तुम रोको, हम तो खेलेंगी फुटबाल

जब कभी हम किसी गलत सोच के विरोध की बात करते हैं तो हाथ में किताब या हथियार उठाने को कहते हैं, पर कुछ संथाली लड़कियों ने विरोध के अपने गुस्से की फूंक से फुटबाल में ऐसी हवा भरी है जो उन की एक लात से उस सोच को ढेर कर रही है, जो उन्हें फुटबाल खेलने से रोकती है.

मामला उस पश्चिम बंगाल का है, जहां आप को फुटबाल हर अांगन में उगी दिखाई देगी, पर जब इन बच्चियों ने इस की नई पौध लगाने की सोची तो कट्टर सोच के कुछ गांव वालों को लगा कि घुटने के ऊपर शौर्ट्स पहने हुई ये बालिकाएं उन के रिवाजों की घोर बेइज्जती कर रही हैं. इस बेइज्जती के पनपने से पहले ही उन्होंने लड़कियों में ऐसा खौफ पैदा करने की सोची कि दूसरे लोग भी सबक ले कर ऐसी ख्वाहिश मन में न पाल लें.

पर वे लड़कियां ही क्या, जो मुसीबतों से घबरा जाएं. पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के पिछड़े आदिवासी संथाल समाज की इन लड़कियों में से एक है 16 साल की हांसदा. 5 भाईबहनों में सब से छोटी इस बच्ची के पिता नहीं हैं और मां बड़ी मुश्किल से रोजाना 300 रुपए कमा पाती हैं.

ये भी पढ़ें- कालगर्ल के चक्कर में गांव के नौजवान

ऐसे गरीब परिवार की 10वीं जमात में पढ़ने वाली हांसदा फुटबाल खेल कर अपने समाज और देश का नाम रोशन करना चाहती है. वह पहलवान बहनों गीताबबीता की तरह साबित करना चाहती है कि संथाली लड़कियां किसी भी तरह किसी से कमजोर नहीं हैं. वह पति की गुलाम पत्नी बन कर अपनी जिंदगी नहीं बिताना चाहती है कि बच्चों की देखभाल करो और घुटो घर की चारदीवारी के भीतर.

इसी तरह किशोर मार्डी भी मानती है कि वह फुटबाल से अपनी जिंदगी बदल सकती है. वह तो डंके की चोट पर कहती है कि ऐसे किसी की नहीं सुनेगी, जो उसे फुटबाल खेलने से रोकने की कोशिश करेगा.

गांव गरिया की 17 साला लखी हेम्ब्रम ने बताया कि 2 साल पहले उस का फुटबाल को ले कर जुनून सा पैदा हो गया था. एक गैरसरकारी संगठन उधनाऊ ने उसे खेलने के लिए बढ़ावा दिया था. तब ऐसा लगा था कि फुटबाल उस के परिवार को गरीबी से ऊपर उठा सकती है. पर कुछ गांव वालों के इरादे नेक नहीं थे. जब कुछ जवान लड़कों ने इन लड़कियों को शौर्ट्स में खेलते देखा तो उन्होंने इन पर बेहूदा कमैंट किए.

हद तो तब हो गई, जब नवंबर, 2018 को गांव गरिया में फुटबाल की प्रैक्टिस कर रही इन लड़कियों पर गांव के कुछ लोगों ने धावा बोल दिया. उन्होंने फुटबाल में पंचर कर के अपनी भड़ास निकाली. लेकिन जब लड़कियां नहीं मानीं तो उन सिरफिरों ने लातघूंसों से उन्हें पीटा. साथ ही, धमकी भी दी कि अगर फुटबाल खेलना नहीं छोड़ोगी तो इस से भी ज्यादा गंभीर नतीजे होंगे.

ये भी पढ़ें- बदहाल अस्पताल की बलि चढ़े नौनिहाल

ये गंभीर नतीजे क्या हो सकते हैं, इस का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि लड़कियां नहीं मानीं तो उन का रेप हो सकता है, तेजाब से मुंह झुलसा दिया जा सकता है या फिर जान से ही मार दिया जा सकता है.

पर क्या इस से लड़कियों के बीच डर का माहौल बना? नहीं. वे अब जगह बदल कर फुटबाल की प्रैक्टिस करती हैं. उन के पास गांव वालों की नफरत तो खूब है, पर फुटबाल से जुड़ी बुनियादी जरूरतें नहीं हैं. वे जंगली बड़ी घास और झाडि़यों से घिरी जमीन पर फुटबाल खेलती हैं, जहां रस्सियों से बंधे बांस गोलपोस्ट के तौर पर खड़े कर दिए जाते हैं.

ऐसे उलट हालात में फुटबाल खेलती रामपुरहाट ब्लौक की गरिया और भलका पहाड़ा गांव की रहने वाली ये संथाली लड़कियां आत्मविश्वास से भरी हैं और मानो पूरे समाज से पंगा ले रही हैं कि तुम कितना भी विरोध कर लो, एक दिन हमारी लगन साबित कर देगी कि हम ने जो देखा है, उस सपने को पूरा कर के रहेंगी.

ये भी पढ़ें- नकारात्मक विचारों को कहें हमेशा के लिए बाय

जाति ने बांट दिए दो कौड़ी के बरतन

घटना थोड़ी पुरानी है, पर सुनो तो आज भी सिहरा देती है. उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में एक गांव है खेतलपुर भंसोली. वहां पर बरतन छू जाने से एक दलित औरत सावित्री की पिटाई और इलाज के दौरान मौत होने का शर्मनाक मामला सामने आया था. वह भी तब जब सावित्री पेट से थी.

हुआ यों था कि कूड़ेदान को हाथ लगाने से नाराज अंजू देवी और उस के बेटे रोहित कुमार ने कथित तौर पर सावित्री को डंडे और लातों से बहुत मारापीटा था.

सावित्री के पति दिलीप कुमार ने बताया था कि सावित्री को पीटने की घटना 15 अक्तूबर, 2017 को हुई थी. उस के चलते सावित्री के पेट में पल रहे बच्चे की मौत हो गई थी और उस के बाद मामूली इलाज कर के डाक्टर ने सावित्री को जिला अस्पताल से घर भेज दिया था.

घर आने के बाद एक दिन सावित्री अचानक बेहोश हो गई और जब उसे अस्पताल ले जाया गया, तो डाक्टरों ने उसे मरा हुआ बता दिया.

ये भी पढ़ें- कालगर्ल के चक्कर में गांव के नौजवान

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब किसी को जाति के आधार पर अछूत समझ कर उस के साथ जोरजुल्म किया गया हो. जब कूड़ेदान पर हाथ लगने की इतनी बड़ी सजा दी जा सकती है, तो फिर खाने के बरतन को छूने पर तो पता नहीं क्या और कैसा बवाल मचा दिया जाएगा.

यही वजह है कि आज भी अनेक गांवों में चाय की दुकानों पर दलितों और पिछड़ों को निचला समझ कर मिट्टी के कुल्हड़ या फिर प्लास्टिक के ऐसे गिलासों में चाय परोसी जाती है, जिन्हें एक बार इस्तेमाल करने के बाद फेंक दिया जाता है, जबकि अगड़ों को कांच या चीनीमिट्टी के बरतन में चाय थमाई जाती है.

इतना ही नहीं, ऐसी दुकानों पर निचलों के लिए अलग बैंचें बना दी जाती हैं या फिर ये जमीन पर दुकान से दूर बैठ कर चाय पीते हैं.

ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान में सब को बराबरी का हक नहीं दिया गया है. संविधान का अनुच्छेद 15 जाति, धर्म, नस्ल, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है.

साल 1989 का एससी व एसटी कानून भी जाति आधारित अत्याचारों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही तय करता है, इस के बावजूद भारत में जाति आधारित भेदभाव अब भी एक कड़वा सच है. देखने में तो दलित को अलग बरतन में चाय देना मामूली सी बात लगती है, पर इस की जड़ में जातिवाद का वह जहर है, जो उन्हें कभी उबरने नहीं देगा.

दलितों को पता होता है कि कुल्हड़ या प्लास्टिक के गिलास में चाय देने का क्या मतलब है, पर वे जानबूझ कर अनजान बने रहते हैं या फिर यही सोच कर खुश हो लेते हैं कि चाय मिल तो रही है. अगर कल को सवाल उठाया तो उन्हें दूसरी तरह से तंग किया जाएगा. अमीर अगड़ों के खेतों में काम मिलना बंद हो सकता है या किसी भी मामूली बात को मुद्दा बना कर ठुकाई कर दी जाएगी.

ये भी पढ़ें- बदहाल अस्पताल की बलि चढ़े नौनिहाल

जातिवाद के इस जहर का असर स्कूलों में दिखाई देता है. पिछले साल की बात है. उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में एक स्कूल में बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मील में जातिगत भेदभाव देखने को मिला था.

रामपुर इलाके के प्राइमरी स्कूल में ऊंची जाति के कुछ छात्र खाना खाने के लिए अपने घरों से बरतन ले कर आते थे और वे अपने बरतनों में खाना ले कर एससीएसटी और पिछड़े समुदाय के बच्चों से अलग बैठ कर खाना खाते थे.

जब इस बारे में स्कूल के प्रिंसिपल पी. गुप्ता से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम बच्चों को कहते हैं कि वे साथ बैठें और खाएं, लेकिन वे नहीं मानते हैं. वे लोग घर से अपनी थाली ले कर आते हैं और अलग बैठ कर खाते हैं.

इस गंभीर मुद्दे पर स्कूल के प्रिंसिपल का इतना सतही सा जवाब देना गले के नीचे नहीं उतरता है, क्योंकि अगर स्कूल के बच्चे अपने प्रिंसिपल की ही नहीं सुनेंगे, तो फिर वे किस की बात मानेंगे? आज अगर बच्चे अपने बरतन में अलग बैठ कर खाने की बात कर रहे हैं, तो कल को वे यह मांग रख देंगे कि आगे से दलितवंचितों के बच्चों को स्कूल में ही दाखिल न किया जाए. तब प्रिंसिपल पी. गुप्ता जैसे लोग क्या करेंगे?

दरअसल, हमारे समाज में जातिवाद इतनी गहराई तक अपनी पैठ बना चुका है कि अगड़ों द्वारा दलित व पिछड़ों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता है. कोई दलित अगर अपनी शादी में घोड़ी पर बैठ गया तो उस की खाल उतार लो. किसी दलित ने मूंछ ऊंची कर दी तो उस की हड्डियां तोड़ दो. पढ़नेपढ़ाने के नाम पर कोई गरीब अगर ज्यादा सिर पर चढ़े तो उस के घर की औरतों को सरेआम बेइज्जत कर दो. एक नहीं हजार तरीके हैं दलितपिछड़ों पर नकेल कसने के.

