अंधविश्वास: अजब अजूबे रंग !

अंधविश्वास चाहे जैसा भी हो हमारे विवेक शील मनुष्य होने पर एक प्रश्न चिन्ह लगाता है.यह समय और समाज पर प्रश्न चिन्ह है. इसके बावजूद अंधविश्वास की अजब गजब हरकतें देखने को मिलती है जो यह बताती है कि आज 21 वी शताब्दी में भी लोगों के जेहन में किस तरह अशिक्षा और पिछड़ापन समाया हुआ है. जिसे दूर करने की आवश्यकता है.

अंधविश्वास कुछ ऐसे होते हैं कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते अब आप ही सोचिए
अगर किसी शख्स की करंट (बिजली) से मौत हो जाये और अगर उसे कीचड़ से लपेट दिया तो उसका जीवन लौट आएगा? डूबने से किसी की मौत के बाद उसे उल्टा लटका दिया जाए और यह माना जाए कि यह जीवित हो जाएगा तो क्या यह मानसिक दिवालियापन और अंधविश्वास की पराकाष्ठा नहीं है.

लोगों में आज भी अंधविश्वास कुछ ऐसा कूट कूट कर भरा हुआ है कि यह देखकर आश्चर्य होता है कि दुनिया जब चांद सितारों तक पहुंच गई है जब रोबोट सब कुछ नियंत्रित करने के लिए बन कर तैयार हैं, आज भी हमारे देश में अंधविश्वास की घटनाएं घटित हो रही है जो यह बता रही हैं कि पिछड़ापन और कमजोर सोच किस तरह हमारे देश के लोगों को घुन की तरह खा रही है.

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 करंट से मौत के बाद, कीचड़

मध्यप्रदेश के धार जिले  में महू से लगे सागौर के मोतीनगर में दो व्यक्ति करंट की चपेट में आ गए. एक की मौत हो गई गई, जबकि दूसरा झुलस गया. घायल शख्स को लोग अस्पताल ले गए जबकि मृतक को कीचड़ में लपेट दिया गया. परिवार के सदस्यों का मनना था कि शायद ऐसा करने से फिर से सांसें चलने लगेंगी. इसी दौरान बात पुलिस तक पहुंची और वह आ पहुंची. पुलिस ने मृतक के साथ परिजनों का कु कृत्य देखा तो परिजनों को समझाया, कहा- यह अंधविश्वास है। इससे सांसें नहीं लौटेगी.

इस पर परिजनों ने पुलिस की बात मानने से इनकार कर दिया और गिड़गिड़ा कर के कहने लगे कि साहब आप देख लेना यह जिंदा हो जाएगा.

पुलिस के लाख समझाने के बाद भी परिजन अपनी बात पर अड़े रहे मामला मानवीय संवेदना का था इसलिए पुलिस को भी इंतजार करना पड़ा और समय सीमा समाप्त होने के बाद भी मृतक जिंदा नहीं हुआ तो परिजनों के चेहरे लटक गए.

इसके  बाद पुलिस ने मृतक को पोस्टमार्टम के लिए हॉस्पिटल भेज दिया.

पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया मोतीनगर में भागीरथ शंकरलाल का मकान बन रहा था उसके मकान के ऊपर से 11 केवी लाइन गुजर रही है.यहां जाकुखेड़ी निवासी मजदूर सलमान (30) पुत्र जब्बार पटेल व इरफान (30) उर्फ गट्टा पुत्र साबिर पटेल टेप से बिजली की लाइन की दूरी की नाप रहे थे. इसी दरमियान  करंट की चपेट में आकर हादसे का शिकार हो गए. करंट से सलमान की मौत हो गई, वहीं इरफान गंभीर घायल हो गया .

और शुरू हो गया अंधविश्वास

करंट से मौत के बाद मृतक के परिजन भी आ पहुंचे, किसी ने उन्हें सलाह दी कि सावन भादो का महीना है ऐसे में अगर किसी करंट या बिजली से मृत व्यक्ति को कीचड़ में कुछ समय के लिए दबा दिया जाए तो वह जिंदा हो जाता है. इस बात को मृतक के परिजनों ने मान लिया और तुरंत मृतक को कीचड़ में ले गए. आनन-फानन में मृतक सलमान को कीचड़ में रखकर  उसके ऊपर ढेर सारी कीचड़ डाल दी गई और इंतजार किया जाने लगा कि अब चमत्कार होगा सलमान फिर से जिंदा हो जाएगा.

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बीच सड़क पर अंधविश्वास का नाटक देख कर कुछ लोगों ने प्रशासन के पास इसकी शिकायत की थोड़ी ही देर बाद पुलिस पहुंची और सारा नजारा देखने के बाद भी परिजनों को समझाने का प्रयास किया गया मगर वे नहीं माने और अपनी बात पर टिके हुए थे. मामला चूंकि अनोखा और अजूबे से भरा हुआ था ऐसे में स्थानीय मीडिया भी घटनास्थल पर पहुंची और सब कुछ रिकॉर्ड में आता चला गया.

यहां उल्लेखनीय है कि आसपास के लोगों ने घायल इरफान को  इलाज के लिए अस्पताल ले गए, लेकिन सलमान को परिजन ने उसे जीवित करने के  नाम पर  कीचड़ लपेट अंधविश्वास का परिचय देते रहे. संवाददाता के अनुसार थाना प्रभारी राजेंद्रसिंह भदौरिया जब घटना स्थल पहुंचे‌ और भारी मशक्कत के बीच शव को पोस्टमार्टम के लिए भेजा. उन्होंने बताया मृतक सलमान के दो बच्चे हैं.

दूसरी तरफ बिजली कंपनी के  जूनियर इंजीनियर इम्तियाज खान  के मुताबिक कुछ लोग 11 केवी लाइन के नीचे मकान बना रहे हैं, जो अपने आप में अपराधिक कृत्य है लोगों को यह समझना चाहिए कि हम अपनी जान से न खेलें और अवैध निर्माण ना करें.

विदेश में नौकरी का चक्कर: 300 बेरोजगार, बने शिकार

विदेश में नौकरी दिलाने के नाम पर बेरोजगार नौजवानों को ठगने का सिलसिला लगातार जारी है. बिहार की राजधानी पटना समेत गांवदेहात के इलाकों तक  में ठगी करने वाले एजेंटों ने जाल फैला रखा है. जीवीएम मैन पावर नामक कंपनी पिछले कई महीनों से पटना में लोगों को विदेश भेजने के नाम पर 12,000 से 17,000 रुपए और पासपोर्ट भी जमा कर रही थी.

जांच के दौरान यह पता चला कि इस कंपनी का कहीं कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है. इस कंपनी ने पटना के अलावा विशाखापट्टनम और गुडगांव में भी औफिस खोल रखा था. पटना के नियोजन भवन में बने इमिग्रेशन औफिस में इस कंपनी के खिलाफ 100 लोग शिकायत दर्ज करा चुके हैं. बिहार और झारखंड के तकरीबन 300 नौजवानों ने विदेश जाने के नाम पर पैसे और पासपोर्ट दिए.

औरंगाबाद जिले के मुसलिमाबाद के बाशिंदे 35 साल के मोहम्मद अरमान ने बताया, ‘‘मुझे गांव के ही एक लड़के ने इस कंपनी के बारे में बताया था. मैं ने कंपनी के औफिस जा कर बात की. उस ने 17,000 रुपए की मांग की और पासपोर्ट जमा कर लिया.  ‘‘मुझे औफिस स्टाफ द्वारा बताया गया कि अबुधाबी की एडनाक और नैशनल पैट्रोलियम कौंट्रैक्टिंग कंपनी में काम मिलेगा. मैं ने दोबारा औफिस में जा कर पैसे जमा कर दिए.  ‘‘एक महीने के अंदर उस ने वीजा आने का आश्वासन दिया.

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बोला कि और लड़के जाना चाहते हैं तो उन लोगों को भी लेते आइएगा. 20 दिनों के बाद जब औफिस गए तो मालूम हुआ कि वे लोग यहां से फरार हो गए हैं.’’ यह कंपनी बिहार और झारखंड के 300 से ज्यादा नौजवानों से पैसा और पासपोर्ट ले कर फरार हो चुकी है. एक साल के अंदर इस तरह के कई मामले सामने आ चुके हैं. जालसाजी करने वाले लोगों को सजा नहीं मिल पा रही है. इस की वजह से उन लोगों का मनोबल बढ़ता जा रहा है.  विदेश में नौकरी के नाम पर झांसा दे कर लोगों को ठगने वालों पर नकेल कस पाना आसान काम नहीं है. ठगी के मामले दब कर रह जा रहे हैं. जो मामले सामने आ रहे हैं, उन में थाने में एफआईआर दर्ज करना मुश्किल हो रहा है.

पटना के विदेश मंत्रालय के दफ्तर के जरीए दर्ज होने वाले मामलों में अभी तक कुछ खास नहीं हो पाया है. पटना में ही ठगी के 4-5 मामले उजागर हो चुके हैं. इन में किसी भी कुसूरवार की गिरफ्तारी या दूसरी तरह की कोई कार्यवाही नहीं हो पाई है. ठगी के शिकार नौजवान थाना, कोर्टकचहरी का दरवाजा लगातार खटखटा रहे हैं.  पटना में पृथ्वी इंटरनैशनल और गल्फ इंटरनैशनल के खिलाफ भी मामला दर्ज हो चुका है. इसी तरह बिहार के सिवान, गोपालगंज, मोतिहारी, झारखंड के रांची, जमशेदपुर, कोडरमा में नौकरी के लिए विदेश भेजने के  नाम पर फर्जीवाड़े के मामले दर्ज किए जा चुके हैं.

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जालसाजी करने वाले पुलिस प्रशासन की पकड़ से दूर हैं. श्रम संसाधन मंत्री जीवेश मिश्रा ने जीवीएम कंपनी द्वारा ठगी के शिकार हुए नौजवानों की पूरी डिटेल मांगी है. मंत्री ने आरोपियों पर कार्यवाही किए जाने की बात कही है. फर्जी एजेंटों का जाल बिहार और झारखंड के कई जिलों समेत गांवदेहात के इलाकों में फर्जी एजेंटों का नैटवर्क है. मामला खुले नहीं, इसलिए इश्तिहार जारी करने के बजाय गांवों में एजेंट भेजे जाते हैं. इन के जरीए बेरोजगार नौजवानों को फंसा कर उन से पैसे और पासपोर्ट ले लिया जाता है. क्यों जाते हैं लोग विदेश देश में रोजगार नहीं मिलने और विदेश में ज्यादा पैसे मिलने की वजह से यहां के बेरोजगार नौजवान विदेश में जाना चाहते हैं.

