी तो मेरी भावनाओं को समझने के बजाय मेरे ऊपर हंसते.

भावनाएं जाहिर न करने की वजह से घर वालों ने एक लड़की से उस की शादी भी कर दी. इस के बाद स्त्री बन कर अपनी अलग पहचान बनाने के लिए राजेश उर्फ सोनिया पांडेय ने काफी संघर्ष किया.

स्कूल में मिला नया साथी

जब मैं सातवीं क्लास में थी, तभी मेरी दोस्ती योगेश भारती नाम के सहपाठी से हुई. प्यार से लोग उसे बिरजू भी कहते थे. जब बिरजू एडमीशन के बाद क्लास में आने लगा तो उसे देख कर लगा कि बिरजू और मेरी भावनाएं एक जैसी ही हैं. वह भी बिलकुल लड़की जैसा था. हम दोनों घंटों तक अकेले बातें करते, एक साथ स्कूल आते, एक साथ लंच करते. मानो जैसे हमें हमारी खुद की दुनिया मिल गई थी. हम दोनों बहुत खुश रहते थे. इसे ले कर हमारे सहपाठी हमारा मजाक भी बनाते थे. लेकिन जैसे हम दोनों को इस की परवाह ही नहीं थी.

मैं और बिरजू नौंवी क्लास तक साथ पढ़े. उस के बाद मेरा स्कूल बदल गया. मेरा दूसरे स्कूल में एडमीशन हो गया. जिंदगी फिर वैसी हो गई. नए स्कूल के माहौल में खुद को एडजस्ट कर पाना मुश्किल लगता था. इंटरमीडिएट तक मैं ने अपना स्कूली जीवन व्यतीत किया. फिर मैं ने बरेली कालेज में बीए में एडमीशन ले लिया.

कालेज में आई तो लड़कियां मुझे प्रपोज करने लगीं, कई ने तो मुझे प्रेम पत्र भी दिए. मैं ने सब को यही कह कर टाल दिया कि हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं. और उन को क्या बोलती. यह तो कह नहीं सकती थी कि मैं अंदर से एक लड़की हूं.

वैसे भी जिस लड़के को मैं पसंद करती थी, उस से अब तक अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाई, करती भी तो वह शायद मेरे ऊपर हंसता, पूरी क्लास को  बताता, सब मेरे ऊपर हंसते. मैं कभी खुद से खुद को मिला नहीं पा रही थी.

मेरे दिमाग में हर पल यही बात घूमती रहती थी कि मैं लड़का क्यों हूं. भगवान ने मुझे इतनी बड़ी सजा क्यों दी. इसी घुटन के साथ मैं कब जवान हो गई, पता ही नहीं चला.

फिर मेरी मुलाकात समाज में कुछ ऐसे लड़कों से हुई जो बिलकुल मेरे जैसी भावना रखने वाले थे. इस से लगने लगा कि चलो इस समाज में मैं ही अकेली ऐसी नहीं हूं, मेरे जैसे दुनिया में और लोग भी हैं.

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जब और बड़ी हुई तो परिवार की जिम्मेदारियों का एहसास हुआ. मेरा परिवार बड़ा था. कमाने वालों में केवल मेरे पिता थे. मेरा बड़ा भाई बिलकुल गैरजिम्मेदार था. इसलिए मैं ने घरघर जा कर ट््यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. बस जिंदगी यूं ही कट रही थी.

कंधों पर आई जिम्मेदारी

अचानक 2002 में मेरे पिता की मृत्यु हो गई. पिता की मृत्यु होने के कारण मृतक आश्रित कोटे में नौकरी की बात आई तो मेरी मां ने मुझे नौकरी करने को कहा तो मैं ने घर का जिम्मेदार बेटा होने का फर्ज निभाया. 2003 में मुझे इज्जतनगर रेलवे की वर्कशाप में ही तकनीकी विभाग में नौकरी मिल गई. उस समय मैं बीए की पढ़ाई कर रही थी और कत्थक नृत्य का प्रशिक्षण ले रही थी.

मेरा सपना था कि मैं कत्थक नृत्य में एमए करूं और उस के बाद उसी में अपना करियर बनाऊं. लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. मुझे रेलवे के कारखाने में नौकरी मिली, जहां मुझे एक आदमी की भांति ताकत का काम करना पड़ता था.

बड़ेबड़े इंजनों के नट कसना होता था. पर शरीर इन सब को सहन नहीं कर पाता था. सब मजाक बनाते कि देखो कैसा नाजुक लड़का है. मैं उन को कैसे बताती कि मैं तन से न सही लेकिन मन से लड़की हूं, इसलिए शरीर भी वैसा ही ढल गया.

मैं अकेले में बैठ कर खूब रोती थी कि मेरे साथ ये अन्याय क्यों हुआ. कभी मन करता कि मैं नौकरी छोड़ कर कहीं दूर भाग जाऊं, पर घर की जिम्मेदारी पर नजर डालती तो लगता पापा जो मेरे ऊपर जिम्मेदारी छोड़ गए हैं, उसे पूरा करना मेरा फर्ज है.

जैसेतैसे नौकरी करने लगी. पुरुषों से बात करने का मेरा मन नहीं होता था और स्त्रियों से मैं उतनी बात कर नहीं सकती थी क्योंकि उन की नजरों में भी तो मैं एक पुरुष ही थी.

मेरे बड़े भाई का भी विवाह हो चुका था. नौकरी मिलने के बाद मैं ने बड़े भाई को रहने के लिए घर बनवा कर दिया. दोनों छोटी बहनों का विवाह किया. मेरे अंदर की जो लड़की थी, वह अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी. समाज में मर्द बनने का नाटक करतेकरते मुझे खुद से चिढ़ सी होने लगी थी.

वर्ष 2009 में बड़े भाई की अचानक मृत्यु हो गई. वह अपने पीछे पत्नी और 8 साल की बेटी छोड़ गए थे. उन दोनों की जिम्मेदारी भी मेरे कंधों पर आ गई. मेरे अंदर की लड़की पलपल अपनी खुशियों को मन में मार रही थी.

सोचती थी कि काश मेरा एक भाई और होता, जिस के ऊपर सारी जिम्मेदारियां डाल कर मैं कहीं अपनी दुनिया में भाग जाऊं, जहां खुल कर अपनी जिंदगी जी सकूं. अब मेरे अलावा घर में कोई लड़का नहीं था तो मां का, बहनों का और समाज का मुझ पर विवाह करने का दबाव बनाया जाने लगा. घर के लोगों को उम्मीद  थी कि मैं अपने वंश को आगे बढ़ाऊं.

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घर वालों ने कराया विवाह

मेरे अंदर तब इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं खुल कर बता पाऊं कि मैं किसी लड़की के साथ विवाह कर के खुश नहीं रह पाऊंगी. न ही मैं विवाह कर के किसी लड़की की जिंदगी खराब करना चाहती थी. इसी बीच मेरा एक बौयफ्रैंड भी बना, पर समाज के डर से उस ने भी किसी लड़की से विवाह कर लिया.

2-3 सालों तक मैं अपने विवाह का मामला किसी तरह टालती रही. मैं अपने परिवार को अपने बारे में चाह कर भी बता नहीं पा रही थी. तब मैं ने सोचा कि मैं ने अपने परिवार के लिए जहां इतनी कुर्बानियां दी हैं, तो एक कुरबानी और दे देती हूं. शायद मेरा भी वंश बढ़ जाए और साथ ही साथ मैं अपने अंदर की लड़की को भी जीवित रख सकूंगी.

परिवार और समाज को खुश करने के लिए मेरा भी सन 2012 में विवाह हो गया. मैं अंदर से रो रही थी और बाहर से खुश होने का नाटक कर रही थी. रत्ती भर खुशी नहीं थी मुझे अपने विवाह की. सुहागरात के समय भी मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन मुझे अपनी पत्नी के लिए कोई फीलिंग ही नहीं जगी. काली रात की तरह थी वह रात मेरे लिए, कुछ भी नहीं कर सकी.

हमारे संबंध नहीं बन सके. मैं समझ गई कि मैं किसी भी लड़की से संबंध नहीं बना सकती. जब तक मनमस्तिष्क में लड़की के लिए उत्तेजना या कामेच्छा पैदा नहीं होगी, कैसे कोई शारीरिक संबंध बना सकता है. मैं शारीरिक रूप से बिलकुल स्वस्थ थी. ऐसी कोई कमी नहीं थी, जिस से मैं अपने आप को नपुंसक समझती. क्योंकि जब मैं अपने पुरुष साथी के साथ शारीरिक संबंध बनाती तो मेरे शरीर के हर अंग में उत्तेजना होती थी.

मैं उस रात बहुत रोई कि मैं ने यह क्या गलती कर दी, मेरी वजह से एक अंजान बेकसूर युवती की जिंदगी खराब हो गई थी. मेरी वजह से वह समाज की दिखावटी खुशियों की बलि चढ़ गई थी. मुझे खुद पर शर्म आने लगी.

तभी मैं ने फैसला किया कि मैं उस की जिंदगी में खुशियां लाऊंगी. क्योंकि उसे भी खुश रहने का, अपनी जिंदगी खुल कर जीने का हक था. कुछ महीने बीत जाने पर मैं ने धीरेधीरे उसे अपने बारे में बताना शुरू किया. हम अच्छे दोस्त बन गए. मैं ने उसे पूरी तरह से अपनी भावनाओं को खुल कर बताया.

वह बहुत समझदार थी. मैं ने जब उसे बताया कि मैं अपने बारे में सब उस के परिवार को बताने जा रही हूं तो वह डर गई कि उस के परिवार को बहुत ठेस पहुंचेगी और गुस्से में आ कर उस के परिवार वाले उस पर पुलिस केस न कर दें. उस ने मुझे विश्वास दिलाया कि हम दोनों ऐसे ही पूरी जिंदगी काट लेंगे.

उसे भी समाज का डर सता रहा था कि लोग उस के परिवार के बारे में क्याक्या बातें करेंगे. लेकिन मुझे लगने लगा था कि मैं ने अब अगर अंदर से खुद को मजबूत नहीं किया तो उस की और मेरी जिंदगी घुटघुट कर कटेगी या तो वह आत्महत्या कर लेगी या मैं.

मैं ने पत्नी के घर वालों को अपनी सच्चाई बताई तो पहले तो उन्हें बहुत गुस्सा आया, बाद में उन्हें यह जान कर सही लगा कि मैं ने उन से झूठ तो नहीं बोला, ईमानदारी से उन की बेटी की खुशियां चाहती हूं.

2014 में आपसी सहमति से मेरा पत्नी से तलाक हो गया. तलाक के पहले मेरी पत्नी के घर वालों ने मुझ से 8 लाख रुपए लिए, जिस से वे अपनी बेटी का विवाह कहीं और कर सकें. मैं ने वह रकम खुशीखुशी उन्हें दे दी, क्योंकि गलती तो मैं ने ही की थी, उस गलती के लिए यह बहुत छोटी रकम थी. अब मैं फिर से आजाद थी, लेकिन इस के बाद तो मेरी जिंदगी और भी खराब हो गई. लोगों की नजरों में मेरी इमेज खराब हो गई थी. मेरी बहनों ने मुझ से बात करनी तक बंद कर दी. एक मेरी मां थी, जिन्होंने मुझे समझा.

मैं ने सोचा कि अभी तक 32 साल मैं ने परिवार और समाज को खुश करने के लिए निकाल दिए, उस के बाद भी मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ. बस फैसला कर लिया कि अब खुद के बारे में सोचना है. नौकरी से मैं ने लंबी छुट्टी ले ली.

मैं पूरी तरह से लड़की बनना चाहती थी, लेकिन लड़की बनने से पहले मैं तीर्थस्थल गया में पिताजी का श्राद्ध करने गई. क्योंकि लड़की बनने के बाद मैं श्राद्ध कर नहीं सकती थी.

उस के बाद मैं ने इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया कि कोई डाक्टर मुझे लड़की का रूप दे सकता है कि नहीं. सर्च करने पर पता चला कि दिल्ली में बहुत से डाक्टर हैं, जो हारमोंस और सर्जरी के जरिए एक लड़के को लड़की जैसा शरीर दे देते हैं.

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औपरेशन के बाद बनी स्त्री

काफी डाक्टरों के बारे में जानने के बाद मुझे दिल्ली में पीतमपुरा के एक हौस्पिटल में कार्यरत डा. नरेंद्र कौशिक सही लगे. मैं डा. कौशिक से मिली और पूरी बात बताई. उन्होंने मुझ से बात कर के जाना कि मैं इस इलाज के लिए किस हद तक तैयार हूं.