ये भी पढ़ें- नकारात्मक विचारों को कहें हमेशा के लिए बाय

और जब तक जाति का यह बेताल हमारी पीठ पर लदा रहेगा, तब तक तरक्की की बात तो पीछे छोड़ दो, हम राजा विक्रम की तरह अपनी नफरत के घने बियाबान में ही चक्कर काटते रहेंगे.

बदहाल अस्पताल की बलि चढ़े नौनिहाल

कोटा के इस अस्पताल की दशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह जरूरी उपकरणों के साथ ही मैडिकल स्टाफ की कमी से भी जूझ रहा है. इतना ही नहीं, जब राज्य सरकार की एक समिति इस अस्पताल का दौरा करने गई तो उस ने वहां सूअर व कुत्ते टहलते हुए देखे.

इस पर हैरत नहीं है कि कोटा के अस्पताल में बड़ी तादाद में नवजात बच्चों की मौत की खबर आने के साथ ही एकदूसरे पर आरोप लगाने की ओछी राजनीति सतह पर आ गई. लेकिन ऐसी राजनीति से बचने की नसीहत वे नहीं दे सकते, जो खुद ऐसा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक अस्पताल में कोटा की तरह बच्चों की मौत का मामला सामने आया था तो उस के बहाने राजनीति चमकाने की कैसी भद्दी होड़ मची थी.

सरकारी तंत्र की ढिलाई और लापरवाही को उजागर किया ही जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि बदहाली के आलम से कैसे छुटकारा मिले? यह कोशिश रहनी चाहिए, क्योंकि यह एक कड़वी सचाई है कि अस्पतालों की तरह स्कूल, सार्वजनिक परिवहन के साधन वगैरह भी बदहाली से दोचार हैं और इस के लिए वह घटिया राजनीति ही ज्यादा जिम्मेदार है, जो हर वक्त दूसरों पर आरोप मढ़ कर अपने फर्ज को पूरा समझने की ताक में रहती है.

ये भी पढ़ें- नकारात्मक विचारों को कहें हमेशा के लिए बाय

गलत है मौत पर राजनीति

‘‘मैं अपने बच्चे के निमोनिया का इलाज कराने 50 किलोमीटर दूर से आया हूं. रास्ते में इतनी सर्दी थी कि बच्चे की सांसें तेज चल रही थीं. बच्चे की हालत देख कर ही डर लग रहा था.’’

ये शब्द मोहन मेघवाल के हैं, जो अपने बच्चे का इलाज कराने के  लिए राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल आए थे.

यह वही अस्पताल है, जहां बीते दिनों 100 से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया था.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चिट्ठी लिख कर के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत की रोजाना बढ़ती तादाद को देखते हुए जरूरी सुविधाओं को मजबूत बनाने के लिए गुजारिश की थी. इस के साथ ही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट कर के अशोक गहलोत और प्रियंका गांधी पर निशाना साधा था.

पर, उस से भी ज्यादा दुखद है कि कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं खासकर महासचिव प्रियंका गांधी की इस मामले में चुप्पी साधे रखना. अच्छा होता कि वे उत्तर प्रदेश की तरह उन गरीब पीडि़त मांओं से भी जा कर मिलतीं, जिन की गोद केवल उन की पार्टी की सरकार की लापरवाही के चलते उजड़ गई है. लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मुद्दे पर राजनीति नहीं किए जाने की अपील की.

अशोक गहलोत ने कहा, ‘‘हम लोग बारबार कह रहे हैं कि पूरे 5-6 साल में सब से कम आंकड़े अब आ रहे हैं. इतनी शानदार व्यवस्था वहां कर रखी है.

‘‘मैं किसी को इस मौके पर दोष नहीं देना चाहता हूं. पिछले 5 साल के आंकड़े थे. इन में भाजपा के शासन में ही ये आंकड़े कम होते गए. हमारी सरकार बनने के बाद ये आंकड़े और कम हो गए.

‘‘नागरिकता संशोधन कानून के बाद  देश और प्रदेश में जो माहौल बना हुआ है, ऐसे में कुछ लोग जानबूझ कर ध्यान हटाने के लिए यह शरारत कर रहे हैं.’’

वहीं, राजस्थान सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा कहते हैं, ‘‘यह सब प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रहा है. सीएए और एनआरसी को ले कर राजस्थान में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, अब उन्हें कोई और चीज तो मिलती नहीं है. पहला सवाल तो यह है कि जब योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में औक्सीजन की कमी से 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हुई थी, तब भाजपा का एक भी डैलिगेशन गया था वहां? यहां राजनीति करने आ रहे हैं, तो एक जवाब दें कि जब 2015 में अस्पताल प्रशासन ने 8 करोड़ रुपए मांगे तो भाजपा सत्ता में थी, ऐसे में अस्पताल को पैसे क्यों नहीं दिए गए?’’

ये भी पढ़ें- शराबखोरी : कौन आबाद कौन बरबाद?

राजस्थान भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया अस्पताल का औचक निरीक्षण करने पहुंचे. उन्होंने कहा, ‘‘इस मामले में राज्य सरकार के प्रशासन को दोष क्यों नहीं देना चाहिए? मैं ने देखा कि हर बिस्तर पर 2 से 3 बच्चे लेटे थे और उन की देखभाल करने के लिए बिस्तर के किनारे ही उन की मां भी खड़ी थीं. साफतौर पर संक्रमण के प्रसार की जांच के लिए कोई सावधानी नहीं बरती जा रही है.’’

इस से पहले बच्चों की मौत की सूचना के तुरंत बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दावा किया था कि उस अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा पिछले 6 सालों में सब से कम है.

बाद में स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने भी अलगअलग सालों में हुई मौतों को गिनाते हुए कहा कि साल 2014 में 1,198 बच्चों की मौत हुई, 2015 में 1,260 बच्चे मारे गए, 2016 में 1,193, 2017 में 1,027 बच्चों और 2018 में 1,005 बच्चों की मौत हुई.

कुलमिला कर राजनीतिक लैवल पर बयानबाजी का सिलसिला जारी है और इस के साथ ही बच्चों की मौत का सिलसिला भी जारी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन बच्चों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है और क्या रोजाना मरते हुए इन बच्चों को बचाया जा सकता है?

अस्पताल ही बीमार

राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल के आईसीयू में एक ही बिस्तर पर 2 से 3 बीमार बच्चों का होना एक सामान्य सी बात बनी हुई है. इन मासूम बच्चों को साफ हवा के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है.

यही नहीं, अव्यवस्था के बीच गंभीर बीमारियों से जूझ रहे इन बच्चों की देखभाल के लिए नर्स नहीं, बल्कि उन की मां खड़ी रहती हैं.

अस्पताल के सूत्रों ने तसदीक की है कि यहां जरूरी और जिंदगी बचाने की श्रेणियों में आने वाले 60 फीसदी से ज्यादा उपकरण काम नहीं कर रहे हैं. लापरवाही की इतनी हद है कि अस्पताल मैनेजमैंट का कोई भी अफसर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि कुछ उपकरणों को फिर से ठीक किया जा सकता है. धूल फांक रहे कुछ उपकरण तो ऐसे भी हैं, जिन्हें महज 2 रुपए की कीमत के एक तार के छोटे से टुकड़े की मदद से फिर से चलाया जा सकता है.

इस के बावजूद कई नैबुलाइजर, वार्मर और वैंटिलेटर काम नहीं कर  रहे हैं. साथ ही, अस्पताल में संक्रमण की जांच के लिए इकट्ठा किए गए  14 नमूनों की जांच रिपोर्ट पौजीटिव आई है. यह जांच रिपोर्ट बैक्टीरिया के प्रसार का आकलन करने में मदद करती है. इस रिपोर्ट को अफसरों को सौंपे जाने के बावजूद बड़ी तादाद में बैक्टीरिया के प्रसार को साबित होने पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई.

बीते एक साल में कोटा के इस अस्पताल में भरती होने वाले तकरीबन 16,892 बच्चों में से 960 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.

ये भी पढ़ें- बोल्ड अवतार कहां तक सही

जेके लोन अस्पताल के शिशु औषधि विभाग के एचओडी डाक्टर अमृत लाल बैरवा बताते हैं, ‘‘बीते एक महीने में यहां मरने वाले बच्चों में से 60 बच्चों का जन्म यहीं हुआ था, बाकी के बच्चे आसपास के अस्पतालों से गंभीर हालात में रैफर हो कर यहां लाए गए थे.

‘‘यह एक ऐसा अस्पताल है, जहां पर आसपास के 3-4 जिलों से बच्चों को लाया जाता है. साथ ही, मध्य प्रदेश के झाबुआ से भी बच्चों को यहां लाया जाता है. पर इस अस्पताल में मौजूद संसाधन और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम तादाद इतनी बड़ी तादाद में आए मरीजों का इलाज करने में चुनौती पेश करती है.’’

डाक्टर अमृत लाल बैरवा की ओर से 27 दिसंबर, 2019 को अस्पताल के सुपरिंटैंडैंट को भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक, अस्पताल में मौजूद 533 उपकरणों में से 320 खराब हैं. इन में 111 इनफ्यूजन पंप में से 80 खराब हैं. 71 वार्मरों में से 44 खराब हैं. 27 फोटोथैरेपी मशीनों में से 7 खराब हैं और 19 वैंटिलेटर मशीनों में से 13 खराब हैं. वहीं, अगर स्टाफ की कमी की बात करें तो एनआईसीयू में कुल 24 बैड के लिए 12 स्टाफ उपलब्ध हैं, जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक, 12 बैड पर कम से कम

10 कर्मचारी तैनात होने चाहिए.

इसी तरह एनएनडब्ल्यू में सिर्फ 8 लोगों की तैनाती है. एनआईसीयू में उपलब्ध 42 बैड के लिए कुल 20 लोगों का स्टाफ उपलब्ध है, जबकि यह तादाद 32 होनी चाहिए.

वहीं, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस अस्पताल में प्रोफैसर और एसोसिएट प्रोफैसर के 4 पद खाली पड़े हैं.

जेके लोन अस्पताल की बात करें, तो बीते 6 सालों में इस अस्पताल में 6,000 बच्चे दम तोड़ चुके हैं. इन में से 4,292 बच्चे गंभीर हालत में आसपास के जिलों से इस अस्तपाल में लाए गए थे.

