रहस्यमयी सूटकेस : क्या था ट्रेन का माजरा

‘‘भाई साहब, यह ब्रीफकेस आप का है क्या?’’ सनतकुमार समाचार- पत्र की खबरों में डूबे हुए थे कि यह प्रश्न सुन कर चौंक गए.

‘‘जी नहीं, मेरा नहीं है,’’ उन्होंने प्रश्नकर्त्ता के मुख पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. उन से प्रश्न करने वाला 25-30 साल का एक सुदर्शन युवक था.

‘‘फिर किस का है यह ब्रीफकेस?’’ युवक पुन: चीखा था. इस बार उस के साथ कुछ और स्वर जुड़ गए थे.

‘‘किस का है, किस का है? यह पूछपूछ कर क्यों पूरी ट्रेन को सिर पर उठा रखा है. जिस का है वह खुद ले जाएगा,’’ सनतकुमार को यह व्यवधान अखर रहा था.

‘‘अजी, किसी को ले जाना होता तो इसे यहां छोड़ता ही क्यों? यह ब्रीफकेस सरलता से हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला. यह तो हम सब को ले कर जाएगा,’’ ऊपरी शायिका से घबराहटपूर्ण स्वर में बोल कर एक महिला नीचे कूदी थीं, ‘‘किस का है, चिल्लाने से कोई लाभ नहीं है. उठा कर इसे बाहर फेंको नहीं तो यह हम सब को ऊपर पहुंचा देगा,’’ बदहवास स्वर में बोल कर महिला ने सीट के नीचे से अपना सूटकेस खींचा और डब्बे के द्वार की ओर लपकी थीं.

‘‘कहां जा रही हैं आप? स्टेशन आने में तो अभी देर है,’’ सनतकुमार महिला के सूटकेस से अपना पैर बचाते हुए बोले थे.

‘‘मैं दूसरे डब्बे में जा रही हूं…इस लावारिस ब्रीफकेस से दूर,’’ महिला सूटकेस सहित वातानुकूलित डब्बे से बाहर निकल गई थीं.

‘लावारिस ब्रीफकेस?’ यह बात एक हलकी सरसराहट के साथ सारे डब्बे में फैल गई थी. यात्रियों में हलचल सी मच गई. सभी उस डब्बे से निकलने का प्रयत्न करने लगे.

‘‘आप क्या समझती हैं? आप दूसरे डब्बे में जा कर सुरक्षित हो जाएंगी? यहां विस्फोट हुआ तो पूरी ट्रेन में आग लग जाएगी,’’ सनतकुमार एक और महिला को भागते देख बोले थे.

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, यहां से भागने से क्या होगा. इस ब्रीफकेस का कुछ करो. मुझे तो इस में से टकटक का स्वर भी सुनाई दे रहा है. पता नहीं क्या होने वाला है. यहां तो किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है,’’ एक अन्य शायिका पर अब तक गहरी नींद सो रहा व्यक्ति अचानक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘करना क्या है. इस ब्रीफकेस को उठा कर बाहर फेंक दो,’’ कोई बोला था.

‘‘आप ही कर दीजिए न इस शुभ काम को,’’ सनतकुमार ने आग्रह किया था.

‘‘क्या कहने आप की चतुराई के. केवल आप को ही अपनी जान प्यारी है… आप स्वयं ही क्यों नहीं फेंक देते.’’

‘‘आपस में लड़ने से क्या हाथ लगेगा? आप दोनों ठीक कह रहे हैं. इस लावारिस ब्रीफकेस को हाथ लगाना ठीक नहीं है. इसे हिलानेडुलाने से विस्फोट होने का खतरा है,’’ साथ की शायिका से विद्याभूषणजी चिल्लाए थे.

‘‘फिर क्या सुझाव है आप का?’’ सनतकुमार ने व्यंग्य किया था.

‘‘सरकार की तरह हम भी एक समिति का गठन कर लेते हैं. समिति जो भी सुझाव देगी उसी पर अमल कर लेंगे,’’ एक अन्य सुझाव आया था.

‘‘यह उपहास करने का समय है श्रीमान? समिति बनाई तो वह केवल हमारे लिए मुआवजे की घोषणा करेगी,’’ विद्याभूषण अचानक क्रोधित हो उठे थे.

‘‘कृपया शांति बनाए रखें. यदि यह उपहास करने का समय नहीं है तो क्रोध में होशहवास खो बैठने का भी नहीं है. आप ही कहिए न क्या करें,’’ सनतकुमार ने विद्या- भूषण को शांत करने का प्रयास किया था.

‘‘करना क्या है जंजीर खींच देते हैं. सब अपने सामान के साथ तैयार रहें. ट्रेन के रुकते ही नीचे कूद पड़ेंगे.’’

चुस्तदुरुस्त सुदर्शन नामक युवक लपक कर जंजीर तक पहुंचा और जंजीर पकड़ कर लटक गया था.

‘‘अरे, यह क्या? पूरी शक्ति लगाने पर भी जंजीर टस से मस नहीं हो रही. यह तो कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र लगता है. आतंकवादियों ने बम रखने से पहले जंजीर को नाकाम कर दिया है जिस से ट्रेन रोकी न जा सके,’’ सुदर्शन भेद भरे स्वर में बोला था.

‘‘अब क्या होगा?’’ कुछ कमजोर मन वाले यात्री रोने लगे थे. उन्हें रोते देख कर अन्य यात्री भी रोनी सूरत बना कर बैठ गए. कुछ अन्य प्रार्थना में डूब गए थे.

‘‘कृपया शांति बनाए रखें, घबराने की आवश्यकता नहीं है. बड़ी सुपरफास्ट ट्रेन है यह. इस का हर डब्बा एकदूसरे से जुड़ा हुआ है. हमें बड़ी युक्ति से काम लेना होगा,’’ विद्याभूषण अपनी बर्थ पर लेटेलेटे निर्देश दे रहे थे.

तभी किसी ने चुटकी ली, ‘‘बाबू, आप को जो कुछ कहना है, नीचे आ कर कहें, अब आप की बर्थ को कोई खतरा नहीं है.’’

‘‘हम योजनाबद्ध तरीके से काम करेंगे,’’ नीचे उतर कर विद्याभूषण ने सुझाव दिया, ‘‘सभी पुरुष यात्री एक तरफ आ जाएं. हम 5 यात्रियों के समूह बनाएंगे.

‘‘मैं, सनतकुमार, सुदर्शन, 2 और आ जाइए, नाम बताइए…अच्छा, अमल और धु्रव, यह ठीक है. हम सब इंजन तक चालक को सूचित करने जाएंगे. दूसरा दल गार्ड के डब्बे तक जाएगा, गार्ड को सूचित करने, तीसरा दल लोगों को सामान के साथ तैयार रखेगा, जिस से कि ट्रेन के रुकते ही सब नीचे कूद जाएं. महिलाओं के 2 दल प्राथमिक चिकित्सा के लिए तैयार रहें,’’ विद्याभूषण अपनी बात समाप्त करते इस से पहले ही रेलवे पुलिस के 2 सिपाही, जिन के कंधों पर ट्रेन की रक्षा का भार था, वहां आ पहुंचे थे.

‘‘आप बिलकुल सही समय पर आए हैं. देखिए वह ब्रीफकेस,’’ विद्याभूषणजी ने पुलिस वालों को दूर से ही ब्रीफकेस दिखा दिया था.

‘‘क्या है यह?’’ एक सिपाही ने अपनी बंदूक से खटखट का स्वर निकालते हुए प्रश्न किया था.

‘‘यह भी आप को बताना पड़ेगा? यह ब्रीफकेस बम है. आप शीघ्र ही इसे नाकाम कर के हम सब के प्राणों की रक्षा कीजिए.’’

‘‘बम? आप को कैसे पता कि इस में बम है?’’ एक पुलिसकर्मी ने प्रश्न किया था.

‘‘अजी कल रात से ब्रीफकेस लावारिस पड़ा है. उस में से टिकटिक की आवाज भी आ रही है और आप कहते हैं कि हमें कैसे पता? अब तो इसे नाकाम कर दीजिए,’’ सनतकुमार बोले थे.

‘‘अरे, तो जंजीर खींचिए…बम नाकाम करने का विशेष दल आ कर बम को नाकाम करेगा.’’

‘‘जंजीर खींची थी हम ने पर ट्रेन नहीं रुकी.’’

‘‘अच्छा, यह तो बहुत चिंता की बात है,’’ दोनों सिपाही समवेत स्वर में बोले थे.

‘‘अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं. किसी भी तरह इस बम को नाकाम कर के हमारी जान बचाइए.’’

‘‘काश, हम ऐसा कर सकते. हमें बम नाकाम करना नहीं आता, हमें सिखाया ही नहीं गया,’’ दोनों सिपाहियों ने तुरंत ही सभी यात्रियों का भ्रम तोड़ दिया था.

कुछ महिला यात्री डबडबाई आंखों से शून्य में ताक रही थीं. कुछ अन्य बच्चों के साथ प्रार्थना में लीन हो गई थीं.

‘‘हमें जाना ही होगा,’’ विद्याभूषण बोले थे, ‘‘सभी दल अपना कार्य प्रारंभ कर दीजिए. हमारे पास समय बहुत कम है.’’

डरेसहमे से दोनों दल 2 विभिन्न दिशाओं में चल पड़े थे और जाते हुए हर डब्बे के सहयात्रियों को रहस्यमय ब्रीफकेस के बारे में सूचित करते गए थे.

बम विस्फोट की आशंका से ट्रेन में भगदड़ मच गई थी. सभी यात्री कम से कम एक बार उस ब्रीफकेस के दर्शन कर अपने नयनों को तृप्त कर लेना चाहते थे. शेष अपना सामान बांध कर अवसर मिलते ही ट्रेन से कूद जाना चाहते थे.

कुछ समझदार यात्री रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था को कोस रहे थे, जिस ने हर ट्रेन में बम निरोधक दल की व्यवस्था न करने की बड़ी भूल की थी.

गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दल को मार्ग में ही एक मोबाइल वाले सज्जन मिल गए थे. उन्होंने चटपट अपने जीवन पर मंडराते खतरे की सूचना अपने परिवार को दे दी थी और परिवार ने तुरंत ही अगले स्टेशन के स्टेशन मास्टर को सूचित कर दिया था.

फिर क्या था? केवल स्टेशन पर ही नहीं पूरे रेलवे विभाग में हड़कंप मच गया. ट्रेन जब तक वहां रुकी बम डिस्पोजल स्क्वैड, एंबुलैंस आदि सभी सुविधाएं उपस्थित थीं.

ट्रेन रुकने से पहले ही लोगों ने अपना सामान बाहर फेंकना प्रारंभ कर दिया और अधिकतर यात्री ट्रेन से कूद कर अपने हाथपांव तुड़वा बैठे थे.

गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दस्ते का काम बीच में ही छोड़ कर सनतकुमारजी का दस्ता जब वापस लौटा तो उन की पत्नी रत्ना चैन से गहरी नींद में डूबी थीं.

सनतकुमार ने घबराहट में उन्हें झिंझोड़ डाला था :

‘‘तुम ने तो कुंभकर्ण को भी मात कर दिया. किसी भी क्षण ट्रेन में बम विस्फोट हो सकता है,’’ चीखते हुए अपना सामान बाहर फेंक कर उन्होंने पत्नी रत्ना को डब्बे से बाहर धकेल दिया था.

‘‘हे ऊपर वाले, तेरा बहुतबहुत धन्यवाद, जान बच गई, चलो, अब अपना सामान संभाल लो,’’ सनतकुमार ने पत्नी को आदेश दे कर इधरउधर नजर दौड़ाई थी.

घबराहट में ट्रेन से कूदे लोगों को भारी चोटें आई थीं. उन की मूर्खता पर सनतकुमार खुल कर हंसे थे.

इधरउधर का जायजा ले कर सनतकुमार लौटे तो रत्ना परेशान सी ट्रेन की ओर जा रही थीं.

‘‘कहां जा रही हो? ट्रेन में कभी भी विस्फोट हो सकता है. वैसे भी ट्रेन में यात्रियों को जाने की इजाजत नहीं है. पुलिस ने उसे अपने कब्जे में ले लिया है.’’

‘‘सारा सामान है पर उस काले ब्रीफकेस का कहीं पता नहीं है.’’

‘‘कौन सा काला ब्रीफकेस?’’

‘‘वही जिस में मैं ने अपने जेवर रखे थे और आप ने कहा था कि उसे अपनी निगरानी में संभाल कर रखेंगे.’’

‘‘तो क्या वह ब्रीफकेस हमारा था?’’ सनतकुमार सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘क्या होना है, तुम और तुम्हारी नींद, ट्रेन में इतना हंगामा मचा और तुम चैन की नींद सोती रहीं.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि आप अपने ही ब्रीफकेस को नहीं पहचान पाओगे. मेरी तो थकान से आंख लग गई थी ऊपर से आप ने नींद की गोली खिला दी थी. पर आप तो जागते हुए भी सो रहे थे,’’ रत्ना रोंआसी हो उठी थीं.

‘‘भूल जाओ सबकुछ, अब कुछ नहीं हो सकता,’’ सनतकुमार ने हथियार डाल दिए थे.

‘‘क्यों नहीं हो सकता? मैं अभी जा कर कहती हूं कि वह हमारा ब्रीफकेस है उस में मेरे 2 लाख के गहने हैं.’’

‘‘चुप रहो, एक शब्द भी मुंह से मत निकालना, अब कुछ कहा तो न जाने कौन सी मुसीबत गले पड़ेगी.’’

पर रत्ना दौड़ कर ट्रेन तक गई थीं.

‘‘भैया, वह ब्रीफकेस?’’ उन्होंने डब्बे के द्वार पर खड़े पुलिसकर्मी से पूछा था.

‘‘आप क्यों चिंता करती हैं? उस में रखे बम को नाकाम करने की जिम्मेदारी बम निरोधक दस्ते की है. वे बड़ी सावधानी से उसे ले गए हैं,’’ पुलिसकर्मी ने सूचित किया था.

रत्ना बोझिल कदमों से पति के पास लौट आई थीं. ट्रेन के सभी यात्रियों को उन के गंतव्य तक पहुंचाने का प्रबंध किया गया था. सनतकुमार और रत्ना पूरे रास्ते मुंह लटाए बैठे रहे थे. सभी यात्री आतंकियों को कोस रहे थे. पर वे दोनों मौन थे.

विस्फोट हुआ अवश्य था पर ट्रेन में नहीं सनतकुमार और रत्ना के जीवन में.

काली कोठी : राजप्रताप सिंह की सुनसान हवेली

राजघराने भी उन गगनचुंबी इमारतों की तरह होते हैं, जिन के बनने में लाखों लोगों की खूनपसीने की कमाई ही नहीं, बल्कि उन की जिंदगी भी लगी होती है.

ये राजघराने न जाने कितने मासूमों का खून पीपी कर राक्षसों जैसे विकराल हुए हैं. इन के इतिहास के पन्नों पर जुल्मोसितम ढहाने की ढेरों कहानियां बिखरी पड़ी हैं.

इन की काली करतूतों को बड़ी होशियारी के साथ परदे के पीछे दफन कर दिया गया है और सामने रंगमंच पर सिर्फ और सिर्फ शोहरत नाच रही होती है.

आदमी कपड़े बदल सकता है, पर तन नहीं बदल सकता. ठीक ऐसे ही व्यवस्थाओं को बदला जा सकता है, लेकिन मन और सोच को नहीं.

जटपुर के राजघराने के साथ भी कुछ ऐसा ही चल रहा था. सदियां गुजर गईं, मगर राजघराने न बदले. आजादी के बाद नई व्यवस्था में राजघरानों के पास उन के महल और हवेलियां तो रह गईं, लेकिन उन की हजारोंहजारों बीघा जमीनों को सरकार ने ले लिया. फिर भी राजघरानों के वारिसों ने अपने परिवार के सदस्यों, नातेरिश्तेदारों के नाम जोत की जमीनें लिखा कर चालबाजी से अपने पास सैकड़ों बीघा जमीनें रख लीं.

जटपुर इलाके के रियासतदार राजा राजप्रताप सिंह के पास आजादी के 75 साल बाद भी राजमहल और हवेलियों के अलावा भी 300 बीघा जोत की जमीन थी. कितने ही आलीशान बंगले और तमाम प्रोपर्टी उन्होंने दिल्ली, देहरादून, शिमला, चंडीगढ़ और नैनीताल में इकट्ठी कर रखी थीं.

राजा राजप्रताप सिंह ने हरिद्वार में भी बड़ी महंगी जमीन पर एक आश्रम खोल रखा था. कितने ही बागबगीचे उन के नाम थे.

आजादी के बाद सरकारी फरमान से भले ही राजशाही का खात्मा सरकारी पन्नों में हो गया हो, लेकिन हकीकत में राजशाही न केवल जिंदा है, बल्कि बड़ी बेशर्मी के साथ वह दिन दूनी रात चौगुनी फलफूल रही है.

कितने ही नवाब और राजेरजवाड़े आज भी मूंछों पर ताव देते घूम रहे हैं. अंगरेजों के पिट्ठू ये ज्यादातर राजेरजवाड़े आज भी ऐसे ही राज कर रहे हैं जैसे पहले कर रहे थे, बल्कि और मजबूती से बेदाग हो कर, विधानसभाओं और संसद में जनता के नुमाइंदे बन कर. सरकारें भी इन से थर्राती थीं, इसलिए उन की भी हिम्मत इन से इन के महल छीनने की नहीं हुई.

राजा राजप्रताप सिंह के पुरखे भी आजादी के बाद से लोकशाही में भी कभी संसद, तो कभी विधानसभाओं में जनता की नुमाइंदगी करते आ रहे थे. उन्होंने जता दिया था कि शहंशाह तो शहंशाह ही रहता है और जनता जनता

ही रहती है. उन के खिलाफ किसी ने सिर उठाने की हिमाकत नहीं की और जिस ने की, उन के सिर कुचल दिए गए. सिर कुचलने की उन की आदत पुरानी थी.

एक बार आजादी के बाद लोकशाही के जोश में कोई जनता का रहनुमा बन कर राजा राजप्रताप सिंह के इलाके से विधायक बन गया था, तब उन के दादा वंशप्रताप ने उस विधायक को अपनी घुड़साल में उलटा लटका कर उस पर खूब हंटरों की बरसात कराई थी. बेचारे उस विधायक ने अगले ही दिन अपनी विधायकी से इस्तीफा दे दिया था.

इस मामले में शासनप्रशासन ऐसे चुप रहा था, जैसे जटपुर राजघराने का गुलाम हो. अखबारों की कलम चिल्लाई, लेकिन कब तक चिल्लाती, उसे भी चुप कर दिया गया.

राजा राजप्रताप सिंह हमेशा सत्ता के साथ रहते थे. कभी विपक्ष में भी रहना पड़ा, तो उन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता था. जनप्रतिनिधि होने के नाते जिले के डीएम और एसपी सब उन के दरबार में हाजिरी लगाते थे. वजह, राजा राजप्रताप सिंह उन्हें कीमती तोहफे देते रहते थे.

अफसर भी राजमहल में अपनी हाजिरी लगाने के लिए ऐसे ही उतावले रहते थे, जैसे नईनवेली दुलहन अपने पिया के पास जाने के लिए बेताब रहती है.

ऐसे राजघरानों को कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि देश में राजशाही का खात्मा हो गया है और अब लोकशाही का दौर है. वे राजशाही में तो राजा थे ही, लेकिन लोकशाही में भी उन का वजूद राजा से कम नहीं था.

सभी राजा राजप्रताप सिंह को ‘राजा साहब’ और उन के 23 साल के बेटे सूर्यप्रताप को ‘कुंवरजी’ कह कर पुकारते थे.

