आ अब लौट चलें : भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

दिनेश की आटा मिल भी बंद हो गई. वह भारी मन से साइकिल खड़ी कर के अपने कमरे में गया तो फुलवा उसे देख कर ही समझ गई कि दिनेश कुछ परेशान है.

‘‘क्या बात है जी… आज मुंह लटकाए आ रहे हो… किसी से लडाईझगड़ा हो गया क्या?‘‘ फुलवा न पूछा.

‘‘नहीं रे फुलवा… सुना है, पूरी दुनिया में कोई भयानक बीमारी फैल रही है. लोग मर रहे हैं… इसलिए सरकार ने सारे उद्योग, सभी  कामकाज को पूरी तरह से बंद करने का निर्णय लिया है. और ये सब तब तक बंद रहेगा, जब तक यह बीमारी पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाती,” दुखी मन से दिनेश ने कहा.

‘‘सबकुछ बंद… पर, ऐसा कैसे हो जाएगा… और काम नहीं होगा तो हमें पैसा कहां से मिलेगा… और… और हम खाएंगे क्या… हमें तो लगता है कि कोई मजाक किया है तुम से,‘‘ फुलवा ने चौंक कर कहा.

पर, ये तो कोई मजाक नहीं था… धीरेधीरे सबकुछ बंद होने की खबर फुलवा को भी पता चल गई और उस को भी मानना पड़ गया कि हां, सबकुछ वास्तव में ही बंद हो गया है.

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महल्ले में सारे मजदूर अपनेअपने घरों में ही बैठे थे और उस बीमारी को कोस रहे थे, जिस ने आ कर उन सब की जिंदगी पर ही एक सवालिया निशान लगा दिया था.

सभी के साथ ही दिनेश का भी दम घुटता था घर में… खाने का सामान और राशन भी धीरेधीरे खत्म हो रहा था. जब ज्यादा परेशानी आई तो दिनेश को अपना गांव याद आया.

‘‘फुलवा, मैं तो कहता हूं कि चलो अपने गांव लौट चलते हैं…”

लेकिन, गांव जाने का नाम सुनते ही फुलवा पूछ बैठी, ‘‘गांव… गांव जा कर क्या करेंगे? यहां जमीजमाई गृहस्थी है… इसे छोड़ कर कहां जाएंगे.”

‘‘यहां शहर में भी अब क्या रखा है… मालिक पगार नहीं दे रहा… अब हम यहां कितने दिन खाएंगे… और क्या खाएंगे… गांव में हमारी जमीन का एक टुकड़ा है… छोटा भाई उस पर खेती करता है… उसी पर हम भी कुछ उगा लेंगे और आराम से रहेंगे… कम से कम मरेंगे तो नहीं,‘‘ परेशान भाव से दिनेश ने कहा.

शहर में लौकडाउन था. सबकुछ ठप हो गया था. बहुत सारे मजदूर अपने गांव को चल पड़े थे. सरकारी तंत्र भी इन मजदूरों के पलायन को व्यवस्थित और सुरक्षित कर पाने में पूरी तरह नाकाम रहा था, इसलिए कई मजदूरों के जत्थे पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े थे और इस दौरान उन मजदूरों के साथ कई दुखद हादसे भी हो चुके थे.

पर, शहर में काम न होने के कारण किसी भी हालत में दिनेश को यहां रहना रास नहीं आ रहा था. वह बस अपने गांव पहुंच जाना चाहता था. कम से कम गांव पहुंच कर जिंदा तो रह सकेगा वह.

और इसी सोच को लिए वह जब भी फुलवा से बात करता तो वह भी इसी शहर में रहने की बात पर अड़ जाती और दोनों में मनमुटाव की नौबत आ जाती.

दिनेश ने भी शहर में ही रह कर लौकडाउन के खुलने का इंतजार किया, पर हालात दिनबदिन खराब ही होते दिख रहे थे. रोजगार बंद हो गए थे और खानेपीने की चीजें भी महंगी हो रही थीं.

काम पर जाने के लिए बड़े अरमानों से लाई गई साइकिल भी अब धूल खा रही थी. महल्ले में चारों तरफ मरघट जैसा सन्नाटा सा छाया रहता था. महल्ले के कई लोग भी अपनेअपने गांव को चले गए थे और उन्हें गांव को जाता देख दिनेश को भी अपने गांव की याद सताती, पर फुलवा की जिद के आगे वह मजबूर था और मन मसोस कर रह जाता.

अब दिनेश के चेहरे पर  पहले वाली चमक नहीं रही, पगार पहले से ही बंद हो गई थी और घर के हालात भी खराब हो गए थे. फुलवा से भी ज्यादा ठिठोली नहीं करता था दिनेश.

कुछ दिन और बीते गए और उस की उदासी का कारण गांव न जा पाना है. इस कारण को फुलवा जान गई, तो उस ने अपनी जिद छोड़ने की सोची, ‘‘सुनोजी, हमें लगता है कि अब हम को भी गांव ही लौट जाना चाहिए. हमारे वास्ते शहर में अब कुछ नहीं बचा है. गांव जा कर कम से कम अपनी जिंदगी तो बचा सकेंगे हम.’’

फुलवा की ये बातें सुन कर दिनेश खुशी से झूम उठा. फुलवा को बांहों में भर कर दिनेश बोला, ‘‘हां फुलवा, मुझे पूरा यकीन था कि तुम जरूर मन जाओगी. हम कल ही सुबहसवेरे गांव की ओर निकल जाएंगे,” दिनेश चहकते हुए कह रहा था.

‘‘पर, ट्रेनें, बसें वगैरह सब तो बंद हैं… फिर हम जाएंगे कैसे?‘‘ फुलवा ने वाजिब सवाल किया.

‘‘अरे, उस की चिंता तू क्यों करती है? मेरे बहुत से साथी तो अपने परिवार के साथ पैदल ही गांव लौट गए हैं. जब वे पैदल जा सकते हैं, तो मैं और तुम साइकिल से क्यों नहीं…?‘‘ दिनेश ने साइकिल की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘साइकिल से कैसे गांव जाएंगे?‘‘ फुलवा चौंकी.

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‘‘अरे तू चिंता मत कर… मैं अपना सारा सामान मकान मालिक की गाड़ी के गैराज में रख दूंगा. जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो यहां आ कर सामान ले जाऊंगा… फिलहाल तो मैं और तुम साइकिल पर गाना गाते हुए चले चलेंगे गांव की तरफ.”

दिनेश ने समाधान बता दिया.

‘‘ठीक है, फिर हमें अभी से सामान रखने की तैयारी शुरू करनी होगी,” फुलवा ने कहा.

दोनों पतिपत्नी ने अपना हर सामान रखना शुरू कर दिया था और शाम तक सारा सामान मकान मालिक के गैराज में सुरक्षित रखवा दिया गया और हालात सामान्य होने पर सामान हटा लेने की बात भी दिनेश ने मकान मालिक को बता दी.

दिनेश ने शाम को अपनी साइकिल साफ कर दी थी और खापी कर दोनों जल्दी सो गए, क्योंकि अगली सुबह ही उन्हें गांव के लिए निकलना था.

सुबह उठ कर नहाधो कर दोनों तैयार हो गए. फुलवा ने एक छोटा सा कंधे पर लटकाने वाला बैग जरूर साथ ले लिया था.

एक ओर फुलवा का मन भारी हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर दिनेश खुश हो रहा था कि अब उसे शहर की नौकरी में किसी की डांट नहीं खानी पड़ेगी.

दोनों ही कमरे से उतर कर नीचे पहुंचे, जहां साइकिल खड़ी होती थी, पर साइकिल तो वहां से नदारद थी.

दिनेश ने चौंकते हुए इधरउधर खोजा, पर साइकिल वहां नहीं थी. साइकिल के खड़े होने की जगह पर ईंट के एक छोटे टुकड़े से दबा कर परचानुमा कागज जरूर रखा था.

फुलवा ने उसे खोला और पढ़ने लगी, “दोस्त दिनेश, उस दिन मेरे मांगने पर तुम ने मुझे साइकिल तो नहीं दी… मैं ने भी उस बात का बुरा नहीं माना था… पर, सही माने में आज मुझे इस साइकिल की जरूरत उस दिन से भी ज्यादा आ पड़ी है…

“तुम तो शहर के हालात बखूबी जानते ही हो… अब यहां रहना बहुत मुश्किल लग रहा है… तुम यह भी जानते हो कि मेरा एक दिव्यांग बेटा भी है और गांव में उस की मां अकेली हमारी राह देख रही है.

“एक दिव्यांग बेटे को उस की मां से मिलाने के लिए मेरा गांव जाना बहुत जरूरी है. मेरे पास गांव जाने का कोई और साधन न होने के कारण मैं तुम्हारी साइकिल चुरा कर ले जा रहा हूं. वापस कर पाऊंगा या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता. पर उम्मीद है कि तुम मुझे माफ कर सकोगे…

“तुम्हारी तरह किस्मत का मारा तुम्हारा पड़ोसी मनोज”

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परचानुमा कागज पढ़ कर फुलवा और दिनेश की आंखों में आंसू आ गए.

बस फर्क खुशी और दुख के आंसुओं का था…

आ अब लौट चलें : भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

अगले ही दिन से फुलवा ने काम करना शुरू कर दिया. वह दिनेश के काम पर जाने के बाद घर से निकली और पूरे महल्ले में अपने काम का नमूना ले कर सब को दिखा आई और साथ में यह बताना भी नहीं भूली कि जिस किसी को कढ़ाई आदि करवानी हो, तो इतने पैसे के साथ उस से बात करें.

खूबसूरती बहुत से कठिन कामों को भी आसान बना देती है. फुलवा खूबसूरत होने के साथसाथ व्यवहार में भी अच्छी थी. जल्द ही फुलवा के काम को लोगों ने पसंद किया. काम के और्डर भी आने लगे और आमदनी भी अच्छी होने लगी.

थोड़ीबहुत दिनेश की कमाई से बचा कर और बाकी अपनी कमाई से अब वे दोनों इस हालत में आ गए थे कि एक नई साइकिल खरीद सकें.

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और वह दिन भी आ गया, जब दिनेश और फुलवा ने पैसे गिने और साइकिल लेने के लिए मार्केट की ओर चल दिए.

आज फुलवा के चेहरे पर खुशी का रंग देखते ही बनता था. उस की गुलाबी साड़ी उस के चेहरे की आभा के आगे फीकी लग रही थी.

