दीदी : भाग 1- किस के लिए दीदी हार गईं

न जाने जीवन में कभी कुछ इतना अप्रत्याशित व असामयिक क्यों घट जाता है कि जिंदगी की जो गाड़ी अच्छीखासी अपनी पटरी पर चल रही होती है वह एक झटके से धमाके के साथ उलटपलट जाती है. जिस गाड़ी में बैठ कर हम आनंदपूर्वक सफर कर रहे होते हैं, वही हमें व हमारे अरमानों को कुचल कर कितना असहाय व लंगड़ा बना देती है.

ऐसा ही कुछ उस दिन घटा था जब पापा की बस दिल्लीकानपुर मार्ग पर एक पेड़ से टकरा गई थी और इधर हमारे पूरे 5 प्राणियों की जीवनरूपी गाड़ी अंधड़ों व तूफानों से टकराने के लिए शेष रह गई थी. पापा थे, तो यही सफर कितना आनंददायक लगता था. उन की मृत्यु के बाद लगने लगा था कि जिस गाड़ी में हम बैठे हैं उस का चालक नहीं है और टेढे़मेढे़ रास्तों से गुजरती हुई यह गाड़ी हमें खींचे ले जा रही है.

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समाचार पाते ही सब नातेरिश्तेदार इकट्ठे हो गए थे. सभी ओर दार्शनिकताभरे दिलासों की भरमार थी, ‘जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. बेचारे अच्छेखासे गए थे, क्या मालूम था लौटेंगे ही नहीं आदि.’

जो कोई भी घर में आता, हम बच्चों को छाती से चिपका कर रो उठता. घर की दीवारों को भी चीरने वाला क्रंदन कई दिनों तक घर में छाया रहा.

लेकिन दीदी को न तो किसी ने छाती से लगाया, न ही वे दहाडें मार कर रोईं. उन का विकसित यौवन, गदराई देह और मांसल मांसपेशियां उन्हें छाती से चिपकाने के लिए प्रत्येक परिचितजनों को कुछ देर सोचने को विवश कर देतीं और छाती से दीदी को चिपकाने के लिए उठे उन के हाथ सहसा ही पीछे हट जाते. न तो दीदी को किसी ने दुलरायाचिपकाया, न ही वे दहाड़ें मारमार कर रो सकीं, सूनीसूनी आंखें, उदास व भावहीन चेहरा लिए वे जहां बैठी होतीं, वहीं बैठी रहतीं.

जिस किसी को भी नजर उन पर पड़ती, उन्हें देख कर कुछ चिंतित सा हो उठता. किसी दूसरे के कान में जा कर कुछ फुसफुसाता. दीदी के कानों में यद्यपि कुछ न पड़ता पर उस फुसफुसाहट की अस्पष्ट भाषा वे अच्छी तरह समझ लेतीं. उन्हें लगने लगा था जैसे कि अपने घर की चारदीवारी में वही सब से अधिक पराई हो गई हैं.

तेरहवीं तक यह फुसफुसाहट कुछ गुमसुम सी भाषा में रही, पर 14वें दिन में ही वह स्पष्ट शब्दों में सुनाई देने लगी, ‘जवान लड़की है, इस के हाथ पीले हो जाते तो सरला का एक भारी बोझ उतर जाता.’ तब निश्चय ही दीदी के अकेलेपन को घर के सदस्यों के बीच पैदा होते हुए मैं ने देखा था. पापा के बिना दीदी एकदम अकेली पड़ गई थीं. मां को तसल्ली देने वाले बहुत थे पर उन का सहयोग कभी भी दीदी को नहीं मिल पाया था.

पापा के जाते ही मां की आंखों में घर के आंगन के बीच दीदी एक बड़ा भारी पत्थर बन गई थीं. लगता था, दीदी के भार का गम मां के लिए पापा की मृत्यु के भार से भी अधिक असहनीय हो गया था. यही कारण था कि दीदी के लिए सबकुछ अचानक ही पराया हो गया था, शायद दूसरों पर अपने बोझ का एहसास भी वे स्वयं करने लगी थीं.

मझली दीदी भी तो थीं. पापा तो उन के भी चले गए थे, मेरे भी और अमर के भी. हम सब के पापा नहीं थे तो घरआंगन तो वही था. पर दीदी के लिए तो घरआंगन भी पराए हो गए थे, इसीलिए कुछ ही दिनों में दीदी अपनी सारी चंचलता खो कर जड़ हो गई थीं.

परंतु जड़ होने का मतलब दीदी के लिए जीवन के प्रति निष्क्रिय होना नहीं था. यह बात दूसरी थी कि वे अपने बोझ को मां के सिर से उतारने की चिंता में अपनी उम्र से कहीं अधिक समझदार व परिपक्व हो गई थीं, इसीलिए घर में चर्चा किए जाने वाले किसी  भी सुझाव का विरोध उस समय उन्होंने नहीं किया. ताऊजी बैठते, चाचाजी भी साथ देते, चाची व ताई भी राय देतीं, मां गुमसुम उन की हां में हां मिलातीं.

‘‘इंश्योरैंस कितना है?’’

‘‘पीएफ?’’

‘‘बैंक बैलेंस कुछ है?’’ आदि प्रश्न पूछे जाते.

‘‘सब जोड़ कर 20 लाख रुपए होते थे. यह तो अच्छा है कि सिर छिपाने को बापदादा का बनाया यह पुराना मकान है. अब इन 20 लाख रुपयों में से खींचतान कर के भले घर का कोई लड़का देख कर रागिनी के हाथ पीले कर ही दो. एक की नैया तो पार लगे. जवान लड़की है, तुम कहां तक देखभाल करोगी? दीपा तो अभी 4-5 साल तक ठहर सकती है, सुधी के वक्त तक अमर संभाल ही लेगा,’’ ताऊजी इन शब्दों के साथ ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते.

मां केवल गरदन हिला कर स्वीकृति दे देतीं. मेरे अंदर बोलने को कुछ कुलबुलाता, परंतु इतने बुजुर्गों के सम्मुख हिम्मत न होती. ‘आज क्या दीदी ही सब से बड़ा बोझ बन गई हैं, केवल 17 साल की उम्र में ही? क्या होगा उन के उन सपनों का जो पापा ने उन्हें दिखाए थे?’

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पापा थे, तो दीदी का अस्तित्व ही घर में सर्वोपरि था. क्याक्या नहीं सोच डालते थे पापा दीदी को ले कर, ‘अपनी बेटी को डाक्टर बनाऊंगा, फिर लंदन भेजूंगा, वहां से स्पैशलिस्ट बन कर आएगी. खूब औपरेशन किया करेगी. महिलाओं की भीड़ से घिरी रहेगी मेरी बिटिया. एक शानदार प्राइवेट अस्पताल बनाएगी अपने लिए. बस, फिर यह सभी को संभाल लेगी. एक से बढ़ कर एक होंगे मेरे बच्चे.’

‘रहने भी दो, किस दूसरी दुनिया में घूमते रहते हैं आप भी, क्यों भूल जाते हैं कि बेटी तो पराया धन होती है.’

‘ऊंह, मैं अपनी रागिनी को कहीं नहीं भेजूंगा. जिसे गरज होगी वही शादी करेगा इस से. मैं थोड़े ही किसी की खुशामद करने वाला हूं. फिर वह रहेगा भी यहीं, इसी के साथ.’ वे दीदी को झटक कर अपनी गोद में बैठा लेते और उन के बाल सहलाने लगते. तब दीदी रही होंगी यही 12-13 वर्ष की. तब पापा के चेहरे से लगता उन की हर खुशी वही थीं. इतने संतुष्ट और प्रसन्न दिखाई देते जैसे कि उस खुशी से परे उन्हें कुछ और चाहिए ही नहीं था.

सतत ही तो थी पापा की वह खुशी. संतान जब गुणवान हो तो किसे प्रसन्नता नहीं होती? रागिनी दीदी को तो न जाने किन हाथों से रचा गया था कि किसी भी गुण से अछूती नहीं हैं. वे देखने में सुंदर, पढ़ाई में निपुण व कलाओं में प्रवीण, क्या घर क्या बाहर, सब जगह ही दीदी की धाक रहती.

पापा अकसर डांस प्रोग्राम करवाते, जिस में रागिनी दीदी स्टार डांसर होती थीं. उन के साथ दीपा दीदी व महल्ले की अन्य लड़कियां भी डांस प्रस्तुत करती थीं.

हमारे पड़ोसी डा. दीपक का सब से बड़ा बेटा अमित इस प्रोग्राम में विशेष रुचि लेने लगा था. धीरेधीरे अमित दीदी को स्वयं सुझाव देता. ‘यह रंग तुम पर अधिक सूट नहीं करेगा. कोई सोबर कलर पहनो. इस साड़ी के साथ यह ब्लाउज मैच करेगा. ऊंह, लिपस्टिक ठीक नहीं लगी, जरा और डार्क कलर यूज करो. काजल की रेखा जरा और लंबी होनी चाहिए. बाल ऐसे नहीं, ऐसे बनने चाहिए.’ प्रोग्राम के समय भी अमित की आंखें दीदी के चेहरे पर ही टिकी रहतीं, और यदि दीदी की नजरें कभी अकस्मात उस की नजर से टकरा जातीं तो उन के चेहरे पर हजारों गुलाबों की लाली छा जाती.

यह सब किसी से छिप सकता था भला? बस, मझली दीदी कुछ तो यह ईर्ष्या दीदी के प्रति पाले हुए थीं कि अमित उन की ओर ध्यान न दे कर रागिनी दीदी को ही आकर्षण का प्रमुख केंद्र बनाए रहता है. दूसरे, मां की आंखों में अपनेआप को ऊंचा उठाने का अवसर भी वे कभी अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती थीं. उन्होंने दीदी के विरुद्ध अम्मा के कान भरने आरंभ कर दिए.

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दीदी: किस के लिए दीदी हार गईं

अनजाने पल: सावित्री से क्यों विमुख होना चाहता था आनंद?

अनजाने पल : भाग 4- सावित्री से क्यों विमुख होना चाहता था आनंद?

एक दिन जब मैं फैक्टरी से कार में लौट रही थी तो एक शराबी मेरी गाड़ी से टकरा कर गिर पड़ा. मैं ने गाड़ी रोकी और उसे अस्पताल ले गई. उस का इलाज करवाया. बाद में परिचय पूछने पर उस ने अपना नाम विकास बताया. उस ने बताया कि उस की पत्नी किरण कुछ दिनों पहले मर गई है. शादी हुए 2 साल ही हुए थे कि वह गुजर गई. उस के वियोग को सहन न कर पाने के कारण विकास ने शराब पीना शुरू कर दिया था.

विकास का भी कपड़े का व्यापार था. पर उस ने किरण के गुजर जाने के बाद उस की तरफ ध्यान नहीं दिया था. दुखी ही दुखियारे का दुख समझ सकता है. मैं ने विकास को सहारा दिया, उस के अंदर प्रेरणा जगाई. धीरेधीरे विकास मुझ से प्रेम करने लगा. उस ने शादी का प्रस्ताव रखा तो मैं झिझकी. तब उस ने कहा, ‘मुझे अपने पर विश्वास नहीं है. अगर तुम ने मुझे ठुकरा दिया तो मैं फिर से कहीं शराबी न बन जाऊं.’

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मैं ने सोचा, दिशाहीन चलती अपनी जीवननैया को अगर खेवैया मिल रहा हो तो इनकार नहीं करना चाहिए. हम दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी थी ही.

पर मन ने सचेत किया, ‘आज इसे मेरी जरूरत है, कल जरूरत न पड़े तो आनंद की तरह ही दूध की मक्खी के समान फेंक दे तो…’

मैं ने उस के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

हम दोनों का व्यापार एकजैसा होने के कारण हम अकसर मिलते. परंतु विकास ने दोबारा मुझ से इस बारे में चर्चा नहीं की. हम दोनों होटल में व्यापार के सिलसिले में ही एक गोष्ठी में भाग लेने गए थे. विकास ने मुझे विचारों के घेरे से बाहर निकाला, ‘‘सावित्री, तुम ने कुछ भी नहीं खाया है. सारे लोग खा कर जा चुके हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ओह, मुझे माफ कर दो, विकास. पुरानी यादों में मैं खो गई थी.’’

‘‘मैं समझ गया था. मैं ने उन लोगों से कह दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. चलो, हम यहां से सीधे आनंद के पास चलते हैं.’’

‘‘अभी वे लोग हमें आनंद से मिलने देंगे?’’

‘‘कम से कम नीलिमा से तो मिल लोगी.’’

‘‘मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती, स्वयं ही चली जाऊंगी. तुम गोष्ठी में जाओ.’’

उस ने मेरी बात न मानी. अपने सहायक को सारी बातें समझा कर वह मेरे साथ चल पड़ा. उस ने अपने ड्राइवर से गाड़ी घर भेज देने को कह दिया.

जब हम अस्पताल पहुंचे तो नीलिमा बाहर ही खड़ी मिली. वह रो पड़ी थी. अश्रुपूरित नेत्रों से उस ने हम से जुदा होने के बाद की कहानी सुनाई. जब माया ने आनंद से विवाह किया तो नीलू बहुत खुश थी. माया उस से बहुत प्यार करती थी. आनंद भी बहुत खुश था.

परंतु नीलू को माया का धीरेधीरे आंनद के करीब आना अच्छा न लगा. वह थी भी जिद्दी. आनंद का प्यार उस के लिए कम होने पर वह सह नहीं पाई. माया को वह कभी आनंद के साथ कहीं न जाने देती और उस के करीब भी न जाने देती. इस बात को ले कर हर रोज झगड़ा होता, तकरार होती, परंतु अंत में जीत नीलू की ही होती.

जब माया का बेटा हुआ तो नीलू को बहुत अच्छा लगा, लेकिन माया गुड्डू को सदा नीलू से दूरदूर ही रखती. एक दिन गुड्डू पालने में सो रहा था. माया रसोई में खाना बना रही थी. अचानक वह जाग गया और रोने लगा.

नीलू अपने कमरे से भाग कर आई और गुड्डू को गोद में उठाना चाहा. वह नीचे गिरने को हुआ तो माया ने उसे उठा लिया. माया ने सोचा कि वह गुड्डू को पालने से नीचे गिराना चाह रही थी. नीलू ने कितना समझाने की कोशिश की, परंतु न तो वह समझी, न ही उस ने आनंद को समझाने का मौका दिया. आनंद के ऐसे कान भरे कि रात में उस ने नीलू को मारा भी.

इस घटना के बाद उस परिवार में एक दरार उत्पन्न हो गई, जो बढ़ती ही गई. ऐसे ही वातावरण में दुखी, तिरस्कृत, उपेक्षित, प्यार के लिए तरसतीबिलखती नीलू बड़ी होती गई. मुझे सोच कर हैरानी होती है कि आनंद ने अपने ही खून को इस तरह लाचार, विवश और दुखी क्यों बनाया?

इस घटना के बाद जब से आनंद का तबादला चेन्नई हुआ, तब से नीलू हर रोज यही सोचती कि उस की मां उसे दोबारा मिल जाए.

मैं ने अश्रुपूरित नेत्रों से बेटी को देखा. 9 साल की उम्र में उस ने क्याकुछ नहीं देखा और सहा था. आनंद और माया हर जगह गुड्डू को ले जाते और नीलिमा को घर पर छोड़ जाते. इस बार भी डिजनीलैंड से लौटते समय कार दुर्घटना में यह हादसा हो गया था. माया की मौत हो गई थी और आनंद भी बुरी तरह जख्मी हो जीवन व मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था. गुड्डू को तनिक भी चोट नहीं आई थी.

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नीलिमा जब यह सब बता रही थी, उसी दौरान आनंद भी गुजर गया. उस से कुछ कहनेसुनने का मौका भी न मिला. मैं दोनों बच्चों को घर ले आई. विकास ने आनंद के अंतिम संस्कार में मेरी काफी मदद की. पूछताछ के दौरान पता चला कि माया का कोई रिश्तेदार नहीं था. मैं किस रिश्ते से बच्चे को यहां रखती. स्कूल में उस का क्या नाम देती. सोच में डूबी हुई थी कि नीलू अंदर आई. उस ने पूछा, ‘‘मां, क्या तुम गुड्डू की भी मां बनोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैं गुड्डू की मां ही तो हूं.’’

‘‘मैं ने आप को कितना गलत समझा था मां,’’ नीलू आत्मग्लानि से भर कर बोली.

‘‘मेरी भी तो कुछ गलती थी.’’

‘‘मैं ने आप से मिलने की बहुत कोशिश की, पर पिताजी और माया आंटी ने मौका ही नहीं दिया.’’

‘‘बेटी, जो गुजर गए, उन के बारे में अपशब्द नहीं कहते.’’

गुड्डू रोता हुआ वहां आया. 3 बरस का गोलमटोल गुड्डू बहुत प्यारा लगता था. तोतली जबान में जब उस ने पुकारा ‘दीदी’, तो नीलू ने उसे अपनी बांहों में समेटते हुए कहा, ‘‘गुड्डू, ये हमारी मां हैं.’’

मैं ने उसे गोद में ले कर पुचकारा. वह बहुत देर तक ‘मम्मीमम्मी’ कह कर रोता रहा. मैं सोचने लगी, जिस पति ने मुझे मेरी बेटी से इसलिए अलग किया था, क्योंकि उस के अनुसार, मुझ में ममता नहीं थी, स्नेह नहीं था, और अब समय का खेल देखिए उस के बच्चे मेरी गोद में आ गए.

इतने में विकास भीतर आया और बोला, ‘‘आज इन बच्चों की परवरिश के लिए पिता का स्थान मुझे दे सकोगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘हमारे बच्चे होंगे तो क्या होगा?’’

‘‘सरकार के परिवार नियोजन का बोर्ड नहीं देखा. 2 बच्चे बस, 2 से अधिक नहीं. मैं ने औपरेशन करवा लिया है,’’ वह बोला.

‘‘अगर मैं विवाह से इनकार कर देती तो…तुम ने ऐसा क्यों किया?’’

‘‘तुम इनकार कर दो, तब भी ये बच्चे हमारे ही रहेंगे. इन बच्चों को हम ने साथसाथ ही पाया है. इसलिए मैं ने इन का संरक्षक बन कर जीवन गुजारने का निश्चिय कर लिया है.’’

इस से आगे मुझ में इनकार करने की शक्ति नहीं थी. परंतु मैं ने नीलिमा को बुला कर पूछा, ‘‘विकास अंकल को पापा कह सकोगी?’’

‘‘अगर गुड्डू के लिए तुम मां हो तो अंकल हम दोनों के पापा हुए न…’’

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हम उस अनजाने पल में एकदूसरे से पूरी तरह बंध चुके थे. मैं ने कृतज्ञताभरी दृष्टि से विकास की ओर देखा. मेरी नजरों में छिपी सहमति विकास की नजरों से छिप न सकी.

अनजाने पल : भाग 3- सावित्री से क्यों विमुख होना चाहता था आनंद?

मैंने फिर विनम्रता और स्नेह से कहा, ‘बेटी, मैं तबादले की कोशिश करूंगी. तब तक तुम मेरे साथ रहो. एक साल के भीतर हम यहीं आ जाएंगे.’

नीलिमा ने पलट कर पिता की ओर देखा, ‘क्यों, मंजूर है?’

आनंद बोला, ‘सोच लो. मैं वहां नहीं रहूंगा. तुम्हें घर में अकेले दीवारों से बातें करते हुए रहना पड़ेगा. फिर तुम्हारी मां के कथन में न जाने कितनी सचाई. बाद में मुकर जाए तो…’

मुझे आनंद पर बहुत क्रोध आया कि न जाने भाईबहन ने नीलिमा से मेरे विरुद्ध  क्या कुछ कह दिया था. वह बेचारी अपने नन्हे से मस्तिष्क में विचारों का बवंडर लिए चुप रह गई.

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मेरी ननद ने कहा, ‘अभी बच्ची को ले जाने की क्या जरूरत है. जब तबादला हो जाए तब देख लेंगे. अभी तो वह यहां बहुत खुश है.’ मुझे यह सलाह ठीक लगी. मैं अगली ट्रेन से ही दिल्ली लौट आई. मेरे मन में भी आगे के कार्यक्रमों के बारे में योजनाएं बनने लगी थीं. मैं ने लौटते ही अपने तबादले के बारे में सैक्रेटरी से अनुरोध किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी प्रिंसिपल की नौकरी के लिए सिफारिश आई है. क्या यह सबकुछ छोड़ कर जयपुर जाना चाहोगी?’

मैं ने कहा, ‘परिवार की खुशी के लिए नारी को थोड़ा सा त्याग करना ही पड़ता है. तभी तो वह नारी होने का दायित्व निभा पाती है.’

मुझे लोगों ने बहुत समझाया, पर मैं टस से मस न हुई. लेकिन तबादले की अर्जी देते ही तो तबादला नहीं हो जाता. सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षकों का आदानप्रदान हो सकता है. यूनिवर्सिटी में उत्तरपुस्तिकाओं की जांच के दौरान मेरी रजनी से मुलाकात हुई. उस के पति का दिल्ली तबादला हो गया था और वह भी यहां आना चाहती थी. जयपुर कालेज से दिल्ली आने की उस की उत्सुकता देख मैं भी अत्यंत प्रसन्न हुई. हम दोनों ने ही आदानप्रदान के सारे कागजात जमा करवा दिए.

फिर मैं 4 दिनों की छुट्टी ले जयपुर गई. जयपुर से मेरे पति के पत्र नियमित रूप से नहीं आते थे. ननद तो कभी लिखती ही नहीं थी. मैं अपने खयालों में खोई हुई यह सोच भी नहीं पाई कि शायद वे लोग मुझ से कन्नी काट रहे हैं.

जयपुर पहुंचने पर पता चला कि ननद को कैंसर था. जब तक पता चला, काफी देर हो चुकी थी. उन की देखभाल के लिए माया नाम की 20-21 वर्षीय नर्स रख ली गई थी. मैं ने पति से पूछा, ‘मुझे सूचना क्यों नहीं दी, क्या मैं इतनी गैर हो गई थी?’

आनंद ने कहा, ‘पता नहीं, तुम छुट्टी ले कर आतीं या नहीं. और इस बीमारी में इलाज भी काफी दिनों तक चलता रहता है.’

मैं ने उस समय भी यही सोचा कि शायद उस ने मेरे बारे में ठीक ही निर्णय लिया होगा. मैं ने अपने तबादले के बारे में उस से जिक्र किया तो वह बोला, ‘इस समय तुम्हारा तबादला कराना ठीक नहीं होगा. दीदी बहुत बीमार हैं. माया उन की देखभाल अच्छी तरह कर ही लेती है. वह इलाज के बारे में सबकुछ जानती भी है. नीलू भी उस से काफी हिलमिल गई है.’

‘मेरे आने से इस में क्या रुकावट आ सकती है?’

‘डाक्टरों का कहना है कि दीदी महीने, 2 महीने से ज्यादा रहेंगी नहीं. फिर मैं भी जयपुर में रहना नहीं चाहता. मेरा अगला तबादला जहां होगा, तुम वहीं आ जाना. यही ठीक रहेगा.’

मैं समझ ही नहीं पाई कि वह मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रहा है या मेरी भलाई चाहता है. मैं नीलू से जब भी कुछ बोलना चाहती, वह  ‘मां, मुझे परेशान मत करो’, कह कर भाग जाती.

माया दिल की अच्छी लगती थी, देखने में भी सुंदर थी. नीलू से वह बहुत प्यार करती थी. परंतु मैं ने पाया कि वह मेरे पति और बेटी के कुछ ज्यादा ही करीब है. वातावरण कुछ बोझिल सा लगने लगा. ननद मुझ से ठीक तरह से बोलती ही नहीं थी. वह बोलने की स्थिति में थी भी नहीं, क्योंकि काफी कमजोर और बीमार थी.

मैं वहां 2 दिनों से ज्यादा रुक न पाई. जाने से पहले मैं ने रजनी को अपनी मजबूरी बताते हुए फोन कर दिया था.

जब दिल्ली लौटी तो मन में दुविधा थी, ‘क्या मुझे जबरदस्ती वहां रुक जाना चाहिए था. पर किस के लिए रुकती? सब तो मुझे अजनबी समझते थे.’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

मुश्किल से 10 दिन बीते होंगे कि आनंद का पत्र आया. ‘दीदी की मृत्यु उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तुम दिल्ली लौटी. मैं ने यहां से तबादले के लिए अर्जी भेजी है. आगे कुछ नहीं लिखा था. मैं ने संवेदना प्रकट करते हुए जवाब भेज दिया. इस के बाद एक महीना बीत गया. आनंद ने मेरे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.

मैं ने चिंतातुर जब बैंक मुख्यालय को फोन किया तो पता चला कि आनंद 15 दिन पहले ही तबादला ले कर मुंबई जा चुका है. उस ने जाने की मुझे कोई खबर नहीं दी थी.

मेरा मन आनंद की तरफ से उचट गया. मुझे मर्दों से नफरत सी होने लगी. इस प्रकार मुझ से दूरी बनाए रखने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

मैं ने अभी तक अपनी घर की स्थिति के बारे में पिताजी को कुछ नहीं बताया था. सोचा, उन्हें क्यों परेशानी में डालूं. मां तो थी नहीं. पिताजी वैसे भी व्यापार के सिलसिले में हमेशा ही दौरे पर रहते थे. अभी मैं सोच ही रही थी कि पिताजी से मिल आऊं कि आनंद का पत्र आ गया. पत्र देख कर मेरा मन आनंदित हो गया.

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बड़े ही उत्साह से मैं ने पत्र खोला. अब तो मैं नौकरी छोड़ कर भी अपनी बच्ची और पति के पास लौटने के लिए बेताब हो रही थी. कितनी अजीब होती है नारी, अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए परिवार से अलग हुई थी. अब उसी प्रकार परिवार से जुड़ने के लिए सबकुछ छोड़ने को उद्यत हो गई. लेकिन पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा फक पड़ गया. ऐसा लगा, मानो हजारों बरछियां शरीर को छलनी कर रही हों. बड़े ही अनुनयविनय से कड़वी दवा पर मीठी टिकिया का लेप चढ़ा कर पत्र भेजा था. सारांश यही था कि वह माया से विवाह करना चाहता है. माया के गर्भ में उस का बच्चा है. वह मुझ से तलाक चाहता है.

मेरी समझ में सारी बातें आ गईं. मुझ से अलगाव रखना, चिट्ठी न लिखना और खिंचेखिंचे रहने के पीछे क्या कारण था. यह मैं समझ गई. उस कायर की दुर्बलता पर मुझे हंसी आई. साफसाफ कह देता तो क्या मैं मुकर जाती.

मुझे नीलिमा के लिए डर लगने लगा था. परंतु उस ने लिखा था, नीलिमा माया से बहुत प्यार करती है. इसलिए वह  हमारे साथ ही रहेगी. मैं ने अपने दिल को कठोर बना कर तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, कानूनी कार्यवाही के बाद 4 वर्षों में तलाक भी हो गया. मैं पिता के पास चेन्नई लौट आई.

