हिन्दी पर मोदी का यू-टर्न

हिन्दी अब पूरे मुल्क में पढ़ी-पढ़ाई जाएगी. यह अनिवार्य भाषा होगी. इसके अलावा दूसरी भाषा अंग्रेजी और तीसरी भाषा क्षेत्रीय होगी. देशभर में ‘त्रिभाषा फार्मूला’ लागू होगा. केन्द्र सरकार की नयी शिक्षा नीति के तहत हिन्दी भाषा को पूरे देश में लागू करने के उद्देश्य से बनाया गया नया ड्राफ्ट जैसे ही सामने आया, देशभर में इसका विरोध शुरू हो गया. विरोध के तीव्र स्वर खासतौर पर दक्षिण भारत से उठे. मजे की बात यह कि इस मामले में अपने ही मंत्रियों का विरोध भी प्रधानमंत्री को झेलना पड़ा. हालत यह हो गयी कि लोग मरने-मारने तक की बातें करने लगे. द्रमुक के राज्यसभा सांसद  तिरूचि सिवा ने तो केन्द्र  सरकार को चेतावनी देते हुए यहां तक कह दिया है कि हिन्दी को तमिलनाडु में लागू करने की कोशिश कर केन्द्र-सरकार आग से खेलने का काम कर रही है. हिन्दी भाषा को तमिलनाडु पर थोपने की कोशिश को यहां के लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे. हम केन्द्र सरकार की ऐसी किसी भी कोशिश को रोकने के लिए, किसी भी परिणाम का सामना करने के लिए तैयार हैं. वहीं, डीएमके अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने भी ट्वीट कर कहा कि तमिलों के खून में हिन्दी के लिए कोई जगह नहीं है. यह देश को बांटने वाला कदम होगा. यदि हमारे राज्य के लोगों पर इसे थोपने की कोशिश की गयी तो डीएमके इसे रोकने के लिए युद्ध करने को भी तैयार है. नये चुने गये सांसद लोकसभा में अपनी आवाज उठाएंगे. उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू, मक्कल नीधि मय्यम पार्टी के कमल हासन, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे, कांग्रेस नेता शशि थरूर और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमार स्वामी, पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दरमैया सब एकसुर में चीखे – हिन्दी हमारे माथे पर मत थोपो….

बवाल बढ़ा तो स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए मोदी सरकार को यू-टर्न लेना पड़ा और ड्राफ्ट में बदलाव करते हुए हिन्दी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया. कहा जा रहा है कि अब संशोधित शिक्षा नीति के मसौदे में ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को लचीला कर दिया गया है. अब इनमें किसी भी भाषा का जिक्र नहीं है. छात्रों को कोई भी तीन भाषा चुनने की स्वतंत्रता दे दी गयी है. सरकार को मामले की लीपापोती भी करनी पड़ी है. केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने सफाई देते हुए कहा, ‘सरकार अपनी नीति के तहत सभी भारतीय भाषाओं के विकास को प्रतिबद्ध है और किसी प्रदेश पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी. हमें नयी शिक्षा नीति का मसौदा प्राप्त हुआ है, यह सिर्फ रिपोर्ट है, फाइनल नीति नहीं है. इस पर लोगों एवं विभिन्न पक्षकारों की राय ली जाएगी, उसके बाद ही कुछ होगा. कहीं न कहीं लोगों को गलतफहमी हुई है.’

आखिर जिस मुद्दे पर आजादी के पहले से लेकर आजादी के बाद तक कभी पूरे देश में एकराय नहीं बनी, ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर इतनी जल्दबाजी दिखा कर केन्द्र-सरकार को मुंह की तो खानी ही थी. सरकार की छीछालेदर हुई तो तमिलनाडु से सम्बन्ध रखने वाली देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को भी मोर्चा संभालना पड़ा. गौरतलब है कि तमिलनाडु में मोदी-सरकार के फरमान का सबसे ज्यादा विरोध हो रहा था, लिहाजा सीतारण ने ट्विटर कर कहा कि इस ड्राफ्ट को अमल में लाने से पहले इसकी समीक्षा की जाएगी. जनता की राय सुनने के बाद ही ड्राफ्ट पॉलिसी लागू होगी. सभी भारतीय भाषाओं को पोषित करने के लिए ही प्रधानमंत्री ने ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ योजना लागू की थी. केन्द्र तमिल भाषा के सम्मान और विकास के लिए समर्थन देगा.’

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वहीं विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी सरकार के बचाव में ट्वीट किया कि, ‘कोई भी भाषा किसी पर थोपी नहीं जाएगी. इस मुद्दे पर अंतिम फैसला लिए जाने से पहले राज्य सरकारों से परामर्श लिया जाएगा. केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री को सौंपी गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति महज एक मसौदा रिपोर्ट है. इस  पर आम जनता से प्रतिक्रिया ली जाएगी. राज्य सरकारों से परामर्श किया जाएगा. इसके बाद ही इस मसौदे को अंतिम रूप दिया जाएगा. भारत सरकार सभी भाषाओं का सम्मान करती है. कोई भाषा किसी पर थोपी नहीं जाएगी.’

हिन्दी थोपने और हिन्दी अपनाने में फर्क है

सर्वविदित है कि कोई चीज जबरन थोपा जाना किसी को पसन्द नहीं आता और न ही स्वीकार्य होता है. मगर ‘तानाशाही दिमाग’ इसको समझने में हमेशा नाकाम रहा है और हमेशा मुंह की खायी है. मोदी-सरकार भी इस रोग से अछूती नहीं है. सवाल यह कि हिन्दी की अनिवार्यता को लेकर बना नयी शिक्षा नीति का ड्राफ्ट अगर अभी सिर्फ मसौदा था तो इस पर बिना विचार-विमर्श हुए और बिना परिणाम पर पहुंचे इसका ऐलान ही क्यों हुआ? राज्य सरकारों को तो छोड़िये, इसके लिए सरकार में मौजूद अपने ही मंत्रियों तक से विमर्श नहीं किया गया और देश भर के लिए हिन्दी को अनिवार्य बनाने की घोषणा कर दी गयी? क्या मोदी सरकार को लगता है कि उसने पूरे दमखम के साथ सरकार बना ली है, तो अब उसका हर फैसला सबको मानना ही पड़ेगा? या फिर प्रधानमंत्री पर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दबाव इतना ज्यादा है, कि अपने मंत्रियों और राज्य सरकारों से विचार-विमर्श करने तक का वक्त उनको नहीं दिया जा रहा है?

दरअसल चाबुक के दम पर धर्म, जाति, भाषा, परिधान, आस्था, प्रेम जैसी चीजो में बदलाव या उसके लिए स्वीकार्यता पैदा नहीं की जा सकती है. थोपी हुई चीजें कभी दिल से स्वीकार्य नहीं होतीं, मगर यह सीधी सी बात दक्षिणपंथी विचारधारा में पगे लोगों की समझ में नहीं आती हैं. मोदी-सरकार को समझना चाहिए कि चीजें तब स्वीकार्य होती हैं, जब उनकी स्वीकार्यता के लिए माकूल वातावरण तैयार किया जाये, लोगों के बीच विचारों का आदान-प्रदान हो, उस पर चर्चा हो, आलोचना हो, उसके प्रति आकर्षण पैदा किया जाये और उससे लोगों को कोई फायदा मिले.

हिन्दी के लिए किया क्या?

हिन्दी को शिक्षा में अनिवार्य भाषा बनाने के लिए उतावली मोदी-सरकार बताये अखिर बीते पांच साल के कार्यकाल में उसने हिन्दी के लिए क्या किया? देशभर में हिन्दी संस्थानों की हालत जर्जर है. हिन्दी के विद्वानों और लेखकों की कहीं कोई पूछ नहीं है. हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले छात्र बेरोजगारी का तमगा गले में डाल कर घूम रहे हैं. किसी प्राइवेट संस्थान में नौकरी के लिए जाते हैं तो उन्हें हिन्दीभाषी होने के कारण खुद पर शर्म आती है. देश भर में उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है. किताबें अंग्रेजी में हैं. शिक्षक अंग्रेजी में पढ़ाते हैं. वे हिन्दी में बात करने वाले छात्रों को हेय दृष्टि से देखते हैं. उनके सवालों का समाधान करना तो दूर, सुनना तक नहीं चाहते. सरकारी संस्थानों का प्राइवेटाइजेशन होता चला जा रहा है, जहां अंग्रेजी का ही बोलबाला है. चाहे चिकित्सा का क्षेत्र हो, इंजीनियरिंग का, बिजनेस का या वकालत का, कहां है हिन्दी?

सच पूछें तो आज हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाएं वे सौतेली बहनें हैं, जिनकी अम्मा अंग्रेजी है. अंग्रेजी में ही देश का राजकाज चलता है, कारोबार चलता है, विज्ञान चलता है, विश्वविद्यालय चलते हैं, मीडिया संस्थान और सारी बौद्धिकता चलती है. अंग्रेजी का विशेषाधिकार या आतंक इतना है कि अंग्रेजी बोल सकने वाला शख्स बिना किसी बहस के ही योग्य मान लिया जाता है. अंग्रेजी में कोई अप्रचलित शब्द आये तो आज भी लोग खुशी-खुशी डिक्शनरी पलटते हैं, जबकि हिन्दी का ऐसा कोई अप्रचलित शब्द अपनी भाषिक हैसियत की वजह से हंसी का पात्र बना दिया जाता है. पिछले तीन दशकों में हिन्दी की यह हैसियत और घटी है. सरकारी स्कूलों की बात छोड़ दें, तो पूरे देश में पढ़ाई-लिखाई की भाषा अंग्रेजी ही है. गरीब से गरीब आदमी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता है और हिन्दी घर में बोली जाने वाली एक बोली बन कर रह गयी है.

हां, यह कहा जा सकता है कि आज हिन्दी फिल्में विदेशों में खूब देखी जा रही हैं, हिन्दी सीरियल हर जगह देखे जा रहे हैं, कम्प्यूटर और स्मार्टफोन में हिन्दी को जगह मिल गयी है, इंटरनेट पर हिन्दी दिख रही है, मगर ऐसा कहने वाले यह नहीं देख रहे हैं कि यह हिन्दी बाजार की वजह से है, इसे सिर्फ बाजार ही बढ़ावा दे रहा है. यह सिर्फ एक बोली के रूप में इस्तेमाल हो रही है, जो बाजार कर रहा है. हिन्दी विशेषज्ञता की भाषा नहीं रह गयी है क्योंकि देश की सरकारों ने हिन्दी के हित में कभी कोई काम नहीं किया.

दूसरे, यह बात संघ और मोदी-सरकार को समझना चाहिए कि भाषा की विविधता ही इस देश की खूबसूरती है, भारत की पहचान है, उसकी समृद्धि है, उसका सौन्दर्य है और यह विविधता ही हम भारतीयों को एक-दूसरे के प्रति आकर्षण में बांधे रखने का काम भी करती है. हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है, मगर उसके लिए वातावरण तैयार करना होगा ताकि उसकी सहज स्वीकार्यता बन सके. चाबुक के दम पर वह कभी स्वीकार्य नहीं होगी.

दक्षिण का हिन्दी से झगड़ा पुराना है

दक्षिण भारत ने तो अंग्रेजी पर ही निवेश किया है. उन्होंने अंग्रेजी का सामाजिक विकास और आर्थिक समृद्धि की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया है और तरक्की पायी है. सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में दक्षिण भारत का योगदान अतुल्नीय है और यह अंग्रेजी के बिना कभी पूरा नहीं हो सकता था. दूसरी ओर हिन्दी बोलने वाले लोग दक्षिण के राज्यों में खेतिहर मजदूर के रूप में काम करने के लिए जाते थे और आज भी जाते हैं. लिहाजा उनके द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को तमिल लोग अपने सिर-माथे पर उठाएंगे, ऐसा सोचना भी मूर्खता है. साउथ में हिन्दी के प्रति उपेक्षा का भाव आज भी कमोबेश वैसा ही है, जैसा नेहरू या इंदिरा के वक्त में था. जवाहरलाल नेहरू ने भी हिन्दी को अनिवार्य बनाने की बहुत कोशिश की और हमेशा मुुंह की खायी. दरअसल जिस देश में हर दो कोस पर पानी और बानी बदलती हो, वहां एक भाषा को अनिवार्य करने का सपना पालना ही मूर्खता है.

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गौरतलब है कि दक्षिण भारत से हिन्दी का झगड़ा बहुत पुराना है. हालांकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भाषा को लेकर समझ साफ थी. वे इस बात को समझते थे कि अंग्रेजों की मानसिक गुलामी को तोड़ने के लिए भारतीय लोगों को अपनी भाषा बरतनी चाहिए. वे जानते थे कि हिन्दी में वो ताकत है कि वो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है और उस वक्त उसने बांधा भी, मगर वह इसलिए क्योंकि तब हम एक विदेशी ताकत से लड़ रहे थे. तब पूरे देश ने ‘हिन्दी’ को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया, मगर उसके बाद इस हथियार को रख दिया गया. कहते हैं जब सन् 1928 में मोतीलाल नेहरू ने हिन्दी को भारत में सरकारी कामकाज की भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, तो उस वक्त ही तमिल नेताओं ने इसका घोर विरोध किया था. करीब नौ साल बाद सन् 1937 में तमिल नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने मद्रास राज्य में हिन्दी लाने का समर्थन किया और हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव दिया. अप्रैल 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी की 125 सैकेंडरी स्कूलों में हिन्दी को कम्पलसरी लैंग्वेज के तौर पर लागू भी कर दिया गया. मगर इसके खिलाफ आवाजें उठने लगीं. राजगोपालाचारी के इस फैसले के खिलाफ सबसे पहले मोर्चा लिया तमिल शिक्षाविदों ने. उनका आरोप था कि सूबे की कांग्रेस सरकार हिन्दी के जरिए तमिल का गला घोंट रही है. इस आंदोलन के दौरान तमिल समर्थक उन स्कूलों के दरवाजे घेर कर बैठ गये, जहां हिन्दी पढ़ाये जाने का प्रस्ताव था. प्रदर्शनकारियों का कहना था कि सरकार उन पर जबरन हिन्दी थोपना चाहती है. यह उनकी तमिल संस्कृति पर सीधा हमला है. 1 जून 1938 को सीवी राजगोपालाचारी के घर के सामने बड़ा प्रदर्शन हुआ. देखते ही देखते इस आंदोलन ने राजनीतिक मोड़ ले लिया. जो दो नेता इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे वे आगे आने वाले समय में तमिल अस्मिता आंदोलन का चेहरा बन गये. इसमें पहले थे ईवी रामास्वामी ‘पेरियार’ और दूसरे थे सीएन अन्ना दुरई, जिन्हें उस वक्त गिरफ्तार किया गया था. द्रविड़ कषगम (डीके) की ओर से भी इसका घोर विरोध हुआ है और यह विरोध हिंसक झड़पों में बदल गया, जिसके चलते दो लोगों की मौत भी हुई. दो साल चले आंदोलन के बाद आखिरकार सरकार को अपने पैर पीछे खींचने पड़े और हिन्दी को कम्पलसरी भाषा के तौर पर लागू करने का फैसला वापिस लेना पड़ा.

आजादी के वक्त भाषाओं के आधार पर राज्यों के विभाजन को लेकर कांग्रेस के भीतर आम सहमति बनी थी. महात्मा गांधी ने 10 अक्टूबर 1947 को अपने एक सहयोगी को लिखी चिट्ठी में कहा, ‘मेरा मानना है कि हमें भाषिक प्रांतों के निर्माण में जल्दी करनी चाहिए… कुछ समय के लिए यह भ्रम हो सकता है कि अलग-अलग भाषाएं अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन यह भी सम्भव है कि भाषिक आधार पर प्रदेशों के गठन के बाद यह गायब हो जाए.’ पं. जवाहर लाल नेहरू भी भारत की भाषिक विविधता को सम्मान की दृष्टि से देखते थे, लेकिन साम्प्रदायिक आधार पर हुए देश-विभाजन और मार-काट के बाद नेहरू और पटेल दोनों इस राय के हो चुके थे कि अब भाषिक आधार पर किसी विभाजन की जमीन तैयार न हो. मगर हिन्दी को वे तब भी किसी तरह देश की अनिवार्य भाषा के रूप में स्थापित नहीं कर पाये. दक्षिण भारत के तमाम प्रान्त इसका लगातार विरोध करते रहे. वे अपनी क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी को ही ज्यादा महत्व देते रहे.

तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्ना दुरई द्वारा हिन्दी विरोध की कहानी तो बेहद जबरदस्त है. सन् 1960 में अन्ना दुरई ने अपने एक ख्यात भाषण में हिन्दी के संख्या बल के तर्क पर सवाल उठाया और कहा – शेरों के मुकाबले चूहों की संख्या ज्यादा है तो क्या चूहों को राष्ट्रीय पशु बना देना चाहिए? उन्होंने मंच से हिन्दी को ललकारा और जनता से सवाल किया – मोर के मुकाबले कौवों की संख्या ज्यादा है तो क्या कौवों को राष्ट्रीय पक्षी बना देना चाहिए?

वर्ष 1965 में एक बार फिर दक्षिण भारत में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई. मगर इस बार तो हिन्दी के खिलाफ स्थानीय लोगों का पारा बहुत ऊपर चढ़ गया. लोग खिलाफत के लिए सड़कों पर उतर आये और सरकार को काले झंडे दिखाये. पहले ये लोग 26 जनवरी को काले झंडे दिखाने वाले थे, मगर गणतन्त्र दिवस की लाज रखते हुए 25 जनवरी को यह काम किया गया. इस दिन को आज भी वहां ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि इस दौरान हुई आगजनी और हिंसक झड़पों में सत्तर से ज्यादा लोगों की जानें गयी थीं. स्थानीय कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक हिंसक झड़प में आठ लोगों को जिन्दा जला दिया गया. डीएमके नेता डोराई मुरुगन को मद्रास शहर के पचाइअप्पन कॉलेज से गिरफ्तार किया गया. इसके बाद हजारों लोगों की गिरफ्तारियां हुर्इं. दो सप्ताह चले इस जबरदस्त विरोध को दबाने में सरकार के पसीने छूट गये.

हिन्दी के खिलाफ तमिलनाडु के मुखर विरोध की अभिव्यक्तियां बाद में महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल में भी सुनायी देने लगीं. वे लोग मानते थे और आज भी मानते हैं कि उनके क्षेत्र में उनकी भाषा, हिन्दी के मुकाबले कहीं ज्यादा प्राचीन और समृद्ध है. पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी रॉय भी बांग्ला-भाषियों पर हिन्दी थोपे जाने के सख्त खिलाफ थे. दक्षिण भारत में हिन्दी के खिलाफ उठे इस तूफान को देखते हुए तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी को राजभाषा अधिनियम में तुरंत संशोधन करना पड़ा था और अंग्रेजी को सहायक राजभाषा का दर्जा देकर अमल में लाया गया था. यही नहीं, तमाम विरोध-प्रदर्शनों को देखते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री को जनता से क्षमायाचना तक करनी पड़ी थी और तमाम तरह के आश्वासन देने पड़े थे.

दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति उपेक्षा

आजादी के इतने वर्ष बाद भी यदि हिन्दी दक्षिण भारतीयों का मन नहीं मोह पायी है, तो इसके दोषी केन्द्र सरकार ही नहीं, हिन्दी भाषी प्रदेश भी हैं. गैर हिन्दी भाषी प्रदेशों में छात्रों ने तमिल, तेलुगू, मराठी, बांग्ला के साथ अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ी, मगर हिन्दी भाषी प्रदेशों में तेलुगू, तमिल, मराठी या बंगाली कोई नहीं पढ़ता, बल्कि यहां के छात्र अपनी तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत को अपनाते हैं, जो देश के किसी भी हिस्से में प्रमुखता से बोली नहीं जाती है. तो जब आप दक्षिण की भाषाओं के प्रति उपेक्षा बरतते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह आपकी भाषा को सिर-माथे पर लेगा? निस्संदेह संस्कृत एक प्राचीन और समृद्ध भाषा है, जिसका अलग से अध्ययन होना चाहिए, लेकिन इसे ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ में फिट कर हिन्दी भाषी प्रदेशों ने गैर हिन्दी भाषी प्रदेशों से अपनी जो दूरी बढ़ायी, वह लगभग अक्षम्य है. आज अगर हिन्दी भाषी भी बड़ी तादाद में तमिल, तेलुगू, मराठी या बंगाली बोल रहे होते, तो बीते सत्तर सालों में हिन्दी का विरोध काफी कम हो चुका होता, लोग वैचारिक रूप से एक दूसरे के करीब आ गये होते, मगर यह नहीं हुआ, सरकारों ने ऐसा होने नहीं दिया, इसलिए ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ के ताजा प्रस्ताव पर विरोध फिर से भड़क उठा है.

संघ के दबाव में मोदी

संघ के दबाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का सेहरा अपने सिर बांधने को उतावले हैं, इसीलिए पहले कदम के तौर पर हिन्दी को पूरे देश में अनिवार्य करने की तेजी दिखा दी, बगैर जमीनी हकीकत को समझे. वे नहीं जानते कि हिन्दू राष्ट्र की घोषणा करना तो बहुत आसान है, परंतु इसके पेंच बेहद खतरनाक हैं. मुख्य खतरा है कि यह कदम भारत को पाकिस्तान की तरह एक धर्मशासित देश में बदल देगा. यह हमारी राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगा, पृथकतावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देगा, आंतरिक कलह और हिंसा का कारण बनेगा, भारत के सौन्दर्य को मिटा कर भारत की साख को नुकसान पहुंचाएगा. इससे भी अधिक क्षतिपूर्ण बात यह होगी कि एक हिन्दू राष्ट्र, भारत का विश्वगुरु के रूप में एक वैश्विक नेता बनने का सपना हमेशा के लिए खत्म कर देगा. कोई भी सम्प्रभु देश विशुद्ध धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के अलावा भारत के साथ न किसी संघ में शामिल होगा, न ही उसका अनुसरण करेगा. विडम्बना यह भी कि स्वयं हिन्दुत्व – जिसे इस कदम के समर्थक सबसे अधिक प्रदर्शित करना चाहते हैं, की भावना, परम्परा और प्रतिष्ठा को सबसे अधिक क्षति पहुंचाएगा.

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उल्लेखनीय है कि साल 2008 तक नेपाल देश धरती का इकलौता हिन्दू राष्ट्र था. मगर वहां भी क्षत्रीय राजवंश का खात्मा हुआ और 2008 में नेपाल गणतंत्र बन गया. नेपाल को हिन्दू राष्ट्र भी सिर्फ इसलिए कहा जाता था क्योंकि हिन्दू संहिता मनुस्मृति के अनुसार कार्यकारी सत्ता का स्रोत राजा था. इसके अलावा वहां धार्मिक ग्रंथ की कोई और बात लागू नहीं थी क्योंकि ये ‘मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा’ के खिलाफ होती. बावजूद इसके नेपाल को अपनी हिन्दू राष्ट्र की छवि को तोड़ कर गणतन्त्र का रास्ता इख्तियार करना पड़ा.

हिन्दू राज के खिलाफ थे आंबेडकर

संविधान के रचयिता डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान आॅर दि पार्टिशन आफ इण्डिया’ (1940) में चेताया है कि अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा. हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है. उस आधार पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है. हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए. डॉ. आंबेडकर ये बात बहुत साफतौर पर समझते थे कि हिन्दू राष्ट्र का सीधा अर्थ द्विज वर्चस्व की स्थापना था, यानी ब्राह्मण-वाद की स्थापना. वे हिन्दू राष्ट्र को मुसलमानों पर हिन्दुओं के वर्चस्व तक सीमित नहीं करते हैं, जैसा कि भारत का प्रगतिशील वामपंथी या उदारवादी लोग करते हैं. उनके लिए हिन्दू राष्ट्र का मतलब मुसलमानों के साथ दलित, ओबीसी और महिलाओं पर भी द्विजों यानी ब्राह्मणों के वर्चस्व की स्थापना था, जो एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के लिए, जहां इतनी बोलियां, जातियां और भिन्न्ताएं हैं, कभी भी हितकारी नहीं है.

क्या है त्रिभाषा फार्मूला?

त्रिभाषा फॉर्मूला यानी बारहवीं कक्षा तक के सिलेबस में तीन भाषाओं को शामिल किया जाना. 1948 में भारत में भाषा के आधार पर राज्यों को बांटने के आन्दोलन हो रहे थे. ठीक इसी समय यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन ने पढ़ाई-लिखाई के लिए तीन भाषा का फॉर्मूला दिया था. इसके अनुसार अंग्रेजी, हिन्दी के अलावा एक स्थानीय भाषा भी पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का प्रावधान किया गया. यह व्यवस्था स्विट्जरलैंड और नीदरलैंड के सिलेबस को देखकर तैयार की गयी थी. वर्ष 1964 में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन के चेयरमैन दौलत सिंह कोठारी के नेतृत्व में त्रिभाषा फॉर्मूले के लिए एक कमीशन बनाया गया. इस कमीशन ने 1966 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. वर्ष 1968 में भारतीय संसद ने कोठारी कमिशन की सिफारिश के आधार पर ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को स्वीकार कर लिया. उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री अन्ना दुरई थे. अन्ना दुरई ने इसके खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और तमिलनाडु की सरकारी स्कूलों से हिन्दी भाषा को हटा दिया.

दक्षिणी राज्यों के कड़े विरोध के चलते एजुकेशन पॉलिसी में ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को खारिज कर दिया गया. फिर साल 1990 में उर्दू के मशहूर लेखक अली सदर जाफरी के नेतृत्व में ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ पर विशेषज्ञों की एक कमिटी बनायी गयी. इस कमिटी ने अपनी सिफारिश में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लिए अलग-अलग त्रिभाषा फॉर्मूले की सिफारिश की. इसके अनुसार उत्तर भारत में हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा के तौर पर उर्दू को शामिल किया गया, वहीं दक्षिण भारत में हिन्दी और स्थानीय भाषा के अलावा अंग्रेजी को शामिल किये जाने की बात कही गयी. वर्ष 1992 में भारत की संसद ने इसको स्वीकार कर लिया. लेकिन गौरतलब बात यह है कि भरतीय संविधान के अनुसार शिक्षा राज्यों का विषय है. ऐसे में कोई भी राज्य ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को लागू करने के लिए बाध्य नहीं है.

हिन्दी के विरोधी क्यों हैं तमिल

भारत गणराज्य में सैकड़ों भाषाएं हैं. ब्रिटिश राज के दौरान, अंग्रेजी आधिकारिक भाषा थी. जब 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में तेजी आयी, तो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विभिन्न भाषाई समूहों को एकजुट करने के लिए हिन्दी को आम भाषा बनाने के प्रयास किये गये. 1918 की शुरुआत में, महात्मा गांधी ने ‘दक्षिण भारत प्रचार सभा’ (दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार के लिए संस्थान) की स्थापना की. वर्ष 1925 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी कार्यवाही करने के लिए अंग्रेजी से हिन्दी की ओर रुख किया. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू दोनों हिन्दी के समर्थक थे और कांग्रेस भारत के गैर-हिन्दी भाषी प्रांतों में हिन्दी की शिक्षा का प्रचार करना चाहती थी. लेकिन हिन्दी को आम भाषा बनाने का विचार दक्षिण के महान चिन्तक, विचारक और नेता ई.वी. रामासामी ‘पेरियार’ को कभी स्वीकार्य नहीं था. किसी भी किस्म की अंधश्रद्धा, कूपमंडूकता, जड़ता, अतार्किकता और विवेकहीनता पेरियार को स्वीकार नहीं थी. वर्चस्व, अन्याय, असमानता, पराधीनता और अज्ञानता के हर रूप को उन्होंने चुनौती दी. दक्षिण भारत में पेरियार को भगवान की तरह पूजा जाता है और उनके विचारों को बड़ा सम्मान प्राप्त है.