उचित सलाह और सही जानकारी नहीं मिलने की वजह से वे ठगी के शिकार हो जाते हैं.  जालसाजी करने वाले लोगों पर कार्यवाही नहीं हो पाती है, इस की वजह से वे लोग कंपनी का नाम बदल कर अलगअलग जगहों पर औफिस खोल कर बेशुमार पैसे फर्जी ढंग से कमा रहे हैं. भारतीय युवा मंच के अध्यक्ष शहबाज मिनहाज ने बताया कि इस तरह के फर्जी जालसाज गिरोहों को कड़ी से कड़ी सजा नहीं मिली तो उन का नैटवर्क और बढ़ता रहेगा और बेरोजगार नौजवान ठगी के शिकार होते रहेंगे.

बुनियादी हक: पीने का साफ पानी

हरियाणा के सोनीपत जिले का सिसाना गांव दिल्ली से ज्यादा दूर नहीं है. आज भले ही वहां घरघर सरकारी टोंटियां लग चुकी हैं, पर मेरा आंखों देखा पीने के पानी  की समस्या को भयावह कर देने वाला अनुभव रहा है. कुछ साल पहले तक वहां की औरतों और लड़कियों, यहां तक कि मर्दों की भी एक बड़ी समस्या थी, दूर से पीने का पानी ढोना.

एक घड़ा पानी लाने मेंआधा घंटा.  सोचिए कि टंकी भरने में कितने घंटे बरबाद होते होंगे. तब वहां की लड़कियों की शादी ऐसी जगह करने की सोची जाती थी कि वे भविष्य में सिर पर पानी ढोतेढोते बाकी की जिंदगी न गुजार दें. देश में अभी भी हालात नहीं बदले हैं. कितनी हैरत और दुख की बात है कि इस साल 15 अगस्त के मौके पर सरकार द्वारा ‘अमृत महोत्सव’ मनाया गया और देश की ज्यादातर जनता दो घूंट पीने के पानी को तरस रही है.

‘विश्व जल दिवस’ पर द इंस्टीट्यूशन औफ इंजीनियर्स में आयोजित गोष्ठी में निदेशक, भूगर्भ जल विभाग के प्रतीक रंजन चौरसिया ने कहा कि साल 2025 तक लोग जल संकट से जूझ रहे होंगे. पीने के पानी के लिए लोगों को भटकना पड़ेगा.  अभी भी पूरी दुनिया में तकरीबन  15 फीसदी से ज्यादा लोगों को साफ पानी पीने के लिए नहीं मिल पा रहा है. प्रदूषित पानी पीने से हर साल लोगों की मौतें सामने आती हैं.  जिस देश में कभी नदियों का बड़ा नैटवर्क रहा हो, उस देश में जल संकट बड़ी समस्या है. इस के नियंत्रण के लिए तुरंत ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है.  इस गोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रोफैसर जमाल नुसरत ने कहा कि पानी का संकट नहीं है. समस्या जल प्रबंधन की है.

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भूगर्भ जल के दोहन को रोकना होगा. ऐसा नहीं कर पाए तो सतह का पानी खत्म होते ही नदियां, तालाब और मौजूदा कुएं सूख जाएंगे. इस के बाद के भयावह हालात की कल्पना हम खुद कर सकते हैं. ऐसे लोगों की चिंता जायज है, तभी तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने भविष्य के चुनावों में जनता से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं पर फोकस कर के लोगों के वोट पाना चाहती है. इस में पीने के पानी की समस्या को दूर करने वाली जल संरक्षण और हर घर पेयजल जैसी योजनाओं पर फोकस किया जा रहा है.  पर क्या केवल लाल किले की प्राचीर से घोषणाओं को याद दिला देने से वे पूरी हो सकती हैं? यह सवाल पूछने की वजह यह है कि उत्तर प्रदेश के बरेली में जमीन के अंदर 80 फुट नीचे के पानी में ईकोलि बैक्टीरिया मिला है, जो कई खतरनाक बीमारियों को फैलाता है.

दिल्ली में जमीनी पानी का स्तर हर साल 2 मीटर नीचे गिर रहा है. माहिरों का कहना है कि अगर जल्द ही इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया, तो आने वाले समय में हालात बद से बदतर हो जाएंगे. क्या है हर घर जल योजना जब मोदी सरकार साल 2019 के लोकसभा चुनाव में दोबारा सत्ता में आई थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जल संरक्षण और पेयजल आपूर्ति के लिए   3 लाख करोड़ से ज्यादा की योजना का ऐलान किया था, जिस के तहत साल 2024 तक सभी घर तक पानी की पाइपलाइन और नल से पानी पहुंचाने का टारगेट रखा गया है.  इस योजना के पीछे सोच यह है कि साल 2023 तक सरकार के जरीए  20 करोड़ आदर्श गांव बन जाएं.  पर क्या यह सब करना इतना आसान है?

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बिलकुल नहीं. वजह, गरीबी की मार झेल रहे भारत में आज भी बहुत से लोगों ने शौचालय की तरह सप्लाई का नल नहीं देखा है.  एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश की तकरीबन 20 करोड़ आबादी पानी के दूसरे स्रोत पर निर्भर है. बिहार और उत्तर प्रदेश में, जहां तरक्की के नए ढोल पीटे जा रहे हैं, वहां आज भी 5 फीसदी घरों में नल का कनैक्शन है. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 20 सालों में सूखे की वजह से भारत में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की और हर साल साफ पीने के पानी की कमी के चलते 2 लाख लोगों की मौत हो रही है. मौजूदा दौर में भारत में जहां शहरों में गरीब इलाकों में रहने वाले 9.70 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पाता है, वहीं गांवदेहात के इलाकों में  70 फीसदी लोग प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं.

तकरीबन 33 करोड़ लोग बहुत ज्यादा सूखे वाली जगहों पर रहने को मजबूर हैं. जल संकट की इस बदहाली से देश की जीडीपी में तकरीबन 6 फीसदी का नुकसान होने का डर है. देश के तमाम राज्यों की राजधानियां और दूसरे बड़े शहर तो इतने ज्यादा पत्थरदिल हो गए हैं कि वहां बारिश का पानी जमीन से ज्यादा गटर में चला जाता है. हरियाणा के अंबाला शहर का भूजल स्तर 10 मीटर नीचे जा चुका है. कई जगह तो हैवी मोटर तक नहीं खींच पा रही है पानी, बढ़वानी पड़ रही बोरिंग की पाइपलाइन. हरियाणा और पंजाब के किसानों को यह हिदायत दी गई है कि वे धान की खेती न कर के दूसरी फसलों पर फोकस करें, ताकि पानी की बचत हो सके.  हरियाणा में ‘फसल विविधीकरण योजना’ के तहत धान के बजाय पानी की बचत करने वाली फसलों की बिजाई करने पर प्रति एकड़ 7,000 रुपए प्रोत्साहन राशि दी जाएगी.

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जब हालात इतने खतरनाक हों, तो ऐसे में इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं का भविष्य अधर में लटका ही नजर आता है, क्योंकि नीति आयोग  की रिपोर्ट की मानें तो देश में 60 करोड़ से ज्यादा लोग भयंकर जल संकट का सामना कर रहे हैं. अगले 10 साल में पानी की मांग दोगुना बढ़ने का अंदाजा है, जबकि इस के लिए मौजूदा स्रोत में  5 फीसदी की कमी आ जाएगी.  जमीनी पानी गर्त में जा रहा है और आसमानी पानी का कोई ठिकाना नहीं है. ऊपर से कोरोना महामारी, जिस ने देश को पंगु बना दिया है.

शर्मनाक: पकड़ौआ विवाह- बंदूक की नोक पर शादी

कहते हैं कि शादी ऐसा लड्डू है, जो खाए वह पछताए और जो न खाए वह भी पछताए. लेकिन वहां आप क्या करेंगे, जहां जबरन गुंडई से आप की मरजी के खिलाफ आप के मुंह में यह लड्डू ठूंसा जाने लगे? हम बात कर रहे हैं ‘पकड़ौवा विवाह’ की, जो बिहार के कुछ जिलों में आज भी हो रहे हैं.

22 साल के शिवम का सेना के टैक्निकल वर्ग में चयन हो गया था और वह 17 जनवरी को नौकरी जौइन करने वाला था. हमेशा की तरह एक सुबह जब वह अपने कुछ दोस्तों के साथ सैर पर निकला, तभी कार में सवार कुछ लोगों ने उसे अगवा कर लिया.

शिवम के दोस्तों ने बताया कि उन पांचों लोगों के हाथों में हथियार थे, इसलिए वे कुछ कर नहीं पाए.

शिवम को अगवा कर के वे बदमाश एक मंदिर में ले गए और जबरन उस की शादी एक लड़की से करा दी. शादी की तसवीरें सोशल मीडिया पर भी वायरल हुई थीं.??

क्या है ‘पकड़ौवा विवाह’

बिहार में इसे ‘पकड़वा’ या ‘पकड़ौवा विवाह’ या फिर ‘फोर्स्ड मैरिज’ भी कहते हैं. इस में लड़के का अपहरण कर के मारपीट और डराधमका कर उसे शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है.

इस शादी में कम पढ़ेलिखे, नाबालिग से ले कर नौकरी करने वाले नौजवानों का अपहरण कर जबरन शादी करा दी जाती है. कुछ साल पहले इसी मुद्दे पर एक फिल्म ‘जबरिया जोड़ी’ भी बनी थी.

बिहार में बंदूक की नोक पर शादी कराना कोई बड़ी बात नहीं है. यह तो बहुत ही पुरानी परंपरा है. साल 1980 के दशक में उत्तरी बिहार में खासतौर पर बेगूसराय में ‘पकड़ौवा विवाह’ के मामले खूब सामने आए थे और आज भी इस तरह की शादियां हो रही हैं. बता दें कि ऐसी शादी कराने वाला एक गैंग होता है.

कैसे काम करता है गैंग

1980 के दशक में बिहार में कई ऐसे गैंग बनाए गए थे, जिन की शादी के सीजन में काफी डिमांड रहती थी. ये गिरोह लड़की के लिए सही लड़के की तलाश करते थे और मौका देख कर उसे अगवा कर बंदूक की नोक पर शादी कराते थे. शादी के बाद लड़के के घर वालों पर लड़की को बहू के तौर पर स्वीकारने के लिए दबाव बनाते थे.

बिहार के नालंदा जिले के एक बुजुर्ग रामकिशोर सिंह की शादी भी आज से तकरीबन 40 साल पहले अपहरण कर के ही हुई थी. रामकिशोर का कहना है कि  ऐसी शादी में न दहेज देने की चिंता होती है और न ही ज्यादा खर्चे की.

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हालांकि यह सब करना अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन इस मामले में पुलिस की भूमिका बहुत ही सीमित है. राज्य पुलिस मुख्यालय इसे आपराधिक से ज्यादा सामाजिक समस्या के रूप में देखता है. राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक गुप्तेशर पांडेय कहते हैं कि जबरन होने वाली शादियों को भी बाद में सामान्य शादियों की तरह ही सामाजिक मान्यता मिलती रही है. इस में पुलिस की भूमिका काफी सीमित है.

पुलिस महकमे के अफसरों का भी मानना है कि ऐसे में लड़के के परिवार वाले तो अपहरण का मामला थाने में दर्ज करवाते हैं, लेकिन जब पता चलता है कि शादी के लिए अगवा किया गया है तो कार्यवाही में ढिलाई दे दी जाती है, क्योंकि किसी लड़की की शादी तो नेक काम है. कई मामले की जांच होतेहोते दोनों पक्ष समझौता कर चुके होते हैं. ऐसे में पुलिस के पास भी करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता है.

ऐसी शादी में ऐसे लड़के पहले से ही निशाने पर होते हैं, जो अपनी ही जाति के होते हैं. यह शादी किसी पंडित द्वारा तय नहीं कराई जाती है, बल्कि कभीकभी लड़के का कोई अपना सगा ही होता है, जो धोखे से उसे मंडप तक ले जाता है.

‘पकड़ौवा विवाह’ में आननफानन ही मंडप तैयार कर लड़की को दुलहन की तरह तैयार कर उस की मांग किडनैप किए लड़के से भरवा दी जाती है. ऐसी शादी के लिए न तो लड़का मानसिक रूप से तैयार होता है और न ही लड़की.

एक औरत बताती है कि जब वह  15 साल की थी, तब जबरन उस की शादी करवा दी गई. मरजी पूछना तो दूर की बात है, उस 15 साल की बच्ची को यह तक पता नहीं था कि आज उस की शादी होने वाली है. मांबाप लड़की को ले जा कर मंडप में बैठा देते हैं और कुछ ही मिनटों में एक अनजान शख्स, जिसे उस ने देखा तक नहीं है, उस का पति बन जाता है.

उस औरत ने आगे बताया कि उसे गुस्सा आता था कि मेरे साथ यह क्या हो गया. पति ने 3 साल तक उसे नहीं स्वीकारा. लड़के का कहना था वह फांसी लगा कर मर जाएगा, पर इस शादी को नहीं स्वीकारेगा.

लड़के का यह भी कहना था कि जिस लड़की को वह जानता तक नहीं, उसे उस से रिश्ता नहीं रखना. उसे उस लड़की से कोई मतलब नहीं. उसे पढ़लिख कर अपनी जिंदगी बनानी है. लेकिन फिर बाद में सुलहसफाई के लिए पंचायत बैठी, तब जा कर लड़की को ससुराल विदा करा कर ले जाया गया.

‘‘तब मैं 7वीं क्लास में पढ़ती थी, जब मेरा ‘पकड़ौवा विवाह’ करा दिया गया था,’’ यह कहना है 48 साल की मालती का, जो अब 3 बच्चों की मां है और उस के सभी बच्चों की भी शादी हो चुकी है.

उस समय को याद कर के मालती आगे बताती है कि रोजाना की तरह उस दिन भी वह रसोई में खाना पकाने में अपनी मां की मदद कर रही थी, तभी मां ने उसे उठाते हुए कहा कि ये कपड़े लो और जा कर जल्दी से तैयार हो जाओ. आज तुम्हारी शादी है.

कुछ ही मिनटों में एक लड़के से उस की शादी करा दी गई. उसे नहीं पता था कि जिस लड़के को उस के घर वालों ने पूरे दिन घर में बंद रखा था, उसी से उस की शादी करा दी जाएगी.

लेकिन फिर वह जो बताती है, किसी यातना से कम नहीं है. मालती कहती है कि गुस्से से खार खाए पति और उस के घर वाले सालों तक उसे विदा करा कर नहीं ले गए.

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लेकिन फिर सामाजिक दबाव में आ कर उन्हें उसे विदा करा कर ले जाना पड़ा. लेकिन आज तक मालती को अपने पति से वह प्यार और इज्जत नहीं मिली, जो एक पत्नी को अपने पति से मिलनी चाहिए.

मालती कहती है कि वह निर्दोष थी, लेकिन अपने मातापिता की गलती की सजा वह आज तक भुगत रही है.

पति और ससुराल वाले ताना मारते थे कि बिना दहेज के मुसीबत पल्ले बांध दी गई. लेकिन हैरत तो इस बात की होती है कि जिस मालती के पति ने कभी उसे स्वीकार नहीं किया, तो क्या दहेज मिल जाने से उसे स्वीकार कर लेता?

सच तो यही है कि ‘पकड़ौवा विवाह’ की सब से बड़ी वजह दहेज प्रथा ही है. ‘पकड़ौवा विवाह’ में दूल्हे की हालत का अंदाजा आप 27 साल के प्रमोद की बातचीत से लगा सकते हैं.

प्रमोद का कहना है कि उस के एक दोस्त ने ही धोखे से उस का अपहरण करवाया और फिर बंदूक की नोक पर मंडप तक ले गया. न चाहते हुए भी उसे उस लड़की से शादी करनी पड़ी, जिसे वह जानता तक नहीं था.

इस शादी को अमान्य घोषित करवाने के लिए उस ने लड़ाई भी लड़ी. लेकिन आखिरकार थोपी गई उस शादी को उसे मानना ही पड़ा. आज भी जब अपनी पत्नी को देखता है, तो वह डरावना सच उसे याद आने लगता है.

हमारे देश में विवाह जैसी संस्था आज भी मजबूत है. अगर एक बार लड़कालड़की की शादी हो जाए तो बड़ी मुश्किल से टूटती है. यही वजह है कि लड़की वाले ऐसी ओछी हरकतें करने से बाज नहीं आते हैं. सोचते हैं कि लड़की ससुराल में टिक गई तो ठीक, वरना  देखा जाएगा.

क्यों धकेलते हैं दलदल में

पटना यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफैसर रही भारती एस. कुमार कहती हैं कि यह सामंती सोच समाज की देन है. बिहार में सामाजिक दबाव इतना ज्यादा है कि लड़की के परिवार वाले इसी कोशिश में रहते हैं कि कैसे जल्द से जल्द अपनी जाति में बेटी की शादी करा कर अपने सिर का बोझ उतार लें. लेकिन इस बेमेल शादी का बुरा असर पतिपत्नी पर जिंदगीभर देखने को मिलता है.

कहींकहीं तो लड़की जिंदगीभर सताए जाने की शिकार होती है. वे कहती हैं कि ऐसी शादी वही मांबाप करवाते हैं, जिन के पास बेटी को देने के लिए दहेज नहीं होता.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब लड़का लड़की को अपनाने से इनकार कर देता है तो फिर उसी शादी को वह दहेज के साथ स्वीकार भी कर लेता है मानो दहेज और शादी का एक चक्रव्यूह हो, जिस से निकलने का कोई सिरा नहीं है.

‘पकड़ौवा विवाह’ का शिकार हुए नवादा जिले के संतोष कुमार ने फिल्म कलाकार आमिर खान के टैलीविजन शो ‘सत्यमेव जयते’ और अभिताभ बच्चन के शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में बताया था कि उन की भी जबरन शादी कराई गई थी. लेकिन आज वे अपनी पत्नी के साथ खुश हैं.

वहीं बेगूसराय के रहने वाले और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर लौटे अनीश कहते हैं कि ‘पकड़ौवा विवाह’ को सामाजिक मंजूरी नहीं मिलनी चाहिए. किसी लड़के का अपहरण कर उस की शादी किसी से भी करा दी  जाए, तो क्या उस के खिलाफ नहीं बोलना चाहिए?

अनीश का कहना है कि इस का विरोध न केवल लड़के को, बल्कि लड़की को भी करना चाहिए, क्योंकि नाइंसाफी दोनों के साथ हुई होती है.

मकसद क्या है

हमारे समाज में दहेज लेना और देना दोनों ही कानूनी जुर्म हैं, लेकिन फिर भी दहेज का लेनदेन हो रहा है. यह कुप्रथा आज भी चली आ रही है. लोग आपसी सहमति से दहेज का लेनदेन कर रहे हैं.

समाज की अलगअलग जातियों के हिसाब से लड़के की काबिलीयत और पद के हिसाब से हर किसी का एक अघोषित ‘मार्केट रेट’ होता है. जो लड़की वाले इस रेट के हिसाब से शादी के लिए लड़के वालों की डिमांड पूरी करने की हैसियत रखते हैं, उन की लड़की की शादी तो आराम से हो जाती है, लेकिन जिन की दहेज देने की हैसियत नहीं होती, वे ऐसे ही रास्ते अपनाते हैं.

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ऐसे होता है ‘पकड़ौवा विवाह’

लड़की वाले लड़के को अगवा करने से पहले उसे टारगेट कर के रखते हैं. उस की बहुत सी बातों पर गौर किया जाता है, जैसे कि लड़के वाले लड़की वालों की तुलना में ज्यादा पैसे वाले हों. लड़का काबिल तो हो ही, साथ ही उस में अपनी भावी पत्नी का भरणपोषण करने की ताकत भी हो.