मैं ने व्यापार में पिताजी का हाथ बंटाने का निश्चय कर लिया. दिल्ली की नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया. चेन्नई में हमारी कंपनी खूब अच्छी चल रही थी. मैं ने पूरी निष्ठा से अपने को काम में समर्पित कर दिया. पर पिताजी वह सदमा झेल न पाए. तलाक होने के 2 महीने बाद ही हृदयगति रुक जाने से उन की मृत्यु हो गई.

मेरी जिंदगी की गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ने लगी. मैं कई मर्दों से व्यापार के दौरान मिलती. परंतु किसी से भी व्यापारिक चर्चा के अलावा कोई बात न करती. लोग मुझ से कहते भी कि तुम दोबारा विवाह क्यों नहीं कर लेतीं. परंतु मैं ने पुनर्विवाह न करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनजाने पल : भाग 2- सावित्री से क्यों विमुख होना चाहता था आनंद?

मैं दंग रह गई. थोड़ी देर बाद पूछा, ‘आप वहां क्यों नहीं रहेंगे? हमारी बच्ची की देखभाल भी वहां ढंग से हो जाएगी. मैं भी उसे ज्यादा समय दे पाऊंगी.’

‘क्या तुम सोचती हो कि मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पलूंगा. मैं मर्द हूं. याद नहीं है, मैं ने तुम्हारे पिताजी से क्या कहा था?’

‘भला उसे मैं भूल सकती हूं. तुम ने पिताजी से कितने आक्रोश में कहा था कि मैं चाहे मिट जाऊं, परंतु दूसरों के टुकड़ों पर नहीं पल सकता. मेरे बाजुओं की ताकत पर भरोसा हो तो अपनी लड़की का हाथ मेरे हाथ में दें. अपनी खुद्दारी पर बहुत गर्व था न तुम्हें?’

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‘था नहीं, आज भी है.’

‘लेकिन हम, तुम अलग तो नहीं हैं न.’

‘स्त्रीपुरुष का अस्तित्व अलग है और अलग ही रहेगा.’

‘तो तुम ने मुझे नौकरी करने के लिए मजबूर क्यों किया?’

‘अब भी मैं तुम्हें नौकरी करने से नहीं रोकता. बस, यही कहता हूं कि घर और बच्ची का ध्यान रखो. पीएचडी वगैरह की आवश्यकता नहीं है. तुम्हारी जितनी तनख्वाह है, उतनी ही काफी है. महत्त्वाकांक्षाओं का कभी अंत नहीं होता.’

‘लेकिन मेरे इतने दिनों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. मुझे नहीं लगता कि बच्ची को होस्टल भेजने और तुम्हारी इस लैक्चरबाजी में कोई संबंध है.’

‘है, तभी तो कह रहा हूं. मेरी बेटी होस्टल नहीं जाएगी. तुम पीएचडी छोड़ कर उस की परवरिश करो, नहीं तो मैं उसे अपनी बहन के पास जयपुर भेज दूंगा. फिर अपना तबादला भी वहीं करा लूंगा.’

‘नीलिमा केवल तुम्हारी बेटी नहीं है, उस पर मेरा भी उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हारा. उस के संबंध में मुझे भी निर्णय लेने का पूरा अधिकार है.’

‘इस निर्णय की हकदार तुम तभी बन सकती हो, जब उस का भला चाहो. मां हो कर अगर अपनी प्रतिष्ठा, यश और पदवी के लिए तुम उसे होस्टल भेजने पर उतारू हो जाओ तो ऐसे में तुम उस हक से वंचित हो जाती हो.’

मेरे क्रोध का पारावार न रहा. मैं भी बहुतकुछ बोल गई. आनंद ने भी बहुतकुछ कहा. बात बढ़ती ही चली गई. इतने में नीलिमा दौड़ती हुई आई और लगभग चीखती हुई बोली, ‘बंद करो यह झगड़ा. नहीं रहना मुझे अब इस घर में. मैं आंटी के पास जयपुर जाऊंगी.’

मेरा कलेजा मुंह को आ गया. ऐसा लगा, जैसे किसी ने छाती पर गोली दाग दी हो. मैं एकदम से पलट कर अपने कमरे में चली गई. मन में विचार उठा, ‘क्या अपनी पहचान बनाना गुनाह है? क्या मैं ने कोई गलती की है? मुझे पीएचडी नहीं करनी चाहिए क्या?’

मन ने झकझोरा, ‘नहीं, गलती मर्दों की है. पति का अहं मेरी पदोन्नति स्वीकार नहीं कर पाता. वह आखिर शाखा अधिकारी है और अगर मैं पिं्रसिपल बन गई तो उस को समाज में वह इज्जत नहीं मिलेगी, जो मुझे मिलेगी. वह मुझ से जलता है. मैं हार मानने से रही. नीलिमा अभी बच्ची है. एक दिन वह मां का प्यार जरूर महसूस करेगी,’ विचारों के सागर में गोते लगातेलगाते कब आंख लग गई, पता ही न चला.

सुबह उठी तो कुछ अजीब सी मायूसी ने घेर लिया. आनंद को नजदीक न पा कर जल्दी से उठ कर ड्राइंगरूम में पहुंची. घर की निस्तब्धता भयानक लगने लगी.

‘नीलिमा,’ मैं ने आवाज दी. लेकिन मेरी आवाज गूंजती हुई कानों में टकराने लगी. दिल धड़कने लगा. सहसा मेज पर रखी हुई चिट्ठी ने ध्यान आकर्षित किया. धड़कते दिल से उठा कर उसे पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘मैं नीलिमा को ले कर जयपुर जा रहा हूं, उस की मरजी से ही यह सब हो रहा है. कभी हमारे लिए वक्त निकाल सको तो जयपुर पहुंच जाना. आनंद.’

इस के बाद बहुतकुछ हो गया. नीलिमा ने मुझे समझने या समझाने का मौका ही नहीं दिया. इतने समय बाद उसे देख कर पुराने जख्म हरे हो गए. मैं सोचने लगी, ‘आनंद अस्पताल में क्या कर रहा है? कैसी विचित्र परिस्थिति है, कैसा अजीब संगम. क्या कहूंगी आनंद से, क्या वह मुझे पहचानेगा? क्या मुझे उस से मिलना चाहिए? कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

मैं जब विकास से मिली तो बड़ी परेशानी में थी. उस ने देखते ही कहा, ‘‘क्या हुआ. एक तो देर से आई हो… फिर इतनी घबराहट. सबकुछ ठीक तो है न. कोई बुरी खबर है क्या?’’

मैं ने मुसकराते हुए अपने विचारों को झटकने का प्रयास किया. हम होटल के अंदर गए. मन में विचारों का बवंडर उठ रहा था, ‘क्या विकास को सबकुछ बता दूं, क्या वह समझ पाएगा? आनंद से मिलने कैसे जाऊं? विकास से क्या कहूं?’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.

अचानक मेरे कंधे पर हाथ रख कर विकास ने ही कहा, ‘सवि, मैं कुछकुछ समझ रहा हूं. समस्या क्या है, साफसाफ कहो?’

मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैं ने विकास को सबकुछ बता दिया. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो. गोष्ठी खत्म होने के बाद उस से जा कर मिल लो. मैं भी साथ चलूंगा.’

उस ने इतनी आसानी से कह दिया, पर मैं अपने को संभाल नहीं पा रही थी. भोजन के दौरान स्मृतिपटल पर चलचित्र की तरह बीते दिन फिर से उभर आए….

अपनी पीएचडी की समाप्ति पर प्रफुल्लचित, उत्साहित मैं जयपुर चल पड़ी. मन मुझे दोषी ठहराने लगा. मैं ने इन 6 महीनों में उन लोगों की कोई खोजखबर नहीं ली थी. उन लोगों ने भी मुझे कोई पत्र नहीं लिखा था. मैं सोचने लगी कि मेरी बेटी नीलिमा को भी क्या मेरी याद कभी नहीं आई होगी. पर मैं ने ही कौन सा उसे याद किया. पीएचडी की तैयारी इतनी अजीब होती है कि व्यक्ति सबकुछ भूल जाता है. परंतु इस में गलती ही क्या है? आनंद भी जब कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 6 महीने के लिए विदेश गया था तो उस ने भी तो कोई खोजखबर नहीं ली थी.

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मैं भी तो व्यस्त थी. आनंद मेरी मजबूरी जरूर समझ गया होगा. मैं जब घर जाऊंगी तो वे लोग बहुत खुश होंगे. सहर्ष मेरा स्वागत करेंगे. मन में आशा की किरण जागी, लेकिन तुरंत ही निराशा के बादलों ने उसे ढक दिया, ‘क्या सचमुच वे मेरा स्वागत करेंगे? मुझे अगर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया तो?’ संशय के साथ ही मैं ने जयपुर पहुंच कर ननद के घर में प्रवेश किया.

ननद विधवा हो गई थी. अपना कोई नहीं था. नीलिमा से उसे बहुत प्यार था. बहुत रईस भी थी, इसलिए बड़ी शान से रहती थी. घर में नौकरचाकरों की कमी नहीं थी. मैं ने डरतेडरते भीतर प्रवेश किया. आनंद बाहर बरामदे में खड़ा था. उस ने मुझे देखते ही व्यंग्यभरी मुसकराहट के साथ कहा, ‘मेमसाहब को फुरसत मिल गई.’

