Valentine’s Special- कड़ी: भाग 1

बृहस्पति की शाम को विवेक को औफिस से सीधे अपने घर आया देख कर निकिता चौंक गई.

‘‘खैरियत तो है?’’

‘‘नहीं दीदी,’’ विवेक ने बैठते हुए कहा, ‘‘इसीलिए आप से और निखिल जीजाजी से मदद मांगने आया हूं, मां मुझे लड़की दिखाने ले जा रही है.’’

निखिल ठहाका लगा कर हंस पड़ा और निकिता भी मुसकराई.

‘‘यह तो होना ही है साले साहब. गनीमत करिए, अमेरिका से लौटने के बाद मां ने आप को 3 महीने से अधिक समय दे दिया वरना रिश्तों की लाइन तो आप के आने से पहले ही लगनी शुरू हो गई थी.’’

‘‘लेकिन मैं लड़की पसंद कर चुका हूं जीजाजी और यह फैसला भी कि शादी करूंगा तो उसी से.’’

‘‘तो यह बात मां को बताने में क्या परेशानी है, लड़की अमेरिकन है क्या?’’

‘‘नहीं जीजाजी. आप को शायद याद होगा, दीदी, जब मैं अमेरिका से आया था तो एयरपोर्ट पर मेरे साथ एक लड़की भी बाहर आई थी?’’

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निकिता को याद आया, विवेक के साथ एक लंबी, पतली युवती को आते देख कर उस ने मां से कहा था, ‘विक्की के साथ यह कौन है, मां? पर जो भी हो दोनों की जोड़ी खूब जम रही है.’ मां ने गौर से देख कर कहा था, ‘जोड़ी भले ही जमे मगर बन नहीं सकती. यह जस्टिस धरणीधर की बेटी अपूर्वा है और इस की शादी अमेरिका में तय हो चुकी है, शादी से पहले कुछ समय मांबाप के साथ रहने आई होगी’.

निकिता ने मां की कही बात विवेक को बताई.

‘‘तय जरूर हुई है लेकिन शादी होगी नहीं. मेरी तरह अपूर्वा को भी अमेरिका में रहना पसंद नहीं है और वह हमेशा के लिए भारत लौट आई है,’’ निकिता की बात सुन कर विवेक ने कहा.

‘‘उस ने यह फैसला तुम से मुलाकात के बाद लिया?’’

‘‘मुझ से तो उस की मुलाकात प्लेन में हुई थी, दीदी. बराबर की सीट थी, सो, इतने लंबे सफर में बातचीत तो होनी ही थी. मेरे से यह सुन कर कि मैं हमेशा के लिए वापस जा रहा हूं, उस ने बताया कि उस का इरादा भी वही है. उस के बड़े भाई और भाभी अमेरिका में ही हैं.

‘‘पिछले वर्ष घरपरिवार अपने बेटे के पास बोस्टन गया था. वहां जस्टिस धर को पड़ोस में रहने वाला आलोक अपूर्वा के लिए पसंद आ गया. अपूर्वा के यह कहने पर कि उसे अमेरिका पसंद नहीं है, उस की भाभी ने सलाह दी कि बेहतर रहे कि वीसा की अवधि तक अपूर्वा वहीं रुक कर कोई अल्पकालीन कोर्स कर ले ताकि उसे अमेरिका पसंद आ जाए. सब को यह सलाह पसंद आई. संयोग से आलोक के मातापिता भी उन्हीं दिनों अपने बेटे से मिलने आ गए और सब ने मिल कर आलोक और अपूर्वा की शादी की बात पक्की कर दी और यह तय किया कि शादी आलोक का प्रोजैक्ट पूरा होने के बाद करेंगे.

‘‘अपूर्वा को आलोक या उस के घर वालों से कोई शिकायत नहीं है. बस, अमेरिका की भागदौड़ वाली जिंदगी खासकर ‘यूज ऐंड थ्रो’ वाला रवैया कोशिश के बावजूद भी पसंद नहीं आ रहा. भाईभावज ने कहा कि वह बगैर आलोक से कुछ कहे, पहले घर जाए और फिर कुछ फैसला करे. मांबाप भी उस से कोई जोरजबरदस्ती नहीं कर रहे मगर उन का भी यही कहना है कि वह रिश्ता तोड़ने में अभी जल्दबाजी न करे क्योंकि आलोक के प्रोजैक्ट के पूरे होने में अभी समय है. तब तक हो सकता है अपूर्वा अपना फैसला बदल ले. यह जानते हुए कि उस का फैसला कभी नहीं बदलेगा, अपूर्वा आलोक को सच बता देना चाहती है ताकि वह समय रहते किसी और को पसंद कर सके.’’

‘‘उस के इस फैसले में आप का कितना हाथ है साले साहब?’’

‘‘यह उस का अपना फैसला है, जीजाजी. हालांकि मैं ने उस से शादी करने का फैसला प्लेन में ही कर लिया था मगर उस से कुछ नहीं कहा. टैनिस खेलने के बहाने उस से रोज सुबह मिलता हूं. आज उस के कहने पर कि समझ नहीं आ रहा मम्मीपापा को कैसे समझाऊं कि आलोक को ज्यादा समय तक अंधेरे में नहीं रखना चाहिए, मैं ने कहा कि अगर मैं उन से उस का हाथ मांग लूं तो क्या बात बन सकती है तो वह तुरंत बोली कि सोच क्या रहे हो, मांगो न. मैं ने कहा कि सोचना मुझे नहीं, उसे है क्योंकि मैं तो हमेशा नौकरी करूंगा और वह भी अपने देश में ही. सो, आलोक जितना पैसा कभी नहीं कमा पाऊंगा. उस का जवाब था कि फिर भी मेरे साथ वह आलोक से ज्यादा खुश और आराम से रहेगी.’’

‘‘इस से ज्यादा और कहती भी क्या, मगर परेशानी क्या है?’’ निखिल ने पूछा.

‘‘मां की तरफ से तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि अपूर्वा की मां शीला से उन की जानपहचान है…’’

‘‘वही जानपहचान तो परेशानी की वजह है, दीदी,’’ विवेक ने बात काटी, ‘‘मां कहती हैं कि अपूर्वा की मां ने उन्हें जो बताया है वह सुनने के बाद वे उसे अपनी बहू कभी नहीं बना सकतीं.’’

‘‘शीला धर से मां की मुलाकात सिर्फ महिला क्लब की मीटिंग में होती है और बातचीत तभी जब संयोग से दोनों बराबर में बैठें. मैं नहीं समझती कि इतनी छोटी सी मुलाकात में कोई भी मां अपनी बेटी के बारे में कुछ आपत्तिजनक बात करेगी.’’

‘‘मां उन से मिली जानकारी को आपत्तिजनक बना रही हैं जैसे लड़की की उम्र मुझ से ज्यादा है…’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निकिता ने बात काटी, ‘‘लगती तो तुम से छोटी ही है और आजकल इन बातों को कोई नहीं मानता. मैं समझाऊंगी मां को.’’

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‘‘यही नहीं और भी बहुतकुछ समझाना होगा, दीदी,’’ विवेक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘फिलहाल तो शनिवार की शाम को गुड़गांव में जो लड़की देखने जाने का कार्यक्रम बना है, उसे रद करवाओ.’’

‘‘मुझे तो मां ने इस बारे में कुछ नहीं बताया.’’

‘‘कुछ देर पहले मुझे फोन किया था कि शनिवारइतवार को कोई प्रोग्राम मत रखना क्योंकि शनिवार को गुड़गांव जाना है लड़की देखने और अगर पसंद आ गई तो इतवार को रोकने की रस्म कर देंगे. मैं ने टालने के लिए कह दिया कि अभी मैं एक जरूरी मीटिंग में हूं, बाद में फोन करूंगा. मां ने कहा कि जल्दी करना क्योंकि मुझे निक्की और निखिल को भी चलने के लिए कहना है.’’

निखिल फिर हंस पड़ा,

‘‘यानी मां ने जबरदस्त नाकेबंदी की योजना बना ली है. पापा भी शामिल हैं इस में?’’

‘‘शायद नहीं, जीजाजी. सुबह मैं और पापा औफिस जाने के लिए इकट्ठे ही निकले थे. तब मां ने कुछ नहीं कहा था.’’

‘‘मां योजना बनाने में स्वयं ही सिद्धहस्त हैं. उन्हें किसी को शामिल करने या बताने की जरूरत नहीं है. उन के फैसले के खिलाफ पापा भी नहीं बोल सकते,’’ निकिता ने कहा.

‘‘तुम्हारा मतलब है साले साहब को गुड़गांव लड़की देखने जाना ही पड़ेगा,’’ निखिल बोला.

‘‘जब उसे वहां शादी करनी ही नहीं है तो जाना गलत है. तुम कई बार शनिवार को भी काम करते हो विवेक, सो, मां से कह दो कि तुम्हें औफिस में काम है और फिर चाहे अपूर्वा के साथ या मेरे घर पर दिन गुजार लो.’’

‘‘औफिस में वाकई काम है, दीदी. लेकिन उस से समस्या हल नहीं होगी. मां लड़की वालों को यहां बुला लेंगी.’’

‘‘तुम चाहो तो मां को समझाने के लिए विवेक के साथ जा सकती हो, निक्की. मैं बच्चों को खाना खिलाने के बाद सुला भी दूंगा.’’

‘‘तब तो मां और भी चिढ़ जाएंगी कि मैं ने दीदी से उन की शिकायत की है. फिलहाल तो दीदी को मुझे यह समझाना है कि गुड़गांव वाला परिच्छेद खुलने से पहले बंद कैसे करूं. और जब मां मेरी शिकायत दीदी से करें तो वह कैसे बात संभालेंगी,’’ विवेक ने कहा.

निकिता ने विवेक को समझाया कि वह मां से कह दे कि न तो वह उन की मरजी के बगैर शादी करेगा और न अपनी मरजी के बगैर. सो, लड़की देखने जाने का सवाल ही नहीं उठता.

Valentine’s Special- प्यार या संस्कार: अदिति की जिंदगी में प्यार का बवंडर

अदिति ने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद बेंगलुरु महानगर के एक नामीगिरमी कालेज में मैनेजमैंट कोर्स में ऐडमिशन लिया तो मानो उस के सपनों को पंख लग गए. उस के जीवन की सोच से ले कर संस्कार तथा सपनों से ले कर लाइफस्टाइल सभी तेजी से बदल गए. अदिति के जीवन में कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा, लेकिन अचानक उस के जीवन में उस के ही कालेज के एक छात्र प्रतीक की दस्तक के कारण जो मोड़ आया वह उस पहले प्यार के बवंडर से खुद को सुरक्षित नहीं रख पाई. अदिति बहुत जल्दी प्रतीक के प्यार के मोहपाश में इस तरह जकड़ गई मानो वह पहले कभी उस से अलग और अनजान नहीं थी.

जवानी की दहलीज पर पहले प्यार की अनूठी कशिश में अदिति अपने जीवन के बीते दिनों तथा परिवार की चाहतों को पूरी तरह से विस्मृत कर चुकी थी. प्रतीक के प्यार में सुधबुध खो बैठी अदिति अपने सब से खूबसूरत ख्वाब के जिस रास्ते पर चल पड़ी वहां से पीछे मुड़ने का कोईर् रास्ता न तो उसे सूझा और न ही वह उस के लिए तैयार थी.

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गरमी की छुट्टी में जब अदिति अपने घर वापस आई तो उस के बदले हावभाव देख कर उस की अनुभवी मां को बेटी के बहके पांवों की चाल समझते देर नहीं लगी. जल्दी ही छिपे प्यार की कहानी किसी आईने की तरह बिलकुल साफ हो गई और मां को पहली बार अपनी गुडि़या सरीखी मासूम बेटी अचानक ही बहुत बड़ी लगने लगी.

अदिति ने अपनी मां से प्रतीक से शादी के लिए शुरू में तो काफी विनती की, लेकिन मां के इनकार को देखते हुए वह जिद पर अड़ गई. अदिति के पिता तो उसी वक्त गुजर गए थे जब अदिति ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी. मां और बेटी के अलावा उस छोटे से संसार में प्रतीक के प्रवेश की तैयारी के लिए एक बड़ा द्वंद्व और दुविधा का जो माहौल तैयार हो गया था वह सब के लिए दुखदायी था, जिस की मद्घिम लौ में मां को अपनी बेटी के चिरपोषित सपनों की दुनिया जल जाने का मंजर साफ नजर आ रहा था.

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो? मैं प्रतीक से सच्चा प्यार करती हूं. वह ऐसावैसा लड़का नहीं है. वह अच्छे घर से है और निहायत शरीफ है. क्या बुरा है, यदि मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’’ अदिति ने बड़े साफ लहजे में अपनी मां को अपने विचारों से अवगत कराया.

मां  अपनी बेटी के इस कठोर निर्णय से    काफी आहत हुईं लेकिन खुद को संयमित करते हुए अदिति को अपने सांस्कारिक मूल्यों तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों का एहसास कराने की काफी कोशिश करती हुई बोलीं, ‘‘बेटी, मैं सबकुछ समझती हूं, लेकिन अपने भी कुछ संस्कार होते हैं. तुम्हारे पापा ने तुम्हारे लिए क्या सपने संजो रखे थे लेकिन तुम उन सपनों का इतनी जल्दी गला घोंट दोगी, इस बारे में तो मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था. अपनी जिद छोड़ो और अभी अपने भविष्य को संवारो. प्यारमुहब्बत और शादी के लिए अभी बहुत वक्त पड़ा है.’’

‘‘मां, आप समझती नहीं हैं, प्यार संस्कार नहीं देखता, यह तो जीवन में देखे गए सपनों का प्रश्न होता है. मैं ने प्रतीक के साथ जीवन के न जाने कितने खूबसूरत सपने देखे हैं, लेकिन मैं यह भूल गई थी कि मेरे इंद्रधनुषी सपनों के पंख इतनी बेरहमी से कुतर दिए जाएंगे. आखिर, तुम्हें मेरे सपनों के टूटने से क्या?’’

