मजाक- लॉकडाउन: शटर डाउन  

सुरेश सौरभ अपनी परचून की दुकान के बाहर दुकानदार बैठा है. उस की दुकान का शटर डाउन है. जैसे ही कोई ग्राहक सामने से दिखता है, उसे रोक कर वह फौरन दुकान की साइड वाली खिड़की से अंदर जा कर, उसी खिड़की से धीरेधीरे सामान सरकाते  हुए अपने ग्राहक को फौरन ही निबटा  देता है. ज्वैलरी वाला अपनी दुकान के खाली पड़े प्लाट में बैठा है.

वह अपने 1-1 परमानैंट कस्टमर को फोन करकर के बुला रहा है. अपने बैग में रखे जेवर दिखादिखा कर ग्राहकों को धीरेधीरे निबटा रहा है. उस की दुकान का शटर डाउन है. दूध डेरी खुली है, सरकारी आदेश पर. उस के पास में मिठाई वाले की दुकान बंद है. मिठाई वाले ने डेरी वाले को कमीशन बेस पर अपनी मिठाइयां सौंप दी हैं.  डेरी वाले ने कपड़े से उस की सारी मिठाइयां ढक दी हैं. अब अपने दूध के साथ उस की मिठाइयों को भी ग्राहकों तक पहुंचाने का सुफल हासिल कर रहा है.

मोटर साइकिल का पंचर बनाने वाला भला आदमी अपनी दुकान के पास ही सुलभ शौचालय के नजदीक कुरसी डाले मजे से बैठा है. वहां से अपनी दुकान के आसपास जब किसी पंचर गाड़ी वाले को ठिठकते देखता है, तो वह वैसे ही उस कस्टमर को सीटी बजा कर इशारे से बुलाता है और उस की सारी टैंशन का समाधान करने के लिए पास ही की एक पतली गली के अंदर उसे ले कर समा जाता है.

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सरकारी छूट पर ही फलों की रेहड़ी जहांतहां लगी है. उस रेहड़ी वाले से गोलगप्पे वाले ने तय शर्तों पर अपने कुछ भगौने उस की रेहड़ी पर रख दिए हैं, जिन में ताजा गोलगप्पे और गोलगप्पों में भरने के लिए मसाला, पानी, मटर, आलू आदि रखा है.  जो कस्टमर फल लेने आता, उन में से कुछ ग्राहकों को गोलगप्पे वाला पकड़ कर निबटा देता है. दूर से पता यही चल रहा है कि फल का ठेला लगा है. होटल वालों ने तो अपना शटर डाउन कर के नाश्तेखाने की होम डिलीवरी शुरू कर दी है. चाट, डोसे के ठेलेस्टाल  वालों ने अपने घर पर ही धंधा शुरू कर दिया है.

अपनेअपने महल्ले में घरघर जा कर कह दिया है, अगर ताजा चाट और डोसा खाना है, तो धीरेधीरे सरकते हुए हमारे घर तक आने की जहमत करें. उन के यहां सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए धीरेधीरे कस्टमर आ रहे हैं. इसी तरह मीट और चिकन वालों ने भी अपनीअपनी दुकानों का शटर डाउन कर के अपने घरों पर ही धंधा शुरू कर दिया है, सारे कस्टमर फोन से बुलाए जा रहे हैं और धड़ाधड़ माल की सप्लाई हो रही है. कपड़े की दुकान का शटर डाउन है.

बंद शटर की रखवाली में बाहर गार्ड बैठा है. अगर भूलाबिसरा कस्टमर कोई आ जाए, तो वह गार्ड उसे पीछे के दरवाजे से अंदर दुकान में भेज देता है, जहां  कपड़ों की खरीदारी चल रही है. ‘‘पैंट की चैन बनवा लो, बैग की चैन लगवा लो…’’ यह चिल्लाते हुए एक आदमी मेरी कालोनी में अपने गले में बैग डाले घूम रहा था.  मैं ने उस से पूछा, ‘‘लौकडाउन का नियम तोड़ कर दुकानदारी क्यों कर रहे हो मेरे भाई?’’ वह बोला, ‘‘धंधे के टाइम में डिस्टर्ब न करो बड़े भाई.

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मेरे लिए जब सरकार की कोई गाइडलाइन ही नहीं है, तो मेरे लिए काहे का लौकडाउन…’’ शौपिंग माल वालों की मेन रोड पर दुकानें धुआंधार चल रही थीं. लौकडाउन के बाद उन का शटर डाउन है. अब वे पतलीपतली संकरी गलियों में परचून दुकान की तरह अपनी छोटीछोटी ब्रांचें डाल रहे हैं, जहां खिड़कियों से सामान सप्लाई हो रहा है, क्योंकि सयाने कहते हैं कि खिड़कियों से सामान आसानी से निकाला यानी बेचा जा सकता है और इस से पुलिस से सौ फीसदी तक बचा जा सकता है.

अटूट बंधन- भाग 2: प्रकाश ने कैसी लड़की का हाथ थामा

शालिनी को ऐसा लगा जैसे त्रिशा उस से कुछ छिपा रही थी. फिर भी त्रिशा को छेड़ने के लिए गुदगुदाते हुए उस ने कहा, ‘‘अब इतनी भी उदास मत हो जाओ, उन को याद कर के. जानती हूं भई, याद तो आती है, पर अब कुछ ही दिन तो बाकी हैं न.’’ त्रिशा अपनी आदत के अनुसार मुसकरा उठी. शालिनी को जरा परे धकेलते हुए बोली, ‘‘जाओ, मैं नहीं करती तुम से बात. जब देखो एक ही रट.’’

तभी अचानक त्रिशा का मोबाइल बज उठा. ‘‘उफ, कितनी लंबी उम्र है उन की. नाम लिया और फोन हाजिर,’’ शालिनी उछल पड़ी. ‘‘खूब इत्मीनान से जी हलका कर लो. मैं तो चली,’’ कहती हुई शालिनी कमरे से बाहर निकल गई.

दरअसल, बात यह थी कि कुछ ही दिनों में त्रिशा का प्रेमविवाह होने वाला था. डा. आजाद, जिन से जल्द ही त्रिशा का विवाह होने वाला था, लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक थे. त्रिशा और आजाद ने दिल्ली के एक स्पैशल स्कूल से साथसाथ ही पढ़ाई पूरी की थी. उस के बाद आजाद अपने घर लखनऊ वापस आ गए थे. वहीं से उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की और फिर अपनी रिसर्च भी पूरी की. रिसर्च पूरी करने के कुछ ही दिनों बाद उन्हें यूनिवर्सिटी में ही जौब मिल गई. ऐसा लगता था कि त्रिशा और आजाद एकदूसरे के लिए ही बने थे.

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स्कूल में लगातार पनपने वाला लगाव और आकर्षण एकदूसरे से दूर हो कर प्यार में कब बदल गया, पता ही नहीं चला. शीघ्र ही दोनों ने विवाह के अटूट बंधन में बंधने का फैसला कर लिया. दोनों के न देख पाने के कारण जाहिर है परिवार वालों को स्वीकृति देने में कुछ समय तो लगा, पर उन दोनों के आत्मविश्वास और निश्छल प्रेम के आगे एकएक कर सब को झुकना ही पड़ा.

त्रिशा के बेंगलुरु आने के बाद आजाद बहुत खुश थे. ‘‘चलो अच्छा है, वहां तुम्हें इतने अच्छे दोस्त मिल गए हैं. अब मुझे तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करनी पड़ेगी.’’ ‘‘अच्छी बात तो है, पर इस बेफिक्री का यह मतलब नहीं कि आप हमें भूल जाएं,’’ त्रिशा आजाद को परेशान करने के लिए यह कहती तो आजाद का जवाब हमेशा यही होता, ‘‘खुद को भी कोई भूल सकता है क्या.’’

आज जब त्रिशा आजाद से बात कर रही थी तो आजाद को समझते देर न लगी कि त्रिशा आज उन से कुछ छिपा रही है, ‘‘क्या बात है, आज तुम कुछ परेशान हो?’’ ‘‘नहीं तो.’’

