बेहतर शिक्षा से संवारें बच्चों का भविष्य

देश में बढ़ती महंगाई के कारण अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा मुहैया कराना सब से मुश्किल काम है. अच्छी शिक्षा से मतलब उसे सिर्फ स्कूल भेजना मात्र नहीं है, बल्कि उस की प्राइमरी एजुकेशन से ले कर उच्च शिक्षा तक इस तरह से करानी है कि उस की पढ़ाई व कैरियर निर्माण के दौरान कभी आर्थिक अड़चन न आए और वह अपने मनमुताबिक कैरियर चुन सके.

अमूमन हम बच्चों की शिक्षा के खर्च में स्कूल, कालेज और स्नातकोत्तर तक की शिक्षा पर होने वाले खर्च को ही शामिल करते हैं, जबकि आजकल बच्चों की स्कूली शिक्षा में स्कूल की फीस के साथसाथ ट्रांसपोर्ट, रचनात्मक गतिविधियां, दाखिला, ट्यूशन फीस, ड्रैस, स्कूलबैग, स्टेशनरी और उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने से ले कर और न जाने कितने खर्च शामिल होते हैं, जो जेब में पैसा न होने पर भविष्य में आप के बच्चों की शिक्षा व कैरियर में दीवार बन जाते हैं.

इन हालात में बच्चों की उच्चस्तरीय पढ़ाई का खर्च उठाना क्या आसान है?

बिलकुल नहीं.

तो क्या आप बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त राशि जमा कर रहे हैं?

अगर नहीं तो अभी से कमर कस लीजिए. बच्चों की बेहतर शिक्षा और भविष्य के लिए अभी से पैसा जमा करना शुरू कर दीजिए.

शिक्षा की सुयोजना अभी से

देश में शिक्षा को 3 अहम भागों में बांटा जा सकता है.

पहला भाग है प्राथमिक शिक्षा. इस में शुरुआती स्तर पर बच्चों की प्राथमिक शिक्षा संपन्न होती है. यह शिक्षा का सब से आसान हिस्सा है. इस के बाद आता है दूसरा भाग, मध्य यानी माध्यमिक शिक्षा. इस में हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की पढ़ाई आ जाती है. यह काफी हद तक आगे के भविष्य की नींव रखती है.

इस के बाद आता है तीसरा और सब से अहम हिस्सा उच्च शिक्षा. उच्च शिक्षा में अकादमिक और प्रोफैशनल यानी व्यावसायिक शिक्षा आती है. यही शिक्षा सब से ज्यादा खर्चीली होती है. लगभग सभी तरह की व्यावसायिक शिक्षा पर लाखों रुपए खर्च होते हैं. इसलिए अभिभावक बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए आज से ही जरूरी कदम उठाएं.

हम बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का खर्च तो जैसेतैसे निकाल लेते हैं पर कालेज और व्यावसायिक शिक्षा पर खर्च होने वाले पैसों का इंतजाम करना मुश्किल हो जाता है. तब आपातकाल में किसी को लोन लेना पड़ता है, तो किसी को अपने गहने आदि बेचने पड़ते हैं. इसलिए अगर बच्चों के बचपन से ही उन की पढ़ाई लिखाई के लिए पैसे जमा करना शुरू कर दिए जाएं तो बाद में आर्थिक परेशानी से छुटकारा पाया जा सकता है.

एक बीमा कंपनी से जुड़े फाइनैंशियल प्लानर नितिन अरोड़ा इस बाबत कुछ सुझाव देते हैं. उन के मुताबिक, अगर बच्चों की पढ़ाई को ले कर पहले से कुछ वित्तीय योजनाएं बना ली जाएं तो आगे का रास्ता काफी हद तक सुलभ हो जाता है और इन योजनाओं के आधार पर आप अपने बच्चे की एजुकेशन प्लान कर सकते हैं.

सब से पहले लक्ष्य का समय यानी तारीख तय कीजिए यानी उस तारीख और वर्ष की गणना कीजिए जब आप का बच्चा उच्चशिक्षा लेने लायक हो जाएगा. उस के बाद वर्तमान में होने वाले शिक्षण व्यय का हिसाब किताब कर लीजिए. फिर उसे बच्चे की शिक्षा के अनुरूप भविष्य की महंगाई दर के मुताबिक जोडि़ए. इस हिसाब के बाद आप को भविष्य में होने वाले खर्च की रकम का मोटा सा अंदाजा हो जाएगा. इसे आसान भाषा में समझते हैं. मान लीजिए आज उच्च शिक्षा में लगभग 5 लाख से 10 लाख रुपए का खर्च आता है, तो बढ़ती महंगाई के हिसाब से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि 20-21 साल तक यह खर्च बढ कर 20 लाख से 30 लाख रुपए या उस से भी अधिक तक तो हो ही जाएगा.

अब आप के पास एक टारगेट रकम का अनुमान आ चुका है. बस, इसी रकम के इंतजाम के लिए आप को अपनी आय व हैसियत के हिसाब से पैसे जोड़ने या फिर निवेश करना होता है.

अगर आप इस गणना के मुताबिक सही समय में इस राशि को जमा कर पाते हैं, तो आप के बच्चे की शिक्षा में किसी भी तरह की मुश्किल नहीं आ सकती. इस तरह से शिक्षा के लिए वित्तीय योजनाओं का खाका खींच कर आप अपने बच्चे का आज ही से बेहतर भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं.

समझदारी से करें शिक्षा निवेश

एक इंश्योरैंस कंपनी से जुड़े एक्सपर्ट बताते हैं कि जिस अनुपात से लोगों का वेतन बढ़ रहा है उस से कहीं ज्यादा तेजी से पढ़ाई में होने वाला खर्च बढ़ रहा है. ऐसे में बच्चों की एजुकेशन प्लानिंग हम कुछ चरणों में बांट लेते हैं. ये चरण अभिभावकों के वेतन और शिशु की अवस्था के आधार पर बांटते हैं.

पहले चरण के तहत शिशु के पैदा होने से उस के लगभग 5 साल के होने तक आप ज्यादा से ज्यादा सेविंग करें, क्योंकि इस दौरान शिशु की पढ़ाई पर खर्च अपेक्षाकृत कम होता है. उस के बाद बच्चा स्कूल जाना शुरू कर देता है. इस चरण में सेविंग कम हो जाती है, क्योंकि उस की पढ़ाई का खर्च आ जाता है. 9 से 16 साल की उम्र के दौरान बहुत ही संतुलित राशि जमा करें. फिर 18 से

25 साल की उम्र में बच्चा युवा होने पर आप की जमाराशि का सही उपयोग करने लायक हो जाता है. इस तरह आप अपनी राशि को अलग अलग चरणों में घटाते बढ़ाते हुए जमा करेंगे तो आप की जेब पर ज्यादा बोझ नहीं पड़ेगा.

एजुकेशन प्लान के अलावा बाजार में लगभग सभी बड़े बैंक और वित्तीय कंपनियां बच्चों के लिए लुभावने औफर देती हैं. इन के अलावा और भी कई तरह के निवेश के विकल्प हैं, जो अच्छा रिटर्न देते हैं. मसलन, म्यूचुअल फंड, बौंड्स, प्रौविडैंट फंड, राष्ट्रीय बचत खाता आदि. साथ ही डाकघर की निवेश योजनाओं का इस्तेमाल भी अपने बच्चों के लिए निवेश करने में कर सकते हैं. म्यूचुअल फंड कंपनियों ने तो बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रख कर 20 से भी ज्यादा ऐसी योजनाएं लौंच की हैं. बस, आप को अपनी आवश्यकता के अनुसार योजना का चयन करना है.

बच्चों के शैक्षिक भविष्य को सुरक्षित करने के लिए इस समय मार्केट में कई इनवैस्टमैंट टूल मौजूद हैं. लेकिन जानकारी के अभाव में आमतौर पर अधिकांश पेरैंट्स सिर्फ लाइफ इंश्योरैंस स्कीम्स में ही निवेश करते हैं. जबकि कई इन्वैस्टमैंट टूल्स, इंश्योरैंस स्कीम्स से बेहतर रिटर्न देते हैं. आप के लिए जरूरी है कि इंश्योरैंस के साथ ही पीपीएफ, म्यूचुअल फंड, यूनिट लिंक्ड प्लान जैसे विकल्पों में भी निवेश करें.

पीपीएफ यानी पब्लिक प्रौविडैंट फंड में आप अपने बच्चे की शिक्षा के लिए एक बड़ी बचत का निर्माण कर सकते हैं. इस के अलावा आयकर अधिनियम की धारा 80 सी के तहत आप को कर में 1.5 लाख रुपए तक की छूट मिलतीहै.

सुकन्या समृद्घि खाता भी एक अच्छा विकल्प है.

यह योजना भी 8.1 फीसदी के ब्याज दर के साथ पूरी तरह कर मुक्त है. यहां भी आयकर अधिनियम की धारा 80 सी के तहत कर लाभ प्रदान किया गया है. हालांकि, यह योजना केवल लड़कियों के लिए है. इक्विटी म्यूचुअल फंड भी एक विकल्प हो सकता है.

गैरपरंपरागत निवेश

कुछ लोग अपने बच्चे के नाम पर प्रौपर्टी खरीद लेते हैं, जो बाद में बच्चे के काफी काम आती है. साथ ही, सोनाचांदी और शेयरों में भी कुछ अभिभावक निवेश करते हैं. यहां समझने वाली बात यही है कि बच्चे की शिक्षा के लिए पैसा सिर्फ एजुकेशन प्लान या परंपरागत तरीकों से ही जोड़ा जाए, ऐसा जरूरी नहीं है. आप को तो बस पैसा जोड़ना है, जिसे भविष्य में उस की पढ़ाई पर खर्च कर सकें.

फेक न्यूज के शिकंजे में लोग

पि छले दिनों सोशल मीडिया पर यह दावा किया जा रहा था कि तमिलनाडु में रहने वाले बिहारी मजदूरों के साथ मारपिटाई की जा रही है और जिस में 2 बिहारी मजदूरों की मौत भी हो गई.

इस सिलसिले में सोशल मीडिया पर कई वीडियो पोस्ट किए गए, जिस के चलते तमिलनाडु में काम करने वाले लाखों प्रवासी बिहारियों और बिहार में रहने वाले उन के परिवार के लोगों के मन में डर का माहौल पैदा हो गया.

ऐसे वीडियो को सच मान कर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दखल दिया और मुख्य सचिव व डीजीपी को मामले की जांच करने का आदेश दिया, जहां पाया गया कि यह खबर झूठी है.

पर बिहारी मजदूरों की तथाकथित पिटाई का वीडियो शेयर करने वाले बिहार के चर्चित यूट्यूबर मनीष कश्यप ने यह दावा किया कि तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर जुल्म हो रहा है और पुलिस झूठ बोल रही है, लेकिन जांच से यह बात सामने आई कि मनीष कश्यप झूठी अफवाह फैला रहा था.

झूठी अफवाह फैलाने के जुर्म में मनीष कश्यप को गिरफ्तार कर लिया गया और वह अभी तमिलनाडु जेल में बंद है. उस के अलावा 3 और लोग यह फेक न्यूज फैलाने में शामिल थे और उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया.

मनीष कश्यप की गिरफ्तारी के बाद बिहार पुलिस ने फेक वीडियो मामले में एक और गिरफ्तारी की. इस बार पुलिस ने उपेंद्र साहनी नाम के एक नौजवान को गिरफ्तार किया.

मणिपुर हिंसा

मणिपुर में जनजातीय समूहों के कई जिलों में रैली के बाद राज्य में बाधित हुई कानून व्यवस्था को ले कर भारतीय सेना ने नागरिकों से अपील की थी कि वे केवल अधिकारिक और वैरिफाइड सोर्स वाले कंटैंट पर ही भरोसा करें. भारतीय सेना ने यह चिंता तब जाहिर की, जब मणिपुर में सुरक्षा के हालात को ले कर कई सारे फर्जी वीडियो फैलाए जा रहे थे.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी के तपस्या, पुजारी, हरहर महादेव और टीशर्ट वाले बयान पर विपक्षी नेता बहुत आहत दिखे थे. राहुल गांधी की पुजारी वाली बात के वीडियो को अपने ढंग से तोड़मरोड़ कर विपक्ष के लोगों ने उसे वायरल कर दिया था, जबकि ‘आल्ट न्यूज’ के मोहम्मद जुबैर ने बताया कि राहुल गांधी की बात वाले वीडियो को विपक्ष और टैलीविजन चैनलों ने काटछांट कर पेश किया, ताकि राहुल गांधी की इमेज बिगाड़ी जा सके.

रामनवमी हर्षोल्लास का पर्व है, लेकिन इस के उलट इस बार की रामनवमी को ‘दंगानवमी’ बना दिया गया. ऐसा प्रोपेगैंडा फैलाया गया कि इस दिन देश के अलगअलग हिस्सों में हिंसा फैल गई. ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे फर्जी वीडियो और फोटो फैलाने वालों का मास्टरमाइंड कौन होता है?

मनीष कश्यप ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा था कि ज्ञान, शौर्य, तप और त्याग की भूमि बिहार में अगर कोई 9वीं फेल मुख्यमंत्री बन जाए, तो सोचिए बिहार की कितनी बदनामी होगी, एक बार तो हो चुकी है. अनपढ़ और पढ़ालिखा होने में क्या फर्क होता है, यह बात सभी अनपढ़ लोगों को पता होती है. आने वाले चुनाव में बिहार के लोगो, किसी अनपढ़ के हाथों में बिहार की बागडोर मत देना.

लेकिन एक यूट्यूबर का कहना है कि मनीष कश्यप ने झूठी अफवाहें फैला कर बिहार और तमिलनाडु को आपस में लड़वा कर कौन से पढ़ेलिखे होने का परिचय दिया है? उस ने तो बिहार को और ज्यादा शर्मसार कर दिया है. अपने फायदे के लिए 2 प्रदेशों को लड़वाने की कोशिश की, तो इस से बड़ा जाहिल कौन हो सकता है?

एफआईआर दर्ज किए जाने पर मनीष कश्यप ने एक वीडियो जारी कर बिहार सरकार पर जम कर हमला बोला और कहा कि अखबार की खबर, विधानसभा में हंगामा, मजदूरों के बयान और वायरल वीडियो को सुबूत नहीं मान सकते तो क्या हम तेजस्वी यादव की बात को सुबूत मानेंगे?

उस ने तेजस्वी यादव पर हमला करते हुए कहा कि वे विपक्ष में रहते हुए पुलिस के खिलाफ क्याक्या नहीं बोलते थे. मनीष ने यह भी कहा कि राबड़ी देवी के आवास पर पड़े छापे से ध्यान भटकाने के लिए ही उस के ऊपर एफआईआर दर्ज हुई है.

बिहार सरकार के एक वकील का कहना है कि आरोपी मनीष कश्यप ने पटना में फेक वीडियो शूट किया और उसे सर्कुलेट किया. यूट्यूबर मनीष ने ‘बीएनआर न्यूज हनी’ नाम से एक यूट्यूब चैनल पर वह वीडियो शेयर किया था.

