हवस की मारी : रेशमा और विजय की कहानी – भाग 1

‘‘श्यामाचरन, तुम मेरी दौलत देख कर हैरान रह जाओगे. मेरे पास सोनेचांदी के गहनों के अलावा बैंक में रुपया भरा पड़ा है. अगर मैं खुल कर खर्च करूं, तो भी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए कम न होगा. तुम मेरी हैसियत का मुकाबला नहीं कर सकोगे, क्योंकि तुम्हारी कोई हैसियत ही नहीं है.’’

श्यामाचरन सिर नीचा किए मन ही मन मुसकराता रहा. वह सोचने लगा, ‘विवेक राय अचानक ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं?’

‘‘श्यामाचरन, मैं चाहूं तो अपनी एकलौती बेटी रेशमा को सोनेचांदी के गहने से लाद कर किसी ऊंचे करोड़पति के यहां उस के लड़के से ब्याह दूं. लेकिन जानबूझ कर फटे बोरे में पैबंद लगा रहा हूं, क्योंकि तुम्हारा बेटा विजय मुझे पसंद आ गया है, जो अभी ग्रेजुएशन ही कर रहा है.

‘‘मेरी दूर तक पहुंच है. तुम्हारा बेटा जहां भी नौकरी करना चाहेगा, लगवा दूंगा. तुम तो उस की जिंदगीभर कोई मदद नहीं कर पाओगे. तुम जितना दहेज मांगोगे, उस से दोगुनातिगुना मिलेगा…’’

थोड़ी देर बाद कुछ सोच कर विवेक राय आगे बोले, ‘‘क्या सोचा है तुम ने श्यामाचरन? मेरी बेटी खूबसूरत है, पढ़ीलिखी है, जवान है. इस से बढ़ कर तुम्हारे बेटे को क्या चाहिए? ‘‘वैसे, मैं ने तुम्हारे बेटे को अभी तक देखा नहीं है. वह तो मेरा मुनीम राघव इतनी ज्यादा तारीफ करने लगा, इसलिए तुम को बुलाया.

‘‘मैं चाहूंगा कि 2-4 दिन बाद उसे यहां ले कर आओ. खुद मेरी बेटी को देखो और उसे भी दिखला दो. समझो, रिश्ता पक्का हो गया.’’ ‘‘आप बहुत बड़े आदमी हैं सेठजी.

गाजियाबाद के बड़े कारोबारियों में आप का नाम है, जैसा मैं ने सुना. आप की तारीफ करूंगा कि आप ने मेरे बेटे को देखे बिना ही रिश्ता पक्का करने का फैसला कर लिया. पर मुझे अपने बेटे और पत्नी से भी सलाहमशवरा करने का मौका दें, तो मेहरबानी होगी.’’

‘‘जाइए, लेकिन मना मत कीजिएगा. मेरी ओर से 2 हजार रुपए का नजराना लेते जाइए,’’ विजय राय कुटिल हंसी हंस दिए. बिंदकी गांव पहुंच कर श्यामाचरन ने विवेक राय की लच्छेदार बातें अपनी पत्नी सत्यवती को सुनाईं. वह बहुत खुश हुई, मानो उस के छोटे से मामूली मकान में पैसों की बरसात अचानक होने वाली हो.

जब सत्यवती ने अपने बेटे विजय के मन को टटोलना चाहा, तो वह बिगड़ गया. ‘‘पैसे के लालच ने आप को इतना मजबूर कर दिया कि आप मेरी पढ़ाई बंद कराने पर उतारू हो गए. पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी जो कमाई होगी, उस पर पूरा हक आप का ही तो होगा.

आप के लिए जल्दी दुलहन ला कर मैं अपना भविष्य खराब नहीं करना चाहूंगा,’’ विजय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा.

‘‘इतने पैसे वाले आदमी की एकलौती बेटी तुम्हें ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगी. तुम मुझे सौतेली मां समझते रहो, लेकिन मैं तो तुम्हें अपने छोटे लड़के राजू और बेटी लीला से भी ज्यादा समझती हूं.

‘‘तुम्हारा गरीब बाप मुझे एक अच्छी साड़ी नहीं खरीद सका, सोने की जंजीर नहीं दे सका. खाने के लाले पड़े रहते हैं. तुम्हारी पढ़ाई में ही सारा पैसा खर्च कर देता रहा है. कभी सोचा है कि मैं घर कैसे चला रही हूं. अमीर की बेटी यहां आ कर सोना बरसाएगी, तो सभी का भला हो जाएगा,’’ सत्यवती ने विजय को समझाया.

श्यामाचरन की पहली औरत मर चुकी थी. उस ने दूसरी शादी सत्यवती से रचाई थी, जिस से 2 बच्चे हुए थे. ‘‘बेटा, एक बार चल कर उस लड़की को देख तो लो. पसंद आए, तो हां कर देना.

‘‘मैं विवेक राय के यहां रिश्ता मांगने नहीं गया था, बल्कि उन्होंने खुद बुलाया था. अगर उन की लड़की हमारी बहू बनने लायक है, तो घर में आने वाली लक्ष्मी को ठुकराया नहीं जाता,’’ श्यामाचरन ने अपने बेटे विजय को समझाते हुए कहा. ‘‘आप लोग समझते क्यों नहीं?

मेरी पढ़ाई रुक जाएगी, तब क्या होगा. आजकल नौकरी भी इतनी जल्दी नहीं मिलती. आप को धनदौलत मिली, तो कितने दिन तक उसे इस्तेमाल कर पाएंगे? हर मांबाप लड़की को अपने घर से जल्दी निकालना चाहते हैं, इसलिए हम गरीब लोगों के पल्ले बांध कर वे भी फुरसत पा लेना चाहते होंगे.’’

‘‘उन के पास काफी पैसा है. अकेली लड़की है. सबकुछ तुम्हें ही मिलेगा, जिंदगीभर मौज से रहना.’’ ‘‘शादी के बाद अगर कल को उन्होंने मुझे घरजमाई बना कर रखना चाहा, तो क्या आप उम्मीद करते हैं कि उन का पैसा यहां पहुंच पाएगा? मुझे उन के यहां गुलाम बन कर रहना पड़ेगा, जो मैं कभी पसंद नहीं करूंगा.’’

‘‘ये सब बातें छोड़ो. ऐसा कुछ नहीं होगा. वे तुम्हारी तारीफ सुन कर, फोटो देखते ही शादी करने को तैयार हो गए.’’ ‘‘आगे उन की क्या मंसा है आप नहीं जानते. कोई लड़की वाला आज के जमाने में इस तरह अपनी बेटी किसी गरीब घराने में देने को तैयार नहीं हो जाता. मुमकिन है, इस के पीछे उन की कोई चाल हो.

‘‘शायद लड़की बुरे चरित्र की हो, जिसे जल्दी से जल्दी घर से निकालना चाहते हों. आप को पहले उन सब बातों का पता लगा लेना चाहिए.’’ ‘‘बेटा, मैं सब समझता हूं. विवेक राय मुंहमांगा दहेज देंगे, ऐसा रिश्ता मैं मना नहीं कर सकता.’’

‘‘आप जिद करेंगे, तो मैं इस घर को छोड़ कर कहीं और चला जाऊंगा,’’ गुस्से में विजय बोला. ‘‘तो तुम भी कान खोल कर सुन लो. अगर तुम ने ऐसा किया, तो मैं भी आत्महत्या कर लूंगा,’’ कहते हुए श्यामाचरन रोने लगे.

आखिरकार विजय को झुकना पड़ा. गाजियाबाद में विजय अपने पिता के साथ जा कर विवेक राय की बेटी रेशमा को देखने के लिए राजी हो गया. सच में श्यामाचरन पैसों का लालची था. उस ने रेशमा के बारे में किसी के द्वारा पूरी जानकारी हासिल करना जरूरी नहीं समझा.

सत्यवती ने भी अपने सौतेले बेटे विजय के भविष्य के बारे में सोचना जरूरी नहीं समझा. वह तो चाहती थी कि जल्द से जल्द उस के यहां छप्पर फाड़ कर रुपया बरसे, लड़की जैसी भी हो, उस से सरोकार नहीं. फिर भी उस के मन में शंका बनी थी कि बिना किसी ऐब के एक रईस अपनी बेटी को इतनी जल्दी गरीब घराने में शादी के लिए दबाव क्यों डालने लगा था?

फिर उस ने सोचा, उसे लड़की से क्या लेनादेना, उसे तो गहने, धनदौलत से मतलब रहेगा, जिसे पा कर वह खुद राज करेगी. विवेक राय ने श्यामाचरन को यह भी बतला दिया था कि उन के पास केवल दौलत ही नहीं, बल्कि सत्ता की ताकत भी है. कई बड़े सरकारी अफसर, नेता, मंत्री और विधायकों से भी याराना है, जिस की वजह से उस का शहर में दबदबा है.

उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया कि विजय को दामाद बनाते ही उसे अच्छी नौकरी दिलवा देंगे. विवेक राय चरित्रहीन था. उस ने 4 शादियां की थीं. पहली पत्नी से रेशमा हुई थी. जब रेशमा 4 साल की हुई, तो उस की मां मर गई. उस के बाद धीरेधीरे विवेक राय ने 3 शादियां और की थीं. पर वे तीनों ही संदिग्ध हालात में मर गई थीं.

रेशमा को उन तीनों की मौत के बारे में भनक थी, पर जान कर भी वह अनजान बनी रही और दब कर रहने की आदी हो चुकी थी. विवेक राय की सब से बड़ी कमजोरी बाजारू औरतें और शराब की लत थी. जब विवेक राय पर नशे का जुनून सवार हो जाता, तो वे भूखे भेडि़ए की तरह औरत पर टूट पड़ते और दरिंदे की तरह रौंद डालते.

विजय ने रेशमा को देखा. वह बहुत खूबसूरत थी. सजा कर बापबेटे के सामने ला कर बैठा दी गई थी. गले में मोतियों की माला, नाक में हीरे की नथ, बालों में जूही के फूल. उस खूबसूरती को देख कर विजय ठगा सा रह गया. रेशमा ने भी अपनी चितचोर निगाहों से विजय को देखा. वह रेशमा के मन को भा गया. लेकिन एक बार भी उस के होंठों पर मुसकराहट नहीं आई, जैसे वह किन्हीं खयालों में खोई थी.

विजय के कुछ पूछने पर सिर झुका देती, मानो उस में लाजशर्म हो. विवेक राय ने दोनों की भावनाओं को समझा. नाश्तापानी होने के बाद श्यामाचरन और विजय को एक महीने के अंदर रेशमा से शादी करने को विवेक राय मजबूर करते रहे कि वे लोग बरात ले कर गाजियाबाद में फलां तारीख की अमुक जगह पर पहुंच जाएं.

उसी समय विवेक राय ने 50 हजार रुपए श्यामाचरन के हाथ में नजराने की रस्म अदा कर दी और भरोसा दिलाया कि उन्हें मुंहमांगी कीमत मिलेगी. घर लौटने पर विजय ने शादी करने से मना कर दिया, लेकिन पिता की धमकी और जोर डालने पर उसे मजबूर होना पड़ा.

तय समय पर कुछ लोगों के साथ श्यामाचरन अपने बेटे विजय को दूल्हा बना कर बरात गाजियाबाद ले जाना पड़ा. वहां आलीशान होटल में उन लोगों के ठहरने का इंतजाम किया गया था. बरात की शोभा बढ़ाने के लिए उन्हीं की ओर से इंतजाम किया गया था, क्योंकि विवेक राय शहर के रुतबेदार शख्स थे. देखने वाले यह न समझें कि बेटी का रिश्ता ऐसेवैसे घर में जोड़ा था. बरात धूमधाम से उन के घर के पास पहुंची.

दुलहन की तरह उन की बड़ी सी कोठी को बिजली की तमाम रोशनी द्वारा सजाया गया था. शहनाइयों की आवाज गूंज रही थी, बड़ेबड़े लोग, नातेरिश्तेदार, विधायक, मंत्री और शहर के जानेमाने लोग वहां मौजूद थे. रेशमा को कमरे के अंदर बैठाया गया था.

वह लाल सुर्ख लहंगे, दुपट्टे और गहनों से सजाई गई थी. सहेलियां तारीफ करते छेड़छाड़ कर रही थीं, पर वह शांत और गंभीर थी. शहनाई की आवाज मानो उस के दिल पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे.

शादी के बाद तीसरे दिन बरात वापस लौटी. कीमती तोहफे, घरेलू सामान और दूसरी चीजों से कई बक्से भरे थे, जिसे देख कर नातेरिश्तेदार खुशी से सराबोर हो गए.

बहू का भव्य स्वागत किया गया. रातभर के जागे दूल्हादुलहन थके थे, इसलिए दोनों को अलगअलग कमरों में आराम करने के लिए घरेलू रस्मअदाई के बाद छोड़ दिया गया. शाम तक दूसरे रिश्तेदार भी चले गए.

 

पीछा करता डर : पीठ में छुरा भाग – 1

नंदन माथुर और भानु प्रकाश दोनों बड़े बिजनेसमैन थे. साथ खानेपीने और ऐश करने वाले. भानु विदेश गया तो एक जैसे 2 मोबाइल ले आया. एक अपने लिए दूसरा दोस्त के लिए. लेकिन नंदन ने उस का तोहफा नहीं लिया. फिर भानु ने उसी मोबाइल को हथियार बना कर नंदन को ऐसा नाच नचाया कि…

उस रात सर्दी कुछ ज्यादा ही थी. लेकिन आम लोगों के लिए, अमीरों के लिए नहीं. अमीरों की वह ऐशगाह भी शीतलहर से महरूम थी, जिस का रूम नंबर 207 शराब और शबाब की मिलीजुली गंध से महक रहा था.

इस कमरे में नंदन माथुर ठहरे थे. पेशे से एक्सपोर्टर. लाखों में खेलने वाले इज्जतदार इंसान.

रात के पौने 9 बजे थे. कैनवास शूज से गैलरी के मखमली कालीन को रौंदता हुआ एक व्यक्ति रूम नंबर 207 के सामने पहुंचा. आत्मविश्वास से भरपूर वह व्यक्ति कीमती सूट पहने था. उस ने पहले ब्रासप्लेट पर लिखे नंबर पर नजर डाली और फिर विचित्र सा मुंह बनाते हुए डोरबेल का बटन दबा दिया.

दरवाजा खुलने में 5 मिनट लगे. कमरे के अंदर लैंप शेड की हलकी सी रोशनी थी, जिस में दरवाजे से अंदर का पूरा दृश्य देख पाना संभव नहीं था1 अलबत्ता कमरे के बाहर गैलरी में पर्याप्त प्रकाश था.

नंदन माथुर सर्दी के बावजूद मात्र बनियान व लुंगी पहने थे. उन के बाल भीगे थे और ऐसा लगता था, जैसे बाथरूम से निकल कर आ रहे हों. दरवाजे पर खड़े व्यक्ति को देख नंदन का समूचा बदन कंपकंपा कर रह गया. उन्होंने घबराए स्वर में कहा, ‘‘भानु तुम! इस वक्त…’’

‘‘ऐसे आश्चर्य से क्या देख रहे हो? मैं भूत थोड़े ही हूं,’’ सूटवाला कमरे में प्रवेश कते हुए बोला, ‘‘मैं भी इसी होटल में ठहरा हूं. कमरा नंबर 211 में. अकेला बोर हो रहा था, सो चला आया.’’

‘‘वो तो ठीक है, लेकिन…’’ नंदन माथुर दरवाजा खुला छोड़ कर भानु के पीछेपीछे चलते हुए बोले.

‘‘लेकिन वेकिन बाद में करना, पहले दरवाजा बंद कर के कपड़े पहन लो. सर्दी बहुत तेज है. सर्दी में पैसे और बदन की गरमी भी काम नहीं करती दोस्त,’’ भानु कुर्सी पर बैठते हुए व्यंग्य से बोला, ‘‘इतनी ठंड में नहा रहे थे. लगता है, पैसे की गरमी कुछ ज्यादा ही है तुम्हे.’’

नंदन की टांगे थरथरा रही थीं. कुर्सी पर पड़ा तौलिया उठा कर गीले बाल पोंछते हुए उन्होंने सशंकित स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहां ठहरा हूं.’’

‘‘चाहने वाले कयामत की नजर रखते है दोस्त,’’ भानु ने उठ कर दरवाजे की ओर बढ़ते हुए व्यंग्य किया, ‘‘आया हूं, तो थोड़ी देर बैठूंगा भी. तुम कपड़े पहन लो. फिर आराम से सवाल करना.’’

भानु ने दरवाजा बंद किया, तो नंदन माथुर का दिल धकधक करने लगा. नंदन चाहते थे कि भानु किसी भी तरह चला जाए, जबकि भानु जाने के मूड में कतई नहीं था. मजबूरी में नंदन ने गर्म शाल लपेटा और भानु के सामने आ बैठे. उन के चेहरे पर अभी भी हवाइयां उड़ रही थीं. बैठते ही उन्होंने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘‘तुम्हें पता कैसे चला, मैं यहां ठहरा हूं?’’

‘‘इत्तफाक ही समझो,’’ भानु ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘वरना तुम ने किलेबंदी तो बड़ी मजबूत की थी, अशरफ खान साहब उर्फ नंदन माथुर’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब कुछ नहीं यार! मैं ने पार्किंग में तुम्हारी गाड़ी खड़ी देखी तो समझा, तुम ठहरे होगे. रिसेप्शन से पता किया तो रजिस्टर में तुम्हारा नाम नहीं था. मैं ने सोचा 2 बजे तक तो तुम औफिस में थे. उस के बाद ही आए होगे. यहां 4-5 बजे पहुंचे होगे.

मैं ने रिसेप्शनिस्ट से 4 बजे के बाद आने वाले कस्टमर्स के बारे में पता किया तो पता चला, केवल एक मुस्लिम दंपत्ति आए हैं, जो कमरा नंबर 207 में ठहरे हैं. मैं सोच कर तो यही आया था कि इस कमरे में अशरफ खान और नाजिया खान मिलेंगे, लेकिन दरवाजा खुला तो नजर आए तुम… तुमने और भाभी ने धर्म परिवर्तन कब किया नंदन?’’

नंदन माथुर का चेहरा सफेद पड़ गया. जवाब देते नहीं बना. उन्हें चुप देख भानु इधरउधर ताकझांक करते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन भाभी हैं कहां? कहीं बाथरूम में तो नहीं हैं? बाथरूम में हों तो बाहर बुला लो. ठंड बहुत है, कुल्फी बन जाएंगी.’’

‘‘फिलहाल तुम जाओ भानु. प्लीज डोंट डिस्टर्ब मी. हम सुबह बात करेंगे.’’ नंदन माथुर ने कहा तो भानु पैर पर पैर रख कर कुरसी पर आराम से बैठते हुए बोला, ‘‘मैं जानता हूं नंदन. बाथरूम में भाभी नहीं, बल्कि वो है, जिस के लिए तुम ने अपनी पहचान तक बदल डाली. फिर भी इतने रूखेपन से मुझे जाने को कह रहे हो. यह जानते हुए भी कि मैं बाहर गया तो तुम्हारा राज भी बाहर चला जाएगा.’’

‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ नंदन ने आवाज थोड़ी तीखी करने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा.

भानु मुस्कराते हुए बोला, ‘‘इस राज को शराब के गिलास में डुबो कर गले से नीचे उतार लेना चाहता हूं… तुम्हारी इज्जत की खातिर. तुम्हारे परिवार की खातिर. बस इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहता मैं.’’

‘‘यह मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं तुम्हें धक्के दे कर भी बाहर निकाल सकता हूं.’’ नंदन ने गुस्से में खड़े होते हुए कहा, तो भानु उसे बैठने का इशारा करते हुए धीरे से बोला, ‘‘धीर गंभीर व्यक्ति को गुस्सा नहीं करना चाहिए. जरा सोचो, तुम ने मुझे धक्के दे कर निकाला तो मैं चीखूंगा.

‘‘चीखूंगा तो वेटर आएंगे. मैंनेजर आएगा. कस्टमर आएंगे. जब उन्हें पता चलेगा कि मैं तुम्हारे कमरे में जबरन घुसा था तो वे पुलिस को बुलाएंगे.

‘‘पुलिस मुझ से पूछताछ करेगी. जाहिर है, मैं अपने बचाव के लिए नंदन माथुर उर्फ अशरफ खान की पूरी कहानी बता दूंगा. पुलिस से बात पत्रकारों तक पहुंचेगी और फिर अखबारों के जरीए यह खबर सुबह तुम से पहले तुम्हारे घर पहुंच जाएगी. खबर होगी एक्सपोर्टर नंदन माथुर होटल में अय्याशी करते मिला. मेरा ख्याल है, तुम ऐसा कतई नहीं चाहोगे.’’

पलभर में ही नंदन की सारी अकड़ ढीली पड़ गई. उन्होंने बैठते हुए थकी सी आवाज में पूछा, ‘‘क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘सिर्फ दो पैग ह्विस्की पीनी है, तुम्हारे और उस के साथ.’’

‘‘ह्विस्की नहीं है मेरे पास.’’ नंदन ने रूखे स्वर में कहा, तो भानु इधरउधर तांकझांक करते हुए बोला, ‘‘क्यों झूठ बोलते हो यार. पूरा कमरा तो महक रहा है.’’

तेजतर्रार तिजोरी : रघुवीर ने अपनी बेटी का नाम तिजोरी क्यों रखा – भाग 1

बचपन में उस गेहुंए रंग की देहाती बाला का नाम तिजोरी रख दिया गया था. समय के साथसाथ वह निखरती चली गई और अब वह 16 सावन देखते हुए इंटर पास करने के बाद अपने पिता रघुवीर यादव का कामकाज देखती है. उस का तिजोरी नाम इसलिए रख दिया गया था कि उस के खेतिहर किसान पिता रघुवीर यादव ने चोरीडकैती के डर से उस के जन्म होने वाले दिन ही लोहे की मजबूत तिजोरी खरीद कर अपने घर के बीच वाले कमरे की मोटी दीवार में इतनी सफाई से चिनवाई थी कि दीवार देख कर कोई समझ नहीं सकता था कि उस दीवार में तिजोरी भी हो सकती है.

अनाज उपजाने के साथसाथ रघुवीर यादव की मंडी में आढ़त भी थी और छोटे  किसानों की फसलों को कम दामों में खरीद कर ऊंचे दामों पर बेचने का हुनर उन्हें मालूम था. उन का बेटा महेश, तिजोरी से 3 साल छोटा था. पढ़ाई से ज्यादा महेश का मन गुल्लीडंडा और कंचे खेलने में लगता था. पेड़ों पर चढ़ कर आम तोड़ने में भी उसे मजा आता था. इस के उलट तिजोरी को तीसरी जमात में ही 20 तक के सारे पहाड़े याद हो गए थे. 12वीं जमात तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि उस ने गणित में 100 में से 99 नंबर न पाए हों और सभी विद्यार्थियों को पछाड़ कर वह फर्स्ट डिवीजन न आई हो.

यही वजह थी कि दिनभर की सारी कमाई का हिसाब रघुवीर यादव ने 10वीं पास करते ही तिजोरी को सौंप दिया था. तिजोरी को उस लोहे की तिजोरी के

तीनों खानों की खबर थी कि कहां क्या रखा है.

रकम बढ़ी, तो रघुवीर यादव ने जेवरों को गिरवी रखने का काम भी शुरू कर दिया था और इस का लेखाजोखा भी तिजोरी के पास था.

12वीं जमात के बाद उस गांव में डिगरी कालेज खुलने की बात तो कई बार उठी, पर अभी तक खुल नहीं पाया था और इस के चलते तिजोरी की आगे की पढ़ाई न हो सकी.

घर के काम में मां का हाथ बंटाने के साथ खेतखलिहान और हाट बाजार का जिम्मा भी तिजोरी के पास था. पहले तो वह अकेली ही पूरे गांव में अपने काम से घूमती रहती थी, फिर जब महेश  बड़ा हुआ तो उस को साथ ले कर  अपने खेतों में गुल्लीडंडा खेलने या महेश के संगीसाथियों के साथ खेलने निकल जाती.

तिजोरी की हरकतें देख कर कोई अनजान आदमी सोच भी नहीं सकता था कि वह 5 फुट, 2 इंच की लड़की 12वीं जमात पास कर चुकी है.

उन्हीं दिनों गांव में नए पावर हाउस बनाने और ऊंचे खंभे गाड़ कर उन पर बिजली के तार कसने का काम करने के लिए कौंट्रैक्टर सुनील के साथ शहर से कुछ अनुभवी व हलकेफुलके तकनीकी काम जानने वाले मजदूरों ने उस गांव में डेरा डाला.

वे सभी हाईस्कूल या इंटर तो पास थे ही और बिजली महकमे द्वारा ट्रेंड भी थे, पर नौकरी पक्की नहीं थी. एक दिन तिजोरी महेश के साथ गेहूं की कट चुकी फसल को बोरियों में भरवा कर खेत के पास ही बने अपने पक्के गोदाम में रखवाने घर से निकल कर जा रही थी, तो रास्ते में पड़ने वाले आम के पेड़ के पास रुक गई.

2 मोटीमोटी चोटियां और लंबी सी 2 जेब वाली फ्रौक पहने तिजोरी ने पहले तो 3-4 बार उछल कर सड़क की तरफ वाली पेड़ की झुकी डालियों से आम तोड़ने की कोशिश की और जब उसे लगा कि उस की पहुंच आमों तक नहीं हो पा रही है, तो उस ने महेश को पेड़ पर चढ़ा दिया.

ऊपर से जब महेश ने आम तोड़तोड़ कर नीचे फेंकने शुरू किए तो हर फेंके हुए आम को तिजोरी ने ऐसे कैच किया मानो कोई क्रिकेट का मैच चल रहा हो और उस से कहीं कोई कैच न छूट जाए.

बिजली के खंभों और तारों को एक ट्रैक्टरट्रौली में लदवा कर उस पेड़ के पास से गुजरते हुए असिस्टैंट श्रीकांत और दूसरे मजदूरों के साथसाथ जब कौंट्रैक्टर सुनील की नजर तिजोरी पर पड़ी, तो उस ने ट्रैक्टर को वहीं रुकवा दिया और गौर से उस के गंवारू पहनावे को देख कर बोला, ‘‘ऐ छोकरी, आज जितने आम तोड़ने हैं तोड़ ले, कल तो यहां पर इस पेड़ को काट कर खंभा गाड़ दिया जाएगा.’’

महेश को पेड़ से उतरने का इशारा करते हुए तिजोरी एकदम से सुनील की तरफ घूमी और बोली, ‘‘मेरा नाम छोकरी नहीं तिजोरी है, तिजोरी समझे. और बिजली के खंभे गाड़ने आए हो, तो सड़क के किनारे गाड़ोगे या किसी के खेत में घुस जाओगे.’’

‘‘अब यह पेड़ बीच में आ रहा है, तो इसे तो रास्ते से हटाना होगा न,’’ सुनील ने समझाना चाहा, तो तिजोरी बोली, ‘‘तुम गौर से देखो, तो पेड़ सड़क से 5 मीटर दूर है… हां, आमों से लदी 5-7 डालियां जरूर सड़क के पास तक आ रही हैं तो तुम पूरा पेड़ कैसे काट दोगे. मैं तो ऐसा नहीं होने दूंगी.’’

इतना कहते हुए तिजोरी ने आखिरी कैच करे कच्चे आम को भी अपने फ्रौक की जेब में ठूंसा और महेश के साथ अपने खेत की तरफ दौड़ पड़ी.

तिजोरी के जाते ही श्रीकांत बोला, ‘‘सुनील सर, वह छोकरी कह तो सही रही थी और मैं समझता हूं कि इस आम के पेड़ का मोटा तना 5 मीटर दूर ही होगा और हमारे खंभे गाड़ने में आड़े नहीं आएगा.’’

सुनील तिजोरी को दूर तक जाते हुए देखता रहा, फिर वह दोबारा ट्रैक्टर पर चढ़ कर उसी दिशा में बढ़ गया, जिधर तिजोरी गई थी और जहां बिजली महकमे ने अपना स्टोर बना रखा था.

एक बड़े गोदाम की ऊंची दीवार से सटी खाली पड़ी सरकारी जमीन पर कांटे वाले तारों से एक खुली जगह को चौकोर घेर कर खुले में टैंपरेरी स्टोर बना लिया गया था.

बिजली के खंभे, गोलाई में लिपटे मोटे एलुमिनियम तार के बड़े गुच्छे, लोहे के एंगल व चीनी मिट्टी के बने कटावदार हैंगर वगैरह सामान का वहां स्टौक किया जा रहा था. पास में ही इस गांव से दूसरे गांव को जाने वाली मेन सड़क थी.