‘‘त्रिशा, इंसान अगर खुद से ही कुछ छिपाना चाहे तो नहीं छिपा सकता,’’ आजाद की आवाज में कुछ ऐसा था, जिसे सुन कर त्रिशा की आंखें डबडबा आईं. ‘‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मैं आप से कल बात करती हूं,’’ यह कह कर त्रिशा ने फोन डिसकनैक्ट कर दिया. अगले दिन त्रिशा और प्रकाश के बीच औफिस में भी कोई बात नहीं हुई. ऐसा पहली बार ही हुआ था. प्रकाश का मिजाज आज एकदम उखड़ाउखड़ा था.

‘‘चलो,’’ शाम को उस ने त्रिशा के पास आ कर कहा. रास्तेभर दोनों ने कोई बात नहीं की. होस्टल आने ही वाला था कि त्रिशा ने खीझ कर कहा, ‘‘तुम कुछ बोलोगे भी कि नहीं?’’ ‘‘मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए.’’

कितनी डूबती हुई आवाज थी प्रकाश की. 3 साल में त्रिशा ने प्रकाश को इतना खोया हुआ कभी नहीं देखा था. पिछले 2 दिन में प्रकाश में जो बदलाव आए थे, उन पर गौर कर के त्रिशा सहम गई. ‘क्या वाकई प्रकाश… क्या प्रकाश… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,’ त्रिशा का मन विचलित हो उठा. ‘मुझे तुम से कल बात करनी है. कल छुट्टी भी है. कल सुबह 11 बजे मिलते हैं. गुडनाइट,’’ कहते हुए त्रिशा गाड़ी से उतर गई.

जैसा तय था, अगले दिन दोनों 11 बजे मिले. बिना कुछ कहेसुने दोनों के कदम अनायास ही पार्क की ओर बढ़ते चले गए. त्रिशा के होस्टल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही शहर का सब से बड़ा व खूबसूरत पार्क था. ऐसे ही छुट्टी के दिनों में न जाने कितनी ही बार वे दोनों यहां आ चुके थे. पार्क के भीतरी गेट पर पहुंच कर दोनों को ऐसा लगा जैसे आज असाधारण भीड़ उमड़ पड़ी हो. भीड़भाड़ और चहलपहल तो हमेशा ही रहती है यहां, पर आज की भीड़ में कुछ खास था. सैकड़ों जोड़े एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले अंदर चले जा रहे थे. बहुतों के हाथ में गुलाब का फूल, किसी के पास चौकलेट तो किसी के हाथ में गिफ्ट पैक. पर प्रकाश का मन इतना अशांत था कि वह कुछ समझ ही नहीं सका.

हवा जोरों से चलने लगी थी. बादलों की गड़गड़ाहट सुन कर ऐसा मालूम होता था कि किसी भी पल बरस पड़ेंगे. मौसम की तरह प्रकाश का मन भी आशंकाओं से घिर आया था. त्रिशा को लगा, शायद आज यहां नहीं आना चाहिए था. तभी अचानक उस का मोबाइल बज उठा. ‘‘हैप्पी वैलेंटाइंस डे, मैडम,’’ आजाद की आवाज थी. ‘‘ओह, मैं तो बिलकुल भूल ही गई थी,’’ त्रिशा बोली.

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‘‘आजकल आप भूलती बहुत हैं. कोई बात नहीं. अब आप का गिफ्ट नहीं मिलेगा, बस, इतनी सी सजा है,’’ आजाद ने आगे कहा, ‘‘अच्छा, अभी हम थोड़ा जल्दी में हैं. शाम को बात करते हैं.’’ आज बैंच खाली मिलने का तो सवाल नहीं था. सो, साफसुथरी जगह देख दोनों घास पर ही बैठ गए. त्रिशा अकस्मात पूछ बैठी, ‘‘क्या तुम वाकई सीरियस हो?’’

‘‘तुम समझती हो कि मैं मजाक कर रहा हूं?’’ प्रकाश का स्वर रोंआसा हो उठा.

Romantic Story: रुह का स्पंदन- भाग 3

घर वालों की सहमति पर सुदेश और दक्षा ने मिल कर बातें करने का निश्चय किया. सुदेश सुबह ही मिलना चाहता था, लेकिन दक्षा ने ब्रेकफास्ट कर के मिलने की बात कही. क्योंकि वह पूजापाठ कर के ही ब्रेकफास्ट करती थी. सुदेश में दक्षा से मिलने के लिए गजब का उत्साह था. दक्षा की बातों और उस के स्वभाव ने आकर्षण तो पैदा कर ही दिया था. इस के अलावा दक्षा ने अपने जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें मिल कर बताने को कहा था. वो बातें कौन सी थीं, सुदेश उन बातों को भी जानना चाहता था.

निश्चित की गई जगह पर सुदेश पहले ही पहुंच गया था. वहां पहुंच कर वह बेचैनी से दक्षा की राह देख रहा था. वह काले रंग की शर्ट और औफ वाइट कार्गो पैंट पहन कर गया था. रेस्टोरेंट में बैठ कर वह हैडफोन से गाने सुनने में मशगूल हो गया. दक्षा ने काला टौप पहना था, जिस के लिए उस की मम्मी ने टोका भी था कि पहली बार मिलने जा रही है तो जींस टौप, वह भी काला.

तब दक्षा ने आदत के अनुसार लौजिकल जवाब दिया था, ‘‘अगर मैं सलवारसूट पहन कर जाती हूं और बाद में उसे पता चलता है कि मैं जींस टौप भी पहनती हूं तो यह धोखा देने वाली बात होगी. और मम्मी इंसान के इरादे नेक हों तो रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

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तर्क करने में तो दक्षा वकील थी. बातों में उस से जीतना आसान नहीं था. वह घर से निकली और तय जगह पर पहुंच गई. सढि़यां चढ़ कर दरवाजा खोला और रेस्टोरेंट में अंदर घुसी. फोटो की अपेक्षा रियल में वह ज्यादा सुंदर और मस्ती में गाने के साथ सिर हिलाती हुई कुछ अलग ही लग रही थी.

अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.

खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’

इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.

‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’

दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.

‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’

अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.

‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’

सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’

सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.

यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.

सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.

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दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.

जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’

सुदेश और दक्षा के वाइब्स ने एकदूसरे से संबंध जोड़ने की मंजूरी दे दी थी.

तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं: भाग 4

‘‘इस तरह एक साल गुजर गया. उस दिन भी हाईकोर्ट में विभाग के विरुद्ध एक मुकदमे में मैं भी मौजूद था. विभाग के विरुद्ध वादी के वकील के कुछ हास्यास्पद से तर्क सुन कर जज साहब व्यंग्य से मुसकराए थे और उसी तरह मुसकराते हुए प्रतिवादी के वकील हमारी वकील साहिबा की ओर देख कर बोले, ‘हां वकील साहिबा, अब आप क्या कहेंगी.’

‘‘जज साहब के मुसकराने से अचानक पता नहीं वकील साहिबा पर क्या प्रतिक्रिया हुई. वे फाइल को जज साहब की तरफ फेंक कर बोलीं, ‘हां, अब तुम भी कहो, मैं, जवान हूं, सुंदर हूं, चढ़ाओ मुझे चने की झाड़ पर,’ कहते हुए वे बड़े आक्रोश में जज साहब के डायस की तरफ बढ़ीं तो इस बेतुकी और अप्रासंगिक बात पर जज साहब एकदम भड़क गए और इस गुस्ताखी के लिए वकील साहिबा को बरखास्त कर उन्हें सजा भी दे सकते थे पर गुस्से को शांत करते हुए जज साहब संयत स्वर में बोले, ‘वकील साहिबा, आप की तबीयत ठीक नहीं लगती, आप घर जा कर आराम करिए. मैं मुकदमा 2 सप्ताह बाद की तारीख के लिए मुल्तवी करता हूं.’

