समलैंगिकता मिथक बनाम सच

Writer- प्रेक्षा सक्सेना

भारत में समलैंगिकता आज भी हंसीमजाक का हिस्सा मात्र है. कानून बनने के बाद भी लोग समलैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे कई मिथक हैं जिन के चलते समलैंगिक लोगों के लिए वातावरण दमघोंटू बना हुआ है.

पिछले वर्ष फरवरी में एक फिल्म आई थी, ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’. उस में समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार, समाज और मातापिता से संघर्ष करते हुए दिखाया गया था. वह कहीं न कहीं हमारे समाज की सचाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

अब जबकि समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं रही है, ऐसे में समलैंगिक लोग खुल कर सामने आ रहे हैं. पहले अपने रिश्तों को स्वीकारने में ऐसे जोड़ों को जो  िझ झक होती थी अब वह कम हुई है. कानून कुछ भी कहे पर समाज में अभी भी ऐसे जोड़ों को स्वीकृति नहीं मिली है. लोग ऐसे जोड़ों को स्वीकारने में संकोच करते हैं क्योंकि उन के मन में इन लोगों को ले कर कई प्रकार की धारणाएं और पूर्वाग्रह हैं.

मिथक- यह वंशानुगत है.

सच- समलैंगिकता वंशानुगत नहीं होती, इस के लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं. कई लोग बचपन से ही अपने मातापिता या भाईबहन पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहते हैं, इस के कारण उन की रुचि पुरुष या महिलाओं में हो सकती है और वे समलैंगिकता अपना सकते हैं. जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर भी इस की एक वाजिब वजह है. यह एक ऐसी बीमारी है जो समलैंगिकता के लिए जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें- Diwali Special: जुआ खेलना जेब के लिए हानिकारक है

इस बारे में कई थ्योरी हैं जिन के आधार पर बात की जाती है. अभी सहीसही कारणों का पता तो नहीं लग पाया है, फिर भी यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि समान सैक्स के लिए शारीरिक आकर्षण अप्राकृतिक तो नहीं है. वैसे भी, स्वभाव से मनुष्य बाइसैक्सुअल होता है. ऐसे में उस की रुचि किसी में भी हो सकती है.

डा. रीना ने बताया कि मेरे पास आने वाले जोड़ों में किसी के घर में कोई समलैंगिक नहीं था. उन के अनुसार, किसी को समलैंगिक बनाया नहीं जा सकता. समलैंगिक होना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना एक स्त्री और पुरुष के बीच का रिश्ता.

मिथक- ये लोग असामान्य होते हैं.

सच- मनोचिकित्सकों की मानें तो ये लोग आप की और हमारी तरह ही सामान्य बुद्धि के होते हैं, बस, अंतर है सैक्स की रुचि का. बाकी अगर देखा जाए तो बुद्धि इन की भी सामान्य ही होती है. भावनाओं की बात करें तो ये बहुत अधिक भावुक होते हैं, क्योंकि हर वक्त इन्हें अपने स्वीकार्य को ले कर चिंता बनी रहती है. इन के लिए विरोध की पहली शुरुआत घर से ही हो जाती है क्योंकि मातापिता और परिवार समलैंगिकता को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं.

हरेक के लिए सामान्य होने की अलग परिभाषा होती है पर समलैंगिकों की बात करें तो इन के रिश्ते में संतानोत्पत्ति सामान्य तरीके से संभव नहीं. इसलिए इस रिश्ते को समाज सामान्य नहीं मानता. वंश को आगे बढ़ाना हमारी सामाजिक सोच का हिस्सा है, जिस की पूर्ति इस से संभव नहीं, पर मनोचिकित्सकों की मानें तो यहां बात सामान्य होने की नहीं बल्कि सैक्स में उन की रुचि की है.

यदि कोई व्यक्ति समान सैक्स के प्रति आकर्षण महसूस करता है तो यह पूरी तरह सामान्य बात है. मुंबई के हीरानंदानी अस्पताल के मनोचिकित्सक डा. हरीश शेट्टी के अनुसार, अपने ही सैक्स के व्यक्ति के साथ रुचि रखना एक सामान्य बात है क्योंकि ऐसे लोगों को विपरीत सैक्स के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता.

मनोचिकित्सक कहते हैं कि एक समलैंगिकता स्वाभाविक तौर पर होती है जो खुद की चुनी हुई होती है और एक परिस्थितिजन्य होती है जिस में किसी अनजान भय, जैसे कि मैं विपरीत सैक्स वाले के साथ होने पर उसे संतुष्टि दे सकूंगा/सकूंगी या नहीं. यह छद्म समलैंगिकता है.

ये भी पढ़ें- वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

मिथक- इन्हें यौन संक्रमण ज्यादा होता है.

सच- कुछ लोगों का मत है कि सैक्सवर्कर्स, किन्नरों, नशे के इंजैक्शन लेने वाले नशेडि़यों और समलैंगिकों में एड्स व अन्य यौनजनित रोग होने की संभावना अधिक होती है. अभी कुछ समय पहले तक हमारे यहां समलैंगिकता को कानूनी रूप से मान्यता न होने के चलते समलैंगिक कपल घर बसा कर साथ नहीं रह पाते थे.

ऐसे में शारीरिक आवश्यकताओं के कारण एक से अधिक लोगों के साथ संबंध बन जाना इस का मुख्य कारण है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि एसटीडी केवल समलैंगिकों को होती है. यह तो हेट्रोसैक्सुअल लोगों में भी होती है. यौन संबंधों में सुरक्षा का खयाल न रखा जाए तो भी ऐसे रोगों का खतरा होता है. इसलिए यह एक मिथक ही है कि समलैंगिकों में सैक्सुअल ट्रांसमिटेड डिसीज ज्यादा होती हैं.

मिथक- शादी इस का हल है

सच- समलैंगिकों से जुड़ा सब से बड़ा मिथक यह है कि इन की शादी करा दी जाए तो सब ठीक हो जाएगा. जबकि, ऐसा बिलकुल भी नहीं है. कई बार मातापिता दबाव डाल कर शादी कर देते हैं, ऐसे में जिस से शादी होती है उस का जीवन तो खराब होता ही है बल्कि दूसरे का जीवन खराब करने का अपराधबोध उन के बच्चे को भी अवसादग्रस्त कर देता है.

सब मिला कर शादी इस का हल नहीं है. यदि आप के बच्चे ने आप को अपनी सैक्सुअल वरीयता के बारे में बता रखा है तो ऐसे में उस पर दबाव डाल कर शादी करने की भूल कभी न करें क्योंकि इस से 2 जीवन खराब होंगे. ऐसी शादियां सिवा असंतुष्टि के कुछ नहीं देतीं क्योंकि ऐसे लोगों में विपरीत सैक्स के प्रति कोई भावना नहीं पनप पाती. ऐसे में वह अपने साथी के साथ रिश्ते बनाने में असमर्थ होता है नतीजतन शादी टूट जाती है.

मिथक- ये वंशवृद्धि में असमर्थ होते हैं.

सच- लोग कहते हैं कि अगर ऐसी शादी होगी तो वंश का क्या होगा, क्योंकि प्राकृतिक तरीके से संतानोत्पत्ति संभव नहीं होगी, पर सच यह है कि यदि बच्चे की इच्छा है तो आजकल आईवीएफ द्वारा यह किया जा सकता है. बच्चा गोद लेना भी एक अच्छा विकल्प है. यदि ऐसा व्यक्ति जो विपरीत सैक्स के प्रति  झुकाव महसूस नहीं करता वह अपने साथी के साथ रहता है और अपना जैविक बच्चा चाहता है तो एग डोनेशन या स्पर्म डोनेशन और सरोगेसी इस का अच्छा उपाय है. मनोचिकित्सकों के अनुसार, सैक्स सिर्फ बच्चा पैदा करने का जरिया नहीं है बल्कि यह भावनात्मक लगाव दर्शाने का और अपने साथी का प्यार पाने का तरीका भी है.

Diwali Special: जुआ खेलना जेब के लिए हानिकारक है

कहते हैं जुए की लत में जर, जोरू और जमीन, सब दांव पर लग जाते हैं. महाभारत से ले कर आज के भारत में जुए की गंदी लत ने न जाने कितने घरों को बरबाद किया है, कितने घरों में अशांति फैलाई है. क्या आप भी इस की लत में सबकुछ खोने को तैयार हैं?

तीजत्योहारों पर धार्मिक रीतिरिवाजों के नाम पर कई कुरीतियां भी हम ने पाल रखी हैं, जैसे होली पर शराब और भांग का नशा करना और दीवाली पर जुआ खेलना, जिस के पीछे अफवाह यह है कि आप अपनी किस्मत और आने वाले साल की आमदनी आंक सकते हैं. दीवाली पर जुए के पीछे पौराणिक कथा यह है कि इस दिन सनातनियों के सब से बड़े देवता शंकर ने अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेला था, तब से यह रिवाज चल पड़ा.

बात सौ फीसदी सच है कि जिस धर्म के देवीदेवता तक जुआरी हों, उस के अनुयायियों को भला यह दैवीय रस्म निभाने से कौन रोक सकता है. महाभारत का जुए का किस्सा और भी ज्यादा मशहूर है जिस में कौरवों ने पांडवों से राजपाट तो दूर की बात है, उन की पत्नी द्रौपदी तक को जीत लिया था. मामा शकुनी ने ऐसे पांसे फेंके थे कि पांडव बेचारे 12 साल जंगलजंगल भटकते यहांवहां की धूल फांकते रहे थे. महाभारत की लड़ाई, जिस में हजारोंलाखों बेगुनाह मारे गए थे, के पीछे वजह यही जुआ था.

जुए के नुकसान आज भी ज्यों के त्यों हैं, फर्क इतना है कि युग, सतयुग, त्रेता या द्वापर न हो कर कलियुग है और किरदार यानी जुआरी आम लोग हैं जो पांडवों की तरह दांव पर दांव हारे हुए जुआरी की तरह लगाए चले जाते हैं लेकिन सुधरते नहीं. भोपाल के अनिमेश का ही उदाहरण लें जो पुणे में एक सौफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हैं. पिछले साल दीवाली पर लौकडाउन के चलते घर नहीं आ पाए थे, सो दीवाली अपने किराए के फ्लैट में दोस्तों के साथ मनानी पड़ी. शाम को जम कर जाम छलके, फिर रात 9 बजे के करीब प्रशांत ने जुआ खेलने का प्रस्ताव रिवाज का हवाला देते रखा तो सभी पांचों दोस्तों ने हां कर दी.

दुनिया का सब से प्रचिलित खेल ‘तीन पत्ती,’ जिस का एक और नाम फ्लैश है, शुरू हुआ तो यों ही था लेकिन खत्म यों ही नहीं हुआ. सुबह होतेहोते अनिमेष एकदो महीने की नहीं, बल्कि पूरे सालभर की सैलरी हार चुका था. 60 हजार तो नकदी गए और तकरीबन 2 लाख अनिमेश ने तुरंत औनलाइन ट्रांसफर किए, बाकी बचे और 2 लाख उस ने 6 महीनों की किस्तों में चुकाए. सालभर की बचत एक  झटके में ठिकाने लग गई.

अनिमेश बताता है कि ये सेविंग के पैसे थे, जिन से वह पापा की मदद करना चाहता था. बड़ी बहन की शादी कभी भी तय हो सकती है, इस के लिए उस ने पापा से कह रखा था कि वह 5 लाख रुपए देगा. दीदी की शादी जल्द हो जाए, यह मनाते रहने वाला यह युवा अब रोज मन्नत मांगता है कि शादी अभी तय न हो क्योंकि वह दोबारा पैसे इकट्ठे कर रहा है जिस में करीब एक साल लगेगा.

ये भी पढ़ें- वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

अफसोस उसे है, लेकिन इस बात का ज्यादा है कि उस ने पक्की रन पर बेवजह लंबी चालें चलीं जबकि सामने वाला गुलाम की ट्रेल रख कर खेल रहा था. कई रात उसे नींद नहीं आई. सोते वक्त उसे अपनी पक्की रन और प्रशांत की ट्रेल ही दिखती रही जो चाल डबल किए जा रहा था. तब जाने क्यों उसे यह सम झ नहीं आया कि सामने वाले के पास बड़ा पत्ता हो सकता है. अगली बार के लिए उस ने यह सबक नहीं लिया है कि जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जुआ नहीं खेलना है बल्कि वह सोच यह रहा है कि फड़ के पैसे फड़ से ही वसूलेगा.

अब कौन उसे बताए और सम झाए कि महाभारत के जुए में युधिष्ठिर ने भी हर बार यही सोचा था कि बस, इस बार दांव लग जाए, फिर तो पौ बारह है. युधिष्ठिर हार कर भी धर्मराज कहलाया लेकिन अनिमेश जैसे लोगों को क्या कहा जाए जो दिनरात की मेहनत से कमाया पैसा एक रात में गंवा देते हैं पर फिर भी जुए का लालच छोड़ नहीं पाते.

सिगरेट सरीखा ऐब 

इस में शक नहीं कि जुए के खेल का अपना अलग रोमांच है लेकिन यह लत या शौक लगता कैसे है, इस सवाल का जवाब बहुत साफ है कि अधिकतर घरों में दीवाली का जुआ एक तरह से मान्य है. बच्चे हर साल बड़ों को रोशनी के इस त्योहार के दिनों में बड़े चाव से जुआ खेलते देखते हैं तो उन में भी जिज्ञासा पैदा हो जाती है और वे इस खेल के दांवपेंच भी जल्द सीख जाते हैं. बड़े होने पर होस्टल या अपने ही शहर की किसी फड़ पर वे भी भविष्य आजमाने लगते हैं.

यह बिलकुल सिगरेट की लत जैसा काम है जिस का पहला कश चोरीछिपे लिया जाता है. फिर धीरेधीरे यह आदत और फिर लत बन जाती है. चूंकि बड़े खुद गलत होते हैं, इसलिए बच्चों को यह कहते रोक नहीं पाते कि यह गलत है. गलत कहेंगे तो बच्चे के इस सवाल का जवाब वे नहीं दे पाएंगे कि अगर गलत है  तो फिर आप क्यों खेलते हो.

अनिमेष का कहना है कि जब वह छोटा था तो पापा लंबी ब्लाइंड के बाद उस से ही पत्ते खुलवाते थे. इस के पीछे उन का अंधविश्वास यह था कि बच्चा पत्ते खोलेगा तो सामने वाले से बड़े ही निकलेंगे. कभीकभार ऐसा हो भी जाता था तो उन का अंधविश्वास और गहरा जाता

था और अगर हार जाते थे तो समय को कोसते अगली चाल का इंतजार करने लगते थे.

भाग्यवादी और अंधविश्वासी बनाता जुआ

जैसे सिगरेट के नुकसान जानते हुए भी लोग स्मोकिंग करते हैं वैसा ही हाल जुए का है. लोग इस के नुकसान जानते हैं लेकिन इस के भी कश चाल की शक्ल में लगाते जाते हैं. एक हकीकत अनिमेश के उदाहरण से साबित भी होती है कि जुआ शुद्ध भाग्य और अंधविश्वास को पालतापोसता खेल है. अनुमान लगाना सहज मानवीय स्वभाव है. लेकिन हर अनुमान को सच होते देखना निरी बेवकूफी है. जुआ पूरी तरह अनुमान आधारित खेल है, इसलिए इस में रोमांच है.

लेकिन रोमांच से ज्यादा रोल किस्मत नाम की चीज का है जिस की आड़ ले कर इस की लत लगती है. लक्ष्मी अगर पूजा करने से आती होती तो देशदुनिया में कोई गरीब न होता. ठीक इसी तरह अगर किस्मत जुए से चमकती होती तो देश के कोई 30-40 करोड़ लोग बड़े भाग्यवान होते जो दीवाली की रात बतौर रस्म और बतौर लत जुआ खेलते हैं.

ये भी पढ़ें- नारी हर दोष की मारी

जुआ लोगों को विकट का अंधविश्वासी भी बना देता है जो बुजदिली का दूसरा नाम है. जैसे, क्रिकेट और टैनिस सहित दूसरे खेलों के खिलाडि़यों के अपने मौलिक अंधविश्वास होते हैं कि कोई बल्ला उलटा पकड़ कर मैदान में आता है तो कोई बाएं पैर में पैड पहले बांधता है. इसी तरह जुआरियों के तो लाखों तरह के अंधविश्वास होते हैं. मसलन, कोई मन में गायत्री मंत्र बुदबुदा रहा होता है तो कोई पत्तों को उठाने से पहले उन्हें चूमता है तो कोई पहले उंगलियां चटका कर पत्ते खोलता है.

अब तो इस अंधविश्वासी मानसिकता पर बाकायदा बिजनैस भी करने वाले दुकान खोल कर धंधा करने लगे हैं. जुए में जीतने की शर्तिया तावीज बिकने लगी हैं तो  कहीं सिद्ध बंगाली टाइप बाबा तांत्रिक क्रियाएं कर जुए में जितवाने की गारंटी लेने लगे हैं.

कोई गुरुजी सौ से ले कर 10 हजार रुपए तक जुए में जीतने का मंत्र बताने लगा है तो कई तो शकुनी की तरह कौड़ी यानी ताश के पत्ते भी सिद्ध कर देने लगे हैं. यह बकबास जुआरियों की अंधविश्वासी मानसिकता पर खूब फलफूल रही है. बस, बाजार में जुए का व्रत आना ही बाकी रह गया है कि इस अमावस या पूर्णिमा यह धूत व्रत रखो तो जीत पक्की है.

कैसे बचें 

जुए की महिमा अपरंपार है जिस में जुआरी घंटों प्राकृतिक जरूरतों को दबाए बड़ी लगन से बैठा रहता है. लगातार हारते रहने के बाद भी उस की बुद्धि काम नहीं करती और जीत की उम्मीद में वह बहुतकुछ दांव पर लगा देता है. यह सोचना भी बेमानी है कि जो जीतते हैं, वाकई लक्ष्मी उन पर मेहरबान होती है और वे पैसे का सही इस्तेमाल करते हैं.

जीता हुआ पैसों को फुजूलखर्ची और गलत कामों में लगाता है क्योंकि उसे भी यह एहसास रहता है कि यह पैसा उस ने मेहनत से नहीं कमाया बल्कि जुए में जीता है. अनिमेश से जीतने के बाद प्रशांत ने कोई एक लाख रुपए तो शराबकबाब की पार्टियों में ही उड़ा दिए थे.

अब लाख टके का सवाल यह कि जुए से बचा कैसे जाए? इस के लिए कोई उपाय ढूंढ़ना मुश्किल है सिवा इस के कि दीवाली का कीमती वक्त अपनों के साथ आतिशबाजी चलाते और तरहतरह के पकवान खाते मनाया जाए. किसी फड़ पर जा कर जुआ खेलना एक बड़ा जोखिम वाला काम भी है. अगर पुलिस के छापे में पकड़े गए तो इज्जत तो मिट्टी में मिल ही जाती है, साथ ही 2-3 साल कोर्टकचहरी के चक्कर काटना उस से भी ज्यादा तकलीफदेह तजरबा साबित होता है.

दीवाली का जुआ सिर्फ दीवाली की रात ही नहीं होता, बल्कि 15 दिनों पहले से शुरू हो कर 15 दिन बाद तक चलता है और जो लोग फड़ का आयोजन करते हैं वे पहले से ही माहौल बनाना यानी उकसाना शुरू कर देते हैं कि क्या यार, साल में एक ही तो मौका आता है किस्मत आजमाने का और अगर दोचार हजार हार भी गए तो कोई कंगाल तो नहीं हो जाओगे. तुम तो किस्मत वाले हो, हो सकता है जीत  ही जाओ.

इस तरह की बातों और इस तरह की बातें बनाने वालों से दूर रहना ही बचाव है. नहीं तो जेब खाली होनी तय है. सिगरेट का पहला कश ही उस की लत की शुरुआत होती है. यही थ्योरी जुए पर भी लागू होती है कि एक बार फड़ पर बैठ गए तो पांडव बनने में देर नहीं लगती. इस के बाद भी मन न माने तो शंकर की तरह अपनी पार्वती के साथ जुआ खेलें. इस से घर का पैसा घर में तो रहेगा.

वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

हमारे शास्त्रों और सामाजिक व्यवस्था ने वर्जिनिटी यानी कौमार्य को विशेष रूप से महिलाओं के चरित्र के साथ जोड़ कर उन के लिए अच्छे चरित्र का मानदंड निर्धारित कर दिया है.

हमारे समाज में वर्जिनिटी की परिभाषा इस के बिलकुल विपरीत है. दरअसल, समाज और शास्त्रों के अनुसार इस का अर्थ है कि आप प्योर हैं. हम किसी चीज या वस्तु की प्युरिटी की बात नहीं कर रहे हैं वरन लड़की की प्युरिटी की बात कर रहे हैं. लड़की की वर्जिनिटी को ही उस की शुद्धता की पहचान बना दी गई है. लड़कों की वर्जिनिटी की कहीं कोई बात नहीं करता. बात केवल लड़कियों की वर्जिनिटी की करी जाती है.

आज भी कई जगह वर्जिनिटी टैस्ट के लिए सुहाग रात को सफेद चादर बिछाई जाती है. 2016 में महाराष्ट्र के अहमद नगर में खाप पंचायत के द्वारा लड़के द्वारा लड़की को जबरन वर्जिनिटी टैस्ट के लिए विवश किया गया और जब लड़की इस में फेल हुई तो दोनों को अलग करने के लिए सामदामदंडभेद सबकुछ अजमाया गया, परंतु लड़के ने हार नहीं मानी और कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां से उसे न्याय मिला.

वर्जिन नहीं तो जिंदगी नर्क

समाज में न जाने इस तरह के कितने मामले हैं, जिन में लड़कियों का जीवन इसलिए नर्क बन जाता है, क्योंकि वे लड़की वर्जिन नहीं होतीं शादी से पहले उन्होंने किसी के साथ संबंध इच्छा या अनिच्छा से बनाया हो, इसी वजह से उन्हें कैरेक्टरलैस और बदचलन मान लिया जाता है.

डा. ईशा कश्यप कहती हैं कि वर्जिनिटी को ले कर हमारा समाज बहुत छोटी सोच रखता है. जिस के कारण आज भी लड़कियों की स्थिति काफी दयनीय है. यहां तक कि कई बार तलाक तक हो जाता है और लड़की की आवाज को अनसुना कर दिया जाता है.

कल्याणपुर की नलिनी सिंह का कहना है कि आज भी अगर लड़की वर्जिन नहीं है तो शादी के बाद उसे उस के पति और समाज की घटिया सोच का शिकार होना पड़ता है.

ये भी पढ़ें- नारी हर दोष की मारी

इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा अखिला पुरवार ने कहा कि जब लड़कों की वर्जिनिटी कोई माने नहीं रखती तो फिर लड़कियों की वर्जिनिटी को ले कर इतना बवाल क्यों?

हम सब अपने को चाहे कितना मौडर्न कह लें, लेकिन अपनी सोच में बदलाव नहीं ला पा रहे हैं. यदि वर्जिनिटी पर सवाल उठाना ही है तो पहले लड़के की वर्जिनिटी पर सवाल उठाना होगा क्योंकि वह किसी भी समय किसी भी लड़की को शिकार बना कर उस की वर्जिनिटी को जबरदस्ती भंग कर देता है. लेकिन जब शादी का सवाल आता है तो वह किसी लड़की को अपना जीवनसाथी बनाने के पहले उस के चरित्र पर बदचलन का दाग लगाने में एक पल भी नहीं लगता है.

धार्मिक बातों में विरोधाभास

हिंदू धर्म में परस्पर विरोधी बातें कही गई हैं. एक ओर तो कुंआरी कन्या को देवी मानते हुए कंजिका पूजन की प्रथा का आज भी चलन है. सामान्यतया सभी परिवारों में नवरात्रि में छोटी कन्या को भोजन और भेंट देने का रिवाज है. दूसरी ओर शास्त्र, पुराण, रामायण, महाभारत सभी समवेत स्वर में कहते हैं कि स्त्री आजादी के योग्य नहीं है या वह स्वतंत्रता के लिए अपात्र है.

मनु स्मृति में तो स्पष्ट कहा है-

‘पिता रक्षंति कौमारे, भर्ता रक्षित यौवने

रक्षंति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र महेति’ (मनुस्मृति 9-3)

स्त्री जब कुमारी होती है तो पिता उस की रक्षा करते हैं, युवावस्था में पति, वृद्धावस्था में पति नहीं रहा तो पुत्र उस की रक्षा करता है. तात्पर्य यह है कि जीवन के किसी भी पड़ाव पर स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है. बात केवल मनुस्मृति तक सीमित नहीं है, महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में इस की पुष्टि करते हुए कहा है कि स्वतंत्र होते ही स्त्री बिगड़ जाती है.

‘महावृष्टि चलि फूटि कियारी जिमि भये बिगरहिं नारी’

महाभारत में भी कहा गया है कि पति चाहे बूढ़ा, बदसूरत, अमीर या गरीब हो, परंतु स्त्री के लिए वह उत्तम आभूषण होता है. गरीब, कुरूप, निहायत बेवकूफ या कोढ़ी हो, पति की सेवा करने वाली स्त्री को अक्षय लोक की प्राप्ति होती है.

मनुस्मृति में स्पष्ट है कि पति चरित्रहीन, लंपट, अवगुणी क्यों न हो साध्वी स्त्री देवता की तरह उस की सेवा करे वाल्मीकि रामायण में भी इसी तरह का उल्लेख है.

हिंदुओं का सब से लोकप्रिय महाकाव्य ऐसी स्त्री को सच्ची पतिव्रता मानता है, जो स्वप्न में भी किसी परपुरुष के बारे में न सोचे. तुलसी दासजी यहां भी नहीं रुके. उन्होंने उसी युग को कलियुग कह दिया, जब स्त्री अपने सुख की कामना करने लगती है.

ये भी पढ़ें- पत्नी की सलाह मानना दब्बूपन की निशानी नहीं

इन्हीं धार्मिक मान्यताओं के प्रभाव से आज हमारे समाज में विवाह से पूर्व कौमार्य का भंग होना बेहद शर्मनाक माना जाता है.

इसी यौनशुचिता की रक्षा में हमारा न सिर्फ पूरा बचपन और कैशोर्य कैद कर दिया जाता है वरन हमारी बुनियादी आजादी भी हम सब से छीन ली जाती है.

क्यों बुना गया यह जाल

वर्जिनिटी को बचाने का सारा टंटा सिर्फ इसलिए है कि महिलाएं अपने पति को यह मानसिक सुख दे सकें कि वही उन के जीवन का पहला पुरुष है. यह वही है, जिस के लिए आप ने स्वयं को सालों तक दूसरे लड़कों और पुरुषों से बचा कर रखा है.

शादी से पहले लड़कियों को हजारों तरह के निर्देश दिए जाते हैं कि यहां नहीं जाओ, उस से मत मिलो, लड़कों से दूरी बना कर रखो, उन से दोस्ती मत करो, रिश्तेदारों के यहां अकेले मत जाओ, शाम से पहले घर लौट आना आदिआदि. ये सारे प्रतिबंध सिर्फ कौमार्य की रक्षा को दिमाग में रख कर ही लगाए जाते हैं.

सूरत की असिस्टैंट प्रोफैसर कहती हैं कि हम यह भी कह सकते हैं कि वर्जिनिटी हमारी है, लेकिन हमारी हो कर भी हमारे लिए नहीं है. इसलिए आजकल लड़कियों का कहना है कि जब यहां हमारे लिए है ही नहीं तो इसे बचाने का क्या फायदा?

हालांकि आज 21वीं सदी में वर्जिनिटी को बचाए रखने का चलन अब फुजूल की बात होती जा रही है, परंतु आज भी ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है, जो इसे कुछ भी न मानते अपनी वर्जिनिटी तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पातीं हैं. इन में से कुछ के आड़े अपने संस्कार की हैवी डोज या फिर अगर किसी को पता चल गया तो क्या होगा? या कई बार सही मौका नहीं मिल पाना भी इस की वजह बन जाता है.

वैसे अच्छी बात यह हो गई है कि अब लड़कियां उन्हें बुरा नहीं मानती, जिन्होंने अपनी मरजी से वर्जिनिटी खोने को चुना है.

मार्केटिंग प्रोफैशनल इला शर्मा बीते कई सालों से मुंबई में रहती हैं. वे कहती हैं कि यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, जिस पर इतना बवाल मचाया जाए. यदि लड़के वर्जिन लड़की चाहते हैं तो उन्हें भी पहले अपनी वर्जिनिटी को संभाल कर रखना चाहिए. लड़कियों की वर्जिनिटी के लिए पूरा समाज सजग है और सब यही चाहते हैं कि लड़कियां वर्जिन ही रहें, लेकिन लड़कों के बारे में ऐसा नहीं सोचा जाता. मु झे समाज के इस दोहरे पैमाने से बहुत तकलीफ होती है.

मगर वर्जिनिटी को ले कर मुखर निशा सिंह एक चौंकाने वाली बात कहती हैं कि आप यह कैसे मान सकते हैं कि 1-2 सैंटीमीटर की कोई नाजुक सी  िझल्ली, 5 फुट की लड़कियों के पूरे अस्तित्व पर भारी पड़ सकती है? यह सुनने में अजीब सा लगता है, परंतु अफसोस कि सच यही है. एक पतली सी  िझल्ली जिसे विज्ञान की भाषा में ‘हाइमन’ कहा जाता है, हम लड़कियों के पूरे अस्तित्व को किसी भी पल कठघरे में खड़ा कर सकती है.

निशा कहती हैं कि उन की उम्र 40 साल होने जा रही है, लेकिन वे आज भी वर्जिन हैं. कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि इतने सालों से घर से बाहर रहने के बावजूद दिमाग की कंडीशनिंग काफी हद तक वैसी ही है. सच तो यह है कि कई बार अपने को आजाद छोड़ने के बाद भी अपने को सहज या नौर्मल नहीं पाती हूं. मु झे लगता है कि मेरे संस्कार और मांपापा का भरोसा तोड़ने से जुड़े अपराधबोध के डर से ही मैं आज तक चाहेअनचाहे वर्जिन हूं.

नोएडा की एक विज्ञापन कंपनी में काम करने वाली नीलिमा घोष वर्जिनिटी पर महिलाओं की सोच की थोड़ी स्पष्ट तसवीर दिखाती हैं कि मु झे लगता है कि लड़के चाहते तो हमेशा यही हैं कि उन की पत्नी वर्जिन हो, अगर नहीं हो तो भी चल जाता है. यह चला लेना ही बताता है कि अंदर ही अंदर लड़कों को इस बात से फर्क पड़ता है, इसलिए उन्हें सच बताना आफत मोल लेना है. इसलिए पति हो या बौयफ्रैंड से  झूठ बोलना ही ज्यादा सही है वरना इस बात को ले कर किसी भी समय कोई भी सीन क्रिएट कर सकते हैं. इसलिए अपने सुखी भविष्य के लिए  झूठ बोलना ही अकलमंदी है.

ये भी पढ़ें- जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

मौडर्न को भी वर्जिन की चाह

वैसे तो आज के समय में सम झदार लोगों के लिए वर्जिनिटी का कोई मतलब नहीं रह गया है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि आज भी यदि किसी वजह से कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खो चुकी है तो लोगों के लिए ‘खेली खाई’ है और वह सर्वसुलभ है. उस के लिए लोगों का सोचना होता है कि जब एक बार किसी के साथ मजे ले चुकी है तो फिर दूसरों के साथ भला क्या दिक्कत है.

तलाकशुदा महिलाएं अकसर इस की शिकार होती हैं. मेरठ के एक प्राइवेट स्कूल की अध्यापिका बुलबुल आर्य कहती हैं कि मु झे लगता है कि कई लोग यह सोचते हैं कि मैं उन के लिए आसानी से उपलब्ध हूं. उन की तरफ से ऐसा कोई भी इशारा पाए बिना ही सब यह मान कर चलते हैं कि शादी के बाद मैं सैक्स की हैबिचुअल हो चुकी हूं और अब पति मेरे साथ नहीं हैं, इसलिए वे इस कमी को पूरी करने के लिए आतुर रहते हैं.’ ऐसी सोच मेरे लिए बहुत डिस्गस्टिंग है कि सिर्फ मेरी वर्जिनिटी खत्म होने से मैं उन सब के लिए उपलब्ध लगती हूं.

बुलबुल जैसी लड़कियों के लिए व्यक्तिगत रूप से वर्जिनिटी कोई बड़ा मुद्दा न होते हुए भी बड़ा हो जाता है.

यौनशुचिता को ले कर चली आ रही सोच का पोषण करते हुए विज्ञान ने हाइमन की सर्जरी जैसे उपायों को भी चलन में ला दिया है. यद्यपि अपने देश में यह अभी शुरुआती दौर में है और काफी महंगी भी है, परंतु यह इशारा करता है कि हम विवाहपूर्व भी अपनी सैक्सुअल लाइफ को जीना और ऐंजौय करना चाहती हैं. लेकिन अपनी ‘अच्छी लड़की’ वाली इमेज कभी नहीं टूटने नहीं देना चाहती हैं ताकि पति की तरफ से वर्जिन पत्नी को मिलने वाली इज्जत और प्यार मिल सके.

समाज की गंदी सोच

वास्तविकता यह है कि वर्जिनिटी के सवाल पर हम सुविधा में हैं. वर्जिनिटी पर हम एक ही समय पर 2 तरह से सोचते हैं. एक ओर तो ऐसे सभी कैरेक्टर सर्टिफिकेट्स को चिंदीचिंदी कर के फाड़ कर फेंक देना चाहते हैं, जिन्हें वर्जिनिटी जारी करती है और दूसरी तरफ हम खुद ही चाहेअनचाहे उसे बचा कर रखना चाहते हैं. हमारा समाज और हम सभी अभी भी इस सोच से ग्रस्त हैं कि वर्जिनिटी खो चुकी लड़कियां गंदी होती हैं.

मांबाप अपनी बेटियों को विवाहपूर्व यौन संबंधों से बचाने के लिए अकसर ‘हम तुम पर बहुत भरोसा करते हैं.’ जैसे भावनात्मक हथियार का प्रयोग करते हैं. ऐसे में यदि कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खत्म करती भी है तो वह अपने मांबाप का भरोसा तोड़ने के अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती है.

वैसे अब लड़कियों में यह चाह तो जगने लगी है कि जैसे लड़कों के लिए वर्जिनिटी खोना कोई मसला नहीं है वैसे ही लड़कियों के लिए भी न हो, परंतु अभी तो बहुत कोशिशों के बाद भी हमारा समाज इस मसले पर सहज नहीं है. बस अब इस पर होने वाले बवाल से बचने के लिए लड़कियां  झूठ बोलने में अवश्य सहज हो गई हैं.

इस संदर्भ में ‘पिंक’ मूवी का उल्लेख करना चाहूंगी जो स्त्री की यौनस्वतंत्रता के प्रति समाज की मानसिकता को जगाने का प्रयास करती है.

देह उपयोग को ले कर स्त्री की अपनी इच्छाअनिच्छा को भी उसी अंदाज में स्वीकार करना होगा जैसेकि पुरुष की इच्छाअनिच्छा को समाज सदियों से स्वीकार करता आ रहा है. इस विचार से ‘पिंक’ एक फिल्म नहीं वरन एक मूवमैंट?? है. यदि स्त्री को अपने अधिकार के लिए लड़ना है तो आवश्यक है कि समाज में माइंड सैट बदलना होगा.

समाज की धारणा को बदलने के लिए पहले स्त्री को स्वयं अपनी सोच को बदलने की आवश्यकता है.  \

‘‘हम सब अपने को चाहे कितना मौडर्न कह लें, लेकिन अपनी सोच में बदलाव नहीं ला पा रहे हैं. यदि वर्जिनिटी पर सवाल उठाना ही है तो पहले लड़के की वर्जिनिटी पर सवाल उठाना होगा क्योंकि वह किसी भी समय किसी भी लड़की को शिकार बना कर उस की वर्जिनिटी को जबरदस्ती भंग कर देता है…’’

‘‘वैसे तो आज के समय में सम झदार लोगों के लिए वर्जिनिटी का कोई मतलब नहीं रह गया है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि आज भी यदि किसी वजह से कोई लड़की अपनी वर्जिनिटी खो चुकी है तो लोगों के लिए ‘खेली खाई’ है और वह सर्वसुलभ है…’’

नारी हर दोष की मारी

लेखक- रोचिका अरुण शर्मा

आज भी स्त्रियों के लिए सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएं जैसे उन्हें निगलने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं. कई योजनाएं बनती हैं, लेख लिखे जाते हैं, कहानियां गढ़ी जाती हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं और सब से खास प्रतिवर्ष महिला दिवस भी मनाया जाता है. किंतु हकीकत यह है कि घर की चारदीवारी में महिलाएं बचपन से ले कर बुढ़ापे तक समाज एवं धर्म की मान्यताओं में बंधी कसमसा कर रह जाती हैं.

कुंआरी लड़की एवं विधवा दोष

कुछ महीने पहले की ही बात है  झुन झुनवाला की 25 वर्षीय बिटिया के विवाह की बात चल रही थी, लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था. लेकिन फिर बात आगे न बढ़ सकी, जब  झुन झुनवाला से पूछा गया कि मिठाई कब खिला रही हैं तो कहने लगीं, ‘‘क्या करें हम तो तैयार बैठे हैं मिठाई खिलाने के लिए पर बिटिया की कुंडली में ही दोष है, कोई रिश्ता बैठता ही नहीं.’’

कैसे दोष? पूछने पर कहने लगीं कि लड़के वालों ने पंडितजी को दिखाई थी बिटिया की कुंडली, कहने लगे कुंडली में ग्रहों की स्थिति बताती है कि बिटिया का विधवा योग है. विवाह के कुछ बरसों पश्चात ही वह विधवा हो जाएगी. तो भला कौन अपने लड़के को हमारी बिटिया से ब्याहेगा? उन के माथे पर चिंता की लकीरें गहरा गई थी.

अनब्याही में मांगलिक दोष

पुणे में रहने वाली स्मिता कहती हैं कि उन का विवाह बड़ी उम्र में हुआ, क्योंकि कुंडली में मांगलिक दोष था. कहा जाता है कि मांगलिक दोष वाली युवती के ग्रह मांगलिक दोष वाले पुरुष से मिलने चाहिए तभी विवाह का सफल होना संभव है अन्यथा या तो दोनों में से एक की मृत्यु हो जाती है या फिर तलाक. कुल मिला कर किसी भी कारण से विवाह असफल ही रहता है. ऐसे में अकसर मांगलिक युवतियां बड़ी उम्र तक कुंआरी रह जाती हैं या फिर इस मंगल दोष को हटाने के लिए पूजा एवं समाधान बताए जाते हैं, उन कार्यों को संपन्न करने पर ही ऐसी युवतियों का विवाह होता है. बढ़ती उम्र तक यदि विवाह न हो तो समाज ताने देने से नहीं चूकता.

तलाकशुदा स्त्री

हैदराबाद में रहने वाली संजना का अपने पति से विवाह के करीब 5 वर्ष बाद 30 की उम्र में ही तलाक हो गया था. उस  समय उन का बेटा था जिसे संजना ने अपने पास ही रखा. तलाक के कुछ वर्षों बाद उन के पति ने तो पुनर्विवाह कर लिया, किंतु संजना अब 50 वर्ष की हैं और एकाकी जीवन जी रही हैं. वैसे तो वे स्वयं आईटी इंडस्ट्री में कार्यरत हैं सो आर्थिक स्थिति अच्छी ही है फिर भी जब उन से पुनर्विवाह के बारे में पूछा गया तो कहने लगीं, ‘‘अब इस उम्र में कौन करेगा मु झ से विवाह और जब जवान थी तब एक बच्चे की मां से कौन करता विवाह? कोई दूसरे के बच्चे की जिम्मेदारी लेता है भला?’’

इस तरह के न जाने कितने मामले देखने को मिल जाएंगे जिन में लड़की में दोष बता कर उसे एकाकी, पाश्चिक या निम्न स्तर की जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया जाता है.

ये  भी पढ़ें- कथित धर्म ध्वजा वाहक राम रहीम की “उम्र कैद का संदेश”

विधवा स्त्री

इसी तरह एक मामला देखने को मिला जिस में एक पढ़ीलिखी, सुंदर, स्मार्ट महिला के पति की कम उम्र में मृत्यु हो गई. क्योंकि पति सरकारी नौकरी में थे, महिला को उन की मृत्यु के पश्चात अच्छी रकम मिली. महिला का एक नवजात बेटा भी था.

किसी कारणवश महिला को ससुराल वालों का सपोर्ट नहीं मिली तो वह मायके में रहने लगी. मायके में भाईभाभी की नजर में वह खटकती. यह देख कर उस के मातापिता ने पढ़ालिखा अच्छा कमाने वाला तलाकशुदा पुरुष देख कर उस का पुनर्विवाह कर दिया. कुछ समय तो ठीकठाक चला, किंतु फिर अकसर महिला के बच्चे को ले कर पतिपत्नी में अनबन रहने लगी. सास की नजर महिला के पहले पति की मृत्यु उपरांत प्राप्त धनराशि पर रहती. अब जब घर में कुछ  झगड़ा होता, बारबार महिला को ताना दिया जाता कि एक तो विधवा वह भी एक बच्चे की मां से विवाह किया. रोजरोज के  झगड़ों एवं तानों से परेशान हो इस महिला ने स्वयं ही अपने दूसरे पति से तलाक ले लिया.

अब यहां सोचने वाली बात यह है कि वह विधवा हुई उस में उस का क्या दोष? बच्चा भी नाजायज नहीं? उस के पति से संबंध के फलस्वरूप हुआ जबकि दूसरा पति तो तलाकशुदा था, हो सकता है उसी का या उस के परिवार का व्यवहार बुरा रहा हो जिस के चलते उस की पहली पत्नी से उस का तलाक हुआ हो. लेकिन बारबार महिला को विधवा होने का दोष देना कहां तक उचित है?

इस मामले में तो पढ़ीलिखी स्मार्ट महिला थी सो पुनर्विवाह हुआ और न जमने पर उस ने तलाक ले लिया. यदि यहां गांव की, मजबूर, कम पढ़ीलिखी, आर्थिक रूप से कमजोर स्त्री होती तो उस की दुर्दशा होनी तय थी.

सशक्त वीरांगना

इसी तरह का एक और महिला का उदाहरण है जिस में महिला का पति फौज में था और शहीद हो गया. नवविवाहित महिला पढ़ीलिखी है, उस का एक बच्चा भी है. उसे अपने पति के बदले में नौकरी मिल गई सो वह आर्थिक रूप से सशक्त रही. एक बच्चा था जिसे उस ने बड़ी ही लगन और मेहनत से पालपोस कर बड़ा किया.

किंतु समस्या तब आती जब सबकुछ होते हुए भी वह एकाकी जीवन जीती. मन कहीं रमणीय स्थल पर घूमने जाना चाहता है, क्योंकि कम उम्र में पति शहीद हुए, सुखद वैवाहिक जीवन के सपने तो उस ने भी देखे थे, वह भी अच्छे वस्त्र पहन कर अपने पति की बांहों में बांहें डाले किसी फिल्मी अभिनेत्री की तरह घूमनाफिरना चाहती थी, तसवीरें खिंचवाना चाहती थी.

सोशल मीडिया का जमाना है. अपनी तसवीरें वह भी दूसरों के साथ शेयर करना चाहती थी. किंतु पति के न रहने पर वह किस के साथ घूमेफिरे? कैसे खुशियां बटोरे? यदि उम्र ज्यादा होती तो शायद वह इस जीवन को जी चुकी होती, उस के शौक पूरे हुए होते, किंतु बच्चा छोटा होने से वह अकेली तो पड़ ही गई. सो मन मान कर जीने पर मजबूर हो गई. क्योंकि ऐसे में न तो कोई रिश्तेदार और न ही कोई मित्र अपने परिवार में किसी अन्य का दखल पसंद करता है और न ही कोई उस की जिम्मेदारी लेना चाहता है.

ये भी पढ़ें- वर्जिनिटी: टूट रही हैं बेडि़यां

परित्यक्त स्त्री

ऐसा ही एक उदाहरण है परित्यक्त स्त्री का जिसे उस के पति ने  झगड़ा कर घर से निकाल दिया. उस की 5 वर्षीय बेटी भी मजबूरन उस के साथ अपने ननिहाल में आ गई. वह महिला अपने मायके में आ कर नौकरी करने लगी. मातापिता ने सोचा आखिर कब तक वह उसे सहारा देंगे? उन की भी तो उम्र बढ़ती जा रही है. सो उन्होंने उस की बेटी को ददिहाल भेज दिया, सोचा कि बेटी के लिए मां की आवश्यकता पड़ेगी तो ससुराल वाले उसे बुला लेंगे. किंतु ऐसा नहीं हुआ, बल्कि उस महिला के मातापिता ने उस का तलाक करवाया और एक ऐसे पुरुष से विवाह कर दिया जिस की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और उस के 2 बच्चे व मरणासन्न बूढ़ी मां थी.

यह विवाह तो हो गया, किंतु क्या वह महिला इस विवाह में अपनी बेटी को अपने साथ नहीं रख सकती? जब वह अपने दूसरे पति के बच्चे पालती होगी तो क्या उसे अपनी बेटी याद नहीं आती होगी? क्या उस 5 वर्षीय बच्ची के साथ अन्याय नहीं हुआ?

जबकि महिला के दोनों पति तो अपनी जिंदगी आराम से जीते रहे. इस केस में मु झे महसूस होता है दूसरे विवाह के समय उस महिला को पत्नी का नहीं अपितु परिचारिका का दर्जा दिया गया था वरना उस की बेटी को भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए था. इस से मांबेटी बिछड़ती नहीं.

कुंडली में दोष एवं उपाय

कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि लड़की की कुंडली में दोष बताया जाता है फिर किसी न किसी पूजा, यज्ञ, हवन के माध्यम से उसे दोषमुक्त किया जाता है. तब कहीं जा कर उस के विवाह की बात आगे बढ़ती है.

इसी तरह विधवा महिलाओं के लिए कई मान्यताएं एवं धारणाएं तय कर दी गई हैं जो उन के जीवन को अति निम्न स्तर का, नारकीय एवं पाश्चिक बना देती हैं. किसी भी स्त्री का विधवा होना किसी अभिशाप से कम नहीं है.

वैदिक ज्योतिष कुंडली के अनुसार विवाह, वैवाहिक जीवन एवं विवाह की स्थिति के लिए सप्तम भाव का अध्ययन किया जाता है. इस के अनुसार किसी स्त्रीपुरुष के विवाह के बाद वैवाहिक जीवन में आने वाली स्थितियों का अध्ययन किया जा सकता है. इन भावों के स्वामियों से संबंध बनाना वैवाहिक जीवन के सुखों में कमी करता है.

सप्तम भाव के अध्ययन के अनुसार इस भाव में मंगल एवं पाप ग्रहों की स्थिति कन्या की कुंडली में होने पर विधवा योग बनते हैं.

ये भी पढ़ें- जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

विभिन्न भावों, कुंडली में चंद्रमा के स्थान व राहू की दशा के अनुसार कन्या का निश्चित रूप से विधवा होना तय है.

कुछ कुंडली दोष कहते हैं कि स्त्री विवाह के उपरांत 7-8 वर्ष के अंदर विधवा हो जाती है. लग्न एवं सप्तम दोनों में पाप ग्रह हो तो स्त्री के विवाह के 7वें वर्ष में पति का देहांत हो जाता है.

इस तरह के अनेक योग व दशा ज्योतिषियों द्वारा समयसमय पर लिखी व कही गई हैं और अब तो यह जानकारी इंटरनैट पर भी उपलब्ध है.

सिर्फ इतना ही नहीं इस तरह की जानकारी के साथ विभिन्न शहरों में रहने वाली महिलाओं के नाम के साथ उन के कुंडली दोष व विधवा होने की स्थिति का जिक्र भी किया गया है ताकि लोग उसे सत्य मान कर स्वीकार करें और कुंडली में भरोसा करें.

इन सब के अलावा इंटरनैट पर मेनका गांधी एवं सोनिया गांधी की कुंडली का जिक्र किया गया है और यह भी बताया गया है कि उन की कुंडलियों के अध्ययन से पता चलता है कि कितनी कम उम्र में उन्हें वैधव्य प्राप्त होगा और वह हुआ भी. साथ ही यह भी लिखा गया है कि यदि शनिमंगल का उपाय कर लिया जाए तो वैधव्य योग टल सकता है.

विधवा स्त्री के लिए विधवा व्रत

शास्त्रों में जिस तरह स्त्री के लिए पविव्रत धर्म है उसी प्रकार विधवा स्त्री के लिए विधवा व्रत का विधान है जिस में विधवा को किस तरह का जीवन जीना चाहिए इस के लिए मानक तय हैं:

विधवा स्त्री को पुरुषों के साथ अथवा अपने मायके में ही रहना चाहिए.

विधवा स्त्री को शृंगार, अलंकरण यहां तक कि सिर धोना भी छोड़ देना चाहिए.

विधवा स्त्री को सिर्फ एक ही समय भोजन करना चाहिए और एकादशी के दिन अन्न का पूर्ण त्याग करना चाहिए.

विधवा स्त्री को खट्टामीठा नहीं खाना चाहिए, सिर्फ साधारण खाना खाना चाहिए.

सार्वजनिक कार्यों, शुभकार्यों, विवाह, गृहप्रवेश आदि में नहीं जाना चाहिए.

विधवा स्त्री को भगवान शिव की उपासना करनी चाहिए और अपनी संतानकी देखरेख करनी चाहिए और उस के लिए व्रत करने चाहिए.

विधवा से विवाह करने वाला नर्क में जाता है.

इस के अलावा यदि कोई स्त्री विधवा नहीं है, किंतु उस का पति परदेस में रहता है तो उसे भी विधवा व्रत का विधान मानना चाहिए.

वीडियो भी उपलब्ध

कुंडली, ज्योतिष, विधवा व्रत आदि पर न सिर्फ लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऐसे वीडियो भी मिल जाएंगे जिन में बताया गया है कि विधवा स्त्री को पुनर्विवाह करना चाहिए या नहीं?

विधवा स्त्री के हाथ से कोई शुभ कार्य नहीं करवाया जाता? विधवा स्त्री को सफेद साड़ी क्यों पहनाई जाती है? घर के दोष से भी औरत हो सकती है विधवा.

स्त्री को आशीर्वाद दिया जाता है ‘अखंड सौभाग्यवती भव’’ यानी जब तक वह जीवित रहे उस का सुहाग अखंड रहे. सोचने की बात यह है कि यह आशीर्वाद पुरुष को नहीं दिया जाता, क्योंकि पुरुष तो स्त्री के न रहने पर पुनर्विवाह का हकदार है. यदि उस के 2-3 बच्चे भी हों तो भी कोई न कोई स्त्री उस से विवाह कर ही लेगी. किंतु यदि कोई स्त्री विधवा हो गई तो हमारे समाज और धर्म की मान्यताएं तो जैसे उस के मनुष्य जीवन पर ऐसा कुठाराघात करेंगी कि उस का जीना जैसे नर्क हो.

सोचने की बात यह है कि यदि पुरुष की मृत्यु हो तो उस का दोष स्त्री की कुंडली को. पति की मृत्यु की सजा उस की पत्नी को. क्या यह हमारे समाज के नियमों का दोष नहीं? क्या इस दोष का कोई उपाय नहीं होना चाहिए?

आज जहां हम एक तरफ विज्ञान में नई खोज, आविष्कार, तरक्की की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर विधवा, परित्यक्त, अविवाहित स्त्री के जीवन में सुधार की बातें क्यों दबी रह जाती हैं? क्यों ऐसी स्त्रियां घुटनभरा जीवन जीने पर मजबूर होती हैं? सिर्फ मंचों पर कार्यक्रम से कुछ नहीं होने वाला है. आवश्यकता है खुले मन से उन्हें स्वीकारने की. वे जैसी भी हैं, जिस स्थिति में हैं, इंसान वे भी हैं.

कथित धर्म ध्वजा वाहक राम रहीम की “उम्र कैद का संदेश”

एक समय में धर्म की नाव में बैठकर लाखों लोगों को भ्रमित करने वाले बाबा राम रहीम ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा और न ही उनके  किसी कथित भक्त ने सोचा  होगा कि देश दुनिया में “सच्चा डेरा” की एक समय में धूम मचाने वाले गुरमीतसिंह उर्फ बाबा राम रहीम को एक दिन उसके अपराध की सजा भी मिलेगी.

अब  ऐसा हो गया है, सीबीआई की विशेष अदालत ने बाबा राम रहीम को उम्र कैद की सजा सुना दी है अब बाबा राम रहीम के ऊपर ऐसे  प्रकरण और सजाएं हैं कि वह  जिंदगी में शायद ही कभी खुली हवा में सांस ले सकें, बाहर आ सकें और डेरा सच्चा सौदा का संचालन कर पाएंगे.

इस  विशेष रिपोर्ट में हम आपको स्वयं को सर्व शक्तिमान घोषित करने वाले बाबा राम रहीम के कुछ महत्वपूर्ण जानने योग्य तथ्य बताने जा रहे हैं.

दरअसल, एक संत और बाबा का चोला पहनने वाले कथित बाबा राम रहीम समेत 5 को उम्र कैद की सजा‌ उनके अपने सहयोगी रंजीत सिंह के हत्या केस में  पंचकूला की विशेष सीबीआई कोर्ट ने  सुनाई है. राम रहीम के साथ अन्य 4 दोषियों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है.

ये भी पढ़ें- पत्नी की सलाह मानना दब्बूपन की निशानी नहीं

यहां आपको हम बताते चलें कि राम रहीम का एक बाबा के रूप में बड़ा ही जलवा था वह फिल्म बनाते थे, वह ऐसे ऐसे करतब  किया करते थे की सदैव मीडिया में चर्चा बनी रहती थी, धर्म की कथित आड़ में जाने कितने दुष्कर्म और अपराध करते रहे जिसकी गिनती कोई नहीं कर पाया और यह सदा चर्चा में रही. मगर कहते हैं ना अपराध कभी न कभी सर चढ़कर बोलता है और अपराधी कानून के शिकंजे में अंततः आ ही जाता है अंतिम समय जेल की चक्की पीसने में ही गुजर जाता है, बाबा राम जी के साथ हो रहा है.

यह भी सच है कि मामला मुकदमा दर्ज होने पर भी यह सब अपने आप को सर्व शक्तिमान समझता था और यह संदेश देता था कि मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. साथ ही सहयोगी महिला  हनीप्रीत के साथ भी कितनी ही किस्से कहानियां चर्चा में रही हैं.

मामला संवेदनशील होने के कारण राम रहीम की पेशी कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए की‌ जाती थी पूरे जिले में धारा 144 लगा दी जाती थी कहीं भी 5 से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने की इजाजत नहीं थी. बाबा राम रहीम ने धर्म के उन्माद को इतना ज्यादा जगा दिया था की स्थिति कभी भी असामान्य हो सकती थी. यहां उल्लेखनीय है कि सन् 2002 में रंजीत सिंह की हत्या के लिए राम रहीम सहितइन लोगों को नामजद किया गया था

डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख को मिला सच्चा सौदा!

जैसा कि सारी दुनिया जानती है डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत सिंह यानी राम रहीम के मुख्य प्रबंधन का कार्य डेरा सच्चा सौदा से संचालित होता था. जहां सैकड़ों एकड़ भूमि पर कथित बाबा का वर्चस्व था यहां उनकी अनुमति के बगैर परिंदा भी पर नहीं मार पाता था. एक प्रकार से उनका अपना शासन स्थापित था. धर्म के नाम पर जो इंतेहा यहां बाबा राम रहीम ने की वह सालों बाद धीरे-धीरे छन कर  बाहर आई और उसकी क्रूरता के किस्से भी सार्वजनिक हो गए.

ये भी पढ़ें- जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

जैसा कि कभी ना कभी पाप का घड़ा तो फूटता ही है 2002 में  रंजीत सिंह जो डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के समर्थक थे की 10 जुलाई 2002 को  हत्या कर दी गई थी. इसी मामले में गुरमीतसिंह सहित पांच लोगों को अब जेल के सीखचों पड़ेगा.

लगभग 20 साल बाद!

राम रहीम के द्वारा किए गए अपराधों की लंबी जांच के बाद मामला अंततः न्यायालय में पहुंचा और सभी के साक्ष्य लिए  जाने लगे. वह बाबा जो कभी अपने सच्चा सौदा के प्रतिष्ठान से लोगों को धर्म का ज्ञान देता था मगर स्वयं धर्म के रास्ते को छोड़ कर के अपराध की राह पर चल पड़ा था आखिरकार कानून की जद में आ ही गया.

यहां यह बताना जरूरी होगा कि राम रहीम की पेशी कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कानून-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए होती रही और राम रहीम फिला वक्त रोहतक की सुनारिया जेल में बंद है वहीं से उसकी वर्चुअली पेशी कोर्ट में की जाती रही वहीं चार अन्य दोषियों को अंबाला जेल से कड़ी सुरक्षा के बीच पंचकूला कोर्ट लाया गया था.

ये भी पढ़ें- तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों

3 दिसंबर 2003 को पुलिस में एफआईआर दर्ज हुई थी और आगे सीबीआई ने रणजीत सिंह हत्या मामले में प्राथमिकी दर्ज की थी. न्यायालय में  याचिका रंजीत सिंह के बेटे जगसीर सिंह ने दायर कर इंसाफ की फरियाद की थी. इसके बाद बाबा राम रहीम पर कानून का शिकंजा कसता ही चला गया और यह भ्रम टूट गया कि अगर कोई धर्म का चोला पहन कर अपराध करता है तो बहुत दिनों तक बच सकता है.

वर्जिनिटी: टूट रही हैं बेडि़यां

लेखिका- आशा शर्मा

आदिकाल से ही औरतों के लिए शुचिता यानी वर्जिनिटी एक आवश्यक अलंकार के रूप में निर्धारित कर दी गई है. यकीन न हो, तो कोई भी पौराणिक ग्रंथ उठा कर देख लीजिए.

अहल्या की कहानी कौन नहीं जानता. शुचिता के मापदंड पर खरा नहीं उतरने के कारण जीतीजागती, सांस लेती औरत को पत्थर की शिला में परिवर्तित हो जाने का श्राप मिला था. पुराणों के अनुसार, उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि वह अपने पति का रूप धारण कर छद्मवेश में आए छलिए इंद्र को उस के स्पर्श से पहचान न सकी.

शुचिता के सत्यापन का कितना दबाव  औरतों पर हुआ करता था, इस का उदाहरण भला कुंती से बेहतर कौन हो सकता है. कुंती, जिसे अपनी शुचिता का प्रमाण विवाह के बाद अपने पति को देना था, ने विवाहपूर्व सूर्यपुत्र कर्ण को जन्म देने के बाद उसे नदी में प्रवाहित कर दिया ताकि उस की शुचिता पर आंच न आए.

क्या है शुचिता

शुचिता यानी यौनिक शुद्धता का पैमाना. स्त्री योनि के भीतर एक पतली गुलाबी  िझल्ली होती है जिसे हाइमन कहा जाता है. माना जाता है कि प्रथम समागम के दौरान इस के फटने से रक्तस्राव होता है. जिन स्त्रियों को यह स्राव नहीं होता उन का कौमार्य शक के घेरे में आ जाता है. यह जानते हुए भी कि इस  िझल्ली के फटने के कई अन्य कारण भी होते हैं.

सामाजिक तानाबाना कुछ इस कदर बुना गया है कि स्त्री का शरीर सिर्फ उस के पति के भोग के लिए है और उस का कौमार्य उस के पति की अमानत. अकसर यही पाठ हर स्त्री को पढ़ाया जाता है. यह पाठ स्त्रियों को रटारटा कर इतना कंठस्थ करा दिया जाता है कि इस लकीर से बाहर निकले कदम अपराध की श्रेणी में रख दिए जाते हैं और इस अपराध की सजा स्त्री को ताउम्र भुगतनी पड़ती है.

ये भी पढ़ें- जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

राजस्थान के सांसी समुदाय में स्त्रियों की वर्जिनिटी जांचने के लिए एक अत्यंत घिनौनी प्रथा प्रचलित है, जिसे कूकड़ी प्रथा कहा जाता है. इस प्रथा के अनुसार, शादी की पहली रात को स्त्री के बिस्तर पर सफेद धागों का गुच्छा रख दिया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में कूकड़ी कहते हैं. शारीरिक संबंध बनाने के बाद बिस्तर की सफेद चादर और उस कूकड़ी की जांच होती है. यदि वह रंगदार नहीं है यानी उस में खून के धब्बे नहीं हैं तो यह माना जाता है कि स्त्री के शारीरिक संबंध शादी से पहले कहीं और स्थापित हो चुके हैं. सो, स्त्री को चरित्रहीन करार दे दिया जाता है. इसी आधार पर परिवार और समाज को उसे लांछित और प्रताडि़त करने का अधिकार भी मिल जाता है.

अमानवीयता की पराकाष्ठा यह होती है कि सुहागरात से पहले यह निश्चित किया जाता है कि कमरे में किसी तरह की कोई नुकीली या धारदार वस्तु न हो ताकि किसी तरह की चोट लगने के कारण रक्तस्राव की संभावना भी न हो. यहां तक कि लड़की के बालों से पिन तक हटा ली जाती है और उस की चूडि़यों को कपड़े से बांध दिया जाता है. इसी तरह का शुचिता परीक्षण महाराष्ट्र के कंजरभाट समाज और गुजरात के छारा समाज में भी प्रचलित है.

स्त्री साथी या संपत्ति

सदियों से यह कहावत प्रचलन में है कि संसार में लड़ाई झगड़े और युद्ध के सिर्फ 3 ही कारण होते हैं- जर, जोरू और जमीन यानी धन, स्त्री और जमीन. पति का शाब्दिक अर्थ मालिक ही होता है. इस रिश्ते से पत्नी को पति की संपत्ति माना जाता है. शायद इसी तर्क के आधार पर और महाभारत की कथानुसार युधिष्ठिर ने द्रौपदी को अपनी संपत्ति मानते हुए जुए में दांव पर लगा दिया था.

समय बेशक बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है लेकिन परिस्थितियां आज भी कमोबेश वही हैं. आज भी स्त्री पुरुष की संपत्ति ही सम झी जाती है जिस की अपनी कोई स्वतंत्र विचारधारा नहीं हो सकती. जिस के हर व्यक्तिगत फैसले पर पुरुष की सहमति की मुहर आवश्यक सम झी जाती है. ऐसा न करने वाली स्त्रियां चरित्रहीन की श्रेणी में गिनी जाती हैं. आज भी स्त्रियों की यौनिक शुचिता को उन पर शासन करने या उन्हें नियंत्रित करने का हथियार सम झा जाता है.

अकसर 2 दलों के आपसी  झगड़े का शिकार महिलाएं बन जाती हैं. लोग अपना बदला चुकता करने के लिए एकदूसरे की बहनबेटियों से बलात्कार तक कर डालते हैं.

दंगों के दंश भी महिलाएं ही  झेलती हैं. पुरुष अपनी खी झ उतारने के लिए भी बलात्कार करते हैं मानो इस तरह वे उस स्त्री के शरीर पर नहीं बल्कि उस के पूरे वजूद पर अपना अधिकार जमा लेंगे. मुखर या हावी होती दिखती महिलाओं के साथ भी यही कुकर्म किया जाता है. मांबहन की गालियां भी तो इसी का उदाहरण हैं.

ये भी पढ़ें- तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों

पर कतरने की साजिश

कई कार्यालयों में जहां महिलाएं अधिक प्रतिभाशाली होती हैं, अकसर वे चारित्रिक उत्पीड़न का शिकार पाई जाती हैं. उन के सहकर्मी जब उन के द्वारा कुशलता से संपादित होने वाले कार्यों की अनदेखी कर उन का चारित्रिक मूल्यांकन करने लगते हैं तो कहीं न कहीं वे मानसिक रूप से टूटती ही हैं.

यही तो पुरुष को चाहिए. स्त्री को तोड़ कर उसे अपने अंकुश में रखना ही तो उस का ध्येय है.

इस बात में दोराय नहीं कि हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. प्रतिभा यदि पुरुष से कमतर है तब तक पुरुष को उस की तारीफ से गुरेज नहीं लेकिन जहां कहीं वह पुरुष से 21 हुई, सारा बवाल शुरू हो जाता है. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं.

सीमा मेरी कालोनी में ही रहती है. पतिपत्नी दोनों सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं. सीमा अपने पति से जूनियर है, इस नाते स्कूल से संबंधित मामलों में उस की सलाह लेती रहती थी. पति का अहं संतुष्ट होता रहता था. अपनी मित्रमंडली में वह सीमा की तारीफ करते नहीं अघाता था.

पिछले साल सीमा प्रतियोगी परीक्षा पास कर के प्रधानाध्यापक क्या बन गई, एक ही  झटके में उस की सारी प्रतिभा धूल में मिल गई. सीमा को दूसरे शहर में पोस्ंिटग मिली, जो उन के घर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर था.

पहले तो उस पर रोजाना आनेजाने के लिए दबाव बनाया गया. फिर, उस के दृढ़ता से मना करने पर, उस पर जौइन न करने का दबाव बनाया गया. विरोध करने पर पति ने सीधा उस के चरित्र पर निशाना साध लिया.

‘‘होगा कोई, जिस के लिए घर छोड़ने को तैयार है ताकि जम कर मस्ती की जा सके,’’ कह कर पति ने तुरुप का पत्ता फेंक कर उस का मनोबल तोड़ने की कोशिश की.

यह तो सीमा हिम्मत वाली निकली जिस ने पति की परवा न कर अपना नया पदभार ग्रहण कर लिया वरना अधिकतर महिलाओं को तो अपने कैरियर से अधिक अपनी शुचिता ही प्यारी लगती है.

हावी है पुरातन सोच

अतिआधुनिक कहे जाने वाले आज के कितने ही युवा हैं जो अपनी पत्नियों के विवाहपूर्व प्रेम प्रसंग को सहजता से स्वीकार कर सकें? शायद, एक भी नहीं. भले ही वे स्वयं अपने प्रेम के किस्से कितना ही रस ले कर पहली रात अपनी नवविवाहिता को सुनासुना कर उस पर अपनी मर्दानगी का रोब  झाड़ें लेकिन पत्नी का किसी के प्रति एकतरफा लगाव उन्हें कतई गवारा नहीं.

ये भी पढ़ें- शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

बेशक स्त्रियों को पढ़नेलिखने, घूमनेफिरने या फिर अपना मनचाहा कैरियर चुनने की आजादी मिली है लेकिन आज भी उन की कमाई पर उन्हें भी पूरा अधिकार नहीं है. अपने पर किए गए खर्च को भी उन के चरित्र से जोड़ दिया जाता है. यही कारण है कि विधवा या तलाकशुदा स्त्री का हलका सा शृंगार भी समाज की आंखों में खटकने लगता है.

एक जाल है यह

बचपन में मैं ने दादी को गाय दुहते हुए देखा है. वे गाय को दुहने से पहले एक पतली सी रस्सी से उस के दोनों पांव बांध देती थीं.

मैं कहती, ‘दादी, इतनी बड़ी गाय को इतनी पतली सी रस्सी से कैसे बांध लिया आप ने?’

तब दादी कहतीं, ‘बेटा, इसे रस्सी की आदत हो गई है. पतलीमोटी से कोई फर्क नहीं पड़ता.’

ठीक ऐसी ही आदत महिलाओं को भी हो चुकी है. अपनी शुचिता को अपनी उपलब्धि सम झने की, अपनेआप को पुरुष के संरक्षण में रखने की, पहले पिता, फिर भाई, उस के बाद पति और अंत में बेटे की. स्त्रियों के संरक्षक समाज ने तय कर दिए, वही लकीर वे आज भी पीटे जा रही हैं या यों कहें कि उन्हें इस की आदत हो गई है.

बहुत सी महिलाओं को इस में कोई बुराई भी नहीं दिखती, बल्कि उन्हें अच्छा लगता है कि कोई उन का खयाल रख रहा है. इस के पीछे छिपी गुलामी की मानसिकता उन्हें दिखाई नहीं दे रही.

आज भी कुछ खेल, कुछ प्रोफैशन महिलाओं के लिए उचित नहीं सम झे जाते, जैसे सेना, पर्वतारोहण, साइकिल चलाना आदि. वहीं, कुछ खेल और व्यवसाय महिलाओं के लिए उत्तम सम झे जाते हैं, जैसे टीचिंग, बैंक आदि.

मौजूदा दौर में हालांकि वर्जनाएं टूट रही हैं लेकिन उन का प्रतिशत उंगलियों पर गिननेभर जितना ही है.

बदलाव की बयार

फिल्में समाज का आईना सम झी जाती हैं. कुछ फिल्में वही दिखाती हैं जो समाज में घटित हो रहा है, तो कुछ फिल्मों को देख कर समाज उन का अनुसरण करता है. पुरानी फिल्में देखें तो नायिका को शुचिता की मूर्ति दिखाया जाता था. यौनिक शुद्धता इतना हावी रहता था कि नायिका के मुंह से कहलाया जाता था कि मैं ने फलां पुरुष को अपना सर्वस्व सौंप दिया है. किसी अन्य पुरुष के साथ शादी के बारे में सोचना भी अब मेरे लिए पाप है.

इसी तरह यदि किसी फिल्म में नायिका से यह कथित पाप यानी विवाहपूर्व गर्भ ठहर गया हो तो स्त्री को ही उम्रभर इस पाप को ढोते हुए दिखाया जाता था.

दूसरी तरफ, आज की फिल्में या वैब सीरीज की बात करें तो इन में विवाहपूर्व के शारीरिक संबंध बहुत ही सहज दर्शाए जा रहे हैं. इस तरह के समागम के पश्चात नायिका को किसी गिल्ट, अपराधबोध या शर्मिंदगी का एहसास नहीं होता, बल्कि वह अगली सुबह न तो शरमाती हुई उठती है और न ही लाज से उस के गाल गुलाबी होते हैं. वह आम दिनों की ही भांति सहजता से अपना दिनभर का काम निबटाती है.

यह बदलाव की ठंडी बयार सुकून देने वाली है. यदि पुरुष को इस तरह के संबंध के बाद गिल्ट नहीं है तो स्त्री ही क्यों इस गठरी को ढोए?

स्त्री अपनी ऊर्जा शुचिता को सलामत रखने में जाया नहीं करती, बल्कि ‘जो हो गया वह मेरी मरजी’ कह कर हवा में उड़ा देती है. वह अब ब्रेकअप के बाद आंसू भी नहीं बहाती. लिवइन रिलेशन के रिश्ते इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं.

आजकल शादियां देर से होती हैं और शरीर की अपनी मांग होती है. ऐसे में सिर्फ शादी के बाद पति के सामने शुचिता के सत्यापन के लिए आज की लड़कियां अपने आज के रोमांच को खत्म नहीं करना चाहतीं.

लड़कियों का बढ़ता आत्मविश्वास उन्हें हर अपराधबोध से बाहर ला रहा है. उन्हें खुल कर जीने का न्यौता दे रहा है और वे इसे स्वीकार भी कर रही हैं.

सरकार भी उन के पक्ष में कानून बना कर उन के पंखों को मजबूती दे रही है. आज महिलाएं अकेली यात्राएं कर रही हैं, अपनी संपत्ति बना रही हैं, पहाड़ों पर चढ़ रही हैं, आसमान में उड़ रही हैं, सागर की गहराई नाप रही हैं आदिआदि.

सब से बड़ी और सकारात्मक बात यह है कि बलात्कार और एसिड अटैक जैसे हादसों के बाद भी महिलाएं आज मुसकरा कर जी रही हैं, यानी, शुचिता के सत्यापन को नकार रही हैं और शुचिता की आड़ में अपने ऊपर जबरन शासन किए जाने को अस्वीकार कर रही हैं. यही बदलाव तो चाहिए था.

जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

यह उन दोनों के लिए वैलेंटाइन डे का खास दिन है. यह दिन उन्होंने अपने जवान जज्बातों की प्यास बुझाने के लिए चुना था. वे पूरी तरह से एकदूसरे के जिस्म में खो जाना चाहते थे. घर से दूर किसी होटल में ठहरना उन के लिए सुरक्षित था, इसलिए वे इस होटल में आए थे.

वे दोनों होटल के कमरे में घुसते हैं. लड़का लाइट जलाता है. यह पहली बार है, जब उन दोनों को इतना एकांत मिला है, जहां समाज की तिरछी निगाहें उन्हें नोटिस नहीं कर सकतीं.

वे दोनों एकदूसरे के करीब बढ़ते हैं. शुरुआत घबरा कर छूने से होती है, फिर धीरेधीरे चुंबन और फिर गले लगते हुए बिस्तर में वे एकदूसरे से लिपट जाते हैं, फिर उन की सिसकियां उन्हें और भी मदहोश करती हैं और वे एकदूसरे में पूरी गहराई से डूब जाते हैं.

तभी दरवाजे से गुस्सैल आवाज आती है, ‘‘क्या पंचायत चल रही है यहां… दरवाजा खोलो…’’ यह आवाज और भी कड़क होती जाती है, ‘‘खोलो दरवाजा… खोलो… तोड़ दो दरवाजा…’’

लड़का घबरा कर झट से उठता है. वह अपने कपड़े ढूंढ़ता है, लड़की सहमी सी एक चादर को अपने बदन पर ओढ़ लेती है.

वे दोनों संभल पाते, इस से पहले दरवाजा टूटता है और 4 पुलिस वाले कमरे के भीतर घुस जाते हैं.

‘‘क्या भसड़ मचा रखी है यहां, पूरा बाजार बना दिया है…’’ एक पुलिस वाला गुस्से से कहता है.

महिला कांस्टेबल झट से लड़की के बाल पकड़ लेती है और सीनियर पुलिस वीडियो बनाने लगता है.

‘‘नाम बोल… नाम…’’ इंस्पैक्टर लड़की पर जोर से चिल्लाता है.

लड़की डरीसहमी चुप रहती है. इतने में महिला कांस्टेबल उस के बाल जोर से खींच कर नाम बताने को कहती है.

ये भी पढ़ें- तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों

‘‘देवी…’’ लड़की आखिरकार अपना नाम कहती है.

‘‘तो देवी, तुम्हारी जिंदगी तो अब कंडम हो गई… कहां से आई है? मड़वाड़ी से या नेपाल से?’’

‘‘नहीं सर, आप गलत समझ रहे हैं…’’ देवी कहती है और रोने लगती है. उसे लगने लगा है कि अब सिर्फ बदनामी उस के आगे खड़ी है.

इस के आगे बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस ने देवी और उस के परिवार को किस तरह ब्लैकमेल किया होगा.

साल 2015 में डायरैक्टर नीरज घेवाण की फिल्म ‘मसान’ में यह सारा घटनाक्रम शुरुआती 7 मिनट में घटता है. फिल्म कुछकुछ हकीकत के नजदीक दिखाई देती है.

आज के दौर में सभी अनब्याहे जोड़े अपनेअपने पार्टनर के साथ एकांत में समय बिताना चाहते हैं. इस के लिए उन्हें होटल ऐसी बेहतर जगह दिखाई देती है, जहां कोई पहचान का न हो और प्राइवेसी भी मिल जाए, पर वे इसे रिस्की भी मानते हैं. इस की वजह है पुलिस की जबतब पड़ने वाली रेड और इस से होने वाली बदनामी.

ऐसे जोड़े इस बात को ले कर काफी डरे रहते हैं कि होटल में ठहरने के दौरान अगर वहां पुलिस आ धमकती है तो वे क्या करेंगे? वे कैसे इस मामले से निबटेंगे? अगर बात घरपरिवार तक चली गई तो क्या होगा या वे पुलिस द्वारा ब्लैकमेल का शिकार तो नहीं हो जाएंगे?

खबरों में भी इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जहां कुंआरे जोड़े पुलिस रेड के दौरान पकड़े जाते हैं और फिर किन्हीं दिक्कतों के चलते उन्हें थाने में लंबा समय बिताना पड़ जाता है. इस दौरान जिन चीजों से बचने के लिए वे होटल आए थे, वे चीजें सामने मुसीबत की तरह आ खड़ी होती हैं यानी बात घर तक पहुंच ही जाती है.

30 अगस्त को उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में भगवतीगंज शहर के एक होटल में पुलिस ने छापेमारी कर 3 कुंआरे जोड़ों को पकड़ा था. उन जोड़ों का जुर्म था कि वे अपने लिए थोड़ी प्राइवेसी चाहते थे. पुलिस उन्हें पकड़ कर थाने ले गई. पूछताछ के बाद लड़कियों को हिदायत दे कर उन के परिवार वालों के सुपुर्द कर लड़कों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर दी गई.

इसी तरह इस साल फरवरी महीने में आगरा के होटल एआर पैलेस में 9 प्रेमी जोड़ों को पुलिस ने रेड के दौरान पकड़ा. उन में कुछ छात्राएं थीं, जो अपने प्रेमियों के साथ होटल आई थीं. इन का भी यही गुनाह था कि वे अपने प्रेमियों के साथ समय बिताने आई थीं, खुल कर कहें तो सैक्स करने आई थीं. उन लड़कियों के भी परिवार वालों को थाने बुलाया गया और फिर उन के सुपुर्द किया गया.

पकड़े जाने वाले इन ज्यादातर मामलों में जो सब से बड़ी दिक्कत होती है वह यह कि ऐसे जोड़े अपनी पहचान छिपा कर या पहचान नहीं बता कर कमरा लेते हैं. बहुत से बिना रजिस्टर्ड वाले होटलों में कमरे किराए पर लेते हैं, जिस वजह से उन्हें पुलिस स्टेशन जाने की नौबत आ जाती है या धरपकड़ में वे भी धरे जाते हैं.

भारत में शादी से पहले सैक्स करना एक तरह का पाप माना जाता है. शादी से पहले सैक्स करना घर, समाज, शासन और प्रशासन के लिए इतनी बड़ी बात बन जाती है कि इस का पता चलते ही सब की जिंदगी में मानो भूचाल आ जाता है. समाज से ले कर पुलिस प्रशासन तक इसे अनैतिक मानता है, जिस का खमियाजा प्रेमी जोड़ों को भुगतना पड़ जाता है.

हालांकि, पिछले कुछ दशकों से भारत एक देश और एक समाज के रूप में तेजी से आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है, पर एक बात जो अभी भी जस की तस है वह यह कि प्यार में क्या करें व क्या न करें वाले सवाल अभी भी समाज के तथाकथित रखवालों द्वारा बनाई गई सीमाओं में ही बंधे हुए हैं.

ये वे सीमाएं हैं, जो हम ने सदियों से बनाई हैं. हाथ में हाथ डाल कर चलने वाले प्रेमी जोड़े या पार्कों में दिखने वाले जोड़े सोसाइटी को बेहद ही असहज दिखाई देते हैं. वहीं प्राइवेसी की तलाश करने के लिए अगर कोई प्रेमी जोड़ा कुछ घंटों के लिए होटल का कमरा बुक करता है, तो उसे हिकारत से देखा जाता है.

यहां तक कि सरकारी मशीनरी, जिसे इन मौकों पर समझदारी से काम लेने की जरूरत है, वह भी इन का शोषण करने वालों में शामिल होती है. यहां तक कि यह सारी सिचुएशन एक जोड़े को एहसास दिलाती है कि समाज के नजरिए से एक कुंआरे जोड़े का साथ रहना या कहीं पकड़े जाना बेहद गलत और अनैतिक है.

आज हम ऐसे जोड़ों के लिए एक बेहद जरूरी जानकारी ले कर आए हैं, जो अपने पार्टनर के साथ होटलों में जाने की इच्छा तो रखते हैं, पर वहां जाने से कतराते हैं.

ये भी पढ़ें- शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

पहली बात, कुंआरे जोड़ों द्वारा कमरा किराए पर लेना भारत में अपराध नहीं है. साल 2019 के दिसंबर महीने में मद्रास हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि होटल के कमरे में रहने वाले कुंआरे जोड़े को अपराधी नहीं माना जाएगा. हाईकोर्ट ने इसे इस बात के संदर्भ में देखा कि 2 बालिगों के लिवइन रिलेशनशिप को अपराध नहीं माना जाता है तो ऐसे में होटल में रूम शेयर करने को कैसे अपराध माना जा सकता है?

यह फैसला कोयंबटूर के एक होटल को सील किए जाने के बाद आया था, जब एक कुंआरे जोड़े को उसी के एक कमरे में पाया गया था.

इस का मतलब यह है कि पुलिस के पास होटल जैसी निजी संपत्ति पर छापा मारने का अधिकार तो है, पर उन के पास एक कुंआरे जोड़े को इस आधार पर गिरफ्तार करने का हक नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट विनय कुमार गर्ग का कहना है कि कुंआरे जोड़े को एकसाथ होटल में रहने और आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बनाने का मौलिक अधिकार है. हालांकि इस के लिए दोनों का बालिग होना जरूरी है.

इस बारे में सुप्रीम कोर्ट साफ कह चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकार से अपनी मरजी से किसी के साथ रहने और शारीरिक संबंध बनाने का अधिकार आता है. इस के लिए शादी के बंधन में बंधना जरूरी नहीं है.

इस का एक मतलब यह हुआ कि अगर कोई बालिग जोड़ा बिना शादी किए होटल में एकसाथ रहता है, तो यह अपराध में नहीं आता.

एडवोकेट विनय कुमार गर्ग का कहना है कि होटल में ठहरने के दौरान कुंआरे जोड़े को अगर पुलिस परेशान या गिरफ्तार करती है, तो पुलिस की इस कार्यवाही के खिलाफ ऐसा जोड़ा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 226 के तहत सीधे हाईकोर्ट जा सकता है.

आमतौर पर पुलिस ऐसे मामलों में होटल में देह धंधे के शक के चलते रेड करती है. चूंकि भारत में देह धंधा अपराध है, तो यह करना पड़ता है. पर ऐसे में अगर पुलिस किसी कुंआरे जोड़े के कमरे में आती है तो ऐसे हालात में वे अपने साथ आईडी प्रूफ जरूर रखें, ताकि पहचान हो सके और नौबत पुलिस स्टेशन जाने की न आ जाए.

घबराए नहीं, क्योंकि आप कोई जुर्म नहीं कर रहे हैं. पुलिस अगर होटल में रेड मारती है तो उसे अपना काम करने दें, क्योंकि उन पर अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी होती है. पर उस के बावजूद भी अगर पुलिस ब्लैकमेल करती हो तो बेहिचक संबंधित पुलिस वाले के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं.

होटल में रूम लेने से पहले सारी सावधानियां बरतें. कानूनी तरीके से या होटल के नियमों के हिसाब से होटल  में जाएं.

होटल रूम ऐसे बुक करें

भारत में कुंआरे जोड़ों के लिए ऐसे कई होटल हैं, जो बिना किसी परेशानी के उन्हें कमरे किराए पर देते हैं. आजकल औनलाइन होटल बुकिंग के कई सेफ तरीके आ चुके हैं. होटल के खुद के पोर्टलों से होटल बुकिंग आसान हो गई है. जब आप औनलाइन होटल का कमरा बुक करते हैं, तो प्रीबुक औप्शन चुन सकते हैं. ये पोर्टल आप को बिना असहज सवालों के बुकिंग एक्सैप्ट कर लेता है.

होटल बुक करने से पहले उस नीतियों को ध्यान से पढ़ें, क्योंकि कुछ होटल कुंआरे जोड़ों को कमरा बुक करने की इजाजत नहीं देते हैं. यह आप को होटल का चयन करते समय सतर्क रहने में मदद करेगा.

ये भी पढ़ें- आधुनिकता उम्र की मुहताज नहीं

घबराएं नहीं. खुद पर यकीन रखें. आप कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हैं. होटल का कमरा बुक करते समय डरें नहीं.

अपना आईडी कार्ड अपने साथ रखें. आप से चैकइन के समय केवल एक वैलिड सरकारी आईडी कार्ड होटल के मुलाजिम द्वारा मांगी जाती है. मुमकिन है कि वे लोग आईडी की स्कैन की हुई कौपी अपने पास रखेंगे और आप को ओरिजिनल डौक्युमैंट वापस कर देंगे.

ऐसा कोई कानून नहीं है, जिस में कहा गया हो कि कुंआरे जोड़े होटल का कमरा बुक नहीं कर सकते हैं. पर आप और आप के साथी की उम्र 18 साल से कम है, तो आप भारत में होटल का कमरा बुक नहीं कर सकते हैं.

तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों

शादीशुदा जीवन में कलह व विवाद होना आम है़ ये विवाद मुकदमे की शक्ल में अदालत तभी पहुंचते हैं जब पानी सिर से ऊपर उठने लगता है. ऐसे में तलाक की वजह से पतिपत्नी कई बार ऐसे फसादों व गुनाहों को अंजाम देने की तरफ बढ़ चलते हैं जो दोनों के लिए ठीक नहीं होते. कैसे, जानें इस लेख में.

27 साला चेतन सुभाष सुराले पेशे से सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. पुणे में रहने वाले चेतन की शादी इसी साल मार्च में स्मितल सुराले नाम की लड़की से धूमधाम से हुई थी जो मेकैनिकल इंजीनियर है. चेतन बहुत खुश था क्योंकि 25 साला खूबसूरत और पढ़ीलिखी स्मितल मौडर्न और स्मार्ट भी थी. ऐसी बीवी आजकल के लड़कों की पहली पसंद होती है. एकदूसरे को नजदीक से सम झने और मौजमस्ती के लिए दोनों हनीमून पर नहीं जा पाए थे क्योंकि शादी के तुरंत बाद लौकडाउन लग गया था.

लौकडाउन हटा और जिंदगी पटरी पर आने लगी तो दोनों बीती 18 अक्तूबर को हनीमून मनाने के लिए महाबलेश्वर जा पहुंचे जहां की खूबसूरती और आबोहवा दुनियाभर में मशहूर है. दोनों ने अपने बजट के मुताबिक एक अच्छे होटल में डेरा डाल लिया और जिंदगी के हसीन लमहों को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, खासतौर से चेतन ने जिस का दिल एक सैकंड भी नईनवेली बीवी से जुदा होने को नहीं करता था. दोनों दिनभर बांहों में बांहें डाले महाबलेश्वर में घूमते थे और रात को होटल के अपने कमरे में आ कर एकदूसरे के आगोश में ऐसे खो जाते थे मानो दुनिया की कोई ताकत अब उन्हें जुदा नहीं कर पाएगी.

अजब प्यार की गजब कहानी

होटल में दोनों की मुलाकात 22 साला कोस्तुभ अनिल गोगाटे नाम के नौजवान से हुई जो अकेला ही महाबलेश्वर आया था. अनिल खुशमिजाज था और यारबाज भी. लिहाजा, उस की पहल पर चेतन 2 दिनों में ही उस का दोस्त बन गया क्योंकि वह भी पुणे का ही था. शाम को दोनों जिगरी दोस्तों की तरह साथ बैठते हमप्याला, हमनिवाला हो गए.

ये भी पढ़ें- धर्म का धंधा: कुंडली मिलान, समाज को बांटे रखने का बड़ा हथियार!

स्मितल ने इस दोस्ती और नजदीकी पर कोई एतराज नहीं जताया बल्कि दोनों के साथ बैठ कर वह भी इन की महफिल में शरीक होने लगी. इस तरह खाली वक्त और अच्छे से गुजरने लगा.

तीसरे दिन ही अनिल ने बातों ही बातों में चेतन के सामने रोना रोया कि लौकडाउन के चलते उस की नौकरी छूट गई है और अब तो उस के पास मकान का किराया देने को भी पैसे नहीं बचे हैं. ऐसे में अगर वह उस की मदद करे तो बड़ा एहसान होगा. नौकरी मिल जाने के बाद वह उस की पाईपाई चुका देगा. मदद के नाम पर उस ने मांगा यह कि चेतन उसे कुछ दिन अपने घर में रहने की इजाजत दे दे. नरम दिल चेतन पसीज गया और हामी भर दी. महाबलेश्वर से ये लोग वापस पुणे आए, तो अनिल भी उन के घर में रहने लगा.

हफ्ताभर ठीकठाक गुजरा, अनिल इन दोनों से कुछ इस तरह घुलमिल गया जैसे सालों से इन्हें जानता हो और घर का ही सदस्य हो. लेकिन जब उस की हकीकत चेतन को पता चली तो उस के पैरोंतले जमीन खिसक गई और वह बेइंतहा घबरा उठा क्योंकि अनिल उस को तो नहीं, बल्कि स्मितल को न केवल सालों से जानता था बल्कि उस से प्यार भी करता था और दोनों शादी भी करने वाले थे पर जाति अलग होने के चलते उन के घर वाले तैयार नहीं हुए थे जिन के दबाव में आ कर स्मितल ने मजबूरी में चेतन से शादी कर ली थी.

दरअसल, एक दिन चेतन ने अनिल का मोबाइल खोला तो वह यह जान कर सकते में आ गया कि उस के साथ जिंदगी का सब से बड़ा धोखा हुआ है. महाबलेश्वर में अनिल का अचानक या इत्तफाक से मिल जाना पत्नी और उस के प्रेमी की तयशुदा साजिश थी. बात यहीं खत्म हो जाती तो और थी, लेकिन अनिल और स्मितल के मोबाइल पर एकदूसरे से लिपटते हुए फोटो और चैटिंग उस ने पूरी देखी तो उस के रहेसहे होश भी फाख्ता हो गए. इन दोनों ने यह तक तय कर लिया था कि स्मितल मौका देख कर चेतन के अंग की नस काट कर उसे हमेशा के लिए नामर्द बना देगी और इसी नामर्दी की बिना पर वह उस से तलाक ले कर अनिल से शादी कर हमेशा के लिए उस की हो जाएगी.

इतना सबकुछ हो गया और चेतन को भनक भी नहीं लगी. लेकिन सचाई उजागर होते ही उस ने तुरंत पुणे के मालवाड़ी थाने में दोनों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. वह इतना डरा हुआ था कि रिपोर्ट लिखाने के पहले सीधा अपने घर अहमदाबाद जा कर मांबाप को सारी कहानी बताई थी. अब पुलिस इस अजब प्यार की गजब कहानी की तफ्तीश कर रही है जिस की जड़ में एक कड़वा सच स्मितल का यह सोचना भी है कि अगर वह बिना किसी तगड़ी वजह के तलाक के लिए अदालत जाती तो तलाक मिलने में सालोंसाल लग जाते. लिहाजा, वजह उस ने आशिक के साथ मिल कर पैदा कर ली, लेकिन उस में कामयाब नहीं हो पाई.

यह वाकेआ जिस ने भी सुना, उस ने दांतोंतले उंगली दबा ली कि ऐसा भी होता है. लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया कि इस फसाद की जड़ स्मितल की गलती के साथसाथ आसानी से तलाक न मिलने का डर भी था हालांकि इस में कोई शक नहीं कि वह प्यार अनिल से करती थी और इस हद तक करती थी कि उस से शादी की खातिर सीधेसादे और बेगुनाह पति का प्राइवेट पार्ट काटने तक की हिम्मत जुटा बैठी थी. अगर यही हिम्मत वह प्रेमी से शादी करने को दिखा पाती तो आज बजाय कोर्टकचहरी करने के, सुकून से जिंदगी  अनिल के साथ गुजार रही होती.

ये भी पढ़ें- शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

और भी हैं फसाद

स्मितल ने तलाक के लिए बजाय अदालत का दरवाजा खटखटाने के एक संगीन गुनाह करने का मन क्यों बना लिया था, इस सवाल का जवाब आईने की तरह साफ है कि देश की अदालतों में तलाक के मुकदमे सालोंसाल घिसटते हैं लेकिन पतिपत्नी को तलाक के बजाय मिलती है तारीख पर तारीख जिस से उन की जिंदगी नरक से भी बदतर हो जाती है. कई तो पेशियां करतेकरते बूढ़े हो जाते हैं. लेकिन अदालत को उन की परेशानियों से कोई वास्ता नहीं रहता कि वे भयंकर तनाव में जी रहे होते हैं. मुकदमे के फैसले तक वे दूसरी शादी भी नहीं कर पाते क्योंकि यह कानूनन जुर्म है.

घर, परिवार और समाज में भी तलाक का मुकदमा लड़ रहे पतिपत्नी को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. एक तरह से उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है मानो वे अछूत हों. औरतों को ज्यादा दुश्वारियां  झेलनी पड़ती हैं क्योंकि हर किसी की गिद्ध सी निगाह उन की जवानी पर रहती है.

भोपाल की वसंती (बदला नाम) का तलाक का मुकदमा अपने पति से 3 साल से चल रहा है. वह बताती है कि उस की हालत तो कटी पतंग जैसी हो गई है जिसे हर कोई लूटना चाहता है. घरों में  झाड़ूपोंछा कर गुजरबसर कर रही

गैरतमंद वसंती को उस वक्त गहरा धक्का लगा था जब उस के एक पड़ोसी, जिसे उस ने भाई माना हुआ था, ने उस की कलाई पकड़ते बेशर्मों की तरह यह कहा था कि कब तक प्यासी भटकती रहोगी, जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता तब तक हम से प्यास बु झा लो और हमारी भी प्यास बु झा दो.

गरीब वसंती के दिल पर क्या गुजरी होगी, इस का अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता सिवा उन लोगों के जो सालों से तलाक का मुकदमा लड़ते जिंदगी से बेजार होने लगे हैं. ऐसे ही भोपाल के ही  एक नौजवान पत्रकार योगेश तिवारी 12 साल से तलाक के लिए अदालतों के चक्कर काटते 44 साल के हो चुके हैं. अब तो उन की दूसरी शादी कर घर बसाने की ख्वाहिश भी दम तोड़ चुकी है और बूढ़े मांबाप की सेवा करतेकरते वे खुद बूढ़े दिखने लगे हैं. योगेश अपनी इस हालत का जिम्मेदार तलाक कानूनों और अदालतों के ढुलमुल तौरतरीकों को ठहराते हैं, तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता.

गुनाह की तरफ बढ़ते कदम

पुणे की स्मितल जैसा ही एक मामला लौकडाउन के ही दौरान 20 अगस्त को बहादुरगढ़ से भी सामने आया था जब शहर के सैक्टर 9 में रहने वाले प्रदीप शाह की हत्या उस की पत्नी ने 10 अगस्त को अपने प्रेमी दिल्ली के रहने वाले यशपाल के साथ मिल कर कर दी थी क्योंकि पति उसे तलाक देने को राजी नहीं हो रहा था. बिलाशक, यह खतरनाक गुनाह था. लेकिन अगर कानून में ऐसे कोई इंतजाम होते कि पति या पत्नी, वजह कोई भी हो, तलाक की फरियाद ले कर अदालत जाए और तुरंत तलाक हो जाए तो ऐसे जुर्म होंगे ही नहीं क्योंकि पति व पत्नी दोनों को आजादी और मरजी से जीने का हक मिल जाएगा.

तलाक आसानी से न होने पर पत्नी की हत्या का एक मामला मार्च के तीसरे सप्ताह में बहराइच से उजागर हुआ था. इस मामले में नेपाल से सटे गांव अडगोडवा में हसरीन नाम की औरत की लाश मिली थी. पुलिसिया छानबीन में पता चला था कि हसरीन का पति रियाज 3 साल से सऊदी अरब में रह रहा था. उस की पटरी मायके में रह रही पत्नी से नहीं बैठती थी, जिस के चलते वह उसे तलाक दे कर दूसरी शादी करना चाहता था. पत्नी की हत्या के लिए रियाज ने मुंबई में रहने वाले अपने भाई मेराज को बहराइच भेजा, जिस ने साजिश रच कर हसरीन को मार डाला. लेकिन, पकड़ा गया.

ऐसे हजारों मामले हैं जिन में पति या पत्नी ने तलाक के लिए हत्या जैसा गुनाह किया या फिर एकदूसरे को किसी न किसी तरीके से नुकसान पहुंचाया. अगर तलाक आसानी से मिलता होता तो ये अपराध शायद ही होते. जो हिंसा नहीं कर पाते या नहीं कर सकते वे घटिया और ओछे हथकंडे अपना कर तलाक हासिल करने की कोशिश करते हैं. उन की मंशा भी अपना पक्ष मजबूत करने की होती है जिस से उन्हें लगता है कि अदालत पसीज जाएगी और आसानी से तलाक उन्हें मिल जाएगा.

ये भी पढ़ें- आधुनिकता उम्र की मुहताज नहीं

आजमगढ़ की एक औरत ने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी कि कुछ लोग उसे गंदे मैसेज और वीडियो भेज रहे हैं जिस से वह दिमागीतौर पर परेशान है. छानबीन में पता चला कि उस का पति पुनीत ही यह सब खुद कर रहा था और कुछ दोस्तों से भी करवा रहा था कि जिस से पत्नी परेशान हो कर तलाक के लिए राजी हो जाए. पुनीत ने अपनी पत्नी की नंगी सी तसवीरें उस के फोन नंबर के साथ फेसबुक पर डालते लिखा था कि सेवा के लिए हमेशा मौजूद. इस से कई मनचले पत्नी को फोन कर उस का रेट पूछने लगे थे. यानी, तलाक के लिए पति, पत्नी घटिया से घटिया तरीका आजमाने से नहीं चूकते. पुनीत की मंशा यह थी कि पत्नी बदनाम हो जाएगी तो इस बिना पर उसे जल्द तलाक मिल जाएगा.

मुकदमे से तंग आ कर खुदकुशी भी

यह तो तलाक के लिए हैरानपरेशान पति, पत्नियों का एक पहलू था लेकिन दूसरा भी कम चिंताजनक नहीं जिस में तलाक के मुकदमे के चलते पति, पत्नी में से कोई उम्मीद के साथसाथ खुदकुशी कर जिंदगी भी छोड़ जाते हैं क्योंकि इंसाफ की उन की आस पूरी होती नहीं लगती. वजह, मुकदमे का लंबा खिंचना होता है.

ललितपुर के गांव थवारी के 23 साला नौजवान राजकुमार ने भी यही रास्ता चुना था जिसे वक्त रहते तलाक नहीं मिला तो उस ने परेशान हो कर नरक होती जिंदगी  ही छोड़ दी. 13 फरवरी को राजकुमार ने जहर खा कर खुदकुशी कर ली थी. उस के पिता बसन्ते के मुताबिक, राजकुमार तलाक न मिलने से टैंशन में आ गया था. अदालत में पेशियों पर पेशियां लगती जा रही थीं और अदालत को कोई सरोकार उस के तनाव से नहीं था. राजकुमार का गुनाह इतनाभर था कि उस की अपनी बीवी से पटरी नहीं बैठ रही थी.

ऐसा ही एक चर्चित मामला ग्रेटर नोएडा के सैक्टर डेल्टा 1 में रहने वाले अरुण कुमार का है, जिस की पत्नी शीतल ने सुहागरात के हसीन वक्त में उस के ख्वाब यह कहते चकनाचूर कर दिए थे कि मांबाप ने उस की शादी जबरदस्ती कर दी है जबकि वह 7 साल से मनीष नाम के नौजवान से प्यार करती है और उस के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. अरुण को सम झ आ गया कि अब कुछ नहीं हो सकता, तो उस ने तलाक की बात कही. लेकिन शीतल और उस के घर वाले तलाक के एवज में 60 लाख रुपए की मांग पर अड़ गए. दोहरी परेशानी से आजिज आ गए बेकुसूर अरुण ने फांसी लगा कर जान दे दी. उसे यह सम झ आ गया था कि तलाक का मुकदमा सालों चलेगा और उसे दहेज मांगने के इलजाम में जेल की हवा भी खानी पड़ेगी.

असली गुनाहगार तो ये हैं

आखिर क्यों पति, पत्नी तलाक के लिए अदालत जाने के बजाय फसाद और गुनाह का शौर्टकट अपनाने लगे हैं, इस सवाल का जवाब बेहद कड़वा है कि पति, पत्नी अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़तेरगड़ते रो देते हैं लेकिन कानून बजाय उन की परेशानी सुल झाने के, हर पेशी पर उन्हें तारीख दे देता है. तलाक के लिए उस की वजह बताना जरूरी होती है जो अगर अदालत के गले न उतरे तो मुकदमा खारिज भी हो जाता है. पति, पत्नी का यह कहना कोई माने नहीं रखता कि आपसी मनमुटाव और खयालात न मिलने के चलते वे एक छत के नीचे सुकून से नहीं रह सकते, इसलिए तलाक की उन की अर्जी मंजूर की जाए.

अदालतों में उलटी गंगा बहती है. पति या पत्नी अपना दुखड़ा और फरियाद  लिए कोर्ट पहुंचते हैं, तो जज कहता है, और सोच लो और फिर अगली तारीख लगा देता है. इस से तलाक चाहने वालों, जो घुटघुट कर जी रहे होते हैं, को लगता है कि कोई ऐसी तगड़ी और वजनदार  वजह बताई जाए जिस से अदालत जल्द तलाक दे दे. इसलिए, अधिकांश मामलों में पति पत्नी के चालचलन पर उंगली उठाता है, उसे कलह करने वाली बताता है तो पत्नी पति पर नामर्दी और मारपीट वगैरह के इलजाम लगाती है. दोनों ही अधिकतर मामलों में  झूठे होते हैं.

अदालतें क्यों पति, पत्नी को साथ रहने को मजबूर करती हैं, जबकि दोनों अच्छी तरह सम झ चुके होते हैं कि अब पति पत्नी की तरह साथ रहना मुमकिन ही नहीं. इस का जवाब न तो कानून बनाने वाली संसद के पास है न इंसाफ करने वाले जजों के और न ही तलाक के मुकदमों की आग में घी डालने वाले वकीलों के पास, जो हर पेशी पर तगड़ी दक्षिणा अपने हैरानपरेशान मुवक्किलों से पंडेपुजारियों की तरह  झटकते रहते हैं.

पहली पेशी पर तलाक चाहने वाला अपनी बात रखता है, तो अदालत कहती है कि पहले फैमिली कोर्ट या परिवार परामर्श केंद्र में जाओ. वहां काउंसलर तुम्हें सम झाएगा कि तलाक के बजाय सम झौता कर लो, इस से तुम्हारी घरगृहस्थी बसी रहेगी. यह सम झाइश बेहद बेकार का टोटका साबित होने लगी है क्योंकि पति या पत्नी तलाक के लिए तभी जाते हैं जब वे दूसरे के साथ रह नहीं पाते. 3 नवंबर को भोपाल की आयशा (बदला नाम) से पेशी के दिन अदालत ने कहा कि पहले ससुराल जा कर करवाचौथ का त्योहार मनाओ, फिर हमें रिपोर्ट दो कि क्या हुआ. आयशा ने शादी के लिए इस शर्त पर ही हामी भरी थी कि वह शादी के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखेगी और अपने पांवों पर खड़ी होगी.

लेकिन वादे से मुकरते शादी के बाद पति और ससुराल वालों ने उसे आगे पढ़ने से मना कर दिया. यहीं से कलह शुरू हुई और मामला अदालत तक जा पहुंचा जहां आयशा को इंसाफ के बजाय अदालती नसीहत मिली और वह मजबूर हो कर दोबारा ससुराल चली गई. अब आगे कुछ भी हो, लेकिन यह जरूर साफ हो गया कि एक औरत को अपना कैरियर बनाने और पढ़ने देने से अदालत ने कोई वास्ता नहीं रखा.

औरत ज्यादा घुटती है

आयशा को सम झ आ रहा होगा कि तलाक यों ही नहीं मिल जाता, इसलिए मुमकिन है वह अपने सपनों का गला घोंट कर ससुराल वालों के कहे मुताबिक रहने लगे जो उस की मजबूरी बना दी गई है. अदालत ने देखा जाए तो कोई नई बात नहीं कही है बल्कि वही बात कही है जो धर्म, समाज और संस्कृति के ठेकेदार औरतों से कहते रहते हैं कि औरत का वजूद और जिंदगी पति और उस के घर वालों से ही है. उसे आजादी और अपनी मरजी से जीने का कोई हक नहीं. फिर भले ही पति शराबी, कबाबी, लंपट, जुआरी, लुच्चा, लफंगा और दूसरी औरतों से ताल्लुक रखने वाला क्यों न हो.

अहम बात यह है कि अदालतों के ऐसे ही फरमानों और तलाक की कार्रवाई कठिन होने के चलते पत्नी तो पत्नी, कई बार पति भी अदालत का रुख नहीं करते क्योंकि उन्हें उपदेशों और प्रवचनों की बेअसर खुराक नहीं, बल्कि घुटनभरी शादीशुदा जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. जो नहीं मिलता तो कई बार वे गुनाह और फसाद का रास्ता पकड़ने को मजबूर हो जाते हैं या फिर घुटघुट कर ही जीते रहते हैं.

शादीशुदा जिंदगी में कलह या विवाद आम बात है. लेकिन यह बात मुकदमे की शक्ल में अदालत तक तभी पहुंचती है जब पानी सिर से गुजरने लगता है. ऐसे में अदालतों को चाहिए कि वे पति, पत्नी की परेशानी सम झते तुरंत उन के रास्ते अलग कर दें, यानी, तलाक की डिक्री दे दें. इस से होगा यह कि इंसाफ मिलने के साथसाथ तलाक से जुड़े जुर्म भी कम होंगे जो दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं. वरना जो पुणे की स्मितल ने किया, जो बहराइच के रियाज ने किया वह और तेजी से बढ़ेगा जो समाज या देश या किसी के भी हित में किसी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता. और इस फसाद की इकलौती वजह तलाक मिलने में देरी है, इसलिए शादी की तर्ज पर तलाक भी  झटपट होना चाहिए.

धर्म का धंधा: कुंडली मिलान, समाज को बांटे रखने का बड़ा हथियार!

लेखक- शाहनवाज

लड़केलड़की की कुंडलियों में यदि 36 गुणों में सभी गुणों का मिलान हो जाए तो क्या इस की कोई गारंटी है कि वैवाहिक जीवन खुशहाल रहेगा? यदि ऐसा न हुआ तो इस में किस का दोष माना जाएगा? क्या शादी से पहले कुंडली मिलान करना आवश्यक है या फिर कुंडली मिलान की प्रक्रिया के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है? क्या यह सिर्फ एक धर्म में ही है या इस जैसी कोई प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी पाई जाती है?

साल था जनवरी 2018, जब राजीव की शादी के लिए जगहजगह लड़की तलाशने के लिए लोगों के घर जाया जा रहा था. उन के घर वाले ऐसी बहू की तलाश में थे जो सुंदर हो, सुशील हो, घरबार का काम करना आता हो, पढ़ीलिखी हो इत्यादि. खानदान के पंडित बड़ी मेहनत से कुंआरी लड़कियों के रिश्ते का पता करते और एक के बाद एक लड़के की कुंडली के अनुसार लड़कियों को छांटते रहे. घर वालों ने तो पंडितजी से साफ कह दिया था कि लड़केलड़की की कुंडली में कम से कम 24 गुण तो मिलने ही चाहिए.

राजीव की कुंडली के अनुसार घर के पंडित का लड़की ढूंढ़ना थोड़ा मुश्किल होने लगा तो घर वालों ने अपने गांव के कुछ और पंडितों को भी लड़की ढूंढ़ने के इस काम में शामिल कर लिया. अंत में पंडितों के काफी तलाशने के बाद ऐसी लड़की मिल ही गई जिस से राजीव की कुंडली के 36 में से 32 गुणों का मिलान हो गया. राजीव के घर वाले बहुत खुश हुए और जल्द ही लड़की वालों से मिल कर रिश्ते की बात भी पक्की कर आए. अप्रैल तक आतेआते राजीव की शादी हो गई और नया जोड़ा हनीमून के वास्ते कुछ दिनों के लिए शिमला चला गया.

राजीव और कल्पना की शादी के कुछ महीने अभी हुए भी नहीं थे कि उन के बीच छोटीमोटी बातों को ले कर अनबन होनी शुरू हो गई. पहले बात केवल एकदूसरे के प्रति नाराजगी तक थी, लेकिन कुछ समय बाद यह छोटीमोटी अनबन छोटेमोटे  झगड़ों का रूप धारण करने लगी.

ये भी पढ़ें- शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

घर वाले उन के बीच इन छोटे  झगड़ों को इग्नोर किया करते थे और कहते थे, ‘‘जिन पतिपत्नी के बीच  झगड़ा होता है उन के बीच प्यार भी उतना ही होता है.’’ अब यह बात कितनी सही कितनी गलत थी, यह तो बाद में ही सम झ आया जब छोटेमोटे  झगड़े इतने बढ़ने लगे कि सभी को चिंता होने लगी.

जैसेतैसे राजीवकल्पना की शादी को 7-8 महीने गुजर गए. उन का कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता था जब वे  झगड़ा न करते हों. साल 2019 की शुरुआत में ही वे दोनों एकदूसरे से इतने परेशान हो गए कि उन दोनों ने ही अपने परिवार की न मानते हुए एकदूसरे को तलाक देने का फैसला कर लिया. और अप्रैल 2019 के आतेआते वे दोनों कानूनी तरीके से एकदूसरे से अलग हो गए.

जिस जोड़े की कुंडली में 36 में से 32 गुणों का मिलान हो जाए, उस के बाद भी यदि शादी के बाद इतनी समस्याएं हों तो इस में किस का दोष है? क्या कुंडली मिलान करने वाले पंडित से गलती हुई? या फिर यह कुंडली वाला पूरा सिस्टम ही इस के पीछे का दोषी है? क्या शादीब्याह से पहले कुंडली देखना और गुणों का मिलान करना मात्र ढकोसला है या फिर इस के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है?

एक पल के लिए यदि हम मान भी लें कि कुंडली मिलाने वाले पंडित की गलती के कारण ये सभी समस्याएं नवविवाहित जोड़े को सहनी पड़ीं, लेकिन हम ने अपने जीवन में कई ऐसे उदाहरण देखे हैं जिन में सर्वगुण संपन्न कुंडली मेल के बाद भी विवाहित जोड़ा अपना वैवाहिक जीवन सफल नहीं बना पाता. और हम ने यह भी देखा है कि कुंडली मेल बिलकुल भी न होने पर कई जोड़े बेहद सुखद वैवाहिक जीवन गुजारते हैं. ऐसे में कुंडली मिलान की परंपरा पर सवाल उठना उचित हो जाता है कि जब इस के मिलने या न मिलने से विवाहित जोड़े के जीवन में कोई असर नहीं पड़ता तो अभी भी बहुसंख्य शादीब्याहों में इस परंपरा को इतना अधिक मोल क्यों दिया जाता है?

क्या है कुंडली मिलान

दावा किया जाता है कि कुंडली आप की ऊर्जा प्रणाली और उस पर ग्रहों की प्रणाली के प्रभावों का वर्णन करती है.

विवाह के समय लड़के और लड़की की जन्म कुंडलियों को मिला कर देखा जाता है. कुंडली मिलान की इस विधि में 36 गुण होते हैं. विवाह की मान्यता के लिए 36 में से कम से कम 18 गुणों का मिलान होना चाहिए. इन 18 गुणों में नाड़ी, माकुट, गण, मैकी, योनि, तारा वासिफ वर्ण जैसे 8 कूटों में बंटे अंक होते हैं.

कुंडली मिलान अपनेआप में वैज्ञानिक नहीं है. सब से पहले तो एस्ट्रोलौजी को ही वैज्ञानिक नहीं माना गया है.

क्यों बन गया जरूरी

यदि हम कुंडली मिलान प्रथा को और इस की प्रक्रिया को ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि इस मिलान के 36 गुणों में सब से महत्त्वपूर्ण गुण (जिसे गुण नहीं माना जाना चाहिए) वर्ण कूट है. वर्ण कूट से अभिप्राय वर्ण व्यवस्था से है. यानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. इन्हीं वर्णों से ही जातियों का उत्थान होता है. और तो और, वर्ण कूट को कुंडली मिलान की प्रक्रिया में सब से पहला स्थान दिया गया है.

ये भी पढ़ें- आधुनिकता उम्र की मुहताज नहीं

कुंडली मिलान की यह प्रक्रिया समाज में तब से ही चलती आ रही है जब से भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का उत्थान हुआ. पुराने समय में कुंडली मिलान की उपयोगिता केवल बेहतर साथी की तलाश के लिए (जिस की कोई गारंटी अभी भी नहीं है) ही नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था कायम रखने के लिए भी थी.

वर्ण व्यवस्था समाज में एक तरह की छतरी के समान होती है, जिस के अंदर अलगअलग जातियों का समावेश होता है. हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था को बेहद अहम स्थान दिया गया है. ब्राह्मण का विवाह ब्राह्मण से, क्षत्रिय का विवाह क्षत्रिय से, वैश्य का विवाह वैश्य से और शूद्र का विवाह शूद्र से ही हो, इस चीज का क्रियान्वयन कुंडली मिलान की प्रक्रिया से ही संभव था.

भारत में जाति व्यवस्था ने समाज को हमेशा बांट कर रखा. उस के पीछे सब से बड़ा कारण समाज में कुछ लोगों के पास ही सब से अधिक संसाधन और सब से अधिक अधिकारों को अपने हाथों में बनाए रखना था. और यह सब समाज में बिना धर्म के लागू करना संभव ही नहीं था. मुट्ठीभर लोग, जिन के हाथों में संसाधन और अधिकारों का केंद्रीयकरण हो गया, समाज को अपने आने वाली पीढि़यों में हस्तांतरित करना चाहते थे.

इसी कारण उन्होंने समाज में लोगों के पेशे के अनुसार उन्हें विभाजित कर दिया. किसी दूसरी जाति का व्यक्ति किसी अन्य जाति के साथ संबंध न बना ले, इसीलिए तरहतरह की पाबंदियां लगा दी गईं. यह केवल संबंध बनाने की बात नहीं थी, बल्कि एक जाति का खून दूसरी जाति में मिश्रित न हो जाए, इस के ऊपर कंट्रोल करने के लिए कुंडली मिलान की प्रथा सब से अहम थी.

आज के समय में भी शादी से पहले कुंडली मिलान की यह प्रथा आम घरों में बेहद आम है. चाहे लड़के के लिए लड़की तलाशनी हो या फिर लड़की के लिए लड़का, कुंडली में जब तक 18 गुण नहीं मिल जाते तब तक शादी के लिए मंजूरी नहीं मिलती. और कुंडली मिलान की यह प्रथा, पढ़ाईलिखाई से वंचित लोगों के साथसाथ खूब पढ़ेलिखे लोग भी अपनी शादी के लिए योग्य  वर या वधू की तलाश के लिए प्रयोग करते हैं.

सफल होने की नहीं है गारंटी

चूंकि ज्योतिष विद्या या एस्ट्रोलौजी किसी तरह का कोई विज्ञान नहीं है, इसलिए इस का एक हिस्सा यानी कि कुंडली मिलान का भी किसी तरह का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. कुंडली प्रथा में जिस तरह ग्रहों और नक्षत्रों के मेल या अमेल से किसी व्यक्ति के लिए कौन योग्य है और कौन नहीं, इस का आकलन करने की नाटकनौटंकी की जाती है, उस से यह कहीं से भी न तो वैज्ञानिक लगती है और न ही यह कोई विज्ञान है.

मामला केवल जाति व्यवस्था को बनाए रखना है, बाकी सब तो मदारी के खेल जैसा है. जिस से लोगों को लगता है कि ज्योतिषी जो भी राहू, केतु, शनि, मंगल कर रहा है वह सब ठीक ही होगा. जबकि, कुंडली मिलान से बनाए जाने वाले संबंध अपने वैवाहिक जीवन में सफल हों, इस की कोई गारंटी नहीं है.

मसलन, राजीव का ही उदाहरण ले लीजिए. 36 में से 32 गुणों के मिलान के बावजूद शादी का एक साल भी नहीं हुआ और दोनों का तलाक हो गया.

उसी प्रकार रवि की शादी का किस्सा है. कालेज के दिनों में रवि का कालेज में एक लड़की से प्रेम हो गया. लड़की का नाम बुशरा हसन था. बुशरा और रवि ने अपने घर पर एकदूसरे के बारे में बताया. लेकिन कोई बात नहीं बनी. अंत में रवि और बुशरा ने कानूनी तरीके से कोर्ट में जा कर शादी कर ली. हाल में उन से मुलाकात हुई तो वे एकदूसरे के साथ बेहद खुश नजर आए.

आजकल इन शादियों को रोकने के लिए लव जिहाद का नारा दिया जा रहा है ताकि धार्मिक भेदभाव की लकीरों को ऊंची दीवारों में बदला जा सके.

यदि हम पौराणिक कथाओं की बात करें तो भगवान राम और सीता की जोड़ी के समय जब उन की कुंडली का मिलान महर्षि गुरु वशिष्ठ द्वारा किया गया, तो कहा जाता है कि उन की जोड़ी में 36 में से 36 गुणों का ही मिलान हो गया था. परंतु जब 36 गुणों का मेल हो ही गया था तो अंत में सीता को क्यों धरती में समाना पड़ा?

कुंडली प्रथा कितनी व्यावहारिक

कुंडली मिलान की प्रथा केवल समाज में पहले से मौजूद जाति व्यवस्था को मजबूती देती है. इस से यह सवाल बनता है कि आज के आधुनिक समाज में कुंडली मिलान अपनी कितनी व्यावहारिकता रखता है?

उदाहरण के लिए रवि और बुशरा की जोड़ी को ही ले लीजिए. यदि हम नाम से दोनों के धर्म का अंदाजा लगाएं तो रवि हिंदू धर्म से और बुशरा मुसलिम धर्म से ताल्लुक रखती है. इस हिसाब से तो रवि का मेल किसी भी तरीके से बुशरा के साथ होना ही नहीं चाहिए. लेकिन सचाई कुछ और ही बयां करती नजर आ रही है कि दोनों एकदूसरे के साथ बेहद खुश हैं.

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में कई ऐसे हैं जिन्होंने विधर्मी से विवाह किया और उन के विवाह भी सफल रहे, कैरियर भी. उसी प्रकार एक सवाल यह भी बनता है कि जिन धर्मों में कुंडली मिलान जैसी प्रथाओं को प्रैक्टिस नहीं किया जाता, क्या उन के यहां रिश्ते होते ही नहीं? या फिर क्या उन में शादियां होती ही नहीं? और अगर होती हैं तो क्या उन के रिश्ते टूट जाते हैं?

आज के आधुनिक समाज में एस्ट्रोलौजी, हौरोस्कोप इत्यादि पर भरोसा करना खुद को वक्त में पीछे धकेलने जैसा है. एक तरह दुनिया में विज्ञान तेजी से प्रगति के रास्ते पर है तो कुछ लोग दूसरी तरफ धर्म का चश्मा लगा कर दुनिया को पीछे धकेलने का काम कर रहे हैं.

बाकी धर्म वाले भी पीछे नहीं

यदि यह लगता है कि केवल हिंदू धर्म में ही कुंडली मिलान की प्रथा विद्यमान है तो आप गफलत में हैं. कुंडली मिलान की प्रक्रिया एक ही समाज में एक वर्ग को दूसरे वर्ग से रिश्ते जोड़ने से रोकती है, एक तरह से यह बैरिकेड की तरह काम करती है.

भारत के मुसलिम समुदाय के लोग अपना आंगन बड़ा साफसुथरा दिखाने की कोशिश करते हैं. कहते हैं कि मुसलमानों में किसी तरह की कोई जाति नहीं होती, सब बराबर होते हैं इत्यादि. मुसलिम समुदाय में जाति होती है कि नहीं, यह जानने के लिए सब से सीधा और आसान तरीका इंटरनैट पर सर्च करना है. इंटरनैट खोलिए. गूगल पर मुसलिम मैट्रिमोनी टाइप कीजिए. किसी भी एक वैबसाइट पर विजिट कीजिए और थोड़ा सा सर्फिंग कीजिए. शेख, सिद्दीकी, अनवर, आरिफ, मलिक, अली इत्यादि कर के आप को मुसलमानों में जातियों की एक लंबी लिस्ट देखने को मिल जाएगी.

बेशक, मुसलिम में कुंडली मिलान जैसी प्रक्रिया नहीं फौलो की जाती लेकिन जाति का ध्यान तो रखा जाता है. मुसलिम समुदाय में अगड़े माने जाने वाले (मुगल, पठान, सैयद, शेख आदि) नहीं चाहते कि उन की शादी पिछड़े माने जाने वाले (अंसारी, नाई, सिद्दीकी, जोलाहा आदि) के घर में हो चाहे आर्थिक व शैक्षिक स्थिति एकजैसी हो. किसी ऊंची जाति के मुसलिम से यदि आप पूछ लेंगे कि क्या वे अपने बच्चों की शादी भंगी (अछूत मुसलिम) के घर में करेंगे, तो उन का जवाब न में ही होगा. वैसे, बता दें कि मुसलिम समुदाय में यह दावा किया जाता है कि वे छुआछूत प्रैक्टिस नहीं करते. दरअसल, कह देने भर से किस का क्या जाता है.

भारत में वैसे तो मुसलिम समुदाय अल्पसंख्यक है लेकिन इसी समुदाय की बहुसंख्य आबादी गरीब है, पिछड़ी है. जाहिर सी बात है कि भारत के मुसलिम समुदाय का बहुसंख्य हिस्सा पिछड़ा है या दलित है, जो कि अलगअलग पेशों में लगा हुआ है. जब शादीब्याह की बात होती है तो मुसलिम समुदाय में जाति व्यवस्था क्लीयर कट नजर नहीं आती.

कुछ ऐसा ही सिख समुदाय का भी हाल है. कुंडली मिलान यहां भी प्रैक्टिस नहीं की जाती, लेकिन जाति व्यवस्था तो कायम है. इंटरनैट पर ही सिख मैट्रिमोनी टाइप करने और किसी ंवैबसाइट पर विजिट करने भर से मालूम हो जाएगा कि यहां भी जाति के अनुसार ही लोग अपने घर के लड़केलड़कियों की शादी तय करते हैं. जाट, राजपूत, सैनी, अरोड़ा, भाटिया, बत्रा इत्यादि अपने या अपने से ऊपर की जातियों में अपने बच्चों की शादी करवाना चाहते हैं, अपने से निचली जाति में नहीं.

ये भी पढ़ें- शिल्पा- राज कुंद्रा : अपराध और भगवान

क्या करना चाहिए

बात सिर्फ कुंडली मिलान तक ही सीमित नहीं है. कुंडली मिलान समाज में एक धर्म में ही मुख्यरूप से प्रैक्टिस की जाती है, लेकिन वैसी ही प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी तो विद्यमान है.

एक तरफ तो पहले ही ज्योतिष ज्ञान (एस्ट्रोलौजी) को वैज्ञानिक नहीं माना गया है, वहीं दूसरी ओर इन को मानने वाले लोगों की संख्या समाज में बहुत बड़ी है. अर्थात, वे सभी अवैज्ञानिक चीजों पर भरोसा करते हैं. इस की वजह से आधुनिक समाज की यह ट्रेन आज भी कहीं न कहीं उन्हीं पुरानी अवैज्ञानिक, रूढि़वादी, अंधविश्वास की पटरी पर सवार है जो कि अकसर जातिवाद जैसे स्टेशन पर ही प्रस्थान करती है.

भारत को आजाद हुए 73 साल हो चुके हैं परंतु आज भी हमारे समाज से जातिवाद खत्म नहीं हुआ. इस की वजह केवल एक है कि हमारे दादादादी, नानानानी, मांबाप ने इस जाति व्यवस्था को कायम किया हुआ है.

अपनी जाति में बच्चों की शादियां करवा के अगर हम भी अपने पूर्वजों के किए हुए काम को करेंगे तो हमें कोई हक नहीं यह सवाल करने का कि, ‘भारत से जाति कभी क्यों नहीं जाती?’ इस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए यह जरूरी है कि हम इस कुंडली मिलान की सब से पहली सीढ़ी को ही न चढ़ें.

समय विज्ञान का है, न कि धार्मिक अंधविश्वास और पोंगेपन का. खुद को तैयार कर लें और अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य प्रदान करें. ज्योतिष ने कोविड जैसी महामारी की कोई भविष्यवाणी नहीं की थी. किसी पूजापाठ ने कोविड को खत्म नहीं किया.

शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

लेखक- सौमित्र कानूनगो

शिक्षा का व्यापारीकरण होते तो हम सभी ने बीते कई सालों में देखा है लेकिन अब जो हो रहा है वह केवल व्यापारीकरण भर नहीं है. महामारी में बच्चों को औनलाइन शिक्षा देना अच्छा सुनाई पड़ता है, परंतु असमृद्ध परिवारों के लिए यह एक नई महामारी के जन्म जैसा है.

लौकडाउन और कोरोना महामारी के खतरे से जहां एक ओर पूरा मानव जीवन प्रभावित हो रहा है वहीं बच्चों की पढ़ाई भी सब से ज्यादा प्रभावित होती नजर आ रही है. मार्च में लौकडाउन लागू किए जाने के बाद से ही देश के शिक्षण संस्थान बंद हैं और पढ़ाई के लिए बच्चे अब औनलाइन एजुकेशन पर निर्भर हैं.

महामारी के खतरे को देखते हुए हमारे देश के विद्यार्थियों के लिए औनलाइन एजुकेशन एक अच्छा रास्ता है. लेकिन जहां हमारे देश में लगभग 70 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं और उन के पास लैपटौप या मोबाइल जैसी सुविधा भी नहीं होती है, वहां रहने वाले विद्यार्थी औनलाइन शिक्षा कैसे ले पाएंगे?

उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर के सरकारी विद्यालय में पढ़ाने वाली शिक्षिका शुभ्रा बनर्जी बताती हैं, ‘‘हमारे यहां 99 प्रतिशत बच्चे इतने समर्थ नहीं हैं कि उन के पास लैपटौप या उन के घर पर वाईफाई की सुविधा हो. कई बच्चों के घरों में फोन भी एक ही है, उस में भी कुछ ही बच्चों के पास स्मार्टफोन है, बाकी बच्चों के पास स्मार्टफोन भी नहीं है.’’

ये भी पढ़ें- आधुनिकता उम्र की मुहताज नहीं

स्क्रौल की वैबसाइट पर प्रकाशित एक आर्टिकल के मुताबिक, सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीयों के पास स्मार्टफोन हैं और सिर्फ 11 प्रतिशत घर ऐसे हैं जहां किसी प्रकार का कंप्यूटर है, मतलब डैस्कटौप, लैपटौप, टेबलेट आदि है.

2017-2018 की शिक्षा पर नैशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक,

सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीय घरों में ही इंटरनैट की सुविधा है.

ये आंकड़े हमें यह दिखाते हैं कि हमारे देश के कुछ विद्यार्थी तो सुविधा पा कर अपनी पढ़ाई कर पा रहे हैं पर एक बड़ी संख्या में विद्यार्थी सुविधा के अभाव में शिक्षा से दूर हैं.

स्मार्टफोन, लैपटौप, इंटरनैट के खर्चे ने अभिभावकों को भी परेशान कर दिया है. औनलाइन शिक्षा से वे अभिभावक ज्यादा परेशान हैं जिन के बच्चे निजी स्कूलों में निशुल्क शिक्षा अधिनियम के तहत पढ़ते हैं. सोचिए, जिन के पास फीस देने के पैसे नहीं, आखिर वे स्मार्टफोन और लैपटौप का खर्चा कैसे उठाएंगे?

कुछ महीने पहले तक बच्चों को मोबाइल फोन पर गेम खेलने के लिए मांबाप की डांट पड़ती थी. जब से कोरोना का कहर टूटा है, वही मातापिता अपने बच्चों के लिए लौकडाउन में भी बाजारबाजार घूम कर स्मार्टफोन, मोबाइल, टैबलेट खरीदते दिखे. वे अच्छी से अच्छी कंपनी का मोबाइल फोन ढूंढ़ रहे हैं जिस में पिक्चर भी क्लीयर आए, स्क्रीन भी बड़ी हो और जिस पर इंटरनैट भी धांसू चले.

घर की कमजोर आर्थिक स्थिति में बच्चों की पढ़ाई को ले कर मातापिता की बड़ी हुई चिंताओं की बानगी देखिए कि कोरोना महामारी ने एक गरीब पिता को अपनी बेटी के लिए स्मार्टफोन खरीदने और स्कूल की फीस भरने के लिए अपनी गाय बेचने पर मजबूर कर दिया.

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के एक पिता ने ऐसा इसलिए किया ताकि कोरोना के चलते उन की बेटी की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए. लखनऊ में सैफ अयान के पिता आरिफ, जो खुद भी एक टीचर हैं, 7वीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने बेटे सैफ की पढ़ाई को ले कर बहुत चिंतित हैं. सैफ आजकल औनलाइन पढ़ाई कर रहा है. खुद उन्हें भी अपने स्टूडैंट्स को औनलाइन पढ़ाना पड़ रहा है. बेटे की औनलाइन पढ़ाई के लिए उन को अलग से 12 हजार रुपए का नया स्मार्टफोन खरीदना पड़ा. इस के अलावा ट्राइपौड, ब्लैकबोर्ड, अच्छा इंटरनैट प्लान और पढ़ाई से संबंधित दूसरी जरूरी चीजों की खरीदारी में करीब 20 हजार रुपए खर्च हो गए.

लेकिन इतने ताम?ाम के साथ चल रही औनलाइन पढ़ाई का हाल यह है कि ढाई घंटे की औनलाइन पढ़ा के बाद आरिफ जब खुद सैफ को ले कर पढ़ाने बैठते हैं तब जा कर उस की सम?ा में कुछ आता है. शाम को उस को घर के पास ही चलने वाली ट्यूशन क्लास में भी भेजते हैं.

ये भी पढ़ें- रीति रिवाजों में छिपी पितृसत्तात्मक सोच

आरिफ कहते हैं, ‘‘मोबाइल फोन पर टीचर जो लैक्चर दे रही हैं उस का 5 फीसदी भी बच्चे को सम?ा में आ जाए तो बहुत है. मोबाइल फोन पर लगातार आंखें गड़ाए रखने के बाद जब मेरा बेटा ढाई घंटे बाद उठता है तो उस की आंखों से पानी गिरता है, रातभर बच्चा सिरदर्द से परेशान रहता है. इस तरह और कुछ महीने पढ़ाई चली, तो बच्चा बीमार पड़ जाएगा.’’

औनलाइन शिक्षा की परेशानी

आरिफ कहते हैं, ‘‘औनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक भर है. गाइडलाइन है कि 8वीं तक के छात्रों की औनलाइन क्लास डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. लेकिन स्कूल वाले 3 से 4 घंटे तक बच्चों को पीस रहे हैं. सैकंडथर्ड क्लास का बच्चा भी 4-4 घंटे मोबाइल फोन में आंखें गड़ाए बैठा है. उधर, टीचर को पता ही नहीं चलता है कि 40-50 बच्चों में कौन गंभीरता से पढ़ रहा है और कौन खेल कर रहा है, किस का ध्यान पढ़ाई पर है और किस का नहीं.

ऐसे छोटे बच्चों के साथ भी औनलाइन एजुकेशन का विकल्प काम नहीं कर रहा है, जो स्वभाव से शरारती हैं और एक जगह बैठ कर ध्यान लगा कर अपना काम नहीं करना चाहते हैं. ऐसे बच्चों के लिए बहुत देर तक स्क्रीन के सामने बैठना समस्या ही है.’’

मातापिता का भी यह कहना है कि हमारे खुद के पास इतना समय नहीं है कि हम बच्चे को पढ़ा सकें क्योंकि हमें भी घर से अपना काम करना पड़ रहा है. कुछ बच्चों के मातापिता पढ़ेलिखे न होने के कारण इस स्थिति में असहाय महसूस कर रहे हैं.

औनलाइन कक्षाओं के तहत संसाधनों की कमी का सब से अधिक सामना 10वीं और 12वीं के छात्रों को करना पड़ रहा है. मध्य प्रदेश राज्य के नरसिंगपुर शहर के प्राइवेट स्कूल में 12वीं कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी संचित बताता है, ‘‘हमारी औनलाइन क्लास में पढ़ाई ठीक से नहीं चल रही है. हमें व्हाट्सऐप ग्रुप पर अलगअलग विषय की, बस, पीडीएफ भेज देते हैं. हफ्ते में एक दिन भी कोई औनलाइन क्लास नहीं हो रही है, टैस्ट वगैरह कुछ नहीं हो रहा है, पूरा साल खराब जा रहा है. 12वीं है, पता नहीं कैसे क्या होगा.’’

दिल्ली के नजफगढ़ शहर के सरकारी स्कूल में 12वीं में पढ़ने वाली राधा कहती है, ‘‘औनलाइन पढ़ाई में हमारे सवाल, जो हमें टीचर से पूछने हैं, वे रह जाते हैं क्योंकि टीचर सभी बच्चों को रिप्लाई नहीं कर पाते हैं और हमारे सवालों के जवाब नहीं दे पाते हैं. क्लासरूम में यह आसान था क्योंकि टीचर से आप सामने खड़े हो कर सवाल पूछ सकते थे. हम क्लासरूम में दोस्तों से भी किसी विषय पर जो सम?ा न आ रहा हो, आसानी से उस पर चर्चा कर सकते थे. पर औनलाइन में वह नहीं हो पाता है.’’

इस के अलावा कुछ बड़ी कक्षाओं और छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने बताया कि वे संयुक्त परिवारों में रहते हैं तो उन के लिए पढ़ाई का माहौल ही नहीं बन पाता है. मध्य प्रदेश का संचित, जो 12वीं कक्षा में पढ़ता है, का कहना है, ‘‘पहले स्कूल जा कर मैं आराम से पढ़ सकता था. वह समय सिर्फ मेरे स्कूल का था. पर घर में इतनी चहलपहल के बीच मु?ो वह माहौल नहीं मिल पाता है.’’ कई बच्चों के घर छोटे हैं, उन में उन के लिए अलग कमरा या जगह नहीं है जिस वजह से भी उन्हें पढ़ने में मुश्किल हो रही है.

शिक्षा का बेड़ा गर्क

औनलाइन क्लासेस ने शिक्षा और छात्र दोनों का बेड़ा गर्क कर दिया है. छोटेछोटे बच्चों की 4-4 घंटे तक औनलाइन क्लास चल रही है. बच्चे पस्त हो रहे हैं, गार्जियन के सामने नएनए बहाने बना रहे हैं. बच्चे अवसाद के शिकार भी हो रहे हैं. सोचिए कि केजी क्लास का नन्हा सा बच्चा औनलाइन क्या सीख और पढ़ रहा होगा? क्या औनलाइन क्लासेज पैरेंट्स को बेवकूफ बना कर पैसे ऐंठने का जरिया नहीं हैं?

लखनऊ के क्राइस्ट चर्च स्कूल में पढ़ने वाले 5वीं कक्षा के विद्यार्थी आलिंद नारायण अस्थाना की मां शिफाली अस्थाना कहती हैं, ‘‘हम स्कूल की इतनी लंबीचौड़ी फीस क्यों भरें जब बच्चा औनलाइन कुछ सीख ही नहीं पा रहा है? इस औनलाइन क्लास ने हमारी तो कमर ही तोड़ दी है. बिजली हमारी, इंटरनैट का खर्चा हमारा, अलग से ट्यूशन टीचर हमें रखनी पड़ रही है, स्मार्टफोन, लैपटौप हमें खरीदने पड़ रहे हैं, तो स्कूल वाले किस बात की फीस और किस बात का मेंटेनैंस चार्ज मांग रहे हैं? न तो उन की बिल्ंिडग इस्तेमाल हो रही है, न बिजलीपानी और न ही बच्चे को लाने व ले जाने के लिए बस, तो स्कूल ट्यूशन फीस में ये तमाम चार्जेस क्यों जोड़ रहे हैं? हम ने तो 4 महीने से फीस नहीं दी है और आगे भी अगर इसी तरह औनलाइन क्लास चलेगी, तो कोई फीस नहीं देंगे.’’

ये भी पढ़ें- शिल्पा- राज कुंद्रा : अपराध और भगवान

उन अभिभावकों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है जो प्राइवेट नौकरी में रहते हुए छंटनी के शिकार हो गए या फिर बिजनैस में थे और कोरोनाकाल के लौकडाउन में उन के बिजनैस की रीढ़ ही टूट गई. जिंदगी में दो जून की रोटी के लाले पड़ गए तो बच्चों की फीस का इंतजाम कहां से करें? जिन के 3 या 4 बच्चे हैं, भला वे कहां से इतना पैसा लाएं कि हर बच्चे के हाथ में एक नया स्मार्टफोन और इंटरनैट कनैक्शन दे सकें?

घर में पहले एक स्मार्टफोन था, तो अब जरूरत उस से ज्यादा की है. स्मार्टफोन पर औनलाइन क्लास तो सजा ही है, सही माने में तो लैपटौप चाहिए. लेकिन 3-4 बच्चों के लिए 3-4 लैपटौप का इंतजाम अभिभावक कैसे करें? गाजियाबाद में रहने वाले अशोक मिश्रा के 3 बच्चे हैं, तीनों की क्लास एक ही वक्त शुरू हो जाती है. वे बेचारे अड़ोसपड़ोस से मोबाइल फोन मांग कर लाते हैं. घर में एक लैपटौप है, उस को ले कर ?ागड़ा मचता है.

फाइवस्टार स्कूलों की चांदी

हालांकि बड़े शहरों के फाइव स्टार स्कूलकालेज, जिन में बड़ेबड़े नेताओं और व्यापारियों का पैसा लगा है, को कोरोना महामारी से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है. कई मैडिकल, इंजीनियरिंग कालेज लौकडाउन के बावजूद पैरेंट्स से पूरी फीस वसूल रहे हैं. ऐसे स्कूलों में फीस न देने का कोई रास्ता नहीं है. कोई मुरव्वत नहीं, फीस नहीं तो नाम कट. अब जहांतहां से इंतजाम कर के लोग फीस भर रहे हैं. यही नहीं, कुछ नामी स्कूल तो तय सीमा से ज्यादा फीस ले रहे हैं. सैमेस्टर की फीस जमा करने के लिए फाइव स्टार प्राइवेट यूनिवर्सिटी सिर्फ 2 दिन का वक्त देती हैं, वह भी बिना पूर्व सूचना के. फीस में एक दिन की भी देरी हुई, तो लेट पेमैंट के नाम पर करीब हजार रुपए का चूना लग जाता है. ज्यादा देर हो गई, तो दोगुनी फीस भी देनी पड़ सकती है.

इन यूनिवर्सिटीज में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले उन तमाम मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की परेशानियों का कोई अंत नहीं है, जिन के 2 या उस से ज्यादा बच्चे हैं. सब की औनलाइन क्लास एक ही वक्त चलनी है, इसलिए सभी को लैपटौप और स्मार्टफोन इंटरनैट कनैक्शन के साथ चाहिए. अब स्कूल प्रशासन के सामने छात्रों के बीच अनुशासन मैंटेन करने का कोई ?ां?ाट नहीं है. स्कूल के रखरखाव की परेशानी भी कम हो गई है. खेल एक्टिविटीज बंद हैं. वाहन चल नहीं रहे हैं. लेकिन उन सब की फीस ली जा रही है. पढ़ाई की क्वालिटी के बारे में कोई सवाल नहीं उठ रहे. स्कूल प्रशासन को अच्छी तरह पता है कि कोरोनाकाल में अभिभावक संगठित नहीं हो सकते. सो, इन की पहले भी चांदी थी, अब भी चांदी है.

शिक्षा एक महंगा प्रोडक्ट

हम सारे आंकड़ों को, शिक्षकों और विद्यार्थियों के अनुभव को देखें तो लगता है कि औनलाइन एजुकेशन शिक्षा को एक बाजार से खरीदी जाने वाली चीज की तरह बना रही है जिस के पास पैसा और संसाधन हैं वे तो इसे आसानी से खरीद कर इस का लाभ उठा पा रहे हैं पर गरीब तबका और ऐसे लोग, जो गांव या कसबे में रहते हैं, सुविधा के अभाव के चलते अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे पा रहे.

इस का मतलब यह नहीं है कि औनलाइन एजुकेशन नहीं होनी चाहिए. लेकिन प्रशासन को यह सोचना होगा कि अगर औनलाइन एजुकेशन के अलावा और कोई भी कदम उठाए जाएं तो उस का लाभ सिर्फ समृद्ध लोगों को ही न मिले, हमारे देश का वह तबका जो समृद्ध नहीं है वह छूट न जाए. संसाधनों के अभाव से ग्रस्त हमारे देश के शिक्षक और विद्यार्थी महामारी के दौर में अगली पूरी पीढ़ी की शिक्षा को दांव पर लगा देख इन सवालों के साथ प्रशासन की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं.

आर्थिक तंगी से जूझ रहे स्कूल 

स्कूल, कालेज प्रशासन का भी हाल खस्ता है. कोरोनाकाल में कई छोटे स्कूल आर्थिक तंगी का शिकार हो कर बंद होने की कगार पर हैं. एक कसबाई स्कूल के प्रिंसिपल साहब कहते हैं, ‘‘छात्रों ने स्कूल में आना बंद कर दिया तो अभिभावकों ने फीस भी बंद कर दी. अध्यापक से ले कर चपरासी तक पैदल हो गए और सरकार बिजली का बिल, पानी का बिल भेजने में शर्म नहीं कर रही है. आखिर कुछ तो रियायत सरकार भी दिखाए.’’

तमाम प्राइवेट स्कूलकालेजों की हालत खस्ता है. प्राइवेट कालेज के कई अध्यापक अब सब्जी और फल बेच रहे हैं, ऐसी खबरें रोज आ रही हैं.

-साथ में नसीम अंसारी कोचर 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें