नारी हर दोष की मारी

लेखक- रोचिका अरुण शर्मा

आज भी स्त्रियों के लिए सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएं जैसे उन्हें निगलने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं. कई योजनाएं बनती हैं, लेख लिखे जाते हैं, कहानियां गढ़ी जाती हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं और सब से खास प्रतिवर्ष महिला दिवस भी मनाया जाता है. किंतु हकीकत यह है कि घर की चारदीवारी में महिलाएं बचपन से ले कर बुढ़ापे तक समाज एवं धर्म की मान्यताओं में बंधी कसमसा कर रह जाती हैं.

कुंआरी लड़की एवं विधवा दोष

कुछ महीने पहले की ही बात है  झुन झुनवाला की 25 वर्षीय बिटिया के विवाह की बात चल रही थी, लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था. लेकिन फिर बात आगे न बढ़ सकी, जब  झुन झुनवाला से पूछा गया कि मिठाई कब खिला रही हैं तो कहने लगीं, ‘‘क्या करें हम तो तैयार बैठे हैं मिठाई खिलाने के लिए पर बिटिया की कुंडली में ही दोष है, कोई रिश्ता बैठता ही नहीं.’’

कैसे दोष? पूछने पर कहने लगीं कि लड़के वालों ने पंडितजी को दिखाई थी बिटिया की कुंडली, कहने लगे कुंडली में ग्रहों की स्थिति बताती है कि बिटिया का विधवा योग है. विवाह के कुछ बरसों पश्चात ही वह विधवा हो जाएगी. तो भला कौन अपने लड़के को हमारी बिटिया से ब्याहेगा? उन के माथे पर चिंता की लकीरें गहरा गई थी.

अनब्याही में मांगलिक दोष

पुणे में रहने वाली स्मिता कहती हैं कि उन का विवाह बड़ी उम्र में हुआ, क्योंकि कुंडली में मांगलिक दोष था. कहा जाता है कि मांगलिक दोष वाली युवती के ग्रह मांगलिक दोष वाले पुरुष से मिलने चाहिए तभी विवाह का सफल होना संभव है अन्यथा या तो दोनों में से एक की मृत्यु हो जाती है या फिर तलाक. कुल मिला कर किसी भी कारण से विवाह असफल ही रहता है. ऐसे में अकसर मांगलिक युवतियां बड़ी उम्र तक कुंआरी रह जाती हैं या फिर इस मंगल दोष को हटाने के लिए पूजा एवं समाधान बताए जाते हैं, उन कार्यों को संपन्न करने पर ही ऐसी युवतियों का विवाह होता है. बढ़ती उम्र तक यदि विवाह न हो तो समाज ताने देने से नहीं चूकता.

तलाकशुदा स्त्री

हैदराबाद में रहने वाली संजना का अपने पति से विवाह के करीब 5 वर्ष बाद 30 की उम्र में ही तलाक हो गया था. उस  समय उन का बेटा था जिसे संजना ने अपने पास ही रखा. तलाक के कुछ वर्षों बाद उन के पति ने तो पुनर्विवाह कर लिया, किंतु संजना अब 50 वर्ष की हैं और एकाकी जीवन जी रही हैं. वैसे तो वे स्वयं आईटी इंडस्ट्री में कार्यरत हैं सो आर्थिक स्थिति अच्छी ही है फिर भी जब उन से पुनर्विवाह के बारे में पूछा गया तो कहने लगीं, ‘‘अब इस उम्र में कौन करेगा मु झ से विवाह और जब जवान थी तब एक बच्चे की मां से कौन करता विवाह? कोई दूसरे के बच्चे की जिम्मेदारी लेता है भला?’’

इस तरह के न जाने कितने मामले देखने को मिल जाएंगे जिन में लड़की में दोष बता कर उसे एकाकी, पाश्चिक या निम्न स्तर की जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया जाता है.

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विधवा स्त्री

इसी तरह एक मामला देखने को मिला जिस में एक पढ़ीलिखी, सुंदर, स्मार्ट महिला के पति की कम उम्र में मृत्यु हो गई. क्योंकि पति सरकारी नौकरी में थे, महिला को उन की मृत्यु के पश्चात अच्छी रकम मिली. महिला का एक नवजात बेटा भी था.

किसी कारणवश महिला को ससुराल वालों का सपोर्ट नहीं मिली तो वह मायके में रहने लगी. मायके में भाईभाभी की नजर में वह खटकती. यह देख कर उस के मातापिता ने पढ़ालिखा अच्छा कमाने वाला तलाकशुदा पुरुष देख कर उस का पुनर्विवाह कर दिया. कुछ समय तो ठीकठाक चला, किंतु फिर अकसर महिला के बच्चे को ले कर पतिपत्नी में अनबन रहने लगी. सास की नजर महिला के पहले पति की मृत्यु उपरांत प्राप्त धनराशि पर रहती. अब जब घर में कुछ  झगड़ा होता, बारबार महिला को ताना दिया जाता कि एक तो विधवा वह भी एक बच्चे की मां से विवाह किया. रोजरोज के  झगड़ों एवं तानों से परेशान हो इस महिला ने स्वयं ही अपने दूसरे पति से तलाक ले लिया.

अब यहां सोचने वाली बात यह है कि वह विधवा हुई उस में उस का क्या दोष? बच्चा भी नाजायज नहीं? उस के पति से संबंध के फलस्वरूप हुआ जबकि दूसरा पति तो तलाकशुदा था, हो सकता है उसी का या उस के परिवार का व्यवहार बुरा रहा हो जिस के चलते उस की पहली पत्नी से उस का तलाक हुआ हो. लेकिन बारबार महिला को विधवा होने का दोष देना कहां तक उचित है?

इस मामले में तो पढ़ीलिखी स्मार्ट महिला थी सो पुनर्विवाह हुआ और न जमने पर उस ने तलाक ले लिया. यदि यहां गांव की, मजबूर, कम पढ़ीलिखी, आर्थिक रूप से कमजोर स्त्री होती तो उस की दुर्दशा होनी तय थी.

सशक्त वीरांगना

इसी तरह का एक और महिला का उदाहरण है जिस में महिला का पति फौज में था और शहीद हो गया. नवविवाहित महिला पढ़ीलिखी है, उस का एक बच्चा भी है. उसे अपने पति के बदले में नौकरी मिल गई सो वह आर्थिक रूप से सशक्त रही. एक बच्चा था जिसे उस ने बड़ी ही लगन और मेहनत से पालपोस कर बड़ा किया.

किंतु समस्या तब आती जब सबकुछ होते हुए भी वह एकाकी जीवन जीती. मन कहीं रमणीय स्थल पर घूमने जाना चाहता है, क्योंकि कम उम्र में पति शहीद हुए, सुखद वैवाहिक जीवन के सपने तो उस ने भी देखे थे, वह भी अच्छे वस्त्र पहन कर अपने पति की बांहों में बांहें डाले किसी फिल्मी अभिनेत्री की तरह घूमनाफिरना चाहती थी, तसवीरें खिंचवाना चाहती थी.

सोशल मीडिया का जमाना है. अपनी तसवीरें वह भी दूसरों के साथ शेयर करना चाहती थी. किंतु पति के न रहने पर वह किस के साथ घूमेफिरे? कैसे खुशियां बटोरे? यदि उम्र ज्यादा होती तो शायद वह इस जीवन को जी चुकी होती, उस के शौक पूरे हुए होते, किंतु बच्चा छोटा होने से वह अकेली तो पड़ ही गई. सो मन मान कर जीने पर मजबूर हो गई. क्योंकि ऐसे में न तो कोई रिश्तेदार और न ही कोई मित्र अपने परिवार में किसी अन्य का दखल पसंद करता है और न ही कोई उस की जिम्मेदारी लेना चाहता है.

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परित्यक्त स्त्री

ऐसा ही एक उदाहरण है परित्यक्त स्त्री का जिसे उस के पति ने  झगड़ा कर घर से निकाल दिया. उस की 5 वर्षीय बेटी भी मजबूरन उस के साथ अपने ननिहाल में आ गई. वह महिला अपने मायके में आ कर नौकरी करने लगी. मातापिता ने सोचा आखिर कब तक वह उसे सहारा देंगे? उन की भी तो उम्र बढ़ती जा रही है. सो उन्होंने उस की बेटी को ददिहाल भेज दिया, सोचा कि बेटी के लिए मां की आवश्यकता पड़ेगी तो ससुराल वाले उसे बुला लेंगे. किंतु ऐसा नहीं हुआ, बल्कि उस महिला के मातापिता ने उस का तलाक करवाया और एक ऐसे पुरुष से विवाह कर दिया जिस की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और उस के 2 बच्चे व मरणासन्न बूढ़ी मां थी.

यह विवाह तो हो गया, किंतु क्या वह महिला इस विवाह में अपनी बेटी को अपने साथ नहीं रख सकती? जब वह अपने दूसरे पति के बच्चे पालती होगी तो क्या उसे अपनी बेटी याद नहीं आती होगी? क्या उस 5 वर्षीय बच्ची के साथ अन्याय नहीं हुआ?

जबकि महिला के दोनों पति तो अपनी जिंदगी आराम से जीते रहे. इस केस में मु झे महसूस होता है दूसरे विवाह के समय उस महिला को पत्नी का नहीं अपितु परिचारिका का दर्जा दिया गया था वरना उस की बेटी को भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए था. इस से मांबेटी बिछड़ती नहीं.

कुंडली में दोष एवं उपाय

कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि लड़की की कुंडली में दोष बताया जाता है फिर किसी न किसी पूजा, यज्ञ, हवन के माध्यम से उसे दोषमुक्त किया जाता है. तब कहीं जा कर उस के विवाह की बात आगे बढ़ती है.

इसी तरह विधवा महिलाओं के लिए कई मान्यताएं एवं धारणाएं तय कर दी गई हैं जो उन के जीवन को अति निम्न स्तर का, नारकीय एवं पाश्चिक बना देती हैं. किसी भी स्त्री का विधवा होना किसी अभिशाप से कम नहीं है.

वैदिक ज्योतिष कुंडली के अनुसार विवाह, वैवाहिक जीवन एवं विवाह की स्थिति के लिए सप्तम भाव का अध्ययन किया जाता है. इस के अनुसार किसी स्त्रीपुरुष के विवाह के बाद वैवाहिक जीवन में आने वाली स्थितियों का अध्ययन किया जा सकता है. इन भावों के स्वामियों से संबंध बनाना वैवाहिक जीवन के सुखों में कमी करता है.

सप्तम भाव के अध्ययन के अनुसार इस भाव में मंगल एवं पाप ग्रहों की स्थिति कन्या की कुंडली में होने पर विधवा योग बनते हैं.

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विभिन्न भावों, कुंडली में चंद्रमा के स्थान व राहू की दशा के अनुसार कन्या का निश्चित रूप से विधवा होना तय है.

कुछ कुंडली दोष कहते हैं कि स्त्री विवाह के उपरांत 7-8 वर्ष के अंदर विधवा हो जाती है. लग्न एवं सप्तम दोनों में पाप ग्रह हो तो स्त्री के विवाह के 7वें वर्ष में पति का देहांत हो जाता है.

इस तरह के अनेक योग व दशा ज्योतिषियों द्वारा समयसमय पर लिखी व कही गई हैं और अब तो यह जानकारी इंटरनैट पर भी उपलब्ध है.

सिर्फ इतना ही नहीं इस तरह की जानकारी के साथ विभिन्न शहरों में रहने वाली महिलाओं के नाम के साथ उन के कुंडली दोष व विधवा होने की स्थिति का जिक्र भी किया गया है ताकि लोग उसे सत्य मान कर स्वीकार करें और कुंडली में भरोसा करें.

इन सब के अलावा इंटरनैट पर मेनका गांधी एवं सोनिया गांधी की कुंडली का जिक्र किया गया है और यह भी बताया गया है कि उन की कुंडलियों के अध्ययन से पता चलता है कि कितनी कम उम्र में उन्हें वैधव्य प्राप्त होगा और वह हुआ भी. साथ ही यह भी लिखा गया है कि यदि शनिमंगल का उपाय कर लिया जाए तो वैधव्य योग टल सकता है.

विधवा स्त्री के लिए विधवा व्रत

शास्त्रों में जिस तरह स्त्री के लिए पविव्रत धर्म है उसी प्रकार विधवा स्त्री के लिए विधवा व्रत का विधान है जिस में विधवा को किस तरह का जीवन जीना चाहिए इस के लिए मानक तय हैं:

विधवा स्त्री को पुरुषों के साथ अथवा अपने मायके में ही रहना चाहिए.

विधवा स्त्री को शृंगार, अलंकरण यहां तक कि सिर धोना भी छोड़ देना चाहिए.

विधवा स्त्री को सिर्फ एक ही समय भोजन करना चाहिए और एकादशी के दिन अन्न का पूर्ण त्याग करना चाहिए.

विधवा स्त्री को खट्टामीठा नहीं खाना चाहिए, सिर्फ साधारण खाना खाना चाहिए.

सार्वजनिक कार्यों, शुभकार्यों, विवाह, गृहप्रवेश आदि में नहीं जाना चाहिए.

विधवा स्त्री को भगवान शिव की उपासना करनी चाहिए और अपनी संतानकी देखरेख करनी चाहिए और उस के लिए व्रत करने चाहिए.

विधवा से विवाह करने वाला नर्क में जाता है.

इस के अलावा यदि कोई स्त्री विधवा नहीं है, किंतु उस का पति परदेस में रहता है तो उसे भी विधवा व्रत का विधान मानना चाहिए.

वीडियो भी उपलब्ध

कुंडली, ज्योतिष, विधवा व्रत आदि पर न सिर्फ लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऐसे वीडियो भी मिल जाएंगे जिन में बताया गया है कि विधवा स्त्री को पुनर्विवाह करना चाहिए या नहीं?

विधवा स्त्री के हाथ से कोई शुभ कार्य नहीं करवाया जाता? विधवा स्त्री को सफेद साड़ी क्यों पहनाई जाती है? घर के दोष से भी औरत हो सकती है विधवा.

स्त्री को आशीर्वाद दिया जाता है ‘अखंड सौभाग्यवती भव’’ यानी जब तक वह जीवित रहे उस का सुहाग अखंड रहे. सोचने की बात यह है कि यह आशीर्वाद पुरुष को नहीं दिया जाता, क्योंकि पुरुष तो स्त्री के न रहने पर पुनर्विवाह का हकदार है. यदि उस के 2-3 बच्चे भी हों तो भी कोई न कोई स्त्री उस से विवाह कर ही लेगी. किंतु यदि कोई स्त्री विधवा हो गई तो हमारे समाज और धर्म की मान्यताएं तो जैसे उस के मनुष्य जीवन पर ऐसा कुठाराघात करेंगी कि उस का जीना जैसे नर्क हो.

सोचने की बात यह है कि यदि पुरुष की मृत्यु हो तो उस का दोष स्त्री की कुंडली को. पति की मृत्यु की सजा उस की पत्नी को. क्या यह हमारे समाज के नियमों का दोष नहीं? क्या इस दोष का कोई उपाय नहीं होना चाहिए?

आज जहां हम एक तरफ विज्ञान में नई खोज, आविष्कार, तरक्की की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर विधवा, परित्यक्त, अविवाहित स्त्री के जीवन में सुधार की बातें क्यों दबी रह जाती हैं? क्यों ऐसी स्त्रियां घुटनभरा जीवन जीने पर मजबूर होती हैं? सिर्फ मंचों पर कार्यक्रम से कुछ नहीं होने वाला है. आवश्यकता है खुले मन से उन्हें स्वीकारने की. वे जैसी भी हैं, जिस स्थिति में हैं, इंसान वे भी हैं.

कथित धर्म ध्वजा वाहक राम रहीम की “उम्र कैद का संदेश”

एक समय में धर्म की नाव में बैठकर लाखों लोगों को भ्रमित करने वाले बाबा राम रहीम ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा और न ही उनके  किसी कथित भक्त ने सोचा  होगा कि देश दुनिया में “सच्चा डेरा” की एक समय में धूम मचाने वाले गुरमीतसिंह उर्फ बाबा राम रहीम को एक दिन उसके अपराध की सजा भी मिलेगी.

अब  ऐसा हो गया है, सीबीआई की विशेष अदालत ने बाबा राम रहीम को उम्र कैद की सजा सुना दी है अब बाबा राम रहीम के ऊपर ऐसे  प्रकरण और सजाएं हैं कि वह  जिंदगी में शायद ही कभी खुली हवा में सांस ले सकें, बाहर आ सकें और डेरा सच्चा सौदा का संचालन कर पाएंगे.

इस  विशेष रिपोर्ट में हम आपको स्वयं को सर्व शक्तिमान घोषित करने वाले बाबा राम रहीम के कुछ महत्वपूर्ण जानने योग्य तथ्य बताने जा रहे हैं.

दरअसल, एक संत और बाबा का चोला पहनने वाले कथित बाबा राम रहीम समेत 5 को उम्र कैद की सजा‌ उनके अपने सहयोगी रंजीत सिंह के हत्या केस में  पंचकूला की विशेष सीबीआई कोर्ट ने  सुनाई है. राम रहीम के साथ अन्य 4 दोषियों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है.

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यहां आपको हम बताते चलें कि राम रहीम का एक बाबा के रूप में बड़ा ही जलवा था वह फिल्म बनाते थे, वह ऐसे ऐसे करतब  किया करते थे की सदैव मीडिया में चर्चा बनी रहती थी, धर्म की कथित आड़ में जाने कितने दुष्कर्म और अपराध करते रहे जिसकी गिनती कोई नहीं कर पाया और यह सदा चर्चा में रही. मगर कहते हैं ना अपराध कभी न कभी सर चढ़कर बोलता है और अपराधी कानून के शिकंजे में अंततः आ ही जाता है अंतिम समय जेल की चक्की पीसने में ही गुजर जाता है, बाबा राम जी के साथ हो रहा है.

यह भी सच है कि मामला मुकदमा दर्ज होने पर भी यह सब अपने आप को सर्व शक्तिमान समझता था और यह संदेश देता था कि मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. साथ ही सहयोगी महिला  हनीप्रीत के साथ भी कितनी ही किस्से कहानियां चर्चा में रही हैं.

मामला संवेदनशील होने के कारण राम रहीम की पेशी कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए की‌ जाती थी पूरे जिले में धारा 144 लगा दी जाती थी कहीं भी 5 से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने की इजाजत नहीं थी. बाबा राम रहीम ने धर्म के उन्माद को इतना ज्यादा जगा दिया था की स्थिति कभी भी असामान्य हो सकती थी. यहां उल्लेखनीय है कि सन् 2002 में रंजीत सिंह की हत्या के लिए राम रहीम सहितइन लोगों को नामजद किया गया था

डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख को मिला सच्चा सौदा!

जैसा कि सारी दुनिया जानती है डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत सिंह यानी राम रहीम के मुख्य प्रबंधन का कार्य डेरा सच्चा सौदा से संचालित होता था. जहां सैकड़ों एकड़ भूमि पर कथित बाबा का वर्चस्व था यहां उनकी अनुमति के बगैर परिंदा भी पर नहीं मार पाता था. एक प्रकार से उनका अपना शासन स्थापित था. धर्म के नाम पर जो इंतेहा यहां बाबा राम रहीम ने की वह सालों बाद धीरे-धीरे छन कर  बाहर आई और उसकी क्रूरता के किस्से भी सार्वजनिक हो गए.

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जैसा कि कभी ना कभी पाप का घड़ा तो फूटता ही है 2002 में  रंजीत सिंह जो डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के समर्थक थे की 10 जुलाई 2002 को  हत्या कर दी गई थी. इसी मामले में गुरमीतसिंह सहित पांच लोगों को अब जेल के सीखचों पड़ेगा.

लगभग 20 साल बाद!

राम रहीम के द्वारा किए गए अपराधों की लंबी जांच के बाद मामला अंततः न्यायालय में पहुंचा और सभी के साक्ष्य लिए  जाने लगे. वह बाबा जो कभी अपने सच्चा सौदा के प्रतिष्ठान से लोगों को धर्म का ज्ञान देता था मगर स्वयं धर्म के रास्ते को छोड़ कर के अपराध की राह पर चल पड़ा था आखिरकार कानून की जद में आ ही गया.