राजा राजप्रताप सिंह की सुनसान जंगल में एक हवेली थी, जिसे ‘काली कोठी’ के नाम से जाना जाता था. वहां पर सभी तरह की काली करतूतों को अंजाम दिया जाता था. इस कोठी पर राजा राजप्रताप सिंह के कुछ विश्वासपात्र मुस्टंडे तैनात थे. इन में भी दिलावर और शौकीन खास थे.

काली कोठी की रातें हमेशा रंगीन हुआ करती थीं. विदेशी शराब से ले कर विदेशी हसीनाएं यहां बड़े लोगों को बड़ी शिद्दत के साथ परोसी जाती थीं.

इसी काली कोठी के पास एक बड़ी झाल थी और इस झाल में राजा राजप्रताप सिंह ने खतरनाक मगरमच्छ पाल रखे थे. अगर कोई राजा राजप्रताप सिंह के इलाके में उन के खिलाफ बोलने लगता था या फिर उन के गहरे राज जान जाता था, तो उस आदमी को ठिकाने कैसे लगाना है, इस के लिए राजा राजप्रताप सिंह के कारिंदों को बस इशारा भर चाहिए होता था.

हां, कुछ खतरनाक विरोधियों को झाल के मगरमच्छों के हवाले भी कर दिया जाता था, जिस से उन की लाश भी नहीं मिलती थी. ऐसे केस कम होते थे.

एक तरह से काली कोठी राजा राजप्रताप सिंह का हरम था. वहां वेश्याओं को पाला जाता था. सब को इस की जानकारी थी, लेकिन किसी की क्या मजाल, जो काली कोठी पर उंगली भी उठा दे. लेकिन कभीकभी एक छोटी सी चिनगारी भी बड़े जंगल को खाक कर देती है.

राजो अपनी मां विमला के साथ बचपन से ही इस काली कोठी पर आती रहती थी. वह इस के चप्पेचप्पे से वाकिफ थी. सब जानते थे कि राजो के बाप कलवा ने अपनी नईनवेली दुलहन विमला को काली कोठी पर भेजने से मना कर दिया था.

राजा राजप्रताप सिंह में उस समय जवानी का जोश था, नाफरमानी उन्हें पसंद नहीं थी.

इस नाफरमानी पर कलवा को झाल में मगरमच्छों के सामने फिंकवा दिया था. उस की लाश कभी नहीं मिली. वह पुलिस की फाइलों में आज भी लापता है. लेकिन सब जानते थे कि कलवा के साथ क्या हुआ था.

विमला राजो को हमेशा उस के बाप के बारे में बताती आई थी, ‘‘राजो, तेरा बापू झूले में गिर गया था और ?ाल के मगरमच्छों ने उसे अपना निवाला बना लिया था. उस समय तू मेरे पेट में थी. तब ‘राजा साहब’ ने ही मु?ो सहारा दिया था और काली कोठी की रसोई में मुझे काम पर लगाया था.’’

लेकिन विमला ने राजो से वह सच छिपा लिया था कि कलवा के मरने के बाद उस के साथ काली कोठी पर

क्या हुआ था. काली कोठी के हरम में राजा राजप्रताप सिंह की प्यास बुझाने के साथ उस ने कितनों की प्यास बुझाई थी और अब भी 37 साल की विमला को कभी भी काली कोठी बुला लिया जाता है.

अब राजो भी 17 साल की हो गई थी और ‘राजा साहब’ को बता दिया गया था कि उन के चखने के लिए एक कली तैयार हो रही है.

लेकिन, जैसा बाप वैसा ही बेटा भी. राजा राजप्रताप सिंह का बेटा कुंवर सूर्यप्रताप भरी जवानी में था. वह तो ऐसे मामलों में अपने बाप से भी एक कदम आगे था. उस की उम्र के हिसाब से उसे तकरीबन हर रात शराब और शबाब दोनों चाहिए होता था. वह कुछ नए खयालों का था और अपना ज्यादातर समय वह  अलगअलग शहरों में बने अपने बंगलों में गुजारता था.

कुंवर सूर्यप्रताप गोरी चमड़ी का गुलाम था और विदेशी औरतें उसे ज्यादा लुभाती थीं. रूसी औरतों का तो वह रसिया था और वे उसे आसानी से मिल भी जाती थीं.

राजो खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन जवानी की दहलीज पर हर लड़की हवस के भेडि़यों को हूर की परी ही नजर आती है. उस ने अपनी मां को सजधज कर वक्तबेवक्त काली कोठी जाते देखा था.

मां से पूछने पर उसे हमेशा यही जवाब मिलता था, ‘‘राजो, महल या काली कोठी पर सजधज कर ही जाना पड़ता है, नहीं तो ‘राजा साहब’ नाराज हो जाते हैं.’’

लेकिन अब राजो कोई छोटी बच्ची तो रह नहीं गई थी. वह इन सब बातों को खूब समझती थी और अब वह मां को रात को कहीं भी जाने से रोकती थी.

इस बात से तंग आ कर एक दिन विमला ने राजा राजप्रताप सिंह से हाथ जोड़ कर गुजारिश की, ‘‘राजा साहब, अब मुझे बख्श दो. मेरी बेटी राजो बड़ी हो गई है. अब वह रात को मुझे कहीं भी जाने से रोकती है.’’

यह सुन कर राजा राजप्रताप सिंह चहक उठे. उन्होंने सिगरेट का धुआं विमला के चेहरे पर उड़ाते हुए कहा, ‘‘वाह विमला वाह, तुम ने तो बड़ी अच्छी खुशखबरी सुनाई. तुम्हारे घर में घोड़ी जवान हो रही है और हम बूढ़ी होती घोड़ी की ही सवारी किए जा रहे हैं. आगे से तुम अपनी जगह उसे भेज दिया करना.’’

यह सुन कर विमला के तनबदन में आग लग गई. इस समय उस के हाथ में दरांती होती, तो वह राजा राजप्रताप सिंह के सीने में घोंप देती, लेकिन वह उन के स्वभाव को अच्छे से जानती थी. वह अपने पति को तो बहुत पहले खो चुकी थी, अब उस ने जरा सी भी गलती की तो बेटी को खोने का भी पूरा डर था और वह राजो को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी. वह तो जी ही उस के लिए रही थी.

विमला संभल कर बोली, ‘‘अभी मेरी बेटी इतनी भी बड़ी नहीं हुई है कि वह आप को खुश कर सके. जैसे भी होगा, अभी तो मैं ही आप की सेवा में आती रहूंगी,’’ कह कर विमला राजा राजप्रताप सिंह के कमरे से बाहर आ गई.

विमला राजा राजप्रताप सिंह का न तो मुकाबला कर सकती है और न ही कुछ बोल सकती है. उस की रूह यह याद कर के ही कांप गई कि कैसे उस के आदमी कलवा को राजा राजप्रताप सिंह ने मगरमच्छों के सामने झल में फेंक दिया था.

उस दिन से विमला बहुत निराश और परेशान रहने लगी. अपनी मां की यह हालत देख कर राजो ने पूछा, ‘‘मां, क्या बात है? तुम आजकल इतनी परेशान क्यों रहती हो?’’

बेटी के मुंह से ये शब्द सुनते ही विमला फफकफफक कर रो पड़ी, फिर उस ने राजो को सारी बात बता दी.

‘‘इस का मतलब यह है कि मां, यह मेरे पिता का हत्यारा है और तुम सजधज कर उस के पास जाती हो…’’

‘‘बेटी, मैं क्या करती? तू मेरे पेट में थी. मैं तुझे बचाना चाहती थी. लेकिन, जब कोई औरत एक बार इस दलदल में गिर जाती है, तो उस का बाहर आना नामुमकिन सा हो जाता है. समाज उसे स्वीकार नहीं करता. मैं तब भी मजबूर थी और अब भी…’’

‘‘नहीं मां, हम ने अपनी कमजोरी को मजबूरी बना रखा है, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा.’’

राजो के तेवर देख कर विमला डर गई. वह तो सोचती थी कि पूरी कहानी सुन कर राजो डर जाएगी, लेकिन राजो तो पूरा लाल अंगारा बन गई थी.

‘‘मां देखना कि कैसे मैं राजप्रताप सिंह से अपने पिता की हत्या का बदला लेती हूं. और मां, तुम तो मजबूरी के चलते कुछ न कर सकीं, लेकिन मैं तुम्हारी बेइज्जती का बदला लूंगी. वह होगा राजा अपने घर का, लेकिन मेरी जूती की नोक पर.’’

‘‘शांत हो जा राजो, शांत हो जा. दीवारों के भी कान होते हैं. मुझे तुझे ये सब बातें नहीं बतानी चाहिए थीं.’’

‘‘मां, अगर तुम मुझे ये सब बातें नहीं बतातीं, तो मैं भी एक दिन तुम्हारी तरह काली कोठी पहुंच जाती और सारी जिंदगी के लिए उसी दलदल में फंस जाती. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. देखना, अब मैं क्या करती हूं.’’

राजो की बातें सुन कर विमला के अंदर डर और हिम्मत की भावना एकसाथ जागी. उसे लगा कि अगर इस समय राजा राजप्रताप सिंह उस के सामने होता, तो अपने पति की हत्या का बदला लेने के लिए वह अभी दरांती से उस का गला उड़ा देती. वह सोचने लगी कि उस के अंदर यह हिम्मत अभी तक क्यों नहीं आई थी?

आज की रात मांबेटी के लिए तूफानी रात थी. बाहर सन्नाटा पसरा हुआ था, लेकिन विमला और राजो के मन में तूफान उमड़घुमड़ रहा था.

कुछ दिन बाद कुंवर सूर्यप्रताप शिमला से जटपुर के महल में अपना जन्मदिन मनाने के लिए आया. शाम को वह काली कोठी पहुंच गया और दिलावर से बोला, ‘‘दिलावर, मेरे जन्मदिन पर क्या गिफ्ट दे रहे हो?’’

‘‘आप आदेश तो कीजिए…’’ कुंवर सूर्यप्रताप की मंशा भांपते हुए दिलावर ने कहा.

‘‘आज हमारा जन्मदिन है तो उपहार भी कुछ स्पैशल ही होना चाहिए,’’ कुंवर सूर्यप्रताप ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘बिलकुल कुंवरजी, आप चिंता न करें,’’ दिलावर ने राजो को अपने ध्यान में लाते हुए कहा.

कुंवर सूर्यप्रताप सिंह इन बातों को खूब समझता था. दिलावर को सब बता दिया गया कि उपहार किस समय पेश करना है.

दिलावर रात के अंधेरे में अपने साथियों के साथ जीप में बैठ कर विमला के घर गया. वह तो यह सोच रहा था कि विमला से बात कर के ही आसानी से सब काम बन जाएगा, लेकिन आज तो विमला का दूसरा ही रूप था.

दिलावर के इरादे जान कर विमला दरांती ले कर उस पर ?ापटी. लेकिन इस से पहले कि वह उस पर वार करती, दिलावर के साथ आए शौकीन ने विमला के सिर पर लाठी का वार कर दिया. इस से विमला नीचे गिर पड़ी.

राजो अपनी मां की मदद के लिए आई, तो दिलावर के आदमियों ने उसे पकड़ लिया. शिकारियों को शिकार मिल चुका था. वे बेसुध विमला को वहीं छोड़ कर राजो को उठा ले गए. रात के अंधेरे में दिलावर ने जीप काली कोठी की ओर दौड़ा दी.

राजो ने होशियारी से काम लिया. वह यह बात जान गई थी कि ताकत दिखाने और विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला. उस ने कहा, ‘‘दिलावर चाचा, हमारा तो पेशा ही यही है. पहले मां करती थीं, अब मुझे करना है. फिर इतनी जोरजबरदस्ती भी क्यों?’’

दिलावर को यकीन ही नहीं था कि राजो इतनी आसानी से मान जाएगी. उस ने कहा, ‘‘हम ने कहां जोरजबरदस्ती की राजो, तुम ने देखा नहीं कि तुम्हारी मां कैसे मेरी तरफ दरांती ले कर दौड़ी थी?’’

‘‘दिलावर चाचा, बुरा मत मानना. तुम्हारी बेटी के साथ अगर ऐसा ही होता तो तुम क्या करते?’’

‘‘मैं तो उसे गोली से उड़ा देता,’’ दिलावर ने राजो की बात सुनते ही गुस्से में कहा.

‘‘तो फिर मेरी मां ने क्या गलत किया चाचा? अपनी बेटी के लिए इतना गुस्सा और दूसरों की बेटियों को कोठे पर ले जाने में जरा भी शर्म नहीं.’’

यह सुन कर दिलावर का चेहरा फक पड़ गया.

इस पर राजो ने कहा, ‘‘छोड़ो चाचा, इन सब बातों को और अब यह बताओ कि मुझे क्या करना है?’’

दिलावर ने राजो को सारी बातें समझ दीं और राजो को मेकअप करने के लिए काली कोठी के मेकअप रूम में भेज दिया. वहां उसे तैयार करने के लिए एक औरत पहले से ही थी. उस ने राजो को दुलहन की तरह सजाया और पहनने के लिए एक झना सा गुलाबी नाइट गाउन दिया.

तब तक कुंवर सूर्यप्रताप नशे में चूर हो चुका था. राजो को देख कर वह उतावला हो गया, लेकिन तभी राजो ने डरने का नाटक करते हुए कांपते हुए कहा, ‘‘कुंवरजी, हमें तो घबराहट हो रही है. हम ने ऐसा काम पहले कभी नहीं किया है.’’

‘‘ओह, इन नई लड़कियों के साथ यही परेशानी होती है. पहले इन्हें तैयार करना पड़ता है, नहीं तो सारा मूड खराब कर देती हैं.’’

इसी बीच राजो ने सोच लिया था कि उसे क्या करना है. उस की नजर कांच की बोतलों पर थी. उस ने मन बना लिया था कि कुंवर के नंगा होते ही वह एक बोतल को तोड़ कर उसे उस के पेट में घुसेड़ देगी और माचिस से आग लगा कर यहां से भाग जाएगी.

लेकिन तभी कुंवर सूर्यप्रताप ने कहा, ‘‘राजो, 10 मिनट मेरे साथ झील के किनारे घूमो, तुम्हारा सारा डर छूमंतर हो जाएगा.’’

‘‘जैसी आप की मरजी, हम आज आप को अपनी जिंदगी की सब से बेशकीमती चीज सौंपने जा रहे हैं. हमारा डर दूर करना आप की जिम्मेदारी है.’’

‘‘ओह, तुम तो बातें भी बहुत बनाती हो. आओ, झील के किनारे घूमने में तुम्हारे साथ खूब मजा आएगा,’’ कुंवर सूर्यप्रताप ने राजो के गले में हाथ डालते हुए कहा.

काली कोठी से नीचे उतरते ही जब वे दोनों किसी प्रेमी जोड़े की तरह आगे बढ़े, तो दिलावर और शौकीन कुंवर सूर्यप्रताप की सुरक्षा के लिए उन के पीछे चले. तभी राजो ने कहा, ‘‘कुंवरजी, ये कबाब में 2-2 हड्डी…’’

राजो का इशारा सम?ाते ही कुंवर सूर्यप्रताप ने दिलावर और शौकीन को वहीं रुकने के लिए कहा. फिर कुंवर सूर्यप्रताप और राजो एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले झील के किनारे पहुंच गए.

माहौल पूरा रूमानी था. कुंवर के पैर नशे में लड़खड़ा रहे थे और जबान फिसल रही थी.

‘‘राजो, मन तो मेरा भी यह कर रहा है कि इसी रूमानी माहौल में सबकुछ कर डालें.’’

‘‘कुंवरजी, अभी इतनी जल्दी भी क्या है?’’ राजो ने कहा.

झील के गहरे पानी को देख राजो का मन बदलने लगा. उसे अपने पिता की याद आ गई, जिन्हें कुंवर के पिता राजप्रताप सिंह ने इसी झील में मगरमच्छों के सामने फिंकवा दिया था. राजो के मन में आया कि क्यों न कुंवर सूर्यप्रताप का भी वही अंजाम किया जाए, जो उस के पिता के साथ हुआ था. इस से बेहतरीन बदला तो कोई और हो नहीं सकता.

यही सोच कर राजो कुंवर सूर्यप्रताप को बिलकुल झील के किनारे ले गई और मौका पाते ही पिछवाड़े पर लात मार कर उसे झील में मगरमच्छों के हवाले कर दिया. ‘छपाक’ की आवाज के साथ ही मगरमच्छ कुंवर सूर्यप्रताप पर टूट पड़े.

राजो ने अपने पिता की मौत का बदला ले लिया था. अब उसे अपनी मां की बेइज्जती का बदला लेना था.

राजो चिल्लाते हुए काली कोठी की ओर दौड़ी, ‘‘कुंवरजी झील में गिर गए, कुंवरजी झील में गिर गए…’’

राजो की आवाज सुन कर दिलावर और शौकीन समेत काली कोठी का पहरेदार और दूसरे लोग भी झील की तरफ दौड़े, लेकिन राजो अपने इरादों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए काली कोठी के अंदर गई. उस ने अपना नाइट गाउन उतार फेंका और अपने कपड़े पहने.

राजो काली कोठी के रसोईघर में गई, गैस को औन किया, माचिस की जलती तीली फेंकी. ‘भक’ से आग लगी और राजो वहां से चलती बनी. उस ने उस बदनाम काली कोठी को ही आग के हवाले कर दिया था, जहां आएदिन उस की मां की अस्मत को रौंदा जाता था.

काली कोठी ‘धूंधूं’ कर जलने लगी. झील पर पहुंचे कारिंदे अब काली कोठी की ओर दौड़े, लेकिन सिलैंडर फटने के तेज धमाकों ने उन के कदम पीछे ही रोक दिए.

तब तक विमला भी होश में आ चुकी थी. काली कोठी से उठती आग की लपटें देख वह समझ गई कि उस की बहादुर बेटी ने अपने इरादों को अंजाम तक पहुंचा दिया है.

कुंवर सूर्यप्रताप के खात्मे के साथ ही राजा राजप्रताप सिंह के वंश का आखिरी चिराग बुझ गया.

राजा राजप्रताप सिंह इस सदमे को बरदाश्त न कर सके. पागलपन के एक दौरे में 3 दिन बाद उन्होंने उसी

झील में कूद कर खुदकुशी कर ली. वे अपने ही पाले हुए मगरमच्छों का शिकार बन गए.

राजो 17 साल की नाबालिग थी. उस का मामला जुवैनाइल कोर्ट में चला. उस के खिलाफ कोई सुबूत तो नहीं था, लेकिन रसूखदार की जड़ें उखाड़ने की सजा तो उसे मिलनी ही थी.

शातिर वकीलों की फौज ने जैसेतैसे उसे काली कोठी को आग लगाने के इलजाम में फंसा दिया. उसे 3 साल के लिए बाल सुधारगृह भेज दिया गया, जहां राजो ने सिलाईकढ़ाई, पढ़ाई के साथसाथ कंप्यूटर चलाना भी सीख लिया.

जेल से छूटने के समय तक राजो इस काबिल बन गई थी कि वह अपना और अपनी मां का पेट आसानी से पाल सकती थी.

News Kahani: हवस और हैवानियत

‘‘अ री ओ गीता, उठ जा बेटी. आज स्कूल नहीं जाना है क्या? देख, दिन चढ़ आया है,’’ अपनी मां की आवाज सुनते ही गीता मानो सिहर कर उठ बैठी. जैसे उस ने कोई बुरा सपना देखा था. वह पसीने से तरबतर थी.