डाक्टर अमृत लाल बैरवा इन बच्चों की मौत के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में फैली अव्यवस्था और जिला अस्पतालों में डाक्टरों की कम तादाद को जिम्मेदार मानते हैं.

ये भी पढ़ें- जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

वे कहते हैं, ‘‘यह मैडिकल कालेज का अस्पताल है. यहां पर कोटा, बूंदी, बारा, झालावाड़, टोंक, सवाई माधोपुर, भरतपुर, मध्य प्रदेश से लोग अपने बच्चों को ले कर आते हैं और ये मरीज रैफर किए मरीज होते हैं.

‘‘हमारे पास काम का बहुत दबाव रहता है. हमारे पास जितने संसाधन हैं, उस से कहीं ज्यादा मरीज आते हैं. इन बच्चों की मौत की यही वजह है.’’

इन का भी बुरा हाल

कोटा से 50 किलोमीटर दूर डाबी कसबे में रहने वाले मोहन मेघवाल निमोनिया की शिकायत होने पर अपने बच्चे को सीधे जेके लोन अस्पताल ले कर आए हैं.

वे कहते हैं, ‘‘मैं ने पहले अपने घर के नजदीक बने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चे का इलाज कराया, लेकिन उस अस्पताल में दस्त और खांसीजुकाम जैसी सामान्य बीमारियां सही नहीं होती हैं. ऐसे में जब मेरे बच्चे की सांसें तेज चलना शुरू हो गईं तो मैं उसे ले कर एक निजी अस्पताल में गया. वहां मुझे बताया गया कि बच्चे की हालत गंभीर है और उसे जेके लोन अस्पताल में ले जाना चाहिए.’’

स्वास्थ्य क्षेत्र कवर करने वाली वरिष्ठ अफसर डाक्टर सविता बताती हैं, ‘‘यह कोई नई बात नहीं है कि सीएचसी और पीएचसी की हालत खराब होती है. मैं ने अपनी पड़ताल में पाया है कि अकसर इन संस्थानों के ताले बंद रहते हैं. यहां जरूरी उपकरण और डाक्टर मौजूद नहीं होते हैं. ऐसे में गरीब लोगों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है.

‘‘कभीकभार प्राइमरी लैवल पर सरकारी सुविधाओं की कमी के चलते लोगों को उन लोगों के पास भी जाने को मजबूर करती हैं, जो डाक्टर भी नहीं होते हैं.’’

‘‘सीएचसी के लैवल पर एक स्पैशलिस्ट, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, गायनोकोलौजिस्ट होना चाहिए. ये विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं होते हैं. जिन दवाओं की जरूरत होनी चाहिए, वैसी दवाएं उपलब्ध नहीं होती हैं. एएनएम उपलब्ध नहीं होती हैं. ऐसे में ग्रामीण और कसबाई इलाकों में रहने वाले लोग अपने बच्चों के बीमार होने पर गैरपंजीकृत डाक्टरों के पास ले कर जाते हैं.

‘‘ये डाक्टर उन्हें एंटीबायोटिक्स दे देते हैं, लेकिन जब कई दिनों तक बच्चे ठीक नहीं होते हैं, तब जा कर मांबाप अपने बच्चे को शहर के अस्पताल ले जाने की सोचते हैं.’’

कमजोर है बुनियाद

जनता को बेहतर डाक्टरी इलाज मुहैया कराने की तमाम सरकारी योजनाओं के बड़ेबड़े होर्डिंग भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर इन योजनाओं को असरदार तरीके से लागू न करने के चलते मरीजों का हाल बेहाल है.

अगस्त, 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मैडिकल कालेज में औक्सीजन की कमी से हुई सैकड़ों बच्चों की मौतें सरकारी अस्पतालों के बुरे हालात को उजागर करती हैं.

ये भी पढ़ें- कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

गौरतलब है कि गोरखपुर और फर्रुखाबाद के जिला अस्पताल में मरने वाले बच्चे उन गरीब परिवारों के थे, जो इलाज के लिए केवल सरकारी अस्पतालों की ओर ताकते हैं.

राजस्थान के बांसवाड़ा में महात्मा गांधी चिकित्सालय में 51 दिनों में 81 बच्चों की मौतें कुपोषण की वजह से हो गईं. जमशेदपुर के महात्मा गांधी मैमोरियल अस्पताल में बीते चंद महीनों में 164 मौतें हुईं तो झारखंड के 2 अस्पतालों में पिछले साल 800 से ज्यादा बच्चों की मौतें हो गईं.

राज्य में जनस्वास्थ्य पर काम करने वाले डाक्टर नरेंद्र गुप्ता ने बताया, ‘‘प्राइमरी लैवल पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बहुत कमजोर है. पहले ऐसी मौतें घर पर ही हो जाती थीं, अब मरीज अस्पताल तक पहुंच रहे हैं. ऐसी मौतें तभी रुक सकती हैं, जब जमीनी लैवल पर बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों. यह भी एक हकीकत है कि डाक्टर देहाती क्षेत्र में जाना नहीं चाहते. जो बच्चे मर रहे हैं, उन में काफी कुपोषित होते हैं.

‘‘अगर तहसील लैवल पर स्वास्थ्य सेवाएं ठीक हों, तो काफी सुधार हो सकता है, क्योंकि ऐसे मरीज बड़े अस्पतालों तक देर में पहुंचते हैं. पहले वे लोकल लैवल पर कोशिश करते हैं.

‘‘अस्पतालों पर काफी भार होता है. प्राथमिक और मध्यम स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा न के बराबर है. तभी इन लोगों को कोटा जैसे बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ता है.’’

नकारात्मक विचारों को कहें हमेशा के लिए बाय

अमेरिकी लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर जिम रौन ने कहा है कि आप वास्तव में जो चाहते हैं, आप का मस्तिष्क खुद ही आप को उस ओर खींच लेता है. इसलिए नकारात्मकता के अंधेरे से आप सकारात्मकता के उजाले में आसानी से आ सकते हैं. बस, आप को अपने मस्तिष्क में बने दृष्टिकोण और उस की शब्दावली में थोड़ा हेरफेर करना होगा. आइए जानें कैसे करें :

नैगेटिव थिंकिंग वाले लोगों से रहें दूर

कुछ लोग इतने नैगेटिव होते हैं कि उन के साथ रह कर पौजिटिव सोच वाला व्यक्ति भी बदलने लगता है. ऐसे लोग हर समय नकारात्मक माहौल बनाए रखते हैं, ऐसे लोगों से बचें, क्योंकि उन के साथ रह कर जीवन में कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि अन्य लोग भी आप से दूरी बनाने लगेंगे.

बहाने बनाने से बचें

जो भी काम आप ने अपने हाथ में लिया है, उसे समय पर पूरा करें. आलस में आ कर उसे न करने के बहाने मारने से नुकसान आप का ही होगा, अगर एक बार आप ने बहाना छोड़ कर यह काम कर लिया तो आप को कभी जिंदगी में इस तरह के नकारात्मक विचार तंग नहीं करेंगे.

ये भी पढ़ें- बोल्ड अवतार कहां तक सही

तुलना न करें

अगर आप के किसी दोस्त को किसी कंपीटिशन ऐग्जाम में सफलता मिली है तो उस की तुलना खुद से कर रोना न रोएं कि आप को इतने प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिली. ऐसा करना बेवकूफी है बल्कि ऐसे में आप को चाहिए कि दोस्त की खुशी में शामिल हों और उस से सलाह लें कि सफलता के लिए उस ने क्या किया और अपनी कमियों को ढूंढ़ कर दूर करने का प्रयास करें.

सफलता असफलता एक सिक्के के 2 पहलू हैं इस बात को हमेशा ध्यान रखें कि यदि आप सफल नहीं होते और डिप्रैशन में जा कर सब से बोलचाल बंद कर खुद को अलगथलग कर लेते हैं, तो यह कोई हल नहीं है.

अगर असफलता मिली है तो उस से सीख कर आगे बढ़ते हुए ही कामयाबी के शिखर पर पहुंचेंगे.

म्यूजिक सुनें

जब भी आप तनाव या नकारात्मकता से घिरे हुए हों तो इस सिचुएशन से खुद को बाहर निकालने के लिए संगीत का सहारा लें. इस से आप का तनमन दोनों प्रसन्न होंगे और आप परेशानी को भूल कर आगे बढ़ पाएंगे.

खुद को प्रोत्साहित करें

जब भी आप को लगे कि आप विफल होने लगे हैं तो खुद को समझाने का प्रयास करें और कहें कि हमें नहीं हारना. जब आप खुद से इस तरह की बातें करेंगे तो निराशा कम होगी और हिम्मत मिलेगी जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी.

आज में जीएं

वर्तमान में रहने की कोशिश करें. जो बीत गया है उस के बारे में विचार कर दुखी न हों और जो होने वाला है उस की सोच में डूबने के बजाय जो आज है उसे ऐंजौय करें.

खुश रहें

आज क्या अच्छा हुआ है उस पर विचार करें. यह कुछ भी हो सकता है सुबह नाश्ते का स्वादिष्ठ परांठा, किसी दोस्त की फोन कौल या फिर रास्ते में देखा कोई सुंदर बच्चा. इस से तनाव कम होगा और आप अच्छे काम के लिए प्रेरित होंगे. आप दूसरों को खुशी तभी दे पाएंगे जब आप खुद खुश रहें. इसलिए अपने मन को प्रसन्नचित्त रखें. जिन कामों को करने में आप को खुशी महसूस होती है. उन के लिए वक्त निकालें.

ये भी पढ़ें- जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

शराब न पीएं

शराब नकारात्मक विचारों को जन्म देती है और इस के इस्तेमाल से मनुष्य जानवरों की तरह बरताव करने लगता है. उस का अपनी इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं रहता. इसलिए शराब का सेवन न करें.

हंसने की आदत डालें

यह एक तरह की थेरैपी है. बिना किसी कारण के रोजाना 5-10 मिनट जोर से ठहाके लगा कर हंसें. इस से ब्लडप्रैशर कंट्रोल रहता है और विचारों में सकारात्मकता आती है. हंसने के लिए मौके न तलाशें. हर रोज ऐक्सरसाइज की तरह कुछ देर हंसने की आदत डालें.

बच्चों के साथ समय बिताएं

बच्चों के साथ खेलें, उन के साथ बातें करें, चीजों को उन के नजरिए से देखें, सुनें. तब आप को एहसास होगा कि दुनिया में कितना भोलापन है और आप का चीजों को देखने का नजरिया ही बदल जाएगा. बच्चों के साथ आप का जिस तरह से मन चाहे उस तरह से खेलें. लोग क्या कहेंगे इस बात की परवा न करें.