यहां यह बताना जरूरी होगा कि राम रहीम की पेशी कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कानून-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए होती रही और राम रहीम फिला वक्त रोहतक की सुनारिया जेल में बंद है वहीं से उसकी वर्चुअली पेशी कोर्ट में की जाती रही वहीं चार अन्य दोषियों को अंबाला जेल से कड़ी सुरक्षा के बीच पंचकूला कोर्ट लाया गया था.

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3 दिसंबर 2003 को पुलिस में एफआईआर दर्ज हुई थी और आगे सीबीआई ने रणजीत सिंह हत्या मामले में प्राथमिकी दर्ज की थी. न्यायालय में  याचिका रंजीत सिंह के बेटे जगसीर सिंह ने दायर कर इंसाफ की फरियाद की थी. इसके बाद बाबा राम रहीम पर कानून का शिकंजा कसता ही चला गया और यह भ्रम टूट गया कि अगर कोई धर्म का चोला पहन कर अपराध करता है तो बहुत दिनों तक बच सकता है.

वर्जिनिटी: टूट रही हैं बेडि़यां

लेखिका- आशा शर्मा

आदिकाल से ही औरतों के लिए शुचिता यानी वर्जिनिटी एक आवश्यक अलंकार के रूप में निर्धारित कर दी गई है. यकीन न हो, तो कोई भी पौराणिक ग्रंथ उठा कर देख लीजिए.

अहल्या की कहानी कौन नहीं जानता. शुचिता के मापदंड पर खरा नहीं उतरने के कारण जीतीजागती, सांस लेती औरत को पत्थर की शिला में परिवर्तित हो जाने का श्राप मिला था. पुराणों के अनुसार, उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि वह अपने पति का रूप धारण कर छद्मवेश में आए छलिए इंद्र को उस के स्पर्श से पहचान न सकी.

शुचिता के सत्यापन का कितना दबाव  औरतों पर हुआ करता था, इस का उदाहरण भला कुंती से बेहतर कौन हो सकता है. कुंती, जिसे अपनी शुचिता का प्रमाण विवाह के बाद अपने पति को देना था, ने विवाहपूर्व सूर्यपुत्र कर्ण को जन्म देने के बाद उसे नदी में प्रवाहित कर दिया ताकि उस की शुचिता पर आंच न आए.

क्या है शुचिता

शुचिता यानी यौनिक शुद्धता का पैमाना. स्त्री योनि के भीतर एक पतली गुलाबी  िझल्ली होती है जिसे हाइमन कहा जाता है. माना जाता है कि प्रथम समागम के दौरान इस के फटने से रक्तस्राव होता है. जिन स्त्रियों को यह स्राव नहीं होता उन का कौमार्य शक के घेरे में आ जाता है. यह जानते हुए भी कि इस  िझल्ली के फटने के कई अन्य कारण भी होते हैं.

सामाजिक तानाबाना कुछ इस कदर बुना गया है कि स्त्री का शरीर सिर्फ उस के पति के भोग के लिए है और उस का कौमार्य उस के पति की अमानत. अकसर यही पाठ हर स्त्री को पढ़ाया जाता है. यह पाठ स्त्रियों को रटारटा कर इतना कंठस्थ करा दिया जाता है कि इस लकीर से बाहर निकले कदम अपराध की श्रेणी में रख दिए जाते हैं और इस अपराध की सजा स्त्री को ताउम्र भुगतनी पड़ती है.

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राजस्थान के सांसी समुदाय में स्त्रियों की वर्जिनिटी जांचने के लिए एक अत्यंत घिनौनी प्रथा प्रचलित है, जिसे कूकड़ी प्रथा कहा जाता है. इस प्रथा के अनुसार, शादी की पहली रात को स्त्री के बिस्तर पर सफेद धागों का गुच्छा रख दिया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में कूकड़ी कहते हैं. शारीरिक संबंध बनाने के बाद बिस्तर की सफेद चादर और उस कूकड़ी की जांच होती है. यदि वह रंगदार नहीं है यानी उस में खून के धब्बे नहीं हैं तो यह माना जाता है कि स्त्री के शारीरिक संबंध शादी से पहले कहीं और स्थापित हो चुके हैं. सो, स्त्री को चरित्रहीन करार दे दिया जाता है. इसी आधार पर परिवार और समाज को उसे लांछित और प्रताडि़त करने का अधिकार भी मिल जाता है.

अमानवीयता की पराकाष्ठा यह होती है कि सुहागरात से पहले यह निश्चित किया जाता है कि कमरे में किसी तरह की कोई नुकीली या धारदार वस्तु न हो ताकि किसी तरह की चोट लगने के कारण रक्तस्राव की संभावना भी न हो. यहां तक कि लड़की के बालों से पिन तक हटा ली जाती है और उस की चूडि़यों को कपड़े से बांध दिया जाता है. इसी तरह का शुचिता परीक्षण महाराष्ट्र के कंजरभाट समाज और गुजरात के छारा समाज में भी प्रचलित है.

स्त्री साथी या संपत्ति

सदियों से यह कहावत प्रचलन में है कि संसार में लड़ाई झगड़े और युद्ध के सिर्फ 3 ही कारण होते हैं- जर, जोरू और जमीन यानी धन, स्त्री और जमीन. पति का शाब्दिक अर्थ मालिक ही होता है. इस रिश्ते से पत्नी को पति की संपत्ति माना जाता है. शायद इसी तर्क के आधार पर और महाभारत की कथानुसार युधिष्ठिर ने द्रौपदी को अपनी संपत्ति मानते हुए जुए में दांव पर लगा दिया था.

समय बेशक बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है लेकिन परिस्थितियां आज भी कमोबेश वही हैं. आज भी स्त्री पुरुष की संपत्ति ही सम झी जाती है जिस की अपनी कोई स्वतंत्र विचारधारा नहीं हो सकती. जिस के हर व्यक्तिगत फैसले पर पुरुष की सहमति की मुहर आवश्यक सम झी जाती है. ऐसा न करने वाली स्त्रियां चरित्रहीन की श्रेणी में गिनी जाती हैं. आज भी स्त्रियों की यौनिक शुचिता को उन पर शासन करने या उन्हें नियंत्रित करने का हथियार सम झा जाता है.

अकसर 2 दलों के आपसी  झगड़े का शिकार महिलाएं बन जाती हैं. लोग अपना बदला चुकता करने के लिए एकदूसरे की बहनबेटियों से बलात्कार तक कर डालते हैं.

दंगों के दंश भी महिलाएं ही  झेलती हैं. पुरुष अपनी खी झ उतारने के लिए भी बलात्कार करते हैं मानो इस तरह वे उस स्त्री के शरीर पर नहीं बल्कि उस के पूरे वजूद पर अपना अधिकार जमा लेंगे. मुखर या हावी होती दिखती महिलाओं के साथ भी यही कुकर्म किया जाता है. मांबहन की गालियां भी तो इसी का उदाहरण हैं.

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पर कतरने की साजिश

कई कार्यालयों में जहां महिलाएं अधिक प्रतिभाशाली होती हैं, अकसर वे चारित्रिक उत्पीड़न का शिकार पाई जाती हैं. उन के सहकर्मी जब उन के द्वारा कुशलता से संपादित होने वाले कार्यों की अनदेखी कर उन का चारित्रिक मूल्यांकन करने लगते हैं तो कहीं न कहीं वे मानसिक रूप से टूटती ही हैं.

यही तो पुरुष को चाहिए. स्त्री को तोड़ कर उसे अपने अंकुश में रखना ही तो उस का ध्येय है.

इस बात में दोराय नहीं कि हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. प्रतिभा यदि पुरुष से कमतर है तब तक पुरुष को उस की तारीफ से गुरेज नहीं लेकिन जहां कहीं वह पुरुष से 21 हुई, सारा बवाल शुरू हो जाता है. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं.

सीमा मेरी कालोनी में ही रहती है. पतिपत्नी दोनों सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं. सीमा अपने पति से जूनियर है, इस नाते स्कूल से संबंधित मामलों में उस की सलाह लेती रहती थी. पति का अहं संतुष्ट होता रहता था. अपनी मित्रमंडली में वह सीमा की तारीफ करते नहीं अघाता था.

पिछले साल सीमा प्रतियोगी परीक्षा पास कर के प्रधानाध्यापक क्या बन गई, एक ही  झटके में उस की सारी प्रतिभा धूल में मिल गई. सीमा को दूसरे शहर में पोस्ंिटग मिली, जो उन के घर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर था.

पहले तो उस पर रोजाना आनेजाने के लिए दबाव बनाया गया. फिर, उस के दृढ़ता से मना करने पर, उस पर जौइन न करने का दबाव बनाया गया. विरोध करने पर पति ने सीधा उस के चरित्र पर निशाना साध लिया.

‘‘होगा कोई, जिस के लिए घर छोड़ने को तैयार है ताकि जम कर मस्ती की जा सके,’’ कह कर पति ने तुरुप का पत्ता फेंक कर उस का मनोबल तोड़ने की कोशिश की.

यह तो सीमा हिम्मत वाली निकली जिस ने पति की परवा न कर अपना नया पदभार ग्रहण कर लिया वरना अधिकतर महिलाओं को तो अपने कैरियर से अधिक अपनी शुचिता ही प्यारी लगती है.

हावी है पुरातन सोच

अतिआधुनिक कहे जाने वाले आज के कितने ही युवा हैं जो अपनी पत्नियों के विवाहपूर्व प्रेम प्रसंग को सहजता से स्वीकार कर सकें? शायद, एक भी नहीं. भले ही वे स्वयं अपने प्रेम के किस्से कितना ही रस ले कर पहली रात अपनी नवविवाहिता को सुनासुना कर उस पर अपनी मर्दानगी का रोब  झाड़ें लेकिन पत्नी का किसी के प्रति एकतरफा लगाव उन्हें कतई गवारा नहीं.

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बेशक स्त्रियों को पढ़नेलिखने, घूमनेफिरने या फिर अपना मनचाहा कैरियर चुनने की आजादी मिली है लेकिन आज भी उन की कमाई पर उन्हें भी पूरा अधिकार नहीं है. अपने पर किए गए खर्च को भी उन के चरित्र से जोड़ दिया जाता है. यही कारण है कि विधवा या तलाकशुदा स्त्री का हलका सा शृंगार भी समाज की आंखों में खटकने लगता है.

एक जाल है यह

बचपन में मैं ने दादी को गाय दुहते हुए देखा है. वे गाय को दुहने से पहले एक पतली सी रस्सी से उस के दोनों पांव बांध देती थीं.

मैं कहती, ‘दादी, इतनी बड़ी गाय को इतनी पतली सी रस्सी से कैसे बांध लिया आप ने?’

तब दादी कहतीं, ‘बेटा, इसे रस्सी की आदत हो गई है. पतलीमोटी से कोई फर्क नहीं पड़ता.’

ठीक ऐसी ही आदत महिलाओं को भी हो चुकी है. अपनी शुचिता को अपनी उपलब्धि सम झने की, अपनेआप को पुरुष के संरक्षण में रखने की, पहले पिता, फिर भाई, उस के बाद पति और अंत में बेटे की. स्त्रियों के संरक्षक समाज ने तय कर दिए, वही लकीर वे आज भी पीटे जा रही हैं या यों कहें कि उन्हें इस की आदत हो गई है.

बहुत सी महिलाओं को इस में कोई बुराई भी नहीं दिखती, बल्कि उन्हें अच्छा लगता है कि कोई उन का खयाल रख रहा है. इस के पीछे छिपी गुलामी की मानसिकता उन्हें दिखाई नहीं दे रही.

आज भी कुछ खेल, कुछ प्रोफैशन महिलाओं के लिए उचित नहीं सम झे जाते, जैसे सेना, पर्वतारोहण, साइकिल चलाना आदि. वहीं, कुछ खेल और व्यवसाय महिलाओं के लिए उत्तम सम झे जाते हैं, जैसे टीचिंग, बैंक आदि.

मौजूदा दौर में हालांकि वर्जनाएं टूट रही हैं लेकिन उन का प्रतिशत उंगलियों पर गिननेभर जितना ही है.

बदलाव की बयार

फिल्में समाज का आईना सम झी जाती हैं. कुछ फिल्में वही दिखाती हैं जो समाज में घटित हो रहा है, तो कुछ फिल्मों को देख कर समाज उन का अनुसरण करता है. पुरानी फिल्में देखें तो नायिका को शुचिता की मूर्ति दिखाया जाता था. यौनिक शुद्धता इतना हावी रहता था कि नायिका के मुंह से कहलाया जाता था कि मैं ने फलां पुरुष को अपना सर्वस्व सौंप दिया है. किसी अन्य पुरुष के साथ शादी के बारे में सोचना भी अब मेरे लिए पाप है.

इसी तरह यदि किसी फिल्म में नायिका से यह कथित पाप यानी विवाहपूर्व गर्भ ठहर गया हो तो स्त्री को ही उम्रभर इस पाप को ढोते हुए दिखाया जाता था.

दूसरी तरफ, आज की फिल्में या वैब सीरीज की बात करें तो इन में विवाहपूर्व के शारीरिक संबंध बहुत ही सहज दर्शाए जा रहे हैं. इस तरह के समागम के पश्चात नायिका को किसी गिल्ट, अपराधबोध या शर्मिंदगी का एहसास नहीं होता, बल्कि वह अगली सुबह न तो शरमाती हुई उठती है और न ही लाज से उस के गाल गुलाबी होते हैं. वह आम दिनों की ही भांति सहजता से अपना दिनभर का काम निबटाती है.

यह बदलाव की ठंडी बयार सुकून देने वाली है. यदि पुरुष को इस तरह के संबंध के बाद गिल्ट नहीं है तो स्त्री ही क्यों इस गठरी को ढोए?

स्त्री अपनी ऊर्जा शुचिता को सलामत रखने में जाया नहीं करती, बल्कि ‘जो हो गया वह मेरी मरजी’ कह कर हवा में उड़ा देती है. वह अब ब्रेकअप के बाद आंसू भी नहीं बहाती. लिवइन रिलेशन के रिश्ते इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं.

आजकल शादियां देर से होती हैं और शरीर की अपनी मांग होती है. ऐसे में सिर्फ शादी के बाद पति के सामने शुचिता के सत्यापन के लिए आज की लड़कियां अपने आज के रोमांच को खत्म नहीं करना चाहतीं.

लड़कियों का बढ़ता आत्मविश्वास उन्हें हर अपराधबोध से बाहर ला रहा है. उन्हें खुल कर जीने का न्यौता दे रहा है और वे इसे स्वीकार भी कर रही हैं.

सरकार भी उन के पक्ष में कानून बना कर उन के पंखों को मजबूती दे रही है. आज महिलाएं अकेली यात्राएं कर रही हैं, अपनी संपत्ति बना रही हैं, पहाड़ों पर चढ़ रही हैं, आसमान में उड़ रही हैं, सागर की गहराई नाप रही हैं आदिआदि.

सब से बड़ी और सकारात्मक बात यह है कि बलात्कार और एसिड अटैक जैसे हादसों के बाद भी महिलाएं आज मुसकरा कर जी रही हैं, यानी, शुचिता के सत्यापन को नकार रही हैं और शुचिता की आड़ में अपने ऊपर जबरन शासन किए जाने को अस्वीकार कर रही हैं. यही बदलाव तो चाहिए था.

जानकारी: जब होटल रेड में पकड़े जाएं

यह उन दोनों के लिए वैलेंटाइन डे का खास दिन है. यह दिन उन्होंने अपने जवान जज्बातों की प्यास बुझाने के लिए चुना था. वे पूरी तरह से एकदूसरे के जिस्म में खो जाना चाहते थे. घर से दूर किसी होटल में ठहरना उन के लिए सुरक्षित था, इसलिए वे इस होटल में आए थे.

वे दोनों होटल के कमरे में घुसते हैं. लड़का लाइट जलाता है. यह पहली बार है, जब उन दोनों को इतना एकांत मिला है, जहां समाज की तिरछी निगाहें उन्हें नोटिस नहीं कर सकतीं.

वे दोनों एकदूसरे के करीब बढ़ते हैं. शुरुआत घबरा कर छूने से होती है, फिर धीरेधीरे चुंबन और फिर गले लगते हुए बिस्तर में वे एकदूसरे से लिपट जाते हैं, फिर उन की सिसकियां उन्हें और भी मदहोश करती हैं और वे एकदूसरे में पूरी गहराई से डूब जाते हैं.

तभी दरवाजे से गुस्सैल आवाज आती है, ‘‘क्या पंचायत चल रही है यहां… दरवाजा खोलो…’’ यह आवाज और भी कड़क होती जाती है, ‘‘खोलो दरवाजा… खोलो… तोड़ दो दरवाजा…’’

लड़का घबरा कर झट से उठता है. वह अपने कपड़े ढूंढ़ता है, लड़की सहमी सी एक चादर को अपने बदन पर ओढ़ लेती है.

वे दोनों संभल पाते, इस से पहले दरवाजा टूटता है और 4 पुलिस वाले कमरे के भीतर घुस जाते हैं.

‘‘क्या भसड़ मचा रखी है यहां, पूरा बाजार बना दिया है…’’ एक पुलिस वाला गुस्से से कहता है.

महिला कांस्टेबल झट से लड़की के बाल पकड़ लेती है और सीनियर पुलिस वीडियो बनाने लगता है.

‘‘नाम बोल… नाम…’’ इंस्पैक्टर लड़की पर जोर से चिल्लाता है.

लड़की डरीसहमी चुप रहती है. इतने में महिला कांस्टेबल उस के बाल जोर से खींच कर नाम बताने को कहती है.

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‘‘देवी…’’ लड़की आखिरकार अपना नाम कहती है.

‘‘तो देवी, तुम्हारी जिंदगी तो अब कंडम हो गई… कहां से आई है? मड़वाड़ी से या नेपाल से?’’

‘‘नहीं सर, आप गलत समझ रहे हैं…’’ देवी कहती है और रोने लगती है. उसे लगने लगा है कि अब सिर्फ बदनामी उस के आगे खड़ी है.

इस के आगे बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस ने देवी और उस के परिवार को किस तरह ब्लैकमेल किया होगा.

साल 2015 में डायरैक्टर नीरज घेवाण की फिल्म ‘मसान’ में यह सारा घटनाक्रम शुरुआती 7 मिनट में घटता है. फिल्म कुछकुछ हकीकत के नजदीक दिखाई देती है.

आज के दौर में सभी अनब्याहे जोड़े अपनेअपने पार्टनर के साथ एकांत में समय बिताना चाहते हैं. इस के लिए उन्हें होटल ऐसी बेहतर जगह दिखाई देती है, जहां कोई पहचान का न हो और प्राइवेसी भी मिल जाए, पर वे इसे रिस्की भी मानते हैं. इस की वजह है पुलिस की जबतब पड़ने वाली रेड और इस से होने वाली बदनामी.

ऐसे जोड़े इस बात को ले कर काफी डरे रहते हैं कि होटल में ठहरने के दौरान अगर वहां पुलिस आ धमकती है तो वे क्या करेंगे? वे कैसे इस मामले से निबटेंगे? अगर बात घरपरिवार तक चली गई तो क्या होगा या वे पुलिस द्वारा ब्लैकमेल का शिकार तो नहीं हो जाएंगे?

खबरों में भी इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जहां कुंआरे जोड़े पुलिस रेड के दौरान पकड़े जाते हैं और फिर किन्हीं दिक्कतों के चलते उन्हें थाने में लंबा समय बिताना पड़ जाता है. इस दौरान जिन चीजों से बचने के लिए वे होटल आए थे, वे चीजें सामने मुसीबत की तरह आ खड़ी होती हैं यानी बात घर तक पहुंच ही जाती है.