14 साल की गीता 8वीं जमात में पढ़ती थी. वह उम्र से पहले ही बड़ी दिखने लगी थी. शरीर ऐसे भर गया था मानो 18 साल की हो. कपड़े छोटे होने लगे थे और नाजुक अंग बड़े.

गीता अपने मातपिता और एक छोटे भाई के साथ राजस्थान के पाली जिले के एक गांव में रहती थी. वह और उस का छोटा भाई रवि सरकारी स्कूल में पढ़ते थे.

रवि 5वीं क्लास में था, पर था बड़ा होशियार. वह अपनी उम्र से ज्यादा बड़ी और समझदारी की बातें करता था और अपनी बहन से बहुत ज्यादा प्यार करता था.

गीता के पड़ोस में एक किराने की दुकान थी, जिसे रमेश नाम का अधेड़ आदमी चलाता था. उस की बीवी को मरे 5 साल हो गए थे. उस की कोई औलाद नहीं थी.

दिन में तो रमेश का अपनी दुकान में समय कट जाता था, पर रात को बिस्तर और अकेलापन उसे काटने को दौड़ता था. वह औरत के जिस्म की चाह में मरा जा रहा था.

रमेश को जब भी किसी औरत की चाह होती थी, तो उस का मुंह सूखने लगता था. वह दाएं हाथ से अपनी बाईं कांख खुजलाने लगता था, पर चूंकि उस की अपने महल्ले में अच्छी इमेज बनी हुई थी, तो वह मौके की तलाश में घात लगा कर बैठा रहता था.

पिछले हफ्ते की ही बात है. गीता रमेश चाचा की दुकान से नमक लेने गई थी. उस ने तंग सूट पहना हुआ था, जो एक साइड से उधड़ा हुआ था. उस का एक उभार वहां से ?ांक रहा था.

‘‘चाचा, जल्दी से नमक देना. मां ने सब्जी गैस पर चढ़ा रखी है,’’ गीता ने रमेश को पैसे देते हुए कहा.

वैसे तो रमेश के मन में तब तक कोई घटियापन सवार नहीं था, पर गीता के झांकते उभार ने उस की मर्दानगी को जगा दिया.

अब रमेश को गीता में भरीपूरी औरत नजर आने लगी. वह उसे बिस्तर पर ले जाने को उतावला हो गया. उस का मुंह सूखने लगा और वह अपने दाएं हाथ से बाईं कांख खुजलाने लगा.

‘‘अरे चाचा, जल्दी से नमक दो न,’’ गीता ने दोबारा कहा, तो रमेश अपनी फैंटेसी से जागा. उस ने हड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘जा, भीतर से नमक की थैली ले ले. वहां चौकलेट का एक डब्बा भी रखा है. उस में से एक चौकलेट ले लेना.’’

यह सुन कर गीता खुश हो गई और भाग कर भीतर चली गई. तब गली सुनसान थी. रमेश भी दबे पैर गीता के पीछे चला गया और बहाने से उसे छूने लगा.

पहले तो गीता को ज्यादा पता नहीं चला, पर जब उसे लगा कि चाचा उसे अब गलत तरीके से छू रहे हैं, तो वह सावधान हो गई और नमक की थैली उठा कर अपने घर भाग गई.

तब से गीता को रोज रात को सपने में रमेश चाचा की वह गंदी छुअन दिखाई देती थी और वह गुमसुम सी रहने लगी थी.

आज सुबह जब मां ने गीता को स्कूल जाने के लिए उठाया, तो उस का मन किया कि घर पर ही रहे, पर अपने भाई रवि के जोर देने पर वह स्कूल जाने के लिए तैयार हो गई.

गीता इतना ज्यादा घबराई हुई थी कि उस ने रमेश की किराने की दुकान की तरफ देखा भी नहीं.

‘‘दीदी, आज आप ने मुझे टौफी नहीं दिलाई,’’ रवि ने शिकायत की.

‘‘आज के बाद तुझे कोई टौफी नहीं मिलेगी,’’ गीता ने आंखें दिखाते हुए बात बदलनी चाही.

‘‘क्या हुआ दीदी? आप टौफी के नाम पर बिदक क्यों गईं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, जल्दी चल, नहीं तो स्कूल में लेट हो जाएगा,’’ गीता ने कहा.

रवि समझ गया था कि दाल में कुछ काला है. लंच टाइम में जब वे दोनों खाना खा रहे थे, तब रवि ने पूछा, ‘‘दीदी, बात क्या है? देखो, अगर मन में कोई बात है, तो मुझे बता दो. मेरे पास हर समस्या का हल है.’’

‘‘अच्छा, मेरे छोटे बहादुर भाई.

क्या तू हर समस्या का हल निकाल सकता है?’’

‘‘और नहीं तो क्या. रवि के पास हर मर्ज की दवा है,’’ रवि बोला.

‘‘भाई, पता नहीं क्यों, मुझे रमेश चाचा अब अच्छे नहीं लगते हैं. जिस दिन मैं नमक लेने गई थी, वे मुझे गलत ढंग से छू रहे थे. मैं डर गई थी. मां से कहने की हिम्मत नहीं हुई.’’

रवि छोटा जरूर था, पर उसे गुड टच और बैड टच की समझ थी. वह जान गया था कि रमेश चाचा की गंदी नजर उस की बहन पर है, पर कोई उन की बात को समझ नहीं पाएगा या समाज का डर दिखा कर गीता को चुप करा दिया जाएगा.

पर रवि चुप रहने वालों में से नहीं था. वह समझ गया कि रमेश चाचा की नीयत सही नहीं है. तभी उसे अपनी क्लास में पढ़ने वाली माया की याद आई. माया ने बताया था कि उस के चाचा मनोज पुलिस में सिपाही हैं.

रवि उसी शाम को माया के घर जा पहुंचा. मनोज चाचा भी उस समय घर पर ही थे. रवि ने अकेले में मनोज चाचा को सारी बात बताई.

मनोज को सम?ा आ गया कि गीता किस तनाव से गुजर रही है. वह रमेश किराने वाले को रंगे हाथ पकड़ना चाहता था, ताकि किसी तरह की गलतफहमी न रहे.

अगले दिन शाम को मनोज और रवि ने गीता से अकेले में बात की. पहले तो गीता सब बताने से डर रही थी, पर मनोज के समझाने पर उस ने नमक वाली घटना बता दी.

इस के बाद मनोज सादा कपड़ों में रमेश पर निगरानी रखने लगा. रमेश की हरकतें सही नहीं थीं. वह हर आतीजाती औरत और लड़की को ताड़ता था. उन के उभारों को देख कर उस की नजरों में अलग सी चमक आ जाती थी.

एक दिन मनोज ने गीता से कहा, ‘‘गीता, कल दिन में तुम फिर से रमेश की दुकान पर जाना और अगर वह तुम्हें भीतर बुलाए, तो चली जाना. मैं थोड़ी ही देर में वहां आ जाऊंगा और उसे सबक सिखा दूंगा.’’

गीता ने पहले तो नानुकर की, पर उसे मनोज चाचा पर पूरा भरोसा था, तो बाद में मान गई.

अगले दिन जब गली सुनसान थी, तब गीता रमेश की दुकान पर गई.

‘‘बड़े दिनों के बाद आई हो. क्या हुआ?’’ रमेश ने गीता को गंदी नजरों से घूरते हुए पूछा.

‘‘अरे चाचा, उस दिन मैं चौकलेट लेना भूल गई थी. आज दे दो.’’

रमेश का मुंह सूखने लगा और वह अपने दाएं हाथ से बाईं कांख खुजलाने लगा. उस की हवस जाग गई थी. उस ने कहा, ‘‘जा, भीतर जा कर ले ले.’’

गीता ने बाहर की तरफ देखा. दूर मनोज चाचा खड़े थे. वह हिम्मत दिखा कर भीतर चली गई. उस के पीछेपीछे रमेश भी हो लिया.

गीता को पता था कि रमेश जरूर कुछ करेगा, तो वह सावधान थी. तभी रमेश ने बहाने से गीता के कूल्हे पर हाथ फिराया, तो गीता सहम गई.

पर रमेश तो अब सरकारी सांड़ बन गया था. उस ने गीता को तकरीबन दबोच लिया और उसे बोरी पर गिरा दिया और बोला, ‘‘बस, थोड़ा सा मजा करने दे, मैं तुझे 5 चौकलेट दूंगा.’’

गीता को लगा कि अगर मनोज चाचा नहीं आए, तो यह दरिंदा उसे रौंद देगा. पर तभी मनोज चाचा वहां आ गए और उन्होंने बिना देरी किए रमेश को धर दबोचा. रमेश को सपने में भी गुमान नहीं था कि उस की हवस का यह नतीजा निकलेगा.

थोड़ी देर में रमेश हवालात में था. वहां इंस्पैक्टर दीपक रावत ने जब यह पूरा किस्सा सुना, तो वे हैरान रह गए. उन्होंने रमेश से कहा कि अब उस की खैर नहीं, फिर मनोज की चतुराई पर उसे बधाई दी.

पर, मनोज का मन अभी भी गीता के साथ हुई इस हरकत से दुखी था. इंस्पैक्टर दीपक रावत ने इस की वजह पूछी.

सिपाही मनोज ने कहा, ‘‘अरे साहब, किसकिस पर नजर रखें, यहां तो हर घर की रखवाली चोर को दे रखी है.’’

‘‘मैं समझ नहीं. साफसाफ कहो कि माजरा क्या है? क्या कोई और भी कांड हुआ है?’’ इंस्पैक्टर दीपक रावत ने पूछा.

‘‘साहब, एक मामला हाल ही का है. गुजरात का. वहां एक 6 साल की मासूम छात्रा ने यौन शोषण कर रहे प्रिंसिपल को रोकने की कोशिश की, तो उस की जान ले ली गई.

‘‘यह कांड दाहोद जिले का है. उस इलाके के पुलिस सुपरिंटैंडैंट राजदीप सिंह जाला ने बताया कि जब छात्रा ने खुद को बचाने की कोशिश की, तो उस प्रिंसिपल गोविंद नट ने उस का गला घोंट दिया.

‘‘साहब सोचिए कि 50 साल का एक बूढ़ा महज 6 साल की लड़की में सैक्स ढूंढ़ रहा था और जब हवस

नहीं मिटी, तो उस की हत्या कर दी,’’ सिपाही मनोज ने अपनी मुट्ठियां भींचते हुए कहा.

‘‘मुझे पूरा मामला तफसील से बताओ मनोज.’’

‘‘साहब, पुलिस वालों ने रविवार,

22 सितंबर, 2024 को यह जानकारी दी थी. पुलिस के एक अफसर ने बताया कि बृहस्पतिवार, 19 सितंबर को सिंगवाड़ तालुका के एक गांव में स्कूल परिसर के अंदर बच्ची की लाश मिलने के बाद जांच शुरू की गई थी.

‘‘पुलिस सुपरिंटैंडैंट राजदीप सिंह जाला ने मीडिया को बताया कि बृहस्पतिवार को सुबह 10 बज कर

20 मिनट पर प्रिंसिपल अपनी कार से वहां से गुजर रहे थे. उन्होंने बच्ची की मां के कहने पर उसे अपनी गाड़ी में स्कूल ले जाने के लिए हां की, जबकि छात्राओं और टीचरों ने पुलिस को बताया कि बच्ची उस दिन स्कूल नहीं पहुंची थी.

‘‘पूछताछ के दौरान प्रिंसिपल ने शुरू में इस बात पर जोर दिया कि उस ने अपनी कार में छात्रा को बिठाने के बाद उसे स्कूल में छोड़ा था. हालांकि, बाद में उस ने बच्ची की हत्या करने की बात कबूल कर ली.

‘‘स्कूल के रास्ते में प्रिंसिपल ने छात्रा का यौन उत्पीड़न करने की कोशिश की, लेकिन उस के चिल्लाने पर उस ने (प्रिंसिपल) बच्ची का मुंह और नाक दबा दी, जिस से वह बेहोश हो गई.

‘‘प्रिंसिपल स्कूल पहुंचा और अपनी कार पार्क की, जिस में बच्ची की लाश थी. शाम के 5 बजे उस ने लाश

को बाहर निकाला और स्कूल की इमारत के पीछे फेंक दिया. इस के बाद उस ने छात्रा का स्कूल बैग और चप्पलें उस की क्लास में रख दीं.

‘‘पुलिस ने बताया कि बच्ची की लाश मिलने के एक दिन बाद पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि उस की मौत

गला घोंटने से हुई है. बच्ची जब स्कूल का समय खत्म हो जाने के बाद घर

नहीं लौटी, तो उस के मातापिता और रिश्तेदारों ने उस की तलाश शुरू की और उसे स्कूल की इमारत के पीछे के परिसर में बेहोशी की हालत में पड़ा पाया. उन्होंने बताया कि बच्ची को लिमखेड़ा सिविल अस्पताल ले जाया गया, जहां डाक्टरों ने उसे मरा हुआ बता दिया.’’

इंस्पैक्टर दीपक रावत ने पूछा, ‘‘पुलिस को प्रिंसिपल पर शक कैसे हुआ?’’

‘‘दरअसल, प्रिंसिपल ने पुलिस को बताया था कि वह शाम 5 बजे स्कूल से निकला था, लेकिन उस की फोन लोकेशन से पता चला कि वह शाम के 6 बज कर 10 मिनट तक स्कूल में था. पुलिस ने कहा कि स्कूल के किसी भी बच्चे ने लड़की को प्रिंसिपल की कार से उतरते नहीं देखा था. उस के साथ पढ़ने वाले बच्चों ने भी कहा कि वह उस दिन क्लास में नहीं आई थी.’’

‘‘मनोज, मैं तुम्हारा गुस्सा और बेबसी समझ सकता हूं, पर कोई इनसान कितना गिरा हुआ है या उस के मन में क्या चल रहा है, इस का पता लगाने की कोई मशीन नहीं बनी है.

‘‘उस लड़की की मां को क्या पता था कि वह जिस आदमी के साथ अपनी लाड़ली को अकेले कार से भेज रही है, वही राक्षस निकलेगा.’’

‘‘सर, गीता तो बच गई, पर हमारे देश में न जाने कितने दरिंदे घूम रहे हैं, जो हवस के पुजारी हैं, पर उन के चेहरे पर अच्छे आदमी होने का मुखौटा लगा होता है. आप ने कहा कि ऐसी कोई मशीन नहीं बनी है, जो लोगों का मन

पढ़ सके, पर क्या यह हम लोगों की ही जिम्मेदारी नहीं बनती है कि अगर देश और समाज को बेहतर करना है, तो हमें अपनी भावनाओं पर कंट्रोल करना सीखना होगा.

‘‘अगर बच्चा किसी वजह से चुपचुप रहता है, जराजरा सी बात पर चिढ़ जाता है, पढ़ने पर ध्यान नहीं दे पा रहा है, तो उस से बात करनी चाहिए, उस की समस्या को ध्यान से सुन कर सुल?ाना चाहिए. शायद यही एक तरीका है अपने बच्चों को महफूज रखने का.’’

‘‘तुम सही कह रहे हो मनोज, पर यह मत भूलो कि आज तुम्हारी वजह से गीता की इज्जत पर दाग लगने से बचा है. तुम ने एक अच्छे इनसान और अपनी वरदी के प्रति वफादार होने का सुबूत दिया है. वैलडन. आगे भी ऐसे ही काम करते रहना,’’ इंस्पैक्टर दीपक रावत ने मनोज की पीठ थपथपाते हुए कहा.‘‘अ री ओ गीता, उठ जा बेटी. आज स्कूल नहीं जाना है क्या? देख, दिन चढ़ आया है,’’ अपनी मां की आवाज सुनते ही गीता मानो सिहर कर उठ बैठी. जैसे उस ने कोई बुरा सपना देखा था. वह पसीने से तरबतर थी.

14 साल की गीता 8वीं जमात में पढ़ती थी. वह उम्र से पहले ही बड़ी दिखने लगी थी. शरीर ऐसे भर गया था मानो 18 साल की हो. कपड़े छोटे होने लगे थे और नाजुक अंग बड़े.

गीता अपने मातपिता और एक छोटे भाई के साथ राजस्थान के पाली जिले

के एक गांव में रहती थी. वह और उस का छोटा भाई रवि सरकारी स्कूल में पढ़ते थे.

रवि 5वीं क्लास में था, पर था बड़ा होशियार. वह अपनी उम्र से ज्यादा बड़ी और समझादारी की बातें करता था और अपनी बहन से बहुत ज्यादा प्यार करता था.

गीता के पड़ोस में एक किराने की दुकान थी, जिसे रमेश नाम का अधेड़ आदमी चलाता था. उस की बीवी को मरे 5 साल हो गए थे. उस की कोई औलाद नहीं थी.

दिन में तो रमेश का अपनी दुकान में समय कट जाता था, पर रात को बिस्तर और अकेलापन उसे काटने को दौड़ता था. वह औरत के जिस्म की चाह में मरा जा रहा था.

रमेश को जब भी किसी औरत की चाह होती थी, तो उस का मुंह सूखने लगता था. वह दाएं हाथ से अपनी बाईं कांख खुजलाने लगता था, पर चूंकि उस की अपने महल्ले में अच्छी इमेज बनी हुई थी, तो वह मौके की तलाश में घात लगा कर बैठा रहता था.

पिछले हफ्ते की ही बात है. गीता रमेश चाचा की दुकान से नमक लेने गई थी. उस ने तंग सूट पहना हुआ था, जो एक साइड से उधड़ा हुआ था. उस का एक उभार वहां से झांक रहा था.

‘‘चाचा, जल्दी से नमक देना. मां ने सब्जी गैस पर चढ़ा रखी है,’’ गीता ने रमेश को पैसे देते हुए कहा.

वैसे तो रमेश के मन में तब तक कोई घटियापन सवार नहीं था, पर गीता के झांकते उभार ने उस की मर्दानगी को जगा दिया.

अब रमेश को गीता में भरीपूरी औरत नजर आने लगी. वह उसे बिस्तर पर ले जाने को उतावला हो गया. उस का मुंह सूखने लगा और वह अपने दाएं हाथ से बाईं कांख खुजलाने लगा.

‘‘अरे चाचा, जल्दी से नमक दो न,’’ गीता ने दोबारा कहा, तो रमेश अपनी फैंटेसी से जागा. उस ने हड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘जा, भीतर से नमक की थैली ले ले. वहां चौकलेट का एक डब्बा भी रखा है. उस में से एक चौकलेट ले लेना.’’

यह सुन कर गीता खुश हो गई और भाग कर भीतर चली गई. तब गली सुनसान थी. रमेश भी दबे पैर गीता के पीछे चला गया और बहाने से उसे छूने लगा.

पहले तो गीता को ज्यादा पता नहीं चला, पर जब उसे लगा कि चाचा उसे अब गलत तरीके से छू रहे हैं, तो वह सावधान हो गई और नमक की थैली उठा कर अपने घर भाग गई.

तब से गीता को रोज रात को सपने में रमेश चाचा की वह गंदी छुअन

दिखाई देती थी और वह गुमसुम सी रहने लगी थी.

आज सुबह जब मां ने गीता को स्कूल जाने के लिए उठाया, तो उस का मन किया कि घर पर ही रहे, पर अपने भाई रवि के जोर देने पर वह स्कूल जाने के लिए तैयार हो गई.

गीता इतना ज्यादा घबराई हुई थी कि उस ने रमेश की किराने की दुकान की तरफ देखा भी नहीं.

‘‘दीदी, आज आप ने मुझे टौफी नहीं दिलाई,’’ रवि ने शिकायत की.

‘‘आज के बाद तुझे कोई टौफी नहीं मिलेगी,’’ गीता ने आंखें दिखाते हुए बात बदलनी चाही.