‘‘बेटी, सच पूछो तो प्रतीक के साथ तुम्हारा प्यार केवल तुम्हारे जीवन के लिए नहीं है. जीवन के रंगीन सपनों के दिलकश पंख पर बेतहाशा उड़ने की जिद में अपनों को लगे जख्म और दर्द के बारे में क्या तुम ने कभी सोचा है? प्यार का नाम केवल अपने सपनों को साकार होते देखनाभर नहीं है. वह सपना सपना ही क्या जो अपनों के दर्द की दास्तान की सीढ़ी पर चढ़ कर साकार किया गया हो.

‘‘आज तुम्हें मेरी बातें बचकानी लगती होंगी, लेकिन मेरी मानो जब कल तुम भी मेरी जगह पर आओगी और तुम्हारे अपने ही इस तरह की नासमझी की बातों को मनवाने के लिए तुम से जिद करेंगे तो तुम्हें पता चलेगा कि दिल में कितनी पीड़ा होती है. मन में अपनों द्वारा दिए गए क्लेश का शूल कितना चुभता है.’’

अदिति अपनी मां के मुंह से इस कड़वी सचाई को सुन कर थोड़ी देर के लिए सन्न रह गई. उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर अनजाने ही हाथ रख दिया हो. उस के जेहन में अनायास ही बचपन से ले कर अब तक अपनी मां द्वारा उस के लालनपालन के साथसाथ पढ़ाई के खर्चे के लिए संघर्ष करने की कहानी का हर दृश्य किसी सिनेमा की रील की भांति दौड़ता चला गया.

अनायास ही उस की आंखें भर आईं. मन पर भ्रम और दुविधा की लंबे अरसे से पड़ी धूल की परत साफ हो चुकी थी और सबकुछ किसी शीशे की तरह साफसाफ प्रतीत होने लगा था. लेकिन बीते हुए कल के उस दर्र्द के आंसू को अपनी मां से छिपाते हुए वह भाग कर अपने कमरे में चली गई. अपनी मां की दिल को छू लेने वाली बातों ने अदिति को मानो एक गहरी नींद से जगा दिया हो.

छुट्टियों के बाद अदिति अपने कालेज वापस आ गई और जीवन फिर परिवर्तन के एक नए दौर से गुजरने लगा. कालेज वापस लौटने के बाद अदिति गुमसुम रहने लगी. प्रतीक से भी वह कम ही बातें करती थी, बल्कि उस ने उसे शादी के बारे में अपनी मां की मरजी से भी अवगत करा दिया और इस तरह मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दोनों की राहें अलगअलग हो गईं.

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कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस सिलैक्शन में प्रतीक को किसी मल्टीनैशनल कंपनी में ट्रेनी मैनेजर के रूप में यूरोप का असाइनमैंट मिला और अदिति ने किसी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनी में क्वालिटी कंट्रोल ऐग्जीक्यूटिव के रूप में अपनी प्लेसमैंट की जगह बेंगलुरु को ही चुन लिया.

अदिति अपनी मां के साथ इस मैट्रोपोलिटन सिटी में रह कर जीवन गुजारने लगी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. इसी बीच कंपनी ने अदिति को 1 वर्ष के फौरेन असाइनमैंट पर आस्ट्रेलिया भेजने का निर्णय लिया. अदिति अपनी मां के साथ जब आस्टे्रलिया के सिडनी शहर आई तो संयोग से वहीं पर एक दिन किसी शौपिंग मौल में उस की प्रतीक से मुलाकात हो गई. अदिति के लिए यह एक सुखद लमहा था, जिस की नरम कशिश में वर्षों पूर्व के संबंधों की यादें बड़ी तेजी से ताजी हो गईं. लेकिन भविष्य में इस संबंध के मुकम्मल न होने के भय ने उस के पैर वापस खींच लिए.

प्रतीक अपने क्वार्टर में अकेला रहता था और अकसर हर रोज शाम के वक्त वह अदिति के घर पर आ जाया करता था. मां को भी अपने घर में अपने देश के एक परिचित के रूप में प्रतीक का आनाजाना अच्छा लगता था, क्योंकि परदेश में उस के अलावा सुखदुख बांटने वाला और कोई भी तो नहीं था.

अचानक एक दिन औफिस से घर लौटते वक्त अदिति की औफिस कार की किसी प्राइवेट कार के साथ टक्कर हो गई और अदिति को सिर में काफी चोट आई. महीनेभर तक अदिति  हौस्पिटल में ऐडमिट रही और इस दौरान उस का और उस की मां का ध्यान रखने वाला प्रतीक के अलावा और कोई नहीं था. प्रतीक ने मुसीबत की इस घड़ी में अदिति और उस की मां का भरपूर ध्यान रखा और इसी बीच अदिति और प्रतीक फिर से कब एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि उन्हें इस का पता ही नहीं चला.

अदिति का यूरोप असाइनमैंट खत्म होने वाला था और उसे अब अपने देश वापस आना था. अदिति और उस की मां को छोड़ने के लिए प्रतीक भी बेंगलुरु आया था. प्रतीक के सेवाभाव से अदिति की मां अभिभूत हो गई थीं. प्रतीक सिडनी वापस जाने की पूर्व संध्या पर अपने मम्मीडैडी के साथ अदिति से मुलाकात करने आया था. अदिति का व्यवहार तथा शालीनता देख कर प्रतीक के पेरैंट्स काफी खुश हुए.

प्रतीक की अगले दिन फ्लाइट थी. एयरपोर्ट पर बोर्डिंग के समय जब अदिति का फोन आया तो उस के दिलोदिमाग में एक अजीब हलचल मच गई. पुराने प्यार की सुखद और नरम बयार में प्रतीक के मन का कोनाकोना सिहर उठा. प्रतीक ने अपनी फ्लाइट कैंसिल करवा ली. उस ने अपनी कंपनी को बेंगलुरु में ही उसे शिफ्ट करने के लिए रिक्वैस्ट भेज दी जो कुछ दिनों में अपू्रव भी हो गई. अदिति की मां प्रतीक के इस फैसले से काफी प्रभावित हुईं.

अदिति हमेशा के लिए अब प्रतीक की हो गई थी और वह मां के साथ ही बेंगलुरु में रहने लगी थी. प्रतीक अपनी खुली आंखों से अपने सपने को अपनी बांहों में पा कर खुशी से फूले नहीं समा रहा था. अदिति के पांव भी जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. उसे आज जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि धरती की तरह सपनों की दुनिया भी गोल होती है और सितारे भले ही टूटते हों, लेकिन यदि विश्वास मजबूत हो तो सपने कभी नहीं टूटते.

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Valentine’s Special: जन्मदिन पर सुमन को मिला प्यार का तोहफा

‘‘कितनी लापरवाही से काम करती हो तुम,’’ रमेश के स्वर की कड़वाहट पिघले सीसे की तरह कानों में उतरती चली गई.

सुबहसुबह काम की हड़बड़ी में रमेश के लिए रखा दूध का गिलास मेज पर लुढ़क गया था. सुमन बेजबान बन कर अपमान के घूंट पीती रही, फिर खुद को संयत कर बोली, ‘‘टिफिन तो रख लो.’’

‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा टिफिन. बच्चा रो रहा है और तुम्हें टिफिन की पड़ी है.’’

‘‘ले रही हूं विनय को, लेकिन आप के खानेपीने की चिंता भी तो मुझे ही करनी पडे़गी न.’’

‘‘छोड़ो ये बड़ीबड़ी बातें,’’ रोज की तरह सुमन को शर्मिंदा कर रमेश जूते खटखटाते हुए आफिस निकल गए और सुमन ठगी सी खड़ी रह गई. नन्हे विनय को गोद में उठा कर वह जब तक आंगन में पहुंचती, रमेश गाड़ी स्टार्ट कर फुर्र से निकल गए, न मुड़ कर देखा, न परवा की.

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‘‘अच्छा, भूख लगी है राजा बेटे को. हांहां, हम बिट्टू को दूध पिलाएंगे…’’ सुमन के हाथ यंत्रवत बोतल में दूध भरने लगे. मुंह में दूध की बोतल लगते ही विनय का रोना थम गया. लेकिन सुमन तो जैसे झंझावात से घिर गई थी. अंतर्मन में घुमड़ रहे बवंडर पर उस का खुद का भी बस न था.

वह सोच रही थी, आखिर उस की गलती क्या है? क्या समर्पण का यही फल मिलेगा उसे. 22 साल की उम्र में उस ने अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया. दीदी के उजड़े परिवार को बसाने की खातिर खुद का बलिदान दे दिया तो क्या गलती हो गई उस से. यह ठीक है कि दीपिका दीदी के असमय बिछोह ने रमेश को अस्तव्यस्त कर दिया है, लेकिन क्या इस के लिए वह सुमन पर जबतब व्यंग्य बाण चलाने का हकदार बन जाते हैं?

दूसरे दिन आने वाले अपने जन्मदिन पर सुमन ने अपनी सहेलियों को घर पर आमंत्रित किया. मधु, रीना, वाणी, महिमा सब कितनी बेताब थीं उस के घर आने को. सुमन की अचानक हुई शादी में शामिल न होने की कसर वे उस का जन्मदिन मना कर ही पूरी कर लेना चाहती थीं. सुबह की घटना को भूल कर सुमन ने रमेश के सामने बात छेड़ी, ‘‘सुनिए, कल मैं ने कुछ सहेलियों को घर पर बुलाया है. आप भी 6 बजे तक आ जाएंगे न.’’

‘‘क्यों, कल क्या है?’’ रमेश ने आंखें तरेरते हुए पूछा.

‘तो जनाब का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ है,’ सुमन मन ही मन सोचते हुए चुहल के मूड में बोली, ‘‘जैसे आप को मालूम ही नहीं है?’’

‘‘हां, नहीं मालूम मुझे, क्या है कल?’’ कहते हुए रमेश के माथे पर बल पड़ गए.

रमेश के तेवर देख कर सुमन का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. वह मायूसी से बोली, ‘‘मधु, वाणी वगैरह कल मेरा बर्थडे मनाना चाहती थीं. इसी बहाने मिलना भी हो जाएगा और हम सहेलियां मिल कर गपशप भी कर लेंगी.’’

‘‘बर्थडे और तुम्हारा? ओह, कम आन सुमन. एक बच्चे की मां हो तुम और बर्थडे मनाओगी, सहेलियों को बुलाओगी. यह बचकानापन छोड़ो और थोड़ी मैच्योर हो जाओ,’’ रमेश की बातें सुन कर उस के धैर्य का बांध टूटने लगा.

‘‘इस में बचकानेपन की क्या बात है? आप नहीं आ पाएंगे क्या?’’ वह संयत स्वर में बोली.

‘‘देखूंगा. वैसे तुम्हारी सहेलियों से मिलने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. और तुम तो जानती हो कि दीपिका के बाद कोई भी फंक्शन, भले ही वह छोटा क्यों न हो, मैं उस में शामिल होना पसंद नहीं करता. फिर क्यों जोर दे रही हो तुम?’’ रमेश की आवाज में उपेक्षा साफ झलक रही थी.

शादी के बाद इस दिन के लिए कितनी कल्पनाएं की थीं सुमन ने पर वे सारी कल्पनाएं धराशायी हो गईं. वह मन ही मन आशाएं लगा रही थी कि उस दिन रमेश सुबहसुबह उसे उठा कर कोई अच्छा सा गिफ्ट देंगे और वह सारे गिलेशिकवे भुला कर उन्हें माफ कर देगी. सारी कड़वाहट भुला देगी. रमेश उसे सरप्राइज देते हुए, एक दिन की छुट्टी ले लेंगे. उस की सहेलियों के घर में आने पर सारे लोग मिल कर खूब मौजमस्ती करेंगे. विनय भी खूब खुश होगा. सब को हंसीखुशी देख कर बाबूजी को बहुत संतोष होगा कि उन का निर्णय गलत नहीं था. क्या कुछ नहीं सोचा था उस ने, पर सब धरा का धरा रह जाएगा.

‘मैच्योर होने की ही तो सजा भुगत रही हूं रमेश. आज मैं किसी दूसरे घर में होती तो मुझे यों उलाहने न सुनने पड़ते. दूसरी बीवी हूं न इसलिए मेरे किए का, मेरी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है आप के लिए,’ वह तड़प कर बुदबुदाई.

लेकिन उस की बुदबुदाहट सुनने के लिए रमेश वहां थे कहां? वह तो कब के मामले का पटाक्षेप कर के अपने कमरे में बैठे टेलीविजन देख रहे थे.

दूसरे दिन सुबह उठ कर जब बाबूजी को प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी, ‘‘खुश रहो बेटा. तुम्हारे आने से यह घर बस गया है बेटी. अच्छा सुनो, आज मां के यहां भी सहेलियों के आने से पहले हो आना. वे दोनों भी तो राह देखते होंगे. रमेश चला गया न, नहीं तो तुम तीनों ही चले जाते.’’

‘‘कोई बात नहीं, बाबूजी. मैं आटो कर लूंगी,’’ इतना कह कर वह धीरे से मुसकराई.

नए कपड़ों में 5 माह का गोलमटोल विनय और भी प्यारा लग रहा था. सुनहरी किनारी वाला रानी कलर का सूट सुमन पर खूब फब रहा था.

आटो रुकते ही मां दौड़ी चली आईं. उस ने विनय को अपनी मम्मी की गोद में दे कर मम्मीपापा दोनों को झुक कर प्रणाम किया.

पापा बोले, ‘‘बेटा, रमेश आते तो अच्छा होता.’’

‘‘वह तो चाहते थे, लेकिन छुट्टी ही नहीं मिली,’’ अपनी प्रतिष्ठा बचाने और मम्मीपापा को दिलासा देने की खातिर झूठ बोलने में कितनी कुशल हो गई थी सुमन.

थोड़ी देर बाद पापा विनय को घुमाने ले गए. उन के निकलते ही मां को टोह लेने का मौका मिल गया.

‘‘सच बता सुमी, तू खुश तो है न? रमेश का व्यवहार कैसा है?’’

‘‘सब ठीक है, मां,’’ वह उदास स्वर में बोली.

‘‘सब ठीक है तो फिर तू उदास, खोईखोई सी क्यों लगती है?’’

‘‘मां, विनय रात में सोने कहां देता है. नींद पूरी नहीं हो पाती, इसी से सुबह भी थकी हुई लगती हूं.’’

‘‘बेटी, वह तो ठीक है. पर…’’ मां की आवाज का प्रश्नचिह्न बहुत कुछ कह गया.

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‘‘पर क्या, मां? मैं ने कभी कुछ कहा क्या?’’ वह झुंझलाई.

‘‘बोला नहीं तभी तो सुमी. यह जो तेरी कुछ न बोलने की आदत है न, उसी से तो डर लगता है. तू शुरू से ही ऐसी है. मन की बात भीतर दबा कर रखने वाली. तू घुटघुट कर जी लेगी, लेकिन अपनी पीड़ा कहेगी नहीं. बेटी, क्या हम नहीं समझते कि यह शादी तुम ने सिर्फ हमारी इच्छा रखने की खातिर की है.’’

‘‘अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उस का शुष्क स्वर उभरा.

मां लगभग चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्योंकि तू अभी जिंदा है और तू अपने परिवार के साथ हंसतीखेलती रहे यही हमारी हसरत है. एक बेटी को तो हम खो ही चुके हैं. आगे कुछ भलाबुरा सहन नहीं…’’ मां की आवाज तर हो गई. मां ने हथेलियों से आंसू छिपाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहीं.

सुमन मां के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘सौरी मां, मैं ने तुम्हें रुला दिया. मैं ने कहा न सब ठीक है, तुम बेकार ही परेशान होती हो. अच्छा, मां, बोलो तो मेरे लिए क्या बनाया है?’’

मां आंसू पोंछते हुए नाश्ते की थाली लगाने लगीं. पापा भी विनय को ले कर लौट आए. मां ने सुमन की सहेलियों के लिए भी केक, मटर कचौरी, नमकीन और गाजर का हलवा रखवा दिया.

पापा उसे घर तक छोड़ने गए. फिर दोनों समधी देर तक बरामदे में बैठ कर बतियाते रहे.

महीनों बाद सुमन खुल कर हंस रही थी, वरना शादी के बाद तो उस का जीवन जैसे दुस्वप्न बन गया था. उस की बड़ी बहन दीपिका की सड़क दुर्घटना में हुई आकस्मिक मौत ने जैसे सभी के जीवन से खुशियों के रंग छीन लिए थे. मम्मी, पापा और बाबूजी की समझ से परे था कि दीपिका की मौत का गम करें या विनय और रमेश के बचने के लिए नियति को धन्यवाद दें.

सुमन ने स्वेच्छा से नन्हे विनय की देखभाल का जिम्मा खुद पर ले लिया था. पत्नी की इस तरह मौत से रमेश बिलकुल जड़ हो गए. चिड़चिड़े, तुनकमिजाज और छोटीछोटी बातों पर बिफरने वाले. घर के बड़े लोगों ने सोचा कि यदि रमेश की शादी कर दी जाए तो शायद वह फिर सामान्य जीवन बिता सके.. और उन्हें इस के लिए सुमन से बेहतर विकल्प नहीं दिख रहा था. बड़ों के प्रश्न के जवाब में वह ना नहीं कह सकी और ब्याह कर इस घर में आ गई, जो कभी उस की दीदी का घर था.

मुखर दीपिका को शांत सुमन में खोजने की रमेश की कोशिश निष्फल रही. धीरेधीरे घर में उन का व्यवहार सिर्फ खाना खाने, कर्तव्यपूर्ति के लिए धन और सामान जुटाने व आराम करने के लिए ही शेष रह गया था.

सुमन के प्रति रमेश का कटु व्यवहार कभीकभी उस में भी अपराधभाव जगाता, लेकिन जल्द ही वह उस से फारिग भी हो जाता. हां, रमेश के इस आचरण से सुमन जरूर दिन ब दिन उन से दूर होती चली जा रही थी. रमेश के उखड़े व्यवहार के बावजूद सुमन विनय की बाललीलाओं और बाबूजी के स्नेह के सहारे अपने नवनिर्मित घरौंदे को बचाने की कोशिश करती रहती.

उस दिन सुमन की उम्मीद के विपरीत रमेश सही वक्त पर घर पहुंच गए. उस की सखियां चुहल करने लगीं कि तू तो कह रही थी कि जीजाजी नहीं आएंगे.

रमेश बड़ी देर तक सुमन की सभी सहेलियों से बातचीत करते रहे. बड़े खुशनुमा माहौल में उस की सखियों ने सब से विदा ली. जातेजाते वे बोलीं, ‘‘जीजाजी, सुमन को ले कर घर जरूर आइएगा.’’

‘‘जरूरजरूर, क्यों नहीं.’’

वह विस्मित थी कि लोगों के सामने उस के साथ से भी कतराने वाले रमेश आज इतने मुखर कैसे हो उठे?

‘‘थैंक्स, रमेश, जल्दी आने के लिए,’’ सुमन, विनय को चादर ओढ़ाते हुए बोली.

‘‘इस में थैंक्स की क्या बात है. मैं ने सिर्फ अपना फर्ज पूरा किया है,’’ रमेश का स्वर हमेशा की तरह सपाट था.

‘‘फर्ज निभाया? और मेरी गिफ्ट?’’ वह शरारत से बोली.

‘‘गिफ्ट, कैसी गिफ्ट? तुम्हारी सहेलियों से जरा अच्छे से बात क्या कर ली कि तुम्हारे तो हौसले ही बढ़ने लगे. इस घर में किस बात की कमी है तुम्हें जो एक गिफ्ट और चाहिए. इन सब की उम्मीद मत रखना मुझ से,’’ रमेश गुस्से में बोला.

‘‘क्यों, मैं ने ऐसी कौन सी बात बोल दी, जो इतने लालपीले हो रहे हो,’’ पहली बार जबान खोली उस ने. आवेश में उस की आवाज कांपने लगी.

‘‘मैं लालपीला हो रहा हूं, यह बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी,’’ रमेश फटकारते हुए बोले.

‘‘रमेश, सब्र की भी कोई सीमा होती है. 6 माह से मैं लगातार आप का मन जीतने और आप को सामान्य महसूस कराने की कोेशिश कर रही हूं. लेकिन आप ने तो जैसे खुद को एक पिंजरे में कैद कर लिया है. न खुद बाहर निकलते हैं, न मुझे अपने करीब आने देते हैं. दीदी के जाने का सदमा सिर्फ आप को ही नहीं हम सब को हुआ है. अब तो इस पिंजरे की दीवारों से टकरा कर मैं लहूलुहान हो चुकी हूं. अब इस से ज्यादा मैं नहीं सह सकती. आप के इस रवैये को देख कर तो मैं कभी का घर छोड़ चुकी होती, लेकिन बाबूजी के स्नेह ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया. आप मुझे सह नहीं पा रहे हैं इस घर में तो मैं यह घर ही छोड़ दूंगी. कल सुबह ही मैं मुन्ने को ले कर मां के यहां जा रही हूं,’’ सुमन की आवाज थरथराई, वह धम्म से पलंग पर बैठ गई.

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रमेश पैर पटकते हुए तकिया और चादर ले, हाल में जा कर सोफे पर लेट गए.

वह सोचने लगी, ‘मैं कोई बेजबान गुडि़या तो नहीं जो ठोकरों को सहती रहे और उसे चोट भी न लगे.’ आवेश के मारे उस का रगरग तपने लगा और सोचतेसोचते शरीर को बुखार ने चपेट में ले लिया. रात 1 बजे तक चिंतन से जब दिमाग जवाब देने लगा तो वह खुद नींद की आगोश में चली गई.

सुबह आंख खुली तो घड़ी 7 बजा रही थी. विनय सोया हुआ था. सिर दर्द से फटा जा रहा था. उस ने उठने की असफल कोशिश की. उसे जागा देख कर रमेश तुरंत आ गए. उस ने घृणा से मुंह फेर लिया.

‘‘ओह, तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है,’’ रमेश उस के तपते माथे पर हाथ रखते हुए बोले.

वह आंखें मूंदे लेटी रही.

‘‘लो, चाय पी लो.’’

‘‘बाई आ गई क्या?’’ क्षीण स्वर में सुमन ने पूछा.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर चाय?’’

‘‘क्यों, मैं नहीं बना सकता क्या?’’ रमेश ने मुसकराते हुए बिस्कुट की तश्तरी आगे कर दी.

‘‘एक मिनट, ब्रश कर के आती हूं.’’

जैसे ही सुमन उठने को हुई कि उसे चक्कर सा आ गया और वह फिर से पलंग पर बैठ गई. तब रमेश उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले कर आए.

जब वह मुंह धो चुकी तो रमेश हाथों में टावेल ले कर खड़े थे.

वह चाय पी कर लेट गई. रमेश उस के सिरहाने ही बैठ गए.

पिछली रात के घटनाक्रम और रमेश के सुबह के रूप में तालमेल बिठातेबिठाते सुमन की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘प्लीज, रोओ मत तुम, नहीं तो तबीयत और खराब होगी.’’

रमेश का चिंतित स्वर अंदर तक हिला गया उसे.

रमेश का कौन सा रूप सच्चा है.

रमेश उस के सिर पर हथेली रख कर बोले, ‘‘कल के लिए सौरी, सुमन. मैं सारी सीमाएं तोड़ गया कल. तुम्हें चोट पहुंचा कर मेरा अहं संतुष्ट होता रहा अब तक. दीपिका के बाद मैं तो टूट ही चुका था. तुम्हीं थीं जिस ने मेरा उजड़ा घर फिर बसाया. नातेरिश्तेदार तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकते थे. इस से मुझे बहुत तकलीफ होती थी, लेकिन ये तारीफ मिलने के पहले तुम ने अपने सारे अरमानों को राख कर दिया है, इतनी छोटी सी बात को नहीं समझ पाया मैं. हर रोज छोटीछोटी बातों पर तुम्हें अपमानित कर के भले ही मैं थोड़ी देर का संतोष पा लेता था, लेकिन अपनी यह हरकत मुझे भी कचोटती रहती थी. आखिर इतना बुरा तो नहीं हूं मैं. हां, मैं अपनी कुंठा, तुम पर निकालता रहा, तुम्हारी तपस्या को कभी देख ही नहीं पाया. कल तुम ने घर छोड़ कर जाने की बात की तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सका.’’

एक पल को रमेश रुके फिर बोले, ‘‘सुमन, तुम्हारे बिना अब मैं अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’

यह सब सुन कर सुमन उन्हें अपलक देखती रही. तभी दरवाजे के बाहर बाबूजी की आहट पा कर रमेश एक झटके में उठ खड़े हुए.

‘‘बेटा, डाक्टर साहब से बात हो गई है. वह आधे घंटे में क्लिनिक पहुंच जाएंगे. सुमन बेटा, तुम विनय की चिंता मत करना, वह मेरे पास खेल रहा है.’’

‘‘जी, बाबूजी, हम लोग अभी तैयार हो जाते हैं,’’ सुमन ने कहा.

‘‘सुनो, तुम कपड़े बदल लो. हमें 10 मिनट में निकलना है.’’

‘‘हां,’’ सुमन का स्वर अशक्त था.

पलंग से उठ कर सुमन ने मेज पर देखा तो लखनवी कढ़ाई वाला आसमानी रंग का सूट रखा था और पास ही थी लाल गुलाब की ताजी कली.

सुमन सोचने लगी कि वह कहीं कोई सपना तो नहीं देख रही है.

डाक्टर के क्लिनिक से लौटते समय उस ने रमेश से पूछा, ‘‘आफिस के लिए लेट हो रहे हो न?’’

‘‘नहीं, आज छुट्टी ले ली है.’’

सुन कर वह बड़ी आश्वस्त हुई. हलके से मुसकराते हुए यह विचार उस के दिलोदिमाग में कौंध गया कि रमेश ने उसे भले ही कोई कीमती उपहार न दिया हो, पर जन्मदिन का इस प्यार से बढ़ कर बड़ा तोहफा क्या हो सकता है?

Valentine’s Special: यह कैसा प्यार- क्या हो पाई शिवानी और नितिन की शादी?

आज मैं ने वह सब देखा जिसे देखने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. कालिज से घर लौटते समय मुझे डैडी अपनी कार में एक बेहद खूबसूरत औरत के साथ बैठे दिखाई दिए. जिस अंदाज में वह औरत डैडी से बात कर रही थी, उसे देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि वह डैडी के बेहद करीब थी.

10 साल पहले जब मेरी मां की मृत्यु हुई थी तब सारे रिश्तेदारों ने डैडी को दूसरा विवाह करने की सलाह दी थी लेकिन डैडी ने सख्ती से मना करते हुए कहा था कि मैं अपनी बेटी शिवानी के लिए दूसरी मां किसी भी सूरत में नहीं लाऊंगा और डैडी अपने वादे पर अब तक कायम रहे थे, लेकिन आज अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वह एक औरत के करीब हो कर मेरे वजूद को उपेक्षा की गरम सलाखों से भेद रहे थे.

मुझे अच्छी तरह  से याद है कि मम्मी और डैडी के बीच कभी नहीं बनी थी. मम्मी के खानदान के मुकाबले में डैडी के खानदान की हैसियत कम थी, इसलिए मम्मी बातबात पर अपनी अमीरी के किस्से बयान कर के डैडी को मानसिक पीड़ा पहुंचाया करती थीं. मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आई कि जब डैडी और मम्मी के विचार आपस में मिलते नहीं थे तब डैडी ने उन्हें अपनी जीवनसंगिनी क्यों बनाया था.

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कालिज से घर आते ही काकी मां ने मुझ से चाय के लिए पूछा तो मैं उन्हें मना कर अपने कमरे मेें आ गई और अपने आंसुओं से तकिए को भिगोने लगी.

5 बजे के आसपास डैडी का फोन आया तो मैं अपने गुस्से पर जबरन काबू पाते हुए बोली, ‘‘डैडी, इस वक्त आप कहां हैं?’’

‘‘बेटे, इस वक्त मैं अपनी कार ड्राइव कर रहा हूं,’’ डैडी बडे़ प्यार से बोले.

‘‘आप के साथ कोई और भी है?’’ मैं ने शक भरे अंदाज में पूछा.

‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि इस समय मेरे साथ कोई और भी है. क्या तुम्हें फोन पर किसी की खुशबू आ गई?’’ डैडी हंसते हुए बोले.

‘‘हां, मैं आप की इकलौती बेटी हूं, इसलिए मुझे आप के बारे में सब पता चल जाता है. बताइए, कौन है आप के साथ?’’

‘‘देखा तुम ने अरुणिमा, मेरी बेटी मेरे बारे मेें हर खबर रखती है.’’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि डैडी के साथ कार में बैठी औरत का नाम अरुणिमा है.

‘‘जनाब, यहां आप गलत फरमा रहे हैं,’’ डैडी के मोबाइल से मुझे एक औरत की खनकती आवाज सुनाई दी, ‘‘अब वह आप की नहीं, मेरी भी बेटी है.’’

उस औरत का यह जुमला जहरीले तीर की तरह मेरे सीने में लगा. एकाएक मेरे दिमाग की नसें तनने लगीं और मेरा जी चाहा कि मैं सारी दुनिया को आग लगा दूं.

‘‘शिवानी बेटे, तुम लाइन पर तो हो न?’’ मुझे डैडी का बेफिक्री से भरा स्वर सुनाई दिया.

‘‘हां,’’ मैं बेजान स्वर में बोली, ‘‘डैडी, यह सब क्या हो रहा है? आप के साथ कौन है?’’

‘‘बेटे, मैं तुम्हें घर आ कर सब बताता हूं,’’ इसी के साथ डैडी ने फोन काट दिया और मैं सोचती रह गई कि यह अरुणिमा कौन है? यह डैडी के जीवन में कब और कैसे आ गई?

डैडी और अरुणिमा के बारे में सोचतेसोचते कब मेरी आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

7 बजे शाम को काकी मां ने मुझे उठाया और चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘बेटी शिवानी, क्या बात है? आज तुम ने चाय नहीं पी. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘काकी मां, मेरी तबीयत ठीक है. डैडी आ गए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, और वह तुम्हें बुला रहे हैं. उन्होंने कहा है कि तुम अच्छी तरह से तैयार हो कर आना,’’ इतना कह      कर काकी मां कमरे से बाहर निकल गईं.

थोड़ी देर बाद मैं ड्राइंगरूम में आई तो मुझे सोफे पर वही औरत बैठी दिखाई दी जिसे आज मैं ने डैडी के साथ उन की कार में देखा था.

‘‘अरु, यह है मेरी बेटी, शिवानी,’’ डैडी उस औरत से मेरा परिचय कराते हुए बोले.

न चाहते हुए भी मेरे हाथ नमस्कार करने की मुद्रा में जुड़ गए.

‘‘जीती रहो,’’ वह खुद ही उठ कर मेरे करीब आ गईं और फिर मेरा चेहरा अपने हाथों में ले कर उन्होंने मेरे माथे पर एक प्यारा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘अगर मेरी कोई बेटी होती तो वह बिलकुल तुम्हारे जैसी होती. सच में तुम बहुत प्यारी हो.’’

‘‘अरु, यह भी तो तुम्हारी बेटी है,’’ डैडी हंसते हुए बोले.

डैडी के ये शब्द पिघले सीसे की तरह मेरे कानों में उतरते चले गए. मेरा जी चाहा कि मैं अपने कमरे में जाऊं और खूब फूटफूट कर रोऊं. आखिर डैडी ने मेरे विश्वास का खून जो किया था.

‘‘बेटी, तुम करती क्या हो?’’  अरुणिमाजी ने मुझे अपने साथ बैठाते हुए पूछा.

उस वक्त मेरी हालत बड़ी अजीब सी थी. जिस औरत से मुझे नफरत करनी चाहिए थी वह औरत मेरे वजूद पर अपने आप छाती जा रही थी.

मैं उन्हें अपनी पढ़ाई के बारे में बताने लगी. हम दोनों के बीच बहुत देर तक बातें हुईं.

‘‘काकी मां, देखो तो कौन आया है?’’ डैडी ने काकी मां को आवाज दी.

‘‘मैं जानती हूं, कौन आया है,’’ काकी मां ने वहां चाय की ट्राली के साथ कदम रखा.

‘‘अरे, काकी मां आप,’’  अरुणिमा उन्हें देखते ही खड़ी हो गईं.

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चाय की ट्राली मेज पर रख कर काकी मां उन की तरफ बढ़ीं. फिर दोनों प्यार से गले मिलीं तो मैं दोनों को उलझन भरी निगाहों से देखने लगी.

अरुणिमा का इस घर से पूर्व में गहरा संबंध था, यह बात तो मैं समझ गई थी, लेकिन कोई सिरा मेरे हाथों में नहीं आ रहा था.

‘‘काकी मां, आप इन्हें जानती हैं?’’ मैं ने हैरत भरे स्वर में काकी मां से पूछा.

काकी मां के बोलने से पहले ही डैडी बोल पड़े, ‘‘बेटी, अरुणिमाजी का इस घर से गहरा संबंध रहा है. हम दोनों एक ही स्कूल और एक ही कालिज में पढ़े हैं.’’

तभी अरुणिमाजी ने डैडी को इशारा किया तो डैडी ने फौरन अपनी बात पलटी और सब को चाय पीने के लिए कहने लगे.

अब मेरी समझ में कुछकुछ आने लगा था कि मम्मीडैडी के बीच ऐसा क्या था जो वे एकदूसरे से बात करना तो दूर, देखना तक पसंद नहीं करते थे. निसंदेह डैडी शादी से पहले इसी अरुणिमाजी से प्यार करते थे.

चाय पीने के दौरान मैं ने अरुणिमाजी से काफी बातें कीं. वह बहुत जहीन थीं. वह हर विषय पर खुल कर बोल सकती थीं. उन की नालेज को देख कर मेरी उन के प्रति कुछ देर पहले जमी नफरत की बर्फ तेजी से पिघलने लगी.

उन की बातों से मुझे यह भी पता चला कि वह एक प्रोफेसर थीं. कुछ साल पहले उन के पति का देहांत हो गया था. उन का अपना कहने को इकलौता बेटा नितिन था, जो बिजनेस के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए लंदन गया हुआ था.

रात का डिनर करने के बाद जब अरुणिमा गईं तो मैं अपने कमरे में आ गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि कुछ औरतों की भृकुटियों में संसार भर की राजनीति की लिपि होती है, जब उन की पलकें झुक जाती हैं तो न जाने कितने सिंहासन उठ जाते हैं और जब उन की पलकें उठती हैं तो न जाने कितने राजवंश गौरव से गिर जाते हैं.

अरुणिमाजी भी शायद उन्हीं औरतों में एक थीं, तभी डैडी ने दूसरी शादी न करने की जो कसम खाई थी, उसे आज वह तोड़ने के लिए हरगिज तैयार नहीं होते. मैं बिलकुल नहीं चाहती कि इस उम्र में डैडी अरुणिमाजी से शादी कर के दीनदुनिया की नजरों में उपहास का पात्र बनें.

सुबह टेलीफोन की घंटी से मेरी आंख खुली. मैं ने फोन उठाया तो मुझे अरुणिमाजी की मधुर आवाज सुनाई दी. ‘‘स्वीट बेबी, मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया?’’

‘‘नहीं, आंटीजी,’’ मैं जरा संभल कर बोली, ‘‘आज मेरे कालिज की छुट्टी थी, इसलिए मैं देर तक सोने का मजा लेना चाह रही थी.’’

‘‘इस का मतलब मैं ने तुम्हारी नींद में खलल डाला. सौरी, बेटे.’’

‘‘नहीं, आंटीजी, ऐसी कोई बात नहीं है. कहिए, कैसे याद किया?’’

‘‘आज तुम्हारी छुट्टी है. तुम मेरे घर आ जाओ. हम खूब बातें करेंगे. सच कहूं तो बेटे, कल तुम से बात कर के बहुत अच्छा लगा था.’’

‘‘लेकिन आंटी, डैडी की इजाजत के बिना…’’ मैं ने अपना वाक्य जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तुम्हारे डैडी से मैं बात कर लूंगी,’’ वह बडे़ हक से बोली, ‘‘वह मना नहीं करेंगे.’’

उस पल जेहन में एक ही सवाल परेशान कर रहा था कि जिस से मुझे बेहद नफरत होनी चाहिए, मैं धीरेधीरे उस के करीब क्यों होती जा रही हूं?

1 घंटे बाद मैं अरुणिमाजी के सामने थी. उन्होंने पहले तो मुझे गले लगाया, फिर बड़े प्यार से सोफे पर बैठाया. इस के बाद वह मेरे लिए नाश्ता बना कर लाईं. नाश्ते के दौरान मैं ने उन से पूछा, ‘‘आंटी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप से मिले हुए मुझे अभी सिर्फ 1 दिन हुआ है. सच कहूं तो मैं कल से सिर्फ आप के बारे में ही सोचे जा रही हूं. अगर आप मुझे पहले मिल जातीं तो कितना अच्छा होता,’’ यह कह कर मैं उन के घर को देखने लगी.

उन का सलीका और हुनर ड्राइंग रूम से बैडरूम तक हर जगह दिखाई दे रहा था. हर चीज करीने से रखी हुई थी. उन का घर इतना साफसुथरा और खूबसूरत था कि वह मुझे मुहब्बतों का आईना जान पड़ा.

उन के सलीके और हुनर को देख कर मेरे दिल में एक हूक सी उठ रही थी. मैं सोच रही थी कि काश, उन के जैसी मेरी मां होतीं. तभी मेरी आंखों के सामने मेरी मम्मी का चेहरा घूम गया. मेरी मम्मी एक मगरूर औरत थीं, उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त डैडी से लड़ते हुए बिताया था.

मेरी मम्मी ने बेशक मेरे डैडी के शरीर पर कब्जा कर लिया था, लेकिन वह उन के दिल में जगह नहीं बना पाई थीं, जोकि एक स्त्री अपने पति के दिल में बनाती है.

अब अरुणिमाजी की जिंदगी एक खुली किताब की तरह मेरे सामने आ गई थी. उन के दिल के किसी कोने में मेरे डैडी के लिए जगह जरूर थी. लेकिन उन्होंने डैडी से शादी क्यों नहीं की थी, यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

शाम होते ही डैडी मुझे लेने आ गए. रास्ते में मैं ने उन से पूछा, ‘‘डैडी, अगर आप बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछ सकती हूं?’’

डैडी ने बड़ी हैरानी से मुझे देखा, फिर आहत भाव से बोले, ‘‘बेटे, मैं ने आज तक  तुम्हारी किसी बात का बुरा माना है, जो आज तुम ऐसी बात कह रही हो. तुम जो पूछना चाहती हो पूछ सकती हो. मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगा.’’

‘‘आप अरुणिमाजी से प्यार करते हैं न?’’ मैं ने बिना किसी भूमिका के कहा.

डैडी पहले काफी देर तक चुप रहे फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘यह सच है कि एक वक्त था जब हम दोनों एकदूसरे को हद से ज्यादा चाहते थे और हमेशा के लिए एकदूसरे का होने का फैसला कर चुके थे.’’

‘‘ऐसी बात थी तो आप ने एकदूसरे से शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्योंकि तुम्हारे दादा ने मुझे अरुणिमा से शादी करने से मना किया था. तब मैं ने अपने मांबाप की मर्जी के बिना घर से भाग कर अरुणिमा से शादी करने का फैसला किया, लेकिन उस वक्त अरुणिमा ने मेरा साथ नहीं दिया था. तब उस का यही कहना था कि हमारे मांबाप के हम पर बहुत एहसान हैं, हमें उन के एहसानों का सिला उन के अरमानों का खून कर के नहीं देना चाहिए. उन की खुशियों के लिए हमें अपने प्यार का बलिदान करना पडे़गा.

‘‘मैं ने तब अरुणिमा को काफी समझाया, लेकिन वह नहीं मानी. इसलिए हमें एकदूसरे की जिंदगी से दूर जाना पड़ा. कुछ दिन पहले वह मुझे एक पार्टी में नहीं मिलती तो मैं उसे तुम्हारी मम्मी कभी नहीं बना पाता. आज की तारीख में उस का एक ही लड़का है, जिसे अरुणिमा के तुम्हारी मम्मी बनने से कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘लेकिन डैडी, मुझे एतराज है,’’ मैं कड़े स्वर में बोली.

‘‘क्यों?’’ डैडी की भवें तन उठीं.

‘‘क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप की जगहंसाई हो.’’

‘‘मुझे किसी की परवा नहीं है,’’ डैडी सख्ती से बोले, ‘‘तुम्हें मेरा कहा मानना ही होगा. तुम अपने को दिमागी तौर पर तैयार कर लो. कुछ ही दिनों में वह तुम्हारी मम्मी बनने जा रही है.’’

उस वक्त मुझे अपने डैडी एक इनसान न लग कर एक हैवान लगे थे, जो दूसरों की इच्छाओं को अपने नुकीले नाखूनों से नोंचनोंच कर तारतार कर देता है.

2 दिन पहले ही अरुणिमाजी का इकलौता बेटा नितिन लंदन से वापस लौटा तो उन्होंने उस से सब से पहले मुझे मिलाया. नितिन के बारे में मैं केवल इतना ही कहूंगी कि वह मेरे सपनों का राजकुमार है. मैं ने अपने जीवन साथी की जो कल्पना की थी वह हूबहू नितिन जैसा ही था.

कितनी अजीब बात है, जिस बाप को शादी की उम्र की दहलीज पर खड़ी अपनी औलाद के हाथ पीले करने के बारे में सोचना चाहिए वह बाप अपने स्वार्थ के लिए अपनी औलाद की खुशियों का खून कर के अपने सिर पर सेहरा बांधने की सोच रहा है.

आज अरुणिमाजी खरीदारी के लिए मुझे अपने साथ ले गई थीं. मैं उन के साथ नहीं जाना चाहती थी, लेकिन डैडी के कहने पर मुझे उन के साथ जाना पड़ा. शौपिंग के दौरान जब अरुणिमाजी ने एक नई नवेली दुलहन के कपड़े और जेवर खरीदे, तो मुझे उन से भी नफरत होने लगी थी.

मैं ने मन ही मन निश्चय कर अपनी डायरी में लिख दिया कि जिस दिन डैडी अपने माथे पर सेहरा बांधेंगे, उसी दिन इस घर से मेरी अर्थी उठेगी.

आज मुझे अपने नसीब पर रोना आ रहा है और हंसना भी. रोना इस बात पर आ रहा है कि जो मैं ने सोचा था वह हुआ नहीं और जो मैं ने नहीं सोचा था वह हो गया.

यह बात मुझे पता चल गई थी कि डैडी को अरुणिमा आंटी को मेरी मां बनाने का फैसला आगे आने वाले दिन 28 नवंबर को करना था और यह विवाह बहुत सादगी से गिनेचुने लोगों के बीच ही होना था.

28 नवंबर को सुबह होते ही मैं ने खुदकुशी करने की पूरी तैयारी कर ली थी. मैं ने सोच लिया था कि डैडी जैसे ही अरुणिमा आंटी के साथ सात फेरे लेंगे, वैसे ही मैं अपने कमरे में आ कर पंखे से लटक कर फांसी लगा लूंगी.

दोपहर को जब मैं अपने कमरे में मायूस बैठी थी तभी काकी मां ने कुछ सामान के साथ वहां कदम रखा और धीमे स्वर में बोलीं, ‘‘ये कपड़े तुम्हारे डैडी की पसंद के हैं, जोकि उन्होंने अरुणिमा बेटी से खरीदवाए थे. उन्होंने कहा है कि तुम जल्दी से ये कपड़े पहन कर नीचे आ जाओ.’’

मैं काकी मां से कुछ पूछ पाती उस से पहले वह कमरे से बाहर निकल गईं और कुछ लड़कियां मेरे कमरे में आ कर मुझे संवारने लगीं.

थोड़ी देर बाद मैं ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तो वहां काफी मेहमान बैठे थे. मेहमानों की गहमागहमी देख कर मेरी समझ में कुछ नहीं आया.

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मैं सोफे पर बैठी ही थी कि वहां अरुणिमाजी आ गईं. उन के साथ नितिन नहीं आया था.

‘‘शिशिर, हमें इजाजत है?’’ उन्होंने डैडी से पूछा.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं, यह रही तुम्हारी अमानत. इसे संभाल कर रखिएगा,’’  डैडी भावुक स्वर में बोले.

तभी वहां नितिन ने कदम रखा, जो दूल्हा बना हुआ था. मेरा सिर घूम गया. मैं ने उलझन भरी निगाहों से डैडी की तरफ देखा तो वह मेरे करीब आ कर बोले, ‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं अरुणिमा आंटी को तुम्हारी मम्मी बनाऊंगा. आज से अरुणिमा आंटी तुम्हारी मम्मी हैं. इन्हें हमेशा खुश रखना.’’ एकाएक मेरी रुलाई फूट पड़ी. मैं डैडी के गले लग गई और फूटफूट कर रोने लगी. इस के बाद पवित्र अग्नि के सात फेरे ले कर मैं नितिन की हमसफर और अरुणिमाजी की बेटी बन गई.

Valentine’s Special: अनाम रिश्ता- कैसा था नेहा और अनिरुद्ध का रिश्ता

आज मेरे लिए बहुत ही खुशी का दिन है क्योंकि विश्वविद्यालय ने 15 वर्षों तक निस्वार्थ और लगनपूर्वक की गई मेरी सेवा के परिणामस्वरूप मुझे कालेज का प्रिंसिपल बनाने का निर्णय लिया था. आज शाम को ही पदग्रहण समारोह होने वाला है. परंतु न जाने क्यों रहरह कर मेरा मन बहुत ही उद्विग्न हो रहा है. ‘अभी तो सिर्फ 9 बजे हैं और ड्राइवर 2 बजे तक आएगा. तब तक मैं क्या करूं…’ मैं मन ही मन बुदबुदाई और रसोई की ओर चल दी. सोचा कौफी पी लूं, क्या पता तब मन को कुछ राहत मिले.

कौफी का मग हाथ में ले कर जैसे ही मैं सोफे पर बैठी, हमेशा की तरह मुझे कुछ पढ़ने की तलब हुई. मेज पर कई पत्रिकाएं रखी हुई थीं. लेकिन मेरा मन तो आज कुछ और ही पढ़ना चाह रहा था. मैं ने यंत्रवत उठ कर अपनी किताबों की अलमारी खोली और वह किताब निकाली जिसे मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं.

जब भी मैं इस किताब को हाथ में लेती हूं, एक अलग ही एहसास होता है मुझे, मन को अपार सुख व शांति मिलती है. ‘आप मेरी जिंदगी में गुजरे हुए वक्त की तरह हैं सर, जो कभी लौट कर नहीं आ सकता. लेकिन मेरी हर सांस के साथ आप का एहसास डूबताउतरता रहता है,’ अनायास ही मेरे मुंह से अल्फाज निकल पड़े और मैं डूबने लगी 30 वर्ष पीछे अतीत की गहराइयों में जब मैं परिस्थितियों की मारी एक मजबूर लड़की थी, जो अपने साए तक से डरती थी कि कहीं मेरा यह साया किसी को बरबाद न कर दे.

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जन्म लेते ही मां को खा जाने वाला इलजाम मेरे माथे पर लेबल की तरह चिपका दिया गया था. पिताजी ने भी कभी मुझे अपनी बेटी नहीं माना. उन्होंने तो कभी मुझ से परायों जैसा भी बरताव नहीं किया. मुझे इंसान नहीं, एक बोझ समझा. मैं अपने पिताजी के साथ अकेली ही इस घर में रहती थी, क्योंकि मुझे पालने वाले चाचाचाची इस दुनिया से चले गए थे. और मैं तो अभी 8वीं में पढ़ने वाली 13 साल की बच्ची थी. फिर भला मैं कहां जाती. मैं घर में पिताजी के साथ एक अनचाहे मेहमान की तरह रहती थी, लेकिन घर के नौकरचाकर मुझ से बहुत प्यार करते थे.

जन्म से ले कर आज तक कभी भी मैं ने मां और पापा शब्द नहीं पुकारा है. मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इन रिश्तों को नाम ले कर बुलाने से कैसा महसूस होता है. पिताजी की सख्त हिदायत थी कि जब तक वे घर में रहें, तब तक मैं उन के सामने न जाऊं. इसलिए जितनी देर पिताजी घर में रहते, मैं पीछे बालकनी में जा कर नौकरों से बातें करती थी.

बालकनी से ही मैं ने उन्हें पहली बार देखा था. सामने वाले मकान में किराएदार के रूप में आए थे वे. पहले मैं नहीं जानती थी कि वे कौन हैं, क्या करते हैं? लेकिन जब भी मैं बालकनी में खड़ी होती तो उन की दैनिक गतिविधियों को निहारने में मुझे अद्भुत आनंद आता था. उम्र में तो वे मेरे पिताजी के ही बराबर थे लेकिन उन का आकर्षक व्यक्तित्व किसी को भी आकर्षित कर सकता था.

मैं अकसर उन्हें पढ़ते हुए देखती थी. कभीकभार खाना बनाते या कपड़े धोते हुए देखा करती थी. कई बार उन की नजर भी मुझ पर पड़ जाती थी. मैं अकसर उन के बारे में सोचती थी, परंतु पास जा कर कुछ पूछने की हिम्मत नहीं होती थी.

एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी तो उन्हें बैठक में पिताजी के साथ चाय पीते देख कर चकित रह गई. मैं कुछ देर वहां खड़ी रहना चाहती थी, लेकिन पिताजी का इशारा समझ कर तुरंत अंदर चली गई और छिप कर बातें सुनने लगी. उस दिन पहली बार मुझे पता चला कि उन का नाम अनिरुद्ध है. नहीं…नहीं, अनिरुद्ध सर क्योंकि वे वहां के महिला महाविद्यालय में हिंदी के लैक्चरर थे.

कालेज के ट्रस्टी होने के नाते पिताजी और अनिरुद्ध सर की दोस्ती बढ़ती गई. और साथ ही मैं भी उन के करीब होती गई. स्कूल से आते वक्त कभीकभी मैं उन के घर भी चली जाया करती थी. वे बेहद हंसमुख स्वभाव के थे. जब भी मैं उन से मिलती, उन के चेहरे पर खुशी और ताजगी दिखती थी. वे मुझ से केवल मेरे स्कूल और मेरी सहेलियों के बारे में ही पूछा करते थे.

मेरी पढ़ाई का उन्हें विशेष खयाल रहता था, जबकि उतनी फिक्र तो शायद मुझे भी नहीं थी. मैं तो केवल पढ़ाई नाम की घंटी गले में बांधे घूम रही थी.

मैं ने तो सर से मिलने के बाद ही जाना कि ये किताबें किस हद तक मंजिल तक पहुंचने में मददगार सिद्ध होती हैं. सर कहा करते थे कि ये किताबें इंसान की सच्ची दोस्त होती हैं जो कभी विश्वासघात नहीं करतीं और न ही कभी गलत दिशा दिखलाती हैं.

ये हमेशा खुशियां बांटती हैं और दुखों में हौसलाअफजाई का काम करती हैं. उसी दौरान मुझे यह भी पता चला कि वे एक अच्छे लेखक भी हैं. इन दिनों वे एक नई किताब लिख रहे थे जिस का शीर्षक था ‘निहारिका.’ जब मैं ने 9वीं कक्षा पास कर ली तब उन्होंने एक दिन मुझ से कहा कि उन की ‘निहारिका’ आज पूरी हो गई है, और वे चाहते हैं कि मैं उसे पढूं.

तब मैं साहित्य शब्द का अर्थ भी नहीं जानती थी. कोर्स की किताबों के अलावा अन्य किताबों से मेरा न तो कोई परिचय था और न ही रुचि. लेकिन ‘निहारिका’ को मैं पढ़ना चाहती थी क्योंकि उसे सर ने लिखा था और उन की इच्छा थी कि मैं उसे पढ़ूं. और सर की खुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकती थी. जब मैं ने ‘निहारिका’ पढ़नी शुरू की तो उस के शब्दों में मैं डूबती चली गई. उस के हर पन्ने पर मुझे अपना चेहरा झांकता नजर आ रहा था. ऐसा लगता था जैसे सर ने मुझे ही लक्ष्य कर, यह कहानी मेरे लिए लिखी है, क्योंकि अंत में सर के हाथों मेरे नाम से लिखी वह चिट इस बात की प्रमाण थी.

‘प्रिय नेहा, ‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे अंदर किसी भी कार्य को करगुजरने की अनोखी क्षमता है, लेकिन जरूरत है उसे तलाश कर उस का सही इस्तेमाल करने की. मेरी कहानी की नायिका निहारिका ने भी यही किया है. तमाम कष्टों को झेलते हुए भी उस ने अपने डरावने अतीत को पीछे छोड़ कर उज्ज्वल भविष्य को अपनाया है, तभी वह अपनी मंजिल पाने में कामयाब हो सकी है. मैं चाहता हूं कि तुम भी निहारिका की तरह बनो ताकि इस किताब को पढ़ने वालों को यह विश्वास हो जाए कि ऐसा असल जिंदगी में भी हो सकता है.

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‘तुम्हारा, अनिरुद्ध सर.’ इस चिट को पढ़ने के साथ ही इस के हरेक शब्द को मैं ने जेहन में उतार लिया और फिर शुरू हो गया नेहा से निहारिका बनने तक का कभी न रुकने वाला सफर. जिस में सर ने एक सच्चे गुरु की तरह कदमकदम पर मेरा मार्गदर्शन किया. 10वीं का पंजीकरण कराते समय ही मैं ने अपना नाम बदल कर नेहा भाटिया की जगह नेहा निहारिका कर लिया.

स्कूल तथा कालेज की पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं ने पीएचडी भी कर ली. मेरी 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और मुझे अपने ही शहर के राजकीय उच्च विद्यालय में शिक्षिका के रूप में नियुक्ति मिल गई.

उस दिन जब मैं अपना नियुक्तिपत्र ले कर सर के पास गई तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. तब उन्होंने कहा था, ‘नेहा, अपनी इस सफलता को तुम मंजिल मत समझना, क्योंकि यह तो मंजिल तक पहुंचने की तुम्हारी पहली सीढ़ी है. मंजिल तो बहुत दूर है जो अथक परिश्रम से ही प्राप्त होगी.’ उधर, पिताजी को मेरा नौकरी करना बिलकुल रास नहीं आ रहा था.

परंतु न जाने क्यों वे खुले शब्दों में मेरा विरोध नहीं कर रहे थे. इसलिए उन्होंने मेरी शादी करने का फैसला किया ताकि वे नेहा नाम की इस मुसीबत से छुटकारा पा सकें. बचपन से ही आदत थी पिताजी के फैसले पर सिर झुका कर हामी भरने की, सो, मैं ने शादी के लिए हां कर दी.

अगले ही दिन पिताजी के मित्र के सुपुत्र निमेष मुझे देखने आए. साथ में उन के मातापिता और 2 छोटी बहनें भी थीं. जैसे ही मैं बैठक में पहुंची, पिताजी ने मेरी बेटी नेहा कह कर मेरा परिचय दिया. पहली बार पिताजी के मुंह से अपने लिए बेटी शब्द सुना और तब मुझे शादी करने के अपने फैसले पर खुशी महसूस हुई. मगर यह खुशी ज्यादा देर तक न रह सकी.

निमेष और उन के परिवार वालों ने मुझे पसंद तो कर लिया, लेकिन कुछ ऐसी शर्तें भी रख दीं जिन्हें मानना मेरे लिए मुमकिन नहीं था.

निमेष की मां ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि मुझे शादी के बाद नौकरी छोड़नी होगी और उन के परिवार के सदस्यों की तरह शाकाहारी बनना होगा. एक पारंपरिक गृहिणी के नाम पर शोपीस बन कर रहना मुझे गवारा नहीं था. मैं तो अपने सर के बताए रास्ते पर चलना चाहती थी और उन के सपनों को पूरा करना चाहती थी, जो अब मेरे भी सपने बन चुके थे.