मैं ने जबरदस्ती अपने क्रोध को रोका और मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किया. अंदर से ननद की कठोर व कर्कश आवाज ने मुझे टोका, ‘जिस परिवार से तुम ने 6 महीने पहले रिश्ता तोड़ दिया था, अब वहां क्या लेने आई हो?’

‘मैं ने…मैं ने कब रिश्ता तोड़ा था?’

ननद बोली, ‘जब बच्ची को मेरे सुपुर्द कर दिया तो क्या संबंध तोड़ना नहीं हुआ?’

मैं ने हैरान हो, बरबस अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए, कहा, ‘दीदी, मैं आप से अपना अधिकार जताने या लड़ने नहीं आई हूं. नीलिमा कानूनन आज भी मेरी ही बेटी है. मैं केवल उसे लेने आई हूं.’

सफर की थकान और मई की लू के थपेड़ों ने मुझे पहले ही पस्त कर दिया था. ऊपर से आनंद के शब्दों ने मुझे और भी व्यथित कर दिया. उस ने बेरुखी से कहा, ‘नीलिमा को ले जाने का खयाल अपने दिल से निकाल दो. वह तुम से कोई संबंध रखना ही नहीं चाहती.’

मैं ने आपा खोते हुए कहा, ‘क्या रिश्ते कच्चे धागों के बने होते हैं, जो इतनी जल्दी टूट जाते हैं?’

इतने में नीलिमा बाहर आई. मैं ने सोचा था कि वह मुझ से गले मिलेगी, रोएगी. अगर वह मुझे कोसती, रूठती, रोती, कुछ भी करती तो मैं खुश हो जाती. परंतु उस की बेरुखी ने मुझे परेशान कर दिया.

उसी ने कहा, ‘मां, क्या लेने आई हो यहां?’

‘शुक्र है, तुम मुझे अब भी मां तो मानती हो. मैं तुम्हारे पास आई हूं. मेरी पीएचडी पूरी हो गई है. जून से मुझे प्रिंसिपल का पद मिल जाएगा. कालेज के कैंपस में ही हमारा घर होगा. तुम्हें वहां बहुत अच्छा लगेगा. अब हम साथसाथ रहेंगे.’

‘पिताजी हमारे साथ नहीं चलेंगे. और मैं उन के बगैर रह नहीं सकती. क्या आप हमारे साथ यहां नहीं रह सकतीं?’

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मैं कुछ भी न कह पाई. मेरा वजूद मुझे नौकरी छोड़ने से रोक रहा था. मैं तबादले की कोशिश करने को तैयार थी. प्रिंसिपल का पद छोड़ने को भी तैयार थी, परंतु नौकरी छोड़ कर बैठे रहना मुझे मंजूर नहीं था. अगर मर्द का अहं इतना तन जाए तो नारी ही क्यों झुके? हम दोनों ने अपनेअपने अहं के चलते बच्ची के भविष्य की बात सोची ही नहीं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनजाने पल : भाग 1- सावित्री से क्यों विमुख होना चाहता था आनंद?

औटो चेन्नई के अडयार स्थित पुष्पा शौपिंग कौंप्लैक्स से गुजर रहा था कि तभी नीलिमा पर नजर पड़ी. 3-4 बरस के एक लड़के का हाथ थामे वह दुकान से निकल रही थी. मैं अपनी उत्सुकता रोक न पाई. मातृत्व मानो बांध तोड़ कर छलछलाने को बेताब हो गया था.

मैं ने औटो रुकवाया और उसे पैसे दे कर उतर गई. धीरेधीरे उस के पास पहुंची और आवाज दी, ‘‘नीलिमा.’’

वह एकाएक चौंक कर मुड़ी, फिर तेजी से मुझ से लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. भय से सिमट कर वह लड़का भी रोने लगा. मेरे शरीर के निस्तब्ध तार नीलिमा के स्पर्श से झनझना उठे. रोमरोम में एक अजीब सा आनंद समाने लगा. इतने बरसों बाद जिसे पाया था, उसे अपने से अलग करने का मन ही नहीं हो रहा था.

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काफी देर रोने के बाद जब उस ने आवाज सुनी, ‘दीदी, मुझे डर लग रहा है, पिताजी के पास चलो.’ तभी वह संभली. आंसू पोंछ कर मेरी ओर देखा और मुसकराई. फिर बोली, ‘‘मां, हम यहां मलर अस्पताल में हैं. पिताजी 5वीं मंजिल पर कमरा नंबर 18 में हैं. देर हो रही है, मैं जाती हूं. हो सके तो शाम को आ जाइएगा. यह मेरा भाई अभय है,’’ फिर अपने भैया के कंधे पर हाथ रख वह मेरी नजरों से ओझल हो गई.

नीलिमा का आकर्षण इतना था कि मैं यह भूल ही गई कि मुझे विकास से सवेरा होटल में मिलना है. मैं सोचने लगी कि कहां मुझ से नफरत करने वाली उस दिन की गोरीचिट्टी खूबसूरत नीलू और कहां आज की दुख और वेदना का बोझ ढोए बचपन में ही प्रौढ़ता लिए यह नीलिमा. मैं ने शौपिंग कौंप्लैक्स से विकास को सूचना भिजवाई कि 15 मिनट में मैं आ रही हूं और जल्दी से औटो ले कर चल पड़ी.

अनायास मेरी आंखों में आनंद का चेहरा घूम गया. मेरे मांबाप ने उस का लंबा कद, गोरा रंग, मस्तीभरी जवानी और आकर्षक व्यक्तित्व देख कर मेरा विवाह उस से तय किया था. मैं ने हिंदी साहित्य में एमफिल किया था और एक कालेज में पढ़ाती थी. आनंद बैंक में अफसर था. हम दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर के शादी की थी. शादी के तुरंत बाद उस का तबादला दिल्ली हो गया, इसलिए हम लोग वहां चले गए. शादी होते ही मैं ने नौकरी छोड़ दी थी, हालांकि आनंद को यह अच्छा नहीं लगा था. परंतु मैं तबादले के झमेलों में पड़ना नहीं चाहती थी.

दिल्ली जैसे महानगर में खर्चे तो बढ़ते ही जाते हैं, एक दिन आनंद ने ही बात छेड़ी, ‘सावित्री, सारा दिन घर में बैठे तुम्हें घुटन महसूस नहीं होती? मेरा दोस्त कह रहा था कि कालेज में हिंदी प्राध्यापक की जगह खाली है. कहो तो बात चलाऊं?’

मैं ने कहा, ‘वैसे मेरी नौकरी करने की अभी इच्छा नहीं है. घर पर भी तो बहुत सारे काम होते हैं. बुनाई, कढ़ाई आदि सीख रही हूं. ढंग से खाना बनाना भी तो अभी ही सीख रही हूं.’

आनंद को मेरी बात अच्छी नहीं लगी. उस ने कहा, ‘अभी तो हमारे बच्चे भी नहीं हैं. इतनी शिक्षा हासिल करने के बाद तुम्हारा इस तरह घर में बैठे रहना मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर महंगाई भी कितनी है…तुम हाथ बंटाओगी तो हम घर के लिए कुछ चीजें खरीद सकेंगे.’ आनंद की बात उस समय मुझे भी अच्छी लगी. उसी ने दौड़धूप कर मुझे श्रीराम कालेज में नौकरी दिलाई.

दिन गुजरते गए. 8-9 वर्षों बाद ही नीलिमा का जन्म हुआ था. उस के जन्म के बाद से सबकुछ बदल गया. आनंद को बेटी से बहुत अधिक लगाव था. जब तक वह 5 साल की हुई, तब तक मेरी सास हमारे साथ रहीं. अकेली विधवा सास का हमें बहुत अधिक सहारा था. मेरी और पति की तनख्वाह से गृहस्थी की गाड़ी मौज से चल रही थी.

मैं ने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया था. कालेज में प्रिंसिपल की जगह खाली होने वाली थी. मेरी पीएचडी के खत्म होने में 6 महीने बाकी थे, इसलिए पूर्व प्रिंसिपल ने मेरी सिफारिश की थी. मैं जीजान से पीएचडी की समाप्ति में लगी थी. अचानक मेरी सास गुजर गईं.

आनंद को मां की मृत्यु से ज्यादा बेटी का अकेलापन खटकने लगा. उस ने मां की तेरहवीं होते ही कहा, ‘मैं चाहता हूं कि तुम नौकरी छोड़ दो. जब नीलू बड़ी हो जाए तो फिर नौकरी कर लेना.’

मैं चौंकी. फिर स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है, हम ऐशोआराम की जिंदगी के आदी हो चुके हैं. मेरी तनख्वाह नहीं होगी तो दिल्ली जैसे शहर में तुम्हारे अकेले की तनख्वाह से गुजरबसर कैसे होगी?’

‘कम से कम पीएचडी छोड़ दो. देर से घर आओगी तो नीलिमा बहुत दुखी हो जाएगी. वह दिनभर अकेली कैसे रह पाएगी.’

‘उसे तुम क्यों नहीं संभाल लेते. 4 महीने में मेरी थीसिस पूरी हो जाएगी. फिर जल्दी ही मैं प्रिंसिपल का पद संभाल लूंगी. कालेज की तरफ से वहीं घर भी मिल जाएगा. फिर नीलू की परवरिश में कोई बाधा नहीं आएगी.’