‘‘तभी तो राह आतेजाते लोग फुलवा को ही देख रहे हैं,” मन ही मन बुदबुदा रहा था दिनेश.

अपने मनपसंद रंग वाली साइकिल खरीद कर दिनेश बहुत ही खुश हो रहा था. उस ने साइकिल में घंटी भी लगवाई.

‘‘शहरों में घंटी सुनता ही कौन है… पर, हम जब मौज में होंगे तो इसी को बजा लिया करेंगे…

“और हां… वो गद्दी जरा मोटे फोम वाली लगाना भैया, ताकि कोई परेशानी न हो हमें… और एक कैरियर भी लगा देना पीछे… कभीकभी कुछ सामान ही रखना हो तो रख लो और आराम से चलते बनो.”

दिनेश कभी फुलवा को निहार रहा था, तो कभी अपनी नईनवेली साइकिल को.

पहले सोचा कि फुलवा को आगे वाले डंडे पर बिठा कर कोई गाना गाते हुए चल दें… लेकिन, फिर कुछ अच्छा नहीं लगा, तो पीछे कैरियर पर ही बिठा लिए और रास्ते भर गाना गाते और घंटी बजाते घर चला आया.

महल्ले में सब ही दिनेश को देखे जा रहे थे और दिनेश अपनी नई साइकिल के नशे में ही अकड़ा जा रहा था.

उस का आंगन कई किराएदारों का साझा आंगन था और बहुत गुंजाइश इस बात की भी थी कि निकलतेबैठते कोई जलन के कारण दिनेश की नई साइकिल को खरोंच ही मार दे.

हालांकि फुलवा ने रास्ते में ही बुरी नजर से बचने के लिए काला धागा खरीद कर बांध दिया था साइकिल के हैंडल पर, फिर भी सुरक्षा अपनाने में क्या जाता है, इसलिए दिनेश ने अपनी साइकिल को सब से अलग एक कमरे के पिछवाड़े वाले हिस्से में खड़ा करना शुरू कर दिया.

दिनेश जब साइकिल खड़ी कर के आ रहा था तो सामने फुलवा खड़ी मुसकरा रही थी. दिनेश के मन में भी अपनी पत्नी के लिए प्यार उमड़ आया और मस्ती भरी निगाहों से उस से बोला, ‘‘अरे फुलवा, आज तो नई साइकिल आई है… तो आज कुछ खट्टामीठा होना चाहिए.‘‘

‘‘खट्टामीठा… क्या मतलब है तुम्हारा, मैं कुछ समझी नहीं.‘‘

‘‘कुछ ऐसा काम करो, जो जबान का स्वाद खट्टा कर के भी मन को भा जाए और मीठा का मतलब जब तुम मुझे देखो और मैं तुम्हे देखूं और हम लोगों का मुंह अपनेआप मीठा हो जाए,‘‘ कह कर दिनेश ने फुलवा की तरफ आंख मारी, ‘‘धत्त… बेशर्म कहीं के.‘‘ और इतना कह कर फुलवा पीछे की ओर मुड़ी तो दिनेश ने अपने दोनों हाथों से उस के सीने को भींच लिया और बेतहाशा प्यार करने लगा.

दिनेश के हाथ फुलवा की गरदन पर फिसल रहे थे. उस की इन हरकतों से फुलवा भी जोश में आ गई और कमरे में 2 जिस्मों के दहकने की आवाजें साफ सुनाई देने लगीं. कुछ ही देर बाद कमरे का बढ़ा हुआ ताप धीरेधीरे ठंडा हो गया.

सुबह हुई तो नई साइकिल उठा कर दिनेश मिल की तरफ चला गया. जाते समय बड़ी शान से फुलवा से टाटा बायबाय करते हुए गया.

साइकिल के आ जाने से अब सबकुछ सही था. न ही दिनेश को किसी की डांट सुननी और न ही किसी सवारी का इंतजार करना पड़ता. और इधर फुलवा को भी इधरउधर से काम मिल जाता, जिस से कामकाज की गाड़ी अब पटरी पर चल रही थी.

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अपने काम पर जाने से पहले अपनी साइकिल को रगड़ कर पोंछना दिनेश के रोज के कामों में शामिल हो गया था और उस के इस तरह ध्यान रखने से मानो साइकिल भी खुश हो कर उसे धन्यवाद कहती थी.

एक तो महल्ले में फुलवा की जवानी और उस के भड़काऊ कपड़ों की चर्चा पहले से ही थी, फिर उस के काम के हुनर को देख कर महल्ले के लोग उस का लोहा मान गए थे और अब फुलवा ने अपने पति को जो नई साइकिल दिलवा दी. अब महल्ले में दिनेश की साइकिल चर्चा और जलन का केंद्र बनी हुई थी.

रविवार वाले दिन उसी के महल्ले का एक लड़का मनोज दिनेश से बोला, ‘‘अरे भाई दिनेश, आज तो तुम्हें काम पर जाना नहीं है. मुझे थोड़ा तुम्हारी साइकिल की जरूरत है… अगर मिल जाती तो बड़ी मेहरबानी होती.”

साइकिल मांगने की बात पर दिनेश का मूड थोड़ा उखड़ गया. उस की आवाज में तल्खी सी आ गई, ‘‘क्यों…? मेरी साइकिल की भला तुम्हें क्या जरूरत आ पड़ी.”

‘‘गोदाम तक जा कर सिलेंडर लाना है. बस यों गया और यों आया,‘‘ मनोज ने विनम्रता से कहा.

‘‘नहीं भाई… मुझे भी आज जरा फुलवा को ले कर अस्पताल तक जाना है, इसलिए साइकिल तो मैं नहीं दे पाऊंगा.‘‘

दिनेश के इस तरह मना कर देने से मनोज को काफी निराशा हुई और वह मुंह लटका कर वहां से चला गया.

‘‘हुंह… साइकिल न हो गई मानो कोई ठेला हो गया, जिस पर सिलेंडर लाद देंगे… अरे, इतना भारी सिलेंडर मेरी साइकिल के कैरियर को न पिचका देगा भला… महल्ले में और लोग भी तो हैं उन की साइकिल मांगो जा कर,‘‘ मन ही मन बुदबुदा रहा था दिनेश.

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बस कुछ इसी तरह से कट रही थी फुलवा और दिनेश की जिंदगी. अपनी ही दुनिया में मस्त. जिंदगी के हर पल का मजा उठाते हुए, पर इन की खुशियों को एक झटका सा तब लगा, जब एक दिन अचानक देश के प्रधानमंत्री ने टीवी पर आ कर पूरे देश में लौकडाउन का ऐलान कर दिया. लौकडाउन अर्थात सब कामधाम बंद, सारी दुकानें, साप्ताहिक बाजार सब बंद, सारे कारखाने बंद…

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

आ अब लौट चलें : भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

यों तो फुलवा और दिनेश की शादी हुए 3 साल हो गए थे, पर दिनेश को लगता था जैसे उस के ब्याह को अभी कुछ ही रोज हुए हैं.

फुलवा को निहारते रहने के बाद भी उस का मन नहीं अघाता था. काम पर जाने से पहले फुलवा से मन भर के बातें करता और काम से जब घर लौटता तो फुलवा भी अपने पति के इंतजार में होंठों पर लाली और मांग में सिंदूर भर कर एक मधुर मुसकराहट के साथ दिनेश का स्वागत करती तो दिनेश की तबीयत हरी हो जाती.

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दिनेश फुलवा को अपनी बांहों में भर लेता और उसे पागलों की तरह चूमने लगता, फुलवा भी उस का साथ देती, पर कभीकभी दिनेश का यह बहुत उतावलापन फुलवा को अखरने लगता था, वह दिनेश को पीछे धकेल देती और चाय बनाने का बहाना कर के अपना पीछा छुड़ा लेती, पर फिर भी दिनेश उस के पीछेपीछे पहुंच जाता.

‘‘अरे फुलवा, हम जानते हैं कि तुम तो यहां पाउडर, क्रीम लगा कर बैठी हो और हम आए हैं बाहर से धूलगरदा में सन कर और पसीना में लथपथ हो कर… तभी तो तुम हमारी बांहों में आने से कतरा जाती हो…

‘‘अरे, पर हम भी क्या करें, जब तक तुम को बांहों में कस कर नहीं भर लेते हैं… और दोचार चुम्मा नहीं ले लेते हैं, तब तक हमारे कलेजे में भी ठंडक नहीं पड़ती है.”

‘‘अरे नहीं ना… ऐसी तो कोई बात नहीं है… अपना मरद तो हर हाल में अच्छा लगता है… उस के बदन की महक तो हमेशा ही अच्छी लगती है… अरे, हम तो इस मारे जल्दी से हट जाते हैं कि आप थकेहारे आए हो काम से तो हम आप के लिए कुछ चायनाश्ता बना दें चल कर.”

फुलवा की इन प्यार भरी बातों का दिनेश के पास कोई जवाब नहीं होता, बदले में वह सिर्फ मुसकरा कर रह जाता.

दिनेश का फुलवा के लिए प्यार बेवजह नहीं था, फुलवा थी ही ऐसी…

लंबा शरीर, सुतवां चेहरा, सांवला रंग और गांव में मेहनत करने के कारण उस का अंगअंग कसा हुआ  था, ऐसा लगता था कि उस के शरीर को किसी ढांचे में ढाल कर बनाया गया है.

फुलवा जब से अपने शहर के महल्ले में ब्याहने के बाद आई थी, तब ही से महल्ले के मनचले उस की एक झलक पाने के लिए बेचैन रहते थे, जिस का बहुत बड़ा कारण था फुलवा का पहनावा.

फुलवा अपनी गहरी नाभि के नीचे लहंगा पहनती और उस के दो इंच ऊपर सीने पर कसी हुई चोली, और इस पहनावे में जब वह नीचे टंकी पर पानी लेने जाती तो महल्ले के मनचले सारा कामधाम छोड़ कर उसे एकटक निहारते रहते.