इस वीडियो में पट्टी बांधे गए 2 नौजवानों अनिल कुमार और आदित्य कुमार को मजदूर दिखाया गया था. इस वीडियो को मनीष कश्यप के साथी और गोपालगंज के रहने वाले राकेश कुमार रंजन ने शूट किया था और 6 मार्च को उसे अपलोड कर दिया था.

कौन है मनीष कश्यप

‘द सन औफ बिहार’ के नाम से मशहूर मनीष कश्यप खुद को इंजीनियर और पत्रकार बताता है. सोशल मीडिया पर मुहैया जानकारी के मुताबिक, उस का जन्म 9 मार्च, 1991 को पश्चिम चंपारण जिले के डुमरी महानवा के बिहार गांव में हुआ था.

मनीष कश्यप का असली नाम त्रिपुरारी कुमार तिवारी है, लेकिन वह मनीष कश्यप के नाम से ही ज्यादा चर्चित है. इंजीनियरिंग की डिगरी लेने के बाद भी जब वह कैरियर बनाने में नाकाम रहा, तो उस ने एक यूट्यूब चैनल के जरीए रिपोर्टिंग शुरू की. पहले वह सरकार की बुनियादी सेवाओं में खामियां ढूंढ़ता था और फिर प्रोपेगैंडा चलाने का आरोप उस पर लगने लगा.

पुलिस की मानें, तो साल 2019 में गवर्नमैंट मैडिकल कालेज (तब एमजेके अस्पताल) परिसर में बनी किंग

एडवर्ड-7 की प्रतिमा तोड़ने में मनीष कश्यप शामिल था. इसी मामले को ले कर वह सुर्खियों में आया था. बाकायदा किंग एडवर्क-7 की प्रतिमा तोड़ने के बाद वहां जश्न मनाया गया था. तब के डीएम के दखल देने के बाद इस मामले में एफआईआर दर्ज की गई थी.

इस के अलावा एक कालेज के प्रिंसिपल के आवास पर तोड़फोड़ के मामले में भी मनीष कश्यप पर एफआईआर दर्ज है. वह जेल भी जा चुका है और साल 2020 में चनपटिया से निर्दलीय विधानसभा चुनाव भी लड़ चुका है.

एक मामले में था फरार

मनीष कश्यप पर बिहार के बेतिया पुलिस जिले में 7 मामले दर्ज हैं. इन में से 6 मामलों में वह जमानत पर है, लेकिन मझौलीय थाने में दर्ज कांड संख्या 193/21 में उसे हाईकोर्ट से भी राहत नहीं मिली थी. उस की अग्रिम जमानत याचिका खारिज हो गई थी.

इसी मामले में पुलिस ने उस की गिरफ्तारी के लिए कोर्ट से कुर्कीजब्ती वारंट का आदेश हासिल किया था, जिस के बाद पुलिस ने महनवा में संपत्ति को कुर्क किया था.

इस से पहले मनीष कश्यप को साल 2019 में पटना पुलिस ने ल्हासा मार्केट में कश्मीरी कारोबारियों के साथ मारपीट के मामले में गिरफ्तार किया था. उस के साथ उस के 2 और दोस्तों चंदन और नागेश सम्राट को भी पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

दरअसल, 14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले के एक दिन बाद कम से कम

20 नौजवानों ने लाठीडंडों के साथ पटना ल्हासा मार्केट में कश्मीरी कारोबारियों पर हमला बोला था. साथ ही, उन्हें कश्मीर लौट जाने की धमकी भी दी थी.

शाहरुख खान की फिल्म ‘पठान’ को ले कर भी मनीष कश्यप ने बवाल मचाया था और इसे हिंदू धर्म से जोड़ कर देखते हुए बायकाट की मांग की थी और कहा था कि ‘पठान’ मूवी फ्लौप हो जाएगी. इस के साथ ही मनीष कश्यप ने शाहरुख खान को अपशब्द कह कर उन की बेइज्जती भी की थी.

साल 2016 में किसी आयोजन के दौरान मनीष कश्यप ने महात्मा गांधी को भी गाली दी थी, जिस का वीडियो फुटेज भी उस ने ईओयू को सुपुर्द किया था.

अपनी ब्रांडिंग के होर्डिंग लगवाए

बिहार पुलिस ने ट्वीट के जरीए जानकारी दी कि मनीष कश्यप द्वारा जगहजगह पर अपनी ब्रांडिंग के लिए गैरकानूनी तरीके से होर्डिंग भी लगवाए. पुलिस को पता चला था कि कई कोचिंग संस्थानों से अपने पक्ष में ब्रांडिंग के लिए पटना में गलत तरीके से बिना इजाजत लिए होर्डिंग लगवाए गए. वहीं उस के बैंक खातों में तकरीबन 50 लाख की राशि जमा थी, जिसे फ्रीज कर दिया गया.

देश के जानेमाने पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि मनीष कश्यप तो एक छोटा सा परिंदा है. असल में भारत में ऐसे बहुत सारे गोदी मीडिया हैं, जो देश में नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं. वहीं इस घटना पर कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने अपनी बात रखते हुए कहा कि जो लोग भारत के 2 राज्यों में ऐसी नफरत फैलाते हैं, उन के साथ ऐसा ही बरताव होना चाहिए.

फेक न्यूज का जंजाल

यह दौर इंटरनैट मीडिया का है, जिस से हर हाथ को दुनिया तक अपने संदेश को पहुंचाने की बहुत बड़ी ताकत मिली है. लेकिन आज यही ताकत फेक न्यूज से समाज और देश के लिए बड़ी चुनौती बन गई है. पता ही नहीं चलता कि झूठ क्या है और सच क्या.

ह्वाट्सएप, फेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर और इंस्टाग्राम इस्तेमाल करने वालों की तादाद अरबों में है. फेक न्यूज पर भरोसा करने वाले यहां लाखों लोग हैं. चूंकि भारत में डिजिटल लिटरेसी बहुत कम है, सो यहां फेक न्यूज फैक्टरी का कारोबार भी खूब जमता है.

इसी डिजिटल निरक्षरता के चलते क्या सही और क्या गलत है, लोग समझ नहीं पाते हैं और हर न्यूज को सच मान बैठते हैं. इसी का नतीजा मौब लिंचिंग, तमिलनाडु में बिहारियों पर जुल्म, मुंहनोचना, चोटीकटवा, बच्चाचोर के रूप में सामने आता है.

कोरोना महामारी के समय भी ऐसे ही फेक न्यूज से लोगों को इतना डरा दिया गया था कि मौत आने से पहले ही बहुत से लोग मौत के मुंह में समा गए थे.

कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा था, जिस में कहा जा रहा था कि ऐक्टर अक्षय कुमार ने अपनी हीरोइन के साथ बागेश्वर बाबा से उस के धाम पर मुलाकात की. वीडियो में अक्षय कुमार और मानुषी छिल्लर एक मंदिर में पूजा करते नजर आए थे और उसे ही इस बात का जोर दे कर फैला दिया गया था.

आसाराम बापू, निर्मल बाबा, राधे मां, संत गुरमीत राम रहीम, दाती महाराज, स्वामी नित्यानंद जैसे बाबाओं ने गेरुआ वस्त्र के वेश में लोगों को केवल ठगा ही है. बड़ेबड़े मंदिरों, मठों और आश्रमों के मालिक बने इन बाबाओं ने केवल धार्मिक दुष्प्रचार कर लोगों को भरमाया ही है.

इन का सब से बड़ी शिकार महिलाएं बनी हैं. देश में ऐसे ढोंगियों की कमी नहीं है, जो आप की समस्या का निदान करने की बात करेंगे, लेकिन असली मकसद उन का अपना निजी फायदा  होता है.

फेक वीडियो फैलाने वाले लोग अकसर खुद को धार्मिक दिखाने की कोशिश करते हैं. उन का पहनावा भी अलग तरह का होता है. खुद को भगवान का भक्त बताने वाले ऐसे लोग भगवान के नाम पर ही लोगों को ठगते हैं.

ऐसे लोग अशिक्षित लोगों से ज्यादा मेलजोल रखते हैं, ताकि वे उन का अच्छे से ब्रेनवाश कर सकें, जैसे मनीष कश्यप ने किया, मजदूरों पर जोरजुल्म की फेक न्यूज फैला कर.

भारत में गलत सूचना और नकली समाचारों की समस्या को उजागर करने के लिए माइक्रोसौफ्ट के सर्वे से

पहले बीबीसी रिसर्च की एक जांच में पाया गया था कि भारत में फेक न्यूज के व्यापक प्रसार के पीछे राष्ट्रवाद मुख्य प्रेरक है. यूट्यूब की बात करें, तो यह फेक सूचनाओं का भंडार है. यही वजह है कि भारत ने फर्जी समाचार और गलत सूचना के प्रचार के लिए यूट्यूब के कई चैनलों पर बैन लगा दिया है.

बहरहाल, भारत में ह्वाट्सएप को फेक न्यूज के लिए सब से ज्यादा असुरक्षित मीडियम माना जाता है, क्योंकि इस का इस्तेमाल करने वाले लोग अकसर हकीकत जानेपरखे बिना उसे कई लोगों को फौरवर्ड कर देते हैं, जिस के चलते कई लोगों के पास गलत सूचना पहुंच जाती है.

एक नौजवान ने सोशल मीडिया पर लाइक और फौलोअर्स बढ़ाने के मकसद से आत्महत्या करने संबंधी पोस्ट कर डाली थी, जिस से पुलिस भी हकरत में आ गई.

अकसर लोग अपनी पोपुलैरिटी बढ़ाने और साथसाथ अपने सोशल मीडिया पेज पर फौलोअर्स और लाइक व कमैंट्स बढ़ाने के लालच में कुछ भी कर रहे हैं. इस से फेसबुक, ट्विटर पर नकली खबरों का चलन बढ़ा है और यह गलत सूचना धीरेधीरे मीडिया में फैल रही है.

अब तो सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर कमाई के नाम पर ब्लू टिक बेच कर झूठी शानोशौकत के दिखावे से आगे कितनाकुछ घटेगा, इस का तो अंदाजा लगाना भी मुश्किल है.

देश के चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने कहा है कि हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जहां लोगों में सब्र और सहिष्णुता कम है. उन्होंने यह भी कहा कि सोशल मीडिया पर फेक न्यूज जिस रफ्तार से फैलती है, उस के चलते सचाई विक्टिम बन गई है. एक झूठी बात बीज की तरह जमीन में बोई जाती है और यह एक बड़ी थ्योरी में बदल जाती है, जिसे तर्क के आधार पर तोला नहीं जा सकता है.

यकीनन, सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सेवा देने वाले से ज्यादा सेवा लेने वाले की सोच प्रभावित करती है. सेवा लेने वाला इस दिशा में समाज में पौजिटिव जिम्मेदारी निभा सकता है. अगर ऐसा न हुआ तो मुकदमों से लदी भारतीय न्याय प्रणाली पर एक बोझ से ज्यादा कुछ साबित नहीं होगा.

बिहार पुलिस का दावा है कि मनीष कश्यप के पीछे एक बहुत बड़ा नैटवर्क काम कर रहा है. पुलिस का दावा है कि पूछताछ में उस ने कई अहम जानकारियां भी दी हैं. बिहार और तमिलनाडु पुलिस लगातार उस के खिलाफ सुबूत जुटाने में लगी हैं.

लड़कियों का चसका कहीं आपको भी तो नहीं

दीपक की शादी को 5 साल बीत चुके थे. इस बीच वह 2 बच्चों का बाप भी बन चुका था. दीपक की पत्नी जितनी पढ़ीलिखी और सुशील थी, उतनी ही खूबसूरत भी थी. इस के बावजूद दीपक नई नई लड़कियों के साथ सोने के सपने देखता रहता था.

दीपक का काफी अच्छाखासा कारोबार चल रहा था. ऐसे में उस के पैसे के लालच में नईनई लड़कियां फंस भी जाती थीं. वह कई लड़कियों से जिस्मानी रिश्ते भी बना चुका था. लेकिन उस की इस लत की खबर उस की पत्नी को नहीं हो पाई थी. वह दीपक पर आंख मूंद कर भरोसा करती थी. दीपक का लड़कियों के साथ हमबिस्तरी करने का चसका दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था, इसलिए वह देर रात घर आने लगा था.

एक रात दीपक 12 बजे के बाद भी घर नहीं पहुंचा, तो उस की पत्नी के मन में घबराहट होने लगी, क्योंकि उस ने इस दौरान दीपक के मोबाइल फोन पर कई बार बात करने की कोशिश की थी, लेकिन उस का फोन स्विच औफ था. दीपक की पत्नी से अब रहा नहीं गया और उस ने ड्राइवर को फोन कर के घर बुलाया. वे दोनों कार से दुकान पहुंचे.

दुकान के अंदर की लाइट जलती देख दीपक की पत्नी के मन में एक अजीब सा डर पैदा हो गया, क्योंकि दीपक तो अकसर रात के 11 बजे तक दुकान बंद कर लेता था, इसलिए वह घबराहट में सीधी दुकान के अंदर भागी चली गई और उस ने वहां जो देखा, वह उस के लिए किसी बड़ी चोट से कम न था, क्योंकि दीपक दुकान के फर्श पर एक लड़की के साथ हमबिस्तरी कर रहा था. उन दोनों के बदन पर एक भी कपड़ा न था. उस समय दीपक की पत्नी को बहुत तेज गुस्सा आया, लेकिन वह बिना कुछ कहे घर चली आई.

दीपक जब घर आया, तो उस की पत्नी उस से बोली ‘‘मैं आप पर आंख मूंद कर भरोसा करती रही और आप ने मेरे प्यार और भरोसे का यह सिला दिया.’’ अब वह दीपक के साथ एक पल भी रहने को तैयार न थी और उस ने दीपक से तलाक लेने को कहा.

दीपक ने पत्नी के सामने लाख मिन्नतें कीं, लाख हाथ जोड़े, लेकिन उस ने दूसरे दिन ही कोर्ट में तलाक लेने के लिए अर्जी दे दी. कोर्ट ने दीपक की पत्नी की दलील के आधार पर उसे बच्चों के साथ अलग होने की इजाजत दे दी.

दीपक ने लड़कियों के चसके के चलते अपनी सुखी जिंदगी में आग लगा ली थी. उसे न केवल पढ़ीलिखी और प्यार करने वाली पत्नी से अलग होना पड़ा, बल्कि अपने बच्चों से भी हाथ धोना पड़ा. जगहंसाई और समाज में बदनामी हुई सो अलग.

लगे माली चूना

जिन भी लोगों को अलग अलग लड़कियों के साथ सोने की आदत होती है, उन में से ज्यादातर पैसे वाले होते हैं.  इन लड़कियों के चक्कर में पड़ कर वे अपनी नौकरी और कारोबार तक को गंवा बैठते हैं. कभीकभी सैक्स और पैसे की भूखी लड़कियां पैसे वाले लोगों के साथ की गई हमबिस्तरी का वीडियो बना कर उन्हें लंबे समय तक ब्लैकमेल करती हैं. ऐसे में वह शख्स या तो लुटने को मजबूर हो जाता है या खुदकुशी और हत्या जैसे कदम भी उठाने को मजबूर हो जाता है.

इस मसले पर सामाजिक कार्यकर्ता शिवराम गुप्ता का कहना है कि अगर बसाबसाया घर उजड़ने से बचाना है, तो इस तरह की लत से दूरी बनाए रखने में ही भलाई है.