‘‘उस दिन जज साहब की अदालत में मुकदमा मुल्तवी हो गया. मगर इस के बाद लगातार कुछ ऐसी ही घटनाएं और हुईं. एक दिन वह आया जब एक दूसरे जज महोदय की नाराजगी से उन्हें मानसिक चिकित्सालय भिजवा दिया गया. अजीब संयोग था कि ये सभी घटनाएं मेरी मौजूदगी में ही हुईं.

‘‘वकील साहिबा की इस हालत की वजह खुद को मानने के चलते अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए औफिस से ही समय निकाल कर उन का कुशलक्षेम लेने अस्पताल हो आता था. एक दिन वहां की डाक्टर ने मुझ से उन के रिश्ते के बारे पूछ लिया तो मैं ने डाक्टर को पूरी बात विस्तार से बतला दी. डाक्टर ने मेरी परिस्थिति जान कर मुलाकात का समय नहीं होने पर भी मुझे उन की कुशलक्षेम जानने की सुविधा दी. फिर डाक्टर ने सीधे उन के सामने पड़ने से परहेज रखने की मुझे सलाह देते हुए बताया कि वे मुझे देख कर चिंतित सी हो कर बोलती हैं, ‘तुम ने क्यों कहा, मैं सुंदर हूं.’ और मेरे चले आने पर लंबे समय तक उदास रहती हैं.

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‘‘बेटा उच्चशिक्षा के बाद और बड़ी बेटी व दामाद किसी विदेशी बैंकिंग संस्थान में अच्छे वेतन व भविष्य की खातिर विदेश चले गए थे. छोटी बेटी केंद्र की प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गई थी. मगर वह औफिसर्स होस्टल में रह रही थी. अब परिवार में मेरे और पत्नी के अलावा कोई नहीं था. उधर पत्नी के मन में मेरे और वकील साहिबा के काल्पनिक अवैध संबंधों को ले कर गहराते शक के कारण उन का ब्लडप्रैशर एकदम बढ़ जाता था, और फिर दवाइयों के असर से कईकई दिनों तक मैमोरीलेप्स जैसी हालत हो जाती थी.

‘‘इसी हालात में उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब बेटे ने अपनी एक विदेशी सहकर्मी युवती से शादी करने का समाचार हमें दिया.

‘‘उस दिन मेरे मुंह से अचानक निकल गया, ‘अब मन्नू को तो वकील साहिबा ने नहीं भड़काया.’ मेरी बात सुन कर पत्नी ने कोई विवाद खड़ा नहीं किया तो मुझे थोड़ा संतोष हुआ. मगर उस के बाद पत्नी को हाई ब्लडप्रैशर और बाद में मैमोरीलेप्स के दौरों में निरंतरता बढ़ने लगी तो मुझे चिंता होने लगी.

‘‘कुछ दिनों बाद उन्हें फिर से डिप्रैशन ने घेर लिया. अब पूरी तरह अकेला होने कारण पत्नी की देखभाल के साथ दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करना बेहद कठिन महसूस होता था. रिटायरमैंट नजदीक था, और प्रमोशन का अवसर भी, इसलिए लंबी छुट्टियां ले कर घर पर बैठ भी नहीं सकता था. क्योंकि प्रमोशन के मौके पर अपने खास ही पीठ में छुरा भोंकने का मौका तलाशते हैं और डाक्टर द्वारा बताई गई दवाइयों के असर से वे ज्यादातर सोई ही रहती थीं. फिर भी अपनी गैरहाजिरी में उन की देखभाल के लिए एक आया रख ली थी.

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‘‘उस दिन आया ने कुछ देर से आने की सूचना फोन पर दी, तो मैं उन्हें दवाइयां, जिन के असर से वे कमसेकम 4 घंटे पूरी तरह सोईर् रहती थीं, दे कर औफिस चला गया था. पता नहीं कैसे उन की नींद बीच में ही टूट गई और मेरी गैरहाजिरी में नींद की गोलियों के साथ हाई ब्लडप्रैशर की दशा में ली जाने वाली गोलियां इतनी अधिक निगल लीं कि आया के फोन पर सूचना पा कर जब मैं घर पहुंचा तो उन की हालत देख कर फौरन उन्हें ले कर अस्पताल को दौड़ा. मगर डाक्टरों की कोशिश के बाद भी उन की जीवन रक्षा नहीं हो सकी.

‘‘पत्नी की मृत्यु पर बेटे ने तो उस की पत्नी के आसन्न प्रसव होने के चलते थोड़ी देर इंटरनैट चैटिंग से शोक प्रकट करते हुए मुझ से संवेदना जाहिर की थी, मगर दोनों बेटियां आईं थी. छोटी बेटी तो एक चुभती हुई खमोशी ओढ़े रही, मगर बड़ी बेटी का बदला हुआ रुख देख कर मैं हैरान रह गया. वकील साहिबा को मौसी कह कर उन के स्नेह से खुश रहने वाली और बैंकसेवा के चयन से ले कर उस के जीवनसाथी के साथ उस का प्रणयबंधन संपन्न कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहने के कारण उन की आजीवन ऋ णी रहने की बात करने वाली मेरी बेटी ने जब कहा, ‘आखिर आप के और उन के अफेयर्स के फ्रस्टेशन ने मम्मी की जान ले ही ली.’ और मां को अपनी मौसी की सेवा की याद दिलाने वाली छोटी बेटी ने भी जब अपनी बहन के ताने पर भी चुप्पी ही ओढ़े रही तो मैं इस में उस का भी मौन समर्थन मान कर बेहद दुखी हुआ था.

हरिराम- भाग 3: शशांक को किसने सही राह दिखाई

दूसरे दिन इमामबाड़ा की भूलभुलैया में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर रास्ता खोजते रहे. शशांक और सरिता को लगा कि उन के कालिज के दिन लौट आए हैं. शाम को गोमती के किनारे बने पार्क में बैठेबैठे सरिता ने शशांक के कंधे पर सिर रख दिया और आंखें बंद कर लीं.

‘‘सरू, तुम्हें पता है, मुझ में आए इस बदलाव का जिम्मेदार कौन है…इस का जिम्मेदार हरिराम है,’’ उस ने सरिता के बालों को सहलाते हुए उस शाम की घटना बता दी. शशांक दूसरे दिन प्रोजेक्ट पर पहुंचा तो वह खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. उस ने पाया कि उस में कुछ कर दिखाने की इच्छाशक्ति पहले से दोगुनी हो गई है.

इधर सरिता ने हरिराम के कमरे में जा कर कहा, ‘‘काका, आप के कारण मेरी खोई हुई गृहस्थी, मेरा परिवार मुझे वापस मिला है. मैं आप की जिंदगी भर ऋणी रहूंगी. मैं अब आप को काका कह कर बुलाऊंगी.’’

हरिराम ने भावुक हो कर सरिता के सिर पर हाथ फेरा. ‘‘काका, अब मैं यहीं रहूंगी और खाना मैं बनाऊंगी आप आराम करना.’’

‘‘नहीं बिटिया, मेरा काम मत छीनो. हां, अपनेआप को व्यस्त रखो और कुछ नया करना सीखो.’’ सरिता ने चित्रकला सीखनी शुरू कर दी. शशांक के प्रयासों से लखनऊ प्रोजेक्ट में पहले धीमी और फिर तेज प्रगति होने लगी. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने कंपनी को भुगतान शुरू कर दिया. यही नहीं, उस प्रोजेक्ट के विस्तार का काम भी उस की कंपनी को मिल गया.

1 माह के बाद सरिता ने हरिराम से कहा, ‘‘काका, आप के कारण मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मैं दिल्ली में बिलकुल खाली रहती थी. इस कारण मेरा दिमाग गलत विचारों का कारखाना बन गया था. बजाय शशांक की परेशानी समझने के मैं अपने पति पर शक करने लगी थी.’’ हरिराम के लाख मना करने पर भी सरिता ने उस का एक बड़ा चित्र बनाया.