मुझ से बात कर के जब वह संतुष्ट हुए, तब उन्होंने मेरा इलाज शुरू किया. यह सन 2016 की बात है. मैं ने हारमोंस की गोलियां और इंजेक्शन लेने शुरू कर दिए. लगभग 2 साल तक हारमोंस लेने के बाद मेरे शरीर में काफी बदलाव आ गए. इस पर दिसंबर 2017 में मेरी सैक्स चेंज की सर्जरी हुई.

डा. कौशिक के अलावा 2 और डाक्टर औपरेशन के समय मौजूद रहे. सर्जरी करने में लगभग 8 घंटे का समय लगा. इस पूरे इलाज का कुल खर्च करीब 7 लाख रुपए आया था. इलाज के बाद मैं पूरी तरह से लड़की बन गई थी. इस के बाद तो जैसे मेरी खुशियों को पंख लग गए. दूसरा जन्म हुआ था यह मेरा सोनिया पांडेय के रूप में. राजेश पांडेय नाम के लड़के की पहचान हटा कर मैं सोनिया पांडेय नाम की पहचान से जिंदगी जीने के लिए आगे बढ़ने को तैयार थी.

बहुत खुश हूं जो खुद को पा लिया मैं ने. आत्मा और शरीर एक हो चुके थे मेरे. समय के साथसाथ समाज का नजरिया बदला और मुझे समाज से प्यार और इज्जत भी मिलने लगी है. नए मित्र बन गए हैं, जो हर कदम पर मेरे साथ खड़े हैं. लोगों से मिल कर बताती हूं कि खुद को पहचानना सीखो. यह जिंदगी मिली है तो इसे खुल के जियो और जीने दो.

अब एक नई जंग मेरा इंतजार कर रही थी. मैं खुद को पाने की लड़ाई में खुद से, परिवार से और समाज से तो लड़ चुकी थी, अब लड़ाई थी अपनी कानूनी पहचान पाने की क्योंकि मेरे आधार कार्ड, पैन कार्ड, वोटर कार्ड और सर्विस रिकौर्ड में मेरा नाम राजेश पांडेय ही था.

2018 में मैं ने रेलवे के प्रशासनिक अधिकारियों को अपने जेंडर में परिवर्तन करने के लिए एप्लीकेशन दी तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि रेलवे में ऐसा कोई नियम नहीं है, जिस के तहत रिकौर्ड में लिंग परिवर्तन कराया जा सके. इस के बाद मैं ने पूर्वोत्तर रेलवे के गोरखपुर हैडक्वार्टर में 80 पेज की एक फाइल बना कर भेजी, जिस में उन्हें बताया गया कि भारत में कोई भी नागरिक स्वेच्छा से अपना लिंग चुनने के लिए स्वतंत्र है.

मैं औफिस के चक्कर लगाती रही, क्योंकि मुझे जवाब चाहिए था रेलवे के अधिकारियों से. अगर रेलवे बोर्ड मेरे आवेदन को निरस्त कर देता तो मैं अपनी पहचान पाने के लिए हाईकोर्ट भी जाने को तैयार थी.

बाद में इज्जतनगर के मुख्य कारखाना प्रबंधक एवं मुख्य कार्मिक अधिकारी ने मेरे मामले में दिलचस्पी ली. जिस में मेरे सीडब्ल्यूएम राजेश कुमार अवस्थी की मुख्य भूमिका रही.

तब कहीं जा कर सितंबर, 2019 में रेलवे ने मेरा मैडिकल कराया. मार्च 2020 में रिकौर्ड में मेरा नाम और लिंग बदल कर नाम सोनिया पांडेय कर दिया. अब मैं बहुत खुश हूं. मेरी अपनी आगे की जिंदगी में ईमानदारी और सम्मान से जीने की जंग जारी है.

फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह: संघर्षों की बुनियाद पर सफलता की दास्तान

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो संसार में आते हैं तो किसी को भनक तक नहीं होती, लेकिन उन की मौत पर दुनिया को बेतहाशा दुख होता है. ऐसे ही महान इंसानों में मिल्खा सिंह को शामिल किया जा सकता है. जिन्होंने अपनी मेहनत और जज्बे की बदौलत सफलता की ऐसी दास्तान लिखी कि…

भारत के महान फर्राटा धावक मिल्खा सिंह पिछले महीने कोरोना संक्रमण से जूझने के बाद ठीक हो गए थे.

लेकिन कुछ रोज पहले उन की तबीयत फिर से बिगड़ गई, जिस के बाद उन्हें चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर के आईसीयू में भरती कराया गया था. लेकिन दुनिया के बड़े से बडे़ धावकों को पछाड़ने वाले इस धावक को आखिर 18 जून, 2021 की रात साढे़ 11 बजे उन की बीमारी ने हरा दिया.

मिल्खा सिंह की हालत 18 जून की शाम से ही खराब थी. बुखार के साथ उन की औक्सीजन भी कम हो गई थी. उन्हें पिछले महीने कोरोना हुआ था, लेकिन 2 दिन पहले उन की रिपोर्ट नेगेटिव आने के बावजूद तबियत में सुधार नहीं हो रहा था. जिस कारण 2 दिन पहले उन्हें जनरल आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया था, वहां उन की हालत स्थिर बनी हुई थी.

दुखद बात यह थी कि उन की पत्नी 85 वर्षीय निर्मल कौर का भी 5 दिन पहले एक निजी अस्पताल में कोरोना बीमारी के कारण निधन हो गया था. बीमारी से जूझ रहे मिल्खा सिंह को प्राण छोड़ते समय तक इस बात का मलाल था कि वह जीवन के कठिन संघर्षों में उन का साथ निभाने वाली जीवनसंगिनी के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सके थे. उन की पत्नी भारतीय वालीबाल टीम की पूर्व कप्तान रही थीं.

मिल्खा सिंह के निधन की खबर से देश के खेल जगत से एक ऐसा सितारा टूट कर लुप्त हो गया है, जिस की भरपाई होना बेहद मुश्किल है. मिल्खा सिंह के जन्म से ले कर उन के अवसान तक की कहानी किसी ऐतिहासिक फिल्म की कहानी की तरह है, जो युवाओं को प्रेरित करने वाली है.

मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर, 1929 को गोविंदपुरा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के एक सिख राठौर (राजपूत) परिवार में हुआ था. अपने मांबाप की कुल 15 संतानों में वह एक थे. उन्होंने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वहां के एक स्कूल से की और करीब 5वीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई की. उन का बचपन 2 कमरों के घर में रहने वाले परिवार के साथ गरीबी में बीता. इस में एक कमरा पशुओं के लिए था.

1947 में भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने अपने मातापिता को खो दिया. उस दौरान विभाजन के लिए हुए मजहबी दंगों में उन के कई भाईबहन समेत परिवार के कई रिश्तेदारों की उन की आंखों के सामने ही हत्या कर दी गई.

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मिल्खा के मनमस्तिष्क पर दंगों की वे स्मृतियां मरते दम तक जिंदा रहीं. मिल्खा अपने  जीवन में कई बार अपनी बचपन की यादों का जिक्र करते भावुक हुए थे, जब उस दौरान हुए दंगों और चारों तरफ फैले खूनखराबा तथा रक्तरंजित मंजर का जिक्र करते थे. मिल्खा शायद अपने जीवन में पहली बार उस दौरान ही रोए थे.

जब पाकिस्तान में उन के परिवार का नरसंहार हुआ, उस से 3 दिन पहले मिल्खा को मुलतान में अपने सब से बड़े भाई माखन सिंह की मदद के लिए भेजा गया था. माखन सिंह मुलतान में हवलदार तैनात थे. मुलतान जाने के लिए उन्होंने कोट अड्डू से ट्रेन पकड़ी. ट्रेन पहले की यात्रा से खून से सनी पड़ी थी. मिल्खा सिंह डर की वजह से महिलाओं के डिब्बे में एक सीट के नीचे छिप गए थे, क्योंकि उन्हें आक्रोशित भीड़ द्वारा खुद को मार दिए जाने की आशंका थी.

जब मिल्खा अपने भाई माखन के साथ लौट कर कोट अड्डू पहुंचे, तब तक दंगाइयों ने उन के गांव को श्मशान घाट में बदल दिया था. मिल्खा के मातापिता, 2 भाइयों और उन की पत्नियों को इतनी बेरहमी के साथ मारा गया था कि उन के शवों को भी नहीं पहचाना जा सका.

जूतों पर करते थे पौलिश

घटना के लगभग 4 या 5 दिनों के बाद माखन के कहने पर मिल्खा सिंह अपनी भाभी जीत कौर के साथ भारत के लिए सेना के एक ट्रक में सवार हो कर फिरोजपुर-हुसनीवाला क्षेत्र में आ गए. माखन वहां सेना में ही रहे.

यहां आ कर मिल्खा ने काम ढूंढना शुरू किया. काम की तलाश में वह अकसर स्थानीय सेना के शिविरों का दौरा किया करते थे और कई बार भोजन पाने के लिए सेना के जवानों के जूते पौलिश करते थे.

लेकिन यहां भी समस्या ने उन का साथ नहीं छोड़ा. फिरोजपुर से हो कर जो सतलुज नदी गुजरती है, अगस्त महीने में उस में बाढ़ आ गई जिस से छत पर चढ़ कर उन्हें जान बचानी पड़ी. घर का सारा सामान बह चुका था.

फिरोजपुर में तकलीफें झेल चुके मिल्खा ने दिल्ली का रुख करने का मन बनाया. सुना था कि वहां काम ढूंढना आसान होता है. उन की प्राथमिकता दिल्ली पहुंचने की थी लेकिन ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि उस में घुसना भी मुश्किल था. किसी तरह उन्होंने भाभी को महिला डिब्बे में घुसा दिया और खुद ट्रेन की छत पर चढ़ गए.

जिस ट्रेन से वह दिल्ली  गए थे, उस में भी कत्लेआम हुआ और दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने उस ट्रेन में कई लाशें देखीं.

पुरानी दिल्ली स्टेशन पर वह उन हजारों शरणार्थियों की तरह ही थे, जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, जिन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहां है.

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चूंकि दिल्ली में रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, उन्होंने कुछ दिन पुरानी दिल्ली रेलवे प्लेटफार्म पर ही अराजकता से भरे दिन बिताए. उन्होंने स्टेशन के बाहर जूते भी पौलिश किए. बाद में उन्हें पता चला कि उन की भाभी के मातापिता दिल्ली के शाहदरा इलाके में बस गए हैं. वह भाभी के मायके में चले तो गए, लेकिन उन्हें भाभी के घर पर रहने में घुटन महसूस हो रही थी, क्योंकि काफी समय यहां रहने पर वह खुद को एक बोझ सा समझने लगे थे.

हालांकि उन के लिए एक राहत की बात यह थी कि जब उन्हें पता चला कि उन की एक बहन ईश्वर कौर पास के ही एक स्थानीय इलाके में रह रही हैं तो वह रहने के लिए उन के पास चले गए. जब वह उन के घर पहुंचे तो परिवार का पुनर्मिलन आंसुओं भरा और मर्मस्पर्शी था. लेकिन वहां भी मिल्खा को यह अहसास हो गया कि बहन के अलावा अन्य लोगों को उन का वहां रहना जरा भी नहीं भाता था.

चूंकि मिल्खा के पास काम करने के लिए कुछ नहीं था, उन्होंने अपना समय सड़कों पर बिताना शुरू कर दिया और इस प्रक्रिया में वह बुरी संगत में पड़ गए. उन्होंने फिल्में देखना और उन के टिकट खरीद कर बेचना शुरू कर दिया.

साथ ही साथ अन्य लड़कों के साथ जुआ खेलना और चोरी करना भी शुरू कर दिया. उसी समय मिल्खा ने सुना कि उन के भाई माखन सिंह सेना की टुकड़ी के साथ भारत आ गए हैं. तब उन्हें उम्मीद जगी कि अब सारी चिंताएं दूर हो जाएंगी.

पढ़ाई में नहीं लगा मन

कुछ समय बाद उन के सब से बड़े भाई माखन सिंह को भारत के लाल किले में पोस्टिंग मिल गई. माखन सिंह मिल्खा को पास के एक स्कूल में ले गए और उन्हें 7वीं कक्षा में दाखिला करा दिया. परंतु अब उन्हें पढ़ाई करने में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, जिस के कारण वह फिर से बुरी संगत में पड़ गए.