सब के सामने तो मैं चुप रही परंतु शाम को हिम्मत कर के पिताजी से अपने मन की बात कह दी. यह सुन कर पिताजी आगबबूला हो गए. उस दिन मैं ने पहली बार बहुत कड़े शब्दों में उन का विरोध किया, जिस के एवज में उन्होंने मुझे सैकड़ों गालियां दीं व कई थप्पड़ मारे. फिर तो मैं लोकलाज की परवा किए बिना ही सर के पास चली गई. सर ने जैसे ही दरवाजा खोला, मैं उन से लिपट कर फफक पड़ी. इतनी रात को मेरी ऐसी हालत देख कर सर भी परेशान हो गए थे, लेकिन उन्होंने पूछा कुछ नहीं. फिर मैं ने उन के पूछने से पहले ही अपनी सारी रामकहानी उन्हें सुना डाली.

इतना कुछ होने के बाद भी सर ने मुझे पिताजी के पास ही जाने को कहा, लेकिन मैं टस से मस नहीं हुई. तब सर ने समझाना शुरू किया.

वे समझाते रहे और मैं सिर झुकाए रोती रही. उन की दुनिया व समाज को दुहाई देने वाली बातें मेरी समझ के परे थीं. फिर भी, अंत में मैं ने कहा कि यदि पिताजी मुझे लेने आएंगे तो मैं जरूर चली जाऊंगी, लेकिन वे नहीं आए. दूसरे दिन उन का फोन आया था.

मुझे ले जाने के लिए नहीं, बल्कि सर के लिए धमकीभरा फोन…यदि सर ने कल तक मुझे पिताजी के घर पर नहीं छोड़ा तो वे पुलिस थाने में रिपोर्ट कर देंगे कि अनिरुद्ध सर ने मेरा अपहरण कर लिया है. इतना सबकुछ जानने के बाद मैं सर की और अधिक परेशानी का कारण नहीं बनना चाहती थी, इसलिए सर के ही कहने पर मैं अपनी सहेली निशा के घर चली गई. पूरा एक सप्ताह बीत चुका था. मेरे

पिताजी को पता चल चुका था कि मैं निशा के घर पर हूं. फिर भी वे मुझे लेने नहीं आए. लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं थी. मैं तो बस इसलिए परेशान थी कि इतने सालों बाद मैं पहली बार सर से इतने दिनों के लिए दूर हुई थी. इसलिए मुझे घबराहट होने लगी थी, जिस के निवारण के लिए मैं सर के कालेज चली गई. वहां मैं ने जो कुछ भी सुना वह मेरे लिए अकल्पनीय व असहनीय था. सर ने अपना स्थानांतरण दूसरे शहर में करवा लिया था और दूसरे दिन जा रहे थे.

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फिर तो मैं शिष्या होने की हर सीमा को लांघ गई और सर को वह सबकुछ कह दिया जिसे मैं ने आज तक केवल महसूस किया था. अपने प्रति सर के लगाव को प्यार का नाम दे दिया मैं ने. और सर…एक निष्ठुर की भांति मेरी हर बात को चुपचाप सुनते रहे. अंत में बस इतना कहा, ‘नेहा, आज तक तुम ने मुझे गलत समझा है. मेरे गुरुत्व का, मेरी शिक्षा का अपमान किया है तुम ने.’ ‘नहीं सर, मैं ने आप का अपमान नहीं किया है. मैं ने तो केवल वही कहा है जो अब तक महसूस किया है.

मैं ने सिर्फ प्यार ही नहीं, बल्कि हर रिश्ते का अर्थ आप से ही सीखा है. आप ने एक पिता की तरह मेरे सिर पर हाथ रख कर मुझे स्नेहसिक्त कर दिया, एक प्रेमी की तरह सदैव मुझे खुश रखा, एक भाई की तरह मेरी रक्षा की, एक दोस्त और शिक्षक की तरह मेरा मार्गदर्शन किया. यहां तक कि आप ने एक पति की तरह मेरे आत्मसम्मान की रक्षा भी की है. सच तो यह है सर, मन से तो मैं हर रिश्ता आप के साथ जोड़ चुकी हूं. इस के लिए तो मुझे किसी से भी पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है.’

‘नेहा, मेरा अपना एक अलग परिवार है और मैं अपने परिवार के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता. साथ ही, गुरु और शिष्य के इस पवित्र रिश्ते को भी कलंकित नहीं कर सकता.’ सर की आंखों में समाज का डर सहज ही झलक रहा था. ‘मैं जानती हूं सर, और मैं कभी ऐसा चाह भी नहीं सकती.

मैं ने आप से प्यार किया है. आप के अस्तित्व को चाहा है, सर. इसलिए मैं आप को अपनी नजरों में कभी गिरने नहीं दूंगी. मैं ने तो बस अपनी भावनाएं आप के साथ बांटी हैं. आप जहां चाहे जाइए, मुझे आप से कोई शिकायत नहीं. बस, कामना कीजिए कि मैं आप की दी हुई शिक्षा का अनुसरण कर सकूं.’

‘मेरी शुभकामनाएं तो हमेशा तुम्हारे साथ हैं नेहा, पर क्या जातेजाते मेरी गुरुदक्षिणा नहीं दोगी?’ सर ने रहस्यात्मक लहजे में कहा तो मैं दुविधा में पड़ गई.

मुझे असमंजस में पड़ा देख कर सर बोले, ‘मैं तो, बस इतना चाहता हूं नेहा कि मेरे जाने के बाद तुम न तो मुझे ढूंढ़ने की कोशिश करना और न ही मुझ से संपर्क स्थापित करने का कोई प्रयास करना. हो सके तो मुझे भूल जाना. यही तुम्हारे भविष्य के लिए उचित रहेगा.’

इतना कह कर उन्होंने अपनी पीठ मेरी तरफ कर ली. कुछ पलों के लिए मैं सन्न रह गई. समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी कीमती चीज मैं उन को कैसे दे दूं? फिर भी मैं ने साहस किया और बस इतना ही कह पाई, ‘सर, क्या आप अपनी ‘निहारिका’ को भूल पाएंगे? यदि आप ने इस का जवाब पा लिया तो आप को अपनी गुरुदक्षिणा अपनेआप ही मिल जाएगी.’

उस दिन मैं ने आखिरी बार अनिरुद्ध सर को आह भर के देखा. उन की शुभकामना ली तो? सर के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘हमेशा खुश रहो.’ शायद इसीलिए मैं किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं हो पाती हूं. जिंदगी के हर सुखदुख को हंसते हुए झेलना मेरी आदत बन गई है.

मैं ने सर की आधी बात तो मान ली और उन से कभी भी संपर्क करने की कोशिश नहीं की मगर उन्हें भूल जाने वाली बात मैं नहीं मान सकी, क्योंकि मैं गुरुऋ ण से उऋ ण नहीं होना चाहती थी.

सर के चले जाने के बाद मैं ने आजीवन अविवाहित रह कर शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया. न चाहते हुए भी पिताजी को मेरी जिद के आगे झुकना पड़ा.

इसी बीच, लगातार बजते मोबाइल की रिंगटोन को सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई, और मैं अतीत से वर्तमान के धरातल पर आ गई. पिताजी का फोन था, ‘‘आखिर तुम ने अपनी जिद पूरी कर ही ली. खैर, बधाई स्वीकार करो. मुझे अफसोस है कि मैं शहर से बाहर हूं और समारोह में नहीं आ सकता. आगे यही कामना है कि तुम और तरक्की करो.’’ पिताजी ने ये सबकुछ बहुत ही रूखी जबान से कहा था. फिर भी, मुझे अच्छा लगा कि पिताजी ने मुझे फोन किया. काश, एक बार सर का भी फोन आ जाता…

Valentine’s Special: क्या यही प्यार है- जेबा और राहिल की कहानी

जेबा की बरात आने वाली थी. सभी पूरी तैयारी के साथ बरात के आने का इंतजार कर रहे थे कि तभी जेबा का आशिक राहिल कहीं से अचानक आंगन में आ गया.

‘‘आप डरें नहीं. मैं कुछ गड़बड़ करने नहीं आया हूं. मैं तो सिर्फ जेबा से मिलने आया हूं. आज से वह किसी दूसरे की हो जाएगी. प्लीज, मुझे उस से आखिरी बार मिल लेने दें,’’ आंगन में खड़ी औरतों से इतना कहने के बाद राहिल सीधा जेबा के कमरे में घुस गया, जिस में वह दुलहन बनी बैठी थी.

‘‘जेबा, यह तो मेरी शराफत है, जो तुम्हें किसी और की होते देख रहा हूं, वरना किस में इतनी हिम्मत थी कि जो तुम को मुझ से जुदा कर देता.

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‘‘खैर, मैं तुम से यह कहने आया हूं कि हम दो जिस्म जरूर हैं, लेकिन जान एक है. कोई दूसरा तुम्हारे सिर्फ तन पर हक जमा सकता है, लेकिन मन पर नहीं. मुझे पूरा यकीन है कि तुम मुझे कभी नहीं भूलोगी…’’

इतना कहने के बाद राहिल अपना मुंह जेबा के कान के पास ले जा कर धीरे से बोला, ‘‘तुम अपनी मांग में कभी सिंदूर मत भरना. मैं भी तुम से वादा करता हूं कि जिंदगीभर किसी दूसरी लड़की की तरफ नजर नहीं उठाऊंगा.

‘‘अच्छा जेबा, अब मैं चलता हूं. तुम हमेशा खुश रहो,’’ इतना कह कर राहिल उस कमरे से चला गया.

राहिल के जाने के बाद सब ने राहत की सांस ली, मगर दिलों में यह खटका बना रहा कि वह कमबख्त कहीं निकाह के वक्त आ कर किसी तरह की हंगामेबाजी न शुरू कर दे.

इन हालात से निबटने के लिए जेबा के घर वालों ने पूरी तैयारी कर रखी थी. पर सबकुछ शांति से पूरा हो गया और जेबा अपने हमसफर शबाब के साथ एक नई जिंदगी शुरू करने के लिए रवाना हो गई.

वैसे तो सबकुछ ठीक हो गया था, लेकिन जेबा और उस के घर वाले अंदर ही अंदर काफी परेशान थे कि राहिल न जाने कब क्या कर बैठे.

जेबा और राहिल एकदूसरे को चुपकेचुपके चाहते आ रहे थे. इस सचाई से परदा तब उठा, जब जेबा की शादी शबाब के साथ तय कर दी गई.

राहिल को जब इस बात का पता चला, तो उस के दिल की धड़कन जैसे थम सी गई.

कभी जी चाहता कि जेबा को ले कर कहीं भाग जाए, तो कभी उस के बाप का खून कर देने का मन करता. कभी यह विचार आता कि वह अपना और जेबा का खात्मा कर डाले. वह तो जेबा की सूझबूझ थी, जो पागल हाथी जैसे राहिल को किसी तरह काबू में किए थी.

‘‘आखिर मुझ में क्या कमी है, जो जेबा को मुझ से दूर किया जा रहा है?’’ एक दिन राहिल जेबा के अब्बा हशमत अली से उलझ पड़ा.

‘‘कमी यह है कि तुम दिमाग से ज्यादा दिल की सुनते हो और जज्बाती हो. सब से बड़ी कमी तो तुम में यह है कि तुम दूसरों पर मुहताज हो. जो खुद मुहताज हो, वह भला दूसरों को क्या दे सकता है,’’ हशमत अली की साफगोई राहिल को बेहद कड़वी लगी, फिर भी जवाब में वह खामोश रहा.

राहिल एक बेरोजगार और भावुक किस्म का नौजवान था. बाप के पास जो दौलत थी, बस उसी पर उस की जिंदगी का दारोमदार था. वह अपनी जिंदगी के प्रति कभी संजीदा नजर नहीं आया.

शौहर के रूप में शबाब को पा कर जेबा बहुत खुश थी. एक भले व संजीदा शौहर की सारी खूबियां उस में कूटकूट कर भरी थीं.

शबाब जेबा का पूरा खयाल रखता कि उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुंचने पाए. मगर जेबा ही इस मामले में नाकाम थी, क्योंकि वह पूरे तनमन से चाह कर भी अपने शौहर के आगे खुद को पेश नहीं कर पाती थी.

जेबा इस बात को ले कर डरीसहमी रहती कि अपने शौहर से पहले वह किसी और की थी. कभीकभी उसे राहिल के दीवानेपन से भी डर लगता. वह जानती थी कि राहिल जुनून में आ कर किसी भी हद को पार कर सकता है, इसीलिए वह चाह कर भी शबाब को अपने प्यार से दूर रखती थी.

सब से बड़ी बात तो यह थी कि जेबा ने आज तक शबाब के नाम का सिंदूर अपनी मांग में नहीं लगाया, जो शबाब को अच्छा नहीं लग रहा था.

राहिल ने जेबा को इस बात के लिए मना कर के उस की शादीशुदा जिंदगी पर कितना बड़ा जुल्म ढाया था. जेबा राहिल के गुस्से से शबाब को बचाने के लिए ही अपनी मांग को सिंदूर से नहीं सजाती थी.

शादी के 2 दिन बाद ही जेबा की सूनी मांग को देख कर शबाब पूछ बैठा, ‘‘अरे, यह क्या जेबा, तुम्हारी मांग में सिंदूर क्यों नहीं है?’’

जेबा ने बड़े प्यार से शबाब को समझाया, ‘‘असल में सिंदूर से मुझे एलर्जी है. बचपन में गुड्डेगुडि़यों का ब्याह रचाने के दौरान गुड्डे की अम्मां बनी लड़की ने खेलखेल में मेरी मांग में सिंदूर डाल दिया था. इस के कुछ समय बाद ही मेरे सिर में खुजली होने लगी थी और मैं चकरा कर गिर पड़ी थी. तब से मैं सिंदूर से काफी दूर रहने लगी हूं.’’

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जेबा की दलील सुन लेने के बाद शबाब चुप तो हो गया था, लेकिन उसे कुछ अटपटा सा जरूर लगा था.

सास व ननदें जेबा को मांग में सिंदूर डालने की कहतेकहते थक चुकी थीं, लेकिन उस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. इस बात को ले कर परिवार में मनमुटाव सा रहने लगा था.