30 अगस्त को उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में भगवतीगंज शहर के एक होटल में पुलिस ने छापेमारी कर 3 कुंआरे जोड़ों को पकड़ा था. उन जोड़ों का जुर्म था कि वे अपने लिए थोड़ी प्राइवेसी चाहते थे. पुलिस उन्हें पकड़ कर थाने ले गई. पूछताछ के बाद लड़कियों को हिदायत दे कर उन के परिवार वालों के सुपुर्द कर लड़कों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर दी गई.

इसी तरह इस साल फरवरी महीने में आगरा के होटल एआर पैलेस में 9 प्रेमी जोड़ों को पुलिस ने रेड के दौरान पकड़ा. उन में कुछ छात्राएं थीं, जो अपने प्रेमियों के साथ होटल आई थीं. इन का भी यही गुनाह था कि वे अपने प्रेमियों के साथ समय बिताने आई थीं, खुल कर कहें तो सैक्स करने आई थीं. उन लड़कियों के भी परिवार वालों को थाने बुलाया गया और फिर उन के सुपुर्द किया गया.

पकड़े जाने वाले इन ज्यादातर मामलों में जो सब से बड़ी दिक्कत होती है वह यह कि ऐसे जोड़े अपनी पहचान छिपा कर या पहचान नहीं बता कर कमरा लेते हैं. बहुत से बिना रजिस्टर्ड वाले होटलों में कमरे किराए पर लेते हैं, जिस वजह से उन्हें पुलिस स्टेशन जाने की नौबत आ जाती है या धरपकड़ में वे भी धरे जाते हैं.

भारत में शादी से पहले सैक्स करना एक तरह का पाप माना जाता है. शादी से पहले सैक्स करना घर, समाज, शासन और प्रशासन के लिए इतनी बड़ी बात बन जाती है कि इस का पता चलते ही सब की जिंदगी में मानो भूचाल आ जाता है. समाज से ले कर पुलिस प्रशासन तक इसे अनैतिक मानता है, जिस का खमियाजा प्रेमी जोड़ों को भुगतना पड़ जाता है.

हालांकि, पिछले कुछ दशकों से भारत एक देश और एक समाज के रूप में तेजी से आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है, पर एक बात जो अभी भी जस की तस है वह यह कि प्यार में क्या करें व क्या न करें वाले सवाल अभी भी समाज के तथाकथित रखवालों द्वारा बनाई गई सीमाओं में ही बंधे हुए हैं.

ये वे सीमाएं हैं, जो हम ने सदियों से बनाई हैं. हाथ में हाथ डाल कर चलने वाले प्रेमी जोड़े या पार्कों में दिखने वाले जोड़े सोसाइटी को बेहद ही असहज दिखाई देते हैं. वहीं प्राइवेसी की तलाश करने के लिए अगर कोई प्रेमी जोड़ा कुछ घंटों के लिए होटल का कमरा बुक करता है, तो उसे हिकारत से देखा जाता है.

यहां तक कि सरकारी मशीनरी, जिसे इन मौकों पर समझदारी से काम लेने की जरूरत है, वह भी इन का शोषण करने वालों में शामिल होती है. यहां तक कि यह सारी सिचुएशन एक जोड़े को एहसास दिलाती है कि समाज के नजरिए से एक कुंआरे जोड़े का साथ रहना या कहीं पकड़े जाना बेहद गलत और अनैतिक है.

आज हम ऐसे जोड़ों के लिए एक बेहद जरूरी जानकारी ले कर आए हैं, जो अपने पार्टनर के साथ होटलों में जाने की इच्छा तो रखते हैं, पर वहां जाने से कतराते हैं.

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पहली बात, कुंआरे जोड़ों द्वारा कमरा किराए पर लेना भारत में अपराध नहीं है. साल 2019 के दिसंबर महीने में मद्रास हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि होटल के कमरे में रहने वाले कुंआरे जोड़े को अपराधी नहीं माना जाएगा. हाईकोर्ट ने इसे इस बात के संदर्भ में देखा कि 2 बालिगों के लिवइन रिलेशनशिप को अपराध नहीं माना जाता है तो ऐसे में होटल में रूम शेयर करने को कैसे अपराध माना जा सकता है?

यह फैसला कोयंबटूर के एक होटल को सील किए जाने के बाद आया था, जब एक कुंआरे जोड़े को उसी के एक कमरे में पाया गया था.

इस का मतलब यह है कि पुलिस के पास होटल जैसी निजी संपत्ति पर छापा मारने का अधिकार तो है, पर उन के पास एक कुंआरे जोड़े को इस आधार पर गिरफ्तार करने का हक नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट विनय कुमार गर्ग का कहना है कि कुंआरे जोड़े को एकसाथ होटल में रहने और आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बनाने का मौलिक अधिकार है. हालांकि इस के लिए दोनों का बालिग होना जरूरी है.

इस बारे में सुप्रीम कोर्ट साफ कह चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकार से अपनी मरजी से किसी के साथ रहने और शारीरिक संबंध बनाने का अधिकार आता है. इस के लिए शादी के बंधन में बंधना जरूरी नहीं है.

इस का एक मतलब यह हुआ कि अगर कोई बालिग जोड़ा बिना शादी किए होटल में एकसाथ रहता है, तो यह अपराध में नहीं आता.

एडवोकेट विनय कुमार गर्ग का कहना है कि होटल में ठहरने के दौरान कुंआरे जोड़े को अगर पुलिस परेशान या गिरफ्तार करती है, तो पुलिस की इस कार्यवाही के खिलाफ ऐसा जोड़ा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 226 के तहत सीधे हाईकोर्ट जा सकता है.

आमतौर पर पुलिस ऐसे मामलों में होटल में देह धंधे के शक के चलते रेड करती है. चूंकि भारत में देह धंधा अपराध है, तो यह करना पड़ता है. पर ऐसे में अगर पुलिस किसी कुंआरे जोड़े के कमरे में आती है तो ऐसे हालात में वे अपने साथ आईडी प्रूफ जरूर रखें, ताकि पहचान हो सके और नौबत पुलिस स्टेशन जाने की न आ जाए.

घबराए नहीं, क्योंकि आप कोई जुर्म नहीं कर रहे हैं. पुलिस अगर होटल में रेड मारती है तो उसे अपना काम करने दें, क्योंकि उन पर अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी होती है. पर उस के बावजूद भी अगर पुलिस ब्लैकमेल करती हो तो बेहिचक संबंधित पुलिस वाले के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं.

होटल में रूम लेने से पहले सारी सावधानियां बरतें. कानूनी तरीके से या होटल के नियमों के हिसाब से होटल  में जाएं.

होटल रूम ऐसे बुक करें

भारत में कुंआरे जोड़ों के लिए ऐसे कई होटल हैं, जो बिना किसी परेशानी के उन्हें कमरे किराए पर देते हैं. आजकल औनलाइन होटल बुकिंग के कई सेफ तरीके आ चुके हैं. होटल के खुद के पोर्टलों से होटल बुकिंग आसान हो गई है. जब आप औनलाइन होटल का कमरा बुक करते हैं, तो प्रीबुक औप्शन चुन सकते हैं. ये पोर्टल आप को बिना असहज सवालों के बुकिंग एक्सैप्ट कर लेता है.

होटल बुक करने से पहले उस नीतियों को ध्यान से पढ़ें, क्योंकि कुछ होटल कुंआरे जोड़ों को कमरा बुक करने की इजाजत नहीं देते हैं. यह आप को होटल का चयन करते समय सतर्क रहने में मदद करेगा.

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घबराएं नहीं. खुद पर यकीन रखें. आप कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हैं. होटल का कमरा बुक करते समय डरें नहीं.

अपना आईडी कार्ड अपने साथ रखें. आप से चैकइन के समय केवल एक वैलिड सरकारी आईडी कार्ड होटल के मुलाजिम द्वारा मांगी जाती है. मुमकिन है कि वे लोग आईडी की स्कैन की हुई कौपी अपने पास रखेंगे और आप को ओरिजिनल डौक्युमैंट वापस कर देंगे.

ऐसा कोई कानून नहीं है, जिस में कहा गया हो कि कुंआरे जोड़े होटल का कमरा बुक नहीं कर सकते हैं. पर आप और आप के साथी की उम्र 18 साल से कम है, तो आप भारत में होटल का कमरा बुक नहीं कर सकते हैं.

तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों

शादीशुदा जीवन में कलह व विवाद होना आम है़ ये विवाद मुकदमे की शक्ल में अदालत तभी पहुंचते हैं जब पानी सिर से ऊपर उठने लगता है. ऐसे में तलाक की वजह से पतिपत्नी कई बार ऐसे फसादों व गुनाहों को अंजाम देने की तरफ बढ़ चलते हैं जो दोनों के लिए ठीक नहीं होते. कैसे, जानें इस लेख में.

27 साला चेतन सुभाष सुराले पेशे से सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. पुणे में रहने वाले चेतन की शादी इसी साल मार्च में स्मितल सुराले नाम की लड़की से धूमधाम से हुई थी जो मेकैनिकल इंजीनियर है. चेतन बहुत खुश था क्योंकि 25 साला खूबसूरत और पढ़ीलिखी स्मितल मौडर्न और स्मार्ट भी थी. ऐसी बीवी आजकल के लड़कों की पहली पसंद होती है. एकदूसरे को नजदीक से सम झने और मौजमस्ती के लिए दोनों हनीमून पर नहीं जा पाए थे क्योंकि शादी के तुरंत बाद लौकडाउन लग गया था.

लौकडाउन हटा और जिंदगी पटरी पर आने लगी तो दोनों बीती 18 अक्तूबर को हनीमून मनाने के लिए महाबलेश्वर जा पहुंचे जहां की खूबसूरती और आबोहवा दुनियाभर में मशहूर है. दोनों ने अपने बजट के मुताबिक एक अच्छे होटल में डेरा डाल लिया और जिंदगी के हसीन लमहों को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, खासतौर से चेतन ने जिस का दिल एक सैकंड भी नईनवेली बीवी से जुदा होने को नहीं करता था. दोनों दिनभर बांहों में बांहें डाले महाबलेश्वर में घूमते थे और रात को होटल के अपने कमरे में आ कर एकदूसरे के आगोश में ऐसे खो जाते थे मानो दुनिया की कोई ताकत अब उन्हें जुदा नहीं कर पाएगी.

अजब प्यार की गजब कहानी

होटल में दोनों की मुलाकात 22 साला कोस्तुभ अनिल गोगाटे नाम के नौजवान से हुई जो अकेला ही महाबलेश्वर आया था. अनिल खुशमिजाज था और यारबाज भी. लिहाजा, उस की पहल पर चेतन 2 दिनों में ही उस का दोस्त बन गया क्योंकि वह भी पुणे का ही था. शाम को दोनों जिगरी दोस्तों की तरह साथ बैठते हमप्याला, हमनिवाला हो गए.

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स्मितल ने इस दोस्ती और नजदीकी पर कोई एतराज नहीं जताया बल्कि दोनों के साथ बैठ कर वह भी इन की महफिल में शरीक होने लगी. इस तरह खाली वक्त और अच्छे से गुजरने लगा.

तीसरे दिन ही अनिल ने बातों ही बातों में चेतन के सामने रोना रोया कि लौकडाउन के चलते उस की नौकरी छूट गई है और अब तो उस के पास मकान का किराया देने को भी पैसे नहीं बचे हैं. ऐसे में अगर वह उस की मदद करे तो बड़ा एहसान होगा. नौकरी मिल जाने के बाद वह उस की पाईपाई चुका देगा. मदद के नाम पर उस ने मांगा यह कि चेतन उसे कुछ दिन अपने घर में रहने की इजाजत दे दे. नरम दिल चेतन पसीज गया और हामी भर दी. महाबलेश्वर से ये लोग वापस पुणे आए, तो अनिल भी उन के घर में रहने लगा.

हफ्ताभर ठीकठाक गुजरा, अनिल इन दोनों से कुछ इस तरह घुलमिल गया जैसे सालों से इन्हें जानता हो और घर का ही सदस्य हो. लेकिन जब उस की हकीकत चेतन को पता चली तो उस के पैरोंतले जमीन खिसक गई और वह बेइंतहा घबरा उठा क्योंकि अनिल उस को तो नहीं, बल्कि स्मितल को न केवल सालों से जानता था बल्कि उस से प्यार भी करता था और दोनों शादी भी करने वाले थे पर जाति अलग होने के चलते उन के घर वाले तैयार नहीं हुए थे जिन के दबाव में आ कर स्मितल ने मजबूरी में चेतन से शादी कर ली थी.

दरअसल, एक दिन चेतन ने अनिल का मोबाइल खोला तो वह यह जान कर सकते में आ गया कि उस के साथ जिंदगी का सब से बड़ा धोखा हुआ है. महाबलेश्वर में अनिल का अचानक या इत्तफाक से मिल जाना पत्नी और उस के प्रेमी की तयशुदा साजिश थी. बात यहीं खत्म हो जाती तो और थी, लेकिन अनिल और स्मितल के मोबाइल पर एकदूसरे से लिपटते हुए फोटो और चैटिंग उस ने पूरी देखी तो उस के रहेसहे होश भी फाख्ता हो गए. इन दोनों ने यह तक तय कर लिया था कि स्मितल मौका देख कर चेतन के अंग की नस काट कर उसे हमेशा के लिए नामर्द बना देगी और इसी नामर्दी की बिना पर वह उस से तलाक ले कर अनिल से शादी कर हमेशा के लिए उस की हो जाएगी.

इतना सबकुछ हो गया और चेतन को भनक भी नहीं लगी. लेकिन सचाई उजागर होते ही उस ने तुरंत पुणे के मालवाड़ी थाने में दोनों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. वह इतना डरा हुआ था कि रिपोर्ट लिखाने के पहले सीधा अपने घर अहमदाबाद जा कर मांबाप को सारी कहानी बताई थी. अब पुलिस इस अजब प्यार की गजब कहानी की तफ्तीश कर रही है जिस की जड़ में एक कड़वा सच स्मितल का यह सोचना भी है कि अगर वह बिना किसी तगड़ी वजह के तलाक के लिए अदालत जाती तो तलाक मिलने में सालोंसाल लग जाते. लिहाजा, वजह उस ने आशिक के साथ मिल कर पैदा कर ली, लेकिन उस में कामयाब नहीं हो पाई.

यह वाकेआ जिस ने भी सुना, उस ने दांतोंतले उंगली दबा ली कि ऐसा भी होता है. लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया कि इस फसाद की जड़ स्मितल की गलती के साथसाथ आसानी से तलाक न मिलने का डर भी था हालांकि इस में कोई शक नहीं कि वह प्यार अनिल से करती थी और इस हद तक करती थी कि उस से शादी की खातिर सीधेसादे और बेगुनाह पति का प्राइवेट पार्ट काटने तक की हिम्मत जुटा बैठी थी. अगर यही हिम्मत वह प्रेमी से शादी करने को दिखा पाती तो आज बजाय कोर्टकचहरी करने के, सुकून से जिंदगी  अनिल के साथ गुजार रही होती.

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और भी हैं फसाद

स्मितल ने तलाक के लिए बजाय अदालत का दरवाजा खटखटाने के एक संगीन गुनाह करने का मन क्यों बना लिया था, इस सवाल का जवाब आईने की तरह साफ है कि देश की अदालतों में तलाक के मुकदमे सालोंसाल घिसटते हैं लेकिन पतिपत्नी को तलाक के बजाय मिलती है तारीख पर तारीख जिस से उन की जिंदगी नरक से भी बदतर हो जाती है. कई तो पेशियां करतेकरते बूढ़े हो जाते हैं. लेकिन अदालत को उन की परेशानियों से कोई वास्ता नहीं रहता कि वे भयंकर तनाव में जी रहे होते हैं. मुकदमे के फैसले तक वे दूसरी शादी भी नहीं कर पाते क्योंकि यह कानूनन जुर्म है.

घर, परिवार और समाज में भी तलाक का मुकदमा लड़ रहे पतिपत्नी को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. एक तरह से उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है मानो वे अछूत हों. औरतों को ज्यादा दुश्वारियां  झेलनी पड़ती हैं क्योंकि हर किसी की गिद्ध सी निगाह उन की जवानी पर रहती है.

भोपाल की वसंती (बदला नाम) का तलाक का मुकदमा अपने पति से 3 साल से चल रहा है. वह बताती है कि उस की हालत तो कटी पतंग जैसी हो गई है जिसे हर कोई लूटना चाहता है. घरों में  झाड़ूपोंछा कर गुजरबसर कर रही

गैरतमंद वसंती को उस वक्त गहरा धक्का लगा था जब उस के एक पड़ोसी, जिसे उस ने भाई माना हुआ था, ने उस की कलाई पकड़ते बेशर्मों की तरह यह कहा था कि कब तक प्यासी भटकती रहोगी, जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता तब तक हम से प्यास बु झा लो और हमारी भी प्यास बु झा दो.

गरीब वसंती के दिल पर क्या गुजरी होगी, इस का अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता सिवा उन लोगों के जो सालों से तलाक का मुकदमा लड़ते जिंदगी से बेजार होने लगे हैं. ऐसे ही भोपाल के ही  एक नौजवान पत्रकार योगेश तिवारी 12 साल से तलाक के लिए अदालतों के चक्कर काटते 44 साल के हो चुके हैं. अब तो उन की दूसरी शादी कर घर बसाने की ख्वाहिश भी दम तोड़ चुकी है और बूढ़े मांबाप की सेवा करतेकरते वे खुद बूढ़े दिखने लगे हैं. योगेश अपनी इस हालत का जिम्मेदार तलाक कानूनों और अदालतों के ढुलमुल तौरतरीकों को ठहराते हैं, तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता.

गुनाह की तरफ बढ़ते कदम

पुणे की स्मितल जैसा ही एक मामला लौकडाउन के ही दौरान 20 अगस्त को बहादुरगढ़ से भी सामने आया था जब शहर के सैक्टर 9 में रहने वाले प्रदीप शाह की हत्या उस की पत्नी ने 10 अगस्त को अपने प्रेमी दिल्ली के रहने वाले यशपाल के साथ मिल कर कर दी थी क्योंकि पति उसे तलाक देने को राजी नहीं हो रहा था. बिलाशक, यह खतरनाक गुनाह था. लेकिन अगर कानून में ऐसे कोई इंतजाम होते कि पति या पत्नी, वजह कोई भी हो, तलाक की फरियाद ले कर अदालत जाए और तुरंत तलाक हो जाए तो ऐसे जुर्म होंगे ही नहीं क्योंकि पति व पत्नी दोनों को आजादी और मरजी से जीने का हक मिल जाएगा.

तलाक आसानी से न होने पर पत्नी की हत्या का एक मामला मार्च के तीसरे सप्ताह में बहराइच से उजागर हुआ था. इस मामले में नेपाल से सटे गांव अडगोडवा में हसरीन नाम की औरत की लाश मिली थी. पुलिसिया छानबीन में पता चला था कि हसरीन का पति रियाज 3 साल से सऊदी अरब में रह रहा था. उस की पटरी मायके में रह रही पत्नी से नहीं बैठती थी, जिस के चलते वह उसे तलाक दे कर दूसरी शादी करना चाहता था. पत्नी की हत्या के लिए रियाज ने मुंबई में रहने वाले अपने भाई मेराज को बहराइच भेजा, जिस ने साजिश रच कर हसरीन को मार डाला. लेकिन, पकड़ा गया.

ऐसे हजारों मामले हैं जिन में पति या पत्नी ने तलाक के लिए हत्या जैसा गुनाह किया या फिर एकदूसरे को किसी न किसी तरीके से नुकसान पहुंचाया. अगर तलाक आसानी से मिलता होता तो ये अपराध शायद ही होते. जो हिंसा नहीं कर पाते या नहीं कर सकते वे घटिया और ओछे हथकंडे अपना कर तलाक हासिल करने की कोशिश करते हैं. उन की मंशा भी अपना पक्ष मजबूत करने की होती है जिस से उन्हें लगता है कि अदालत पसीज जाएगी और आसानी से तलाक उन्हें मिल जाएगा.

