Family Story: दादी आप की तो मौज है – क्यों मिनी की बात से दादी हैरान रह गईं

Family Story, लेखिका- बिमला गुप्ता

एकदिन मिनी मेरे पास बैठ कर होमवर्क कर रही थी. अचानक कहने लगी, ‘‘दादी, आप को कितनी मौज है न?’’

‘‘क्यों किस बात की मौज है?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘आप को तो कोई काम नहीं करना पड़ता है न,’’ उस का उत्तर था.

‘‘क्यों? मैं तुम्हारे लिए मैगी बनाती हूं, सूप बनाती हूं, हरी चटनी बनाती हूं, तुम्हारा फोन चार्ज करती हूं. कितने काम तो करती हूं?’’

तुम्हें कौन सा काम करना पड़ता है?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘क्या बताऊं दादी… मु  झे तो बस काम

ही काम हैं?’’ उस ने बड़े ही दुखी स्वर में

उत्तर दिया.

‘‘क्या काम है, पता तो चले?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्लास अटैंड करो, होमवर्क करो, कभी टैस्ट की तैयारी करो, कभी कोई प्रोजैक्ट तैयार करो… दादी आप को पता है, बच्चों को कितने काम होते हैं,’’ वह धाराप्रवाह बोलती जा रही थी, जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘उस पर ये औनलाइन क्लासें. बस

लैपटौप के सामने बैठे रहो बुत बन कर. जरा सा

इधरउधर देखो तो मैम चिल्लाने लगती हैं. चिल्लाती भी इतनी जोर से हैं कि घर पर भी सब को पता चल जाता है, सोनम तुम ने होमवर्क क्यों नहीं किया?

‘‘राहुल तुम्हारी राइटिंग बहुत गंदी है.

महक तुम्हारा ध्यान किधर है? बस डांटती ही जाती हैं, आज मिनी पूरी तरह विद्रोह पर उतर आई थी. मैं चुपचाप उस की बातें सुन रही थी. फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘क्या स्कूल में मैम नहीं डांटती?’’ .

‘‘दादी, कैसी बात कर रही हो? वह भी डांटती हैं… मैडमों का तो काम ही डांटना है.’’

‘‘फिर?’’ मेरा प्रश्न था.

‘‘दादी, आप सम  झ नहीं रही हो?’’ उस ने बड़े भोलेपन से उत्तर दिया.

‘‘क्या नहीं सम  झ रही हूं? तू कुछ बताएगी तो पता चलेगा.’’

‘‘रुको, मैं आप को सम  झाती हूं. स्कूल में भी मैम डांटती हैं, पर हम लोगों को बुरा नहीं लगता है, ‘‘क्योंकि डांट तो सब को पड़ती है. इसलिए क्लास में सब बराबर होते हैं.

कभीकभी तो पनिशमैंट भी मिलता है, पर किसी को पता तो नहीं चलता? यहां तो अपने ही

फ्रैंड्स के पेरैंट्स तक को पता चल जाता है. सब के सामने इन्सल्ट हो जाती है न?’’ वह गंभीरतापूर्वक बोली.

‘‘हां बात तो तेरी ठीक है. हमें स्कूल में मैम से डांट पड़ी है… घर पर तो किसी को पता नहीं चलना चाहिए,’’ मैं ने मन ही मन मुसकराते हुए उस की बात का समर्थन किया.

समर्थन पा कर वह बहुत खुश हुई. शायद बचपन से ही हमारे मन में यह भावना घर कर जाती है कि हमारी गलतियों का किसी को पता नहीं चलना चाहिए.

अब वह पूरी तरह अपनी

रौ में आ चुकी थी. मु  झे अपना राजदान बनाते हुए बोली,

‘‘दादी, मैं आप को एक बहुत

ही मजेदार बात बताऊं? आप किसी को बताएंगी तो नहीं?’’

उस ने पूछा. वह आश्वस्त होना चाहती थी.

‘‘नहीं, मैं किसी को नहीं बताऊंगी. तू बेफिक्र हो कर बता.’’

मेरा उत्तर सुन कर वह बोली,

‘‘जब किसी बच्चे पर मैम

नाराज होती हैं, तो सारे बच्चे नीचे मुंह

कर के या मुंह पर हाथ रख कर हंसने

लगते हैं.’’

‘‘मैम नाराज नहीं होती.’’

‘‘मैम को पता ही नहीं चलता है.’’

‘‘और वह बच्चा?’’

‘‘बच्चों को क्या फर्क पड़ता है. रोज किसी न किसी पर मैम गुस्सा होती ही हैं.’’

यह सुन कर मु  झे हंसी आ गई. सच ही है, ‘हमाम में सब नंगे.’

‘‘एक और मजेदार बात बताऊं दादी?’’ अब वह बहुत खुश लग रही थी.

‘‘हांहां जरूर.’’

‘‘जब मैम ब्लैकबोर्ड पर लिखती हैं न तो क्लास की तरफ उनकी पीठ होती है तब हम लोग बहुत मस्ती करते हैं. कुछ लड़के तो अपनी सीट छोड़ कर उधम मचाने लगते हैं और जैसे ही मैम मुड़ती हैं सब अपनीअपनी सीट पर चुपचाप बैठ जाते हैं. मैम को कुछ पता ही नहीं चलता. हम लोग स्कूल में बहुत मजे करते हैं.

घर पर तो मैं बोर हो जाती हूं,’’ उस ने निराश हो कर कहा.

‘‘बस सारा दिन घर में बैठे रहो. इस कोरोना ने तो पागल कर दिया है.

‘‘उस पर सुबहसुबह जब अच्छी नींद आती है तो मम्मा जबरदस्ती उठा देती हैं. दोपहर को जब मु  झे नींद नहीं आती तो कहती हैं अब थोड़ी देर सो जाओ.’’

‘‘पहले भी तो ऐसा ही होता था,’’ मैं ने कहा.

‘‘दादी आप सम  झ नहीं रही हो. पहले मैं स्कूल जाती थी, इसलिए थक जाती थी. अब दिन में सो जाती हूं तो रात को नींद नहीं आती है, पर सुबहसुबह उठना पड़ता है न? और ये पापा बारबार कहते हैं बुक रीडिंग कर लो… मु  झे परेशान कर के रख दिया है सब ने,’’ उस ने दुखी स्वर में कहा. फिर कुछ देर कुछ सोचने के बाद मु  झ से पूछने लगी, ‘‘दादी, मैं कब बड़ी होऊंगी?’’

मिनी का प्रश्न सुन कर मैं हैरत से उस की ओर देखने लगी. मन सोच में डूब गया. अकसर बचपन में हम जल्दी बड़े होना चाहते हैं, पर बड़े होने पर दुनियादारी में फंस कर हमारी बचपन की निश्चिंतता, निश्छलता, भोलापन सब पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं. उम्र बढ़ने के साथ ही जिम्मेदारियों के बो  झ तले दबते ही चले जाते हैं.

धीरेधीरे जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए हम स्वयं शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाते हैं. दूसरों का बो  झ उठातेउठाते हम स्वयं सब पर बो  झ बन जाते हैं. फिर याद आती हैं उस उम्र की बातें जो लौट कर कभी नहीं आती है.

मगर मिनी को क्या पता है कि उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है… वह तो बस जल्दी से जल्दी उस उम्र में पहुंचना चाहती है.

Family Story: मधु बना विष – रश्मि के ससुराल में क्यों बहस छिड़ गई थी

Family Story: बचपन में होश संभालने के बाद पंकज ने बूआ के मुंह से यही सुना था कि ‘यह तुम्हारी मम्मी की तसवीर है. पहले वह तसवीर पंकज के पिता शिवानंद के कमरे में टंगी थी क्योंकि इस के साथ उन की कुछ यादें जुड़ी थीं. कभी चित्र की नायिका ने शिवानंद से कहा भी था, ‘अब तो मैं सशरीर यहां रहती हूं. तब मेरा इतना बड़ा चित्र क्यों लगा रखा है? अब तो मैं वधू भी नहीं रही, एक बच्चे की मां बन चुकी हूं.’

शिवानंद ने तब हंसते हुए कहा था, ‘क्या करूं मेरी आंखों में तुम्हारा वही रूप समाया हुआ है.’

‘हमेशा पहले जैसा तो नहीं रहेगा,’ रश्मि बोली, ‘अब तो रूप बदल गया है.’ ‘नहीं, रश्मि. हम बूढे़ हो जाएंगे तब भी तुम ऐसी ही याद आती रहोगी,’ शिवानंद भावुक हो कर बोले, ‘पहली झलक यही तो देखी थी.’

यह सच था कि विवाह से पहले शिवानंद और रश्मि ने एक दूसरे को देखा नहीं था. रश्मि को परिवार के दूसरे लोगों ने देखा और पसंद किया. तब जयमाला की रस्म होती नहीं थी. विवाह के समय सबकुछ इतना दबादबा हुआ था कि चाह कर भी शिवानंद पत्नी को देख नहीं सके. विवाह कर घर लौटे तो अपने कमरे में टंगे चित्र में पत्नी को पहली बार देखा तो देखते ही रह गए. इस चित्र को उन के छोटे भाई सदानंद  ने खींचा था और बड़ा करा कर भाई के कमरे में लगा दिया था.

रश्मि के कई बार टोकने पर भी वह चित्र उन के शयनकक्ष में लगा ही रहा. 2 साल में रश्मि ने एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया, जिस का नाम पंकज रखा गया. पंकज भरेपूरे परिवार का दुलारा था. उस के दिन सुख से बीत रहे थे कि रश्मि में पुन: मातृत्व के लक्षण उभरे. घर में बेटा या बेटी को ले कर एक नई बहस छिड़ गई. दादी कहती कि एक बेटा और हो जाए तो पंकज को भाई मिल जाएगा. दोनों भाई उसी तरह साथ रहेंगे जैसे मेरे शिवानंदसदानंद रहे. बूआ पूछती, ‘मां, क्या बहन भाई के सुखदुख की साथी नहीं होती?’

इस तरह के हासपरिहास में 4 महीने बीत गए कि अचानक एक दिन रश्मि अपनी ही साड़ी में उलझ कर सीढि़यों से लुढ़कती हुई नीचे आ गिरी. बच्चा पेट में ही मर गया. रश्मि की चोट गहरी थी. उसे भी बचाया नहीं जा सका.

रश्मि का वधूवेश में लिया चित्र पहले जहां टंगा रहता था उस की मृत्यु के बाद भी वही टंगा रहा. नन्हा पंकज पूछता तो बूआ बहलाते हुए कहतीं, ‘मम्मी, अभी फोटो में से निकल कर आसमान में घूमने गई हैं.’

‘कैसे, प्लेन में बैठ कर?’

‘हां, बेटा.’

‘बूआ, मम्मी, घूम कर कब आएगी?’

‘बस, एकदो दिन में आ जाएगी.’

शिवानंद के विरोध पर उन का विवाह टल गया था. उस दौरान बेटी प्रभा भी शादी कर के अपनी ससुराल चली गई. मां को गृहस्थी संभालना पहाड़ लग रहा था क्योंकि बहू और बेटी के रहते हुए उन में निश्ंिचतता की आदत पड़ गई थी. मां मजबूरी में घर तो संभाल रही थी पर बेटे व पोते की तकलीफ जब देखी नहीं गई तो उन्होंने शिवानंद पर फिर से शादी कर लेने का दबाव यह सोच कर बनाया कि पत्नी आने के बाद पंकज की देखभाल हो जाएगी और शिवानंद का मन भी लग जाएगा.

शिवानंद भी थोड़ा टालमटोल के बाद फिर से विवाह के लिए तैयार हो गए.

शिवानंद की वकालत अच्छी चल रही थी. अपना बड़ा सा मकान था. पिता भी शहर के जानेमाने वकीलों में से थे. उन के विवाह के 4 वर्ष छोड़ दिए जाएं तो सब तरह से वे सुयोग्य वर थे. एक बेटा था तो उसे भी देखने वाले बहुत लोग थे.

शिवानंद की फिर से विवाह की तैयारी होने लगी. चढ़ावे के लिए नई साडि़यां और गहने आए, रश्मि के गहने भी थे जिन्हें नई बहू को देने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी.

प्रभा ने यह कहते हुए कि रश्मि भाभी के कुछ गहने चढ़ावे पर नहीं जाएंगे, अलग रख दिए.

‘तुम्हारा मन है तो बाकी मुंहदिखाई में दे देंगे,’ मां ने दुलार में कहा, ‘मांग टीका और नथ तो अभी चढ़ावे के समय जाने दो.’

‘नहीं मां, इन्हें भी अलग ही रहने दो.’ बेटी प्रभा बोली, ‘सब कुछ मुझे पंकज के विवाह में देना है.’

दुलार भरी हंसी से मां ने कहा, ‘पंकज की बहू के लिए पुराने गहने. अरे पगली, तब तक कितना नया चलन हो जाएगा.’

प्रभा मचलते हुए तब बोली थी, ‘अम्मां, यह सब अलग ही रख लें… वह लहंगाचुनरी भी, सभी कुछ मेरे कहने से.’

लाडली बेटी की बात अम्मां ने मान ली और बहू शिखा के लिए सबकुछ नया सामान चढ़ावे में भेजा गया.

अम्मां ने टोका अवश्य था कि बेटी, नई बहू क्या पंकज को उस का हिस्सा नहीं देगी. आखिर उस का हिस्सा तो रहेगा ही.

‘उस के अपने भी तो होंगे, अम्मां. यह सब अलग जमा कर दें.’

मां के मन में विवाद उठा, ‘लड़की अपने लिए तो कुछ नहीं कह रही है पर भतीजे के लिए ममता का यह रूप भी किसी को अच्छा नहीं लग रहा था.’

विवाह हुआ. शयनकक्ष सजा. कुछ याद करते हुए मां ने आदेश दिया और उस दिन रश्मि का वधूवेश में सालों से टंगा चित्र वहां से हट कर पीछे के एक कमरे में लगा दिया गया. प्रभा ने देखा तो वह विचलित हो उठी और वहां से हटा कर तसवीर को पूजा के कमरे में लगाने लगी.

पंकज ने तोतली आवाज में पूछा था, ‘बूआ का कर रही हो. मम्मी ऊपर से आएंगी तो रास्ता भूल जाएंगी न.’

‘मम्मी आ गई हैं,’ यह कहते हुए प्रभा ने पंकज को नववधू शिखा की गोद में बैठाया तो वह यह कहते हुए गोद से उतर गया, ‘नहीं, यह मेरी मम्मी नहीं हैं.’

शूल सा लगा शिखा को सौतेले बेटे का कथन. पंकज अपना हाथ छुड़ा कर  उस कमरे में चला गया जहां पहले उस की मां की तसवीर टंगी थी. पर वहां चित्र नहीं था. ‘अरे, मेरी मम्मी कहां गई,’ करुण स्वर चीत्कार कर उठा.

‘देखो पंकज, यह हैं मम्मी. तुम भूल गए. वह अब यहां आ गई हैं. सब उन की पूजा करेंगे न.’

प्रभा को लगा कि नई मां ला कर पंकज के साथ अन्याय किया गया है. पंकज के प्रति उस की अगाध ममता

ही थी जो उस ने रश्मि भाभी के  गहने शिखा भाभी को न देने की जिद की थी.

शिखा ने 2 पुत्रों और 1 पुत्री को जन्म दिया था. पंकज भी जैसेजैसे समझदार हुआ उस ने मां को मां का सम्मान ही दिया और भाईबहन को अपना माना. मन में कोई विद्वेष नहीं था, पर पूजाघर में जब भी पंकज जाता मां की तसवीर को बेहद श्रद्धा से देखता.

बीतते समय के साथ पंकज इंजीनियर बना तो विवाह के लिए रिश्ते भी आने लगे. उस की राय मांगी गई तो प्रोफेसर  की बेटी निधि उसे पसंद आई. प्रोफेसर ने शिवानंद को सपरिवार घर आने का निमंत्रण दिया. प्रभा उसी दिन ससुराल से आई थी. बोली, मैं भी भाभी के साथ लड़की देखने चलूंगी.

‘‘बूआ,’’ पंकज बोला, ‘‘मुझे कुछ जरूरी काम को पूरा करने के लिए अभी बाहर जाना है. आप और मां लड़की देखने चली जाएं. आप की पसंद मेरी पसंद होगी.’’

लड़की देखने की औपचारिकता पूरी करने के बाद एक माह के अंदर शादी हो गई और निधि दुलहन बन कर पंकज के घर आ गई. अब प्रभा ने रश्मि का चित्र पूजा घर से हटा कर पंकज के कमरे में लगा दिया.

आज सुहागरात है, यह सोच कर प्रभा ने अपनी पसंद के कपड़े निधि को पहनाए. फिर वे सभी गहने जो कभी रश्मि ने शादी के मौके पर पहने थे और जिसे आज के दिन के लिए प्रभा ने मां के पास रखवा दिए थे. निधि को गहने पहना कर देखा तो देखती रह गई. उसे लगा जैसे चित्र में से निकल कर रश्मि आ गई है. अनुकृति ही नहीं असल में है वही.

शयनकक्ष में सुहाग सेज पर प्रतीक्षा में बैठी निधि को देख कर पंकज विक्षिप्त हो उठा, ‘‘मम्मीमम्मी, तुम आ गईं.’’

पंकज के कहे शब्दों को सुन कर दरवाजे पर खड़ी भाभी और बहनें विस्मय से चीख पड़ीं. प्रभा बूआ, देखिए न पंकज को क्या हो गया है? उधर उस के सामने खड़ी निधि विस्मय, अकुलाहट, अचकचाहट से उसे देखती रह गई.

‘‘पंकज क्या है, क्या कह रहे हो? वह निधि है, तुम्हारी पत्नी,’’ बूआ बोली, ‘‘मम्मी कहां से आ गईं? पागल हो गए हो?’’

‘‘आ गई है न बूआ, देखिए न…’’

विस्मय, आश्चर्य, अनहोनी के डर से कांपती प्रभा बूआ अपने को अपराधिनी मानती हुई पंकज को घसीट कर निधि के पास कर आई और निधि का हाथ उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पंकज यह तुम्हारी पत्नी है.’’

‘‘नहीं,’’ बूआ का हाथ झटक कर निधि बोली, ‘‘इन्होंने मुझे मम्मी कहा है. मैं दूसरे संबंध की कल्पना नहीं कर सकती. मैं इन की पत्नी नहीं हो सकती,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चली गई.

परिवार के बडे़बूढ़ों के साथ दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी निधि को समझाया कि वैदिक मंत्रों के बीच तुम ने सात फेरे लिए हैं, तो कहे के रिश्ते का क्या मूल्य है. बेटी, उसे नाटक समझ कर भूल जाओ.

इस बीच निधि मायके गई तो फिर ससुराल आने का नाम ही नहीं लेती थी. तब घरवालों ने ऊंचनीच समझा कर उसे किसी तरह ससुराल भेज दिया.

पंकज का भ्रम टूट जाए, इस के लिए सब तरह के उपाय किए गए. मनोचिकित्सक से परामर्श भी लिया गया. रश्मि का चित्र पंकज के कमरे से हटा कर अलमारी में बंद कर दिया गया था. रश्मि के पहने गहने और कपडे़ अलग रख दिए गए, इस के बाद सालों बीत जाने पर भी निधि के मन में पंकज के प्रति प्रणय के अंकुर न फूटे. उस के नाम से ही उसे अरुचि हो गई थी. मन बहल जाए इसलिए पिता ने बेटी को पीएच.डी. करने की प्रेरणा दी ताकि अध्ययन में व्यस्त हो कर वह अपने अतीत को भूल जाए.

उधर पंकज को भी एकदो बार अवसर दिया गया कि स्थिति में सुधार हो किंतु वह न सुधर सका. उस की ऐसी मनोदशा देख पिता शिवानंद ने उस का निधि से संबंधविच्छेद करवा दिया. कुछ सालों बाद निधि का अपने सहयोगी से प्रेमविवाह हो गया.

पंकज के मन पर जो गहरा आघात लगा था वह वर्षों के इलाज से थोड़ा बहुत सुधरा, किंतु कभीकभी वह दिमाग का संतुलन खो बैठता था. सरकारी नौकरी थी, चल रही थी, पर कभी भी उस के छूटने की आशंका बनी रहती थी. उस के पुनर्विवाह के लिए संबंध आते रहे किंतु पिता शिवानंद ने कहा कि जब तक वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता वह किसी की लड़की का जीवन बरबाद नहीं करेंगे.

प्रभा बूआ अपने सौम्य, सुंदर, सुयोग्य भतीजे को पागलपन के कगार पर लाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं. आंसू बहाती हैैं और कहती हैं, ‘‘मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे लाड़ की ऐसी परिणति होगी.’’

Family Story: जरा सा मोहत्याग – क्या नीमा ने अपनी बहन से बात की?

Family Story: बहुत दिनों से नीमा से बात नहीं हो पा रही थी. जब भी फोन मिलाने की सोचती कोई न कोई काम आ जाता. नीमा मेरी छोटी बहन है और मेरी बहुत प्रिय है.

‘‘मौसी की चिंता न करो मां. वे अच्छीभली होंगी तभी उन का फोन नहीं आया. कोई दुखतकलीफ होती तो रोनाधोना कर ही लेतीं.’’

मानव ने हंस कर बात उड़ा दी तो मुझे जरा रुक कर उस का चेहरा देखना पड़ा. आजकल के बच्चे बड़े समझदार और जागरूक हो गए हैं, यह मैं समझती हूं और यह सत्य मुझे खुशी भी देता है. हमारा बचपन इतना चुस्त कहां था, जो किसी रिश्तेदार को 1-2 मुलाकातों में ही जांचपरख जाते. हम तो आसानी से बुद्धू बन जाते थे और फिर संयुक्त परिवारों में बच्चों का संपर्क ज्यादातर बच्चों के साथ ही रहता था. बड़े सदस्य आपस में क्या मनमुटाव या क्या मेलमिलाप कर के कैसेकैसे गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं, हमें पता ही नहीं होता था. आजकल 4 सदस्यों के परिवार में किस के माथे पर कितने बल आए और किस ने किसे कितनी बार आंखें तरेर कर देखा बच्चों को सब समझ में आता है.

‘‘मैं ने कल मौसी को मौल में देखा था. शायद बैंक में जल्दी छुट्टी हो गई होगी. खूब सारी शौपिंग कर के लदीफंदी घूम रही थीं. उन की 2 सहयोगी भी साथ थीं.’’

‘‘तुम से बात हुई क्या?’’

‘‘नहीं. मैं तीसरे माले पर था और मौसी दूसरे माले पर.’’

‘‘कोई और भी तो हो सकती है? तुम ने ऊपर से नीचे कैसे देख लिया?’’

‘‘अरे, अंधा हूं क्या मैं जो ऊपर से नीचे दिखाई न दे? अच्छीखासी हंसतेबतियाते जा रही थीं… और आप जब भी फोन करती हैं रोनाधोना शुरू कर देती हैं कि मर गए, बरबाद हो गए. जो समय सुखी होगा उसे आप से कभी नहीं बांटती और जब जरा सी भी तकलीफ होगी तो उसे रोरो कर आप से कहेंगी. मौसी जैसे इनसान की क्या चिंता करनी… छोड़ो उन की चिंता. उन का फोन नहीं आया तो इस का मतलब है कि वे राजीखुशी ही होंगी.’’

मैं ने अपने बेटे को जरा सा झिड़क दिया और फिर बात टाल दी. मगर सच कहूं तो उस का कहना गलत भी नहीं था. सच ही समझा है उस ने अपनी मौसी को. अपनी जरा सी भी परेशानी पर हायतोबा मचा कर रोनाधोना उसे खूब सुहाता है. लेकिन बड़ी से बड़ी खुशी पचा जाना उस ने पता नहीं कहां से सीख लिया. कहती खुशी जाहिर नहीं करनी चाहिए नजर लग जाती है. किस की नजर लग जाती है? क्या हमारी? हम जो उस के शुभचिंतक हैं, हम जिन्हें अपनी परेशानी सुनासुना कर वह अपना मन हलका करती है, क्या हमारी नजर लगेगी उसे? अंधविश्वासी कहीं की. अभी पिछले हफ्ते ही तो बता रही थी कि मार्च महीने की वजह से हाथ बड़ा तंग है. कुछ रुपए चाहिए. मेरे पास कुछ जमाराशि है, जिसे मैं ने किसी आड़े वक्त के लिए सब से छिपा कर रखा है. उस में से कुछ रुपए उसे देने का मन बना भी लिया था. मैं जानती हूं रुपए शायद ही वापस आएं. यदि आएंगे भी तो किस्तों में और वे भी नीमा को जब सुविधा होगी तब. छोटी बहन है मेरी. मातापिता ने मरने से पहले समझाया था कि छोटी बहन को बेटी समझना. मुझ से 10 साल छोटी है. मैं उस की मां नहीं हूं, फिर भी कभीकभी मां बन कर उस की गलती पर परदा डाल देती हूं, जिस पर मेरे पति भी हंस पड़ते हैं और मेरा बेटा भी.

‘‘तुम बहुत भोली हो शुभा. अपनी बहन से प्यार करो, मगर उसे इतना स्वार्थी मत बनाओ कि उस का ही चरित्र उस के लिए मुश्किल हो जाए. मातापिता को भी अपनी संतान के चरित्रनिर्माण में सख्ती से काम लेना पड़ता है तो क्या वे उस के दुश्मन हो जाते हैं, जो तुम उस की गलती पर उसे राह नहीं दिखातीं?’’

‘‘मैं क्या राह दिखाऊं? पढ़ीलिखी है और बैंक में काम करती है. छोटी बच्ची नहीं है वह जो मैं उसे समझाऊं. सब का अपनाअपना स्वभाव होता है.’’

‘‘सब का अपनाअपना स्वभाव होता है तो फिर रहने दो न उसे उस के स्वभाव के साथ. गलती करती है तो उसे उस की जिम्मेदारी भी लेने दो. तुम तो उसे शह देती हो. यह मुझे बुरा लगता है.’’

मैं मानती हूं कि उमेश का खीजना सही है, मगर क्या करूं? मन का एक कोना बहन के लिए ममत्व से उबर ही नहीं पाता. मैं उसे बच्ची नहीं मानती. फिर भी बच्ची ही समझ कर उस की गलती ढकती रहती हूं. सोचा था क्व10-20 हजार उसे दे दूंगी. कह रही थी कि मार्च महीने में सारी की सारी तनख्वाह इनकम टैक्स में चली गई. घर का खर्च कैसे चलेगा? क्या वह इस सत्य से अवगत नहीं थी कि मार्च महीने में इनकम टैक्स कटता है? उस के लिए तैयारी क्या लोग पहले से नहीं करते हैं? पशुपक्षी भी अपनी जरूरत के लिए जुगाड़ करते हैं. तो क्या बरसात के मौसम के लिए छाते का इंतजाम नीमा के पड़ोसी या मित्र करेंगे? सिर मेरा है तो उस की सुरक्षा का प्रबंध भी मुझे ही करना चाहिए न. मैं हैरान हूं कि उस के पास तो घर खर्च के लिए भी पैसे नहीं थे और मानव ने बताया मौसी मौल में खरीदारी कर रही थीं. सामान से लदीफंदी घूम रही थीं तो शौपिंग के लिए पैसे कहां से आए?

सच कहते हैं उमेश कि कहीं मैं ही तो उसे नहीं बिगाड़ रही. उस के कान मरोड़ उसे उस की गलती का एहसास तो कराना ही चाहिए न. कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जिन के बिना गुजारा नहीं चलता. लेकिन वही हमें तकलीफ भी देते हैं. गले में स्थापित नासूर ऐसा ही तो होता है, जिसे काट कर फेंका नहीं जा सकता. उसी के साथ जीने की हमें आदत डालनी पड़ती है. निभातेनिभाते बस हम ही निभाते चलते जाते हैं और लेने वाले का मुंह सिरसा के मुंह जैसा खुलता ही जाता है.

40 की होने को आई नीमा. कब अपनी गलत आदतें छोड़ेगी? शायद कभी नहीं. मगर उस की वजह से अकसर मेरी अपनी गृहस्थी में कई बार अव्यवस्था आ जाती है. अकसर किसी के पैर पसारने की वजह से अगर मेरी भी चादर छोटी पड़ जाए तो कुसूर मेरा ही है. मैं ने अपनी चादर में उसे पैर पसारने ही क्यों दिए? मातापिता ही हैं जो औलाद के कान मरोड़ कर सही रास्ते पर लाने का दुस्साहस कर सकते हैं. वैसे तो एक उम्र के बाद सब की बुद्धि इतनी परिपक्व हो ही जाती है कि चाहे तो पिता का कहा भी न माने तो पिता कुछ नहीं कर सकता. मगर बच्चे के कान तक हाथ ले जाने का अधिकार उसे अवश्य होता है.

मैं ने शाम को कुछ सोचा और फिर नीमा के घर का रुख कर लिया. फोन कर के बताया नहीं कि मैं आ रही हूं. मानव कोचिंग क्लास जाता हुआ मुझे स्कूटर पर छोड़ता गया. नीमा तब स्तब्ध रह गई जब उस ने अपने फ्लैट का द्वार खोला.

‘‘दीदी, आप?’’

नीमा ने आगेपीछे ऐसे देखा जैसे उम्मीद से भी परे कुछ देख लिया.

‘‘दीदी आप? आप ने फोन भी नहीं किया?’’

‘‘बस सोचा तुझे हैरान कर दूं. अंदर तो आने दे… दरवाजे पर ही खड़ा कर दिया.’’

उसे एक तरफ हटा कर मैं अंदर चली आई. सामने उस का कोई सहयोगी था. मेज पर खानेपीने का सामान सजा था. होटल से मंगाया गया था. जिन डब्बों में आया था उन्हीं में खाया भी जा रहा था. पुरानी आदत है नीमा की, कभी प्लेट में सजा कर सलीके से मेज पर नहीं रखती. समोसेपकौड़े तो लिफाफे में ही पेश कर देती है. पेट में ही जाना है. क्यों बरतन जूठे किए जाएं? मुझे देख वह पुरुष सहसा असहज हो गया. सोचता होगा कैसी बदतमीज है नीमा की बहन एकाएक सिर पर चढ़ आई.

‘‘अपना घर है मेरा… फोन कर के आने की क्या तुक थी भला? बस बैठबैठे मन हुआ तो चली आई. क्यों तुम कहीं जाने वाली थी क्या?’’

मैं ने दोनों का चेहरा पढ़ा. पढ़ लिया मैं ने कुछ अनचाहा घट गया है उन के साथ.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए सोचा देख आऊं.’’

‘‘हां, विजय भी हालचाल पूछने ही आए हैं. ये मेरे सहयोगी हैं.’’

मेरे ही प्रश्न ने नीमा को राह दिखा दी. मैं ने तबीयत का पूछा तो उस ने झट से हालचाल पूछने के लिए आए सहयोगी की स्थिति साफ कर दी वरना झट से उसे कोई बहाना नहीं सूझ रहा था. मेरी बहन है नीमा. भला उसी के रंगढंग मैं नहीं पहचानूंगी? बचपन से उस की 1-1 हरकत मैं उस का चेहरा पढ़ कर ही भांप जाती हूं. 10 साल छोटी बहन मेरी बहुत लाडली है. 10 साल तक मेरे मातापिता मात्र एक ही संतान के साथ संतुष्ट थे. मैं ही अकेलेपन की वजह से बीमार रहने लगी थी. मौसी और बूआ सब की 2-2 संतानें थीं और मेरे घर में मैं अकेली. बड़ों में बैठती तो वे मुझे उठा देते कि चलो अंदर जा कर खेलो. क्या खेलो? किस के साथ खेलो? बेजान खिलौने और बेजान किताबें… किसी जानदार की दरकार होने लगी थी मुझे. मैं चिड़ीचिड़ी रहती थी, जिस का इलाज था भाई या बहन.

भाई या बहन आने वाला हुआ तो मातापिता ने मुझे समझाना शुरू कर दिया कि सारी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी ही होगी. अपना सुखदुख भूल मैं नीमा के ही सुख में खो गई. 10 साल की उम्र से ही मुझ पर इतनी जिम्मेदारी आ गई कि अपनी हर इच्छा मुझे व्यर्थ लगती. ‘‘तुम उस की मां नहीं हो शुभा… जो उस के मातापिता थे वही तुम्हारे भी थे,’’ उमेश अकसर समझाते हैं मुझे.

अवचेतन में गहरी बैठा दी गई थी मातापिता द्वारा यह भावना कि नीमा उसी के लिए संसार में लाई गई है. मुझे याद है अगर हम सब खाना खा रहे होते और नीमा कपड़े गंदे कर देती तो रोटी छोड़ कर उस के कपड़े मां नहीं मैं बदलती थी. जबकि आज सोचती हूं क्या वह मेरा काम था? क्या यह मातापिता का फर्ज नहीं था? क्या बहन ला कर देना मेरे मातापिता का मुझ पर एहसान था? इतना ज्यादा कर्ज जिसे 40 साल से मैं उतारतेउतारते थक गई हूं और कर्ज है कि खत्म ही नहीं होता है.

‘‘आओ दीदी बैठो न,’’ अनमनी सी बोली नीमा.

मेरी नजर सोफे पर पड़े लिफाफों पर पड़ी. जहां से खरीदे गए थे उन पर उसी मौल का पता था जिस के बारे में मानव ने मुझे बताया था. कुछ खुले परिधान बिखरे पड़े थे आसपास. शायद नीमा उन्हें पहनपहन कर देख रही थी या फिर दिखा रही थी.

छटी इंद्री ने मुझे एक संकेत सा दिया… यह पुरुष नीमा की जिंदगी में क्या स्थान रखता है? क्या इसी को नीमा नए कपड़े पहनपहन कर दिखा रही थी.

‘‘क्या बुखार था तुम्हें? आजकल मौसम बदल रहा है… वायरल हो गया होगा,’’ कह मैं ने कपड़ों को धकेल कर एक तरफ किया.

उसी पल वह पुरुष उठ पड़ा, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं.’’

‘‘अरे बैठिए न… आप अपना खानापीना तो पूरा कीजिए. बैठो नीमा,’’ मेरा स्वर थोड़ा बदल गया होगा, जिस पर दोनों ने मुझे बड़ी गौर से देखा.

उस पुरुष ने कुछ नहीं कहा और फिर चला गया. नीमा भी अनमनी सी लगी मुझे.

‘‘बीमार थी तो यह फास्ट फूड क्यों खा रही हो तुम?’’ डब्बों में पड़े नूडल्स और मंचूरियन पर मेरी नजर पड़ी. उन डब्बों में 1 ही चम्मच रखा था. जाहिर है, दोनों 1 ही चम्मच से खा रहे थे.

‘‘कुछ काम था तुम से इसलिए फोन पर बात नहीं की… मुझे कुछ रुपए चाहिए थे… मानव की कोचिंग क्लास के लिए… तुम्हारी तरफ मेरे कुल मिला कर 40 हजार रुपए बनते हैं. तुम तो जानती हो मार्च का महीना है.’’ नीमा ने मुझे विचित्र सी नजरों से देखा जैसे मुझे पहली बार देख रही हो… चूंकि मैं ने कभी रुपए वापस नहीं मांगे थे, इसलिए उस ने भी कभी वापस करना जरूरी नहीं समझा. मैं बड़ी गौर से नीमा का चेहरा पढ़ रही थी. मैं उस की शाम बरबाद कर चुकी थी और संभवतया नैतिक पतन का सत्य भी मेरी समझ में आ गया था. अफसोस हो रहा है मुझे. एक ही मातापिता की संतान हैं हम दोनों बहनें और चरित्र इतना अलगअलग… एक ही घर की हवा और एक ही बरतन से खाया गया खाना खून में इतना अलगअलग प्रभाव कैसे छोड़ गया.

‘‘मेरे पास पैसे कहां…?’’ नीमा ने जरा सी जबान खोली.

‘‘क्यों? अकेली जान हो तुम. पति और बेटा अलग शहर में रहते हैं… उस पर तुम एक पैसा भी खर्च नहीं करती… कहां जाते हैं सारे पैसे?’’

नीमा अवाक थी. सदा उसी की पक्षधर उस की बहन आज कैसी जबान बोलने लगी. बोलना तो मैं सदा ही चाहती थी, मगर एक आवरण था झीना सा खुशफहमी का कि शायद वक्त रहते नीमा का दिमाग ठीक हो जाए. उस का परिवार और मेरा परिवार तो सदा ही उस के आचरण से नाराज था बस एक मैं ही उस के लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसी थी और आज वह सहारा भी मैं ने छीन लिया.

‘‘पाईपाई कर जमा किए हैं मैं ने पैसे… मानव के दाखिले में कितना खर्चा होने वाला है, जानती हो न? मेरी मदद न करो, लेकिन मेरे रुपए लौटा दो. बस उन से मेरा काम हो जाएगा,’’ कह कर मैं उठ गई. काटो तो खून नहीं रहा नीमा में. मेरा व्यवहार भी कभी ऐसा होगा, उस ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. उस की हसीन होती शाम का अंजाम ऐसा होगा, यह भी उस की कल्पना से परे था. कुछ उत्तर होता तो देती न. चुपचाप बैठ गई. उस के लिए मैं एक विशालकाय स्तंभ थी जिस की ओट में छिप वह अपने पति के सारे आक्षेप झुठला देती थी.

‘‘देखो न दीदी अजय कुछ समझते ही नहीं हैं…’’

अजय निरीह से रह जाते थे. नीमा की उचितअनुचित मांगों पर. नारी सम्मान की रक्षा पर बोलना तो आजकल फैशन बनता जा रहा है. लेकिन सोचती हूं जहां पुरुष नारी की वजह से पिस रहा है उस पर कोई कानून कोई सभा कब होगी? अपने मोह पर कभी जीत क्यों नहीं पाई मैं. कम से कम गलत को गलत कहना तो मेरा फर्ज था न, उस से परहेज क्यों रखा मैं ने? अफसोस हो रहा था मुझे. दम घुटने लगा मेरा नीमा के घर में… ऐसा लग रहा था कोई नकारात्मक किरण मेरे वजूद को भेद रही है. मातापिता की निशानी अपनी बहन के वजूद से मुझे ऐसी अनुभूति पहले कभी नहीं हुई. सच कहूं तो ऐसा लगता रहा मांपिताजी के रूप में नीमा ही है मेरी सब कुछ और शायद यही अनुभूति मेरा सब से बड़ा दोष रही. कब तक अपना दोष मैं न स्वीकारूं? नीमा की भलाई के लिए ही उस से हाथ खींचना चाहिए मुझे… तभी वह कुछ सही कर पाएगी…

‘‘दीदी बैठो न.’’

‘‘नहीं नीमा… मुझे देर हो रही है… बस इतना ही काम था,’’ कह नीमा का बढ़ा हाथ झटक मैं बाहर चली आई. गले तक आवेग था. रिकशे वाले को मुश्किल से अपना रास्ता समझा पाई. आंसू पोंछ मैं ने मुड़ कर देखा. पीछे कोई नहीं था, जो मुझे रोकता. मुझे खुशी भी हुई जो नीमा पीछे नहीं आई. बैठी सोच रही होगी कि यह दीदी ने कैसी मांग कर दी… पहले के दिए न लौटा पाए न सही कम से कम और तो नहीं मांगेगी न… एक भारी बोझ जैसे उतर गया कंधों पर से… मन और तन दोनों हलके हो गए. खुल कर सांस ली मैं ने कि शायद अब नीमा का कायापलट हो जाए.

Family Story: तालमेल – उनके बेटे-बहू में क्यों बदलाव आया?

Family Story, लेखक- सतीश सक्सेना

सुनयना का निधन 3 महीने पहले ही तो हुआ था. पत्नी का यूं अचानक चले जाना मेरे लिए बहुत घातक था. इस सदमे ने मेरे वजूद को तोड़ कर रख दिया था. मैं, मैं नहीं रहा था. मेरी स्थिति उस खंडहर मकान जैसी हो गई थी जो नींव से तो जुड़ा था पर मकान कहलाने लायक नहीं था. इन 3 महीनों में ही परिवार पर से मेरा दबदबा लगभग खत्म हो चला था. बहू स्नेहा, जो कभी मेरे पैरों की आहट से डरती और बचती फिरती थी, अब मुझ से जिरह करने लगी थी. बेटा प्रतीक मुझ से चेहरा उठा कर बात करने लगा था. दोनों पूरी तरह से गिरगिट की तरह रंग बदल चुके थे. आखिर क्यों? मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.