अगर लड़का अपनी जाति से हो तो और भी अच्छा. वैसे, ज्यादातर कोशिश यही होती है कि लड़का अपनी ही जाति का होना चाहिए.

शादी के बाद लड़की का उस घर में गुजारा हो सके, इस बात का भी ध्यान रखा जाता है.

लड़के के साथ क्या होता है

पहले तो लड़के के बारे में अच्छे से जानकारी हासिल कर ली जाती है कि लड़का कब और कहां आताजाता है. उस के बाद आसानी से उसे अगवा कर लिया जाता है. कई बार इस काम के लिए लड़की वाले प्रोफैशनल गुंडों को भी इस्तेमाल करते हैं.

वे बताते हैं कि अगर लड़का आने से आनाकानी करे, तो हलकी धुनाई कर दी जाए, पर ध्यान रहे कि लड़के का अंग भंग नहीं होना चाहिए. फिर लड़के को पकड़ कर एक कमरे में बंद कर दिया जाता है और आननफानन में मंडप सजा कर शादी करवा दी जाती है.

शादी के बाद दूल्हे को वे लोग कुछ दिन अपने घर पर ही रखते हैं, ताकि लड़का और लड़की आपस में मिल सकें. फिर लड़के को उस के घर भेजते समय धमकी देते हैं कि जल्द ही वह लड़की को विदा करा कर ले जाए वरना ठीक नहीं होगा.

लेकिन ऐसी शादियां अब कहींकहीं पर अमान्य होने लगी है. पेशे से इंजीनियर विनोद की शादी ऐसे ही जबरन करवा दी गई थी, जिस का वीडियो भी वायरल हुआ था. लेकिन विनोद ने यह ‘पकड़ौवा विवाह’ मानने से साफ इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि अगर कोई मेरी शादी भैंस से करवा दे तो क्या मैं उसे अपनी पत्नी मान लूंगा?

विनोद आपबीती बताते हुए कहते हैं कि लड़की वालों ने उन्हें 2 दिन तक कमरे में बंद रखा और जबरन लड़की को अपनाने के लिए मजबूर करते रहे. विनोद के घर वाले पुलिस के पास मदद के लिए गिड़गिड़ाए भी, लेकिन पुलिस वालों ने उन की कोई मदद नहीं की, बल्कि कहा कि आप के बेटे का अपहरण नहीं हुआ है, शादी ही तो हुई है.

मतलब, पुलिस की नजर में यह शादी सही थी. पुलिस ने यह भी कहा कि ये खतरनाक लोग हैं, इसलिए तुम अब लड़की को ले कर अपने घर चले जाओ, क्योंकि शादी तो हो ही गई है.

विनोद का कहना है कि पुलिस पूरी तरह से लड़की वालों से मिली होती है, इसलिए वह कोई एफआईआर दर्ज नहीं करती. लड़की वालों का मन इसलिए बढ़ा हुआ है, क्योंकि पुलिस इन के साथ है. यह तो कोर्ट का शुक्र है कि मुझे कुछ राहत मिली, नहीं तो मेरा जीना मुश्किल हो गया था.

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पटना के एएन सिन्हा संस्थान के निदेशक रह चुके डीएम दिवाकर का कहना है कि ‘पकड़ौवा विवाह’ का इतिहास 100 साल से भी ज्यादा पुराना है. लेकिन अभी इस में उछाल आने की 4 खास वजहें हैं. पहली तो पूंजी के दबाव में दहेज का विकराल रूप, दूसरी लड़कियों का पढ़ालिखा न होना, तीसरी गैरकृषि व्यवसाय में दूल्हे की चाहत लगातार बढ़ रही है और चौथी यह है कि सामाजिक तानेबाने में जातीय जकड़ अभी भी कायम है.

साल 2019 में कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए ‘पकड़ौवा विवाह’ को गैरकानूनी करार दिया. मतलब यह कि अब ऐसी शादी को कानूनी मंजूरी नहीं मिलेगी. लेकिन विनोद के ‘पकड़ौवा विवाह’ के मामले में कोर्ट फैसला इसलिए ले पाई, क्योंकि अपील करने वाले के पास मजबूत सुबूत था.

‘पकड़ौवा विवाह’ के मामले में  आप की शादी जबरन करवाई गई, यह साबित करने की जिम्मेदारी लड़के के ऊपर होती है.

पटना की परिवार कोर्ट में सालों से प्रैक्टिस कर रही एडवोकेट विभा कुमारी बताती हैं कि ‘पकड़ौवा विवाह’ को अमान्य घोषित करवाने के मामले बहुत ही कम आते हैं.

‘पकड़ौवा विवाह’ के आंकड़े

साल 2018 में ‘पकड़ौवा विवाह’ के 4,301 मामले दर्ज हुए थे, जबकि मई, 2019 तक 2,005 मामले दर्ज हो चुके थे. इस से पहले के सालों में भी ऐसी शादी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.

बिहार पुलिस हैडक्वार्टर के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 में 2,526 मामले, 2015 में 3,000 मामले और साल 2016 में 3,070 और नवंबर, 2017 में 3,405 ‘पकड़ौवा विवाह’ के लिए अपहरण हुए थे.

राष्ट्रीय क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो, 2015 की रिपोर्ट भी कहती है कि बिहार में  18 से 30 साल के नौजवानों का सब से ज्यादा अपहरण हुआ है. देश में इस उम्र के नौजवानों का अपहरण का तकरीबन 16 फीसदी है.

पुलिस आंकड़ों के मुताबिक, शादी के लिए अपहरण के 2,370 मामले जनवरी से सितंबर तक दर्ज किए गए थे और उन में से 1,804 मामले केवल लौकडाउन के महीनों में दर्ज किए गए.

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और भी लड़ रहे हैं लड़ाई

शेखपुरा जिले के रवींद्र कुमार झा ने बताया कि उन के 15 साल के बेटे की शादी साल 2013 में जबरन 11 साल की बच्ची से करा दी गई थी. उन्होंने इस शादी को मानने से इनकार कर दिया तो लड़की वालों ने उन के परिवार पर दहेज प्रताड़ना (498ए) का केस कर दिया. बाद में एंटीसिपेटरी बेल के बाद वह शादी अमान्य घोषित करवाई गई.

बोकारो में नौकरी करने वाले विनोद का पूरा परिवार पटना में रहता है.  4 भाईबहनों में से सिर्फ 2 की शादी हो पाई है. वे कहते हैं कि अपनी छोटी बहन की शादी के लिए जहां भी जाते हैं, सब यही कहते हैं कि ये लोग तो मुकदमे  में फंसे हुए हैं तो फिर रिश्ता कैसे हो सकता है.

‘पकड़ौवा विवाह’ में बेटी की जबरदस्ती शादी कर के मांबाप अपने सिर से बोझ तो उतार लेते हैं और दहेज व शादी के खर्चे से भी बच जाते हैं, लेकिन वे यह नहीं सोचते कि इस बेमेल शादी का बुरा असर पतिपत्नी पर जिंदगीभर पड़ेगा, उस की भरपाई कौन करेगा? लड़के के दिल में हमेशा एक टीस उठेगी कि उस के साथ धोखा हुआ है.

मिसाल: रूमा देवी- झोंपड़ी से यूरोप तक

फैशन शो यानी तरहतरह के कपड़ों को नए अंदाज में पेश करने का जरीया. इसी तरह का एक फैशन शो चल रहा था, जिस में अनोखी कढ़ाई से सजे कपड़े पहन कर फैशनेबल मौडल रैंप पर आ कर सधी चाल में चल रही थीं.

आखिर में इन कपड़ों की डिजाइन तैयार करने वाली राजस्थानी अंदाज में सजीधजी मुसकराते हुए एक औरत स्टेज पर आई. यह वही औरत थी रूमा देवी, जिस ने अपनी क्षेत्रीय कला को मौडर्न रूप दे कर दुनियाभर में नाम दिलाया है.

रूमा देवी का जन्म नवंबर,1988 में राजस्थान के जिले बाड़मेर के एक छोटे से गांव रातवसर में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उन के पिता का नाम खेतारम तो मां का नाम इमरती देवी था.

जब रूमा देवी 5 साल की थीं, तभी उन की मां की मौत हो गई थी. मां की मौत के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली.

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सौतेली मां के साथ रहने के बजाय रूमा देवी अपने चाचा के साथ रहने लगीं. 7 बहनों और एक भाई में रूमा देवी सब से बड़ी थीं.

राजस्थान में तब पीने के पानी की बड़ी किल्लत थी. रूमा देवी ने वे दिन भी देखे हैं, जब पीने के लिए पानी  10 किलोमीटर दूर बैलगाड़ी से लाया जाता था.

8वीं जमात पास करने के बाद रूमा देवी की पढ़ाई छुड़वा दी गई. स्कूल छूटने के बाद वे अपनी चाची के साथ घरगृहस्थी के कामकाज सीखते हुए घर के कामों में मदद करने लगीं.

17 साल की ही छोटी उम्र में रूमा देवी की शादी बाड़मेर के ही गांव बेरी के रहने वाले टिकूराम से कर के उन्हें ससुराल भेज दिया गया.

टिकूराम नशामुक्ति संस्थान, जोधपुर के साथ मिल कर काम करते हैं. उसी छोटी उम्र में रूमा देवी ने एक बेटे को जन्म दिया, पर उन का मासूम बेटा उचित इलाज न मिलने की वजह से महज 48 घंटे बाद ही काल के गाल समा गया.

इस आघात से निकलना रूमा देवी के लिए आसान नहीं था, पर उन के घर की माली हालत काफी खराब थी, इसलिए उन्होंने घर से कुछ ऐसा करने के बारे में विचार किया, जिस से वे भी चार पैसे कमा कर घर वालों की मदद कर सकें.

रूमा देवी की दादी ने उन्हें कसीदाकारी की कला सिखाई थी. अपने बेटे की मौत के शोक में दिन काट रही रूमा देवी के मन में अपनी इस कला के जरीए आजीविका चलाने का विचार आया. उन्होंने परिवार वालों को बताया. पहले तो उन्होंने विरोध किया, पर किसी तरह राजी कर के रूमा देवी ने घर में ही हाथ द्वारा सिलाई कर के एक हैंडबैग बनाना शुरू किया.