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आजमगढ़ की एक औरत ने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी कि कुछ लोग उसे गंदे मैसेज और वीडियो भेज रहे हैं जिस से वह दिमागीतौर पर परेशान है. छानबीन में पता चला कि उस का पति पुनीत ही यह सब खुद कर रहा था और कुछ दोस्तों से भी करवा रहा था कि जिस से पत्नी परेशान हो कर तलाक के लिए राजी हो जाए. पुनीत ने अपनी पत्नी की नंगी सी तसवीरें उस के फोन नंबर के साथ फेसबुक पर डालते लिखा था कि सेवा के लिए हमेशा मौजूद. इस से कई मनचले पत्नी को फोन कर उस का रेट पूछने लगे थे. यानी, तलाक के लिए पति, पत्नी घटिया से घटिया तरीका आजमाने से नहीं चूकते. पुनीत की मंशा यह थी कि पत्नी बदनाम हो जाएगी तो इस बिना पर उसे जल्द तलाक मिल जाएगा.

मुकदमे से तंग आ कर खुदकुशी भी

यह तो तलाक के लिए हैरानपरेशान पति, पत्नियों का एक पहलू था लेकिन दूसरा भी कम चिंताजनक नहीं जिस में तलाक के मुकदमे के चलते पति, पत्नी में से कोई उम्मीद के साथसाथ खुदकुशी कर जिंदगी भी छोड़ जाते हैं क्योंकि इंसाफ की उन की आस पूरी होती नहीं लगती. वजह, मुकदमे का लंबा खिंचना होता है.

ललितपुर के गांव थवारी के 23 साला नौजवान राजकुमार ने भी यही रास्ता चुना था जिसे वक्त रहते तलाक नहीं मिला तो उस ने परेशान हो कर नरक होती जिंदगी  ही छोड़ दी. 13 फरवरी को राजकुमार ने जहर खा कर खुदकुशी कर ली थी. उस के पिता बसन्ते के मुताबिक, राजकुमार तलाक न मिलने से टैंशन में आ गया था. अदालत में पेशियों पर पेशियां लगती जा रही थीं और अदालत को कोई सरोकार उस के तनाव से नहीं था. राजकुमार का गुनाह इतनाभर था कि उस की अपनी बीवी से पटरी नहीं बैठ रही थी.

ऐसा ही एक चर्चित मामला ग्रेटर नोएडा के सैक्टर डेल्टा 1 में रहने वाले अरुण कुमार का है, जिस की पत्नी शीतल ने सुहागरात के हसीन वक्त में उस के ख्वाब यह कहते चकनाचूर कर दिए थे कि मांबाप ने उस की शादी जबरदस्ती कर दी है जबकि वह 7 साल से मनीष नाम के नौजवान से प्यार करती है और उस के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. अरुण को सम झ आ गया कि अब कुछ नहीं हो सकता, तो उस ने तलाक की बात कही. लेकिन शीतल और उस के घर वाले तलाक के एवज में 60 लाख रुपए की मांग पर अड़ गए. दोहरी परेशानी से आजिज आ गए बेकुसूर अरुण ने फांसी लगा कर जान दे दी. उसे यह सम झ आ गया था कि तलाक का मुकदमा सालों चलेगा और उसे दहेज मांगने के इलजाम में जेल की हवा भी खानी पड़ेगी.

असली गुनाहगार तो ये हैं

आखिर क्यों पति, पत्नी तलाक के लिए अदालत जाने के बजाय फसाद और गुनाह का शौर्टकट अपनाने लगे हैं, इस सवाल का जवाब बेहद कड़वा है कि पति, पत्नी अदालत की चौखट पर एडि़यां रगड़तेरगड़ते रो देते हैं लेकिन कानून बजाय उन की परेशानी सुल झाने के, हर पेशी पर उन्हें तारीख दे देता है. तलाक के लिए उस की वजह बताना जरूरी होती है जो अगर अदालत के गले न उतरे तो मुकदमा खारिज भी हो जाता है. पति, पत्नी का यह कहना कोई माने नहीं रखता कि आपसी मनमुटाव और खयालात न मिलने के चलते वे एक छत के नीचे सुकून से नहीं रह सकते, इसलिए तलाक की उन की अर्जी मंजूर की जाए.

अदालतों में उलटी गंगा बहती है. पति या पत्नी अपना दुखड़ा और फरियाद  लिए कोर्ट पहुंचते हैं, तो जज कहता है, और सोच लो और फिर अगली तारीख लगा देता है. इस से तलाक चाहने वालों, जो घुटघुट कर जी रहे होते हैं, को लगता है कि कोई ऐसी तगड़ी और वजनदार  वजह बताई जाए जिस से अदालत जल्द तलाक दे दे. इसलिए, अधिकांश मामलों में पति पत्नी के चालचलन पर उंगली उठाता है, उसे कलह करने वाली बताता है तो पत्नी पति पर नामर्दी और मारपीट वगैरह के इलजाम लगाती है. दोनों ही अधिकतर मामलों में  झूठे होते हैं.

अदालतें क्यों पति, पत्नी को साथ रहने को मजबूर करती हैं, जबकि दोनों अच्छी तरह सम झ चुके होते हैं कि अब पति पत्नी की तरह साथ रहना मुमकिन ही नहीं. इस का जवाब न तो कानून बनाने वाली संसद के पास है न इंसाफ करने वाले जजों के और न ही तलाक के मुकदमों की आग में घी डालने वाले वकीलों के पास, जो हर पेशी पर तगड़ी दक्षिणा अपने हैरानपरेशान मुवक्किलों से पंडेपुजारियों की तरह  झटकते रहते हैं.

पहली पेशी पर तलाक चाहने वाला अपनी बात रखता है, तो अदालत कहती है कि पहले फैमिली कोर्ट या परिवार परामर्श केंद्र में जाओ. वहां काउंसलर तुम्हें सम झाएगा कि तलाक के बजाय सम झौता कर लो, इस से तुम्हारी घरगृहस्थी बसी रहेगी. यह सम झाइश बेहद बेकार का टोटका साबित होने लगी है क्योंकि पति या पत्नी तलाक के लिए तभी जाते हैं जब वे दूसरे के साथ रह नहीं पाते. 3 नवंबर को भोपाल की आयशा (बदला नाम) से पेशी के दिन अदालत ने कहा कि पहले ससुराल जा कर करवाचौथ का त्योहार मनाओ, फिर हमें रिपोर्ट दो कि क्या हुआ. आयशा ने शादी के लिए इस शर्त पर ही हामी भरी थी कि वह शादी के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखेगी और अपने पांवों पर खड़ी होगी.

लेकिन वादे से मुकरते शादी के बाद पति और ससुराल वालों ने उसे आगे पढ़ने से मना कर दिया. यहीं से कलह शुरू हुई और मामला अदालत तक जा पहुंचा जहां आयशा को इंसाफ के बजाय अदालती नसीहत मिली और वह मजबूर हो कर दोबारा ससुराल चली गई. अब आगे कुछ भी हो, लेकिन यह जरूर साफ हो गया कि एक औरत को अपना कैरियर बनाने और पढ़ने देने से अदालत ने कोई वास्ता नहीं रखा.

औरत ज्यादा घुटती है

आयशा को सम झ आ रहा होगा कि तलाक यों ही नहीं मिल जाता, इसलिए मुमकिन है वह अपने सपनों का गला घोंट कर ससुराल वालों के कहे मुताबिक रहने लगे जो उस की मजबूरी बना दी गई है. अदालत ने देखा जाए तो कोई नई बात नहीं कही है बल्कि वही बात कही है जो धर्म, समाज और संस्कृति के ठेकेदार औरतों से कहते रहते हैं कि औरत का वजूद और जिंदगी पति और उस के घर वालों से ही है. उसे आजादी और अपनी मरजी से जीने का कोई हक नहीं. फिर भले ही पति शराबी, कबाबी, लंपट, जुआरी, लुच्चा, लफंगा और दूसरी औरतों से ताल्लुक रखने वाला क्यों न हो.

अहम बात यह है कि अदालतों के ऐसे ही फरमानों और तलाक की कार्रवाई कठिन होने के चलते पत्नी तो पत्नी, कई बार पति भी अदालत का रुख नहीं करते क्योंकि उन्हें उपदेशों और प्रवचनों की बेअसर खुराक नहीं, बल्कि घुटनभरी शादीशुदा जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. जो नहीं मिलता तो कई बार वे गुनाह और फसाद का रास्ता पकड़ने को मजबूर हो जाते हैं या फिर घुटघुट कर ही जीते रहते हैं.

शादीशुदा जिंदगी में कलह या विवाद आम बात है. लेकिन यह बात मुकदमे की शक्ल में अदालत तक तभी पहुंचती है जब पानी सिर से गुजरने लगता है. ऐसे में अदालतों को चाहिए कि वे पति, पत्नी की परेशानी सम झते तुरंत उन के रास्ते अलग कर दें, यानी, तलाक की डिक्री दे दें. इस से होगा यह कि इंसाफ मिलने के साथसाथ तलाक से जुड़े जुर्म भी कम होंगे जो दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं. वरना जो पुणे की स्मितल ने किया, जो बहराइच के रियाज ने किया वह और तेजी से बढ़ेगा जो समाज या देश या किसी के भी हित में किसी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता. और इस फसाद की इकलौती वजह तलाक मिलने में देरी है, इसलिए शादी की तर्ज पर तलाक भी  झटपट होना चाहिए.

धर्म का धंधा: कुंडली मिलान, समाज को बांटे रखने का बड़ा हथियार!

लेखक- शाहनवाज

लड़केलड़की की कुंडलियों में यदि 36 गुणों में सभी गुणों का मिलान हो जाए तो क्या इस की कोई गारंटी है कि वैवाहिक जीवन खुशहाल रहेगा? यदि ऐसा न हुआ तो इस में किस का दोष माना जाएगा? क्या शादी से पहले कुंडली मिलान करना आवश्यक है या फिर कुंडली मिलान की प्रक्रिया के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है? क्या यह सिर्फ एक धर्म में ही है या इस जैसी कोई प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी पाई जाती है?

साल था जनवरी 2018, जब राजीव की शादी के लिए जगहजगह लड़की तलाशने के लिए लोगों के घर जाया जा रहा था. उन के घर वाले ऐसी बहू की तलाश में थे जो सुंदर हो, सुशील हो, घरबार का काम करना आता हो, पढ़ीलिखी हो इत्यादि. खानदान के पंडित बड़ी मेहनत से कुंआरी लड़कियों के रिश्ते का पता करते और एक के बाद एक लड़के की कुंडली के अनुसार लड़कियों को छांटते रहे. घर वालों ने तो पंडितजी से साफ कह दिया था कि लड़केलड़की की कुंडली में कम से कम 24 गुण तो मिलने ही चाहिए.

राजीव की कुंडली के अनुसार घर के पंडित का लड़की ढूंढ़ना थोड़ा मुश्किल होने लगा तो घर वालों ने अपने गांव के कुछ और पंडितों को भी लड़की ढूंढ़ने के इस काम में शामिल कर लिया. अंत में पंडितों के काफी तलाशने के बाद ऐसी लड़की मिल ही गई जिस से राजीव की कुंडली के 36 में से 32 गुणों का मिलान हो गया. राजीव के घर वाले बहुत खुश हुए और जल्द ही लड़की वालों से मिल कर रिश्ते की बात भी पक्की कर आए. अप्रैल तक आतेआते राजीव की शादी हो गई और नया जोड़ा हनीमून के वास्ते कुछ दिनों के लिए शिमला चला गया.

राजीव और कल्पना की शादी के कुछ महीने अभी हुए भी नहीं थे कि उन के बीच छोटीमोटी बातों को ले कर अनबन होनी शुरू हो गई. पहले बात केवल एकदूसरे के प्रति नाराजगी तक थी, लेकिन कुछ समय बाद यह छोटीमोटी अनबन छोटेमोटे  झगड़ों का रूप धारण करने लगी.

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घर वाले उन के बीच इन छोटे  झगड़ों को इग्नोर किया करते थे और कहते थे, ‘‘जिन पतिपत्नी के बीच  झगड़ा होता है उन के बीच प्यार भी उतना ही होता है.’’ अब यह बात कितनी सही कितनी गलत थी, यह तो बाद में ही सम झ आया जब छोटेमोटे  झगड़े इतने बढ़ने लगे कि सभी को चिंता होने लगी.

जैसेतैसे राजीवकल्पना की शादी को 7-8 महीने गुजर गए. उन का कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता था जब वे  झगड़ा न करते हों. साल 2019 की शुरुआत में ही वे दोनों एकदूसरे से इतने परेशान हो गए कि उन दोनों ने ही अपने परिवार की न मानते हुए एकदूसरे को तलाक देने का फैसला कर लिया. और अप्रैल 2019 के आतेआते वे दोनों कानूनी तरीके से एकदूसरे से अलग हो गए.

जिस जोड़े की कुंडली में 36 में से 32 गुणों का मिलान हो जाए, उस के बाद भी यदि शादी के बाद इतनी समस्याएं हों तो इस में किस का दोष है? क्या कुंडली मिलान करने वाले पंडित से गलती हुई? या फिर यह कुंडली वाला पूरा सिस्टम ही इस के पीछे का दोषी है? क्या शादीब्याह से पहले कुंडली देखना और गुणों का मिलान करना मात्र ढकोसला है या फिर इस के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है?

एक पल के लिए यदि हम मान भी लें कि कुंडली मिलाने वाले पंडित की गलती के कारण ये सभी समस्याएं नवविवाहित जोड़े को सहनी पड़ीं, लेकिन हम ने अपने जीवन में कई ऐसे उदाहरण देखे हैं जिन में सर्वगुण संपन्न कुंडली मेल के बाद भी विवाहित जोड़ा अपना वैवाहिक जीवन सफल नहीं बना पाता. और हम ने यह भी देखा है कि कुंडली मेल बिलकुल भी न होने पर कई जोड़े बेहद सुखद वैवाहिक जीवन गुजारते हैं. ऐसे में कुंडली मिलान की परंपरा पर सवाल उठना उचित हो जाता है कि जब इस के मिलने या न मिलने से विवाहित जोड़े के जीवन में कोई असर नहीं पड़ता तो अभी भी बहुसंख्य शादीब्याहों में इस परंपरा को इतना अधिक मोल क्यों दिया जाता है?

क्या है कुंडली मिलान

दावा किया जाता है कि कुंडली आप की ऊर्जा प्रणाली और उस पर ग्रहों की प्रणाली के प्रभावों का वर्णन करती है.

विवाह के समय लड़के और लड़की की जन्म कुंडलियों को मिला कर देखा जाता है. कुंडली मिलान की इस विधि में 36 गुण होते हैं. विवाह की मान्यता के लिए 36 में से कम से कम 18 गुणों का मिलान होना चाहिए. इन 18 गुणों में नाड़ी, माकुट, गण, मैकी, योनि, तारा वासिफ वर्ण जैसे 8 कूटों में बंटे अंक होते हैं.

कुंडली मिलान अपनेआप में वैज्ञानिक नहीं है. सब से पहले तो एस्ट्रोलौजी को ही वैज्ञानिक नहीं माना गया है.

क्यों बन गया जरूरी

यदि हम कुंडली मिलान प्रथा को और इस की प्रक्रिया को ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि इस मिलान के 36 गुणों में सब से महत्त्वपूर्ण गुण (जिसे गुण नहीं माना जाना चाहिए) वर्ण कूट है. वर्ण कूट से अभिप्राय वर्ण व्यवस्था से है. यानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. इन्हीं वर्णों से ही जातियों का उत्थान होता है. और तो और, वर्ण कूट को कुंडली मिलान की प्रक्रिया में सब से पहला स्थान दिया गया है.

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कुंडली मिलान की यह प्रक्रिया समाज में तब से ही चलती आ रही है जब से भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का उत्थान हुआ. पुराने समय में कुंडली मिलान की उपयोगिता केवल बेहतर साथी की तलाश के लिए (जिस की कोई गारंटी अभी भी नहीं है) ही नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था कायम रखने के लिए भी थी.

वर्ण व्यवस्था समाज में एक तरह की छतरी के समान होती है, जिस के अंदर अलगअलग जातियों का समावेश होता है. हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था को बेहद अहम स्थान दिया गया है. ब्राह्मण का विवाह ब्राह्मण से, क्षत्रिय का विवाह क्षत्रिय से, वैश्य का विवाह वैश्य से और शूद्र का विवाह शूद्र से ही हो, इस चीज का क्रियान्वयन कुंडली मिलान की प्रक्रिया से ही संभव था.

भारत में जाति व्यवस्था ने समाज को हमेशा बांट कर रखा. उस के पीछे सब से बड़ा कारण समाज में कुछ लोगों के पास ही सब से अधिक संसाधन और सब से अधिक अधिकारों को अपने हाथों में बनाए रखना था. और यह सब समाज में बिना धर्म के लागू करना संभव ही नहीं था. मुट्ठीभर लोग, जिन के हाथों में संसाधन और अधिकारों का केंद्रीयकरण हो गया, समाज को अपने आने वाली पीढि़यों में हस्तांतरित करना चाहते थे.

इसी कारण उन्होंने समाज में लोगों के पेशे के अनुसार उन्हें विभाजित कर दिया. किसी दूसरी जाति का व्यक्ति किसी अन्य जाति के साथ संबंध न बना ले, इसीलिए तरहतरह की पाबंदियां लगा दी गईं. यह केवल संबंध बनाने की बात नहीं थी, बल्कि एक जाति का खून दूसरी जाति में मिश्रित न हो जाए, इस के ऊपर कंट्रोल करने के लिए कुंडली मिलान की प्रथा सब से अहम थी.

आज के समय में भी शादी से पहले कुंडली मिलान की यह प्रथा आम घरों में बेहद आम है. चाहे लड़के के लिए लड़की तलाशनी हो या फिर लड़की के लिए लड़का, कुंडली में जब तक 18 गुण नहीं मिल जाते तब तक शादी के लिए मंजूरी नहीं मिलती. और कुंडली मिलान की यह प्रथा, पढ़ाईलिखाई से वंचित लोगों के साथसाथ खूब पढ़ेलिखे लोग भी अपनी शादी के लिए योग्य  वर या वधू की तलाश के लिए प्रयोग करते हैं.

सफल होने की नहीं है गारंटी

चूंकि ज्योतिष विद्या या एस्ट्रोलौजी किसी तरह का कोई विज्ञान नहीं है, इसलिए इस का एक हिस्सा यानी कि कुंडली मिलान का भी किसी तरह का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. कुंडली प्रथा में जिस तरह ग्रहों और नक्षत्रों के मेल या अमेल से किसी व्यक्ति के लिए कौन योग्य है और कौन नहीं, इस का आकलन करने की नाटकनौटंकी की जाती है, उस से यह कहीं से भी न तो वैज्ञानिक लगती है और न ही यह कोई विज्ञान है.

मामला केवल जाति व्यवस्था को बनाए रखना है, बाकी सब तो मदारी के खेल जैसा है. जिस से लोगों को लगता है कि ज्योतिषी जो भी राहू, केतु, शनि, मंगल कर रहा है वह सब ठीक ही होगा. जबकि, कुंडली मिलान से बनाए जाने वाले संबंध अपने वैवाहिक जीवन में सफल हों, इस की कोई गारंटी नहीं है.

मसलन, राजीव का ही उदाहरण ले लीजिए. 36 में से 32 गुणों के मिलान के बावजूद शादी का एक साल भी नहीं हुआ और दोनों का तलाक हो गया.

उसी प्रकार रवि की शादी का किस्सा है. कालेज के दिनों में रवि का कालेज में एक लड़की से प्रेम हो गया. लड़की का नाम बुशरा हसन था. बुशरा और रवि ने अपने घर पर एकदूसरे के बारे में बताया. लेकिन कोई बात नहीं बनी. अंत में रवि और बुशरा ने कानूनी तरीके से कोर्ट में जा कर शादी कर ली. हाल में उन से मुलाकात हुई तो वे एकदूसरे के साथ बेहद खुश नजर आए.