वैसे तो घर में सभी तरह के काम करने के लिए नौकर हैं पर अब मैं होलटाइमर हूं. चौबीस घंटे वाला खिदमतगार. झाड़ूपोंछा करने वाली सुबह 9 बजे आती है और अपना काम कर के 10 बजे तक चली जाती है. उस के कुछ देर बाद ही चौकाबरतन करने वाली आती है और पौन घंटे में काम खत्म कर के चली जाती है. कपड़े धोने के लिए अलग नौकरानी है और कार चलाने के लिए एक ड्राइवर भी है, लेकिन दिन में तो  24 घंटे होते हैं और 24 तरह के काम भी. सुनयना की मृत्यु के बाद से वे सभी काम मैं, 65 साल का बूढ़ा, संभालता हूं.

मैं ने बदलते हालात से समझौता कर लिया है. मेरा मानना है कि समझौता शब्द बहुत गुणकारी है. आप की सारी उलझनों को पल भर में सुलझा देता है. आप की जिंदगी में बड़े से बड़ा तूफान आ जाए, मुलायम घास की तरह झुक कर उसे गुजर जाने देना ठीक है. अकड़ू पेड़ तो टूट कर गिर जाते हैं.

पत्नी के निधन के कुछ दिन बाद प्रतीक गुस्से से भरा मेरे पास चला आया था. आते ही एक प्रश्न जड़ा था, ‘रात आप ने खाना क्यों नहीं खाया?’

मैं ने सहज भाव से कहा था, ‘कल हमारी शादी की वर्षगांठ थी, बेटे. तेरी मां की याद आ गई. फिर खाने का मन ही नहीं हुआ. रात तो मैं सो भी नहीं पाया.’

जब उसे एहसास हुआ कि मेरे भूखे सो जाने का कारण किसी प्रकार की नाराजगी नहीं थी तो नाटकीय अफसोस जताते हुए वह बोला, ‘ओह, मुझे याद ही नहीं रहा, बाबा. दरअसल, जिंदगी इतनी मशीनी हो गई है कि न दिन के गुजरने का एहसास होता है और न ही रात के. काम, काम और सिर्फ काम. आराम के पल, इन काम के पलों के बीच कहां खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता? ऐसे में कोई क्याक्या याद रखे?’

प्रतीक चला गया था. और मैं सोचने लगा कि आज रिश्ते कितने संकुचित हो चले हैं. इस पीढ़ी के लोग यह तो याद रखते हैं कि पति का बर्थडे कब है? पत्नी का कब? बच्चों का कब? अपनी मैरिज ऐनीवरसरी कब है? पर हमारी पीढ़ी के बारे में कुछ याद नहीं रहता. यह कैसी विडंबना है? एक हमारा समय था. हम मातापिता को बेहिसाब सम्मान देते थे.  जबकि यह पीढ़ी तो मांबाप को नौकरों की तरह समझने में भी नहीं हिचकिचाती, सेवा करना तो दूर की बात है.

इस पीढ़ी की एक और खास आदत है, मातापिता का किया भूलने की. आज प्रतीक यह भी भूल चुका है कि उस की पढ़ाई के लिए हम ने यह घर कभी गिरवी रखा था. अपना भविष्य भुला कर उस का वर्तमान संवारा था. पता नहीं, इस पीढ़ी को अपने काम के सामने रिश्ते भी क्यों छोटे लगने लगते हैं? घर वालों से भी बातें करते समय शब्दों में व्यावसायिकता की बू आती है. पक्के पेशेवर हो चुके हैं. हमारी शादी की वर्षगांठ भूल जाने का बड़ा ही अच्छा बहाना बनाया था उस ने.

सुनयना की मृत्यु से पहले तक घर में, मेरा दबदबा हमेशा बना रहा. न प्रतीक ने कभी मुझ से आंखें मिला कर बात की और न ही स्नेहा ने कभी ऐसा व्यवहार किया, जिस से कि हमें ठेस पहुंचे. जीवन में हम ने मातापिता से यही सीखा था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं, पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर जरूर होता है.

ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. प्यार केवल जोड़ता है, तोड़ता नहीं. उन की इस नसीहत को मैं ने घर की नींव में डाला था. यही कारण है कि मैं यह प्रयास करता रहता ताकि रिश्तों में कड़वाहट कभी न आए.

एक दिन शरीर की टूटन के कारण मैं देर तक सोता रह गया तो स्नेहा ने मुझे कमरे में आ कर जगाया. तेज आवाज में बोली, ‘बाबा, आप ने तो हद कर दी है. सुबह 10 बजे उठने की आदत बना डाली है. दिनभर हमारे पीछे आप सोते रहते हैं. मुफ्त का खाना खाते हैं. इस आलीशान घर में रहते हैं. आप को न पानी का बिल भरना पड़ता है और न ही लाइट का. सर्दी में हीटर और गरमी में एसी जैसी सुविधाएं तो हम ने जुटा ही रखी हैं तो क्या हम आप से यह उम्मीद भी न करें कि आप सुबह समय से उठ जाएं और घर संभालें? हम औफिस जा रहे हैं. घर में नौकर काम कर रहे हैं. उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ा जा सकता. उठिए और घर का दरवाजा बंद कर लीजिए.’

स्नेहा मुझे नींद से झकझोर कर चली गई. मैं स्तब्ध था. सोच रहा था कि स्नेहा ने कितनी आसानी से मेरे एक दिन लेट उठने को, मेरी रोज की आदत में तबदील कर दिया था. शरीर की टूटन की परवा न करते हुए भी उठ कर दरवाजा बंद कर लिया था. कल प्रतीक ने भी ऐसा ही व्यवहार किया था. उस ने औफिस जाते समय मुझ से कहा था, ‘बाबा, आखिर इस तरह कब तक चलेगा? आप घर का जरा सा भी ध्यान नहीं रखते. घर से नौकर सामान चुराचुरा कर ले जाते हैं. रसोई से मसाले चोरी होते हैं. तेल, घी हर 15-20 दिन में खत्म हो जाते हैं. साबुन पता नहीं कहां जाते हैं. मेरा एक तौलिया और एक नीली शर्ट कितने दिनों से ढूंढ़े नहीं मिल रहे. स्नेहा की कई मैक्सियां और साडि़यां दिखाई नहीं देती हैं. घर में चोरियां न हों, आप को इस का खयाल तो रखना चाहिए. जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए.’

मन ही मन मैं उबल कर रह गया. जी में आया कि मुंह पर कस कर एक थप्पड़ जड़ दूं. मुझे सिखाने चला है कि मैं क्या करूं, क्या न करूं? आज के बच्चे जब घर में भी प्रोफैशनल किस्म की बातें करते हैं तो मुझे गुस्सा कुछ ज्यादा ही आता है. चिढ़ होने लगती है. वैसे मैं समझ गया था कि उस ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया है? दिल्ली में विश्वासपात्र नौकर मिलना एक बड़ी समस्या है. बाहरी प्रदेशों से नौकरी की चाह लिए आए लोगों को बिना उन का आचरण और चरित्र जाने 24 घंटे घर में नहीं रखा जा सकता. पता नहीं वे कब कौन सा कांड कर बैठें या घर की बहुमूल्य संपत्ति ले कर चलते बनें. उन की इस जरूरत के लिए भला मुझ से अधिक लायक होलटाइमर नौकर और कौन हो सकता है?

बस, इसी क्षण मेरा मन घर से उचट गया. मुझे लगने लगा कि मेरी सल्तनत अब पूरी तरह से धराशायी हो गई है. परिवार में मेरी स्थिति शून्य हो गई है. घर में रोज बढ़ता तनाव मुझे पसंद नहीं था, इसलिए परेशानी मुझे अधिक थी. बेटाबहू मिल कर मुझ पर प्रहार किए जा रहे थे. परिवार में एकदूसरे को प्रतिदिन सहना यदि दूभर होने लगे तो घर टूटने की संभावनाएं बढ़ ही जाती हैं. घर टूटे, मुझे यह मंजूर नहीं था, क्योंकि मैं समझता था कि घर तोड़ना बहुत आसान है, उसे जोड़े रखना बहुत कठिन.

सोचा, कैसे हाथों से फिसलती रेत को रोकूं? अपनी परेशानियों को घर की चारदीवारी से बाहर जाने से बचाऊं? वह भी ऐसे समय में जब परिवार के किनारे टूटते हुए लग रहे हैं? रिश्तों में दरार साफसाफ दिखाई दे रही है. घर के झगड़े और रिश्तों में मनमुटाव के किस्से यदि बाहर जाने लगें, तब कोई क्या कर पाएगा? जगहंसाई होगी. उसे न प्रतीक रोक पाएगा, न स्नेहा और न मैं. कपड़ा जरा सा फटा हो तो उस में से थोड़ा ही दिखाई देता है, यदि पूरा का पूरा फट जाए तो कोई क्या छिपा पाएगा?

मन हुआ था कि शांति से जीने के लिए इस जलालतभरी जिंदगी से हमेशाहमेशा के लिए दूर हो जाऊं. घर बेच कर, इन्हें बेघर कर दूं और वृद्धाश्रम चला जाऊं. तब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी. इन रिश्तों के लिए मैं मर जाऊंगा. फिर स्नेहा किसे अपना क्रोध दिखाएगी? प्रतीक किस से यह कहेगा कि जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए?

वृद्धाश्रम के हाल ही कौन से अच्छे होते हैं. वहां अजीब तरह की छीछालेदर होती है. संचालक से ले कर इनमेट तक आप को नोंचने लगते हैं. प्रश्न पर प्रश्न. क्या हुआ? बच्चों ने निकाल दिया? बच्चे मारतेपीटते थे? कोई बीमारी है? दवादारू नहीं करते थे? खाना नहीं देते थे? भैया, अगर कुछ पैसों का जुगाड़ हो सके तो यहां से खिसक लो. किराए का मकान लो और अपनी मरजी की जिंदगी जिओ.  आश्रम नाम के सेवाधाम होते हैं, किसी जेल से कम नहीं हैं वे. मैं तो इन बेतुके प्रश्नों का उत्तर देतेदेते ही मर जाऊंगा.

दूसरे पल ही मेरी इस सोच को मन नकार गया. मेरे निश्चय की दृढ़ता तोड़ने लगा. मन ने मुझे समझाया कि यदि मैं ने ऐसा कदम उठाया तो स्नेहरूपी घर को बनाए रखने के सपने का क्या होगा? मैं अपने पैर पर आप ही कुल्हाड़ी नहीं मार लूंगा? मन ने यह भी समझाया कि एक क्षण तो मैं झगड़ों और मनमुटाव की बातों को घर से बाहर न जाने देने की बात सोचता हूं, फिर दूसरे ही पल वृद्धाश्रम जाने की बात करता हूं. यह विरोधाभास क्यों? क्या मेरे रिश्ते इस तरह हमेशा के लिए नहीं टूट जाएंगे?

हमारी पीढ़ी के लोग कहेंगे कि कैसे मतलबी होते हैं आज के बच्चे? जिन्होंने जरा से खर्च के बोझ की खातिर बूढ़े बाप को घर से निकाल दिया. इस पीढ़ी के बच्चे सोचेंगे कि घर आखिर घर होता है. उस में हमेशा कूड़ा जमा किए रखने की कोई जगह नहीं होती. प्रतीक और स्नेहा ने ठीक ही किया. कम से कम अब बूढ़े से कोई अटक तो नहीं रहेगी, और न रहेगी हर वक्त की चखचख. दोनों अब अपने तरीके से जी तो सकेंगे.

दोपहर को मेरे सोने का समय होता है. तब तक घर के सभी काम खत्म हो जाते हैं. खाना बनाने वाली मेरे लिए खाना बना कर जा चुकी होती है. उस के जाने के बाद मैं तसल्ली से खाना खाता हूं और खा कर सो जाता हूं. शाम को काम का सिलसिला 5 बजे से शुरू होता है. उस से कुछ पहले उठ कर मैं चाय पीता हूं और नौकरों के आने का इंतजार करने लगता हूं.

पर आज मुझे नींद ही नहीं आई. लाख चाहा कि प्रतीक और स्नेहा के किए बरताव को भूल जाऊं. घर जिस तरह चल रहा है, चलने दूं. पर अपनों के दिए घाव कुछ इतने गहरे होते हैं कि कभी सूखते ही नहीं. सोचने लगा कि सुनयना की मृत्यु के बाद से ही, ऐसा क्या हो गया कि बच्चे इतना अकड़ने लगे हैं? अभद्र व्यवहार करने का दुस्साहस करने लगे हैं.

मैं सोचने लगा कि बढ़ती हुई उम्र के साथ मेरी मजबूरियां बढ़ गई हैं. मैं अशक्त हो गया हूं. हाथपैर अब साथ नहीं देते. बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा कर लिया है. एक जाती है तो दूसरी आती है. कुछ तो पक्का घर बना बैठी हैं. यदि डाक्टरों की बात मानूं तो जिंदगी एकचौथाई ही बची है. दिमाग दगा दे चुका है. क्या सही है और क्या गलत, समझ में ही नहीं आता. मन और मस्तिष्क के बीच उठापटक चलती रहती है. पूंजी के नाम पर अब केवल यह मकान ही है. बाकी जो थी वह सुनयना की बीमारी में खत्म हो गई. जराजरा सी जरूरतों के लिए मुझे इन बच्चों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. शायद ये मजबूरियां ही इन की अकड़ और अभद्र व्यवहार का कारण हों? केवल मेरी ही नहीं, इन की भी तो मजबूरियां हैं. दिल्ली में मकान खरीदना आसान बात नहीं है. मकानों की कीमतें दिनदूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही हैं. इस उम्र में महंगे मकान खरीदने का पैसा इन के पास नहीं है. ये इसीलिए इस घर में टिके हुए हैं, वरना कभी का मुझे अकेला छोड़ कर चले गए होते.

दूसरी मजबूरी यह है कि इन्हें एक होलटाइमर नौकर नहीं मिल रहा है. निश्चित रूप से इन का यह व्यवहार इसी कारण है. मन ने कहा, ‘मैं मजबूर जरूर हूं, पर इतना लाचार भी नहीं कि अपने स्वाभिमान की चिता जला दूं. अब मैं किसी हालत में इन से समझौता नहीं करूंगा. मैं ने निश्चय कर लिया कि मकान बेच दूंगा और किराए के मकान में रह कर जिंदगी गुजार दूंगा.’

शाम को प्रतीक और स्नेहा के घर लौटने से पहले प्रौपर्टी ब्रोकर आ गया. मकान देख कर दूसरे दिन खरीदार लाने का वादा कर के चला गया. जब प्रतीक और स्नेहा घर लौटे तो रोजमर्रा की तरह मैं ने ही दरवाजा खोला. मैं उन से सख्त नाराज था. मैं ने उन की तरफ देखा भी नहीं. दरवाजा खोल कर अपने कमरे में चला गया. वे दोनों भी अपने कमरे में चले गए. सोते वक्त जी बहुत हलकाहलका लगा. तनाव भी कम हो गया था.

बडे़ सवेरे ब्रोकर खरीदार ले कर आ गया. उस समय प्रतीक और स्नेहा दोनों ही घर में थे. इस से पहले कि मैं ब्रोकर से कुछ बात कर पाऊं, प्रतीक ब्रोकर से बोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘ये सज्जन इस मकान को खरीदना चाहते हैं,’’ ब्रोकर ने अपने साथ आए खरीदार की ओर इशारा करते हुए कहा.

अब इस से पहले कि प्रतीक कुछ और पूछ पाए, मैं बोल उठा, ‘‘मैं यह मकान बेच रहा हूं.’’

‘‘आप मकान बेच रहे हैं, क्यों?’’ प्रतीक मेरे इस फैसले पर अचंभित दिखा.

‘‘मेरी मरजी.’’

‘‘यह मकान नहीं बिकेगा. यह मैं कह रहा हूं,’’ प्रतीक ने अब ब्रोकर की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘आप जाइए, प्लीज. बाबा ने यह फैसला जरा जल्दी में ले लिया है. अगर हम पक्का निर्णय ले सके तो मैं खुद आप को फोन कर के बुला लूंगा.’’

ब्रोकर और परचेजर दोनों लौट गए. मेरे क्रोध की सीमा टूटने वाली ही थी कि प्रतीक मुझ से बोला, ‘‘यह आप क्या करने जा रहे थे, बाबा? अपना प्यारा सा घर बेच रहे थे? आखिर क्यों?’’

‘‘ताकि मैं तुम लोगों के अत्याचार से छुटकारा पा सकूं. जीवन के जो आखिरी दिन बचे हैं, उन्हें चैन से जी सकूं. मुझे नौकर बना कर छोड़ दिया है तुम दोनों ने. बच्चे मुझे अपमानित करें, यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता,’’ मैं आवेश में कांपने लगा था.

प्रतीक मुझे बांहों से थामते हुए बोला, ‘‘बाबा, मैं आप के आक्रोश का कारण समझ गया हूं. आप पहले बैठिए.’’

मुझे कुरसी पर बिठाने के बाद वह और स्नेहा फर्श पर मेरे समीप ही बैठ गए. प्रतीक ने मेरा हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोलना शुरू किया, ‘‘आप स्नेहा और मेरे व्यवहार से नाराज हैं, मैं समझ चुका हूं. हम भी पश्चात्ताप में जल रहे हैं, यह हमारा सच है. हम आप से इस व्यवहार के लिए क्षमा मांगना चाहते थे, पर आप के खौफ के कारण हम आप का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. हमारे ही व्यवहार के कारण यह घर बिखर जाएगा. बाबा, हम उन बच्चों में से नहीं हैं जो घर में अपने बुजुर्गों की अहमियत नहीं समझते. दरअसल, दिनभर की भागमभाग और काम की टैंशन हमें इतना चिड़चिड़ा कर देती है कि हम कभीकभी यह भूल जाते हैं कि हम किस से बातें कर रहे हैं और क्या बातें कर रहे हैं.’’

प्रतीक की इन बातों से मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ. मैं ने प्रतीक और स्नेहा के चेहरों को पढ़ा. वास्तव में पश्चात्ताप उन के चेहरों पर डोल रहा था. संवेदनाओं के बादल उमड़घुमड़ रहे थे. किसी भी समय आंसुओं की बारिश संभव थी.

प्रतीक ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘बाबा, पहले तो आप यह समझ लीजिए कि आप हम पर बोझ नहीं हैं. आप मजबूर भी नहीं हैं और यह भी कि हम भविष्य में आप को अकेला छोड़ कर कहीं जाने वाले नहीं हैं. घर में आप का स्थान नौकरों का भी नहीं है. आप जरा मेरे साथ हमारे कमरे में चलिए. वहां मंदिर को देखिए और खुद तय कर लीजिए कि हमारे दिल में आप का स्थान कहां है? सोचिए, यदि घर में 3 प्राणी हों और उन में से 2 सुबह से रात तक घर से बाहर रहते हों तो पीछे से घर कौन संभालेगा? वही जो घर में रहता हो.’’

प्रतीक ने लंबी सांस ली. भर आई आंखों को अपने रूमाल से पोंछा. स्नेहा ने भी अपनी आंखें पोंछी. प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘होता यह है कि जीवन की मुख्यधारा से अलगथलग पड़ते बुजुर्ग अपनेआप को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. इंसीक्योरिटी की यह भावना उन में डर और शंकाओं को जन्म देती है. वे हर वक्त यही सोचते रहते हैं कि उन के इस बुरे वक्त में उन का सहारा कौन बनेगा? बच्चे उन की आंखों से दूर हो जाएं तो लगता है कि बच्चों को भी उन की परवा नहीं है. यह इंसिक्योरिटी की भावना फिर उन्हें सही सोचने ही नहीं देती.