‘‘क्या हुआ दीदी? आप टौफी के नाम पर बिदक क्यों गईं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, जल्दी चल, नहीं तो स्कूल में लेट हो जाएगा,’’ गीता ने कहा.

रवि समझ गया था कि दाल में कुछ काला है. लंच टाइम में जब वे दोनों खाना खा रहे थे, तब रवि ने पूछा, ‘‘दीदी, बात क्या है? देखो, अगर मन में कोई बात है, तो मुझे बता दो. मेरे पास हर समस्या का हल है.’’

‘‘अच्छा, मेरे छोटे बहादुर भाई.

क्या तू हर समस्या का हल निकाल सकता है?’’

‘‘और नहीं तो क्या. रवि के पास हर मर्ज की दवा है,’’ रवि बोला.

‘‘भाई, पता नहीं क्यों, मुझे रमेश चाचा अब अच्छे नहीं लगते हैं. जिस दिन मैं नमक लेने गई थी, वे मझे गलत ढंग से छू रहे थे. मैं डर गई थी. मां से कहने की हिम्मत नहीं हुई.’’

रवि छोटा जरूर था, पर उसे गुड टच और बैड टच की समझ थी. वह जान गया था कि रमेश चाचा की गंदी नजर उस की बहन पर है, पर कोई उन की बात को समझ नहीं पाएगा या समाज का डर दिखा कर गीता को चुप करा दिया जाएगा.

पर रवि चुप रहने वालों में से नहीं था. वह समझ गया कि रमेश चाचा की नीयत सही नहीं है. तभी उसे अपनी क्लास में पढ़ने वाली माया की याद आई. माया ने बताया था कि उस के चाचा मनोज पुलिस में सिपाही हैं.

रवि उसी शाम को माया के घर जा पहुंचा. मनोज चाचा भी उस समय घर पर ही थे. रवि ने अकेले में मनोज चाचा को सारी बात बताई.

मनोज को समझ आ गया कि गीता किस तनाव से गुजर रही है. वह रमेश किराने वाले को रंगे हाथ पकड़ना चाहता था, ताकि किसी तरह की गलतफहमी न रहे.

अगले दिन शाम को मनोज और रवि ने गीता से अकेले में बात की. पहले तो गीता सब बताने से डर रही थी, पर मनोज के सम?ाने पर उस ने नमक वाली घटना बता दी.

इस के बाद मनोज सादा कपड़ों में रमेश पर निगरानी रखने लगा. रमेश की हरकतें सही नहीं थीं. वह हर आतीजाती औरत और लड़की को ताड़ता था. उन के उभारों को देख कर उस की नजरों में अलग सी चमक आ जाती थी.

एक दिन मनोज ने गीता से कहा, ‘‘गीता, कल दिन में तुम फिर से रमेश की दुकान पर जाना और अगर वह तुम्हें भीतर बुलाए, तो चली जाना. मैं थोड़ी ही देर में वहां आ जाऊंगा और उसे सबक सिखा दूंगा.’’

गीता ने पहले तो नानुकर की, पर उसे मनोज चाचा पर पूरा भरोसा था, तो बाद में मान गई.

अगले दिन जब गली सुनसान थी, तब गीता रमेश की दुकान पर गई.

‘‘बड़े दिनों के बाद आई हो. क्या हुआ?’’ रमेश ने गीता को गंदी नजरों से घूरते हुए पूछा.

‘‘अरे चाचा, उस दिन मैं चौकलेट लेना भूल गई थी. आज दे दो.’’

रमेश का मुंह सूखने लगा और वह अपने दाएं हाथ से बाईं कांख खुजलाने लगा. उस की हवस जाग गई थी. उस ने कहा, ‘‘जा, भीतर जा कर ले ले.’’

गीता ने बाहर की तरफ देखा. दूर मनोज चाचा खड़े थे. वह हिम्मत दिखा कर भीतर चली गई. उस के पीछेपीछे रमेश भी हो लिया.

गीता को पता था कि रमेश जरूर कुछ करेगा, तो वह सावधान थी. तभी रमेश ने बहाने से गीता के कूल्हे पर हाथ फिराया, तो गीता सहम गई.

पर रमेश तो अब सरकारी सांड़ बन गया था. उस ने गीता को तकरीबन दबोच लिया और उसे बोरी पर गिरा दिया और बोला, ‘‘बस, थोड़ा सा मजा करने दे, मैं तुझे 5 चौकलेट दूंगा.’’

गीता को लगा कि अगर मनोज चाचा नहीं आए, तो यह दरिंदा उसे रौंद देगा. पर तभी मनोज चाचा वहां आ गए और उन्होंने बिना देरी किए रमेश को धर दबोचा.

रमेश को सपने में भी गुमान नहीं था कि उस की हवस का यह नतीजा निकलेगा.

थोड़ी देर में रमेश हवालात में था. वहां इंस्पैक्टर दीपक रावत ने जब यह पूरा किस्सा सुना, तो वे हैरान रह गए. उन्होंने रमेश से कहा कि अब उस की खैर नहीं, फिर मनोज की चतुराई पर उसे बधाई दी. पर, मनोज का मन अभी भी गीता के साथ हुई इस हरकत से दुखी था. इंस्पैक्टर दीपक रावत ने इस की वजह पूछी.

सिपाही मनोज ने कहा, ‘‘अरे साहब, किसकिस पर नजर रखें, यहां तो हर घर की रखवाली चोर को दे रखी है.’’

‘‘मैं समझ नहीं. साफसाफ कहो कि माजरा क्या है? क्या कोई और भी कांड हुआ है?’’ इंस्पैक्टर दीपक रावत ने पूछा.

‘‘साहब, एक मामला हाल ही का है. गुजरात का. वहां एक 6 साल की मासूम छात्रा ने यौन शोषण कर रहे प्रिंसिपल को रोकने की कोशिश की, तो उस की जान ले ली गई.

‘‘यह कांड दाहोद जिले का है. उस इलाके के पुलिस सुपरिंटैंडैंट राजदीप सिंह जाला ने बताया कि जब छात्रा ने खुद को बचाने की कोशिश की, तो उस प्रिंसिपल गोविंद नट ने उस का गला घोंट दिया.

‘‘साहब सोचिए कि 50 साल का एक बूढ़ा महज 6 साल की लड़की में सैक्स ढूंढ़ रहा था और जब हवस

नहीं मिटी, तो उस की हत्या कर दी,’’ सिपाही मनोज ने अपनी मुट्ठियां भींचते हुए कहा.

‘‘मुझे पूरा मामला तफसील से बताओ मनोज.’’

‘‘साहब, पुलिस वालों ने रविवार,

22 सितंबर, 2024 को यह जानकारी दी थी. पुलिस के एक अफसर ने बताया कि बृहस्पतिवार, 19 सितंबर को सिंगवाड़ तालुका के एक गांव में स्कूल परिसर के अंदर बच्ची की लाश मिलने के बाद जांच शुरू की गई थी.

‘‘पुलिस सुपरिंटैंडैंट राजदीप सिंह जाला ने मीडिया को बताया कि बृहस्पतिवार को सुबह 10 बज कर

20 मिनट पर प्रिंसिपल अपनी कार से वहां से गुजर रहे थे. उन्होंने बच्ची की मां के कहने पर उसे अपनी गाड़ी में स्कूल ले जाने के लिए हां की, जबकि छात्राओं और टीचरों ने पुलिस को बताया कि बच्ची उस दिन स्कूल नहीं पहुंची थी.

‘‘पूछताछ के दौरान प्रिंसिपल ने शुरू में इस बात पर जोर दिया कि उस ने अपनी कार में छात्रा को बिठाने के बाद उसे स्कूल में छोड़ा था. हालांकि, बाद में उस ने बच्ची की हत्या करने की बात कबूल कर ली.

‘‘स्कूल के रास्ते में प्रिंसिपल ने छात्रा का यौन उत्पीड़न करने की कोशिश

की, लेकिन उस के चिल्लाने पर उस ने (प्रिंसिपल) बच्ची का मुंह और नाक दबा दी, जिस से वह बेहोश हो गई.

‘‘प्रिंसिपल स्कूल पहुंचा और अपनी कार पार्क की, जिस में बच्ची की लाश थी. शाम के 5 बजे उस ने लाश

को बाहर निकाला और स्कूल की इमारत के पीछे फेंक दिया. इस के बाद उस ने छात्रा का स्कूल बैग और चप्पलें उस की क्लास में रख दीं.

‘‘पुलिस ने बताया कि बच्ची की लाश मिलने के एक दिन बाद पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि उस की मौत

गला घोंटने से हुई है. बच्ची जब स्कूल का समय खत्म हो जाने के बाद घर नहीं लौटी, तो उस के मातापिता और रिश्तेदारों ने उस की तलाश शुरू की और उसे स्कूल की इमारत के पीछे के परिसर में बेहोशी की हालत में पड़ा पाया. उन्होंने बताया कि बच्ची को लिमखेड़ा सिविल अस्पताल ले जाया गया, जहां डाक्टरों ने उसे मरा हुआ बता दिया.’’

इंस्पैक्टर दीपक रावत ने पूछा, ‘‘पुलिस को प्रिंसिपल पर शक कैसे हुआ?’’

‘‘दरअसल, प्रिंसिपल ने पुलिस को बताया था कि वह शाम 5 बजे स्कूल से निकला था, लेकिन उस की फोन लोकेशन से पता चला कि वह शाम के 6 बज कर 10 मिनट तक स्कूल में था. पुलिस ने कहा कि स्कूल के किसी भी बच्चे ने लड़की को प्रिंसिपल की कार से उतरते नहीं देखा था. उस के साथ पढ़ने वाले बच्चों ने भी कहा कि वह उस दिन क्लास में नहीं आई थी.’’

‘‘मनोज, मैं तुम्हारा गुस्सा और बेबसी समझ सकता हूं, पर कोई इनसान कितना गिरा हुआ है या उस के मन में क्या चल रहा है, इस का पता लगाने की कोई मशीन नहीं बनी है.

‘‘उस लड़की की मां को क्या पता था कि वह जिस आदमी के साथ अपनी लाड़ली को अकेले कार से भेज रही है, वही राक्षस निकलेगा.’’

‘‘सर, गीता तो बच गई, पर हमारे देश में न जाने कितने दरिंदे घूम रहे हैं, जो हवस के पुजारी हैं, पर उन के चेहरे पर अच्छे आदमी होने का मुखौटा लगा होता है. आप ने कहा कि ऐसी कोई मशीन नहीं बनी है, जो लोगों का मन

पढ़ सके, पर क्या यह हम लोगों की ही जिम्मेदारी नहीं बनती है कि अगर देश और समाज को बेहतर करना है, तो हमें अपनी भावनाओं पर कंट्रोल करना सीखना होगा.

‘‘अगर बच्चा किसी वजह से चुपचुप रहता है, जराजरा सी बात पर चिढ़ जाता है, पढ़ने पर ध्यान नहीं दे पा रहा है, तो उस से बात करनी चाहिए, उस की समस्या को ध्यान से सुन कर सुल?ाना चाहिए. शायद यही एक तरीका है अपने बच्चों को महफूज रखने का.’’

‘‘तुम सही कह रहे हो मनोज, पर यह मत भूलो कि आज तुम्हारी वजह से गीता की इज्जत पर दाग लगने से बचा है. तुम ने एक अच्छे इनसान और अपनी वरदी के प्रति वफादार होने का सुबूत दिया है. वैलडन. आगे भी ऐसे ही काम करते रहना,’’ इंस्पैक्टर दीपक रावत ने मनोज की पीठ थपथपाते हुए कहा.

वचन हुआ पूरा : क्यों भड़की थी रामकली

‘‘दे खोजी, मैं साहब के यहां बरतन मांजने नहीं जाऊंगी,’’ रामकली अपनी भड़ास निकालते हुए जरा गुस्से से बोली.

‘‘क्यों नहीं जाएगी तू वहां?’’ जगदीश ने सवाल किया.

‘‘बस, कह दिया मैं ने कि नहीं जाऊंगी तो नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मगर, क्यों नहीं जाएगी?’’ जगदीश जरा नाराज हो कर बोला.

‘उन साहब की नीयत जरा भी अच्छी नहीं है.’’

‘‘तू नहीं जाएगी तो साहब मुझे परमानैंट नहीं करेंगे…’’ इस समय जगदीश की आंखों में गुजारिश थी. पलभर बाद वह दोबारा बोला, ‘‘देख रामकली, जब तक ये साहब हैं, तू काम छोड़ने की मत सोच. साहब मेरी नौकरी परमानैंट कर देंगे, फिर मत मांजना बरतन.’’

‘‘देखोजी, मुझे वहां जाने को मजबूर मत करो. औरत एक बार सब की हो जाती है न…’’ पलभर बाद वह बोली, ‘‘खैर, जाने दो. आप कहते हैं तो मैं नहीं छोड़ूंगी. यह जहर भी पी जाऊंगी.’’

‘‘सच रामकली, मुझे तुझ से यही उम्मीद थी,’’ कह कर जगदीश का चेहरा खिल उठा.

रामकली कोई जवाब नहीं दे पाई. वह चुपचाप मुंह लटकाए रसोईघर के भीतर चली गई.

जब से ये नए साहब आए हैं तब से इन्हें बरतन मांजने वाली एक बाई की जरूरत थी. जगदीश उन के दफ्तर में काम करता है. 15 साल बीत गए, पर परमानैंट नहीं हुआ है. कितने ही साहब आए, सब ने परमानैंट करने का भरोसा दिया और परमानैंट किए बिना ही ट्रांसफर हो कर चले गए.

ये साहब भी अपना परिवार इसलिए ले कर नहीं आए थे कि उन के बच्चे अभी पढ़ रहे हैं, इसलिए यहां एडमिशन दिला कर वे रिस्क नहीं उठाना चाहते थे.

बंगले में चौकीदार था. रसोइया भी था. मगर बरतन मांजने के लिए उन्हें एक बाई चाहिए थी. साहब एक दिन जगदीश से बोले थे, ‘बरतन मांजने वाली एक बाई चाहिए.’

‘साहब, वह तो मिल जाएगी, मगर उस के लिए पैसा क्यों खर्च करें…’ जगदीश ने सलाह दी थी, ‘मैं गुलाम हूं न, मैं ही मांज दिया करूंगा बरतन.’

‘नहीं जगदीश, मुझे कोई बाई चाहिए,’ साहब इनकार करते हुए बोले थे. तब जगदीश ने सोचा था कि मौका अच्छा है. बाई की जगह वह अपनी लुगाई को क्यों न रखवा दे. साहब खुश होंगे और उसे परमानैंट कर देंगे.

जगदीश को चुप देख कर साहब बोले थे, ‘कोई बाई है तुम्हारी नजर में?’

‘साहब, मेरी घरवाली सुबहशाम आ कर बरतन मांज दिया करेगी,’ जगदीश ने जब यह कहा, तब साहब बोले थे, ‘नेकी और पूछपूछ… तू अपनी जोरू को भेज दे.’

‘ठीक है साहब, उसे मैं तैयार करता हूं,’ जगदीश ने उस दिन साहब को कह तो दिया था, मगर लुगाई को मनाना इतना आसान नहीं था. उसे कैसे मनाएगा. क्या वह आसानी से मान जाएगी?

रामकली के पास आ कर जगदीश बोला था, ‘रामकली, मैं ने एक वादा किया है?’ ‘वादा… कैसा वादा और किस से?’ रामकली ने हैरान हो कर पूछा था.

‘साहब से?’ ‘कैसा वादा?’

‘अरे रामकली, उन्हें बरतन मांजने वाली एक बाई चाहिए थी. मैं ने कहा कि चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. इस के लिए रामकली है न.’

‘हाय, तू ने मुझ से बिना पूछे ही साहब से वादा कर दिया.’

‘हां रामकली, इस में भी मेरा लालच था?’

‘लालच, कैसा लालच?’ रामकली आंखें फाड़ कर बोली थी.

‘देख रामकली, तू तो जानती है कि मैं अभी परमानैंट नहीं हूं. परमानैंट होने के बाद मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी. इन साहब ने मुझ से वादा किया है कि वे मुझे परमानैंट कर देंगे. तुम साहब के यहां जा कर बरतन मांजोगी तो साहब खुश हो जाएंगे, इसलिए मैं ने तेरा नाम बोल दिया.’

‘अरे, तू ने हर साहब के घर का इतना काम किया. बरतन भी मांजे, पर किसी भी साहब ने खुश हो कर तुझे परमानैंट नहीं किया. इस साहब की भी तू कितनी भी चमचागीरी कर ले, यह साहब भी परमानैंट करने वाला नहीं है,’ कह कर रामकली ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी थी.

जगदीश बोला था, ‘देख रामकली, इनकार मत कर, नहीं तो यह मौका भी हाथ से निकल जाएगा. तब फिर कभी परमानैंट नहीं हो सकूंगा. छोटी सी तनख्वाह में ही मरतेखपते रहेंगे.

‘‘मैं अपनी भलाई के लिए तु?ा पर यह दबाव डाल रहा हूं. इनकार मत कर रामकली. साहब को खुश करने के लिए सब करना पड़ेगा.’

‘ठीक है, तुम कहते हो तो मैं चली जाया करूंगी. हम तो छोटे लोग हैं. साहब बहुत बड़े आदमी हैं,’ कह कर रामकली ने हामी भर दी थी.

इस के बाद रामकली सुबहशाम साहब के बंगले पर जा कर बरतन मांजने लगी थी.

रामकली 3 बच्चों की मां होते हुए भी जवान लगती थी. गठा हुआ बदन और उभार उस की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे.

रामकली के ऐसे रूप पर साहब भी फिदा हो गए थे. जब भी वह बरतन मांजती, किसी न किसी बहाने भीतर आ कर उस के उभारों को एकटक देखते रहते थे.

रामकली सब समझ जाती और अपने उभारों को आंचल में छिपा लेती थी. वे उस की लाचारी का फायदा उठाएं, उस के पहले ही वह सचेत रहने लगी थी.

यह खेल कई दिनों तक चलता रहा था. आखिरकार मौका पा कर साहब उस का हाथ पकड़ते हुए बोले थे, ‘रामकली, तुम अभी भी ताजा फूल हो.’

‘साहब, आप बड़े आदमी हैं. हम जैसे छोटों के साथ ऐसी नीच हरकत करना आप को शोभा नहीं देता है,’ अपना विरोध दर्ज कराते हुए रामकली बोली थी.

क्या छोटा और क्या बड़ा, यह ऐसी आग है कि न छोटा देखती है और न बड़ा. आज मेरे भीतर की लगी आग बुझ दो रामकली,’ कह कर साहब की आंखों में हवस साफ दिख रही थी.

साहब अपना कदम और आगे बढ़ाते, इस से पहले रामकली जरा गुस्से से बोली, ‘देखो साहब, आप मेरे मरद के साहब हैं, इसलिए लिहाज कर रही हूं. मैं गिरी हुई औरत नहीं हूं. मेरी भी अपनी इज्जत है. कल से मैं बरतन मांजने नहीं आऊंगी,’ इतना कह कर वह बाहर निकल गई थी.

आज रामकली ने जगदीश से साहब के घर न जाने की बात कही, तो वह नाराज हो गया. कहता है कि मुझे परमानैंट होना है. साहब को खुश करने के लिए उस का बरतन मांजना जरूरी है, क्योंकि ऐसा करना उन्हीं साहब के हाथ में है.

जगदीश अगर परमानैंट हो जाएगा, तब उस की तनख्वाह भी बढ़ जाएगी. फिर किसी साहब के यहां जीहुजूरी नहीं करनी पड़ेगी. क्या हुआ, साहब ही तो हैं. उन को खुश करने से अगर जगदीश को फायदा होता है तो क्यों सन एक बार खुद को उन्हें सौंप दे. वैसे भी औरत का शरीर तो धर्मशाला होता है. उस के साथ सात फेरे लेने वाले पति के अलावा दूसरे मर्द भी तो लार टपकाते हैं.