लगती हैं बीमारियां

 3 बच्चों के बाप हरीश को अलगअलग लड़कियों के साथ सोने की लत थी. कई लड़कियों के साथ असुरक्षित तरीके से किए गए सैक्स का नतीजा ही था कि उसे एड्स की बीमारी ने जकड़ लिया और असमय ही उस की मौत हो गई.

लड़कियों के चसके के चक्कर में हरीश ने खुद को मौत का न्योता दे दिया और अपने पीछे वह पत्नी और बच्चों को रोनेबिलखने के लिए छोड़ गया. अकसर कई लड़कियों के साथ संबंध बनाने वाले लोग हड़बड़ी, घबराहट और किसी के देख लेने के डर के चलते सैक्स के दौरान अपनाए जाने वाले सुरक्षा उपायों को नहीं अपना पाते हैं. ऐसे में वे बिना कंडोम के ही सैक्स संबंध बना लेते हैं. इस की वजह से उन्हें सैक्स से होने वाली खतरनाक बीमारियां पकड़ लेती हैं.

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि कई लड़कियों से सैक्स संबंध रखने वाले लोग खुद तो इस तरह के संक्रमण के शिकार होते हैं, बल्कि वे अपनी पत्नी और उस से होने वाले बच्चे को भी इस तरह के संक्रमण के बुरे असर से नहीं बचा पाते हैं.

जुर्म आम बात

 लड़कियों का चसका हत्या व दूसरे जुर्म की सब से बड़ी वजह माना जाता है. हत्या के ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि जब खुलासा हुआ, तो उस की वजह नाजायज रिश्ते ही पाए गए.

सामाजिक कार्यकर्ता गोविंद मिश्र का कहना है कि अकसर कई लड़कियों के साथ सैक्स संबंध बनाना न केवल परिवार में कलह की वजह बनता है, बल्कि कई लोगों से सैक्स संबंध रखने वाली लड़कियां पैसे के लालच के चलते हत्या, ब्लैकमेलिंग व फिरौती जैसा जुर्म करने से भी नहीं हिचकती हैं.

लड़कियों के चसके का बुरा असर बच्चों पर भी देखा गया है. अकसर इस तरह के मामले सामने आते रहते हैं, जिन में पति किसी दूसरी लड़की के चक्कर में या तो अपनी पत्नी की हत्या कर देता है या दूसरी औरत के साथ घर बसा लेता है. नाजायज रिश्तों से कई लड़कियां कुंआरी मां तक बन जाती हैं और बच्चे को जन्म देने के बाद लोकलाज के डर से उन्हें झुरमुटों, कूड़ेकरकट के ढेर में छोड़ जाती हैं.

अगर इन सब से बचना है, तो एक साथी के साथ ही संबंध बनाएं और उस के प्रति पूरी ईमानदारी बरतें.

धर्म के धंधेबाजों की देन बाल विवाह

भारत में 20 से 49 साल की उम्र की तकरीबन 27 फीसदी औरतें ऐसी हैं, जिन की शादी 15 साल से कम उम्र में हुई. वहीं 31 फीसदी औरतें ऐसी?हैं, जिन की शादी 15 से 18 साल की उम्र के बीच हुई.

भारत में शादी की औसत उम्र 19 साल है. गरीब औरतों के मुकाबले अमीर व ऊंचे घराने की औरतें तकरीबन 4 साल बाद शादी करती हैं. लड़कियां जायदाद नहीं हैं. उन्हें अपने भविष्य को चुनने का हक है. जब वे ऐसा करेंगी, तो इस से सभी को फायदा होगा.

अपनी बेटी के लिए काबिल वर तलाशने, दहेज के लिए मोटी रकम जुटाने और धार्मिक परंपराओं के दबाव के अलावा और भी कई वजहें हैं, जिन से ज्यादातर भारतीय मातापिता अपनी बेटी को बोझ समझते?हैं.

बन रहे हैं गैरजिम्मेदार

हमारे देश की आबादी का एक बड़ा तबका अभी भी बेटेबेटियों की शादी कम उम्र में ही कर देता है. इस से नाबालिग जोड़े समय से पहले ही मांबाप बन जाते हैं और चूल्हाचौका व बच्चों में उलझ कर रह जाते हैं. ऐसी लड़कियां 15 साल की उम्र में मां व 30 से 35 साल की उम्र में दादीनानी बन जाती हैं.

राजस्थान में?टोंक जिले की मालपुरा तहसील की डिग्गी धर्मशाला में बाल विवाह का ऐसा ही मामला सामने आया, जिस में सरकारी अफसरों समेत लोकल विधायक, पंचायत समिति के प्रधान व सरपंचों ने न केवल जम कर खाना खाया, बल्कि नाबालिग वरवधू जोड़े को आशीर्वाद भी दिया.

यह शादी कोई आम शादी नहीं थी, बल्कि नाबालिग बच्चों की शादी का?

बड़ा विवाह सम्मेलन था, जिस में लड़केलड़कियों की उम्र 8 से 16 साल थी. लेकिन सरकार के झंडाबरदारों, समाज के ठेकेदारों व जनता के पैरोकारों को यह सब दिखाई नहीं दिया.

पता चला कि मंदिर, धर्मशाला, पंडों, समाज के ठेकेदारों व लोकल प्रशासन की मिलीभगत से यह बाल विवाह सम्मेलन खुल्लमखुल्ला हुआ. कानून की हत्या पर कोई भगवाधारी देश को बचाने नहीं आया. आशीर्वाद देने वालों में ज्यादातर तिलक लगाए घूम रहे थे.

इस तरह के किसी मामले को जब ज्यादा तूल दिया जाता है या राजनीतिक रंग दिया जाता है, तो कभीकभार एकाध मामले में कुसूरवारों पर हलकी कार्यवाही कर पुलिस प्रशासन चादर तान कर सो जाता है. जो विरोध करता है, उसे हिंदू विरोधी कह कर डराया जाता है.

जाहिर है, लोगों की दिलचस्पी इस बुराई को खत्म करने में कम तमाशा करने में ज्यादा रहती है. यह तमाशा खड़ा करने वाले खास तरह के लोगों का मकसद सिर्फ शोहरत पाना रहता है.

यह है वजह

पिछले साल समाज कल्याण विभाग, जयपुर ने ‘बचपन बचाओ’ नामक एक गैरसरकारी संगठन की मदद से प्रदेश की राजधानी जयपुर से सटे देहाती इलाकों में एक सर्वे कराया था.

छोटी उम्र में ही ब्याही गई औरतों पर किए गए इस सर्वे से पता चला कि जयपुर जैसे तरक्कीपसंद व रोजगार देने वाले शहर के नजदीक बसे होने के बावजूद ये औरतें गरीबी व पिछडे़पन और पंडों के लगातार प्रचारप्रसार की वजह से इस दलदल से बाहर नहीं निकल पा रही हैं.

इस की सब से बड़ी वजह है, कम उम्र में शादी. शादी होने के बाद ये औरतें कई बच्चों की मां बन गईं और उन को पालने व ज्यादा खर्च के गोरखधंधे में उलझ कर रह गईं.

गंवई इलाकों के परिवारों में 65 फीसदी लड़कियों की शादी विवाह के लिए बनाई गई कानूनी उम्र के पहले ही हो गई. पर कहीं देशभक्ति के नाम पर कोई जुलूस नहीं निकले, बयान नहीं दिए गए.

80 फीसदी मांबाप को कहा जाता है कि अपने बच्चों की जल्दी शादी करो और अपनी जिंदगी की सब से बड़ी जिम्मेदारी से?छुटकारा पाओ.

85 फीसदी मांबाप मानते हैं कि उन्हें अपनी लड़की की शादी की चिंता तभी से सताने लग गई?थी, जब वह 8 से 10 साल की थी.

75 फीसदी औरतें जल्दी शादी व फिर जल्दीजल्दी बच्चे पैदा होने की वजह से खून की कमी से पीडि़त हो जाती हैं. मां बनने के बाद मां व बच्चे की सब से ज्यादा मृत्युदर भी इन्हीं इलाकों में है.

बच्चा होने के समय मृत्युदर का आंकड़ा भले ही शहरी इलाकों में सौ में से 2 हो, लेकिन इन गंवई इलाकों में यह आंकड़ा प्रति सौ में से 10 से 12 तक है.

मांबाप अपने बच्चों के सुनहरे कल के बारे में नहीं सोच पाते और इस तरह उन के बच्चे भी इसी गोरखधंधे में फंसे रहते हैं.

50 फीसदी बच्चे हाईस्कूल से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते?हैं. कम पढ़ेलिखे होने की वजह से तरक्की की तमाम सुविधाएं मिलने के बावजूद ये उस का फायदा नहीं उठा पाते और पिछड़ जाते?हैं.

सामने आया घिनौना रूप

महज 13 साल की मासूम बच्ची सीमा के साथ जयपुर शहर से सटे कसबे चाकसू में हुआ हादसा बाल विवाह के एक घिनौने व शर्मनाक पहलू का एहसास कराता है.

एक छोटी सी बाल उम्र, जो लड़कियों के खेलनेखाने, पढ़ने व सेहत बनाने की होती है, इस उम्र में ही सीमा को तमाम तरह की हिंसा का शिकार होना पड़ा.

मासूम सीमा के तथाकथित 26 साला पति द्वारा उस के मुंह में कपड़ा ठूंस कर उसे बैल्ट से मारापीटा जाता?था और उस के साथ जबरन सैक्स संबंध बनाया जाता था.

यह मामला तब सामने आया, जब सीमा की मां कमला जयपुर के गांधी नगर महिला थाने में महिला सुरक्षा व सलाह केंद्र पर शिकायत ले कर गईं.

कमला की शिकायत के मुताबिक, सीमा की शादी उस समय कर दी गई?थी, जब वह ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी.

जब सीमा की सास की बीमारी के चलते मौत हो गई, तो तीसरे की बैठक के दिन सीमा को ससुराल भेजना पड़ा. तीसरे की बैठक व 12वें की रस्म के बीच सीमा के पति ने इस घिनौनी हरकत को अंजाम दिया.

पंडेपुरोहित जिम्मेदार

बाल विवाह को ले कर ऐसा नहीं है कि शहरी और देहाती इलाकों में जागरूकता न हो या लोगों को मालूम न हो कि यह कानूनन जुर्म है. दरअसल, धार्मिक लिहाज से अंधविश्वासी लोग इतने बेखौफ रहते हैं कि वे जानतेबूझते हुए भी किसी की परवाह नहीं करते. शादी के पंडाल में बैठा पंडित उन के लिए बड़े सहारे और ढाल का काम करता है.

जिन जगहों पर बच्चों की शादी रुकवाई जाती है, वहां आज तक यह सुनने में नहीं आया कि शादी करा रहे पंडे के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कर कोई कार्यवाही की गई हो.

देश में सालभर जो तीजत्योहार मनाए जाते हैं और धार्मिक जलसे होते हैं, वे भी इस खास मकसद से कराए जाते हैं कि ज्यादा से?ज्यादा लोग देवीदेवताओं की लीलाएं देख कर पैसा चढ़ाएं.

रामलीला हो या कृष्णलीला, इन में?भगवान के बालरूप की शादी मंच पर जरूर दिखाई जाती है. छोटे बच्चे जब भगवान का रूप धरे शादी करते नजर आते हैं, तो शारदा ऐक्ट जैसे कानूनों पर तरस ही खाया जा सकता है.

ऐसी कोई बंदिश नहीं है कि जो इस हरकत को रोके, जिस में किरदार छोटे बच्चे होते हैं, लेकिन वे माथे पर मुकुट और शरीर पर भगवानों जैसे कपड़े पहने होते हैं.

लोग भगवान बने इन बच्चों के पैर छू कर अपनी अंधश्रद्धा जाहिर कर लीलाओं की शादियों पर मुहर लगा देते हैं, जो बाल विवाह की कुप्रथा को बढ़ावा देने वाली साबित होती हैं. इस से यह संदेशा जाता है कि जब भगवान बचपन में शादी कर सकते हैं, तो आम बच्चों की शादी क्यों नहीं की जा सकती?

अभी भी ज्यादातर लोग दिमागी तौर पर धार्मिक रीतिरिवाजों व पाखंडों के गुलाम हैं. उन्हें बरगलाए रखने के लिए राम व कृष्ण की लीलाएं हर जगह बिना नागा की जाती हैं.

इन लीलाओं में भगवान बने बच्चों की शादी का नाटक चूंकि कानूनन गुनाह नहीं है, न ही इस पर कोई एतराज जताता है, इसलिए देश में बाल विवाह के माहौल का बना रहना हैरत की बात नहीं है.

जयपुर के एक कसबे कोटखावदा में रामलीला हुई. इस धार्मिक जलसे में रामसीता विवाह की लीला को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया गया था. कम उम्र का एक लड़का राम बना था, तो उसी के उम्र की एक लड़की ने सीता का रोल निभाया था. राम व सीता बने बच्चों के दोस्त भी इस शादी में शामिल हुए थे.

इस शादी को देखने के लिए वहां हजारों लोग मौजूद थे, लेकिन किसी ने भी यह नहीं सोचा कि धर्म की आड़ में मंच से बाल विवाह को बढ़ावा दिया जा रहा है. पंडेपुजारी तो लोगों को उकसाने में लगे रहते हैं.

एक भी मिसाल ऐसी नहीं मिलती, जिस में किसी पंडे ने बाल विवाह को रोकने की कोशिश की हो, जबकि जब कभी इन के हकों पर लाठी पड़ती है, तो तिलमिलाए पंडेपुरोहित सड़क पर आ कर प्रदर्शन, विरोध व नारेबाजी करने से नहीं चूकते. राज्य व केंद्र सरकार हिंदू धर्म और देशभक्ति को एक मान कर कहर ढाने लगती हैं.

इस तबके की हमेशा ही यह कोशिश रहती है कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों की शादियां हों, जिस से उन्हें दक्षिणा मिलती रहे. इस के लिए यजमानों को वे हमेशा धर्म की मिसालें दिया करते हैं कि रामकृष्ण की शादी कम उम्र में ही हुई थी.

पंडों को इन बातों से कोई वास्ता नहीं रहता कि वे समाज का कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं. उन्हें तो अपनी जेब भरने से मतलब रहता है, इसलिए भागवत, रामायण व पुराणों का हवाला दे कर वे यह जताया करते हैं कि बाल विवाहों को ले कर मचा विरोध बकवास है, यह तो पुराने समय से ही चली आ रही सनातन परंपरा है.

सीधे तौर पर भले ही कोई पंडितपुरोहित किसी से यह न कहे कि कम उम्र में अपने बच्चों की शादी कर दो, लेकिन सचाई यह है कि यह तबका लोगों के बीच इस तरह का माहौल बनाता है कि कम पढ़ेलिखे व गंवई इलाके के लोग अपने बच्चों की छोटी उम्र में ही शादी करने के लिए चिंतित हो उठते हैं.

दरअसल, पुरोहित तबके द्वारा बारबार बोले जाने वाले कुछ जुमलों से ऐसा होता है. मसलन, लड़की तो पराया धन होती है यानी यह आप पर एक तरह का कर्ज है, इसलिए जितना जल्दी हो सके, इस कर्ज को उतारो. जमाने की हवा लगने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, इसलिए लंगर डाल दो यानी शादी कर दो, तो जिम्मेदारी का भाव आ जाएगा.

पुरोहित तबका लोगों के दिलोदिमाग में बच्चों की शादी को इतना बड़ा काम बना कर भर देता है कि उन्हें बच्चों की शादी जिंदगी की एक बड़ी कामयाबी लगने लगती है. धर्म के ये धंधेबाज कहते हैं कि अगर लड़की का कन्यादान पिता अपनी गोद पर बैठा कर करता है, तो वह 10 हजार कुएं बनवाने के बराबर पुण्य का हकदार है. इस के बाद अगर लड़की रजस्वला हो जाती है, तो उस की शादी के समय पिता उसे बगल में बैठा कर कन्यादान करता है, तो उस का फल कम हो जाता है.

कन्या की शादी कच्ची उम्र में करने से पिता को 10 हजार कुएं बनवाने का फल मिलता है या नहीं, इसे तो आज तक कोई नहीं देख पाया, लेकिन उस मासूम बच्ची की जिंदगी जरूर बदतर हो जाती है. उसे तो जीतेजी कुएं में धकेल दिया जाता है.

कई इलाकों में तो यह भी देखा गया है कि अगर किसी शख्स के लड़की नहीं है, तो वह किसी दूसरे की लड़की का कन्यादान करते हैं, क्योंकि दूसरे की बेटी का कन्यादान करने वालों को गंगा स्नान का फल मिलता है. पंडित इस सफेद झूठ को लोगों के मन में बिठाते रहते हैं.

हो सख्त कार्यवाही

बाल विवाह रोकने की मुहिम चलनी चाहिए, मगर उस की दिशा पंडेपुजारियों की मोटी गरदन तक होनी चाहिए. यह हर कोई जानता है कि बगैर पंडे के शादी नहीं होती. लेकिन बाल विवाहों की कानूनी कार्यवाही में शादी कराने वाले इस गिरोह को एक तरह से छूट ही मिली हुई है.

पंडों के साथ कानूनन सख्ती की जाए कि अगर उन्होंने धोखे से भी किसी बच्चे की शादी कराई, तो कानूनी गाज उस पर ही गिरेगी, तो बात बन सकती है.

दूल्हादुलहन की उम्र कितनी है, इस पर पंडे मुंह नहीं खोलते, सवाल जजमान से दक्षिणा पाने का जो है. खामी यह है कि जरूरत पड़ने पर पंडे उम्र के मामले में यह कह कर चुप हो जाते हैं कि हमें क्या मालूम. धूर्ततता की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं मिले.

मुहिम पंडों के साथसाथ बचपन को बहकाने वाली धार्मिक लीलाओं और फुटपाथी धार्मिक किताबों के खिलाफ भी चलनी चाहिए. ऐसे धार्मिक आयोजनों पर कानूनी बंदिश लगाना जरूरी है, जिन में बच्चों की शादी भगवान बना कर की जाती है.

प्यार की आड़ में जिस्म से खेलते प्रेमी

विशाल और नीतू एक ही कालेज में पढ़ते हैं. दोनों के बीच दोस्ती हुई जो प्रेम संबंधों में बदल गई. शुरुआत में दोनों लुकछिप कर मिलते थे, फिर खुलेआम मिलने लगे. होटल, रैस्तरां में जाना और मौजमस्ती करने से उन्हें कोई परहेज नहीं था.

पुरुष सैक्स के मामले में बड़ा अधीर या उतावला रहता है. इस के लिए वह शादी होने तक का इंतजार नहीं करता. यही बात विशाल पर भी लागू हुई. उस ने शादी का वादा कर के नीतू के साथ शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए. परिणामस्वरूप नीतू प्रैग्नैंट हो गई.

जब नीतू ने प्रैग्नैंट होने की खबर विशाल को दी तो उस के पैरोंतले जमीन खिसक गई. उस के होश उड़ गए. उस ने खुशी जाहिर करने के बजाय उस से गर्भपात कराने को कहा. नीतू ने कहा कि वह गर्भपात नहीं कराएगी बल्कि वह उस से शीघ्र शादी कर ले.

विशाल ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं अपने पेरैंट्स से बात करूंगा.’’

उस ने पेरैंट्स से बात किए बगैर नीतू से कह दिया कि पेरैंट्स को शादी से आपत्ति है. सो, वह उस से शादी करने में असमर्थ है तथा बच्चे को पिता के रूप में अपना नाम नहीं दे सकता है. अब गर्भपात कराना ही एकमात्र हल है.

जब विशाल नीतू को गर्भपात के लिए डाक्टर के पास ले गया तो डाक्टर ने कहा कि इतने समय के पश्चात कानून गर्भपात करने की इजाजत नहीं देता क्योंकि इस से नीतू की जान को खतरा हो सकता है. विशाल ने नीतू से किनारा कर उसे अपने हाल पर छोड़ दिया.

यह तो केवल एक उदाहरण मात्र है. आएदिन प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ फिजिकल रिलेशनशिप बनाते हैं और फिर उसे म?ाधार में छोड़ देते हैं. शादी का वादा तो करते हैं लेकिन शादी करते नहीं. ऐसे में प्रेमिका को या तो गर्भपात कराना होता है या बिनब्याही मां बनना पड़ता है, बहुत बार तो आत्महत्या करने की नौबत आ जाती है. अगर उस ने जिंदा रहने का फैसला किया है तो ऐसी स्थिति में प्रेमिका को अपमान सहना पड़ता है.

प्रेमी अगर शारीरिक संबंध के लिए इतना ही उतावला है तो पहले शादी क्यों नहीं करता. शादी के बाद वह चाहे जितनी बार उस से फिजिकल रिलेशन बनाए, किस ने रोका है. लेकिन प्रेमिका को बहलाफुसला कर या शादी का ?ांसा दे कर वादाखिलाफी करना कहां तक उचित है?

कुछ लड़के तो लड़कियों से दोस्ती या प्यार का नाटक करते हैं और उन के जिस्म व जज्बातों से खेलते हैं. शुरू से ही उन के मन में पाप होता है. वे अपनी प्रेमिका के समक्ष ऐसे पेश आते हैं जैसे उस से हद दरजे का प्यार करते हैं और उस के बगैर जी नहीं सकते. उसे अपने प्यार का वास्ता दे कर शारीरिक संबंधों का मजा लेते हैं और फिर एक दिन दूध में से मक्खी की भांति अपने जीवन से निकाल फेंकते हैं. ऐसे में प्रेमिका अपने को ठगी हुई महसूस करती है.

लड़कों का क्या, वे तो मौजमस्ती कर के पल्ला ?ाड़ लेते हैं. उन का तो कुछ बिगड़ता नहीं है, जो कुछ बिगड़ता है वह लड़कियों का ही बिगड़ता है. वे न घर की रहती हैं न घाट की. उन की जिंदगी नर्क बन जाती है.

आमतौर पर कोई भी लड़की शादी के पूर्व प्रेमी के साथ शारीरिक संबंध बनाना नहीं चाहती. वह चाहती है कि शादी तक प्रेमी केवल उस से प्यार करे, जिस्म से नहीं. लेकिन प्रेमी है कि उसे ?ांसे में ले कर संबंध बना ही लेता है.

यदि कोई युवक अपनी प्रेमिका से सच्चा प्यार करता है तो उस के साथ एक निश्चित और मर्यादित दूरी बनाए रखनी चाहिए. प्रेमिका को भी चाहिए कि वह उसे शारीरिक संबंध बनाने से सख्ती से रोके. अन्यथा संकट में पड़ते देर नहीं लगेगी.

काश, लड़कियां प्यार और शारीरिक संबंध में अंतर सम?ा पातीं. प्यार दिल से होता है, जिस्म से नहीं. प्रेमी को अपना शरीर तभी सौंपना चाहिए जब वह शादी कर उस का पति बन जाए.

जो लड़कियां शादी के पूर्व गर्भवती हो जाती हैं, उन के मातापिता की भी काफी बदनामी होती है. लोग तरहतरह की बातें करते हैं. अपने प्रेमी के साथ संबंध बनाने से पूर्व अपने परिवार की बदनामी के बारे में सोच लेना चाहिए.

जो लड़की शादी के पूर्व गर्भपात करा चुकी हो अथवा बच्चे को जन्म दे चुकी हो, उस की समाज में इतनी बदनामी हो जाती है कि कोई भी उस से शादी करने को तैयार नहीं होता क्योंकि आज भी समाज में किसी लड़की का शादी के पूर्व गर्भवती होना स्वीकार्य नहीं है. लड़की स्वयं भी ताउम्र अपराधबोध से ग्रसित रहती है. हमारे समाज में यौन संबंधों को विवाह के बाद ही अनुमति मिलती है.

लड़कियों को चाहिए कि वे प्रेमी के ?ांसे में न आएं. उन से किसी एकांत, होटल आदि में न मिलें. इस से उन्हें संबंध बनाने का मौका नहीं मिलेगा. युवतियां नासम?ा बच्चियां नहीं हैं. उन्हें अपना भलाबुरा पता होता है. इस के बावजूद यदि वे आग में कूदती हैं तो इस के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं.

लड़कियों को यह जान लेना चाहिए कि प्रेम संबंधों में अपनी सीमाएं तय करने का आप को पूरा अधिकार है. इसलिए वे प्रेमी के बहकावेफुसलावे में न आएं और कहें कि अगर सच्चा प्यार है तो शारीरिक संबंध के लिए मजबूर न करें.

लड़कियों के साथ सैक्स करने के लिए लड़के दबाव डालने के लिए कहते हैं, ‘‘अपने प्यार को प्रमाणित करो.’’ इस का एक ही उत्तर है कि मैं यह नहीं करना चाहती. इस पर भी यदि लड़का न माने तो उस से नाता तोड़ दें. इस से आप को ?ाठे प्रेमी से छुटकारा मिल जाएगा.

आजकल शादी का ?ांसा दे कर लंबे समय तक शारीरिक संबंध बनाने के प्रकरण काफी बढ़ गए हैं. पुलिस और न्यायालय में ऐसे प्रकरणों की भरमार है. इस की नौबत ही न आए यदि लड़की संबंध बनाने से ही इनकार कर दे. बाद में पछताने से क्या होगा? यदि कथित प्रेमी को सजा मिल भी गई तो उस से आप का खोया हुआ कौमार्य और प्रतिष्ठा तो वापस नहीं आ जाएगी. इसलिए लड़कियों की सम?ादारी इसी में है कि वे शादी से पूर्व शारीरिक संबंध बनाने से बचें.

प्रेम प्रकट करने या लगाव जताने के और भी कई तरीके हैं जिन में संभोग की जरूरत नहीं होती. जैसे, प्रेमी प्रेमिका द्वारा एकदूसरे का हाथ अपने हाथ में लेना, बांहों में भरना, चूमना, स्पर्श करना आदि.

कई बार लड़के संभोग के लिए दबाव बनाते हैं कि एक बार ऐसा करने से कुछ नहीं होगा. लेकिन एक बार का यह संभोग जी का जंजाल बन सकता है. गर्भधारण के लिए एक बार किया गया संभोग ही काफी है.

इन सब के बावजूद यदि शारीरिक संबंध बनाना चाहती हैं तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे बगैर कंडोम संभोग न करें. आजकल तो लड़कियों के लिए भी कंडोम आने लगे हैं जिन का इस्तेमाल कर के वे अनचाहे गर्भ से बच सकती हैं.

यदि बगैर कंडोम के संभोग किया गया हो या संभोग के दौरान वह फट गया हो तो गर्भ ठहरने की आशंका प्रबल हो जाती है. इस स्थिति में 72 घंटों के भीतर डाक्टर की सलाह पर आप गर्भनिरोधक गोलियों की

2 गोलियां ले लें और पहली खुराक लेने के 12 घंटों के बाद फिर 2 गोलियां लें. गोलियां जितनी जल्दी ली जाएं उतना अच्छा होता है. लेकिन ये गोलियां अपने मन से न लें.

मोबाइल बैंकिंग : आपका बैंक आपके हाथ

मोबाइल बैंकिंग आज बैंकिंग व्यवस्था का प्रमुख अंग हो गया है. बैंकिंग के क्षेत्र में यह मील का पत्थर है. ग्राहकों को कहीं भी, कभी भी बैंकिंग और व्यवसाय के लिए एक सुरक्षित व सुविधाजनक माध्यम मिल गया है.  मोबाइल बैंकिंग पैसों के भुगतान करने का एक सुरक्षित माध्यम है क्योंकि डैबिट कार्ड नंबर या पिन जैसी जानकारी के कारण यह ग्राहकों को जोखिम में नहीं डालता है. मोबाइल बैंकिंग से बहुत सारी बैंकसेवाएं सुरक्षित तरह से मिल जाती हैं. फं ड ट्रांसफ र से ले कर बहुत सारे लेनदेन इस के जरिए सुलभ तरीके से होने लगे हैं. खाते में बची शेष राशि की और मिनी स्टेटमैंट से ले कर पासवर्ड व अकाउंट संबंधी तमाम जानकारियां मोबाइल से ही मिल जाती हैं.

बैंकिंग की शुद्ध सेवाओं के साथ ही साथ मोबाइल रिचार्ज, हवाईजहाज के टिकट बुक कराना, बिल का भुगतान करना, चैकबुक का अनुरोध करना, चैक भुगतान रोकने जैसी तमाम सुविधाएं भी इस के जरिए हासिल की जा सकती हैं. मोबाइल बैंकिंग में लगातार सुधार किया जा रहा है. मोबाइल बैंकिंग उन ग्राहकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए भी सक्षम बनती जा रही है जिन के पास निम्न स्तर के या जावा रहित हैंडसैट हैं. काफी सेवाएं एसएमएस आधारित मोबाइल बैंकिंग सेवा द्वारा भी प्रदान की जाती हैं.

दुनियाभर में लोकप्रिय

2001 में फिलीपींस में सीमित स्तर पर शुरू हुई मोबाइल बैंकिंग ने दशक के अंत तक तकरीबन सारी दुनिया में बैंक के विकल्प के रूप में अपनी जगह बना ली है. पाकिस्तान में वित्तीय सेवाएं देने वाली अग्रणी कंपनी मोनेट ने अपनी मोबाइल बैंकिंग के दम पर वहां के प्रमुख बैंकों व वित्तीय संस्थानों को पछाड़ दिया है.

ग्लोबल स्तर पर नौर्वे की कंपनी टेलीनौर की गिनती दुनिया के अग्रणी मोबाइल बैंकिंग सेवाप्रदाता के रूप में की जाती है. स्टौकहोम की बर्ग इनसाइट इंडस्ट्री रिसर्च कंपनी के अनुसार, 2009 में ग्लोबल स्तर पर पैर पसारने वाली मोबाइल बैंकिंग का इस्तेमाल करने वाले ग्राहकों की संख्या वर्ष 2020 में 40 गुना तक बढ़ जाएगी. उस समय दुनिया में मोबाइल बैंकिंग के 189.4 करोड़ ग्राहक होंगे, जिन में से 78 फीसदी ग्राहक एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के उभरते हुए बाजारों वाले देशों के होंगे.

अफ्रीकी देशों में इंटरनैट और बैंकों की व्यापक पहुंच नहीं होने के कारण वहां मोबाइल बैंकिंग की सेवा खासी लोकप्रिय है और तेजी से बढ़ रही है. मोबाइल बैंकिंग के मौजूदा विस्तार से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह है कि विकसित देशों के मुकाबले विकासशील देशों में मोबाइल फोन औपरेटर वित्तीय सेवाएं देने का प्रमुख जरिया बन रहे हैं.  इस का सब से बड़ा उदाहरण हाल के वर्षों में अफ्रीकी देशों में आई मोबाइल ट्रांसफर की क्रांति है, जिस के चलते भारत की मोबाइल कंपनी एयरटैल सहित दुनिया के कई दिग्गज मोबाइल औपरेटर और वैल्यू एडेड सेवाप्रदाता अफ्रीका का रुख कर रहे हैं.

मोबाइल मनी सर्विसेज का उपयोग करने के मामले में केन्या दुनिया का सब से अग्रणी देश है. कम्यूनिकेशंस कमीशन औफ केन्या के जुलाई 2012 तक के आंकड़ों के अनुसार, केन्या के करीब 2.9 करोड़ मोबाइलधारकों में से

65 फीसदी यानी करीब 1.9 करोड़ यूजर मोबाइल मनी सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं. केन्या में मोबाइल मनी सेवाओं के जरिए उपयोगी बिलों का भुगतान, स्कूल फीस भरने, स्टोर पर खरीदारी करने, एमटिकटिंग, फोन टौपअप्स, एटीएम से नकदी निकालने आदि कार्य भी किए जाते हैं. सफारीकौम केन्या में मोबाइल मनी ‘एम पैसा सर्विस’ शुरू करने वाली पहली कंपनी है. करीब 5 साल पहले इस की शुरुआत हुई और फिलहाल एमपैसा के करीब 1.5 करोड़ ग्राहक हैं.

जेब में बचत बैंक

बैंक अपने ग्राहकों को मोबाइल बैंकिंग सेवा के लिए कई सारे विकल्प दे रहे हैं. आप अपने बैंक खाते को मोबाइल नंबर से जोड़ सकते हैं. इस के तहत, बैंक आप को 7 अंकों वाला एमएमआईडी (मोबाइल मनी आईडैंटिफायर) नंबर और मोबाइल पिन (एमपिन) देगा. एमपिन पासवर्ड की तरह इस्तेमाल होगा. इस के जरिए आप अपनी पूंजी को दूसरे खाते में ट्रांसफ र कर सकते हैं, जैसे कि अभी दूसरे खाते में राशि का ट्रांसफर नैटबैंकिंग या बैंक शाखा जा कर करते हैं. इस के अलावा, बैंक अपने मोबाइल एप्लीकेशन सौफ्टवेयर भी देते हैं जिसे आप बैंक को एसएमएस या बैंक जा कर अपने स्मार्टफोन पर डाउनलोड कर सकते हैं.

अब बैंकों ने अलगअलग नामों से अपनी मोबाइल बैंकिंग सेवा भी शुरू कर दी है. भारतीय स्टेट बैंक का एप्लीकेशन एसबीआई फ्रीडम, आईडीबीआई बैंक की गो मोबाइल, और आईसीआईसीआई बैंक का आईमोबाइल नाम से है. इसी तरह से दूसरे तमाम बैंकों की मोबाइल सर्विस के अलगअलग नाम हैं. ऐसे ग्राहक जो नैटबैंकिंग का इस्तेमाल लैपटौप या डैस्कटौप आदि के जरिए करते हैं, बैंक उन्हें मोबाइल बैंकिंग के लिए खुद ही पंजीकृत कर लेते हैं. यानी, ग्राहक अपने स्मार्टफोन पर इंटरनैट के जरिए बैंकिंग सेवाएं प्राप्त कर सकता है.

मोबाइल बैंकिंग को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुचाने के लिए बैंक मौजूदा ग्राहकों को चुनिंदा एटीएम के जरिए भी रजिस्ट्रेशन की सुविधा दे रहे हैं. इस के अलावा, ग्राहक बैंक की शाखा में जा कर अपने पहचानपत्र के साथ मोबाइल बैंकिंग के लिए रजिस्ट्रेशन भी करा सकते हैं. मोबाइल बैंकिंग का भी दायरा बढ़ा है. बिना बैंक गए और कोई लिखतपढ़त किए बगैर घर बैठे मोबाइल के जरिए बैंकिंग की सहूलियत ने इसे काफी तेजी से लोकप्रिय बनाया है.

सावधानी जरूरी

मोबाइल बैंकिंग के लोकप्रिय होने के साथ ही साथ इस के साथ कुछ जोखिम भी जुड़े हुए हैं. इन से थोड़ा सतर्क रह कर और कुछ सावधानियां बरत कर बचा जा सकता है. मोबाइल बैंकिंग करने वालों को इन का ध्यान रखना जरूरी होता है.

मोबाइल बैंकिंग ऐक्टिवेट कराने के बाद सब से पहले यह देखें कि आप के फोन का औटोलौक काम कर रहा है या नहीं. यदि यह ऐक्टिवेट नहीं है तो सब से पहले मोबाइल में औटोलौक को चालू करें, ताकि जब फ ोन यूज में नहीं होगा तो लौक अपनेआप लग जाएगा. लौक खोलने के लिए पासवर्ड ऐसा चुनें जिसे कै्रक कर पाना मुमकिन न हो. इस के लिए 8 या इस से ज्यादा कैरेक्टर वाले पासवर्ड में आप कैरेक्टर (अक्षर), न्यूमेरिकल्स (अंक) और स्पैशल कैरेक्टर्स को यूज कर स्ट्रौंग पासवर्ड तैयार कर सकते हैं.

टैक्स्ट मैसेज द्वारा बैंकिंग संबंधी कोई भी अहम या गोपनीय सूचना, मसलन अकाउंट नंबर, पासवर्ड, पैनकार्ड और जन्मतिथि आदि का खुलासा न करें. हैकर्स इन सूचनाओं का इस्तेमाल आप के बैंक अकाउंट को हैक करने में कर सकते हैं. मोबाइल बैंकिंग संबंधी धोखाधड़ी से बचने के लिए यह भी जरूरी है कि अपने मोबाइल को सिक्योरिटी सौफ्टवेयर से प्रोटैक्ट करें.

मोबाइल में कोई नया एप्लीकेशन, गेम, पिक्चर, म्यूजिक या वीडियो आदि डाउनलोड करते समय ध्यान रखें कि जहां से आप डाउनलोड कर रहे हैं, वह साइट भरोसेमंद हो. कई बार ऐसी फाइलों के जरिए अकसर आप का फोन हैकिंग का शिकार हो जाता है या उस में वायरस भी भेजा जा सकता है.

अपने स्मार्टफोन को वायरस से बचाए रखने के लिए जरूरी है कि जब आप ब्लूटूथ का इस्तेमाल न करें तो उसे स्विच औफ  कर दें. ब्लूटूथ औन रहने से हैकर्स को आप के मोबाइल तक पहुंचने का मौका मिल सकता है. मोबाइल को हैकिंग और वायरस से बचाए रखने के लिए लगातार फायरबौल व सैफ्टी सौफ्टवेयर को अपडेट करते रहना चाहिए.

मोबाइल फोन बनाने वाली या कुछ सौफ्टवेयर कंपनियां इन का समयसमय पर अपडेटड वर्जन मुहैया कराती रहती हैं, जिन्हें इंस्टौल करते रहना चाहिए. अपने मोबाइल ट्रांजैक्शन को सुरक्षित रखने के लिए रोजाना ब्राउजिंग हिस्ट्री को डिलीट करते रहने की आदत बना लेना अच्छा रहता है. यह आदत आप के लिए फायदेमंद ही रहेगी.

दलित नौजवान: शादी के दस्तूर और दर्द

जब भी देश में जातिगत जनगणना की बात छिड़ती है, तब सब से पहले उन लोगों का खयाल आता है, जो बहुजन समाज के हैं. देश की वह कमेरी आबादी, जो आज भी अपनी मरजी से शादी के जश्न का मजा नहीं ले पाती है. यह तबका इतना ज्यादा पिछड़ा और अंधविश्वास के जाल में उलझा हुआ है कि जो पंडेपुजारी और अगड़ी जमात के दबंग फरमान सुना देते हैं, वह इन के लिए पत्थर की लकीर हो जाता है.

यही वजह है कि इस बहुजन समाज के नौजवान अपनी शादी में घोड़ी पर नहीं बैठ पाते हैं, क्योंकि इस से अगड़े समाज की शान पर बट्टा जो लग जाता है. वे डीजे के म्यूजिक पर ठुमके नहीं लगा सकते, क्योंकि फिल्मी गानों पर अपने यार की शादी में खुशी जाहिर करना उन का हक नहीं है.

चूंकि एक साजिश के तहत इन लोगों को पढ़ाईलिखाई से दूर रखा जाता है, तो ये बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर होते हैं और फिर छोटेमोटे काम कर के एक साधारण सी जिंदगी गुजार देते हैं. वे अगर गलती से थोड़ाबहुत पढ़लिख भी गए, तो शादी के लायक साथी नहीं मिल पाता है. लड़कियों के लिए ज्यादा पढ़ाईलिखाई ही उन की दुश्मन बन जाती है. उन्हें अपने समाज में लायक लड़का नहीं मिलता और कहीं दूसरी तथाकथित बड़ी जाति के लड़के से ब्याह रचा लिया, तो उम्रभर डर के साए में जिंदगी गुजारने को मजबूर होना पड़ता है.

लड़कियों के लिए एक और समस्या होती है 18 साल से कम उम्र में ही शादी करा देना. तब तक वे न तन से और न ही मन से शादी की जिम्मेदारी निभाने के लायक हो पाती हैं. जो खुद कमजोर हो, वह क्या सेहतमंद बच्चे को जन्म दे पाएगी. नतीजतन, उन्हें बीमारियों से जूझना पड़ता है. कोढ़ पर खाज है शादी के वे दस्तूर, जो इतना धीरेधीरे बदल रहे हैं कि उम्मीद की किरण बड़ी हलकी नजर आ रही है.

उत्तर प्रदेश में रामदासपुर गांव की रहने वाली शिवानी की शादी तय हो रही थी. शिवानी ने 12वीं जमात पास कर ली थी. घर वालों का कहना था कि लड़का अच्छा है. उस की अपनी दुकान है, इसलिए आगे की पढ़ाई शिवानी ससुराल से भी कर सकती है.

शिवानी दलित जाति की थी. उस के लिए शादी के बाद पढ़ाई जारी रखना उतना आसान नहीं था, जितना अगड़ी जाति की लड़कियों के लिए रहता है. शिवानी ने पढ़ाई देर से शुरू की थी. वह बदले जमाने की लड़की थी. उस की अपनी सोच थी और उसे मातापिता का साथ मिला था, जो उस की बात सुनते थे, नहीं तो आमतौर पर लड़कियों से उन की इच्छा के बारे में पूछा ही नहीं जाता है.

शादी के रिवाजों में एक बदलाव यह भी था कि शिवानी की बरात आएगी. आमतौर पर दलित लड़कियों की शादी में पहले उलटा रिवाज था. लड़की को ले कर उस के घर वाले लड़के के घर जाते थे. इस को ‘पैपूंजी’ कहा जाता है.

सामंती व्यवस्था में यह नियम था कि जो काम अगड़ी जाति के करते थे, उन्हें करने का हक नीची जाति के लोगों को नहीं था. इन में से ही एक नियम यह भी था कि दलितों में लड़की की शादी में बरात नहीं आएगी.

‘बरात आने’ और ‘पैपूंजी जाने’ में शान का फर्क था. अगड़ी जाति के लोगों को यह पसंद नहीं था. अब कुछ सालों से यह व्यवस्था बदल चुकी है. अब दलित लड़की की भी बरात आने लगी है. इस के बावजूद अभी भी कई जगहों पर यह विवाद हो जाता है कि दलित समाज का दूल्हा घोड़ी चढ़ कर कैसे आया? छिटपुट रूप से ऐसे विवाद होते रहते हैं. इस की वजह यही है कि पहले दलित लड़कियों की बरात नहीं आती थी, बल्कि ‘पैपूंजी’ जाती थी.

यह बदलाव अगड़ी जाति के लोगों को जहां पसंद नहीं आता है, वहां विवाद हो जाते हैं. वैसे, बड़े लैवल पर अब माहौल बदल चुका है. अब गांव में भी दलित लड़कियों की बरात आने लगी है. न केवल बरात आती है, बल्कि पूरी धूमधाम से आती है. परिवार की जैसी माली हालत होती है, वैसा इंतजाम होता है.

बदल रहे हैं रीतिरिवाज

राजस्थान में ऊंची जाति की लड़कियां आमतौर पर अपनी शादी में घोड़ी पर बैठती हैं. उन के परिवार ऐसा कर के ‘बेटा और बेटी एकसमान’ का संदेश देना चाहते हैं. अब दलित लड़कियां भी घोड़ी पर बैठने का रिवाज करने लगी हैं. इस के खिलाफ उन के समाज के भीतर से ही विरोध के स्वर उठने लगते हैं.

राजस्थान की एक प्रथा है बिंदोली. इस में शादी से एक दिन पहले लड़की को घोड़ी पर बैठा कर पूजा करने के लिए ले जाया जाता है.

घोड़ा हमेशा से आन, बान और शान, गौरव, शौर्य और सामंतवाद का प्रतीक है. दूल्हा पहले बग्गी पर जाता था. हाथीघोड़े की सवारी स्टेटस को भी दिखाता है. अब शाही बग्गियां खत्म सी हो गई हैं, क्योंकि उन की साजसज्जा और रखरखाव मुश्किल होता है. तो फिर हम घोड़ी पर बरात निकालने पर आ गए.

पिछले कुछ सालों से दलितों ने भी बिंदोली प्रथा निभानी शुरू कर दी है, जिस का खुद दलितों में विरोध होने लगा है. केवल राजस्थान ही नहीं, बल्कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के इलाकों में इस तरह के तमाम उदाहरण मिल जाते हैं.

राजस्थान में बाड़मेर जिले के मेली गांव में कुछ ऐसा ही हुआ. 2 दलित बहनों को घोड़ी पर बैठा कर बिंदोली की रस्म निभाई गई. शादी के 2 महीनेके बाद ही घोड़ी पर बैठने का विवाद बढ़ने लगा. दरअसल, बिंदोली नाम की रस्म शादी के एक दिन पहले निभाई जाती है. इस में लड़कियां अपनी कुलदेवी के पूजन के लिए जाती हैं.

दलित लड़कियां दोहरे शोषण से गुजरती हैं. बाहर जाति की वजह से सताई जाती हैं और घरपरिवार और समाज में पितृसत्तात्मक सोच से सताई जाती हैं.

बाड़मेर में सिवानाकल्याणपुर सड़क पर बसा है मेली गांव. तकरीबन 4,000 आबादी वाले इस गांव में कोई 300 परिवार दलित मेघवाल समाज के हैं. इस गांव में पहली बार शादी से पहले लड़कियों को घोड़ी पर बैठाया गया.

इन बहनों की शादी के तकरीबन2 महीने बाद मेघवाल समाज के 12 गांवों के पंचों की पंचायत हुई. दोनों बहनों को घोड़ी पर बैठाने के लिए परिवार पर 50,000 रुपए का जुर्माना लगाया गया. पैसा न देने पर उन्हें समाज से बाहर कर दिया गया.

पैसे से बदले हालात

जैसेजैसे गांवों में पढ़ाईलिखाई का प्रचारप्रसार हुआ और दलित तबके में पैसा आया, वैसेवैसे हालात बदलते दिखे. दलितों में अच्छी और पढ़ीलिखी लड़कियों की कमी है. ऐसे में कई बार पढ़ीलिखी लड़की के लिए अमीर घरों से अच्छे रिश्ते आ जाते हैं. वे भी चाहते हैं कि शादी नए रंगढंग में हो. अगर लड़की वाले गरीब हैं, तो लड़के वाले शादी के आयोजन में मदद भी कर देते हैं. उत्तर प्रदेश में सीतापुर के रहने वाले रमेश कुमार की नौकरी लग गई थी.

उसे शादी के लिए कविता नामक जो लड़की पसंद थी, वह अपनी जाति की थी, पर गरीब थी. ऐसे में रमेश और उस के परिवार ने पैसे से मदद कर के शादी कराई. दलित लड़कियों की शादी में अब पुराने रीतिरिवाज बदलने लगे हैं. अब उन की शादियां भी ऊंची जाति की लड़कियों जैसी होती हैं. गांव में भी बरात, बैंडबाजा, मेहंदी, जयमाल और फेरे का रिवाज बढ़ गया है. अब न्योते के लिए कार्ड बंटने लगे हैं. डीजे पर डांस और बढि़या दावत होने लगी है. शादी में दुलहन ही नहीं, बल्कि उस के परिवार का पहनावा भी बदलने लगा है. कपड़े सस्ते भले हों, पर फैशन के मुताबिक होने लगे हैं. पर इस बदलाव की रफ्तार बड़ी धीमी है.

पढ़ीलिखी गरीब लड़कियों में अपनी ही जाति में काबिल लड़के कम मिलते हैं, जिस की वजह से वे गैरबिरादरी में शादियां करने लगी हैं. कुछ मामलों में अभी भी गैरबिरादरी में शादी करने पर जातीय पंचायतों या खाप पंचायतों का रोल देखने को मिलता है.

पढ़ाई- लिखाई से बदली सोच

दलित लड़कियों में पढ़ाईलिखाई और शादी दोनों ही बदलाव दिखा रहे हैं. ये दोनों ही मुद्दे एकदूसरे से जुड़े हैं. दलितों में पैठी पुरानी सोच से लड़कियों की पढ़ाई और शादी दोनों का टकराव होने लगा है. दलितों में भी पितृसत्तात्मक सोच हावी है. वहां के मर्द किसी भी तरह से लड़कियों को पढ़ाईलिखाई और शादी में आजादी नहीं देना चाहते हैं.

दलितों में ज्यादा गरीबी होने के चलते लड़कियां पढ़ने में पिछड़ जाती हैं. ज्यादातर दलित परिवार अपनी रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतें पूरी करने में ही परेशान रहते हैं. इस का सीधा दबाव लड़कियों पर पड़ता है.

लड़कियों के पास बाहर जा कर पढ़ाई करने का कोई औप्शन नहीं होता, जिस के चलते उन्हें घर में ही रह कर सारा काम संभालना होता है. इस के बाद बहुत ही कम लड़कियां आगे बढ़ पाती हैं.

गांव में टीचरों की तादाद में कमी और खराब माहौल के चलते लड़कियों में पढ़ाई को ले कर कोई खास जोश नहीं होता. साथ ही, घर में रोजमर्रा के काम के दबाव के चलते लड़कियां पढ़ाई पर कम ध्यान दे पाती हैं.

घरपरिवार की सोच यह होती है कि लड़की के लिए घर में रह कर काम करना ही सही है, बाहर जाएगी तो दस लोगों से मिलेगीजुलेगी, घर में क्लेश होगा और अगर कुछ उलटासीधा हो गया, तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.

शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पहली से 12वीं जमात तक के दाखिले में दलित लड़कियों की तादाद ज्यादा होती है, पर ऊंची तालीम में वे पीछे हो जाती हैं. ऊंची तालीम हासिल करने वालों का राष्ट्रीय औसत तकरीबन 24.3 फीसदी है, जबकि दलितों में यह औसत 19.1 फीसदी है.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में पढ़ाईलिखाई के क्षेत्र में पुरुषों की साक्षरता दर 83.5 फीसदी रही और महिलाओं की साक्षरता दर 68.2 फीसदी रही, लेकिन अनुसूचित जाति में महिलाओं की साक्षरता दर केवल 56.5 फीसदी ही रही, वहीं अनुसूचित जनजाति में महिलाओं की साक्षरता दर 49.4 फीसदी रही.

तादाद में कम ही सही, पर अब हालात बदल रहे हैं. दलित लड़कियां भी सरकारी एग्जाम की तैयारी करने लगी हैं. कुछ लड़कियां तो गांव से शहरों में जा कर कोचिंग भी करने लगी हैं. कई लड़कियां तो बड़े शहरी स्कूलों में पढ़ने भी लगी हैं.

जिन दलित परिवारों में रिजर्वेशन के तहत सरकारी नौकरी मिलने या राजनीति में आने के बाद पैसा आ गया है, उन की लड़कियों को ऊंची जाति के लोगों जैसे मौके मिलने लगे हैं. इस तरह की लड़कियां समाज के बाहर दूसरी जाति के लड़कों से भी शादी कर लेती हैं. ज्यादातर मामलों में परिवार इन की बात मान लेते हैं.

दूसरी जाति में शादी करने वाली ज्यादातर लड़कियां अपने शहर या गांव से दूर चली जाती हैं. वे अपनी पहचान भी छिपा लेती हैं. जिस जाति का

पति होता है, उसी जाति की वे भी हो जाती हैं.

गैरबिरादरी में शादी करने वाली ज्यादातर दलित लड़कियां अतिपिछड़े वर्ग में शादी करती हैं. इस के बाद पिछड़े और मुसलिम समाज में ऐसे ब्याह ज्यादा होते हैं.

कमजोर लड़कियां हैं परेशान

गांव में रहने वाली गरीब दलित परिवारों में लड़कियां शादी कर के अपना घरपरिवार संभाल रही हैं. ज्यादातर लड़कियों की शादी कम उम्र में ही हो जाती है. इस की सब से बड़ी वजह दलित परिवारों में पुरानी सोच का होना है.

लड़कियों के साथ हिंसक बरताव, सैक्स से जुड़ी हिंसा, जातिगत हिंसा और अलगअलग तरह के शोषण होना कोई नई बात नहीं है. उन्हें सताने वालों में अपनी ही जाति और परिवार के लोग भी शामिल होते है. इन में से बहुत कम ही मामले सामने आते हैं.

आमतौर पर लड़कियों और औरतों को डराधमका कर चुप करा दिया जाता है. ऐसी लड़कियां जब गैरबिरादरी में शादी करती हैं, तो उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

उत्तर प्रदेश के इटावा सिविल लाइंस के विजयपुरा गांव की रहने वाली डिंपल का उन्नाव जिले में रहने वाले ऊंची जाति के दिवाकर शुक्ला से प्रेम हो गया.

दिवाकर ब्राह्मण जाति से ताल्लुक रखता था. ऐसे में दलित जाति की डिंपल से उस का प्रेम घर वालों को पसंद नहीं था. इस के बाद भी जब उन दोनों ने शादी कर ली, तो दिवाकर शुक्ला के घर वालों ने बेटे और बहू को घर से ही निकाल दिया.

घर में इज्जत न मिलने पर उस जोड़े ने पुलिस की मदद ली. महिला थानाध्यक्ष सुभद्रा वर्मा ने उन दोनों के परिवार वालों को बुलाया और समझाया. थानाध्यक्ष की बात उन्होंने मान ली और फिर महिला थाने के अंदर डिंपल और दिवाकर की हिंदू रीतिरिवाज के साथ शादी करा दी गई.

इंटरकास्ट शादी में सरकारी मदद

इंटरकास्ट शादी को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा एक योजना चलाई जाती है. इस योजना का नाम डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन है. इस सरकारी योजना के तहत नए शादीशुदा जोड़े को सरकार द्वारा पैसे की मदद दी जाती है, जिस से उन की माली हालत में बदलाव के साथसाथ सामाजिक सोच बदलने में भी मदद मिलती है.

डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन की इस योजना के तहत जो लोग इंटरकास्ट शादी करते हैं, उन्हें यह माली मदद दी जाती है. इस योजना को डाक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर रखा गया है.

डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन योजना का फायदा लेने के लिए जरूरी है कि लड़की की उम्र कम से कम 18 साल और लड़के की उम्र कम से कम

21 साल हो. इस के साथ ही इन में से कोई एक दलित समुदाय से हो और दूसरा दलित समुदाय से बाहर का होना चाहिए.

इस के साथ ही लड़कालड़की ने अपनी शादी हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 के तहत रजिस्टर की हो. अगर दोनों दलित समुदाय के हैं या दोनों ही दलित समुदाय के नहीं हैं, तो उन्हें फायदा नहीं मिल सकता है.

इस योजना का फायदा केवल वे जोड़े उठा सकते हैं, जिन्होंने पहली शादी की है. पत्नी या पति में से किसी की भी दूसरी शादी होने पर आप इस योजना का फायदा नहीं उठा सकते हैं.

अपनी शादी रजिस्टर करवा कर नएनवेले जोड़े को मैरिज सर्टिफिकेट जमा करना होगा. इस के बाद ही वह जोड़ा डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन के लिए अर्जी दे सकता है. इस योजना का फायदा शादी के एक साल के भीतर ही लिया जा सकता है.

अंधविश्वास : बाबाओं का जंजाल, कैसे कटेगा जाल

19 सितंबर, 2015 को जनता की जागरूकता के चलते जयपुर के प्रताप नगर की हल्दीघाटी कालोनी में रहने वाली गरिमा का 9 महीने का बेटा मयंक एक ओझा की काली करतूत का शिकार होने से समय रहते बचा लिया गया.

मयंक का अपहरण उसी की सगी बूआ सावित्री ने किया था, जो बेऔलाद थी. वह एक ओझा से अपना इलाज करा रही थी.

यह महज एक घटना नहीं है. साल 2014 में शीतल का केस अजमेर से जयपुर आया था. वह दिमागी तौर पर बीमार थी. उस समय इलाज अजमेर में ही ‘दरगाह मुर्रान वाले बाबा’ कर रहे थे. शीतल घर पर अजीबो गरीब हरकतें करती थी, मगर जैसे ही बाबा के पास जाती थी, ठीक हो जाती थी.

शीतल के माता पिता बाबा से इलाज तो करा रहे थे, पर सिलसिला बढ़ता देख कर जयपुर भागे. जब शीतल को काउंसलर के सामने बैठाया गया, तो ‘हकीकतेइश्क’ बयान हो गया.

‘दरगाह मुर्रान वाले बाबा’ जवान थे और शीतल उन के प्यार में फंस चुकी थी, पर घर  वालों को कैसे बताए, इसलिए भूतों का सहारा लिया गया. शीतल को यह कौन समझाए कि उस बाबा के चक्कर में न जाने कितनी लड़कियां खुद को बरबाद कर चुकी होंगी.

एक और मामला जयपुर के गंवई इलाके के थाने चाकसू का है. एक दिन कविता के पेट में दर्द उठा, तो पिता झाड़ा लगवाने एक बाबा के पास ले गए.

15-16 साल की कविता पर बाबा मेहरबान हो गए और पिता की कमजोरी पकड़ी ‘शराब’. अब बाबा पिता को शराब और बेटी को झाड़ा लगाने घर पहुंचने लगे. मां ने बाबा की नीयत भांपी और थाने में मामला दर्ज करा कर उसे गिरफ्तार कराया. ये तीनों मामले मीडिया, थाना और जनता के सामने अपराध के रूप में उभर कर आए, पर दिलचस्प बात तो यह है कि हर चार कदम की दूरी पर ऐसे अपराध हो रहे हैं.

साधुओं के झांसे में धार्मिक आस्था में जकड़े परिवारों की छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से आ जाती हैं. इन तांत्रिकों का नैटवर्क इतना तगड़ा होता है कि हर कदम पर इन के दूत हैं. ये चौकन्ने ‘दूत’ ही शिकार की कमजोरियां पकड़ते हैं. हर दो कदम पर इस तरह की दुकान चलती है. जयपुर के टोंक रोड के आसपास महज 4-5 किलोमीटर के दायरे में ऐसी 20 जगहें हैं, जहां सुबह सुबह भूत उतारने का काम होता है.

मेहंदीपुर बालाजी में तो अंधविश्वास का ऐसा तांडव देखने को मिलता है कि आम आदमी की रूह कांप जाए. भूतों के इलाज का ऐसा फलता फूलता कारोबार शायद ही कहीं और देखने को मिले. यहां धूप अगरबत्ती के धुएं में घुटते लोग न जाने कितने दिनों से बिना नहाए, बिना खाए घूमते रहते हैं.

किसी को रस्सी से बांध कर रखा गया है, तो किसी को जंजीर से. किसी को उलटा लटका दिया गया है, तो किसी को पेड़ से बांध दिया गया है.

माना जाता है कि मरीज को किसी भी तरह की चोट पहुंचाना ऊपर वाले का प्रसाद है. यहां पर किसी तरह का मानवाधिकार लागू नहीं होता. यहां कोई स्वयंसेवी संस्था भी नजर नहीं आती. यहां पुलिस प्रशासन का जोर नहीं चलता है, क्योंकि सबकुछ धर्म की आड़ में जो होता है.

एक मामला यह भी

‘‘बता तू कौन है, वरना तुझे जला कर भस्म कर दूंगा?’’ मंदिर के पुजारी व बाबा रामकेश ने सुनीता की चोटी पकड़ कर जब उस से पूछा, तो वह दर्द के मारे चीख पड़ी, ‘‘बाबा, मुझे छोड़ दो.’’

सुनीता को दर्द से कराहते देख कर भी बाबा को उस पर जरा भी तरस नहीं आया. वह उसे सोटा मारने लगा, तो वह दर्द से चीखती हुई वहीं औंधे मुंह गिर पड़ी.

उसे गिरता देख बाबा ने उस पर पानी के दोचार छींटे मारे, फिर भी जब वह नहीं उठी, तो बाबा घबरा गया. उस ने अपनी जान बचाने के लिए लोगों से कहा, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं, कुछ देर बाद इसे होश आ जाएगा…’’

‘‘अभी आता हूं,’’ कह कर बाबा जो गया, तो लौट कर आया ही नहीं. इधर सुनीता को काफी देर बाद भी होश नहीं आया, तो उसे डाक्टर के पास ले जाया गया. डाक्टर ने सुनीता की नब्ज टटोली, तो पता चला कि वह मर चुकी थी.

सुनीता की मौत की सूचना मिलने पर पुलिस ने लाश का पंचनामा तैयार कर पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया.

पुलिस ने सुनीता के भाई की शिकायत पर आरोपी बाबा के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज तो कर लिया, लेकिन भूत भगाने वाला वह पाखंडी बाबा आज भी पुलिस की पकड़ से कोसों दूर है.

एक घटना राजस्थान के पोखरण इलाके की है. पिछले दिनों बिमला के घर वाले उसे ऐसे ही झाड़फूंक वाले बाबा के पास ले गए. बिमला की कहानी भी सुनीता से काफी मिलती जुलती है.

22 साला बिमला की शादी रमेश के साथ हुई थी. शादी के 5 साल बीत जाने के बाद भी जब उसे बच्चा नहीं हुआ, तो उस की सास उसे बाबा के पास ले गई.

बाबा ने बिमला की सास से कहा, ‘‘इसे किसी ने कुछ कर दिया है. इस का अमावस की काली रात में इलाज करना पड़ेगा.’’

औलाद की चाह में बिमला की सास जब अमावस की रात में उसे बाबा के पास ले आई, तो उस ने बिमला की सास को प्रसाद खिला कर बेहोश कर दिया और बिमला के साथ बलात्कार किया.

बेसुध बिमला को जब होश आया, तो अपनेआप को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. ऐसी तमाम औरतें अपनी कोख न भर पाने के चलते ऐसे पाखंडी बाबाओं के चक्कर में पड़ जाती हैं.

भूत भगाने के नाम पर फैले पाखंड का शिकार हर धर्म व मजहब का इन्सान होता है. समीना बताती है कि उस की अम्मी उसे एक ऐसे बाबा के पास ले गईं, जिस ने उस के साथ पूरे 6 महीने तक बलात्कार किया. वह चाह कर भी उस का विरोध नहीं कर सकी, क्योंकि बाबा ने उस के पूरे परिवार को अपने वश में कर रखा था.

एक दिन उसे ‘अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति’ के कुछ सदस्य मिले. उस ने उन्हें अपनी आपबीती सुनाई. ‘अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति’ के लोगों ने बाबा का भांड़ा ही नहीं फोड़ा, बल्कि बाबा के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा कर उसे जेल की हवा भी खिलाई.

ड्रग्स ऐंड मैजिक ऐक्ट के तहत ऐसे पाखंडी बाबाओं के खिलाफ पुलिस कार्यवाही भी करती है. चाकसू में एक थानाधिकारी रोहिताश देवंदा कहते हैं, ‘‘कानून में ऐसे ठगों के खिलाफ कठोर दंड का प्रावधान है, पर शिकायतकर्ता को अपने बयान पर टिके रहना चाहिए.’’

महिला उत्थान से जुड़ी एक संस्था की संचालिका कविता कहती हैं, ‘‘औरतों को बाबा और ओझा के चक्कर में पड़ने के बजाय डाक्टरों का सहारा लेना चाहिए.’’

कविता ने एक ऐसी ही घटना के बारे में बताया, ‘‘कोटा जैसे शहर में मीरा नाम की एक औरत भी किसी भूत भगाने वाले बाबा के चक्कर में फंस गई थी. उसे मिर्गी के दौरे पड़ते थे, लेकिन परिवार के लोग उसे प्रेत का साया बता कर उस का इलाज बाबाओं से कराते चले आ रहे थे.’’

पिछले कई सालों से कोटा में जगन्नाथ साइंस सैंटर भूतप्रेत के नाम पर होने वाले पाखंडों का पर्दाफाश करता चला आ रहा है.

इस साइंस सैंटर के सदस्य दूरदराज के गांवों में जा कर इस तरह के अंधविश्वास को वैज्ञानिक आधार पर चुनौती दे कर बाबा और ओझा जैसे लोगों की पोल खोल कार्यक्रम जारी रखे हुए हैं.

डाक्टरों और काउंसलरों का मानना है कि आज हर कोई दुखी है. किसी को बच्चे की कमी, तो किसी को कारोबार में घाटा. कोई इश्क में फंसा है, तो कोई घर में ही अनदेखी का शिकार है, पर दिमागी बीमारी में खासतौर पर 2 वजहें सामने आती हैं. पहली, सैक्स से जुड़ी और दूसरी, अपनों द्वारा अनदेखी.

पहली वजह में कई बातें हो सकती हैं, जैसे पति से खुल कर बात न कर पाना. इस में गैरकुदरती सैक्स करना भी शामिल है.

जाने माने डाक्टर शिव गौतम के मुताबिक, पाली जिले के एक गांव से एक केस उन के पास आया. मैडिकल जांच से पता चला कि पति के करीब आते ही सुधा पर भूत आ जाता था. 70 फीसदी पागलपन की शुरुआत कुछ उन्हीं वजहों से होती है. गंवई माहौल और परिवार की इज्जत के चलते औरतें आखिर अपना बचाव कैसे करें?

वहीं दूसरी तरफ ज्यादातर गंवई औरतें सैक्स के दौरान पति से पूरा सुख न मिलने की वजह से धीरे धीरे बीमार हो जाती हैं, क्योंकि आज भी भारत के कई इलाकों में पति पत्नी सैक्स को ले कर खुल कर शायद ही बात करते हों. इसी तरह की कमजोरी का फायदा तथाकथित तांत्रिक उठाते हैं.

राजस्थान महिला आयोग की अध्यक्ष मयंक सुमन शर्मा के मुताबिक, भूत भगाने के नाम पर बाबाओं के गोरखधंधे को बंद किया जा सकता है. अगर राजस्थान सरकार दूरदराज के गांवों में ‘अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति’ जैसे संगठनों के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को उन तक पहुंचाए. पर इन अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति वालों के दूतों के भगवाई दुश्मन हैं, जो सत्ता में अपनी पहुंच के चलते धर्म के इस धंधे को बंद नहीं होने देना चाहते हैं.

स्मार्टफोन और लैपटौप यूजर्स की कौमन बीमारियां

स्मार्टफोन और लैपटौप की अब आदत सी हो गई है, लेकिन क्या आप को पता है कि रात को सोने से कम से कम एक घंटा पहले मोबाइल को अपने से दूर कर देना चाहिए, अन्यथा हैल्थ से जुड़ी कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है? यूसीएलए स्कूल औफ मैडिसिन के डाक्टर डैन सीगल के अनुसार, ‘‘रात में स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने से नींद से जुड़ी कई बीमारियां घेर लेती हैं. गैजेट्स का इस्तेमाल हमारे काम को आसान बनाने के लिए किया जाता है, लेकिन अगर आप इन्हें जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करते हैं तो कई बीमारियां भी हो सकती हैं.’’

जानिए, गैजेट्स से होने वाली बीमारियों और उन से बचने के तरीकों के बारे में :

कंप्यूटर विजन सिंड्रोम

 हमारी आंखों की बनावट ऐसी नहीं है कि हम किसी भी एक पौइंट पर घंटों देखते रहें और आंखों को कोई नुकसान न पहुंचे. घंटों कंप्यूटर स्क्रीन पर देखते रहने से कंप्यूटर विजन सिंड्रोम हो सकता है. इस में आंखों में थकान, इचिंग, रैडनैस और धुंधला दिखाई देने की समस्या हो सकती है.

क्या करें

आप चाहे स्मार्टफोन, कंप्यूटर, टैबलेट या अन्य किसी भी गैजेट का इस्तेमाल कर रहे हों, उस की डिस्प्ले सैटिंग्स बदलिए. अगर कंप्यूटर में ब्राइटनैस, शार्पनैस या कलर बढ़े हुए हैं तो कम कीजिए. ज्यादा ब्राइट या शार्प स्क्रीन से आंखों पर ज्यादा प्रैशर पड़ता है.

इस के अलावा अगर गैजेट में टैक्स्ट का फौंट साइज बहुत छोटा है तो यूजर्स को लंबे डौक्युमैंट्स पढ़ने में परेशानी होगी. इसलिए अपने गैजेट की डिस्प्ले सैटिंग्स को ऐसे सैट करें कि आंखों को नुकसान कम हो. अगर गैजेट की स्क्रीन एचडी है तो 45% कलर और ब्राइटनैस से भी अच्छी डिस्प्ले क्वालिटी आएगी और आंखों को नुकसान कम होगा.

इन्सोम्निया

गैजेट्स का ज्यादा इस्तेमाल करने में जो सब से अहम बीमारी हो सकती है वह है इन्सोम्निया यानी अनिद्रा. अगर आप जरूरत से ज्यादा गैजेट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं तो यह आप के लिए इन्सोम्निया की पहली कड़ी साबित हो सकता है.

क्या करें

 20-20-20 का रूल ध्यान में रखें. अगर आप स्मार्टफोन, टैबलेट या कंप्यूटर का नियमित इस्तेमाल कर रहे हैं तो ध्यान रखें कि आप ने हर 20 मिनट में आप के 20 फुट दूर रखी किसी वस्तु को 20 सैकंड तक देखना है. यह एक ट्रिक है जो आंखों की ऐक्सरसाइज का काम करती है. इस से यूजर्स की आंखों को आराम मिलता है और उन की ऐक्सरसाइज भी हो जाती है.

अगर आप को काम में समय का ध्यान नहीं रहता तो विंडोज से लिए ब्रेकटैक या एप्पल मैक के लिए टाइम आउट प्रोग्राम का इस्तेमाल कर सकते हैं.

टैक्स्चर नैक

टैक्स्चर नैक सिंड्रोम उन लोगों को होता है जो स्मार्टफोन, लैपटौप और टैबलेट्स का इस्तेमाल करते समय गरदन नीचे की ओर झुका कर रखते हैं. अगर यह सिंड्रोम बढ़ गया है तो गरदन की मसल्स इसी पोजिशन को अडौप्ट कर लेंगी और गरदन सीधी करने में परेशानी होगी.

क्या करें

किसी भी गैजेट का इस्तेमाल करने से पहले यह ध्यान रखें कि उस की पोजिशन क्या है. अगर आप कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं तो मौनिटर कम से कम 20-30 इंच की दूरी पर रखें. अगर स्मार्टफोन या लैपटौप का इस्तेमाल कर रहे हैं तो गरदन झुकाने की जगह उस की पोजिशन ऐसी रखें जिस से आप की गरदन पर स्ट्रैस न पड़े. टैक्स्टिंग थोड़ी कम कर दें. गरदन पर स्ट्रैस सब से ज्यादा टैक्स्टिंग के कारण ही पड़ता है.

टोस्टेड स्किन सिंड्रोम

 आजकल लैपटौप पर ज्यादा काम करना आम बात हो गई है. अगर आप लैपटौप को जरूरत से ज्यादा अपनी गोद में रखते हैं तो इस से स्किन डिसऔर्डर हो सकता है. लैपटौप से हमेशा गरम हवा निकलती है. ज्यादा इस्तेमाल से स्किन सूख जाती है. अगर आप की स्किन सैंसिटिव है तो उस का कलर बदल जाएगा और खुजली भी हो सकती है.

क्या करें

लैपटौप का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं तो कूलिंग पैड जरूर ले लें. कूलिंग पैड लैपटौप से निकलने वाली गरमी को ठंडा करता है. बाजार में 200 रुपए से ले कर 1,500 रुपए तक के लैपटौप कूलिंग पैड और कूलिंग टेबल उपलब्ध हैं. अगर कूलिंग पैड नहीं है तो भी तकिए का इस्तेमाल करें या फिर लैपटौप को टेबल पर रख कर इस्तेमाल करें.

सुनने में प्रौब्लम

ईयरफोन का इस्तेमाल आप बहुत ज्यादा करते हैं तो सुनने में दिक्कत हो सकती है. यह आदत परमानैंटली आप के सुनने की क्षमता खराब कर सकती है.

क्या करें

हमेशा म्यूजिक सुनने या कान में हैडफोन लगाए रखने की आदत न पालें और वौल्यूम पर कंट्रोल रखें.

रैडिएशन इफैक्ट

मोबाइल फोन से ऐसा रैडिएशन नहीं आता कि आप को कैंसर हो जाए, लेकिन फिर भी यह हैल्थ से जुड़े कई मामलों में असर डालता है. यह मैंटल स्ट्रैस से ले कर इन्सोम्निया तक कई बीमारियों का कारण बन सकता है.

क्या करें

 फोन साथ में ले कर न सोएं. फोन को ज्यादा देर तक कान के पास न रखें. अगर लंबी बात करनी है तो हैडफोन का इस्तेमाल करें. अगर फोन में सिगनल कम हों तो उसे इस्तेमाल न करें.

स्ट्रैस

आरएसआई या रिपिटेटिव स्ट्रैस इंजरी ज्यादातर उन लोगों को होती है जो कंप्यूटर पर हर दिन घंटों काम करते हैं. इसी के साथ, जो लोग ज्यादा टैक्स्टिंग करते हैं वे भी इस बीमारी का शिकार हो सकते हैं. इस इंजरी में हाथों में निशान पड़ जाते हैं. ऐसा अकसर टाइपिंग के समय होता है. जब पंजों के नीचे निशान दिखने लगते हैं.

क्या करें

इस के लिए अपने डिवाइस में ‘वर्कपेस’ नामक सौफ्टवेयर इंस्टौल करें. यह बैकग्राउंड में काम करता है. यह आप को बताता रहेगा कि कितने समय में ब्रेक लेना है और कितनी बार अपना हाथ उठाना है. इस के अलावा, टाइपिंग करते समय सही पौस्चर का होना भी बहुत जरूरी है.

अंधविश्वास : डायन हत्या कब तक?

डायन बता कर महिलाओं की हत्या का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है. ऐसी घटनाएं अखबारों की सुर्खियां तो जरूर बनती हैं लेकिन बात आईगई हो जाती है. इस कुसंस्कारी प्रथा की आड़ में गंभीर अपराधों को अंजाम दिया जाता है. गांवदेहात या छोटे कसबों में रसूखदार, धनीमानी लोग ओझा, गुनीन, गुनिया, भोपा और तांत्रिकों के जरिए अनपढ़ व निरक्षर लोगों को उकसा कर महिलाओं पुरुषों को डायन, डाकन, डकनी, टोनही करार दे कर अपने स्वार्थ को साध लेते हैं.

ऐसा नहीं है कि डायन होने का आरोप केवल महिलाओं पर लगाया जाता है, कहीं कहीं पुरुषों को भी इसी आरोप में प्रताडि़त किया जाता है. कुछ महीने पहले मेघालय के एक गांव में जब 4 लड़कियां एक अनजाने किस्म की बीमारी की चपेट में आ गईं और डाक्टर के इलाज का कोई फायदा नजर नहीं आया तो शामत आ गई गांव के एक बुजुर्ग पर. उस बुजुर्ग को बीमारी के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और उसे पाखाना खाने को मजबूर किया गया. विडंबना यह है कि पाखाना खिलाने का फैसला गांव की पंचायत में लिया गया था. इस के बाद दावा किया गया कि बुजुर्ग के पाखाना खाने के बाद ही चारों लड़कियों की सेहत में सुधार होना शुरू हुआ.

पश्चिम बंगाल के मालदा, दिनाजपुर, बीरभूम, बांकुड़ा, पुरुलिया और बंगलादेश की सीमा से सटे पश्चिम सिंहभूम व छोटानागपुर में डायन बता कर हत्या की घटनाएं आएदिन घटती रहती हैं. देखने में आया है कि डायन हत्या के पीछे केवल अंधविश्वास नहीं होता, बल्कि ज्यादातर मामलों के पीछे संपत्ति विवाद, जातिगत द्वेष या फिर राजनीतिक उद्देश्य होता है.

दरअसल, डायन की हवा फैला कर निहित स्वार्थ वाले तत्त्व अपना उल्लू सीधा कर जाते हैं. आदिवासी समाज में डायन हत्या पर लंबे समय से शोध कर रहे सुतीर्थ चक्रवर्ती का कहना है, ‘‘ऐसी हत्याओं की पुलिस फाइल बेशक तैयार होती है, जांच होती है और मामला अदालत तक भी पहुंचता है, लेकिन जितनी घटनाओं की पुलिस फाइल तैयार होती है, उन से कहीं ज्यादा तादाद में इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है और इन सब के पीछे कोई न कोई स्वार्थ होता है. जाहिर है पुलिस फाइल में जगह बनने से पहले ही ज्यादातर मामलों को दबा दिया जाता है.’’

दरअसल, आदिवासी बहुल क्षेत्र के दूरदराज के गांवों में फैली गरीबी, अशिक्षा और इन के बीच फैले कुसंस्कार का फायदा उठा कर निहित स्वार्थ वाले तत्त्व अपना उल्लू सीधा करते हैं. डायन के संदेह में जितनी भी हत्याएं होती हैं, उन में से ज्यादातर मामलों में अकेली और निरीह ऐसी महिला की हत्या होती है जिस के पास जमीन, खेत या गाय होती है. उन की न केवल संपत्ति पर कब्जा करने के उद्देश्य से पूरे परिवार की हत्या कर दी जाती है, बल्कि कई मामलों में तो हत्या से पहले बलात्कार भी किया जाता है और कुछ मामलों में सिर मुंडा कर निर्वस्त्र कर महिला को पूरे गांव में घुमाया भी जाता है.

संथालों में डायन मान्यता

भारतीय समाज में डायन प्रथा की शुरुआत किस तरह हुई, इस का कोई प्रमाणित तथ्य नहीं है. बंगाल में आईपीएस अधिकारी के रूप में असित वरण चौधुरी लंबे समय तक आदिवासी क्षेत्र में कार्यरत रहे हैं. इस दौरान उन्होंने आदिवासी समाज, विशेष रूप से संथालों को बहुत करीब से देखा. वे बताते हैं, ‘‘संथालों में मान्यता है कि उम्र बढ़ने के साथ जीवन की असफलता के मद्देनजर मन में ईर्ष्या और लालच का भाव पैदा होता है. इस से कुछ महिलाएं अपने तमाम दुर्गुणों के साथ अपदेवताओं की अलौकिक कृपा से डायन में परिवर्तित हो जाती हैं. विरासत के तौर पर ये तमाम मान्यताएं पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी समाज में पोषित होती हैं.’’

डायनप्रथा को ले कर संथाल समुदाय के बीच एक कहानी बहुत प्रचलित है. इस कहानी का जिक्र असित वरण चौधुरी ने अपनी किताब ‘संथाल समाज में डायनप्रथा और वर्तमान संकट’ में किया है. उन का कहना है, ‘‘संथालों के समाज में पारिवारिक देवता को खुश करने के लिए मुर्गी की बलि चढ़ा कर प्रसाद के रूप में उस का मांस खाने का चलन बहुत पुराना है. लेकिन यह प्रसाद महिलाओं को खाने की मनाही है. एक संथाल परिवार की एक बच्ची ने चोरी छिपे अपने भाई और पिता के प्रसाद के जूठन से थोड़ा सा मांस खा लिया. इस के बाद बच्ची बीच बीच में मुर्गी का मांस खाने की जिद करने लगी.

‘‘अपनी जिद में वह न दिन देखती, न रात. आखिरकार यह जिद बाकायदा कुहराम में बदल गई. परिवार ने उस के इस कुहराम को देवता का बच्ची के शरीर में प्रवेश मान लिया. लेकिन रोज रोज के इस कुहराम से तंग आ कर बच्ची की मां आत्महत्या करने पर उतारू हो गई.

‘‘मान्यता है कि रात के अंधेरे में आत्महत्या के लिए गई मां के सामने देवता प्रकट होते हैं. देवता ने मां को अपने सोए हुए पति के नितंब का एक टुकड़ा बेटी को खिला कर खाने का निर्देश दिया और अंतर्धान हो गए. मां ने देवता के निर्देश का पालन किया. इस के बाद तो आए दिन देवता के आदेश निर्देश पर मां बेटी मांस उड़ाने लगीं. इस के बाद मां बेटी को आदिवासी समाज ने डायन करार दिया.’’

विदेशों में भी यह प्रथा

ग्रीस, रोम, जरमनी, इंगलैंड, अमेरिका और अफ्रीका में विच यानी डायनप्रथा रही है. इस के अलावा इटली, मिस्र, बेबीलोन, थाईलैंड में भी जादूटोना और डायन प्र्रथा का बोलबाला रहा है. पश्चिम में इस को विचक्राफ्ट का नाम दिया गया. ग्रीक लेखक डिमोस्थेनिस ने ऐथेंस में ईसा पूर्व 350 में थियोरिन लेमैंस नामक एक डायन का जिक्र किया था, जिसे जिंदा जला कर मार डाला गया था. लेकिन ग्रीस की सब से चर्चित डायन एरिकाहो रही है. रोमन कवि लुकान ने भी अपनी कविता में डायन का जिक्र किया है. यहां तक कि शेक्सपियर के मैकबेथ में डायन है.

16वीं से 17वीं सदी में जरमनी में डायन के नाम पर बहुत सारी हत्याएं की गई हैं. 16वीं सदी में अकाल के लिए डायनों को जिम्मेदार ठहराया गया था.

सुतीर्थ चक्रवर्ती का कहना है, ‘‘यह प्रथा, दरअसल, मानव समाज में सामंतवादी की देन है. इसीलिए औद्योगिक क्रांति के बाद जब सामंतवाद की जगह पूंजीवाद ने ले ली, तब पश्चिमी देशों में डायनप्रथा खत्म होने लगी.

कालाजादू की परंपरा

भारत, खासतौर से बंगाल, में काला जादू की परंपरा रही है. बंगाल के काला जादू की चर्चा पूरी दुनिया में है. बंग भंग से पहले पूर्वी बंगाल के मैमन सिंह, फरीदपुर, पावना और पश्चिम बंगाल में मेदिनीपुर, बीरभूम, बांकुड़ा, पुरुलिया, दिनाजपुर, मालदह के अलावा पूर्वोत्तर में असम के कामाख्या, गोयालपुर, कामरूप, दरंग, कोकड़ाझाड़ जिलों में डायन हत्या की वारदातें अकसर होती हैं. इस के अलावा मणिपुर, त्रिपुरा के साथ अंडमान निकोबार में भी काला जादू व डायनप्रथा है. लेकिन बंगालसके अलावा देश के विभिन्न राज्यों में आज भी डायन, भूतप्रेत, जादूटोने का चलन है.

मजे की बात यह है कि इस कुसंस्कार को बाकायदा विद्या का नाम दिया गया है. इस के कई नाम हैं. यह विद्या तंत्रविद्या, गुप्तविद्या या पिशाचविद्या के नाम से जानी जाती है. पिशाचविद्या में पारंगत होने के लिए बिलकुल सुनसान जगह में रात के अंधेरे में निर्वस्त्र हो कर तरह तरह की प्रक्रियाएं संपन्न की जाती हैं. इसलिए आमतौर पर विद्या में दीक्षित करने का काम श्मशान में होता है.

दरअसल, जिन चीजों से इंसान भय खाता है, उन तमाम चीजों का प्रयोग इस विद्या में किया जाता है. इस विद्या के साधक तांत्रिक और अघोड़ी श्मशान में अधजली लाश का मांस खाने से ले कर देशी विदेशी शराब तक पीते हैं. इस साधना में काली बिल्ली, खोपड़ी, हड्डियों का खूब इस्तेमाल होता है.

ओझा पर भरोसा

देश के कई राज्यों में केवल डायन का कुसंस्कार ही नहीं है, बल्कि ओझा या गुनीन से झाड़फूंक कराने का भी चलन है. देश के बहुत सारे इलाके ऐसे हैं, जहां डाक्टर नहीं हैं. बीमारी का समुचित इलाज नहीं हो पाता है. ऐसे में निरक्षर व देहाती लोग ओझा के फेर में पड़ ही जाते हैं. दूरदराज के गांवों के लोग सामान्य बुखार से ले कर हर तरह की बीमारी, यहां तक कि चोरी चकारी, बाढ़, अकाल, सूखा के लिए भी इन्हीं पर निर्भर हैं. दिलचस्प बात यह है कि ओझाओं का एक दूसरा नाम ज्ञानगुरु भी है.

इस के पीछे मान्यता यह है कि डायन लोगों को नुकसान पहुंचाती हैं, जबकि ओझा समाज का भला करता है.

गांवों में डायन की पहचान आमतौर पर यही ओझा ही करता है. ओझा पर लोगों के भरोसे का फायदा गांव के ताकतवर लोग बखूबी उठाते हैं. चूंकि ओझा की मदद से गांव वालों को शीशे में उतारना सहज हो जाता है, इसलिए ओझा को पैसों का लालच दे कर किसी को भी डायन करार दे दिया जाता है. दरअसल, गांव में आदिवासी महिला का यौनशोषण से ले कर उस की जमीन जायदाद हड़पने का काम होता है. यहां तक कि आपसी रंजिश के चलते हत्या करवाने के मकसद से डायन बता कर पूरे परिवार का भी सफाया कर दिया जाता है और फिर उन की संपत्ति हड़प ली जाती है.

सुतीर्थ चक्रवर्ती कहते हैं कि एक तरफ गांव के गैर आदिवासी धनी मानी या बड़े रसूखवाले आदिवासियों की जमीन हड़पने की ताक में रहते हैं, वहीं दूसरी ओर आदिवासी समाज में भी एक शोषक श्रेणी का उद्भव हुआ है जो गांव में अनजाने बुखार, अचानक हुई मौतों की ताक में रहते हैं. किसी कमजोर परिवार या अकेली महिला की जमीन जायदाद हड़पने की फिराक में उसे डायन बता कर निशाना साधते हैं.

गांव में हुई ऐसी मौतों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहरा कर गांव वालों की अशिक्षा और कुसंस्कार का फायदा उठा कर उन्हें भड़काया जाता है और फिर उन के गुस्से का फायदा उठा कर हत्या करवा दी जाती है.

समाज को शर्मसार करते आंकड़े

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 1991 से ले कर 2010 तक देशभर में लगभग 1,700 महिलाओं को डायन घोषित कर उन की हत्या कर दी गई थी. हालांकि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2001 से ले कर 2014 तक देश में 2,290 महिलाओं की हत्या डायन बता कर कर दी गई है. 2001 से 2014 तक डायन हत्या के मामलों में 464 हत्याओं में झारखंड अव्वल रहा तो ओडिशा 415 हत्याओं के साथ दूसरे स्थान पर है. वहीं 383 हत्याओं के साथ आंध्र प्रदेश तीसरे स्थान पर है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हर साल कम से कम 100 से ले कर 240 महिलाएं डायन बता कर मार दी जाती हैं. इन में ज्यादातर मामलों के पीछे संपत्ति विवाद होता है या फिर ऐसी हत्या के पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य साधा जाता है.

डायन बता कर सब से ज्यादा हत्याएं 2011 में हुईं. उस साल पूरे देश में कुल 240 हत्याएं हुईं. उस साल का रिकौर्ड बनाया ओडिशा ने, जहां 39 महिलाओं की हत्या डायन बता कर की गई. 36 हत्याओं के साथ दूसरे नंबर पर झारखंड रहा. 28 हत्याओं को अंजाम दे कर आंध्र प्रदेश ने तीसरा स्थान बनाया. 2007 में 177 हत्याओं में अकेले झारखंड में 50 हत्याएं हुईं. 2010 में पूरे देश में 178 महिलाओं को डायन बता कर मौत की नींद सुलाया गया. 2013 में एक बार फिर से झारखंड में 54 महिलाओं को डायन बता कर मार डाला गया. 2015 में झारखंड में 47 महिलाओं और 2016 के सितंबर तक 33 महिलाओं की डायन बता कर हत्या कर दी गई. कुल मिला कर 2001 से ले कर 2014 तक के राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उन के आधार पर कहा जा सकता है कि डायन हत्या के मामले में ओडिशा, झारखंड और आंध्र प्रदेश ने अपना नाम खराब किया है.

जहां तक हरियाणा का सवाल है, तो 2011 में 5 मामलों के बाद यह राज्य पिछले 3-4 सालों से डायन हत्या के मामले में नामजद नहीं हुआ है. वहीं, पूर्वोत्तर भारत में असम डायन हत्या के लिए बड़ा बदनाम रहा है. असम सरकार के आंकड़ों की मानें तो 2006 से ले कर 2012 तक 105 हत्याएं डायन के बहाने हो चुकी हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार, 1987 से ले कर 2003 तक 2,556 महिलाओं की हत्या डायन के शक पर कर दी गई है.

क्या कहता है कानून

अब अगर कानून की बात करें तो डायन हत्या का मामला गैरजमानती, संज्ञेय और समाधेय है. इस की सजा 3 साल से ले कर आजीवन कारावास या 5 लाख रुपए तक का जुर्माना या दोनों हो सकती है. किसी को डायन ठहराया जाना अपराध है और इस के लिए कम से 3 साल और अधिकतम 7 साल की सजा हो सकती है. वहीं, डायन बता कर किसी पर अत्याचार करने की सजा 5-10 साल तक की है. किसी को डायन बता कर बदनाम कर दिए जाने के कारण अगर कोई आत्महत्या कर लेता है तो आरोपी का जुर्म साबित होने पर 7 साल से ले कर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है. किसी को डायन बता कर उस के कपडे़ उतरवाने की सजा 5-10 साल की कैद तय की गई है. किसी बदनीयती से डायन करार दिए जाने की सजा 3-7 साल और डायन बता कर गांव से निष्कासित किए जाने की सजा 5-10 साल की तय की गई है.

बंगाल, महाराष्ट्र में अभी तक इस संबंध में कोई पुख्ता कानून नहीं है. अभी तक इन दोनों ही राज्यों में कानून का मसौदा ही तैयार हो रहा है. कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां डायन हत्या की रोकथाम के लिए विशेष कानून बनाया गया है. ऐसे राज्यों में राजस्थान, झारखंड,  छत्तीसगढ़ और असम के नाम आते हैं.

छत्तीसगढ़ में 2005 में टोनही प्रताड़ना निवारण अधिनियम बनाया गया, जिस के तहत डायन बताने वाले शख्स को 3 से ले कर 5 साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है. राजस्थान सरकार ने महिला अत्याचार रोकथाम और संरक्षण कानून 2011 में डायन हत्या के लिए अलग से धारा 4 को जोड़ा है. इस धारा के तहत किसी महिला को

डायन, डाकिन, डाकन, भूतनी बताने वाले को 3-7 साल की सजा और 5-20 हजार रुपए के जुर्माने को भरने का प्रावधान किया गया है.

अगस्त 2015 में असम विधानसभा ने डायन हत्या निवारक कानून पारित किया, क्योंकि इस राज्य में डायन हत्या एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रही थी. वहीं, बिहार में 1999 और झारखंड में 2001 में डायनप्रथा रोकथाम अधिनियम आया. खेद का विषय यह है कि देश में डायन हत्या का चलन अभी भी खत्म नहीं हुआ.

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