वजह : प्रिया से लड़के वालों ने क्यों रिश्ता तोड़ लिया

‘‘अरे,संभल कर बेटा,’’ मैट्रो में तेजी से चढ़ती प्रिया के धक्के से आहत बुजुर्ग महिला बोलीं.

प्रिया जल्दी में आगे बढ़ गई. बुजुर्ग महिला को यह बात अखर गई. वे उस के करीब जा कर बोलीं, ‘‘बेटा, चाहे कितनी भी जल्दी हो पर कभी शिष्टाचार नहीं भूलने चाहिए. तुम ने एक तो मुझे धक्का मार कर मेरा चश्मा गिरा दिया उस पर मेरे कहने के बावजूद मुझ से माफी मांगने के बजाय आंखें दिखा रही हो.’’

अब तो प्रिया ने उन्हें और भी ज्यादा गुस्से से देखा. मैं जानती हूं, प्रिया को गुस्सा बहुत जल्दी आता है. इस में उस की कोई गलती नहीं. वह घर की इकलौती लाडली बेटी है. गजब की खूबसूरत और होशियार भी. वह जल्दी नाराज होती है तो सामान्य भी तुरंत हो जाती है. उसे किसी की टोकाटाकी या जोर से बोलना पसंद नहीं. इस के अलावा उसे किसी से हारना या पीछे रहना भी नहीं भाता.

जो चाहती उसे पा कर रहती. मैं उसे अच्छी तरह समझती हूं. इसीलिए सदैव उस के पीछे रहती हूं. आगे चलने या रास्ते में आने का प्रयास नहीं करती.

मुझे जिंदगी ने भी कुछ ऐसा ही बनाया है. बचपन में अपनी मां को खो दिया था. पिता ने दूसरी शादी कर ली. सौतेली मां को मैं बिलकुल नहीं भाती थी. मैं दिखने में भी खूबसूरत नहीं. एक ही उम्र की होने के बावजूद मुझ में और प्रिया में दिनरात का अंतर है. वह दूध सी सफेद, खूबसूरत, नाजुक, बड़ीबड़ी आंखों वाली और मैं साधारण सी हर चीज में औसत हूं.

जाहिर है, पापा की लाडली भी प्रिया ही थी. मेरे प्रति तो वे केवल अपनी जिम्मेदारी ही निभा रहे थे. पर मैं ने बचपन से ही अपनी परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया था. मुझे किसी की कोई बात बुरी नहीं लगती. सब की परवाह करती पर इस बात की परवाह कभी नहीं करती कि मेरे साथ कौन कैसा व्यवहार कर रहा है. जिंदगी जीने का एक अलग ही तरीका था मेरा. शायद यही वजह थी कि प्रिया मुझ से बहुत खुश रहती. मैं अकसर उस की सुरक्षाकवच बन कर खड़ी रहती.

आज भी ऐसा ही हुआ. प्रिया को बचाने के लिए मैं सामने आ गई, ‘‘नहींनहीं आंटीजी, आप प्लीज उसे कुछ मत कहिए. प्रिया ने आप को देखा नहीं था. वह जल्दी में थी. उस की तरफ से मैं आप से माफी मांगती हूं, प्लीज, माफ कर दीजिए.’’

‘‘बेटा जब गलती तूने की ही नहीं तो माफी क्यों मांग रही है? तूने तो उलटा मुझे मेरा गिरा चश्मा उठा कर दिया. तेरे जैसी बच्चियों की वजह से ही दुनिया में बुजुर्गों के प्रति सम्मान बाकी है वरना इस के जैसी लड़कियां तो…’’

‘‘मेरे जैसी से क्या मतलब है आप का? ओल्ड लेडी, गले ही पड़ गई हो,’’ बुजुर्ग महिला को झिड़कती हुई प्रिया आगे बढ़ गई.

मुझे प्रिया की यह बात बहुत बुरी लगी. मैं ने बुजुर्ग महिला को सहारा देते हुए खाली पड़ी सीट पर बैठाया और उन्हें चश्मा पहना कर प्रिया के पास लौट आई.

हम दोनों जल्दीजल्दी घर पहुंचे. प्रिया का मूड औफ हो गया था. पर मैं उसे लगातार चियरअप करने का प्रयास करती रही.

मैं सिर्फ प्रिया की रक्षक या पीछे चलने वाली सहायिका ही नहीं थी वरन उस की सहेली और सब से बड़ी राजदार भी थी. वह अपने दिल की हर बात सब से पहले मुझ से ही शेयर करती. मैं उस के प्रेम संबंधों की एकमात्र गवाह थी. उसे बौयफ्रैंड से मिलने कब जाना है, कैसे इस बात को घर में सब से छिपाना है और आनेजाने का कैसे प्रबंध करना है, इन सब बातों का खयाल मुझे ही रखना होता था.

प्रिया का पहला बौयफ्रैंड 8वीं क्लास में उस के साथ पढ़ने वाला प्रिंस था. उसी ने पीछे पड़ कर प्रिया को प्रोपोज किया था. उस की कहानी करीब 4 सालों तक चली. फिर प्रिया ने उसे डिच कर दिया. दूसरा बौयफ्रैंड वर्तमान में भी प्रिया के साथ था. अमीर घर का इकलौता चिराग वैभव नाम के अनुरूप ही वैभवशाली था. प्रिया की खूबसूरती से आकर्षित वैभव ने जब प्रोपोज किया तो प्रिया मना नहीं कर सकी.

आज भी प्रिया उस के साथ रिश्ता निभा रही है पर दिल से उस से जुड़ नहीं सकी है. बस दोनों के बीच टाइमपास रिलेशनशिप ही है. प्रिया की नजरें किसी और को ही तलाशती रहती हैं.

उस दिन हमें अपनी कजिन की शादी में नोएडा जाना था. मम्मी ने पहले ही ताकीद कर दी थी कि दोनों बहनें समय पर तैयार हो जाएं. प्रिया के लिए पापा बेहद खूबसूरत नीले रंग का गाउन ले आए थे जबकि मैं ने अपनी पुरानी मैरून ड्रैस निकाल ली.

नई ड्रैस प्रिया की कमजोरी है. इसी वजह से जब भी पापा प्रिया को पार्टी में ले जाना चाहते तो इसी तरह एक नई ड्रैस उस के बैड पर चुपके से रख आते.

आज भी प्रिया ने नई डै्रस देखी तो खुशी से उछल पड़ी. जल्दी से तैयार हो कर निकली तो सब दंग रह गए. बहुत खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आज तो तू बहुतों का कत्ल कर के आएगी,’’ मैं ने प्यार से उसे छेड़ा तो वह मुझे बांहों में भर कर बोली, ‘‘बहुतों का कत्ल कर के क्या करना है, मुझे तो बस अपने उसी सपनों के राजकुमार की ख्वाहिश है जिसे देखते ही मेरी नजरें झपकना भूल जाएं.’’

‘‘जरूर मिलेगा मैडम, मगर अभी सपनों की दुनिया से जरा बाहर निकलिए और पार्टी में चलिए. क्या पता वहीं कोई आप का इंतजार कर रहा हो,’’ मैं ने उसे छेड़ते हुए कहा तो वह हंस पड़ी.

पार्टी में पहुंच कर हम मस्ती करने लगे. करीब 1 घंटा बीत चुका था. अचानक प्रिया मेरी बांह पकड़ कर खींचती हुई मुझे अलग ले गई और कानों में फुसफुसा कर बोली, ‘‘प्रज्ञा वह देखो सामने. ब्लू सूट पहने मेरे सपनों का राजकुमार खड़ा है. मुझे तो बस इसी से शादी करनी है.’’

मैं खुशी से उछल पड़ी, ‘‘सच प्रिया? तो क्या तेरी तलाश पूरी हुई?’’

‘‘हां,’’ प्रिया ने शरमाते हुए कहा.

सामने खड़ा नौजवान वाकई बहुत हैंडसम और खुशमिजाज लग रहा था. मैं ने कहा, ‘‘मुझे तेरी पसंद पर नाज है प्रिया, मैं पता लगाती हूं कि यह है कौन? वैसे तब तक तुझे उस से दोस्ती करने का प्रयास करना चाहिए.’’

वह रोंआसी हो कर बोली, ‘‘यार यही तो समस्या है. वह पहला लड़का है जो मुझे भाव नहीं दे रहा. मैं ने 1-2 बार प्रयास किया पर वह अपने घर वालों में ही व्यस्त है.’’

‘‘यार कुछ लड़के शर्मीले होते हैं. हो सकता है वह दूसरे लड़कों की तरह बोल्ड न हो जो पहली मुलाकात में ही दोस्ती के लिए उतावले हो उठते हैं.’’

‘‘यार तभी तो यह लड़का मुझे और भी ज्यादा पसंद आ रहा है. दिल कर रहा है कि किसी भी तरह यह मेरा बन जाए.’’

‘‘तू फिक्र मत कर. मैं इस के बारे में सारी बात पता करती हूं. सारी कुंडली निकलवा लूंगी,’’ मैं ने उस लड़के की तरफ देखते हुए कहा.

जल्द ही कोशिश कर के मैं ने उस लड़के से जुड़ी काफी जानकारी इकट्ठी कर ली. वह हमारी कजिन के फ्रैंड का भाई था. उस का नाम मयूर था.

वह कहां काम करता है, कहां रहता है, क्या पसंद है, घर में कौनकौन हैं जैसी बातें मैं ने प्रिया को बता दीं. प्रिया ने फेसबुक, लिंक्डइन जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर जा कर उस लड़के के बारे में और भी जानकारी ले ली. प्रिया ने फेसबुक पर मयूर को फ्रैंड रिक्वैस्ट भी भेजी पर उस ने स्वीकार नहीं की.

अब तो मैं अकसर देखती कि प्रिया उस लड़के के ही खयालों में खोई रहती है. उसी की तसवीरें देखती रहती है या उस की डिटेल्स ढूंढ़ रही होती है. मुझे समझ में आ गया कि प्रिया को उस लड़के से वास्तव में प्यार हो गया है.

एक दिन मैं ने यह बात पापा को बता दी और आग्रह किया कि वे उस लड़के के घर प्रिया का रिश्ता ले कर जाएं. पापा ने उस के परिवार वालों से बात चलाई तो पता चला कि वे लोग भी मयूर के लिए लड़की ढूंढ़ रहे हैं. पापा ने अपनी तरफ से प्रिया के लिए उन्हें प्रपोजल दिया.

रविवार के दिन मयूर और उस के परिवार वाले प्रिया को देखने आने वाले थे. प्रिया बहुत खुश थी. अपनी सब से अच्छी ड्रैस पहन कर वह तैयार हुई. मैं ने बहुत जतन से उस का मेकअप किया. मेकअप कर के बालों को खुला छोड़ दिया. वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

मगर आज पहली दफा प्रिया मुझे नर्वस दिखाई दे रही थी. जब प्रिया को उन के सामने लाया गया तो मयूर और उस की मां एकटक उसे देखते रह गए. मैं भी पास ही खड़ी थी. मयूर ने तो कुछ नहीं कहा पर उस की मां ने बगैर किसी औपचारिक बातचीत के जो कहा उसे सुन कर हम सब सकते में आ गए.

लड़के की मां ने कहा, ‘‘खूबसूरती और आकर्षण तो लड़की में कूटकूट कर भरा है, मगर आगे कोई बात की जाए उस से पहले ही क्षमा मांगते हुए मैं यह रिश्ता अस्वीकार करती हूं.’’

प्रिया का चेहरा उतर गया. पापा भी इस अप्रत्याशित इनकार से हैरान थे. अजीब मुझे भी बहुत लग रहा था. आखिर प्रिया जैसी खूबसूरत और पढ़ीलिखी बड़े घर की लड़की को पाना किसी के लिए भी हार्दिक प्रसन्नता की बात होती और फिर प्रिया भी तो इस रिश्ते के लिए कितनी उत्साहित थी.

पापा ने हाथ जोड़ते हुए धीरे से पूछा, ‘‘इस इनकार की वजह तो बता दीजिए. आखिर मेरी बच्ची में कमी क्या है?’’

लड़के की मां ने बात बदली और मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘मुझे यह लड़की पसंद है. यदि आप चाहें तो मैं इसे अपनी बहू बनाना पसंद करूंगी. आप घर में बात कर के जब चाहें अपना जवाब दे देना.’’

पापा ने उम्मीद के साथ मयूर की ओर देखा तो वह भी हाथ जोड़ता हुआ बोला, ‘‘अंकल, जैसा मम्मी कह रही हैं मेरा जवाब भी वही है. मैं भी चाहूंगा कि प्रज्ञा जैसी लड़की ही मेरी जीवनसाथी बने.’’

प्रिया रोती हुई अंदर भाग गई. मैं भी उस के पीछेपीछे अंदर चली गई. उन्हें बिदा कर मम्मीपापा भी जल्दी से प्रिया के कमरे में आ गए.

मगर प्रिया किसी से भी बात करने को तैयार नहीं थी. रोती हुई बोली, ‘‘प्लीज, आप लोग बाहर जाएं, मैं अभी अकेली रहना चाहती हूं.’’

हम सब बाहर आ गए. इस समय मेरी स्थिति अजीब हो रही थी. समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूं. कुसूरवार न होते हुए भी आज मैं सब की आंखों में चुभ रही थी. मम्मी मुझे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं तो प्रिया भी नजरें चुरा रही थी. मुझे रात भर नींद नहीं आई.

अगली सुबह भी प्रिया बहुत उदास दिखी. उस की नजरों में दोषी मैं ही थी और यह बात सहन करना मेरे लिए बहुत कठिन था. मैं ने तय किया कि मैं मयूर के घर वालों के इनकार की वजह जान कर रहूंगी. प्रिया को छोड़ कर उन्होंने मुझे क्यों चुना जबकि प्रिया मुझ से लाख गुना ज्यादा खूबसूरत और स्मार्ट है, होशियार है. मैं तो कुछ भी नहीं.

बात की तह तक पहुंचने का फैसला कर मैं मयूर के घर पहुंच गई. बहुत आलीशान और खूबसूरत घर था उन का. महरी ने दरवाजा खोला और मुझे अंदर आने को कहा. घर बहुत करीने से सजा था. मैं ड्राइंगरूम का जायजा ले रही थी कि तभी बगल के कमरे से चश्मा पोंछती बुजुर्ग महिला निकलीं.

मुझे उन्हें पहचानने में एक पल भी नहीं लगा. यह तो मैट्रो वाली वही बुजुर्ग महिला थीं जिन का चश्मा कुछ दिन पहले प्रिया ने गिरा दिया था. मैं ने उन्हें चश्मा उठा कर दिया था. मुझे सहसा सारी बात समझ में आने लगी कि क्यों प्रिया को रिजैक्ट कर उन्होंने मुझे चुना.

सामने से मयूर की मां निकलीं. मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, मैं समझ सकती हूं कि तू क्या पूछने आई है. शायद तुझे अपने सवाल का जवाब मिल भी गया होगा. दरअसल, उस दिन मैट्रो में मैं भी वहीं थी और सब कुछ अपनी नजरों से देखा था. खूबसूरती, रंगरूप, धन, इन सब से ऊपर एक चीज होती है और वह है संस्कार. हमें एक सभ्य और व्यवहारकुशल बहू चाहिए बिलकुल तुम्हारे जैसी.’’

मैं ने आगे बढ़ कर दोनों के पांव छूने चाहे पर अम्मांजी ने मुझे गले से लगा लिया.

घर पहुंची तो प्रिया ने पहले की तरह रूखेपन से मेरी तरफ देखा और फिर अपने काम में लग गई.

मैं उस के पास जा कर धीरे से बोली, ‘‘कल के इनकार की वजह जानने मैं मयूर के घर गई थी. तुझे याद हैं वे बुजुर्ग महिला, जिन का चश्मा मैट्रो में तेरी टक्कर से नीचे गिर गया था? दरअसल, वे बुजुर्ग महिला मयूर की दादी हैं और इसी वजह से उन्होंने तुझे न कह दिया.

पर तू परेशान मत हो प्रिया. तेरी पसंद के लड़के को मैं कभी अपना नहीं बनाऊंगी. मैं न कह कर आई हूं.’’

प्रिया खामोशी से मेरी तरफ देखती रही. उस की आंखों में रूखेपन की जगह बेचारगी और अफसोस ने ले ली थी. थोड़ी देर चुप बैठने के बाद वह धीरे से उठी और मुझे गले लगाती हुई बोली, ‘‘पागल है क्या? इतने अच्छे रिश्ते के लिए कभी न नहीं करते. मैं करवाऊंगी मयूर से तेरी शादी.’’

मैं आश्चर्य से उसे देखने लगी तो वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘आज तक तू मेरे लिए जीती रही है. आज समय है कि मैं भी तेरे लिए कुछ अच्छा करूं. खबरदार जो न कहा.’’

मेरे दिल पर पड़ा बोझ हट गया था. मैं ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया.

सवाल अपने बेटे की अंग्रेजी तालीम का

‘‘बच्चे को एलकेजी में भरती करने वाला मुझे फार्म तो दीजिए,’’ मैं ने अंगरेजी स्कूल के क्लर्क से कहा.

पहले तो उस ने मुझे घूरा, फिर पूछा, ‘‘किसे भरती कराना है?’’

‘‘कहा न, बच्चे को,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘कहां है आप का बच्चा?’’ मेरे आसपास नजर दौड़ाते हुए उस ने पूछा.

‘‘घर में,’’ मैं ने बताया.

‘‘जिसे भरती होना है, उसे घर छोड़ आए. जाइए, उसे ले कर आइए.’’

‘‘भला क्यों…?’’

‘‘पहले मैं उस बच्चे का इंटरव्यू लूंगा. अगर वह भरती होने लायक होगा, तब फार्म दूंगा. यही प्रिंसिपल साहब का आर्डर है,’’ उस ने खुलासा करते हुए बताया.

‘‘भरती करना है या नहीं, यह फैसला कौन लेगा?’’

‘‘प्रिंसिपल साहब. वे आप का इंटरव्यू ले कर फैसला करेंगे.’’

‘‘बच्चे के इंटरव्यू की बात तो गले उतरती है, लेकिन मेरा इंटरव्यू… बात कुछ जमी नहीं,’’ मैं ने हैरानी जाहिर की.

‘‘देखिए, यह अंगरेजी स्कूल है, कोई खैराती या सरकारी नहीं. हमें बच्चे के साथसाथ स्कूल के भले का खयाल रखना पड़ता है, इसीलिए बच्चे के साथसाथ उस के माता पिता का भी इंटरव्यू लिया जाता है.’’

‘‘बात समझ में आई या नहीं? अब जाइए और बच्चे को ले कर आइए.’’

मैं जातेजाते धड़कते दिल से पूछ बैठा, ‘‘किस भाषा में इंटरव्यू लेते हैं प्रिंसिपल साहब?’’

‘‘अंगरेजी स्कूल में दाखिला कराने आए हो और यह भी नहीं जानते?’’

इतना सुनते ही मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं. मुझे अंगरेजी नहीं आती थी. आज पता चला कि अंगरेजी स्कूल में बच्चे को भरती कराना कितना मुश्किल काम है, खासतौर पर मेरे लिए.

घर पहुंचा, तो मेरी बीवी ने पूछा, ‘‘हो गई भरती?’’

‘‘अभी नहीं,’’ मैं ने ठंडे दिल से कहा.

‘‘क्यों…’’ बीवी की आवाज में उलझन थी.

‘‘फिर बताऊंगा, फिलहाल तो बच्चे को फटाफट तैयार कर दो. उसे स्कूल ले कर जाना है,’’ मैं ने कहा.

मैं ने भी कहने को तो कह दिया, लेकिन मुझे अंगरेजी न आने का कोई हल नजर नहीं आ रहा था.

अचानक मुझे रास्ता सूझा कि मेरे पड़ोसी को अंगरेजी आती है. क्यों न उस से मदद मांगी जाए.

मैं मदद मांगने के लिए उस के पास चला गया. थोड़ी आनाकानी के बाद उस ने बात मान ली. मैं उसे और बच्चे को ले कर स्कूल पहुंचा.

‘‘क्या पढ़ते हो मुन्ना?’’ दाखिले के पहले दौर में क्लर्क ने पुचकारते हुए बच्चे से जब पूछा, तो मैं ने टोका, ‘‘अरे सरजी, अभी पढ़ कहां रहा है… पढ़ाना तो अब आप लोगों को है.’’

‘‘अरे, एबीसीडी तो पढ़ता होगा?’’ चौंकते हुए उस ने कहा.

‘‘जी नहीं,’’ अचानक मेरे मुंह से सच बात निकल गई.

‘‘तो क्या बिना तैयारी के ही दाखिला कराने चले आए?’’

मैं ने बात को बिगड़ते देख कहा, ‘‘मेरे कहने का मतलब है कि अभी स्कूल में नहीं पढ़ रहा. घर में एबीसीडी सिखा रहे हैं.’’

‘‘वही तो मैं पूछ रहा था.’’

‘‘जी हां… जी हां,’’ बात बनती देख मैं ने चैन की सांस ली.

उस ने बच्चे से और भी सवाल पूछे, जिन के माकूल जवाब वह दे नहीं पाया.

बहरहाल, बेहद खुशामद के बाद क्लर्क ने एहसान जताते हुए मुझे फार्म दे दिया.