आनंद उस समय खामोश रह गया. परंतु उस के मन में ज्वालामुखी ने धधकना आरंभ कर दिया. मैं ने नीलू को कालेज के पास शिशु सदन में छोड़ना शुरू कर दिया. मैं रोज सवेरे उसे छोड़ आती और शाम को आनंद उसे ले आता.

मुझे थीसिस का काम खत्म कर लौटने में रात को देर हो जाती. नीलिमा उदास रहने लगी थी. उस की खामोशी मुझे कभीकभी बहुत अखरती, परंतु मैं अपनी थीसिस अधूरी नहीं छोड़ सकती थी.

हम दोनों के बीच अकसर मनमुटाव होता. वह अकसर कहता, ‘मांबाप के रहते दिनभर बच्ची इस प्रकार अनाथों की तरह रहे, मुझे अच्छा नहीं लगता.’

मैं तपाक से उत्तर देती, ‘तो मैं क्या करूं? यह तो होता नहीं कि कोई उचित सुझाव दो, बस सदा कोसते ही रहते हो.’

बात जब बहुत बढ़ जाती तो वह कहता, ‘तुम अपनी थीसिस को अपनी बेटी की परवरिश से ज्यादा जरूरी समझती हो? कैसी मां हो?’

कहती, ‘तुम मुझ से जलते हो. तुम्हारा अहं इस बात की इजाजत नहीं देता कि मैं तुम से ऊंचे पद पर पहुंचूं. तभी तुम मुझे ताने देते रहते हो. यह मत भूलो कि मुझे नौकरी पर जाने को मजबूर तुम ने ही किया था.’

नीलिमा ही सदा हम दोनों के आपसी झगड़ों में बीचबचाव करती. वह सदा एक ही बात कहती, ‘मैं ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. मुझे ले कर आप लोग क्यों लड़ते रहते हैं.’

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वैसे नीलिमा चिड़चिड़ी सी रहती, बातबात पर जिद करती. ऊपर से आनंद उसे मेरे विरुद्ध हमेशा कुछ न कुछ कह कर भड़काता रहता. मुझे घर के माहौल में घुटन सी होने लगती. परंतु थीसिस अधूरी छोड़ने के लिए मैं कतई तैयार न थी. मेरी बच्ची मेरे जिगर का टुकड़ा थी, उस के रोने की आवाज मुझे परेशान कर देती.

एक दिन मैं ने छुट्टी ले ली. घर में उस की पसंद की खीर बनाई और आलू की टिकियां. ये दोनों चीजें उसे बहुत अच्छी लगती थीं. वह स्कूल से घर आई. मैं बड़े प्यार से उसे मेज के पास ले गई. उस ने मेज पर रखी चीजें एकएक कर खोलीं, फिर बंद कर दीं. मैं खुशीखुशी उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी. जब वह कुछ न बोली तो मैं ने ही कहा, ‘चल नीलू, आज मैं तुझे स्वयं हाथ से खिलाती हूं.’

‘क्यों? आज मुझ से इतनी हमदर्दी क्यों?’ उस के शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद गए? ‘बेटी, कैसी बात करती है. मैं ने तेरी पसंद की चीजें बनाई हैं. देख…खीर, आलू की गरमगरम टिकिया.’

‘मुझे भूख नहीं है.’

‘क्या हुआ, मुझ से नाराज है?’

‘अगर तुम मुझे हर रोज इस प्रकार खाना खिलाओगी तो मैं आज खाने को तैयार हूं.’

मैं चुप हो गई, क्या जवाब देती. आखिर उसी ने चुप्पी तोड़ी, ‘बोलो, जवाब दो. क्या हर रोज घर पर रह सकती हो?’

‘तब तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. और नौकरी छोड़ दूं तो हम तुम्हें वह सुख और आराम नहीं दे पाएंगे, जो तुम्हें आज मिल रहा है. देखो, तुम्हारे पास टीवी है, एसी है, कितने खिलौने हैं, अच्छे स्कूल में पढ़ती हो, क्या ये सब तुम्हें खोना अच्छा लगेगा?’

‘लेकिन पिताजी तो कहते हैं कि तुम्हें नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’

‘वे तो यों ही कहते हैं. तुम जब बड़ी हो जाओगी, तभी ये बातें समझ पाओगी.’

‘क्या पता. लेकिन मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता. तुम्हारा हर रोज देर से आना, फिर रात को तुम्हारा और पिताजी का झगड़ा…’ यह कहतेकहते उस की आंखों से आंसू झरने लगे.

मैं ने बच्ची को आलिंगन में भींच लिया. फिर कहा, ‘कहो तो तुम्हें होस्टल भेज दें. वहां तुम्हें खूब सारी सहेलियां मिलेंगी. खूब मजा आएगा.’

उस ने कुछ जवाब नहीं दिया. उस रात मैं ने आनंद से इस बात का जिक्र किया. मुझे तो आश्चर्य होता था कि उस व्यक्ति से मैं ने शादी कैसे की? वह कितना बदल गया गया था. कठोर हृदयहीन और अहंकारी. उस ने गुस्से से लगभग चीखते हुए कहा, ‘कैसी मां हो. बच्ची को अपने से अलग करना चाहती हो?’

मैं बोली, ‘मैं उसे अलग कहां कर रही हूं. आजकल तो सभी बच्चों को होस्टल भेजते हैं. एक साल में मेरा काम हो जाएगा. फिर पिं्रसिपल बन जाने पर कालेज के कैंपस में ही घर मिल जाएगा. नीलू को फिर घर ले आएंगे.’

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आनंद ने तपाक से उत्तर दिया, ‘औरों की बात छोड़ो. सोसाइटी में झूठी शान बघारने के लिए लोग बच्चों को होस्टल भेजते हैं. हमें इस की जरूरत नहीं है. और यह खयाल दिल में फिर कभी मत लाना कि मैं कालेज कैंपस में तुम्हारे साथ रहूंगा.’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अदा… साहिल की

महंगा इनाम : भाग 4- क्या शालिनी को मिल पाया अपना इनाम

जैसे ही रूपा रेडियो स्टेशन से बाहर निकली, मैं ने अंदर जा कर सुशांत से वह टेप ले लिया, जिस पर रूपा का थैंक्स गिविंग मैसेज रिकौर्ड हो चुका था. मैं ने सुशांत को थैंक्स कहते हुए कहा, ‘‘आशा है, यह टेप सुनने के बाद रूपा सदमे से बेहोश हो जाएगी और अपना दावा वापस ले लेगी.’’

सुशांत हंसते हुए बोला, ‘‘आइंदा कभी मेरी जरूरत हो तो मैं हाजिर हूं. मैं हंगामी तौर पर काम करने में माहिर हूं.’’

‘‘नहीं, मेरे दूसरे क्लाइंटस की तरह अर्पित मेहता को हंगामे वाले अंदाज में मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ मैं ने भी हंसते हुए कहा.

‘‘तुम उस अर्पित मेहता के लिए काम कर रही हो?’’ सुशांत के माथे पर लकीरें सी खिंच गईं, ‘‘वही जो मेहता इंटरप्राइजेज का मालिक है.’’

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‘‘हां,’’ मैं ने उसे जवाब दिया, ‘‘लेकिन तुम इतनी नागवारी से क्यों पूछ रहे हो?’’

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘खैर, तुम तो अपने काम का मुआवजा ले रही हो. वैसे वह आदमी ठीक नहीं है, अव्वल दर्जे का बदमाश है वह.’’

‘‘तुम उसे कैसे जानते हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘इस रेडियो स्टेशन का मालिक भी वही है.’’ सुशांत ने जवाब दिया.

अब मेरा रुख सुषमा के फ्लैट की ओर था. मैं सोच रही थी कि लोगों को अपना भ्रम बनाए रखने का मौका देना चाहिए. इसलिए मैं ने फैसला कर लिया कि रूपा और सुषमा को अदालत में जाने से पहले ही टेप सुना देनी चाहिए ताकि वे चाहें तो कोर्ट न जा कर अपमानित होने से बच जाएं.

मैं ने उन के फ्लैट पर पहुंच कर दरवाजा खटखटाया. दरवाजा सुषमा ने खोला. मुझे उसी क्षण अंदाजा हो गया कि कोई गड़बड़ थी. रूपा की आंखें लाल और सूजी हुई थीं. जैसे वह काफी रोई हो.

‘‘क्या बता है सुषमा?’’ मैं ने अनजान बनते हुए कहा.

‘‘बस कुछ मत पूछो,’’ वह टिश्यू पेपर से आंखें पोंछते हुए बोली. वह दमे की मरीज मालूम होती थी. फिर भी मौत की ओर अपना सफर तेज करने के लिए लगातार सिगरेट पीती रहती थी. मैं अंदर पहुंची.

चंद मिनट रोनेधोने और हांफने के बाद सुषमा ने मेरी निहायत बुद्धिमत्तापूर्वक और प्रेमभरी पूछताछ के जवाब में कहा, ‘‘हमें गरीबी की जिंदगी से निकलने का सुनहरा अवसर मिला था. मगर इस लड़की ने जरा सी गलती से उसे बर्बाद कर दिया.’’ उस ने क्रोधित नजरों से रूपा की ओर देखा, जो सिर झुकाए बैठी थी. ‘‘मैं ने कसम खाई थी कि मैं उस व्यक्ति से हिसाब बराबर करूंगी, मगर अब वह बच कर निकल जाएगा.’’