इधर दिल्ली में कंपनी अध्यक्ष मि. सेनगुप्ता के सामने निदेशक मि. उत्पल बनर्जी पसीनापसीना हो रहे थे. ‘‘मि. बनर्जी, आप को पता है कि हरियाणा विद्युत निगम ने कंपनी को फरीदाबाद प्रोजेक्ट के लिए कोर्ट का नोटिस भेजा है?’’

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‘‘सर, शशांक बहुत गड़बड़ कर के गया है. उस ने कोई कागज न गांगुली को और न मुझे दिया है. बिना कागज के तो….’’ ‘‘मि. बनर्जी, आप मुझे क्या बेवकूफ समझते हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप तो…’’ ‘‘मि. बनर्जी, सारी गड़बड़ आप के दिमाग में है. आप आदमी का मूल्यांकन उस के काम से नहीं बल्कि उस के बंगाली होने या न होने से करते हैं.’’

‘‘मेरे पास उन फाइलों और रिपोर्टों की पूरी सूची है जो शशांक, जतिन गांगुली को दे कर गया है.’’ ‘‘यस सर.’’

‘‘आप और गांगुली 1 सप्ताह के अंदर फरीदाबाद वाले प्रोजेक्ट को रास्ते पर लाइए या अपना त्यागपत्र दीजिए.’’ ‘‘सर, 1 सप्ताह में…’’

‘‘आप जा सकते हैं.’’ 1 सप्ताह के बाद मि. उत्पल बनर्जी और मि. गांगुली कंपनी से निकाले जा चुके थे. मि. सेनगुप्ता ने शशांक को फोन कर के कंपनी की इज्जत की खातिर फरीदाबाद प्रोजेक्ट का अतिरिक्त भार लेने को कहा.

‘‘हरिराम, तुम ने ठीक कहा था. ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर हर व्यक्ति की प्रतिभा का मूल्यांकन होता है,’’ शशांक दिल्ली के लिए विदा लेते समय बोला. ‘‘काका, आप की बहुत याद आएगी,’’ सरिता बोली.

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1 माह बाद फरीदाबाद प्रोजेक्ट भी ठीक हो गया और शशांक को दोहरा प्रमोशन दे कर कंपनी का जनरल मैनेजर बना दिया गया. उस ने हरिराम को अपने प्रमोशन की खबर देने के लिए फोन किया तो पता चला कि हरिराम नौकरी छोड़ कर कहीं चला गया है.

शाम को शशांक ने हरिराम के बारे में सरिता को बताया तो वह गंभीर हो गई, फिर बोली, ‘‘हरिराम काका शायद अपने बिछुड़े परिवार की तलाश में गए होंगे या शांति की तलाश में.’’ आज 3 साल बाद शशांक कंपनी में निदेशक है. सरिता ने चित्रकला का स्कूल खोला है. उन की बैठक में हरिराम का सरिता द्वारा बनाया हुआ चित्र लगा है.

परख- भाग 3: प्यार व जनून के बीच थी मुग्धा

दोनों की धूमधाम से सगाई हुई और 2 महीने बाद ही विवाह की तिथि निश्चित कर दी गई. सारा परिवार जोश के साथ विवाह की तैयारी में जुटा था कि अचानक प्रसाद ने एकाएक प्रकट हो कर मुग्धा को बुरी तरह झकझोर दिया था. उस ने प्रसाद को पूरी तरह अनदेखा करने का निर्णय लिया पर वह जब भी औफिस से निकलती, प्रसाद उसे वहीं प्रतीक्षारत मिलता. वह प्रतिदिन आग्रह करता कि कहीं बैठ कर उस से बात करना चाहता है, पर मुग्धा कैब चली जाने का बहाना बना कर टाल देती.

पर एक दिन वह अड़ गया कि कैब का बहाना अब नहीं चलने वाला. ‘‘कहा न, मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. फिर क्यों भाव खा रही हो. इतने लंबे अंतराल के बाद तुम्हारा प्रेमी लौटा है, मुझे तो लगा तुम फूलमालाओं से मेरा स्वागत करोगी पर तुम्हारे पास तो मेरे लिए समय ही नहीं है.’’

‘‘किस प्रेमी की बात कर रहे हो तुम? प्रेम का अर्थ भी समझते हो. मुझे कोई रुचि नहीं है तुम में. मेरी मंगनी हो चुकी है और अगले माह मेरी शादी है. मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी परछाई भी मुझ पर पड़े.’’

‘‘समझ गया, इसीलिए तुम मुझे देख कर प्रसन्न नहीं हुईं. नई दुनिया जो बसा ली है तुम ने. तुम तो सात जन्मों तक मेरी प्रतीक्षा करने वाली थीं, पर तुम तो 7 वर्षों तक भी मेरी प्रतीक्षा नहीं कर सकीं. सुनो मुग्धा, कहीं चल कर बैठते हैं. मुझे तुम से ढेर सारी बातें करनी हैं. अपने बारे में, तुम्हारे बारे में, अपने भविष्य के बारे में.’’

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‘‘पता नहीं प्रसाद, तुम क्या कहना चाह रहे हो. मुझे नहीं याद कि मैं ने तुम्हारी प्रतीक्षा करने का आश्वासन दिया था. आज मुझे मां के साथ शौपिंग करनी है. वैसे भी मैं इतनी व्यस्त हूं कि कब दिन होता है, कब रात, पता ही नहीं चलता,’’ मुग्धा ने अपनी जान छुड़ानी चाही. जब तक प्रसाद कुछ सोच पाता, मुग्धा कैब में बैठ कर उड़नछू हो गई थी.

‘‘क्या हुआ?’’ बदहवास सी मुग्धा को कैब में प्रवेश करते देख सहयात्रियों ने प्रश्न किया.

‘‘पूछो मत किस दुविधा में फंस गई हूं मैं. मेरा पुराना मित्र प्रसाद लौट आया है. रोज यहां खड़े हो कर कहीं चल कर बैठने की जिद करता है. मैं बहुत डर गई हूं. तुम ही बताओ कोई 3 वर्षों के लिए गायब हो जाए और अचानक लौट आए तो उस पर कैसे भरोसा किया जा सकता है.’’

‘‘समझा, ये वही महाशय हैं न जिन्होंने पार्टी में सब के सामने तुम्हें थप्पड़ मारा था,’’ उस के सहकर्मी अनूप ने जानना चाहा था.

‘‘हां. और गुम होने से पहले हमारी बोलचाल तक नहीं थी. पर अब वह ऐसा व्यवहार कर रहा है मानो कुछ हुआ ही नहीं था,’’ मुग्धा की आंखें डबडबा आई थीं, गला भर्रा गया था.

‘‘तुम से वह चाहता क्या है?’’ अनूप ने फिर प्रश्न किया, कैब में बैठे सभी सहकर्मियों के कान ही कान उग गए.

‘‘पता नहीं, पर अब मुझे डर सा लगने लगा है. पता नहीं कब क्या कर बैठे. पता नहीं, ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?’’

मुग्धा की बात सुन कर सभी सहकर्मियों में सरसरी सी फैल गई. थोड़ी देर विचारविमर्श चलता रहा.

‘‘मुग्धा तुम्हारा डर अकारण नहीं है. ऐसे पागल प्रेमियों से बच कर रहना चाहिए. पता नहीं, कब क्या कर बैठें?’’ सब ने समवेत स्वर में अपना डर प्रकट किया.

‘‘मेरे विचार से तो मुग्धा को इन महाशय से मिल लेना चाहिए,’’ अनूप जो अब तक सोचविचार की मुद्रा में बैठा था, गंभीर स्वर में बोला.

‘‘अनूप, तुम ऐसा कैसे कर सकते हो. बेचारी को शेर की मांद में जाने को बोल रहे हो,’’ मुग्धा की सहेली मीना बोली.