फार्म भरने के बाद हम लोग प्रिंसिपल साहब के पास पहुंचे. पहले उन्होंने 5 मिनट तक भाषण पिलाया, जिस का मतलब यह था कि अंगरेजी स्कूल में पढ़ना कोई हंसीखेल नहीं है. यहां पढ़ाने के लिए घर का माहौल अंगरेजी वाला होना चाहिए.

फिर प्रिंसिपल साहब ने इंटरव्यू लेना शुरू किया. अंगरेजी में पूछे गए सवालों के जवाब पड़ोसी देने लगा, इसलिए प्रिंसिपल ने समझा कि बच्चे का पिता वही है. वैसे भी वह इस तरह बनठन कर गया था, जैसा अंगरेजी स्कूल में बच्चे को पढ़ाने वाले पिता का होना चाहिए.

प्रिंसिपल साहब बीचबीच में हिंदी में भी कुछ पूछ लेते थे, तब जवाब मैं दे देता था. इस से प्रिंसिपल साहब ने अंदाजा लगाया कि मैं लड़के के पिता का दोस्त हूं, इसीलिए उन्होंने पूछा भी नहीं कि हम दोनों में से लड़के का पिता कौन है?

यही मैं चाहता था, ताकि दाखिला हो जाने के बाद जब इस राज का भंडाफोड़ हो, तो मुझे यह कहने का मौका मिले कि जब पूछा ही नहीं गया, तो बताते कैसे?

खैर, किसी तरह से लड़के का दाखिला हो गया.

कुछ दिनों बाद प्रिंसिपल साहब का मेरे नाम नोटिस आया. लड़के की पढ़ाई के सिलसिले में मुझे बुलाया गया था. अब तो मेरी आंखों के आगे सचमुच अंधेरा छाने लगा.

मैं फिर पड़ोसी के पास गया, लेकिन इस बार उस ने मेरी मदद करने से साफ इनकार कर दिया. अलबत्ता, मेरी हौसलाअफजाई करते हुए उस ने कहा, ‘‘घबराओ मत, हिम्मत से काम लो. बच्चे का दाखिला हो चुका है. अब कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता.

‘‘वैसे भी इतने दिनों बाद प्रिंसिपल साहब यह भूल चुके होंगे कि उस दिन लड़के का बाप बन कर मैं गया था.’’

मैं दिल मजबूत कर के प्रिंसिपल के पास चला गया. उन्होंने मुझ से शिकायत करते हुए पूछा (गनीमत थी कि हिंदी में) कि मैं लड़के को घर में पढ़ाता क्यों नहीं? मगर, मैं कैसे कह देता कि मैं अंगरेजी नहीं पढ़ पाया और उसी कमी को बच्चे के जरीए पूरा करने की कोशिश कर रहा हूं?

खैर, मैं बहाने बनाने लगा. तब वे सोच में पड़ कर बड़बड़ाने लगे कि आखिर आप के लड़के का दाखिला हो कैसे गया?

हालांकि प्रिंसिपल साहब ने खूब फटकार लगाई, लेकिन मुझे इस बात की बेहद खुशी थी कि उन की ओर से मुझे मेरे बेटे के पिता के रूप में मंजूरी मिल चुकी थी.

मैं ने मन ही मन पड़ोसी का शुक्रिया अदा किया कि उस ने आज मेरे साथ चलने से इनकार कर के अच्छा ही किया, वरना मैं स्कूल में बेटे का पिता कहलाने का हक खो देता.

पति की नीति निर्देशक

पत्नी को तरहतरह से संबोधन दिया जाता है. कोई जीवनसंगिनी कहता है, कोई जीवनसहचरी, कोई हमसफर तो कोई अर्धांगिनी. कई तो उसे स्वीटहार्ट कहते हैं, ऐसे लोगों को धोखा हो जाता होगा, वे पत्नी की जगह प्रेयसी को देख रहे होते होंगे. आखिर जिस के साथ समय सुहाना लगता है वही तो खयालों के आकाश में ज्यादा आच्छादित रहती है.

कुछ सयाने पतिजन कहते हैं कि उन की पत्नी, पत्नी नहीं बल्कि पथप्रदर्शक है. गोया कि वे जीवनपथ के भटके हुए राहगीर हैं और पत्नी यातायात के सिपाही की तरह उन की मार्गप्रदर्शक.

चमचागीरी केवल राजनीतिक या प्रशासनिक क्षेत्र में नहीं होती है. दांपत्य में भी इस का काफी महत्त्व व आधिपत्य है. पति नामक जीव भी पत्नी की चमचागीरी में स्वार्थवश या भयवश अव्वल बना रहता है.

और भी पति हैं जो कहते हैं कि उन का यदि सब से बड़ा मित्र कोई दुनिया में है तो वह उन की पत्नी है. वाह भाई वाह, विवाह होने तक न जाने कितने मित्र बनाए, उन के साथ जीनेमरने की कसमें खाईं, कितनी खट्टीमीठी यादें साथ बिताए पलों की उन के साथ जुड़ी हैं, लेकिन, एक अनजान सी लड़की से शादी क्या हो गई कि सारे मित्रों को जोर का झटका धीरे से दे यादों की भूलभुलैया में छोड़ दिया. और ताल ठोक कर कह रहे हैं कि यदि कोई मित्र है तो वह पत्नी है. अच्छा हुआ कि ऐसा कहते समय कोई पुराना जिगरी दोस्त सामने नहीं था, वरना दोस्ती की इतनी किरकिरी होते देख उसी समय वह किसी चट्टान से कूदने के लिए रवानगी डाल देता.

कुल मिला कर जितने तरह के पति हैं उतनी तरह की बातें व उपमाएं वे पत्नियों की शोभा में पेश करते हैं. पत्नी के सामने वैसे भी एक पति की औकात शोभा की सुपारी से अधिक होती नहीं है. ऐसे नमूने भी हैं जो पत्नी को अपना गुरु तक कहते हैं. हो सकता है कि रोज सुबह उठ कर उस के पैर छू आशीर्वाद भी लेते हों. वैसे, इस मामले में गंगू का कहना है कि आज के पाखंडी बाबाओं, गुरुओं की तुलना में तो पत्नी को ही किसी ने यदि गुरु मान लिया है तो यह एक अच्छा दौर शुरू हुआ मान सकते हैं.

और भी पति हैं जोकि एक कदम आगे बढ़ कर कहते हैं कि उन की पत्नी उन के पिता व मां से भी बढ़ कर है.

गंगू ने उपरोक्त सारी उपमाओं पर गंभीरता से विचारमंथन किया और यह पाया कि अलगअलग पति अपनेअपने अनुभवों के आधार पर अलगअलग तरह से पत्नी का अलंकरण कर्म करते रहते हैं. कुछ विशेष स्वार्थवश पत्नी का यश बढ़ाने वाली बात तात्कालिक रूप से अपने मुखश्री से उगल दते हैं. लेकिन सही व खरी बात यह है कि पत्नी, पति की जीवनरूपी फिल्म की निर्देशक है, जैसे कि किसी मूवी को बनाने में निर्देशक का अहम योगदान होता है. वह कलाकारों को छोटीछोटी बारीकियों के बारे में समझाइश व निर्देश देता रहता है और वे कलाकार उस की बात को मगन हो कर एक निष्ठावान व समर्पित शिष्य की तरह गगन की ओर देखते हुए सुनते हैं.

निर्देशक के निर्देश के बिना कलाकार एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते हैं. और यदि मूवी को बौक्सऔफिस पर करोड़ों का व्यापार करने लायक दमदार व सफल बनाना है तो उसे इग्नोर तो कर ही नहीं सकते. उसी तरह पति की जिंदगीरूपी मूवी सफल हो, वह निरंतर तरक्की के पथ पर अग्रसर रहे, वह दाएंबाएं जाने की जुर्रत भी न करे, इस के लिए पत्नीरूपी एक निर्देशक के निरंतर निर्देश उस के दिनप्रतिदिन के कार्यकलापरूपी अभिनय के लिए आवश्यक हैं. वह सुबह से रात तक, देररात तक पति को निर्देश देती रहती है और पति मुंडी नीची कर के सुनता रहता है. सिर ऊपर करने की सुविधा यहां नहीं है.

पत्नी यदि बोलेगी बैठ जाओ, तो उसे बैठना है. वह बोलेगी कि खड़े हो जाओ तो उसे तुरंत खड़े हो जाना है. बिना कारण पूछे यदि वह कहे कि उठकबैठक करो, तो वह करनी है. सवालजवाब की कोई गुंजाइश यहां नहीं होती.

आप किसी पार्टी में जा रहे हैं. आप ने पतलूनशर्टटाई सब गांठ ली है. अचानक पत्नी का सीन में प्रवेश होता है. वह कहती है कि यह क्या विदूषक जैसा वेश बना डाला है, और उस के निर्देश पर आप तुरंत पहने कपड़े बदलने को मजबूर हो जाते हो. आप को कुछ पसंद आ रहा है, उसे वह नापसंद है. जो आप को नापसंद है, वह उसे पसंद है. बात वही है कि निर्देशक के निर्देशों को आप नजरअंदाज कर ही नहीं सकते.

पत्नी के पापाजी व मम्मीजी आ रहे हैं और बौस ने एक जरूरी मीटिंग में आप को शिरकत करने को निर्देशित किया है, लेकिन घर की बौस ने आप को रेलवे स्टेशन ड्यूटी के लिए निर्देशित कर दिया है. ट्रेन का समय आप की बैठक के समय से क्लेश हो रहा है. ऐसी स्थिति में भी आप निर्देशक से क्लेश नहीं कर सकते हैं. यहां की डांट खाने व अपनी खाट खड़ी करने से अच्छा है कि बौस की डांट खा लो.

तो, आप सहमत हैं कि नहीं कि पत्नी के लिए बाकी की सारी उपमाएं अपनी जगह सही हो सकती हैं, लेकिन सब से सही उपमा जो गंगू ने निर्देशक की कही है, वही है और केवल वही है.

सबके अच्छे दिन आ गए

इस देश में बहुत अच्छे दिन आ चुके हैं. चारों ओर विकास की गंगा बहुत जोरों से बहती जा रही है. यह भी कह सकते हैं कि चारों ओर विकास ही विकास पैदा होता जा रहा है और बहुत तेजी से आगे भी पैदा होता रहेगा.

देश में व्यापारियों के अच्छे दिन आ चुके हैं. कर्मचारियों के अच्छे दिन आ चुके हैं. किसानों के अच्छे दिन आ चुके हैं. खूब महंगा आलूप्याज बेचबेच कर वे खूब मालामाल होते जा रहे हैं.