‘‘हमारी पीढ़ी भी बाबा, बुजुर्गों के प्रति कुछ कम लापरवाह नहीं है. हम खुली जिंदगी जीना चाहते हैं. कोई रोकटोक और अनुशासन हमें पसंद नहीं. जब हम घर से बाहर होते हैं, खुले आकाश में आजाद पंछियों की तरह उड़ते हैं. जो जी चाहे करते हैं और जब घर में घुसते हैं तो हमारी आजादी के पंख कट जाते हैं. हम घर में फड़फड़ाते रहते हैं. बुजुर्गों का दबदबा, खौफ और घर का अनुशासन घुटन पैदा करने लगता है. तब हमारा भी मन करता है कि इस घुटनभरी जिंदगी से दूर भाग जाएं. ऐसे में दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य नहीं बन पाता. दोनों पीढि़यां ही मानने लगती हैं कि घर में यदि सासबहू हैं, तो झगड़ा तो होगा ही. बुजुर्ग और युवा साथसाथ रहते हैं, तो टकराव तो होगा ही.’’

मैं प्रतीक को एकटक देखता ही चला गया. सोचने लगा, मेरा छोटा सा बच्चा इतना विद्वान कब हो गया, मुझे पता ही नहीं चल पाया. कितनी नजदीकी से इस ने जिंदगी को पढ़ा है. मुझे मेरे सोच गड़बड़ाते हुए लगने लगे. प्रतीत हुआ कि शायद मैं ही गलत था.

प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘बाबा, आप ने हमें सिखाया था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर तो होता ही है. ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. जो रिश्ता टूट जाए, समझ लो वहां प्यार था ही नहीं. बड़ा होतेहोते इस सीख का सही अर्थ मैं समझ गया हूं. यदि मैं गलत नहीं हूं तो घर सिर्फ ईंटगारे का बना होता है.

‘‘आदर्श घर वह होता है जहां रिश्ते एकदूसरे का आदर करते हैं. वहां ससुर ससुर होते हैं, सास सास और बहू बहू. उन में आदर तो होता है, प्यार नहीं. और घर वही मधुवन बन पाता है जहां रिश्तों में प्यार होता है. वहां न ससुर होते हैं, न सास और न बहू. तीनों के बीच आदर से अधिक एकदूसरे के लिए प्यार होता है.’’

उस ने मुझे देखा, शायद मेरे चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ने के लिए. फिर बोला, ‘‘बाबा, हम इस घर को केवल आदर्श घर ही बना सके, महकतागमकता उपवन नहीं. यह घर आज तक आप के खौफ में जिया है. हम डरतेडरते जीते रहे हैं. रिश्तों में प्यार था कहां? सिर्फ खौफ था. घर में घुसने की इच्छा नहीं होती थी. लगता था कि हम जेल में घुस रहे हैं. आज भी हमारे संबंधों में वह खुलापन है कहां? हम जो खुली जिंदगी जीना चाहते हैं, वह है कहां?’’

‘‘बस बेटे, बस…’’ मैं ने उठ कर दोनों बच्चों को गले लगा लिया और कहा, ‘‘घर में गलत मैं ही था. जो सीख मैं तुम लोगों को देता रहा, मैं ने खुद उस पर अमल नहीं किया. अभी इसी वक्त मैं ने अपने खौफ का गला घोंट दिया है. अब हम तीनों आपस में मित्र हैं. ससुर, बेटा या बहू नहीं.’’

दोनों बच्चे मुझ से लिपटलिपट कर रोने लगे. मेरी आंखें भी बिना बहे न रह पाईं. अब मैं ने अपना कमरा, जो घर के मुख्यद्वार के पास था, उन्हें दे कर खुद को घर के पिछवाड़े में शिफ्ट कर लिया है ताकि बच्चे अपनी खुली जिंदगी जी सकें. मुख्यद्वार पर लगी अपनी नेमप्लेट हटा कर प्रतीक के नाम की लगवा दी है. अब हम तीनों जब साथ बैठते हैं तो हंसीठट्ठे ही सुनाई देते हैं.

अब घर से बाहर जो भी बुजुर्ग या युवा मुझ से मिलते हैं, मैं सभी से कहता हूं कि यदि घर को घर बनाए रखना है तो बुजुर्ग अपना रौबदाब छोड़ें, बच्चों को खुली जिंदगी दें और बच्चे अपने बुजुर्गों को कूड़ा न समझें, उन का खयाल रखें. विचारों का यह तालमेल घर में प्यार ही प्यार भर देगा. वह प्यार जो सब को आपस में जोड़ता है, एकदूसरे से तोड़ता नहीं.

Family Story: पवित्र प्रेम – क्यों खुद से नफरत करने लगी थी रूपा

Family Story, लेखिका- सुनीता महेश्वरी

‘‘रूपा मैडम, आप कितनी प्यारी हैं. आप का मन कितना सुंदर है. काश, आप की जैसी हिम्मत हम सब में भी होती,’’ रूपा की मेड नीना ने बड़े आदर से कहा और फिर कौफी का कप दे कर अपने घर चली गई.

रूपा मुसकराने लगी. वह पिछले 2 वर्षों से पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की क्लासेज ले रही थी. इस क्षेत्र में उसे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी. उस के सैंटर की ख्याति दूरदूर तक फैली हुई थी. 2 वर्षों में ही उस ने अपने व्यवहार, मेहनत, कौशल, आत्मविश्वास एवं आत्मीयता से समाज में सम्मान अर्जित कर लिया था. उस के गुणों

और आत्मिक सौंदर्य के आगे उस की कुरूपता एकदम बौनी हो गई थी. अनेक विषम परिस्थितियों में तप कर उस ने अपने सोने जैसे व्यक्तित्व को संवारा था. प्रेम की अपार शक्ति जो थी उस के साथ.

उस दिन नीना के जाने के बाद रूपा घर में बिलकुल अकेली हो गई थी. उस के पति विशाल और ससुर ऐडवोकेट प्रमोद केस की सुनवाई के लिए गए हुए थे. कौफी का कप हाथ में लिए सोफे पर बैठी रूपा अपने जीवन की गहराइयों में खो गई. उस की जिंदगी का 1-1 पल उस की आंखों में उतरने लगा.

रूपा की यादों में युवावस्था का वह चित्र जीवंत हो उठा, जब एक दिन अचानक एक सुनसान गली में आवारा रोहित उस का रास्ता रोक अश्लील फबतियां कसते हुए बोला, ‘‘मेरी जान, तुम किसी और की नहीं हो सकती, तुम बस मेरी हो.’’

रोहित की बदनीयत देख कर रूपा डर से कांपने लगी. उस दिन वह जैसेतैसे भाग कर अपने घर पहुंची थी. उस की सांसें बहुत तेज चल रही थीं. उस की मां गीता ने उसे सीने से लगा लिया. जब रूपा कुछ शांत हुई तब मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

रूपा ने रोहित के विषय में सबकुछ बता दिया. रोहित के व्यवहार से वह इतनी डर गई थी कि अब कालेज भी नहीं जाना चाहती थी. जब कभी वह अकेली बैठती, रोहित की घूरती आंखें और अश्लील हरकतें उसे डराती रहती.

कुछ दिन बाद रूपा ने बड़ी मुश्किल से कालेज जाना शुरू किया, परंतु रोहित उसे रोज कुछ न कुछ कह कर सताता रहता था. एक दिन जब रूपा ने उसे पुलिस की धमकी दी तो उस

ने कहा, ‘‘पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी. मुझ से शादी नहीं करोगी, तो मैं तुम्हें जीने भी नहीं दूंगा.’’

रूपा ने अपनी प्रिंसिपल को भी रोहित के विषय में सब बताया, परंतु कालेज के बाहर का मामला होने के कारण उन्होंने भी कोई खास ध्यान नहीं दिया. रूपा को अपने पापा की बहुत याद आती थी. वह सोचती थी कि काश पापा जीवित होते तो कोई उसे इस तरह तंग नहीं कर पाता.

रूपा और उस की मां का चैन से जीना दूभर होता जा रहा था. रूपा ने बड़ी मुश्किलों का सामना कर एमए (मनोविज्ञान) फाइनल की परीक्षा दी थी.

एक दिन उस की मां गीता ने उसे विवाह के लिए मनाते हुए कहा, ‘‘रूपा, चंडीगढ़ में मेरी सहेली का बेटा विशाल है. वह इंजीनियर है. बहुत ही समझदार है. क्या मैं उस से तुम्हारी शादी की बात चलाऊं?’’

रूपा तुरंत मान गई. वह भी उस गुंडे रोहित से अपना पीछा छुड़ाना चाहती थी. शादी की बात चली और रिश्ता तय हो गया.

विवाह के मधुर पलों की याद आते ही रूपा की आंखों में एक चमक सी आ गई. उस ने कौफी का कप एक ओर रख दिया और सोफे पर ही लेट गई. उस के विचारों की पतंग उड़े जा रही थी.

रूपा और विशाल का विवाह चंडीगढ़ में बड़ी धूमधाम से संपन्न हो गया. विशाल जैसे होशियार, रूपवान, समझदार और प्यार करने वाले युवक का साथ पा कर रूपा बहुत खुश थी. उसे जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं.

रूपा धीरेधीरे अपनी नई प्यारभरी जिंदगी में रचबस गई. वह अपने सासससुर की भी बहुत लाडली थी. उस ने घर की सभी जिम्मेदारियां संभाल ली थीं. सभी उस के रूप और गुणों के प्रशंसक बन गए थे.

रूपा ने रोहित के विषय में विशाल को भी सबकुछ बता दिया था. विशाल ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘डरना छोड़ो रूपा. होते हैं कुछ ऐसे सिरफिरे. तुम उसे भूल जाओ. अब मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

विवाह के 3 वर्ष बीत चुके थे. इस बीच कई बार रूपा और विशाल

चंडीगढ़ से लखनऊ गए, पर वह आवारा रोहित कभी उन के सामने नहीं आया. रूपा धीरेधीरे उसे भूल गई. उसे अपनी जिंदगी पर नाज होने लगा था.

एक दिन रूपा लखनऊ में अपने पति विशाल के साथ बाजार से लौट रही थी. तभी अचानक उस मनचले गुंडे रोहित ने रूपा के सुंदर चेहरे पर तेजाब फेंकते हुए कहा, ‘‘ले अब दिखा, अपना यह रूप विशाल को.’’

रूपा का सुंदर चेहरा पलभर में जल कर बदसूरत हो गया. वह रूपा से कुरूपा हो गई. मगर सुंदर चेहरे पर तेजाब डालने वाला रोहित अपनी जीत पर मुसकरा रहा था.

विशाल तो ये सब देख कर स्तब्ध सा रह गया. फिर तुरंत पुलिस को फोन किया और सहायता के लिए चिल्लाने लगा. कुछ ही देर में बहुत लोग एकत्रित हो गए. रोहित के हाथ में ऐसिड की बोतल थी. अत: कोई भी डर के मारे उस के पास नहीं जा रहा था. तभी पुलिस ने आ कर उसे पकड़ लिया.

विशाल रूपा को ऐंबुलैंस में अस्पताल ले गया.

औपचारिकताएं पूरी होने के बाद रूपा का इलाज शुरू हुआ. उस की दोनों आंखों की पुतलियां दिखाई ही नहीं दे रही थीं. उस का चेहरा इतना बिगड़ चुका था कि डाक्टर ने विशाल को भी उसे देखने की इजाजत नहीं दी. रूपा को इंटैंसिव केयर में रखा गया. 2 दिन बाद जब रूपा की मां गीता और विशाल को रूपा से मिलाया गया तब मां की चीख निकल गई. ऐसिड फेंकने का घिनौना अपराध करने वाले रोहित के प्रति उन का मन विद्रोह की आग से भर उठा.

लगभग ढाई महीने बाद रूपा को अस्पताल से छुट्टी मिली, परंतु

इलाज का यह अंत नहीं था. इस बीच न तो उसे दृष्टि मिली थी और न ही रूप. उस के और कई औपरेशन होने बाकी थे.

विशाल रूपा को वापस चंडीगढ़ ले गया. उस की आंखों और चेहरे के कई औपरेशन हुए.

धीरेधीरे आंखों की रोशनी वापस आ गई. जब रूपा ने इस घटना के बाद पहली बार दुनिया देखी तब उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, अपना चेहरा देखा तो चीख पड़ी. उसे शीशे में अपना ही भूत नजर आया. वह विशाल के सीने से लग कर जोरजोर से रोते हुए बोली, ‘‘विशाल, इस कुरूप चेहरे को ले कर मैं तुम्हारी जिंदगी नहीं बिगाड़ सकती. मैं जीवित नहीं रहना चाहती. मुझ से इतना प्यार मत करो.’’

विशाल की आंखें छलकने को थीं, पर उस ने अपने आंसुओं को किसी तरह पी लिया. उस ने रूपा को प्यार से गले लगाते हुए कहा, ‘‘रूपा, तुम मेरी बहादुर पत्नी हो. तुम ही तो मेरी जान हो. तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं है. मैं मात्र तुम्हारी सूरत से नहीं, अपितु तुम से प्यार करता हूं. तुम ऐसे हार मान जाओगी तो मेरा क्या होगा?’’

रूपा अपने कुरूप चेहरे पर विशाल के होंठों का स्पर्श पा कर फफकफफक कर रोने लगी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. वह विशाल के नि:स्वार्थ प्यार की गहराइयों में डूब कर अपनी कुरूपता को दोषी मान रही थी. उसे लग रहा था जैसे उस का चेहरा ही नहीं, बल्कि विशाल की खुशियां भी तेजाब से जल कर खाक हो गई हैं.

अपने डरावने चेहरे को देख कर रूपा की निराशा दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी. ऐसी विदू्रपता, विकृति को देख उस के मन को गहरी चोट पहुंची थी. जब वह लोगों को स्वयं को घूरते देखती तो ऐसा लगता मानों सब उस की कुरूपता को देख कर सहम गए हैं. हर नजर उस के मन को छेद देती थी.

रूपा एक दिन परेशान हो कर विशाल से बोली, ‘‘विशाल, मेरी जैसी कुरूप लड़की के साथ तुम क्यों अपना जीवन व्यर्थ करना चाहते हो? तुम क्यों दूसरी शादी नहीं कर लेते हो? अपनी खुशियां मेरी इस कुरूपता पर मत लुटाओ. तुम मुझे तलाक दे दो.’’

विशाल ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘रूपा, मैं ने विवाह का प्यारा बंधन तोड़ने के लिए नहीं जोड़ा. पतिपत्नी का मिलन 2 दिलों का मिलन होता है. क्या मात्र एक

दुर्घटना हमें जुदा कर सकती है? यदि मेरे साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती तो क्या तुम मुझे तलाक दे देतीं?’’

रूपा ने विशाल के मुंह पर हाथ रख दिया. उस की आंखों से प्रेम के आंसुओं के झरने बहने लगे. उस का मन विशाल के त्याग और प्रेम को पा कर धन्य हो उठा.

चंडीगढ़ में रूपा का इलाज चलता रहा. तेजाब से जली त्वचा का महंगा

और लंबा इलाज विशाल की माली हालत तथा उस के काम पर भी दुष्प्रभाव डाल रहा था, किंतु उस ने रूपा को कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया. वह एक जिम्मेदार पति की तरह अपने कर्तव्यों को बखूबी निभा रहा था.

विशाल के पिता ऐडवोकेट प्रमोद नामी वकील थे. वे रूपा की न्यायिक प्रक्रिया के कार्यों में दिनरात लगे थे. उन्होंने उस जघन्य अपराधी को सजा दिलवाने की ठान ली थी. इस के अतिरिक्त इलाज आदि के लिए जो सरकार से मदद का प्रावधान था, उसे प्राप्त करने के लिए भी वे प्रयत्नशील थे.

अचानक रूपा की स्मृतियों में अपने रिश्तेदार की बातें कांटे की तरह चुभने लगीं. एक दिन रूपा को देखने रिश्तेदार आए थे. वे रूपा से मिले और चलतेचलते विशाल से बोले, ‘‘भैया, तुम्हारी ही हिम्मत है जो तुम इस की सेवा कर रहे हो. आजकल की लड़कियां तो प्रेम किसी से करती हैं और शादी किसी से. परिणाम तुम जैसे पतियों को भुगतना पड़ता है. पहले ही जन्मपत्री मिला कर शादी की होती तो ऐसी दुर्घटना से बच जाते. मेरी सलाह मानो तो दूसरी शादी कर लो. कब तक ढोओगे इस की बदसूरती को.’’

विशाल के पिता प्रमोद ये सब सुन रहे थे. वे तपाक से बोले, ‘‘भाई साहब, आप ने तो अपने बेटे की शादी खूब जन्मपत्री मिला कर की थी न, फिर क्या हुआ था? याद है न, आप की बहूरानी तो शादी के दूसरे दिन ही आप सब को छोड़ कर मायके चली गई थी. जन्मपत्री मिला कर आप ने कौन से फूल खिला लिए थे? हमारी निर्दोष बहू पर लांछन लगाने से पहले अपने गरीबान में तो झांक कर देख लिया होता.’’

उस दिन रिश्तेदार की बात सुन कर रूपा को ऐसा लगा था जैसे एक बार फिर किसी ने कटुता का ऐसिड उस पर डाल दिया हो. उस का मन छलनी हो गया था. वह मर जाना चाहती थी. अपना मुंह छिपा कर रोने लगी.

विशाल दिल पर पत्थर रख कर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला, ‘‘तुम चिंता मत करो रूपा. मैं तुम्हारा पति हूं और मैं तुम्हारे साथ हूं. जब कोई ऐसी बेतुकी बात करता है, तो मन करता है उस का मुंह नोच लूं. पर यह भी इस का समाधान नहीं… समाज में स्त्रियों को जब तक मानसम्मान नहीं मिलेगा तब तक यही स्थिति रहेगी. हमें ऐसे दकियानूसी और पाखंडी लोगों की सोच बदलनी होगी.’’

रूपा विशाल की गोदी में सिर रख कर रोए जा रही थी.

विशाल ने उस के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि मेरी रूपा फिर से हंसना सीख ले. अपने को बारबार कुरूप कहना छोड़ दे. रूपा, मेरे लिए तुम आज भी उतनी ही सुंदर हो जितनी पहले थी. मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन कितना सुंदर और पवित्र है.’’ और फिर विशाल ने रूपा को जूस पिला कर सुला दिया.

हर दिन एक नया दिन होता था. कुछ घाव सूखते थे तो कुछ वाणी के घाव नए बन जाते थे. विशाल ने रूपा का मन धीरेधीरे प्राणायाम की ओर आकर्षित किया. वह हमेशा उस से कहता कि अपने मन को महसूस करो, जो बहुत सुंदर है. रूपा तुम्हें ऐसे अपराधियों के विरुद्ध लड़ना है. तुम्हें हिम्मत बढ़ानी है. तुम सुंदर हो. शक्तिशाली हो, मनोविज्ञान की ज्ञाता हो. तुम्हारे अंदर असीम शक्तियां छिपी हैं. तुम ऐसे हार नहीं मान सकतीं. मन में आशा और विश्वास भर कर तुम्हें समाज की बुराइयों को दूर करना है.

रूपा पर विशाल की बातों का असर होने लगा था. वह मरमर कर भी जीना सीख रही थी. उस ने मन में विश्वास भर कर पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की पुस्तकें पढ़नी शुरू कर दीं. उस के भीतर अपनी नई पहचान बनाने की लौ जाग उठी थी.

दूसरी ओर न्यायिक प्रक्रिया भी चल रही थी. विशाल और उस के पिता तारीख पड़ने पर कोर्ट जाते थे. 1 वर्ष बाद की तारीख में विशाल अपने मातापिता और रूपा को भी कोर्ट में ले कर पहुंचा था. अपराधी रोहित पहले से वहां था. विशाल रूपा को सहारा दे कर बड़े प्यार और सम्मान से जब कोर्ट में दाखिल हुआ तो उस नजारे को देख कर अपराधी रोहित की उम्मीदों पर तो जैसे पानी ही फिर गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसी बदसूरत लड़की को भी कोई पति प्यार करेगा.

विशाल ने रूपा की खुशियां छीनने वाले अपराधी रोहित को नफरतभरी नजर से देखते हुए कहा, ‘‘तुम ने जो हमारे संग किया है, उस का दंड तुम्हें बहुत जल्दी मिलेगा. मेरे हिसाब से तुम दुनिया के सब से कुरूप व्यक्ति हो… दुनिया में तुम्हें कोई पसंद नहीं करेगा, जबकि रूपा को इस हालत में भी सब चाहते हैं. वह हमेशा सुंदर थी और सुंदर रहेगी.’’