सहज रहना सीखें

दुखद परिस्थिति में भी सहज रहना सीखें. जटिल समय में उन लोगों के बारे में सोचें, जिन्होंने खुद को मुश्किल स्थितियों से बाहर निकाला. वर्तमान में आप क्या अच्छा कर सकते हैं. इस बारे में सोचें.

खुद के साथ समय बिताएं

सुबह पार्क में टहलें, छुट्टियों में घूमने जाएं, प्रकृति के बीच समय बिताएं, अपने फोटो खींचें, अपने लिए शौपिंग करें, अपना मनपसंद खाना खाने रैस्टोरैंट जाएं, फिल्म देखें. इस तरह खुद से प्यार करना भी जीवन में अच्छाई की ओर ले जाता है.

ये भी पढ़ें- कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

नैगेटिविटी क्या है

– दूसरों के कार्यों में हमेशा कमी निकालना.

– अपने काम से संतुष्ट न होना. हमेशा काम में मन न लगने का रोना रोते रहना, लेकिन उसे अच्छा बनाने के लिए कोई खास प्रयास न करना.

– छोटी सी बात पर हायतोबा मचाना और अपने साथ दूसरों को भी परेशान करना.

– दूसरों को आगे बढ़ता और खुश देख कर जलन महसूस करना.

– अपने से अमीर या संपन्न लोगों को देख कर खुद को हीन समझना.

– खुद पर विश्वास न होना.

– किसी भी काम को ट्राई करने से पहले ही उस का नतीजा सुना देना, ‘वह काम मुझ से नहीं होगा, मुझे नहीं आता,’ वगैरावगैरा.

नैगेटिव थिंकिंग को पौजिटिव थिंकिंग में कैसे बदलें

– यदि किसी खास परिस्थिति को ले कर आप के मन में नकारात्मक विचार हैं और आप गुस्से में हैं तो कुछ देर शांत रहें और उस परिस्थिति को किसी दूसरे नजरिए से देखें. खुद ब खुद आप के मन में सकारात्मक विचार आ जाएंगे.

– आज नियमित काम से कुछ अलग हट कर करें. वह आप की कोई हौबी या फिर ऐसा गुण भी हो सकता है जिसे आप भूल गए थे. ऐसा करने पर आप को खुद से प्यार होगा और लगेगा कि आप भी लीक से हट कर कुछ नया और अच्छा करने की काबिलीयत रखते हैं, इस से अपने प्रति आप का नजरिया पौजिटिव हो जाएगा.

ये भी पढ़ें- संभल कर खाओ ओ दिल्ली वालो

– यदि शारीरिक रूप से सौंदर्य के मामले में आप में कोई कमी है तो उसे सहज स्वीकार करें. अगर उस कमी के बारे आप हीनभावना के शिकार होते हैं तो ऐसे में उन्हें न देखें, जिन में कोई कमी नहीं है बल्कि ऐसे लोगों को देखें जिन में आप से भी ज्यादा कमी है और वे खुशहाल जीवन जी रहे हैं. ऐसे लोगों से प्रेरणा लें.

– किसी फैमिली फंक्शन में जाएं तो वहां कमियां न निकालें. ऐसा करने से खुद को रोकें और अच्छा देखने का प्रयास करें. वहां आप कमियां निकालने नहीं बल्कि ऐंजौय करने आए हैं.

– नकारात्मकता से व्यक्ति गुस्सैल हो जाता है इसलिए किसी भी बात पर तुरंत रिऐक्ट करने से पहले एक बार अवश्य सोचें कि जो आप कहने जा रहे हैं वह सही है या आप के बेवजह के गुस्से का परिणाम है. जवाब आप को मिल जाएगा और उस के साथ आप का गुस्सा भी शांत हो जाएगा व पौजिटिव सोच भी आ जाएगी.

शराबखोरी : कौन आबाद कौन बरबाद?

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक तसवीर खूब वायरल हुई थी. इस में देशी व अंगरेजी शराब की दुकानों के बीच में मद्यनिषेध महकमे का बोर्ड टंगा था. यह तो ठीक वही बात हुई कि पहले चोर से कहो कि तुम चोरी करो और बाद में पुलिस से कहो कि इन्हें मत छोड़ना.

इस तरह के पाखंड व दिखावे तो हमारे समाज में कदमकदम पर देखने को मिलते हैं. मसलन, एक ओर सिगरेट धड़ल्ले से बनतीबिकती हैं, दूसरी ओर उन की डब्बी व इश्तिहारों में लिखते हैं कि ‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है.’ इसी तरह प्लास्टिक, औक्सीटोसिन के इंजैक्शन व फलों को पकाने वाले जहरीले कैमिकल वगैरह से परहेज व पाबंदियां हैं, लेकिन उन्हें बनाने व बेचने की पूरी छूट?है.

सिर्फ एक शराब के मामले में ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति, सरकार व धर्म के ठेकेदारों की उलटबांसियां भी कुछ कम नहीं हैं इसलिए कदमकदम पर बड़े ही अजब व गजब खेल दिखाई देते हैं. मसलन, एक ओर राज्य सरकारों के आबकारी महकमे नशीली चीजों की बिक्री से कमाई करने में जुटे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर समाज कल्याण व मद्यनिषेध जैसे महकमे करोड़ों रुपए इन से बचाव के प्रचार में खर्च करते हैं.

जहांतहां दीवारों पर नारे लिखे जाते हैं, होर्डिंग लगाए जाते?हैं और इश्तिहार दिए जाते हैं कि शराब जहर से भी ज्यादा खराब व नुकसानदायक है. इस तरह 2 नावों पर पैर रख कर करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा बड़ी ही दरियादिली के साथ पानी में बहाया जाता है. इन में कोई एक काम बंद होना जरूरी?है, लेकिन इस की फिक्र किसे है?

कहने को आबकारी महकमे नशीली चीजों की बिक्री पर नकेल कसते हैं, लेकिन असल में तो वे भांग, शराब वगैरह के ठेके नीलाम कर के रंगदारी वसूलते हैं. कहा यह जाता है कि वे लोगों को जहरीली शराब पीने से बचाते हैं. जायज व नाजायज शराब में फर्क बताते हैं. सरकारी कायदेकानून को लागू कराते हैं, लेकिन सब जानते हैं कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं, इसलिए भ्रष्टाचारी खूब खुल कर खेलते हैं.

इसी वजह से गुड़गांव, हरियाणा में रेयान स्कूल के पास अंगरेजी शराब की दुकान चल रही थी. हफ्तावूसली करने वालों की वजह से ज्यादातर ठेकों पर तयशुदा वक्त से पहले व बाद में और बंदी के दिन भी शराब की बिक्री चोरीछिपे बराबर चलती रहती है.

ये भी पढ़ें- बोल्ड अवतार कहां तक सही

शराब बेचने की दुकानों को लाइसैंस देने के नाम पर उन से भरपूर कीमत वसूली जाती है. मसलन, उत्तर प्रदेश में आबकारी महकमे का कुल सालाना बजट 122 करोड़, 78 लाख रुपए का है, जबकि साल 2017-18 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आबकारी से 8 अरब, 916 करोड़ रुपए कमाए. जाहिर है कि शराब का धंधा सरकारों के लिए सोने की खान है.

शराब की मनमानी कीमत तो शराब बनाने वाले खरीदारों से लेते ही हैं, इस के अलावा करों के नाम पर अरबोंखरबों रुपए जनता की जेब से निकल कर विकास के नाम पर सरकारी खजाने में चले जाते हैं. इस का एक बड़ा हिस्सा ओहदेदारों की हिफाजत, सहूलियतों, बैठकों, सैरसपाटों, मौजमस्ती वगैरह पर खर्च होता है.

शराब खराब है, यह बात जगजाहिर है. ज्यादातर लोग इसे जानते और मानते भी हैं, लेकिन कमाई के महालालच में फंसी ज्यादातर सरकारें शराबबंदी लागू ही नहीं करती हैं.

गौरतलब है कि गुजरात, नागालैंड, मणिपुर व बिहार समेत देश के 4 राज्यों में शराबबंदी होने से सरकारें कौन सी कंगाल हो गई हैं? उत्तर प्रदेश में सरकार को होने वाली कमाई का महज 17 फीसदी आबकारी से आता है.

इसे दूसरे तरीकों से भी तो पूरा किया जा सकता है. मसलन, तत्काल सेवाओं के जरीए, कानून तोड़ने वालों पर जुर्माना बढ़ा कर, हथियारों, महंगी गाडि़यों वगैरह पर बरसों पुरानी फीस की दरें बढ़ा कर, सरकारी इमारतों व रसीदों पर इश्तिहार लेने जैसे कई तरीके हैं, जिन से जनता पर बिना कर लगाए भी राज्यों की सरकारें अपनी कमाई बढ़ा सकती हैं, लेकिन ज्यादातर ओहदेदार तो खुद शराब पीने के शौकीन होते हैं, इसलिए वे शराबबंदी को लागू करने के हक में कभी नहीं रहते हैं.

यह है वजह

लोग नशेड़ी कैसे न हों क्योंकि हमारा धर्म तो खुद नाश करने की पैरवी करता है. शिवशंकर के नाम पर भांग, गांजा, सुलफा वगैरह पीने वाले साधुमहात्माओं व भक्तों की कमी नहीं है. कांवड़ यात्रा के दौरान तो ऐसे नशेड़ी खुलेआम सामने आ कर सारी हदें पार कर देते हैं. इस के अलावा धर्म की बहुत सी किताबों में सोमरस पीने का जिक्र आता है.

शराब का इतिहास सदियों पुराना है. अंगूर से अलकोहल तक, ताड़ी से कच्ची व जहरीली शराब पी कर बहुत से लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.

दरअसल, हमारा धर्म भी इस की इजाजत देता है. कई देवीदेवताओं की पूजा में शराब का भोग लगाया जाता?

है, फिर उसे प्रसाद के तौर पर भक्तों में बांटा जाता है. काली माई व भैरव के मंदिरों में शराब की बोतलें चढ़ाने जैसे नजारे देखे जा सकते हैं.

शादीब्याह के मौकों पर मौजमस्ती करने, खुशियां मनाने, गम भुलाने, तीजत्योहार या दावतों में मूड बनाने के नाम पर अकसर शराब के दौर चलते हैं. धीरेधीरे शराब पीने की यह लत रोज की आदत बन जाती है. शराब के नशे में इनसान का अपनी जबान, हाथपैर व दिमाग पर काबू नहीं रहता है.