उस ने कई ऐसी औरतें देखी हैं, जो अपने मर्द के होते दूसरे मर्द से लगी रहती हैं. फिर आजकल सुप्रीम कोर्ट ने भी तो फैसला दिया है कि अगर कोई औरत अपने मर्द के अलावा दूसरे मर्द से जिस्मानी संबंध बना भी लेती है, तब वह अपराध नहीं माना जाएगा. फिर वह तो अपने जगदीश के फायदे के लिए जिस्म सौंप रही है.

जिस्म सौंपने से पहले साहब को साफसाफ कह देगी. इस शर्त पर यह सब कर रही हूं कि जगदीश को परमानैंट कर देना. इस मामले में मर्द औरत का गुलाम रहता है. इस तरह रामकली ने अपनेआप को तैयार कर लिया.

‘‘देखो रामकली, एक बार मैं फिर कहता हूं कि तुम साहब के यहां बरतन मांजने जरूर जाओगी,’’ जगदीश ने फिर यह कहा तो रामकली बोली, ‘‘हां बाबा, जा रही हूं. तुम्हारे साहब को खुश रखने की कोशिश करूंगी. और मैं भी उन से सिफारिश करूंगी कि वे तुझे परमानैंट कर दें,’’ कह कर रामकली साहब के बंगले पर चली गई.

अभी हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि जगदीश ने घर आ कर रामकली को बताया, ‘‘साहब ने काम से खुश हो कर मेरा परमानैंट नौकरी का और्डर निकाल दिया है. तनख्वाह भी बढ़ जाएगी.’’

‘‘क्या सचमुच तुझे परमानैंट कर दिया?’’ खुशी से उछलती रामकली ने पूछा.

‘‘हां रामकली, साहब कह रहे थे कि तू ने भी सिफारिश की थी,’’ जगदीश ने जब यह कहा, तब रामकली ने कोई जवाब नहीं दिया. वह जानती है कि साहब से उस के जिस्म के बदले यह वचन लिया था. उसी वचन को साहब ने पूरा किया, तभी तो इतनी जल्दी आदेश निकाल दिया.

उसे चुप देख जगदीश फिर बोला, ‘‘अरे रामकली, तुझे खुशी नहीं हुई?’’

‘‘मुझे तो तुझ से ज्यादा खुशी हुई. मैं ने जोर दे कर साहब से कहा था,’’ रामकली बोली, ‘‘उन्होंने मेरे वचन को पूरा कर दिया.’’

‘‘अब तुझे बरतन मांजने की जरूरत नहीं है. मैं साहब के लिए दूसरी औरत का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘नहीं जगदीश, जब तक ये साहब हैं, मैं बरतन मांजने जाऊंगी. मैं ने यही तो साहब से वादा किया है. चलती हूं साहब के यहां,’’ कह कर रामकली घर से बाहर चली गई.

कर्जा : जब लल्लू ने दिया खाने का न्योता फिर क्या हुआ?

खेतीबारी में उलझा लल्लू खुद तो नहीं पढ़ पाया, पर अपने बेटों को खूब पढ़ाया. उस के 2 बड़े बेटे गुजरात में कमाई कर रहे थे.

वे वापस गांव आए, तो लल्लू ने गांव वालों को भोज का न्योता दिया. इस के बाद क्या हुआ?

लल्लू बेचारा गरीब ब्राह्मण था. गांव में सब से अलग. वह बचपन से ही पढ़ना चाहता था. शहर के लोगों को देखता, तो बोलता था, ‘‘वहां के लोग वीआईपी होते हैं.’’

पर गरीबी और मजबूरी से घर का खर्चा ही निकालना मुश्किल था, लल्लू पढ़ता कहां से. लेकिन पूरे गांव में वह नंबर एक की खेती करता था. पूरी जिंदगी खेतों में खप कर यही सोचता, ‘मैं नहीं पढ़ सका तो क्या हुआ, अपने बेटों को जरूर शहर पढ़ने भेजूंगा.’

समय बीता. लल्लू के 3 बेटे और 2 बेटियां हुईं. बेटियों की शादी कर समय से उन को ससुराल भेज अब कर्जा ले कर बेटों की पढ़ाई में लग गया.

अब रातदिन लल्लू के खेतों में ही कटते थे. पूरे गांव में सब से अव्वल खेती करता था. सब पूछने आते कि इतनी बढि़या खेती कैसे की है काका, हमें भी बताओ?

लल्लू सब को बड़े मन से बताता, जैसे किसी शहर का कृषि वैज्ञानिक हो.

लल्लू अब रातदिन मेहनत कर के अपने बेटों को सैट कर चुका था और उन की शादी कर के हर जिम्मेदारी से फारिग हो चुका था.

गांव के लोग आतेजाते बोलते, ‘काका, अब तुम्हारी मौज है. फारिग हो गए हो हर जिम्मेदारी से, अब तो आराम करने के दिन हैं…’

लल्लू भी हंस कर बोलता, ‘हां भाई, आखिर बहुत मेहनत की है आज का दिन देखने के लिए.’

एक दिन मुखियाजी लल्लू से बोले, ‘लल्लू, अभी पिछले जन्म का कर्जा बचा है, जो बेटे बन कर तुम से पूरा कराने आए हैं.’

लल्लू बोला, ‘‘अरे नहीं मुखियाजी, मेरे बेटे ऐसे नहीं हैं. वे तो मेरा सहारा हैं, मुझे बहुत आराम देंगे…’’

कोई कुछ बोलता, इस से पहले ही लल्लू वहां से चला गया, अपनेआप में ही बोलता हुआ, ‘‘मेरे बेटे बुढ़ापे का सहारा हैं. आज भी उन के ऊपर हुए खर्चे का कर्जा भर रहा हूं अनाज बेच कर… नहींनहीं, मेरे बेटे अच्छे हैं.’’

लल्लू के 2 बेटे गुजरात में रहते थे. उन्होंने वहीं अपने मकान बनवा लिए थे. इसी साल बड़े बेटे के बेटा हुआ था. पूरा परिवार गांव में जमा था. लल्लू ने गांव वालों को भोज का न्योता दिया था. नाच, बैंडबाजा, डीजे, जनरेटर, शामियाना, हलवाई सब का इंतजाम था. हैसियत से ज्यादा खर्च किया गया था.

किसी ने टोका, ‘‘अभी पिछला कर्जा सिर पर है, इतना ज्यादा क्यों खर्च कर रहे हो?’’

लल्लू बड़े गर्व से बोला, ‘‘मेरे 2 बेटे शहर में कमाते हैं, अब मुझे कोई चिंता नहीं हैं.’’

लल्लू के 3 बेटे थे, जिन में से बड़ा व मंझला बेटा गुजरात में रहते थे. छोटा बेटा घर पर रह कर खेतीबारी का काम देखता था.

शुरुआत में तो गुजरात में रहने वाले दोनों बेटे महीने में लल्लू को 2-4 हजार रुपए भेजा करते थे, लेकिन बाद में वे भी बंद कर दिए.

सब ने लल्लू को आगाह करना चाहा, तो वह बोलता, ‘‘अरे, देंगे नहीं तो जाएंगे कहां… अभी नएनए शहर गए हैं, घरगृहस्थी जम जाए, फिर पूरा खर्च उन से ही कराऊंगा.’’

लल्लू अब चिंतामुक्त हो गया है, इसलिए जी भर कर खर्चा कर रहा है. पूरे गांव को दिल खोल कर खिलाना चाहता है. बुरे समय में इन्हीं गांव वालों ने उस की मदद की थी.

भोज की रात में काका के घर की सजावट किसी शादीब्याह वाले घर को भी पीछे छोड़ रही थी. एक तरफ डीजे बज रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ नाच का स्टेज सजा हुआ था. नाचने वाली भी आई थी, इसलिए उसे देखने के लिए 1000 से भी ज्यादा लोग पहुंचे थे.

4 घंटे तक भोज चला. बहुत से लोग तो खाना बांध कर घर भी ले गए. जिस  ने भी खाया, वह 2-3 दिन तक उस के स्वाद का बखान करता रहा.

महेश भी इस भोज का गवाह बना था. उस की शहर में नौकरी थी. फिलहाल वह गांव में था. कुछ महीने की बात है कि सब के खेत हरे हो गए थे. गेहूं के फसल की पहली सिंचाई हो गई थी, पर इन हरेहरे

खेतों के बीच एक खेत किसी गंजे के सिर की तरह दिखाई दे रहा था.

यह खेत लल्लू काका का था. यह उन का बड़ा खेत था, जिस का रकबा 7 बीघा था. इस खेत के गेहूं और धान की फसल से काका का घर भर जाता था, पर ऐसा क्या हुआ कि लल्लू काका का सूखा पड़ा था?

महेश इसी सोच में डूबा था कि सामने से लल्लू आता दिखाई दे गया.

महेश ने पूछना चाहा, तो लल्लू ने रोक दिया, फिर कुछ देर तक रोने के बाद उस ने बताया, ‘‘बेटों का कर्जा भर रहा हूं. तुम सब सही बोलते थे… भोज के अगले दिन ही शहर वाले दोनों बेटे अपनेअपने परिवार के साथ चले गए. उन का रिजर्वेशन था. शाम को जब वे लोग रेलवे स्टेशन जाने के लिए गाड़ी में बैठ रहे थे, तब शामियाना और जनरेटर वाले अपने रुपए लेने के लिए आ गए.

‘‘इतना सुनते ही बड़े बेटे ने कहा, ‘सारा हिसाब बाबूजी करेंगे. इन्हीं से आप लोग अपना पैसा ले लीजिएगा.’

‘‘मैं ने हैरान होते हुए कहा, ‘‘मगर, मेरे पास रुपए कहां हैं… अभी खेतों में पानी चलाना है, खादबीज लाना है.

‘‘इस पर मं?ाला बेटा बोला, ‘तो हम क्या करें… खेती से उपजा हम एक दाना अपने साथ नहीं ले जाते हैं. इन खेतों से जो घर बैठे मौज कर रहा है, उस से ले लीजिए.’

‘‘किसी तरह इंतजाम कर के जनरेटर और शामियाना का पैसा दिया. अभी जनरेटर वाले के 5,000 रुपए बकाया हैं,’’ लल्लू जब तक बोलता रहा, तब तक उस की आंखें झरना बनी रहीं.

‘‘छोड़िए काका,’’ महेश ने कहा.

‘‘मैं इस के लिए नहीं रो रहा हूं बेटा, पर जातेजाते मंझली बहू अपना हिस्सा अलग करने को कह गई है. मैं तो इस खेत को अपने दिल के टुकड़े की तरह रखता था, कैसे इस को टुकड़ों में अलग करूंगा, यही सोच कर रो रहा हूं,’’ लल्लू बोला.

काका को समझबूझ कर महेश घर चला आया. पूरे रास्ते और घर आने के बाद भी वह यही सोचता रहा कि सब से बड़ा कर्जा बेटों का होता है, जो बाप पूरी जिंदगी भरता है, फिर भी वह खत्म नहीं होता.

जात: एक दलित पेंटर का दर्द

गांव में एक शानदार मंदिर बनाया गया. मंदिर समिति ने एक बैठक कर के मंदिर में रंगरोगन और चित्र सज्जा के लिए एक अच्छे पेंटर को बुलाना तय किया. सब ने शहर के नामचीन पेंटर को बुला कर काम करने की सहमति दी. दूसरे दिन मंदिर समिति द्वारा चुने गए 2 लोग शहर के नामचीन पेंटर की दुकान पर पहुंचे, जिस ने कई मंदिरों और दूसरी जगहों को अपनी कला से निखारा था.

मंदिर समिति के लोगों ने उस पेंटर को बताया कि मंदिर में कौनकौन सी मूर्तियां लगेंगी और उन देवीदेवताओं की लीलाओं से संबंधित चित्र बनाने हैं और रंगरोगन करना है. उस पेंटर ने हामी भरी, तो मंदिर समिति के सदस्यों ने उसे 2,000 रुपए एडवांस दे दिए.

दूसरे दिन वह पेंटर अपने रंगों व ब्रश के अलावा दूसरे तामझाम के साथ गांव पहुंच गया. मंदिर में सामान रख कर वह एक दीवार को चित्रकारी के लिए तैयार कर ही रहा था कि मंदिर समिति का एक सदस्य वहां आया और चित्रकार से बोला, ‘‘पेंटर साहब, बापू साहब ने कहा है कि अभी कुछ दिन काम नहीं करना है, इसलिए आप अभी जाओ. काम कराना होगा तो बुला लेंगे.’’

वह पेंटर अपना काम रोक कर सामान को समेटते हुए वापस शहर अपनी दुकान पर लौट आया. 4-5 दिन बाद गांव के कुछ खास लोग उस की दुकान पर पहुंचे और उन में से एक बोला, ‘‘पेंटर साहब, अभी काम बंद रखना है, इसलिए मंदिर की तरफ से जो पेशगी दी थी, वह वापस दे दो.’’

पेंटर ने उन्हें वह राशि लौटा दी. सब चले गए. दूसरे दिन शहर में मंदिर समिति का एक सदस्य दिखाई दिया, तो उस पेंटर ने इज्जत के साथ बुला कर उस से काम न कराने की वजह जाननी चाही,

तो उस सदस्य ने समिति में हुई चर्चा बताते हुए कहा, ‘‘आप छोटी जाति के हो और मंदिर में उन का घुसना मना है, इसलिए आप को मना किया व दूसरे पेंटर को काम दे दिया.’’

यह सुन कर वह पेंटर बोला, ‘‘पर, मैं न तो शराब पीता हूं, न मांस खाता हूं और न ही बीड़ीसिगरेट पीता हूं… मैं तो दोनों समय मंदिर जाता हूं.’’

इस पर वह आदमी बोला, ‘‘वह सब तो ठीक है और बहुत सारे मंदिरों में आप ने बहुत अच्छा काम भी किया है, पर हमारे यहां बापू साहब ने मना किया, तो किस की हिम्मत जो आप के लिए बोले.’’

प्रेम की भोर : कैसे थे भोर के भइया-भाभी

भोर के मातापिता की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी. भैयाभाभी ने भोर की जिम्मेदारी संभाल ली थी. भोर आकाशवाणी में काम करना चाहती थी, पर भैया के बिस्तर पर आ जाने से उस के सपने बिखर गए. ऊपर से भाभी अलग ही चालें चल रही थीं. क्या भोर की जिंदगी में कभी उजाला हो पाया?

मां बाप ने उस का नाम भोर रखा था, पर भोर की जिंदगी में अभी तक  अंधियारा ही छाया हुआ था. आज भोर 20 साल की हो गई थी, पर अपने जन्मदिन की उस के मन में बिलकुल भी खुशी नहीं थी. बारबार उस का मन रोने को कर रहा था, क्योंकि आज से 4 साल पहले जब वह 16 साल की थी, तभी उस के मम्मीपापा एक सड़क हादसे में गुजर गए थे.

मम्मीपापा की मौत के बाद भोर के एकलौते बड़े भाई विपिन ने उस की पढ़ाईलिखाई और पालनपोषण की जिम्मेदारी ले ली थी और तब से आज तक भोर अपने भैयाभाभी के साथ ही रह रही थी.

भोर के भैया विपिन एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे और भाभी नमिता हाउसवाइफ थीं. मम्मीपापा के गुजर जाने के बाद भोर की पढ़ाईलिखाई और पालनपोषण का जिम्मा जब उस के भैयाभाभी ने उठाया, तब पूरे महल्ले में विपिन और नमिता की खूब तारीफ हुई थी.

‘विपिन ने एक बड़े भाई का फर्ज निभाते हुए अपनी छोटी बहन को अपने पास रख लिया है. कितना अच्छा है विपिन. आजकल के जमाने में ऐसे भाईभाभी मिलते ही कहां हैं…’ पूरे महल्ले में ऐसी बातें होने लगी थीं.

शुरुआत में जब भोर मासूम थी, तब उसे भी लगा था कि भाभी उस का बहुत ध्यान रख रही हैं और वह अगर भोर से घर का काम कराती भी हैं, तो क्या हुआ? थोड़ा बहुत काम तो हर लड़की को करना ही पड़ता है. पर समय बीतने के साथसाथ यह थोड़ाबहुत काम ढेर सारे काम में बदल गया और नमिता भोर से पूरे घर का काम कराने लगीं.

नमिता का एक 6 साल का बेटा भी था, जिसे संभालने और नीचे घुमाने की जिम्मेदारी भी भोर को दे दी गई थी. भोर की जरा सी गलती पर ही नमिता उस पर बरस पड़ती थीं और काम ठीक से न कर पाने पर नसीहत भी देती थीं.

1-2 बार नमिता ने विपिन के सामने ही जब भोर को डांटा, तो विपिन ने प्यार से फुसफुसाते हुए नमिता से कहा, ‘‘अरे, इस सोने के अंडे देने वाली मुरगी को ऐसे मत धमकाओ, नहीं तो सारा किएधरे पर पानी फिर जाएगा.’’

‘‘आप को तो यही लगता है कि मैं उसे बुराभला कहती हूं, पर आप मेरा भोर के लिए प्यार नहीं देखते, कितना ध्यान रखती हूं मैं उस का…’’ इठलाते हुए फिल्मी अंदाज में जब नमिता ने यह बात कही, तो विपिन और नमिता दोनों एकदूसरे को आंख मार कर हंसने लगे.

विपिन और नमिता ने भोर को इसलिए अपने पास रखा हुआ था, ताकि एक न एक दिन वे लोग भोर के नाम पर आई हुई जायदाद को जबरदस्ती या धोखे से अपने नाम कर लें, पर तब तक उन्हें भोर को अपने पास इस तरह रखना था, ताकि वह किसी से विपिन और नमिता की बुराई न कर सके और न ही किसी नातेरिश्तेदारों को भैयाभाभी की हकीकत का पता चल सके.

लखनऊ शहर के प्रवास ऐनक्लेव में रहने वाली भोर हर दिन के साथ बड़ी होती जा रही थी. उस की आवाज बहुत अच्छी थी, इसलिए वह चाहती थी कि आकाशवाणी लखनऊ में काम करे.

पर यह सब कैसे होगा, यह तो भोर को पता ही नहीं था और अब तक भोर अपनी भाभी का रवैया भी समझ गई थी और फिलहाल तो उसे अपनी भाभी के रंगढंग देख कर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था कि वे उसे आगे पढ़ने या घर से बाहर का कोई काम करने देंगी, पर मन के किसी कोने में अपने बड़े भाई पर भरोसा था कि वे उसे पढ़ाई में सहयोग करेंगे और इसी भरोसे के साथ भोर हर कष्ट हंसीखुशी सहे जा रही थी.

भोर आगे पढ़ सके, इसलिए उस के बड़े भाई विपिन का सहयोग भोर के लिए बहुत जरूरी था, पर अभी भोर के लिए सबकुछ आसान नहीं होने वाला था, क्योंकि एक दिन अचानक विपिन सड़क हादसे में अपाहिज हो कर बिस्तर पर आ गया था.

विपिन की नौकरी तो प्राइवेट थी, जो कुछ महीने बाद जाती रही. बैंक में जो पैसे थे, वे सब तो विपिन के इलाज में लग गए थे और अब घरखर्च के लिए पैसों की जरूरत थी.