चोरउचक्कों के भी अच्छे दिन आ चुके हैं. सभी चोरउचक्के अपनीअपनी ड्यूटी समय से बजा कर अपना और देश का विकास अंधाधुंध करते जा रहे हैं.

देश में दुराचार और सदाचार के भी अच्छे दिन आ चुके हैं. एक तरफ दुराचार हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ ऐनकाउंटर कर के सदाचार का श्रीगणेश हो रहा है. ऐसा विकास क्या आप ने कहीं देखा होगा? मेरा दावा है, कहीं नहीं देखा होगा.

देश से करोड़ोंअरबों रुपए ले कर भागने वालों के अच्छे दिन आ चुके हैं. काला धन गोरा करने वालों के अच्छे दिन आ चुके हैं.

नेताओं के बाथरूम में नहाते हुए, मालिश कराते हुए मनोरंजक वीडियो के अच्छे दिन आ चुके हैं.

सत्ता के गलियारों और अधिकारियों के अहातों में भटकती विषकन्याओं के अच्छे दिन आ चुके हैं. हनी ट्रैप के सजीव प्रसारण से यह हम जान चुके हैं.

नोटबंदी के बाद नकली करंसी धड़ाधड़ पैदा करने वाली मशीनों के अच्छे दिन आ चुके हैं. चोरउचक्कों, उठाईगीरों, डकैतोंहत्यारों के संसदविधानसभाओं में पहुंचने के अच्छे दिन आ चुके हैं.

हम दुनिया का सब से बड़ा मंदिर बनाने जा रहे हैं, अब पंडेपुजारियों के भी अच्छे दिन आ चुके हैं.

भूमाफिया, शिक्षा माफिया, किडनी चोरों, गरीब औरतों की बच्चेदानी निकाल, बां झ बना कर चांदी कूटने वाले डाक्टरों के भी अच्छे दिन आ चुके हैं.

पिछड़ों के अच्छे दिन आ चुके हैं, इसीलिए उन के आरक्षण को खत्म करने की मांग जोर पकड़ रही है.

दलितों के भी अच्छे दिन आ गए हैं. उन्हें घोडि़यों पर बैठ कर शादियां करने की जरूरत नहीं रही है.

डायन, कुलटा, निगोड़ी, करमजली, बढ़ती महंगाई के अच्छे दिन आ चुके हैं.

मैं ऐसी विकास की गंगा बहाते हुए देश के हर घर को बिलकुल पवित्र कर दूंगा. देश में सभी खुश हैं. सभी अमीर हैं. कोई दुखी नहीं है. कोई परेशान नहीं है. कोई पीडि़त नहीं है, कोई पीडि़ता नहीं है. किसी को कोई तकलीफ नहीं है.

गीता में भी कहा गया है, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है. जो होगा अच्छा होगा. जो होने वाला है, वह भी अच्छा होगा. और दोस्तो, हमें इस देश पर गर्व है कि सब से अच्छे दिन आ चुके हैं. आए कि नहीं आए…

हमारे अच्छे दिनों की तारीफ दुनियाभर में हो रही है, इसलिए दुनियाभर में यह फकीर  झोला उठा कर घूमते हुए सब की बधाइयां ले रहा है. आप भी हमें अपनी बधाइयां हमारी ओर  झोंकते रहें और कहते रहें, अच्छे दिन आ गए, अच्छे दिन आ गए.

कई कई रावण से रुबरु

रोहरानंद से रहा नहीं गया दशानन के पास पहुंच हाथ जोड़कर पूछा,- महात्मन क्या इस नाचीज को एक प्रश्न का जवाब मिलेगा ? हे मनीषी! ज्ञान के सागर!! कृपया, मेरी जिज्ञासा को शांत करें .

दशानन ने सर नीचे कर कहा,- अब अंतिम वक्त में, क्या पूछना चाहते हो .अच्छा होता,  दो-चार दिन पूर्व आते.

रोहरानंद ने नम्र स्वर में कहा,- हे वीर, दशानन! प्लीज… अगर आप मेरी जिज्ञासा शांत नहीं करेंगे तो मेरा दिल टूट जाएगा…

रावण के मुखड़े पर स्मित हास्य तैरने लगी-

-‘अच्छा ! अपनी जिज्ञासा शांत करो । पूछो वत्स…’

दशानन की मधुर वाणी से रोहरानंद को आत्म संबल मिला और उसने खुलकर प्रश्न किया, हे रिपुदमन!कृपया मुझे यह बताएं,  कि आपके चेहरे पर इतनी सौम्यता कहां से आई, इस आभा का रहस्य क्या है ? आपको देखने मात्र से हृदय को बड़ी ठंडक महसूस होने लगी है.

दशानन – ( हंसते हुए ) बस.हम तो तुम्हारे प्रश्न पूछने के अंदाज से भयभीत हो गए थे.जाने क्या जानना चाहता है… हम यही सोच रहे थे.

रोहरानंद,- महात्मा रावण! मैं ने जो महसूस किया उसी जिज्ञासा का शमन चाहता हूं.

दशानन- ( सकुचाते हुए ) वत्स! संभवत: इसका कारण मेरे निर्माता आयोजको का मन है. तुम नहीं जानते,रावण दहन कमेटी के पदाधिकारी स्वच्छ, सरल हृदय के लोग हैं उनकी प्रतिछाया में मैं भी सरल और सादगी को अंगीकार किए हुए हूं.

रोहरानंद प्रसन्न हुआ,दशानन ने आत्मीयता से हाथ मिलाया उसे गर्माहट महसूस हुई.

कहा,-दशानन ! क्या मैं आपका सेल्फी प्राप्त कर सकता हूं.

दशानन मुस्कुराए  – क्यों नहीं. हमारी मित्रता की यह अविस्मरणीय स्मृति होगी.

रोहरानंद पुरानी बस्ती पहुंचा. एक निरीह रावण खड़ा था, देखते ही दया आने लगी. रोहरानंद ने पास पहुंच विनम्र  स्वर में कहा,- मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूं ?

आदमकद के साधारण से दशानन ने  भावविहीन चेहरा लिए कहा क्या, सचमुच,  आप मेरी मदद करेंगे ?

रोहरानंद – हां वाकई ! मगर मेरी क्षमता के भीतर.अगर आप आधुनिक सीता हरण में मारीच सृदश्य मदद मांगेंगे, तो मैं कहाँ  कर पाऊंगा.

दशानन- नहीं नहीं,  मुझे तो आपका सिर्फ मारंल सपोर्ट चाहिए.

रोहरानंद- उसके लिए तो मैं हर क्षण तत्पर हूं .

दशानन-( हाथ जोड़कर ) सिर्फ इतनी कृपया करो, समिति वालों को कुछ  जरा चंदा वगैरह करवा दो. कैसे फटे पुराने कागज,  मेरे देह पर चिपका दिए हैं. मुझे बड़ी शर्म आ रही है । लंकाधिपति  रावण की इज्जत का कुछ तो ख्याल रखना चाहिए.

रावण के दु:खी वाणी को सुनकर रोहरानंद का दिल भर आया. उसने समिति वालों की भरसक मदद करने का आश्वासन देकर, आगे बढ़ने मे भलाई समझी.

आगे रोहरानंद बाल्को पहुंच गया,स्टेडियम मैं विराट रावण अट्टाहास लगाता खड़ा था. ऐश्वर्य उसके रोएं रोएं से टपक रहा था. दशानन को देखते ही लोगों के हृदय में एक आंतक, एक सम्मान की भावना स्वमेव जागृत हो जाती थी.

दशानन ने अपनी विशाल गोल- गोल आंखें घुमाते हुए पुराने जमाने के खलनायक की भांति हुंकारा,-ओह कैसा है रे तू. बडी देर कर दी, कहां था अभी तक.

रोहरानंद ने हिचकिचाते हुए ससम्मान कहा,- क्षमा चाहता हूं एक-दो पुराने मित्र मिल गए थे,बस देर हो गई.

दशानन- समय की कीमत किया करो .अपने काम से काम रखो. दोस्त यार काम नहीं आएंगे. खुद को बुलंद करना सीखो. देखो! वेदांता, बाल्को कंपनी किस तरह सतत आगे बढ़ रही है.

रोहरानंद- सर ! कंपनी और मुझ जैसे अदने से व्यक्ति में अंतर तो रहेगा. कहां मैं कहां वेदांता.

दशानन- कंपनी को कौन चलाता है ?तुम जैसा इंसान ही न .अगर इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? चिमनी गिर गई थी- गिरी थी न .मगर देखो, कैसे आज लोग उस भीषण त्रासदी को भूल गए हैं.

रोहरानंद – वाकई आप सही हैं. मुझे बहुत कुछ सीखना है. मैं वेदांता से यह सब सीखूगां.

दशानन- ( स्निग्ध मुस्कान बिखेर कर ) बहुत अच्छा चलो,  इंजॉय करो…

रोहरानंद गरीब बस्ती पहुंचा. दशानन जी खड़े, मानो उसी का इंतजार कर रहे थे .रोहरानंद को देखा तो अपने पास बुलाया फुसफुसा कर कहा,- भूख लगी है कुछ जुगाड़ करो न .

रोहरानंद- हे वीर! यहां तो खाने को कुछ भी नहीं है.

दशानन – अरे भाई! ऐसा अनर्थ ना करो, सच ! बड़ी भूख लगी है .अगर मुझे भोजन नहीं दिया गया तो ठीक नहीं होगा.

रोहरानंद- हे लंका नरेश! सच यहां भोज्य सामग्री एक रत्ती भर नहीं है । एक बात मानोगे .वैसे भी अभी आपको अग्नि के सुपुर्द करेंगे ही, जरा धैर्य धारण करो.

दशानन की छोटी- छोटी गोल आंखें घूमने लगी, – देखो मैं यहां एक मिनट भी नहीं रुकूगां. मैं जा रहा हूं.और देखते-देखते दशानन गधे के सिंग की तरह गायब हो गया.

अपने घर में: सास-बहू की जोड़ी-भाग 3

“अरे नहीं बेटा. जिस के पास तेरे जैसी बेटी और इतनी प्यारी पोतियां हैं उसे क्या चिंता? और फिर मेरी पोती डाक्टर बनेगी. इस से ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है?”

अगले दिन ही कमला देवी ने पोती की पढ़ाई के लिए रुपयों का इंतजाम कर दिया.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. सागर के जीवन में अब कुछ नहीं बचा था. श्वेता कई सालों से औफिस के किसी कलीग के साथ अफेयर चला रही थी. इधर सागर अब और भी ज्यादा शराब में डूबा रहने लगा था. छोटीछोटी बात पर वह मां पर भी बरस जाता.