1949 में मिल्खा सिंह और उन के दोस्तों ने भारतीय सेना में शामिल होने के बारे में सोचा और लाल किले में हो रहे भरती कैंप में चले गए. हालांकि मिल्खा सिंह को रिजेक्ट कर दिया गया. उन्होंने 1950 में फिर से एक कोशिश की और फिर से उन्हें खारिज कर दिया गया.

2 बार अस्वीकार किए जाने के बाद उन्होंने एक मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया. बाद में उन्हें एक रबर फैक्ट्री में नौकरी मिल गई, जहां उन का वेतन 15 रुपए महीना था. लेकिन वह लंबे समय तक काम नहीं कर पाए, क्योंकि इस बीच उन्हें हीट स्ट्रोक आया और 2 महीने तक वह बिस्तर पर ही पड़े रहे.

1952 के नवंबर में उन्हें अपने भाई की मदद से आखिर सेना में नौकरी मिल ही गई और उन की पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई. श्रीनगर से उन्हें सिकंदराबाद में भारतीय सेना की ईएमई (इलैक्ट्रिकल मैकेनिकल इंजीनियरिंग) इकाई में भेजा गया.

वहां पर रहते हुए उन्होंने पहली बार जनवरी 1953 में 6 मील (लगभग 10 किमी) क्रौस कंट्री रेस में भाग लिया और 6ठे स्थान पर रहे. उस के बाद उन्होंने अपनी पहली 400 मीटर दौड़ 63 सेकंड में ब्रिगेड मीट में पूरी की और चौथे स्थान पर रहे. फिर उन्होंने पूर्व एथलीट गुरदेव सिंह से ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी.

जीतने की धुन हुई सवार

उस वक्त अकसर 400 मीटर दौड़ के अभ्यास के दौरान कभीकभी उन की नाक से खून निकलने लगता था. परंतु उन्हें जीतने की इतनी धुन सवार थी कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

समय बीतता गया और एक एथलीट के रूप में वह दिनबदिन निखरते गए. आज उन्होंने जो पाया है, यकीनन वह उस के हकदार हैं. एक एथलीट के रूप में सभी भारतीयों को उन पर गर्व है.

बाद में सेना में एथलीट बनने के उन के ऐसे संघर्ष की शुरुआत हुई, जिस ने मिल्खा सिंह को खेल के आसमान में चमकने वाला ऐसा धु्रव तारा बना दिया, जिस का उदय अब शायद ही कभी होगा.

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नए कीर्तिमान किए स्थापित

मिल्खा सिंह ने दौड़ के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को पहचान लिया था. इस के बाद उन्होंने सेना में कड़ी मेहनत शुरू की और 200 मीटर और 400 मीटर प्रतिस्पर्धा में अपने आप को स्थापित किया. उन्होंने एक के बाद एक कई प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल की.

उन्होंने सन 1956 के मेलबोर्न ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव न होने के कारण सफल नहीं हो पाए. लेकिन 400 मीटर प्रतियोगिता के विजेता चार्ल्स जेंकिंस के साथ हुई मुलाकात ने उन्हें न सिर्फ प्रेरित किया, बल्कि ट्रेनिंग के नए तरीकों से अवगत भी कराया.

इस के बाद सन 1958 में कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर प्रतियोगिता में राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किए और एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक हासिल किए.

साल 1958 में उन्हें एक और महत्त्वपूर्ण सफलता मिली, जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया. इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाड़ी बन गए.

मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की, जब खिलाडि़यों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उन के लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी. आज इतने सालों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है.

रोम ओलंपिक शुरू होने तक मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे तो दर्शक उन का जोशपूर्वक स्वागत करते थे.

रोम ओलंपिक में हो गई बड़ी चूक

दरअसल, मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के कई टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उन के रोम पहुंचने से पहले उन की लोकप्रियता की चर्चा वहां पहुंच चुकी थी.

हालांकि वहां वह कोई टौप के खिलाड़ी नहीं थे, लेकिन श्रेष्ठ धावकों में उन का नाम अवश्य था. उन की लोकप्रियता का दूसरा कारण उन की बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे. लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे. लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है. उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रुमाल बांध लेते थे. मिल्खा सिंह के जीवन में 2 घटनाएं सब से ज्यादा महत्त्व रखती हैं.

पहली भारत पाकिस्तान का विभाजन जब उन के परिवार का पाकिस्तान में हुए कत्लेआम में खात्मा कर दिया गया, तब वह पहली बार रोए थे.  दूसरी घटना रोम ओलंपिक में उन का पदक पाने से चूक जाना था, जब वे दूसरी बार बिलखबिलख कर रोए.

रोम ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ साल पहले से ही मिल्खा सिंह अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फौर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था कि इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर जीतेंगे.

रोम में 1960 के ओलंपिक खेलों में मिल्खा भारत के सब से बड़े पदक लाने की उम्मीद वाले खिलाडि़यों में से एक थे और उन के शानदार प्रदर्शन को देख कर देश उन से उम्मीदों पर खरे उतरने की उम्मीद कर रहा था.

लेकिन मिल्खा इस खेल में तीसरे स्थान पर भी नहीं रहे. दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस ने ब्रोंज जीता था. हालांकि इस रेस में 250 मीटर तक मिल्खा पहले स्थान पर भाग रहे थे, लेकिन इस के बाद उन की गति कुछ धीमी हो गई और बाकी के धावक उन से आगे निकल गए थे. खास बात यह है कि 400 मीटर की इस रेस में मिल्खा उसी एथलीट से हारे थे, जिसे उन्होंने 1958 कौमनवेल्थ गेम्स में हरा कर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया था.

दरअसल उन्होंने ऐसी भूल कर दी, जिस का पछतावा उन्हें मरते दम तक रहा. इस दौड़ के दौरान उन्हें लगा कि वह अपने आप को अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़ कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे, जिस का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और वह धावक जिस से स्वर्ण की आशा थी कांस्य भी नहीं जीत पाया.

लेकिन 1960 के ओलंपिक में भले ही मिल्खा कांस्य पदक से चूक कर चौथे स्थान पर रहे. मगर उन का 45.73 सेकंड का ये रिकौर्ड अगले 40 साल तक नैशनल रिकौर्ड रहा.

मिल्खा को इस बात का अंत तक मलाल रहा. इस असफलता से वह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की.

1960 में पाकिस्तान में एक इंटरनैशनल एथलीट दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जाने का न्यौता मिला,  लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वह वहां जाने से हिचक रहे थे. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर वह इस के लिए राजी हो गए, क्योंकि दोनों देशों की मित्रता के लिए हो रहे प्रयासों के बीच उन के पाकिस्तान नहीं जाने से राजनीतिक उथलपुथल का संदेश जा सकता था. इसलिए उन्होंने दौड़ने का न्यौता स्वीकार लिया.

बहरहाल, रोम ओलंपिक के बाद हुए  टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने 200 और 400 मीटर की दौड़ जीत कर भारतीय एथलेटिक्स के लिए नए इतिहास की रचना की. जब उन्होंने पहले दिन 400 मीटर दौड़ में भाग लिया. उन्हें जीत का पहले से ही विश्वास था, क्योंकि एशियाई क्षेत्र में उन का बेहतरीन  कीर्तिमान था.

शुरूशुरू में जो तनाव था, वह स्टार्टर की पिस्तौल की आवाज के साथ रफूचक्कर हो गया. उम्मीद के अनुसार उन्होंने सब से पहले फीते को छुआ और नया रिकौर्ड कायम किया.

जापान के सम्राट ने जब उन के गले में स्वर्ण पदक पहनाया तो उस क्षण का रोमांच मिल्खा शब्दों में व्यक्त नहीं कर सके. इस के अगले दिन 200 मीटर की दौड़ थी. इस में मिल्खा का पाकिस्तान के अब्दुल खालिक के साथ कड़ा मुकाबला था.

खालिक 100 मीटर का विजेता था. दौड़ शुरू हुई और दोनों के कदम एक साथ पड़ रहे थे. फिनिशिंग टेप से 3 मीटर पहले मिल्खा की टांग की मांसपेशी खिंच गई और वह लड़खड़ा कर गिर पड़े.

चूंकि वह फिनिशिंग लाइन पर ही गिरे थे इसलिए फोटो फिनिश रिव्यू में उन्हें विजेता घोषित किया गया और इस तरह मिल्खा एशिया के सर्वश्रेष्ठ एथलीट बन गए. जापान के सम्राट ने उस समय मिल्खा से जो शब्द कहे थे, वह मरते दम तक कभी नहीं भूले. उन्होंने उन से कहा था, ‘दौड़ना जारी रखोगे तो तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है. बस, दौड़ना जारी रखो.’

पाकिस्तान में मिल्खा का मुकाबला एशिया के सब से तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल खालिक से था. यह मिल्खा की जिंदगी का सब से रोमांचक दबाव भरा और भावनाओं की उथलपुथल भरा मुकाबला था. लेकिन इस मुकाबले में जीत के लिए मिल्खा ने अपना सर्वस्व झोंक दिया.

इस दौड़ में मिल्खा सिंह ने सरलता से अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर दिया और आसानी से जीत गए. इस मुकाबले में अधिकांशत: मुसलिम दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुजरते देखने के लिए अपने नकाब तक उतार दिए थे.

मिला फ्लाइंग सिख का खिताब

यही कारण रहा कि अब्दुल खालिक को हराने के बाद उस समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने मिल्खा सिंह से कहा था, ‘आज तुम दौड़े नहीं उड़े हो. इसलिए हम तुम्हें फ्लाइंग सिख के खिताब से नवाजते हैं.’ इस के बाद से मिल्खा सिंह को पूरी दुनिया में ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से जाना जाने लगा.

एक के बाद एक रेस जीतने और कई रिकौर्ड अपने नाम पर दर्ज करा चुके मिल्खा धीरेधीरे अपने करियर में आगे बढ़ते रहे. मिल्खा सिंह के करियर का मुख्य आकर्षण 1964 का एशियाई खेल था, जहां उन्होंने 400 मीटर और 4×400 मीटर रिले स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते.

टोक्यो में आयोजित हुए 1964 ओलंपिक में मिल्खा सिंह का प्रदर्शन यादगार नहीं था, जहां वह केवल एक ही इवेंट में भाग ले रहे थे, वह था 4×400 मीटर रिले दौड़ में मिल्खा सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय टीम गरमी के कारण आगे बढ़ने में असमर्थ रही, जिस के बाद इस असफलता से निराश लंबे समय तक मिल्खा सिंह ने अपने दौड़ने वाले जूते लटका दिए थे.

कभीकभार जब मिल्खा सिंह से उन की 80 दौड़ों में से 77 में मिले अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा जाता था तो वह कहते थे, ‘ये सब दिखाने की चीजें नहीं हैं, मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूं, उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उस का कोई महत्त्व नहीं है.’

बता दें कि आज की तारीख में भारत के पास बैडमिंटन से ले कर शूटिंग तक में वर्ल्ड चैंपियन हैं. बावजूद इस के ‘फ्लाइंग सिख’ मिल्खा सिंह की ख्वाहिश अधूरी है. वह दुनिया छोड़ने से पहले भारत को एथलेटिक्स में ओलंपिक मेडल जीतते देखना चाहते थे.

1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद सेना ने मिल्खा सिंह को जूनियर कमीशंड औफिसर के तौर पर प्रमोशन कर सम्मानित किया था. बाद में उन्हें पंजाब के शिक्षा विभाग में खेल निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया और इसी पद से मिल्खा सिंह साल 1998 में रिटायर्ड हुए.

पहली जुलाई, 2012 को उन्हें भारत का सब से सफल धावक माना गया, जिन्होंने ओलंपिक्स खेलों में लगभग 20 पदक अपने नाम किए हैं. यह अपने आप में ही एक रिकौर्ड है. मिल्खा सिंह ने अपने जीते गए सभी पदकों को देश के नाम समर्पित कर दिया था, पहले उन के मैडल्स को जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में रखा गया था, लेकिन फिर बाद में पटियाला के एक गेम्स म्यूजियम में मैडल्स ट्रांसफर कर दिए गए.

जब नेहरू ने मिल्खा सिंह से कहा मांगो क्या मांगते हो

आजादी के फौरन बाद वैश्विक खेल मंच पर अगर किसी एक खिलाड़ी ने भारत का सिर ऊंचा किया तो वह थे मिल्खा सिंह. मिल्खा ने अपनी जिंदगी में कई यादगार रेस पूरी की थीं, मगर 1958 की उस रेस के बाद सब कुछ बदल गया था.