‘‘यह मत भूलो कि 3 वर्षों तक मुग्धा स्वेच्छा से प्रसाद से प्रेम की पींगें बढ़ाती रही है. मैं तो केवल यह कह रहा हूं विवाह से पहले ही इस पचड़े को सुलझाने के लिए प्रसाद से मिलना आवश्यक है. कब तक डर कर दूर भागती रहेगी. फिर यह पता लगाना भी तो आवश्यक है कि प्रसाद बाबू इतने वर्षों तक थे कहां. उसे साफ शब्दों में बता दो कि तुम्हारी शादी होने वाली है और वह तुम्हारे रास्ते से हट जाए.’’

‘‘मैं ने उसे पहले दिन ही बता दिया था ताकि वह यह न समझे कि मैं उस की राह में पलकें बिछाए बैठी हूं,’’ मुग्धा सिसक उठी थी.

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‘‘मैं तो कहती हूं सारी बातें परख को बता दे. जो करना है दोनों मिल कर करेंगे तो उस का असर अलग ही होगा,’’ मीना बोली तो सभी ने स्वीकृति में सिर हिला कर उस का समर्थन किया. मुग्धा को भी उस की बात जंच गई थी.

उस ने घर पहुंचते ही परख को फोन किया. ‘‘क्या बात है? आज अचानक ही हमारी याद कैसे आ गई,’’ परख हंसा.

‘‘याद तो उस की आती है जिसे कभी भुलाया हो. तुम्हारी याद तो साए की तरह सदा मेरे साथ रहती है. पर आज मैं ने बड़ी गंभीर बात बताने के लिए फोन किया है,’’ मुग्धा चिंतित स्वर में बोली.

‘‘अच्छा, तो कह डालो न. किस ने मना किया है.’’

‘‘प्रसाद लौट आया है,’’ मुग्धा ने मानो किसी बड़े रहस्य पर से परदा हटाया.

‘‘कौन प्रसाद? तुम्हारा पूर्व प्रेमी?’’

‘‘हां, वही.’’

‘‘तो क्या अपना पत्ता कट गया?’’ परख हंसा.

‘‘कैसी बातें करते हो? यह क्या गुड्डेगुडि़यों का खेल है? हमारी मंगनी हो चुकी है. वैसे भी मुझे उस में कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘यों ही मजाक कर रहा था, आगे बोलो.’’‘‘मैं जब औफिस से निकलती हूं तो राह रोक कर खड़ा हो जाता है, कहता है कि कहीं बैठ कर बातें करते हैं. मैं कैब चली जाने की बात कह कर टालती रही हूं पर अब उस से डर सा लगने लगा है.’’

‘‘पर इस में डरने की क्या बात है? प्रसाद से मिल कर बता दो कि तुम्हारी मंगनी हो चुकी है. 2 महीने बाद विवाह होने वाला है. वह स्वयं समझ जाएगा.’’

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‘‘वही तो समस्या है. वह बातबात पर हिंसक हो उठता है. कह रहा था मुझे उस की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी. तुम 2 दिन की छुट्टी ले कर आ जाओ. हम दोनों साथ ही मिल लेंगे प्रसाद से,’’ मुग्धा ने अनुनय की.

‘‘यह कौन सी बड़ी बात है. तुम ने बुलाया, हम चले आए. मैं तुम से मिलने आ रहा हूं. मैं प्रसाद जैसे लोगों की परवा नहीं करता. पर तुम डरी हुई हो तो हम दोनों साथ में उस से मिल लेंगे और सारी स्थिति साफ कर देंगे,’’ परख अपने चिरपरिचित अंदाज में बोला.

मुग्धा परख से बात कर के आश्वस्त हो गई. वैसे भी उस ने परख को अपने बारे में सबकुछ बता दिया था जिस से विवाह के बाद उसे किसी अशोभनीय स्थिति का सामना न करना पड़े.मुग्धा और परख पहले से निश्चित समय पर रविवार को प्रसाद से मिलने पहुंचे. कौफी हाउस में दोनों पक्ष एकदूसरे के सामने बैठे दूसरे पक्ष के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘आप मुग्धा से विचारविमर्श करना चाहते थे,’’ आखिरकार परख ने ही मौन तोड़ा.

‘‘आप को मुग्धा ने बताया ही होगा कि हम दोनों की मंगनी हो चुकी है और शीघ्र ही हम विवाह के बंधन में बंधने वाले हैं,’’ परख ने समझाया.

‘‘मंगनी होने का मतलब यह तो नहीं है कि मुग्धा आप की गुलाम हो गई और अपनी इच्छा से वह अपने पुराने मित्रों से भी नहीं मिल सकती.’’

‘‘यह निर्णय परख का नहीं, मेरा है, मैं ने ही परख से अपने साथ आने को कहा था,’’ उत्तर मुग्धा ने दिया.

‘‘समझा, अब तुम्हें मुझ से अकेले मिलने में डर लगने लगा है. मुझे तो आश्चर्य होता है कि तुम जैसी तेजतर्रार लड़की इस बुद्धू के झांसे में आ कैसे गई. सुनिए महोदय, जो भी नाम है आप का, मैं लौट आया हूं. मुग्धा को आप ने जो भी सब्जबाग दिखाए हों पर मैं उसे अच्छी तरह जानता हूं. वह तुम्हारे साथ कभी खुश नहीं रह सकती. वैसे भी अभी मंगनी ही तो हुई है. कौन सा विवाह हो गया है. भूल जाओ उसे. कभी अपनी शक्ल देखी है आईने में? चले हैं मुग्धा से विवाह करने, ’’ प्रसाद का अहंकारी स्वर देर तक हवा में तैरता रहा.

‘‘एक शब्द भी और बोला प्रसाद, तो मैं न जाने क्या कर बैठूं, तुम परख का ही नहीं, मेरा भी अपमान कर रहे हो,’’ मुग्धा भड़क पड़ी.

‘‘मेरी बात भी ध्यान से सुनिए प्रसाद बाबू, पता नहीं आप स्वयं को कामदेव का अवतार समझते हैं या कुछ और, पर भविष्य में मुग्धा की राह में रोड़े अटकाए तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. चलो मुग्धा, यह इस योग्य ही नहीं है कि इस से कोई वार्त्तालाप किया जा सके,’’ परख उठ खड़ा हुआ.

पलक झपकते ही दोनों प्रसाद की आंखों से ओझल हो गए. देर से ही सही, प्रसाद की समझ में आने लगा था कि अपना सब से बड़ा शत्रु वह स्वयं ही था.

बाहर निकलते ही मुग्धा ने परख का हाथ कस कर थाम लिया. उसे पूरा विश्वास हो गया था कि उस ने परख को परखने में कोई भूल नहीं की थी.

अटूट प्यार- भाग 2: यामिनी से क्यों दूर हो गया था रोहित

कुछ सोचते हुए मायूस शब्दों में रोहित बोला, ‘‘अभी इस दुनिया में मेरा खुद का ही कोई ठिकाना नहीं है. मैं किस मुंह से तुम्हारे पापा से तुम्हें मांग पाऊंगा. अगर उन्होंने मना कर दिया तो हमारी उम्मीद टूट जाएगी. जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, तुम्हें धीरज रखना होगा. मेरे किसी योग्य होने तक अपनी शादी को किसी बहाने टलवा लो. मैं जल्दी ही तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा.’’

‘‘काश, मैं ऐसा कर पाती. जीवन की अंतिम सांस तक तुम्हारा इंतजार करूं, पर न जाने क्यों मेरे मम्मीपापा को मेरी शादी की जल्दी पड़ी है? रोहित, मेरे पापा से मेरा हाथ मांग लो. मैं जिंदगी भर तुम्हारा एहसान मानूंगी.’’ यामिनी अपनी रौ में कहती चली गई, ‘‘मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती. तुम नहीं मिले तो मैं अपनी जान दे दूंगी.’’

रोहित ने घबरा कर कहा, ‘‘ऐसा गजब नहीं करना. तुम से दूर होने की बात मैं सोच भी नहीं सकता. लेकिन फिलहाल हमें इंतजार करना ही पड़ेगा.’’

यामिनी एक उम्मीद लिए अपने घर लौट आई. रोहित से जिंदगी भर के लिए मिलने के खयाल से उस के दिल की धड़कन बढ़ जाती. उस ने सोचा, क्या हसीन समां होगा जब वह और रोहित हमेशा के लिए साथ होंगे.