उस दिन रूपा भी रणचंडी बनी हुई थी. उस की आंखों में उस अपराधी के लिए घृणा के साथसाथ क्रोध की भी ज्वाला धधक रही थी. वह किसी तरह अपना गुस्सा पी रही थी.

रूपा अपने विचारों के सागर में डूबी हुई थी कि अचानक घड़ी के 5 घंटे सुनाई दिए तो सकपका कर उठ खड़ी हुई और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ ही देर में विशाल और प्रमोद कोर्ट से घर लौट आए. वे बहुत खुश थे, क्योंकि रूपा की जीत हुई थी. उस अपराधी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

Hindi Story: मातृत्व का अमृत – क्या विभा ने एड्स पीड़ित विनोद को अपनाया?

Hindi Story, लेखक- सुखविंदर कौर

लाल सुर्ख जोडे़ में सजी विभा के चारों तरफ गूंजती शहनाई और विवाह की रौनक थी. सुमित की छवि जैसे विभा की आंखों के सामने घूम रही थी और स्वत: ही उसे याद आती थी, सुमित के साथ उस की पहली मुलाकात.

वह दिन, जब सुमित उसे देखने आया था तो उस से ज्यादा नर्वस शायद सुमित खुद ही था. मुंह नीचा किए वह चुपचाप बैठा था और जैसे ही मां विभा को ले कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, मां के पांव छूने की बजाय गलती से सुमित ने विभा के पांव छू लिए. तब अल्हड़ विभा ने उसे ‘दूधों नहाओ और पूतों फलो’ का आशीर्वाद दिया तो वहां उपस्थित सभी ठहाका मार कर हंस पडे़.

सुमित को विभा की चंचलता बहुत भा गई और वह उस के मनमोहक रूप से आकर्षित हुए बिना भी न रह सका. वहीं विभा को भी सुमित की सादगी पसंद आई थी.

विभा सुमित से अपनी पहली भेंट को जब भी याद करती, बहुत देर तक हंसती थी.

आज फिर विभा लाल सुर्ख जोडे़ में लिपटी बैठी थी. पहले जैसी चहलपहल आज नहीं थी. 11 साल पहले जो उत्सुकता विभा की आंखों में विवाह को ले कर थी वह आज आंसू बन कर बह रही थी और कई सवाल उस के कोमल हृदय पर आघात कर रहे थे पर जवाब तलाशने से भी उसे नहीं मिल रहे थे.

एक समझदार पति के साथसाथ उस का सब से प्यारा दोस्त सुमित याद आ रहा था तो याद आ रही थी उसे अपनी ससुराल, जहां पति का बेइंतहा प्यार मिला और देवर, सासससुर के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने उस के जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर दिए.

उस का घरेलू जीवन तब और साकार हो गया जब विभा के घर में एक नन्हेमुन्ने की आहट हुई. विभा की ससुराल और मायके में खुशियों का उत्सव छाया हुआ था. लेकिन उस को क्या पता था कि उस की खुशियों पर एक ऐसी बिजली गिरेगी जो सबकुछ जला कर राख कर देगी.

दीवाली के दीपों की ज्योति से अंधेरे जीवन में भी प्रकाश हो जाता है पर इस बार की दीवाली विभा के जीवन में अंधकार भरने आई थी. सुमित दीवाली के अवसर पर बाजार गया. विभा कोे 4 महीने का गर्भ था, इसलिए वह न जा सकी. बाजार में बम विस्फोट हुआ और सुमित लौट कर घर न आ सका. उस की मृत्यु का समाचार और फिर उस का क्षतविक्षत शव देख कर जो सदमा विभा को लगा उसे वह सहन न कर सकी और उस का गर्भपात हो गया.

सुमित की यादें जहां विभा के मुखमंडल पर खास छटा बिखेर देती थीं वहीं उस की मृत्यु की कल्पना से भी विभा सिहर उठती थी.

विभा आज अपने अतीत के सारे पृष्ठ पलट लेना चाहती थी. यादें समय के प्रवाह के साथ धूमिल अवश्य पड़ जाती हैं परंतु खत्म कभी नहीं होतीं, क्योंकि हृदय पर बने उन के निशान सागर की गहराई से भी गहरे होते हैं.

गुजरे हुए कल ने विभा के जीवन पर गहरे निशान छोडे़ थे, ऐसे निशान जो उसे बहुत गहरे आघात दे गए थे.

विधवा विभा अपने सासससुर की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहती थी, साथ ही एक शिक्षिका होने के नाते अपना सारा जीवन अपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में समर्पित करना चाहती थी, पर जिस औरत का सुहाग उजड़ जाए उस के अपने भी बेगाने हो जाते हैं. यहां तक कि घर के लोग भी सांप की तरह फुफकारते हैं व दंश भी मारते हैं.

सुमित की मौत के बाद उस के ससुराल वालों का व्यवहार विभा के प्रति अनायास ही बदल गया. सास का छोटीछोटी बातों पर फटकारना, किसी न किसी बात में कमी निकालना, अब आम हो गया था. मगर जब देवर और ससुर की कामुक नजर उसे कचोटने लगी तो उस की सहनशक्ति परास्त हो गई. तब अपना सारा साहस जुटा कर विभा अपने मायके चली आई. घर में मांबाबूजी के अलावा विभा का एक छोटा भाई प्रभात भी था.

घर का सारा काम विभा अकेले ही करती, मांबाबूजी का पूरा खयाल रखती, विद्यालय जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती और प्रभात की पढ़ाई में सहयोग भी देती. इस तरह उस ने अपनी दिनचर्या को पूरी तरह व्यस्त कर लिया था.

देखते ही देखते 9 साल गुजर गए. प्रभात, विभा के सहयोग की बदौलत आईटी प्रोफेशनल के रूप में अपने पैर जमा चुका था. उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आने लगे. मांबाबूजी ने विभा की सलाह से एक सुंदर व सुशिक्षित लड़की सुनैना को देख कर प्रभात का रिश्ता तय कर दिया. विवाह भी हंसीखुशी संपन्न हो गया. घर में एक नई बहू आ गई.

प्रभात की खुशियों में विभा अपनी खुशियां तलाशना सीख गई थी. तभी मुंहदिखाई के समय सुनैना को अपना हीरों जडि़त हार देते वक्त उस ने कहा था, ‘‘सुनैना, तुम्हें इस से भी ज्यादा सुंदर तोहफा तब दूंगी जब तुम हमें एक प्यारा सा, प्रभात जैसा भतीजा दोगी.’’

घर के सारे छोटेबडे़ फैसले विभा की सलाह से लिए जाते थे और प्रभात भी अपनी दीदी के पूरे प्रभाव में था, इसलिए सुनैना के मन में विभा के प्रति द्वेष घर कर गया. अब वह विभा को नीचा दिखाने का कोई न कोई मौका ढूंढ़ती रहती थी.

हालांकि विभा उसे अपनी छोटी बहन की तरह समझती थी और उस की गलतियों को भी क्षमा कर देती थी.

सुनैना मां बनने वाली थी और कमजोरी के कारण डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी, इसलिए बाकी कार्यों के साथसाथ विभा फिर से घर का सारा काम संभालने लगी. सुनैना की हर जरूरत का भी वह पूरापूरा खयाल रखती.

उस दिन विद्यालय से लौटने के बाद विभा फ्रैश हो कर दोपहर के खाने में जुट गई. प्रभात भी घर पर ही था. सब मेज पर खाना खाने के लिए बैठे ही थे कि सुनैना झल्ला उठी.

खाने की थाली में से एक बाल निकल आने के कारण सुनैना गुस्से से लालपीली होते हुए बोली, ‘दीदी, अगर आप को कोई परेशानी है तो यों ही कह दीजिए. वैसे भी हमारी हैसियत तो है ही कि हम एक नौकरानी रख लें.’

आवेश में विभा से यह कटु वचन बोल कर सुनैना प्रभात की सहानुभूति बटोरने के लिए अभिनय करती हुई धम्म से कुरसी पर बैठ गई.

प्रभात ने सुनैना को संभालते हुए तैश में आ कर कहा, ‘दीदी, जरा ध्यान से खाना बनाया कीजिए. सुनैना को डाक्टर ने जरा सा भी स्ट्रेस लेने से मना किया है. आप की ऐसी हरकत की वजह से अगर हमारे बच्चे को कुछ हो गया तो…’

प्रभात के ऐसे व्यवहार से सुनैना को बल मिला और फिर उस ने विभा पर अपने बच्चे को गिराने का आरोप जड़ते हुए कहा, ‘आप तो, जब से मैं इस घर में आई हूं, कुछ न कुछ मेरे खिलाफ करती ही रहती हैं और आज जब मैं मां बनने वाली हूं तो जादूटोना कर के हमारी होने वाली संतान को मारना चाहती हैं. अरे, शैतान भी एक बार खाए हुए नमक की लाज रख लेता होगा और आप जिस घर में बरसों से रह रही हैं उसी घर की दीवारों की नींव को खोद देना चाहती हैं.’

विभा ने जब खुद पर लगे आरोपों का विरोध करना चाहा तो प्रभात ने उसे तमाचा जड़ दिया था. यह चोट सब से गहरी थी और सब से ज्यादा दुखदायी था मांबाबूजी का मूकदर्शक बने रहना. उस दिन एक विधवा की वेदना को विभा पूरी तरह समझ गई थी. विभा ने आवेश में आ कर अकेले ही कहीं और मकान ले कर रहने का फैसला किया पर दिल्ली जैसे शहर में एक महिला का अकेले रहना कहां तक सुरक्षित है, यह सोच कर मांबाबूजी ने उसे रोक लिया.

सुनैना, विभा को परिवार वालों की नजरों में गिराना ही नहीं बल्कि उसे घर से निकलवाना भी चाहती थी, पर अपनी आशाओं पर पानी फिरता देख अवसर पा कर उस ने मांबाबूजी के मन में विभा के दूसरे विवाह का विचार डाल दिया.

मांबाबूजी विभा के लिए किसी उचित वर की तलाश में थे तो सुनैना ने एक लड़के का नाम भी उन्हें सुझाया. उस की बातों में आ कर घर वालों ने ‘विधवा’ विभा का रिश्ता तय कर दिया.

विभा यह तो जान ही चुकी थी कि एक औरत का अस्तित्व उस के पति की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है. और एक सादे समारोह में विभा की दूसरी शादी संपन्न हो गई.

विभा अपने अतीत में खोई हुई थी कि तभी मां ने उसे झकझोरा और कहा, ‘‘विभा बेटा, तुम्हारी विदाई का समय हो गया है.’’

आज विभा, विनोद की दूसरी पत्नी बन कर उस के घर जा रही थी. उस की आंखों से आंसुओं का सागर उमड़ रहा था. किंतु इन आंसुओं का औचित्य समझ पाना उस के बस की बात नहीं थी. यह आंसू अपने उस घर से विदाई के थे जहां से वह 11 साल पहले ही विदा की जा चुकी थी या एक विधवा की बदकिस्मती के, विभा स्वयं नहीं जानती थी.

विभा अब तक विनोद से नहीं मिली थी. उसे केवल इतना बताया गया था कि विनोद पेशे से एक सर्जन है, उस की पहली पत्नी की मृत्यु कुछ समय पहले हुई थी और विनोद के 2 बच्चे हैं. प्रांजल जो 8 वर्ष का है और परिधि 6 वर्ष की है. घर में विनोद और बच्चों के अलावा मातापिता हैं.

विभा इस शादी से खुश नहीं थी पर विदाई के बाद ससुराल पहुंचते ही जब प्रांजल और परिधि ने उसे ‘नई मम्मी’ कह कर पुकारा तो वह गद्गद हो गई. मातृत्व क्या होता है, उसे यह खुशी नसीब नहीं हुई थी मगर प्रांजल और परिधि के एक छोटे से उच्चारण ने उस के भीतर दबी हुई ममता को जागृत कर दिया. उस के सासससुर का व्यवहार बेहद करुणा- मयी और विनम्र था.

विनोद से अब तक उस की भेंट नहीं हुई थी. विभा कमरे में काफी देर तक उस की प्रतीक्षा करती रही और इंतजार करतेकरते कब उस की आंख लग गई उसे पता नहीं चला. शायद विनोद ने उसे जगाना भी ठीक नहीं समझा.

विभा में नईनवेली दुलहनों जैसे नाजनखरे नहीं थे इसलिए विवाह के अगले दिन से ही घर का सारा काम उस ने अपने हाथों में ले लिया. सुबह जल्दी उठ कर अपना पूजापाठ समाप्त कर के पहले वह अपने सासससुर को चाय बना कर देती, फिर नाश्ता तैयार करती, विनोद को नर्स्ंिग होम और बच्चों को स्कूल भेज कर वह अपने विद्यालय जाती.

दोपहर को विद्यालय से आते ही बच्चे उसे घेर लेते. पहले तो उन्हें खाना खिला कर विभा उन का होमवर्क पूरा करवाती और फिर उन के साथ खूब खेलती. अब प्रांजल और परिधि उसे ‘नई मम्मी’ के बजाय ‘मम्मी’ कह कर पुकारने लगे थे. बच्चों के साथ विभा ने अपने सासससुर का भी दिल जीत लिया था.

विनोद देर रात घर आता तब तक विभा सो चुकी होती थी. विनोद के साथ विभा की जो बातें होतीं वे केवल औपचारिकता भर ही थीं. विवाह को दिन ही नहीं महीनों बीत गए थे पर जीवनसाथी के रूप में दोनों को एकदूसरे के विचार जानने का मौका ही नहीं मिला था.

विनोद का व्यवहार घर वालों के प्रति बहुत असहज था. माना वह घर पर कम रहता था मगर जितनी देर रहता उतनी देर भी न तो बच्चों से और न ही मांबाबूजी से वह खुल कर बातें करता था. विभा ने उन सब के बीच एक अजीब सी दूरी का अनुभव किया और वह शंकित हो गई. वह मांबाबूजी से सीधे कुछ भी कहना नहीं चाहती थी मगर विनोद से कहना भी ठीक नहीं था.

एक दिन विभा घर पर ही थी और बच्चे विनोद के साथ कहीं गए थे. विभा ने अवसर पा कर मांजी से पूछ ही लिया, ‘‘मांजी, मैं जब से इस घर में आई हूं उन्होंने कभी मुझ से बात नहीं की और मुझे उन का व्यवहार भी बहुत अजीब लगता है. मुझे कहना तो नहीं चाहिए, मगर लगता है आप लोगों के बीच कोई समस्या…?’’

विभा की बात काटते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटा, विनोद इस विवाह से…’’

विभा चौंक पड़ी, ‘‘खुश नहीं हैं, क्या?’’

‘‘देखो बेटा, सुनैना और प्रभात को हम ने पहले ही बता दिया था कि विनोद न तो तुम से शादी करना चाहता है और न ही वह तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा. विनोद खुद को तुम्हारा अपराधी समझता है,’’ मांजी ने उत्तर दिया.

बाबूजी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और बोले, ‘‘बहू, तुम जानती हो कि हमारी बहू ‘पायल’ की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हुई थी. उस में विनोद भी बुरी तरह घायल हो गया था. उस का काफी खून बह चुका था. आपरेशन के समय उसे खून चढ़ाया गया और यही विनोद की बदकिस्मती थी.’’

‘‘मगर बाबूजी, उस आपरेशन से हमारे रिश्ते का क्या संबंध?’’ विभा अभी भी सकते में थी.

‘‘विनोद के आपरेशन से कुछ समय बाद उसे पता चला कि जो खून उसे चढ़ाया गया था वह एचआईवी पौजीटिव था,’’ कहतेकहते बाबूजी का गला रुंध गया.

विभा खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी. वह सुनैना को दोष नहीं दे सकती थी मगर जो विश्वासघात भाई हो कर प्रभात ने उस के साथ किया, उस से वह सोचने को विवश हो गई थी कि क्या विधवा पुनर्विवाह का औचित्य यही है कि उस का प्रयोग केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए किया जाता है. आज वह एक सधवा हो कर भी खुद को विधवा ही महसूस कर रही है.

बाबूजी ने विभा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहना शुरू किया, ‘‘विनोद के सीडी फोर सेल्स का स्तर अब धीरेधीरे कम होने लगा है. हम बूढ़े हो चुके हैं. विनोद को कुछ हो गया तो हम बूढ़े तो वैसे ही खत्म हो जाएंगे. हम ने सोचा कि हमारे बाद इन फूल से बच्चों को कौन संभालेगा? क्या होगा इन का? यही सोच कर हम ने विनोद का विवाह जबरन तुम्हारे साथ करवाया ताकि इन बच्चों को संभालने वाला कोई तो हो,’’ इतना कह कर बाबूजी कमरे से बाहर निकल गए.

अपने को संभालते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, तुम्हें लग रहा होगा कि हम लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए तुम्हारा जीवन बरबाद कर दिया. निर्णय अब तुम्हें ही लेना है. हो सके तो हमें क्षमा कर देना.’’

निरुत्तर खड़ी विभा वहां से भाग निकलना चाहती थी और जा कर प्रभात, मां व बाबूजी से पूछना चाहती थी कि क्या विधवा होना उस का कुसूर है? आज वह दोराहे पर खड़ी थी.

तभी प्रांजल और परिधि स्कूल से आते ही उस से लिपट गए और अपनी स्कूल की दिनचर्या बताबता कर उस की गोद में झूलने लगे. बच्चों का स्पर्श पाते ही विभा की मानो सारी उलझनें सुलझ गई थीं.

उस की नियति लिखी जा चुकी थी. वह विनोद के समर्पण, मांबाबूजी के प्रेम और अपने मातृत्व के सामने नतमस्तक हो गई, फिर प्रांजल और परिधि ने विभा के आंसू पोंछे और उस से लिपट गए. आज सबकुछ खो कर भी विभा ने मातृत्व का अमृत पा लिया था. उसे अपना आज और आने वाला कल साफ नजर आने लगा था.

Family Story: मैं हूं न

Family Story: लड़के वाले मेरी ननद को देख कर जा चुके थे. उन के चेहरों से हमेशा की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देखने को मिली थी. कोई कमी नहीं थी उन में. पढ़ी लिखी, कमाऊ, अच्छी कदकाठी की. नैननक्श भी अच्छे ही कहे जाएंगे. रंग ही तो सांवला है. नकारात्मक उत्तर मिलने पर सब यही सोच कर संतोष कर लेते कि जब कुदरत चाहेगी तभी रिश्ता तय होगा. लेकिन दीदी बेचारी बुझ सी जाती थीं. उम्र भी तो कोई चीज होती है.

‘इस मई को दीदी पूरी 30 की हो चुकी हैं. ज्योंज्यों उम्र बढ़ेगी त्योंत्यों रिश्ता मिलना और कठिन हो जाएगा,’ सोचसोच कर मेरे सासससुर को रातरात भर नींद नहीं आती थी. लेकिन जिसतिस से भी तो संबंध नहीं जोड़ा जा सकता न. कम से कम मानसिक स्तर तो मिलना ही चाहिए. एक सांवले रंग के कारण उसे विवाह कर के कुएं में तो नहीं धकेल सकते, सोच कर सासससुर अपने मन को समझाते रहते.

मेरे पति रवि, दीदी से साल भर छोटे थे. लेकिन जब दीदी का रिश्ता किसी तरह भी होने में नहीं आ रहा था, तो मेरे सासससुर को बेटे रवि का विवाह करना पड़ा. था भी तो हमारा प्रेमविवाह. मेरे परिवार वाले भी मेरे विवाह को ले कर अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी जोर दिया तो उन्हें मानना पड़ा. आखिर कब तक इंतजार करते.

मेरे पति रवि अपनी दीदी को बहुत प्यार करते थे. आखिर क्यों नहीं करते, थीं भी तो बहुत अच्छी, पढ़ीलिखी और इतनी ऊंची पोस्ट पर कि घर में सभी उन का बहुत सम्मान करते थे. रवि ने मुझे विवाह के तुरंत बाद ही समझा दिया था उन्हें कभी यह महसूस न होने दूं कि वे इस घर पर बोझ हैं. उन के सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, इसलिए कोई भी निर्णय लेते समय सब से पहले उन से सलाह ली जाती थी. वे भी हमारा बहुत खयाल रखती थीं. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी थी, इसलिए उन को पा कर मुझे लगा जैसे मुझे बड़ी बहन मिल गई हैं.