इस से पहले कि जेबा की जिद और ससुराल वालों की नाराजगी कोई गंभीर रूप लेती, एक दिन अचानक घटी एक घटना ने जेबा की सारी उलझनों को पलभर में ही सुलझा दिया.

राहिल ने जेबा के किसी करीबी रिश्तेदार के हाथों उस के पास एक खत भेजा, जिस में लिखा था:

‘जेबा, मैं तुम्हारे दिलोदिमाग पर हुकूमत तो नहीं कर सका, लेकिन उस पर नाजायज ढंग से कब्जा कर के तुम्हें ब्लैकमेल जरूर करता रहा. अब इस बात का एहसास मुझे पूरी तरह से होने लगा है.

‘मुझे दुख है कि मेरी घटिया सोच का शिकार हो कर तुम घुटनभरी जिंदगी जी रही हो और धीरेधीरे अपने ससुराल वालों की नजरों में गिरती जा रही हो. मुझे माफ कर दो. तुम ने सही कहा था कि मेरा यह गैरसंजीदापन कभी मुझे महंगा पड़ सकता है.

‘एक खुशखबरी सुनो. मैं शादी करने जा रहा हूं. वह भी एक ऐसी लड़की के साथ, जो मुझ जैसे किसी सड़कछाप आशिक के जुल्म का शिकार हो चुकी है. जानती हो, इस तरह की लड़की को अपना हमसफर बना कर मैं क्या करना चाहता हूं? मैं अपने गुनाह की सजा कम करना चाहता हूं.

‘शादी के बाद भी तुम पर अपना नाजायज हक जमा कर मैं ने गुनाह नहीं तो और क्या किया है. तुम मेरी दीवानगी का खौफ अपने जेहन से बिलकुल निकाल दो और पूरे तनमन से शबाब की बीवी बन कर जिंदगी गुजारो. आज से अपनी मांग सूनी मत रखना.

‘तुम्हारा नाचीज, राहिल.’

खत पढ़ लेने के बाद जेबा खुद को इतना हलका महसूस कर रही थी, मानो उस की छाती पर से कोई बहुत बड़ा बोझ हट गया हो.

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Valentine’s Special: कहां हो तुम- दोस्ती में प्यार का स्पर्श

ऋतु अपने कालेज के गेट के बाहर निकली तो उस ने देखा बहुत तेज बारिश हो रही है.

‘ओ नो, अब मैं घर कैसे जाऊंगी?’ उस ने परेशान होते हुए अपनेआप से कहा. इतनी तेज बारिश में तो छाता भी नाकामयाब हो जाता है और ऊपर से यह तेज हवा व पानी की बौछारें जो उसे लगातार गीला कर रही थीं. सड़क पर इतने बड़ेबड़े गड्ढे थे कि संभलसंभल कर चलना पड़ रहा था. जरा सा चूके नहीं कि सड़क पर नीचे गिर जाओ. लाख संभालने की कोशिश करने पर भी हवा का आवेग छाते को बारबार उस के हाथों से छुड़ा ले जा रहा था. ऐसे में अगर औटोरिक्शा मिल जाता तो कितना अच्छा होता पर जितने भी औटोरिक्शा दिखे, सब सवारियों से लदे हुए थे.

उस ने एक ठंडी सी आह भरी और पैदल ही रवाना हो गई, उसे लगा जैसे मौसम ने उस के खिलाफ कोई साजिश रची हो. झुंझलाहट से भरी धीरेधीरे वह अपने घर की तरफ बढ़ने लगी कि अचानक किसी ने उस के आगे स्कूटर रोका. उस ने छाता हटा कर देखा तो यह पिनाकी था.

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‘‘हैलो ऋतु, इतनी बारिश में कहां जा रही हो?’’

‘‘यार, कालेज से घर जा रही हूं और कहां जाऊंगी.’’

‘‘इस तरह भीगते हुए क्यों जा रही है?’’

‘‘तू खुद भी तो भीग रहा है, देख.’’

‘‘ओके, अब तुम छाते को बंद करो और जल्दी से मेरे स्कूटर पर बैठो, यह बारिश रुकने वाली नहीं, समझी.’’

ऋतु ने छाता बंद किया और किसी यंत्रचालित गुडि़या की तरह चुपचाप    उस के स्कूटर पर बैठ गई. आज उसे पिनाकी बहुत भला लग रहा था, जैसे डूबते को कोई तिनका मिल गया हो. हालांकि दोनों भीगते हुए घर पहुंचे पर ऋतु खुश थी. घर पहुंची तो देखा मां ने चाय के साथ गरमागरम पकौड़े बनाए हैं. उन की खुशबू से ही वह खिंचती हुई सीधी रसोई में पहुंच गई और प्लेट में रखे पकौड़ों पर हाथ साफ करने लगी तो मां ने उस का हाथ बीच में ही रोक लिया और बोली, ‘‘न न ऋ तु, ऐसे नहीं, पहले हाथमुंह धो कर आ और अपने कपड़े देख, पूरे गीले हैं, जुकाम हो जाएगा, जा पहले कपड़े बदल ले. पापा और भैया बालकनी में बैठे हैं, तुम भी वहीं आ जाना.’’

‘भूख के मारे तो मेरी जान निकली जा रही है और मां हैं कि…’ यह बुदबुदाती सी वह अपने कमरे में गई और जल्दी से फ्रैश हो कर अपने दोनों भाइयों के बीच आ कर बैठ गई. छोटे वाले मुकेश भैया ने उस के सिर पर चपत लगाते हुए कहा, ‘‘पगली, इतनी बारिश में भीगती हुई आई है, एक फोन कर दिया होता तो मैं तुझे लेने आ जाता.’’

‘‘हां भैया, मैं इतनी परेशान हुई और कोई औटोरिक्शा भी नहीं मिला, वह तो भला हो पिनाकी का जो मुझे आधे रास्ते में मिल गया वरना पता नहीं आज क्या होता.’’ इतना कह कर वह किसी भूखी शेरनी की तरह पकौड़ों पर टूट पड़ी.

अब बारिश कुछ कम हो गई थी और ढलते हुए सूरज के साथ आकाश में रेनबो धीरेधीरे आकार ले रहा था. कितना मनोरम दृश्य था, बालकनी की दीवार पर हाथ रख कर मैं कुदरत के इस अद्भुत नजारे को निहार रही थी कि मां ने पकौड़े की प्लेट देते हुए कहा, ‘‘ले ऋ तु, ये मिसेज मुखर्जी को दे आ.’’ उस ने प्लेट पकड़ी और पड़ोस में पहुंच गई. घर के अंदर घुसते ही उसे हीक सी आने लगी, उस ने अपनी नाक सिकोड़ ली. उस की ऐसी मुखमुद्रा देख कर पिनाकी की हंसी छूट गई.

वह ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘भीगी बिल्ली की नाक तो देखो कैसी सिकुड़ गई है,’’ यह सुन कर ऋ तु गुस्से में उस के पीछे भागी और उस की पीठ पर एक धौल जमाई.

पिनाकी उहआह करता हुआ बोला, ‘‘तुम लड़कियां कितनी कठोर होती हो, किसी के दर्द का तुम्हें एहसास तक नहीं होता.’’

‘‘हा…हा…हा… बड़ा आया दर्द का एहसास नहीं होता, मुझे चिढ़ाएगा तो ऐसे ही मार खाएगा.’’

मिसेज मुखर्जी रसोई में मछली तल रही थीं, जिस की बदबू से ऋ तु की हालत खराब हो रही थी. उस ने पकौड़ों की प्लेट उन्हें पकड़ाई और बाहर की ओर लपकते हुए बोली, ‘‘मैं तो जा रही हूं बाबा, वरना इस बदबू से मैं बेहोश हो जाऊंगी.’’

मिसेज मुखर्जी ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम को मछली की बदबू आती है लेकिन ऋ तु अगर तुम्हारी शादी किसी बंगाली घर में हो गई, तब क्या करेगी.’’

बंगाली लोग प्यारी लड़की को लाली कह कर बुलाते हैं. पिनाकी की मां को ऋ तु के लाललाल गालों पर मुसकान बहुत पसंद थी. वह अकसर उसे कालेज जाते हुए देख कर छेड़ा करती थी.

‘‘ऋ तु तुमी खूब शुंदर लागछी, देखो कोई तुमा के उठा कर न ले जाए.’’

पिनाकी ने सच ही तो कहा था ऋ तु को उस के दर्द का एहसास कहां था. वह जब भी उसे देखता उस के दिल में दर्द होता था. ऋ तु अपनी लंबीलंबी 2 चोटियों को पीठ के पीछे फेंकते हुए अपनी बड़ीबड़ी और गहरी आंखें कुछ यों घूमाती है कि उन्हें देख कर पिनाकी के होश उड़ जाते हैं और जब बात करतेकरते वह अपना निचला होंठ दांतों के नीचे दबाती है तो उस की हर अदा पर फिदा पिनाकी उस की अदाओं पर मरमिटना चाहता है.

पर ऋतु से वह इस बात को कहे तो कैसे कहे. कहीं ऐसा न हो कि ऋतु यह बात जानने के बाद उस से दोस्ती ही तोड़ दे. फिर उसे देखे बिना, उस से बात किए बिना वह जी ही नहीं पाएगा न, बस यही सोच कर मन की बात मन में लिए अपने प्यार को किसी कीमती हीरे की तरह मन में छिपाए उसे छिपछिप कर देखता है. आमनेसामने घर होने की वजह से उस की यह ख्वाहिश तो पूरी हो ही जाती है. कभी बाहर जाते हुए तो कभी बालकनी में खड़ी ऋतु उसे दिख ही जाती है पर वह उसे छिप कर देखता है अपने कमरे की खिड़की से.

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‘‘पिनाकी, क्या सोच रहा है?’’ ऋतु उस के पास खड़ी चिल्ला रही थी इस बात से बेखबर कि वह उसी के खयालों में खोया हुआ है. कितना फासला होता है ख्वाब और उस की ताबीर में. ख्वाब में वह उस के जितनी नजदीक थी असल में उतनी ही दूर. जितना खूबसूरत उस का खयाल था, क्या उस की ताबीर भी उतनी ही खूबसूरत थी. हां, मगर ख्वाब और उस की ताबीर के बीच का फासला मिटाना उस के वश की बात नहीं थी. ‘‘तू चल मेरे साथ,’’ ऋतु उसे खींचती हुई स्टडी टेबल तक ले गई.

‘‘कल सर ने मैथ्स का यह नया चैप्टर सौल्व करवाया, लेकिन मेरे तो भेजे में कुछ नहीं बैठा, अब तू ही कुछ समझा दे न.’’

ऋ तु को पता था कि पिनाकी मैथ्स का मास्टर है, इसलिए जब भी उसे कोई सवाल समझ नहीं आता तो वह पिनाकी की मदद लेती है, ‘‘कितनी बार कहा था मां से यह मैथ्स मेरे बस का रोग नहीं, लेकिन वे सुनती ही नहीं, अब निशा को ही देख आर्ट्स लिया है उस ने, कितनी फ्री रहती है. कोई पढ़ाई का बोझ नहीं और यहां तो बस, कलम घिसते रहो, फिर भी कुछ हासिल नहीं होता.’’

‘‘इतनी बकबक में दिमाग लगाने के बजाय थोड़ा पढ़ाई में लगाया होता तो सब समझ आ जाता.’’

‘‘मेरा और मैथ्स का तो शुरू से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है, पिनाकी.’’

पिनाकी एक घंटे तक उसे समझाने की कोशिश करता रहा पर ऋ तु के पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था.

‘‘तुम सही कहती हो ऋ तु, यह मैथ्स तुम्हारे बस की नहीं है, तुम्हारा तो इस में पास होना भी मुश्किल है यार.’’

पिनाकी ने अपना सिर धुनते हुए कहा तो ऋ तु को हंसी आ गई. वह जोरजोर से हंसे जा रही थी और पिनाकी उसे अपलक निहारे जा रहा था. उस के जाने के बाद पिनाकी तकिए को सीने से चिपटाए ऋ तु के ख्वाब देखने में मगन हो गया. जब वह उस के पास बैठी थी तो उस के लंबे खुले बाल पंखे की हवा से उड़ कर बारबार उस के कंधे को छू रहे थे और इत्र में घुली मदहोश करती उस की सांसों की खुशबू ने पिनाकी के होश उड़ा दिए थे. पर अपने मन की इन कोमल संवेदनशील भावनाओं को दिल में छिपा कर रखने में, इस दबीछिपी सी चाहत में, शायद उस के दिल को ज्यादा सुकून मिलता था.

कहते हैं अगर प्यार हो जाए तो उस का इजहार कर देना चाहिए. मगर क्या यह इतना आसान होता है और फिर दोस्ती में यह और भी ज्यादा मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह जो दिल है,  शीशे सा नाजुक होता है. जरा सी ठेस लगी नहीं, कि छन्न से टूट कर बिखर जाता है. इसीलिए अपने नाजुक दिल को मनामना कर दिल में प्रीत का ख्वाब संजोए पिनाकी ऋ तु की दोस्ती में ही खुश था, क्योंकि इस तरह वे दोनों जिंदादिली से मिलतेजुलते और हंसतेखेलते थे.

ऋतु भले ही पिनाकी के दिल की बात न समझ पाई हो पर उस की सहेली उमा ने यह बात भांप ली थी कि पिनाकी के लिए ऋ तु दोस्त से कहीं बढ़ कर है. उस ने ऋतु से कहा भी था, ‘‘तुझे पता है ऋतु, पिनाकी दीवाना है तेरा.’’

और यह सुन कर खूब हंसी थी वह और कहा था, ‘‘धत्त पगली, वह मेरा अच्छा दोस्त है. एक ऐसा दोस्त जो हर मुश्किल घड़ी में न जाने कैसे किसी सुपरमैन की तरह मेरी मदद के लिए पहुंच जाता है और फिर यह कहां लिखा है कि एक लड़का और एक लड़की दोस्त नहीं हो सकते, इस बात को दिल से निकाल दे, ऐसा कुछ नहीं है.’’