‘‘कौन आदमी?’’ मैं ने चेहरे पर मासूमियत बनाए रखते हुए पूछा.

‘‘सुषमा का बाप.’’ रूपा ने जवाब दिया.

‘‘तुम्हारा पति?’’ मैं ने बात पक्की करने के लिए पूछा. क्योंकि मैं यही समझ रही थी कि वह अर्पित मेहता की बात कर रही थी.

इस बीच रूपा ने रोना शुरू कर दिया. सुषमा हांफते हुए उसे चुप कराने का प्रयत्न करते हुए बोली, ‘‘देखो, मुझे याद है, मैं ने तुम्हारी मां से वादा किया था. लेकिन मैं जो कर सकती थी, वह मैं ने किया.’’

अब इस केस पर काम करतेकरते कोई और ही मामला मेरे सामने खुल रहा था. मैं ने जल्दी से पूछा, ‘‘तुम क्या कह रही हो सुषमा, मेरा तो विचार था कि तुम ही उस की मां हो?’’

वह एक बार फिर रोनेधोने लगी. ऐसा लगता था कि उस से काम की कोई बात मालूम करना मुश्किल ही होगा. मैं रूपा के पास जा पहुंची. वह मुश्किल से 18 साल की थी. वह बेशक काफी दुबलीपतली थी और गरीबों वाले हुलिया में थी, लेकिन उस का व्यक्तित्व गौरवमयी था. मैं ने रूपा की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तुम आज रेडियो स्टेशन पर जो कारनामा दिखा कर आई हो. उस की वजह से रो रही हो?’’

रूपा की आंखें फैल गईं और वह शायद गैरइरादतन बोल उठी, ‘‘आप को कैसे मालूम?’’

मैं ने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘पहले तुम बताओ, तुम्हारी मां इतना क्यों रो रही हैं?’’

‘‘यह मेरी मां नहीं है, मेरी मां की एक नजदीकी सहेली हैं. मेरी मां तो मर चुकी है.’’ रूपा ने बताया. उस के लहजे में सालों की नाराजगी और गुस्सा था.

‘‘तुम मुझे सब कुछ बता कर दिल का बोझ हलका कर सकती हो?’’ मैं ने कहा.

‘‘बताने को इतना ज्यादा कुछ नहीं है.’’ रूपा कंधे उचका कर बोली, ‘‘मेरी मां की पिछले साल कैंसर से मृत्यु हो चुकी है. आंटी सुषमा उन की करीबी सहेली थीं. मेरी देखभाल उन्होंने अपने जिम्मे ले ली. हमारा वक्त किसी हद तक ठीक ही गुजर रहा था, लेकिन कुछ महीनों पहले एक दुर्घटना में उन की कमर में चोट लग गई. तब से हमारे हालात खराब हो गए और हमें अपने बड़े फ्लैट को छोड़ कर इस जगह आना पड़ा. इस माहौल में हम खुशी से नहीं रह रहे हैं.’’

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‘‘लेकिन तुम्हारे पिता का क्या किस्सा है?’’

‘‘मेरे पिता ने मेरी मां से शादी नहीं की थी. मैं उन की बगैर शादी की औलाद हूं. छोटी ही थी, जब वे एकदूसरे से अलग हो गए. बहरहाल मेरी और मम्मी की गुजरबसर ठीक होती रही. मुझे कभी अपना बाप याद नहीं आया. जब मेरी मां बीमार हुई तो उसे आर्थिक हालत के बारे में फिक्र हुई.

‘‘उस ने अपनी खातिर नहीं, केवल मेरी वजह से मेरे बाप से आर्थिक मदद हासिल करने की गर्ज से कानूनी काररवाई करने का फैसला किया. मेरे बाप ने उस की खुशामद की कि अगर उस ने ऐसा किया तो वह तबाह हो जाएगा. क्योंकि तब तक वह अपनी बीवी की दौलत से तरक्की कर के बहुत दौलतमंद हो चुका था.

‘‘उस ने कहा कि अगर उस की बीवी को मालूम हो गया कि उस की कोई नाजायज औलाद भी है तो वह उस से तलाक ले लेगी. और सारी दौलत भी वापस हासिल कर लेगी. उस ने मेरी मां से कहा कि अगर वह यह लिख कर दे दे कि मैं उस की बेटी नहीं हूं तो वह मम्मी की मौत के बाद खुफिया तौर पर मेरा हरमुमकिन खयाल रखेगा. मेरी हर जरूरत पूरी करेगा.’’

रूपा की आंखों के आंसू उस के पीले गालों पर ढुलक आए. उस ने जल्दी से उसे पोंछ दिया और गहरी सांस ले कर बोली, ‘‘मम्मी की मौत के बाद पापा ने अपना इरादा बदल दिया और मेरी कोई खैरखबर नहीं ली. सुषमा आंटी ने मुझे अपनी बेटी बना लिया. तब से मैं उन्हीं के साथ रहती हूं.’’

मैं ने सुषमा की तरफ देखा तो वह सिगरेट का कश ले कर बोली, ‘‘मैं ने दुर्घटना का यह ड्रामा रचा था. मेरा विचार था कि रूपा के अमीर बाप से रकम हासिल करने का इस के सिवा और कोई तरीका हमारे लिए संभव नहीं है. यह ड्रामा रचना कोई आसान काम नहीं था. इस लड़की को 2 महीने तक मैं ने जिस तरह से चुप रखा है, मैं ही जानती हूं.’’

फिर उस ने पछतावे वाले अंदाज में सिर हिलाया, ‘‘और उस खबीस को देखो… उस ने अपने ही खून… अपनी ही बेटी को नहीं पहचाना.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है अर्पित मेहता इस लड़की का बाप है?’’ मैं ने तसदीक करनी चाही. मेरा सिर घूम रहा था.

‘‘हां,’’ सुषमा ने जवाब दिया, ‘‘लेकिन तुम्हें उस का नाम कैसे मालूम?’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और वहां से उठ कर आ गई.

अगली सुबह मैं अपने घर के सामने खड़ी थी. कूड़े का ट्रक गली में कूड़ा उठाने आया था. अर्पित से मिले पैसे से मेरे बिल तो अदा हो गए थे, लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि अगले महीने की मकान की किस्त कैसे अदा होगी और दूसरे खर्चे कैसे पूरे होंगे?

मुझे नहीं मालूम था कि रूपा के मुकदमे से संबंध रखने वाले किसी व्यक्ति ने एफएम पर उस की बातें सुनी थीं या नहीं? लेकिन मेरे हाथ में मौजूद सीडी में इस बात का एकमात्र सबूत था. इस के बगैर यह बात साबित नहीं की जा सकती थी कि सुषमा बोल सकती है.

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मैं वह सीडी अर्पित के सामने पेश कर के 5 लाख रुपए इनाम ही नहीं, इस से भी ज्यादा रकम हासिल कर सकती थी. वे 5 लाख रुपए मेरे कई महीने के विलासितापूर्ण जीवन के लिए काफी थे. लेकिन जब कूड़ा ले जाने वाला ट्रक मेरे सामने आया तो मैं ने वह सीडी उस में फेंक दी. अब किसी के पास इस बात का कोई सबूत नहीं था कि रूपा बोल सकती है?

महंगा इनाम : भाग 3- क्या शालिनी को मिल पाया अपना इनाम

वह जैसे मेरी उलझन दूर करने के लिए अपने सीने पर हाथ रख कर बोला, ‘‘मैं सुशांत पाठक हूं, मिशन हाईस्कूल में तुम्हारे साथ पढ़ता था.’’

मेरी आंखें हैरत से फैल गईं. मुझे यकीन नहीं आ रहा था कि वह मेरा हाईस्कूल का क्लासमेट सुशांत था. कुछ समय के लिए वह मेरा बेहतरीन दोस्त भी रहा था. वह क्लास का सब से मूर्ख सा दिखने वाला लड़का था. कई बार आप ने देखा होगा कि छोटीछोटी घटनाएं कुछ लोगों को अचानक मिला देती हैं. सुशांत और मेरी यह मुलाकात कुछ इसी तरह थी.

सुशांत अब पहले की तरह दुबलापतला लड़का नहीं था, बल्कि भारीभरकम था. उस की भौहें आपस में लगभग जुड़ चुकी थीं और चेहरे पर मोटी मूंछें उग आई थीं.

‘‘तुम सुशांत पाठक हो?’’ मैंने अविश्वास से कहा.

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‘‘हां.’’ वह कंधे उचका कर मुझे हैरत के दूसरे झटके से दोचार कराते हुए बोला, ‘‘और अब मुझे लोग क्रेजी सुशांत के नाम से जानते हैं. लेकिन पुराने दोस्तों के लिए मैं सुशांत ही हूं.’’

ओह माई गौड, पिछले एक महीने से मैं बाकायदा इस बेवकूफ का प्रोग्राम सुन रही थी और एसएमएस भेजभेज कर थक गई थी. मैं ने उसे अपने पास बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘तुम ने मुझे कैसे पहचाना?’’

‘‘तुम में कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है,’’ वह बोला, ‘‘और सुनाओ, तुम शौपिंग सेंटरों के सामने सोने के अलावा और क्या करती हो?’’