रूमा देवी द्वारा बनाए गए पहले हैंडबैग को बेच कर कुल 70 रुपए की कमाई हुई. इस 70 रुपए से उन्होंने आगे के सफर के लिए कुशन, धागा, कपड़ा और प्लास्टिक का रैपर जैसा सामान खरीदा.

उन्हीं की तरह की दूसरी औरतें भी कुछ कमाई कर सकें, यह सोच कर रूमा देवी ने इस काम के लिए आसपड़ोस की दूसरी औरतों को साथ लेने का निश्चय किया.

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रूमा देवी द्वारा तैयार किए गए स्थानीय ‘महिला बाल विकास’ की  10 औरतों ने 100-100 रुपए जमा कर के अपने काम के लिए जरूरी सामान मंगाया. एक सैकंडहैंड सिलाई मशीन खरीदी.

दसों औरतों ने अलगअलग काम बांट लिए. उन्होंने खास शैली के बाड़मेरी कढ़ाई से सजे हैंडबैग, कुशन कवर, साड़ी और परदे बना कर उन्हें बेचना शुरू किया.

बाकी सहयोगी औरतों को काम मिलता रहे, इस के लिए रूमा देवी ने साल 2008 में बनी और विक्रम सिंह द्वारा चलाई जा रही संस्था ‘ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान’ से संपर्क किया. यह संस्था राजस्थान हस्तशिल्प उत्पादों द्वारा औरतों को आत्मनिर्भर बनाती है.

साल 2008 में रूमा देवी इस संस्था से जुड़ीं. इस संस्था से रूमा देवी को  3 दिनों का काम मिला. रूमा देवी और उन के साथ काम करने वाली औरतों में काम करने का इतना जोश था कि 3 दिनों का काम उन्होंने एक ही दिन में पूरा कर डाला. इस तरह उन्हें ज्यादा से ज्यादा काम मिलता गया और वे उसे समय से पहले कर के देती रहीं.

रूमा देवी ने संस्था से जुड़ कर उस के लिए हस्तशिल्प के नए डिजाइन तैयार किए. तैयार सामान की बाजार में मांग बढ़ाई, इसीलिए साल 2010 में संस्थान की कमान रूमा देवी को सौंप दी गई. उन्हें संस्था का अध्यक्ष बना दिया गया. इस संस्था का हैड औफिस बाड़मेर में ही है.

रूमा देवी के घर चार पैसे आने लगे, तो वे बाड़मेर के दूसरे गांवों में रहने वाली औरतों को अपने पैरों पर खड़ा करने का निश्चय किया. इस के लिए रूमा देवी ने खुद गाड़ी में बैठ कर दूरदूर तक गांवों  में जा कर वहां रहने वाली औरतों से मिलना शुरू किया.

राजस्थान के गांवदेहात के इलाके में लोग दूरदूर अलगअलग छोटेछोटे घर बना कर रहते हैं, इसलिए रूमा देवी पूरे दिन घूमतीं तो 4-6 परिवारों से ही मुलाकात होती.

रूमा देवी खुद औरत थीं. उन का घर से निकलना किसी को पसंद नहीं था. उन के घर से बाहर जाने पर लोग तरहतरह की बातें करते, ताने मारते, फिर भी हालात से हारे बगैर उन्होंने औरतों और उन के घर वालों को समझाते हुए  75 गांवों की तकरीबन 22,000 औरतों को अपने साथ काम करने के लिए बढ़ावा दिया.

आज रूमा देवी की कोशिशों से ये औरतें अपने परिवार की माली तौर पर मदद कर रही हैं. इन औरतों द्वारा अलगअलग तरह के कपड़ों पर खास तरह के पैचवर्क और कढ़ाई कर के दुपट्टा, कुरती और साड़ी, परदों को सजाया जाता है. उन के बिकने पर जो फायदा होता है, सीधे वह इन औरतों को मिलता है.

आज इस संस्था से जुड़ी औरतों के कामकाज का सालाना टर्नओवर करोड़ों रुपए का है. रूमा देवी द्वारा की गई कोशिशों को साल 2018 में औरतों के लिए सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘नारी शक्ति पुरस्कार’ से नवाजा गया.

15 व 16 फरवरी, 2020 को अमेरिका में आयोजित 2 दिवसीय हार्वर्ड इंडिया कौंफ्रैंस में भी रूमा देवी को बुलाया गया था. तब वहां उन्हें हस्तशिल्प उत्पाद प्रदर्शित करने के साथसाथ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के बच्चों को पढ़ाने का भी मौका मिला. इस के अलावा रूमा देवी को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में अमिताभ बच्चन के सामने हौट सीट पर बैठने का मौका मिल चुका है.

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साल 2016-17 में जरमनी में दुनिया का सब से बड़ा ट्रेड फेयर लगा था. उस में शामिल होने के लिए तकरीबन 15 लाख रुपए फीस लगती थी. पर रूमा देवी की टीम को उस ट्रेड फेयर में मुफ्त में बुलाया गया था.

साल 2019 में जब रूमा देवी को ‘फैशन डिजाइनर औफ द ईयर’ घोषित किया गया, तो उन्होंने कहा कि हर महिला में एक खास काबिलीयत होती है. अपनी खूबी की पहचान कर के उसे बाहर लाएं. रूमा देवी पर हाल में एक किताब भी लिखी गई है, जिस का नाम है ‘हौसले का हुनर’.

विवेक सागर प्रसाद: गांव का खिलाड़ी बना ओलंपिक का हीरो

‘पढ़ोगेलिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगेकूदोगे तो होगे खराब’… इस लोकोक्ति को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के छोटे से गांव चांदौन के खिलाड़ी विवेक सागर प्रसाद ने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में अर्जेंटीना के खिलाफ गोल दाग कर सच साबित कर दिया है.

टोक्यो ओलिंपिक में 29 जुलाई, 2021 का दिन विवेक सागर प्रसाद के नाम रहा. अर्जेंटीना से मुकाबले में भारतीय हौकी टीम को हर हाल में जीत की दरकार थी. टोक्यो ओलिंपिक में सुबह 6 बजे से जैसे ही अर्जेंटीना और भारत के बीच मुकाबला शुरू हुआ, भारतीय टीम ने दबदबा बना कर 3 गोल कर दिए. विवेक सागर प्रसाद ने भारतीय टीम की ओर से गोल दाग कर देश की जीत तय कर दी.

5 अगस्त, 2021 को टोक्यो ओलिंपिक में हुए हौकी मैच में भारतीय पुरुष हाकी टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए जरमनी की टीम को 5-4 से मात दे कर कांस्य पदक अपने नाम कर लिया. जैसे ही भारत को मैडल मिलने का रास्ता साफ हुआ, तो टीम में मध्य प्रदेश से नुमांइदगी कर रहे विवेक सागर प्रसाद का पूरा गांव खुशी से  झूम उठा.

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विवेक के भाई विद्या सागर बताते  हैं कि मैच के आखिरी 6 सैकंड तक पूरा परिवार दिल थाम कर बैठा रहा. जैसे ही मैच खत्म हुआ, पिता रोहित सागर और मां कमला देवी की आंखों से आंसू आ गए. विद्या सागर ने सुबह जीत के बाद विवेक से बात की तो विवेक ने टोक्यो से वीडियो कालिंग कर अपने भाई को मैडल दिखाया.

विवेक सागर के पिता रोहित प्रसाद सरकारी प्राइमरी स्कूल गजपुर में शिक्षक हैं. मां कमला देवी गृहिणी और बड़ा भाई विद्या सागर सौफ्टवेयर इंजीनियर है. इस के अलावा 2 बहनें पूनम और पूजा हैं. पूनम की शादी हो चुकी है और पूजा पढ़ाई कर रही है.

जीत के बाद विवेक सागर प्रसाद के गांव में दीवाली सा माहौल बन गया. गांव के नौजवान, बच्चे, महिलाएंपुरुष हाथ मे तिरंगा ले कर ढोल की थाप के साथ  झूम उठे. घर पर विवेक के पिता रोहित प्रसाद, मां कमला प्रसाद और भाई विद्यासागर भी जम कर नाचे. पूरा गांव उन्हें बधाई देने घर पर आ गया. पिता इतने खुश थे कि गांव में मिठाई बंटवाने के लिए बाहर आ गए.

जिला हौकी संघ के सदस्यों ने भी विजय जुलूस निकाल कर टीम इंडिया की जीत का जश्न मनाया. विवेक के पिता रोहित प्रसाद ने कहा कि आज विवेक ने पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन कर दिया है.

इटारसी के और्डिनैंस फैक्टरी निवासी खिलाड़ी सोनू अहिरवार ने पहली बार विवेक को हौकी खेलने के लिए प्रेरित किया था. विवेक की उम्र जब 8 साल की थी, तब सोनू ने उसे हौकी की स्टिक ला कर दी थी.

विवेक सागर प्रसाद के लिए इस मुकाम को पाना आसान नहीं था. विवेक सागर के प्रारंभिक कोच गजेंद्र पटेल ने बताया कि पहले विवेक क्रिकेट खेलता था. उन्होंने क्रिकेट मैदान में उस की फुरती और स्टैमिना देखते हुए हौकी टीम में शामिल कराने का प्रयास किया.

विवेक सागर प्रसाद के पिता रोहित प्रसाद उस के हौकी खेलने के शुरू से ही खिलाफ रहे, लेकिन तकरीबन 10 साल पहले एक मैच में लोगों ने उस के खेल की जम कर तारीफ की और उस मैच में विवेक को 500 रुपए के इनाम के साथ लोगों की वाहवाही मिली, तो उस के बाद पिता रोहित प्रसाद ने फिर कभी विवेक को हौकी खेलने से नहीं रोका.

12 साल की उम्र में विवेक सागर प्रसाद जब अकोला में एक टूर्नामैंट खेल रहे थे, तभी मशहूर हौकी खिलाड़ी अशोक ध्यानचंद की उन नजर पड़ी और उन्होंने विवेक की प्रतिभा को पहचान लिया.