1958 की उस गौरवशाली रेस की कहानी, मिल्खा सिंह के शब्दों में जानना ज्यादा दिलचस्प होगा.

‘मैं टोक्यो एशियन गेम्स में 2 गोल्ड मैडल्स (200 मीटर और 400 मीटर) जीत कर 1958 के कौमनवेल्थ गेम्स (कार्डिफ, वेल्स) में हिस्सा लेने पहुंचा था. जमैका, साउथ अफ्रीका, केन्या, इंग्लैंड, कनाडा और आस्ट्रेलिया के वर्ल्ड क्लास एथलीट्स वहां थे. कार्डिफ में चुनौती बेहद तगड़ी थी और कार्डिफ के लोग सोचते थे, अरे इंडिया क्या है, इंडिया इज नथिंग.

‘मुझे यकीन नहीं था कि मैं कौमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीत सकता हूं. उस तरह का भरोसा कभी रहा ही नहीं क्योंकि मैं वर्ल्ड रेकौर्ड होल्डर मैल्कम क्लाइव स्पेंस (साउथ अफ्रीका) से टक्कर ले रहा था. वह उस समय 400 मीटर में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धावक थे.

‘मैं अपने अमेरिकन कोच डा. आर्थर डब्यू  हावर्ड को क्रेडिट दूंगा. पूरी रेस की रणनीति उन्होंने ही तैयार की थी. उन्होंने स्पेंस को पहले और दूसरे राउंड में दौड़ते हुए देखा. फाइनल रेस से पहले वाली रात वह चारपाई पर बैठे और मुझ से कहा, ‘मिल्का, मैं थोड़ीबहुत हिंदी ही समझता हूं लेकिन मैं तुम्हें मैल्कम स्पेंस की रणनीति के बारे में बताता हूं और यह भी कि तुम्हें क्या करना चाहिए.’

कोच ने मुझ से कहा कि स्पेेंस अपनी रेस के शुरुआती 300-350 मीटर धीमे दौड़ता है और फाइनल स्ट्रेच में बाकियों को पछाड़ देता है. डा. हावर्ड ने कहा, ‘तुम्हें शुरू से ही पूरी स्पीड से दौड़ना होगा. क्योेंकि तुम में स्टैमिना है. अगर तुम ऐसा करोगे तो स्पेंस अपनी रणनीति भूल जाएगा.’

‘मैं आउटर लेन पर था, नंबर 5 वाली और स्पेंस दूसरी लेन पर था. कार्डिफ आर्म्स पार्क स्टेडियम में रेस होनी थी. उन दिनों एक बैग से जो नंबर चुनते थे, उस के आधार पर लेन अलाट होती थी. इसी वजह से मुझे 5 नंबर वाली लेन मिली. मतलब हमें शुरुआती राउंड में पहले दौड़ना था, फिर क्वार्टर फाइनल में, सेमीफाइनल में और फाइनल में भी.

‘मैं शुरू से ही पूरा दम लगा कर भागा, आखिरी 50 मीटर तक बड़ी तेज दौड़ा. स्पेंस को अहसास हो गया कि मिल्खा बहुत आगे निकल गया है. मुझे दिख रहा था कि स्पेंस अपनी रणनीति भूल गया है क्योंकि वह मेरी बराबरी में लगा था.

‘वह तेज दौड़ने लगा और आखिर में वह मुझ से एक फुट ही पीछे था. वह आखिर तक मेरे कंधों के पास था, मगर मुझे हरा नहीं पाया. मैं ने 46.6 सेकेंड्स में रेस खत्म की और उस ने 46.9 में. डा. हावर्ड का शुक्रिया कि मैं ने गोल्ड मेडल जीता.

‘मैं अपनी जीत पर यकीन तक नहीं कर पा रहा था और उस महिला ने मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह महिला कौन है. इतने में अचानक अपना परिचय देते हुए उस महिला ने कहा, ‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं, मैं पंडितजी की बहन हूं.’ जी हां, वह महिला थीं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित.

‘विजयलक्ष्मी पंडित ने उसी समय मेरी बात पंडित नेहरू से ट्रंक काल के जरिए करवाई. मेरे लिए यह गर्व का क्षण था. पंडितजी ने कहा आज आप ने देश का नाम रोशन किया है. मिल्खा, तुम्हें क्या चाहिए?

‘उस वक्त मुझे पता नहीं था कि क्या  मांगना चाहिए. मैं 200 एकड़ जमीन या दिल्ली में घर मांग सकता था और मुझे मिल भी जाता, लेकिन मैं ने कहा मुझे मांगना नहीं आता. इसीलिए अगर वह कर सकते हैं तो देश भर में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दें और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा ही किया. मिल्खा सिंह के यह कहने से पंडित जवाहरलाल उन की काबीलियत के साथसाथ उन की ईमानदारी के भी कायल हो गए.’

अंतरराष्ट्रीय गेम्स प्रतियोगिताओं की महत्ता उस दौर में भी वही थी और आज भी उन का जादू जस का तस बरकरार है. फर्क बस इतना है कि पहले खिलाड़ी देश के लिए खेलते थे और आज खेल पैसों के लिए खेला जाता है. लेकिन मिल्खा सिंह उस दौर के खेलों के लिए समर्पित इकलौते ऐसे खिलाड़ी थे जिन्हें जीवनपर्यंत दौलत का मोह नहीं रहा.

लव मैरिज हुई थी निर्मल कौर से

मिल्खा सिंह और निर्मल कौर की मुलाकात साल 1955 में श्रीलंका के कोलंबो में हुई थी.  मिल्खा सिंह और निर्मल कौर 1955 में कोलंबो में एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने गए थे. निर्मल कौर उस समय भारतीय महिला वालीबाल टीम की कप्तान थीं, जबकि मिल्खा सिंह एथलेटिक्स टीम का हिस्सा थे.

पहली नजर में मिल्खा को निर्मल पसंद आ गईं. दोनों ने एकदूसरे से काफी बातें कीं. जब वापस जाने लगे तो मिल्खा सिंह अपने होटल का पता लिख कर देने लगे. जब कोई कागज नहीं मिला तो उन्होंने निर्मल के हाथ पर ही होटल का नंबर लिख दिया.

फिर बातें और मुलाकातें होने लगीं और बात शादी तक पहुंच गई. लेकिन शादी में भी अड़चन आ गई. निर्मल पंजाबी खत्री फैमिली से थीं. इसलिए परिवार शादी के लिए राजी नहीं हो रहा था.

प्यार परवान चढ़ चुका था और निर्मल कौर का परिवार मिल्खा सिंह से शादी के लिए तैयार नहीं था. उन की शादी में अड़चन की बात भी कई लोगों तक पहुंच चुकी थी.

पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को पता चला तो वह मदद के लिए आगे आए और दोनों परिवारों से बात कर शादी तय करवा दी. साल 1962 में दोनों शादी के बंधन में बंध गए.

एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने कहा था कि हर खिलाड़ी और एथलीट की जिंदगी में प्यार आता है, उसे हर स्टेशन पर एक प्रेम कहानी मिलती है. मिल्खा सिंह की जिंदगी में 3 लड़कियां आईं. तीनों से प्यार हुआ, लेकिन शादी उन्होंने निर्मल कौर से की.

मिल्खा सिंह ने कई बार सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी की तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि वे खुद 10वीं पास थे. बच्चों को पढ़ाने और संस्कार देने में उन की पत्नी निर्मल का ही अहम रोल रहा. उन की गैरमौजूदगी में निर्मल ने बच्चों की पढ़ाई और बाकी सभी बातों का ध्यान रखा. वह अपनी पत्नी को सब से बड़ी ताकत मानते थे.

शादी के बाद उन के 4 बच्चे हुए, जिन में 3 बेटियां और एक बेटा है. मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा सिंह इंटरनैशनल स्तर पर एक जानेमाने गोल्फर हैं. जीव ने 2 बार एशियन टूर और्डर औफ मेरिट जीता है. उन्होंने साल 2006 और 2008 में यह उपलब्धि हासिल की थी. 2 बार इस खिताब को जीतने वाले जीव भारत के एकमात्र गोल्फर हैं. वह यूरोपियन टूर, जापान टूर और एशियन टूर में खिताब जीत चुके हैं.

जीव मिल्खा सिंह को पद्मश्री सम्मान से नवाजा जा चुका है. ऐसे में मिल्खा सिंह और उन के बेटे जीव मिल्खा सिंह देश के ऐसे इकलौते पितापुत्र जोड़ी हैं, जिन्हें खेल उपलब्धियों के लिए पद्मश्री मिला है.

साल 1999 में मिल्खा सिंह ने 7 साल के एक बेटे को भी गोद ले लिया था. जिस का नाम हवलदार बिक्रम सिंह था, जोकि टाइगर हिल के युद्ध में शहीद हो गया था.

मिल्खा सिंह ने बाद में खेल से संन्यास ले लिया और भारत सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम करना शुरू किया. अब वह चंडीगढ़ में रहते थे. मिल्खा सिंह देश में होने वाले विविध तरह के खेल आयोजनों में शिरकत करते रहे.

हैदराबाद में 30 नवंबर, 2014 को हुए 10 किलोमीटर के जियो मैराथन-2014 को उन्होंने झंडा दिखा कर रवाना किया. अपने जीवन के अंत समय तक वह युवाओं को खेलों के लिए प्रेरणा देते रहे.

नुसरत जहां- निखिल जैन मामला लव, मैरिज और तलाक

टौलीवुड की मशहूर अभिनेत्री और तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां को शायद विवादों में रहना पसंद है. बिजनैसमैन निखिल जैन से शादी कर के जिस तरह वह चर्चा में आई थीं, उसी तरह उन के गर्भवती होने के बाद अब इस बात की लोगों में चर्चा है कि जब वह लंबे समय से पति से अलग रह रही थीं तो उन के गर्भ में पल रहा बच्चा किस का है?

वास्तविकता कभीकभी कल्पना की अपेक्षा बहुत ही मजेदार और विचित्र होती है. कभीकभी हमारे सामने कुछऐसे मामले आ जाते हैं, जिन के बारे में सुन कर, पढ़ कर या देख कर हमें ऐसा लगता है कि भला ऐसा कैसे हो सकता है. वे हमारे न कुछ लगते हैं और न हमारा उन से कुछ बनताबिगड़ता है, फिर भी हम उन में बहुत ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं.

नुसरत जहां और निखिल जैन के लव, मैरिज और डिवोर्स की बात भी कुछ ऐसी ही है. इस समय यह चर्चा का विषय बनी हुई है.

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नुसरत जहां खूबसूरत हैं, हीरोइन हैं, सांसद हैं, अमीर हैं और पहले से ही चर्चाओं में रही हैं. 8 जनवरी, 1990 को कोलकाता में जन्मी नुसरत जहां की प्रारंभिक शिक्षा अवर लेडी क्वीन औफ द मिशन स्कूल में हुई. इस के बाद भवानीपुर कालेज से उन्होंने कौमर्स में स्नातक किया. 2010 में ‘मिस कोलकाता फेवर वन’ ब्यूटी कौंटैस्ट जीतने के बाद मौडलिंग में अपना कैरियर शुरू किया.

इस के बाद ‘शोत्रू’ उन की पहली बांग्ला फिल्म आई. उस समय उन्होंने औडिशन में 50 लोगों के बीच अपनी जगह बनाई थी. एक साल बाद उन्होंने देव और सुभोश्री के साथ ‘खोका-420’ में काम किया. उसी साल वह अंकुश हजारा के साथ ‘वो खिलाड़ी’ में भी दिखाई दी थीं. फिर उन्होंने ‘ऐक्शन के चिकन तंदूरी’ और ‘के देशी छोरी’ में काम किया. उन की ये दोनों ही फिल्में हिट रही हैं.

नुसरत ने राहुल बोस के साथ ‘सीधे नमार आगे’ में भी काम किया था. 2015 में उन्होंने कौमेडी कार्यक्रम ‘जमाई-420’ में हिस्सा लिया, जिस में उन के साथ अंकुश हजारा, पायल सरकार, मिमी चक्रवर्ती, सोहम चक्रवर्ती और हिरन थे.