भाभी नमिता हमेशा परेशान रहती थीं. भोर वैसे भी नमिता को फूटी आंख नहीं सुहाती थी, इसलिए वे भोर को खरीखोटी सुनाती रहती थीं और विपिन की इस हालत के लिए भी भोर को जिम्मेदार मानती थीं, ‘‘तू पहले तो अपने मांबाप को खा गई और अब मेरे पति के प्राण जातेजाते बचे… कितनी अपशुकनी है तू…’’

भोर अच्छी तरह समझ रही थी कि भैया विपिन की नौकरी जाने के बाद उस के लिए जिंदगी की राह और मुश्किल हो गई है, इसलिए अब उसे अपने कैरियर के सपने देखने बंद करने होंगे और पैसे कमाने के लिए कोई रोजगार ढूंढ़ना होगा.

भोर ने अपने कुछ खास दोस्तों से नौकरी के बारे में बात की, तो भोर को उस की अच्छी आवाज के चलते एक काल सैंटर में काम मिल गया. पर वह यह भी जानती थी कि आजकल पढ़ाईलिखाई की बड़ी अहमियत है, इसलिए वह थोड़ाबहुत समय पढ़ाई के लिए भी निकाल ही लेती थी.

भोर को जब भी तनख्वाह मिलती, तो वह सैलेरी क्रेडिट हो जाने के मैसेज का स्क्रीनशौट खुशीखुशी विपिन को दिखाती और एटीएम से पैसे निकाल कर नमिता को दे देती.

भोर की दरियादिली देख कर विपिन का दिल पिघलने लगा, पर नमिता का मन भोर के लिए अब भी साफ नहीं था, बल्कि वे लगातार इस फिराक में थीं कि कैसे भोर के नाम पर जमा फंड और बाकी की जायदाद अपने नाम की जाए.

अपने इस प्लान को अमलीजामा पहनाने के लिए नमिता के मन में यह प्लान आया कि अगर वे अपने 25 साल के सगे भाई अमन की शादी भोर के साथ करा दें, तो भोर के सारे पैसों पर अमन का हक हो जाएगा और उस के बाद अमन और नमिता मिल कर भोर के पैसों पर मौज कर सकेंगे.

जब नमिता ने यह बात अमन से शेयर की, तो बेरोजगार और आलसी अमन को यह आइडिया बहुत जम गया और उस ने शादी के लिए तुरंत हां कर दी.

भोर की शादी अमन से करवाने के लिए विपिन को भी अपने प्लान में शामिल करना जरूरी था, इसलिए जब नमिता ने यह बात विपिन को बताई, तब विपिन को यह सब थोड़ा नागवार गुजरा… आखिर विपिन भोर का सगा बड़ा भाई था.

‘‘अरे नहीं, आज भोर अकेले ही हमारा खर्चा उठा रही है. हम जानबू?ा कर उस के साथ गलत नहीं कर सकते, बल्कि हमें तो उस के लिए खुद कोई अच्छा सा लड़का तलाशना होगा.’’

विपिन की इस बात से नमिता चिढ़ गईं और उन्होंने विपिन को चेताया कि अगर भोर इस घर से चली गई, तो आमदनी का जरीया बंद हो जाएगा. उन की इस बात ने विपिन को थोड़ा सोचने पर मजबूर कर दिया.

अगली सुबह भोर को अपने काम पर जाने के लिए देर हो गई और कैब भी आने में देर कर रही थी. उसे परेशान देख फौरन ही नमिता ने अमन को फोन कर के अपने फ्लैट पर बुला लिया और भोर को काल सैंटर तक छोड़ आने को कहा.

उस दिन के बाद से नमिता ने लगातार ऐसी कई कोशिशें करनी शुरू कर दीं, जिस से भोर और अमन में निकटता बढ़ जाए और उन दोनों के बीच प्यार का रिश्ता कायम हो जाए.

अमन ने भी भोर को पटाने के लिए कई हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए और फिर एक दिन नमिता ने मौका देख कर भोर से अपने मन की बात कह ही दी, ‘‘अमन तो तुझे भी अच्छा लगता ही है. तू कहे तो तुम दोनों की शादी करा दूं?’’

नमिता की यह बात सुन कर भोर सिर्फ फीके मन से मुसकरा दी.

इसी बीच भोर की दोस्ती उस के साथ काल सैंटर में काम करने वाले एक लड़के प्रज्ञान से हो गई थी. 23 साल का प्रज्ञान एक दलित नौजवान  था. प्रज्ञान की कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी, इसलिए भोर और उस में अच्छी बनती थी. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद भी करने लगे थे, पर अभी किसी ने खुल कर अपने प्यार का इजहार नहीं किया था.

नमिता धीरेधीरे भोर पर अमन से शादी करने का दबाव बना रही थीं, पर भोर इस बात को लगातार टाल रही थी.

आज भोर की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी, इसलिए वह घर पर ही आराम कर रही थी. नमिता ने अमन को फोन कर के दवा लाने को कहा और नमिता ने खुद ही बड़े प्यार से भोर को दवा खिला दी.

दवा खाते ही भोर सो गई. अगले दिन जब वह उठी, तो उस का सिर भारी हो रहा था. नमिता ने उसे चाय पिलाई. 2 दिन बाद भोर एकदम ठीक हो गई थी.

एक शाम को नमिता भोर के पास आई और उसे कुछ तसवीरें दिखाईं, जिन में अमन भोर से चिपका हुआ था और भोर के कपड़े अस्तव्यस्त थे.

‘‘अब भी समय है, अमन से शादी कर ले, वरना पूरे शहर में तुझे इतना बदनाम कर दूंगी कि तुझ से कोई शादी नहीं करेगा,’’ नमिता ने भोर को धमकी दी.

अपनी ऐसी गंदी तसवीरें देख कर भोर सन्न रह गई थी और उस की समझ में आ चुका था कि रात में अमन से दवा मंगवाना इसी साजिश का हिस्सा है, पर उस की भाभी इस हद तक गिर जाएंगी, उसे उम्मीद नहीं थी. और फिर आखिर भाभी उस की शादी अमन से जबरदस्ती क्यों कराना चाहती हैं, यह उस की समझ से परे था.

भोर कई दिन तक घर से बाहर नहीं निकली. प्रज्ञान भी भोर के काम पर न आने से परेशान था. कई बार फोन किया, पर कोई जवाब नहीं. भला प्रज्ञान क्या करता? पर सबकुछ ठीक नहीं है, यह बात वह जान गया था.

एक दिन जब भोर काल सैंटर गई, तो उस का रंगरूप ही बिगड़ा हुआ था. तनाव से उस का सिर भारी हो रहा था और उस की आंखें सूजी हुई थीं.

‘‘क्या हुआ…? तुम इतनी परेशान क्यों हो भोर?’’ प्रज्ञान ने पूछा, तो भोर सारी शर्मोहया भूल कर उस से लिपट गई और रोते हुए अपना सारा हाल कह सुनाया.

प्रज्ञान ने उस के आंसू पोंछे और उसे चुप कराते हुए अखबार में निकला इश्तिहार दिखाया, जिस पर लखनऊ आकाशवाणी में एक सुरीली आवाज वाली एंकर की जरूरत थी.

प्रज्ञान ने भोर से कहा कि वह सारा तनाव छोड़ कर इस नौकरी के लिए इंटरव्यू की तैयारी करे और बाकी सब उस पर छोड़ दे. भोर ने पलकें ?ाका कर अपनी सहमति दे दी.

प्रज्ञान वहां से सीधा अपने एक दोस्त मैसी के पास पहुंचा, जो एक जिम चलाता था और उस के पापा पुलिस महकमे में सबइंस्पैक्टर थे. प्रज्ञान ने उन्हें भोर की कहानी सुनाते हुए मदद मांगी और उन्होंने मदद देने का वादा भी किया.

प्रज्ञान के लिए सब से मुश्किल काम भोर को मानसिक रूप से मजबूत बनाना था. वह भोर को ‘मानसरोवर महल’ में ले कर गया. यह एक ऐसी जगह थी, जहां पर पानी को भर कर एक बड़ा सा तालाब बनाया गया था, जिस में लोग बोटिंग कर रहे थे और चारों तरफ हरियाली फैली हुई थी.

प्रज्ञान ने भोर से कहा, ‘‘न जाने ऐसे कितने वीडियो के डर से लड़कियां खुदकुशी कर लेती हैं, पर तुम धमकी से मत डरो. अगर अमन तुम्हारी कोई तसवीर या वीडियो इंटरनैट पर डालता है, तो उसे डालने दो.

‘‘अगर लोग तुम्हें पहचान भी लें तो यह शर्म की बात अमन के लिए है, तुम्हारे लिए नहीं, क्योंकि तुम्हें नशे की गोली दे कर बेहोश किया गया और फिर वीडियो बनाई गई.’’

भोर को प्रज्ञान की बात समझ आ रही थी और धीरेधीरे उस के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक लौट रही थी.

प्रज्ञान लगातार भोर को समझ रहा था कि उसे अपने खिलाफ बने हुए हालात का सामना भाग कर नहीं, बल्कि डट कर सामना करना है.

भोर ने प्रज्ञान को भरोसा दिलाया कि वह ऐसा ही करेगी. प्रज्ञान ने देखा कि भोर ने अपने मोबाइल के बैक कवर में लगा हुआ वह इश्तिहार निकाल लिया था, जिस पर आकाशवाणी में एंकर की नौकरी के लिए इंटरव्यू की डिटेल लिखी हुई थी.

मैसी के पापा ने अमन और उस की बहन नमिता को एक लड़की का वीडियो बना कर उसे धमकाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था और अमन के पास से वीडियो ले कर डिलीट कर दिए थे.

आज जब भोर आकाशवाणी में एंकर का इंटरव्यू दे कर आई, तो बहुत खुश थी. उस ने घर पहुंचते ही अपने भैया विपिन को गले लगा लिया था, क्योंकि उसे आकाशवाणी में एंकर की नौकरी मिल गई थी. अब तो विपिन समेत बहुत सारे लोग रेडियो पर भोर की सुरीली आवाज सुन सकेंगे.

अभी विपिन और भोर अपनी खुशियां बांट ही रहे थे कि वहां पर प्रज्ञान आ गया. उस ने विपिन का आशीर्वाद लिया और सीधे शब्दों में विपिन से भोर का हाथ मांग लिया, साथ ही प्रज्ञान ने विपिन को यह भी बता दिया कि वह दलित है.

‘‘जातियां तो हम इनसान बनाते हैं प्रज्ञान. हमारी असली पहचान तो इनसान होना है और हमें एकदूसरे की मदद और प्यार करना आना ही चाहिए,’’ यह कहते हुए विपिन ने देखा कि भोर की आंखों में प्रज्ञान के लिए प्यार तैर रहा था.

आज आकाशवाणी लखनऊ पर भोर की सुरीली आवाज एक प्रोग्राम में गूंज रही थी, जिस में भोर महिलाओं को निडर हो कर हर हालात से लड़ने के हौसले के बारे में बता रही थी. विपिन और प्रज्ञान एकसाथ बैठे हुए रेडियो पर भोर की आवाज सुन रहे थे. भोर की जिंदगी में अब सचमुच भोर आ चुकी थी.

तरक्की : श्वेता की मां क्यों हैरान थी

श्वेता की नौकरी को आज पूरे 2 साल हो गए थे, पर वही तनख्वाह, वही ओहदा, कोई तरक्की नहीं. श्वेता एक सीधीसादी लड़की थी. कम बोलना, बेवजह किसी को फालतू मुंह न लगाना उस की आदत में ही शामिल था. दफ्तर के मालिक मनोहर साहब जब भी उसे बुलाते, वह नजरें झुकाए हाजिर हो जाती.

‘‘श्वेता…’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तुम काम खत्म हो जाने पर फुरसत में मेरे पास आना.’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता दरवाजा खोलती और बाहर अपने केबिन की तरफ बढ़ जाती. उस ने कभी भी मनोहर साहब की तरफ ध्यान से देखा भी नहीं था कि उन की आंखों में उस के लिए कुछ है.

अगले महीने तरक्की होनी थी. पूरे दफ्तर में मार्च के इस महीने का सब को इंतजार रहता था.

मनोहर साहब अपने दफ्तर में बैठे श्वेता के बारे में ही सोच रहे थे कि शायद 2 साल के बाद वह उन से गुजारिश करेगी. पिछले साल भी उन्होंने उस की तरक्की नहीं की थी और न ही तनख्वाह बढ़ाई थी, जबकि उस का काम बढ़िया था.

इस बार मनोहर साहब को उम्मीद थी कि श्वेता के कहने पर वे उस की तरक्की कर उसे अपने करीब लाएंगे, जिस से वे अपने मन की बात कह सकेंगे, पर श्वेता की तरफ से कोई संकेत न मिलने की वजह से वे काफी परेशान थे. आननफानन उन्होंने मेज पर रखी घंटी जोर से दबाई.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ चपरासी विपिन हाजिर हो गया.

‘‘विपिन, देखना श्वेता क्या कर रही है? अगर वह खाली हो तो उसे मेरे पास भेज दो.’’

मनोहर साहब ने बोल तो दिया, पर वे सम झ नहीं पा रहे थे कि उस से क्या कहेंगे, कैसे बात करेंगे. वे अपनी सोच में गुम थे कि तभी श्वेता भीतर आई.

मनोहर साहब उस के गदराए बदन को देखते हुए हड़बड़ा कर बोले, ‘‘अरे, बैठो, तुम खड़ी क्यों हो?’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता कुरसी पर बैठ गई.

मनोहर साहब बोले, ‘‘देखो श्वेता, तुम काबिल और सम झदार लड़की हो. तुम इतनी पढ़ाईलिखाई कर के टाइप राइटर पर उंगलियां घिसती रहो, यह मैं नहीं चाहता.

‘‘मैं तुम्हें अपनी सैक्रेटरी बनाना चाहता हूं.’’

‘‘क्या,’’ इस शब्द के साथ श्वेता का मुंह खुला का खुला रह गया. वह अपने भीतर इतनी खुशी महसूस कर रही थी कि मनोहर साहब के चेहरे पर उभरे भावों को देख नहीं पा रही थी.

‘‘ठीक है सर. कब से काम संभालना है?’’ यह पूछते हुए श्वेता के चेहरे पर बिखरी खुशी की लाली उस की खूबसूरती में निखार ला रही थी, जिस का मजा उस के मनोहर साहब भरपूर उठा रहे थे.

‘‘कल से ही तुम यह काम संभाल लो,’’ यह कहते हुए मनोहर साहब को ध्यान भी नहीं रहा कि अभी इस महीने में 5 दिन बाकी हैं, उस के बाद पहली तारीख आएगी.

मनोहर साहब के ‘कल से’ जवाब के बदले में श्वेता ने कहा, ‘‘ठीक है सर…’’ और जाने के लिए कुरसी छोड़ कर खड़ी हो गई, पर सर की आज्ञा का इंतजार था.

थोड़ी देर बाद मनोहर साहब बोल पड़े, ‘‘ठीक है, तुम जाओ.’’

श्वेता को मानो इसी बात का इंतजार था. वह अपनी इस खुशी को अपने परिवार में बांटना चाहती थी. वह अपना पर्स टटोलते हुए अपने केबिन में पहुंची और वहां सभी कागज वगैरह ठीक कर के घर के लिए चल पड़ी.

श्वेता अपने परिवार के पसंद की खाने की चीजें ले कर घर पहुंची. रास्ते में उस के जेहन में वे पल घूम रहे थे, जब 3 साल पहले उस के पिताजी की मौत हो गई थी. एक साल तक मां ही परिवार की गाड़ी चलाती रही थीं.

श्वेता ने बीए पास करते ही नौकरी शुरू कर दी थी, ताकि उस की दोनों छोटी बहनें पढ़ सकें. एक छोटा भाई सागर था, जो अभी तीसरी क्लास में था.

श्वेता के 12वीं के इम्तिहान के बाद ही सागर का जन्म हुआ था. तीनों बहनों का लाड़ला था सागर, पर पिता का प्यार उसे नहीं मिल सका था.

श्वेता को अपनी सोच में गुम हुए पता न चला कि घर आ चुका था.

‘‘रोको भैया, रोको, मुझे यहीं उतरना है,’’ कहते हुए श्वेता ने पैकेट संभाले हुए आटोरिकशा का पैसा चुकता किया और घर की सीढ़ियों पर चढ़ते ही घंटी बजाई.

छोटी बहन संगीता ने दरवाजा खोला. सब से छोटी बहन सरोज भी उस के साथ थी. दीदी के हाथों में पैकेट देख कर दोनों बहनें हैरान थीं.

अभी वे कुछ कहतीं, उस से पहले श्वेता बोल पड़ी, ‘‘लो सरोज, आज हम सब बाहर का खाना खाएंगे.’’

इस के बाद वे तीनों भीतर आ कर मां के पास बैठ गईं.

मां भी श्वेता कोे देख रही थीं, तभी वह बोली, ‘‘मां, आज मैं बहुत खुश हूं. अब आप को चिंता नहीं करनी पड़ेगी. आप खुले हाथों से खर्च कर सकती हैं. अब मुझे 10,000 रुपए तनख्वाह मिला करेगी.’’

श्वेता की बातें सुन कर मां और ज्यादा हैरान हो गईं.

श्वेता ने आगे कहा, ‘‘मैं अपनी बहनों को इंजीनियर और डाक्टर बनाऊंगी. अब इन की पढ़ाई नहीं रुकेगी,’’ कहते हुए श्वेता के चेहरे पर ऐसे भाव आ गए जो पिता की मौत के बाद कालेज छोड़ते हुए आए थे.

श्वेता की तरक्की से पूरा दफ्तर हैरान था. काम्या तो इस बात से हैरान थी कि श्वेता ने कैसे मनोहर साहब से अपनी तरक्की करवा ली. अगर उसे पता होता कि ‘मनोहर साहब’ भी मैनेजर जैसे हैं, तो वह अपना ब्रह्मपाश मनोहर सर पर

ही चलाती. वह फालतू ही मैनेजर के चक्कर में पड़ गई. उसे अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था.

काम्या चालबाज लड़की थी. उस ने आते ही मैनेजर को अपने मायाजाल में फांस कर अपनी तरक्की करा ली थी, पर यह सब दफ्तर का कोई मुलाजिम नहीं जानता था. वह वहां सामान्य ही रहती थी, भले ही अपनी पूरी रात मैनेजर के साथ बिताती थी.

एक दिन काम्या ने श्वेता से कह दिया कि बहुत लंबा तीर मारा है तुम ने सीधीसादी बन कर, पर श्वेता उस का मतलब न सम झ पाई.

4 महीने बीत चुके थे. एक दिन किसी समारोह में श्वेता भी मनोहर साहब के साथ गई. साहब बहुत खुश नजर आ रहे थे. दफ्तर का ही कार्यक्रम था. श्वेता से उन की खुशी छुपी नहीं रही. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां श्वेता, तुम्हारे लिए खुशखबरी है,’’ कहते हुए वे मुसकराने लगे.

‘‘मेरे लिए क्या…’’ हैरान श्वेता देखती रह गई.

समारोह खत्म होने पर ‘तुम साथ चलना’ कहते हुए श्वेता का जवाब जाने बिना मनोहर साहब दूसरी तरफ चले गए. पर वह विचलित हो गई कि आखिर क्या बात होगी?

समारोह तकरीबन 4 बजे खत्म हुआ और साहब के साथ गाड़ी में चल पड़ी, वह राज जानने जो उस के साहब को खुश किए था और उसे भी कोई खुशी मिलने वाली थी. एक फ्लैट के सामने गाड़ी रुकी और साहब ताला खोलने लगे.

अंदर हाल में दीवान बिछा था, सोफे भी रखे थे. ऐसा लग रहा था कि यहां कोई रहता है. सभी चीजें साफसुथरी लग रही थीं.

‘‘बैठो,’’ मनोहर साहब ने कहा तो वह भी बैठ गई और साहब की तरफ देखने लगी.

‘‘देखो श्वेता, तुम बहुत ही सम झदार लड़की हो. अब मैं जो भी कहने जा रहा हूं, उसे ध्यान से सुनना और सम झना. अगर तुम्हें मेरी बातें या मैं बुरा लगूं तो तुम मेरा दफ्तर छोड़ कर आराम से जा सकती हो. अब मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुनो…’’

श्वेता मनोहर साहब की बातें सम झ नहीं पा रही थी कि वे क्या कहना चाहते हैं और उस से क्या चाहते हैं. कानों में मनोहर साहब की आवाज पड़ी, ‘‘सुनो श्वेता, मैं तुम से पतिपत्नी का रिश्ता बनाना चाहता हूं. तुम मु झे अच्छी लगती हो. तुम में वे सारे गुण मौजूद हैं, जो एक पत्नी में होने चाहिए. मेरा एक 3 साल का बेटा है, उसे मां की जरूरत है. अगर तुम मेरी बात मान लोगी तो यहां जिंदगीभर राज करोगी. सोचसमझ कर मुझे अभी आधे घंटे में बताओ. तब तक मैं कुछ चायकौफी का इंतजाम करता हूं,’’ कहते हुए वे कमरे से बाहर जा चुके थे.

श्वेता क्या करे, इनकार की गुंजाइश बिलकुल नहीं थी. दूसरी नौकरी तलाशने तक घर तबाह हो जाएगा, हां कहती है तो बिना जन्म दिए मां का ओहदा मिल जाएगा. तरक्की के इतने सारे अनचाहे उपहारों को वह संभाल पाएगी. उस ने अपनेआप से सवाल किया.

‘‘लो, चाय ले लो,’’ कहते हुए वे उस के करीब बैठ चुके थे और उस की पीठ पर हाथ फेरने लगे. उस ने विरोध भी नहीं किया. उसे अपनी बहनों को डाक्टर और इंजीनियर जो बनाना था.

शरीर की हलचल पर काबू न रखते हुए वह मनोहर साहब की गोद में लुढ़क गई. आखिर उसे भी तो कुछ देना था साहब को, उन की इतनी मेहरबानियों की कीमत.

थोड़े देर में वे दोनों एकदूसरे में डूब गए. श्वेता को कुछ भी बुरा नहीं लग रहा था.

मनोहर साहब की पत्नी मर चुकी थी. वे किसी ऐसी लड़की की तलाश में थे, जो उस के बच्चे को अपना कर उसे प्यार दे सके. श्वेता में उसे ये गुण नजर आए, वरना उस की औकात ही क्या थी.

3 हफ्ते में दोनों की शादी हो गई. शादी में पूरा दफ्तर मौजूद था. सभी मनोहर साहब की तारीफ कर रहे थे कि चलो रिश्ता बनाया तो निभाया भी, वरना आजकल कौन ऐसा करता है.

काम्या भीतर ही भीतर हाथ मल रही थी और पछता रही थी. उस से रहा नहीं गया. श्वेता के कान में शब्दों की लडि़यां उंड़ेल दीं. ‘‘श्वेता, लंबा हाथ मारा है, नौकर से मालकिन बन बैठी.’’

श्वेता के चेहरे पर हलकी सी दर्द भरी मुसकान रेंग गई. वह खुद नहीं सम झ पा रही थी कि ‘लंबा हाथ मारा है’ या ‘लुट गई है’.

‘‘मम्मी, गुड इवनिंग,’’ यह आवाज एक मासूम बच्चे सौरभ की थी, जो बहुत ही प्यारा था. मनोहर साहब उस का हाथ पकड़े खड़े थे. शायद मांबेटे का एकदूसरे से परिचय कराने के लिए, पर बिना कुछ पूछे श्वेता ने सौरभ को उठा कर अपने सीने से लगा लिया, क्योंकि उसे अपनी तरक्की से कोई गिला नहीं था. उसे तरक्की में मिले तोहफों से यह तोहफा अनमोल था.

शिकार : काव्या की दुख भरी कहानी

वह एक बार फिर उस के सामने खड़ा था. लंबाचौड़ा काला भुजंग. आंखों से  झांकती भूख. एक ऐसी भूख जिसे कोई भी औरत चुटकियों में ताड़ जाती है. उस आदमी के लंबेचौड़े डीलडौल से उस की सही उम्र का पता नहीं लगता था, पर उस की उम्र 30 से 40 साल के बीच कुछ भी हो सकती थी.

वहीं दूसरी ओर काव्या गोरीचिट्टी, छरहरे बदन की गुडि़या सी दिखने वाली एक भोलीभाली, मासूम सी लड़की थी. मुश्किल से अभी उस ने 20वां वसंत पार किया होगा. कुछ महीने पहले दुख क्या होता है, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती तक न थी.

मांबाप के प्यार और स्नेह की शीतल छाया में काव्या बढि़या जिंदगी गुजार रही थी, पर दुख की एक तेज आंधी आई और उस के परिवार के सिर से प्यार, स्नेह और सुरक्षा की वह पिता रूपी शीतल छाया छिन गई.

अभी काव्या दुखों की इस आंधी से अपने और अपने परिवार को निकालने के लिए जद्दोजेहद कर ही रही थी कि एक नई समस्या उस के सामने आ खड़ी हुई.

उस दिन काव्या अपनी नईनई लगी नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से थोड़ी दूर ही आई थी कि उस आदमी ने उस का रास्ता रोक लिया था.

एकबारगी तो काव्या घबरा उठी थी, फिर संभलते हुए बोली थी, ‘‘क्या है?’’

वह उसे भूखी नजरों से घूर रहा था, फिर बोला था, ‘‘तू बहुत ही खूबसूरत है.’’

‘‘क्या मतलब…?’’ उस की आंखों से  झांकती भूख से डरी काव्या कांपती आवाज में बोली.

‘‘रंजन नाम है मेरा और खूबसूरत चीजें मेरी कमजोरी हैं…’’ उस की हवस भरी नजरें काव्या के खूबसूरत चेहरे और भरे जिस्म पर फिसल रही थीं, ‘‘खासकर खूबसूरत लड़कियां… मैं जब भी उन्हें देखता हूं, मेरा दिल उन्हें पाने को मचल उठता है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो…’’ अपने अंदर के डर से लड़ती काव्या कठोर आवाज में बोली, ‘‘मेरे सामने से हटो. मु झे अपने काम पर जाना है.’’

‘‘चली जाना, पर मेरे दिल की प्यास तो बुझा दो.’’

काव्या ने अपने चारों ओर निगाह डाली. इक्कादुक्का लोग आजा रहे थे. लोगों को देख कर उस के डरे हुए दिल को थोड़ी राहत मिली. उस ने हिम्मत कर के अपना रास्ता बदला और रंजन से बच कर आगे निकल गई.

आगे बढ़ते हुए भी उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ऐसा लगता था जैसे रंजन आगे बढ़ कर उसे पकड़ लेगा.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस ने कुछ दूरी तय करने के बाद पीछे मुड़ कर देखा. रंजन को अपने पीछे न पा कर उस ने राहत की सांस ली.

काव्या लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने काम पर पहुंची, पर उस दिन उस का मन पूरे दिन अपने काम में नहीं लगा. वह दिनभर रंजन के बारे में ही सोचती रही. जिस अंदाज से उस ने उस का रास्ता रोका था, उस से बातें की थीं, उस से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि रंजन की नीयत ठीक नहीं थी.

शाम को घर पहुंचने के बाद भी काव्या थोड़ी डरी हुई थी, लेकिन फिर उस ने यह सोच कर अपने दिल को हिम्मत बंधाई कि रंजन कोई सड़कछाप बदमाश था और वक्ती तौर पर उस ने उस का रास्ता रोक लिया था.

आगे से ऐसा कुछ नहीं होने वाला. लेकिन काव्या की यह सोच गलत साबित हुई. रंजन ने आगे भी उस का रास्ता बारबार रोका. कई बार उस की इस हरकत से काव्या इतनी परेशान हुई कि उस का जी चाहा कि वह सबकुछ अपनी मां को बता दे, लेकिन यह सोच कर खामोश रही कि इस से पहले से ही दुखी उस की मां और ज्यादा परेशान हो जाएंगी. काश, आज उस के पापा जिंदा होते तो उसे इतना न सोचना पड़ता.

पापा की याद आते ही काव्या की आंखें नम हो उठीं. उन के रहते उस का परिवार कितना खुश था. मम्मीपापा और उस का एक छोटा भाई. कुल 4 सदस्यों का परिवार था उस का.

उस के पापा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते थे और उन्हें जो पैसे मिलते थे, उस से उन का परिवार मजे में चल रहा था. जहां काव्या अपने पापा की दुलारी थी, वहीं उस की मां उस से बेहद प्यार करती थीं.

उस दिन काव्या के पापा अपनी कंपनी के काम के चलते मोटरसाइकिल से कहीं जा रहे थे कि पीछे से एक कार वाले ने उन की मोटरसाइकिल को तेज टक्कर मार दी.

वे मोटरसाइकिल से उछले, फिर सिर के बल सड़क पर जा गिरे. उस से उन के सिर के पिछले हिस्से में बेहद गंभीर चोट लगी थी.

टक्कर लगने के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ के दबाव के चलते कार वाले ने उस के घायल पापा को उठा कर नजदीक के एक निजी अस्पताल में भरती कराया, फिर फरार हो गया.

पापा की जेब से मिले आईकार्ड पर लिखे मोबाइल से अस्पताल वालों ने जब उन्हें फोन किया तो वे बदहवास अस्पताल पहुंचे, पर वहां पहुंच कर उन्होंने जिस हालत में उन्हें पाया, उसे देख कर उन का कलेजा मुंह को आ गया.

उस के पापा कोमा में जा चुके थे. उन की आंखें तो खुली थीं, पर वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे.

फिर शुरू हुआ मुश्किलों का न थमने वाला एक सिलसिला. डाक्टरों ने बताया कि पापा के सिर का आपरेशन करना होगा. इस का खर्च उन्होंने ढाई लाख रुपए बताया.

किसी तरह रुपयों का इंतजाम किया गया. पापा का आपरेशन हुआ, पर इस से कोई खास फायदा न हुआ. उन्हें विभिन्न यंत्रों के सहारे एसी वार्ड में रखा गया था, जिस की एक दिन की फीस 10,000 रुपए थी.

धीरेधीरे घर का सारा पैसा खत्म होने लगा. काव्या की मां के गहने तक बिक गए, फिर नौबत यहां तक आई कि उन के पास के सारे पैसे खत्म हो गए.

बुरी तरह टूट चुकी काव्या की मां जब अपने बच्चों को यों बिलखते देखतीं तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता, पर अपने बच्चों के लिए वे अपनेआप को किसी तरह संभाले हुए थीं. कभीकभी उन्हें लगता कि पापा की हालत में सुधार हो रहा है तो उन के दिल में उम्मीद की किरण जागती, पर अगले ही दिन उन की हालत बिगड़ने लगती तो यह आस टूट जाती.

डेढ़ महीना बीत गया और अब ऐसी हालत हो गई कि वे अस्पताल के एकएक दिन की फीस चुकाने में नाकाम होने लगे. आपस में रायमशवरा कर उन्होंने पापा को सरकारी अस्पताल में भरती कराने का फैसला किया.

पापा को ले कर सरकारी अस्पताल गए, पर वहां बैड न होने के चलते उन्हें एक रात बरामदे में गुजारनी पड़ी. वही रात पापा के लिए कयामत की रात साबित हुई. काव्या के पापा की सांसों की डोर टूट गई और उस के साथ ही उम्मीद की किरण हमेशा के लिए बुझ गई.

फिर तो उन की जिंदगी दुख, पीड़ा और निराशा के अंधकार में डूबती चली गई. तब तक काव्या एमबीए का फाइनल इम्तिहान दे चुकी थी.

बुरे हालात को देखते हुए और अपने परिवार को दुख के इस भंवर से निकालने के लिए काव्या नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उसे एक प्राइवेट बैंक में 20,000 रुपए की नौकरी मिल गई और उस के परिवार की गाड़ी खिसकने लगी. तब उस के छोटे भाई की पढ़ाई का आखिरी साल था. उस ने कहा कि वह भी कोई छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेगा, पर काव्या ने उसे सख्ती से मना कर दिया और उस से अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा.

20 साल की उम्र में काव्या ने अपने नाजुक कंधों पर परिवार की सारी जिम्मेदारी ले ली थी, पर इसे संभालते हुए कभीकभी वह बुरी तरह परेशान हो उठती और तब वह रोते हुए अपनी मां से कहती, ‘‘मम्मी, आखिर पापा हमें छोड़ कर इतनी दूर क्यों चले गए जहां से कोई वापस नहीं लौटता,’’ और तब उस की मां उसे बांहों में समेटते हुए खुद रो पड़तीं.

धीरेधीरे दुख का आवेग कम हुआ और फिर काव्या का परिवार जिंदगी की जद्दोजेहद में जुट गया.

समय बीतने लगा और बीतते समय के साथ सबकुछ एक ढर्रे पर चलने लगा तभी यह एक नई समस्या काव्या के सामने आ खड़ी हुई.

काव्या जानती थी कि बड़ी मुश्किल से उस की मां और छोटे भाई ने उस के पापा की मौत का गम सहा है. अगर उस के साथ कुछ हो गया तो वे यह सदमा सहन नहीं कर पाएंगे और उस का परिवार, जिसे संभालने की वह भरपूर कोशिश कर रही है, टूट कर बिखर जाएगा.

काव्या ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस निश्चय पर पहुंची कि उसे एक बार रंजन से गंभीरता से बात करनी होगी. उसे अपनी जिंदगी की परेशानियां बता कर उस से गुजारिश करनी होगी

कि वह उसे बख्श दे. उम्मीद तो कम थी कि वह उस की बात सम झेगा, पर फिर भी उस ने एक कोशिश करने का मन बना लिया.

अगली बार जब रंजन ने काव्या का रास्ता रोका तो वह बोली, ‘‘आखिर तुम मु झ से चाहते क्या हो? क्यों बारबार मेरा रास्ता रोकते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं,’’ रंजन उस के खूबसूरत चेहरे को देखता हुआ बोला, ‘‘मेरा यकीन करो. मैं ने जब से तुम्हें देखा है, मेरी रातों की नींद उड़ गई है. आंखें बंद करता हूं तो तुम्हारा खूबसूरत चेहरा सामने आ जाता है.’’

‘‘सड़क पर बात करने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम किसी रैस्टोरैंट में चल कर बात करें.’’

काव्या के इस प्रस्ताव पर पहले तो रंजन चौंका, फिर उस की आंखों में एक अनोखी चमक जाग उठी. वह जल्दी से बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं.’’

रंजन काव्या को ले कर सड़क के किनारे बने एक रैस्टोरैंट में पहुंचा, फिर बोला, ‘‘क्या लोगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो लेना होगा.’’

‘‘तुम्हारी जो मरजी मंगवा लो.’’

रंजन ने काव्या और अपने लिए कौफी मंगवाईं और जब वे कौफी पी चुके तो वह बोला, ‘‘हां, अब कहो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘देखो, मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं जैसा तुम सम झते हो,’’ काव्या ने गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘मैं एक मध्यम और इज्जतदार परिवार से हूं, जहां लड़की की इज्जत को काफी अहमियत दी जाती है. अगर उस की इज्जत पर कोई आंच आई तो उस का और उस के परिवार का जीना मुश्किल हो जाता है.

‘‘वैसे भी आजकल मेरा परिवार जिस मुश्किल दौर से गुजर रहा है, उस में ऐसी कोई बात मेरे परिवार की बरबादी का कारण बन सकती है.’’

‘‘कैसी मुश्किलों का दौर?’’ रंजन ने जोर दे कर पूछा.

काव्या ने उसे सबकुछ बताया, फिर अपनी बात खत्म करते हुए बोली, ‘‘मेरी मां और भाई बड़ी मुश्किल से पापा की मौत के गम को बरदाश्त कर पाए हैं, ऐसे में अगर मेरे साथ कुछ हुआ तो मेरा परिवार टूट कर बिखर जाएगा…’’ कहतेकहते काव्या की आंखों में आंसू आ गए और उस ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘इसलिए मेरी तुम से विनती है कि तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो.’’

पलभर के लिए रंजन की आंखों में दया और हमदर्दी के भाव उभरे, फिर उस के होंठों पर एक मक्कारी भरी मुसकान फैल गई.

रंजन काव्या के जुड़े हाथ थामता हुआ बोला, ‘‘मेरी बात मान लो, तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. मैं तुम्हें पैसे भी दूंगा और प्यार भी. तू रानी बन कर राज करेगी.’’

काव्या को सम झते देर न लगी कि उस के सामने बैठा आदमी इनसान नहीं, बल्कि भेडि़या है. उस के सामने रोने, गिड़गिड़ाने और दया की भीख मांगने का कोई फायदा नहीं. उसे तो उसी की भाषा में सम झाना होगा. वह मजबूरी भरी भाषा में बोली, ‘‘अगर मैं ने तुम्हारी बात मान ली तो क्या तुम मु झे बख्श दोगे?’’

‘‘बिलकुल,’’ रंजन की आंखों में तेज चमक जागी, ‘‘बस, एक बार मु झे अपने हुस्न के दरिया में उतरने का मौका दे दो.’’

‘‘बस, एक बार?’’

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है,’’ काव्या ने धीरे से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया, ‘‘मैं तुम्हें यह मौका दूंगी.’’

‘‘कब?’’

‘‘बहुत जल्द…’’ काव्या बोली, ‘‘पर, याद रखो सिर्फ एक बार,’’ कहने के बाद काव्या उठी, फिर रैस्टोरैंट के दरवाजे की ओर चल पड़ी.

‘तुम एक बार मेरे जाल में फंसो तो सही, फिर तुम्हारे पंख ऐसे काटूंगा कि तुम उड़ने लायक ही न रहोगी,’ रंजन बुदबुदाया.

रात के 12 बजे थे. काव्या महानगर से तकरीबन 3 किलोमीटर दूर एक सुनसान जगह पर एक नई बन रही इमारत की 10वीं मंजिल की छत पर खड़ी थी. छत के चारों तरफ अभी रेलिंग नहीं बनी थी और थोड़ी सी लापरवाही बरतने के चलते छत पर खड़ा कोई शख्स छत से नीचे गिर सकता था.

काव्या ने इस समय बहुत ही भड़कीले कपड़े पहन रखे थे जिस से उस की जवानी छलक रही थी. इस समय उस की आंखों में एक हिंसक चमक उभरी हुई थी और वह जंगल में शिकार के लिए निकले किसी चीते की तरह चौकन्नी थी.

अचानक काव्या को किसी के सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज सुनाई पड़ी. उस की आंखें सीढि़यों की ओर लग गईं.

आने वाला रंजन ही था. उस की नजर जब कयामत बनी काव्या पर पड़ी, तो उस की आंखों में हवस की तेज चमक उभरी. वह तेजी से काव्या की ओर लपका. पर उस के पहले कि वह काव्या के करीब पहुंचे, काव्या के होंठों पर एक कातिलाना मुसकान उभरी और वह उस से दूर भागी.

‘‘काव्या, मेरी बांहों में आओ,’’ रंजन उस के पीछे भागता हुआ बोला.

‘‘दम है तो पकड़ लो,’’ काव्या हंसते हुए बोली.

काव्या की इस कातिल हंसी ने रंजन की पहले से ही भड़की हुई हवस को और भड़का दिया. उस ने अपनी रफ्तार तेज की, पर काव्या की रफ्तार उस से कहीं तेज थी.

थोड़ी देर बाद हालात ये थे कि काव्या छत के किनारेकिनारे तेजी से भाग रही थी और रंजन उस का पीछा कर रहा था. पर हिरनी की तरह चंचल काव्या को रंजन पकड़ नहीं पा रहा था.

रंजन की सांसें उखड़ने लगी थीं और फिर वह एक जगह रुक कर हांफने लगा.

इस समय रंजन छत के बिलकुल किनारे खड़ा था, जबकि काव्या ठीक उस के सामने खड़ी हिंसक नजरों से उसे घूर रही थी.

अचानक काव्या तेजी से रंजन की ओर दौड़ी. इस से पहले कि रंजन कुछ सम झ सके, उछल कर अपने दोनों पैरों की ठोकर रंजन की छाती पर मारी.

ठोकर लगते ही रंजन के पैर उखड़े और वह छत से नीचे जा गिरा. उस की लहराती हुई चीख उस सुनसान इलाके में गूंजी, फिर ‘धड़ाम’ की एक तेज आवाज हुई. दूसरी ओर काव्या विपरीत दिशा में छत पर गिरी थी.

काव्या कई पलों तक यों ही पड़ी रही, फिर उठ कर सीढ़ियों की ओर दौड़ी. जब वह नीचे पहुंची तो रंजन को अपने ही खून में नहाया जमीन पर पड़ा पाया. उस की आंखें खुली हुई थीं और उस में खौफ और हैरानी के भाव ठहर कर रह गए थे. शायद उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की मौत इतनी भयानक होगी.

काव्या ने नफरत भरी एक नजर रंजन की लाश पर डाली, फिर अंधेरे में गुम होती चली गई.

साहब : महरू कामवाली बाई

महरू कामवाली बाई थी. बहुत ही ईमानदार. कपड़े इतने सलीके से पहनती थी कि अगर पोंछा या  झाड़ू लगाने के लिए  झुके तो मजाल है शरीर का कोई नाजुक हिस्सा दिख जाए. वह कई घरों में काम करती थी. उम्र होगी तकरीबन 42 साल.

रमेश अकेले रहते थे. उन्होंने शादी नहीं की थी और न करने की इच्छा थी. पिछले 4 सालों में महरू रमेश के बारे में और वे महरू के बारे में बहुतकुछ जान चुके थे.

अनपढ़ महरू ने जाति के बाहर शादी की थी. उस का पति शादी के पहले तो ठीक था, पर बाद में शराब पीने की लत लग गई थी. उस ने काम करना छोड़ दिया था. दिनरात शराब में डूबा रहता.

इस बीच महरू के एक बेटी हो गई. घर चलाने के लिए महरू को काम करना पड़ा. उस ने लोगों के घरों में  झाड़ूपोंछा लगाने और बरतन धोने का काम शुरू कर दिया. उसे जो मजदूरी मिलती थी, पति छीन कर शराब पी जाता था.

शराब के नशे में बहकते कदमों के चलते एक दिन महरू का पति सड़क हादसे में मारा गया. अब महरू को अपनी बेटी के लिए जीना था.

महरू जब रमेश के घर काम मांगने आई तो वे उस की सादगी से प्रभावित हुए थे. उन्होंने उस से साफ शब्दों में कहा था कि वे अकेले रहते हैं. घर पर कोई औरत नहीं है. खाना बाहर खाते हैं तो बरतन तो धोने के लिए निकलते नहीं. अब बचा  झाड़ूपोंछा, चाहो तो कर सकती हो.

पहले महरू को कुछ डर हुआ, फिर पड़ोस की एक औरत ने उसे रमेश के अच्छे चरित्र के बारे में बताया. उसे काम की जरूरत भी थी. लिहाजा, वह काम करने को तैयार हो गई.

शुरूशुरू में जब महरू काम करने आती और रमेश उस के सामने पड़ते तो उस के चेहरे पर डर सा तैर जाता. अकेले होने की वजह से कुछ संकोच रमेश को भी होता और कभीकभार यह खयाल भी आता कि पता नहीं रुपएपैसे ऐंठने के चक्कर में महरू उन पर कौन सा आरोप लगा दे. महरू जिस कमरे में होती, रमेश दूसरे कमरे में चले जाते.

आज होटल के भोजन में न जाने क्या था कि रमेश का सिर चकराने लगा. बुखार आ गया. उलटियां भी होने लगीं. वे रातभर बिस्तर पर पड़े रहे. घर के मैडिकल किट में बुखार और पेटदर्द की जो दवाएं थीं, वे खा चुके थे, लेकिन उन की हालत में कोई फर्क नहीं आया.

सुबह महरू ने जब दरवाजे की डोर बैल बजाई, तब रमेश ने बड़ी मुश्किल से दरवाजा खोला. महरू ने जब उन की हालत देखी तो वह घबरा गई. पूरा घर गंदा पड़ा था.

महरू ने सब से पहले गंदगी साफ की. रमेश के सिर पर हाथ रखा और देखा कि तेज बुखार था. उस ने अपने सस्ते से मोबाइल से फोन लगा कर अपनी बेटी को बुलाया.

जब तक महरू की बेटी वहां नहीं पहुंची, तब तक वह साफसफाई करती रही और रमेश को सुना कर बड़बड़ाती रही, ‘‘अकेले कब तक जिएंगे. कोई तो साथ चाहिए. शादी कर के घर बसा लेते तो एक देखभाल करने वाली होती. मैं नहीं आती तो पड़े रहते, पता भी नहीं चलता किसी को.’’

इस के बाद महरू ने रमेश को सहारा दे कर उठाया. उन के हाथमुंह धुलवाए. कपड़े बदलवाए और डाक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार कर लिया.

तभी एक आटोरिकशा आ कर रुका. महरू की बेटी उस में से उतरी. बिलकुल फूल सी. गोरी दूध सी.

उम्र 15-16 साल. महरू ने उस से कहा, ‘‘तू यहीं रहना. मैं आती हूं साहब को डाक्टर से दिखा कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रमेश की हालत देख कर बेटी ने अपनी मां से पूछा.

‘‘कुछ नहीं. अभी आती हूं. तू घर देखना,’’ महरू ने कुछ तेज आवाज में कहा. फिर बेटी ने कुछ न पूछा.

महरू ने रमेश को सहारा दे कर आटोरिकशा में बिठाया और डाक्टर के पास ले गई. इलाज करवाया. घर वापस लाई. जब तक वे ठीक नहीं हुए तब तक वह उन की देखरेख करती रही. वह अपने घर से दलिया बना कर लाती. समय से दवा देती.

अब महरू रमेश के लिए महज औरत शरीर न रही और न रमेश उस के लिए मर्द शरीर. यह फर्क मिट चुका था. संकोच खत्म हो चुका था. अब वे दोनों एकदूसरे के लिए इनसान थे, मर्दऔरत होने से पहले. भरोसा था एकदूसरे पर.

महरू ने प्रस्ताव रखा कि वह झाड़ूपोंछा करने के साथसाथ खाना भी बना दिया करेगी, ताकि रमेश को अच्छा भोजन मिल सके.

रमेश ने पूछा, ‘‘भोजन बनेगा तो बरतन भी साफ करने होंगे. उन का अलग से कितना देना होगा?’’ हो सकता है, उसे बुरा लगा हो. कुछ पल तक वह कुछ नहीं बोली. शायद यह सोच रही हो कि इतने अपनेपन के बाद भी पैसों की बात कर रहे हैं.

रमेश ने सुधार कर अपनी बात कही, ‘‘पैसों की जरूरत तो सब को होती है. दुनिया का हर काम पैसे से होता है. फिर तुम्हारी अपनी जरूरतें, तुम्हारी बेटी की पढ़ाईलिखाई. इन सब के लिए पैसों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मैं मुफ्त में कोई काम कराऊं, यह मु झे खुद भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘जो आप को देना हो, दे देना.’’

‘‘फिर भी कितना…? मु झे साफसाफ पता रहे ताकि मैं अपना बजट उस हिसाब से बना सकूं.’’

रमेश की बजट वाली बात सुन कर महरू ने कहा, ‘‘साहब, ऐसा करते हैं कि एक की जगह 3 लोगों का खाना बना लेंगे. समय और पैसे की भी बचत होगी. मैं अपने और बेटी के लिए खाना यहीं से ले जाऊंगी.’’

रमेश ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’

इस के बाद जिस दिन महरू न आ पाती, उस की बेटी आ जाती. वह खाना बना कर रमेश को खिलाती और साफसफाई कर के अपने और मां के लिए भोजन ले जाती. रमेश को मांबेटी से लगाव सा हो गया था.

एक दिन महरू की बेटी आई. उस का चेहरा कुछ पीला सा दिख रहा था.

रमेश ने पूछा, ‘‘आज क्या हो गया मां को?’’

‘‘बाहर गई हैं. नानी बीमार हैं.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘दीपाली.’’

दीपाली धीरेधीरे  झाड़ूपोंछा करने लगी. बीचबीच में उस के कराहने की आवाज से रमेश चौंक गए.

‘‘क्या बात है? क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं साहब,’’ दीपाली कराहते हुए बोली.

थोड़ी देर में आह के साथ दीपाली के गिरने की आवाज आई. रमेश भाग कर रसोईघर में गए. दीपाली जमीन पर पड़ी थी. वे घबरा गए. उन्होंने उस के माथे पर हाथ रखा. माथा गरम था. वे सम झ गए कि इसे तेज बुखार है.

रमेश ने उसे अपने हाथों से उठा कर अपने ही बिस्तर पर लिटा कर अपनी चादर ओढ़ा दी. तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने आ कर दीपाली को एक इंजैक्शन लगाया और कुछ दवाएं दीं.

रमेश के पास डबल बैड का एक ही बैडरूम था. दीपाली तेज बुखार में पड़ी हुई थी. वे दिनभर उस के पास बैठे रहे. उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखते रहे. उस के लिए दलिया बनाया. उस के चेहरे को देखते रहे.

रमेश के मन में मोहमाया के फल खिलने लगे. सालों से बंद दिल के दरवाजे खुलने लगे. रेगिस्तान में बारिश होने लगी. जब उस के प्रति उन का लगाव जयादा होने लगा तो वे वहां से हट गए. लेकिन उस की चिंता उन्हें फिर खींच कर उस के पास ले आती.

रमेश ने अपनेआप को संभाला और डबल बैड के दूसरी ओर चादर ओढ़ कर खुद भी सो गए.

दीपाली तेज बुखार में तपती ‘मांमां’ बड़बड़ाने लगी. उस की आवाज से रमेश की नींद खुल गई. वे उस के पास पहुंचे और उस के माथे पर हाथ रख कर उसे बच्चे की तरह सहलाने लगे.

तभी दीपाली का चेहरा रमेश के सीने में जा धंसा. उस का एक पैर उन के पैर पर था. वह ऐसे निश्चिंत थी, मानो मां से लिपट कर सो रही हो.

रमेश की हालत कुछ खराब थी. आखिर उन की इतनी उम्र भी नहीं हुई थी कि 16 साल की लड़की उन की देह में दौड़ते खून का दौरा न बढ़ाए.

रमेश के शरीर में हवस की चींटियां रेंगने लगीं. अच्छी तो वह उन्हें पहले भी लगती थी, लेकिन प्यार की नजर से कभी नहीं देखा था. लेकिन आज जब इस तनहाई में एक कमरे में एक बिस्तर पर एक 16 साल की सुंदरी रमेश से लिपट कर सो रही थी, तो मन में बुरे विचार आना लाजिमी था.

रमेश उसे लिपटाए नींद की गोद में समा गए. सुबह जब उन की नींद खुली तो दीपाली बिस्तर पर नहीं थी. रमेश ने आवाज दी तो वह हाथ में  झाड़ू लिए सामने आ गई.

‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘ झाड़ू लगा रही हूं.’’

‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मैं अब ठीक हूं.’’

रमेश ने उसे पास बुला कर उस के माथे पर हाथ रखा. बुखार उतर चुका था.

‘‘अभी 2 दिन की दवा लेनी और बाकी है. अगर दवा पूरी नहीं ली, तो बुखार फिर से आ सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर दीपाली काम में लग गई.

कभी ऐसा होता है कि मरीज पहली खुराक में ही ठीक हो जाता है, फिर इस में स्नेह भी काम करता है.

‘‘साहब, खाना लगा दिया है,’’ जब दीपाली ने यह कहा तो रमेश खाने की टेबल पर पहुंच गए. उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो है नहीं. तुम भी यहीं खाना खा लो.’’

‘‘मैं बाद में खा लूंगी,’’ दीपाली ने शरमाते हुए कहा.

‘‘क्यों… कल तो मु झ से लिपटी थी. अब साथ में खाना खाने में शर्म आ रही है…’’

यह सुन कर दीपाली शरमा गई, पर कुछ नहीं बोली. फिर ज्यादा जोर देने पर वह साथ खाने बैठ गई.

‘‘दवा पूरी खाना,’’ रमेश ने खाना खाते हुए कहा.

‘‘जी.’’

‘‘कौन सी क्लास में पढ़ती हो?’’

‘‘12वीं क्लास में.’’

‘‘पढ़ाई कैसी चल रही है?’’

‘‘जी, ठीक चल रही है.’’

‘‘क्या बनने का इरादा है?’’

‘‘साहब, आगे तो अभी कालेज की पढ़ाई है. आगे क्या पता? मां पढ़ा पाएंगी या नहीं… हो सकता है, मां मेरी शादी करा दें.’’

‘‘हां, यह भी हो सकता है.’’

दीपाली ने रमेश से कहा, ‘‘साहब, मैं आप से कुछ पूछ सकती हूं… बुरा तो नहीं मानेंगे आप?’’

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो?’’

‘‘आप ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘सब वक्त की बात है. किसी को मैं पसंद नहीं आया, कोई मु झे पसंद नहीं आई. फिर शादी के लिए मैं किसे आगे करता. न मातापिता, न भाईबहन. लोग अकेले लड़के को अपनी लड़की देने में कतराते हैं.’’

‘‘आप बहुत अच्छे हैं साहब.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘कल रात मु झे आप में अपनी मां और पिता दोनों दिखाई दिए.’’

‘‘क्या मेरी उम्र भी है मातापिता की उम्र जैसी?’’

‘‘उम्र नहीं, गुण हैं आप में ऐसे. पहले मैं आप को केवल साहब की नजर से देखती थी…’’

‘‘और अब?’’

‘‘अब मैं आप को आदर की नजर से देखती हूं.’’

रमेश ने दीपाली से कहा तो नहीं, लेकिन मन ही मन सोचा, ‘प्यार की नजर से तो कोई नहीं देखता. प्यार भी कहा होता तो अच्छा लगता. दिल को तसल्ली मिलती.’

अब दीपाली रोज काम करने आती.

एक दिन रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां अभी तक नहीं आई?’’

‘‘वे तो कब की आ चुकी हैं, लेकिन बीमार हैं.’’

रमेश ने कई बार सोचा कि महरू को देखने जाएं, लेकिन वे कभी भूल जाते, तो कभी कोई और काम आ जाता.

एक दिन घबराई हुई दीपाली रमेश के पास आई और बोली, ‘‘साहब, मां की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. वे आप को बुला रही हैं.’’

दीपाली की घबराहट से रमेश सम झ गए कि बात गंभीर है. उन्होंने तुरंत तैयार हो कर उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाया और जैसे वह बताती गई, वे उसी रास्ते पर मोटरसाइकिल घुमा देते.

रमेश ने दीपाली के कहने पर एक छोटी सी गंदी बस्ती में एक कच्चे मकान के सामने मोटरसाइकिल रोकी.

दीपाली ने उतरते हुए कहा, ‘‘अंदर आइए साहब.’’

रमेश ने अंदर जा कर देखा. महरू का शरीर बिलकुल सूख चुका था. रमेश को देख कर उस के चेहरे पर खुशी

तैर गई. उस ने उठने की कोशिश की, लेकिन उठ न सकी.

‘‘लेटी रहो,’’ रमेश ने कहा. दीपाली अपनी मां के पास बैठ गई.

‘‘क्या हो गया है तुम को? तुम तो मायके गई थीं?’’

‘‘साहब…’’ महरू ने उखड़ती सांसों के साथ कहा, ‘‘डाक्टर ने मु झे 1-2 दिन का मेहमान बताया है. मु झे अपनी बेटी की चिंता है. मेरे अलावा इस का कोई नहीं है. न कोई सगेसंबंधी, न रिश्तेदार. इस घर में इस का अकेले रहने का मतलब है कि कभी भी…’’ आगे वह चुप रही, फिर थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘साहब, आप से एक गुजारिश है. आप भले आदमी हैं. आप मेरी बेटी को अपना लीजिए. चाहे नौकरानी सम झ कर, चाहे…’’ फिर वह रुक गई, ‘‘आप भी अकेले हैं. यह आप का घर संभाल लेगी. अपनी औकात से बड़ी बात कर रही हूं, लेकिन मैं किसी और पर भरोसा भी नहीं कर सकती.

‘‘आप को इस के भविष्य के लिए जो अच्छा लगे, करना. मैं इसे आप के सहारे छोड़ कर जा रही हूं…’’ और एक हिचकी के साथ महरू ने दम तोड़ दिया.

दीपाली जोरजोर से रोने लगी. बस्ती के बहुत से लोग जमा हो गए. रमेश ने दीपाली को हौसला दिया. महरू का अंतिम संस्कार कराने के बाद वे उसे अपने साथ ले आए.

महरू रमेश पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप कर चली गई थी. इस लड़की से वे क्या रिश्ता बनाएं? उम्र का भी इतना बड़ा फासला है. कैसे इस से शादी कर लें. बिना शादी किए किस रिश्ते से रखें? लोग क्या कहेंगे? कामवाली बाई की इतनी कम उम्र की लड़की की गरीबी का फायदा उठा कर शादी कर ली. फिर कानूनन वह नाबालिग थी.

बहुत सोचविचार के बाद रमेश ने दीपाली को गर्ल्स होस्टल में दाखिला दिला दिया. वह न केवल उन पर आश्रित थी, बल्कि उसे उन से लगाव भी था. मना करने के बाद भी वह खाना बनाने आ जाती थी. उन के और दीपाली के बीच बहुत सी बातें होतीं. एक तरह से रमेश उस के गार्जियन बन चुके थे.

दीपाली अब 18 साल से ऊपर की हो चुकी थी. अपनी पढ़ाई में बिजी होने के चलते वह आ नहीं पाती थी. अब तो  छुट्टी के दिन भी वह नहीं आ पाती थी.

रमेश को लगा कि दीपाली अब उन से कतराने लगी है.

एक दिन एक अनजान नंबर से फोन आया, ‘साहब, आप कैसे हैं?’

‘‘अरे, कौन…? दीपाली? मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो?’’ रमेश ने पूछा.

‘साहब, मैं ठीक हूं. क्या आप को मैं पसंद नहीं?’

‘‘ऐसा क्यों पूछ रही हो तुम?’’

‘तो फिर आप ने शादी के लिए क्यों नहीं कहा?’

‘‘देखो दीपाली, मैं तुम से प्यार करता हूं. शादी जिंदगीभर का बंधन होता है और मैं तुम से उम्र में भी बहुत बड़ा हूं. तुम्हें बाद में परेशानी होगी. फिर क्या करोगी?’’

‘मैं मैनेज कर लूंगी. आप के साथ मैं हमेशा खुश रहूंगी. एक लड़की को इस से ज्यादा क्या चाहिए. जो समस्या होगी, वह हम दोनों की होगी.

‘साहब, आप मन से सारे संकोच निकाल कर मुझे अपना लीजिए.’

‘‘तुम बालिग हो गई हो दीपाली. मेरी जिंदगी में तुम्हारा स्वागत है.’’

रमेश की मुर झाती जिंदगी में फिर से बहार आ गई. शादी के इतने साल बाद भी दीपाली रमेश को साहब ही कहती है.

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