एक बार रवि औफिस टूअर पर गए थे. रात काफी हो चुकी थी. सासससुर भी गहरी नींद में सो गए थे. लेकिन दीदी अभी औफिस से नहीं लौटी थीं. चिंता के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. तभी कार के हौर्न की आवाज सुनाई दी. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा, दीदी कार से उतर रही थीं. उन की बगल में कोई पुरुष बैठा था. कुछ अजीब सा लगा कि हमेशा तो औफिस की कैब उन्हें छोड़ने आती थी, आज कैब के स्थान पर कार में उन्हें कौन छोड़ने आया है.

मुझे जागता देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘सोई नहीं अभी तक?’’

‘‘आप का इंतजार कर रही थी. आप के घर लौटने से पहले मुझे नींद कैसे आ सकती है, मेरी अच्छी दीदी?’’ मैं ने उन के गले में बांहें डालते हुए उन के चेहरे पर खोजी नजर डालते हुए कहा, ‘‘आप के लिए खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज औफिस में ही खा लिया था. अब तू जा कर सो.’’

‘‘गुड नाइट दीदी,’’ मैं ने कहा और सोने चली गई. लेकिन आंखों में नींद कहां?

दिमाग में विचार आने लगे कि कोई तो बात है. पिछले कुछ दिनों से दीदी कुछ परेशान और खोईखोई सी रहती हैं. औफिस की समस्या होती तो वे घर में अवश्य बतातीं. कुछ तो ऐसा है, जो अपने भाई, जो भाई कम और मित्र अधिक है से साझा नहीं करती और आज इतनी रात को देर से आना, वह भी किसी पुरुष के साथ, जरूर कुछ दाल में काला है. इसी पुरुष से विवाह करना चाहतीं तो पूरा परिवार जान कर बहुत खुश होता. सब उन के सुख के लिए, उन की पसंद के किसी भी पुरुष को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे, इतना तो मैं अपने विवाह के बाद जान गई हूं. लेकिन बात कुछ और ही है जिसे वे बता नहीं रही हैं, लेकिन मैं इस की तह में जा कर ही रहूंगी, मैं ने मन ही मन तय किया और फिर गहरी नींद की गोद में चली गई.

सुबह 6 बजे आंख खुली तो देखा दीदी औफिस के लिए तैयार हो रही थीं. मैं ने कहा, ‘‘क्या बात है दीदी, आज जल्दी…’’

मेरी बात पूरी होने हो पहले से वे बोलीं,  ‘‘हां, आज जरूरी मीटिंग है, इसलिए जल्दी जाना है. नाश्ता भी औफिस में कर लूंगी…देर हो रही है बाय…’’

मेरे कुछ बोलने से पहले ही वे तीर की तरह घर से निकल गईं. बाहर जा कर देखा वही गाड़ी थी. इस से पहले कि ड्राइवर को पहचानूं वह फुर्र से निकल गईं. अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अवश्य दीदी किसी गलत पुरुष के चंगुल में फंस गई हैं. हो न हो वह विवाहित है. मुझे कुछ जल्दी करना होगा, लेकिन घर में बिना किसी को बताए, वरना वे अपने को बहुत अपमानित महसूस करेंगी.

रात को वही व्यक्ति दीदी को छोड़ने आया. आज उस की शक्ल की थोड़ी सी झलक

देखने को मिली थी, क्योंकि मैं पहले से ही घात लगाए बैठी थी. सासससुर ने जब देर से आने का कारण पूछा तो बिना रुके अपने कमरे की ओर जाते हुए थके स्वर में बोलीं, ‘‘औफिस में मीटिंग थी, थक गई हूं, सोने जा रही हूं.’’

‘‘आजकल क्या हो गया है इस लड़की को, बिना खाए सो जाती है. छोड़ दे ऐसी नौकरी, हमें नहीं चाहिए. न खाने का ठिकाना न सोने का,’’ मां बड़बड़ाने लगीं, तो मैं ने उन्हें शांत कराया कि चिंता न करें. मैं उन का खाना उन के कमरे में पहुंचा दूंगी. वे निश्चिंत हो कर सो जाएं.

मैं खाना ले कर उन के कमरे में गई तो देखा वे फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. मुझे देखते ही फोन काट दिया. मेरे अनुरोध करने पर उन्होंने थोड़ा सा खाया. खाना खाते हुए मैं ने पाया कि पहले के विपरीत वे अपनी आंखें चुराते हुए खाने को जैसे निगल रही थीं. कुछ भी पूछना उचित नहीं लगा. उन के बरतन उन के लाख मना करने पर भी उठा कर लौट आई.

2 दिन बाद रवि लौटने वाले थे. मैं अपनी सास से शौपिंग का बहाना कर के घर से सीधी दीदी के औफिस पहुंच गई. मुझे अचानक आया देख कर एक बार तो वे घबरा गईं कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि मुझे औफिस आना पड़ा.

मैं ने उन के चेहरे के भाव भांपते हुए कहा, ‘‘अरे दीदी, कोई खास बात नहीं. यहां मैं कुछ काम से आई थी. सोचा आप से मिलती चलूं. आजकल आप घर देर से आती हैं, इसलिए आप से मिलना ही कहां हो पाता है…चलो न दीदी आज औफिस से छुट्टि ले लो. घर चलते हैं.’’

‘‘नहीं बहुत काम है, बौस छुट्टी नहीं देगा…’’

‘‘पूछ कर तो देखो, शायद मिल जाए.’’

‘‘अच्छा कोशिश करती हूं,’’ कह उन्होंने जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश की. फिर बौस के कमरे में चली गईं.

बौस के औफिस से निकलीं तो वह भी उन के साथ था, ‘‘अरे यह तो वही आदमी

है, जो दीदी को छोड़ने आता है,’’ मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला. मैं ने चारों ओर नजर डाली. अच्छा हुआ आसपास कोई नहीं था. दीदी को इजाजत मिल गई थी. उन का बौस उन्हें बाहर तक छोड़ने आया. इस का मुझे कोई औचित्य नहीं लगा. मैं ने उन को कुरेदने के लिए कहा, ‘‘वाह दीदी, बड़ी शान है आप की. आप का बौस आप को बाहर तक छोड़ने आया. औफिस के सभी लोगों को आप से ईर्ष्या होती होगी.’’

दीदी फीकी सी हंसी हंस दीं, कुछ बोलीं नहीं. सास भी दीदी को जल्दी आया देख कर बहुत खुश हुईं.

रात को सभी गहरी नींद सो रहे थे कि अचानक दीदी के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आने लगीं. मैं उन के कमरे की तरफ लपकी. वे कुरसी पर निढाल पड़ी थीं. मैं ने उन के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या बात है दीदी? ऐसा तो हम ने कुछ खाया नहीं कि आप को नुकसान करे फिर बदहजमी कैसे हो गई आप को?’’

फिर अचानक मेरा माथा ठकना कि कहीं दीदी…मैं ने उन के दोनों कंधे हिलाते हुए कहा, ‘‘दीदी कहीं आप का बौस… सच बताओ दीदी…इसीलिए आप इतनी सुस्त…बताओ न दीदी, मुझ से कुछ मत छिपाइए. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. मेरा विश्वास करो.’’

मेरा प्यार भरा स्पर्श पा कर और सांत्वना भरे शब्द सुन कर वे मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगीं और सकारात्मकता में सिर हिलाने लगीं. मैं सकते में आ गई कि कहीं ऐसी स्थिति न हो गई हो कि अबौर्शन भी न करवाया जा सके. मैं ने कहा, ‘‘दीदी, आप बिलकुल न घबराएं, मैं आप की पूरी मदद करूंगी. बस आप सारी बात मुझे सुना दीजिए…जरूर उस ने आप को धोखा दिया है.’’

दीदी ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘ये बौस नए नए ट्रांसफर हो कर मेरे औफिस में आए थे. आते ही उन्होंने मेरे में रुचि लेनी शुरू कर दी और एक दिन बोले कि उन की पत्नी की मृत्यु 2 साल पहले ही हुई है. घर उन को खाने को दौड़ता है, अकेलेपन से घबरा गए हैं, क्या मैं उन के जीवन के खालीपन को भरना चाहूंगी? मैं ने सोचा शादी तो मुझे करनी ही है, इसलिए मैं ने उन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. मैं ने उन से कहा कि वे मेरे मम्मी पापा से मिल लें. उन्होंने कहा कि ठीक हूं, वे जल्दी घर आएंगे. मैं बहुत खुश थी कि चलो मेरी शादी को ले कर घर में सब बहुत परेशान हैं, सब उन से मिल कर बहुत खुश होंगे. एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि शादी से पहले मैं उन का घर तो देख लूं, जिस में मुझे भविष्य में रहना है. मैं उन की बातों में आ गई और उन के साथ उन के घर चली गई.

वहां उन के चेहरे से उन का बनावटी मुखौटा उतर गया. उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और धमकी दी कि यदि मैं ने किसी को बताया तो उन के कैमरे में मेरे ऐसे फोटो हैं, जिन्हें देख कर मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी. होश में आने के बाद जब मैं ने पूरे कमरे में नजर दौड़ाई तो मुझे पल भर की भी देर यह समझने में न लगी कि वह शादीशुदा है. उस समय उस की पत्नी कहीं गई होगी. मैं क्या करती, बदनामी के डर से मुंह बंद कर रखा था. मैं लुट गई, अब क्या करूं?’’ कह कर फिर फूटफूट कर रोने लगीं.

तब मैं ने उन को अपने से लिपटाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें दीदी. अब देखती हूं वह कैसे आप को ब्लैकमेल करता है. सब से पहले मेरी फ्रैंड डाक्टर के पास जा कर अबौर्शन की बात करते हैं. उस के बाद आप के बौस से निबटेंगे. आप की तो कोई गलती ही नहीं है.

आप डर रही थीं, इसी का फायदा तो वह उठा रहा था. अब आप निश्चिंत हो कर सो जाइए. मैं हूं न. आज मैं आप के कमरे में ही सोती हूं,’’ और फिर मैं ने मन ही मन सोचा कि अच्छा है, पति बाहर गए हैं और सासससुर का कमरा दूर होने के कारण आवाज से उन की नींद नहीं खुली. थोड़ी ही देर में दोनों को गहरी नींद ने आ घेरा.

अगले दिन दोनों ननदभाभी किसी फ्रैंड के घर जाने का बहाना कर के डाक्टर के पास जाने के लिए निकलीं. डाक्टर चैकअप कर बोलीं, ‘‘यदि 1 हफ्ता और निकल जाता तो अबौर्शन करवाना खतरनाक हो जाता. आप सही समय पर आ गई हैं.’’

मैं ने भावातिरेक में अपनी डाक्टर फ्रैंड को गले से लगा लिया.

वे बोलीं, ‘‘सरिता, तुम्हें पता है ऐसे कई केस रोज मेरे पास आते हैं. भोलीभाली लड़कियों को ये दरिंदे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वे बदनामी के डर से सब सहती रहती हैं. लेकिन तुम तो स्कूल के जमाने से ही बड़ी हिम्मत वाली रही हो. याद है वह अमित जिस ने तुम्हें तंग करने की कोशिश की थी. तब तुम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर के उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लिया था.’’

‘‘अरे विनीता, तुझे अभी तक याद है. सच, वे भी क्या दिन थे,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

पारुल के चेहरे पर भी आज बहुत दिनों बाद मुसकराहट दिखाई दी थी. अबौर्शन हो गया.

घर आ कर मैं अपनी सास से बोली, ‘‘दीदी को फ्रैंड के घर में चक्कर आ गया था, इसलिए डाक्टर के पास हो कर आई हैं. उन्होंने बताया

है कि खून की कमी है, खाने का ध्यान रखें और 1 हफ्ते की बैडरैस्ट लें. चिंता की कोई बात नहीं है.’’

सास ने दुखी मन से कहा, ‘‘मैं तो कब से कह रही हूं, खाने का ध्यान रखा करो, लेकिन मेरी कोई सुने तब न.’’

1 हफ्ते में ही दीदी भलीचंगी हो गईं. उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो भाभी. मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला दिया. तुम ने मां से भी बढ़ कर मेरा ध्यान रखा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है…ऐसी भाभी सब को मिले.’’

‘‘अरे दीदी, पिक्चर अभी बाकी है. अभी तो उस दरिंदे से निबटना है.’’

1 हफ्ते बाद हम योजनानुसार बौस की पत्नी से मिलने के लिए गए. उन को उन के पति का सारा कच्चाचिट्ठा बयान किया, तो वे हैरान होते हुए बोलीं, ‘‘इन्होंने यहां भी नाटक शुरू कर दिया…लखनऊ से तो किसी तरह ट्रांसफर करवा कर यहां आए हैं कि शायद शहर बदलने से ये कुछ सुधर जाएं, लेकिन कोई…’’ कहते हुए वे रोआंसी हो गईं.

हम उन की बात सुन कर अवाक रह गए. सोचने लगे कि इस से पहले न जाने

कितनी लड़कियों को उस ने बरबाद किया होगा. उस की पत्नी ने फिर कहना शुरू

किया, ‘‘अब मैं इन्हें माफ नहीं करूंगी. सजा दिलवा कर ही रहूंगी. चलो पुलिस

स्टेशन चलते हैं. इन को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप जैसी पत्नियां हों तो अपराध को बढ़ावा मिले ही नहीं. हमें आप पर गर्व है,’’ और फिर हम दोनों ननदभाभी उस की पत्नी के साथ पुलिस को ले कर बौस के पास उन के औफिस पहुंच गए.

पुलिस को और हम सब को देख कर वह हक्काबक्का रह गया. औफिस के सहकर्मी भी सकते में आ गए. उन में से एक लड़की भी आ कर हमारे साथ खड़ी हो गई. उस ने भी कहा कि उन्होंने उस के साथ भी दुर्व्यवहार किया है. पुलिस ने उन्हें अरैस्ट कर लिया. दीदी भावातिरेक में मेरे गले लग कर सिसकने लगीं. उन के आंसुओं ने सब कुछ कह डाला.

घर आ कर मैं ने सासससुर को कुछ नहीं बताया. पति से भी अबौर्शन वाली बात तो छिपा ली, मगर यह बता दिया कि वह दीदी को बहुत परेशान करता था.

सुनते ही उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और बोले, ‘‘वाह, मुझे तुम पर गर्व है. तुम ने मेरी बहन को किसी के चंगुल में फंसने से बचा लिया. बीवी हो तो ऐसी.,’’

उन की बात सुन कर हम ननदभाभी दोनों एकदूसरे को देख मुसकरा दीं.

Hindi Story: दंश – सोना भाभी क्यों बीमार रहती थी?

Hindi Story: सोना भाभी वैसे तो कविता की भाभी थीं. कविता, जो स्कूल में मेरी सहपाठिनी थी और हमारे घर भी एक ही गली में थे. कविता के साथ मेरा दिनरात का उठनाबैठना ही नहीं उस घर से मेरा पारिवारिक संबंध भी रहा था. शिवेन भैया दोनों परिवारों में हम सब भाईबहनों में बड़े थे. जब सोना भाभी ब्याह कर आईं तो मुझे लगा ही नहीं कि वह मेरी अपनी सगी भाभी नहीं थीं.

सोना भाभी का नाम उषा था. उन का पुकारने का नाम भी सोना नहीं था, न हमारे घर बहू का नाम बदलने की कोई प्रथा ही थी पर चूंकि भाभी का रंग सोने जैसा था अत: हम सभी भाईबहन यों ही उन्हें सोना भाभी बुलाने लगे थे. बस, वह हमारे लिए उषा नहीं सोना भाभी ही बनी रहीं. सुंदर नाकनक्श, बड़ीबड़ी भावपूर्ण आंखें, मधुर गायन और सब से बढ़ कर उन का अपनत्व से भरा व्यवहार था. उन के हाथ का बना भोजन स्वाद से भरा होता था और उसे खिलाने की जो चिंता उन के चेहरे पर झलकती थी उसे देख कर हम उन की ओर बेहद आकृष्ट होते थे.

शिवेन भैया अभी इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे कि उन्हें मातापिता ही नहीं दादादादी के अनुरोध से विवाह बंधन में बंधना पड़ा. पढ़ाई पूरी कर के वह दिल्ली चले गए फिर वहीं रहे. हम लोग भी अपनेअपने विवाह के बाद अलगअलग शहरों में रहने लगे. कभी किसी खास आयोजन पर मिलते तो सोना भाभी का प्यार हमें स्नेह से सराबोर कर देता. उन का स्नेहिक आतिथ्य हमेें भावविभोर कर देता.

आखिरी बार जब सोना भाभी से मिलना हुआ उस समय उन्होंने सलवार सूट पहना हुआ था. वह मेरे सामने आने में झिझकीं. मैं ड्राइंगरूम में बैठने वाली तो थी नहीं, भाग कर दूसरे कमरे में पहुंची तो वह साड़ी पहनने जा रही थीं.

मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘यह क्या भाभी, आज तो आप बड़ी सुंदर लग रही हो, खासकर इस सलवार सूट में.’’

‘‘नहीं,’’ उन्होंने जोर देते हुए कहा.

मैं ने उन्हें शह दी, ‘‘भाभी आप की कमसिन छरहरी काया पर यह सलवार सूट तो खूब फब रहा है.’’

‘‘नहीं, माया, मुझे संकोच लगता है. बस, 2 मिनट में.’’

‘‘पर क्यों? आजकल तो हर किसी ने सलवार सूट अपने पहनावे में शामिल कर लिया है. यहां तक कि उन बूढ़ी औरतों ने भी जिन्होंने पहले कभी सलवार सूट पहनने के बारे में सोचा तक नहीं था… सुविधाजनक होता है न भाभी, फिर रखरखाव में भी साड़ी से आसान है.’’

‘‘यह बात नहीं है, माया. मुझे कमर में दर्द रहता है तो सब ने कहा कि सलवार सूट पहना करूं ताकि उस से कमर अच्छी तरह ढंकी रहेगी तो वह हिस्सा गरम रहेगा.’’

‘‘हां, भाभी, सो तो है,’’ मैं ने हामी भरी पर मन में सोचा कि सब की देखादेखी उन्हें भी शौक हुआ होगा तो कमर दर्द का एक बहाना गढ़ लिया है…

सोना भाभी ने इस हंसीमजाक के  बीच अपनी जादुई उंगलियों से खूब स्वादिष्ठ भोजन बनाया. इस बीच कई बार मोबाइल फोन की घंटी बजी और भाभी मोबाइल से बात करती रहीं. कोई खास बात न थी. हां, शिवेन भैया आ गए थे. उन्होंने हंसीहंसी में कहा कि तुम्हारी भाभी को उठने में देर लगती थी, फोन बजता रहता था और कई बार तो बजतेबजते कट भी जाता था, इसी से इन के लिए मोबाइल लेना पड़ा.

साल भर बाद ही सुना कि सोना भाभी नहीं रहीं. उन्हें कैंसर हो गया था. सोना भाभी के साथ जीवन की कई मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई थीं इसलिए दुख भी बहुत हुआ. लगभग 5 सालों के बाद कविता से मिली तब भी हम दोनों की बातों में सोना भाभी ही केंद्रित थीं. बातों के बीच अचानक मुझे लगा कि कविता कुछ कहतेकहते चुप हो गई थी. मैं ने कविता से पूछ ही लिया, ‘‘कविता, मुझे ऐसा लगता है कि तुम कुछ कहतेकहते चुप हो जाती हो…क्या बात है?’’

‘‘हां, माया, मैं अपने मन की बात तुम्हें बताना चाहती हूं पर कुछ सोच कर झिझकती भी हूं. बात यह है…

‘‘एक दिन सोना भाभी से बातोंबातों में पता लगा कि उन्हें प्राय: रक्तस्राव होता रहता है. भाभी बताने लगीं कि पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है. 50 से 5 साल ऊपर की हो रही हूं्…

‘‘भाभी पहले से भी सुंदर, कोमल लग रही थीं. बालों में एक भी रजत तार नहीं था. वह भी बिना किसी डाई के. वह इतनी अच्छी लग रही थीं कि मेरे मुंह से निकल गया, ‘भाभी, आप चिरयौवना हैं न इसीलिए. देखिए, आप का रंग पहले के मुकाबले और भी निखरानिखरा लग रहा है और चेहरा पहले से भी कोमल, सुंदर. आप बेकार में चिंता क्यों कर रही हैं.

‘‘यही कथन, यही सोच मेरे मन में आज भी कांटा सा चुभता रहता है. क्यों नहीं उस समय उन पर जोर दिया था कि आप के साथ जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है. आप डाक्टर से परामर्श लें. क्यों झूठा परिहास कर बैठी थी?’’

मुझे भी उन के कमर दर्द की शिकायत याद आई. मैं ने भी तो उन की बातों को गंभीरता से नहीं लिया था. मन में सोच कर मैं खामोश हो गई.

भाभी और भैया दोनों ही अस्पताल जाने से बहुत डरते थे या यों कहें कि कतराते थे. शायद कुछ कटु अनुभव हों. वहां बातबात में लाइन लगा कर खड़े रहना, नर्सो की डांटडपट, बेरहमी से सूई घुसेड़ना, अटेंडेंट की तीखी उपहास करती सी नजर, डाक्टरों का शुष्क व्यवहार आदि से बचना चाहते थे.

भाभी को सब से बढ़ कर डर था कि कैंसर बता दिया तो उस के कष्टदायक उपचार की पीड़ा को झेलना पड़ेगा. उन्हें मीठी गोली में बहुत विश्वास था. वह होम्योपैथिक दवा ले रही थीं.

‘‘माया, बहुत सी महिलाएं अपने दर्द का बखान करने लगती हैं तो उन की बातों की लड़ी टूटने में ही नहीं आती,’’ कविता बोली, ‘‘उन के बयान के आगे तो अपने को हो रहा भीषण दर्द भी बौना लगने लगता है. सोना भाभी को भी मैं ने ऐसा ही समझ लिया. उन से हंसी में कही बात आज भी मेरे मन को सालती है कि कहीं उन्होंने मेरे मुंह से अपनी काया को स्वस्थ कहे जाने को सच ही तो नहीं मान लिया था और गर्भाशय के अपने कैंसर के निदान में देर कर दी हो.

‘‘माया, लगता यही है कि उन्होंने इसीलिए अपने पर ध्यान नहीं दिया और इसे ही सच मान लिया कि रक्तस्राव होते रहना कोई अनहोनी बात नहीं है. सुनते हैं कि हारमोन वगैरह के इंजेक्शन से यौवन लौटाया जा रहा है पर भाभी के साथ ऐसा क्यों हुआ? मैं यहीं पर अपने को अपराधी मानती हूं, यह मैं किसी से बता न सकी पर तुम से बता रही हूं. भाभी मेरी बातों पर आंख मूंद कर विश्वास करती थीं. 3-4 महीने भी नहीं बीते थे जब रोग पूरे शरीर में फैल गया. सोने सी काया स्याह होने लगी. अस्पताल के चक्कर लगने लगे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.’’

मुझे भी याद आने लगा जब मैं अंतिम बार उन से मिली थी. मैं ने भी उन्हें कहां गंभीरता से लिया था.

‘‘माया, तुम कहानियां लिखती हो न,’’ कविता बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि सोना भाभी के कष्ट की, हमारे दुख की, मेरे अपने मन की पीड़ा तुम लिख दो ताकि जो भी महिला कहानी पढ़े, वह अपने पर ध्यान दे और ऐसा कुछ हो तो शीघ्र ही निदान करा ले.’’

कविता बिलख रही थी. मेरी आंखें भी बरस रही थीं. उसे सांत्वना देने वाले शब्द मेरे पास नहीं थे. वह मेरी भी तो बहुत अपनी थी. कविता का अनुरोध नहीं टाल सकी हूं सो उस की व्यथाकथा लिख रही हूं.

Family Story: अहिल्या – रज्जो को अपने चरित्र का क्यों प्रमाण देना पड़ा

Family Story, लेखिका- वंदना सोलंकी

रज्जो गांव की सीधीसादी,अल्हड़ पर बेहद खूबसूरत लड़की थी. उम्र यही कोई 18 या 19 साल रही होगी. 2 साल पहले उस के मांबाप की एक हादसे में मौत हो गई थी. उस के बाद भैयाभाभी ने उस की शादी रमेश से करा दी और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया. तब तक वह 12वीं जमात तक ही पढ़ पाई थी.

रमेश तकरीबन 25 साल का नौजवान था जो फौज में तैनात था. इस समय उस की पोस्टिंग पुणे में थी. शादी के समय रमेश को 15 दिन की छुट्टी मिली थी. तब से वह अब घर आया था और इस बार अपनी नई ब्याहता पत्नी रज्जो को साथ ले जा रहा था.

पति के साथ रेल के एयरकंडीशनर डब्बे में बैठी रज्जो बहुत रोमांचित हो रही थी. वह पहली बार ऐसे ठंडे डब्बे में सफर कर रही थी, वह भी अपने नएनवेले पति के साथ.

खिड़की के पास बैठी रज्जो भविष्य के सपने बुनने में इतनी तल्लीन थी कि उस का पति रमेश कब उस की बगल में आ कर बैठ गया, इस बात का उसे भान ही नहीं रहा.

जब रमेश ने रज्जो को कुहनी मार कर छेड़ा तब वह वर्तमान के धरातल पर आई. उस ने प्यार से पति को मुसकरा कर देखा और उस के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

रमेश की बर्थ रज्जो की बर्थ के ऊपर की थी. सामने की सीट पर एक नौजवान बैठा था, जो अजीब सी नजरों से रज्जो को घूरे जा रहा था. उस की गहरी नीली आंखें मानो रज्जो के शरीर के अंदर तक का मुआयना कर रही थीं.

रज्जो इस बात से असहज महसूस कर रही थी. उस नौजवान की उम्र भी रमेश के बराबर ही रही होगी. रमेश ने उस से अपने साथ सीट बदलने का आग्रह किया, तो उस ने बताया कि यह उस की सीट नहीं है, बल्कि उस की सीट ऊपर की है.

रमेश ने सोचा कि इस सीट पर जो भी आएगा तब वह उस से सीट बदलने की बात कर लेगा.

उन का आपस में परिचय हुआ. वह नौजवान एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उस की पोस्टिंग नवी मुंबई में थी. वह दिल्ली से किसी शादी समारोह से लौट रहा था. अभी उस की छुट्टियां बाकी थीं, तो वह अपनी बहन के पास पुणे जा रहा था.

रमेश उस के साथ बातों में मशगूल था, पर रज्जो को यह अच्छा नहीं लग रहा था. वह पति के साथ ढेर सारी बातें करना चाहती थी, पर यह कबाब में हड्डी बन उस की सारी उम्मीदों पर पानी फेर रहा था.

जब रज्जो से रहा नहीं गया तो वह बोली, “सुनिए, मुझे तो बहुत भूख लगी है… खाना निकालूं?”

रमेश के हां कहते ही रज्जो खाना निकालने लगी, तो सामने वाला नौजवान, जिस का नाम विपिन नाम था, वहां से उठ कर जाने लगा. रमेश ने उसे भी खाने के लिए पूछा तो थोड़ी नानुकर के बाद वह मान गया.

खाना खाने के बाद धन्यवाद कह कर विपिन ऊपर अपनी सीट पर चला गया.

रमेश अब रज्जो के साथ सट कर बैठ गया और धीरेधीरे प्यारभरी बातें करने लगा. रज्जो का शर्म से चेहरा लाल हो रहा था.

डब्बा तकरीबन खाली सा ही था. अमावस की रात थी और बाहर घनघोर अंधकार छाया था. दीनदुनिया से बेखबर पतिपत्नी का जोड़ा अपनी प्यार की दुनिया में खोया था, इस बात से अनजान कि 2 आंखें लगातार उन पर नजरें जमाए हुए थीं.

रमेश ने रज्जो के कान में धीमे से फुसफुसाते हुए कहा कि थोड़ी देर बाद सब के सो जाने पर वह उस की सीट पर आ जाएगा. यह सुन कर रज्जो के दिल की धड़कनें तेज हो गईं और पलकें खुद ही झुक गईं, पर अचानक उसे लगा कि कोई उन्हें घूर रहा है. उस की नजर ऊपर गई तो उस ने देखा कि विपिन उसे अपलक देखे जा रहा था.

तभी विपिन ने रमेश को कौफी के लिए पूछा तो रमेश ने हां में सिर हिला दिया. रज्जो ने पहले तो आनाकानी की, पर रमेश के कहने पर 2-4 घूंट कौफी पी कर डिस्पोजेबल कप सीट के नीचे सरका दिया, फिर बत्ती बुझा कर लेट गई. रमेश और विपिन सामने की सीट पर बैठ कर बातें करते हुए कौफी पीने लगे.

काफी ठंड थी तो रमेश ने बैग से मंकी कैप निकाल कर पहन ली. अगला स्टेशन आने पर एक बुजुर्ग औरत उस डब्बे में आ गईं. उन की सामने वाली बर्थ थी.

सुनहरे भविष्य के सपनों के झूले में झूलती रज्जो को कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, उसे पता ही नहीं चला.

अचानक नींद में रज्जो को महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे अपनी बांहों में भर लिया हो. कुनमुनाती हुई रज्जो ने जान लिया कि यह रमेश है तो उस ने खिसक कर उस के लिए जगह बना दी. प्यार की खुमारी तो छाई ही थी दोनों पर, लिहाजा बिना किसी तीसरे की परवाह किए वे एकदूजे में समा गए.

थोड़ी देर बाद रमेश ऊपर अपनी सीट पर सोने चला गया. रज्जो तृप्त हो कर फिर गहरी नींद सो गई.

कुछ घंटों बाद फिर रज्जो की नींद में खलल पड़ा. रज्जो ने कहा, “अरे, अभी तो… हद है फिर से…” पर रमेश ने उस का मुंह बंद कर दिया. रज्जो ने आनाकानी की, पर रमेश पर प्यार का रंग छाया था, लिहाजा रज्जो भी लता सी उस के आगोश में सिमट गई.

सुबह होतेहोते उन की मंजिल आ गई थी. जल्दीजल्दी सामान समेट कर वे दोनों उतर गए. विपिन पता नहीं कब उतर गया था.

अपने नए आशियाने में आ कर रज्जो बेहद खुश थी. वह जल्द ही अपनी घरगृहस्थी में रम गई. उस ने रमेश के सामने आगे पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर की तो रमेश मान गया. रज्जो ने एक अस्पताल में नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए दाखिला ले लिया और बड़ी लगन से पढ़ाई करने लगी.

आजकल रमेश अपने काम में बहुत बिजी हो गया था. वह देर रात को थकाहारा आता और सो जाता. कभीकभी रात की ड्यूटी भी रहती थी. इस से उन की शादीशुदा जिंदगी में पहले जैसा प्यार अब कहीं नजर नहीं आता था.

रेल की घटना याद कर के रज्जो को गुदगुदी हो जाती थी. उन पलों को याद कर के उस का रोमरोम खिल जाता था.

एक रात बात करते हुए रज्जो ने रमेश से यों ही पूछ लिया, “ए जी, आजकल आप को क्या हो गया है कि कभी दो घड़ी मेरे पास नहीं बैठते. आप के मुंह से प्यार के दो बोल सुनने को तरस जाती हूं मैं. उस दिन रेल में तो…” कहतेकहते बीते सुखद पलों को याद कर के उस के गोरे गाल लाल हो गए.

“क्या हुआ था रेल में…”

“अरे, उस दिन तो आप के प्यार का रंग ही नहीं उतर रहा था. लाजशर्म सब छोड़ कर एक ही रात में 2 बार..”

“क्याक्या सोचती रहती हो रज्जो तुम भी…” शायद रमेश ने ठीक से रज्जो की बातों पर ध्यान नहीं दिया था. वह बस इतना ही बोला था, “तब नईनई शादी हुई थी यार. इतने दिनों के बाद हम मिले थे. नहीं रहा गया मुझ से.

“वैसे मैडम, मैं ने एक ही बार जगाया था तुम्हें. तुम ने जरूर कोई सपना देखा होगा. हर समय सपनों की दुनिया में जो रहती हो, फिर उसे सच मान लेती हो.”

रज्जो लाज से मुसकरा दी, पर कुछ सोच में पड़ गई. फिर इस खयाल को महज खयाल समझ कर झटक दिया कि शायद वह सपना ही होगा.

आज रज्जो कुछ अनमनी सी थी. तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी. बिस्तर से उठी तो चक्कर आ गया. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच कर के बताया कि रज्जो पेट से है. रमेश तो खुशी से उछल पड़ा. रज्जो लाज से दोहरी हो गई. साथ ही एक नया सुखद अहसास भी हुआ.

15 दिन बाद अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट में पता चला कि रज्जो जुड़वां बच्चों की मां बनने वाली है. अब तो खुशी दोगुनी जो गई थी. रमेश ने उस की देखभाल के लिए गांव से अपनी बहन कीर्ति को बुला लिया था.

निश्चित समय पर रज्जो ने 2 बेटों को जन्म दिया. घर खुशियों से और बच्चों की किलकारियों से भर गया. इस से ज्यादा पाने की उम्मीद भी नहीं की थी रज्जो ने, पर एक अनजाना सा डर हर पल उसे घेरे रहता था.

बच्चे बड़े होने लगे थे. बच्चों के दादाजी ने नाम रखे रघु और राघव. जुड़वां होने के बावजूद दोनों बच्चे एकदम अलग थे, देखने में भी और आदतों में भी.

रघु थोड़ा शांत, गंभीर स्वभाव का सेहतमंद बालक था, वहीं राघव चंचल, शरारती बच्चा था. वह थोड़ा दुबलापतला सा था और जल्दी बीमार पड़ जाता था. उस की नीली आंखें सब को आकर्षित करती थीं, पर रज्जो को डराती थीं.

इस तरह 3 साल बीत गए. एक बार राघव गंभीर रूप से बीमार पड़ गया. डाक्टर ने बताया कि खून चढ़ाना पड़ेगा. उस का ब्लड ग्रुप बी नैगेटिव निकला. अस्पताल में इस ग्रुप का खून नहीं था, तो मातापिता या दूसरे घर वालों को खून देने के लिए बुलाया गया.

रज्जो और रमेश का ब्लड ग्रुप ए पौजिटिव और बी पौजिटिव था. बाकी परिवार में भी किसी का ब्लड ग्रुप राघव के खून से मेल नहीं खा रहा था.

राघव की हालत बहुत नाजुक थी. रमेश किसी दूसरी जगह से खून लाने चला गया. रज्जो राघव के पास बैठी थी. डाक्टर ने उस ब्लूड ग्रुप के बारे में अस्पताल में भी अनाउंस कर दिया गया था.

तभी एक आदमी तेजतेज कदमों से चलता हुआ आया और उस ने कहा कि उस का ब्लड ग्रुप बच्चे से मेल खाता है. जल्दी से उस का खून ले कर बच्चे को चढ़ाया गया.

यह तो रेल वाला विपिन था, जो अपने किसी जानपहचान वाले मरीज को अस्पताल देखने आया था.

नीली आंखों वाले विपिन को देख कर रज्जो का दिल मानो उछल कर बाहर आने को तैयार हो गया था. वह वहीं बेहोश हो कर गिर पड़ी. इतने दिनों से बच्चे की चिंता में वह खुद बीमार सी हो गई थी.

जब रज्जो को होश आया तब वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी. उस ने चारों ओर नजर घुमाई. रमेश, उस का बेटा रघु और मांजी बिस्तर के पास खड़े थे. रज्जो और राघव की तबीयत देखते हुए रमेश ने अपनी मां को भी गांव से बुला लिया था.

नन्हा रघु रोनी सूरत लिए अपनी मां के पास आने को मचल रहा था. रज्जो ने उसे गोद मे ले कर खूब प्यार किया. उस ने विपिन से मिलने की इच्छा जताई जिस से कि उसे धन्यवाद कह सके, तो नर्स ने बताया कि वह तो जा चुका है, पर अपना विजिटिंग कार्ड छोड़ गया है.

रज्जो की तबीयत दिन ब दिन खराब रहने लगी थी. डाक्टर भी हैरान थे कि क्यों उस का ब्लड प्रैशर लगातार ऊपरनीचे हो रहा था?

कुछ दिनों में राघव की तबीयत ठीक हो गई, तो उसे डिस्चार्ज कर दिया गया. रज्जो भी जिद कर के घर आ गई. थोड़ा ठीक होने के बाद उस ने उसी अस्पताल में नर्स की नौकरी कर ली.

एक दिन रज्जो ने अस्पताल की सीनियर डाक्टर शालिनी से पूछा, “एक बात बताइए डाक्टर, क्या एक ही मां की कोख से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के 2 पिता हो सकते हैं?”

डाक्टर शालिनी ने बताया, “बहुत ही रेयर केस में ऐसा होने की संभावना हो सकती है. जैसे एक ही समय में अनेक मर्दों के साथ किसी औरत ने संबंध बनाए हों या कोई लड़की या फिर औरत सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई हो, तभी यह मुमकिन हो सकता है. पर तुम क्यों पूछ रही हो यह सब?”

रज्जो ने कहा, “मैं ने कहीं पढ़ा था. मुझे ऐसी अनहोनी पर यकीन नहीं हो रहा था, इसलिए आप से पूछा.”

डाक्टर शालिनी ने कहा कि बहुत सी ऐसी अनहोनी और रहस्यमयी बातें होती हैं, जिन का जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है.

डाक्टर शालिनी की बात सुन कर रज्जो का चेहरा सफेद पड़ गया, पर उस ने किसी तरह खुद को संभाला और 15 दिन की छुट्टी ले कर घर आ गई. सासू मां भी गांव चली गई थीं. कीर्ति ही बच्चों का खयाल रखती थी.

रज्जो खुद से नजरें नहीं मिला पा रही थी. वह अंदर ही अंदर घुट रही थी. इस से उस की तबीयत बिगड़ने लगी थी.

रमेश रज्जो को अस्पताल ले गया. डाक्टर शालिनी रज्जो की ऐसी हालत देख कर हैरान रह गईं. उन्होंने उस की ऐसी हालत की वजह पूछी तो रमेश ने बताया, “पता नहीं यह क्या सोचती रहती है? न किसी से बात करती है और न किसी से मिलतीजुलती है. अपनेआप को बस घर मे बंद कर के रखती है. इसे बच्चों का भी खयाल नहीं है.”

डाक्टर शालिनी ने चैकअप के बहाने रमेश को बाहर भेज दिया, फिर रज्जो से पूछा, “सचसच बताओ रज्जो, उस दिन तुम ने मुझ से जो सवाल पूछे थे क्या उन का संबंध तुम से है? क्या तुम्हारे साथ कोई घटना घटी है? घबराओ मत. तुम इस समय मेरी मरीज हो. हमारे बीच जो भी बातें होंगी वे राज रहेंगी. अगर तुम नहीं चाहोगी तो मैं तुम्हारे पति को भी नहीं बताऊंगी.”

यह सुन कर रज्जो फफकफफक कर रो पड़ी और रेल में हुई घटना सुनाई. उस ने कहा, “मुझे अभी भी शक ही है. मैं पक्का नहीं कह सकती कि वह सब वाकई मेरे साथ उस रात हुआ भी था या सिर्फ एक वहम है, क्योंकि मैं तब शायद अपने होशोहवास में नहीं थी या फिर इतने समय बाद पति मिलन को उतावली हो रही थी.”

डाक्टर शालिनी ने कहा, “अगर तुम्हें पक्का करना है तो उस आदमी का और अपने बच्चे का डीएनए टैस्ट करवा लो, सारी बात साफ पता चल जाएगी.”

रमेश के पूछने पर डाक्टर शालिनी ने बताया कि 2 बच्चों और घर की जिम्मेदारी से रज्जो की यह हालत हुई है और ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है.

घर आते ही रज्जो अलमारी में वह विजिटिंग कार्ड ढूंढ़ने लगी जो विपिन ने नर्स को दिया था. कार्ड मिलने पर उस ने कांपते हाथों से अपने मोबाइल से उस का नंबर मिलाया.