आजकल इन शादियों को रोकने के लिए लव जिहाद का नारा दिया जा रहा है ताकि धार्मिक भेदभाव की लकीरों को ऊंची दीवारों में बदला जा सके.

यदि हम पौराणिक कथाओं की बात करें तो भगवान राम और सीता की जोड़ी के समय जब उन की कुंडली का मिलान महर्षि गुरु वशिष्ठ द्वारा किया गया, तो कहा जाता है कि उन की जोड़ी में 36 में से 36 गुणों का ही मिलान हो गया था. परंतु जब 36 गुणों का मेल हो ही गया था तो अंत में सीता को क्यों धरती में समाना पड़ा?

कुंडली प्रथा कितनी व्यावहारिक

कुंडली मिलान की प्रथा केवल समाज में पहले से मौजूद जाति व्यवस्था को मजबूती देती है. इस से यह सवाल बनता है कि आज के आधुनिक समाज में कुंडली मिलान अपनी कितनी व्यावहारिकता रखता है?

उदाहरण के लिए रवि और बुशरा की जोड़ी को ही ले लीजिए. यदि हम नाम से दोनों के धर्म का अंदाजा लगाएं तो रवि हिंदू धर्म से और बुशरा मुसलिम धर्म से ताल्लुक रखती है. इस हिसाब से तो रवि का मेल किसी भी तरीके से बुशरा के साथ होना ही नहीं चाहिए. लेकिन सचाई कुछ और ही बयां करती नजर आ रही है कि दोनों एकदूसरे के साथ बेहद खुश हैं.

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में कई ऐसे हैं जिन्होंने विधर्मी से विवाह किया और उन के विवाह भी सफल रहे, कैरियर भी. उसी प्रकार एक सवाल यह भी बनता है कि जिन धर्मों में कुंडली मिलान जैसी प्रथाओं को प्रैक्टिस नहीं किया जाता, क्या उन के यहां रिश्ते होते ही नहीं? या फिर क्या उन में शादियां होती ही नहीं? और अगर होती हैं तो क्या उन के रिश्ते टूट जाते हैं?

आज के आधुनिक समाज में एस्ट्रोलौजी, हौरोस्कोप इत्यादि पर भरोसा करना खुद को वक्त में पीछे धकेलने जैसा है. एक तरह दुनिया में विज्ञान तेजी से प्रगति के रास्ते पर है तो कुछ लोग दूसरी तरफ धर्म का चश्मा लगा कर दुनिया को पीछे धकेलने का काम कर रहे हैं.

बाकी धर्म वाले भी पीछे नहीं

यदि यह लगता है कि केवल हिंदू धर्म में ही कुंडली मिलान की प्रथा विद्यमान है तो आप गफलत में हैं. कुंडली मिलान की प्रक्रिया एक ही समाज में एक वर्ग को दूसरे वर्ग से रिश्ते जोड़ने से रोकती है, एक तरह से यह बैरिकेड की तरह काम करती है.

भारत के मुसलिम समुदाय के लोग अपना आंगन बड़ा साफसुथरा दिखाने की कोशिश करते हैं. कहते हैं कि मुसलमानों में किसी तरह की कोई जाति नहीं होती, सब बराबर होते हैं इत्यादि. मुसलिम समुदाय में जाति होती है कि नहीं, यह जानने के लिए सब से सीधा और आसान तरीका इंटरनैट पर सर्च करना है. इंटरनैट खोलिए. गूगल पर मुसलिम मैट्रिमोनी टाइप कीजिए. किसी भी एक वैबसाइट पर विजिट कीजिए और थोड़ा सा सर्फिंग कीजिए. शेख, सिद्दीकी, अनवर, आरिफ, मलिक, अली इत्यादि कर के आप को मुसलमानों में जातियों की एक लंबी लिस्ट देखने को मिल जाएगी.

बेशक, मुसलिम में कुंडली मिलान जैसी प्रक्रिया नहीं फौलो की जाती लेकिन जाति का ध्यान तो रखा जाता है. मुसलिम समुदाय में अगड़े माने जाने वाले (मुगल, पठान, सैयद, शेख आदि) नहीं चाहते कि उन की शादी पिछड़े माने जाने वाले (अंसारी, नाई, सिद्दीकी, जोलाहा आदि) के घर में हो चाहे आर्थिक व शैक्षिक स्थिति एकजैसी हो. किसी ऊंची जाति के मुसलिम से यदि आप पूछ लेंगे कि क्या वे अपने बच्चों की शादी भंगी (अछूत मुसलिम) के घर में करेंगे, तो उन का जवाब न में ही होगा. वैसे, बता दें कि मुसलिम समुदाय में यह दावा किया जाता है कि वे छुआछूत प्रैक्टिस नहीं करते. दरअसल, कह देने भर से किस का क्या जाता है.

भारत में वैसे तो मुसलिम समुदाय अल्पसंख्यक है लेकिन इसी समुदाय की बहुसंख्य आबादी गरीब है, पिछड़ी है. जाहिर सी बात है कि भारत के मुसलिम समुदाय का बहुसंख्य हिस्सा पिछड़ा है या दलित है, जो कि अलगअलग पेशों में लगा हुआ है. जब शादीब्याह की बात होती है तो मुसलिम समुदाय में जाति व्यवस्था क्लीयर कट नजर नहीं आती.

कुछ ऐसा ही सिख समुदाय का भी हाल है. कुंडली मिलान यहां भी प्रैक्टिस नहीं की जाती, लेकिन जाति व्यवस्था तो कायम है. इंटरनैट पर ही सिख मैट्रिमोनी टाइप करने और किसी ंवैबसाइट पर विजिट करने भर से मालूम हो जाएगा कि यहां भी जाति के अनुसार ही लोग अपने घर के लड़केलड़कियों की शादी तय करते हैं. जाट, राजपूत, सैनी, अरोड़ा, भाटिया, बत्रा इत्यादि अपने या अपने से ऊपर की जातियों में अपने बच्चों की शादी करवाना चाहते हैं, अपने से निचली जाति में नहीं.

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क्या करना चाहिए

बात सिर्फ कुंडली मिलान तक ही सीमित नहीं है. कुंडली मिलान समाज में एक धर्म में ही मुख्यरूप से प्रैक्टिस की जाती है, लेकिन वैसी ही प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी तो विद्यमान है.

एक तरफ तो पहले ही ज्योतिष ज्ञान (एस्ट्रोलौजी) को वैज्ञानिक नहीं माना गया है, वहीं दूसरी ओर इन को मानने वाले लोगों की संख्या समाज में बहुत बड़ी है. अर्थात, वे सभी अवैज्ञानिक चीजों पर भरोसा करते हैं. इस की वजह से आधुनिक समाज की यह ट्रेन आज भी कहीं न कहीं उन्हीं पुरानी अवैज्ञानिक, रूढि़वादी, अंधविश्वास की पटरी पर सवार है जो कि अकसर जातिवाद जैसे स्टेशन पर ही प्रस्थान करती है.

भारत को आजाद हुए 73 साल हो चुके हैं परंतु आज भी हमारे समाज से जातिवाद खत्म नहीं हुआ. इस की वजह केवल एक है कि हमारे दादादादी, नानानानी, मांबाप ने इस जाति व्यवस्था को कायम किया हुआ है.

अपनी जाति में बच्चों की शादियां करवा के अगर हम भी अपने पूर्वजों के किए हुए काम को करेंगे तो हमें कोई हक नहीं यह सवाल करने का कि, ‘भारत से जाति कभी क्यों नहीं जाती?’ इस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए यह जरूरी है कि हम इस कुंडली मिलान की सब से पहली सीढ़ी को ही न चढ़ें.

समय विज्ञान का है, न कि धार्मिक अंधविश्वास और पोंगेपन का. खुद को तैयार कर लें और अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य प्रदान करें. ज्योतिष ने कोविड जैसी महामारी की कोई भविष्यवाणी नहीं की थी. किसी पूजापाठ ने कोविड को खत्म नहीं किया.

शिक्षा: ऑनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक

लेखक- सौमित्र कानूनगो

शिक्षा का व्यापारीकरण होते तो हम सभी ने बीते कई सालों में देखा है लेकिन अब जो हो रहा है वह केवल व्यापारीकरण भर नहीं है. महामारी में बच्चों को औनलाइन शिक्षा देना अच्छा सुनाई पड़ता है, परंतु असमृद्ध परिवारों के लिए यह एक नई महामारी के जन्म जैसा है.

लौकडाउन और कोरोना महामारी के खतरे से जहां एक ओर पूरा मानव जीवन प्रभावित हो रहा है वहीं बच्चों की पढ़ाई भी सब से ज्यादा प्रभावित होती नजर आ रही है. मार्च में लौकडाउन लागू किए जाने के बाद से ही देश के शिक्षण संस्थान बंद हैं और पढ़ाई के लिए बच्चे अब औनलाइन एजुकेशन पर निर्भर हैं.

महामारी के खतरे को देखते हुए हमारे देश के विद्यार्थियों के लिए औनलाइन एजुकेशन एक अच्छा रास्ता है. लेकिन जहां हमारे देश में लगभग 70 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं और उन के पास लैपटौप या मोबाइल जैसी सुविधा भी नहीं होती है, वहां रहने वाले विद्यार्थी औनलाइन शिक्षा कैसे ले पाएंगे?

उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर के सरकारी विद्यालय में पढ़ाने वाली शिक्षिका शुभ्रा बनर्जी बताती हैं, ‘‘हमारे यहां 99 प्रतिशत बच्चे इतने समर्थ नहीं हैं कि उन के पास लैपटौप या उन के घर पर वाईफाई की सुविधा हो. कई बच्चों के घरों में फोन भी एक ही है, उस में भी कुछ ही बच्चों के पास स्मार्टफोन है, बाकी बच्चों के पास स्मार्टफोन भी नहीं है.’’

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स्क्रौल की वैबसाइट पर प्रकाशित एक आर्टिकल के मुताबिक, सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीयों के पास स्मार्टफोन हैं और सिर्फ 11 प्रतिशत घर ऐसे हैं जहां किसी प्रकार का कंप्यूटर है, मतलब डैस्कटौप, लैपटौप, टेबलेट आदि है.

2017-2018 की शिक्षा पर नैशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक,

सिर्फ 24 प्रतिशत भारतीय घरों में ही इंटरनैट की सुविधा है.

ये आंकड़े हमें यह दिखाते हैं कि हमारे देश के कुछ विद्यार्थी तो सुविधा पा कर अपनी पढ़ाई कर पा रहे हैं पर एक बड़ी संख्या में विद्यार्थी सुविधा के अभाव में शिक्षा से दूर हैं.

स्मार्टफोन, लैपटौप, इंटरनैट के खर्चे ने अभिभावकों को भी परेशान कर दिया है. औनलाइन शिक्षा से वे अभिभावक ज्यादा परेशान हैं जिन के बच्चे निजी स्कूलों में निशुल्क शिक्षा अधिनियम के तहत पढ़ते हैं. सोचिए, जिन के पास फीस देने के पैसे नहीं, आखिर वे स्मार्टफोन और लैपटौप का खर्चा कैसे उठाएंगे?

कुछ महीने पहले तक बच्चों को मोबाइल फोन पर गेम खेलने के लिए मांबाप की डांट पड़ती थी. जब से कोरोना का कहर टूटा है, वही मातापिता अपने बच्चों के लिए लौकडाउन में भी बाजारबाजार घूम कर स्मार्टफोन, मोबाइल, टैबलेट खरीदते दिखे. वे अच्छी से अच्छी कंपनी का मोबाइल फोन ढूंढ़ रहे हैं जिस में पिक्चर भी क्लीयर आए, स्क्रीन भी बड़ी हो और जिस पर इंटरनैट भी धांसू चले.

घर की कमजोर आर्थिक स्थिति में बच्चों की पढ़ाई को ले कर मातापिता की बड़ी हुई चिंताओं की बानगी देखिए कि कोरोना महामारी ने एक गरीब पिता को अपनी बेटी के लिए स्मार्टफोन खरीदने और स्कूल की फीस भरने के लिए अपनी गाय बेचने पर मजबूर कर दिया.

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के एक पिता ने ऐसा इसलिए किया ताकि कोरोना के चलते उन की बेटी की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए. लखनऊ में सैफ अयान के पिता आरिफ, जो खुद भी एक टीचर हैं, 7वीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने बेटे सैफ की पढ़ाई को ले कर बहुत चिंतित हैं. सैफ आजकल औनलाइन पढ़ाई कर रहा है. खुद उन्हें भी अपने स्टूडैंट्स को औनलाइन पढ़ाना पड़ रहा है. बेटे की औनलाइन पढ़ाई के लिए उन को अलग से 12 हजार रुपए का नया स्मार्टफोन खरीदना पड़ा. इस के अलावा ट्राइपौड, ब्लैकबोर्ड, अच्छा इंटरनैट प्लान और पढ़ाई से संबंधित दूसरी जरूरी चीजों की खरीदारी में करीब 20 हजार रुपए खर्च हो गए.

लेकिन इतने ताम?ाम के साथ चल रही औनलाइन पढ़ाई का हाल यह है कि ढाई घंटे की औनलाइन पढ़ा के बाद आरिफ जब खुद सैफ को ले कर पढ़ाने बैठते हैं तब जा कर उस की सम?ा में कुछ आता है. शाम को उस को घर के पास ही चलने वाली ट्यूशन क्लास में भी भेजते हैं.

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आरिफ कहते हैं, ‘‘मोबाइल फोन पर टीचर जो लैक्चर दे रही हैं उस का 5 फीसदी भी बच्चे को सम?ा में आ जाए तो बहुत है. मोबाइल फोन पर लगातार आंखें गड़ाए रखने के बाद जब मेरा बेटा ढाई घंटे बाद उठता है तो उस की आंखों से पानी गिरता है, रातभर बच्चा सिरदर्द से परेशान रहता है. इस तरह और कुछ महीने पढ़ाई चली, तो बच्चा बीमार पड़ जाएगा.’’

औनलाइन शिक्षा की परेशानी

आरिफ कहते हैं, ‘‘औनलाइन क्लासेज शिक्षा का मजाक भर है. गाइडलाइन है कि 8वीं तक के छात्रों की औनलाइन क्लास डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. लेकिन स्कूल वाले 3 से 4 घंटे तक बच्चों को पीस रहे हैं. सैकंडथर्ड क्लास का बच्चा भी 4-4 घंटे मोबाइल फोन में आंखें गड़ाए बैठा है. उधर, टीचर को पता ही नहीं चलता है कि 40-50 बच्चों में कौन गंभीरता से पढ़ रहा है और कौन खेल कर रहा है, किस का ध्यान पढ़ाई पर है और किस का नहीं.

ऐसे छोटे बच्चों के साथ भी औनलाइन एजुकेशन का विकल्प काम नहीं कर रहा है, जो स्वभाव से शरारती हैं और एक जगह बैठ कर ध्यान लगा कर अपना काम नहीं करना चाहते हैं. ऐसे बच्चों के लिए बहुत देर तक स्क्रीन के सामने बैठना समस्या ही है.’’

मातापिता का भी यह कहना है कि हमारे खुद के पास इतना समय नहीं है कि हम बच्चे को पढ़ा सकें क्योंकि हमें भी घर से अपना काम करना पड़ रहा है. कुछ बच्चों के मातापिता पढ़ेलिखे न होने के कारण इस स्थिति में असहाय महसूस कर रहे हैं.

औनलाइन कक्षाओं के तहत संसाधनों की कमी का सब से अधिक सामना 10वीं और 12वीं के छात्रों को करना पड़ रहा है. मध्य प्रदेश राज्य के नरसिंगपुर शहर के प्राइवेट स्कूल में 12वीं कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी संचित बताता है, ‘‘हमारी औनलाइन क्लास में पढ़ाई ठीक से नहीं चल रही है. हमें व्हाट्सऐप ग्रुप पर अलगअलग विषय की, बस, पीडीएफ भेज देते हैं. हफ्ते में एक दिन भी कोई औनलाइन क्लास नहीं हो रही है, टैस्ट वगैरह कुछ नहीं हो रहा है, पूरा साल खराब जा रहा है. 12वीं है, पता नहीं कैसे क्या होगा.’’

दिल्ली के नजफगढ़ शहर के सरकारी स्कूल में 12वीं में पढ़ने वाली राधा कहती है, ‘‘औनलाइन पढ़ाई में हमारे सवाल, जो हमें टीचर से पूछने हैं, वे रह जाते हैं क्योंकि टीचर सभी बच्चों को रिप्लाई नहीं कर पाते हैं और हमारे सवालों के जवाब नहीं दे पाते हैं. क्लासरूम में यह आसान था क्योंकि टीचर से आप सामने खड़े हो कर सवाल पूछ सकते थे. हम क्लासरूम में दोस्तों से भी किसी विषय पर जो सम?ा न आ रहा हो, आसानी से उस पर चर्चा कर सकते थे. पर औनलाइन में वह नहीं हो पाता है.’’

इस के अलावा कुछ बड़ी कक्षाओं और छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने बताया कि वे संयुक्त परिवारों में रहते हैं तो उन के लिए पढ़ाई का माहौल ही नहीं बन पाता है. मध्य प्रदेश का संचित, जो 12वीं कक्षा में पढ़ता है, का कहना है, ‘‘पहले स्कूल जा कर मैं आराम से पढ़ सकता था. वह समय सिर्फ मेरे स्कूल का था. पर घर में इतनी चहलपहल के बीच मु?ो वह माहौल नहीं मिल पाता है.’’ कई बच्चों के घर छोटे हैं, उन में उन के लिए अलग कमरा या जगह नहीं है जिस वजह से भी उन्हें पढ़ने में मुश्किल हो रही है.

शिक्षा का बेड़ा गर्क

औनलाइन क्लासेस ने शिक्षा और छात्र दोनों का बेड़ा गर्क कर दिया है. छोटेछोटे बच्चों की 4-4 घंटे तक औनलाइन क्लास चल रही है. बच्चे पस्त हो रहे हैं, गार्जियन के सामने नएनए बहाने बना रहे हैं. बच्चे अवसाद के शिकार भी हो रहे हैं. सोचिए कि केजी क्लास का नन्हा सा बच्चा औनलाइन क्या सीख और पढ़ रहा होगा? क्या औनलाइन क्लासेज पैरेंट्स को बेवकूफ बना कर पैसे ऐंठने का जरिया नहीं हैं?

लखनऊ के क्राइस्ट चर्च स्कूल में पढ़ने वाले 5वीं कक्षा के विद्यार्थी आलिंद नारायण अस्थाना की मां शिफाली अस्थाना कहती हैं, ‘‘हम स्कूल की इतनी लंबीचौड़ी फीस क्यों भरें जब बच्चा औनलाइन कुछ सीख ही नहीं पा रहा है? इस औनलाइन क्लास ने हमारी तो कमर ही तोड़ दी है. बिजली हमारी, इंटरनैट का खर्चा हमारा, अलग से ट्यूशन टीचर हमें रखनी पड़ रही है, स्मार्टफोन, लैपटौप हमें खरीदने पड़ रहे हैं, तो स्कूल वाले किस बात की फीस और किस बात का मेंटेनैंस चार्ज मांग रहे हैं? न तो उन की बिल्ंिडग इस्तेमाल हो रही है, न बिजलीपानी और न ही बच्चे को लाने व ले जाने के लिए बस, तो स्कूल ट्यूशन फीस में ये तमाम चार्जेस क्यों जोड़ रहे हैं? हम ने तो 4 महीने से फीस नहीं दी है और आगे भी अगर इसी तरह औनलाइन क्लास चलेगी, तो कोई फीस नहीं देंगे.’’

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उन अभिभावकों की हालत तो और भी ज्यादा खराब है जो प्राइवेट नौकरी में रहते हुए छंटनी के शिकार हो गए या फिर बिजनैस में थे और कोरोनाकाल के लौकडाउन में उन के बिजनैस की रीढ़ ही टूट गई. जिंदगी में दो जून की रोटी के लाले पड़ गए तो बच्चों की फीस का इंतजाम कहां से करें? जिन के 3 या 4 बच्चे हैं, भला वे कहां से इतना पैसा लाएं कि हर बच्चे के हाथ में एक नया स्मार्टफोन और इंटरनैट कनैक्शन दे सकें?