ऐसा नहीं था कि दिनेश को इस बात की भनक नहीं थी कि महल्ले में फुलवा के पहनावे और उस की खूबसूरती के चर्चे हैं और इसीलिए वह जब एक दिन काम से घर आया तो फुलवा के लिए एक साड़ी ले आया और रोमांटिक अंदाज में बोला, ‘‘देखो फुलवा, अब शहर में तुम रहने आई हो, इसलिए अब ये गांव वाले कपडे़ तुम पर अच्छे नहीं लगते… और वैसे भी इन कपड़ों में लड़के तुम्हारे अंगों को घूरते हैं. यह मुझे अच्छा नहीं लगता है, इसलिए अब तुम ये साड़ी पहना करो.”

दिनेश की ये प्यारभरी भेंट देख कर फुलवा बहुत खुश हुई और तुरंत ही साड़ी को अपने बदन पर रख कर देखने लगी और दिनेश को खुश होते हुए एक चुंबन दे दिया.

दिनेश शहर की एक आटा मिल में मुंशीगीरी करता था. मिल उस के कमरे से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर थी, इसलिए उसे रोज या तो बस या फिर टैंपो का सहारा लेना पड़ता था, जो कि खर्चीला तो था ही, साथ ही साथ सवारी पकड़ने के लिए उसे मुख्य सड़क तक आना पड़ता था. इन सब में दिनेश का डेढ़ घंटा व्यर्थ जाता था और फिर भी कभीकभी देर हो जाने पर अपने से सीनियर अधिकारी की डांट भी सुननी पड़ती थी.

एक दिन आटा मिल में दिनेश जब थोड़ी देरी से पंहुचा तो उसे अधिकारी की ऐसी डांट मिली कि मन ही मन उस ने फैसला कर लिया कि अब वह इस शहर में नहीं रहेगा और गांव में जा कर जो थोडीबहुत खेती है, वही देखेगा और आराम से अपने छप्पर के नीचे सोया करेगा. किसी कमबख्त की डांट तो नहीं सुननी पड़ेगी और घर आ कर उस ने अपने मन की बात पत्नी फुलवा को बताई.

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फुलवा ने ठंडे दिमाग से उस की बात सुनी, पर वह 3 साल पहले ही गांव से आई थी. लिहाजा, गांव में होने वाली परेशानियां उस से छिपी नहीं थीं और न ही स्वयं फुलवा ही गांव में रहना चाहती थी. उसे तो शहर की जिंदगी ही अच्छी लगती थी.

फुलवा ने दिनेश को समझाते हुए कहा, ‘‘अब अगर आप थोड़ा सा लेट हो गए, आप से बडे़ अधिकारी ने कुछ कह भी दिया तो इस में शहर छोड़ कर भागने जैसी कौन सी बात है. गांव में हमारे बाबूजी कहा करते थे कि अगर कोई समस्या हो, तो उस की जड़ में जाना चाहिए… समाधान वहीं छिपा होता है…

“और आप की समस्या है कि आप देर से मिल मेें पहुंचत हो… अब अगर आप रोजरोज देर से पहुंचोगे तो डांट तो पड़ेगी ही न… कुछ ऐसा क्यों नहीं करते, जिस से आप मिल में समय पर पहुंच जाओ.”

‘‘क्या करूं फुलवा… सवारी पकड़ने के चक्कर में देर हो जाती है… कभी तो बस देर से आती है, तो कभी इतनी भरी होती है कि मैं उस में बैठने की हिम्मत नहीं कर पाता हूं,” दिनेश ने लाचारी से कहा.

‘‘तो तुम अपनी सवारी क्यों नहीं खरीद लेते,” फुलवा ने उपाय सुझाया.

‘‘क्या मतलब… हम बस, ट्रक खरीद लें क्या…?” यह सुन कर दिनेश चौंक पड़ा.

‘‘नहीं… बस, ट्रक नहीं, अपनी सवारी… मैं तो साइकिल वगैरह की बात कर रही थी.”

‘‘हां… साइकिल ठीक रहेगी… आराम से जब मन हुआ चल दिए… घंटी बजा कर और छुट्टी में भी न किसी सवारी का मुंह देखना और न ही लेट हो जाने के डर से डांट सुनने का डर.‘‘

एक पल को तो ऐसा सोच चहक उठा था दिनेश… पर, अगले ही पल मायूस हो गया.

‘‘पर फुलवा, एक अच्छी साइकिल 3 से 4 हजार रुपए में आती है… और तुम तो जानती हो कि हमारी तनख्वाह ही 5 हजार रुपए है… हम अगर साइकिल ले भी लेंगे तो तुम को क्या खिलाएंगे,‘‘ दिनेश ने मुंह लटका कर कहा.

‘‘हां, समस्या तो है, पर हम अपने गांव में अम्मां से जूट के बोरे पर बहुत अच्छी कढ़ाई करना सीखे हैं… सुना है, शहर में इस काम की बहुत मांग है. हम यहां महल्ले में अगलबगल के लोगों से काम लाएंगे और उस से हमारी आमदनी भी होगी और पहचान भी बनेगी.

“और जब हम और तुम दोनों मिल कर कमाएंगे तो साइकिल के लिए पैसा जल्दी जुट जाएगा न…‘‘ फुलवा ने खुशी से अपनी आंखें घुमाते हुए कहा.

आधेअधूरे मन से दिनेश ने अपनी रजामंदी दे दी.

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दरअसल, गांव की जिंदगी किस्सों और फिल्मों के लिए तो बहुत अच्छी है, पर जिन्होंने गांव की गरीबी देखी है, भुखमरी और अकाल देखा है, उन के दिल से पूछिए और इसीलिए फुलवा बिलकुल भी गांव नहीं जाना चाहती थी और इसीलिए वह दिनेश को मनाए रखने के लिए सारे प्रयास कर रही थी, भले ही इस के लिए उसे खुद भी काम करना पड़ जाए.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

आ अब लौट चलें

रिश्ता : भाग 2- कैसे बिखर गई श्रावणी

अनुभवी अम्मां ने मुझ से कुछ निजी प्रश्न पूछे फिर हंस दीं, ‘ये उलटियां बदहजमी की वजह से नहीं हैं. मुझे तो लगता है खुशखबरी है.’

सुन कर आकाश के पैरों तले की जमीन खिसक गई. वह मुझे डा. मेहरा के क्लिनिक पर ले गए. जांच के बाद डाक्टर ने जैसे ही मुझे गर्भवती घोषित किया, आकाश के चेहरे का रंग उड़ गया. वह इस खबर को सुन कर खुश नहीं हुए थे. तुरंत डा. मेहरा के सामने अपने मन की बात जाहिर कर दी थी, ‘डाक्टर, हमें यह बच्चा नहीं चाहिए.’

‘क्यों?’

‘परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि हम बच्चे के दायित्व को उठाने के लिए सक्षम नहीं हैं.’

आकाश के चेहरे पर बेचारगी के भाव देख कर मैं हैरान रह गई थी. वह सृजनकर्ता मैं धरती? बीज को पुष्पितपल्लवित होने से पहले ही उसे समूल उखाड़ कर फेंक देने को तत्पर… काश, मेरे पति ने मुझ से तो पूछा होता कि मैं क्या चाहती हूं.

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मेरे कुछ कहने से पहले ही डाक्टर मेहरा ने उन की बात को अनसुनी करते हुए जवाब दिया, ‘आकाशजी, आप के घर 2 बरस बाद उम्मीद की किरण फूटी है. अपने इस अंश को सहेज, संभाल कर रखिए. आने दीजिए उसे इस संसार में.’

भुनभुनाते हुए आकाश घर पहुंचे. जूते की नोक से दरवाजे को धक्का दिया तो वह चरमरा कर खुल गया. उस पल अम्मां और अन्नू उन के इस रूप को देख कर सहम गए थे. आकाश से पूछताछ की तो? आंखें तरेर कर बोले, ‘श्रावणी प्रेगनेंट है.’

खुशी के अतिरेक में अन्नू ने मुझे गले से लगा लिया था. अम्मां ने उठ कर बेटे का मस्तक चूम लिया था और  बधाई देते हुए बोलीं, ‘यह तो बहुत खुशी की बात है बेटा. इस खुशखबरी को सुनने के लिए कब से कान तरस रहे थे.’

आननफानन में अम्मां ने न जाने कितनी योजनाएं बना डालीं. उधर आकाश कुछ और ही सोच रहे थे. अम्मां की बात सुन कर उन्होंने अपना आखिरी अस्त्र फेंका, ‘बराबरी तो हर समय करती हो तुम औरतें लेकिन अक्ल पासंग भर नहीं है. श्रावणी तो कमअक्ल है लेकिन आप तो समझ सकती हैं. कितने खर्चे हैं, कितनी जिम्मेदारियां हैं सिर पर? अभी तो अन्नू का ब्याह भी करवाना है. मकान की मरम्मत करवानी है. अगर श्रावणी की तबीयत यों ही गिरीगिरी रही तो इस की नौकरी भी जाती रहेगी. जो थोड़ाबहुत कमाती है वह भी निकल जाएगा हाथ से.’

अम्मां ने भाग्य और तकदीर का हवाला दिया तो आकाश बोले, ‘वह बीते जमाने की बात थी. अब ऐसा नहीं होता.’

अम्मां की हिदायतों, मेरी गुजारिशों और अन्नू की सिफारिशों के बावजूद वह चोरीछिपे डाक्टरों से मशविरा कर के, मेरा गर्भपात करवाने के लिए प्रयास करते रहे. खेल भी खुद खेलते थे, पांसा भी खुद ही फेंकते थे. सही कहा है किसी ने कि मानवता का स्वरूप पुरुष है और पुरुष स्त्री को, स्त्री के लिए ही परिभाषित करता है. वह स्त्री को स्वतंत्र व्यक्ति नहीं मानता. स्त्री अपने बारे में वही सोच सकती है और बन सकती है जैसा पुरुष उस को आदेश देगा.

बिट्टू को मेरी ही कोख से जन्म लेना था, इसीलिए शायद डाक्टरों ने एकमत हो कर आकाश को मेरा गर्भपात न करवाने की सलाह दी थी. उस पल आकाश के व्यवहार ने मेरे विश्वास की निधि को खो कर मेरे अंदर अविश्वास का पहाड़ जमा कर दिया था.

अन्नू के ब्याह की तारीख नजदीक आ रही थी. हालांकि अन्नू की ससुराल पक्ष से दहेज की कोई मांग नहीं रखी गई थी, लेकिन मानसम्मान और बारातियों की आवभगत की अभिलाषा सभी को होती है. मेरा और अम्मां का रिश्ता सासबहू का नहीं मां और बेटी का था, इसीलिए हम दोनों एकदूसरे की दुखतकलीफ बिना कुछ कहे ही पहचान लेते थे.

इस समय भी अम्मां की मजबूरी मैं समझ रही थी. पैसा पास न हो तो मन छोटा होता ही है. आकाश इस पूरे मामले में जरा भी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे. सुबह मेरे साथ निकलते, शाम को मुझे घर छोड़ कर दोबारा निकल जाते. कहां जाते यह कई बार पूछने पर भी उन्होंने कभी नहीं बताया. अन्नू क्या कहती? बेचारी, नौकरी कर के जितनी रकम जमा की थी वह आकाश के अकाउंट में थी.

मैं ने पीहर से लाए जड़ाऊ कंगन, हीरों के कर्णफूल और सोने के 2 सैट अम्मां की गोद में रख दिए. कुछ साडि़यां भी ऐसी थीं जिन की तह भी नहीं खुली थी, क्योंकि आकाश को मेरा ज्यादा घूमनाफिरना, सजनासंवरना पसंद नहीं था, वे भी अम्मां को दे दीं. शौपिंग, हलवाइयों, कैटरर से बातचीत, कार्ड छपवाने और बांटने तक का पूरा काम मेरे जिम्मे था. आकाश की तटस्थता विचित्र थी. वह तो ऐसा बरताव कर रहे थे जैसे ब्याह उन की बहन का नहीं, किसी दूसरे की बहन का था.

अम्मां के आग्रह पर अब सुबहशाम पापा आ जाते थे. पापा के साथ उन की कार में बैठ कर मैं बाहर के काम निबटा लिया करती थी. मां घर और चौके की देखभाल कर लिया करती थीं. बहू के अति विनम्र स्वभाव को देख कर अम्मां आशीर्वादों की झड़ी लगा कर मुक्तकंठ से मेरी मां से सराहना करतीं, ‘बहनजी, जितना सुंदर श्रावणी का तन है, उतना ही सुंदर मन भी है. श्रावणी जैसी बहू तो सब को नसीब हो.’

अन्नू का ब्याह हो गया. मां और पापा घर लौट रहे थे. अम्मां ने एक बार फिर मेरी प्रशंसा मां से की तो मां के जाते ही आकाश के अंत:स्थल में दबा विद्रोह का लावा फूट पड़ा था :

‘वाहवाही बटोरने का बहुत शौक है न तुम्हें? अपने जेवरात क्यों दे दिए तुम ने अन्नू को?’

मैं ने आकाश के साथ उस के परिवार को भी अपनाया था. फिर इस परिवार में मां और बहन के अलावा था भी कौन? दोनों से दुराव की वजह भी क्या थी? मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘जेवर किसी पराए को नहीं अपनी ननद को दिए हैं. अन्नू तुम्हारी बहन है, आकाश. जेवरों का क्या, दोबारा बन जाएंगे.’

‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते, श्रावणी, मेहनत करनी पड़ती है.’

मैं अब भी उन के मन में उठते उद्गारों से अनजान थी. चेहरे पर मायूसी के भाव तिर आए थे. रुंधे गले से बोले, ‘इन लोगों ने मुझे कब अपना समझा. हमेशा गैर ही तो समझा…जैसे मैं कोई पैसा कमाने की मशीन हूं. उन दिनों 7 बजे दुकानें खुलती थीं. सुबह जा कर मामा की आढ़त की दुकान पर बैठता. वहां से सीधे दोपहर को स्कूल जाता. तब तक घर का कामकाज निबटा कर मां दुकान संभालती थीं. शाम को स्कूल से लौट कर पुन: दुकान पर बैठता, क्योंकि मामा शाम को किसी दूसरी दुकान पर लेखागीरी का काम संभालते थे. इन लोगों ने मेरा बचपन छीना है. खेल के मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखता तो मां की गोद में सिर रख कर कई बार रोया था मैं, लेकिन मां हर समय चुप्पी ही साधे रहती थीं.’

मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता और अगर करता भी है तो हमेशा दूसरे को ही दोषी समझता है. आकाश इन सब बातों का रोना मुझ से कई बार रो चुके थे. अपनी सकारात्मक सोच और आत्मबल की वजह से मैं, अलग होने में नहीं, हालात से सामंजस्य बनाने की नीति में विश्वास करती थी. हमेशा की तरह मैं ने उन्हें एक बार फिर समझाया :

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‘अम्मां की विवशता परिस्थितिजन्य थी, आकाश. असमय वैधव्य के बोझ तले दबी अम्मां को समझौतावादी दृष्टिकोण, मजबूरी से अपनाना पड़ा होगा. जिस के सिर पर छत नहीं, पांव तले जमीन नहीं थी, देवर, जेठ, ननदों…सभी ने संबंध विच्छेद कर लिया था तो भाई से क्या उम्मीद करतीं? अम्मां को सहारा दे कर, उन के बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी कीं, उन्हें आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान किया. ऐसे में यदि अम्मां ने बेटे से थोड़े योगदान की उम्मीद की तो गलत क्या किया?

‘आखिर मामा का अपना भी तो परिवार था और फिर अम्मां भी तो हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठी थीं. यही क्या कम बात है कि अपने सीमित साधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद, अम्मां ने तुम्हें और अन्नू को पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाया कि आज तुम दोनों समाज में मानसम्मान के साथ जीवन जी रहे हो.’

सुनते ही आकाश आपे से बाहर हो गए, ‘गलती की, जो तुम से अपने मन की बात कह दी…और एक बात ध्यान से सुन लो. मुझे मां ने नहीं पढ़ाया. जो कुछ बना हूं, अपने बलबूते और मेहनत से बना हूं.’

उस दिन आकाश की बातों से उबकाई सी आने लगी थी मुझे. पानी के बहाव को देख कर  बात करने वाले आकाश में आत्मबल तो था ही नहीं, सोच भी नकारात्मक थी. इसीलिए आत्महीनता का केंचुल ओढ़, दूसरों में मीनमेख निकालना, चिड़चिड़ाना उन्हें अच्छा लगता था. खुद मित्रता करते नहीं थे, दूसरों को हंसतेबोलते देखते तो उन्हें कुढ़न होती थी.

अन्नू अकसर घर आती थी. कभी अकेले, कभी प्रमोदजी के साथ. नहीं आती तो मैं बुलवा भेजती थी. उस के आते ही चारों ओर प्रसन्नता पसर जाती थी. अम्मां का झुर्रीदार बेरौनक चेहरा खिल उठता. लेकिन बहन के आते ही भाई के चेहरे पर सलवटें और माथे पर बल उभर आते थे. जब तक वह घर रहती, आकाश यों ही तनावग्रस्त रहते थे.

अन्नू के ब्याह के कुछ समय बाद ही अम्मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. मेरा प्रसवकाल भी निकट आता जा रहा था. अम्मां को बिस्तर से उठाना, बिठाना काफी मुश्किल लगता था. मैं ने आकाश से अम्मां के लिए एक नर्स नियुक्त करने के लिए कहा तो उबल पडे़, ‘जानती हो कितना खर्चा होगा? अगले महीने तुम्हारी डिलीवरी होगी. मेरे पास तो पैसे नहीं हैं. तुम जो चाहो, कर लो.’

घरखर्च मेरी पगार से चलता था. मैं ने कभी भी खुद को इस घर से अलग नहीं समझा, न ही कभी आकाश से हिसाब मांगा. अन्नू के ब्याह पर भी अपने प्राविडेंट फंड में से पैसा निकाला था. फिर इस संकीर्ण मानसिकता की वजह क्या थी? किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. मां के इलाज के लिए पैसेपैसे को रोने वाले बेटे को चमचमाती हुई कार दरवाजे के बाहर पार्क करते देख कर कोई पूछ भी क्या सकता था? डा. प्रमोद ही अम्मां की देखभाल करते रहे थे.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

रिश्ता : कैसे बिखर गई श्रावणी

रिश्ता : भाग 3- कैसे बिखर गई श्रावणी

कुछ ही दिनों बाद अम्मां ने दम तोड़ दिया. मैं फूटफूट कर रो रही थी. एकमात्र संबल, जिस के कंधे पर सिर रख कर मैं अपना सुखदुख बांट सकती थी, वह भी छिन गया था. मां ढाढ़स बंधा रही थीं. पापा, अन्नू और प्रमोदजी मित्रोंपरिजनों की सहानुभूतियां बटोर रहे थे. दुनिया ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं सदी में जी रहा है. ब्याहशादियों में कोई आए न आए, मृत्यु के अवसर पर जरूर पहुंचते हैं.

धीरेधीरे यहां भी लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई. मांपापा, अन्नू, प्रमोद, यहीं हमारे घर पर ठहरे हुए थे. आकाश घर में रह कर भी घर पर नहीं थे. एक बार वही तटस्थता उन पर फिर हावी हो चुकी थी. जब मौका मिलता, घर से बाहर निकल जाते और जब वापस लौटते तो उन की सांसों से आती शराब की दुर्गंध, पूरे वातावरण को दूषित कर देती. प्रबंध से ले कर पूरी सामाजिकता प्रमोदजी ही निभा रहे थे और यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. यह सोच कर कि अम्मां बेटे की मां थीं. आकाश को उन्होंने जन्म दिया था, पालपोस कर बड़ा किया था तो अम्मां के प्रति उन की जिम्मेदारी बनती है.

एक दिन पंडितों के लिए वस्त्र, खाद्यान्न, हवन के लिए नैवेद्य आदि लाते हुए प्रमोदजी को देखा तो बरसों का उबाल, हांडी में बंद दूध की तरह उबाल खाने लगा, ‘ये सब काम आप को करने चाहिए आकाश. प्रमोदजी इस घर के दामाद हैं. फिर भी कितनी शांति से दौड़भाग में लगे हुए हैं.’

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‘मैं शुरू से ही जानता था. तुम्हें ऐसे ही लोग पसंद हैं जो औरतों के इर्दगिर्द चक्कर लगाते हैं और खासकर के तुम्हारी जीहुजूरी करते हैं,’ फिर मां और पापा को संबोधित कर के बोले, ‘प्रमोद जैसा लड़का ढूंढ़ दीजिए अपनी बेटी को,’ और धड़धड़ाते हुए वह कमरे से बाहर निकल गए.