‘‘मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं. यहां भी मैं काम के सिलसिले में आई हूं.’’ मैं ने कनखियों से ब्यूटीपार्लर की तरफ देखा. मैं नहीं चाहती कि जब वे मांबेटी बाहर आएं तो मैं यहां बातों में फंसी रह जाऊं.

‘‘यकीन तो नहीं आ रहा कि तुम प्राइवेट डिटेक्टिव हो.’’ ऐसा लग रहा था, जैसे वह हंसते हुए मेरी बातों का मजा ले रहा हो. लेकिन जल्दी ही शायद उस ने मेरी बेचैनी को महसूस कर लिया और अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर मुझे देते हुए बोला, ‘‘जब तुम्हें फुरसत हो, मुझे फोन कर लेना. शायद हम कहीं साथसाथ लंच वगैरह कर सकें.’’

‘‘जरूर.’’ मैं ने सिर हिलाते हुए कहा. वह वहां से चला गया. मैं भी उठ गई. तभी मैं ने देखा. मां बेटी ब्यूटीपार्लर से बाहर आ रही थीं. वे एक बार फिर शौपिंग सेंटर में घुस गईं. इस बार उन्होंने खानेपीने की कुछ चीजें खरीदीं. मैं उन की नजर में आए बिना उन पर निगाह रखे हुए थी.

यह बड़ी अजीब बात थी कि वैसे तो सुषमा की जुबान किसी और की मौजूदगी में एक पल को भी नहीं रुकती थी, लेकिन जब मांबेटी साथ होती थीं तो सुषमा बिलकुल खामोश रहती थी. बेशक रूपा जवाब नहीं दे सकती थी, लेकिन सुषमा आदत से मजबूर हो कर उस से कोई बात तो कर सकती थी.

ऐसा लगता था, जैसे वह जानबूझ कर खामोश रहती थी. मुझे लगा कि अर्पित का शक सही था. लेकिन अभी तक मेरे पास यह साबित करने के लिए कोई युक्ति नहीं थी.

मांबेटी अपना खरीदा हुआ सामान एक ट्रौली पर लाद कर बाहर जाने लगीं तो मैं उन के पीछे लग गई. शौपिंग सेंटर से निकल कर मांबेटी कार में बैठ कर रवाना हुईं और कुछ देर बाद एक पैट्रोल पंप पर जा रुकीं. यहां मुझे अपना भाग्य आजमाने का मौका मिला. सुषमा की गाड़ी के पीछे पैट्रोल लेने के लिए मुझ सहित 3-4 गाडि़यां और थीं.

उन में से एक को शायद बहुत जल्दी थी. वह हौर्न पर हौर्न बजा रहा था. सुषमा जल्दी में अपने पैट्रोल टैंक का ढक्कन छोड़ कर चल दी. मैं ने जल्दी से आगे बढ़ कर पैट्रोल पंप कर्मचारी से ढक्कन ले लिया कि मैं उन्हें रास्ते में दे दूंगी. मैं जब ढक्कन ले कर चली तो मेरे दिमाग में एक छोटी सी योजना जन्म ले रही थी.

जब मैं उन मांबेटी के फ्लैट पर पहुंची तो एक बार फिर पहले ही जैसा दृश्य मेरा इंतजार कर रहा था. खिड़कियों पर परदे गिरे हुए थे और एफएम पूरी आवाज से चल रहा था. मैं ने कालबैल बजाई तो दरवाजा सुषमा ने खोला. उस के एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में बीयर का गिलास था. मैं ने ढक्कन उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह संभवत: आप का है?’’

उस ने आंखें सिकोड़ कर ढक्कन का निरीक्षण किया. फिर बोली, ‘‘हां, आप को कहां मिला?’’

‘‘आप इसे पैट्रोल पंप पर छोड़ आई थीं, मैं ने रास्ते में हौर्न बजा कर आप को ध्यान दिलाने की भी कोशिश की, लेकिन आप ने नहीं देखा. मुझे आप के पीछेपीछे यहां तक आना पड़ा.’’ मैं ने बताया.

‘‘थैंक्यू… असल में मेरे पीछे एक खबीस को पैट्रोल लेने की बहुत जल्दी थी,’’ वह आंखें मिचमिचा कर मेरा निरीक्षण करने लगी, ‘‘ऐसा लगता है, जैसे तुम्हें कहीं देखा है.’’

मैं ने मस्तिष्क पर जोर दे कर चौंकने की ऐक्टिंग करते हुए कहा, ‘‘अरे हां, आप शायद पार्लर में मौजूद थीं. आप के साथ वह बच्ची भी थी, जो शायद…’’ मैं ने जल्दी से मुंह पर हाथ रख लिया.

वह हाथ नचाते हुए बोली, ‘‘अगर आप उसे गूंगी कहने वाली थीं तो इस में शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं. यह बात अब कोई राज नहीं रही कि वह बोल नहीं सकती. आप अंदर आना चाहो तो आ सकती हो.’’

मैं भला क्यों इनकार करती. मैं अंदर पहुंची तो उस ने जोर से रूपा को पुकार कर एफएम की आवाज कम करने को कहा और मुझे बैठने का इशारा करते हुए बोली, ‘‘कुछ पियोगी?’’

मैं ने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘सुना है, आप मांबेटी के साथ कोई दुर्घटना घट गई थी?’’

‘‘हां, एक व्यक्ति ने अंधों की तरह दिन की रोशनी में हमारी कार को पीछे से टक्कर मार दी थी. मुझे भी उस ने लगभग अपाहिज ही कर दिया था. सप्ताह में 2 दिन फिजियोथेरैपी के लिए जाती हूं, इसलिए जरा चलफिर लेती हूं.’’

‘‘आप को उस व्यक्ति पर हरजाने का दावा करना चाहिए था.’’ मैं ने कहा.

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‘‘किया हुआ है,’’ वह जल्दी से बोली, ‘‘और उसे हरजाना देना ही पड़ेगा.’’ उस का चेहरा उस समय बिलकुल लालच की तसवीर बना हुआ था. कुछ देर बाद मैं ने महसूस किया कि मेरे वहां और बैठने का कोई औचित्य नहीं था. मैं ने इजाजत मांगी. इसी बीच एफएम पर वही जानीपहचानी हंसी उभरी, जैसे किसी लकड़बग्घे को हिचकियां लगी हों.

मैं ने चौंक कर उधर देखा, जहां एफएम बज रहा था. सुषमा ने जैसे मेरी जानकारी में इजाफा करते हुए कहा, ‘‘यह क्रेजी सुशांत का प्रोग्राम है. सुशांत रोजाना लौटरी के जरिए 30 हजार रुपए का इनाम देता है. रूपा प्रोग्राम में 50-60 बार मैसेज भेज चुकी है. आज तक तो इनाम नहीं निकला. मैं उसे समझाती रहती हूं कि इस तरह के इनामों आदि के चक्करों में नहीं पड़ना चाहिए. इस दुनिया में फ्री में कुछ नहीं मिलता.’’

मैं उठ कर बाहर आ गई. बाकी बातें मेरे मस्तिष्क से निकल गईं. सुषमा ने संभवत: मुझे वह रस्सी दे दी थी, जिस से मैं उस के गले में फंदा डाल सकती थी.

मैं ने तुरंत सुशांत को फोन मिलाया. उसे अपनी योजना पर अमल करवाने के लिए राजी करना मेरी सोच से कहीं ज्यादा आसान साबित हुआ. शायद हम दोनों ही अंतर्मन से झूठे और धोखेबाजों को पसंद नहीं करते थे और उन्हें पकड़वाने के लिए अपनी भूमिका अदा करना चाहते थे.

मैं रूपा और सुषमा के फ्लैट की निगरानी कर रही थी. ठीक 3 बजे मैं ने सुषमा को गाड़ी में बैठ कर अकेली जाते देख लिया था. यकीनी तौर पर वह फिजियोथेरैपी के लिए गई थी. कुछ देर बाद मैं ने रूपा को बहुत जल्दीजल्दी में घबराई हुई सी हालत में एक टैक्सी में बैठ कर रेडियो स्टेशन की तरफ जाते देखा.

उस के कुछ देर बाद मैं ने रेडियो पर उस की मिनमिनाती हुई सी आवाज सुनी. वह क्रेजी सुशांत से 30 हजार रुपए का चैक वसूल करने के बाद थैंक्स गिविंग के तौर पर उस के प्रोग्राम के बारे में अपने अनुभव बयान कर रही थी. रूपा शायद वास्तव में मान चुकी थी कि अर्पित मेहता या उस का कोई आदमी भला यह प्रोग्राम कहां सुनता होगा.

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दूसरे उसे यह भी इत्मीनान हो गया होगा कि यह प्रोग्राम लाइव पेश होता था. इस की कोई रिकौर्डिंग नहीं होती थी. उस ने सोचा होगा कि उस की आवाज हवा की लहरों पर धूमिल हो जाएगी और बात वहीं समाप्त हो जाएगी. लेकिन उसे नहीं मालूम था कि मेरे कहने पर सुशांत ने उस की अपनी जुबान से उस के परिचय के साथ उस की आवाज रिकौर्ड करने का इंतजाम कर रखा था.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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