घर में पहले एक स्मार्टफोन था, तो अब जरूरत उस से ज्यादा की है. स्मार्टफोन पर औनलाइन क्लास तो सजा ही है, सही माने में तो लैपटौप चाहिए. लेकिन 3-4 बच्चों के लिए 3-4 लैपटौप का इंतजाम अभिभावक कैसे करें? गाजियाबाद में रहने वाले अशोक मिश्रा के 3 बच्चे हैं, तीनों की क्लास एक ही वक्त शुरू हो जाती है. वे बेचारे अड़ोसपड़ोस से मोबाइल फोन मांग कर लाते हैं. घर में एक लैपटौप है, उस को ले कर ?ागड़ा मचता है.

फाइवस्टार स्कूलों की चांदी

हालांकि बड़े शहरों के फाइव स्टार स्कूलकालेज, जिन में बड़ेबड़े नेताओं और व्यापारियों का पैसा लगा है, को कोरोना महामारी से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है. कई मैडिकल, इंजीनियरिंग कालेज लौकडाउन के बावजूद पैरेंट्स से पूरी फीस वसूल रहे हैं. ऐसे स्कूलों में फीस न देने का कोई रास्ता नहीं है. कोई मुरव्वत नहीं, फीस नहीं तो नाम कट. अब जहांतहां से इंतजाम कर के लोग फीस भर रहे हैं. यही नहीं, कुछ नामी स्कूल तो तय सीमा से ज्यादा फीस ले रहे हैं. सैमेस्टर की फीस जमा करने के लिए फाइव स्टार प्राइवेट यूनिवर्सिटी सिर्फ 2 दिन का वक्त देती हैं, वह भी बिना पूर्व सूचना के. फीस में एक दिन की भी देरी हुई, तो लेट पेमैंट के नाम पर करीब हजार रुपए का चूना लग जाता है. ज्यादा देर हो गई, तो दोगुनी फीस भी देनी पड़ सकती है.

इन यूनिवर्सिटीज में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले उन तमाम मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय परिवारों की परेशानियों का कोई अंत नहीं है, जिन के 2 या उस से ज्यादा बच्चे हैं. सब की औनलाइन क्लास एक ही वक्त चलनी है, इसलिए सभी को लैपटौप और स्मार्टफोन इंटरनैट कनैक्शन के साथ चाहिए. अब स्कूल प्रशासन के सामने छात्रों के बीच अनुशासन मैंटेन करने का कोई ?ां?ाट नहीं है. स्कूल के रखरखाव की परेशानी भी कम हो गई है. खेल एक्टिविटीज बंद हैं. वाहन चल नहीं रहे हैं. लेकिन उन सब की फीस ली जा रही है. पढ़ाई की क्वालिटी के बारे में कोई सवाल नहीं उठ रहे. स्कूल प्रशासन को अच्छी तरह पता है कि कोरोनाकाल में अभिभावक संगठित नहीं हो सकते. सो, इन की पहले भी चांदी थी, अब भी चांदी है.

शिक्षा एक महंगा प्रोडक्ट

हम सारे आंकड़ों को, शिक्षकों और विद्यार्थियों के अनुभव को देखें तो लगता है कि औनलाइन एजुकेशन शिक्षा को एक बाजार से खरीदी जाने वाली चीज की तरह बना रही है जिस के पास पैसा और संसाधन हैं वे तो इसे आसानी से खरीद कर इस का लाभ उठा पा रहे हैं पर गरीब तबका और ऐसे लोग, जो गांव या कसबे में रहते हैं, सुविधा के अभाव के चलते अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे पा रहे.

इस का मतलब यह नहीं है कि औनलाइन एजुकेशन नहीं होनी चाहिए. लेकिन प्रशासन को यह सोचना होगा कि अगर औनलाइन एजुकेशन के अलावा और कोई भी कदम उठाए जाएं तो उस का लाभ सिर्फ समृद्ध लोगों को ही न मिले, हमारे देश का वह तबका जो समृद्ध नहीं है वह छूट न जाए. संसाधनों के अभाव से ग्रस्त हमारे देश के शिक्षक और विद्यार्थी महामारी के दौर में अगली पूरी पीढ़ी की शिक्षा को दांव पर लगा देख इन सवालों के साथ प्रशासन की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं.

आर्थिक तंगी से जूझ रहे स्कूल 

स्कूल, कालेज प्रशासन का भी हाल खस्ता है. कोरोनाकाल में कई छोटे स्कूल आर्थिक तंगी का शिकार हो कर बंद होने की कगार पर हैं. एक कसबाई स्कूल के प्रिंसिपल साहब कहते हैं, ‘‘छात्रों ने स्कूल में आना बंद कर दिया तो अभिभावकों ने फीस भी बंद कर दी. अध्यापक से ले कर चपरासी तक पैदल हो गए और सरकार बिजली का बिल, पानी का बिल भेजने में शर्म नहीं कर रही है. आखिर कुछ तो रियायत सरकार भी दिखाए.’’

तमाम प्राइवेट स्कूलकालेजों की हालत खस्ता है. प्राइवेट कालेज के कई अध्यापक अब सब्जी और फल बेच रहे हैं, ऐसी खबरें रोज आ रही हैं.

-साथ में नसीम अंसारी कोचर 

आधुनिकता उम्र की मुहताज नहीं

लेखिका- रेखा व्यास

‘आधुनिकता’ शब्द की हमारे दिमाग में ऐसी छवि बनती है जैसे कोई समसामयिक और नई बात है. ज्यादातर लोग इसे नए जमाने की देन समझते व मानते हैं. संभवतया इस का मुख्य कारण आधुनिकता को बाहरी या परिधान, मेकअप आदि के स्तर तक सीमित कर देना लगता है. विचारों की आधुनिकता को खुलापन या पाश्चात्य जीवनशैली और सोच मान लिया जाता है. दोनों ही रूपों में आधुनिकता निखरती है. अपने असली रूप में यह हमें लाभ पहुंचाती है.

अकसर कोई बुजुर्ग हमें अपने जैसा या अपने से आगे सोचता हुआ मिलता है तो हम ताज्जुब करते हैं. जनरेशन गैप खत्म होता जान पड़ता है. विचारशील लोग इसे शाश्वत सोच का नाम दे देते हैं जो कालजयी तथा लिंगभेद और देशकाल से ऊपर होती है.

19वीं शताब्दी के आखिर में मेवाड़ में गंगा बाई आमेरा ने अपने 8 भाइयों की मृत्यु के बाद स्वयं घरपरिवार का बीड़ा उठाया. शिक्षा ग्रहण की. 1907 में डिलिवरी के 27 दिनों बाद ही देवरानी और उस के कुछ दिनों बाद देवर की मृत्यु हो जाने पर उन के बच्चे को अपनाया, पालापोसा. मेवाड़ में गांधीजी के चलाए स्त्रीशिक्षा आंदोलन में चर्चित रहीं. उस समय हर घर से एक बेटी और एक बहू को पढ़ाने का आंदोलन चला. उन्होंने अपने 2 पोतों की बहुओं को पढ़ाने की अगुआई की. नौकरी लगने पर स्वयं पोते की बहू को नौकरी जौइन कराने ले गईं. प्रपौत्री के जन्म पर उन्होंने शानदार जश्न आयोजित किया, तो लोगों ने हंसी उड़ाई.

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उस समय लड़कियों को इतना महत्त्व नहीं दिया जाता था. लोग आज भी इस बात की चर्चा करते हुए कहते हैं कि गंगाबाई ने सब को मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि लड़का कहां से आता है और लड़की कहां से आती है? प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया तो हम क्यों करें? मुझे इस बच्चे के जन्म पर जो खुशी हुई है, मैं उस का आनंद उत्सव मना रही हूं.

आज यह बात भले ही आम लगे पर उस समय बहुत खास थी. ऐसा सोचने और करने वाले लोग न के बराबर थे. स्त्रियां परदे में रहती थीं. उस समय वे बहुओं से कहती थीं, ‘कोई घूंघट नहीं निकालेगा. मेरे सामने पैदा हुई हो, तुम्हीं मुझ से न हंसोबोलो और मन की बात न करो तो यह क्या बात हुई.’ बहुएं घरपरिवार, पड़ोस या गांव की हों, सभी उन्हें प्यार से गंगा बूआजी कहती थीं और उन से सलाहमशवरा कर लिया करती थीं.

हमारा सामाजिक परिवेश बनेबनाए ढर्रे पर चलता है, तो हम भी भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है या यह होना भी चाहिए या नहीं, इस पर सोचने की फुरसत भी हमारे पास नहीं रहती. आज रहनसहन, खानपान चमकदमक के नाम पर जितनी आधुनिकता दिखती है, यदि उस की आधी भी सोच के स्तर पर आती तो जातिबिरादरी, अस्पृश्यता, ऊंचनीच जैसी तमाम नकारात्मक सामाजिकता काफी हद तक दूर हो जाती. लोग इन्हें परंपरा के प्रति आस्था और पूर्वजों की देन (?) मान कर इस तरह की धारणाओं को बदलने की कोशिश भी नहीं करते.

कुछ लोग मिलते हैं तो भी अपवाद के स्तर पर. सुशीला देवी शर्मा 85 साल की हैं, पर शुरू से ही इन की सोच काफी आधुनिक रही. चूंकि बाहरी स्तर पर इन्होंने सादगी ही अपनाई, इसलिए कई बार लोगों की उपेक्षा का शिकार भी रहीं. छोटी उम्र में शादी हो जाने के कारण इन पर घर की जिम्मेदारी आ गई. पति वकालत करना चाहते थे. ऐसे में अपने सिलाईकढ़ाई के हुनर से कमाई कर के पति को इंदौर पढ़ने भेजा. सिलाई कक्षाएं चला कर कमाई बढ़ाई. खुद ने श्रमजीवी कालेज जौइन किया. अपनी कूवत से पढ़लिख कर शिक्षिका बनीं. बच्चे भी खूब पढ़ाए. एक बेटा सर्जन, एक प्रोफैसर और 2 बेटे वकील हैं तो एक बेटी प्रोफैसर और एक डाक्टर है.

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आज से 30-35 वर्ष पहले छोटे शहरों में ब्राह्मण ब्राह्मण में भी आपस में शादी अंतर्जातीय विवाह मानी जाती थी. जो ब्राह्मण गौड़, औदीचय, आमेरा, पुषकरणा आदि जिस जाति का होता था उसी में विवाह करता था. ऐसे में इन के 2 पुत्रों ने ईसाई लड़कियों से विवाह किया तो इन्होंने सहज रूप से उन्हें अपनाया. घर के बेहद सगों ने इन दोनों के बहिष्कार व संपत्ति से वंचित करने की राय दी व दबाव डाला तो इन्होंने उसे खारिज कर दिया. ये तो अपनी लड़कियों को भी संपत्ति में हिस्सा देने की पक्षधर हैं. यह बदलाव एकदम तो नहीं पर धीरेधीरे पुख्ता हो कर आता गया.

इन के पोतेपोती डाक्टर हैं, जज हैं. वे भी इन की सोच व काम के कायल हैं. वे इन पर बहुत गर्व करते हैं. इन के हाथ की बनाई गई पौलिथीन की आसन, पैचवर्क की साडि़यां, परदे, गिलाफ आदि खूब पसंद करते हैं. ‘कूड़ा’ शब्द सुशीलाजी के शब्दकोश में नहीं है. वे कहती हैं, कभी उन्होंने कूड़ाघर का मुंह नहीं देखा. ये इस तरह की नई चीजें बनाबना कर बांटती रहती हैं.

रानी भारद्वाज 62 साल की हो रही हैं. वे दिल्ली में रहती हैं. वे आधुनिकता को खास उम्र और क्षेत्र की बपौती नहीं मानतीं. उन के दोनों बच्चों ने विदेशी जीवनसाथी चुने तो इन्होंने खुशीखुशी उन का साथ दिया. अपने अरमान पूरे करने के नाम पर बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने वाले मांबाप को ये ठीक पेरैंटिंग न कर सकने का दोषी मानती हैं. उन का कहना है कि बच्चों को लिखापढ़ा दो, सहीगलत समझा दो, आगे उन की मरजी. हमें फिर उन की जिंदगी में दखल और उन से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.

यही नहीं, ये बच्चोंबहू के साथ ब्यूटीपार्लर, मौल घूमनेफिरने तथा बाहर खानेपीने में भी खूब रुचि लेती हैं. पति गांधीवादी और आर्यसमाजी हैं. वे रात को जल्दी सो जाते हैं. वे इतनी भ्रमणशील और देररात तक चलने वाली जिंदगी पसंद नहीं करते तो ये अपनी ओर से उन पर कोई विचार नहीं थोपतीं. बच्चे छोटे थे, तब ये अकेली ही जा कर सिनेमा देख आती थीं.

ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सोच के सम्मान को महत्त्व देती हैं. ये अपनेआप को या अपने विचारों को किसी पर लादना ठीक नहीं समझतीं. हर उम्र और विचारधारा वाले लोगों से इन की पटरी बैठ जाती है. हाल ही में बेटे द्वारा रशियन मूल की लड़की से शादी करने पर जब बहू ने भारतीय रीतिरिवाज से शादी की इच्छा प्रकट की, तो लड़की वालों की ओर से भी सारा इंतजाम स्वयं कर के उस की इच्छा का सम्मान किया.

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शादी में ये फालतू खर्च पसंद नहीं करती हैं, इसलिए नहीं किया. व्यर्थ रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते, लेनादेना, उपहारबाजी और ऐसी ही रस्मों के बहाने व्यक्ति को कर्जदार बनाने वाली परंपराएं ये पसंद नहीं करतीं. जिस से सचमुच खुशी मिले, वही सामाजिकता इन्हें रास आती है. हां, शादीब्याह में टैंट वाले, फूल वाले और बैरों द्वारा टिप मांगने और उस की राशि बढ़वाने पर ये आसानी से खुलेहाथ से देना पसंद करती हैं.

प्रतिभा रोहतगी का व्यक्तित्व भी बहुआयामी है. वे 74 वर्ष की हैं. 1993 तक राजनीति में सक्रिय  रहीं. वे लेखिका भी हैं. उन की 3 पुस्तकें छपी हैं, ‘किसी से कुछ मत कहना’, ‘प्रतीक’ और ‘कहता चल.’

वे कविताएं भी लिखती हैं. उन का सब से ज्यादा जोर शिक्षा पर है. उन्होंने अपने चारों बच्चों को खूब पढ़ाया. 2 डाक्टर हैं, एक वकील और एक बेटी अमेरिका में बैंककर्मी. पोतेपोती भी अच्छी तरह पढ़लिख रहे हैं. उन के दोनों बेटे दिल्ली में हैं. एक डीएलएफ और दूसरा यमुनापार में. वे फिर भी दरियागंज में किराए के मकान में रहती हैं, उन के अपने मकान का किराया आता है.

वे कहती हैं, ‘‘मैं सब के साथ प्रेम से रहना चाहती हूं. उन की भी खुशी बनी रहे और मेरी भी. मेरे  3-3 घर हैं. जब जहां मन करता है, चली जाती हूं. खास मौके पर पूरे परिवार को कनाट प्लेस या किसी और अच्छी जगह अपनी ओर से पार्टी देती हूं. वे बुलाते हैं तो भी एंजौय करती हूं.’’

राजनीति के बारे में वे कहती हैं, ‘‘मैं ने भाजपा में रह कर व निर्दलीय दोनों स्थितियों में राजनीति को देखा. राजनीति में स्वार्थ और निजी महत्त्वाकांक्षाओं का खेल ज्यादा है. बड़े राजनेता छोटों को अपने मातहत समझ कर खूब कुटवातेपिटवाते हैं. मुझे कुछ करने की इच्छा थी, तो मैं जुड़ी, लेकिन जब लगा कि कुछ करने नहीं दिया जा रहा है, तो क्यों समय बरबाद करती. समाज का भला राजनीति में रहे बगैर भी खूब किया जा सकता है. मैं अब खूब मस्त रहती हूं. जब जितना बन पड़े, कर लेती हूं. घूमनाफिरना, मिलनाजुलना, हंसीमजाक सब मेरे जीवन में खूब है.’’

प्रतिभाजी के अधिवक्ता पुत्र अफसोसपूर्वक कहते हैं, ‘‘सच, हम मम्मी को समझ नहीं पाए. इन्हें हलके में ही लेते रहे. यदि हम ने और पापा ने मम्मी का समय पर ठीक से साथ दिया होता तो स्थितियां आज कुछ और होतीं. मम्मी ने जो कुछ किया, अकेले अपने दम पर किया. वाकई, यह सब कम नहीं है.’’

प्रतिभाजी हर समय को एंजौय करती हैं, कहती हैं, ‘‘छोटीमोटी नोकझोंक के अलावा हम में बड़े डिफरैंस नहीं होते. बाहर रहने के बावजूद हमारे बच्चे नग्नता पसंद नहीं करते. हम ने उन्हें संस्कार और मूल्य दिए हैं. आगे उन की अपनी सोच और समझ. वे क्या चाहते हैं और हम क्या चाहते हैं, यह एकदूसरे को बताए बिना भी हम अच्छी तरह समझते हैं. आज इसी सोचसमझ के अभाव से परिवारों में टूटन और गैप आ रहे हैं.’’

जनरेशन गैप को लोग बहुत बड़ा मुद्दा बना कर पेश करते हैं. इसे पुरातनता और आधुनिकता के बीच न पटने वाली खाई के रूप में भी मानते हैं. यह इतना बड़ा हौआ है नहीं, जितना बड़ा बना दिया जाता है.

94 वर्षीया विद्यावती जैन दिल्ली के दरियागंज में अकेली रहती हैं. 1997 में पति का निधन हुआ और उन्होंने जीवन की गाड़ी को अवसाद की पटरी पर न चढ़ने दिया. उन की 6 बेटियां हैं. वे मुंबई, गाजियाबाद व दिल्ली में रहती हैं. विद्यावतीजी के पास 2 नौकर हैं. फिर भी वे काफी काम खुद करती हैं.

जब मैं ने उन से पूछा कि क्या 6 बेटियां बेटे की उम्मीद में हो गईं? तो वे सहजरूप से कहती हैं, ‘‘बेटे की उम्मीद? यह आप क्या कह रही हैं. मेरी तो छहों बेटियां बेटों से भी ज्यादा हैं. आसपड़ोस में कहीं भी पूछ आओ, कोई भी आप को बता देगा, मैं ने छहों के जन्म पर मिठाइयां बांटी हैं. आज इन बेटियों की बदौलत जाने कितने परिवारों से हमारा संबंध जुड़ गया है. नातेरिश्ते बढ़ गए हैं. 6 दामाद व बच्चे.’’

क्या आप के समय में परिवार नियोजन के साधन थे, इस पर वे कहती हैं, ‘‘आज जितने तो नहीं थे, फिर भी थे. हां, जो थे वे 4-5 साल ही कारगर थे, इसीलिए हमारे 4-6 साल के गैप पर बच्चे हुए.

आप ने बच्चे कैसे पालेपोसे? इस सवाल पर वे बोलीं, ‘‘मैं समय के अनुसार चलने में विश्वास रखती हूं. मैं ने सब को खूब पढ़ायालिखाया. मेरी सब बेटियां अच्छी पढ़ीलिखीं और अच्छे ओहदों पर हैं. यह नहीं कि पढ़ रही हैं तो वे और कुछ काम न करें. हम ने उन्हें गाना, डांस, सिलाईकढ़ाई वगैरह सब सिखाया. इस वजह से हमें उन की ससुरालों में भी बहुत मान मिला. वरना पढ़ाई के नाम पर लड़केलड़कियां समय खूब बरबाद करते हैं और टाइम पर जो सीखना चाहिए वह नहीं सीखते. घर के बाकी लोग थकतेपिसते रहते हैं. ऐसे में बच्चों में संवेदना व समझने की भावना भी नहीं पनपती.’’

आज का आधुनिक खानपान और परिधानशृंगार को देख वे कैसा अनुभव करती हैं? इस पर वे कहती हैं, ‘‘खानपान पहले ज्यादा अच्छा था मौसम व मिजाज के अनुसार. अब तो जंक व बाजारू खानपान बढ़ गया है. ठंडागरम इकट्ठा खाया जाता है. पोषण के बजाय स्वाद पर ज्यादा जोर है. फैशन और दिखावा बढ़ रहा है. बौडी प्रदर्शन हो रहा है भले ही बौडी दिखाने योग्य न हो. हमारे समय में व्यायाम, घुमाईफिराई की वजह से लोगों के शरीर ज्यादा स्वस्थ रहते थे. मनोरोग भी कम थे. अब पैसा तो बढ़ा है पर खुशी कम दिखती है.’’

आप परंपराओं को कितना मानती हैं? इस पर वे बताती हैं, ‘‘जितना जरूरी हो और जो आसानी से निभ जाए. बेटियों की शादी हम ने ऐसी जगह नहीं की जहां परंपराओं के नाम पर लड़की वालों का शोषण हो. वे बलि के बकरे बनाए जाएं. न ही हम ने ये परंपराएं मानीं कि बेटी के घर पानी न पियो, उन के घर खाओ मत. हम तो उन के वहां खातेपीते और रहते हैं. मैं सब बेटियों के पास जाती रहती हूं.

‘‘फालतू ढकोसलों में मेरा विश्वास नहीं. दूसरों के लिए कुछ कर सकूं, तो उस में मुझे जीवन की सार्थकता लगती है. मैं अपनी जिंदगी से बहुत खुश हूं. अभी भी फोन पर बात, कभीकभी बाहर जाना व घर के काम भी करती हूं. समय बरबाद करना मुझे आज भी पसंद नहीं.’’

लज्जा गोयल मूलतया उत्तर प्रदेश की हैं. अब वे दिल्ली में रहती हैं. ये हर स्थिति से जूझनेनिबटने का माद्दा रखती हैं. इन के पति का मसूरी में मर्डर हो गया था. वे पत्रकार थे. इन्होंने हत्यारे की तफतीश की पूरी कोशिश की. पुलिस, कानून, परिचित आदि सब से संपर्क रखा. ये निसंतान थीं, सो, एक बच्चा गोद लिया. लोग ऐसे बच्चों से सच छिपाते हैं पर इन्होंने तो गोद लेने के बाद कुबूल किया. उसे पढ़ानेलिखाने की कोशिश की. वह ज्यादा पढ़लिख न पाया तो उसे हुनर की ओर प्रेरित किया. इन्होंने बेटे को अपनी पसंद से शादी करने की छूट दे रखी है.

बस, प्यार करो, तो निभाओ, यही इन की अपेक्षा है. इन्होंने कई लड़कियों को बेटी का प्यार दिया. ससुराल वालों ने इन्हें संपत्ति से बेदखल किया तो व्यर्थ कानूनी पचड़ों में पड़ने के बजाय इन्होंने अपने हुनर व आत्मसम्मान पर ध्यान दिया.

चिकित्सा पद्धति पर इन्हें विश्वास है. कमरदर्द की इन्हें शिकायत रहती थी, सो, कमरदर्द का कई जगह से परामर्श कर के इन्होंने औपरेशन कराया. देशीघरेलू दवाओं के फेर में उसे बढ़ने या बिगड़ने न दिया. इन के घर में पति की पुस्तकों का कलैक्शन है. ये पढ़ने के शौकीनों को पुस्तकें पढ़ने व ले जाने देने में सार्थकता समझती हैं. स्वयं भी पढ़ती रहती हैं.

इन्हें नईनई बातें जाननेसमझने का शौक है. प्रसिद्ध जगहों पर भ्रमण करना तथा व्यायाम करने में इन्हें रुचि है. व्यंजन चाव से बनातीं व खिलाती हैं. बिजली, पानी और बैंक जैसे तमाम जरूरतमंद विभागों में आजा कर अपने काम करा लेती हैं.

बात व मुद्दों की तह तक पहुंचने की इन की क्षमता के कारण कोई समस्या इन के सामने ज्यादा देर टिक नहीं पाती. ये धार्मिक ढकोसलों और कर्मकांडों में विश्वास नहीं रखतीं. पति की बौद्धिकता के कारण इन्होंने राजनीति व लेखन, पठनपाठन में रुचि ली. स्वयं एमए तक पढ़ाई की. संपादन कार्य में पति का सहयोग किया.

ये पढ़ीलिखी बहू चाहती हैं, ताकि आगे की पीढ़ी भी पढ़ीलिखी बने. परदे या दिखावे में इन का विश्वास नहीं. बहू जो चाहे करे, नौकरी करे तो अच्छा है. नौकरी करने से खाली टाइम नहीं रहेगा व दोनों अपना घर ठीक चला सकेंगे. सेवा के लिए बेटेबहू या औलाद होती है, ये ऐसा नहीं मानतीं.

इन्हें रिऐलिटी शो या शोशा बनाने वाली न्यूज अथवा तमाशबीन सीरियलों पर विचारविमर्श करने की आदत है. ये प्रसारण पर कुछ नीति चाहती हैं. घरघर में इस तरह का सांस्कृतिक आक्रमण पसंद नहीं करतीं.

आधुनिकता को खास उम्र से जोड़ना उस के साथ अन्याय करना है. उसे बाहरी रूप में ही माननासमझना एकांगी रूप को देखना है. उसे होहुल्लड़ या पार्टीबाजी में ही जाननाबूझना अपने ही चश्मे से उसे देखना है. आधुनिकता जेहनी और वैचारिक है, जहां मिल जाए वहीं और उसी रूप में स्वागतयोग्य है.

आधुनिक होने से जीवन सहज हो जाता है. व्यक्ति तकनीक व माहौलफ्रैंडली हो कर बेहतर जीवन की ओर बढ़ता है. लोगों को समझनेबूझने, जाननेसमझने की औटोमैटिक क्षमता उस का सब जगह अनुकूलन करती है, घरदफ्तर, बाहरभीतर सब जगह.

दरअसल, ऐसा तथाकथित आधुनिक तो हम में से कोई नहीं होना चाहेगा जो बाहर तो आधुनिक दिखे पर दकियानूस रहे. आधुनिकता को सही रूप में जाननेसमझने के बाद तो उस का मजा ही कुछ और है. जीवन बहती धार है. हम न हों, तो भी हमारे आसपास लोग व माहौल आधुनिक होते ही हैं.

रीति रिवाजों में छिपी पितृसत्तात्मक सोच

हम पुरुषवादी समाज में रहते हैं जहां स्त्रियों को हमेशा से दोयम दर्जा दिया जाता रहा है. स्त्री कितना भी पढ़लिख ले, अपनी काबिलीयत के बल पर ऊंचे से ऊंचे पद पर काबिज हो जाए पर घरपरिवार और समाज में उसे पुरुषों के अधीन ही माना जाता है. उस के परों को अकसर काट दिया जाता है ताकि वह ऊंची उड़ान न भर सके. स्त्रियों को दबा कर रखने और उन की औकात दिखाने के लिए तमाम रीतिरिवाज व परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं.

रक्षाबंधन : भाईबहन के रिश्ते को मजबूत करते इस त्योहार को मनाने का रिवाज हमारे देश में बरसों से चला आ रहा है. बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती हैं और भाई यह प्रण लेते हैं कि वे जीवनभर अपनी बहन की रक्षा करेंगे. गौर किया जाए तो यहां पितृसत्तात्मक सोच की परछाईं दिखती नजर आएगी.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों हमेशा बहन को ही भाई से सुरक्षा की आस होनी चाहिए? आजकल बहनें पढ़लिख कर ऊंचे पदों पर पहुंच रही हैं, काबिल और शक्तिशाली बन रही हैं. कई दफा ऐसे मौके आते हैं जब वे अपने भाई के लिए संबल बन कर आगे आती हैं. कई बहनें अपने छोटे भाई की परवरिश भी करती हैं. वे भाई का मानसिक संबल बनती हैं. लेकिन रक्षाबंधन जैसी प्रथाओं में हमेशा बहनों के दिमाग में यह डाला जाता है कि भाई का खयाल रखना, उस की पूजा करना, उसे खुद से बहुत ऊंचा मानना जरूरी है. उन्हें सम झाया जाता है कि भाई ही उन के काम आएगा, वही उसे सुरक्षा देगा. यदि बहन बड़ी है, काबिल है और भाई का संबल बन रही है, तो फिर क्यों ऐसा कोई त्योहार या रिवाज नहीं जिस में बड़ी बहन को उस के हिस्से का महत्त्व दिया जाए?

करवाचौथ : करवाचौथ को सुहागिन महिलाओं के लिए खास त्योहार माना जाता है. इस दिन रिवाज है कि सभी सुहागन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए पूरे दिन व्रत रखेंगी और शाम में सुहागिनों वाले सारे शृंगार कर के चांद को पूजने के बाद पति के हाथ से अपना व्रत खोलेंगी.

इस रिवाज की पहली शर्त यह है कि इसे केवल सुहागिन ही मनाएंगी. यानी, यह रिवाज शुरुआत में ही भेदभाव स्थापित करता है. इस में इस बात को बल दिया जाता है कि पतिहीन औरतों को सजनेसंवरने या खुश होने व धार्मिक रीतिरिवाजों व उत्सवों का हिस्सा बनने का कोई हक नहीं. यानी, पुरुष से ही उस के जीवन की सारी खुशियां हैं और पुरुष ही उस के जीवन का आधार है. पुरुष की उम्र बढ़ाने के लिए उसे भूखा रहना है और इस भूख को भी बहुत प्यार से एंजौय करना है क्योंकि पति से बढ़ कर उस के लिए कुछ है ही नहीं.

पतिपत्नी तो एक गाड़ी के दो पहिए हैं. दोनों का साथ ही संसाररूपी गाड़ी को आगे बढ़ाता है. ऐसे में यदि पति के बिना पत्नी के जीवन में कुछ नहीं रखा तो पत्नी के बिना पति की जिंदगी में कोई अंतर क्यों नहीं पड़ता? पति अपनी पत्नी की लंबी उम्र के लिए व्रत क्यों नहीं रखता?

सुहाग की निशानियां : शादी हर किसी की जिंदगी का एक खास मौका होता है. इस दिन दो दिल एक हो जाते हैं. इसी दिन एक लड़की महिला बनती है और उस की वेशभूषा, आचारविचार, बातव्यवहार सब में आमूलचूल परिवर्तन आता है. सिंदूर और मंगलसूत्र उस के जीवन का  सब से महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं. उसे हर वक्त इन्हें धारण करना होता है. इस के अलावा अंगूठी, बिछुआ और देश के ज्यादातर हिस्सों में चूडि़यां भी स्त्री के शादीशुदा होने की निशानी होती हैं. यह सदियों से चलता आ रहा रिवाज है कि स्त्री के लिए शादी के बाद इन चीजों को धारण करना जरूरी है.

जाहिर है, स्त्रियों को सुहाग की निशानियां पहनाने के पीछे धर्म के ठेकेदारों की मंशा यही रही होगी कि स्त्री को पति की अहमियत हमेशा, हर पल महसूस हो. उसे पता चले कि पति के बिना वह कुछ भी नहीं. पति से ही उस का शृंगार है. पति से ही चेहरे की रौनक और रंगबिरंगे कपड़े हैं. पति से ही उस के जीवन में खुशियां हैं वरना जीवन में कालेपन और रीतेपन के सिवा कुछ नहीं. इन रिवाजों के मुताबिक तो पति बिना स्त्री अधूरी सी है.

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सवाल उठता है कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा क्यों नहीं? ऐसा कोई रिवाज क्यों नहीं जिस से पुरुषों को देख कर भी पता चल जाए कि वह अविवाहित है? उसे सुहाग की कोई भी निशानी पहनने का भार क्यों नहीं सौंपा गया? पत्नी के  गुजरने के बाद पति को केवल काले या सफेद कपड़े क्यों नहीं पहनाए जाते? विधुर होने के बावजूद वह हर तरह के शौक पूरे कैसे कर सकता है? उस के जीवन में रत्तीभर भी बदलाव क्यों नहीं आता?

दहेजप्रथा : पितृसत्ता का पोषक एक और रिवाज है जो सदियों से चलता आ रहा है और वह है दहेजप्रथा. इस प्रथा ने जाने कितनी ही लड़कियों की जान ली, कितनी ही लड़कियों की खुशियां उन से छीन ली. जन्म लेने के बाद ही नहीं, इस रिवाज ने तो अजन्मी बच्चियों को भी काल का ग्रास बना दिया.

आखिर लड़की के मांबाप को बेटी के साथ एक मोटी रकम ससुराल वालों को क्यों सौंपनी पड़ती है? यह रकम इतनी ज्यादा होती है कि मांबाप की कमर ही टूट जाती है. बेटी के जन्म के साथ मांबाप उस के लिए दहेज इकट्ठा करने की चिंता में घुलते रहते हैं और इसी वजह से वे पुत्री नहीं, बल्कि पुत्रप्राप्ति की कामना करते हैं.

दहेज के नाम पर ससुराल वाले महिला को मारतेपीटते हैं, उस पर अत्याचार करते हैं और इस का नतीजा यह होता है कि औरत को समाज में दीनहीन और बेचारी का तमगा दे दिया जाता है.

विदाई : विवाह के बाद विदाई के रिवाज पर जरा गौर कीजिए. शादी में लड़की और लड़के दोनों जीवनसाथी बन कर एक नए बंधन में बंधते हैं. दोनों के ही जीवन में बदलाव आता है, लेकिन विदाई हमेशा लड़कियों की ही होती है, क्योंकि यह रिवाज है. सवाल उठता है कि लड़की को ही अपना घर छोड़ कर ससुराल जाने की जिम्मेदारी क्यों दी गई है? वह लड़के के रिश्तेदारों की सेवा करती है, पति के घर की खुशियां और गम को अपनाती है और अपने मांबाप, जिन्होंने उसे जन्म दिया, से मिलने के लिए ससुराल वालों का मुंह ताकती रह जाती है. यह कैसा न्याय है?

कभी लड़का अपना घर छोड़ कर लड़की के घर को क्यों नहीं अपनाता? अगर कोई लड़का ऐसा करता भी है तो उसे पितृसत्तात्मक सोच वाले इस समाज में मजाक का पात्र बनना पड़ता है. आज पुरुष भी कमाते हैं और स्त्री भी. कई घरों में स्त्री की सैलरी पुरुष से ज्यादा होती है. ऐसे में शादी के बाद लड़की की ही विदाई हो, इस रिवाज को हम पितृसत्तात्मक सोच की कवायद ही मानें. यह रिवाज भी दूसरे रिवाजों की तरह ही लड़कियों को कमजोर और पराधीन दिखाने की वकालत करता है.

कन्यादान : कन्यादान को भारत में महादान कहा जाता है. कन्यादान की रस्म हर शादी में निभाई जाती है, जिस का मतलब होता है कि अपनी बेटी को किसी और को दान किया जा रहा है. सवाल उठता है कि बचपन से बड़े होने तक बेटी को लाड़प्यार से पालने वाले मातापिता अपनी बेटी को दान कैसे कर सकते हैं? अपनी बेटी पर उन का अधिकार कैसे खत्म हो सकता है? क्या लड़की कोई चीज है, जिसे दान कर दिया? पुरुषवादियों की सोच लड़कियों की भावनाओं को कोई अहमियत नहीं देती.

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दूल्हे के पैर धोना

शादी के दौरान लड़की वालों को कमतर दिखाने वाली यह एक और रस्म है. सदियों से दुलहन के मातापिता दूल्हे के पैर धोते हैं. ऐसा कहीं भी नहीं देखा गया कि दूल्हे के मातापिता दुलहन के पैर धो रहे हों. इस तरह की रस्में हर कदम पर लड़की और उस के मांबाप को नीचा दिखाती हैं.

सोलह सोमवार का व्रत

बचपन से ही लड़कियों को शिक्षा दी जाती है कि अच्छा पति पाना है तो व्रतउपवास करो, तपस्या करो. खासकर सोलह सोमवार का व्रत करने से अच्छे पति की प्राप्ति होती है, ऐसा कहा जाता है. सोचने वाली बात है कि क्या अच्छा जीवनसाथी पाना लड़कियों का ही सपना होना चाहिए? क्या लड़कों को अच्छे जीवनसाथी की जरूरत नहीं? इस तरह की बातें कहीं न कहीं लड़कियों के मन में यह भरती हैं कि उस की खुशियों का आधार केवल उस का पति है. पति से ही उस का वजूद है.

संपत्ति में भाइयों का नैसर्गिक तौर पर बराबर के हिस्से पर बहन को हिस्सा देने में नाक कटना : हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 पिता की पैतृक संपत्ति में बेटे और बेटी दोनों को बराबर का हिस्सा देने की बात करता है. महिला का इस पैतृक संपत्ति पर पूरा मालिकाना हक होता है. वह चाहे तो इसे बेच सकती है या किसी के नाम कर सकती है.

विवाह के बाद यदि बेटी का वैवाहिक जीवन सही तरह से न चले, तो यह पैतृक संपत्ति उसे एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देती है. लेकिन जैसी कि हमेशा की रीत रही है, बहनों को बचपन से ही भाइयों के लिए अपने छोटेबड़े हकों को छोड़ने की सीख दी जाती रही है. भाई हमेशा से घर पर और घर की चीजों पर अपना एकछत्र साम्राज्य सम झते रहे हैं. इसी वजह से बड़े होने पर भाई इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाते कि संपत्ति में उन्हें अपनी बहनों को बराबर का हिस्सा देना है. घर के बड़ेबुजुर्ग भी इसी बात पर मुहर लगाते हैं.

नतीजा, यह कानून एक तरफ जहां महिलाओं को मजबूत आर्थिक आधार देता है वहीं दूसरी तरफ गहरी भावनात्मक टूटन का कारण भी बनता नजर आता है. यदि बहन पैतृक संपत्ति में अपना बराबर का हक लेने की बात करती है तो भाई इस बात से आहत हो कर उस से अपने संबंध खत्म कर लेते हैं. ऐसी स्थिति से बचने के लिए अकसर बहनें अपने आर्थिक हकों को छोड़ देती हैं.

पत्नी का नाम बदलना

ज्यादातर महिलाएं शादी के बाद अपना सरनेम बदल लेती हैं. वैसे, यह जरूरी नहीं. उन पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता. यह उन का कानूनी अधिकार भी है. लेकिन फिर भी महिलाएं चाह कर भी इस का खुल कर विरोध नहीं कर पाती हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान ऐलान किया था कि महिलाएं अब अपनी शादी से पहले वाले नाम के साथ भी विदेश यात्रा कर सकती हैं. अब महिलाओं को पासपोर्ट के लिए अपनी शादी या तलाक के दस्तावेज दिखाने की जरूरत नहीं है. महिलाएं इस बात को ले कर पूरी तरह स्वतंत्र होंगी कि वे अपने मातापिता के नाम का इस्तेमाल करें.

मगर सदियों पुरानी रीत इतनी आसानी से कैसे बदल सकती है. एक स्टडी से पता चला है कि जो महिलाएं शादी के बाद भी पहले का सरनेम इस्तेमाल करती हैं, पुरुष उन के प्रति नकारात्मक भावना रखते हैं. शोध में यह भी सामने आया कि जो महिलाएं पति का नाम लगाती हैं वे उन के प्रति अपनी वफादारी दिखाती हैं. लोगों की सोच यही है कि लड़की जिस घर जाती है वहीं की हो जाती है. इसलिए नाम में क्या रखा है? जो पति का नाम है वही उस की पहचान है. पर क्या आप को नहीं लगता कि पुरुषसत्ता वाली इस रीत से आजाद होने का समय आ गया है. नाम इंसान की पहचान होती है और भला, शादी के बाद पहचान क्यों बदली जाए? हालांकि, हमारा समाज अभी भी इस बदलाव के लिए तैयार नहीं है.

पिंडदान : हिंदू धर्म में पुत्र का कर्तव्य माना जाता है कि वह अपने जीवनकाल में मातापिता की सेवा करे और उन के मरने के बाद उन की बरसी तथा पितृपक्ष में पिंडदान करे. इसे श्राद्ध भी कहा जाता है. पुराणों और स्मृति ग्रंथों के अनुसार, पिता की मृत्यु के बाद आत्मा की तृप्ति और मुक्ति के लिए पुत्र द्वारा पिंडदान और तर्पण कराना जरूरी है. इस के बिना जहां पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता है वहीं पुत्रों को भी पितृऋण से छुटकारा नहीं मिलता.

इन रिवाजों की मानें तो मांबाप बेटी पर कोई कर्ज नहीं छोड़ते. बेटे को ही कर्ज चुकाना है और बेटे के हाथों ही उन्हें मुक्ति व सद्गति मिल सकती है. जिन के बेटे नहीं, उन के भतीजे या भाई यह काम कर सकते हैं. कुल मिला कर लड़कियों का कोई वजूद ही नहीं.

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विधवा विवाह पर आपत्ति : भले ही 16 जुलाई, 1856 को भारत में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिल गई हो, मगर आज भी लोगों के दिमाग में पुरानी रीत ही गहरी बैठी हुई है कि विधवाओं के लिए फिर से शादी करने की बात सोचना भी पाप है और उसे दोबारा खुशियां ढूंढ़ने का हक नहीं क्योंकि वह तो अपने कर्मों की सजा भोग रही है. वहीं, हमारा समाज पुरुषों की दूसरी शादी को सौ प्रतिशत सही मानता है. यह भेदभाव और पुरुषवादी सोच विधवा महिलाओं को कहीं का नहीं छोड़ती.

हरतालिका तीज : पति की लंबी उम्र की कामना और पति को पाने की चाहत को पूरा करने के लिए यह व्रत किया जाता है. इस में महिलाएं सजधज कर पूरे दिन भूखी रहती हैं. सवाल यहां भी यही है कि पुरुष ऐसा कोई व्रत क्यों नहीं करते.

परदा प्रथा : ज्यादातर भारतीय महिलाओं को शादी के बाद परदे में कैद कर दिया जाता है. उन्हें घर के पुरुष सदस्यों के आगे परदा करना अनिवार्य माना जाता है. शहर की पढ़ीलिखी महिलाएं भी अकसर जेठ या ससुर के आगे सिर पर पल्लू डाल लेती हैं.  ऐसा न करने पर उन्हें बेशर्म का तमगा दिया जाता है. जबकि पुरुषों को किसी से परदा नहीं करना पड़ता. परदा प्रथा एक तरह से महिलाओं के बढ़ते कदमों को रोकने और उन पर पुरुषों का आधिपत्य जताने का बहाना है.

कुछ क्षेत्रीय त्योहार

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  झीं झीं टेसू, गोरखपुर में जौतिया, बनारस में छठपूजा, पूर्वांचल में छड़ी शगुन, गुडि़या पटक्का आदि कुछ ऐसे त्योहार हैं जिन में एक बात सामान्य है कि सब में औरत ही अपने घर के पुरुषों की लंबी उम्र, उत्तम स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की कामना करती है. छड़ी शगुन परंपरा में जब लड़की विदा हो कर ससुराल आती है तो उस की सास उसे तालाब के किनारे ले जा कर सात छड़ी लगाते हुए बहू का स्वागत करती है.

अफसोस इस बात का है कि ऐसे बहुत सारे रीतिरिवाज हैं जिन का पालन हमारे देश का हर इंसान करता है. इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि लोग अशिक्षित हैं या शिक्षित, अमीर हैं या गरीब. भारत के हर तबके और हर वर्ग के लोग आंख बंद कर इन रीतिरिवाजों को पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ मनाते हैं. किसी के दिमाग में कोई सवाल नहीं उठता कि आखिर वे ऐसा कर क्यों रहे हैं? ऐसा करने के पीछे तर्क क्या है?

लोग यह नहीं सम झते कि ये सारे रिवाज पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा हैं और आज जमाना बहुत बदल चुका है. आज लड़कियों का स्थान समाज में बहुत अलग है. लड़कियों ने काफीकुछ हासिल किया है. पर जब बात इन रिवाजों की आती है तो सब के दिमाग कुंद हो जाते हैं. न कोई सवाल पूछता है न कोई तर्क करने की हिम्मत करता है. बस, जो जैसा चला आ रहा है, वे निभाते जाते हैं. और इस निभाने के चक्कर में यह बात और गहराई से दिमाग में बैठती जाती है कि लड़कों से लड़कियां कमजोर हैं. वे पुरुष के अधीन रहने के लिए बनी हैं. उन को सहारे और पुरुष के साथ की जरूरत है. पुरुष ही समाज का नेतृत्व कर सकता है.

जब तक हम अपने अंदर नई सोच और तर्क करने की शक्ति पैदा नहीं करते, हम पितृसत्तात्मक सोच वाले समाज के बुने हुए जालों से आजाद नहीं हो सकेंगे. जाल में फंसे रहेंगे और अपनी उन्नति के रास्ते का अवरोध हम खुद तैयार करते जाएंगे.

अफगानिस्तान-तालिबान: युद्ध के बाद फिर सेक्स गुलाम

हर युद्ध के बाद ज्यादा जुल्म हमेशा महिलाओं को ही झेलने होते हैं. भोगविलास की वस्तु समझते हुए सैनिकों द्वारा उन के जिस्म को रौंदा जाता है. अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो जाने के बाद वहां की महिलाओं को भी सैक्स गुलाम बनाने की कोशिश हो रही है…

अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज हो जाने के साथ ही महिलाओं पर अत्याचार की नई कहानी शुरू हो गई है. नाबालिग लड़कियों और युवतियों को सैक्स गुलाम बनाए जाने की आशंका है. महिलाओं को एक बार फिर यौन दासता की ओर धकेला जा सकता है.

हालांकि विभिन्न देश इन हालात पर नजर रखे हुए हैं, लेकिन अभी हालात ज्यादा साफ नहीं हुए हैं. इस से अफगान में फिर से आदिम युग लौट सकता है.

यह कहानी इसलिए शुरू हुई है कि काबुल पर जीत के बाद तालिबानी लड़ाके जश्न मना रहे हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो सामने आए हैं. इन में आतंकी महलों और गवर्नर हाउस के भीतर अय्याशी करते हुए नजर आ रहे हैं.

तालिबानी लड़ाकों द्वारा घरघर जा कर लड़कियों और कम उम्र की महिलाओं को सैक्स गुलाम बना कर अपनी हवस का शिकार बनाया गया है. अफगानिस्तान के अलगअलग शहरों से लड़कियों और महिलाओं को अगवा किया गया है.

तालिबानी जिहादी कमांडरों ने अफगानिस्तान के इमामों से अपने इलाकों की 12 से 45 साल की लड़कियों और महिलाओं की सूची मांगी है ताकि उन की शादी अपने समूह के लड़ाकों से कराई जा सके. अगर ये निकाह हुए तो इन महिलाओं को पाकिस्तान के वजीरिस्तान ले जा कर इस्लामी तालीम दी जाएगी और प्रामाणिक इसलाम में परिवर्तित किया जाएगा. तालिबान की वापसी से महिलाएं सब से ज्यादा खौफजदा हैं. पिछले दिनों कुछ प्रांतों पर कब्जे के बाद से ही तालिबानी नेताओं ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था.

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तालिबान के ताजा आदेश ने अफगानिस्तान की महिलाओं और बेटियों तथा उन के परिवारों में गहरा खौफ पैदा कर दिया है. लोगों की आंखों में 1996 से 2001 का भयावह मंजर तैर रहा है.

तालिबान ने उस समय 5-6 साल के क्रूर शासन में महिलाओं पर तरहतरह के जुल्म किए थे. उन्हें पढ़ाई से दूर रखा गया. बुर्का पहनने पर मजबूर किया गया और बिना पुरुष संरक्षक के घर से बाहर जाने पर पाबंदियां लगा दी गई थीं. उस समय भी हजारों महिलाओं को सैक्स गुलाम बनाया गया था.

अब फिर से तालिबान में शामिल होने के लिए लड़ाके बनने वाले युवाओं को सैक्स सुख की पेशकश की जा रही है. उन्हें शादी करने के लिए महिलाएं मुहैया कराने का प्रलोभन दिया जा रहा है. यह शादी की आड़ में महिलाओं को यौन दासता की ओर धकेलने की एक रणनीति है.

तालिबान के खौफ से खूबसूरत अफगानी लड़कियों को उन के परिवार वाले घरों या दूसरी जगहों पर छिपा रहे हैं, ताकि तालिबानी लड़ाकों की कामुक नजर उन पर न पड़े.

ये लड़कियां अपनी जान और अस्मत की सलामती की दुआ कर रही हैं. मुंह पर मोटी चादरें लपेटे महिलाएं अपना दर्द किसी से कह भी नहीं पा रही हैं.

दुनिया में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. चाहे रूस हो या ब्रिटेन या फिर चीन अथवा पाकिस्तान, हर बार जंग में महिलाओं को ही सब से ज्यादा रौंदा गया. वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों का दिल बहलाने के लिए एक पूरी की पूरी सैक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गई थी.

मोम की तरह फिसलती चमड़ी वाली वियतनामी युवतियों के सामने केवल एक ही विकल्प था कि या तो वे अपना खूबसूरत और गदराया जिस्म उन अमेरिकी सैनिकों के हवाले कर दें अन्यथा उन्हें जबरन सैक्स का शिकार बनाया जाएगा.

उस दौरान हजारों कम उम्र की वियतनामी लड़कियों को हार्मोंस के इंजेक्शन लगाए गए थे ताकि उन के उरोज और नितंब उभर सकें तथा उन लड़कियों का भरा हुआ गुदगुदाया जवान बदन अमेरिकी सैनिकों की काम पिपासा शांत कर सके.

उस युद्ध के दौरान सीली गंध वाले वियतनामी बारों में सुबह से ले कर रात तक उकताए हुए अमेरिकी सैनिक आते थे. उन के साथ कोई न कोई वियतनामी महिला होती थी, जिसे उन्होंने अपना सैक्स गुलाम बनाया हुआ था.

बाद में वियतनाम युद्ध खत्म हो गया था. अमेरिकी सेना भी वापस लौट गई थी. लेकिन इस के कुछ ही महीनों के भीतर वियतनाम में 50 हजार से ज्यादा बच्चे जन्म ले कर इस दुनिया में आए.

ये बच्चे उन अमेरिकी सैनिकों की पैदाइश थे. इन बच्चों को बुई-दोय यानी जीवन की गंदगी कहा गया. इन बच्चों की आंसू भरी मोटीमोटी आंखें देख कर उन की वियतनामी मां का कलेजा टूट जाता था. कलेजा इन बच्चों को गले लगाने के लिए नहीं टूटता था, बल्कि उन बलात्कारों को याद कर वे सिहर उठती थीं, जिन की वजह से वे मां बनीं.

सन 1919 से करीब ढाई साल तक चले आयरिश युद्ध की कहानी भी क्रूरता की कहानी दोहराती है. ब्यूरो औफ मिलिट्री हिस्ट्री ने भी माना था कि इस पूरे युद्ध के दौरान महिलाओं से बर्बरता हुई थी.

सैनिकों ने बलात्कार और हत्या से अलग एक नया तरीका निकाला था. वे दुश्मन देश की महिलाओं के सिर के सारे बाल काट देते थे. इन महिलाओं को सिर ढंकने की मनाही थी.

सिर मुंडाए चलती ये महिलाएं गुलामी का इश्तिहार होती थीं. राह चलते उन के शरीर को दबोचा जाता और अश्लील ठहाके लगाए जाते.

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इतिहास में नाजियों की गिनती सब से क्रूर सोच में होती है. हालांकि जरमन महिलाएं भी सुरक्षित नहीं रहीं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर कब्जा कर लिया. घरों से खींचखींच कर जरमन महिलाएं और बच्चियां बाहर निकाली गईं और दसियों सैनिक एक साथ उन पर टूट पड़े थे. इन का एक ही मकसद था जर्मनी के गुरूर को तोड़ना.

किसी पुरुष के गुरूर को चकनाचूर करने का सब से ताकतवर तरीका है उस की महिला से बलात्कार करना. रेड आर्मी ने यही किया.

सोवियत सेना के एक कैप्टन अलेक्जेंडर सोलजेनिज्न ने एक किताब लिखी थी. गुलाग आर्किपेलगो नामक इस किताब में सोवियत सेना के युवा कैप्टन ने माना था कि जरमन महिलाओं से बलात्कार रूस के लिए जीत का ईनाम था.

युद्ध खत्म होने के बहुत बाद तक भी हजारों जरमन महिलाएं साइबेरिया में कैद रहीं. वहां कैंप में थके हुए रूसी सैनिक आते और नग्न जरमन महिलाओं की परेड कराते.

जो महिला किसी सैनिक को पसंद आ जाती, वह उसे उठा ले जाता और मन भर जाने के बाद वापस उसी कैंप में पटक जाता था.

अपने कट्टरपन के लिए कुख्यात इस्लामिक स्टेट आईएसआईएस के लड़ाके यजीदी महिलाओं के नाम लिख कर एक कटोरदान में डाल देते थे. फिर लौटरी निकाली जाती. जिस भी महिला का नाम जिस लड़ाके के हाथ लगता, उसे वह औरत तोहफे में दे दी जाती थी.

यह उस लड़ाके की इच्छा पर निर्भर करता था कि वह उस औरत से यौन सुख भोगे या उसे बैलगाड़ी में बैल की तरह जोते.

पूर्वी बोस्निया के घने जंगलों के बीचोबीच विलिना व्लास नाम का एक रिसौर्ट है. यहां चीड़ के पत्तों की सरसराहट के बीच प्रेमी जोड़े टहला करते थे. बोस्निया की ट्रेवल गाइड में इसे हेल्थ रिसौर्ट भी कहा जाता था.

नब्बे के दशक में हुए बाल्कन वार ने इस रिसौर्ट का चेहरा बदल दिया. इस रिसौर्ट को रेप कैंप में बदल दिया गया. यहां बोस्निया की औरतों से सर्बियन लड़ाकों ने महीनों तक गैंगरेप किया.

इस दौरान कुछ महिलाएं संक्रमण से मर गईं, तो कुछ ज्यादती से. कुछ महिलाओं ने आत्महत्या कर मौत को गले लगा लिया. संयुक्त राष्ट्र ने 2011 में यह राज खोला था, तब दुनिया को बर्बरता की इस कहानी का पता चला. तब तक बलात्कारी गायब हो चुके थे और मुर्दा औरतें जुल्म की गवाही देने के लिए हाजिर नहीं हो सकीं.

युद्ध कभी भी हुआ हो. चाहे हजारों साल पहले या आज. युद्ध 2 देशों के बीच हो या अंदरूनी. महिलाएं हमेशा से दरिंदगी की शिकार बनती रहीं. उन पर जुल्म ढहाए गए. अब अफगानिस्तान में भी यही हो रहा है.

हिंदुस्तान की बात करें, तो हमारे देश में भी महिलाओं को सैकड़ोंहजारों साल तक गुलामों की तरह जिंदगी जीनी पड़ी थी. पहले जब राजामहाराजाओं और बादशाहों के राज हुआ करते थे, तब वे अपना साम्राज्य और बढ़ाने के लिए युद्ध करते थे.

इन युद्धों में शहरगांव और जमीनों पर कब्जा कर लूटपाट तो की ही जाती थी. साथ ही पराजित राजा या बादशाह के हरम पर कब्जा कर लिया जाता था.

उस जमाने में हरेक राजामहाराजा और बादशाहों के किले महल, गढ़ और दूसरे ठिकानों में हरम हुआ करते थे. इस हरम में रानीमहारानी और बेगमों से इतर सैकड़ों महिलाएं होती थीं.

रानीमहारानी और बेगमों के लिए महल, गढ़ और किले में ऐशोआराम के हर साधन होते थे, लेकिन हरम में रहने वाली महिलाओं को वे सुखसुविधाएं नहीं मिलती थीं.

हरम की इन महिलाओं को वे शासक कभीकभार भोगते थे. कभीकभार शासकों के बड़े ओहदेदार भी हरम की इन महिलाओं को अपनी वासना का शिकार बना लेते थे.

विदेशी आततायियों को भी हिंदुस्तानी महिलाएं खूब पसंद आती थीं. विदेशी आक्रमणकारियों ने जब भी भारत में किसी सूबे पर हमला किया तो कीमती सामान के साथ हरम को भी लूटा था.

भारत में प्राचीन समय में राजामहाराजाओं के बीच महिलाओं को ले कर युद्ध होते रहे हैं. दूसरे राजा की रानियों की खूबसूरती के चर्चे सुन कर कई राजाओं ने युद्ध किए.

अब अफगानिस्तान की महिलाएं तालिबानियों से अपनी जिंदगी और अस्मत बचाने की चिंता में हैं.

अफगानी-पाकिस्तानी एक्ट्रेस मलीशा ने बताए तालिबानियों के जुल्म

अब तालिबान दुनिया के सामने अपनी उदार छवि पेश करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उस की हुकूमत में जिस तरह से महिलाओं पर बंदिशें लगाई जा रही हैं, उस से जाहिर है कि वह बिलकुल नहीं बदला है. तालिबान ने अफगानी-पाकिस्तानी एक्ट्रेस मलीशा हीना खान के खिलाफ फतवा जारी किया है.

मौडल और एक्ट्रेस मलीशा फिलहाल भारत में ही रहती हैं. वह अफगानिस्तान में महिलाओं पर हो रहे हर जुल्म की खबर लगातार ट्विटर पर शेयर करती रहती हैं. इसी बात से नाराज तालिबान ने उन के खिलाफ फतवा जारी किया है.

तालिबान की ओर से फतवा जारी किए जाने से 2 दिन पहले ही मलीशा ने कहा था कि काबुल में तालिबानियों ने आम लोगों को ले जा रही एक गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग की. ये लोग जंग के मैदान से किसी सुरक्षित जगह पनाह लेने के लिए जा रहे थे.

तालिबानी मशीन गन से फायर कर रहे थे. उन्होंने सि विलियंस की गाड़ी पर ग्रेनेड भी फेंके. कई लोगों ने गाड़ी धीमी कर के यह भी दिखाने की कोशिश की कि उस में महिलाएं और बच्चे बैठे हैं. इस के बावजूद तालिबानी लड़ाकों ने उन पर फायरिंग की.

इस से कार में धमाका हुआ और सभी की मौके पर मौत हो गई. एक ट्विटर पोस्ट में मलीशा ने लिखा था कि 10 दिन के भीतर 300 महिलाओं, लड़कियों और नाबालिगों के साथ रेप किया गया. उन्हें जबरन शादी के लिए मजबूर किया गया है.

तालिबानी लड़ाके घरघर जा कर महिलाओं और जवान लड़कियों की तलाश कर रहे हैं. इन से जबरदस्ती शादी की जा रही है. कुछ लड़कियों की उम्र तो 14-15 साल ही है. ये शादी तो बस नाम की है. इन के साथ कई मर्द संबंध बनाते हैं. कई बार तो एक वक्त में 10-10 मर्द ऐसा करते हैं.

मलीशा हीना खान काबुल में हुई हिंसा और लड़ाई में अपने परिवार के 4 सदस्यों को खो चुकी हैं. मलीशा पिछले कई सालों से मुंबई में रहती हैं. मलीशा का भाई व बहन सहित परिवार के 5-6 सदस्य अफगानिस्तान में ही छिपे हुए हैं. उन के चाचा, भतीजे और 2 चचेरे भाई लड़ाई में मारे गए.

मलीशा हीना खान 2018 में तब सुर्खियों में आई थीं, जब उन्होंने लोकप्रिय पाकिस्तानी गायिका राबी पीरजादा का समर्थन किया, जिन के प्राइवेट न्यूड फोटो और वीडियो लीक हो गए थे.

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