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जानीमानी अभिनेत्री हैं नुसरत

नुसरत सेलिब्रिटी लीग थीम सांग का भी हिस्सा रह चुकी हैं. वर्ष 2015 में उन की ‘हरहर व्योमकेश’ फिल्म आई थी, जिस ने बौक्स औफिस पर बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की थी. इस के बाद फिल्म ‘पावर’, कौमेडी फिल्म ‘कीर्ति’, ‘लव एक्सप्रेस’, ‘जुल्फिकार’, ‘हरीपड़ा बंडवाला’, ‘आमी जो तोमार’ और ‘बोलो दुग्गा माई की’ तथा ‘ओएसएस कोलाता’ आदि फिल्मों में काम किया है.

वह बांग्ला की जानीमानी हीरोइन हैं, पर इस समय वह पर्सनल लाइफ, प्रैग्नेंसी और एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर को ले कर सुर्खियों में हैं. नुसरत अकसर विवादों की ही वजह से सुर्खियों में आती हैं.

इस बार भी जब उन के प्रैग्नेंट होने की खबर आई तो पता चला कि इस के बारे में उन के पति निखिल जैन को कुछ पता ही नहीं है. दोनों काफी दिनों से अलग रह रहे हैं. 2017 में उन की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद उन पर अश्लील टिप्पणी करने के आरोप में बीजेपी के आईटी सेल के एक कार्यकर्ता को गिरफ्तार किया गया था.

30 सितंबर, 2016 को नुसरत के बौयफ्रैंड कादिर खान को घटना के 4 साल बाद सामूहिक दुष्कर्म के मामले में गिरफ्तार किया गया था. नुसरत उस से शादी करने वाली थीं. उस समय नुसरत पर एक अपराधी को पनाह देने का आरोप लगा था.

हालांकि नुसरत ने इस बात से इनकार किया था. पर कुछ वकीलों ने उन्हें पनाह देने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार करने की मांग की थी. बाद में नुसरत जहां ने भी कहा था कि कादिर खान ने उन्हें मानसिक क्षति पहुंचाई है. उस ने उन का मानसिक बलात्कार किया है.

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तुर्की में की थी शादी

बशीरहाट से सांसद का चुनाव जीतने के बाद नुसरत जहां 17-18 जून, 2019 को सांसदों के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुई थीं. उस समय वह अपने पति निखिल जैन के साथ तुर्की में थीं. 18 नवंबर, 2019 को होने वाले शीतकालीन सत्र में वह पहुंच नहीं पाई थीं.

कहा गया था कि अस्वस्थता की वजह से वह अपोलो अस्पताल में भरती हैं. पर यह भी कहा जाता है कि वह बीमार नहीं थीं, बल्कि किसी और वजह से उन्हें परेशानी हुई थी.

नुसरत अपनी बोल्ड तसवीरों की वजह से भी अकसर चर्चाओं में रहती हैं. इस के अलावा एक बार उन्होंने दुर्गा के रूप में तसवीरें खिंचवाई थीं, जिसे ले कर काफी विवाद हुआ था. उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी. नुसरत ने इस की शिकायत भी दर्ज कराई थी.

शादी से लौटने के बाद संसद में चूडि़यां, मंगलसूत्र, सिंदूर और साड़ी पहन कर आने पर उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स का सामना करना पड़ा था. उन के लिपस्टिक के रंग, सनस्क्रीन, एक्सेसरीज और आउटफिट को ले कर काफी चर्चा हुई थी. उसी बीच वैवाहिक संबंधों की वैधता पवित्रता को ले कर काफी हलचल मची थी.

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गैरमजहबी शादी पर उठे थे सवाल

मुफ्ती मुकर्रम अहमद, शाही इमाम, फतेहपुरी मसजिद ने कहा था कि यह शादी नहीं दिखावा है. मुसलमान और जैन दोनों ही इस शादी को नहीं मानेंगे. वह अब न जैन हैं और न मुसलिम. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. जैन से शादी कर के उन्होंने बहुत बड़ा अपराध किया है.

दूसरी ओर नुसरत जहां ने उन सब का मुंह बंद करते हुए कहा था कि ‘मैं एक समादेशी भारत का प्रतिनिधित्व करती हूं, जो जाति, पंथ और धर्म से परे है. जब वह ऐक्ट्रैस से नेता बनी थीं, तब भी मुसलिम मौलवियों ने उन की काफी आलोचना की थी. अक्तूबर, 2020 में दुर्गा पूजा में जब उन्होंने ‘ढाक’ बजाया था, तब इतहास उलेमाएहिंद के उपाध्यक्ष मुफ्ती असद कासम ने नुसरत जहां को ‘हराम’ बताया था.

नुसरत के पति निखिल जैन मारवाड़ी व्यापारी हैं. वह भी हैंडसम और काफी धनवान हैं. वह नुसरत से तब मिले थे, जब नुसरत जहां ने उन की साड़ी के ब्रांड के लिए मौडलिंग की थी. जल्द ही दोनों में प्यार हो गया था और वे डेटिंग पर जाने लगे थे. उस के बाद उन्होंने सगाई की घोषणा की थी. सगाई के तुरंत बाद उन्होंने शादी की तारीख फिक्स कर दी थी.

4 जुलाई, 2019 को उन्होंने कोलकाता में एक भव्य रिसैप्शन की मेजबानी की थी, जिस में टौलीवुड ऐक्टर्स और बंगाल की राजनीतिक बिरादरी के तमाम लोग शामिल हुए थे.

इन दोनों की प्रेम कहानी का जब खुलासा हुआ तो दोनों के धर्म को ले कर काफी बवाल मचा था. मुसलमान नुसरत जहां ने जैन निखिल के साथ शादी की तो बहुत सारे मुसलमानों ने नाराजगी व्यक्त की थी.

नुसरत पर एशिया के सब से बड़े इसलामिक स्कूल डर-उल-उलूम ने फतवा जारी किया था. उन्होंने नुसरत द्वारा निखिल जैन से शादी करने पर आपत्ति जताई थी. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के देवबंद से भी नुसरत पर फतवा जारी किया गया था. वहां से कहा गया था कि नुसरत को केवल मुसलमान से शादी करनी चाहिए. सांसद बनने के बाद उन्होंने ‘नुसरत जहां रुहू जैन’ के नाम से ईश्वर को साक्षी मानते हुए शपथ ली थी. उस के बाद उन्होंने वंदे मातरम भी कहा था. यह बात देवबंद के उलेमा मुफ्ती असद काजमी को बहुत बुरी लगी थी.

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लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद नुसरत जहां ने मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहन कर सांसद की शपथ ली थी. इस के बाद मुसलिम मौलानाओं ने उन के खिलाफ फतवा जारी किया था. उन से सवाल पूछा गया था कि उन्होंने मुसलिम धर्म का क्यों त्याग किया?

उस समय नुसरत जहां फिल्मी स्टाइल में कह रही थीं कि ‘जिसे जो कहना हो, वो वह कहे, जिसे जो करना हो, वो वह करे. जब प्यार किया है तो डरने की क्या बात है.’

जिस तरह फिल्मों में कहा जाता है कि प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, उसी तरह नुसरत के भी कहने का मतलब था कि उस ने भी प्यार किया है तो वह भी किसी से नहीं डरतीं.

निखिल नहीं हैं बच्चे का बाप

लोग कहते थे कि नुसरत और निखिल की बहुत सुंदर जोड़ी है. दोनों का नाम भी ‘न’ से शुरू होता था और दोनों का सरनेम भी एक ही अक्षर ‘ज’ से शुरू होता है. रब ने बना दी जोड़ी. मुसलमान नुसरत जहां दुर्गा पूजा के समय माता के पंडाल में जा कर पूजा करती थीं और सर्वधर्म समभाव, प्रेम, भावनात्मकता और भाईचारे की बात करते नहीं थकती थीं.

लोगों का सोचना था कि नुसरत और निखिल की गाड़ी बढि़या चल रही है. लेकिन अचानक इस लव स्टोरी में फिल्मी ट्विस्ट आ गया.

नुसरत जहां ने बड़े ही खराब तरीके से घोषित किया कि ‘मैं मां बनने वाली हूं.’ दूसरी ओर निखिल ने इस तरह का मैसेज दिया कि ‘मैं इस बच्चे का बाप नहीं हूं.’

इस के बाद नुसरत जहां के अन्य से प्रेम प्रकरण की बातें आने लगीं. फिर तो बात डिवोर्स तक पहुंच गई. अब नुसरत का कहना है कि ‘हमारी शादी ही कहां हुई थी, जो लोग डिवोर्स की बात कर रहे हैं.’

पर मीडिया ने खोज निकाला कि नुसरत जहां ने जब चुनाव लड़ा था, तब उन्होंने जो एफीडेविट दिया था, उस में उन्होंने अपना स्टेटस मैरिड लिखा था. उन्होंने निखिल के साथ तुर्की में की गई अपनी भव्य और खर्चीली मैरिज के फोटो भी डाले थे. अब सवाल यह उठता है कि यह शादी नहीं थी तो क्या था? अभी नुसरत जहां ने सोशल मीडिया से सभी फोटो हटा दिए हैं.

इस सब के बीच नुसरत जहां की कोख में जो बच्चा पल रहा है, उस के बारे में कोई नहीं सोचविचार रहा है. वह मासूम तो पैदा होने के पहले ही विवादों में आ गया. उस का भाग्य, उस की तकदीर, उस की डेस्टिनी तो प्रकृति जाने, पर जो बात सामने आई हैं, वह डीएनए टेस्ट तक जा रही हैं. हमारे यहां कहा जाता है कि हर कोई अपना नसीब ले कर पैदा होता है. शायद नुसरत का बच्चा अपने भाग्य में विवाद ले कर आया है.

निखिल का कहना है कि हम दोनों तो दिसंबर, 2020 से अलग रह रहे हैं. अगस्त में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान मेरी पत्नी का व्यवहार मेरे प्रति बदलने लगा था. हमारे बीच कोई संबंध नहीं है. यह कहना मुश्किल है कि नुसरत सचमुच प्रैग्नेंट हैं या यह बात भी फिल्मी है.

निखिल जैन ने न जाने कितनी बार नुसरत जहां से अपनी शादी का रजिस्ट्रैशन कराने के लिए कहा था, लेकिन नुसरत किसी न किसी बहाने रजिस्ट्रैशन कराने से मना करती रही. 5 नवंबर, 2020 को नुसरत अपने गहनों, रुपयों, कीमती सामान, कागजात और दस्तावेजों के साथ निखिल का फ्लैट छोड़ कर बल्लीगंज स्थित अपने फ्लैट में जा कर रहने लगी थीं. इस के बाद नुसरत और निखिल पतिपत्नी होने के बावजूद साथ नहीं रहते थे.

कोर्ट में की शादी रद्द करने की अपील

8 मार्च, 2021 को निखिल ने स्वीकार किया था कि उन्होंने नुसरत के खिलाफ अपनी शादी को रद्द करने के लिए अलीपुर कोर्ट में ऐक दीवानी मुकदमा दायर किया है.

चूंकि मामला विचाराधीन है, इसलिए निखिल ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहते हैं. पर इतना जरूर कहा कि उन के परिवार ने नुसरत को बहू के रूप में नहीं, एक बेटी के रूप में लिया. उसे एक बेटी के रूप में बहुत कुछ दिया. फिर भी उन सब को यह दिन देखना पड़ा.

नुसरत और निखिल के बीच एक तीसरा व्यक्ति भी है यश दासगुप्ता. नुसरत और निखिल जैसेजैसे दूर होते गए, वैसेवैसे नुसरत जहां और यश दासगुप्ता नजदीक आते गए. यश दासगुप्ता भी ऐक्टर और भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं. भाजपा ने उन्हें विधानसभा चुनाव में चंडीताल से टिकट भी दिया था. तृणमूल कांग्रेस की स्वाति खंडोलकर ने यश दासगुप्ता को 41,347 मतों से हराया था.

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यश दासगुप्ता हैं नजदीकी दोस्त

यश और नुसरत पिछले कुछ समय से अलगअलग जगहों पर एक साथ दिखाई दे रहे हैं. नुसरत जहां पिछले कुछ समय से ‘एसओएस कोलकाता’ फिल्म में अपने कोस्टार रहे यश दासगुप्ता के काफी करीब आ गई हैं.

कहा तो यह भी जाता है कि वह यश के साथ रिलेशन में हैं. कुछ दिनों पहले दोनों राजस्थान ट्रिप पर गए थे. इन खबरों पर दोनों ने अपनी प्रतिक्रिया भी दी थी. इस से साफ पता चलता है कि दोनों का अफेयर चल रहा है.