लेकिन चंद दिनों बाद ही यामिनी के खयालों की हसीन दुनिया ढहती नजर आई. उन की मां ने बताया कि अगले दिन ही उसे देखने मेहमान आ रहे हैं. यामिनी को काटो तो खून नहीं. उस ने घबरा कर रोहित को फोन किया. पर यह क्या? वह काल पर काल करती गई और उधर रिंग होती रही लेकिन रोहित ने फोन रिसीव नहीं किया. आखिर रोहित को आज हो क्या गया है? फोन क्यों नहीं उठा रहा है? वह काफी परेशान हो गई.

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शायद वह किसी काम में व्यस्त होगा. इसलिए यामिनी ने थोड़ी देर ठहर कर कौल किया. लेकिन फिर भी उस ने फोन नहीं उठाया. ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह तो तुरंत कौल रिसीव करता था या मिस्ड होने पर खुद ही कौलबैक करता था. आधी रात हो गई लेकिन यामिनी की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह रोहित को कौल करती रही. अंत में कोई जवाब दिए बिना रोहित का मोबाइल फोन स्विच औफ हो गया तो यामिनी की रुलाई फूट पड़ी.

अगले दिन सुबह पापा के ड्यूटी पर जाने के बाद यामिनी बहाना बना कर घर से निकल गई और रोहित के कमरे पर जा पहुंची, क्योंकि मेहमान शाम को आने वाले थे. पर यह क्या? वहां ताला लगा था. आसपास के लोगों से उस ने पूछा तो पता चला कि रोहित कमरा खाली कर कहीं जा चुका है. वह कहां गया है, यह कोई

नहीं बता पाया. यामिनी की आंखों में आंसू आ गए. अब वह क्या करे? कहां जाए? रोहित बिना कुछ कहे जाने कहां चला गया था. लेकिन रोहित ऐसा कर सकता है, यामिनी को यकीन नहीं हो रहा था.

शाम निकट आती जा रही थी और उस की दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

अगर लड़के वालों ने उसे पसंद कर लिया तो क्या होगा? वह कैसे मना कर पाएगी शादी के लिए? उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. उस ने सोचा, यह वक्त कहीं ठहर जाए तो कितना अच्छा हो. लेकिन गुजरते वक्त पर किस का अधिकार होता है.

धीरेधीरे शाम आ ही गई. लड़के वाले कई लोगों के साथ यामिनी को देखने आ गए. यामिनी का कलेजा जैसे मुंह को आ गया. जीवन में कभी खुद को उस ने इतना लाचार नहीं महसूस किया था. मां की जिद पर उस ने मन ही मन रोते हुए अपना शृंगार किया. उसे लड़के वालों के सामने ले जाया गया.

उस का दिल रो रहा था. रोहित से वह जुदा नहीं होना चाहती थी. यह सोच कर यामिनी की पीड़ा और बढ़ जाती कि अगर सब रजामंद हो गए तो क्या होगा? इस कठिन घड़ी में रोहित उसे बिना कुछ कहे कहां गायब हो गया था. यामिनी अकेले दम पर कैसे प्यार निभा पाएगी? उस ने क्या सिर्फ मस्ती करने के लिए प्यार किया था? जब निभाने और जिम्मेदारी उठाने की बात आई तो उसे छोड़ कर चुपचाप गायब हो गया. यह कैसा प्यार था उस का?

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लेकिन यामिनी का मन रोहित के अलावा किसी और को स्वीकार करने को तैयार नहीं था. वह मन ही मन कामना कर रही थी कि लड़के वाले उसे नापसंद कर दें. लेकिन उन लोगों ने उसे पसंद कर लिया. अपने प्यार को टूटता देख यामिनी बेसब्र होती जा रही थी. इतनी कठिन घड़ी में वह अपनी भावनाओं के साथ अकेली थी. रोहित तो जाने किस दुनिया में गुम था. आखिर उस ने ऐसा क्यों किया? क्या प्यार उस के लिए मन बहलाने की चीज थी? यामिनी का विकल मन रोने को हो रहा था.

घर में खुशी का माहौल था. उस की मां सभी परिचितों एवं रिश्तेदारों को फोन पर लड़के वालों द्वारा यामिनी को पसंद किए जाने की सूचना दे रही थीं. पापा धूमधाम से शादी करने के लिए जरूरी इंतजाम के बारे में सोच रहे थे. लेकिन यामिनी मन ही मन घुट रही थी. रोहित को वह भूल नहीं पा रही थी. वह सोचती कि काश, उस की यह शादी न हो. उस के दिल में तो सिर्फ रोहित बसा था. वह कैसे किसी और के साथ न्याय कर पाएगी.

कुछ दिन बीते और इसी दौरान एक नई घटना घट गई. जिस बात को ले कर यामिनी घुली जा रही थी वह बिना कोशिश के ही हल हो गई. लड़के वाले शादी को ले कर आनाकानी करने लगे थे. जो शादी में मध्यस्थ का काम कर रहे थे उन्होंने बताया कि लड़के वालों ने ज्यादा दहेज के लालच में दूसरी जगह शादी पक्की कर ली. यह जान कर यामिनी को राहत सी महसूस हुई. कई दिनों के बाद उस की होंठों पर मुसकराहट आई.

शादी की बात टलते ही यामिनी को राहत मिली. पर अफसोस, रोहित अब भी उस के संपर्क में नहीं था. वह रोहित को याद कर हर पल बेचैन रहने लगी. बिना बताए वह कहां चला गया है? उस ने अपना मोबाइल फोन क्यों स्विच औफ कर लिया है? ज्योंज्यों दिन बीत रहे थे उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. कभीकभी उसे लगता कि रोहित ने उस के साथ धोखा किया है.

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यामिनी हमेशा रोहित के नंबर पर कौल करती. लेकिन मोबाइल फोन हमेशा स्विच औफ मिलता. उस ने फेसबुक पर भी कई मैसेज पोस्ट किए पर कोई जवाब नहीं मिला. एक दिन उस ने देखा कि रोहित ने उसे फेसबुक पर भी ब्लौक कर रखा था. उस की इस हरकत पर यामिनी को बहुत गुस्सा आया. जिस के लिए उस ने अपना सारा चैन खो दिया, वह उस से दूर होने की हर कोशिश कर रहा है.

गुस्से से उस के होंठ कांपने लगे. बिना बताए इस तरह की हरकत? शादी नहीं करनी थी तो पहले बता देता. चोरों की तरह बिना कुछ बताए गायब हो जाना तो उस की कायरता है.

जरा सी आजादी- भाग 1: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’

एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’

‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’

तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.

जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.

पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.

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कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.

रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र  4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.

‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.

हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.

बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.

‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.

नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.

‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.

सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.

‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’

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हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?

‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.

‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’

‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’

कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.

‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’

हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.

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‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.

‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’

आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.

नादानियां- भाग 2: उम्र की इक दहलीज

लगभग महीनेभर की प्रैक्टिस के बाद प्रथमा ठीकठाक कार चलाने लगी थी. एक दिन उस ने भी राकेश के ही अंदाज में कहा, ‘‘जहांपनाह, कनीज आप को गुरुदक्षिणा देने की चाह रखती है.’’ ‘‘हमारी दक्षिणा बहुत महंगी है बालिके,’’ राकेश ने भी उसी अंदाज

में कहा. ‘‘हमें सब मंजूर है, गुरुजी,’’ प्रथमा ने अदब से झुक कर कहा तो राकेश को हंसी आ गई और यह तय हुआ कि आने वाले रविवार को सब लोग चाट खाने बाहर जाएंगे.

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चूंकि ट्रीट प्रथमा के कार चलाना सीखने के उपलक्ष्य में थी, इसलिए आज कार वही चला रही थी. रितेश अपनी मां के साथ पीछे वाली सीट पर और राकेश उस की बगल में बैठा था. आज प्रथमा को गुडफील हो रहा था. चाट खाते समय जब रितेश अपनी मां को मनुहार करकर के गोलगप्पे खिला रहा था तो प्रथमा को बिलकुल भी बुरा नहीं लग रहा था बल्कि वह तो राकेश के साथ ही ठेले पर आलूटिकिया के मजे ले रही थी. दोनों एक ही प्लेट में खा रहे थे. अचानक मुंह में तेज मिर्च आ जाने से प्रथमा सीसी करने लगी तो राकेश तुरंत भाग कर उस के लिए बर्फ का गोला ले आया. थोड़ा सा चूसने के बाद जब उस ने गोला राकेश की तरफ बढ़ाया तो राकेश ने बिना हिचक उस के हाथ से ले कर गोला चूसना शुरू कर दिया. न जाने क्या सोच कर प्रथमा के गाल दहक उठे. आज उसे लग रहा था मानो उस ने अपने मिशन में कामयाबी की पहली सीढ़ी पार कर ली.

इस रविवार राकेश को अपने रूटीन हैल्थ चैकअप के लिए जाना था. रितेश औफिस के काम से शहर से बाहर टूर पर गया है. राकेश ने डाक्टर से अगले हफ्ते का अपौइंटमैंट लेने की बात कही तो प्रथमा ने कहा, ‘‘रितेश नहीं है तो क्या हुआ? मैं हूं न. मैं चलूंगी आप के साथ. हैल्थ के मामले में कोई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.’’ दोनों ससुरबहू फिक्स टाइम पर क्लिनिक पहुंच गए. वहां आज ज्यादा पेशेंट नहीं थे, इसलिए वे जल्दी फ्री हो गए. वापसी में घर लौटते हुए प्रथमा ने कार मल्टीप्लैक्स की तरफ घुमा दी. तो राकेश ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कुछ काम है क्या यहां?’’

‘‘जी हां, काम ही समझ लीजिए. बहुत दिनों से कोई फिल्म नहीं देखी थी. रितेश को तो मेरे लिए टाइम नहीं है. एक बहुत ही अच्छी फिल्म लगी है, सोचा आज आप के साथ ही देख ली जाए,’’ प्रथमा ने गाड़ी पार्किंग में लगाते हुए कहा. राकेश को उस के साथ यों फिल्म देखना कुछ अजीब सा तो लग रहा था मगर उसे प्रथमा का दिल तोड़ना भी ठीक नहीं लगा, इसलिए फिल्म देखने को राजी हो गया. सोचा, ‘सोचा बच्ची है, इस का भी मन करता होगा…’

प्रथमा की बगल में बैठा राकेश बहुत ही असहज सा महसूस कर रहा था, क्योंकि बारबार सीट के हत्थे पर दोनों के हाथ टकरा रहे थे. उस से भी ज्यादा अजीब उसे तब लगा जब उस के हाथ पर रखा अपना हाथ हटाने में प्रथमा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि बहुत ही सामान्य भाव से फिल्म का मजा लेती रही. उन्होंने ही धीरे से अपना हाथ हटा लिया. ऐसा ही एक वाकेआ उस दिन भी हुआ जब प्रथमा उसे पिज्जा हट ले कर गई थी. दरअसल, उन की बड़ी बेटी पारुल की ससुराल घर से कुछ ही दूरी पर है. पिछले दिनों पारुल के ससुरजी ने अपनी आंख का औपरेशन करवाया था. आज शाम राकेश को उन से मिलने जाना था. प्रथमा ने पूछा, ‘‘मैं भी आप के साथ चलूं? इस बहाने शहर में मेरी कार चलाने की प्रैक्टिस भी हो जाएगी.’’ सास से अनुमति मिलते ही प्रथमा कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ कर राकेश के साथ चल दी. वापसी में उस ने कहा, ‘‘चलिए, आज आप को पिज्जा हट ले कर चलती हूं.’’

‘‘अरे नहीं, तुम तो जानती हो कि मुझे पिज्जा पसंद नहीं,’’ राकेश ने टालने के अंदाज में कहा. ‘‘आप से पिज्जा खाने को कौन कह रहा है. वह तो मुझे खाना है. आप तो बस पेमैंट कर देना,’’ प्रथमा ने अदा से मुसकराते हुए कहा. न चाहते हुए भी राकेश को गाड़ी से उतरना ही पड़ा. पास आते ही प्रथमा ने अधिकार से उस की बांहों में बांहें डाल कर जब कहा, ‘‘दैट्स लाइक अ परफैक्ट कपल,’’ तो राकेश से मुसकराते भी नहीं बना.

पिज्जा खातेखाते प्रथमा बीचबीच में उसे भी आग्रह कर के खिला रही थी. मना करने पर भी जबरदस्ती मुंह में ठूंस देती. राकेश समझ नहीं पा रहा था कि उस के साथ क्या हो रहा है. वह प्रथमा की इस हरकत को उस का बचपना समझ कर नजरअंदाज करता रहा. प्रथमा कुछ और जिद करे, इस से पहले ही वह रितेश का फोन आने का बहाना बना कर उसे घर ले आया.

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‘‘यह देखिए. मैं आप के लिए क्या ले कर आई हूं,’’ प्रथमा ने एक दिन राकेश को एक पैकेट पकड़ाते हुए कहा. ‘‘क्या है यह?’’ राकेश ने उसे उलटपलट कर देखा.

‘‘यह है ज्ञान का खजाना यानी बुक्स. आज से हम दोनों साथसाथ पढ़ेंगे,’’ प्रथमा ने नाटकीय अंदाज में कहा. वह जानती थी कि नौवेल्स पढ़ना राकेश की कमजोरी है. राकेश ने एक छोटी सी लाइब्रेरी भी घर में बना रखी थी और सब को सख्त हिदायत थी कि जब वह लाइब्रेरी में हो तो कोई भी उसे डिस्टर्ब न करे. मगर अब प्रथमा का भी दखल उस में होने लगा था. शाम का वह समय जो वे दोनों कार चलाना सीखने को जाया करते थे, अब बंद लाइब्रेरी में किताबों को देने लगे. राकेश ने जब प्रथमा के लाए नौवेल्स को पढ़ना शुरू किया तो उसे महसूस हुआ कि इन में लगभग सभी नौवेल्स में एक बात कौमन थी. वह यह कि सभी में घुमाफिरा कर विवाहेतर संबंधों की वकालत की गई थी. विभिन्न परिस्थितियों में नजदीकी रिश्तों में बनने वाले इन ऐक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन को अपराध या आत्मग्लानि की श्रेणी से बाहर रखा गया था. एक दिन तो राकेश से कुछ भी कहते नहीं बना जब प्रथमा ने ऐसे ही एक किराएदार का उदाहरण दे कर उस से पूछा जिस के अजीबोगरीब हालात में अपनी बहू से अंतरंग संबंध बन गए थे, ‘‘मुझे लगता है इस का फैसला गलत नहीं था. आप इस की जगह होते तो क्या करते?’’

तुमने क्यों कहा मैं सुंदर हूं: भाग 5

‘‘कुछ समय बाद मैं और तुम सेवानिवृत्त हो गए. मैं अब वकील साहिबा को देखने के लिए नियमितरूप से मानसिक अस्पताल जाने लगा और उन के साथ काफी समय गुजारने लगा. एक दिन अस्पताल की डाक्टर ने मुझ से कहा, ‘देखिए, अब वह बिलकुल स्वस्थ हो गई है. वह वकालत फिर से कर पाएगी, यह तो नहीं कहा जा सकता मगर एक औरत की सामान्य जिंदगी जी पाएगी, बशर्ते उसे एक मित्रवत व्यक्ति का सहारा मिल सके जो उसे यह यकीन दिला सके कि वह उसे तन और मन से संरक्षण दे सकता है.

‘‘पत्नी की मृत्यु के बाद मैं ने अपनी संतानों द्वारा मुझे लगभग पूरी तरह इग्नोर कर दिए जाने के चलते गहराए अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए उन का दिल से मित्र बनने का संकल्प लिया. इस बारे में बच्चों से बात की, तो पुत्र ने तो केवल इतना कहा, ‘आप तो हमें भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सामाजिक नैतिकता की बातें सिखाया करते थे, अब हम क्या कहें.’ मगर बड़ी पुत्री ने कहा, ‘आया का देर से आने की सूचना देने के बावजूद आप का औफिस चले जाना और इस बीच उसी दिन मम्मी की दवाइयों का असर समय से पहले ही खत्म होने के कारण उन का बीच में जाग जाना व अपनी दवाइयां घातक होने की हद तक अपनेआप खा लेना पता नहीं कोई कोइंसीडैंट था या साजिश. ऐसी क्या मजबूरी थी कि आप पूरे दिन की नहीं, तो आधे दिन की छुट्टी नहीं ले सके उस दिन. लगता है मम्मी ने डिप्रैशन में नींद की गोलियों के साथ ब्लडप्रैशर कम करने की गोलियां इतनी ज्यादा तादाद में खुद नहीं ली थीं. किसी ने उन्हें जान कर और इस तरह दी थीं कि लगे कि ऐसा उन्होंने डिप्रैशन की हालत में खुद यह सब कर लिया.’

‘‘यह सुन कर तो मैं स्तब्ध ही रह गया. छोटी पुत्री ने, ‘अब मैं क्या कहूं, आप हर तरह आजाद हैं. खुद फैसला कर लें,’ जैसी प्रतिक्रिया दी. तो एक बार तो लगा कि पत्नी की बची पड़ी दवाइयों की गोलियां मैं भी एकसाथ निगल कर सो जाऊं, मगर यह सोच कर कि इस से किसी को क्या फर्क पड़ेगा, इरादा बदल लिया और पिछले कुछ दिनों से सब से अलग इस गैस्टहाउस में रहने लगा हूं. परिचितों को इसी उपनगर में चल रहे किसी धार्मिक आयोजन में व्यस्त होने की बात कह रखी है.’’ यह सब कह कर मेरे मित्र शायद थक कर खामोश हो गए.

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काफी देर मौन पसरा रहा हमारे बीच, फिर मित्र ने ही मौन भंग किया, और बड़े निर्बल स्वर में बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें इसलिए बुलाया है कि तुम बताओ, मैं क्या करूं?’’

मित्र के सवाल करने पर मुझे अपना फैसला सुनाने का मौका मिल गया. सो, मैं बोला, ‘‘अभिनव तुम्हें क्या करना है, तुम दोनों अकेले हो. वकील साहिबा के अंदर की औरत को तुम ने ही जगाया था और उन के अंदर की जागी हुई औरत ने तुम्हारे हताशनिराश जीवन में नई उमंग पैदा की और तुम्हारे परिवार को तनमन से अपने प्यार व सेवा का नैतिक संबल दे कर टूटने से बचाया. ऐसे में उसे जीवन की निराशा से टूटने से उबार कर नया जीवन देने की तुम्हारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है. उस के द्वारा तुम्हारे परिवार पर किए गए एहसानों को चुकाने का समय आ गया है. तुम वकील साहिबा से रजिस्ट्रार औफिस में बाकायदा विवाह करो, जिस से वे तुम्हारी विधिसम्मत पत्नी का दर्जा पा सकें और भविष्य में कभी भी तुम्हारी संतानें उन्हें सता न सकें. तुम्हारे संतानों की अब अपनी दुनिया है, उन्हें उन की दुनिया में रहने दो.’’

मेरी बात सुन कर मित्र थोड़ी देर कुछ फैसला लेने जैसी मुद्रा में गंभीर रहे, फिर बोले, ‘‘चलो, उन के पास अस्पताल चलते हैं.’’

मित्र के साथ अस्पताल पहुंच कर डाक्टर से मिले, तो उन्होंने सलाह दी कि आप उन के साथ एक नई जिंदगी शुरू करेंगे, इसलिए उन्हें जो भी दें, वह एकदम नया दें और अपनी दिवंगत पत्नी के कपड़े या ज्वैलरी या दूसरा कोई चीज उन्हें न दें. साथ ही, कुछ दिन उस पुराने मकान से भी कहीं दूर रहें, तो ठीक होगा.

डाक्टर से सलाह कर के और उन्हें कुछ दिन अभी अस्पताल में ही रखने की अपील कर के हम घर लौटे तो पड़ोसी ने घर की चाबी दे कर बताया कि उन की छोटी बेटी सरकारी गाड़ी में थोड़ी देर पहले आई थी. आप द्वारा हमारे पास रखाई गई घर की चाबी हम से ले कर बोली कि उन्होंने मां की मृत्यु के बाद आप को अकेले नहीं रहने देने का फैसला लिया है, और काफी बड़े सरकारी क्वार्टर में वह अकेली ही रहती है, इसलिए अभी आप का कुछ जरूरी सामान ले कर जा रही है. आप ने तो कभी जिक्र किया नहीं, मगर बिटिया चलते समय बातोंबातों में इस मकान के लिए कोई ग्राहक तलाशने की अपील कर गई है.

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ताला खोल कर हम अंदर घुसे तो पाया कि प्रशासनिक अधिकारी पुत्री उन के जरूरी सामान के नाम पर सिर्फ उन की पत्नी का सामान सारे वस्त्र, आभूषण यहां तक कि उन की सारी फोटोज भी उतार कर ले गई थी. एक पत्र टेबल पर छोड़ गई थी. जिस में लिखा था, ‘हम अपनी दिवंगता मां की कोई भी चीज अपने बाप की दूसरी बीवी के हाथ से छुए जाना भी पसंद नहीं करेंगे. इसलिए सिर्फ अपनी मां के सारे सामान ले जा रही हूं. आप का कोईर् सामान रुपयापैसा मैं ने छुआ तक नहीं है. मगर आप को यह भी बताना चाहती हूं कि अब हम आप को इस घर में नहीं रहने देंगे. भले ही यह घर आप के नाम से है और बनवाया भी आप ने ही है, मगर इस में हमारी मां की यादें बसी हैं. हम यह बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे बाप की दूसरी बीवी इस घर में हमारी मां का स्थान ले. आप समझ जाएं तो ठीक है. वरना जरूरत पड़ी तो हम कानून का भी सहारा लेंगे.’

पत्र पढ़ कर मित्र कुछ देर खिन्न से दिखे. तो मैं ने उन्हें थोड़ा तसल्ली देने के लिए फ्रिज से पानी की बोतल निकाल कर उन्हें थोड़ा पानी पीने को कहा तो वे बोले, ‘‘आश्चर्य है, तुम मुझे इतना कमजोर समझ रहे हो कि मैं इस को पढ़ कर परेशान हो जाऊंगा. नहीं, पहले मैं थोड़ा पसोपेश में था, मगर अब तो मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं इस मकान को जल्दी ही बेच दूंगा. पुत्री की धमकी से डर कर नहीं, बल्कि अपने फैसले को पूरा करने के लिए. इस की बिक्री से प्राप्त रकम के 4 हिस्से कर के 3 हिस्से पुत्र और पुत्रियों को दे दूंगा, और अपने हिस्से की रकम से एक छोटा सा मकान व सामान्य जीवन के लिए सामान खरीदूंगा. उस घर से मैं उन के साथ नए जीवन की शुरुआत करूंगा. मगर तब तक तुम्हें यहीं रुकना होगा. तुम रुक सकोगे न.’’ कह कर उन्होंने मेरा साथ पाने के लिए मेरी ओर उम्मीदभरी नजर से देखा. मेरी सांकेतिक स्वीकृति पा कर वे बड़े उत्साह से, ‘‘किसी ने सही कहा है, अ फ्रैंड इन नीड इज अ फ्रैंड इनडीड,’’ कहते हुए कमरे के बाहर निकले, दरवाजे पर ताला लगा कर चाबी पड़ोसी को दी और सड़क पर आ गए. नई जिंदगी की नई राह पर चलने के उत्साह में उन के कदम बहुत तेजी से बढ़ रहे थे.

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