आकाश का ऐसा व्यवहार मैं कई बार देख चुकी थी. बरदाश्त भी कर चुकी थी. कई बार दिल में अलग होने का खयाल भी आया था लेकिन कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिस कर वह चूरचूर हो गया. आकाश के झूठ, दंभ और पशुता को मैं इसीलिए अपनी पीठ पर लादे रही कि समाज में मेरी इमेज, एक सुखी पत्नी की बनी रहे. लेकिन आकाश ने इन बातों को कभी नहीं समझा. वहां आए रिश्तेदारों के सामने, मां की मृत्यु के मौके पर वह मुझे इस तरह जलील करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझे.

तेरहवीं के दिन, शाम के समय मां और पापा ने मुझे साथ चलने के लिए कहा तो, सभ्य रहने की दीवार जो मैं ने आज तक खींच रखी थी, धीरे से ढह गई. पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता था? चुपचाप चली आई थी मां के साथ.

इसे औरत की मजबूरी कहें या मोह- जाल में फंसने की आदत. बरसों तक त्रासदी और अवहेलना के दौर से गुजरने के बाद भी, उसी चिरपरिचित चेहरे को देखने का खयाल बारबार आता था. क्रोध से पागल हुआ आकाश, नफरत भरी दृष्टि से मुझे देखता आकाश, अम्मां को खरीखोटी सुनाता आकाश, अन्नू को दुत्कारता, प्रमोदजी का अनादर करता आकाश.

मां और पापा, सुबहशाम की सैर को निकल जाते तो मुझे तिनकेतिनके जोड़ कर बनाया अपना घरौंदा याद आता, एकांत और अकेलापन जब असहनीय हो उठता तो दौड़ कर अन्नू को फोन मिला देती. अन्नू एक ही उत्तर देती कि सागर में से मोती ढूंढ़ने की कोशिश मत करो श्रावणी. आकाश भैया अपनी एक सहकर्मी मालती के साथ रह कर, मुक्ति- पर्व मना रहे हैं. हर रात शराब  के गिलास खनकते हैं और वह दिल खोल कर तुम्हें बदनाम करते हैं.

बिट्टू के जन्म के समय भी आकाश की प्रतीक्षा करती रही थी. पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर मेरी आंखों में चमक लौट आती. लेकिन आकाश नहीं आए. अन्नू प्रमोदजी के साथ आई थी. मेरी पसीने से भीगी हथेली को अपनी मजबूत हथेली के शिकंजे से, धीरेधीरे खिसकते देख बोली, ‘मृगतृष्णा में जी रही हो तुम श्रावणी. आकाश भैया नहीं आएंगे. न ही किसी प्रकार का संपर्क ही स्थापित करेंगे तुम से. जब तक तुम थीं तब तक कालिज तो जाते थे. परिवार के दायित्व चाहे न निभाए, अपनी देखभाल तो करते ही थे. आजकल तो नशे की लत लग गई है उन्हें.’

अन्नू चली गई. मां मेरी देखभाल करती रहीं. लोग मुबारक देते, साथ ही आकाश के बारे में प्रश्न करते तो मैं बुझ जाती. मां के कंधे पर सिर रख कर रोती, ‘बिट्टू के सिर से उस के पिता का साया छीन कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है, मां.’

‘जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके, वह समाज में रह कर भी समाज का अंग नहीं बन सकता, न ही किसी दृष्टि में सम्मानित बन सकता है,’ पापा की चिढ़, उन के शब्दों में मुखर हो उठती थी.

मां, पुराने विचारों की थीं, मुझे समझातीं, ‘बेटी, यह बात तो नहीं कि तू ने प्रयास नहीं किए, लेकिन जब इतने प्रयासों के बाद भी तुझे तेरे पति से मंजूरी नहीं मिली तो क्या करती? साए की ओट में दम घुटने लगे तो ऐसे साए को छोड़ खुली हवा में सांस लेने में ही समझदारी है.’

‘लेकिन जगहजगह उसे पिता के नाम की जरूरत पड़ेगी तब?’

‘अब वह जमाना नहीं रहा, जब जन्म देने वाली मां का नाम सिर्फ अस्पताल के रजिस्टर तक सीमित रहता था और स्कूल, नौकरी, विवाह के समय बच्चे की पहचान पिता के नाम से होती थी. आज कानूनन इन सभी जगहों पर मां का नाम ही पर्याप्त है.’

मां की मृत्यु पर भी आकाश नहीं दिखाई दिए थे. अन्नू और प्रमोदजी ही आए थे. मैं समझ गई, जिस व्यक्ति ने मुझ से संबंध विच्छेद कर लिया वह मेरी मां की मृत्यु पर क्यों आने लगा. जाते समय अन्नू ने धीरे से बतला दिया था, ‘आजकल आकाश भैया सुबह से ही बोतल खोल कर बैठ जाते हैं. मैं ने सौ बार समझाया और उन्होंने न पीने का वादा भी किया, लेकिन फिर शुरू हो जाते हैं,’ फिर एक सर्द आह  भर कर बोली, ‘लिवर खराब हो गया है पूरी तरह. प्रमोदजी काफी ध्यान रखते हैं उन का लेकिन कुछ परहेज तो भैया को भी रखना चाहिए.’

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सोच के अपने बयावान में भटकती कब मैं झांसी पहुंची पता ही नहीं चला. तंद्रा तो मेरी तब टूटी जब किसी ने मुझे स्टेशन आने की सूचना दी. लोगों के साथ टे्रन से उतर कर मैं स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुंच गई. अन्नू पहले से ही मौजूद थी. प्रमोद डाक्टरों के साथ बातचीत में उलझे थे. मैं ने आकाश के पलंग के पास पड़े स्टूल पर ही रात काट दी. सच कहूं तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. मेरा मन सारी रात न जाने कहांकहां भटकता रहा.

सुबह अन्नू ने चाय पी कर मुझे जबर्दस्ती घर के लिए ठेल दिया. आकाश तब भी दवाओं के नशे में सोए हुए थे.

घर आ कर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. पराएपन की गंध हर ओर से आ रही थी. नहाधो कर आराम करने का मन बना ही रही थी, पर अकेलापन मुझे काटने को दौड़ रहा था. घर से निकल कर अस्पताल पहुंची तो आकाश, नींद से जाग चुके थे. अन्नू के साथ बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देख कर भी कुछ नहीं बोले. मैं ने धीरे से पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन का जवाब ठंडे लोहे की तरह लगा. किसी के बारे में कुछ पूछताछ नहीं की. यहां तक कि बिट्टू के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. अन्नू ही कमरे में मौन तोड़ती रही. हम दोनों के बीच पुल बनाने का प्रयास करती रही. डाक्टरों की आवाजाही जारी थी. सारे दिन लोग, आकाश से मिलने आते रहे. मुझे देख कर हर आने वाला कहता, ‘अच्छा हुआ आप आ गईं,’ पर 3 दिन में, एक बार भी मेरे पति ने यह नहीं कहा, ‘अच्छा हुआ जो तुम आ गईं. तुम्हें बहुत मिस कर रहा था मैं.’

आकाश की हालत काबू में नहीं आ रही थी. प्रमोदजी ने मुझ से धीरे से कहा, ‘‘भाभीजी, आकाश भैया की हालत अच्छी नहीं लग रही है. आप जिसे चाहें खबर कर दें.’’

मैं जब तक कुछ कहती या करती, आकाश ने दम तोड़ दिया. अन्नू फूटफूट कर रो रही थी. प्रमोदजी उसे ढाढ़स बंधा रहे थे. मेरे तो जैसे आंसू ही सूख गए थे. इस पर क्या आंसू बहाऊं? जिस आदमी ने मुझे कभी अपना नहीं समझा…मेरे बेटे को अपना समझना तो दूर उस का चेहरा तक नहीं देखा, मैं कैसे उस आदमी के लिए रोऊं? यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

जाने कितने लोग, शोक प्रकट करने आ रहे थे. हर आदमी, इतनी कम उम्र में इन के चले जाने से दुखी था, पर मैं जैसे जड़ हो गई थी. इतने लोगों को रोते देख कर भी मैं पत्थर की हो गई थी. मेरे आंसू न जाने क्यों मौन हो गए थे? सब कह रहे थे, मुझे गहरा शौक लगा है. इन दिनों आकाश की सारी बुराइयां खत्म हो गई थीं. हर व्यक्ति को उन की अच्छाइयां याद आ रही थीं. मैं खामोश थी.

पापा का फोन मेरे मोबाइल पर कई बार आ चुका था. मैं उन्हें 1-2 दिन का काम और है बता कर फोन काट देती थी.

तेरहवीं के बाद सब ने अपनाअपना सामान बांध लिया. मेरी उत्सुक निगाहें मालती को ढूंढ़ रही थीं. अन्नू से ही पूछताछ की तो बोली, ‘‘आकाश भैया का सारा पैसा अपने नाम करवा कर वह तो कभी की चली गई झांसी छोड़ कर. कहां है, कैसी है हम नहीं जानते. भला ऐसी औरतें रिश्ता निभाती हैं?’’

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झांसी से टे्रन के चलते ही मैं ने राहत की सांस ली. ऐसा लगा, जैसे मैं किसी कैद से बाहर आ गई हूं. झांसी की सीमा पार करते ही मुझे पहली बार एहसास हुआ कि झांसी से मेरा रिश्ता सचमुच टूट गया है. अब मैं यहां क्यों आऊंगी? रिश्तों के दरकने का मुझे पहली बार एहसास हुआ. मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

रिश्ता : भाग 1- कैसे बिखर गई श्रावणी

फोन अन्नू का था, ‘‘भाभी, आकाश भैया बहुत बीमार हैं. अस्पताल में भरती हैं. मेरा जी बहुत घबरा रहा है. हो सके तो आ जाइए.’’

पापा बाहर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. मैं नहीं चाहती थी कि आकाश का नाम और बीमारी की खबर उन के कानों तक पहुंचे. मां के बाद अब लेदे कर पापा ही तो बचे थे. अत: मैं उन्हें जरा सा भी दुख नहीं देना चाहती थी.

मां की मौत पर वह कैसे बिलख- बिलख कर रो रहे थे, ‘‘मैं ही तेरी मां की मौत का जिम्मेदार हूं. मैं ने ही सही समय पर डाक्टर को नहीं बुलाया, इसी कारण तेरी मां मर गई.’’

मैं जानती थी कि मां दवा वक्त पर न मिलने की वजह से नहीं मरीं बल्कि वह अपनी बेटी के दुख के गम में मरी थीं.

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पापा अखबार पढ़ कर उठें उस से पहले मैं ने बाई से न केवल नाश्ता तैयार करवा लिया बल्कि अपनी झांसी जाने की योजना भी तैयार कर ली थी. पड़ोस की दमयंती चाची से, 1-2 दिन पापा और बिट््टू का खयाल रखने को कह कर मैं ने पापा को सूचना दी कि मुझे कालिज के काम से लखनऊ जाना है. सोचती हूं आज ही निकल जाऊं.

पापा ने खास पूछताछ नहीं की थी क्योंकि कालिज के काम से मेरा अकसर लखनऊ आनाजाना होता ही था. एक बैग में 4 जोड़े कपड़े डाल कर मैं सीधे बैंक गई. रुपए निकाले और झांसी जाने वाली पहली टे्रन में बैठ गई.

टे्रन अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी. उस के साथ भागते पेड़, खेत, खलिहान, नदियां आदि सब पीछे छूटते जा रहे थे. सीट पर बैठेबैठे ही मैं ने आंखें मूंद लीं. खयालों में आकाश और अन्नू के चेहरे आंखों के सामने आ कर ठहर गए थे.

कालिज का वार्षिक समारोह चल रहा था. प्रिंसिपल ने संगीत सम्मेलन का आयोजन किया था. अन्नू आकाश का परिचय मुझ से करवाते हुए बोली थी, ‘इन से मिलो. मेरे आकाश भैया हैं.’

अन्नू का वाक्य पूरा होते ही मैं ने हाथ जोड़ दिए तो नमस्कार का उत्तर देते हुए आकाश बोले, ‘तो आप हैं श्रावणी. अन्नू से आप के बारे में इतना सुन चुका हूं कि आप की पूरी जन्मपत्री मेरे पास है.’

अन्नू अकसर मुझ से चुहल करती, ‘श्रावणी, ऐसा क्या है तुझ में जो लोग देखते ही तुझ पर मोहित हो जाते हैं. भैया को देख, जब से तुझ से मिल कर गए हैं, किसी न किसी बहाने तेरा जिक्र छेड़ देते हैं.’

मैं भी पूरी तरह उन के सुदर्शन और आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुकी थी. एक दिन, कौफी हाउस में मेरे मुख से निकल गया, ‘आकाश, आप दूसरों का कितना ध्यान रखते हैं.’

विजयी मुसकान चेहरे पर बिखेर कर वह बोले, ‘जो इनसान दूसरों की ‘इज्जत’ नहीं करता वह अपनी इज्जत क्या करेगा? उसे तो इज्जत की परिभाषा भी नहीं मालूम होगी. खासतौर से जिसे औरत की इज्जत नहीं करनी आती उस से मुझे घृणा होती है.’

सुनते ही मन झंकृत हो उठा था… उस कच्ची वयस में मन आंदोलित हो उठा था. आह्लाद की सीमा तक.

आकाश और मैं रोज मिलने लगे थे. इस दोस्ती ने कब प्रेम का रूप ले लिया और हम ने विवाह करने का निर्णय ले लिया पता ही नहीं चला. जिस दिन मैं ने मां और पापा को अपना निर्णय सुनाया, पापा को अच्छा नहीं लगा था. मुझे समझाने के विचार से बोले थे, ‘श्रावणी, जिंदगी औपचारिकताओं से नहीं जी जाती है. जीने के लिए साफसुथरी स्फटिक सी शिला पैरों के नीचे होनी चाहिए, वरना आदमी फिसलन से औंधेमुंह गिरता है.’

‘पापा, आकाश ऐसा नहीं है.’

‘कितना जानती हो उसे? मात्र 1-2 माह की दोस्ती किसी व्यक्ति को समझने के लिए काफी नहीं होती.’

तब तो नहीं माना था मैं ने, लेकिन जैसेजैसे परिचय की गांठें खुलने लगीं वैसेवैसे ताज्जुब होने लगा कि मैं अपनी आंखों पर कैसा सम्मोहन का परदा डाले हुए थी.

सुहाग सेज पर ही यह सम्मोहन परदे को चीरता हुआ बिखर गया था, जब आकाश ने उद्वेग से भरे मेरे शरीर को मरोड़ते, मसलते, मेरे यौवन का आनंद उठाते हुए प्रश्न किया था, ‘वह लड़का कौन था, जिस ने तुम्हारे रूप की प्रशंसा में कोरस गाया था?’

मैं ने कई बार सफाई दी लेकिन मेरा हर शब्द आकाश के अनर्गल संभाषण में डूबता चला गया.

सुबह जब आकाश कमरे से बाहर निकले तो रिश्ते की ननदों, देवरानियों ने उन्हें घेर लिया था. मैं ने उस सुबह खुद को बाथरूम में कैद कर लिया था. रोने के लिए यही जगह सब से सुरक्षित थी, न कोई रोकने वाला न ही टोकने वाला.

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2-3 दिन रिश्तेदारों की आवभगत और ब्याह के रीतिरिवाज संपन्न करने में ही बीते. आकाश के पिता नहीं थे. मां अकसर बीमार रहती थीं. अन्नू ही प्रधान बनी हुई थी. चौके से ले कर रिश्तेदारों की हर छोटीबड़ी फरमाइश को संपूर्ण करती अन्नू के चेहरे पर न शिकन थी न ही थकान. मैं उस का हाथ बंटा रही थी. कुल मिला कर अच्छा माहौल था. दोपहर के समय, अखबार के पन्ने पलटते हुए, आकाश ने पूछा, ‘पिक्चर देखने चलोगी, श्रावणी?’

‘हांहां, क्यों नहीं. रीगल पर पारिवारिक फिल्म ‘संबंध’ चल रही है. वहां देखेंगे.’

सिनेमा हाल के बाहर भीड़ जमा थी. औरतों की छोटी लाइन देख कर मैं ने सुझाव दिया कि लेडीज लाइन में खड़े हो कर मैं टिकट ले लेती हूं.

आकाश मेरे इर्दगिर्द ही मंडराते रहे. अचानक, टिकट पकड़ाते समय, विके्रता का हाथ मेरे हाथ को छू गया. यह देखते ही आकाश भड़क उठे और ऐसा हंगामा खड़ा किया कि लोगों की भीड़ जमा हो गई. मैं ने आकाश को शांत होने के लिए कहा कि वह मात्र संयोग था लेकिन उन्होंने तो जैसे कुछ भी न सुनने की कसम खाई थी. पिक्चर हाल में भी उन का बड़बड़ाना जारी था. मैं ने पूरी पिक्चर रोते हुए ही देखी.

घर लौटे तो पिक्चर हाल में घटी घटना का पूरा विवरण अम्मां को सुना दिया. अम्मां इशारे से उन्हें रिश्तेदारों की मौजूदगी का एहसास कराते हुए विषय बदलने की कोशिश करती रहीं. लेकिन वह बारबार उसी घटना को दोहरा कर मुझे बेवकूफ सिद्ध करने पर तुले रहे.

छोटी सी बात थी. इस तरह भड़कने और भड़क कर ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत थी? लोगों का क्या, सभी मुझे अपमानित होते देख मजे लूट रहे थे. कुछ देर बाद शांति स्थापित हो गई, लेकिन मेरा मन उद्विग्न था. रात को, अंतरंग क्षणों में आकाश मुझे बांहों में भर कर रोने लगे, ‘मुझे माफ कर दो, श्रावणी. तुम्हें कोई देखता है या तुम किसी की प्रशंसा करती हो तो मुझे न जाने क्या हो जाता है.’

हलकीहलकी आवाज में उन का बोलना यों लग रहा था जैसे सूखी धरती पर बारिश की पहली बूंदें पड़ती हैं और ऊपरी सतह के भीगते ही माटी महकने लगती है. प्रेम एक अद्भुत उपहार है. मिले तो इसे तुरंत लपक लेना चाहिए और जिस प्रेम की जड़ें, अंतस्तल में कहीं गहरे तक पैठी हों, उन्हें उखाड़ फेंकना इतना सरल भी तो नहीं होता. मैं धीरेधीरे चुपचाप इन की बांहों में सिमटती चली गई थी.

मां अकसर बुलावा भेजतीं लेकिन मैं टाल देती थी. आकाश के स्वभाव को ले कर मन में डर समाया हुआ था, कहीं मां और पापा के सामने लड़ाईझगड़ा, डांटडपट शुरू कर दी तो? बातबेबात तू- तड़ाक पर उतर आते थे. उस दिन भी यही हुआ था. आकाश घर के बाहर स्कूटर पार्क कर रहे थे, तभी एक कार चालक उन पर कीचड़ उछालता हुआ आगे निकल गया. आकाश अपने असली रूप पर उतर आए थे.

बेटी और दामाद के सत्कार के लिए दरवाजे पर खड़ी मां और पापा ‘क्या हुआ क्या हुआ’ कहते हुए घर से बाहर निकल आए और भीड़ को तितरबितर कर दामाद को घर के भीतर ले गए थे.

अलमारी में से सिल्क का कुरता- पाजामा निकालती मां के पीछे खड़े पापा के धीमे स्वर में कहे गए शब्द मेरी चेतना झकझोरते चले गए थे कि कितने गलत इनसान से ब्याह किया है श्रावणी ने? मुझे तो लगता है आकाश मानसिक रोगी है.

अपने पति का किसी दूसरे व्यक्ति के मुख से, चाहे वह मातापिता ही क्यों न हों, अपमान होते देख कोई भी पत्नी बरदाश्त नहीं कर सकती. एक हफ्ते रहने का कार्यक्रम एक दिन में ही समाप्त कर मैं घर लौट आई थी. पहुंचते ही अम्मां ने बताया कि पिं्रसिपल का फोन आया था. पूछ रहे थे, श्रावणी कब ज्वाइन कर रही है?

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दिनरात की नोंकझोंक से विक्षुब्ध हो उठा था मन. कागज और रजिस्टर, तैयार कर के मैं ने आकाश को ड्यूटी पर जाने की सूचना दी तो उन के चेहरे पर आड़ीतिरछी रेखाएं उभर आईं. बोले, ‘श्रावणी, तुम घर से निकलोगी तो अच्छा नहीं लगेगा मुझे. लोग न जाने कैसीकैसी निगाहों से घूरेंगे तुम्हें.’

मैं ने आकाश को याद दिलाया कि 1 माह का अवकाश समाप्त हो चुका है. इस से ज्यादा मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी.

‘ठीक है, दफ्तर जाते समय मैं तुम्हें छोड़ता हुआ निकल जाऊंगा. लौटते समय तुम्हें लिवाता चला आऊंगा.’

‘और अन्नू?’ मैं अच्छी तरह जानती थी कि विवाह से पहले आकाश और अन्नू एकसाथ आयाजाया करते थे, ‘हम दोनों पतिपत्नी एकसाथ घर से निकलें और वह अकेली जाए, क्या यह अच्छा लगेगा?’

‘उस की चिंता मत करो. वह आत्मनिर्भर है. अपनेआप कोई न कोई रास्ता ढूंढ़ निकालेगी.’

पति का स्वभाव शक, घृणा, ईर्ष्या और क्रोध से सराबोर है, यह मैं अच्छी तरह जानती थी और मन ही मन संकल्प भी ले चुकी थी कि उन के इन दुर्गुणों को निकाल पाई तो खुद को धन्य समझूंगी. एक बार विश्वास की जड़ें जम जाएंगी तो जीवन सहज रूप से जीया जा सकता है. यही सोच कर, पति की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ बनने की धुन में उन के मुख से निकली हर बात को संपूर्ण करती चली गई थी.

समय चक्र बदला. अन्नू का विवाह तय हो गया. प्रमोद डाक्टर थे. अच्छाखासा खातापीता, समृद्ध घराना था. उन्हीं कुछ दिनों में मैं ने अपने शरीर में कुछ परिवर्तन भी महसूस किए थे. तबीयत गिरीगिरी सी रहती थी, जी मिचलाता रहता. वजन भी घटता जा रहा था. एक दिन मुझे उलटियां करते देखा तो आकाश झल्लाने लगे :

‘इतना क्यों खाती हो जो हजम नहीं होता.’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दीदी : भाग 3- किस के लिए दीदी हार गईं

दीदी अपना वैधव्य बोझ लिए फिर घर लौट आईं. वैधव्य दुख हृदय में होने पर भी अब की बार दीदी के चेहरे पर एक गहन आत्मविश्वास का भाव था, क्योंकि अब वे घर का बोझ बन कर नहीं, घर के बोझ को हलका करने की शक्ति हाथों में लिए आई थीं.

जीजाजी के पैसों से दीदी ने अपना क्लिनिक बनवाना आरंभ कर दिया. साथ ही, एक दुकान किराए पर ले कर महिलाओं व बच्चों का इलाज भी करने लगीं. गृहस्थी की जो गाड़ी हिचकोले खाती चल रही थी, वह फिर से सुचारु रूप से चलने लगी. पापा की जगह दीदी ने संभाल ली. हर कार्य दीदी की सलाह से होने लगा.

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दीदी के प्रति मां के बरताव में धीरेधीरे अंतर आने लगा. वे उन्हें अपने बड़े लड़के की उपाधि देने लगीं. सभी खुश थे, परंतु मझली दीदी अपना स्थान छिन जाने के कारण रुष्ट सी रहतीं, यद्यपि रागिनी दीदी ने अपने अधिकार का दुरुपयोग कभी नहीं किया. हम सब की खुशी को ही उन्होंने अपनी खुशी समझा था. दीपा दीदी के ढेर सारे पुरस्कारों को देख कर उन्होंने खुशी से कहा था, ‘‘अरे, दीपा, तूने तो कमाल कर दिया. इतने पुरस्कार जीत लिए. तू तो वास्तव में ही छिपी रुस्तम निकली.’’

‘‘सच पूछो तो दीदी, इस का श्रेय अमित को है. जानती हो वह आजकल अच्छेअच्छे ड्रामों का निर्देशक है. पुणे से कोर्स कर के आया है. उसी के सही निर्देशन में मैं ने ये ढेर सारे पुरस्कार …’’

बीच में ही दीदी ने दीपा दीदी को अपने अंक में भर लिया था, ‘‘मैं तो पहले ही जानती थी कि अमित के लिए उस की कला केवल शौक ही नहीं, नशा है. कितनी प्रसन्नता की बात है कि वही अमित तुझे साथ ले कर चला है.’’

अमित तब अकसर घर आने लगा था. जब भी किसी ड्रामे या प्रोग्राम की तैयारी करनी होती वह दीपा दीदी को लेने आ पहुंचता और फिर छोड़ जाता. सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी में रात को कभी एक बजा होता तो कभी इस से भी अधिक देर हो जाती.

महल्लेभर में दीपा दीदी और अमित के बारे में बातें होने लगी थीं. एक दिन मां ने ही रागिनी दीदी से कहा, ‘‘बहुत दिनों से सुनती आ रही हूं, रागिनी ये सब बातें. लोग ठीक ही तो कहते हैं, जवान लड़की है, इतनी रात गए तक वह इसे छोड़ने आता है. सोचती हूं, अब दीपा के हाथ भी पीले कर देने चाहिए.’’

दीदी ने लापरवाही से एक हंसी के साथ कहा था, ‘‘मां, लोग जिस ढंग से सोचते हैं न, एक कलाकार उस ढंग से नहीं सोच सकता, क्योंकि उसे तो केवल अपनी कला की ही धुन होती है. अमित को मैं अच्छी तरह जानती हूं, रात को दीपा यदि उस के संरक्षण में घर लौटती है तो ठीक ही करती है.’’

‘‘तू तो अपने बाप से भी दो अंगुल बढ़ कर है. उन्होंने क्या कभी सुनी थी मेरी, जो तू सुनेगी?’’ मां ने खीझ कर कहा था.

‘‘पापा ने भी तो कभी गलत नहीं सोचा था. जो कुछ भी वे सोचते थे, कितना सही होता था.’’ दीदी के उत्तर से मां निरुत्तर हो गई थीं.

एक दिन पापा की ही तरह उन्होंने मुझ से और दीपा से डांस प्रोग्राम करने का अनुरोध किया. वे मेरी छूटी हुई कला को मुझ से फिर जोड़ना चाहती थीं. दूसरे अमित व दीपा के डांस के समय पारस्परिक हावभाव कैसे रहते हैं, इस का अंदाजा भी करना चाहती थीं.

दीपा दीदी ने अमित से दीदी की इच्छा बताई तो वह पूर्ण उत्साह से तैयारी में जुट गया. एक छोटे से ड्रामे की तैयारी भी साथ ही होने लगी. महल्लेभर में खुशी की लहर दौड़ गई.

हीरोइन थी दीपा दीदी. उन के मेकअप के लिए अमित के वही सुझाव. दीपा दीदी के मुख पर विजयभरी मुसकान दौड़ जाती. उधर मेरी आंखों के आगे रागिनी दीदी का लाज से सकुचाया वही चेहरा घूम जाता, जब वे स्वयं दीपा दीदी के स्थान पर होती थीं. मैं कई बार सोच कर रह जाती, ‘रागिनी दीदी चाहें तो अब भी अमित को पा सकती हैं.’

परंतु दीदी को अपने से ज्यादा चिंता हम सब की थी, इसलिए उन्होंने उस ओर कभी सोचा ही नहीं. कभी सोचा भी होगा तो दीपा की खुशी उन्हें अपनी खुशी से भी अधिक प्यारी लगी होगी. अपने को भुला कर वे सादी सी सफेद साड़ी में, हाथ में स्टेथोस्कोप लिए घर से क्लिनिक और क्लिनिक से घर भागती रहतीं. केवल कुछ क्षणों का विश्राम. रात को भी पूरी नींद नहीं सोतीं, कभी कोई डिलिवरी केस अटैंड कर रही हैं तो कभी कोई सीरियस केस.

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हमारा सब का जीवन पटरी पर लौट आया था. वही सब पुराने ठाटबाट. घर में नौकरचाकरों की व्यवस्था, मां के लिए अच्छी से अच्छी खुराक व दवाई का प्रबंध, मेरी व अमर की पढ़ाई फिर से सुचारु रूप से चालू हो गई थी. घर में ट्यूशन का प्रबंध हो गया. दीपा दीदी की प्रतिदिन की नईनई पोशाकों व शृंगार प्रसाधनों की मांग की पूर्ति हो जाती, परंतु रागिनी दीदी?

उन्हें एक दिन अमित के साथ कहीं बाहर जाते देखा था. मरीजों से जबरदस्ती छुट्टी पा कर वे अमित के साथ उस की गाड़ी में गई थीं और कुछ ही घंटों बाद लौट भी आई थीं. तब दीपा दीदी को बहुत बुरा लगा था, ‘‘मैं तो कार्यवश उस के साथ जाती हूं. इन्हें भला दुनिया क्या कहेगी कि विधवा हो कर एक कुंआरे लड़के के साथ…’’ उस दिन मां का गुस्से से कांपता हाथ दीपा दीदी के गाल पर चटाख से पड़ा था, ‘‘ऐसी बातें कहती है बेशर्म उस के लिए? तू अभी भी समझ नहीं पाई है उसे. मैं जानती हूं वह क्यों गई है.’’

सप्ताहभर बाद ही जब रागिनी दीदी ने घर में यह घोषणा की कि वे दीपा का विवाह अमित से करेंगी तो मझली दीदी का चेहरा आत्मग्लानि से स्याह पड़ गया था.

दीदी ने बड़े चाव और उत्साह से दीपा दीदी के साथ जा कर एकएक चीज उस की पसंद की खरीदी. अम्मा व हम सब देखते रहते. दीदी कभी बाजार जा रही हैं तो कभी क्लिनिक, कभी इधर भाग रही हैं तो कभी उधर. उन के थके चेहरे को देख कर अम्मा बोली थीं, ‘‘ऐसे तो तू चारपाई पकड़ लेगी. इतना क्यों थकती है? दीपा तो अपना सामान स्वयं खरीद कर ला सकती है.’’

‘‘उस के लिए यह दिन फिर कभी नहीं आने वाला है, मां. वह लाएगी तो ऐसे ही लोभ कर के सस्ता सामान उठा लाएगी, मैं जानती हूं इस कंजूस को.’’ दीपा दीदी के सब से अधिक फुजूलखर्च होते हुए भी दीदी ने ठीक पिताजी वाले अंदाज से कंजूस बना दिया था.