खेतों के बीच से होती हुई पीछे के गांव से आने वाले हाई टैंशन 440 वोल्ट की बिजली को पहले तो गांव में सप्लाई के लायक बनाने के लिए वहीं पास में बड़ा ट्रांसफार्मर लगा कर पावर हाउस बनाना था और उस पावर हाउस से बिजली के खंभे की मदद से उस गांव के बचे हुए बहुत सारे घरों तक बिजली पहुंचानी थी.

रघुवीर यादव के खेतों की सीमा भी स्टोर के पास आ कर मिलती थी. तिजोरी महेश के साथ जब मेन रास्ता छोड़ कर मेंड़ों पर चलती हुई अपने खेतों में पहुंची, तो मजदूर गेहूं की फसल काट कर गट्ठर बनाबना कर वहां पहुंचा रहे थे, जहां बालियों से दाने अलग और भूसा अलग किया जा रहा था.

तिजोरी को देख कर कुछ अधेड़ मजदूर चिल्लाए, ‘वह देखो मालकिन आ गईं.’

महेश के साथ कच्चे आमों की खटास का मजा लेती हुई तिजोरी एक मजदूर के पास आ कर रुक गई. वह बोली. ‘‘काका, यह तुम्हारे साथ मुस्टंडा सा लड़का कौन है? इसे मैं आज पहली बार देख रही हूं.’’

‘‘बिटिया, आज से मेरी जगह यही काम करेगा. यह मेरे ही गांव का है शंभू. मेरा भतीजा लगता है. जवान है और तेजी से काम कर लेगा. मुझे एक हफ्ते के लिए अपनी पत्नी को ले कर ससुराल जाना है. फसल काटने का समय है. ऐसे में एकएक दिन की अहमियत मैं समझता हूं.’’

शंभू लगातार उसे अजीब सी निगाहों से घूरे जा रहा था. तिजोरी को उस का यों घूरना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा. वह बोली, ‘‘ठीक है काका, तुम जाओ, लेकिन अपने भतीजे को भी साथ ले जाओ. मुझे जरूरत पड़ेगी तो दूसरा इंतजाम कर लूंगी.’’

इतना कह कर दूसरे मजदूरों को तेज हाथ चलाने का निर्देश देते हुए तिजोरी आगे बढ़ गई. अगले खेत के गेहूं गट्ठर, बाली से दाना व भूसा निकलने वाली मशीन तक पहुंच चुके थे. काका उसी समय शंभू को ले कर चले गए. वे जानते थे कि तिजोरी बिटिया की इच्छा के बिना यहां कोई मजदूरी नहीं कर सकता.

शंभू काका के साथ वापस जाते हुए पीछे मुड़मुड़ कर दूर जाती तिजोरी को देखता रहा, पर वह अपनी ही धुन में कच्चे आमों का स्वाद लेती हुई अगले खेतों की तरफ बढ़ती जा रही थी.

तिजोरी ने चारों खेतों और एक खेत के कोने में चलती मशीन को देख कर समझ लिया कि काम ठीक से चल रहा है, लेकिन अभी खेतों को बिलकुल साफ होने और गेहूं व भूसे की बोरियों को ढंग से गोदाम पहुंचा कर रखने में कम से कम 2 से 3 दिन और लगेंगे.

निश्चिंत हो कर तिजोरी महेश से बोली, ‘‘तू यहीं रुक. मैं गोदाम से पानी पी कर आती हूं और लौटते में गुल्लीडंडा भी लेती आऊंगी. तू तब तक उस

खाली खेत में छोटा गड्ढा खोद कर गुच्ची बना कर रख, मैं अभी आई,’’ कहते हुए तिजोरी अपने खेतों के बीच होते हुए उस कोने में पहुंच गई, जहां एक पक्का गोदाम बना था. सवेरे साढ़े 10 बज चुके थे.

अपनी फ्रौक की जेब से चाभी का गुच्छा निकाल कर तिजोरी ने गोदाम के शटर के दोनों ओर लगे ताले खोल कर शटर उठाना शुरू ही किया था कि उस की नजर गोदाम की दीवार से सटा कर कांटेदार तारों से घेर कर बनाए हुए बिजली महकमे के उस स्टोर पर पड़ी, जहां श्रीकांत स्टौक चैक कर रहा था और कौंट्रैक्टर सुनील अपने जरूरी रजिस्टर के पन्ने पलट रहा था.

आधा शटर ऊपर उठा कर तिजोरी रुक गई, फिर गोदाम की शटर वाली दीवार के कोने पर जा कर उस ने उस खुले स्टोर में झांका.

श्रीकांत की नजर जब तिजोरी पर पड़ी,तो उस ने अपने बौस को इशारा किया. चूंकि सुनील की पीठ तिजोरी की तरफ थी, इसलिए इशारा पा कर वह पलटा और उसे देख कर दंग रह गया.

अपने रजिस्टर वहीं रख कर और श्रीकांत को स्टौक चैक करते रहने की कह कर सुनील तिजोरी के करीब आया और एक अजीब सी उमंग में भर कर बोला, ‘‘तुम यहां…?’’

‘‘हां, यह जिस दीवार से सटा कर तुम ने अपना स्टोर बनाया है, यह गोदाम मेरे पिताजी का है और इस के आसपास के चारों खेत भी हमारे ही हैं.’’

‘‘पर, तुम यहां क्या करने आई हो?’’

‘‘मैं तो गोदाम से अपना गुल्लीडंडा निकालने आई थी, फिर प्यास भी लग रही थी तो सोचा कि पानी भी पी आऊं.’’

‘‘तो तुम्हारे गोदाम में प्यास बुझाने का भी इंतजाम है?’’ कहने के साथसाथ सुनील उस की देह को घूरने लगा.

तिजोरी बोली, ‘‘लगता है, शादी नहीं हुई अभी तक. जिस प्यास को तुम बुझाना चाह रहे हो उस के लिए तुम्हें कोई दूसरा दरवाजा खटखटाना पड़ेगा.’’

सुनील तिजोरी के शब्द सुन कर चौंक गया. गांव की यह गंवार सी दिखने वाली लड़की को एक पल भी नहीं लगा उस का इरादा समझने में.

सुनील ने तो सुन रखा था कि गांव की भोलीभाली लड़कियों को तो अपने प्रेमजाल में फंसा लेना बहुत आसान  होता है.

खुल गई आंखें : रवि के सामने आई कैसी हकीकत- भाग 1

दफ्तर से अपने बड़े सरकारी बंगले पर जाते हुए उस दिन अचानक एक ट्रक ने रवि की कार को जोरदार टक्कर मार दी थी. कार का अगला हिस्सा बुरी तरह से टूटफूट गया था.

खून से लथपथ रवि कार के अंदर ही फंसा रह गया था. वह काफी समय तक बेहोशी की हालत में कार के अंदर ही रहा, पर उस की जान बचाने वाला कोई भी नहीं था.

हां, उस के आसपास तमाशबीनों की भीड़ जरूर लग गई थी. सभी एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे, पर किसी में उसे अस्पताल ले जाने या पुलिस को बुलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

भला हो रवि के दफ्तर के चपरासी रामदीन का, जो भीड़ को देख कर उसे चीरता हुआ रवि के पास तक पहुंच गया था. बाद में उसी ने पास के एसटीडी बूथ से 100 नंबर पर फोन कर पुलिस को बुला लिया था.

जब तक पुलिस रवि को ले कर पास के नर्सिंगहोम में पहुंची तब तक उस के शरीर से काफी खून बह चुका था. रामदीन काफी समय तक अस्पताल में ही रहा था. उस ने फोन कर के दफ्तर से सुपरिंटैंडैंट राकेश को भी बुला लिया था जो वहीं पास में रहते थे.

रवि के एक रिश्तेदार भी सूचना पा कर अस्पताल पहुंच गए थे. गांव दूर होने व बूढ़े मांबाप की हालत को ध्यान में रखते हुए किसी ने उस के घर सूचना भेजना उचित नहीं समझा था. वैसे भी उस के गांव में संचार का कोई खास साधन नहीं था. इमर्जैंसी में तार भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं होता था.

रवि की पत्नी गुंजा अपने सासससुर व देवर रघु के साथ गांव में ही रहती थी. वह 2 साल पहले ही गौना करा कर अपनी ससुराल आई थी. रवि के साथ उस की शादी बचपन में तभी हो गई थी, जब वे दोनों 10 साल की उम्र भी पार नहीं कर पाए थे.

गांव में रहने के चलते गुंजा की पढ़ाई 8वीं जमात के बाद ही छूट गई थी पर रवि 5वीं जमात पास कर के अपने चाचा के पास शहर में ही पढ़ने आ गया था. उस ने अच्छीखासी पढ़ाई कर ली थी. शहर में पढ़ाई करने के चलते उस का मन चंचल हो गया था. वैसे भी वह गुंजा से हर मामले में बेहतर था.

शादी के समय तो रवि को कोई समझ नहीं थी, पर जब गौने के बाद विदा हो कर गुंजा उस के घर आई थी और पहली बार जवान और भरपूर नजरों से उस ने उसे देखा था तभी से उस का मन उस से उचट गया था.

गुंजा कामकाज में भी उतनी माहिर नहीं थी जितनी रवि ने अपनी पत्नी से उम्मीद की थी. यहां तक कि सुहागरात के दिन भी वह गुंजा से दूर ही रहा था.

गुंजा गांव की पलीबढ़ी लड़की थी. शक्लसूरत और पढ़ाईलिखाई में कम होने के बावजूद मांबाप से उसे अच्छे संस्कार मिले थे. उस ने रवि की अनदेखी के बावजूद उस के बूढ़े मांबाप और रवि के छोटे भाई रघु का साथ कभी नहीं छोड़ा.

मांबाप के लाख कहने के बावजूद रवि जब उसे अपने साथ शहर ले जाने को राजी नहीं हुआ तब भी उस ने उस से कोई खास जिद नहीं की, न ही अकेले शहर जाने का उस ने कोई विरोध किया.

शहर में आ कर रवि अपने दफ्तर और रोजमर्रा के कामों में ऐसा बिजी हुआ कि गांव जाना ही भूल गया. उसे अपने मांबाप से भी कुछ खास लगाव नहीं रह गया था क्योंकि वह अपनी बेढंगी शादी के लिए काफी हद तक उन्हीं को कुसूरवार मानता था.

तनख्वाह मिलने पर घर पर पैसा भेजने के अलावा रवि कभीकभार चिट्ठी लिख कर मांबाप व भाई का हालचाल जरूर पूछ लेता था, पर इस से ज्यादा वह अपने घर वालों के लिए कुछ भी नहीं कर पाता था.

3-4 दिन आईसीयू में रहने के बाद अब रवि को प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया था. दफ्तर के अनेक साथी तन, मन और धन से उस की सेवा में लगे हुए थे. बड़े साहब भी लगातार उस की सेहत पर नजर रखे हुए थे.

नर्सिंगहोम में जहां सीनियर सर्जन डाक्टर अशोक लाल उस के इलाज पर ध्यान दे रहे थे, वहीं वह वहां की सब से काबिल नर्स सुधा चौहान की चौबीसों घंटे की निगरानी में था.

सुधा चौहान जितना नर्सिंगहोम के कामों में माहिर थी, उतना ही सरल उस का स्वभाव भी था. शक्लसूरत से भी वह किसी फिल्मी नर्स से कम नहीं थी. उस की रातदिन की सेवा और बेहतर इलाज के चलते रवि को जल्दी ही होश आ गया था.

उस समय सुधा ही उस के पास थी. उसे बेचैन देख कर सुधा ने सहारा दिया और उस के सिरहाने तकिया रख दिया. अगले ही पल नर्स सुधा ने शीशी से एक चम्मच दवा निकाल कर आहिस्ता से उस के मुंह में डाल दी

रवि कुछ कहने के लिए मुंह खोलना चाहता था, पर पूरे चेहरे पर पट्टी बंधी होने के चलते वह कुछ भी कह पाने में नाकाम था. सुधा ने हलकी मुसकान के साथ उसे इशारेइशारे में चुप रहने को कहा.

सुधा की निजी जिंदगी भी बहुत खुशहाल नहीं थी. उस का पति मनीष इस दुनिया में नहीं था. उस की रिया नाम की 5 साल की एक बेटी थी जो उस के साथ ही रहती थी.

बेरुखी : पति को क्यों दिया ऐश्वर्या ने धोखा – भाग 1

नरेश की लाश 2 दिनों बाद एक कुएं से बरामद हुई थी. दुर्गंध फैली थी, तब लोगों को पता चला था कि कुएं में लाश पड़ी है. उस के बाद पुलिस को सूचना दी गई थी. नरेश की पत्नी ऐश्वर्या ने उस की गुमशुदगी दर्ज करा रखी थी. नरेश शहर का जानामाना व्यवसायी था. पिता की मौत के बाद सारा कारोबार वही संभाल रहा था, जिस की वजह से वह काफी व्यस्त रहता था. वह सुबह घर से निकलता था तो रात 10 बजे से पहले लौट नहीं पाता था.

नरेश की पत्नी ऐश्वर्या को परिवार वालों ने स्वीकार नहीं किया था, इसलिए वह उसे ले कर शहर के सब से महंगे इलाके में फ्लैट ले कर अलग रह रहा था. ऐश्वर्या बेहद खूबसूरत थी. शादी के अभी एक साल ही बीते थे कि यह हादसा हो गया था. लाश बरामद होने के बाद पुलिस ऐश्वर्या से पूछताछ करने पहुंची तो पहला सवाल यही किया, ‘‘आप को किसी पर शक है?’’

‘‘नहीं.’’ सुबकते हुए ऐश्वर्या ने कहा.

‘‘याद कीजिए, आप के पति का कभी किसी से लेनदेन को ले कर विवाद तो नहीं हुआ था, जिस का उन्होंने आप से जिक्र किया हो?’’

‘‘वह व्यवसाय की बातें घर पर बिलकुल नहीं करते थे.’’

पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में ऐश्वर्या ने जो बताया था, उस के अनुसार, नरेश का बनारसी साडि़यों का काफी बड़ा कारोबार था. काम की अधिकता की वजह से उन का लोगों से मिलनाजुलना कम ही हो पाता था. क्योंकि उन के पास समय ही नहीं होता था. इस फ्लैट में आए उन्हें ज्यादा दिन नहीं हुए थे. गार्ड के अनुसार, वह ठीकठाक आदमी था. नरेश के बारे में गार्ड इस से ज्यादा कुछ नहीं बता सका था. नरेश बड़ा कारोबारी था, इसलिए शहर के व्यापारी उस के कातिलों को पकड़ने के लिए पुलिस पर काफी दबाव बनाए हुए थे. बारबार आंदोलन की धमकी दे रहे थे. कातिलों तक पहुंचने के लिए पुलिस पूरा जोर लगाए हुए थी. नरेश की किसी व्यापारी से दुश्मनी तो नहीं थी, इस के लिए उस के कर्मचारियों से पूछताछ की गई. उन सब का कहना था कि रुपयोंपैसों के लिए उन्होंने अपने मालिक को कभी किसी से लड़तेझगड़ते नहीं देखा था. पुलिस के लिए हैरानी वाली बात यह थी कि घर वाले कुछ बोलने को तैयार नहीं थे. इस की वजह शायद नरेश से घर वालों की नाराजगी थी.

पुलिस ने नाराजगी की वजह पूछी तो लोगों ने बताया कि नरेश ने प्रेम विवाह किया था, इसलिए घर वाले नाराज थे. पुलिस को लगा कि इतनी सी बात के लिए कोई अपने खून का कत्ल नहीं कर सकता. इस के अलावा नरेश ऐसी बिरादरी से थे, जो शुद्ध व्यवसायी होती है. ऐसे लोगों के बारे में कत्ल की बात सोचना भी ठीक नहीं था.

पुलिस ने नरेश के सभी नंबरों की काल डिटेल्स निकलवा कर जांच की. उन में कुछ भी संदिग्ध नहीं मिला. घूमफिर कर शक की सुई ऐश्वर्या पर आ टिकी. इस प्रेम विवाह से नरेश के घर का कोई भी सदस्य खुश नहीं था. इस के बावजूद नरेश भाइयों के साथ ही व्यवसाय कर रहा था. सभी पहले की ही तरह मिलजुल कर व्यवसाय करते थे. नरेश अपनी मां से मिलने घर भी जाया करता था.

फ्लैटों में रहने वालों को वैसे भी एकदूसरे के बारे में कम ही पता होता है. अगर इलाका पौश हो तो ऐसे मामले में लोग चुप्पी साधे रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं. फ्लैट बने ऐसे होते हैं कि अंदर क्या हो रहा है, बगल वाले को भी पता नहीं चलता. लेदे कर एक गार्ड ही बचता था, जिसे पता होता था कि इमारत में कौन कब आताजाता है. इसलिए पुलिस गार्ड के पास पहुंची.

मामले की जांच कर रहे इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा, ‘‘तुम हर आनेजाने वाले का रिकौर्ड रखते हो?’’

‘‘नहीं साहब, यहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. आने वाले से सिर्फ पूछ लेते हैं कि किस से मिलना है?’’ गार्ड ने सहज भाव से कहा.

‘‘पूछने के बाद उसे जाने देते हो?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा.

‘‘नहीं, पहले उस फ्लैट वाले से फोन पर पूछते हैं, जिस में उसे जाना होता है. उधर से भेजने के लिए कहा जाता है, तभी अंदर जाने देते हैं.’’

‘‘क्या, ऐश्वर्या मैडम से भी कोई मिलने आता था?’’

‘‘साहब, यहां कोई न कोई किसी न किसी से मिलने आता ही रहता है. मैं किसकिस के बारे में बता सकता हूं.’’

‘‘अगर एक से ज्यादा बार कोई मिलने आया हो, तब तो पहचान सकते हो?’’

‘‘क्यों नहीं साहब,’’ गार्ड ने कहा.

इस के बाद इंसपेक्टर शर्मा ऐश्वर्या के फ्लैट पर पुन: लौट आए. उस से एक बार फिर पूछा, ‘‘मैडम, फिर याद कीजिए, कोई तो होगा, जिस से आप के पति की दुश्मनी रही होगी?’’

‘‘एक ही बात आप लोग कितनी बार पूछेंगे. मैं ने बताया तो कि मुझे कुछ नहीं पता.’’ ऐश्वर्या थोड़ा झल्ला कर बोली. इंसपेक्टर शर्मा ने इधरउधर देखते हुए पूछा, ‘‘आप यहां अकेली ही रहती हैं?’’

‘‘क्यों?’’ ऐश्वर्या ने थोड़ा विचलित हो कर पूछा.

‘‘मेरे कहने का मतलब यह है कि संकट की इस घड़ी में कोई तो आप का करीबी होना चाहिए.’’

‘‘मेरी अम्मी आई हैं.’’

‘‘अम्मी?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने हैरानी से पूछा.

‘‘हां, मैं उन्हें अम्मी ही कहती हूं.’’ ऐश्वर्या ने कहा.

इस बीच इंसपेक्टर शर्मा उस के चेहरे पर आनेजाने वाले भावों को पढ़ते रहे. उन्होंने अगला सवाल किया, ‘‘क्या मैं उन से मिल सकता हूं?’’

‘‘इस समय वह घर में नहीं हैं.’’

‘‘कहां गई हैं?’’

‘‘बाजार से कुछ जरूरी सामान लेने गई हैं.’’

‘‘कब तक लौटेंगी?’’

‘‘डेढ़-दो घंटे लग सकते हैं.’’ ऐश्वर्या ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं, मैं फिर आऊंगा तो उन से मिल लूंगा. आप जांच में सहयोग करती रहें, निश्चय ही एक न एक दिन कातिल पकड़ा जाएगा.’’ इंसपेक्टर शर्मा ने उठते हुए कहा. जैसे ही वह दरवाजे पर पहुंचे, अंदर से किसी महिला के खांसने की आवाज आई. उन्होंने पलट कर कहा, ‘‘आप तो कह रही थीं कि अंदर कोई नहीं है, फिर यह खांसा कौन?’’

‘‘मैं ने कब कहा कि अंदर कोई नहीं है. मेरी सास भी आई हुई हैं.’’ ऐश्वर्या ने कहा.

कुछ कहे बगैर इंसपेक्टर शर्मा बाहर आ गए. जीना उतरते हुए वह यही सोच रहे थे कि पिछली बार जब वह यहां आए थे, तब नरेश के घर वालों ने कहा था कि नरेश से सिवाय व्यवसाय के उन का कोई और संबंध नहीं है. फिर जख्म पर मरहम लगाने उस की मां यहां कैसे आ गई?

इंसपेक्टर शर्मा थाने आ कर इसी मामले पर गहराई से विचार करने लगे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐश्वर्या ने अपनी मां को अम्मी क्यों कहा? कहीं वह मुसलिम तो नहीं है? अब इस का पता कैसे चले? क्यों न नरेश के घर वालों से पूछा जाए? हो सकता है, इसी वजह से नरेश के घर वाले ऐश्वर्या को नापसंद करते रहे हों?

इस बारे में घर वालों से पूछने का निर्णय ले कर वह अन्य काम में लग गए. अगले दिन सुबहसुबह ही ऐश्वर्या का फोन आया. वह थोड़ी घबराई हुई थी. उस ने हकलाते हुए कहा, ‘‘इंसपेक्टर साहब, जल्दी आइए. मैं आप को एक जरूरी बात बताना चाहती हूं.’’

इंसपेक्टर शर्मा तुरंत ऐश्वर्या के घर पहुंच गए. उन्हें कागज का टुकड़ा देते हुए उस ने कहा, ‘‘यह देखिए, इस में क्या लिखा है?’’

इंसपेक्टर शर्मा ने उसे खोल कर देखा. उस में लिखा था, ‘10 लाख रुपए 26 फरवरी तक पहुंचा देना, वरना अंजाम भुगतने को तैयार रहना.’

‘‘यह आप को कहां मिला?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा.

‘‘गद्दे के नीचे रखा था.’’

सुबह की किरण : दो सहेलियों का प्यार

‘‘आ ओ, तुम यहां बैठ जाओ,’’ समीर ने प्रीति को अपने बगल में खड़ा देखा तो अपनी सीट से उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, तुम बैठो, मुझे अगले स्टैंड पर उतरना है.’’

‘‘तुम बैठो, तुम्हें खड़ा होने में तकलीफ हो रही है,’’ उस ने फिर आग्रह किया तो प्रीति उस की सीट पर बैठ गई.

बस में खचाखच भीड़ थी. तिल भर भी पैर रखने की जगह नहीं थी. प्रीति का एक पैर जन्मजात खराब था. इसलिए थोड़ा लंगड़ा कर चलती थी. नीलम ठीक उस के पीछे खड़ी थी. मुसकराती हुई बोली, ‘‘चलो तुम्हारी तकलीफ समझाने वाला कोई तो मिला.’’

अगले स्टैंड पर दोनों सहेलियां उतर गईं. समीर भी उन के पीछेपीछे उतरा.

‘‘तुम्हारी सहेली के साथ मैं ने अन्याय किया,’’ वह प्रीति को देखते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन क्या करूं, सीट एक थी और तुम दो.’’

‘‘कोई बात नहीं, अगली बार तुम मुझे लिफ्ट दे देना,’’ नीलम भी मुसकराते हुए बोली तो समीर ने पूछा, ‘‘वैसे, तुम दोनों यहां कहां रहती हो?’’

‘‘बगल में ही, गौरव गर्ल्स होस्टल में,’’ नीलम ने बताया.

‘‘अच्छा है, अब तो हमारा इसी स्टैंड से कालेज आनाजाना होता रहेगा. मैं भी थोड़ी दूर पर ही रहता हूं. मेरे बाबूजी एक कंपनी में जौब करते हैं और यहीं उन्होंने एक अपार्टमैंट खरीदा हुआ है.’’ समीर, प्रीति और नीलम एक ही कालेज में थे. आज कालेज में उन का पहला दिन था.

प्रीति आगरा की रहने वाली थी और नीलम लखनऊ की. दोनों गौरव गर्ल्स होस्टल में एक रूम में रहती थीं. प्रीति के पिताजी एक अच्छे ओहदे वाली सर्विस में थे, किंतु असमय उन का देहांत हो गया था जिस के कारण उस की मां को अनुकंपा के आधार पर उसी औफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी.

प्रीति के बाबूजी बहुत पहले अपना गांव छोड़ कर आगरा में आ गए थे और यहीं उन्होंने एक छोटा सा मकान बना लिया था. गांव की जमीन और मकान उन्होंने बेच दिया था. प्रीति की मां चाहती थीं कि वह आईएएस की तैयारी करे ताकि एक ऊंची पोस्ट पर जा कर अपनी विकलांगता के दर्द को भुला सके, इसलिए उन्होंने उसे दिल्ली में एमए करने के लिए भेजा था. प्रीति को शुरू से ही साइकोलौजी में गहरी रुचि थी और बीए में भी उस का यह फेवरेट सब्जैक्ट था इसलिए उस ने इसी सब्जैक्ट से एमए करने का विचार किया. प्रीति को शुरू से ही कुछ सीखने और अधिकाधिक ज्ञानार्जन करने की इच्छा थी. वह साइकोलौजी में शोध कार्य करना चाहती थी और भविष्य में किसी कालेज में लैक्चरर बनने की ख्वाहिश पाले हुए थी.

नीलम एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस के पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी दिल्ली के किसी कालेज से एमए कर ले और उस की सोसायटी मौडर्न हो जाए क्योंकि आजकल बिजनैसमैन के लड़के भी एक पढ़ीलिखी और मौडर्न लड़की को शादी के लिए प्रेफर करते थे. इसलिए उस ने दिल्ली के इसी कालेज में ऐडमिशन ले लिया था और ईजी सब्जैक्ट होने के कारण साइकोलौजी से एमए करना चाहती थी. समीर के पिताजी उसे आईएएस बनाना चाहते थे और समीर भी इस के लिए इच्छुक था, इसलिए वह भी साइकोलौजी से एमए करने के लिए कालेज में ऐडमिशन लिए हुए था.

प्रीति एक साधारण परिवार की थी और स्वभाव से भी बहुत ही सरल, इसलिए उस की वेशभूषा और पोशाकें भी साधारण थीं. पर वह सुंदर व स्मार्ट थी. उसे बनावशृंगार और मेकअप पसंद नहीं था किंतु दूसरी ओर नीलम सुंदर और छरहरे बदन की गोरी लड़की थी और अपने शरीर की सुंदरता पर उस का सब से ज्यादा ध्यान था. वह मेकअप करती और प्रतिदिन नईनई ड्रैस पहनती. कालेज में जहां प्रीति अपनी किताबों में उल?ा रहती वहीं नीलम अपनी सहेलियों के साथ गपें मारती और मस्ती करती.

एक दिन प्रीति लंच के समय कालेज की लाइब्रेरी में कुछ किताबों से कुछ नोट्स तैयार कर रही थी. तभी नीलम उस के पास आई और बोली, ‘‘अरे पढ़ाकू, यह लंच का समय है और तुम किताबों से माथापच्ची कर रही हो जैसे रिसर्च कर रही हो. चलो चल कर कैफेटेरिया में चाय पीते हैं.’’

‘‘तुम जाओ, मैं थोड़ी देर बाद आऊंगी,’’ प्रीति ने कहा तो नीलम चली गई.

तभी उस ने महसूस किया कि उस के पीछे कोई खड़ा है. उस ने पलट कर पीछे की ओर देखा तो समीर था.

बस में मिलने के बाद समीर आज पहली बार उस के पास आ कर खड़ा हुआ था. क्लास में कभीकभी उस की ओर देख लिया करता था, किंतु बात नहीं करता था.

‘‘प्रीति सभी लोग कैफेटेरिया में चाय पी रहे हैं और तुम यहां बैठ कर नोट्स बना रही हो? अभी तो परीक्षा होने में काफी देर है. चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘बाद में आऊंगी समीर, थोड़े से नोट्स बनाने बाकी हैं, पूरा कर लेती हूं.’’

‘‘अब बंद भी करो,’’ समीर ने उस की नोटबुक को समेटते हुए कहा.

‘‘अच्छा चलो,’’ प्रीति भी किताबों को नोटबुक के साथ हाथ में उठाते हुए उठ खड़ी हुई.

जब समीर और प्रीति कैफेटेरिया में पहुंचे तो वहां पहले से ही नीलम अपनी कुछ क्लासमेट्स के साथ बैठ कर चाय पी रही थी. अगलबगल और भी कई लड़केलड़कियां थीं.

‘‘आ गई पढ़ाकू,’’ सविता ने उस को देखते हुए चुटकी ली.

‘‘मैं ने कहा, तो मेरे साथ नहीं आई. अब समीर के एक बार कहने पर आ गई. हां भई, उस दिन बस में उठ कर अपनी सीट जो तुम्हें औफर की थी. अब उस का कुछ खयाल तो रखना ही पड़ेगा न.’’ नीलम की बात सुन कर उस की सहेलियां हंसने लगीं.

समीर कुछ झोंप सा गया. बात आईगई हो गई किंतु इस के बाद प्रीति और समीर अकसर आपस में मिलते. प्रीति को साइकोलौजी के कई टौपिक्स पर बहुत ही अच्छी पकड़ थी. उस ने साइकोलौजी में कई जानेमाने लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया था. जब कभी क्लास में कोई लैक्चरर आता तो उस विषय के ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाती कि सभी उस की ओर ताकने लगते.

समीर को उस के पढ़ने में काफी मदद मिलती. समय के साथसाथ उन के बीच आपसी लगाव बढ़ रहा था. उन के बीच का गहराता संबंध कालेज में चर्चा का विषय था. कुछ साथी उस पर चुटकियां लेने से नहीं चूकते.

‘लंगड़ी ने समीर को अपने रूपजाल में फंसा लिया है,’ कोई कहता तो कोई उन दोनों की ओर इशारा करते हुए अपने मित्र के कान में कुछ फुसफुसाता, जिस का एक ही मतलब होता था कि उन दोनों के बीच कुछ पक रहा है. अब वह किसकिस को जवाब देता. इसलिए चुप रहता.

वैसे भी समीर अपने कैरियर के प्रति सीरियस था. उसे आईएएस की तैयारी करनी थी जिस में साइकोलौजी को मुख्य विषय रखना था. वह इस विषय के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर लेना चाहता था. उधर प्रीति को इसी विषय के किसी टौपिक पर रिसर्च करना था. इसलिए दोनों के अपनेअपने इंटरैस्ट थे. किंतु लगातार एकदूसरे के साथ संपर्क में रहने के कारण उन के अंदर प्रेम का भी अंकुरण होने लगा था जिस को दोनों महसूस तो करते किंतु इस की आपस में कभी चर्चा नहीं करते.

ऐसे ही कब 2 वर्ष गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला. दोनों ने एमए फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया. फिर समीर ने आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली में ही एक कोचिंग जौइन कर ली और प्रीति एक प्रोफैसर के अंडर पीएचडी करने लगी.

नीलम ने किसी तरह एमए किया और घर चली गई. उस के पिता ने उस की शादी एक बिजनैसमैन से कर दी. उस के निमंत्रण पर प्रीति उस की शादी में गई. उस ने समीर को भी निमंत्रण दिया था लेकिन किसी कारणवश समीर नहीं पहुंच पाया. नीलम ने प्रीति से वादा किया था कि भले ही वह उस से दूर है लेकिन जब कभी वह याद करेगी वह जरूर उस से मिलेगी. बिछुड़ते वक्त दोनों सहेलियां खूब रोईं.

इधर समीर और प्रीति के बीच दूरी बढ़ी तो लगाव भी कम होने लगा. उन के बीच कुछ महीनों तक तो फोन पर संपर्क होता रहा, फिर धीरेधीरे वह समाप्त हो गया. यही दुनियादारी है. कभी समीर जब तक उस से एक बार नहीं मिल लेता उसे चैन न मिलता, अब उसे उस की याद ही नहीं रही. प्रीति ने भी उस से बात करनी बंद कर दी.

जीवन किसी का भी हर वक्त एकजैसा कहां रहता है. यह कोई जानता भी तो नहीं कि कब किस के साथ क्या घट जाए. प्रीति अभी दिल्ली में ही थी कि एक दिन सुबह सुबह ही उसे खबर मिली कि उस की मां को हार्टअटैक आया है और वह अस्पताल में भरती है. सुनते ही वह आगरा के लिए भागी किंतु वहां पहुंचने पर मालूम हुआ कि उस की मां अब दुनिया में नहीं रहीं.

प्रीति पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. वह फफक कर रोने लगी. अब उस का एकमात्र सहारा मां भी उसे छोड़ गई थीं. अस्पताल में वह मां के शव को पकड़ कर रो रही थी. उस को सांत्वना देने वाला कोई नहीं था. उस की मां के औफिस वाले आए हुए थे. उन लोगों ने कहा, ‘‘बेटी, अब अपने को संभाल…यह समय रोने का नहीं है. उठो, अब मां का दाहसंस्कार करने की सोचो…अब आग भी तुम्हें ही देनी है.’’

इस दुखभरी घड़ी में अपनों की कितनी याद आती है. उस ने समीर को फोन लगाया लेकिन उस का फोन तो डैड था. शायद उस ने नंबर बदल लिया था. अंतिम बार जब उस से भेंट हुई थी तो कहा था, अब दूसरा सिम लेगा. हारथक कर उस ने नीलम को याद किया. नीलम से उस की शादी में अंतिम बार भेंट हुई थी. वैसे भी उस से कभीकभी बातें होती रहती थीं. उस के हस्बैंड की प्रयागराज में एक बड़ी कपड़े की दुकान थी. वह खुले विचारवाला युवक था, इसलिए नीलम को कहीं आनेजाने में रोक नहीं थी.

नीलम खबर सुनते ही आगरा के लिए अपनी गाड़ी से चल पड़ी. प्रीति के जिम्मे अभी काफी काम थे. अस्पताल का बिल चुकाना, मां का दाहसंस्कार क्रिया करना और अकेले पड़े घर को संभालना. एक युवती जिस को दुनियादारी का भी कोई ज्ञान न हो और जिस की जिंदगी मां पिता की छत्रछाया में बीती हो, व जिस को घर संभालने का कोई व्यावहारिक ज्ञान न हो, अचानक इस तरह की विपत्ति पड़ने पर क्या स्थिति हो सकती है, यह तो वही समझा सकती है जिस के सिर पर यह अचानक बोझ आ पड़ा हो.

इस स्थिति में पड़ोसी भी बहुत काम नहीं आते सिवा सांत्वना के कुछ शब्द बोल देने के. और जिस का कोई अपना न हो उस के लिए तो यह क्षण बड़े ही धैर्य रखने और आत्मबल बनाए रखने का होता है और वह भी तब जब कोई अपना बहुत ही करीबी उसे छोड़ कर चला गया हो. सब से बड़़ी दिक्कत यह थी कि उस के पास पैसे नहीं थे और मां के बैंक अकाउंट का उस के पास कोई लेखाजोखा न था. पिछले महीने मां ने उस के खाते में जो पैसा ट्रांसफर किया था वह अब तक खर्च हो चुका था.

नीलम से वह कुछ मांगना तो न चाहती थी किंतु उस के पास इस के सिवा कोई रास्ता भी नहीं बचा था, इसलिए उस ने उस से कुछ मदद करने के लिए कहा. नीलम ने चलते वक्त चैकबुक और अपना डैबिट कार्ड भी पास में रख लिया. नीलम ने गांव के अपने सहोदर चाचाजी को बुला लिया जिन्होंने प्रीतिकी मां के दाहसंस्कार करवाने में बहुत मदद की. नीलम ने अस्पताल के सारे बिल भर दिए और मां के दाहसंस्कार व पारंपरिक विधि में होने वाले दूसरे आवश्यक खर्च को वहन किया.

प्रीति दकियानूसी विचारों वाली युवती नहीं थी, इसलिए उस ने विद्युत शवदाह द्वारा अपनी मां का दाहसंस्कार किया और अन्य पारंपरिक क्रियाएं भी बहुत सादे ढंग से संपन्न कीं. जब तक प्रीति सारी क्रियाओं से निबट नहीं गई तब तक नीलम उस के साथ रही.

परिस्थितियां चाहे जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों मनुष्य को उस से तो बाहर निकलना ही पड़ता है और प्रीति भी इस से निकल तो गई किंतु वह जिस खालीपन का एहसास कर रही थी उसे भरना बहुत ही मुश्किल था.

कुछ समय बाद नीलम प्रयागराज लौट गई और प्रीति अपने मकान को एक विश्वस्त आदमी को किराए पर दे कर अपना रिसर्च वाला काम पूरा करने के लिए दिल्ली लौट आई. उसे पता चला कि उस की मां ने अपने नाम से एक इंश्योरैंस भी कराया था जिस का अच्छाखासा पैसा नौमिनी होने के कारण उसे मिल गया.

मां के बैंक अकाउंट में भी काफी पैसे थे, इसलिए उस को अपने रिसर्च के काम में कोई दिक्कत न आई. उस ने नीलम का सारा पैसा लौटा दिया. समय बीतता गया और उस के साथसाथ प्रीति भी पहले से ज्यादा सम?ादार व परिपक्व होती गई. उसे आगरा के ही एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

इस दुनिया में कहां किसी को किसी से मतलब होता है. वह अकेली थी. समीर जो कभी उस के दिल के करीब आ चुका था उस से भी उस का संपर्क टूट गया था. नीलम अपने घर चली गई थी जिस से कभीकभी फोन पर बातचीत होती रहती थी.

लड़कियों की शादी में तो वैसे ही काफी दिक्कतें होती हैं और उस का तो एक पैर भी खराब था. और उस की शादी के बारे में सोचने वाला भी कोई नहीं था. जो लोग उस के संपर्क में आते थे, वे उस की सुंदरता से आकर्षित हो कर आते थे न कि उस का जीवनसाथी बनने के लिए. इसलिए ऐसे लोगों से वह हमेशा ही अपने को दूर रखती थी. अब तो उस की जिंदगी का एक ही मकसद था घर से कालेज जाना, वहां मनोयोग से छात्रों को पढ़ाना और शाम को घर लौट कर मनोविज्ञान की पुस्तकों का गहरा अध्ययन करना.

इधर, वह मनोविज्ञान पर एक किताब लिख रही थी जिस से उस का खालीपन कट जाता था. कालेज के उस के सहकर्मी पढ़ाने में कम कालेज की आपसी राजनीति में ज्यादा इंटरैस्ट लेते थे और उन की इन बेवजह की चर्चाओं से वह अपने को हमेशा ही दूर रखती थी, इसलिए उन लोगों से भी उस का ज्यादा संबंध नहीं था.

किंतु कालेज के प्रिंसिपल उस को बहुत सम्मान देते थे क्योंकि उन की निगाहों में उसे इतनी कम उम्र में काफी अच्छी जानकारी थी, इसलिए वे उस की हर संभव मदद भी करते थे. कालेज के छात्र भी उस की कक्षाओं को कभी भी नहीं छोड़ते थे क्योंकि उस से अच्छा लैक्चर देने वाला कालेज में कोई अन्य लैक्चरर नहीं था.

एक दिन सुबह उस ने अखबार में देखा कि समीर नाम का कोई आईएएस अधिकारी उस के शहर में जिला अधिकारी बन कर आया हुआ है.

समीर नाम ने ही उस के दिल में हलचल पैदा कर दी. वह सोचने लगी यह वही समीर तो नहीं जो कभी उस के दिल के बहुत करीब हुआ करता था और घंटों मनोविज्ञान के किसी टौपिक पर उस से चर्चा करता था. क्या समीर आईएएस बन गया?

यह प्रश्न उस के जेहन में कौंध रहा था और वह बहुत देर तक समीर के साथ बिताए गए उन पलों को याद कर रही थी जो 5 वर्ष बाद भी अभी तक वैसे ही तरोताजा थे जैसे यह बस कुछ पलों पहले की बात हो.

यही पता लगाने के लिए एक दिन वह उस के औफिस पहुंची तो पता लगा कि साहब अभी मीटिंग में व्यस्त हैं. दूसरे दिन समीर से मिलने के लिए उस के चैंबर में जाना चाहा तो, दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे रोक दिया और उस से स्लिप मांगी. उस ने सोचा, पता नहीं वही समीर है या कोई और, इसलिए उस ने चैंबर में उस से मिलने का विचार त्याग दिया. वह सोचने लगी वैसे तो जिलाधिकारी आम आदमी के हितों के लिए जिला में पदस्थापित होता है और उस से मिलने के लिए कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र है लेकिन अफसरशाही ने आम आदमी से जिलाधिकारी को कितना दूर कर दिया है.

वैसे जिलाधिकारी से उस के द्वारा समयसमय पर लगाए जाने वाले जनता दरबार में भी आसानी से भेंट हो सकती थी किंतु उस के बारे में जानने की तीव्र जिज्ञासा इतनी थी कि वह बहुत समय तक इस के लिए इंतजार नहीं कर सकती थी. सो, जिलाधिकारी द्वारा राजस्व से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए किए जाने वाले कोर्ट के दौरान उस ने उसे देखने का मन बनाया.

उसे किसी ने बताया था कि उस दिन जिलाधिकारी न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई करेंगे. जब वह उस के न्यायालय में पहुंची तो समीर मुकदमे की कोई फाइल देख रहा था. वह न्यायालय में खड़ी थी किंतु समीर ने उसे नहीं देखा और वह ?ाट न्यायालय के कमरे से बाहर आ गई. फिर अपने घर पहुंची. अब उस ने सोचा कि वह उस के आवास में जा कर मिलेगी. जब वह उस के आवास पहुंची तो फिर चपरासी ने स्लिप मांगी. उसे लगा, वह तो लड़की है, लोग जाने उस के बारे में क्याक्या सोचने लगें, इसलिए उस से बिना मिले ही वापस घर लौट आई.

समीर को जिला में पदस्थापित हुए 4 महीने से अधिक हो गए थे, किंतु उन दोनों की मुलाकात नहीं हुई थी. अब तक मनोविज्ञान पर प्रीति की लिखी पुस्तक ‘आने वाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ को छापने के लिए दिल्ली का पाठ्यपुस्तकों से संबंधित एक प्रकाशक तैयार हो गया था. पुस्तक की पांडुलिपि उस ने प्रकाशक को सौंप दी थी जो अब मुद्रण के लिए भेजी जा चुकी थी.

अगले महीने उस की प्रतियां तैयार हो कर आ जाने वाली थीं और पुस्तक का विमोचन उस के कालेज के हौल में होना तय हुआ था. प्रिंसिपल के आग्रह पर जिलाधिकारी समीर ने भी विमोचन समारोह में आना स्वीकार कर लिया था और उसी के हाथों उस की पुस्तक का विमोचन होना था.

काम की बहुत ज्यादा व्यस्तता के कारण समीर का ध्यान इस ओर नहीं गया था कि इस की लेखिका वही प्रीति है जो कभी दिल्ली में उस के साथ मनोविज्ञान में एमए कर रही थी. पिंसिपल साहब खुद इन्विटेशन ले कर गए थे और प्रीति ने उन से कभी समीर की चर्चा नहीं की थी.

प्रीति यह सोच कर काफी उत्सुक और रोमांचित थी कि उस की पुस्तक का विमोचन समीर के हाथों होगा और उसी के द्वारा वह सम्मानित की जाएगी. वह सोच रही थी कि वह क्षण कैसा होगा जब वह पहली बार इतने दिनों के बाद समीर के सामने जाएगी. आज वह दिन आ ही गया था.

रात में उसे नींद ठीक से नहीं आई थी. बारबार उसे समीर की बातें, उस के साथ घंटों मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर हुई चर्चाएं याद आ रही थीं. उस समय समीर उस से बारबार कहता था कि वह आईएएस बन कर समाज की सेवा करना चाहता है और अब उस की मनोकामना पूरी हो गईर् थी. उस ने जो सोचा था उसे वह मिल गया था.

क्या समीर की शादी हो गई है या अभी भी वह कुंआरा है, यह प्रश्न भी उस के मन में बारबार कौंध रहा था. वह सोच रही थी कि यदि समीर की शादी हो गई है तो उस की पत्नी कैसी होगी. यदि समीर ने उसे देख कर पुरानी बातों को कुरेदना शुरू किया तो उस की पत्नी की प्रतिक्रिया क्या होगी? कहीं वह उस के संबंधों को ले कर आशंकित तो न हो जाएगी.

उस के मन में पहली बार इतना उत्साह था. दिल में हलचल थी. वहीं, अंदर से समीर से मिलने का एक मधुर एहसास भी था. उस ने अपनी सब से अच्छी साड़ी निकाली और पहली बार अपना इतनी देर तक शृंगार किया. आज सच में वह काफी सुंदर लग रही थी.

पुस्तक विमोचन समारोह के लिए कालेज के हौल को काफी सजाया गया था. शहर के कई गणमान्य व्यक्तियों को भी बुलाया गया था. दूसरे कालेजों के शिक्षक और कई विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया था. सब के खानेपीने का इंतजाम पुस्तक के प्रकाशक की ओर से था.

वह कालेज रिकशा से जाती थी, किंतु आज प्रिंसिपल ने उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी ड्राइवर के साथ भेजी थी और कालेज के एक जूनियर लैक्चरर को भी साथ लगा दिया था.

जब वह कालेज के हौल में पहुंची तो अधिकतर मेहमान आ चुके थे. लाउडस्पीकर पर कोई पुराना संगीत काफी कम आवाज में बज रहा था. पुस्तक विमोचन की सारी आवश्यक तैयारियां कर ली गई थीं. अब जिलाधिकारी के आने की प्रतीक्षा थी.

तभी जिलाधिकारी समीर के आने का माइक पर अनाउंसमैंट हुआ. समीर के स्टेज पर पहुंचते ही सभी उपस्थित मेहमान उस के सम्मान में खड़े हो गए.  प्रिंसिपल ने समीर का स्टेज पर स्वागत किय??ा और उन्हें अपनी बगल में विशेष अतिथि के रूप में बैठाया. ठीक उस के बगल में प्रीति भी बैठी हुई थी. प्रीति ने समीर को देख कर हाथ जोड़े तो वह अप्रत्याशित रूप से उस को स्टेज पर देख कर विस्मित होते हुए बोला, ‘‘अरे तुम, प्रीति?…यहां?’’

‘‘क्या आप एकदूसरे को पहचानते हैं?’’ प्रिंसिपल ने पूछा.

‘‘हम दोनों ने एक ही साथ दिल्ली में एक ही कालेज से साइकोलौजी में एमए किया है.’’

‘‘लेकिन प्रीति ने यह कभी नहीं बताया,’’ प्रिंसिपल ने अब प्रीति की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ‘‘क्यों प्रीति, इतना बड़ा राज तुम छिपाए हुए हो. मुझे तो कम से कम बताया होता.’’

प्रीति प्रिंसिपल को क्या बताती कि उस ने कई बार समीर से मिलने की कोशिश की थी लेकिन कुछ संकोच, कुछ झिझक और परिस्थितियों ने उसे उस से नहीं मिलने दिया और चाह कर भी वह समीर से अपने संबंधों को अपने सहकर्मियों के साथ साझा न कर पाई.

‘‘समीर तुम से मिलने की मैं ने बहुत बार कोशिश की, लेकिन मिल नहीं पाई,’’ वह सकुचाते हुए धीरे से बोली.

‘‘अब यह बहानेबाजी न चलेगी प्रीति. फंक्शन के बाद मैं तुम्हारे घर पर आऊंगा. मां कैसी हैं?’’

सुनते ही प्रीति की आंखें नम होने लगीं और वह इस का कोई जवाब नहीं दे पाई तो प्रिंसिपल ने मामले की नाजुकता को समझाते हुए, बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘‘इत्मीनान से इस संबंध में बातें होंगी. अभी हम लोग पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम शुरू करते हैं.’’

पुस्तक का विमोचन करते हुए समीर ने प्रीति की सादगी, नम्रता और उस के कोमल भावों की विस्तृत चर्चा करते हुए अपने कालेज के दिनों की यादों को सब के साथ सा?ा करते हुए कहा कि प्रीति कालेज में एक ऐसी लड़की थी जिस से हमारे प्रोफैसर भी बहुत प्रभावित थे. प्रीति को साइकोलौजी पर जितनी पकड़ है उतनी बहुत कम लोगों को होती है. हमें गर्व है कि इस शहर में हमारे बीच प्रीति जैसी एक विदुषी हैं.’’

समीर की बातों से पूरा हौल तालियों से गड़गड़ाने लगा तब प्रीति ने महसूस किया कि समीर, जिस के बारे में उस ने सोचा था कि वह उसे भूल गया है, बिलकुल उस की थोथी समझा थी. उस के दिल में उस के प्रति अभी भी उतना ही लगाव और प्रेम है जितना कालेज के दिनों में हुआ करता था.

फंक्शन के बाद समीर ने उस से उस का फोन नंबर लिया और उस के घर की लोकेशन नोट करते हुए कहा कि इस रविवार को वह उस के साथ ही लंच करेगा. अपना विजिटिंग कार्ड उसे थमाते हुए उस ने रविवार को इंतजार करने के लिए कहा.

फंक्शन के बाद उस के सभी सहकर्मी उस को आंखें फाड़ कर देख रहे थे. समीर ने सभी लोगों के बीच जिस प्रकार प्रीति की प्रशंसा की थी और सम्मान दिया था उस का किसी को भी अनुमान नहीं था. प्रीति ने घर आ कर पूरे घर को साफ किया, ड्राइंगरूम में सोफे को करीने से लगाया और घर के बाहर पड़े हुए गमलों को ठीक से लगाया और उन में पानी दिया.

मां के गुजर जाने के बाद प्रीति अंदर से काफी टूट गई थी. घर में कोई नहीं था और उस का जीवन अकेलेपन के दौर से गुजर रहा था, इसलिए पूरा घर ही अस्तव्यस्त पड़ा हुआ था. किंतु समीर ने जब से कहा था कि रविवार को उस के घर आ कर उस के साथ लंच करेगा उस के शरीर में एक नया ही उत्साह पैदा हो गया था, मनमयूर नाचने लगा था और जीवन के प्रति एक नया नजरिया पैदा हो गया था.

रविवार को सुबह से ही प्रीति समीर के लिए लंच की तैयारी में लगी हुई थी. इस बीच फोन पर उस ने प्रयागराज से नीलम को भी बुला लिया था. वह पुस्तक विमोचन समारोह में कुछ जरूरी कामों में व्यस्त रहने के कारण नहीं आ पाई थी. नीलम भी समीर से मिलने के लिए उत्साहित थी. एक लंबे समय के बाद तीनों एकसाथ एक टेबल पर मिलने वाले थे.

समीर ने उसे फोन पर सूचना दी थी कि वह रविवार को 2 बजे के बाद आएगा, उसे एक जरूरी मीटिंग में शामिल होना है क्योंकि जिले में सोमवार को सीएम का दौरा होने वाला था. किंतु वह उस दिन 12 बजे ही आ गया.

‘‘सीएम साहब का दौरा रद्द हो गया तो मैं जल्दी आ गया,’’ आते ही वह बोला. उस का घर एक संकरी गली में था. उस की गाड़ी सड़क पर खड़ी थी. बौडीगार्ड साथ में था.

उसे अचानक आया देख प्रीति और नीलम दोनों उठ खड़ी हुईं.

नीलम को देख कर उस ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘अरे तुम कब आईं. तुम भी आगरा में ही रहती हो क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में प्रीति ने बताया तो मिलने आ गई,’’ नीलम मुसकराते हुए बोली.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं इस शहर में पिछले 4 महीने से हूं लेकिन प्रीति को मेरी कभी याद न आई.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है समीर, तुम से मिलने का मैं ने कई बार सोचा लेकिन मिलने की हिम्मत न हुई.’’ प्रीति ने कहा.

‘‘क्यों, मैं तुम्हारे लिए गैर कब से हो गया. यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम मु?ा से मिलना ही नहीं चाहती थीं.’’ अब प्रीति उस से क्या कहती और कहती भी तो क्या उस की सफाई से समीर की उलाहना दूर हो जाती?

‘‘अच्छा, अब बता मां जी कहां हैं?’’

‘‘समीर, अब प्रीति की मां इस दुनिया में नहीं हैं,’’ नीलम ने बताया.

कुछ देर तक समीर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘सौरी प्रीति, मैं ने तुम्हारे दिल के दर्द को कुरेदा. अब घर में कौन रहता है?’’

‘‘इस के साथ अब कोई रहने वाला नहीं है समीर. यह नितांत अकेलापन का जीवन जीती है. अपनी दुनिया में खोई हुई. जिस तरह कालेज में किताबों में खोई रहती थी, अब भी किताबें ही इस की साथी हैं,’’ नीलम बोली.

समीर थोड़ी देर तक घर में इधरउधर देखते रहा. उस की मां और बाबूजी का फोटो सामने की दीवार पर टंगा हुआ था. उस ने सोचा उस का ध्यान अब तक उन फोटो पर क्यों नहीं गया जो वह प्रीति को बारबार मां की याद दिलाता रहा. उस ने हाथ जोड़ कर उस के मातापिता के फोटो के सामने जा कर उन्हें प्रणाम किया और प्रीति से बोला, ‘‘जिंदगी इसी का नाम है. यह कोई नहीं जानता कि किस की जिंदगी उस को किस तरह जीने के लिए मजबूर करेगी. तुम से बिछुड़ने के बाद मैं एक बौयज होस्टल में शिफ्ट कर गया जहां सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले लड़के रहते थे. घर में पढ़ने का माहौल नहीं था.

‘‘वहां एक दिन किसी ने मेरा स्मार्टफोन चुरा लिया. उस फोन में बहुत सारी इन्फौर्मेशन थीं, उसी में तुम्हारा फोन नंबर भी था. मैं ने तुम्हें खोजने का प्रयास किया किंतु तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाया. फिर मेरी कोचिंग की क्लासेज चलने लगीं और परीक्षा की तैयारी में इतनी बुरी तरह उल?ा कि फिर तुम्हारी ओर ध्यान ही नहीं गया और इसी बीच मेरे बाबूजी का तबादला कंपनी वालों ने दूसरे शहर में कर दिया जहां वे मां के साथ शिफ्ट कर गए.

‘‘मैं इकलौती संतान था. घर में कोई रहने वाला नहीं था, इसलिए पिताजी ने 3 कमरों के इस अपार्टमैंट में एक कमरा निजी उपयोग के लिए रख कर 2 कमरे किराए पर दे दिए. लेकिन प्रीति तुम चाहतीं तो मेरे घर जा कर मेरे किराएदार से मेरा फोन नंबर मांग सकती थीं क्योंकि कभीकभी मैं वहां जाया करता था और किराएदार को मेरा फोन नंबर मालूम था. तुम तो मेरे घर आई थीं. मेरे मातापिता तुम्हें बहुत ही लाइक करते थे. मां तो हमेशा ही तुम्हारे सरल स्वभाव की प्रशंसा करती थीं और पिताजी अकसर कहा करते थे कि किसी भी व्यक्ति का गुण प्रधान होता है न कि उस का शरीर.

‘‘मेरे मांबाबूजी इसी हफ्ते यहां घूमने आने वाले हैं. मैं तुम्हें उन से मिलवाऊंगा.’’

‘‘हां समीर, मुझे भी उन से मिलने की बहुत इच्छा है. उन से मिले हुए काफी दिन हो गए हैं. उन के आने के बाद तुम मुझे फोन करना, मैं उन से मिलने जरूर आऊंगी. लेकिन तुम अपनी पत्नी को ले कर क्यों नहीं आए?’’

समीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तुम्हारी जैसी कोई मिली नहीं.’’

‘‘क्यों मजाक करते हो समीर. मेरे जैसी कोई मिले भी नहीं. हैंडीकैप होना एक अभिशाप से कम नहीं है.’’

‘‘ऐसा न कहो प्रीति, आज भी मनोविज्ञान के क्षेत्र में तुम्हारा मुकाबला करने वाला इस शहर में कोई नहीं है.’’

यह तो प्रीति नहीं जानती थी कि समीर के साथ उस का क्या रिश्ता है किंतु अंदर ही अंदर यह जान कर कि वह अब तक कुंआरा है उस के मन के तार झांकृत हो उठे.

इस बीच समीर के मांबाबूजी के आने का वह बेसब्री से इंतजार करती रही और फिर कुछ ही दिनों बाद समीर ने उसे फोन कर बताया कि उस के मांबाबूजी आए हुए हैं और उस से मिलना चाहते हैं. आज रात का डिनर उन के साथ करोगी तो उसे खुशी होगी.

प्रीति तो इसी अवसर का इंतजार कर रही थी, इसलिए उस ने उस के निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया. उसे अंदर आने से कोई न रोके, इसलिए समीर ने उस को लाने के लिए अपनी प्राइवेट कार भेज दी थी.

प्रीति को लेने समीर अपने आवास के गेट तक स्वयं आया. जब वह उस के साथ ड्राइंगरूम में पहुंची तो उस के मांबाबूजी उस का इंतजार कर रहे थे. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने उसे अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘समीर तुम्हारी हमेशा चर्चा करता है. सुना मां भी नहीं रहीं. घर में अकेली हो. बेटी मैं समझा सकती हूं तुम्हारी तकलीफ को. लड़की वह भी अकेली,’’ समीर की मां बोलीं.

‘‘बेटी, अब आगे क्या करना है?’’ समीर के बाबूजी ने पूछा.

‘‘क्या करूंगी बाबूजी. दिन में कालेज में पढ़ाती हूं, रात में अध्ययन, कुछ लेखन.’’ उस ने नम्रता से कहा.

‘‘अभी क्या लिख रही हो?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं. इस पुस्तक का रिस्पौंस देख लेती हूं कैसा है, फिर आगे का प्लान बनाऊंगी.’’

‘‘यह पुस्तक ‘आनेवाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ मैं ने पढ़ी. समीर ने दी थी. यह सच है कि मनोविज्ञान के स्थापित सिद्धांत आने वाली पीढि़यों के संदर्भ में वैसे ही न रहेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप भी क्या न… आते ही पुस्तक की चर्चा में लग गए. घर और बाहर रातदिन यही तो यह करती है. आज तो हम एंजौय करें. वैसे प्रीति, मैं तुम से पूछना भूल गया था, सारे आइटम वेज ही रखे हैं. मांबाबूजी वैजिटेरियन हैं.’’

‘‘मैं भी वैजिटेरियन ही हूं.’’

खाना खाने के बाद जब प्रीति जाने को हुई तो मां ने उसे रोका.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी की कहीं बात चल रही है क्या?’’

प्रीति कुछ न बोल पाई. जवाब देती भी क्या. उस की शादी के लिए कौन बात करने वाला था.

‘‘सम?ा गई बेटी. अब तो तुम्हारे घर में तुम्हारे सिवा कोई है नहीं जिस से तुम्हारी शादी के बारे में बात की जाए. समीर तुम्हारी बहुत प्रशंसा करता है. आईएएस में उस के सिलैक्शन के बाद कई अमीर घराने के लोग अपनी बेटियों की शादी के लिए आए. वे सभी अपनी दौलत के बल पर समीर को खरीदना चाहते थे.

‘‘समीर का इस संबंध में स्पष्ट मत था कि शादी मन का मिलन होता है, सिर्फ शरीर का नहीं और जो लड़की अपने बाप की हैसियत के बल पर इस घर में आएगी वह कभी भी अपना दिल उसे न दे पाएगी. बेटी, अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो और समीर से तुम्हारा मन मिलता हो तो इस घर में तुम्हारी जैसी बहू पा कर हम प्रसन्न होंगे. समीर के पिताजी की भी यही इच्छा है. समीर भी यही चाहता है. अब सबकुछ तुम पर निर्भर करता है. तुम इत्मीनान से फैसला ले कर बताना. कोई जल्दी नहीं है, हम तुम्हारे जवाब का इंतजार करेंगे.’’

‘‘लेकिन मांजी, कहां समीर की पोस्ट और कहां मैं एक साधारण कालेज की लेक्चरार.’’

‘‘अब लज्जित न करो प्रीति,’’ समीर बोला, ‘‘मेरे और तुम्हारे संबंधों के बीच हमारी पोस्ट और हैसियत बीच में कहां से आ गई, इसी से बचने के लिए तो मैं ने

अब तक किसी शादी का प्र्रस्ताव स्वीकार नहीं किया.’’

प्रीति ने लज्जा से सिर झांका लिया.

उस ने समीर के मांबाबूजी के पैर छूते हुए कहा, ‘‘आप लोगों का आदेश मेरे लिए आज्ञा से कम नहीं.’’

फिर उस की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे.

समीर उसे छोड़ने उस के घर तक गया. जब वह लौटने लगा तो उस ने प्रीति को अपने गले से लगा लिया. और बोला, ‘‘प्रीति पतिपत्नी का रिश्ता बराबर का होता है, आज भी मैं वही समीर हूं जो कालेज के दिनों में हुआ करता था और आगे भी ऐसे ही रहूंगा.’’

समीर के गले लगी प्रीति को ऐसा लग रहा था मानो सारे जहां की खुशियां उसे मिल गई हैं. रात का सियाह अंधेरा अब समाप्त हो चुका था. सुबह की नई किरणें फूटने लगी थीं.

प्यार का सफल प्रायश्चित्त

Story in Hindi

नारद मुनि और नेताजी

नेताजी जब से केंद्र में मंत्री बने हैं, मदमस्त हो चले हैं. कहीं लाठियां चलवा रहे हैं, तो कहीं गोलियां. आम आदमी उन की नजर में चींटी, मच्छर सी बखत रखता है. जब देश में त्राहित्राहि मची तो देवलोक कंपायमान होने लगा. त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश के आसन नेताजी के अन्याय, शोषण, अत्याचार के ताप में हिलनेडोलने लगे. त्रिदेव की भृकुटि तनी.

अंततः तीनों ने आर्यवर्त के कल्याण के लिए रपट मंगाने देवश्री नारद मुनि का स्मरण किया. तत्क्षण ‘नारायण… नारायण’ कहते हुए मुनिवर नारद प्रगट हुए. हाथों में वीणा थी. ब्रह्मदेव ने कहा, ‘सुपुत्र, आ गए.’

नारद मुनि ने त्रिदेव को प्रणाम किया और कहा, ‘भगवन, आप के आसन डोल रहे हैं. यह स्थिति आ गई है. ओफ… अब तीनों लोकों के स्वामी भी सुरक्षित नहीं, तो भला इस सृष्टि का कौन मालिक होगा?’

ब्रह्मदेव के चेहरे पर नाराजगी उभर आई, ‘पुत्र, मर्यादा भंग न करो.’

‘नारायण… नारायण… क्षमा, प्रभु…’ नारद मुनि मुसकराए.

‘तुम्हारी मुसकराहट जहर की मानिंद जान पड़ती है. पर, आज तुम्हें एक काम करना है,’ ब्रह्मदेव ने शांत भाव से कहा, ‘वत्स, पृथ्वीलोक में एक नेता के दुष्कर्म के फलस्वरूप हमारे आसन डोलने लगे हैं. तुम्हें आज ही वहां जाना है.’

‘नारायण, नारायण…’ नारद मुनि ने हाथ जोड़ कर त्रिदेव को नमन कर गंतव्य को प्रस्थान किया. नेताजी  शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों को घंटाघर के पास पिटवा रहे थे, पुलिस गोलियां चला रही थी. इस दौरान देवश्री नारद प्रकट हुए. देखा, लोगों के चेहरे पर गुस्सा है, पुलिस लाठियों से ऐसे पीट रही है मानो धोबी अपने गधे को पीट रहा हो.

नेताजी कलक्ट्रेट पुलिस अधीक्षक सहित अपने समर्थकों के साथ एक पेड़ की छांव में बैठे ठहाके लगा रहे हैं, तभी नारदमुनि नेताजी के समक्ष अवतरित हुए और चिरपरिचित शैली में ‘नारायणनारायण’ उन के श्रीमुख से नि:स्तृत हुआ. नारदमुनि को देखते ही नेताजी चौंके. देवश्री ने कहा, ‘नेताजी, मैं नारदमुनि.’

नेताजी उठ खड़े हुए, ‘मुनिवर, मेरा अहोभाग्य.’

नारदमुनि हाथ मटकाते हुए बोले, ‘अहोभाग्य कहो या दुर्भाग्य, हमें तुम्हारे कामकाज की समीक्षा के लिए ब्रह्म, शिव और विष्णु द्वारा भेजा गया है.

नेताजी गंभीर हो कर बोले, ‘मुनिवर, हालांकि यह चिंता की बात है. मगर, कोई बात नहीं. हम ने जब यहां कई जांच आयोग और गुप्तचर एजेंसियों की जांच का सामना करने में सफलता पाई है, तो फिर आप की जांच का भी सामना करेंगे.’

नारदमुनि कहने लगे, ‘नारायणनारायण इतना कौन्फिडेंस…? तुम्हें पता है, तुम्हारी प्राणीमात्र को सतानेकुचलने की नीति के कारण देवलोक भी कंपायमान हो चला है.’

नेताजी सोचते हुए बोले, ‘अच्छा, अर्थात जैसेजैसे हम अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे हैं, देवलोक की भी हमारी ताकत के आगे चूलें हिलने लगी हैं मुनिवर. यह आप ने बड़ी अच्छी खबर दी.’

नारदमुनि बोले, ‘नारायणनारायण नेताजी, तुम बड़े अजीब प्राणी हो. हर चीज में अपना फायदा ढूंढ़ने लगते हो. देवलोक डोल रहा है तुम्हारे अत्याचार से और तुम…’

नेताजी कहने लगे, ‘मुनिवर, आप का देवलोक बड़ा सेंसेटिव है. न तो आप लोगों को किसी का वोट चाहिए, ना ही समर्थन, फिर भी कुरसी हिलने लगी है. देवश्री, यहां तो हम लोग 5 साल के लिए जनता के वोट पर कुरसी, पद, प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं. तब भी बेफिक्र रहते हैं.

‘ऐसे में हम आप लोगों से ज्यादा प्रतिभावान हैं. हमें पता है कि कब, कहां और कैसे जनता को रिमोट करना है.’

नारदमुनि बोले, ‘नारायणनारायण, तुम हमें सिखाओगे…? हम्म…? तुम्हारी नब्ज हमारे हाथ में है, यह भूल गए?’

नेताजी बोले, ‘नहींनहीं मुनिवर, ऐसा कैसे हो सकता है? मैं अच्छी तरह जानता हूं कि आप मेरी कौन्फिडेंस रिपोर्ट तैयार कर त्रिदेव के समक्ष पेश करेंगे.’

नारदमुनि कहने लगे, ‘वाह, वाह, तुम तो वाकई इंटेलिजेंट नेता हो.’

नेताजी बोले, ‘मुनिवर, मैं यह भी जानता हूं कि आप रिपोर्ट पक्की बनाएंगे. अगर इंद्रदेव आते तो कुछ मेनका, रंभा से उन का मन बहला कर रिपोर्ट चेंज की जा सकती थी, मगर आप तो…’

नारदमुनि बोले, ‘बिलकुल रिपोर्ट सौ फीसदी सच्ची बनेगी.’

नेताजी बोले, ‘नारायणनारायण, तो बनाओ. ले लो बयान. एकएक आंदोलनकारी से.’

नारद मुनि के समक्ष एकएक सत्याग्रही आता गया. बयान दर्ज होते गए. नेताजी मुसकराते रहे. जिलाधीश, पुलिस कप्तान आपस में ठिठोली करते रहे. अधीनस्थ कर्मचारी से सुश्रुवा में लगे रहे. अंततः  नारदमुनि की रिपोर्ट पूरी हुई.

मुनिवर देवलोक को प्रस्थान करने की सोचने लगे. नेताजी ने हाथ जोड़ कर उन की ओर देखा. नारदमुनि की आंखें झुक गईं. रिपोर्ट में सब ठीकठाक है, फिर देवलोक कंपायमान क्यों है, समझ नहीं आता.

यह सुन उपस्थित शासनप्रशासन ‘हो… हो’ कर हंस रहा था.

गेहूं, गहने और चक्की : शुभम की मम्मी का गुस्सा

‘‘शुभम… ओ शुभम,’’ मीता देवी के चीखने का स्वर  कुछ इस तरह का था कि शुभम  सिर से  पांव तक सिहर उठा. वह अचानक यह समझ नहीं सका कि उस से कहां क्या गड़बड़ हो गई. अपनी मां मीता के उग्र स्वभाव से वह क्या, घर और महल्ले तक के लोग परिचित थे. इसलिए शुभम अपनी ओर से कोशिश करता था कि ऐसा कोई काम न करे कि उस की मां को क्रोध आए. फिर भी जानेअनजाने कभी कुछ ऐसा हो ही जाता था कि मां का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता.

‘‘क्या हुआ, मां,’’ कहता हुआ शुभम तेजी से सीढि़यां फलांगते हुए मां के सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘तुम से गेहूं पिसवाने के लिए कहा था, उस का क्या हुआ?’’ मां मीता ने छूटते ही शुभम से पूछा.

‘‘वह तो मैं सुबह ही चक्की पर पिसने को दे आया था.’’

‘‘वही तो मैं पूछ रही हूं कि ऐसी क्या आफत आ गई थी जो तुम सुबहसुबह ही गेहूं पिसने के लिए चक्की पर रख आए?’’ मीता कुछ इस तरह बोली थीं कि शुभम हक्का- बक्का रह गया.

‘‘आप को समझ पाना तो असंभव है, मां. आप ने इतनी जल्दी मचाई कि नूरे की चक्की बंद थी तो मैं 30 किलो गेहूं साइकिल पर रख कर चौराहे तक ले गया. वहां एक नई चक्की खुली है, जहां गेहूं रख कर आया हूं.’’

‘‘सत्यानाश, नूरे की चक्की बंद थी तो गेहूं वापस नहीं ला सकते थे क्या? यों तो 10 बार कहने पर भी तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंगती लेकिन आज इतने आज्ञाकारी बन गए कि फौरन ही हुक्म बजा लाए. अब क्या होगा? मैं तो बरबाद हो गई, लुट गई.’’

‘‘बरबाद आप नहीं मैं हो जाऊंगा, मां. कल मेरी एम.एससी. की प्रतियोगी परीक्षा है और आप यह रोनाधोना ले कर बैठ गई हैं,’’ शुभम को भी गुस्सा आ गया था.

‘‘तुम्हें पता भी है कि तुम ने क्या किया है?’’

‘‘क्या कर दिया, मां! मैं ने आप से कहा था कि कल परीक्षा के बाद गेहूं पिसवा दूंगा. आज काम चला लीजिए तो आप ने इतना शोर मचाया कि मैं अपना सब काम छोड़ कर गेहूं पिसवाने भागा.’’

‘‘गेहूं के कनस्तर में एक पोटली में मेरे 40 तोले के सोने के जेवर रखे थे,’’ यह कह कर मीता विलाप कर उठी थीं.

‘‘क्या कह रही हो, मां? गहने क्या गेहूं के कनस्तर में रखे जाते हैं? घर में 2 स्टील की अलमारी हैं. बैंक में आप का लौकर है और गहने वहां…’’ शुभम के आश्चर्य की सीमा न थी.

‘‘कल गुंजन के विवाह में जाने के लिए गहने बैंक से निकाले थे और चोरों के भय से कनस्तर में छिपा कर रखे थे. तुम नहीं जानते, समय कितना खराब है. काश, आज तुम गेहूं पिसवाने नहीं गए होते…’’ इतना कह मां सिर पर दोहत्थड़ मार कर फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

‘‘किसी को घर बैठे 40 तोले सोने के गहने मिल जाएं तो क्यों लौटाने लगा? फिर भी मैं प्रयत्न करता हूं,’’ कहता हुआ शुभम साइकिल ले कर बाहर निकल गया था.

मीता का जोरजोर से दहाडें़ मार कर रोना सुन कर पड़ोसी भी जमा हो गए थे.

हंगामा सुन कर गली में क्रिकेट खेलता उन का छोटा बेटा सत्यम आ गया और कालिज से लौट कर सोई हुई उन की बेटी सत्या भी जाग गई और मां को ढाढ़स बंधाने लगी.

पड़ोसियों ने पूरी कहानी सुन कर शुभम के पिता मुकेश को फोन कर दिया तो वह भी आननफानन में दफ्तर से आ गए और पत्नी को ही पूरे मामले के लिए दोषी ठहराने लगे.

‘‘भूल जाओ गहनों को, कोई मूर्ख ही घर आई लक्ष्मी को लौटाता है. जीवन भर की गाढ़ी कमाई खर्च कर गहने बनवाए थे. सोचा था बच्चों के काम आएंगे. सारे गहने चले गए चक्की वाले के यहां. वह तो घी के दीपक जला रहा होगा,’’ मुकेशजी अपनी भड़ास निकाल रहे थे.

‘‘यों हिम्मत नहीं हारते, मुकेश बाबू, शुभम आता ही होगा. सब ठीक हो जाएगा,’’ पड़ोसी मुकुल नाथ बोले थे.

शुभम की प्रतीक्षा में मानो समय ठहर सा गया था. आंगन के बीचोंबीच आंखें मूंदे कराहती हुई मीताजी अर्द्ध- चेतना में पड़ी थीं और उन के चारों ओर जमा महिलाएं अपनेअपने ढंग से उन्हें ढाढ़स बंधा रही थीं. साथ ही विस्तार से इस बात की चर्चा भी हो रही थी कि कैसे जाने वाली चीज के पैर लग जाते हैं.

यह चर्चा कुछ और देर चलती पर तभी शुभम की साइकिल दरवाजे पर आ कर रुकी और वहां मौजूद लोगों में सर- सराहट सी फैल गई. बिसूरती हुई मीताजी उठ बैठी थीं. कई जोड़ी निगाहें शुभम के चेहरे पर टिकी थीं. वह चुपचाप साइकिल खड़ी कर के घर की सीढि़यां चढ़ने लगाथा.

‘‘कहां जा रहे हो, शुभम? मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं,’’ आखिर, मुकेश बाबू का धैर्य जवाब दे गया तो वह बोल पडे़.

‘‘मेरी प्रतीक्षा…क्यों?’’ शुभम बोला था.

‘‘तुम अपनी मां के गहने लेने गए थे न?’’

‘‘हां, पापा, मैं चक्की तक गया था पर वहां ताला लगा हुआ था.’’

‘‘देखा, मैं कहती थी न कि मुआ चक्की वाला मेरे गहने ले कर भाग गया होगा. अब क्या होगा?’’ और फिर उन्होंने इस प्रकार बिलखना शुरू किया कि वहां मौजूद औरतों की आंखों से भी जलधारा बह चली.

उधर आसपड़ोस के पुरुषों ने मुकेश बाबू को घेर लिया और उन्हेंअनेक प्रकार की सलाह देने लगे.

‘‘मेरी मानो तो तुम्हें पुलिस को सूचित कर देना चाहिए. जब पुलिस के डंडे उस पर पडें़गे तो वह सब उगल देगा,’’ एक पड़ोसी ने सलाह दी थी.

‘‘उगलने को वह कौन सा मेरे घर चोरी करने आया था. अब कौन सा मुंह ले कर मैं पुलिस के पास जाऊं? वे उपहास ही करेंगे कि जब गहनों की पोटली खुद ही चक्की वाले के हवाले कर दी तो क्या आशा ले कर आए हो पुलिस के पास?’’ मुकेशजी क्रोध में बोले थे.

‘‘देखा, मैं कहती थी न…’’ मीता देवी ने अभी इतना ही कहा था कि मुकेशजी ने झल्लाते हुए कहा, ‘‘अरे, अब कहने को क्या रह गया है? तुम यह रोनाधोना बंद करो और अपनेअपने कामधंधे से लगो. और आप लोग भी अपने घरों को जाइए, व्यर्थ ही हम लोगों ने रात के 10 बजे आप सब को परेशान किया.’’

‘‘कैसी बातें करते हैं, मुकेश बाबू, दुखतकलीफ में मित्र व पड़ोसी काम नहीं आएंगे तो कौन आएगा,’’ उन के पड़ोसी नितिन राय बोले तो वह दांत पीस कर रह गए थे.

मुकेश बाबू अच्छी तरह जानते थे कि अपनेअपने घर पहुंच कर सब उन की पत्नी की मूर्खता पर ठहाके लगाएंगे. इसीलिए वह जल्दी से जल्दी पड़ोसियों से छुटकारा पा कर एकांत चाहते थे. पर पड़ोसी थे कि जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे. तभी उन्होंने शुभम को आवाज लगाई और वह डरासहमा उन के सामने आ खड़ा हुआ था.

‘‘गेहूं ले जाने से पहले तुम कनस्तर देख नहीं सकते थे? पर तुम्हारे पास जितनी अक्ल है उतना ही तो काम करोगे.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि गेहूं पिसाने के कनस्तर में गहने भी रखे जा सकते हैं. मैं ने तो गेहूं तुलवाए भी थे. मुझे तो कोई पोटली नजर नहीं आई.’’

‘‘नजर आती भी कैसे? तुम्हारा ध्यान तो कहीं और ही रहता है.’’

‘‘पापा, आप तो बेवजह मुझ पर गुस्सा कर रहे हैं. भला, गेहूं तुलवाते समय कहां ध्यान जा सकता है,’’ शुभम भी तीखे स्वर में बोला था.

‘‘देखा आप सब ने? यह है आज की संतान. एक तो इतना नुकसान कर दिया उस की चिंता नहीं है, ऊपर से अपनी मां को ही दोषी ठहरा रहा है,’’ मुकेश बाबू अचानक उग्र रूप धारण कर कुछ इस प्रकार चीखे थे कि शुभम सकते में आ गया और चुपचाप एक कोने में बैठ कर रोने लगा.

‘‘चक्की बंद है. आधी रात होने को आई. इस समय चक्की वाले का पता करना भी कठिन है,’’ एक पड़ोसी ने विचार जाहिर किए थे.

‘‘मैं भी यही सोच रहा हूं कि आप लोग भी चल कर विश्राम कीजिए. कब तक इस ठंड में यहां बैठे रहेंगे,’’ मुकेश बाबू ने सलाह दी थी.

‘‘ठीक है, फिर हम सब चलते हैं,’’ एकएक कर सभी पड़ोसी उठ खडे़ हुए थे.

‘‘आप तनिक भी चिंता मत कीजिए, मुकेश बाबू,’’ जातेजाते भी नितिन राय बोले थे, ‘‘कल दुकान खुलने का समय होते ही हमसब आप के साथ चलेंगे और कुछ दूरी पर आड़ में खडे़ हो जाएंगे. पहले शुभम को भेज कर देखेंगे. उस ने गहने देने में कुछ आनाकानी की तो पुलिस की सहायता लेंगे.’’

मुकेश बाबू को छोटा बेटा और बेटी सहारा दे कर अंदर के कमरे में ले गए थे. शुभम का तो उन के सामने जाने का साहस ही नहीं हो रहा था.

‘‘आज तो लगता है भूखे ही सोना पड़ेगा, शुभम भैया,’’ सत्यम ने कहा तो शुभम को भी याद आया कि उस ने दोपहर के भोजन के बाद कुछ भी नहीं खाया था.

‘‘भूख तो मुझे भी लग रही है. ऊपर से कल मेरी प्रतियोगी परीक्षा भी है,’’ शुभम ने हां में हां मिलाई थी.

शुभम इस ऊहापोह के बीच भी खुद को शांत कर कुछ पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था. तभी सत्या ने कुछ खाद्य पदार्थों के साथ उस के कमरे में प्रवेश किया.

‘‘भैया, जो कुछ फ्रिज में मिला, मैं ले आई हूं,’’ सत्या धीमे स्वर में बोली थी.

शुभम ने प्लेट में नजर डाली तो ब्रेड, मक्खन और कुछ फल रखे थे.

‘‘यह सबकुछ आज खा लिया तो कल नाश्ते का क्या होगा? मां बहुत डांटेंगी,’’ शुभम बोला था.

‘‘भैया, तुम सब से बडे़ हो पर सब से अधिक डरपोक. अरे, आज तो खा लो, कल डांट खा लेंगे,’’ सत्यम हंस कर ब्रेड पर मक्खन लगाते हुए बोला था.

सत्यम और सत्या को खाते देख शुभम को भी लगा कि बिना कुछ खाए वह पढ़ने में ध्यान नहीं लगा सकेगा.

‘‘यह हुई न बात,’’ शुभम को खाते देख सत्यम बोला, ‘‘भैया, आप कुछ बोलते क्यों नहीं. गेहूं में गहने मां ने रखे थे पर मां और पापा आप को ही दोष दिए जा रहे हैं.’’

‘‘तुम नहीं समझोगे. सब से बड़ा होने पर सबकुछ सहना पड़ता है. हर बात में पलट कर वार नहीं कर सकते,’’ शुभम अपने विशेष अंदाज में बोला था.

‘‘अच्छा हुआ जो मैं सब से बड़ा न हुआ,’’ सत्यम मुसकराया था.

‘‘नहीं तो क्या होता?’’ शुभम ने पूछा तो सत्यम बोला, ‘‘अभी तो भैया, मैं खुद जानने का प्रयत्न कर रहा हूं. पता चलते ही आप को सूचित करूंगा.’’

खापी कर सत्यम, सत्या और शुभम सो गए. जब नींद खुली तो पौ फट रही थी. शुभम केवल यही कामना कर रहा था कि गहनों का झमेला सुलझ जाए ताकि वह समय पर परीक्षा भवन तक पहुंचने में सफल हो सके अन्यथा न जाने क्या होगा.

9 बजते ही पड़ोसी जमा होने लगे थे. सलाह करने के बाद सब चक्की की ओर चल पड़े. चक्की अब भी बंद थी. सभी चक्की की उलट दिशा में फुटपाथ पर खडे़ हो गए और उन्होंने शुभम को चक्की के सामने बनी सीढि़यों पर जा बैठने का आदेश दिया.

थोड़ी ही देर में चक्की वाला आ पहुंचा था.

‘‘क्या हुआ? बडे़ सवेरे आ गए. घर में आटा नहीं था क्या?’’ उस ने आते ही शुभम से पूछा था.

‘‘मुझे परीक्षा देने के लिए जाना था. मां ने कहा आटा ले आओ. इसीलिए जल्दी आना पड़ा.’’

‘‘बस, यही बात थी क्या?’’

‘‘नहीं, सच तो यह है कि मां ने 40 तोले गहनों की पोटली गेहूं में छिपा कर रखी थी. मुझे पता नहीं था. गलती से मैं पोटली सहित कनस्तर का गेहूं आप की चक्की पर रख गया था.’’

‘‘कौनकौन से गहने थे?’’ चक्की वाले ने प्रश्न किया.

‘‘वह तो मुझे पता नहीं.’’

‘‘तो बेटे, फिर अपनी मां के साथ आना चाहिए था न?’’

दोनों के बीच बातचीत होते देख कर मुकेश बाबू और पड़ोसी खुद को रोक नहीं सके और सड़क पार कर चक्की के सामने आ खडे़ हुए थे.

‘‘पोटली मेरे पास है. उसे खोल कर देखते ही मेरे तो होश उड़ गए थे. गरीब आदमी हूं. दूसरे की अमानत की रक्षा कर पाऊंगा या नहीं, इसी तनाव में पूरी रात कटी. जाओ, अपनी मां को बुला लाओ. वह अपने गहने सहेज लें तो मैं चैन की सांस ले सकूं,’’ चक्की वाला बोला था.

उस की यह बात सुन कर मुकेश बाबू तथा अन्य सभी हक्केबक्के रह गए थे. वे सब तो सीधी उंगली से घी न निकलने की स्थिति में उंगली टेढ़ी करने का मन बना कर आए थे पर यहां तो मामला ही दूसरा था. कैसा मूर्ख व्यक्ति था, घर आई लक्ष्मी लौटा रहा था.

शीघ्र ही शुभम अपनी मां मीता को ले कर आ गया. उन्होंने पोटली में बंधे गहने पहचान कर ले लिए थे. बहुत जोश में वहां पहुंचे लोग उस की ईमानदारी का प्रतिदान देने की युक्ति सोच रहे थे. मुकेश बाबू ने थानापुलिस से निबटने के लिए जेब में जो 5 हजार रुपए रखे थे वह उस के सामने रख दिए.

‘‘यह क्या है, बाबूजी?’’ चक्की वाले ने प्रश्न किया था.

‘‘मैं बहुत साधारण व्यक्ति हूं. तुम्हारे उपकार का प्रतिदान तो नहीं चुका सकता पर यह छोटी सी तुच्छ भेंट स्वीकार करो,’’ मुकेश बाबू का स्वर भर्रा गया था.

‘‘आप लोगों के चेहरों पर आए राहत और संतोष के भाव देख कर मुझे सबकुछ मिल गया. आप की अमानत आप को लौटा कर कोई उपकार नहीं किया है मैं ने.’’

लाख कहने पर भी चक्की वाले ने कुछ भी लेना स्वीकार नहीं किया था. मुकेश बाबू और अन्य पड़ोसियों को अचानक उस का कद बहुत ऊंचा लग रहा था और अपना बहुत बौना, जिस के बारे में बिना कुछ जाने वे कल से अनापशनाप आरोप लगाते रहे थे. उसे किसी प्रकार कुछ दे कर वे शायद अपने अपराधबोध को कम करना चाह रहे थे. पर ईमानदारी और बेईमानी के दो पाटों के बीच का असमंजस बड़ा विचित्र था जो गहने मिलने पर भी उन्हें आनंदित नहीं होने दे रहा था.

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