अशोक ध्यानचंद ने विवेक सागर का नामपता लिया और फिर अपने पास अकादमी में बुला लिया. विवेक सागर प्रसाद ने बताया कि कुछ दिनों तक उन्होंने मुझे अपने घर में ही ठहराया था.

विवेक सागर प्रसाद का चयन मध्य प्रदेश हौकी अकादमी में 2012-13 में हुआ था. विवेक के खेल में अशोक ध्यानचंद की कोचिंग से खेल में निखार आया. उन्होंने मध्य प्रदेश हौकी अकादमी में 30 महीने तक कोचिंग ली. वहां से वे आगे की कोचिंग के लिए हौकी अकादमी दिल्ली चले गए.

विवेक सागर प्रसाद भी ऐसे खिलाडि़यों में से एक हैं, जिन्होंने अपने ऊपर आई बाधा को हौसले से पार कर लिया. साल 2015 में प्रैक्टिस के दौरान विवेक की गरदन की हड्डी टूट गई थी. दवाओं की हैवी डोज से उन की आंतों में छेद हो गया था और वे 22 दिनों तक जिंदगी और मौत से जू झते रहे. आखिरकार उन्होंने जिंदगी का मैच जीत लिया. इस के बाद जूनियर हौकी टीम की मलयेशिया में कप्तानी की और ‘मैन औफ द सीरीज’ पर कब्जा जमा लिया.

बातचीत में विवेक सागर प्रसाद बताते हैं कि किस तरह शुरुआती दौर में वे इटारसी के सीनियर प्लेयर को हौकी खेलता देखते थे, तो उन के मन में भी हौकी खेलने का विचार आता था.

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हौकी के प्रति जब विवेक सागर प्रसाद का लगाव बढ़ा, इस के बाद सीनियरों से हौकी स्टिक और दोस्तों से जूते मांग कर मिट्टी वाले ग्राउंड में प्रैक्टिस करने लगे.

भारतीय पुरुष हौकी टीम ने जरमनी को टोक्यो ओलिंपिक खेलों के कांस्य पदक मैच में 5-4 से शिकस्त दे कर  41 साल बाद पदक जीता.

भारत ने इस से पहले साल 1980 में मास्को ओलिंपिक में गोल्ड मैडल जीता था. भारतीय टीम की इस ऐतिहासिक जीत से पूरे देश में खुशी का माहौल है.

विवेक सागर प्रसाद ने ओलिंपिक तक का यह सफर इटारसी के पास के छोटे से गांव चांदौन से शुरू किया. उन्होंने अनेक नैशनल और इंटरनैशनल लैवल की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और लगातार अच्छे प्रदर्शन के बल पर भारतीय टीम में अपना स्थान बनाया.

विवेक सागर प्रसाद के यहां तक पहुंचने की कहानी भी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है. विवेक सागर प्रसाद का परिवार शीट की छत वाले घर में रहता है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब उन्हें बतौर एक करोड़ रुपए इनाम देने की घोषणा की, तो इस पर विवेक का कहना है कि वे इस पैसे से अपनी मां के लिए आलीशान मकान बना कर देंगे.

विवेक सागर प्रसाद के पिता बताते हैं कि वे तो विवेक को हमेशा से इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन उसे तो हौकी प्लेयर ही बनना था.

विवेक की मां कमला देवी बताती हैं कि बेटे की पिटाई नहीं हो, इसलिए कई बार उस के पिता से  झूठ बोलना पड़ा. वह घर नहीं आता तो वे कह देतीं कि वह सब्जी लेने गया है, फिर चुपके से बहन पूजा दूसरे दरवाजे से घर में बुला लेती.

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भाई विद्यासागर के मुताबिक, जब दोस्तों ने कहा कि विवेक टैलेंटेड है और खूब आगे जाएगा, तो उन्होंने अपने पापा को हौकी खेलने के लिए मनाया.

गांव की मिट्टी में पलाबढ़ा नौजवान विवेक सागर प्रसाद आज हीरो बन कर उभरा है. विवेक सागर प्रसाद की लगन, मेहनत और जुनून ने यह साबित कर दिया है कि हौसले बुलंद हों तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है.

पोंगापंथ: खरीदारी और अंधविश्वास

कुछ लोग शनिवार के दिन नए जूते पहनने या खरीदने को अच्छा नहीं मानते हैं. अब ऐसे लोगों से पूछें कि क्या जूते की दुकानें शनिवार को बंद रहती हैं या वहां कोईर् खरीदारी नहीं होती? जूते खरीदने हों तो उस के लिए कोई दिन अच्छा या बुरा नहीं होता.

इसी तरह एक अंधविश्वास यह भी है कि शनिवार को तेल नहीं खरीदना चाहिए, फिर चाहे वह मूंगफली का हो या सरसों का या फिर सोयाबीन का. समझ में नहीं आता कि इस दिन खरीदे गए तेल में क्या जहर घुल जाता है? क्या शनिवार को खरीदे गए तेल में बना भोजन स्वादिष्ठ नहीं होता?

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होटल, ढाबे और ठेले वाले क्या दिन देख कर तेल खरीदते हैं? क्या इस दिन तेल मिलें बंद रहती हैं या उन में उत्पादन नहीं होता? जब शनिवार को तेल बन सकता है, तो खरीदने में क्या दिक्कत है?

एक रिवाज यह भी है कि शनिवार को नमक नहीं खरीदना चाहिए, क्योंकि इस से आदमी कर्जदार होता है. कर्जदार कर्ज लेने से होता है, नमक खरीदने से नहीं. वैसे भी नमक इतना महंगा नहीं है कि एक किलो नमक खरीदने के लिए किसी को कर्ज लेना पड़े. नमक तो खाने में इस्तेमाल होने वाली एक चीज है, उसे किसी भी दिन खरीद सकते हैं.

शनिवार को लोहा या लोहे से बनी चीजें खरीदने को भी अपशकुन माना जाता है. कहा जाता है कि इस दिन कैंची तक नहीं खरीदनी चाहिए.

लोहा खरीदने में शकुनअपशकुन का बंधन क्यों? लोहे से बनी छोटी आलपिन या कील से ले कर घर बनाने में काम आने वाले सरिए वगैरह खरीदने से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

कुछ लोग शनिवार के दिन किसी भी तरह का ईंधन जैसे लकड़ी, कंडे, गैस सिलैंडर वगैरह तक खरीदना अच्छा नहीं समझते हैं. पता नहीं, इन्हें खरीदने से परिवार पर कौन सी बड़ी मुसीबत आ जाएगी? यह सब अंधविश्वास है.

हमारे यहां खास मौकों पर खास चीजें खरीदने को शुभ माना जाता है. किसी खास दिन जैसे धनतेरस को सोना, चांदी या बरतन खरीदने का अंधविश्वास?है. बहुत से लोग तो अपनी हैसियत से बाहर जा कर इस दिन खरीदारी करते हैं, जिस से उन का बजट गड़बड़ा जाता है.

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बरतन हो या सोनाचांदी, धनतेरस पर ही क्यों खरीदें? जब जरूरत हो तब क्यों नहीं? क्या धनतेरस को खरीदने पर दुकानदार कोई छूट देता है?

इसी तरह कुछ खास दिनों पर गाड़ी खरीदना शुभ माना जाता है. जब गाड़ी (दोपहिया या चारपहिया) खरीदनी ही है तो उस के लिए इंतजार क्यों? जब जरूरत हो, जेब में पैसा हो, खरीदना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि किसी खास दिन गाड़ी लेने से ही वह फलदायी होती है. पर गाड़ी बेचने वालों के यहां उस खास दिन खरीदारों की भीड़ देखी जा सकती है. कुछ को तो अपनी पसंद का रंग या मौडल तक नहीं मिलता है. इस के बावजूद भी उन्हें समझौता करना पड़ता है.

इसी तरह कुछ खास मौकों पर बहीचौपड़े या रजिस्टर वगैरह खरीदना शुभ माना जाता है. हैरत की बात तो यह है कि कंप्यूटर के जमाने में इन की जरूरत ही नहीं रह गई है, तो भी कारोबारी अंधविश्वास के चलते बहीचौपड़े खरीदते हैं और जो सालभर धूल खाते रहते हैं. अंधविश्वास की खातिर इन्हें खरीदने की क्या तुक है?

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गांव की औरतें: हालात बदले, सोच वही

राज कपूर ने साल 1985 में फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी, जो पहाड़ के गांव पर आधारित थी. इस में हीरोइन मंदाकिनी ने गंगा का किरदार निभाया था. फिल्म का सब से चर्चित सीन वह था, जिस में मंदाकिनी  झरने के नीचे नहाती है. वह एक सफेद रंग की सूती धोती पहने होती है. पानी में भीगने के चलते उस के सुडौल अंग दिखने लगते हैं.

उस दौर में गांव की औरतों का पहनावा तकरीबन वैसा ही होता था. सूती कपड़े की धोती के नीचे ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का रिवाज नहीं था. इस की वजह गांव की गरीबी थी, जहां एक कपड़े में ही काम चलाना पड़ता था.

गांव को ले कर तमाम दूसरी फिल्मों में भी ऐसे सीन देखने को मिल सकते हैं. ‘मदर इंडिया’, ‘शोले’, ‘नदिया के पार’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘तीसरी कसम’, ‘लगान’ जैसी तमाम फिल्मों में गांव के सीन दिखते हैं.

इन फिल्मों को देखने के बाद आज के गांव देखेंगे तो लगेगा कि गांव बेहद बदल गए हैं. अब गांव की लड़कियों को जींस, स्कर्ट, टौप में देख सकते हैं.

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फिल्म ‘नदिया के पार’ जैसे सीन अब गांवों में नहीं दिखते हैं. न वैसा पहनावा दिखता है और न ही वैसी बोली. 21वीं सदी के गांव ऊपर से देखने में

बहुत बदले दिखते हैं, विकसित दिखते हैं, पर अब वहां के लोगों की सोच में कट्टरपन आ गया है, जिस की वजह से गांव पहले के मुकाबले आज ज्यादा पिछड़े दिखने लगे हैं.

सोच में बढ़ रहा कट्टरपन

देश के ज्यादातर गांवों में पिछले 20-25 साल के मुकाबले हालात बदले हुए दिख रहे हैं. गांव वालों के पहनने के कपड़े बदल गए हैं. पहले की तरह कच्चे मकान कम दिखते हैं. गांव की गलियों में खड़ंजे लग गए हैं, जिस की वजह से गांव की गलियां पक्की दिखने लगी हैं. गांव की दुकानों में पैकेटबंद सामान मिलने लगे हैं. चाय, छाछ और दूध की जगह कोल्डड्रिंक पीने का चलन बढ़ गया है.

गांव के करीब तक पक्की सड़कें पहुंच गई हैं. शादीब्याह और दूसरे मौकों पर होने वाली रौनक बढ़ गई है. गांव में सरकारी स्कूल हैं, पर उन में पढ़ने वाले बच्चे कम हैं. प्राइवेट स्कूलों का चलन बढ़ गया है.

पर अगर नहीं बदली है तो गांव के रहने वालों की सोच. इस सोच में जाति और धर्म के लैवल पर कट्टरपन और छुआछूत पहले के मुकाबले बढ़ गई है. एकदूसरे के प्रति सहयोग की भावना कम हो गई है.

गांव में चौपालें अब लगती नहीं दिखती हैं. एकएक गांव में कईकई गुट बन गए हैं. नई उम्र के लोग गांव में कम दिखते हैं. गांव की जगह कसबों के बाजारों और शहरों में लोग काम करने चले जाते हैं.

पहले के लोग कम पढ़ेलिखे होते थे, पर सम झदार और सहनशील होते थे. इस वजह से गांव में  झगड़े कम होते थे और जब होते थे तो आपस में मिलबैठ कर लोग सुल झा लेते थे. पंचों का कहना सभी मानते थे. पर अब जब तक कोई मसला थाने और तहसील तक नहीं पहुंचता है, तब तक वह हल नहीं होता है.

इस की वजह से थाने और तहसील की नजर में गांव दुधारू पशु जैसे हो गए हैं. अगर गांव के  झगड़े वहीं निबट जाएं तो पुलिस और वकील पर खर्च होने वाला इन का पैसा भी बचेगा.

गांवदेहात में दलित और ऊंचे तबके के लोगों के बीच आपसी दुश्मनी में दलित ऐक्ट का इस्तेमाल तेजी से बढ़ गया है. इस से समस्या का समाधान नहीं होता है. पुलिस जांच के नाम पर ज्यादा पैसा मांगती है. कई बार दलित ऐसे  झगड़ों में मोहराभर होते हैं. दलित ऐक्ट लगने से जमानत जल्दी नहीं मिलती. आरोपी को ज्यादा दिन जेल में रहना पड़ता है.

एसपी रैंक के एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘‘गांव के  झगड़ों में औरतें और दलित मोहरा बन कर रह गए हैं. लोग दलित और औरतों को आगे कर के दलित ऐक्ट और बलात्कार के  झूठे मुकदमे लिखा कर अपने विरोधी को परेशान करने लगे हैं.’’

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पहनावा बदला, सोच नहीं

पुराने समय में गांव की ज्यादातर औरतें सूती धोती पहनती थीं. इस के नीचे वह पेटीकोट या ब्लाउज नहीं पहनती थीं. पैरों में चप्पल कम ही होती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बाल दिखने लगते थे. साबुन, क्रीम, पाउडर का इस्तेमाल कम होता था. गांव की औरतें बाल नहीं कटाती थीं. वे हाटबाजार में खरीदारी करने नहीं जाती थीं. घर के बाहर कम निकलती थीं, परदा प्रथा ज्यादा थी.

अब हालात में बदलाव दिखता है. औरतें पहले से भी ज्यादा कट्टर हो गई हैं. करवाचौथ की पूजा पहले गांवदेहात में कम होती थी. अब ज्यादा होने लगी है. गांवगांव में देवी की पूजा ज्यादा होने लगी है. प्रवचन और भजन होने लगे हैं. गांव में ऐसे मौकों पर सब से ज्यादा औरतें ही वहां दिखती हैं.

गांव की औरतें पहले खेतों में काम और पशुओं की देखभाल करती थीं, पर अब वे यह नहीं करती हैं. हां, भजन और प्रवचन सुनने में समय जरूर गंवाने लगी हैं. पढ़ीलिखी लड़कियां भी पूजापाठ में लगी रहती हैं. अच्छा दूल्हा मिल जाए, अच्छी शादी हो जाए, इस के लिए सावन के 16 सोमवार का व्रत रखने लगती हैं.

धार्मिक कहानियों में बताया जाता है कि जो लड़की सावन के 16 सोमवार  का व्रत रखेगी, उसे अच्छा दूल्हा यानी वर मिलेगा. पुराणवादियों ने यह सोच इसलिए फैलाई है, ताकि नौजवान पीढ़ी दिमागी तौर से उन की गुलाम बनी रहे.

गांव की लड़कियों के जागरूकता कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वाली शालिनी माथुर कहती हैं, ‘‘गांव की लड़कियों की सोच में कट्टरपन आ गया है. वे यह सोचती हैं कि पूजापाठ और धार्मिक कर्मकांड से ही उन का भला होगा. पिछले कुछ सालों में यह सोच तेजी से बढ़ रही है.

‘‘सब से ज्यादा कड़वाहट तो हिंदूमुसलिम को ले कर बढ़ी है. पहले गांव के लोग ईद हो या होलीदीवाली, सब साथ मिल कर मनाते थे, पर अब ये त्योहार भी आपसी दूरियों को कम नहीं कर पा रहे हैं.

‘‘परेशानी की बात यह है कि कट्टरपन का विरोध करने वालों की संख्या में कमी आती जा रही है. लव जिहाद जैसे मसले ये दूरियां और भी ज्यादा बढ़ा रहे हैं. हिंदूमुसलिम लड़केलड़की की दोस्ती को केवल लव जिहाद के रूप में देखना बेहद खतरनाक सोच बन गई है.’’

सेहत पर भारी पुरानी सोच

माहवारी को आज भी गंदगी से जोड़ कर देखा जाता है. आज भी माहवारी होने पर औरतें अछूत सी हो कर रह जाती हैं. उन्हें नहाने तक नहीं दिया जाता है. लोगों से मिलनेजुलने की भी मनाही होती है.

माहवारी के दिनों में औरतों को कहा जाता है कि वे अचार को न छुएं. उन के ऐसा करने से अचार के खराब हो जाने का खतरा हो जाता है. माहवारी में औरतों को खाना बनाने और रसोई में जाने से रोका जाता है.

महिलाओं में माहवारी सुरक्षा को ले कर जागरूकता अभियान में लगी अंजलि श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘गांव में माहवारी को ले कर पुरानी सोच अभी भी कायम है. गांव की 70 फीसदी औरतें माहवारी के दिनों में कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी वे सैनेटरी पैड इस्तेमाल करने को तैयार नहीं हैं.

‘‘बहुत सारे ऐसे घर हैं, जो पक्के बने हैं. जिन की माली हालत अच्छी दिखती है. जिन घरों में पैसों को ले कर कोई परेशानी नहीं है, वहां की औरतें भी सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं.

‘‘पहले की औरतें इसलिए इस्तेमाल नहीं करती थीं, क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं होती थी. आज की औरतों को टैलीविजन और दूसरे जरीयों से यह पता तो चल जाता है कि सैनेटरी पैड को इस्तेमाल न करना खराब होता है, इस के बाद भी वे कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. इस से उन के अंगों में इंफैक्शन का खतरा बढ़ जाता है. सफेद पानी की समस्या और खुजली भी होने लगती है.

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‘‘कई बार ऐसी औरतें इंफैक्शन होने के चलते बच्चे पैदा करने लायक नहीं रहती हैं. इस के बाद भी वे अपनी सेहत की चिंता नहीं करती हैं.’’

पढ़ाईलिखाई पर नहीं जोर

पहले गांव के लड़केलड़कियां इसलिए पढ़ते थे कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. पर आज के दौर में सरकारी और निजी दोनों ही किस्म की नौकरियां खत्म सी हो गई हैं. ऐसे में गांव के लड़केलड़कियां पढ़ाई की उम्र में ही मेहनतमजदूरी करने शहर चले जाते हैं, जहां वे घरेलू नौकर के रूप में भी काम करने लगते हैं.

कई बार पूरे के पूरे परिवार अपने गांव से दूर शहर में घरेलू नौकरी करने लगते हैं. लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में तमाम ऐसे अपार्टमैंट्स बने हैं, जहां सैकड़ों की तादाद में औरतें घरेलू काम करती मिल जाती हैं.

वे खाना बनाने और साफसफाई करने के एवज में हर घर से तकरीबन 1,500 रुपए से ले कर 2,500 रुपए तक हर महीना लेती हैं. ऐसे में बहुत सी तो 15,000 से 20,000 रुपए महीना कमा लेती हैं. वे अपनी छोटी उम्र की लड़कियों को भी स्कूल भेजने की जगह पर घरेलू काम पर लगा देती हैं.

35 साल उम्र की शिवानी अपनी  12 साल की बेटी के साथ यही काम करने जाती है. वह कहती है, ‘‘पति अब मजदूरी नहीं कर पाते. डाक्टर ने उन्हें बो झा उठाने के लिए मना किया है. ऐसे में अब हम मांबेटी ही काम कर के घर का खर्च चलाती हैं.’’

थोड़ाबहुत पैसा आने के बाद ये लोग अपने हालात को भूल कर बड़े लोगों की तरह रहने के लिए उन की बराबरी करने लगते हैं. बड़े लोगों की तरह ही पूजापाठ, व्रत, तीजत्योहार मनाने लगते हैं. पैसा बचाने के लिए कम ही कोशिश करते हैं. ज्यादातर मर्द नशे और जुए की लत के शिकार हो जाते हैं. फिर वे अपनी औरतों को पीटने से बाज नहीं आते हैं.

समाजसेवी इंदु सुभाष कहती हैं, ‘‘पढ़ीलिखी होने के बाद भी बहुत सी औरतें पति द्वारा की गई पिटाई को अपनी किस्मत मान कर चुप रहती हैं. उन्हें लगता है कि उन का पति ही उन का देवता है. जो पति कर रहा है, वह उचित ही होता है. कमाई करने के बाद भी ऐसी औरतें मर्द के पैर की जूती बने रहने में ही फख्र महसूस करती हैं, जिस की वजह से घरेलू हिंसा बढ़ती है. इस का बुरा असर बच्चों पर भी पड़ता है.