मेहमानों से घर भर गया. चारों ओर चहलपहल थी. दीदी ने सब इंतजाम कर दिए थे. सभी रिश्तेदार दीदी की प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे, ‘ऐसी बेटी के सामने तो अच्छेअच्छे लड़के भी नहीं ठहर पाएंगे.’

‘कौन लड़का करता है आजकल मां व बहनभाइयों की इतनी परवाह?’ चारों ओर यही चर्चा.

विवाह संपूर्ण रीतिरिवाजों के साथ संपन्न हो गया. विदाई का समय हो गया है. दीपा दीदी कार में अमित के पास बैठीं तो उन्होंने एक विजयभरी मुसकान लिए दीदी की आंखों में झांका. उस मुसकान से दीदी का चेहरा एक अद्भुत प्रसन्नता से खिल उठा, जिसे दीपा दीदी आजीवन समझ न पाएंगी. वह प्रसन्नता एक ऐसे खिलाड़ी की प्रसन्नता थी जो अपने साथी की जीत को खुशी प्रदान करने के लिए स्वयं अपनी हार स्वीकार कर लेता है, परंतु अपने साथी को यह विदित भी नहीं होने देता कि वह जानबूझ कर हारा है.

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दीदी : भाग 2- किस के लिए दीदी हार गईं

मां को एक दिन पापा के कान में कहते सुना था, ‘इस लड़की को आप इतनी छूट दे रहे हैं, फिर वह लड़का भी तो अपनी जातबिरादरी का नहीं है.’

‘अरे, बच्चे हैं, उन के हंसनेखेलने के दिन हैं. हर बात को गलत तरीके से नहीं लेते,’ पापा इतनी लापरवाही से कह रहे थे जैसे उन्होंने कुछ देखा ही न हो.

सचमुच पापा की मृत्यु के बाद ही दीदी ने भी अमित के प्रति ऐसा रुख अपनाया था जैसे कि कभी कुछ हुआ ही न हो. एकदम उस से तटस्थ, अमित कभी घर में आता तो दीदी को उस के सामने तक आते नहीं देखा.

दिल में आता उन्हें पकड़ कर झकझोर दूं. ‘क्या हो गया है दीदी, तुम्हें? तुम्हारे अंदर की हंसने, नाचने व गाने वाली रागिनी कहां मर गई है, पापा के साथ ही?’ विश्वास ही नहीं होता था कि यह वही दीदी हैं.

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अमित के आने में जरा सी देर हो जाती तो वे बेचैन हो उठतीं. तब वे मुझे प्यार से दुलारतीं, फुसलातीं, ‘सुधी, जा जरा अमित को तो देख क्या कर रहे हैं?’ मैं मुंह मटका कर, नाक चढ़ा कर उन्हें चिढ़ाती, ‘ऊंह, मैं नहीं जाती. कोई जरूरी थोड़े ही है कि अमित डांस देखें.’

‘देख सुधी, बड़ी अच्छी है न तू, जा चली जा मेरे कहने से. मेरी प्यारी सी, नन्ही सी बहन है न तू.’

वे खुशामद पर उतर आतीं तो मैं अमित के घर दौड़ जाती. वहीं दीदी अमित से तटस्थ रह कर चाचाजी द्वारा भेजे गए लड़कों की तसवीरों को बड़े चाव से परखतीं और अपनी सलाह देतीं. मेरे मस्तिष्क में 2 विपरीत विचारों का संघर्ष चलता रहता. क्या दीदी विवश हो कर ऐसा कर रही हैं या फिर पापा के मरते ही उन्हें इतनी समझ आ गई कि अपना जीवनसाथी चुनने के उचित अवसर पर यदि वे जरा सी भी नादानी दिखा बैठीं तो उन का पूरा जीवन बरबाद हो सकता है?

एक दिन उन के हृदय की थाह लेने के लिए मैं कह ही बैठी, ‘दीदी, क्या इन तसवीरों में अमित का चित्र भी ला कर रख दूं?’

उन्होंने अत्यंत संयत मन से मेरे गाल थपथपा दिए थे, ‘सुधी, हंसीखेल अलग वस्तु होती है और जीवनसाथी चुनने का उत्तरदायित्व अलग होता है. अमित अभी मेरा भार वहन करने योग्य नहीं है.’

तब मैं समझ पाई थी कि दीदी ने अपने बोझ से हम सब को मुक्त करने के लिए, उन के बोझ को वहन न कर सकने योग्य अमित की तसवीर को अपने मानसपटल से पोंछ दिया था.

उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से ऐसे योग्य, स्वस्थ, सुंदर व कमाऊ पति का चुनाव किया था कि सभी ने उन की रुचि की प्रशंसा की थी. दुलहन बनी दीदी जिस समय जीजाजी के साथ अपना जीवनरूपी सफर तय करने को कार में बैठीं, उन के चेहरे पर कहीं भी कोई ऐसा भाव नहीं था, जिस से किंचित मात्र भी प्रकट होता कि वे विवश हो कर उन की दुलहन बनी हैं.

उन के विदा होते ही अम्मा के घुटे निश्वासों को स्वतंत्रता मिल गई थी, ‘‘यही तो अंतर है लड़का लड़की में. बाप की सारी कमाई खर्च करवा कर चली गई. इस की जगह लड़का होता तो कुछ ही वर्षों में सहारे योग्य हो जाता.’’

उधर, दीपा दीदी का पार्ट घर में प्रमुख हो गया. पापा ने वास्तव में ही कहीं गड़बड़ की तो दोनों दीदियों के नाम रखने में. दीपा तो बड़ी दीदी का नाम होना चाहिए था जो आज भी घर के लिए प्रकाशस्तंभ हैं. दीपा दीदी तो अपने नाम का विरोधाभास हैं. उन के मन में तो अंधकार ही रहता है.

रागिनी दीदी घर से क्या गईं, मेरे लिए तो सबकुछ अंधकारमय हो गया था. अम्मा ने तो बचपन से ही मुझे प्यार नहीं दिया. अमर भैया के बाद वे मेरी जगह एक और लड़के की आशा लगाए बैठी थीं. उधर, मझली दीदी उन्हें इसलिए प्यारी थीं कि वे अमर भैया को आसमान से धरती पर हमारे घर में खींच लाई थीं. मझली दीदी समय की बलवान समझी जाती थीं, इसलिए उन्हें दीपा नाम भी दिया गया. अम्मा द्वारा रखा गया मेरा नाम ‘अपशकुनी’ है.

दीपा दीदी की आजादी दीदी के जाने के बाद प्रतिदिन बढ़ती गई और सारे घर के कार्य का बोझ मुझ पर ही लाद दिया गया. रागिनी दीदी के डांस प्रोग्राम घर पर ही होते थे. उन में हम सब की प्रसन्नता सम्मिलित थी. पर दीपा दीदी तो अधिकतर बाहर ही रहतीं. एक कार्यक्रम समाप्त होता तो दूसरे में जुट जातीं. उन्हें खूब पुरस्कार मिलते तो मां उन की प्रशंसा के पुल बांध देतीं. मुझे प्रोत्साहित करने वाला घर में कोई न था. नाचगाने से मेरा संबंध छूट कर केवल रसोईघर से रह गया. बस, कभी विवश हो जाती तो दीदी को याद कर के रोती. मन हलका हो जाता.

बाद के 5 वर्षों में मेरे लिए कुछ सहारा था तो दीदी से फोन पर बात करना. कितनी तसल्ली होती थी जब दीदी प्यार से फोन पर मुझ से बात करतीं. एक बार उन्होंने मुझ से फोन कर के कहा, ‘सुधी, मैं जानती हूं कि तू मेरे बिना कैसी जिंदगी जी रही होगी, परंतु तू धैर्य मत खोना, जिंदगी में हर स्थिति का सामना करना ही पड़ता है. उस से भागना कायरता है. मैं यह कभी सुनना नहीं चाहूंगी कि सुधी कायर है.’

सच पूछो तो दीदी का जीवन ही मेरे लिए प्रेरणास्रोत था. सब से अधिक प्रेरणा तो मुझे तब मिली जब मुझे यह पता चला कि विवाह के बाद भी दीदी अपनी पढ़ाई कर रही थीं. जीजाजी के रूप में उन्हें ऐसा जीवनसाथी मिला जो केवल पति नहीं था, बल्कि पापा की भांति उन्होेंने दीदी को संरक्षण दे कर पापा के सपने को साकार करना चाहा था.

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इंटर तक दीदी के पास साइंस तो थी ही, उन्होंने मैडिकल प्रवेश परीक्षा पास कर ली और उन्हें आगरा के मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया और वे अपनी प्रतिभा के कारण हर वर्ष एकएक सीढ़ी चढ़ती चली गईं. जीजाजी इंडियन एयरलाइंस में पायलट के पद पर कार्यरत थे. अकसर कईकई दिनों तक वे बाहर चले जाते. दीदी का समय अपनी पढ़ाई व कालेज में बीतता. कितने सुचारु ढंग से चल रहा था दीदी का जीवन.

डाक्टर बन र दीदी कालेज से निकलीं तो जीजाजी ने उस खुशी में एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया था. उस दिन जीजाजी खुशी के कारण अपने होशोहवास भी खो बैठे थे. सब के बीच दीदी को बांहों में भर कर उठा लिया था, ‘आज मुझे लग रहा है, मैं खुशी से पागल हो जाऊंगा. इसलिए नहीं कि हमारी श्रीमतीजी डाक्टर बनी हैं, बल्कि इसलिए कि हमारे दिवंगत ससुरजी की इच्छा पूर्ण हो गई है. उन की बेटी डाक्टर बन गई है. वे रागिनी को डाक्टर बनाना चाहते थे.’

सभी लोगों ने उन के हृदय की सद्भावना को देख कर तालियां बजाई थीं. दीदी लाज के मारे दोहरी हुई जा रही थीं. उस समय जीजाजी ने अमर व हम दोनों बहनों को भी बुलाया था. कितने ही ढेर सारे उपहार लिए हम प्रसन्नतापूर्वक लौट आए थे.

फिर एक घटना और घटी, कितनी अनचाही, कितनी अवांछित. जीजाजी का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो कर आग की लपटों में समां गया था, साथ ही, सभी यात्री और जीजाजी की कंचन काया भी. जिस ने भी सुना वही जड़ हो गया. अम्मा ने माथा पीट लिया. हम सब बहनभाई एकदूसरे को ताकते भर रह गए, एकदम जड़ और शून्य हो कर.

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