नुसरत जहां और निखिल जैन के विवाद में यश दासगुप्ता ने कहा था कि नुसरत की पर्सनल लाइफ में चल रहे विवाद के बारे में कोई जानकारी नहीं है. वह तो हर समय सड़क यात्राएं करता रहता है. इस बार वह राजस्थान गया था. उस के साथ कोई भी जा सकता है. अगर यश दासगुप्ता कुछ कहते हैं तो कोई नई बातें सामने आएंगी.

10 अक्तूबर, 1985 को कोलकाता में जन्मे यश दासगुप्ता के कामकाज की बात करें तो उन्होंने नैशनल टीवी से अपने करियर की शुरुआत की थी. यश को हिंदी शो ‘कोई आने को है’, ‘बंदिनी’, ‘बसेरा’, ‘ना आना इस देश लाडो’, ‘अदालत’, ‘महिमा शनिदेव की’ में देखा जा चुका है. इस के अलावा बांग्ला धारावाहिक ‘बोझेना से बोझेना’ में भी काम कर चुके हैं.

उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्मों में भी काम किया है. सब से पहले वह 2016 में फिल्म ‘गैंगस्टर’ में नजर आए थे. इस के बाद उन्होंने ‘वन’, ‘टोटल दादागिरी’, ‘फिदा’, ‘मोन जाने न’ और ‘एसओएस कोलकाता’ में काम किया है.

31 साल की नुसरत की निखिल जैन से मुलाकात तब हुई थी, जब निखिल ने अपने ब्रांड के लिए उन से मौडलिंग करवाई थी. और उसी मुलाकात में दोनों एकदूसरे को दिल दे बैठे थे. निखिल जैन कोलकाता के एक प्रतिष्ठित परिवार से हैं.

उन का साडि़यों का पारिवारिक बिजनैस है. उन के ब्रांड का नाम है रंगोली. उन के पिता मोहन कुमार जैन ने टैक्सटाइल का यह बिजनैस शुरू किया था, जो आज कोलकाता के अलावा हैदराबाद चेन्नई, बंगलुरु और विजयवाड़ा तक फैला है. साड़ी का रंगोली ब्रांड बहुत लोकप्रिय है.

निखिल जैन की गिनती रईसों में होती है. उन की मां हाउसवाइफ हैं. उन की 2 बहनें भी हैं. निखिल का जन्म कोलकाता में ही हुआ था. उन का बचपन यहीं बीता. उन्होंने एमपी बिड़ला से पढ़ाई की थी. यूनाइटेड किंगडम की बार्विक यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट की डिग्री ले कर पारिवारिक बिजनैस को संभाल लिया. उन्हें लग्जरी लाइफ जीना पसंद है. उन्हें एस्टन मार्टिन कार पसंद है. वह इंडियन फूड के दीवाने हैं.

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3 साल की डेटिंग के बाद की थी शादी

जैन होते हुए भी उन्होंने मुसलिम नुसरत जहां से शादी की. शादी से पहले 3 साल तक दोनों ने डेटिंग की थी. निखिल और नुसरत ने 19 जून, 2019 को डेस्टिनेशन शादी तो तुर्की में की थी, पर कोलकाता में बहुत ही भव्य रिसैप्शन दिया था, जिस में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हुई थीं.

2010 में नुसरत जहां ने मिस कोलकाता का कौंटैस्ट जीता था. इसी के बाद मौडलिंग और फिर बांग्ला फिल्मों में उन का प्रवेश हुआ. बांग्ला में उन्होंने तमाम अच्छी फिल्में दीं.

शादी के 3 महीने पहले ही तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने यह घोषणा कर के सब को चौंका दिया था कि फिल्म अभिनेत्री नुसरत जहां टीएमसी की उम्मीदवार के रूप में बशीरहाट सीट से चुनाव लड़ेंगीं.

लोकसभा के इस चुनाव में नुसरत जहां को कुल 7,82,078 मत मिले थे. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के उम्मीदवार सयांतन बासु को 3,50,569 मतों से हराया था.

चुनाव जीतने के कुछ दिनों बाद नुसरत जहां ने अपने प्रेम और विवाह की बात जाहिर की थी. नुसरत से अफेयर के पहले लोग निखिल को बहुत कम जानते थे. नुसरत के साथ नाम जुड़ने के बाद निखिल रातेंरात फेमस हो गए थे.

अलबत्ता उन की पहचान नुसरत जहां के पति के रूप में बनी थी. दोनों ने शादी की थी तो लोगों ने यही कहा था कि ये दोनों ही अलगअलग दुनिया के आदमी हैं, इसलिए दोनों ज्यादा दिनों तक एक साथ नहीं चल पाएंगे.

नुसरत बहुत ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हैं. राजनीति में आने के बाद उन के सपनों को पंख लग गए हैं. नुसरत को अब डिवोर्स की बात से छुटकारा चाहिए. वह तो निखिल के साथ के संबंध को लिवइन रिलेशन कहती हैं. नुसरत और निखिल का यह प्रकरण जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है. यह लंबा चलने वाला है. क्योंकि इस में अभी बहुत कुछ बाहर आना बाकी है. दोनों के मामले में कोई फिल्म देख रहे हों या मजेदार कहानी पढ़ रहे हों, लोग इस तरह रुचि ले रहे हैं.

सेलिब्रिटीज की जिंदगी अलग होती है. इन लोगों के संबंधों की व्याख्याएं भी एकदम अलग होती हैं. ऐसे मामलों में जजमेंटल बनने में बहुत खास नहीं होता. हर सेलिब्रिटी का किस्सा चर्चा में रहता है. फिल्मी दुनिया में तो यह सब चलता रहता है. इन लोगों की रियल लाइफ में भी शायद फिल्मी टर्न ऐंड ट्विस्ट न आए तो मजा नहीं आता.

प्रैग्नेंसी कंफर्म करने के लिए फोटो

तृणमूल कांग्रेस सांसद, एक्टर नुसरत जहां  की शादी भले टूटने की कगार पर है. उन का अपने पति से जिस बच्चे को ले कर विवाद चल रहा है, ऐसे में उन्होंने अपने उस बच्चे को ले कर अपनी प्रैग्नेंसी कन्फर्म कर दी है. इस के लिए उन्होंने एक तसवीर साझा की है, जिस में वह अपना बेबी बंप फ्लांट करती नजर आ रही हैं.

उन की यह तसवीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है, जिस में वह वाइट कलर के लूज गाउन में नजर आ रही हैं. इस फोटो में उन के गर्भवती होने का साफ पता चल रहा है. वहीं उन के चेहरे पर गर्भवती होने का ग्लो भी झलक रहा है. प्रैग्नेंसी के बाद पहली बार आई इस फोटो में नुसरत काफी खूबसूरत दिखाई दे रही हैं.

पिछले 3 महीने से नुसरत जहां के गर्भवती होने की अटकलें लगाई जा रही थीं. क्योंकि कुछ दिनों पहले उन्होंने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट शेयर की थी, जिस में लिखा था, ‘तुम हमारे अंदाज में खिलोगे.’ हालांकि उस समय नुसरत इस मामले पर चुप्पी साधे रहीं. पर अब यह जो तसवीर सामने आई है, उस ने सारी अटकलों पर विराम लगा दिया है.

पहली महिला Hawker अरीना खान उर्फ पारो

अगर इंसान चाह ले तो उस के लिए कुछ भी असंभव नहीं है. चाहे वह महिला हो या पुरुष. आज महिलाएं वे सारे काम बखूबी कर रही हैं, जिन पर कभी केवल पुरुष अपना अधिकार समझता था. जमीन से ले कर आसमान तक महिलाएं पुरुषों को मात दे रही हैं. ऐसा ही काम जयपुर की अरीना खान उर्फ पारो ने भी किया है. उन्होंने जो काम किया है, उस की बदौलत आज वह भारत की पहली महिला हौकर मानी जा रही है.

जिस समय पूरा शहर मस्ती भरी नींद में सो रहा होता था, उसी समय सर्दी हो या गरमी या फिर बरसात, 9 साल की अरीना खान उर्फ पारो सुबह के 4 बजे उठ जाती और फिर अपने नन्हेनन्हे पैरों से साइकिल के बड़ेबड़े पैडल मारते हुए राजस्थान के शहर जयपुर के गुलाब बाग सेंटर पर पहुंच जाती थी. गुलाब बाग के सेंटर से अखबार ले कर वह बांटने के लिए निकल जाती. पिछले 20 सालों से उस का यह सिलसिला जारी है.

9 साल की उम्र में पारो ने भले ही यह काम मजबूरी में शुरू किया था, पर आज इसी काम की वजह से वह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में जानी जाती है. एक तरह से यह काम आज उस की पहचान बन गया है. अपने इसी काम की बदौलत आज वह देश की पहली महिला हाकर बन गई है. पारो जिन  लोगों तक अखबार पहुंचाती है, उन में जयपुर का राज परिवार भी शामिल है.

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अरीना खान की 7 बहनें और 2 भाई हैं. मातापिता को ले कर कुल 11 लोगों का परिवार था. इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी उस के पिता सलीम खान उठाते थे. इस के लिए वह सुबह 4 बजे ही उठ जाते थे. जयपुर के गुलाब बाग स्थित सेंटर पर जा कर अखबार उठाते और जयपुर के बड़ी चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार और तिरपौलिया बाजार में घूमघूम कर अखबार बांटते थे.

इस के बाद दूसरा काम करते थे. 12 से 14 घंटे काम कर के किसी तरह वह परिवार के लिए दो जून की रोटी और तन के कपड़ों की व्यवस्था कर रहे थे.

अरीना उस समय 9 साल की थी, जब उस के पिता की तबीयत खराब हुई. दरअसल उन्हें बुखार आ रहा था. बुखार आता तो वह मैडिकल स्टोर से दवा ले कर खा लेते और अपने काम के लिए निकल जाते. उन के पास इतना पैसा नहीं था कि वह अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से कराते. इस का नतीजा यह निकला कि बीमारी उन पर हावी होती गई. वह साधारण बुखार टाइफाइड बन गया.

एक तो बीमारी, दूसरे मेहनत ज्यादा और तीसरे खानेपीने की ठीक से व्यवस्था न होने की वजह से उन का शरीर कमजोर होता गया. एक दिन ऐसा भी आया जब सलीम खान को चलनेफिरने में परेशानी होने लगी.

अगर सलीम काम पर न जाते तो परिवार के भूखों मरने की नौबत आ जाती. उन्हें अपनी नहीं, अपने छोटेछोटे बच्चों की चिंता थी. वह अपनी दवा कराए या बच्चों का पेट भरे. जब वह चलनेफिरने से भी मजबूर हो गए तो 9 साल की अरीना अपने अब्बू के साथ अखबार बंटवाने में उन की मदद के लिए जाने लगी. वह पिता की साइकिल में पीछे से धक्का लगाती और अखबार बंटवाने में उन की मदद करती.

किसी तरह घर की गाड़ी चल रही थी कि अचानक एक दिन अरीना के परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा. बीमारी की वजह से उस के पिता सलीम खान की मौत हो गई.

अब कमाने वाला कोई नहीं था. ऐसी कोई जमापूंजी भी नहीं थी कि उसी से काम चलता. ऐसे में सहानुभूति जताने वाले तो बहुत होते हैं, लेकिन मदद करने वाले कम ही होते हैं. फिर किसी की मदद से कितने दिन घर चलता.

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पिता के मरते ही मात्र 9 साल की नन्ही अरीना समझदार हो गई. उस ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली. इस की वजह यह थी कि उसे अपने पिता के अखबार बांटने वाले काम की थोड़ीबहुत जानकारी थी. इस के अलावा वह और कुछ न तो करने के लायक थी और न ही कुछ कर सकती थी.

पारो को पता था कि कहां से अखबार उठाना है और किसकिस घर में देना है. फिर क्या था अरीना उर्फ पारो भाई के साथ गुलाब बाग जा कर पेपर उठाती और घरघर जा कर पहुंचाती.

इस के लिए उसे सुबह 4 बजे उठना पड़ता था. घरघर अखबार पहुंचा कर उसे घर लौटने में 9, साढ़े 9 बज जाते थे.

अरीना जयपुर के गुलाब बाग से अखबार उठा कर चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार, तिरपौलिया बाजार इलाके में घरघर जा कर अखबार पहुंचाती थी. इस तरह उसे लगभग 7 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता था. वह करीब सौ घरों में अखबार पहुंचाती थी.

शुरूशुरू में अरीना को इस काम में काफी परेशानी हुई. क्योंकि वह 9 साल की बच्ची ही तो थी. उतनी दूर चल कर वह थक तो जाती ही थी, साथ ही उसे यह भी याद नहीं रहता था कि उसे किसकिस घर में अखबार डालना है.

यही नहीं, वह रास्ता भी भूल जाती थी. इस के अलावा उसे इस बात पर भी बुरा लगता था, जब छोटी बच्ची होने की वजह से कोई उसे दया की दृष्टि से देखता था.

बुरे दिनों में मदद करने वाले कम ही लोग होते हैं. फिर भी अरीना के पिता को जानने वाले कुछ लोगों ने उस की मदद जरूर की. इसलिए अरीना सुबह जब अखबार लेने गुलाब बाग जाती तो उसे लाइन नहीं लगानी पड़ती थी. उसे सब से पहले अखबार मिल जाता था. इस के बावजूद उसे परेशान तो होना ही पड़ता था. क्योंकि अखबार बांटने के बाद उसे स्कूल भी जाना होता था.

स्कूल जाने में उसे अकसर देर हो जाती थी. क्योंकि वह अखबार बांट कर 9, साढ़े 9 बजे तो घर ही लौटती थी. उस के स्कूल पहुंचतेपहुंचते एकदो पीरियड निकल जाते थे. उस का पढ़ाई का नुकसान तो होता ही, लगभग रोज ही प्रिंसिपल और क्लास टीचर की डांट भी सुननी पड़ती थी.

उस समय अरीना 5वीं में पढ़ती थी. जब इसी तरह सालों तक चलता रहा तो नाराज हो कर प्रिंसिपल ने उस का नाम काट दिया. इस के बाद अरीना एक साल तक अपने लिए स्कूल ढूंढती रही, जहां वह अपना काम निपटाने के बाद पढ़ने जा सके. वह इस तरह का स्कूल ढूंढ रही थी कि अगर वह देर से भी स्कूल पहुंचे तो उसे क्लास में बैठने दिया जाए.

आखिर रहमानी मौडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल ने उस की शर्त पर अपने यहां एडमिशन दे दिया. इस तरह एक बार फिर उस की पढ़ाई शुरू हो गई. अखबार बांटने के बाद वह एक बजे तक अपनी पढ़ाई करती.

स्कूल में अरीना की जो क्लास छूट जाती, उस की पढ़ाई अरीना को खुद ही करनी पड़ती. जिस समय अरीना 9वीं क्लास में थी तो एक बार फिर उस की और उस की छोटी बहन की पढ़ाई में रुकावट आ गई. इस की वजह थी उस की आर्थिक स्थिति.

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अखबार बांटने से उस की इतनी कमाई नहीं हो रही थी कि उस का अपना घर खर्च आराम से चल पाता. जब घर का खर्च ही पूरा नहीं होता था तो पढ़ाई का खर्च कहां से निकालती. खर्च पूरे करने के लिए उस ने एक नर्सिंगहोम में पार्टटाइम नौकरी कर ली.

अब वह सुबह उठ कर अखबार बांटती, फिर स्कूल जाती, उस के बाद नर्सिंगहोम में नौकरी करती. नर्सिंगहोम में वह शाम 6 बजे से रात 10 बजे तक काम करती थी. रात को घर आ कर उसे फिर अपनी पढ़ाई करनी पड़ती. इस तरह उसे हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही थी.

अरीना जब बड़ी हो रही थी, सुबह उसे अकेली पा कर लड़के उस से छेड़छाड़ करने लगे थे. पर अरीना इस से जरा भी नहीं घबराई. अगर कोई लड़का ज्यादा पीछे पड़ता या परेशान करता तो अरीना उसे धमका देती. अगर इस पर भी वह नहीं मानता तो अरीना उस की पिटाई कर देती. अब वह किसी से नहीं डरती थी. परिस्थितियां सचमुच इंसान को निडर बना देती हैं.

अरीना अखबार बांटने के साथसाथ पार्टटाइम नौकरी करते हुए पढ़ भी रही थी. कड़ी मेहनत करते हुए उस ने 12वीं पास कर ली. इतने पर भी वह नहीं रुकी. उस ने महारानी कालेज से ग्रैजुएशन किया, साथ ही वह कंप्यूटर भी सीखती रही.

कंप्यूटर सीखने के बाद उसे एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई. लेकिन उस ने अखबार बांटना नहीं बंद किया. सुबह उठ कर वह अखबार बांटती है, उस के बाद लौट कर नहाधो कर तैयार हो कर नौकरी पर जाती है.

इतना ही नहीं, बाकी बचे समय में वह गरीब बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करती, बल्कि पढ़ाती भी थी. इस के अलावा कई संगठनों के साथ मिल कर गरीब बच्चों के लिए काम भी करना शुरू कर दिया.

अरीना के समाज सेवा के इन कामों को देखते हुए उसे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं. यही वजह है कि देश की पहली महिला हाकर होने के साथसाथ समाज सेवा करने वाली अरीना को राष्ट्रपति ने भी सम्मानित किया है.

अरीना को जब पता चला कि उस की मेहनत को राष्ट्रपति सम्मानित करने वाले हैं तो उसे बड़ी खुशी हुई. जिसे बयां करने के लिए उस के पास शब्द नहीं थे. उस के पैर मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. पैर जमीन पर पड़ते भी कैसे, छोटी सी उम्र से अब तक उस के द्वारा किया गया संघर्ष सम्मानित जो किया जा रहा था.

अरीना की जो कल तक आलोचना करते थे, आज उसे सम्मान की नजरों से देखते हैं. शायद यह उस के संघर्ष का फल है. लोग आज अपने बच्चों को उस की मिसाल देते हैं. आज अरीना एक तरह से सेलिब्रिटी बन चुकी है. वह जहां भी जाती है, लोग उसे पहचान लेते हैं और उस के साथ सेल्फी लेते हैं.

अरीना ने जो काम कभी मजबूरी में शुरू किया था, आज वही काम उस की पहचान बन चुका है. शायद इसीलिए उस ने अपना अखबार बांटने का काम आज भी बंद नहीं किया है. अरीना की स्थिति को देखते हुए साफ लगता है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. लड़कियां भी अगर चाह लें तो कोई भी काम कर सकती हैं.

इंसानों के बाद शेरों में भी बढ़ा कोरोना का खतरा

कोरोना वायरस ने 2 साल से दुनिया भर में इंसानों की जान को खतरे में डाल रखा है. अब जानवरों में सब से ताकतवर माने जाने वाले शेरों को भी कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया है. शेर, बाघ ही नहीं दूसरे पशुओं पर भी कोरोना का खतरा मंडराने लगा है.

माना जा रहा है कि संक्रमित इंसानों के जरिए कोरोना वायरस ने शेरों के शरीर में प्रवेश किया. हालांकि अमेरिका के न्यूयार्क स्थित ब्रानोक्स जू में पिछले साल अप्रैल में ही 8 बाघ और शेर कोरोना पौजिटिव मिले थे, लेकिन भारत में पहली बार शेर संक्रमित मिले हैं.

पिछले साल हांगकांग में भी कुत्ते और बिल्लियों में कोरोना संक्रमण का पता चला था. भारत में घरेलू जानवरों में अभी तक कोरोना संक्रमण के कोई मामले सामने नहीं आए हैं.

मई के पहले सप्ताह में हैदराबाद के नेहरू जूलोजिकल पार्क में 8  एशियाई शेर कोरोना संक्रमित पाए गए. इन में 4 शेर और 4 शेरनियां थीं. इस जू में काम करने वाले कर्मचारियों को अप्रैल के चौथे सप्ताह में शेरों में कोरोना के लक्षण दिखाई दिए थे.

इन शेरों की खुराक कम हो गई थी. इस के अलावा उन की नाक भी बहने लगी थी. उन में सर्दी जुकाम जैसे लक्षण नजर आ रहे थे. कर्मचारियों ने जू के अधिकारियों को यह बात बताई. उस समय तक देश में कोरोना की दूसरी लहर का भयावह रूप सामने आ चुका था.

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जू के अधिकारियों ने इन शेरों की कोरोना जांच कराने का फैसला किया. जांच के लिए शेरों को ट्रंकुलाइज यानी बेहोश कर उन के तालू के निचले हिस्से से लार के नमूने लिए   गए. इन नमूनों को जांच के लिए हैदराबाद के सेंटर फौर सेल्युलर एंड मौलिक्यूलर बायोलौजी (सीसीएमबी) भेजा गया.

सीसीएमबी से शेरों की कोरोना जांच रिपोर्ट मई के पहले सप्ताह में हैदराबाद जू के अधिकारियों को मिली. इस में 8 शेरों की आरटीपीसीआर (कोरोना) जांच रिपोर्ट पौजिटिव आई.

एशिया में सब से बड़े जू में शुमार नेहरू जूलोजिकल पार्क हैदराबाद शहर की घनी आबादी वाले इलाके में बना हुआ है और 380 एकड़ में फैला है. सरकार ने कुछ दिन पहले ही कोरोना वायरस हवा के जरिए फैलने की बात कही थी. इस से यह माना गया कि शेरों में कोरोना वायरस ने या तो हवा के जरिए या देखरेख करने वाले किसी संक्रमित कर्मचारी के जरिए प्रवेश किया. नेहरू जूलोजिकल पार्क में कुल 12 एशियाई शेर हैं.

हैदराबाद का मामला सामने आने के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने देश भर में सभी जूलोजिकल पार्क, नैशनल पार्क और टाइगर रिजर्व बंद करने के आदेश दिए. साथ ही वन्यजीव अभयारण्यों को भी अगले आदेशों तक दर्शकों के लिए बंद करने की सलाह दी.

इस के बाद मई के पहले सप्ताह में ही उत्तर प्रदेश के इटावा में स्थित लायन सफारी के एक शेर में भी कोरोना वायरस मिला. इस की पुष्टि बरेली में इज्जतनगर स्थित भारतीय पशु अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) में की गई जांच में हुई. इटावा की लायन सफारी से 14 शेरों के सैंपल जांच के लिए बरेली के आईवीआरआई भेजे गए थे. जांच में एक शेर में कोरोना वायरस पाया गया और एक संदिग्ध माना गया. बाकी 12 शेरों की कोरोना जांच रिपोर्ट निगेटिव आई.

इस लायन सफारी में 18 शेर और शेरनी हैं. इन में कुछ दिन पहले कोरोना के लक्षण नजर आए थे. इस से पहले हैदराबाद जू के शेरों में कोरोना वायरस की पुष्टि हो चुकी थी. ऐसी हालत में इटावा लायन सफारी प्रशासन ने भी शेरों की कोरोना जांच कराने का निर्णय लिया था. एक शेर की जांच रिपोर्ट पौजिटिव आने के बाद इस सफारी में शेरों की देखभाल में सतर्कता बढ़ा दी गई. इस के साथ ही सभी शेरों को अलगअलग आइसोलेशन में कर दिया गया, ताकि संक्रमण का फैलाव न हो.

मई के दूसरे सप्ताह में ही जयपुर में चिडि़याघर का बब्बर शेर ‘त्रिपुर’ भी कोरोना संक्रमित पाया गया. इस चिडि़याघर में एक सफेद बाघ चीनू और दूसरी शेरनी तारा को कोरोना संदिग्ध माना गया. ये सभी शेर जयपुर में नाहरगढ़ बायोलौजिकल पार्क में बनी लायन सफारी में रह रहे थे. इन शेरों की कोरोना सैंपल की जांच बरेली के आईवीआरआई में कराई गई थी. जयपुर से लायन सफारी के 13 सैंपल जांच के लिए बरेली भेजे गए थे.

जयपुर के नाहरगढ़ बायोलौजिकल पार्क में राजस्थान की पहली लायन सफारी 2018 में शुरू हुई थी. इस पार्क में करीब 36 हैक्टेयर में लायन सफारी बनी हुई है. यहां पहले 4 एशियाई शेर थे. इन में से कैलाश और तेजस नामक शेरों की मौत हो गई थी. अब लायन सफारी में शेरनी तारा और शेर त्रिपुर ही हैं.

सबसे पहले गुजरात के जूनागढ़ से तेजिका नामक शेरनी को जयपुर चिडि़याघर लाया गया था. बाद में उसे लायन सफारी में शिफ्ट कर दिया था. तेजिका ने 3 शावकों को जन्म दिया था. इन के नाम त्रिपुर, तारा और तेजस रखे गए. तेजिका की 3 साल पहले मौत हो गई थी. बाद में पिछले साल उस के बेटे तेजस की भी मौत हो गई. अब भाईबहन त्रिपुर और तारा बचे हैं. इन में तारा को कोरोना संदिग्ध माना गया है.

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संदिग्ध मानी गई शेरनी तारा, सफेद बाघ चीनू और एक पैंथर कृष्णा के सैंपल दोबारा जांच के लिए बरेली भेजे गए. शेर त्रिपुर को दूसरे वन्यजीवों से अलग कर क्वारंटाइन कर दिया गया. पार्क के सभी जानवरों को रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली दवाएं दी जा रही हैं.  शेर, बाघ और दूसरे वन्यजीवों के व्यवहार पर सीसीटीवी से नजर रखी जा रही है. वन्यजीवों की देखभाल करने वाले केयरटेकरों को भी पीपीई किट मुहैया कराई गई है. इन केयरटेकरों को अब बाघ और शेरों के बाड़े तक जाने के लिए पानी में से निकलना पड़ता है ताकि इन के पैरों के जरिए किसी तरह का इंफेक्शन जानवरों तक न पहुंचे.

मध्य प्रदेश में इंदौर के जू में मांसाहारी वन्यजीवों के साथ विदेशी पक्षियों को भी दवाएं दी जा रही हैं. इन की आंखों को इंफेक्शन से बचाने के लिए दवा डाली जा रही है. पक्षियों के पिंजरों को सैनेटाइज किया गया है.

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इंदौर जू में दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया के पक्षी बड़ी संख्या में हैं. इगुआना नाम की दुनिया की सब से बड़ी छिपकली को सुबहशाम हरी सब्जियां दी जा रही हैं. इगुआना छिपकली 3 मीटर तक लंबी और 50 किलोग्राम तक वजनी होती है. यह उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में पाई जाती है.

अंधविश्वास: दहशत की देन कोरोना माता

लेखक- शाहिद नकवी

जानकारी के मुताबिक, शुकुलपुर जूही गांव में कोरोना वायरस से 3 लोगों की मौत हो गई थी. इस के बाद वहां के लोगों में दहशत फैल गई.

इस पर गांव के लोकेश श्रीवास्तव ने 7 जून, 2021 को कोरोना माता का मंदिर बनवाने का फैसला किया. इस के लिए उन्होंने और्डर पर मूर्ति बनवाई और उसे गांव के एक चबूतरे के पास नीम के पेड़ के बगल में ही रखवा दिया.

इस के बाद कोरोना माता मंदिर में  2 समय होने वाली पूजा में भक्तों की भीड़ लगने लगी.

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वहां लिखा था कि कृपया दर्शन से पहले मास्क लगाएं, हाथ धोएं, दूर से दर्शन करें. इतना ही नहीं, एक तरफ लिखा गया कि कृपया सैल्फी लेते समय मूर्ति को न छुएं, तो दूसरी तरफ लिखा था कि कृपया पीले रंग के ही फूल, फल, कपड़े, मिठाई, घंटा वगैरह चढ़ाएं. मंदिर पर दर्शन करने आ रहे लोग ‘कोरोना माई की जय’ बोल रहे थे.

जब इस मंदिर की जानकारी प्रशासन को हुई, तो उस के हाथपैर फूल गए. मामला अंधविश्वास से जुड़ा होने के चलते पुलिस ने इसे गिराने का फैसला किया. वह जेसीबी ले कर गांव पहुंची और कोरोना माता की मूर्ति व मंदिर समेत बोर्ड को भी जमींदोज कर दिया. प्रशासन ने सारा मलबा गांव से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर फिंकवा दिया.

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हैरानी की बात तो यह है कि अंधविश्वास के चलते तैयार किए गए इस मंदिर में दूरदराज के लोग भी पहुंच रहे थे. वे डाक्टरों से ज्यादा ऐसे मंदिर और कोरोना माता पर यकीन कर रहे थे, जो उन का कभी भला नहीं करेंगे.

इस तरह के अंधविश्वास नए नहीं हैं. भारत में जब भी कोई महामारी फैली है, लोगों ने उस महामारी के नाम पर देवीदेवता बना दिए. छोटी माता, बड़ी माता बीमारियों को देख कर ही बनाई गई थीं.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर लोग पढ़ेलिखे नहीं हैं और सुनीसुनाई बातों पर बड़ी जल्दी यकीन कर लेते हैं. कहीं गणेश के दूध पीने की अफवाह फैल जाती है, तो लोग दूध खरीद कर उसे मूर्तियों पर बहा देते हैं, तो कहीं पीरफकीरों के मजार पर लोग बिना सोचेसमझे चढ़ावा चढ़ा देते हैं, ताकि वे बीमारियों से बच सकें. लोगों की यह सोच गलत है.

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शनिवार, 12 जून, 2021 को फुटबाल के ‘यूरो कप’ में अपने पहले मुकाबले में कमजोर फिनलैंड ने डैनमार्क को 1-0 से हरा दिया. पर इस फुटबाल मैच की जो सब से अहम घटना थी, वह डैनमार्क के शानदार खिलाड़ी क्रिश्चियन ऐरिक्सन से जुड़ी थी. दरअसल, मैच के हाफ टाइम से ठीक पहले वे मैदान में अचानक गिर कर बेहोश हो गए थे.

क्रिश्चियन ऐरिक्सन डैनमार्क के आक्रामक मिडफील्डर के तौर पर मशहूर हैं और उन्हें मैदान पर ऐसे पड़ा देख कर उन की टीम के सदस्य रोने लगे थे. डैनमार्क के फैन भी गमगीन थे.

यह हादसा देख कर अचानक खयाल आया कि 29 साल का इतना ज्यादा फिट इनसान देखतेदेखते कैसे उन हालात में जा सकता है कि उस के बचने की उम्मीद अचानक धुंधली पड़ती जाए? पर वहां मौजूद डाक्टरों की टीम ने कमाल का काम किया.

इसी बीच डैनमार्क के खिलाडि़यों ने घेरा बना कर जमीन पर पड़े ऐरिक्सन का मानो सुरक्षा कवच बना लिया था, हालांकि उन के चेहरे क्रिश्चियन ऐरिक्सन की विपरीत दिशा में थे.

डाक्टरों ने तो मानो अपना पूरा जोर लगा दिया था. उन्होंने क्रिश्चियन ऐरिक्सन की जोरजोर से छाती दबाई… और भी कई जरूरी तरीके अपनाए, पर डैनमार्क टीम के खिलाडि़यों के आंसू बता रहे थे कि हालात बेहद चिंताजनक हैं. लेकिन सब से अच्छी बात तो यह थी कि दर्शकों और मैदान पर जमा दूसरे लोगों ने घटनास्थल के पास कोई मजमा नहीं लगाया.

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वहां से थोड़ी दूर एक महिला भी मैदान पर थीं, जिन्हें डैनमार्क के कुछ खिलाड़ी दिलासा दे रहे थे. वे शायद क्रिश्चियन ऐरिक्सन की पत्नी थीं और रोए जा रही थीं. यह एक ऐसा सीन था, जिसे खेल के मैदान पर कोई नहीं  देखना चाहेगा.

उधर डाक्टरों की टीम अपने काम में जुटी हुई थी. चिकित्सा का पूरा ताम झाम डाक्टर ले आए थे, पर जब उन्हें लगा कि अब क्रिश्चियन ऐरिक्सन को अस्पताल ले जाना पड़ेगा, तो उन्होंने वही किया. तब तक क्रिश्चियन ऐरिक्सन बेहोश थे और मैडिकल इमर्जेंसी के चलते मैच को निलंबित कर दिया गया था.

काफी देर के बाद टूर्नामैंट के आयोजक यूईएफए ने जानकारी दी कि क्रिश्चियन ऐरिक्सन को होश आ गया है और उन की हालत फिलहाल ‘स्थिर’ है. यह खबर सुखद थी.

दोनों टीमों से बात कर के कुछ देर बाद मैच फिर से शुरू हुआ. पर तब तक शायद डैनमार्क के खिलाडि़यों की लय बिगड़ चुकी थी, जिस के चलते यह मैच फिनलैंड ने 1-0 से अपने नाम कर लिया.

मैच खत्म होने के बाद डैनमार्क की टीम के हैड कोच कैस्पर हेजुलमैन ने कहा, ‘‘यह टीम के लिए बेहद मुश्किल शाम थी, जब हम सभी को इस बात का अहसास हुआ कि जिंदगी में सब से अहम चीज रिश्ते हैं. हम ऐरिक्सन और उन के परिवार के साथ हैं.’’

यूईएफए के अध्यक्ष एलैक्जैंडर चैफरीन ने कहा, ‘‘इस तरह के वाकिए आप को एक बार फिर जिंदगी के बारे में सोचने का मौका देते हैं. इस तरह के वाकिए बताते हैं कि फुटबाल खेल के परिवार में कितनी एकता है. मैं ने सुना दोनों टीमों के फैंस ऐरिक्सन का नाम ले रहे थे. ऐरिक्सन बेहतरीन खिलाड़ी हैं और बेहतरीन फुटबाल खेलते हैं.

‘‘पर, मैं साथ में उन डाक्टरों की टीम की तारीफ भी करूंगा, जिस ने बिना देरी किए ऐरिक्सन को बचाने के लिए हर मुमकिन तरीका अपनाया और एक बेहतरीन खिलाड़ी को नई जिंदगी दी.’’

पर एक और टीम खेल क्रिकेट में हुई एक घटना ने क्रिकेट प्रेमियों को शर्मिंदा कर दिया. हुआ यों कि क्रिकेट की ढाका प्रीमियर लीग में शुक्रवार, 11 जून, 2021 को खेले गए एक ट्वैंटी20 मैच के दौरान बंगलादेशी खिलाड़ी शाकिब अल हसन अंपायर से भिड़ पड़े थे और गुस्से में स्टंप्स पर भी लात मारते हुए दिखाई दिए थे.

इस घटना के गवाह एक वीडियो  में दिखा कि शाकिब अल हसन ने  दूसरी टीम के बल्लेबाज मुशफिकुर रहीम के खिलाफ अपनी गेंदबाजी पर एलबीडब्ल्यू की अपील की और जब अंपायर ने नौटआउट करार दिया, तो उन्होंने पहले स्टंप्स पर लात मारी और फिर अंपायर से भी भिड़ गए.

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लेकिन बाद में शाकिब हल हसन को ही यह सब करना भारी पड़ गया. उन के खराब बरताव के लिए उन्हें ढाका प्रीमियर लीग में 4 मैचों के लिए बैन कर दिया गया और 4 लाख रुपए से ज्यादा का जुर्माना भी लगाया गया.

हालांकि, शाकिब अल हसन ने अपने इस बरताव के लिए माफी मांगते हुए सोशल मीडिया पर लिखा था, ‘प्रिय फैंस और फौलोवर, मैं अपना आपा खोने और इस तरह से सभी से मैच को बरबाद करने के लिए माफी मांगता हूं, खासतौर पर उन लोगों से जो घर पर बैठ कर यह मुकाबला देख रहे थे.

‘मेरे जैसे एक अनुभवी खिलाड़ी को इस तरह का बरताव नहीं करना चाहिए, लेकिन कभीकभी दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से ऐसा हो जाता है. मैं टीमों से, मैनेजमैंट से, टूर्नामैंट के औफिशिल्स से और टूर्नामैंट के आयोजकों से इस भूल के लिए माफी मांगता हूं. उम्मीद है कि भविष्य में मैं इस तरह का बरताव फिर कभी नहीं करूंगा. धन्यवाद और सभी को प्यार.’

माना कि खेल के मैदान पर हारजीत के तनाव में खिलाड़ी आपा खो देते हैं, पर शाकिब अल हसन का गुस्सा होना और वह भी इस हद तक कि पहले विकेट पर लात दे मारी और फिर अंपायर पर ही चढ़ गए, कहीं से जायज नहीं था. उन का बाद में माफी मांगना यह साबित करता है कि उन की हरकत स्कूली क्रिकेट के किसी खिलाड़ी की तरह बचकानी थी, जो विकेट न मिलने पर ऐसा बरताव करे.

फुटबाल और क्रिकेट जैसे टीम खेल में अपने साथियों के साथसाथ विरोधी टीम के खिलाडि़यों और मैदान पर मौजूद अंपायर या रैफरी के साथ अच्छा बरताव करना बहुत जरूरी होता है.

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आपा खोया नहीं कि लेने के देने पड़ जाते हैं. अगर क्रिश्चियन ऐरिक्सन वाले मामले में डाक्टरों की टीम भी अपना आपा खो देती तो शायद वह एक उम्दा खिलाड़ी की जान नहीं बचा पाती, जो खेल जगत के लिए कभी न भर पाने वाला नुकसान होता.

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