‘‘पढ़नेलिखने और नए कानूनों के बाद भी इस रूढि़वादी सोच में बदलाव नहीं आ रहा है. देखने में गांव के हालात और औरतों की जिंदगी भले ही बदली दिखती हो, पर सही माने में सोच वही पुरानी और दकियानूसी है.’’

“ठग” जब स्वयं ठगी का शिकार बना!

ऐसा ही एक मसला है शंकर रजक का जिसने जाने कितने लोगों को ठगी का शिकार बनाया. यही नहीं ठगी के  पैसों के बल पर राजनीतिक पहुंच भी बना ली, एक समय ऐसा भी था जब उसका चारों तरफ डंका बज रहा था. ठगी के पैसों के दम पर शासन प्रशासन को अपने हथेली पर रखने वाला शंकर रजक कैसे बर्बाद हो गया और किस तरह खुद ठगी का शिकार हुआ, यह एक रोचक कहानी है जो यह बताती है कि ईमान की रोटी और ईमानदारी का व्यवहार लंबे समय तक टिकता है. और ठगी करने वाले अंततः कानून के शिकंजे में फंस कर जेल में चक्की पीसते हैं.

ठगी से अकूत संपत्ति बनाई

दर्जनों ठगी की घटनाओं को अंजाम देकर करोड़ों रूपए ठगने वाला शंकर रजक एक किंवदंती बनता चला गया है.

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आपको यह बताते चलें कि ठगी के इस बेताज बादशाह को निकट से देखने का अवसर इस लेखक को भी मिला है. उसने यह बताया था कि वह एक ठेकेदार के यहां नौकरी करता था एक दिन खेत में उसे हीरे मोती और सोना चांदी का बॉक्स मिल गया था और फिर जिंदगी बदल गई.

दरअसल, शंकर रजक बहुत ही शातिर किस्म का ठग था. वह झूठी कहानी गढ़ करके अपनी इमेज बनाता रहा लोगों को ठगता चला गया. निसंदेह उसके जीवन पर एक रोचक फिल्म भी बन सकती है.

अब आपको बताते चलें कि किस तरह शंकर रजक ठगी का शिकार हो गया है. आज वह जेल में बंद ठगी के मुकदमों में उलझा हुआ है. इस दरमियान एक व्यक्ति ने अपने दो बेटों के साथ मिलकर रजक की मां से बोलेरों की चाबी ले ली और पीपी फार्म में फर्जी हस्ताक्षर कर उसे बेच दिया.

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वस्तुत: शंकर रजक और छुरी निवासी शत्रुहन लाल देवांगन के बीच गहरी दोस्ती थी. करीब चार साल पहले शंकर के खिलाफ जमीन बेचने के नाम पर ठगी किए जाने के नाम से सिलसिले वार मामले सामने आने शुरू हुए. जिले में ही नहीं बल्कि राज्य के अन्य जिलों में भी एक दर्जन से अधिक धोखाधड़ी के मामले शंकर व उसके पुत्र के खिलाफ दर्ज किए गए.

यहां यह जानना आपके लिए जरूरी होगा कि बड़े-बड़े नेताओं के संबंध के बावजूद कानून से शंकर रजक बच नहीं पाया और अपने पुत्र सहित जेल पहुंच गया  इस बीच शत्रुहन उसका पुत्र आकाश देवांगन व कमल देवांगन शंकर के घर पहुंचे और उसकी मां मुलरिया बाई को गुमाराह कर बोलेरो क्रमांक सीजी 12 एजी 8997 की चाबी प्राप्त कर ली.  बाद में शंकर रजक ने शत्रुहन से बोलेरो की जानकारी ली तो पुराना पैसे की लेन देन का हवाला देते हुए गाड़ी बेच देने की बात कहने लगा.ठगों के सरदार शंकर को यह जानकारी हाथ लगी कि उसका फर्जी हस्तारक्षर कर गाड़ी का रजिस्ट्रेशन करा दिया गया है तो आवाक रह गया.  अब नई परिस्थितियों में ठग शंकर रजक की शिकायत पर पुलिस शत्रुहन व उसके दोनों पुत्रों के खिलाफ मामला पंजीबद्ध कर लिया है.

प्यार की झूठी कसमें

लेखिका- किरण बाला

‘‘तुम्हारी कसम, मैं तुम से दिल से प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर एक पल भी नहीं रह सकता. यकीन न हो तो तुम्हारे कहने पर अपनी जान भी दे सकता हूं.’’

विशाल और नेहा के बीच कुछ समय से अफेयर चल रहा था. पहले वे लुकछिप कर मिलते थे. फिर उन के बीच फिजिकल रिलेशन भी बनने लगे. नेहा ने कईर् बार उस से कहा कि यदि तुम मुझ से प्यार करते हो तो घर आ कर मेरे पापा या भैया से बात क्यों नहीं करते?

विशाल यह कह कर बात टाल देता कि शीघ्र ही वह आ कर उस के परिजनों से बात करेगा. इसी बीच उसे पता चला कि विशाल ने किसी अन्य लड़की से सगाई कर ली.

नेहा के पैरोंतले जमीन खिसक गई. जो विशाल कल तक प्यार की कसमें खाते नहीं थकता था, वह उसे इस तरह धोखा दे देगा, यह उस ने सपने में भी न सोचा था.

विशाल को फोन कर नेहा ने व्यंग्य किया, ‘‘सगाई की बहुतबहुत बधाई.’’

‘‘नेहा, तुम मेरी मजबूरी समझो. पेरैंट्स के दबाव की वजह से मुझे रिश्ता स्वीकारना पड़ा. मुझे माफ कर देना.’’ ऐसा कह कर विशाल ने पल्ला  झाड़ लिया.

प्रेमी द्वारा प्यार की  झूठी कसमें खाने और फिर उस के मुकर जाने से नेहा का प्यार पर से विश्वास उठ गया.

यह तो एक उदाहरण मात्र है. विशाल की भांति ऐसे कई लड़के हैं जो प्रेम का नाटक करने में माहिर हैं और  झूठी कसमें खा कर लड़की के जज्बातों से खेलते हैं. उन के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं और जब वे प्रैग्नैंट हो जाती हैं तो उन का अबौर्शन करा देते हैं या उन की कोख में पल रहे बच्चे को अपना मानने से इनकार कर देते हैं. उन से शादी करना तो दूर, दूध में मक्खी की भांति उन्हें बाहर निकाल फेंकते हैं.

आमतौर पर लड़कियां भोली होती हैं. वे अपने प्रेमियों पर भरोसा कर लेती हैं. जब प्रेमी प्यार की कसमें खाता है तो उस पर अविश्वास करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता. लेकिन जब प्रेमी के मन में पहले से ही दुर्भावना हो तो उसे प्रेमिका को धोखा देते देर नहीं लगती. वक्त पर वह पाला बदल लेता है और प्रेमिका देखती रह जाती है.

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उन प्रेमियों की कमी नहीं है जो आसमान से चांदतारे तोड़ कर लाने की कसमें खाते हैं, लेकिन क्या आज तक कोई भी प्रेमी अपनी यह कसम पूरी कर सका है?

प्रेमिका को रिझाने के लिए या अपने प्यार का यकीन दिलाने के लिए प्रेमी अपनी जान देने की बात करते हैं, लेकिन क्या प्रेमियों ने अपनी जान दे कर अपनी कसम को पूरा किया है? जाहिर है ये कसमें छलावा मात्र हैं.

जो सच्चे प्रेमी होते हैं वे किसी तरह की कसमें नहीं खाते और न ही उन्हें इस की जरूरत होती है. ये तो उन कथित प्रेमियों के हथकंडे हैं जो लड़कियों को एक भोग वस्तु सम झते हैं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. इसलिए उन का शारीरिक और मानसिक शोषण करने में उन्हें जरा भी लाजशर्म नहीं आती.

आप का प्रेमी सच्चा है या  झूठा, इस का परीक्षण आप कई स्तरों पर कर सकती हैं. जो सच्चा प्यार करता है वह कभी भी आप से शरीर की मांग नहीं करेगा. अन्य शब्दों में, शारीरिक संबंध के लिए न तो बाध्य करेगा, न इस के लिए उकसाएगा. बल्कि यदि आप आगे हो कर इस की पहल करती हैं तो वह सख्ती से रोकेगा. उस की नजर में शादी के पूर्व शारीरिक संबंध बनाना ठीक नहीं.

सच्चा प्रेमी शारीरिक संबंधों के लिए शादी तक इंतजार करेगा. इस के विपरीत, प्रेम का नाटक करने वाला येनकेन प्रकारेण आप से शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करेगा. शादी करने का वादा कर के संबंध बनाने हेतु विवश कर देगा. वह तरहतरह की झूठी कसमें खा कर आप को यकीन दिला देगा ताकि आप शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति दे दें. लेकिन वह आप से शादी कभी करेगा ही नहीं. उस का इरादा तो शुरू से ही धोखा देना होता है.

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सच्चा प्रेमी सुखदुख में साथ देने की कसमें खाता नहीं बल्कि जरूरत पड़ने पर हाजिर होता है. जबकि  झूठे प्रेमी विपत्ति की घड़ी का बहाना बना कर कन्नी काट लेते हैं क्योंकि उन्हें उस के सुखदुख से कोई वास्ता नहीं होता.

हर लड़की को इस बात की सम झ होनी चाहिए कि वह सच्चे और  झूठे प्रेमी में अंतर कर सके. कसमें तो होती ही तोड़ने के लिए हैं. इसलिए उन पर यकीन न करें. एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि शादी से पूर्व अपना शरीर उस के हवाले न करें. सच्चा प्रेमी आप के कहने पर आप के परिजनों से मिलेगा. जबकि  झूठा प्रेमी परिजनों से मिलने का वादा तो करेगा लेकिन मिलेगा कभी नहीं. इसलिए सावधान रहें,  झूठे प्रेमी और उन की  झूठी कसमों से.

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