‘‘पर मैं ने कई बार उस की आंखों में तेरे लिए उमड़ते प्यार को देखा है, पगली चाहता है वह तुझे.’’

‘‘तेरा तो दिमाग खराब हो गया लगता है. उस की आंखें ही पढ़ती रहती है, कहीं तुझे ही तो उस से प्यार नहीं हो गया. कहे तो तेरी बात चलाएं.’’

‘‘तुझे तो समझाना ही बेकार है.’’

‘‘उमा, सच कहूं तो मुझे ये बातें बकवास लगती हैं. मुझे लगता है हमारे मातापिता हमारे लिए जो जीवनसाथी चुनते हैं, वही सही होता है. मैं तो अरेंज मैरिज में ज्यादा विश्वास रखती हूं, सात फेरों के बाद जीवनसाथी से जो प्यार होता है वही सच्चा प्यार है और वह प्यार कभी उम्र के साथ कम नहीं होता बल्कि और बढ़ता ही है.’’

उमा आंखें फाड़े ऋ तु को देख रही थी, ‘‘मैं ने सोचा नहीं था कि तू इतनी ज्ञानी है. धन्य हो, आप के चरण कहां हैं देवी.’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

इस के बाद फिर कभी उमा ने यह बात नहीं छेड़ी, पर उसे इस बात का एहसास जरूर था कि एक न एक दिन यह एकतरफा प्यार पिनाकी को तोड़ कर रख देगा. पर कुछ हालात होते ही ऐसे हैं जिन पर इंसान का बस नहीं चलता. और अब घर में भी ऋ तु की शादी के चर्चे चलने लगे थे, जिन्हें सुन कर वह मन ही मन बड़ी खुश होती थी कि चलो, अब कम से कम पढ़ाई से तो छुटकारा मिलेगा. सुंदर तो थी ही वह, इसीलिए रिश्तों की लाइन सी लग गई थी.

उस के दोनों भाई हंसते हुए चुटकी लेते थे, ‘‘तेरी तो लौटरी लग गई ऋ तु, लड़कों की लाइन लगी है तेरे रिश्ते के लिए. यह तो वही बात हुई, ‘एक अनार और सौ बीमार’?’’

‘‘मम्मी, देखो न भैया को,’’ यह कह कर वह शरमा जाती थी.

ऋतु और उमा बड़े गौर से कुछ तसवीरें देखने में मग्न थीं. ऋ तु तसवीरों को देखदेख कर टेबल पर रखती जा रही थी, फिर अचानक एक तसवीर पर उन दोनों सहेलियों को निगाहें थम गईं. दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा. ऋतु की आंखों की चमक साफसाफ बता रही थी कि उसे यह लड़का पसंद आ गया था. गोरा रंग, अच्छी कदकाठी और पहनावा ये सारी चीजें उस के शानदार व्यक्तित्व की झलकियां लग रही थीं. उमा ने भौंहें उचका कर इशारा किया तो ऋतु ने पलक झपका दी. उमा बोली, ‘‘तो ये हैं हमारे होने वाले जीजाजी,’’ उस ने तसवीर ऋ तु के हाथ से खींच ली और भागने लगी.

‘‘उमा की बच्ची, दे मुझे,’’ कहती ऋ तु उस के पीछे भागी.

पर उमा ने एक न सुनी, तसवीर ले जा कर ऋतु की मम्मी को दे दी और बोली, ‘‘यह लो आंटी, आप का होने वाला दामाद.’’

मां ने पहले तसवीर को, फिर ऋतु को देखा तो वह शरमा कर वहां से भाग गई. लड़का डाक्टर था और उस का परिवार भी काफी संपन्न व उच्च विचारों वाला था. एक लड़की जो भी गुण अपने पति में चाहती है वे सारे गुण उस के होने वाले पति कार्तिक में थे. और क्या चाहिए था उसे. उस की जिंदगी तो संवरने जा रही थी और वह यह सोच कर भी खुश थी कि अब शादी हो जाएगी तो पढ़ाई से पीछा छूटेगा.

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उस ने जितना पढ़ लिया, काफी था. पर लड़के वालों ने कहा कि उस का ग्रेजुएशन पूरा होने के बाद ही वे शादी करेंगे. ऋ तु की सहमति से रिश्ता तय हुआ और आननफानन सगाई की तारीख भी पक्की हो गई.

सगाई के दिन पिनाकी और उस का परिवार वहां मौजूद नहीं था. उस की दादी की बीमारी की खबर सुन कर वे लोग गांव चले गए थे. गांव से लौटने में उन्हें 15 दिन लग गए. वापस लौटा तो सब से पहले ऋ तु को ही देखना चाहता था पिनाकी. और ऋ तु भी उतावली थी अपने सब से प्यारे दोस्त को सगाई की अंगूठी दिखाने के लिए. जैसे ही उसे पता चला कि पिनाकी लौट आया है वह दौड़ीदौड़ी चली आई पिनाकी के घर. पिनाकी की नजर खिड़की के बाहर उस के घर की ओर ही लगी थी. जब उस ने ऋ तु को अपने घर की ओर आते देखा तो वह सोच रहा था आज कुछ भी हो जाए वह उसे अपने दिल की बात बता कर ही रहेगा. उसे क्या पता था कि उस की पीठ पीछे उस की दुनिया उजाड़ने की तैयारी हो चुकी है.

‘‘पिनाकी बाबू, किधर हो,’’ ऋतु शोर मचाती हुई अंदर दाखिल हुई.

‘‘हैलो ऋतु, आज खूब खुश लागछी तुमी?’’ पिनाकी की मां ने उस के चेहरे पर इतनी खुशी और चमक देख कर पूछा.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है आंटी, ये देखो,’’ ऐसा कह कर उस ने अपनी अंगूठी वाला हाथ आगे कर दिया और चहकते हुए अपनी सगाई का किस्सा सुनाने लगी.

पिनाकी पास खड़ा सब सुन रहा था. उसे देख कर ऋ तु उस के पास जा कर अपनी अंगूठी दिखाते हुए कहने लगी, ‘‘देख ना, कैसी है, है न सुंदर. अब ऐसा मुंह बना कर क्यों खड़ा है, अरे यार, तुम लोग गांव गए थे और मुहूर्त तो किसी का इंतजार नहीं करता न, बस इसीलिए, पर तू चिंता मत कर, तुझे पार्टी जरूर दूंगी.’’

पिनाकी मुंह फेर कर खड़ा था, शायद वह अपने आंसू छिपाना चाहता था. फिर वह वहां से चला गया. ऋ तु उसे आवाज लगाती रह गई.

‘‘अरे पिनाकी, सुन तो क्या हुआ,’’ ऋ तु उस की तरफ बढ़ते हुए बोली.

पर वह वापस नहीं आया और दोबारा उसे कभी नहीं मिला क्योंकि अगले दिन ही वह शहर छोड़ कर गांव चला गया. ऋ तु सोचती रह गई. ‘‘आखिर क्या गलती हुई उस से जो उस का प्यारा दोस्त उस से रूठ गया. उस की शादी हो गई और वह अपनी गृहस्थी में रम गई पर पिनाकी जैसे दोस्त को खो कर कई बार उस का दुखी मन पुकारा करता, ‘‘कहां हो तुम?’’

Valentine’s Special: उसके लिए- क्या प्रणव की हो पाई अपूर्वा

वह मुंह फेर कर अपूर्वा के सामने खड़ा था. अपूर्वा लाइब्रेरी में सैल्फ से अपनी पसंद की किताबें छांट रही थी. पैरों की आवाज से वह जान गई थी कि प्रणव है. तिरछी नजर से देख कर भी अपूर्वा ने अनदेखा किया. सपने में यह न सोचा था कि दिलफेंक आशिक किसी दिन इस तरह से आ सकता है. दोनों का यह प्यार परवान तो नहीं चढ़ा, पर दिलफेंकों के लिए जलन का सबब रहा. प्रणव तो अपूर्वा की सीरत और अदाओं पर ही क्या काबिलीयत पर भी फिदा था. रिसर्च पूरी होने तक पहुंचतेपहुंचते एक अपूर्वा ही उस के मन चढ़ी. मन चढ़ने के प्रस्ताव को उस के साथ 2 साल गुजारते भी उगल न सका.

अपूर्वा प्रणव की अच्छी सोच की अपनी सहेलियों के सामने कई बार तारीफ कर चुकी थी. मनचले और मसखरे भी प्रणव को छेड़ते, ‘अपूर्वा तो बनी ही आप के लिए है.’

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कुछ मनचले ऐसा कहते, ‘यह किसी और की हो भी कैसे सकती है? यह ‘बुक’ है, तो सिर्फ आप के वास्ते.’

कुछ कहते, ‘इसे तो कोई दिल वाला ही प्यार कर सकता है.’

अपूर्वा के सामने आने का फैसला भी प्रणव का एकदम निजी फैसला था. यह सब उस ने अपूर्वा के दिल की टोह लेने के लिए किया था कि वह उसे इस रूप में भी पसंद कर सकती है या नहीं. प्रणव ने बदन पर सफेद कपड़ा पहन रखा था और टांगों पर धोतीनुमा पटका बांधा था. पैरों में एक जोड़ी कपड़े के बूट थे. माथे पर टीका नहीं था. अपूर्वा रोज की तरह लाइब्रेरी में किताबें तलाशने में मगन थी.

प्रणव दबे पैर उस के बहुत करीब पहुंचा और धीमे से बोला, ‘‘मिस अपूर्वा, मुझे पहचाना क्या?’’ अपूर्वा थोड़ा तुनकते हुए बोली, ‘‘पहचाना क्यों नहीं…’’ फिर वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘इस रूप में जो हो.’

प्रणव ने कनैक्शन की गांठ चढ़ाने के मकसद से फिर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, मैं ने आप के पिताजी को अपनी कुछ कहानियों की किताबें आप के हाथ भिजवाई थीं. क्या आप ने उन्हें दे दी थीं?’’

‘‘जी हां, दे दी थीं,’’ वह बोली.

‘‘आप के पिताजी ने क्या उन्हें पढ़ा भी था?’’

‘‘जी हां, उन्होंने पढ़ी थीं,’’ अपूर्वा ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘तो क्या आप ने भी उन्हें पढ़ा था?’’

‘‘हां, मैं ने भी वे पढ़ी हैं,’’ किताबें पलटते व छांटते हुए अपूर्वा ने जवाब दिया और एक नजर अपने साथ खड़ी सहेली पर दौड़ाई.

सहेली टीना ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को यह कहते हुए रोका, ‘‘रसिक राज, उन्हें तो मैं ने भी चटकारे लेते गटक लिया था. लिखते तो आप अच्छा हो, यह मानना पड़ेगा. किसी लड़की को सस्ते में पटाने में तो आप माहिर हो. चौतरफा जकड़ रखी है मेरी सहेली अपूर्वा को आप ने अपने प्रेमपाश में.’’ प्रणव ने फिर हिम्मत जुटा कर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, क्या मैं उन किताबों की कहानियों में औरत पात्रों के मनोविज्ञान पर आप की राय ले सकता हूं? क्या मुझे आज थोड़ा वक्त दे सकती हैं?’’

अपूर्वा इस बार जलेकटे अंदाज में बोली, ‘‘आज तो मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं है. हां, कल आप से इस मुद्दे पर बात कर सकती हूं.’’

प्रणव टका सा जवाब पा कर उन्हीं पैरों लाइब्रेरी से बाहर आ गया. अगले कल का बिना इंतजार किए लंबा समय गुजर गया, साल गुजर गए. इस बीच बहुतकुछ बदला. अपूर्वा ने शादी रचा ली. सुनने में आया कि कोई एमबीबीएस डाक्टर था. खुद प्रोफैसर हो गई थी. बस…

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प्रणव ने सिर्फ शादी न की, बाकी बहुतकुछ किया. नौकरीचाकरी 3-4 साल. संतों का समागम बेहिसाब, महंताई पौने 4 साल. 65 साल का होने पर लकवे ने दायां हिस्सा मार दिया. लिखना भी छूट गया. नहीं छूटा तो अपूर्वा का खयाल.

लंगड़ातेलंगड़ाते भाई से टेर छेड़ता है अनेक बार. कहता है, ‘‘भाई साहब, वह थी ही अपूर्वा. जैसा काम, वैसा गुण. पढ़नेलिखने में अव्वल. गायन में निपुण, खेलकूद में अव्वल, एनसीसी की बैस्ट कैडेट, खूबसूरत. सब उस के दीवाने थे.

‘‘वह सच में प्रेम करने के काबिल थी. वह मुझ से 9 साल छोटी थी. मैं तो था अनाड़ी, फिर भी उस ने मुझे पसंद किया.’’

प्रणव का मन आज बदली हुई पोशाक में भी अपूर्वा के लिए तड़प रहा है. भटक रहा है. उसे लगता है कि अपूर्वा आज भी लाइब्रेरी की सैल्फ से किताबें तलाश रही है, छांट रही है. एनसीसी की परेड से लौट रही है. वह उसे चाय पिलाने के लिए कैंटीन में ले आया है. पहली बार पीले फूलदार सूट में देखी थी अपने छोटे भाई के साथ. रिसैप्शन पार्टी में उस ने सुरीला गीत गया था. श्रोता भौंचक्क थे. प्रणव ने कविता का पाठ किया था. इस के बाद पहली नजर में जो होता है, वह हुआ. कविताकहानियों की पोथियां तो आईं, पर रिसर्च पूरी नहीं हुई. वह अभी भी जारी है.

40-45 सालों के बाद भी ये सारे सीन कल की बात लगते हैं. बारबार दिलोदिमाग पर घूमते हैं. वह कल आज में नहीं बदल सकता, प्रणव यह बात अच्छी तरह जानता है. वह आज सिर्फ अपूर्वा की खैर मांगता है. उस की याद में किस्सेकहानियां गढ़ता है. उस की खुशहाली के गीत रचता है.

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अंत: क्या मंगल पांडे का अंत सिर्फ मौत रहा?

Short Story: गृहस्थी की डोर

लेखक- एन.के. सोमानी

मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.

मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.

जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.

शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.

रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.

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दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.

मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.

किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.

यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग  आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’

एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.

इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.

‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’

‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’

सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.

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मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं, ता

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