अगले दिन राघव को दिखाने के बहाने रज्जो अस्पताल पहुंच गई. विपिन पहले से वहां मौजूद था. उस ने अपने बुलाने की वजह पूछी तो डाक्टर ने कहा कि टैस्ट की सभी कार्यवाही पूरी करने के बाद बता दिया जाएगा.

विपिन ने आनाकानी करनी चाही तो डाक्टर शालिनी ने पुलिस बुलाने की धमकी दी और उस से रेल की उस घटना का सच पूछा. इसी बीच पुलिस को बुला लिया गया और उन लोगों की हाजिरी में डीएनए टैस्ट कराया गया.

विपिन ने सब के सामने अपना गुनाह कुबूल किया और कहा कि वह रेल में रज्जो की सुंदरता पर मोहित हो गया था और उसे पाने की चाहत में उस ने कौफी में नशे की दवा मिला कर उन दोनों को पिला दी थी.

रमेश के गहरी नींद में सो जाने के बाद उस ने रमेश की टोपी पहन कर अंधेरी रात में उस घिनौनी वारदात को अंजाम दिया था.

विपिन को पुलिस के हवाले कर दिया गया. एक हफ्ते बाद रिपोर्ट आ गई. विपिन और राघव का डीएनए मैच कर रहा था.

डाक्टर ने रज्जो को रिपोर्ट पढ़ कर बताया, “राघव का पिता विपिन ही है.”

उसी समय अस्पताल आए रमेश ने डाक्टर शालिनी की बात सुन ली और पूरी बात जानने के बाद तो वह अपना आपा खो बैठा. वहीं सब के सामने उस ने रज्जो को खरीखोटी सुनाई. यहां तक कि उस ने रज्जो को चरित्रहीन तक साबित कर दिया.

डाक्टर शालिनी ने उसे समझाने की लाख कोशिश की पर रमेश हिकारत भरी नजरों से रज्जो को देखता हुआ उसे छोड़ कर चला गया.

रज्जो अपने ऊपर लगा इतना बड़ा इलजाम सह न सकी और सदमे से बेहोश हो गई. इस के बाद वह कोमा में चली गई. महीनाभर कोमा में रहने के बाद आखिरकार वह जिंदगी की जंग हार गई.

आज एक और अहिल्या किसी इंद्र के छल से अपमानित हुई. कोई कुसूर न होते हुए भी अपने ही पति द्वारा कुसूरवार ठहरा दी गई और ठुकरा दी गई. आज कोई राम उस के पाषाण हृदय में प्राण न डाल पाया… उस का उद्धार करने नहीं आया… न ही कोई राम उस की निर्जीव देह में प्राण लौटा सका, क्योंकि वह पति था परमेश्वर नहीं.

Family Story: दगाबाज – आयुषा के साथ क्या हुआ

Family Story: सरन अपने बेटे विनय की दुलहन आयुषा का परिचय घर के बुजुर्गों और मेहमानों से करवा रही थीं. बरात को लौटे लगभग 2 घंटे बीत चुके थे. आयुषा सब के पैर छूती, बुजुर्ग उसे आशीर्वाद देते व आशीर्वाद स्वरूप कुछ भेंट देते. आयुषा भेंट लेती और आगे बढ़ जाती.

जीत का परिचय करवाते हुए सरन ने जब आयुषा से कहा, ‘‘ये मोहना के पति और तुम्हारे ननदोई हैं,’’ तो एकाएक उस की निगाह जीत पर उठ गई. जीत से निगाह मिलते ही उस के शरीर में झुरझुरी सी छूट गई. जीत उस का पहला प्यार था, लेकिन अब मोहना का पति. जिंदगी कभी उसे ऐसा खेल भी खिलाएगी, आयुषा सोचती ही रह गई. अंतर्द्वंद्व के भंवर में फंसी वह निश्चय नहीं कर पाई कि जीत के पैर छुए या नहीं? अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयास करते हुए उस ने बड़े संकोच से उस के पैरों की तरफ अपने हाथ बढ़ाए.

जीत भी उसे अपने साले की पत्नी के रूप में देख कर हैरान था. वह भी नहीं चाहता था कि आयुषा उस के पैर छुए. आयुषा के हाथ अपने पैरों की ओर बढ़ते देख कर वह पीछे खिसक गया. खिसकते हुए उस ने आयुषा के समक्ष अपने हाथ जोड़ दिए. प्रत्युत्तर में आयुषा ने भी वही किया. दोनों के बीच उत्पन्न एक अनचाही स्थिति सहज ही टल गई.

जीत को देखते ही आयुषा के मन का चैन लुट गया था. जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें भुलाने को जी चाहता है. वे पल यदि जीवित रहें तो ताजे घाव सा दर्द देते हैं. ठीक वही दर्द वह इस समय महसूस कर रही थी. सुहागशय्या पर अकेली बैठी वह अतीत में खो गई.

मामा की लड़की रंजना की शादी में पहली बार उस का साक्षात्कार जीत से हुआ था. मामा दिल्ली में रहते हैं. पेशे से वकील हैं. गली सीताराम में पुश्तैनी हवेली के मालिक हैं. तीनमंजिला हवेली की निचली मंजिल में बड़े हौल से सटे 4 कमरे हैं. मुख्य द्वार से सटे एक बड़े कमरे में उन का औफिस चलता है. बाकी कमरे खाली पड़े रहते हैं. बीच की मंजिल में 12 कमरे हैं, जिन में उन का 4 प्राणियों का परिवार रहता है. नानी, वे स्वयं, मामी और रंजना. बेटा प्रमोद भोपाल में सर्विस में है. ऊपरी मंजिल में 6 कमरे हैं, लेकिन सभी खाली हैं.

मैं अपनी मम्मी के साथ शादी अटैंड करने आई थी. पापा 2 दिन बाद आने वाले थे. मेहमानों को रिसीव करने के लिए मामा, मामी और उन के परिवार के कुछ सदस्य ड्योढ़ी पर खड़े थे. हवेली में घुसते हुए अचानक मेरे पैर लड़खड़ा गए थे. इस से पहले कि मैं गिरती, मामी के पास खड़े जीत ने मुझे संभाल लिया था. वह पहला क्षण था जब मेरी निगाहें जीत से टकराई थीं. प्रेम बरसात में उफनती नदियों की तरह पानी बड़े वेग से आता है, उस क्षण भी यही हुआ था. हम दोनों ने उस वेग का एहसास किया था.

उस के बाद शादी के दौरान ऐसा कोई क्षण नहीं आया जब हमारी नजरें एकदूसरे से हटी हों. जीत सा सुंदर और आकर्षक जवान मैं ने इस से पहले कभी नहीं देखा था. मैं मानूं या न मानूं पर सत्य कभी नहीं बदला जा सकता. कोई जब हमारी कल्पना से मिलनेजुलने लगता है, तो हम उसे चाहने लगते हैं. उस की समीपता पाने की कोशिश में लग जाते हैं. उस समय मेरा भी यही हाल था. मैं जीत की समीपता हर कीमत पर पा लेना चाहती थी.

मामा द्वारा रंजना की शादी हवेली से करने का फैसला हमारे लिए फायदेमंद सिद्ध हुआ था. इतनी विशाल हवेली में किसी को पुकार कर बुला लेना या ढूंढ़ पाना दूभर था. रंजना की सगाई वाले दिन सारी गहमागहमी निचली और पहली मंजिल तक ही सीमित थी. जीत ने सीढि़यां चढ़ते हुए जब मुझे आंख के इशारे से अपने पास बुलाया तो न जाने क्यों चाह कर भी मैं अपने कदमों को रोक नहीं पाई थी.

सम्मोहन में बंधी सब की नजरों से बचतीबचाती मैं भी सीढि़यों पर उस के पीछेपीछे चढ़ती चली गई थी. थोड़े समय में ही हम ऊपरी मंजिल की सीढि़यों पर थे. एकाएक उस ने मुझे अपनी बांहों में जकड़ कर अपने तपते होंठों को मेरे होंठों पर रख दिया था. अपने शरीर पर उस के हाथों का दबाव बढ़ते देख कर मैं ने न चाहते हुए भी उस से कहा था, ‘छोड़ो मुझे, कोई ऊपर आ गया तो?’

पर वह कहां सुनने वाला था और मैं भी कहां उस के बंधन से मुक्त होना चाह रही थी. मैं ने अपनी बांहों का दबाव उस के शरीर पर बढ़ा दिया था. न जाने कितनी देर हम दोनों उसी स्थिति में आनंदित होते रहे थे. लौट कर सारी रात मुझे नींद नहीं आई थी. जीत की बांहों का बंधन और तपते होंठों का चुंबन मेरे मनमस्तिष्क से हटाए भी नहीं हटा था.

अगली रात ऊपरी मंजिल का एक कमरा हमारे शारीरिक संगम का गवाह बना था. जीत और मैं एकदूसरे में समाते चले गए थे. दो शरीरों की दूरियां कैसे कम होती जाती हैं, यह मैं ने उसी रात जाना था. कितने सुखमय क्षण थे वे मेरी जवानी के, सिर्फ मैं ही जान सकती हूं. उन क्षणों ने मेरी जिंदगी ही बदल डाली थी.

शादी के बाद हम बिछुड़े जरूर थे पर इंटरनैट हमारे मिलन का एक माध्यम बना रहा था. हम घंटों चैट करते थे. एकदूसरे की समीपता पाने को तरसते रहते थे. हम निश्चय कर चुके थे कि हम शीघ्र ही शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

तभी एक दिन मैं ने पापा को मम्मी से कहते हुए सुना था, ‘आयुषा के लिए मैं ने एक सुयोग्य वर तलाश लिया है. लड़का सफल व्यवसायी है. पिता का अलग व्यापार है. लड़के के पिता का कहना है कि वे अपनी लड़की की शादी पहले करना चाहते हैं. उस की शादी होते ही वे बेटे की शादी कर देंगे. तब तक हमारी आयुषा भी एमए कर चुकी होगी.’

मम्मी तो पापा की बात सुन कर प्रसन्न हुई थीं, पर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. उसी शाम जीत से चैट करते हुए मैं ने उसे साफ शब्दों में कहा था, ‘जीत या तो तुम यहां आ कर पापा से मेरा हाथ मांग लो या फिर मैं पापा को स्थिति स्पष्ट कर के उन्हें तुम्हारे डैडी से मिलने के लिए भेज देती हूं.’

जीत ने कहा था, ‘तुम चिंता मत करो. यह समस्या अब तुम्हारी नहीं बल्कि मेरी है. मैं वादा करता हूं, तुम्हें मुझ से कोई नहीं छीन पाएगा. तुम सिर्फ मेरी हो. मुझे सिर्फ थोड़ा सा समय दो.’ उस ने मुझे आश्वस्त किया था.

उस के बाद जीत ने चैट करना कम कर दिया था. फिर धीरेधीरे मेरे और जीत के बीच दूरियों की खाई इतनी बढ़ती चली गई कि भरी नहीं जा सकी. जीत ने मुझ से अपना संपर्क ही तोड़ लिया. बरबस मुझे पापा की इच्छा के समक्ष झुकना पड़ा था.

सुहागकक्ष का दरवाजा बंद होने की आवाज के साथ मेरी तंद्रा टूट गई. विनय सुहागशय्या पर आ कर बैठ गए, ‘‘परेशान हो,’’ उन्होंने प्रश्न किया.

अपने मन के भावों को छिपाते हुए मैं ने सहज होने की कोशिश की, ‘‘नहीं तो,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘आयुष,’’ मुझे अपनी बांहों में भरते हुए विनय बोले, ‘‘मैं इस पल को समझता हूं. तुम्हें घर वालों की याद आ रही होगी, पर एक बात मेरी भी सच मानो कि मैं तुम्हारी जिंदगी में इतनी खुशियां भर दूंगा कि बीती जिंदगी की हर याद मिट जाएगी.’’

मेरे मन के कोने में हमसफर की एक छवि अंकित थी. विनय का व्यक्तित्व ठीक उस छवि से मिलता था. इसलिए मैं विनय को पा कर धन्य हो गई थी. ऐसे में हर पल मेरा मन यह कहने लगा था कि विनय जैसे सीधेसच्चे इंसान से कुछ भी छिपाना ठीक नहीं होगा. संभव है भविष्य में मेरे और जीत के रिश्तों का पता चलने पर विनय इन्हें किस प्रकार लें? तब पता नहीं हमारी विवाहित जिंदगी का क्या हश्र हो? मैं उस समय कोई भी कुठाराघात नहीं सह पाऊंगी. मुझे आत्मीयों की प्रताड़ना अधिक कष्टकर प्रतीत होती है, पर जबजब मैं ने विनय को सत्य बताने का साहस किया. मेरा अपना मन मुझे ही दगा दे गया. बात जबान पर नहीं आई. दिन बीतते गए. यहां तक कि हम महीने भर का हनीमून ट्रिप कर के यूरोप से लौट भी आए.

हनीमून के दौरान विनय ने मेरी उदासी को कई बार नोटिस किया था. उदासी का कारण भी जानना चाहा, पर मैं द्वंद्व में फंसी विनय को कुछ भी नहीं बता पाई. उसे अपने प्यार में उलझा कर मैं ने हर बार बातों का रुख ही बदल दिया था.

हनीमून से लौटते ही विनय 2 महीने के बिजनैस टूर पर फ्रांस और जरमनी चले गए. सासूमां ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया पर वे नहीं रुके. जीत और मोहना को उन्होंने जरूर रोक लिया.

उन्होंने जीत से कहा, ‘‘मोहना को तो मैं अभी महीनेदोमहीने और आप के पास नहीं भेजूंगी. आयुषा घर में नई है. उस का मन बहलाने के लिए कोई तो उस का हमउम्र चाहिए. वैसे आप भी यहीं से अपना बिजनैस संभाल सकें, तो मुझे ज्यादा खुशी होगी. कम से कम आयुषा को 2 हमउम्र साथी तो मिल जाएंगे.’’

जीत थोड़ी नानुकर के बाद रुक गया. मैं समझ चुकी थी कि उस के रुकने का आशय क्या है? वह मुझे फिर से पाने का प्रयास करना चाहता है. मैं तभी से सतर्क हो गई थी. उस ने पहले कुछ दिन तो मुझ से दूरियां बनाए रखीं. फिर एक दिन जब सासूमां मोहना के साथ उस के लिए कपड़े और आभूषण खरीदने बाजार गईं तो जीत मेरे कमरे में चला आया. वह अतिप्रसन्न था. ठीक उस शिकारी की तरह जिस के हाथों एक बड़ा सा शिकार आ गया हो.

मेरे समीप आते हुए उस ने कहा, ‘‘हाय, आयुषा. व्हाट ए सरप्राइज? वी आर बैक अगेन. अब हम फिर से एक हो सकते हैं. कम औन बेबी,’’ जीत ने कहते हुए अपने हाथ मुझे बांहों में भरने के लिए बढ़ा दिए.

मेरे सामने अब मेरा संसार था. प्यारा सा पति था. उस का परिवार था. जीत के शब्द मुझे पीड़ा देने लगे. उस के दुस्साहस पर मुझे क्रोध आने लगा. न जाने उस ने मुझे क्या समझ लिया था? अपनी बपौती या बिकाऊ स्त्री? मैं उस पर चिंघाड़ पड़ी, ‘‘जीत, यहां से चले जाओ वरना,’’ गुस्से में मेरे शब्द ही टूट गए.

‘‘वरना क्या?’’

‘‘मैं तुम्हारी करतूत का भंडाफोड़ कर दूंगी.’’

‘‘उस से मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन तुम कहीं की नहीं रहोगी. आयुषा, तुम्हारा भला अब सिर्फ इसी में है कि मैं जैसा कहूं तुम करती जाओ.’’

‘‘यह कभी नहीं होगा,’’ क्रोध में मैं ने मेज पर रखा हुआ वास उठा लिया.

मेरे क्रोध की पराकाष्ठा का अंदाजा लगाते हुए उस ने मेरे समक्ष कुछ फोटो पटक दिए और बोला, ‘‘ये मेरे और तुम्हारे कुछ फोटो हैं, जो तुम्हारे विवाहित जीवन को नष्ट करने के लिए काफी हैं. यदि अपना विवाह बचाना चाहती हो तो कल शाम 7 बजे होटल सनराइज में चली आना. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ जीत तेजी से मुझ पर एक विजयी मुसकान उछालते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

अब मेरा क्रोध पस्त हो गया था. उस के जाते ही मैं फूटफूट कर रो पड़ी. मुझे अपना विवाहित जीवन तारतार होता हुआ लगा. जीत ने मेरी सारी खुशियां छीन ली थीं. बेशुमार आंसू दे डाले थे. मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? कैसे जीत से छुटकारा पाऊं? मेरी एक जरा सी नादानी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था, पर मैं ने यह निश्चय अवश्य कर लिया था कि यह मेरी लड़ाई है, मुझे ही लड़नी है. मैं किसी और को बीच में नहीं लाऊंगी. कैसे लड़ूंगी? यही सोचसोच कर सारी रात मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रही थी.

सवेरे उठी तो लग रहा था कि तनाव से दिमाग किसी भी समय फट जाएगा. विपरीत परिस्थितियों में कई बार इंसान विचलित हो जाता है और घबरा कर कुछ उलटासीधा कर बैठता है. मुझे यही डर था कि मैं कहीं कुछ गलत न कर बैठूं. दिन यों ही गुजर गया. शाम के 5 बजते ही जीत घर से निकल गया. जाते हुए मुझे देख कर मुसकरा रहा था. अब तक मैं भी यह निश्चय कर चुकी थी कि आज जीत से मेरी आरपार की लड़ाई होगी. अंजाम चाहे जो भी हो.

मैं जब होटल पहुंची तो जीत बड़ी बेताबी से मेरे आने का इंतजार कर रहा था. मुझे देखते ही वह बड़ी अक्कड़ से बोला, ‘‘हाय डियर, आखिर जीता मैं ही, अगर सीधी तरह मेरी बात मान लेती तो मैं तुम्हें परेशान क्यों करता?’’

‘‘जीत,’’ मैं ने उस की बात अनसुनी करते हुए कहा, ‘‘मैं बड़ी मुश्किल से अपनों की इज्जत दांव पर लगा कर तुम्हारी इच्छा पूरी करने आई हूं. मेरे पास ज्यादा समय नहीं है. आओ और जैसे चाहो मेरे शरीर को नोच डालो. मैं उफ तक नहीं करूंगी,’’ कहते हुए मैं ने अपनी साड़ीब्लाउज उतारना शुरू कर दिया, उस के बाद पेटीकोट भी.

अचानक मेरे इस व्यवहार को देख कर जीत चकित रह गया. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. विचारों के बवंडर ने संभवत: उसे विवेकशून्य कर दिया. आयुषा से क्या कहे, कुछ नहीं सूझा. घबराते हुए उस ने मुझ से पूछा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है?’’

‘‘जहर की शीशी,’’ मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम्हें तृप्त कर के इसे पी लूंगी. सारा किस्सा एक बार में खत्म हो जाएगा.’’

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘चाहो तो तुम भी इसे पी सकते हो. हमारा प्यार भी अमर हो जाएगा और हम भी.’’

तभी मैं ने देखा उसे अपनी आशाओं पर पानी फिरता हुआ नजर आया था. उस के चेहरे से पसीना चूने लगा था. फिर उस के पैर मुझ से कुछ दूर हुए और दूर होतेहोते कमरे से बाहर हो गए.

सवेरे जब नींद टूटी तो मैं ने देखा कि जीत कहीं बाहर जा रहा था.

सासूमां और मोहना उस के पास दरवाजे पर खड़ी थीं. मुझ पर नजर पड़ते ही मोहना ने मुझे बताया कि आज जीत की एक जरूरी मीटिंग है, उसे 10 बजे की फ्लाइट पकड़नी है. सच क्या था. वह केवल जीत जानता था या मैं. जीत ने जाते समय मुझे देखा तक नहीं, पर मैं उसे जाते हुए देख कर मंदमंद मुसकरा रही थी. मैं अब विनय के प्रति पूरी तरह समर्पित थी.दगाबाज : आयुषा के साथ क्या हुआ

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