ये भी पढ़ें- कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

शराब पीने से शरीर कांपने लगता है. चिड़चिड़ापन, उदासी व बेचैनी बढ़ने लगती है. जिगर खराब होने लगता है. कई तरह की बीमारियां घेरने लगती हैं. इनसान इस का आदी हो जाता है. इस की लत लग जाने पर फिर शराब छोड़ना आसान नहीं रहता. आखिर में शराबी दूसरों की नजरों में भी गिरने लगता है.

फिर भी कई लोग दूसरों को बहलाफुसला कर अपना हमप्याला बनाने के लिए कहते हैं कि शराब पीना सेहत के लिए अच्छा रहता है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है.

नुकसान ही नुकसान

शराब इनसान, उस की जेब व उस के घरपरिवार को तबाह कर देती है, फिर भी इसे पीने वालों की गिनती बढ़ रही है. अब औरतें व बच्चे भी इस के शिकार हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 37 करोड़ से भी ज्यादा लोग शराब पीते हैं. इन में से आधे से ज्यादा लोग बहुत बड़े पियक्कड़ हैं.

शराब पीने से हर साल लाखों लोग बीमारियों व मौत के मुंह में चले जाते हैं. उन की माली हालत खराब हो जाती है. न जाने कितने लोग शराब के नशे में कानून तोड़ते हैं. दूसरों के साथ गालीगलौज, झगड़ाफसाद व दूसरे जुर्म करते हैं. अपने बीवीबच्चों को मारतेपीटते?हैं. लेकिन शराब की लत के शिकार लोगों व सरकारों की आंखें नहीं खुलती हैं.

ये भी पढ़ें- जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

शराब पी कर गाड़ी चलाने की वजह से सड़कों पर हो रहे हादसों में लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, लोग फिर भी अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारते रहते हैं. कई बार बेगुनाह भी उन की गलती व लापरवाही के शिकार हो जाते हैं. राह चलते या सड़क किनारे सोने वाले गरीब लोग शराबियों की गाडि़यों की चपेट में आ कर अपनी जान तक गंवाते रहते हैं.

दरअसल, पूरे देश में शराबबंदी लागू होनी लाजिमी है, लेकिन ऐसा करना आसान काम नहीं?है. नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार में शराबबंदी कानून लागू की थी, लेकिन सरकार के इस फैसले को सब से तगड़ा झटका पटना हाईकोर्ट से उस वक्त लगा, जब जारी आदेश में कहा गया कि किसी भी सभ्य समाज में इतने कड़े कानून लागू नहीं किए जा सकते. यह जनता के हकों को छीनने जैसा है.

इस से पहले हरियाण, आंध्र प्रदेश, मिजोरम व तमिलनाडु राज्यों में भी शराबबंदी लागू की गई थी लेकिन भारी दबाब के चलते उसे वापस लेना पड़ा. दरअसल, शराब चाहे जायज तरीके से बनी हो या नाजायज तरीके से, वह सरकारों, नेताओं व पुलिस सब की कमाई का बड़ा जरीया है. राजकाज चलाने वाले ओहदेदार चाहते हैं कि शराब की खपत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहे. ऐसे में जरूरत खुद सोचसमझ कर कदम उठाने की है.

हालांकि शराब की लत छुड़ाने के तरीके व पुनर्वास केंद्र वगैरह हैं, लेकिन इन सब में वक्त व पैसा बहुत लगता?है. साथ ही, तब तक शराब दीमक की तरह अंदर ही अंदर खा कर इनसान को खोखला कर चुकी होती है, इसलिए पहले से ही पूरी सावधानी बरतें, वरना पछतावे के साथ यही करना पड़ेगा कि सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ.

बोल्ड अवतार कहां तक सही

लड़कियों का इंस्टाग्राम पर अपनी बोल्ड तसवीरें पोस्ट करना कोई नई बात नहीं है. सैलिब्रिटी हो या आम लड़कियां सभी खूबसूरत दिखने की दौड़ में शामिल हैं. कोई अपनी पहचान ‘टिकटाक’ से बना रही है, तो कोई ब्लौगिंग से, मगर उन के लिए सब से अलग दिखने का तरीका है बोल्ड तसवीरें पोस्ट करना, जिन में वे अपने पैर, पीठ, कमर, पेट, क्लीवेज आदि दिखाती नजर आती हैं.

कुछ लोग इन महिलाओं, लड़कियों की तसवीरों पर तारीफों के पुल बांधते हैं, तो कुछ उन की निंदा करते हैं. तारीफ करने वाले इस बात से परिचित होते हैं कि ये बोल्ड तसवीरें उन्होंने अपने महीनों की मेहनत से बनाई फिगर के बाद खींची हैं. वहीं दूसरी ओर वे लोग जो संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देते हैं, भारतीय महिलाओंलड़कियों के चरित्र को संजोकर रखना चाहते हैं या फिर वे जो ऐसी फिगर नहीं पा सकते उन के लिए ये तसवीरें किसी कलंक से कम नहीं.

महिलाओं का बोल्ड तसवीरें पोस्ट करना गलत है या फिर लोगों की सोच, यह एक गंभीर मुद्दा है. इस पर केवल 1-2 लोगों की राय ले कर फैसला करना गलत होगा.

हम ने अलगअलग उम्र की महिलाओं से इस सवाल का जवाब देने को कहा:

लड़की: उम्र 22 वर्ष, ‘‘मुझे नहीं लगता कि इस में कोई बुराई है किसी भी लड़की को यह अच्छी तरह पता होता है कि उसे कैसी तसवीरें पोस्ट करनी हैं. यहां लोगों की सोच ही गलत है. हां, लड़कियों को भी अपने आसपास के वातावरण का थोड़ा ध्यान रखना चाहिए. वे जैसी घर में हैं वैसी ही इमेज उन्हें सोशल मीडिया पर दिखनी चाहिए. फिर चाहे वह बोल्ड हो या नहीं.’’

ये भी पढ़ें- जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

लड़की: उम्र 24 वर्ष, ‘‘मेरा मानना है कि अगर कोई लड़की अपनी बोल्ड तसवीर पोस्ट कर रही है तो वह कुछ सोचसमझ कर ही कर रही होगी. उसे अच्छे कमैंट भी मिलेंगे और बुरे भी. हर लड़की को बोल्ड और ब्यूटी में फर्क पता होना चाहिए. वैसे आजकल की लड़कियां बहुत समझदार हैं.’’

महिला: उम्र 40 वर्ष, ‘‘अगर महिलाएं अपनी टांगें या टौपलैस बैक दिखाना चाहती हैं

तो ठीक है, क्योंकि इतना तो चलता है. आजकल की जैनरेशन की सोच ठीक ही है. अगर वे इसे नहीं अपनाएंगी तो बैकवर्ड कहलाएंगी. समय के साथ इतना तो चेंज होना ही चाहिए. हां, अपना शरीर बहुत ज्यादा नहीं दिखाना चाहिए. पर थोड़ाबहुत दिखाना चलता है. स्कर्ट वाला फोटो हो या छोटे कपड़ों का सब लाइक करते ही हैं. इतना चलता है.’’

महिला: उम्र 44 वर्ष, ‘‘मुझे लगता है कि किसी भी लड़की को खास कर वह जो सैलिब्रिटी नहीं है, उसे अपनी अच्छी इमेज बनानी चाहिए. थोड़ीबहुत बोल्डनैस तो ठीक है, पर टौपलैस तसवीरें या बिकिनी वाली तसवीरें नहीं. मैं केवल उसी व्यक्ति को अपनी बोल्ड तसवीरें दिखाना पसंद करूंगी जिस से मैं तारीफ चाहती हूं, हर चलतेफिरते आदमी को मुझे अपनी बोल्ड तसवीरें दिखाने का कोई शौक नहीं है.’’

इन चारों के विचारों से साफ पता चलता है कि  बोल्डनैस एक हद तक ही होनी चाहिए. यदि बोल्डनैस हद से ज्यादा होगी तो उसे न्यूडिटी फैलाने से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता.

क्या कहते हैं सैलिब्रिटीज

सैलिब्रिटीज और अभिनेत्रियों के विचार इन आम महिलाओं व लड़कियों से एकदम अलग हैं. टीवी अदाकारा श्रीजिता डे ने हाल ही में इंस्टाग्राम पर अपनी बिकिनी में तसवीरें पोस्ट कीं, जिन्हें देख कर कई फैंस ने उन्हें ट्रोल भी किया. इस ट्रोलिंग पर सवाल किए जाने पर श्रीजिता कहा कि किसी भी अभिनेत्री के लिए बोल्ड तसवीरें खिंचवाना आम बात है. मुझे कुछ अलग करना था तो मैं भी बिकिनी पहन कर बर्फ पर चली गई. मुझे इस में कोई बुराई नहीं लगी.

ये भी पढ़ें- कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

बोल्ड तसवीरों की सूची में बौलीवुड अभिनेत्री ईशा गुप्ता और दिशा पटानी भी हैं. हालांकि लोगों की ट्रोलिंग से बचने के लिए ये दोनों अकसर अपनी तसवीरों से कमैंट का औपशन हटा देती हैं. एम टीवी के शो ‘गर्ल्स औन टौप’ की ईशा यानी सलोनी चोपड़ा अकसर अपनी बोल्ड तसवीरों के बारे में खुल कर अपने विचार रखती हैं. इंस्टाग्राम की एक कैप्शन में लिखती हैं, ‘‘मुझे तब यह बड़ा दिलचस्प लगता है कि जब मीडिया महिलाओं को सैक्सुलाइज करता है तो समाज को फर्क नहीं पड़ता, जब पुरुष महिलाओं को सैक्सुलाइज करते हैं, सरकार व स्कूल उन्हें सोक्सुलाइज करते हैं तो समाज को फर्क नहीं पड़ता, मगर जब एक महिला खुद की सेक्सुऐलिटी को कंट्रोल करती है तो समाज के लिए यह गलत व घृणित हो जाता है.’’

आखिर में बात वहीं आ कर रुक जाती है कि क्या बौल्डनैस गलत है? अगर नहीं तो किस हद तक वह सही है? मुझे लगता है कि किसी भी महिला के लिए अपनी स्थिति, समय और समाज को नजर में रखते हुए खुद को प्रदर्शित करना चाहिए और यदि उन्हें किसी चीज से फर्क नहीं पड़ता तो इस बात से भी वाकिफ होना चाहिए कि लोग तो कहेंगे, उन का काम है कहना.

जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

उत्तर प्रदेश के एक गांव नरायनपुर का प्रताप दिल्ली में नौकरी करता था. उस का पूरा परिवार गांव में रहता था. जब से प्रताप दिल्ली में नौकरी कर रहा था, तब से घर के हालात अच्छे हो गए थे. वह हर तीसरे महीने 20,000 रुपए के आसपास घर भेजता था और हर 6 महीने में अपने गांव भी आता था.

एक बार प्रताप गांव आया था. उसी समय गांव में उस के परिवार में ही शादी थी. बरात पास के ही शहर में गई थी. प्रताप भी बरात में चला गया.

अगले दिन जब बरात वापस आ रही थी तो प्रताप की गाड़ी एक ट्रक से टकरा गई. कार और ट्रक की टक्कर इतनी जोरदार थी कि प्रताप और कार में सवार 2 दूसरे लोगों की उसी जगह पर मौत हो गई.

प्रताप की मौत की खबर जैसे ही उस के घर आई, पूरे घर में कुहराम मच गया. प्रताप की मौत ने उस के पूरे परिवार को तितरबितर कर दिया. सब से बुरा असर प्रताप की पत्नी नीलिमा पर पड़ा. 25 साल की नीलिमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस के सामने ऐसा समय भी आएगा.

2 बच्चों की मां नीलिमा के सामने एक तरफ प्रताप की मौत का गम था, तो वहीं दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के नाम पर उस का शोषण हो रहा था.

प्रताप के मरते ही नीलिमा के बदन से सुहाग का हर सामान उतार दिया गया. उस को पहनने के लिए सफेद साड़ी दे दी गई. नातेरिश्तेदार और गांव के लोग जब शोक करने आते तो उसे सब के सामने रोना पड़ता. कोई उसे शुभ काम में अपने घर नहीं बुलाता. नीलिमा को लगने लगा कि प्रताप के साथ वह भी मर गई होती तो अच्छा रहता.

ये भी पढ़ें- कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

न आएं बहकावे में

36 साल की गीता का पति प्रवेश सरकारी नौकरी करता था. उस को शराब पीने की बुरी आदत थी. इस के चलते प्रवेश का लिवर कब खराब हो गया, उसे पता ही नहीं चला. वह कमजोर रहने लगा. धीरेधीरे बीमारी ने उस के पूरे शरीर को जकड़ लिया.

एक बार प्रवेश को तेज बुखार आया. बुखार ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. ऐसे में प्रवेश को मैडिकल कालेज लाया गया, जहां डाक्टरों ने जांच के बाद पाया कि प्रवेश का लिवर काम नहीं कर रहा है और वह ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाएगा.

प्रवेश की बीमारी की जानकारी उस की पत्नी को लगी तो वह बेहद परेशान हो गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? प्रवेश इस बात की जानकारी अपने परिवार को देना चाहता था, पर गीता ऐसा नहीं चाहती थी.

गीता ने प्रवेश की बीमारी की सूचना अपने मायके वालों को दी. मायके वालों ने गीता को सम झाया कि वह इस बारे में किसी को कुछ न बताए.

एक दिन अचानक प्रवेश की मौत हो गई. गीता ने अपने मायके वालों के कहने पर प्रवेश के परिवार को दूर ही रखा.

गीता के मायके वालों ने सोचा था कि प्रवेश के नाम बैंक में ढेर सारा पैसा होगा और गीता को सरकारी नौकरी मिल जाएगी. सबकुछ उन के कब्जे में आ जाएगा.

जब प्रवेश के औफिस में संपर्क किया गया तो पता चला कि उस के पास बैंक में पैसे के नाम पर कुछ नहीं था. प्रोविडैंट फंड जैसी रकम भी प्रवेश ने निकाल कर नशे में खर्च कर डाली थी. औफिस वालों ने यह भी बताया कि उस के परिवार में किसी को नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि उन के यहां मरने वाले के परिवार के लोगों को नौकरी देने का नियम नहीं है.

गीता के मायके वालों और उस के रिश्तेदारों को जब इस बात का पता चला तो वे उस से दूर होने लगे. पति की असमय मौत ने गीता के सामने मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया था. उस के बच्चे भी अभी इस लायक नहीं थे कि कुछ काम कर सकें.

गीता ने ससुराल वालों को पहले से ही अपने से दूर कर दिया था. उन की नाराजगी यह थी कि उन्हें प्रवेश की मौत के बारे में बताया ही नहीं गया. गीता अपने मायके वालों के बहकावे में आ गई. अब वह पूरी तरह से अकेली हो गई है.

गीता जैसी गलती रूपा ने भी की. रूपा के पति विशाल की मौत भी हादसे में हुई थी. रूपा के 2 साल की बेटी थी. जब पति की मौत हुई उस समय रूपा की उम्र 26 साल थी. उस की 2 बहनें और एक भाई हैं.पति की मौत के बाद रूपा को बीमा और औफिस से कुलमिला कर 8 लाख रुपए मिले थे. मायके वालों ने रूपा को ससुराल में रहने नहीं दिया. उन लोगों ने रूपा से कहा कि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, तुम्हारी दूसरी शादी कर देंगे.

रूपा मायके वालों की बातों में आ कर उन के साथ रहने लगी. ससुराल न जाने से वहां से उस की दूरी बढ़ती गई.

मायके में कुछ दिन बाद सबकुछ नौर्मल हो गया. रूपा की शादी की बात मायके वाले भूल गए. उन के सामने 2 छोटी बहनों की शादी न हो पाने की समस्या थी. वे लोग चाहते थे कि रूपा अपना पैसा बहनों की शादी पर खर्च करे. इस बात को ले कर आपस में मनमुटाव भी बना है.

अब रूपा उन्हीं पैसों से मिलने वाले ब्याज से अपना गुजारा कर रही है. वह अपनी बेटी को पढ़ा भी रही है. अब वह ससुराल भी जाने लगी है, पर उसे इस बात का अफसोस है कि उस ने मायके वालों की बात मानी थी.

ये भी पढ़ें- संभल कर खाओ ओ दिल्ली वालो

हिम्मत से निभाएं जिम्मेदारी

30 साल की रुचि की शादी को 4 साल बीत गए थे. उस का पति फाइनैंस ले कर ठेकेदारी का काम करता था. ठेकेदारी में सतीश को कभी ज्यादा पैसा मिल जाता था तो कभी नुकसान भी उठाना पड़ जाता था. तनाव में फंस कर सतीश ने एक दिन गोली मार कर जान दे दी.

रुचि के सामने 2 रास्ते थे कि या तो वह ससुराल में सतीश की बेवा के रूप में रहे या फिर मायके चली जाए. रुचि ने अपनेआप को हालात से लड़ने के लिए तैयार किया. उस ने ससुराल वालों से अपने पैसे मांगे. ससुराल वालों ने उसे 3 लाख रुपए दिए.

रुचि अपने मायके आई. उस को डिजाइनर कपड़ों की सिलाई करने का शौक पहले से था. मायके में एक दुकान किराए पर ले कर रुचि ने बुटीक खोला. कुछ दिनों की मेहनत के बाद रुचि का बुटीक चल निकला. अब उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं थी.

रुचि कहती है, ‘‘दोबारा शादी करने में कोई बुराई नहीं है. अगर कोई मनपसंद साथी मिल गया तो शादी कर लूंगी. जब ऐसी मुसीबत आए तो कभी घबराना नहीं चाहिए.

‘‘पत्नी की मौत के बाद पति भी तो घर की सारी जिम्मेदारी संभाल लेता है. उसी तरह पत्नी को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. इस के लिए पूरी हिम्मत, मेहनत और लगन से काम करना चाहिए. समाज में छुईमुई बनने से काम नहीं होता, उलटे ऐसे लोगों का शोषण ज्यादा होता है.’’

38 साल की देविका की शादी उम्र में 20 साल बड़े प्रभाकर के साथ हुई थी. प्रभाकर को दिल की बीमारी थी. देविका के 2 बेटियां और 2 बेटे थे. एक दिन अचानक प्रभाकर की हार्ट अटैक से मौत हो गई. देविका ने अपने साथसाथ बच्चों को भी संभाला. उन को पढ़नेलिखने की सुविधाएं उपलब्ध कराईं. कभी यह नहीं महसूस होने दिया कि वे बिना बाप के बच्चे हैं.

देविका कहती है, ‘‘पति की असमय मौत तमाम मुसीबत में डाल देती है. मौत ऐसा कड़वा सच है, जिस का सामना किसी को भी करना पड़ जाता है. ऐसे में आप की हिम्मत और सम झदारी ही साथ देती है. कमजोरी का फायदा उठाने वाले हर जगह होते हैं.

‘‘पति की मौत हो जाने पर अपनेआप को पूरी दुनिया से अलग नहीं कर लेना चाहिए. हालात से डट कर मुकाबला करना चाहिए.’’

दूसरी शादी अच्छी बात

नेहा का पति विनय सेना में था. दुश्मनों से लड़ाई के दौरान वह शहीद हो गया. उस समय नेहा की शादी को 8 महीने ही हुए थे. सेना की ओर से पैसा और दूसरी सुविधाएं मिलती देख विनय के घर वालों के मन में मैल आ गया.

वे यह साबित करने में जुट गए कि नेहा और विनय की शादी नहीं हुई थी.

नेहा के घर वाले यह तो चाहते थे कि उस की दूसरी शादी हो जाए, पर वे विनय की जायदाद में हक भी चाहते थे.

इस बात को ले कर दोनों परिवारों के बीच मुकदमेबाजी शुरू हुई. कुछ ही दिनों में दोनों परिवारों को यह समझ आ गया कि मुकदमेबाजी से कुछ नहीं होगा. तब दोनों परिवारों के बीच सम झौता हुआ. नेहा अपना हिस्सा ले कर चली गई.

अब नेहा ने दूसरी शादी कर ली है. वह अपने नए जीवनसाथी के साथ खुश है. वह कहती है, ‘‘पहले समाज में विधवा विवाह को सही नहीं माना जाता था, पर अब लोग इस को बुरा नहीं मानते. इस में कोई बुराई भी नहीं है. समाज का जो ढांचा बना है, उस में किसी कम उम्र की औरत को सारी जिंदगी बिना किसी साथी के गुजार पाना आसान नहीं है. ऐसे में दूसरी शादी करना अच्छा रहता है.’’

ये भी पढ़ें- बढ़ते धार्मिक स्थल कितने जरूरी?

हिम्मत और समझदारी से संवारें भविष्य

* आप के पति के नाम जो भी जायदाद है उसे बिना आप की मरजी के कोई नहीं ले सकता. किसी के बहकावे में आ कर परिवार में  झगड़ा न करें.

* ससुराल और मायके दोनों के बीच सम झदारी से बेहतर तालमेल बिठाएं.