कमला देवी का दिल कई दफा करता कि सबकुछ छोड़ कर चली जाए. पर बेटे का मोह कहीं न कहीं आड़े आ जाता. जितनी देर श्वेता और सागर घर में रहते, झगड़े होते रहते. कमला देवी का घर में दम घुटता. उन की उम्र भी अब काफी हो चुकी थी. वे करीब 80 साल की थीं. उन से अब ज्यादा दौड़भाग नहीं हो पाती. नीरजा के पास भी वे कईकई दिन बाद जा पातीं.

एक दिन उन्हें अपने पेट में दर्द महसूस हुआ. यह दर्द बारबार होने लगा. एक दिन कमला देवी ने बेटे से इस का जिक्र किया तो बेटे ने उपेक्षा से कहा, “अरे मां, तुम ने कुछ उलटासीधा खा लिया होगा. वैसे भी, इस उम्र में खाना मुश्किल से ही पचता है.”

“पर बेटा, यह दर्द कई दिनों से हो रहा है.”

“कुछ नहीं मां, बस, गैस का दर्द होगा. तू अजवायन फांक ले,” कह कर सागर औफिस के लिए निकल गया.

अगले दिन भी दर्द की वजह से कमला देवी ने खाना नहीं खाया. पर सागर को कोई परवा न थी. दोतीन दिनों बाद जब कमला देवी से रहा नहीं गया तो उन्होंने फोन पर बहू नीरजा को यह बात बताई. नीरजा एकदम से घबरा गई. वह उस समय औफिस में थी, तुरंत बोली, “मम्मी, मैं अभी औफिस से छुट्टी ले कर आती हूं. आप को डाक्टर को दिखा दूंगी.”़

“अरे बेटा, औफिस छोड़ कर क्यों आ रही है? कल दिखा देना.”

“नहीं मम्मी, कल शनिवार है और वे डाक्टर शनिवार को नहीं बैठते. मैं अभी आ रही हूं.”

एक घंटे के अंदर नीरजा आई और उन्हें हौस्पिटल ले कर गई. बेटे और बहू के व्यवहार में अंतर देख कर उन का दिल भर आया. डाक्टर ने ऊपरी जांच के बाद कुछ और टैस्ट कराने को लिख दिए.

नीरजा ने फटाफट सारे टैस्ट कराए और जो बात निकल कर सामने आई वह किसी ने सोचा भी नहीं था. कमला देवी को पेट का कैंसर था.

डाक्टर ने साफसाफ बताया कि कैंसर अभी ज्यादा फैला नहीं है. पर इस उम्र में औपरेशन कराना ठीक नहीं रहेगा. कीमोथेरैपी और रेडिएशन से इलाज किया जा सकता है.

नीरजा ने तुरंत अपने औफिस में 15 दिनों की छुट्टी की अरजी डाल दी और सास की तीमारदारी में जुट गई. मिनी ने भी अपने संपर्कों के द्वारा दादी का बेहतर इलाज कराना शुरू किया. कीमोथेरैपी लंबी चलनी थी, सो, नीरजा ने औफिस जौइन कर लिया. मगर उस ने कभी सास को अकेला नहीं छोड़ा. उस की दोनों बेटियों ने भी पूरा सहयोग दिया.

सागर एक दोबार मां से मिलने आया, पर कुछ मदद की इच्छा भी नहीं जताई. नीरजा सास को कुछ दिनों के लिए अपने घर ले आई और दिल से सेवासुश्रुषा करती रही. अब कमला देवी की तबीयत में काफी सुधार था.

एक दिन उन्होंने नीरजा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटी, मैं चाहती हूं कि तू उस घर में वापस चले.”

नीरजा ने हैरानी से सास की ओर देखते हुए कहा, “आप यह क्या कह रही हैं मम्मी? आप जानती हो न, अब मैं सागर के साथ कभी नहीं रह सकती. कुछ भी हो जाए, मैं उसे माफ नहीं कर सकती.”

“पर बेटा, मैं ने कब कहा कि तुझे सागर के साथ रहना होगा. मैं तो बस यही चाहती हूं कि तू अपने उस घर में वापस चले.”

“पर वह घर मेरा कहां है मम्मी? वह तो सागर और श्वेता का घर है. मैं उन के साथ… यह संभव नहीं मम्मी.”

“बेटा, वह घर सागर का नहीं. तू भूल रही है. वह घर तेरे ददिया ससुर ने मेरे नाम किया था. उस दोमंजिले, खूबसूरत, बड़े से घर को बहुत प्यार से बनवाया था उन्होंने और अब उस घर को मैं तेरे नाम करना चाहती हूं.”

“नहीं मम्मी, इस की कोई जरूरत नहीं है. सागर को रहने दो उस घर में. मैं अपने किराए के घर में ही खुश हूं.”

“तू खुश है, पर मैं खुश नहीं, बेटा. मुझे अपने घर में रहने की इच्छा हो रही है. पर अपने बेटे के साथ नहीं बल्कि तेरे साथ. मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे उस घर में ले चल. वहीं मेरी सेवा करना. उसी घर में मेरी पोतियों की बरात आएगी. मेरा यह सपना सच हो जाने दे, बेटा.”

नीरजा की आंखें भीग गईं. वह सास के गले लग कर रोने लगी. सास ने उसे चुप कराया और सागर को फोन लगाया, “बेटा, तू अपना कोई और ठिकाना ढूंढ ले. मेरा घर खाली कर दे.”

“यह तू क्या कह रही है मां? घर खाली कर दूं? पर क्यों?”

“क्योंकि अब उस में मैं, नीरजा और अपनी पोतियों के साथ रहूंगी.”

“अच्छा, तो नीरजा ने कान भरे हैं. भड़काया है तुम्हें.”

“नहीं सागर, नीरजा ने कुछ नहीं कहा. यह तो मेरा कहना है. सालों तुझे उस घर में रखा, अब नीरजा को रखना चाहती हूं. तुझे बुरा क्यों लग रहा है? यह तो होना ही था. इंसान जैसा करता है वैसा ही भरता है न बेटे. तुम दोनों पतिपत्नी तब तक अपने लिए कोई किराए का घर ढूंढ लो. और हां, थोड़ा जल्दी करना. इस रविवार मुझे नीरजा और पोतियों के साथ अपने घर में शिफ्ट होना है बेटे. ”

अपना फैसला सुना कर कमला देवी ने फोन काट दिया और नीरजा की तरफ देख कर मुसकरा पड़ीं.

एक घड़ी औरत : प्रिया की जिंदगी की कहानी-भाग 3

शीलाजी उस दिन उस के सारे चित्र अपने साथ ले गईं. कुछ दिनों बाद औफिस में उन का फोन आया कि वे उन चित्रों की प्रदर्शनी अमृता शेरगिल और हुसैन जैसे नामी चित्रकारों के चित्रों के साथ लगाने जा रही हैं. सुन कर वह हैरान रह गई. प्रदर्शनी में वह अपनी सहेली और नरेश के साथ गई थी. तमाम दर्शकों, खरीदारों और पत्रकारों को देख कर वह पसोपेश में थी. पत्रकारों से बातचीत करने में उसे खासी कठिनाई हुई थी क्योंकि उन के सवालों के जवाब देने जैसी समझ और ज्ञान उस के पास नहीं था. जवाब शीलाजी ने ही दिए थे.

वापस लौटते वक्त शीलाजी ने नरेश से कहा, ‘आप बहुत सुखी हैं जो ऐसी हुनरमंद बीवी मिली है. देखना, एक दिन इन का देश में ही नहीं, विदेशों में भी नाम होगा. आप इन की अन्य कार्यों में मदद किया करो ताकि ये ज्यादा से ज्यादा समय चित्रकारिता के लिए दे सकें. साथ ही, यदि ये मेरे यहां आतीजाती रहें तो मैं इन्हें आधुनिक चित्रकारिता की बारीकियां बता दूंगी. किसी भी कला को निखारने के लिए उस के इतिहास की जानकारी ही काफी नहीं होती, बल्कि आधुनिक तेवर और रुझान भी जानने की जरूरत पड़ती है.’

नरेश के साथ उस दिन लौटते समय प्रिया कहीं खोई हुई थी. नरेश ही बोले, ‘तुम तो सचमुच छिपी रुस्तम निकलीं, प्रिया. मुझे तुम्हारा यह रूप ज्ञात ही न था. मैं तो तुम्हें सिर्फ एक कुशल डिजाइनर समझता था, पर तुम तो मनुष्य के मन को भी अपनी कल्पना के रंग में रंग कर सज्जित कर देती हो.’

व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी. आमदनी का छोटा ही सही, पर एक जरिया प्रिया को नजर आने लगा तो वह पूरे उत्साह से रंग, कूचियां और कैनवस व स्टैंड आदि खरीद लाई. पर समस्या यह थी कि वह क्याक्या करे? कंपनी में ड्रैस डिजाइन करने जाए या घर संभाले, बच्चों की देखरेख करे या पति का मन रखे? अपने स्वास्थ्य की तरफ ध्यान दे या रोज की जरूरतों के लिए बेतहाशा दौड़ में दौड़ती रहे?

प्रिया की दौड़, जो उस दिन से शुरू हुई, आज तक चल रही थी. घर और बाहर की व्यस्तता में उसे अपनी सुध नहीं रही थी.

‘‘अब हमें एक कार ले लेनी चाहिए,’’ एक दिन नरेश ने कहा.

प्रिया सुन कर चीख पड़ी, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्यों?’’ नरेश ने हैरानी से पूछा.

‘‘फ्लैट के कर्ज से जैसेतैसे इतने सालों में अब कहीं जा कर हम मुक्त हो पाए हैं,’’ प्रिया बोली, ‘‘कुछ दिन तो चैन की सांस लेने दो. अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, उन की मांगें भी बढ़ती जा रही हैं. पहले होमवर्क मैं करा दिया करती थी पर अब उन के गणित व विज्ञान…बाप रे बाप… क्याक्या पढ़ाया जाने लगा है. मैं तो बच्चों के लिए ट्यूटर की बात सोच कर ही घबरा रही हूं कि इतने पैसे कहां से आएंगे. पर आप को अब कार लेने की सनक सवार हो गई.’’

‘‘अरे भई, आखिरकार इतनी बड़ी कलाकार का पति हूं. शीलाजी की कलादीर्घा में आताजाता हूं तुम्हें ले कर. लोग देखते हैं कि बड़ा फटीचर पति मिला है बेचारी को, स्कूटर पर घुमाता है. कार तक नहीं ले कर दे सका. नाक तो मेरी कटती है न,’’ नरेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां मां, पापा ठीक कहते हैं,’’ बच्चों ने भी नरेश के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘अपनी कालोनी में सालभर पहले कुल 30 कारें थीं. आज गिनिए, 200 से ऊपर हैं. अब कार एक जरूरत की चीज बन गई है, जैसे टीवी, फ्रिज, गैस का चूल्हा आदि. आजकल हर किसी के पास ये सब चीजें हैं, मां.’’

‘‘पागल हुए हो तुम लोग क्या,’’ प्रिया बोली, ‘‘कहां है हर किसी के पास ये सब चीजें? क्या हमारे पास वाश्ंिग मशीन और बरतन मांजने की मशीन है? कार ख्वाब की चीज है. टीवी, कुकर, स्टील के बरतन और गैस हैं ही हमारे पास. किसी तरह तुम लोगों के सिर छिपाने के लिए हम यह निजी फ्लैट खरीद सके हैं. घर की नौकरानी रोज छुट्टी कर जाती है, काम का मुझे वक्त नहीं मिलता, पर करती हूं, यह सोच कर कि और कौन है जो करेगा. जरूरी क्या है, तुम्हीं बताओ, कार या अन्य जरूरत की चीजें?’’

‘‘तुम कुछ भी कहो,’’ नरेश हंसे, ‘‘घर की और चीजें आएं या न आएं, बंदा रोजरोज शीलाजी या अन्य किसी के घर इस खटारा स्कूटर पर अपनी इतनी बड़ी कलाकार बीवी को ले कर नहीं जा सकता. आखिर हमारी भी कोईर् इज्जत है या नहीं?’’

उस दिन प्रिया जीवन में पहली बार नरेश पर गुस्सा हुई जब एक शाम वे लौटरी के टिकट खरीद लाए, ‘‘यह क्या तमाशा है, नरेश?’’ उस का स्वर एकदम सख्त हो गया.

‘‘लौटरी के टिकट,’’ नरेश बोले, ‘‘मुझे कार खरीदनी है, और कहीं से पैसे की कोई गुंजाइश निकलती दिखाईर् नहीं देती, इसलिए सोचता हूं…’’

‘‘अगर मुझे खोना चाहते हो तभी आज के बाद इन टिकटों को फिर खरीद कर लाना. मैं गरीबी में खुश हूं. मैं दिनरात घड़ी की तरह काम कर सकती हूं. मरखप सकती हूं, भागदौड़ करती हुई पूरी तरह खत्म हो सकती हूं, पर यह जुआ नहीं खेलने दूंगी तुम्हें इस घर में. इस से हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा, सिवा बरबादी के.’’

प्रिया का कड़ा रुख देख कर उस दिन के बाद नरेश कभी लौटरी के टिकट नहीं लाए. पर प्रिया की मुसीबतें कम नहीं हुईं. बढ़ती महंगाई, बढ़ते खर्च और जरूरतों में सामंजस्य बैठाने में प्रिया बुरी तरह थकने लगी थी. नरेश में भी अब पहले वाला उत्साह नहीं रह गया था. प्रिया के सिर में भारीपन और दर्र्द रहने लगा था. वह नरेश से अपनी थकान व दर्द की चर्चा अकसर करती पर डाक्टर को ठीक से दिखाने का समय तक दोनों में से कोई नहीं निकाल पाता था.

प्रिया को अब अकसर शीलाजी व अन्य कलापे्रमियों के पास आनाजाना पड़ता, पर वह नरेश के साथ स्कूटर पर या फिर बस से ही जाती. जल्दी होने पर वे आटोरिक्शा ले लेते. और तब वह नरेश की कसमसाहट देखती, उन की नजरें देखती जो अगलबगल से हर गुजरने वाली कार को गौर से देखती रहतीं. वह सब समझती पर चुप रहती. क्या कहे? कैसे कहे? गुंजाइश कहां से निकाले?

‘‘औफिस से डेढ़ लाख रुपए तक का हमें कर्ज मिल सकता है, प्रिया,’’ नरेश ने एक रात उस से कहा, ‘‘शेष रकम हम किसी से फाइनैंस करा लेंगे.’’

‘‘और उसे ब्याज सहित हम कहां से चुकाएंगे?’’ प्रिया ने कटुता से पूछा.

‘‘फाइनैंसर की रकम तुम चुकाना और अपने दफ्तर का कर्ज मैं चुकाऊंगा पर कार ले लेने दो.’’

नरेश जिस अनुनयभरे स्वर में बोले वह प्रिया को अच्छा भी लगा पर वह भीतर ही भीतर कसमसाई भी कि खर्च तो दोनों की तनख्वाह से पूरे नहीं पड़ते, काररूपी यह सफेद हाथी और बांध लिया जाए…पर वह उस वक्त चुप रही, ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह जो आसन्न संकट के बावजूद अपनी सुरक्षा की गलतफहमी में बालू में सिर छिपा लेता है.

पति के जाने के बाद प्रिया जल्दीजल्दी तैयार हो कर अपने दफ्तर चल दी. लेकिन आज वह निकली पूरे 5 मिनट देरी से थी. उस ने अपने कदम तेज किए कि कहीं बस न निकल जाए, बस स्टौप तक आतीआती वह बुरी तरह हांफने लगी थी.

शायद : पैसों के बदले मिला अपमान-भाग 3

एक दिन अचानक दीनदयाल के मरने का समाचार मिला. कांप कर रह गई सुवीरा उस दिन. अब तक दीनदयाल ही ऐसे थे जो संवेदनात्मक रूप से बेटी से जुड़े थे. मां की मांग का सिंदूर यों धुलपुंछ जाएगा, सुवीरा ने कभी इस की कल्पना भी नहीं की थी. पति चाहे बूढ़ा, लाचार या बेसहारा ही क्यों न हो, उस की छत्रछाया में पत्नी खुद को सुरक्षित महसूस करती है.

अब क्या होगा, कैसे होगा, सोचतेविचारते सुवीरा मायके जाने की तैयारी करने लगी तो पहली बार अंगरक्षक के समान पति और दोनों बेटे भी साथ चलने के लिए तैयार हो उठे. एक मत से सभी ने यही कहा कि वहां जा कर फिर से अपमान की भागी बनोगी. पर सुवीरा खुद को रोक नहीं पाई थी. मोह, ममता, निष्ठा, अपनत्व के सामने सारे बंधन कमजोर पड़ते चले गए थे. ऐसे में सीमा ने ही साथ दिया था.

‘जाने दीजिए आप लोग मां को. ऐसे समय में तो लोग पुरानी दुश्मनी भूल कर भी एक हो जाते हैं. यह भी तो सोचिए, नानाजी मां को कितना चाहते थे. कोई बेटी खुद को रोक कैसे सकती है.’

मातमी माहौल में दुग्धधवल साड़ी में लिपटी अम्मां के बगल में बैठ गई थी सुवीरा. दिल से पुरजोर स्वर उभरा था. सोहन के पास तो इतना पैसा भी नहीं होगा कि बाबूजी की उठावनी का खर्चा भी संभाल सके. भाई से सलाह करने के लिए उठी तो लोगों की भीड़ की परवाह न करते हुए सोहन जोरजोर से चीखने लगा, ‘चलो, जीतेजी न सही, बाप के मरने के बाद तो तुम्हें याद आया कि तुम्हारे रिश्तेदार इस धरती पर मौजूद हैं.’

चाहती तो सुवीरा भी पलट कर इसी तरह उसे अपमानित कर सकती थी. जी में आया भी था कि इन लोगों से पूछे कि चलो मैं न सही पर तुम लोगों ने ही मुझ से कितना रिश्ता निभाया है, पर कहा कुछ नहीं था. बस, खून का घूंट पी कर रह गई थी.

लोगों की भीड़ छंटी तो सोहन की पत्नी से पूछ लिया था सुवीरा ने, ‘बैंक में हड़ताल है और मुझ से इस घर की आर्थिक स्थिति छिपी नहीं है. ऐसे मौकों पर अच्छीखासी रकम की जरूरत होती है. इसीलिए कुछ पैसे लाई थी, रख लो.’

‘क्यों लाई है पैसे?’ मां के मन में पहली बार परिस्थितिजन्य करुणा उभरी थी, पर सोहन का स्वर अब भी बुलंद था.

‘तुम मदद करने नहीं जायदाद बांटने आई हो. जाओ बहना, जाओ. अब तुम्हारा यहां कोई भी नहीं है.’

सोहन की पत्नी ने कई बार पति को शांत करने का असफल प्रयास किया था लेकिन गिरीश अच्छी तरह समझ गए थे कि सोहन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है. दंभी इनसान हमेशा दूसरे को गलत खुद को सही मानता है.

‘इस बदजबान को हम सुधारेंगे,’ जवानी का खून कहीं अनर्थ न कर डाले, इसीलिए सुवीरा ने रोका था अपने बेटों को.

‘हम कौन होते हैं किसी को सुधारने वाले? स्वभाव तो संस्कारों की देन है.’

लेकिन गिरीश उद्विग्न हो उठे थे, ‘सुवीरा, कब तक आदर्शों की सलीब पर टंगी रहोगी? खुद भी झुकोगी मुझे भी झुकाओगी? जिन लोगों में इनसानियत नहीं उन से रिश्ता निभाना बेवकूफी है. यदि आज के बाद तुम ने इन लोगों से संबंध रखा तो मेरा मरा मुंह देखोगी.’

घर लौट कर गिरीश ने कई बार अपनी दी हुई शपथ का विश्लेषण किया था पर हर बार खुद को सही पाया था. जिन रिश्तों के निभाने से तर्कवितर्क के पैने कंटीले झाड़ की सी चुभन महसूस हो, गहन पीड़ा की अनुभूति हो, उसे तोड़ देना क्या गलत था? कहते समय कब सोचा था उन्होंने कि सुवीरा का पड़ाव इतना निकट था?

बेहोशी की दशा में सन्नाटे को चीरते हुए सुवीरा के होंठों से जब सोहन और अम्मां का नाम छलक कर उन के कानों से टकराया तो उन्हें महसूस हुआ कि इतना सरल नहीं था सब. सिरहाने बैठे विक्रम की हथेलियों को हौले से थाम कर सुवीरा ने अपने शुष्क होंठों से सटाया, फिर चारों ओर देखा. उस की नजरें मुख्यद्वार पर अटक कर रह गईं.

‘‘सुवीरा, विगत को भूल जाओ. मांगो, जो चाहे मांगो. मैं अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखूंगा.’’

‘‘अंतिम समय… इस धरती से विदा लेते समय कांटों की गहरी चुभन झेलते हुए प्राण त्याग कर मुझे कौन सी शांति मिलेगी?’’

‘‘क्यों इतना दुख करती हो? संबंधजन्य दुख ही तो दुख का कारण होते हैं,’’ दीर्घ निश्वास भर कर गिरीश ने पत्नी को सांत्वना दी थी.

‘‘देखना, मेरे मरने के बाद ये लोग समझेंगे कि मेरा निश्छल प्रेम किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता था. मुझे तो सिर्फ प्यार के दो मीठे बोल और वैसी ही आत्मीयता चाहिए थी जैसी अम्मां सोहन को देती थीं.’’

घनघोर अंधेरे में सुवीरा की आवाज डूबती चली गई. शरीर शिथिल पड़ने लगा, आंखों की रंगत फीकी पड़ने लगी. धीरेधीरे उन के चेहरे की तड़प शांत हो गई. स्थिर चिरनिद्रा में सो गई सुवीरा.

पत्नी की शांत निर्जीव देह को सफेद चादर से ढक उन की निर्जीव पलकों को हाथों के दोनों अंगूठों से हौले से बंद करते हुए गिरीश आत्मग्लानि से घिर गए. पश्चात्ताप से टपटप उन की आंखों से बहते आंसू सुवीरा की पेशानी को न जाने कब तक भिगोते रहे.

‘‘अपनी अम्मां और भाई को एक नजर देखने की तुम्हारी अभिलाषा मेरे ही कारण अधूरी रह गई. दोषी हूं तुम्हारा. गुनहगार हूं. मुझे क्षमा कर दो.’’

जैसे ही सुवीरा के मरने का समाचार लोगों तक पहुंचा, भीड़ का रेला उमड़ पड़ा. गिरीश और दोनों बेटों की जानपहचान, मित्रों और परिजनों का दायरा काफी बड़ा था.

तभी लोगों की भीड़ को चीरते हुए सोहन और तारिणी देवी आते दिखाई दिए. बहन की शांत देह को देख सोहन जोरजोर से छाती पीटने लगा. उसे देख तारिणी देवी भी रोने लगीं.

‘‘अपने लिए तो कभी जी ही नहीं. हमेशा दूसरों के लिए ही जीती रही.’’

‘‘हमें अकेला छोड़ गई. कैसे जीएंगे सुवीरा के बिना हम लोग?’’

नानी का रुदन सुन दोनों जवान बेटों का खून भड़क उठा. मरने के बाद मां एकाएक उन के लिए इतनी महान कैसे हो गईं? दंभ और आडंबर की पराकाष्ठा थी यह. यह सब मां के सामने क्यों नहीं कहा? इन्हीं की चिंता में मां ने आयु के सुख के उन क्षणों को भी अखबारी कागज की तरह जला कर राख कर दिया जो उन्हें जीवन के नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर सकते थे.

उधर शांत, निर्लिप्त गिरीश कुछ और सोच रहे थे. कमल और बरगद की जिंदगी एक ही तराजू में तौली जाती है. कमल 12 घंटे जीने के बावजूद अपने सौंदर्य का अनश्वर और अक्षय आभास छोड़ जाता है जबकि 300 वर्ष जीने के बाद जब बरगद उखड़ता है तब जड़ भी शेष नहीं रहती.

कई बार सुवीरा के मुंह से गिरीश ने यह कहते सुना था कि प्यार के बिना जीवन व्यर्थ है. लंबी जिंदगी कैदी के पैर में बंधी हुई वह बेड़ी है जिस का वजन शरीर से ज्यादा होता है. बंधनों के भार से शरीर की मुक्ति ज्यादा बड़ा वरदान है.

सुवीरा की देह को मुखाग्नि दी जा रही थी लेकिन गिरीश के सामने एक जीवंत प्रश्न विकराल रूप से आ कर खड़ा हो गया था. कई परिवार बेटे को बेटी से अधिक मान देते हैं. बेटा चाहे निकम्मा, नाकारा, आवारागर्द और ऐयाश क्यों न हो, उसे कुल का दीपक माना जाता है, जबकि बेटी मनप्राण से जुड़ी रहती है अपने जन्मदाताओं के साथ फिर भी उतने मानसम्मान, प्यार और अपनत्व की अधिकारिणी क्यों नहीं बन पाती वह जितना बेटों को बनाया जाता है? यदि इन अवधारणाओं और भ्रांतियों का विश्लेषण किया जाए तो रिश्तों की मधुरता शायद कभी समाप्त नहीं होगी.

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत-भाग 3

नरेंद्र के इस सवाल पर उस की मां बुरी तरह से चौंक गईं और पल भर में ही मां का चेहरा आशंकाओें के बादलों में घिरा नजर आने लगा.

‘‘तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ नरेंद्र को बांह से पकड़ झंझोड़ते हुए मां ने पूछा.

‘‘सुरजीत के घर में उस का बापू  एक कुदेसन ले आया है. लोग कहते हैं हमारे घर में रहने वाली यह औरत भी एक ‘कुदेसन’ है. क्या लोग ठीक कहते हैं, मां?’’

नरेंद्र का यह सवाल पूछना था कि एकाएक आवेश में मां ने उस के गाल पर चांटा जड़ दिया और उस को अपने से परे धकेलती हुई बोलीं, ‘‘तेरे इन बेकार के सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. वैसे भी तू स्कूल पढ़ने के लिए जाता है या लोगों से ऐसीवैसी बातें सुनने? तेरी ऐसी बातों में पड़ने की उम्र नहीं. इसलिए खबरदार, जो दोबारा इस तरह की  बातें कभी घर में कीं तो मैं तेरे बापू से तेरी शिकायत कर दूंगी.’’

नरेंद्र को अपने सवाल का जवाब तो नहीं मिला मगर अपने सवाल पर मां का इस प्रकार आपे से बाहर होना भी उस की समझ में नहीं आया.

ऐसा लगता था कि उस के सवाल से मां किसी कारण डर गईं और यह डर मां की आखों में उसे साफ नजर आता था.

नरेंद्र के मां से पूछे इस सवाल ने घर के शांत वातावरण में एक ज्वारभाटा ला दिया. मां और बापू के परस्पर व्यवहार में तलखी बढ़ गई थी और सिमरन बूआ तलख होते मां और बापू के रिश्ते में बीचबचाव की कोशिश करती थीं.

मां और बापू के रिश्ते में बढ़ती तलखी की वजह कोने में बनी कोठरी में रहने वाली वह औरत ही थी जिस के बारे में अमली चाचा का कहना था कि वह एक ‘कुदेसन’ है.

मां अब उस औरत को घर से निकालना चाहती हैं. नरेंद्र ने मां को इस बारे में बापू से कहते भी सुना. नरेंद्र को ऐसा लगा कि मां को कोई डर सताने लगा है.

बापू मां के कहने पर उस औरत को घर से निकालने को तैयार नहीं हैं.

नरेंद्र ने बापू को मां से कहते सुना था, ‘‘इतनी निर्मम और स्वार्थी मत बनो, इनसानियत भी कोई चीज होती है. वह लाचार और बेसहारा है. कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए मगर मैं अब उस को इस घर में एक पल भी देखना नहीं चाहती हूं. नरेंद्र भी इस के बारे में सवाल पूछने लगा है. उस के सवालों से मुझ को डर लगने लगा है. कहीं उस को असलियत मालूम हो गई तो क्या होगा?’’ मां की बेचैन आवाज में साफ कोई डर था.

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में किसी वहम का शिकार हो गई हो. हमें इतना कठोर और एहसानफरामोश नहीं होना चाहिए. इस को घर से निकालने से पहले जरा सोचो कि इस ने हमें क्या दिया और बदले में हम से क्या लिया? सिर छिपाने के लिए एक छत और दो वक्त की रोटी. क्या इतने में भी हमें यह महंगी लगने लगी है? जरा कल्पना करो, इस घर को एक वारिस नहीं मिलता तो क्या होता? एक औरत हो कर भी तुम ने दूसरी औरत का दर्द कभी नहीं समझा. तुम को डर है उस औलाद के छिनने का, जिस ने तुम्हारी कोख से जन्म नहीं लिया. जरा इस औरत के बारे में सोचो जो अपनी कोख से जन्म देने वाली औलाद को भी अपने सीने से लगाने को तरसती रही. जन्म देते ही उस के बच्चे को इसलिए उस से जुदा कर दिया गया ताकि लोगों को यह लगे कि उस की मां तुम हो, तुम ने ही उस को जन्म दिया है. इस बेचारी ने हमेशा अपनी जबान बंद रखी है. तुम्हारे डर से यह कभी अपने बच्चे को भी जी भर के देख तक नहीं सकी.

‘‘इस घर में वह तुम्हारी रजामंदी से ही आई थी. हम दोनों का स्वार्थ था इस को लाने में. मुझ को अपने बाप की जमीनजायदाद में से अपना हिस्सा लेने के लिए एक वारिस चाहिए था और तुम को एक बच्चा. इस ने हम दोनों की ही इच्छा पूरी की. इस घर की चारदीवारी में क्या हुआ था यह कोई बाहरी व्यक्ति नहीं जानता. बच्चे को जन्म इस ने दिया, मगर लोगों ने समझा तुम मां बनी हो. कितना नाटक करना पड़ा था, एक झूठ को सच बनाने के लिए. जो औरत केवल दो वक्त की रोटी और एक छत के लालच में अपने सारे रिश्तों को छोड़ मेरा दामन थाम इस अनजान जगह पर चली आई, जिस को हम ने अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया, पर उस ने न कभी कोई शिकायत की और न ही कुछ मांगा. ऐसी बेजबान, बेसहारा और मजबूर को घर से निकालने का अपराध न तो मैं कर सकता हूं और न ही चाहूंगा कि तुम करो. किसी की बद्दुआ लेना ठीक नहीं.’’

नरेंद्र को लगा था कि बापू के समझाने से बिफरी हुई मां शांत पड़ गई थीं.

लेकिन नरेंद्र उन की बातों को सुनने के बाद अशांत हो गया था.

जानेअनजाने में उस के अपने जन्म के साथ जुड़ा एक रहस्य भी उजागर हो गया था.

अमली चाचा जो बतलाने में झिझक गया था वह भी शायद इसी रहस्य से जुड़ा था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि घर में रह रही वह औरत जोकि अमली चाचा के अनुसार एक ‘कुदेसन’ थी, दूर से क्यों उस को प्यार और हसरत की नजरों से देखती थी? क्यों जरा सा मौका मिलते ही वह उस को अपने सीने से चिपका कर चूमती और रोती थी? वह उस को जन्म देने वाली उस की असली मां थी.

नरेंद्र बेचैन हो उठा. उस के कदम बरबस उस कोठरी की तरफ बढ़ चले, जिस के अंदर जाने की इजाजत उस को कभी नहीं दी गई थी. उस कोठरी के अंदर वर्षों से बेजबान और मजबूर ममता कैद थी. उस ममता की मुक्ति का समय अब आ गया था. आखिर उस का बेटा अब किशोर से जवान हो गया था.

पार्क वाली लड़की : यौवन वाली नवयौवना की कहानी-भाग 3

‘‘जी, बिलकुल ठीक कहा आप ने,’’ वह बोली, ‘‘असल में हमारे घर का माहौल बिलकुल पुराना और परंपरावादी है. मां ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हैं. शहर में रहते जिंदगी निकल गई, पर बोलती अभी भी अपने गांव की ही भाषा हैं. पिताजी संगीत अध्यापक हैं. वे रागरागिनियों में हर वक्त खोए रहने वाले परंपरा से जुड़े व्यक्ति हैं. उन के लिए गीत, संगीत, लय, तान, तरन्नुम, स्वर, आरोह, अवरोह,  बाप रे बाप, क्याक्या शब्दावली प्रयोग करते हैं. सुनसुन कर ही सिर में दर्द होने लगता है.’’

‘‘मेरा लड़का एमबीए कर चुका है. उस की ढेरों किताबें हमारे घर में पड़ी हैं. आप उन्हें देख लें, अगर मतलब की लगें तो उन्हें ले जाएं,’’ वे संभल कर बोले, ‘‘लड़का अहमदाबाद के प्रसिद्ध मैनेजमैंट संस्थान में चुन लिया गया था. वहां से निकलते ही उसे बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई. आजकल बंबई में है.’’

लड़की एकदम उत्सुक हो गई, ‘‘अहमदाबाद के संस्थान में लड़के का चुना जाना वाकई एक उपलब्धि है. उस के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनी…यह सब जरूर आप के दिशानिर्देश की वजह से संभव हुआ होगा. हमारे घर में हमें कोई गाइड करने वाला ही नहीं है. अपने मन से पढ़ रही हूं, प्रतियोगिता की तैयारी कर रही हूं. किसी से पूछने का मन नहीं होता. लोग हर लड़की से कोई न कोई लाभ उठाने की सोचने लगते हैं. इसलिए मेरे मातापिता भी पसंद नहीं करते. पर आप तो इसी महल्ले में रहते हैं. आप का घर देख लिया है. किसी दिन आऊंगी, किताबें देखूंगी,’’ उस ने कहा.

वे सोचने लगे, ‘किसी दिन क्यों? आज ही क्यों नहीं चलती?’ पर कुछ बोले नहीं. अच्छा भी है, उन लड़कों के सामने वे उसे अपने घर नहीं लिवा ले जा रहे. पता नहीं वे सब क्या समझें, क्या सोचें?

दूसरे दिन इतवार था. नौकरानी के साथ वे खुद जुटे. सारा घर ठीक से साफ किया. सब चीजें करीने से लगाईं. लड़के की किताबें भी झाड़फूंक कर करीने से अलमारी में लगाईं.

नौकरानी चकित थी, ‘‘कोई आ रहा है क्या, बाबूजी?’’

वे हंस पड़े. कहना तो चाहते थे कि कोई न आ रहा होता तो इस उम्र में इतनी मशक्कत क्यों करते, किसी पागल कुत्ते ने काटा है क्या? पर वे हंस दिए, ‘‘नहीं, कोई नहीं आ रहा. बस, लगा कि घर ठीक होना चाहिए, इसलिए ठीक कर लिया.’’

नौकरानी को विश्वास न हुआ. वह उन के चेहरे को गौर से ताकती रही. फिर मुसकरा दी, ‘‘जरूर आप हम से कुछ छिपा रहे हैं. काई आएगा नहीं तो यह सब क्यों?’’

वे सोचने लगे, ‘अजीब औरत है. बेकार बातों में सिर खपा रही है. इसे इस बात से क्या मतलब? पर दूसरों के मामले में दखल देने की इस की आदत है?’

खाना बना कर जाने में नौकरानी को

2 बज गए. वह बड़बड़ाती रही, ‘‘दसियों घरों का काम निबटाती इतनी देर में. आप ने हमारा सारा वक्त खराब करा दिया.’’

पर वे उस से कुछ बोले नहीं. कौन बेकार इन लोगों के मुंह लगे और अपना मूड खराब करे. खाना खा कर वे कुरतापाजामा पहन, आराम से कुछ पढ़ने का बहाना कर उस का इंतजार करने लगे.

लड़़की का इंतजार, जैसे खुशबू के झोंके का इंतजार, जैसे ठंडी फुहार का इंतजार, जैसे संगीत की मधुर स्वर लहरियों की कानों को प्रतीक्षा, जैसे किसी अप्सरा का हवा में उड़ता एहसास, जैसे रंगबिरंगी तितली का फूलों पर बेआवाज उड़ना, जैसे मदमत्त भौंरे का गुनगुनाना, जैसे नदी का किलकारियां भरते हुए बहना, जैसे झरने का…

इसी इंतजार के दौरान घंटी बजने लगी. वे लपक कर पलंग से उठे और दरवाजे की तरफ बढ़े.

ताना ही थी. देख कर वे फूल की तरह खिल गए. लगा, जैसे उन की रगों में फिर वही पुराना वाला, जवानी के दिनों वाला रक्त धमकने लगा है. उन्होंने उस का स्वागत किया. हलके हरे रंग का सूट और उस पर नारंगी रंग की चुन्नी. उन का मन हुआ, उस से कहें, ‘तुम ने हरी या नारंगी बिंदी क्यों नहीं लगाई?’ पर वे प्रकट में बोले, ‘‘आइए.’’

उन्होंने उसे बैठक में बिठाया. ताना ने उड़ती सी नजर सब पर डाली. टीवी पर रखी लड़के की हंसती फोटो पर उस की नजर टिकी रह गई. वह सोफे से उठ कर टीवी के नजदीक पहुंची. फोटो को कुछ पल ताकती रही, फिर मुसकरा दी, ‘‘काफी स्मार्ट है आप का लड़का. क्या नाम है इस का?’’

‘‘सुब्रत,’’ वे भी ताना के समीप आ खड़े हुए, ‘‘सब से पहले बताओ, क्या लोगी, ठंडा या गरम? और गरम, तो चाय या कौफी? वैसे मैं कौफी अच्छी बना लेता हूं.’’

‘‘आप भी कमाल करते हैं,’’ वह बेसाख्ता हंसी, ‘‘आप मेरे लिए कौफी बनाएंगे और मैं बनाने दूंगी आप को? इतना पराया समझा है आप ने मुझे?’’

‘‘पराया क्यों नहीं?’’ वे बोले, ‘‘पहली बार हमारे घर आई हो. हमारी मेहमान हो. और भारतीय कितने भी दुनिया में बदनाम हों, पर मेहमाननवाजी में तो अभी भी वे मशहूर हैं.’’

‘‘इस तरह बोर करेंगे तो चली जाऊंगी, सचमुच,’’ ताना लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘आप हमारे पास बैठिए. आप से आज गपशप करने का मन है. खूब बातें करूंगी. कुछ आप की सुनूंगी, कुछ अपने गम हलके करूंगी. रसोई किधर है? कौफी मैं बनाती हूं.’’

वे उसे अपने साथ रसोई में ले गए.

कौफी के साथ ही लौटे. ताना का रसोई में इस तरह काम करना और खुला, बेतकल्लुफ व्यवहार उन्हें बहुत पसंद आया. कौफी पीते हुए वे देर तक तमाम तरह की बातें करते रहे. लड़की उन्हें हर तरह से समझदार लगी. फिर वह उन के लड़के के नोट्स व किताबें देखती रही. अपने मतलब की तमाम किताबें और नोट्स उस ने छांट कर अलग कर लिए और बोली, ‘‘धीरेधीरे इन्हें ले जाऊंगी, उन्हें एतराज तो न होगा?’’

‘‘किन्हें, लड़के को?’’ वे हंसे, ‘‘उसे अब इन से क्या काम पड़ेगा?’’

‘‘कभी बुलाइए न उन्हें यहां. चाचीजी भी शायद अरसे से वहां हैं. आप को भी अकेले तमाम तरह की तकलीफें हो रही होंगी. हमारे पिताजी तो अपने हाथ से पानी का एक गिलास भी उठा कर नहीं पी सकते. पता नहीं आप कैसे इतने दिनों से अकेले इस घर में रह रहे हैं.

‘‘चाचीजी को ले कर वे आएं तो हमें बताइएगा. हम भी उन से मिलना चाहेंगे. शायद उन से कुछ दिशानिर्देश मिल जाए. मैं जल्दी से जल्दी अपने पांवों पर खड़ी होना चाहती हूं. पिताजी की पुरानी, शास्त्रीय संगीत वाली दुनिया से ऊब गई हूं. मैं एक नई दुनिया में रमना चाहती हूं. जिंदगी की ताजा और तेज हवा में उड़ना चाहती हूं. मेरी कुछ मदद करिए न,’’ घर से जाते समय उस ने अनुरोधभरे स्वर में कहा.

‘‘आज इतवार है न. और इस वक्त 5 बजे हैं. चलो, पार्क के पास जो पीसीओ है, वहां चलते हैं. तुम्हें नंबर दूंगा. लड़का इस वक्त घर पर ही होगा. लड़के की मां भी वहीं होगी. फोन कर के दोनों को चौंकाओ. बोलो, चलोगी? मजा आएगा?’’ वे उस की चमकती आंखों में ताकने लगे.

बहुत मजा आया फोन पर. लड़की ने ऐसे चौंकाने वाले अंदाज में लड़के और उस की मां से बातें कीं कि वे खुद चकित रह गए. बाद में उन्होंने दोनों से आग्रह किया कि वे जल्दी यहां आएं.

लड़के की मां ने पूछा, ‘‘कोई खास बात?’’

वेताना की तरफ देख कर शरारत से हंस दिए, ‘‘खास बात न होती तो दोनों को क्यों बुलाता? हमेशा की तरह वह तुम्हें ट्रेन में बैठा देता और मैं तुम्हें स्टेशन पर उतार लेता… एक बहुत अच्छी लड़की?’’

‘‘यह फोन वाली लड़की?’’

‘‘नहीं, पार्क वाली लड़की,’’ वे बेसाख्ता हंसे. ताना का मुख एकदम सूरजमुखी की तरह खिल कर झुक गया.

‘‘पार्क वाली लड़की? क्या मतलब? कोई लड़की आप को पार्क में पड़ी मिल गई क्या?’’ पत्नी ने चमक कर पूछा.

‘‘पार्क में पड़ी नहीं मिल गई बल्कि फूलों में खिली हुई मिल गई है.’’ ताना उन्हें आंखों ही आंखों में डांट रही थी.

रिसीवर रख जब वे उस के साथ बाहर आए तो वह लजाई हुई बोली, ‘‘सचमुच आप जैसे इंसान भी इस दुनिया में हैं, सहज विश्वास नहीं होता.’’ वे मुसकराए, ‘‘ताना, कल से तुम माथे पर बिंदी जरूर लगाना, हाथों में लाल चूडि़यां और पांवों में सुनहरी बैल्ट वाली सैंडल पहनना.’’ और उस की तरफ ताकते हुए हंसने लगे.

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