पेरियार ने दक्षिण में हिन्दी के प्रसार को तमिलों को उत्तर भारतीयों के अधीन एक प्रयास के रूप में देखा. उन्होंने कहा कि इस तरह ब्राह्मण तमिलों पर हिन्दी और संस्कृत थोपने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इसके खिलाफ आन्दोलन किये, जिन्हें तमिलभाषी मुसलमानों का भी सहयोग मिला. पेरियार के हिन्दी विरोधी विचार के आधार में दरअसल हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ रामायण था, जिसे पेरियार ने कभी धार्मिक किताब नहीं माना. उनका कहना था कि यह एक विशुद्ध राजनीतिक पुस्तक है; जिसे ब्राह्मणों ने दक्षिणवासी अनार्यों पर उत्तर के आर्यों की विजय और प्रभुत्व को जायज ठहराने के लिए लिखा है. यह गैर-ब्राह्मणों पर ब्राह्मणों और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व को कायम करने वाला एक उपकरण मात्र है. उन्होंने कहा कि रामायण को इस चतुराई के साथ लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को इनके द्वारा दबाया जा सके तथा उन्हें दासी बनाकर रखा जा सके. रामायण में जिस लड़ाई का वर्णन है, उसमें उत्तर का रहने वाला कोई भी (ब्राह्मण) या आर्य (देव) नहीं मारा गया. वे सारे लोग, जो इस युद्ध में मारे गये; वे तमिल थे. जिन्हें राक्षस कहा गया. रामायण की कथा का उद्देश्य तमिलों को नीचा दिखाना है. तमिलनाडु में इस कथा के प्रति सम्मान जताना तमिल समुदाय और देश के आत्मसम्मान के लिए खतरनाक और अपमानजनक है. उन्होंने कहा कि दक्षिण में हिन्दी का प्रसार ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों, रूढ़ियों तथा ‘मनुस्मृति’ को तमिल समाज पर थोपना है; जो कि तमिलों के लिए अपमानजनक है.

हिन्दी की अनिवार्य शिक्षा को लेकर द्रविड़ आंदोलन का दशकों लम्बा विरोध ब्राह्मणवाद, संस्कृत के प्रभुत्व और हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिये जाने के खिलाफ वैचारिक लड़ाई पर आधारित था. दक्षिण भारतीयों ने हमेशा संस्कृत को ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रसार की सवारी के तौर पर ही देखा जो जातिगत एवं लैंगिक ऊंच-नीच की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करती है. संस्कृत से नजदीकी को देखते हुए हिन्दी को भी जातिगत एवं लैंगिक शोषण की ‘पिछड़ी संस्कृति को बढ़ावा देनेवाली भाषा’ के तौर पर देखा गया.

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तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध इस आधार पर भी है कि आधुनिक, उपयोगी और प्रगतिशील ज्ञान यानी विज्ञान, तकनीक और तार्किक विचारों को हासिल करने की दृष्टि से हिन्दी समर्थ भाषा नहीं है. भले ही तमिलनाडु अपने कुशल श्रमबल के लिए पर्याप्त अच्छी नौकरियां पैदा कर पाने में समर्थ नहीं हो पाया है, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा में निवेश ने उनके अंतरराष्ट्रीय प्रवास को मुमकिन बनाया है. सर्वविदित है कि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण ही भारतीय सॉफ्टवेयर कम्पनियां कम लागत वाले प्रोग्रामिंग पेशेवरों की मौजूदगी का फायदा उठा पायीं और वैश्विक बाजार में अपने लिए जगह बना सकीं. यहां से बड़ी संख्या में लोग अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में गये हैं. भारत में आनेवाले धन (रेमिटेंसेज) के मामले में तमिलनाडु, केरल के बाद दूसरे स्थान पर आता है. राज्य की कुल आय में विदेशों से आनेवाले धन का योगदान 14 फीसदी है.

तमिलनाडु के लोगों की सोच के अनुसार हिन्दी उतनी पुरानी और समृद्ध भाषा नहीं है, जितनी तमिल और बांग्ला भाषाएं हैं. तमिल लोगों को यह भी लगता है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी समझना और सीखना ज्यादा आसान है. उनका कहना है कि आखिर वे अपने पास पहले से मौजूद एक आला दर्जे की भाषा को एक अविकसित और दोयम दर्जे की भाषा के लिए क्यों छोड़ दें?

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

मोदी की जीत में मुद्दे गुम

4 विधानसभाओं और कितने ही उपचुनावों की हार ही नहीं देशभर में बढ़ती बेकारी, धौंसबाजी के मामले, नोटबंदी के असर के बाद लग रहा था कि नरेंद्र मोदी जैसेतैसे चुनावों में जगह बना पाएंगे. उन्होंने कांग्रेस को ही नहीं, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी को भी पटकनी दे कर साबित कर दिया कि भाजपा का रथ जगन्नाथ पुरी के रथों की तरह सब को एक बार फिर रौंदने की ताकत रखता?है.

नरेंद्र मोदी के पिछले 5 साल कोई बहुत खास नहीं थे, पर इतना जरूर खास रहा कि उन्होंने अपने को लगातार आम जनता से जोड़े रखा. वे लगातार अपने वोटरों व भक्तों से ही नहीं दूसरों से भी बहुत ही ढंग से बोलते रहे, बात करते रहे. लोगों को शायद लगा कि वे उन के आसपास ही कहीं हैं. दूसरी ओर कांग्रेस के राहुल गांधी हों या ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव, वे उस तरह अपने लोगों से बात न कर सके जैसे नरेंद्र मोदी माहिर हैं.

यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी की एक बड़ी फौज है जो कंप्यूटरों पर बैठ कर मोदी की बातों को जनता तक पहुंचाती है तो दूसरों की जम कर खिंचाई भी कर लेती है. राहुल गांधी को तो लगातार निशाने पर रखा और जवाब में कांग्रेस ने तुर्कीबतुर्की जवाब देना सही नहीं समझा. जहां मोदी के चाहने वाले हर तरह की भाषा इस्तेमाल कर सकते थे, वहीं दूसरे दलों के लिए काम करने वाले या तो मोदी की शिकायतें करते नजर आए या अपने 2-4 कामों का गुणगान. उन्हें लोगों से बात करने की कला ही नहीं आती है. यही वह कला है जिस के सहारे गांवों, छोटे शहरों, कसबों के चौराहों पर बोलने वाले इलाके के चौधरी बात करते हैं, फिर नेता बनते हैं.

नरेंद्र मोदी की सरकार इस बार भारी बहुमत से जीती यह थोड़े अचरज की बात है क्योंकि इस बार कम से कम उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एकसाथ चुनाव लड़ा था. इसी तरह बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस वाले साथ थे. मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस विधानसभाओं में जीत कर आई थी पर इन सब जगह एक पार्टी के वोटरों ने अपनी पार्टी के साथ आई नई पार्टी को वोट देने की जगह भाजपा को वोट देना ठीक समझा, क्योंकि यह पक्का लग रहा था कि उन के वोटों से जीता सांसद उन के काम करा पाएगा, यह पक्का नहीं है.

हमारे देश में वोट काम पर कम चेहरों पर ज्यादा पड़ते रहे हैं. पहले जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के चेहरों पर पड़े, फिर एक बार अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे पर. पर जब 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के सामने सोनिया गांधी का चेहरा आया तो वह हावी हो गया. इस बार और 2014 में नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी जैसों का चेहरा फीका था.

रही बात नीतियों की तो उन की कौन परवाह करता है? इस देश की जनता को अपने वोट से ज्यादा अपने भाग्य की फिक्र होती है. सरकार ने कब कौन से लड्डू दिए हैं? फसल अच्छी हुई तो अनाज ज्यादा, जेब में 4 पैसे आ गए. खराब हुई तो थोड़ा हाहाकार. सरकार का भला क्या दोष? वह भगवान के ऊपर थोड़े ही है? नीतियां चाहे कोई भी हों, नाम तो हो.

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यही वजह है कि नवीन पटनायक को ओडिशा में विधानसभा में अच्छी सीटें मिल गईं पर लोकसभा में चोट पहुंची.

भारतीय जनता पार्टी की जीत के चाहे कुछ भी माने हों, इस का असर देश के रोजमर्रा के काम पर भी पड़ेगा. अब चूंकि देश में 1947 से 1977 तक जैसे एक पार्टी का राज बन गया है, देश के लोगों की सुध लेने वाला अपने ही कामों में फंसा रहेगा. नरेंद्र मोदी को सलाह देने वालों में से कोई भी अब उन्हें कह नहीं सकेगा कि उन का कोई कदम किस तरह पूरा सही नहीं है. सब हां में हां मिलाएंगे.

उन के अपने मंत्री ही नहीं, टीवी, अखबार, सोशल मीडिया हर कोई अलग बात कहने से कतराएगा क्योंकि जनता ने कह दिया है कि सही हैं तो नरेंद्र मोदी. नरेंद्र मोदी की अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी वैसे ही भारीभरकम है. इस में दिग्गज नेता नहीं हैं, पर रसूखदार लोग हैं. वे अपना वजन कब कहां डालेंगे कहा नहीं जा सकता.

नरेंद्र मोदी को पहले 5 सालों में कई नई बातें सीखनी पड़ीं, बहुतों की सुनी होगी. अब उन्हें कोई सलाह देने की हिम्मत न करेगा. अब उन्हें अपनी बात पर ही, अपने फैसले पर ही देश चलाना होगा. यह काम आसान नहीं होता.

देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को एक मजबूत नेता मान कर चुना है और उन्हें वह मजबूती हर कदम पर दिखानी होगी. देश की जो समस्याएं मुंह खोले खड़ी हैं, उन के जवाब उन्हें अकेले ढूंढ़ने होंगे. भारतीय जनता पार्टी इस जीत को अहंकार न समझ ले, तानाशाही न समझ ले, इस पर रोक लगाने का काम नरेंद्र मोदी को ही करना होगा.

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अब तक नरेंद्र मोदी के सामने संसद में कई मजबूत अच्छे नेता थे, कई मुख्यमंत्री अपनी खास पहचान रखते थे. अब उन्होंने सब का मुंह बंद करा दिया है. वे अगर कहीं संसद में लोकसभा में जीत कर या पहले से राज्यसभा में हैं भी तो उन की आवाज में वह तेजी नहीं रहेगी. वे खिसियाए से रस्म अदा करते नजर ही आएंगे.

नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा काम किया है. अखिलेश यादव, मायावती, अरविंद केजरीवाल, लालू प्रसाद यादव के बेटे को पूरा सबक सिखा दिया. पार्टियों की यह मेढकीय भीड़ देश को खराब कर रही थी. पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, हरियाणा का चौटाला परिवार शायद अब राजनीति की धूल में खो जाएं. यह जरूरी है. देश में सामने वाली पार्टी मजबूत होनी चाहिए, बंटी हुई नहीं.                द्य

राजनीतिक रंजिशें किसी की सगी नहीं

लेखक- अक्षय कुलश्रेष्ठ

विपक्षी अमला ही अब हमलावर हो गया और राजनीतिक वजूद की लड़ाई सामने आ गई. चुनचुन कर लोगों की हत्याएं हो रही हैं. राजनीतिक रसूख पर ऐसा बट्टा लगा है जो बहुतों की रातों की नींदें हराम कर रहा है. यह बात राजनीतिक लोगों को हजम नहीं हो पा रही है कि अब विपक्ष नाम की कोई चीज है भी या नहीं.

एक तरफ हापुड़ में एक कांड को अंजाम दिया गया, वहीं अमेठी भी इस से अछूता नहीं रहा. हापुड़ के गांव करनपुर में घर के बाहर सो रहे भारतीय जनता पार्टी के पन्ना प्रमुख चंद्रपाल की 25 मई 2019 की रात गोलियों से भून कर हत्या कर दी गई. पास में ही सो रहे बेटे देवेंद्र ने जब शोर मचाया तो दोनों बदमाश अंधेरे का फायदा उठाते हुए जंगल की ओर भाग गए.

हुआ यों कि हापुड़ के गांव करनपुर के रहने वाले चंद्रपाल सिंह पुत्र पूरन सिंह भाजपा के पन्ना प्रमुख थे. उन के 5 बेटे व एक बेटी हैं. 25 मई 2019 की रात वह घर के बाहर सो रहे थे, वहीं पास में ही दूसरी चारपाई पर उन का बेटा देवेंद्र सो रहा था. देर रात 2 बदमाश वहां आए और चंद्रपाल के पड़ोसी धर्मपाल के घर के बाहर लगे खंभे पर बल्ब फोड़ कर अंधेरा कर दिया. इस के बाद बदमाशों ने चंद्रपाल को आवाज लगाई.

आवाज सुन कर चंद्रपाल जैसे ही उठ कर बैठे, बदमाशों ने उन की कनपटी से सटा कर गोली चला दी, लेकिन निशाना चूक गया. गोली उन की बाईं आंख में जा लगी. इस के बाद वह औंधे मुंह नीचे गिर गए. बदमाशों ने चंद्रपाल की कमर में भी 2 गोलियां मारीं.

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गोलियों की आवाज सुन कर देवेंद्र की नींद खुली तो उस ने शोर मचा दिया. इस के बाद बदमाश पैदल ही अंधेरे का फायदा उठाते हुए जंगल की ओर भाग गए. शोर सुन कर गांव वाले जमा हुए तब तक चंद्रपाल की मौैत हो चुकी थी.

वहीं दूसरी ओर अमेठी के बरौलियां गांव में भी 25 मई 2019 की रात वारदात हुई. वहां भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत की खुशी मना रही थी. देर रात साढ़े 11 बजे 2 बाइक सवार बदमाश वहां आए. बदमाशों ने पूर्व प्रधान और भाजपा के समर्थक सुरेंद्र सिंह के सिर में गोली मार दी और मौके से फरार हो गए.

हत्या के वक्त सुरेंद्र सिंह घर के बरामदे में सो रहे थे, तभी उन पर गोलियों से हमला हुआ. घायल हालत में सुरेंद्र सिंह को अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने उन्हें लखनऊ के लिए रैफर कर दिया. लखनऊ ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया.

स्मृति ईरानी सुरेंद्र सिंह की शवयात्रा में शामिल हुईं और उन्होंने अर्थी को कंधा भी दिया. उन्होंने कहा कि सुरेंद्र की हत्या करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. हत्या करने और करवाने वाले दोनों को कड़ी सजा दिलाएंगे. इस के लिए सुप्रीम कोर्ट तक भी जाना पड़ा तो जाएंगे और उन की लड़ाई पार्टी लड़ेगी.

पत्नी रुक्मणि सिंह ने कहा कि स्मृति ईरानी ने भरोसा दिया है कि वे अपने बच्चों की तरह ही मेरे बच्चों का खयाल रखेंगी. स्मृति ईरानी ने कहा कि अब इस परिवार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी है. यह मेरी लड़ाई है. मैं सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगी.

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बेटे अभय ने कहा कि मेरे पिता भारतीय जनता पार्टी की नेता स्मृति ईरानी के काफी करीबी थे और लोकसभा चुनाव में प्रचार की जिम्मेदारी निभा रहे थे. जीत के लिए विजय यात्रा निकाली जा रही थी. यह बात कांग्रेस नेताओं को हजम नहीं हुई, शायद इसीलिए उन की हत्या कर दी गई.

सुरेंद्र सिंह ने 2109 लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी के चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभाई थी. कई गांवों में सुरेंद्र सिंह का अच्छाखासा दबदबा था. इस का फायदा इस चुनाव में स्मृति ईरानी को मिला. कांग्रेस के गढ़  अमेठी में कमल खिलाने का श्रेय काफी हद तक सुरेंद्र सिंह को भी जाता है.

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

शत्रुघ्न सिन्हा की राजनीति…

शत्रुघ्न सिन्हा काफी समय से अपनी पार्टी के खिलाफ कुछ न कुछ कह रहे थे. वे लाल कृष्ण आडवाणी के खेमे के माने जाते थे, पर ऊंची जाति के हैसियत वाले थे, इसलिए उन्हें कहा तो खूब गया, लेकिन गालियां नहीं दी गईं. सोशल मीडिया में चौकीदार का खिताब लगाए गुंडई पर उतारू बड़बोले, गालियों की भाषा का जम कर इस्तेमाल करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के मामले में मोदीभक्त होने का फर्ज अदा करते रहे. हां, उदित राज के मामले में वे एकदम मुखर हो गए. एक दलित और दलित हिमायती की इतनी हिम्मत कि पंडों की पार्टी की खिलाफत कर दे. जिस पार्टी का काम मंदिर बनवाना, पूजाएं कराना, ढोल बजाना, तीर्थ स्थानों को साफ करवाना, गंगा स्नान करना हो, उस की खिलाफत कोई दलित भला कैसे कर सकता है?

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वैसे, उदित राज ने 5 साल पहले ही भाजपा में जा कर गलती की थी. दलितों की सदियों से जो हालत है, वह इसीलिए है कि ऊंची जातियों के लोग हर निचले पिछड़े तेज जने को अपने साथ मिला लेते हैं, ताकि वह दलितों का नेता न बन सके. यह समझदारी न भारत के ईसाइयों में है, न मुसलमानों में और न ही सिखों या बौद्धों में. उन्हें अपना नेता चुनना नहीं आता, इसलिए हिंदू पंडों को नेताटाइप लोगों को थोड़ा सा चुग्गा डाल कर अपना काम निकालने की आदत रही है. 1947 से पहले आजादी की लड़ाई में यही किया गया. किसी सिख, ईसाई, बौद्ध, शूद्र, अछूत को अलग नेतागीरी करने का मौका ही नहीं दिया गया. जैसे ही कोई नया नाम उभरता, चारों ओर से पंडों की भीड़ उसे फुसलाने को पहुंच जाती. मायावती के साथ हाल के सालों में ऐसा हुआ, प्रकाश अंबेडकर के साथ हुआ, किसान नेता चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह के साथ हुआ. उदित राज मुखर दलित लेखक बन गए थे. उन्हें भाजपा का सांसद का पद दे कर चुप करा दिया गया. इस से पहले वाराणसी के सोनकर शास्त्री के साथ ऐसा किया गया था. उदित राज का इस्तेमाल कर के, उन की रीढ़ की हड्डी को तोड़ कर घी में पड़ी मरी मक्खी की तरह निकाल फेंका और किसी हंसराज हंस को टिकट दे दिया. अगर वे जीत गए तो वे भी तिलक लगाए दलितवाद का कचरा करते रहेंगे. दलितों की हालत वैसी ही रहेगी, यह बिलकुल पक्का?है. यह भी पक्का है कि जब तक देश के पिछड़ों और दलितों को सही काम नहीं मिलेगा, सही मौके नहीं मिलेंगे, देश का अमीर भी जलताभुनता रहेगा कि वह किस गंदे गरीब देश में रहता?है. अमीरों की अमीरी बनाए रखने के लिए गरीबों को भरपेट खाना, कपड़ा, मकान और सब से बड़ी बात इज्जत व बराबरी देना जरूरी है. यह बिके हुए दलित पिछड़े नेता नहीं दिला सकते हैं. जिस की लाठी उस की भैंस जमीनों के मामलों में आज भी गांवों में किसानों के बीच लाठीबंदूक की जरूरत पड़ती है, जबकि अब तो हर थोड़ी दूर पर थाना है, कुछ मील पर अदालत है. यह बात घरघर में बिठा दी गई है कि जिस के हाथ में लाठी उस की भैंस. असल में मारपीट की धमकियों से देशभर में जातिवाद चलाया जाता है. गांव के कुछ लठैतों के सहारे ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य गांवों के दलितों और पिछड़ों को बांधे रखते हैं. अब जब लाठी और बंदूक धर्म की रक्षा के लिए दी जाएगी और उस से बेहद एकतरफा जातिवाद लादा जाएगा, तो जमीनों के मामलों में उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाएगा. अब झारखंड का ही मामला लें.

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1985 में एक दोपहर को 4 लोगों ने मिल कर खेत में काम कर रहे कुछ किसानों पर हमला कर दिया था. जाहिर है, मुकदमा चलना था. सैशन कोर्ट ने उन चारों को बंद कर दिया. लंबी तारीखों के बाद 2001 में जिला अदालत ने उन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई. इतने साल जेल में रहने के बाद उन चारों को अब छूटने की लगी. हाथपैर मारे जाने लगे. हाईकोर्ट में गए कि कहीं गवाह की गवाही में कोई लोच ढूंढ़ा जा सके. हाईकोर्ट ने नहीं सुनी. 2009 में उस ने फैसला दिया. अब चारों सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. क्यों भई, जब लाठीबंदूक से ही हर बात तय होनी है तो अदालतों का क्या काम? जैसे भगवा भीड़ें या खाप पंचायतें अपनी धौंस चला कर हाथोंहाथ अपने मतलब का फैसला कर लेती हैं, वैसे ही लाठीबंदूक से किए गए फैसले को क्यों नहीं मान लिया गया और क्यों रिश्तेदारों को हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट दौड़ाया गया, वह भी 34 साल तक? लाठी और बंदूक से नरेंद्र मोदी चुनाव जीत लें, पर राज नहीं कर सकते. पुलवामा में बंदूकें चलाई गईं तो क्या बालाकोट पर बदले की उड़ानों के बाद कश्मीर में आतंकवाद अंतर्ध्यान हो गया? राम ने रावण को मारा तो क्या उस के बाद दस्यु खत्म हो गए? पुराणों के हिसाब से तो हिरण्यकश्यप और बलि भी दस्यु थे, अब वे विदेशी थे या देशी ही यह तो पंडों को पता होगा, पर एक को मारने से कोई हल तो नहीं निकलता. अमेरिका 30 साल से अफगानिस्तान में बंदूकों का इस्तेमाल कर रहा है, पर कोई जीत नहीं दिख रही. बंदूकों से राज किया जाता है पर यह राज हमेशा रेत के महल का होता है. असली राज तब होता है जब आप लोगों के लिए कुछ करो.

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मुगलों ने किले, सड़कें, नहरें, बाग बनवाए. ब्रिटिशों ने रेलों, बिजली, बसों, शहरों को बनाया तो राज कर पाए, बंदूकों की चलती तो 1947 में ब्रिटिशों को छोड़ कर नहीं जाना पड़ता. जहां भी आजादी मिली है, लाठीबंदूक से नहीं, जिद से मिली है. जमीन के मामलों में ‘देख लूंगा’, ‘काट दूंगा’ जैसी बातें करना बंद करना होगा. जाति के नाम पर लाठीबंदूक काम कर रही है, पर उस के साथ भजनपूजन का लालच भी दिया जा रहा है, भगवान से बिना काम करे बहुतकुछ दिलाने का सपना दिखाया जा रहा है. झारखंड के मदन मोहन महतो व उन के 3 साथियों को इस हत्या से क्या जमीन मिली होगी और अगर मिली भी होगी तो क्या जेलों में उन्होंने उस का मजा लूटा होगा?

दलितों की बदहाली

सुप्रीम कोर्ट भी किस तरह दलितों को जलील करता है इस के उदाहरण उस के फैसलों में मिल जाएंगे. देशभर में दलितों को बारबार एहसास दिलाया जाता है कि संविधान में उन्हें बहुत सी छूट दी हैं पर यह कृपा है और उस के लिए उन्हें हर समय नाक रगड़ते रहनी पड़ेगी. महाराष्ट्र म्यूनिसिपल टाउनशिप ऐक्ट में यह हुक्म दिया गया है कि अगर दलित या पिछड़ा चुनाव लड़ेगा तो उस को अपनी जाति का सर्टिफिकेट नौमिनेशन के समय या चुने जाने के 6 महीने में देना होगा.

यह अपनेआप में उसी तरह का कानून है जैसा एक जमाने में दलितों को घंटी बांध कर घूमने के लिए बना था ताकि वे ऊंची जातियों को दूर से बता सकें कि वे आ रहे हैं. यह वैसा ही है जैसा केरल की नीची जाति की नाडार औरतों के लिए था कि वे अपने स्तन ढक नहीं सकतीं ताकि पता चल सके कि वे दलित अछूत हैं. दोनों मामलों में इन लोगों से जी भर के काम लिया जा सकता था पर दूरदूर रख कर.

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कानून यह भी कहता है कि हर समय अपना जाति प्रमाणपत्र रखो. क्यों? ब्राह्मणों को तो हर समय या कभी भी अपना जाति सर्टिफिकेट नहीं चाहिए होता तो पिछड़े दलित ही क्यों लगाएं? क्यों वे कलेक्टर, तहसीलदार से अपना सर्टिफिकेट बनवाएं? उन्होंने किसी आरक्षित सीट के लिए कह दिया कि वे पिछड़े या दलित हैं तो मान लिया जाए. आज 150 साल की अंगरेजी पढ़ाई, बराबरी के नारों के बावजूद भी क्यों जाति का सवाल उठ रहा है? क्या पढ़ेलिखे विद्वानों के लिए 150 साल का समय कम था कि वे जाति का सवाल ही नहीं मिटा सकते थे? जब हम मुगलों और ब्रिटिशों के राज से छुटकारा पा सकते थे तो क्या दलित पिछड़े के तमगों से नहीं निकल सकते थे?

यहां तो उलट हो रहा है. शंकर देवरे पाटिल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को सही ठहराया है जिस ने यह जबरन कानून थोप रखा है कि आरक्षित सीट पर खड़े होना है तो सर्टिफिकेट लाओ. यह अपमानजनक है. यह दलितों, पिछड़ों को एहसास दिलाने के लिए है कि वे निचले, गंदे, पैरों की धूल हैं. यह बराबरी के सिद्धांत के खिलाफ है.

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दलितों और पिछड़ों को जो भी छूट मिले उन्हें बिना किसी प्रमाणपत्र लटकाए मिलनी चाहिए. अगर ऊंची जाति का कोई उस का गलत फायदा उठाए तो उस के लिए सजा हो, दलित पिछड़े के लिए नहीं. वैसे भी ऊंची जाति का कोई दलित पिछड़े को दोस्त तक नहीं बनाता, वह उन की जगह कैसे लेगा? ऊंची जातियों का आतंक इतना है कि नीची जाति वाले तो हर समय चेहरे पर ही वैसे ही अपने सर्टिफिकेट गले में लटकाए फिरते हैं. नरेंद्र मोदी कहते रहें कि हिंदू आतंकवादी नहीं हैं पर लठैतों के सहारे दलितों और पिछड़ों पर जो हिंदू आतंक 150 साल में नई हवा के बावजूद भी बंद नहीं हुआ, वह सुप्रीम कोर्ट की भी मोहर इसी आतंकवाद की वजह से पा जाता है.

गरीब की ताकत है पढ़ाई

हमारे देश में ही नहीं, लगभग सभी देशों में गरीब, मोहताज, कमजोर पीढ़ी दर पीढ़ी जुल्मों के शिकार लोग रहे हैं. इसकी असली वजह दमदारों के हथियार नहीं, गरीबों की शिक्षा और मुंह खोलने की कमजोरी रही है. धर्म के नाम पर शिक्षा को कुछ की बपौती माना गया है और उसी धर्म देश के सहारे राजाओं ने अपनी जनता को पढ़ने-लिखने नहीं दिया. समाज का वही अंग पीढ़ी दर पीढ़ी राज करता रहा जो पढ़-लिख और बोल सका.

2019 के चुनाव में भी यही दिख रहा है. पहले बोलने या कहने के साधन बस समाचारपत्र या टीवी थे. समाचारपत्र धन्ना सेठों के हैं और टीवी कुछ साल पहले तक सरकारी था. इन दोनों को गरीबों से कोई मतलब नहीं था. अब डिजिटल मीडिया आ गया है, पर स्मार्टफोन, डेटा, वीडियो बनाना, अपलोड करना खासा तकनीकी काम है जिस में पैसा और समय दोनों लगते हैं जो गरीबों के पास नहीं हैं.

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गरीबों की आवाज 2019 के चुनावों में भी दब कर रह गई है. विपक्ष ने तो कोशिश की है पर सरकार ने लगातार राष्ट्रवाद, देश की सुरक्षा, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जनता को बहकाने की कोशिश की है ताकि गरीबों की आवाज को जगह ही न मिले. सरकार से डरे हुए या सरकारी पक्ष के जातिवादी रुख से सहमत मीडिया के सभी अंग कमोबेश एक ही बात कह रहे हैं, गरीब को गरीब, अनजान, बीमार चुप रहने दो.

चूंकि सोशल, इलैक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया पढ़ेलिखों के हाथों में है, उन्हीं का शोर सुनाई दे रहा है. आरक्षण पाने के बाद भी सदियों तक जुल्म सहने वाले भी शिक्षित बनने के बाद भी आज भी मुंह खोलने से डरते हैं कि कहीं वह शिक्षित ऊंचा समाज जिस का वे हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे हैं उन का तिरस्कार न कर दे. कन्हैया कुमार जैसे अपवाद हैं. उन को भीड़ मिल रही है पर उन जैसे और जमा नहीं हो रहे. 15-20 साल बाद कन्हैया कुमार क्या होंगे कोई नहीं कह सकता क्योंकि रामविलास पासवान जैसों को देख कर आज कोई नहीं कह सकता कि उन के पुरखों के साथ क्या हुआ. रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती, मीरा कुमार जैसे पढ़लिख कर व पैसा पा कर अपने समाज से कट गए हैं.

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2019 के चुनावों के दौरान राहुल गांधी गरीबों की बात करते नजर आए पर वोट की खातिर या दिल से, कहा नहीं जा सकता. पिछड़ों, दलितों ने उन की बातों पर अपनी हामी की मोहर लगाई, दिख नहीं रहा. दलितों से जो व्यवहार पिछले 5 सालों में हुआ उस पर दलितों की चुप्पी साफ करती है कि यह समाज अभी गरीबी के दलदल से नहीं निकल पाएगा. हां, सरकार बदलवा दे यह ताकत आज उस में है पर सिर्फ उस से उस का कल नहीं सुधरेगा. उसे तो पढ़ना और कहना दोनों सीखना होगा. आज ही सीखना होगा. पैन ही डंडे का जवाब है.

मोदी की नैया

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

गरीबी बनी एजेंडा

राहुल गांधी का नया चुनावी शिगूफा कि यदि वे जीते तो देश के सब से गरीब 20 फीसदी लोगों को 72,000 रुपए साल यानी 6,000 रुपए प्रति माह हर घर को दिए जाएंगे, कहने को तो नारा ही है पर कम से कम यह राम मंदिर से तो ज्यादा अच्छा है. भारतीय जनता पार्टी का राम मंदिर का नारा देश की जनता को, कट्टर हिंदू जनता को भी क्या देता? सिर्फ यही साबित करता न कि मुसलमानों की देश में कोई जगह नहीं है. इस से हिंदू को क्या मिलेगा?

लोगों को अपने घर चलाने के लिए धर्म का झुनझुना नहीं चाहिए चाहे यह सही हो कि पिछले 5,000 सालों में अरबों लोगों को सिर्फ और सिर्फ धर्म की खातिर मौत की नींद सुलाया गया हो. लोगों को तो अपने पेट भरने के लिए पैसे चाहिए.

यह कहना कि सरकार इस तरह का पैसा जमा नहीं कर सकती, अभी तक साबित नहीं हुआ है. 6,000 रुपए महीने की सहायता देना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है. अगर सरकार अपने सरकारी मुलाजिमों पर लाखों करोड़ रुपए खर्च कर सकती है, उस के मुकाबले यह रकम तो कुछ भी नहीं है. यह कहना कि इस तरह का वादा हवाहवाई है तो गलत है, पर सवाल दूसरा है.

सवाल है कि देश की 20 फीसदी जनता को इतनी कम आमदनी पर जीना ही क्यों पड़ रहा है? इस में जितने नेता जिम्मेदार उस से ज्यादा वह जाति प्रथा जिम्मेदार है जिस की वजह से देश की एक बड़ी आबादी को पैदा होते ही समझा दिया जाता है कि उस का तो जन्म ही नाली में कीड़े की तरह से रहने के लिए हुआ है. उन लोगों के पास न घर है, न खेती की जमीन, न हुनर, न पढ़ाई, न सामाजिक रुतबा. वे तो सिर्फ ऊंची जातियों के लिए इतने में काम करने को मजबूर हैं कि जिंदा रह सकें.

देश का ढांचा ही ऐसा है कि इन गरीबों की न आवाज है, न इन के नेता हैं जो इन की बात सुना सकें. उन को समझाने वाला कोई नहीं. गनीमत बस यही है कि 1947 के बाद बने संविधान में इन्हें जानवर नहीं माना गया.

1947 से पहले तो ये जानवर से भी बदतर थे. अमेरिका के गोरे मालिक अपने नीग्रो काले गुलामों की ज्यादा देखभाल करते थे, क्योंकि वे उन के लिए काम करते थे और बीमार हो जाएं या मर जाएं तो मालिक को नुकसान होता था. हमारे ये गरीब तो किसी के नहीं हैं, खेतों के बीच बनी पगडंडी हैं जिस की कोई सफाई नहीं करता. हर कोई इस्तेमाल कर के भूल जाता है.

इन को 72,000 रुपए सालाना दिया जा सकता है. कैसे दिया जाएगा, पैसा कहां से आएगा यह पूछा जाएगा, पर कम से कम इन की बात तो होगी. ऊंची जातियों के लिए यह झकझोरने वाली बात है कि 25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो आज इस से भी कम में जी रहे हैं. क्यों, यह सवाल तो उठा है. असली राष्ट्रवाद यही है, मंदिर की रक्षा नहीं.

कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक प्रियंका गांधी

राजनीति की चुनावी रणभेरी अब बज चुकी है. 2019 का आम चुनाव कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के लिए ही जीने मरने का सवाल बन गया है. 3 राज्यों में मिली जीत से कांग्रेस में जोश है. वह इस जोश को पार्टी और वोटर दोनों के लिए इस्तेमाल करना चाहती है. यही वजह है कि कांग्रेस ने भी प्रियंका गांधी को मैदान में उतार कर अपना सब से अहम किरदार सामने कर दिया है.

कांग्रेस के पक्ष में बन रही हवा को इस ‘मास्टर स्ट्रोक’ से केवल चुनावी फायदा ही नहीं मिलेगा, बल्कि चुनाव के बाद उपजे हालात में नए तालमेल बनाने में भी खासा मदद मिलेगी. ‘शाहमोदी’ खेमे में भी इस से बेचैनी बढ़ गई है. ऐसे में एक बार फिर से प्रियंका गांधी को ले कर नएनए मैसेज वायरल होने लगे हैं.

12 जनवरी, 1972 को जनमी प्रियंका गांधी 47 साल की हो चुकी हैं. जनता उन में प्रधानमंत्री रह चुकी इंदिरा गांधी की छवि देखती है. इसी वजह से वे हमेशा ही कांग्रेस की स्टार प्रचारक मानी जाती रही हैं. समयसमय पर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता प्रियंका गांधी के राजनीति में आने को ले कर मांग भी करते रहे हैं. कई चुनावों में अपनी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के चुनाव प्रचार में उन्होंने हिस्सा भी लिया है.

अभी तक प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली सीटों पर ही प्रचार अभियान को संभालती रही हैं या फिर परदे के पीछे रह कर काम करती रही हैं, पर साल 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है. पहली बार प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली से बाहर निकल कर चुनाव प्रचार करेंगी.

शानदार रुतबा

लोकसभा में सब से ज्यादा सीटें होने के चलते उत्तर प्रदेश बहुत अहम हो जाता है. उम्मीद की जा रही है कि प्रियंका गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की संसदीय सीट रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी. प्रियंका का लंबा छरहरा कद, छोटे बाल और साड़ी पहनने का लुक उन्हें दादी इंदिरा गांधी के काफी करीब लाता है.

प्रियंका गांधी के अंदर संगठन की क्षमता, राजनीतिक चतुराई और बोलने की कला सब से अलग है. लोगों से बात करते समय खिलखिला कर हंसना और अपनी बात बच्चों की तरह जिद कर के मनवाने की कला प्रियंका गांधी को दूसरों से अलग करती है.

वैसे, प्रियंका गांधी जरूरत पड़ने पर अपने तेवर तल्ख करना भी जानती हैं. इस से कार्यकर्ता अनुशासन में रहते हैं. वे देश के सब से बड़े सियासी परिवार की होने के बाद भी सियासी बातें कम करती हैं. विरोधी दल के नेता उन के बारे में कुछ भी कहें, पर वे कभी इन नेताओं पर कमैंट नहीं करती हैं. कभी मीडिया कमैंट करने के लिए कहती भी है तो वे मुसकरा कर बात को टाल जाती हैं.

जोश में है कांग्रेस

प्रियंका गांधी को ले कर कई तरह के नारे कार्यकर्ताओं के बीच बहुत मशहूर हैं. इन में ‘अमेठी का डंका बेटी प्रियंका’ और ‘प्रियंका नहीं यह आंधी है नए युग की इंदिरा गांधी है’ सब से खास हैं.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रियंका गांधी जब साल 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए आई थीं तो सब से पहले इतने दिन बाद आने के लिए माफी मांगी थी. वे औरतों और बच्चों से बेहद करीब से बात करती हैं. उम्रदराज औरतें जब उन के पैर छूने के लिए आगे बढ़ती हैं तो उन्हें वे रोक लेती हैं. उन के हाथ अपने सिर पर रख लेती हैं.

प्रियंका गांधी के इस प्यार भरे बरताव से गांव की औरतें निहाल हो जाती हैं. कईकई दिन तक वे प्रियंका गांधी की बातें करती नहीं अघाती हैं.

खूब चला जादू

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने अमेठी व रायबरेली इलाके में चुनाव प्रचार किया था. उत्तर प्रदेश के इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश की 402 विधानसभा सीटों में से 22 सीटें जीती थीं.

अमेठी रायबरेली क्षेत्र में कुल

10 विधानसभा की सीटें थीं. इन में से 7 सीटें कांग्रेस ने जीत ली थीं. इन में बछरांवा से राजाराम, संताव से शिव गणेश लोधी, सरेनी से अशोक सिंह, डलमऊ से अजय पाल सिंह, सलोन से शिवबालक पासी, अमेठी से रानी अमिता सिंह और जगदीशपुर से रामसेवक कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे. 10 में से 7 सीटें जीतना कांग्रेस के लिए चमत्कार जैसा था. कांग्रेस के लिए यह चमत्कार प्रियंका गांधी वाड्रा ने किया था.

प्रियंका गांधी ने इस के पहले साल 2004 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली संसदीय सीट पर चुनाव लड़ रही अपनी मां सोनिया गांधी के चुनाव संचालन को संभाला था, वहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में भी प्रियंका गांधी ने रायबरेली और अमेठी तक अपने को समेट कर रखा था.

प्रियंका गांधी के इस सहयोग से राहुल और सोनिया को पूरे प्रदेश में पार्टी के प्रचार का मौका मिला. इस से कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 22 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

प्रियंका गांधी को कांग्रेस का प्रचार प्रचारक माना जाता है. इसी वजह से उन को राजनीति में सीधेतौर पर उतरने की मांग कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के द्वारा होती रहती है. चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए प्रियंका गांधी कांग्रेस का प्रचार करती रही हैं.

कामयाबी की धुरी

प्रियंका गांधी की शादी रौबर्ट वाड्रा से हुई है. उन के एक बेटा रेयान और बेटी मिरिया हैं.

प्रियंका जब चुनाव प्रचार में जाती हैं तो आमतौर पर बच्चे उन के साथ होते हैं. वे पौलिटिक्स के साथ अपने परिवार का पूरा ध्यान रखती हैं. वे अपनी मां और भाई के सहयोगी की भूमिका में अपने को रखती रही हैं.

कई बार प्रियंका गांधी बिना कहे ही सारी बात कह जाती हैं. उन का यही अंदाज राहुल गांधी से जुदा लगता है.

राहुल गांधी अपनी बात कहने के लिए भाषण का सहारा लेते हैं. प्रियंका गांधी जब नाराज होती हैं या किसी बात से सहमत नहीं होती हैं तो उन के हावभाव से पता चल जाता है. गुस्से में प्रियंका का चेहरा तमतमा कर लाल हो जाता है.

जानकार लोग कहते हैं कि ऐसे मौके कम ही आते हैं. कार्यकर्ताओं का गुस्सा कम करने के लिए प्रियंका गांधी अपनी मुसकान का सहारा लेती हैं. वे अपने ऊपर भी गुस्सा हो जाती हैं. उन की यह अदा देख कर कार्यकर्ता सबकुछ भूल कर वापस प्रियंका गांधी की बात सुनने लगते हैं.

प्रियंका गांधी की यही सफलता विरोधी दलों के लिए सोचने का विषय बन जाता है. सभी दलों को लगता है कि अगर प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार की कमान संभाल ली तो उन के सामने मुश्किल खड़ी हो जाएगी.

भाजपा के राज में सामाजिक विकास नहीं ब्राह्मणवाद का ढोंग बढ़ा?

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15-15 साल, गुजरात में 20 साल और राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड जैसे राज्यों में राज कर चुकी भारतीय जनता पार्टी के समय में भले कुछ और न हुआ हो, वह दलित, पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण कराने में जरूर कामयाब हुई है. निचली और पिछड़ी जातियों में हिंदुत्व का उभार हुआ है.

मिडिल क्लास में हिंदू धार्मिकता बढ़ रही है. इस के देशभर में प्रचारप्रसार में भाजपा के राज वाले राज्यों का बड़ा योगदान रहा है. निचली, पिछड़ी जातियों के हिंदूकरण की वजह से ऊंची जातियों में भाजपा के प्रति नाराजगी जाहिर होने लगी थी.

गुजरात दंगों ने गुजराती समाज का हिंदूकरण करा दिया था. भाजपा ने हिंदुत्व विचारधारा को घरघर पहुंचाया. दलित, पिछड़ों को मूर्तियां दी जा रही हैं.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह चौहान ने अपने 15 साल के राज में सब से ज्यादा धार्मिक यात्राएं कराईं. वे खुद पिछड़े तबके से होते हुए भी हवनयज्ञ, तीर्थयात्राएं, मंदिर परिक्रमा करते रहे और गौ व ब्राह्मण महिमा का गुणगान करते रहे.

शिवराज सिंह चौहान ने दलितों को कुंभ स्नान कराने के पीछे इस तबके का शुद्धीकरण कर उसे ब्राह्मण बनाया था. हिंदू रीतिरिवाजों से जोड़ कर हिंदू धर्म में संस्कारित कराया था ताकि दलित तबका ब्राह्मणों की सेवा कर सके और दानदक्षिणा दे.

मुख्यमंत्री द्वारा सांसारिक सुखों का त्याग का दावा करने करने वाले 5 साधुओं तक को मंत्री बना दिया गया.

दलित, पिछड़े नेताओं की मूर्तियां लगाई गईं और इन तबके के लोगों को मूर्ति पूजा की ओर धकेलने की कोशिशें की गईं. चुनावों में हनुमान को दलित, वंचित जाति का बता कर इस तबके को हनुमान की पूजा करने और मंदिर बनाने का संदेश दिया गया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आएदिन हिंदू धर्म की बात करते रहते हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे मंदिरों की परिक्रमा करती रहीं. दलितों और पिछड़ों का शुद्धीकरण कर उन्हें ब्राह्मण बनाने की कोशिश होती रही.

यह अलग बात है कि दलितों और मुसलिमों पर हमले जारी रहे. दलित और पिछड़े तबके वाले हिंदू धर्म के संस्कारों को अपनाने में हिचकिचाते थे या डरते थे, उन्हें भाजपा सरकार ने हौसला दिया.

भाजपा के पार्टी दफ्तरों में दलित, पिछड़े तबके के नेता, कार्यकर्ता माथे पर तिलक, भगवा जैकेट, कुरतापाजामा पहने नजर आने लगे. मौब लिंचिंग की घटनाओं में पिछड़े और दलित जातियों के नौजवान ज्यादा भागीदार पाए गए. पिछड़ी जातियों के नौजवान गौ रक्षक बना दिए गए.

उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक नामक शख्स के घर में घुस कर भीड़ ने लाठी और ईंटों से हमला किया गया और फिर उस की हत्या कर दी गई.

अखलाक का बेटा दानिश उन्हें बचाने आया तो उसे घायल कर दिया गया. आरोपी पिछड़ी जातियों के निकले. इन जातियों के कुछ नौजवानों ने अखलाक पर गौ मांस खाने और घर में रखने का आरोप लगाया और गांव के मंदिर में लाउडस्पीकर से ऐलान कर के भीड़ को इकट्ठा किया गया.

सहारनपुर में दलित बस्ती में तोड़फोड़ की गई और आगजनी का मामला भी दलितों पर हमले की बड़ी घटना थी. यहां महाराणा प्रताप जयंती पर जुलूस निकाला गया और उन्हें हिंदू धर्म का रक्षक बताया गया. यह जुलूस दलित बस्ती से निकला तो दोनों समुदायों का झगड़ा हो गया. बाद में दलितों के घर जला दिए गए और उन के घरों में तोड़फोड़ की गई.

इसी तरह राजस्थान के अलवर में गौ गुंडों द्वारा 55 साल के पहलू खान की हत्या कर दी गई. पहलू खान गायों को ले कर अपने घर जा रहा था.

इन्हीं दिनों शंभूलाल रैगर ने अफराजुल नामक युवक की लव जिहाद के नाम पर हत्या कर दी थी. शंभूलाल रैगर ने अफराजुल को न केवल मौत के घाट उतारा, बल्कि इस दिल दहला देने वाले अपराध का वीडियो बना कर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया.

सरकारों का ऐसी घटनाओं को समर्थन मिलता रहा और आरोपियों का बचाव किया गया. सहारनपुर घटना में दलित युवा नेता चंद्रशेखर को देशद्रोह का मामला बना कर जेल भेज दिया गया.

टैलीविजन चैनलों पर शनि की दशा पर प्रवचन देने और उपाय बताने वाले मदन दाती को महामंडलेश्वर बना दिया गया.

मदन दाती राजस्थान के पाली के मेघवाल जाति के दलित समुदाय से हैं. यह बात अलग है कि अब वे अपने आश्रम में रह रही एक युवती के साथ बलात्कार मामले में फंसे हुए हैं और अपने सहयोगियों के साथ पैसों के लेनदेन मामले में विवादों में भी हैं.

मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जो विधायक चुन कर आ रहे हैं, वे अब पिछड़े, दलित नहीं, ब्राह्मण बन चुके हैं. ज्यादातर की 2-3 पीढि़यां सामाजिक और माली तौर पर बदल गई हैं.

लेकिन अभी भी इन तबकों का माली, सामाजिक विकास नहीं हो पाया. भाजपा ने इसे सामाजिक समरसता का नाम जरूर दिया, पर दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारे जाने की सब से ज्यादा वारदातें भाजपा के राज वाले राज्यों में ही हुईं.

भाजपा के राज वाले राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मामलों में पिछड़े हुए हैं. इन राज्यों में  निचली व पिछड़ी जातियों के लड़केलड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर सब से ज्यादा है.  इन तबकों के हाथों में ‘गीता’, ‘रामायण’ तो थमाईर् जा रही है, पर पढ़ाईलिखाई, रोजगार का इंतजाम कर के असली सामाजिक, माली विकास से अभी भी कोसों दूर हैं.

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