* पैसों का हिसाब अपने पास रखें. बैंक में पैसे रखें या फिर एफडी करा दें. इस के ब्याज का इस्तेमाल अपने खर्चों में करें. भविष्य के लिए पैसे जरूर बचा कर रखें.

* सच कहा जाता है कि रखा पैसा काम नहीं देता, इसलिए अपनी दिलचस्पी और काबिलीयत के हिसाब से काम करने में संकोच न करें. इस से पैसे भी मिलेंगे और आप का मन भी लगा रहेगा.

* अगर उम्र कम हो तो दूसरी शादी करने में परहेज न करें. रूढि़यों में न फंसें. कुछ दिन बाद कोई कुछ नहीं कहता है.

* बेवा होना आप का दुर्भाग्य नहीं हादसा भर है. इस को ले कर परेशान न हों. पत्नी के मरने पर पति को तो लोग कुछ नहीं कहते, फिर औरतों के साथ ही यह बरताव क्यों?

* अपने बच्चों का खयाल रखें. पिता के न रहने पर वह अनुशासन से बाहर हो जाते हैं. ऐसे में मुसीबतें आएंगी, जिन का मुकाबला आप को ही करना पड़ेगा. इस में पैसा और सुकून दोनों जाएंगे.

* पति की मौत के बाद होने वाले कर्मकांड न करें. इस में पैसा भी खर्च होता है. इस के अलावा शारीरिक और मानसिक कष्ट अलग से होता है.

* पुनर्जन्म और भाग्य जैसा कुछ नहीं होता है. इस को संवारने के नाम पर ब्राह्मण केवल पैसा कमाने का काम करते हैं.

ये भी पढ़ें- अमीर परिवारों की बहूबेटियों को सौगात

* बेवा के कपड़ों में न रहें. ऐसा करने से मन में हीनभावना आती है.

* अगर कोई मर्द थोड़ा इंट्रैस्ट दिखाए तो उसे दुत्कारें नहीं. चाहे उस की चाहत केवल बदन तक हो. बेवाओं के लिए वे काम के हो सकते हैं. थोथी शराफत पर जिंदगी खराब न करें.

कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

जहां तक हम, आप और सब जानते हैं कि कोई भी लड़की चाहे सबकुछ बरदाश्त कर ले, पर सौत तो हरगिज बरदाश्त नहीं कर सकती, पर यह एक अजीब बात है कि कुंआरी लड़कियां, जिन्हें शादी कर के अपना घर बसाना होता है, किसी कुंआरे के बजाय शादीशुदा के प्यार के जाल में फंस जाती हैं.

हालांकि बहुत से ऐसे मर्द किसी कुंआरी का प्यार पाने के लिए इस हकीकत को बड़ी बेशर्मी से छुपा भी जाते हैं कि वे शादीशुदा हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता कि इन कुंआरियों को अपने प्रेमी की शादी की बात पता नहीं होती. उन्हें इस बात का बहुत अच्छी तरह पता होता है कि उन का प्रेमी न सिर्फ शादीशुदा है, बल्कि बालबच्चों वाला भी है.

दरअसल, सैक्स संबंधी इस खिंचाव में जो बात काम करती है, उस का उम्र, पढ़ाईलिखाई, पद, इज्जत, पैसा या शादी होना जैसी बातों से कोई खास मतलब नहीं होता. यों कहिए कि मतलब होता ही नहीं.

ये भी पढ़ें- संभल कर खाओ ओ दिल्ली वालो

अकसर ऐसा होता है कि कोई कुंआरा लड़का किसी हसीन कुंआरी लड़की को देखदेख कर बस आहें भर रहा होता है, वह जुगाड़ भिड़ा रहा होता है कि कैसे उस के साथ अपने प्यार की पेंगें बढ़ाई जाएं और तभी कोई बड़ी उम्र का शादीशुदा, पर सुल झा हुआ आदमी उस सुंदरी को अपनी बांहों की गिरफ्त में ले लेता है. अब वह कुंआरा मन ही मन उस बड़ी उम्र के शादीशुदा आदमी पर चाहे जितनी खी झ उतारता रहे, बाजी तो उस के हाथ से जाती ही रही है और लड़की भी अपने शादीशुदा प्रेमी की बांहों में बड़े मजे से  झूला  झूलती रहती है.

ऐसा क्यों होता है

ऐसे मर्दों में कई खास गुण होते हैं, जो आमतौर पर कुंआरे लड़कों में नहीं होते. सब से पहले तो आप इस बात पर गौर कीजिए कि लड़कियां मर्दों से चाहती क्या हैं? जहां तक मेरा खयाल है, कोई भी लड़की प्रेम की गंभीरता पसंद करती है. प्रेम की यह गंभीरता ज्यादातर कुंआरे लड़कों में नहीं होती है.

ज्यादातर कुंआरे लड़के छिछोरे टाइप होते हैं और फिल्म स्टाइल में कपड़े पहन कर, बाल  झाड़ कर, गाने गा कर, फिकरे कस कर या फिर उलटीसीधी हरकतें कर के लड़कियों को रि झाना चाहते हैं, पर होता इस का बिलकुल उलटा ही है. ऐेसे सड़कछाप मजनू लड़कियों के प्रेम का तो नहीं, पर उन के सैंडलों का स्वाद बहुत जल्द चख लेते हैं.

कुछ दूसरी तरह के कुंआरे लड़के होते हैं, जिन में अपने प्यार को जाहिर करने की न तो हिम्मत होती है, न कोई उचित तरीका ही उन्हें पता होता है और ऐसे कुंआरे लड़के जब किसी लड़की का प्यार पाने के लिए उलटीसीधी कोशिश करते हैं, तो लड़की की नजर में मजाक ही बनते हैं, उस के प्रेमी नहीं.

ये भी पढ़ें- बढ़ते धार्मिक स्थल कितने जरूरी?

होते हैं सलीकेदार

हालांकि ऐसा बिलकुल नहीं है कि हर शादीशुदा मर्द कुंआरी लड़की का प्रेम पाने में कामयाब हो ही जाता है और हर कुंआरा लड़का किसी लड़की का प्रेम पाने में नाकाम ही रहता है.

हमारा कहना तो सिर्फ यह है कि शादीशुदा मर्दों में कुछ ऐसे खास गुण होते हैं, जिन की ओर लड़कियां आसानी से खिंच जाती हैं, जैसे सुल झी शख्सीयत का होना, लड़की के बारे में हर छोटीछोटी बात की बेहतर सम झ होना वगैरह. ये गुण शादी होने के बाद मर्द के अंदर आ जाते हैं, जबकि कुंआरे लड़कों में इन की कमी ही रहती है.

फिर कुंआरा लड़का अपनी हमउम्र प्रेमिका से जलन की भावना भी रख सकता है और उन की भावनाओं को चोट भी पहुंचा सकता है, जबकि बड़ी उम्र का बालबच्चों वाला शादीशुदा मर्द अपनी कुंआरी प्रेमिका के आंसू पूरी हमदर्दी और सम झदारी के साथ पोंछने की ताकत रखता है. वह अपनी प्रेमिका को पूरी सिक्योरिटी और पूरा प्यार दे सकता है. वह कुंआरे लड़कों की तरह बेवकूफी वाली हरकतें नहीं करता. उस का बरताव इतना सलीकेदार होता है कि ऐसी खासीयतें किसी कुंआरे लड़के में मुश्किल से ही मिलती हैं.

मुसीबतें नहीं खड़ी करते

हां, इस सब के अलावा शादीशुदा मर्दों की एक खास बात यह भी होती है कि जब कोई लड़की अपने शादीशुदा प्रेमी को प्रेम करने के बाद किसी तरह से उस का दिल तोड़ देती है, तो वह प्रेमी बड़ी आसानी से ऐसी बेवफा प्रेमिका को भूल जाता है और उस के लिए कोई परेशानी नहीं खड़ी करता. उस के आंसू पोंछने के लिए बेचारी बीवी होती है, जबकि ऐसे हालात में कुंआरे लड़के अपनी प्रेमिका के लिए भारी मुसीबतें खड़ी कर देते हैं, क्योंकि उन की भावनाओं को कंट्रोल करने के लिए कोई नहीं होता है.

ये भी पढ़ें- अमीर परिवारों की बहूबेटियों को सौगात

इसलिए यह कहा जा सकता है कि जो खासीयतें शादीशुदा मर्दों में आ जाती हैं, वे ही अगर कुंआरे लड़कों में आ जाएं तो कोई वजह नहीं कि कोई हसीना उन की बांहों में न जाए, आखिर कोई लड़की अपनी सौत तो नहीं चाहती है न.

संभल कर खाओ ओ दिल्ली वालो

बचपन में जब कभी मैं अपने गांव जाता था तो वहां के मेरे दोस्त मुझे अकसर ही छेड़ते रहते थे कि ‘दिल्ली के दलाली, मुंह चिकना पेट खाली’. तब मुझे बड़ी चिढ़ मचती थी कि मैं इन से बेहतर जिंदगी जीता हूं, फिर भी ये ऐसा क्यों कहते हैं?

यह बात याद आने के पीछे आज की एक बड़ी वजह है और वह यह कि दिल्ली और केंद्र सरकार में दिल्ली की कच्ची कालोनियों को पक्का करने की होड़ सी मची है. वे उन लोगों को सब्जबाग दिखा रहे हैं, जो देश की ज्यादातर उस पिछड़ी आबादी की नुमाइंदगी करते हैं जो यहां अपनी गरीबी से जू झ रहे हैं, क्योंकि उन के गांव में तो रोटी मिले न मिले, अगड़ों की लात जरूर मिलती है.

पर, अब तो दिल्ली शहर भी सब से छल करने लगा है. यहां के लोगों को रोजीरोटी तो मिल रही है पर जानलेवा, फिर चाहे वे पैसे वाले हों या फटेहाल. बाजार में खाने का घटिया सामान बिक रहा है.

दिल्ली के खाद्य संरक्षा विभाग ने इस मिलावट के बारे में बताते हुए कहा कि साल 2019 की 15 नवंबर की तारीख तक 1,303 नमूने लिए गए थे. उन में से 8.8 फीसदी नमूने मिस ब्रांड, 5.4 फीसदी नमूने घटिया और 5.4 फीसदी ही नमूने असुरक्षित पाए गए. ये नमूने साल 2013 से अभी तक सब से ज्यादा हैं.

ये भी पढ़ें- बढ़ते धार्मिक स्थल कितने जरूरी?

यहां एक बात और गौर करने वाली है कि जिन व्यापारियों के खाद्य सामान के नमूने फेल हुए हैं, उन के खिलाफ अलगअलग अदालतों में मुकदमे दर्ज मिले हैं. पर यह तो वह लिस्ट है, जहां के नमूने लिए गए, लेकिन दिल्ली की ज्यादातर आबादी ऐसी कच्ची कालोनियों में रहती है, जहां ऐसे मानकों के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता होगा.

साफ पानी के हालात तो और भी बुरे हैं. साफ पानी की लाइन में सीवर के गंदे पानी की लाइन मिलने की खबरें आती रहती हैं.

ऐसी बस्तियों में ब्रांड नाम की कोई चीज नहीं होती है. हां, किसी बड़े ब्रांड के नकली नाम से बने सामान यहां धड़ल्ले से बिकते हैं. पंसारी की खुली बोरियों में क्याक्या भरा है, किसे पता?

पिछले साल के आखिर में दिल्ली की बवाना पुलिस ने जीरा बनाने की एक ऐसी फैक्टरी पकड़ी थी, जहां फूल  झाड़ू बनाने वाली जंगली घास, गुड़ का शीरा और स्टोन पाउडर से जीरा बनाया जा रहा था. इस जीरे को दिल्ली के अलावा गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व दूसरी कई जगह बड़ी मात्रा में सप्लाई किया जाता था. इस नकली जीरे को असली जीरे में 80:20 के अनुपात में मिला कर लाखों रुपए में बेच दिया जाता था.

यह तो वह मिलावट है जो पकड़ी गई है, बाकी का तो कोई हिसाबकिताब ही नहीं है. दिल्ली के असली दलाल तो ये मिलावटखोर हैं, जो एक बड़ी आबादी को शरीर और मन से इस कदर बीमार कर रहे हैं कि उस का मुंह भी चिकना नहीं रहा है. कच्ची कालोनियों को पक्का करने से पहले ऐसे मिलावटखोरों का पक्का इंतजाम करना जरूरी है.

ये भी पढ़ें- अमीर परिवारों की बहूबेटियों को सौगात

बढ़ते धार्मिक स्थल कितने जरूरी?

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

जब अंगरेज पहली बार भारत आए थे, तब वे यहां का गौरव देख कर दंग रह गए थे. चालाक अंगरेजों ने यह भी देखा था कि भारत के लोगों की धर्म में अटूट आस्था है. हर गांव में एक मंदिर और वह भी एकदम भव्य. उसी गांव के एक छोर पर उन्होंने मसजिद देखी और तब अंगरेजों को सम झते देर न लगी कि भारत में कई धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं.

अब हम आजाद हैं और बहुत तेजी से तरक्की भी कर रहे हैं, पर सवाल यह है कि क्या एक शहर में इतने ज्यादा मंदिर या मसजिद, गुरुद्वारा या चर्च की जरूरत है या हम महज एक दिखावे के लिए या सिर्फ अपने अहंकार को पालने के लिए इन्हें बनाए जा रहे हैं?

सिर्फ एक धर्म के लोग ही ऐसा कर रहे हों, ऐसा नहीं है, बल्कि यह होड़ हर धर्म के लोगों में मची हुई है. शहर के किसी हिस्से में जब एक धर्मस्थल बन कर तैयार हो जाता है तो तुरंत ही उसी शहर के किसी दूसरे हिस्से में दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनना शुरू हो जाता है और दूसरा वाला पहले से भी बेहतर और भव्य होता है.

धर्मस्थल बनने के बाद कुछ दिन तो उस में बहुत सारी भीड़ आती है, फिर कुछ कम, फिर और कम और फिर बिलकुल सामान्य ढंग से लोग आतेजाते हैं.

मैं अगर अपने एक छोटे से कसबे ‘पलिया कला’ की बात करूं तो यहां पर ही 17 मंदिर, 12 मसजिद और एक गुरुद्वारा है. अभी तक यहां किसी चर्च को नहीं बनाया गया है.

ये भी पढ़ें- अमीर परिवारों की बहूबेटियों को सौगात

इन मंदिरों की देखरेख पुजारियों के हाथ में है. ऐसा भी नहीं कि सारे के सारे पुजारी मजे करते हैं, बल्कि कुछ मंदिरों के पुजारी तो गरीब हैं.

हिंदू धर्म कई भागों में बंटा हुआ है. मसलन, वैश्य खाटू श्याम मंदिर में जाते हैं तो कुछ नई पीढ़ी के लोग सांईं बाबा पर मेहरबान हो रहे हैं, इसलिए खाटू श्याम मंदिर और सांईं बाबा मंदिर के पंडों की जेब और तोंद रोज फूलती जा रही हैं.

चूंकि सांईं बाबा का मंदिर शहर से अलग जंगल की तरफ पड़ता है, इसलिए वहां पर जाने वाले लड़केलड़कियों के एक पंथ दो काज भी हो जाते हैं. वे सांईं के दर्शन तो करते ही हैं, साथ ही इश्क की पेंगें भी बढ़ा लेते हैं.

यहां पर दरगाहमंदिर नाम से एक हिंदू मंदिर भी है, जो एक सिंधी फकीर शाह बाबा के चेलों ने बनवाया है. यहां की मान्यता है कि जो भी आदमी या औरत कोई भी मन्नत मांगता है तो उसे लगातार 40 दिन आ कर मंदिर में  झाड़ूपोंछा करना पड़ता है, जिसे ‘चलिया’ करना’ कहते हैं.

लोगों की लाइन तो ‘चलिया करने’ के लिए लगी ही रहती है. अब भक्तों की मुराद पूरी हो या न हो, पर बाबाजी का उल्लू तो सीधा हो ही रहा है न.

पंचमुखी हनुमानजी के मंदिर में एक बाबा हैं, जो मुख्य पुजारी हैं. वे बड़ी सी लंबी दाढ़ी बढ़ा कर, गेरुए कपड़े पहन कर बड़े आकर्षक तो नजर आते हैं, पर असलियत में उन पर एक हत्या का केस चल रहा है. पर वे बजरंग बली की सेवा में आ गए तो सफेदपोश बन गए हैं.

शहर के हर कोने में बहुत सारे धर्मस्थल बनाने से अच्छा है कि हर छोटेबड़े शहर में हर धर्म का एक ही धर्मस्थल हो और उस शहर के सारे लोग एक ही जगह पूजापाठ, प्रार्थना, नमाज वगैरह कर सकें. हां, इस में उमड़ी हुई भीड़ को संभालना एक बड़ी बाधा हो सकती है, पर उस के लिए प्रशासन की मदद ली जा सकती है.

किस शहर में कितने धर्मों के कितनेकितने धर्मस्थल हों, यह वहां की आबादी के मुताबिक भी तय किया जा सकता है. जो धर्मस्थल बन चुके हैं, उन को वैसे ही रहने दिया जाए. पर नए बनाने या न बनाने के बारे में सरकार को एक बार जरूर सोचना चाहिए.

अर्थशास्त्र का एक नियम यह भी है कि ‘इस दुनिया में आबादी तो बढ़ेगी, पर जमीन उतनी ही रहेगी’. अब वे धर्मस्थल तो जहां बन गए वहां बन गए, चूंकि धर्मस्थलों से हर एक की आस्था जुड़ी होती है, इसलिए उन को किसी भी तरह से छेड़ना सिर्फ  झगड़े को ही जन्म देगा.

ये भी पढ़ें- रिलेशनशिप्स पर टिक-टोक का इंफ्लुएंस

आज हमारे देश की सब से बड़ी जरूरत है चिकित्सा और भूखे को भरपेट भोजन. हमारे देश में बहुत गरीबी है, पर भव्य धर्मस्थलों को बनाने के लिए बहुत सा पैसा इकट्ठा हो जाता है, शायद किसी गरीब की लड़की की शादी के लिए कोई भी पैसा न दे, पर धर्मस्थल बनाने के लिए हर कोई बढ़चढ़ कर सहयोग करता है.

नेता ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवा कर जनता के एक बड़े तबके को आकर्षित करने में तो कामयाब हो जाते हैं और अपना वोट बैंक पक्का कर लेते हैं, पर आम जनता को इस से कोई फायदा नहीं होता है.

हां, धर्मस्थलों के बनने से एक फायदा तो जरूर होता है और वह यह कि मुल्ला, पुजारियों और पादरी को नौकरी का सहारा जरूर मिल जाता है. सब से ज्यादा चंदा देने वाले सेठ की तख्ती भी लगा दी जाती है. सेठ का पैसा भी काम आ जाता है और उस की पब्लिसिटी भी हो जाती है.

आज समाज में बहुत सी ऐसी भयावह समस्याएं हैं, जिन के लिए गंभीरता से कोशिश करनी होगी, जैसे कैंसर की बीमारी तेजी से फैल रही है. हमें कैंसर की रोकथाम के लिए बेहतर से बेहतर अस्पताल चाहिए, ज्यादा से ज्यादा डाक्टर चाहिए.

इसी तरह अच्छे और सस्ते स्कूलों की कमी है. ऐसे अनाथालयों की भी बेहद कमी है, जो बिना किसी फायदे के अनाथों की सेवा कर सकें. ज्यादा धार्मिक स्थल अपने साथ ज्यादा पाखंड लाते हैं. इन पाखंडों और अंधविश्वासों से बचने का तरीका है कि इन की तादाद सीमित की जाए.

देश में उद्योगों को लगाने के लिए जमीन नहीं मिलती. लोग अपने घरों में कारखाने लगाते हैं और उन पर छापामारी होती रहती है. खुदरा बिक्री करने वालों को दुकानें नहीं मिलतीं और वे पटरियों, सड़कों, खुले मैदानों, बागों, यहां तक कि नालों पर दुकानें लगाते हैं, जहां सरकारी आदमी वसूली करने आते हैं, पर मंदिरों को हर थोड़ी दूर पर जगह मिल रही है.

ये भी पढ़ें- उन्नाव कांड: पिछड़ी जाति की लड़की की प्रेम कहानी का दुखद अंत

मंदिरों में नौकरियां पंडों को मिलती हैं या फूलप्रसाद वगैरह बेचने वालों को. कारखानों और दुकानों में सैकड़ों को नौकरियां मिल सकती हैं, पर उन के लिए पैसों की कमी है.

भारत में जिस तरह से आज धार्मिक नफरत फैल रही है, उस पर लगाम लगाने का भी यह एक अच्छा तरीका है, क्योंकि धार्मिक स्थल जितने कम होंगे, आपसी  झगड़े उतने ही कम होंगे.

ऐसे मुद्दे पर निदा फाजली का एक शेर याद आता है:

घर से मसजिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें