Hindi Story: हिंदुस्तान जिंदा है

Hindi Story: अब वह कहां जिंदा थी कि किसी का नाम बताती. बस, सड़क के किनारे एक नंगी लाश के रूप में पड़ी मिली थी. मीना के पति को बाजार में छुरा मारा गया था, मर्द को दंगाई नंगा नहीं करते क्योंकि दंगाई भी मर्द होते हैं.

मीना और मौलवी रशीद दोनों ने अपनीअपनी लाशें उठा कर उन का अंतिम संस्कार किया था. ये दोनों जिस शहर के थे वहां की फितरत में ही दंगा था और वह भी धर्म के नाम पर.

इस शहर के लोग पढ़ेलिखे जरूर थे पर नेताओं की भड़काऊ बातों को सुन कर सड़कों पर उतर आना, छतों से पत्थरों की वर्षा करना और फिर गोली चलाना इन की आदत हो गई थी. कोई तो था जो निरंतर इस दंगा कल्चर को बढ़ावा दे रहा था ताकि जनता बंटी रहे और उन का मकसद पूरा होता रहे.

मौलवी रशीद और मीना दोनों एकसाथ पढ़े थे. दोनों का बचपन भी साथसाथ ही गुजरा था. दोनों आपस में प्रेम भी करते थे, लेकिन इन की आपस में शादी इसलिए नहीं हुई कि दोनों का धर्म अलगअलग था और ऐसे कट्टर धार्मिक, सोच वाले शहर में एक हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी कर ले तो शहर में हंगामा बरपा हो जाए.

मीना ने तो चाहा था कि वह रशीद से शादी कर ले लेकिन खुद रशीद ने यह कह कर मना कर दिया था कि यदि तुम चाहती हो कि 4-5 मुसलमान मरें तो मैं यह शादी करने के लिए तैयार हूं. और फिर मीना अपने दिल पर पत्थर रख कर बैठ गई थी.

इसी के बाद दोनों के जीवन की धारा बदल गई. रशीद ने अपने संप्रदाय में एक नेक लड़की से शादी कर अपनी गृहस्थी बसा ली तो मीना ने अपनी ही जाति के एक लड़के के साथ शादी कर ली. फिर तो दोनों एक ही शहर में रहते हुए एकदूसरे के लिए अजनबी बन गए.

इधर धर्म का बाजार सजता रहा, धर्म का व्यापार होता रहा और इस धर्म ने देश को 2 टुकड़ों में बांट दिया. इनसान के लिए धर्म एक ऐसा रास्ता है जिसे केवल मन में रखा जाए और खामोशी के साथ उस पर विश्वास करता चला जाए न कि उस के लिए बेबस औरतों को नंगा किया जाए, संपत्तियों को जलाया जाए और बेगुनाह लोगों की जानें ली जाएं.

मौलवी रशीद की कोई संतान नहीं थी पर मीना के 2 बच्चे थे. एक 3 साल का और दूसरा 3 मास का. पति के मरने के बाद मीना बिलकुल बेसहारा हो गई थी. अब उस शहर में उस का दर्द, उस की जरूरतों को समझने वाला मौलवी रशीद के अलावा दूसरा कोई भी नहीं था.

सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला शहर से खत्म नहीं हो रहा था. कभी दिन का कर्फ्यू तो कभी रात का कर्फ्यू. इनसान तो क्या जानवर भी इस से तंग हो गए थे. मौलवी रशीद ने टेलीविजन खोला तो एक खबर आई कि प्रशासन ने शाम को कर्फ्यू में 2 घंटे की ढील दी है ताकि लोग घरों से बाहर निकल कर अपनी दैनिक जरूरतों की वस्तुओं को खरीद सकें. मौलवी रशीद को मीना के 3 माह के बच्चे की चिंता थी क्योंकि पति की मौत के बाद मीना की छाती का दूध सूख गया था. उस बच्चे के लिए उसे दूध लेना था और ले जा कर हिंदू इलाके में मीना के घर देना था.

रशीद जब घर से स्कूटर पर चला तो उसे थोड़ा डर सा लगा था. वह सआदत हसन मंटो (उर्दू का प्रसिद्ध कथाकार) तो था नहीं कि अपनी जेब में 2 टोपियां रखे और हिंदू महल्ले से गुजरते समय सिर पर गांधी टोपी तथा मुसलमान महल्ले से गुजरते समय गोल टोपी लगा ले.

खैर, रशीद किसी तरह हिम्मत कर के मीना के बच्चे के लिए दूध का पैकेट ले कर चला तो रास्ते भर लोगों की तरहतरह की बातें सुनता रहा.

किसी एक ने कहा, ‘‘इस का मीना के साथ चक्कर है. मीना को कोई हिंदू नहीं मिलता क्या?’’

दूसरे के मुंह से निकला, ‘‘लगता है इस का संपर्क अलकायदा से है. हिंदू इलाके में बम रखने जा रहा है. इस मौलवी का हिंदू महल्ले में आने का क्या मतलब?’’

दूसरे की कही बातें सुन कर तीसरे ने कहा, ‘‘यदि अलकायदा का नहीं तो इस का संबंध आई.एस.आई. से जरूर है. तभी तो इस की औरत को नंगा कर के गोली मारी गई.

रशीद ने मीना के घर पहुंच कर उसे आवाज लगाई और दूध का पैकेट दे कर वापस आ गया. एक सेना का अधिकारी, जो मीना के घर के सामने अपने जवानों के साथ ड्यूटी दे रहा था, उस ने रशीद को दूध देते देखा. मौलवी रशीद उसे देख कर डर के मारे थरथर कांपने लगा. वह आर्मी अफसर आगे बढ़ा और रशीद की पीठ को थपथपाते हुए बोला, ‘‘शाबाश.’’

रशीद जब अपने महल्ले में पहुंचा तो देखा कि लोग उस के घर को घेर कर खड़े थे. वह स्कूटर से उतरा तो महल्ले के मुसलमान लड़के उस की पिटाई करते हुए कहने लगे, ‘‘तू कौम का गद्दार है. एक हिंदू लड़की के घर गया था. तू देख नहीं रहा है कि वे हमें जिंदा जला रहे हैं? हमारी बहनबेटियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. क्या उस महल्ले के हिंदू मर गए थे जो तू उस के बच्चे को दूध पिलाने गया था.’’

एक बूढ़े मौलाना ने कहा, ‘‘रशीद, तू महल्ला खाली कर फौरन यहां से चला जा नहीं तो तेरी वजह से इस महल्ले पर हिंदू कभी भी हमला कर सकते हैं. तेरा मीना के साथ यह अनैतिक संबंध हम को बरबाद कर देगा.’’

इस बीच पुलिस की एक जीप वहां आई और पुलिस वाले यह कह कर चले गए कि यहां तो मुसलमानों ने ही मुसलमान को मारा है, खतरे की कोई बात नहीं है. लगता है कोई पुरानी रंजिश होगी.

मार खाने के बाद रशीद अपने घर चला गया और बिस्तर पर लेट कर कराहने लगा. कुछ देर के बाद फोन की घंटी बजी. फोन मीना का था. वह कह रही थी, ‘‘रशीद, तुम्हारे जाने के बाद महल्ले के कुछ हिंदू लड़के मेरे घर में घुस आए थे और उन्होेंने दूध के साथ घर का सारा सामान सड़क पर फेंक दिया. अब मैं क्या करूं. तुम जब तक माहौल सामान्य नहीं हो जाता मेरे घर मत आना. बच्चे तो जैसेतैसे जी ही लेंगे.’’

रशीद फोन पर हूं हां कर के चुप हो गया क्योंकि उसे चोट बहुत लगी थी. वह लेटेलेटे सोच रहा था कि हिंदूमुसलिम फसाद में एक तरफ से कुछ भी नहीं होता है. दोनों तरफ से लड़ाई होती है और कौम के नेता इस जलती हुई आग पर घी डालते हैं. यदि हिंदू मुसलमान को मारता है तो वही उस को सड़क से उठाता भी है. अस्पताल भी वही ले जाता है, वही पुलिस की वर्दी पहन कर उस का रक्षक भी बनता है और वही जज की कुरसी पर बैठ कर इंसाफ भी करता है, कहीं तो कुछ है जो टूटता नहीं.

4 दिन बाद कुछ हालात संभले थे. इस दौरान समाचारपत्रों ने बहुत सी घटनाओं को अपनी सुर्खियां बनाया था. इन्हीं में एक खबर रशीद और मीना को ले कर छपी थी कि ‘हिंदू इलाके में एक मुसलमान अपनी प्रेमिका से मिलने आता है.’

ऐसे माहौल में समाचारपत्रों का काम है खबर बेचना. अगर सच्ची खबर न हो तो झूठी खबर ही सही, उन के अखबार की बिक्री बढ़नी चाहिए. अब तो राजनीतिक पार्टियां भी अपना अखबार निकाल रही हैं ताकि पार्टी की पालिसी के अनुसार समाचार को प्रकाशित किया जाए. आजादी के बाद हम कितने बदल गए हैं. अब नेताओं को देश की जगह अपनी पार्टी से प्रेम अधिक है.

शहर में कर्फ्यू समाप्त हो गया था. रशीद भी अब पूरी तरह से ठीक हो गया था. उस ने फैसला किया कि अब यह शहर उस के रहने के लायक नहीं रहा पर शहर छोड़ने से पहले वह मीना से मिलना चाहता था.

वह घर से निकला और सीधा मीना के घर पहुंचा. उसे घर के दरवाजे पर बुलाया और हमेशाहमेशा के लिए उसे एक नजर देख कर मुड़ना ही चाहता था कि कुछ लोग उस को चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए.

रशीद ने मीना से सब्जी काटने वाला चाकू मांगा और सब को संबोधित कर के बोला, ‘‘आप लोगों को मुझे मारने की आवश्यकता नहीं है. मैं अपने पेट में चाकू मार कर आत्महत्या करने जा रहा हूं. अब यह शहर जीने लायक नहीं रह गया.’’

उस भीड़ ने रशीद को पकड़ लिया और एक सम्मिलित स्वर में आवाज आई, ‘‘भाई साहब, हम आप को मारने नहीं बल्कि देखने आए हैं. आप की पत्नी को हिंदुओं ने नंगा कर के गोली मारी थी और आप एक हिंदू विधवा के बच्चों के लिए दूध लाते रहे. अब आप जैसे इनसान को देखने के बाद यकीन हो गया है कि हिंदुस्तान जिंदा है और हमेशा जिंदा रहेगा.

Hindi Story: खरोंचें – स्वर्ग में नरक भोगते लोग!

Hindi Story, लेखक- सरन घई

कितनी आरजू, कितनी उमंग थी मन में. लेकिन हकीकत में मिला क्या? सारे सपने चूरचूर हुए और रह गई सिर्फ आह.

‘‘आप इंडिया से कनाडा कब आए?’’

‘‘यही कोई 5 साल पहले.’’

‘‘यहां क्या करते हैं?’’

‘‘फैक्टरी में लगा हूं.’’

‘‘वहां क्या करते थे?’’

‘‘बिड़लाज कंसर्न में अकाउंट्स अधिकारी था.’’

इन सज्जन से मेरी यह पहली मुलाकात है. अब आप ही बताएं, भारत का एक अकाउंट्स अधिकारी कनाडा आ कर फैक्टरी में मजदूरी कर रहा है. उसे कनाडा आने की बधाई दूं या 2-4 खरीखोटी सुनाऊं, यह फैसला मैं आप पर छोड़ता हूं.

‘‘अच्छा, तो वहां तो आप अपने विभाग के बौस होंगे?’’

‘‘हांहां,  वहां करीब 60 लोग मेरे मातहत थे. अकाउंट विभाग का इंचार्ज था न, 22 हजार रुपए तनख्वाह थी.’’

‘‘तो घर पर नौकरचाकर भी होंगे?’’

‘‘हां, मुझे तो आफिस की तरफ से एक अर्दली भी मिला हुआ था. कार और ड्राइवर तो उस पोस्ट के साथ जुडे़ ही थे.’’

‘‘अच्छा, फिर तो बडे़ ठाट की जिंदगी गुजार रहे थे आप वहां.’’

‘‘बस, ऊपर वाले की दया थी.’’

‘‘भाभीजी क्या करती थीं वहां?’’

‘‘एक स्कूल में अध्यापिका थीं. कोई नौकरी वाली बात थोड़ी थी, अपने छिटपुट खर्चों और किटी पार्टी की किश्तें निकालने के लिए काम करती थीं, वरना उन्हें वहां किस बात की कमी थी.’’

‘‘तो भाभीजी भी आप के साथ ही कनाडा आई होंगी? वह क्या करती हैं यहां?’’

‘‘शुरू में तो एक स्टोर में कैशियर का काम करती थीं. फिर नौकरी बदल कर किसी दूसरी जगह करने लगीं. अब पता नहीं क्या करती हैं.’’

‘‘पता नहीं से मतलब?’’

‘‘हां, 2 साल पहले हमारा तलाक हो गया.’’

लीजिए, कनाडा आ कर अफसरी तो खोई ही, पत्नी भी खो दी.

‘‘माफ कीजिए, आप के निजी जीवन में दखल दे रहा हूं, पर यह तो अच्छा नहीं हुआ.’’

‘‘अच्छा हुआ क्या, कुछ भी तो नहीं. यहां आ कर शानदार नौकरी गई, पत्नी गई और अब तो…’’

‘‘अब तो क्या?’’

‘‘मेरी बेटी भी पता नहीं कहां और किस के साथ रहती है.’’

‘‘आप की बेटी भी है. वह तलाक के बाद आप के पास थी या आप की पत्नी के पास?’’

‘‘मेरी बेटी 18 साल से बड़ी थी इसलिए उस ने न मेरे साथ रहना पसंद किया न अपनी मां के साथ, अलग रहने चली गई.  कहने लगी कि जो अपनी गृहस्थी नहीं संभाल सके वे मेरी जिंदगी क्या संभालेंगे. कहां चली गई किसी को पता नहीं. हां, कभीकभी फोन कर देती है, इसी से पता चलता है कि वह है, पर कहां है कभी नहीं बताती. फोन करती है तो ‘पे’ फोन से. आप ने सुना है किसी को स्वर्ग में नरक भोगते? मैं भोग रहा हूं.’’

मैं उन से क्या कहूं? क्या कह कर दिलासा दूं? स्वर्ग की चाह हम ने खुद की थी, हमारा फैसला था यह, हमारी महत्त्वाकांक्षा थी जो हमें उस आकाश के आंचल से इस आकाश के आंचल तले समेट लाई. जब जीवन वहां के अंदाज को छोड़ कर यहां के अंदाज में बदलने लगा तो हमें महसूस हुआ कि हम नरक के दरवाजे पर पहुंच गए. नरक भोगने जैसी बातें करने लगे.

मैं यह समझता हूं कि यह नरक भोगना नहीं है, यह बदल रही जीवन शैली की सचाइयों से मुझ जैसे प्रवासियों का परिचय है. यह पहला अनुभव है जो वहां की जीवन शैली से यहां की जीवन शैली में परिवर्तन के क्रम का पहला पड़ाव समान है. याद है जब भारत की भीड़ भरी बसों और ट्रेनों में धक्कामुक्की कर के चढ़ते थे और उस प्रयास में लग जाती थीं कुछ खरोंचें. वही खरोंचें हैं ये.

Hindi Story: परीक्षा – ईश्वर क्यों लेता है भक्त की परीक्षा

Hindi Story, लेखक- सुनीत गोस्वामी

भव्य पंडाल लगा हुआ था जिस में हजारों की भीड़ जमा थी और सभी की एक ही इच्छा थी कि महात्माजी का चेहरा दिख जाए. सत्संग समिति ने भक्तों की इसी इच्छा को ध्यान में रखते हुए पूरे पंडाल में जगह-जगह टेलीविजन लगा रखे थे ताकि जो भक्त महात्मा को नजदीक से नहीं देख पा रहे हैं वे भी उन का चेहरा अच्छी तरह से देख लें.

कथावाचक महात्मा सुग्रीवानंद ने पहले तो ईश्वर शक्ति पर व्याख्यान दिया, फिर उन की कृपा के बारे में बताया और प्रवचन के अंत में गुरुमहिमा पर प्रकाश डाला कि हर गृहस्थी का एक गुरु जरूर होना चाहिए क्योंकि बिना गुरु के भगवान भी कृपा नहीं करते. वे स्त्री या पुरुष जो बिना गुरु बनाए शरीर त्यागते हैं, अगले जन्म में उन्हें पशु योनि मिलती है. जब आम आदमी किसी को गुरु बना लेता है, उन से दीक्षा ले लेता है और उसे गुरुमंत्र मिल जाता है, तब उस का जीवन ही बदल जाता है. गुरुमंत्र का जाप करने से उस के पापों का अंत होने के साथ ही भगवान भी उस के प्रति स्नेह की दृष्टि रखने लगते हैं.

गुरु के बिना तो भगवान के अवतारों को भी मुक्ति नहीं मिलती. आप सब जानते हैं कि राम के गुरु विश्वामित्र थे और कृष्ण के संदीपन. सुग्रीवानंद ने गुरु महिमा पर बहुत बड़ा व्याख्यान दिया.

डर और लालच से मिलाजुला यह व्याख्यान भक्तों को भरमा गया. सुग्रीवानंद का काम बस, यहीं तक था. आगे का काम उन के सेक्रेटरी को करना था.

सेक्रेटरी वीरभद्र ने माइक संभाला और बहुत विनम्र स्वर में भक्तों से कहा, ‘‘महाराजश्री से शहर के तमाम लोगों ने दीक्षा देने के लिए आग्रह किया था और उन्होंने कृपापूर्वक इसे स्वीकार कर लिया है. जो भक्त गुरु से दीक्षा लेना चाहते हैं वे रुके रहें.’’

इस के बाद पंडाल में दीक्षामंडी सी लग गई. इसे हम मंडी इसलिए कह रहे हैं कि जिस तरह मंडी में माल की बोली लगाई जाती है वैसे ही यहां दीक्षा बोलियों में बिक रही थी.

गरीबों की तो जिंदगी ही लाइन में खड़े हो कर बीत जाती है. यहां भी उन के लिए लाइन लगा कर दीक्षा लेने की व्यवस्था थी. 151 रुपए में गुरुमंत्र के साथ ही सुग्रीवानंद के चित्र वाला लाकेट दिया जा रहा था. गुरुमंत्र के नाम पर किसी को राम, किसी को कृष्ण, किसी को शिव का नाम दे कर उस का जाप करने की हिदायत दी जा रही थी. ये दीक्षा पाए लोग सामूहिक रूप से गुरुदर्शन के हकदार थे.

दूसरी दीक्षा 1,100 रुपए की थी. इन्हें चांदी में मढ़ा हुआ लाकेट दिया जा रहा था. गुरुमंत्र और सुग्रीवानंद की कथित लिखी हुई कुछ पुस्तकें देने के साथ उन्हें कभीकभी सुग्रीवानंद के मुख्यालय पर जा कर मिलने की हिदायत दी जा रही थी.

सब से महंगी दीक्षा 21 हजार रुपए की थी. कुछ खास पैसे वाले ही इस गुरुदीक्षा का लाभ उठा सके. ऐसे अमीर भक्त ही तो महात्माओं के खास प्रिय होते हैं. इन भक्तों को सोने की चेन में सुग्रीवानंद के चित्र वाला सोने का लाकेट दिया गया. पुस्तकें दी गईं और प्रवचनों, भजनों की सीडियां भी दी गईं. इन्हें हक दिया गया कि ये कहीं भी, कभी भी गुरु से मिल कर अपने मन की शंका का निवारण कर सकते हैं. इस विभाजित गुरुदीक्षा को देख कर लगा कि स्वर्ग की व्यवस्था भी किसी नर्सिंग होम की तरह होगी.

जिस ने महात्माजी से छोटी गुरुदीक्षा ली थी वह मरने के बाद स्वर्ग जाएगा तो उस के लिए खिड़की खुलेगी. ऐसे तमाम लोगों को सामूहिक रूप में जनरल वार्र्ड में रखा जाएगा. विशिष्ट दीक्षा वालों के लिए स्वर्ग का बड़ा दरवाजा खुलेगा और ये प्राइवेट रूम में रहेंगे.

आज से लगभग 10 साल पहले रमेश एक प्राइवेट हाउसिंग कंपनी में अधिकारी था. एक बार भ्रष्टाचार के मामले में वह पकड़ा गया और नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार शातिर दिमाग रमेश सोचता रहता कि काम ऐसा होना चाहिए जिस में मेहनत कम हो, इज्जत खूब हो और पैसा भी बहुत अधिक हो. वह कई दिन तक इस पर विचार करता रहा कि ये तीनों चीजें एकसाथ कैसे मिलें. तभी उसे सूझा कि धर्म के रास्ते यह सहज संभव है. धर्म की घुट्टी समाज को हजारों वर्षों से पिलाई गई है. यहां अपनेआप को धार्मिक होना लोग श्रेष्ठ मानते हैं. जो शोधक है वह भी दान दे कर अपने अपराधबोध को कम करना चाहता है. यह सब सोेचने के बाद रमेश ने पहले अपनी एक कीर्तन मंडली बनाई और अपना नाम बदल सुग्रीवानंद कर लिया. कीर्तन करतेकरते सुग्रीवानंद कथा करने लगा. धीरेधीरे वह बड़ा कथावाचक बन गया. लोगों को बातों में उलझा कर, भरमा कर, बहका कर धन वसूलने के बहुत से तरीके भी जान गया. उस ने बहुत बड़ा आश्रम बना लिया.

इस तरह दुकानदारी चल पड़ी और धनवर्षा होने लगी तो सरकार से अनुदान पाने के लिए सुग्रीवानंद ने गौशाला और स्कूल भी खोल लिए.

सुग्रीवानंद इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझता था कि जो पूंजीपति शोषक और बेईमान होता है उस के अंदर एक अपराधबोध होता है और वह दान दे कर इस बोध से मुक्त होना चाहता है. सुग्रीवानंद जब भी अपने अमीर शिष्यों से घिरा होता तो उन्हें दान की महिमा पर जरूर घुट्टी पिलाता था.

सुरेश एक उद्योगपति था. उस ने भी सुग्रीवानंद से गुरुदीक्षा ली थी. अब वह उस का शिष्य था और शिष्य होने के नाते गुरु के आदेश का पालन करना अपना धर्म समझता था. एक दिन सुग्रीवानंद ने सुरेश से कहा, ‘‘वत्स, मैं ने आश्रम की तरफ से कुछ गरीब कन्याओं के विवाह का संकल्प लिया है.’’

‘‘यह तो बड़ा शुभ कार्य है, गुरुजी. मेरे लिए कोई सेवा बताएं.’’

‘‘वत्स, धर्मशास्त्र कहते हैं कि दान देने में ही मनुष्य का कल्याण है. दान से यह लोक भी सुधरता है और परलोक भी.’’

‘‘आप आदेश करें, गुरुजी, मैं तैयार हूं.’’

‘‘लगभग 2 लाख रुपए का कार्यक्रम है.’’

सुरेश इतनी बड़ी रकम सुन कर मौन हो गया.

शिकार को फांसने की कला में माहिर शिकारी की तरह सुग्रीवानंद ने कहा, ‘‘देखो वत्स, सुरेश, तुम मेरे सब से प्रिय शिष्य हो. इस शुभ अवसर का पूरा पुण्य तुम्हें मिले, यह मेरी इच्छा है. वरना मैं किसी और से भी कह सकता हूं, मेरी बात कोई नहीं टालता.’’

गुरुजी उस पर इतने मेहरबान हैं, यह सोच कर उस ने दूसरे दिन 2 लाख रुपए ला कर गुरुजी को भेंट कर दिए.

रुपए लेने के बाद सुग्रीवानंद ने कहा, ‘‘यह बात किसी दूसरे शिष्य को मत बताना. अध्यात्म के रास्ते पर भी बड़ी ईर्ष्या होती है. भगवान को पाने के लिए दान बहुत बड़ी साधना है और यह साधना गुप्त ही होनी चाहिए.’’

गुरु की आज्ञा का उल्लंघन धर्मभीरु सुरेश कैसे कर सकता था.

सुग्रीवानंद ने अपने सभी अमीर शिष्यों को अलगअलग समय में इसी तरह पटाया. सभी से 2-2 लाख रुपए वसूले और इन्हें दान की महान साधना को गुप्त रखने के आदेश दिए. इस तरह एक तीर से दो शिकार करने वाले सुग्रीवानंद के आश्रम में गरीब कन्याओं के विवाह कराए गए. उस ने मीडिया द्वारा तारीफ भी बटोरी लेकिन यह कोई नहीं जान पाया कि इस खेल में वह कितना पैसा कमा गया.

सुग्रीवानंद ने जगहजगह अपने आश्रम खोले थे लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि इन आश्रमों को उस के परिवार व खानदान के लोग ही नहीं बल्कि रिश्तेदार भी चला रहे थे. धर्मभीरु जनता से धन ऐंठने के नएनए तरीके ढूंढ़ने वाले सुग्रीवानंद ने किसी पत्रिका में आदिवासियों पर एक लेख पढ़ लिया था. बस, लोगों से पैसा हड़पने का उसे एक और तरीका मिल गया, उस ने एक कथा में कहा कि आप के जो अशिक्षित बनवासी भाई हैं वे बहुत ही गरीबी में जी रहे हैं. हम सभी का धर्म है कि उन की सेवा करें. उन्हें शिक्षा के साधन उपलब्ध कराएं. मैं ने इस निमित्त जो संकल्प लिया है वह आप सभी के सहयोग से ही पूरा हो सकता है. सेवा ही धर्म है और सेवा ही भगवान की पूजा है. फिर दरिद्र तो नारायण होता है. इसलिए दरिद्र के लिए आप जितना अधिक दान देंगे, नारायण उतना ही खुश होगा.

सुग्रीवानंद ने आह्वान किया कि आइए, आगे आइए. इस शहर के धनकुबेर आगे आएं और आदिवासियों के लिए उदार दिल से दान की घोषणा करें. सुरेश ने पहली घोषणा की कि 1 लाख रुपए मेरी तरफ से. इस के बाद तो लोग बढ़चढ़ कर दान की घोषणाएं करने लगे. इस तरह सुग्रीवानंद के आश्रम के नाम लगभग 80 लाख रुपए की घोेषणा हो गई.

अभी तक सुरेश इस खुशफहमी में था कि गुरुजी की बातों को मान कर उसे अध्यात्म का लाभ प्राप्त होगा, परलोक का सुख मिलेगा मगर इस परलोक को सुधारने के चक्कर में वह मुसीबत में पड़ता जा रहा था. उस का सारा समय तो दीक्षा के बाद गुरुजी की बताई साधनाओं में ही व्यतीत हो जाता था और कमाई का अधिकांश धन गुरुजी को दान देने में.

परिणाम यह हुआ कि सुरेश का व्यापार डांवांडोल होने लगा. व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी सक्रिय हो गए. वह लाभ कमाने लगे और उस के हिस्से में घाटा आता गया. समय पर आर्डरों की सप्लाई न देने की वजह से बाजार में उस की साख गिरती गई. लाखों रुपए उधारी में फंस गए तब उसे हैरानी इस बात पर भी हुई कि दान का यह उलटा फल क्यों मिल रहा है जबकि गुरुजी कहते थे कि तुम जो भी दान दोगे, उस का कई गुना हो कर वापस मिलेगा. जैसे धरती में थोड़ा सा बीज डालते हैं तो वह कई गुना कर के फसल के रूप में लौटा देती है पर उस ने तो लाखों का दान दिया, फिर वह कंगाली के कगार पर क्यों?

सुरेश ने अपनी परेशानी गुरुजी के सामने रखी. सुग्रीवानंद ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘अरे बेटा, भगवान इसी तरह तो परीक्षा लेते हैं. भगवान अपने प्रिय भक्त को परेशानियों में डालते हैं और देखते हैं कि वह भक्त कितना सच्चा है.’’

सुरेश को यह जवाब उचित नहीं लगा. उस ने फिर पूछा, ‘‘गुरुजी भगवान तो अंतर्यामी हैं. वह जानते हैं कि भक्त कितना सच्चा है. फिर परीक्षा की उन्हें क्या जरूरत है?’’

सुग्रीवानंद को इस का कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘सुरेश, भगवान के विधान को कभी तर्कों से नहीं जाना जा सकता. यह तो विश्वास का मामला है. गुरु की बातों पर संदेह करोगे तो कुछ प्राप्त नहीं होगा.’’

सुरेश को उस के प्रश्न का सही उत्तर नहीं मिला. सुरेश की जो जिज्ञासा थी, उस का उत्तर आज भी किसी महात्मा या कथावाचक के पास नहीं है. महात्माओं के अनुसार ईश्वर घटघटवासी है. वह त्रिकालदर्शी है. करुणा का सागर है. अंतर्यामी है. व्यक्ति के मन की हर बात जानता है. वह कितना सच्चा है, कितना कपटी है, ईश्वर को सब पता रहता है. फिर वह भक्त की परीक्षा क्यों लेता है? यह प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है.

Short Story: बंद आकाश खुला आकाश

Short Story, लेखक- भुवनचंद्र जोशी

अपने शौक के चलते मैं ने एक तोते के बच्चे को खरीद कर पिंजरे में बंद कर दिया. लेकिन कुछ समय बाद जब तोतों के झुंड को देख उस तोते ने उड़ने की कोशिश की तो पिंजरे में उस की छटपटाहट व बेचारगी ने हम सब को विचलित कर दिया.

एक दिन मैं तोते का बच्चा खरीद कर घर ले आया. उस के खानेपीने के लिए 2 कटोरियां पिंजरे में रख दीं. नयानया कैदी था इसलिए अकसर चुप ही रहता था. हां, कभीकभी टें…टें की आवाज में चीखने लगता.

घर के लोग कभीकभी उस निर्दोष कैदी को छेड़ कर आनंद ले लेते. लेकिन खाने के वक्त उसे भी खाना और पानी बड़े प्यार से देते थे. वह 1-2 कौर कुटकुटा कर बाकी छोड़ देता और टें…टें शुरू कर देता. फिर चुपचाप सीखचों से बाहर देखता रहता.

उसे रोज इनसानी भाषा बोलने का अभ्यास कराया जाता. पहले तो वह ‘हं…हं’ कहता था जिस से उस की समझ में न आने और आश्चर्य का भाव जाहिर होता पर धीरेधीरे वह आमाम…आमाम कहने लगा.

अब वह रोज के समय पर खाना या पानी न मिलने पर कटोरी मुंह से गिरा कर संकेत भी करने लगा, फिर भी कभीकभी वह बड़ा उदास बैठा रहता और छेड़ने पर भी ऐसा प्रतिरोध करता जैसे चिंतन में बाधा पड़ने पर कोई मनीषी क्रोध जाहिर कर फिर चिंतन में लीन हो जाता है.

एक दिन तोतों का एक बड़ा झुंड हमारे आंगन के पेड़ों पर आ बैठा, उन की टें…टें से सारा आंगन गूंज उठा. मैं ने देखा कि उन की आवाज सुनते ही पिंजरे में मानो भूचाल आ गया. पंखों की निरंतर फड़फड़ाहट, टें…टें की चीखों और चोंच के क्रुद्ध आघातों से वह पिंजरे के सीखचों को जैसे उखाड़ फेंकना चाहता था. उस के पंखों के टुकड़े हवा में बिखर रहे थे. चोंच लहूलुहान हो गई थी. फिर भी वह उस कैद से किसी तरह मुक्त होना चाहता था. झुंड के तोते भी उसे आवाज दे कर प्रोत्साहित करते से लग रहे थे.

झुंड के जाने के बाद उस का उफान कुछ शांत जरूर हो गया था लेकिन क्षतविक्षत उस कैदी की आंखों में गुस्से की लाल धारियां बहुत देर तक दिखाई देती रहीं. उस की इस बेचारगी ने घर के लोगों को भी विचलित कर दिया और वे उसे मुक्त करने की बात करने लगे, लेकिन बाद में बात आईगई हो गई.

कुछ दिनों बाद की बात है. एक दिन मैं ने इस अनुमान से उस का पिंजरा खोल दिया कि शायद वह उड़ना भूल गया होगा, द्वार खुला. वह धीरेधीरे पिंजरे से बाहर आया. एक क्षण रुक कर उस ने फुरकी ली और आंगन की मुंडेर पर जा बैठा. उस के पंखों और पैरों में लड़खड़ाहट थी. फिर भी वह अपनी स्वाभाविक टें…टें के साथ एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता जा रहा था. उस के बाद वह पहाड़ी, सीढ़ीदार खेतों पर बैठताउड़ता हुआ घर से दूर होने लगा.

अपनी भूल पर पछताता मैं, और गांव भर के बच्चे, तोते के पीछेपीछे उसे पुचकार कर बुलाते जा रहे थे और वह हम से दूर होता जा रहा था. मैं ने गौर किया कि उस की उड़ान में और तोतों जैसी फुरती नहीं थी. उस की इस कमी को लक्ष्य कर के मुझे शंका होने लगी कि अगर वह लौटा नहीं तो न तो अपने साथियों के साथ खुले आकाश में उड़ पाएगा और न ही अपना दाना जुटा पाएगा.

तोते को भी जैसे अपनी लड़खड़ाहट का एहसास हो चुका था. इसीलिए कुछ दूर जाने पर वह एक पेड़ की डाल पर बैठा ही रह गया और उसे पुचकारते हए मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने भी डरतेझिझकते अपनेआप को मेरे हवाले कर दिया.

काश, उस ने अपनी लड़खड़ाहट को अपनी कमजोरी न मान लिया होता तो वह उसी दिन नीलगगन का उन्मुक्त पंछी होता. मगर वह अपनी लड़खड़ाहट से घबरा कर हिम्मत हार बैठा और फिर से पिंजरे का पंछी हो कर रह गया.

करीब साल भर के बाद, एक दिन फिर उस के उड़ने की जांच हुई. अब की बार खुले में पिंजरा खोलने का जोखिम नहीं लिया गया. घर की बैठक में 2 बड़ी जालीदार खिड़कियों को छोड़ कर बाकी रास्ते बंद कर दिए गए. पिंजरा खोला गया. कुछ दूर खड़े हो कर हम सबउसे ही देखने लगे. पहले वह खुले द्वार की ओर बढ़ा. फिर रुक कर गौर से उसे देखने लगा.

उस ने एक फुरकी ली लेकिन द्वार की ओर नहीं बढ़ा. हमें लगा कि हमारे डर से वह बाहर नहीं आ रहा है. हम सब ओट में हो कर उसे देखने लगे. लेकिन वह दरवाजे की तरफ फिर भी नहीं बढ़ा. कुछ देर बाद वह दरवाजे की ओर बढ़ा जरूर लेकिन एक निगाह बाहर डाल कर फिर पिंजरे में मुड़ गया. फिर पिंजरे से निकल कर बाहर आया. हम सब उत्सुकता से उसे ही देख रहे थे. उस ने एक लंबी फुरकी ली, जैसे उड़ने से पहले पंखों को तोल रहा हो. वह पहली मुक्ति के समय की अपनी बेबसी को शायद भूल गया था.

उस ने 2-3 जगह अपने पंखों को चोंच से खुजलाया और झटके से पंखों को फैलाया कि एक ही उड़ान में वहां से फुर्र हो जाए लेकिन पंख केवल फड़फड़ा कर रह गए. वह चकित था. उस ने एक उड़ान भर कर पास के पीढ़े तक पहुंचना चाहा, लेकिन किनारे तक पहुंचने से पहले ही जमीन पर गिर पड़ा और फड़फड़ाने लगा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे हो क्या गया है. वह बारबार उड़ने की कोशिश करता और हर बार मुंह की खाता.

अंत में, थकाहारा, पिंजरे की परिक्रमा करने के बाद वह द्वार पर आ रुका. उस ने एक निराश नजर अपने चारों ओर डाली और सिर झुका कर धीरेधीरे पिंजरे के अंदर चला गया. मुड़ कर एक बार फिर ललचाई नजरों से उस ने पिंजरे के खुले द्वार को निहारा और हताशा से मुंह फेर लिया. पिंजरे में अपनी चोंच को पंखों के बीच छिपा कर आंख मूंद खामोश बैठ गया. अब चाह कर भी वह उस दिन पिंजरे को छोड़ कर नहीं जा सकता था.

वह शायद पछता रहा था कि मैं ने उस दिन उड़ जाने का मौका क्यों खो दिया. काश, उस दिन थोड़ी हिम्मत कर के मैं उड़ गया होता तो फिर चाहे मेरा जो होता, इस गुलामी से लाख गुना बेहतर होता, पर अब क्या करूं? उस ने मान लिया कि मुक्त उड़ान का, खुले आकाश का, बागों और खेतों की सैर का, प्रकृति की ममतामयी गोद का और नन्हे से अपने घोंसले का उस का सपना भी उसी की तरह इस पिंजरे में कैद हो कर रह जाएगा और एक दिन शायद उसी के साथ दफन भी हो जाएगा.

मुझे लगा जैसे आज उस का रोमरोम रो रहा है और वह पूरी मानव जाति को कोसते हुए कह रहा है:

‘यह आदमी नामक प्राणी कितना स्वार्थी है. खुद तो आजाद रहना चाहता है पर आजाद पंछियों को कैद कर के रखता है. ऊपर से हुक्म चलाता है, यह जताने के लिए कि कोई ऐसा भी है जो उस के इशारों पर नाचता है. मुझे कैद कर दिया पिंजरे में. ऊपर से हुक्म देता है, यह बोलो, वह बोलो. बोल दिया तो ‘शाबाश’ कहेगा, लाल फल खाने को देगा. न बोलो तो डांट पिलाएगा.

‘मुझे नहीं सीखनी इनसान की भाषा. खुद तो बोलबोल कर इनसानों ने इनसानियत का सत्यानाश कर रखा है. और हमें उन के बोल बोलने की सीख देते हैं. कहां बोलना है, कैसे बोलना है और कितना बोलना है यह इनसान अभी तक समझ नहीं पाया. इसे इनसान समझ लेता तो बहुत से दंगेफसाद, झगड़े और उपद्रव खत्म हो जाते.

‘चला है मुझे सिखाने, मेरी चुप्पी से ही कुछ सीख लेता कि दर्द अकेले ही सहना पड़ता है. फिर चीखपुकार क्यों? इतना भी इनसान की समझ में नहीं आता. बहुत श्रेष्ठ समझता है अपनेआप को. शौक के नाम पर पशुपक्षियों को कैद कर के उन पर हुक्म चलाता है और कहता है ‘पाल’ रखा है.

‘कुत्तेबिल्ली इसलिए पालता है कि उन पर धौंस जमा सके. दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो, ये कैसे मेरा हुक्म बजा लाते हैं. कैसे मेरे इशारों पर जीतेमरते हैं. हुक्म चलाने की, शासन करने की, अपनी आदम इच्छा को आदमी न जाने कब काबू कर पाएगा? इसीलिए तो निरंकुश घूम रहा है सारी सृष्टि में.

‘इनसान मिलजुल कर क्या खाक रहेगा, जबकि इसे दूसरा कोई ऐसा चाहिए जिस पर यह हुक्म चलाए. जब तक लोग हैं तो लोगों पर राज करता है. लोग न मिलें तो हम पशुपक्षियों पर रौब गांठता है. जब लोगों ने हुक्म मानने से यह कहते हुए मना कर दिया कि जैसे तुम, वैसे हम. तो फिर तुम कौन होते हो हम पर राज करने वाले? तब शामत हम सीधेसादे पशुपक्षियों पर आई. किसी ने मेरी बिरादरी को पिंजरे में डाला तो किसी ने प्यारी मैना को. किसी ने बंदर को धर पकड़ा तो किसी ने रीछ की नाक में नकेल डाल दी.

‘इनसान है कि हमें अपने इशारों पर नचाए जा रहा है. हमें नाचना है. हमारी मजबूरी है कि हम इनसान से कमजोर हैं. हमारे पास इनसान जैसा शरीर नहीं. हमारे पास आदमी जैसा फितरती दिमाग नहीं. आदमी जैसा सख्त दिल नहीं. हम आदमी जैसे मुंहजोर नहीं. इसीलिए हम बेबस हैं, लाचार हैं और इनसान हम पर अत्याचार करता चला आ रहा है.

काश, इनसान में यह चेतना आ जाए कि वह किसी को गुलाम बनाए ही क्यों? खुद भी आजाद रहे और दूसरे प्राणियों को भी आजाद रहने दे. जैसेजैसे ऐसा होता जाएगा वैसेवैसे यह दुनिया सुघड़ होती जाएगी, सुंदर होती जाएगी, सरस होती जाएगी. जब आदमी के ऊपर न तो किसी का शासन होगा और न ही आदमी किसी पर शासन करेगा तब उस की समझ में आएगा कि आजाद रहने और आजाद रहने देने का आनंद क्या है. बंद आकाश और खुले आकाश का अंतर क्या है? तब आदमी महसूस करेगा कि जब वह हम पशुपक्षियों को अपना गुलाम बनाता है तो हम पर और हमारे दिल पर क्या गुजरती है.’

तोते की टें…टें की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. मैं झटके से उठा. खूंटी पर से तोते का पिंजरा उतारा और चल पड़ा झुरमुट वाले खेतों की ओर.

खेत शुरू हो गए थे. पकी फसल की बालियां खाने के लिए हरे चिकने तोते झुरमुट से खेतों तक उड़ान भरते और चोंच में अनाज की बाली लिए लौटते. झुरमुट और खेत दोनों में उन के टें…टें के स्वर छाए थे. पिंजरे का तोता भी अब चहकने लगा था.

मैं रुक गया और पिंजरे को अपने चेहरे के सामने ले आया और ‘पट्टूपट्टू’ पुकारने लगा. वह पिंजरे में इधर से उधर, उधर से इधर व्याकुलता से घूमता जा रहा था. बीचबीच में पंख भी फड़फड़ाता जाता. उस में अप्रत्याशित चपलता आ गई थी. शायद यह दूसरे तोतों की आवाज का करिश्मा था जो वह मुक्ति के लिए आतुर हो रहा था.

मैं ने ज्यादा देर करना ठीक नहीं समझा. पिंजरे का द्वार झुरमुटों की तरफ कर के खोला और प्यार से बोला, ‘‘जा, उड़ जा. जा, शाबाश, जा.’’

वह सतर्क सा द्वार तक आया. गरदन बाहर निकाल कर जाने क्या सूंघा, पंख फड़फड़ाए और उड़ गया.  एक छोटी सी उड़ान. वह सामने के पत्थर पर जा टिका. एक क्षण वहां रुक कर पंख फड़फड़ाए और फिर उडान ली. यह उड़ान, पहली उड़ान से कुछ लंबी थी.

अब वह एक झाड़ी पर जा बैठा. उस के बाद उड़ा तो एक जवान पेड़ की लचकदार डाल पर जा बैठा. उस के बैठते ही डाल झूलने लगी. उस ने 1-2 झूले खाए और फिर यह जा, वह जा, तोतों के झुंड में शामिल हो गया.

मैं ने संतोष की सांस ली.

लौटने लगा तो हाथ में खाली पिंजरे की तरफ ध्यान गया. एक पल पिंजरे को देखा और विचार कौंधा कि सारे खुराफात की जड़ तो यह पिंजरा ही है. यह रहेगा, तो न जाने कब किस पक्षी को कैद करने का लालच मन में आ जाए.

मैं ने घाटी की ओर एक सरसरी नजर डाली और पिंजरे को टांगने वाले हुक से पकड़ कर हाथ में तोलते हुए एक ही झटके से उसे घाटी की तरफ उछाल दिया. पहाड़ी ढलान पर शोर से लुढ़कता पिंजरा जल्दी ही मेरी आंखों से ओझल हो गया.

घर लौटते समय मैं खुद को ऐसा हलका महसूस कर रहा था जैसे मेरे भी पंख उग आए हों.

Short Story: औरत का दर्द

Short Story, लेखक- सुधारानी श्रीवास्तव

‘‘मैडम, मेरा क्या कुसूर है जो मैं सजा भुगत रही हूं?’’ रूपा ने मुझ से पूछा. रूपा के पति ने तलाक का केस दायर कर दिया था. उसी का नोटिस ले कर वह मेरे पास केस की पैरवी करवाने आई थी.

उस के पति ने उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया था. रूपा की मां उस के साथ आई थी. उस ने कहा कि रूपा के ससुराल वालों ने बिना दहेज लिए विवाह किया था. उन्हें सुंदर बहू चाहिए थी.

रूपा नाम के अनुरूप सुंदर थी. जब रूपा छोटी थी तब उस की मां की एक सहेली ने रूपा के गोरे रंग को देख कर शर्त लगाई थी कि यदि तुम्हें इस से गोरा दामाद मिला तो मैं तुम्हें 1 हजार रुपए दूंगी. उस ने जब पांव पखराई के समय रूपेश के गुलाबी पांव देखे तो चुपचाप 1 हजार रुपए का नोट रूपा की मां को पकड़ा दिया.

रूपेश का परिवार संपन्न था. वे ढेर सारे कपड़े और गहने लाए थे. नेग भी बढ़चढ़ कर दिए थे. रूपा के घर से उन्होंने किसी भी तरह का सामान नहीं लिया था. रूपा के मायके वाले इस विवाह की भूरिभूरि प्र्रशंसा कर रहे थे. रूपा की सहेलियां रूपा के भाग्य की सराहना तो कर रही थीं पर अंदर ही अंदर जली जा रही थीं.

हंसीखुशी के वातावरण में रूपा ससुराल चली गई. रूपा अपने सुंदर पति को देखदेख कर उस से बात करने को आकुल हुई जा रही थी, पर रूपेश उस की ओर देख ही नहीं रहा था. ससुराल पहुंच कर ढेर सारे रीतिरिवाजों को निबटातेनिबटाते 2 दिन लग गए. रूपा अपनी सास, ननद व जिठानियों से घिरी रही. उस के खानेपीने का खूब ध्यान रखा गया. फिर सब ने घूमने का कार्यक्रम बनाया. 10-12 दिन इसी में लग गए. इस बीच रूपेश ने भी रूपा से बात करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई.

घूमफिर कर पूरा काफिला लौट आया. रूपा की सास ने वहीं से रूपा के पिता को फोन कर दिया था कि चौथी की रस्म के अनुसार रूपा को मायके ले जाएं. जैसे ही ये लोग लौटे, रूपा के पिता आ कर रूपा को ले गए. रूपा कोरी की कोरी मायके लौट आई. सास ने उस के पिता को कह दिया था कि वे लोग पुरानी परंपरा में विश्वास रखते हैं, दूसरे ही दिन शुक्र अस्त हो रहा है इसलिए रूपा शुक्रास्त काल में मायके में ही रहेगी.

रूपा 4 माह मायके रही. उस की सास और ननद के लंबेलंबे फोन आते. उन्हीं के साथ रूपेश एकाध बात कर लेता.

4 महीने बाद रूपेश के साथ सासननद आईं और खूब लाड़ जता कर रूपा को बिदा करा कर ले गईं. ननद ने अपना घर छोड़ दिया था और उस का तलाक का केस चल रहा था. वह मायके में ही रहती थी. इस बार रूपेश के कमरे में एक और पलंग लग गया था. डबल बेड पर रूपा अपनी ननद के साथ सोती थी व रूपेश अलग पलंग पर सोता था. रूपेश को उस की मां व बहन अकेला छोड़ती ही नहीं थीं जो रूपा उस से बात कर सके.

1-2 माह तक तो ऐसा ही चला. फिर ननद के दोस्त प्रमोद का घर आनाजाना बढ़ने लगा. धीरेधीरे सासननद ने रूपा को प्रमोद के पास अकेला छोड़ना शुरू कर दिया. रूपेश का तो पहले जैसा ही हाल था.

एक दिन जब रूपा प्रमोद के लिए चाय लाई तो उस ने रूपा का हाथ पकड़ कर अपने पास यह कह कर बिठा लिया, ‘‘अरे, भाभी, देवर का तो भाभी पर अधिकार होता है. मेरे साथ बैठो. जो तुम्हें रूपेश नहीं दे सकता वह मैं तुम्हें दूंगा.’’

रूपा किसी प्रकार हाथ छुड़ा कर भागी और उस ने सास से शिकायत की. सास ने प्रमोद को तो कुछ नहीं कहा, रूपा से ही बोलीं, ‘‘तो इस में हर्ज ही क्या है. देवरभाभी का रिश्ता ही मजाक का होता है.’’

रूपा सन्न रह गई. वह आधुनिक जरूर थी पर उस का परिवार संस्कारी था. और यहां तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं थी. प्रमोद की छेड़खानी बढ़ने लगी. उसे सास व ननद का प्रोत्साहन जो था. एक दिन रूपा ने चुपके से पिता को फोन कर दिया. मां की बीमारी का बहाना बना कर वे रूपा को मायके ले आए. रूपा ने रोरो कर अपनी मां जैसी भाभी को सबकुछ बता दिया तो परिवार वालों को संपन्न परिवार के ‘सुदर्शन सुपुत्र’ की नपुंसकता का ज्ञान हुआ. चूंकि यह ऐसी बात थी जिस से दोनों परिवारों की बदनामी थी, इसलिए वे चुप रहे. 1 माह बाद सासननद रूपेश को ले कर रूपा को लेने आईं तो रूपा की मां व भाभी ने उन्हें आड़े हाथों लिया. सास तमतमा कर बोलीं, ‘‘तुम्हारी लड़की का ही चालचलन ठीक नहीं है, हमारे लड़के को दोष देती है.’’

रूपा की मां बोलीं, ‘‘यदि ऐसा ही है तो अपने लड़के की यहीं डाक्टरी जांच करवाओ.’’

इस पर सासननद ने अपना सामान उठाया और गाड़ी में बैठ कर चली गईं. इस बात को लगभग 8-10 माह गुजर गए. रूपा के विवाह को लगभग 2 वर्ष हो चुके थे कि रूपेश की ओर से तलाक का केस दायर कर दिया गया था. रूपा के प्रमोद के साथ संबंधों को आधार बनाया गया था और प्रमोद को भी पक्षकार बनाया था, ताकि प्रमोद रूपा के साथ अपने संबंधों को स्वीकार कर रूपा को बदचलन सिद्घ कर सके.

मेरे लिए रूपा का केस नया नहीं था. इस प्रकार के प्रकरण मैं ने अपने साथी वकीलों से सुने थे और कई मामले सामाजिक संगठनों के माध्यम से सुलझाए भी थे. इस प्रकार के मामलों में 2 ही हल हुआ करते हैं या तो चुपचाप एकपक्षीय तलाक ले लो या विरोध करो. दूसरी स्थिति में औरत को अदालत में विरोधी पक्ष के बेहूदा प्रश्नों को झेलना पड़ता है. मैं ने रूपा से नोटिस ले लिया और उसे दूसरे दिन आने को कहा.

मैं ने प्रत्येक कोण से रूपा के केस पर सोचविचार किया. रूपा का अब ससुराल में रहना संभव नहीं था. वह जाए भी तो कैसे जाए. पति से ही ससुराल होती है और पति का आकर्षण दैहिक सुख होता है. इसी से वह नई लड़की के प्रति आकृष्ट होता है. जब यह आकर्षण ही नहीं तो वह रूपा में क्यों दिलचस्पी दिखाएगा. इसलिए रूपा को तलाक तो दिलवाना है किंतु उस के दुराचरण के आधार पर नहीं. औरत हूं न इसीलिए औरत के दर्द को पहचानती हूं.

सोचविचार कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अलग से नपुंसकता के आधार पर केस लगाने के बजाय मैं इसी में प्रतिदावा लगा दूं. हिंदू विवाह अधिनियम में इस का प्रावधान भी है. दोनों पक्षकार हिंदू हैं और विवाह भी हिंदू रीतिरिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ है.

दूसरे दिन रूपा, उस की मां व भाभी आईं तो मैं ने उन्हें समझा दिया कि हम लोग उन के प्रकरण का विरोध करेंगे. साथ ही उसी प्रकरण में रूपेश की नपुंसकता के आधार पर तलाक लेंगे. इसलिए पहले रूपा की जांच करा कर डाक्टरी प्रमाणपत्र ले लिया जाए.

पूरी तैयारी के साथ मैं ने पेशी के दिन रूपा का प्रतिदावा न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया. साथ ही एक आवेदन कैमरा प्रोसिडिंग का भी लगा दिया, जिस में सुनवाई के समय मात्र जज और पक्षकार ही रहें और इस प्रक्रिया का निर्णय कहीं प्रकाशित न हो.

जब प्रतिदावा रूपा की सासननद को मिला तो वे बहुत बौखलाईं. उन्हें अपने लड़के की कमजोरी मालूम थी. प्रमोद को इसीलिए परिचित कराया गया था ताकि रूपा उस से गर्भवती हो जाए तो रूपेश की कमजोरी छिप जाए और परिवार को वारिस मिल जाए.

मैं ने न्यायालय से यह भी आदेश ले लिया कि रूपेश की जांच मेडिकल बोर्ड से कराई जाए. इधरउधर बहुत हाथपैर मारने पर जब रूपा की सासननद थक गईं तो समझौते की बात ले कर मेरे पास आईं. रूपा के पिता भी बदनामी नहीं चाहते थे इसलिए मैं ने विवाह का पूरा खर्च व अदालत का खर्च उन से रूपा को दिलवा कर राजीनामा से तलाक का आवेदन लगवा दिया. विवाह होने से मुकदमा चलने तक लगभग ढाई वर्ष हो गए थे. रूपा को भी मायके आए लगभग डेढ़ वर्ष हो गए थे. इसलिए राजीनामे से तलाक का आवेदन स्वीकार हो गया. दोनों पक्षों की मानमर्यादा भी कायम रही.

इस निर्णय के लगभग 5-6 माह बाद मैं कार्यालय में बैठी थी. तभी रूपा एक सांवले से युवक के साथ आई. उस ने बताया कि वह उस का पति है, स्थानीय कालिज में पढ़ाता है. 2 माह पूर्व उस ने कोर्ट मैरिज की है. उस की मां ने कहा कि हिंदू संस्कार में स्त्री एक बार ही लग्न वेदी के सामने बैठती है इसलिए दोनों परिवारों की सहमति से उन की कोर्ट मैरिज हो गई. रूपा मुझे रात्रि भोज का निमंत्रण देने आई थी.

उस के जाने के बाद मैं सोचने लगी कि यदि मैं ने औरत के दर्द को महसूस कर यह कानूनी रास्ता न अपनाया होता तो बेचारी रूपा की क्या हालत होती. अदालत में दूसरे पक्ष का वकील उस से गंदेगंदे प्रश्न पूछता. वह उत्तर न दे पाती तो रूपेश को उस के दुराचारिणी होने के आधार पर तलाक मिल जाता. फिर उसे जीवन भर के लिए बदनामी की चादर ओढ़नी पड़ती. सासननद की करनी का फल उसे जीवन भर भुगतना पड़ता. जब तक औरत अबला बनी रहेगी उसे दूसरों की करनी का फल भुगतना ही पड़ेगा. समाज में उसे जीना है तो सिर उठा कर जीना होगा.

Hindi Story: सौतेला बरताव – जिस्म बेचने को मजबूर एक बेटी

Hindi Story: चंपा को देह धंधा करने के आरोप में जेल हो गई. वह रंगे हाथ पकड़ी गई थी. वह जेल की सलाखों में उदास बैठी हुई थी. चंपा के साथ एक अधेड़ औरत भी बैठी हुई थी. थोड़ी देर पहले पुलिस उसे भी इस बैरक में डाल गई थी. चंपा जिस होटल में देह धंधा करती थी, उसी होटल में पुलिस ने छापा मारा था और उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था. आदमी तो भाग गया था, मगर पुलिस वाला उसे दबोचते हुए बोला था, ‘चल थाने.’

‘नहीं पुलिस बाबू, मुझे माफ कर दो…’ वह हाथ जोड़ते हुए बोली थी, ‘अब नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘वह आदमी कौन था ’ पुलिस वाला उसी अकड़ से बोला था.

‘मुझे नहीं मालूम कि वह कौन था ’ वह फिर हाथ जोड़ते हुए बोली थी.

‘झूठ बोलती है. चल थाने, सारा सच उगलवा लूंगा.’

‘मुझे छोड़ दीजिए.’

‘हां, छोड़ देंगे. लेकिन तू ने उस ग्राहक से कितने पैसे लिए हैं ’

‘कुछ भी नहीं दे कर गया.’

‘झूठ कब से बोलने लगी  चल थाने ’

‘छोड़ दीजिए, कहा न कि अब कभी नहीं करूंगी यह धंधा.’

‘करेगी… जरूर करेगी. अगर करना ही है, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ. फिर हम तुझ से कुछ नहीं कहेंगे…’ हवलदार थोड़ा नरम पड़ते हुए बोला था, ‘तुझे छोड़ सकता हूं, मगर अंटी में जितने पैसे हैं, निकाल कर मुझे दे दे.’

‘साहब, आज तो मेरी अंटी में कुछ भी नहीं है,’ वह बोली थी.

‘ठीक है, तब तो एक ही उपाय है… जेल,’ फिर वह पुलिस वाला उसे पकड़ कर थाने ले गया था. चंपा दीवार के सहारे चुपचाप बैठी हुई थी. वह अधेड़ औरत न जाने कब से उसे घूर रही थी.आखिरकार वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘ऐ लड़की, तू कौन है ’’

तब चंपा ने अपना चेहरा ऊपर कर उस अधेड़ औरत की तरफ देखा, मगर जवाब कुछ नहीं दिया.

वह अधेड़ औरत जरा नाराजगी से बोली, ‘‘सुना नहीं  बहरी है क्या ’’

‘‘हां, पूछो ’’ चंपा ने कहा.

‘‘क्या अपराध किया है तू ने ’’

‘‘मैं ने वही अपराध किया है, जो तकरीबन हर औरत करती है ’’

‘‘क्या मतलब है तेरा गोलमोल बात क्यों कर रही है, सीधेसीधे कह न,’’ वह अधेड़ औरत गुस्से से बोली.

‘‘मुझे देह धंधा करने के आरोप में पकड़ा गया है.’’

‘‘शक तो मुझे पहले से ही था. अरे, जिस पुलिस वाले ने तुझे पकड़ा है, उस के मुंह पर नोट फेंक देती.’’

‘‘अगर मेरे पास पैसे होते, तो उस के मुंह पर मैं तभी फेंक देती.’’

‘‘तुम ने यह धंधा क्यों अपनाया ’’

‘‘क्या करोगी जान कर ’’

‘‘मत बता, मगर मैं सब जानती हूं.’’

‘‘क्या जानती हैं आप ’’

‘‘औरत मजबूरी में ही यह धंधा अपनाती है.’’

‘‘नहीं, गलत है. मैं मजबूरी में वेश्या नहीं बनी, बल्कि बनाई गई हूं.’’

‘‘कैसे अपनी कहानी सुना.’’

‘‘हां सुना दूंगी, मगर आप इस उम्र में जेल में क्यों आई हो ’’

‘‘मेरी बात छोड़, मेरा तो जेल ही घर है,’’ उस अधेड़ औरत ने कहा.

‘‘आप आदतन अपराधी हैं ’’

‘‘यही समझ ले…’’ उस अधेड़ औरत ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘फिर भी सुनना चाहती है तो सुन. मैं अफीम की तस्करी करती थी. अब सुना तू अपनी कहानी.’’

चंपा की कहानी कुछ इस तरह थी: चंपा के पिता मजदूर थे. उन का नाम मांगीलाल था. उन्होंने रुक्मिणी नाम की औरत से शादी की थी.

शादी के 2 साल गुजर गए थे. एक दिन पिता मांगीलाल को पता चला कि रुक्मिणी मां बनने वाली है. उन की खुशियों का ठिकाना न रहा.

रुक्मिणी को बांहों में भरते हुए वे बोले थे, ‘पहला बच्चा लड़का होना चाहिए…’

‘यह मेरे हाथ में है क्या ’ रुक्मिणी उन्हें झिड़कते हुए बोली थी. 9 महीने बाद जब चंपा पैदा हुई, तो 4 दिन बाद उस की मां मर गई. पिता के ऊपर सारी जवाबदारी आ पड़ी. रिश्तेदार कहने लगे कि पैदा होते ही यह लड़की मां को खा गई. तब मौसी ने उसे पाला. मां के मरने पर पिता टूट गए थे. वे उदासउदास से रहने लगे थे. तब अपना गम भुलाने के लिए वे शराब पीने लगे थे. रिश्तेदारों और उन के बड़े भाई ने खूब कहा कि दोबारा शादी कर लो, मगर वे तैयार नहीं हुए थे. धीरेधीरे चंपा मौसी की गोद में बड़ी होती गई. जब वह 5 साल की हो गई, तब उसे स्कूल में भरती करा दिया गया. पिता को दोबारा शादी के प्रस्ताव आने लगे. चारों तरफ से दबाव भी बनने लगा. एक दिन पिता के बड़े भाई भवानीराम और उन की पत्नी तुलसाबाई आ धमके. आते ही भवानीराम बोले, ‘ऐसे कैसे काम चलेगा मांगीलाल ’

‘क्या कह रहे हैं भैया ’ मांगीलाल ने पूछा.

‘सारी जिंदगी यों ही बैठे रहोगे ’ भवानीराम ने दबाव डालते हुए कहा.

‘आप कहना क्या चाहते हो भैया ’

‘अरे देवरजी…’ तुलसाबाई मोरचा संभालते हुए बोली, ‘देवरानी को गुजरे 6-7 साल हो गए हैं. अब उस की याद में कब तक बैठे रहोगे. चंपा भी अब बड़ी हो रही है.’ ‘भाभी, मेरा मन नहीं है शादी करने का,’ मांगीलाल ने साफ इनकार कर दिया था. ‘मैं पूछती हूं कि आखिर मन क्यों नहीं है ’ दबाव डालते हुए तुलसाबाई बोली, ‘यों देवरानी की याद करने से वह वापस तो नहीं आ जाएगी. फिर शादी कर लोगे, तो देवरानी के गम को भूल जाओगे.’

‘नहीं भाभी, मैं ने कहा न कि मुझे शादी नहीं करनी है.’

‘क्यों नहीं करनी है  हम तेरी शादी के लिए आए हैं. और हां, तेरी हां सुने बगैर हम जाएंगे नहीं,’ भैया भवानीराम ने हक से कहा, ‘हम ने तेरे लिए लड़की भी देख ली है. लड़की इतनी अच्छी है कि तू रुक्मिणी को भूल जाएगा.’

‘नहीं भैया, मैं चंपा के लिए सौतेली मां नहीं लाऊंगा,’ एक बार फिर इनकार करते हुए मांगीलाल बोला.

‘कैसी बेवकूफों जैसी बातें कर रहा है. जिन की औरत भरी जवानी में ही चली जाती है, तब वे दोबारा शादी नहीं करते हैं क्या ’

‘अरे देवरजी, यह क्यों भूल रहे हो कि चंपा को मां मिलेगी. कब तक मौसी उस की देखरेख करती रहेगी  इस बात को दिमाग से निकाल फेंको कि हर मां सौतेली होती है. जिस के साथ हम तुम्हारी शादी कर रहे हैं, वह ऐसी नहीं है. चंपा को वह अपनी औलाद जैसा ही प्यार देगी ’ ‘भाभी, आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो ’

‘बिना औरत के आदमी का घर नहीं बसता है और हम तेरा घर बसाना चाहते हैं. लड़की हम ने देख ली है. एक बात कान खोल कर सुन ले, हम तेरी शादी करने के लिए आए हैं. इनकार तो तुम करोगे नहीं. बस, तैयार हो जाओ,’ कह कर भवानीराम ने बिना कुछ सुने फैसला सुना दिया. मांगीलाल को भी हार माननी पड़ी. भैयाभाभी ने जो लड़की पसंद की थी, उस का नाम कलावती था. मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह कलावती के साथ उस की शादी कर दी गई. जब तक कलावती की पहली औलाद न हुई, तब तक उस ने चंपा को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह उस की सौतेली मां है. मगर बच्चा होने के बाद वह चंपा को बातबात पर डांटने लगी. उस का स्कूल छुड़वा दिया गया. वह उस से घर का सारा काम लेने लगी. पिता भी नई मां पर ज्यादा ध्यान देने लगे. इस तरह नई मां ने पिता को अपने कब्जे में कर लिया. धीरेधीरे चंपा बड़ी होने लगी. लड़के उसे छेड़ने लगे.

कलावती भी उसे देख कर कहने लगी, ‘लंबी और जवान हो गई है. कब तक हमारे मुफ्त के टुकड़े तोड़ती रहेगी. कोई कामधंधा कर. कामधंधा नहीं मिले, तो किसी कोठे पर जा कर बैठ जा. तेरी जवानी तुझे कमाई देगी.’ चंपा के पिता जब शादी की बात चलाते, तब सौतेली मां कहती, ‘कहां शादी के चक्कर में पड़ते हो. चंपा अब बड़ी हो गई है. साथ ही, जवान भी. रूप भी ऐसा निखरा है कि अगर इसे किसी कोठे पर बिठा दो, तो खूब कमाई देगी.’ तब पिता विरोध करते हुए कहते, ‘जबान से ऐसी गंदी बात मत निकालना. क्या वह तुम्हारी बेटी नहीं है ’

‘‘मेरी पेटजाई नहीं है वह. आखिर है तो सौतेली ही,’ कलावती उसी तरह जवाब देती. पिता को गुस्सा आता, मगर वह उन्हें भी खरीखोटी सुना कर उन की जबान बंद कर देती थी. इस गम में पिता ज्यादा शराब पीने लगे. रातदिन की चकचक से तंग आ कर चंपा ने कोई काम करने की ठान ली. मगर सौतेली मां तो उस से देह धंधा करवाना चाहती थी. आखिर में चंपा ने भी अपनी सौतेली मां की बात मान ली. जिस होटल में वह धंधा करती थी, वहीं सौतेली मां ग्राहक भेजने लगी. ग्राहक से सारे पैसे सौतेली मां झटक लेती थी. चंपा ने उस अधेड़ औरत के सामने अपना दर्द उगल दिया. थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘तेरी कहानी बड़ी दर्दनाक है. आखिर सौतेली मां ने अपना सौतेलापन दिखा ही दिया.’’

चंपा कुछ नहीं बोली.

‘‘अब क्या इरादा है  तेरी सौतेली मां तुझे छुड़ाने आएगी ’’ उस अधेड़ औरत ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो अब जेल में ही रहना चाहती हूं. उस सौतेली मां की सूरत भी नहीं देखना चाहती हूं.’’

‘‘तू भले ही मत देख, मगर तेरी सौतेली मां तुझ से पैसा कमाएगी, इसलिए तुझे छुड़ाने जरूर आएगी,’’ अपना अनुभव बताते हुए वह अधेड़ औरत बोली.

‘‘मगर, अब मैं घर छोड़ कर भाग जाऊंगी ’’

‘‘भाग कर जाएगी कहां  यह दुनिया बहुत बड़ी है. यह मर्द जात तुझे अकेली देख कर नोच लेगी. मैं कहूं, तो तू किसी अच्छे लड़के से शादी कर ले.’’ ‘‘कौन करेगा मुझ से शादी बस्ती के सारे बिगड़े लड़के मुझ से शादी नहीं मेरा जिस्म चाहते हैं. वैसे भी मैं बदनाम हो गई हूं. अब कौन करेगा शादी ’’ ‘‘हां, ठीक कहती हो…’’ कह कर वह अधेड़ औरत खामोश हो गई. कुछ पल सोच कर वह अधेड़ औरत बोली, ‘‘हम औरतों के साथ यही परेशानी है. देख न मुझे भी मेरी जवानी का फायदा उठा कर तस्करी का काम दिया, ताकि औरत देख कर कोई शक नहीं करे. मगर जब पैसे मिलने लगे, तब धंधा मुझे रास आ गया. इस का नतीजा देख रही हो, आज मैं जेल में हूं.’’ फिर दोनों के बीच काफी देर तक सन्नाटा पसरा रहा. तभी एक पुलिस वाले ने ताला खोलते हुए कहा, ‘‘बाहर निकल. तेरी मां ने जमानत दे दी है.’’ चंपा ने देखा कि उस की मां कलावती खड़ी थी. वह गुस्से में बोली, ‘‘तू चुपचाप धंधा करती रही और मुझे बदनाम कर दिया. सारी बस्ती वाले मुझ पर थूक रहे हैं. आखिर मैं तेरी सौतेली मां हूं न, बदनाम तो होना ही है. वैसे भी सौतेली मां तो बदनाम ही रहती है.

‘‘चल, निकल बाहर. अब कभी धंधा किया न, तो तेरी खाल खींच लूंगी. मां हूं तेरी, भले ही सौतेली सही. मैं ने जमानत दे दी है.’’ चंपा कुछ नहीं बोली. वह अपनी सौतेली मां के साथ हो ली. वह जानती थी कि यह केवल लोकलाज का दिखावा है. अब यह कैसी साहूकार बन रही है. उलटा चोर कोतवाल को डांट कर.

Hindi Story: स्वयंसिद्धा – दादी ने कैसे चुनी नई राह

Hindi Story: रात 1 बजे नीलू के फोन की घंटी घनघना उठी. दिल अनजान आशंकाओं से घिर गया. बेटा विदेश में है. बेटी पुणे के एक होस्टल में रहती है. किस का फोन होगा, मैं सोच ही रही थी कि पति ने तेज कदमों से जा कर फोन उठा लिया. पापा का देहरादून से फोन था, मेरी दादी नहीं रही थीं. यह सुनते ही मैं रो पड़ी. इन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा, ‘‘देखो मधु, दादी अपनी उम्र के 84 साल जी चुकी थीं, आखिर एक न एक दिन तो यह होना ही था. तुम जानती ही हो कि जन्म और मृत्यु जीवन के 2 अकाट्य सत्य हैं.’’

उन्होंने मुझे पानी पिला कर कुछ देर सोने की हिदायत दी और कहा, ‘‘सवेरे 4 बजे निकलना होगा, तभी अंतिमयात्रा में शामिल हो पाएंगे.’’

मैं लेट गई पर मेरी अश्रुपूरित आंखों के सामने अतीत के पन्ने उलटने लगे…

मेरी दादी शांति 16 वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई थीं. 2 महीने का बेटा गोद में दे कर उन का सुहाग घुड़सवारी करते समय अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो कर इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गया.

वैधव्य की काली घटाओं ने उन की खुशियों के सूरज को पूर्णतया ढक दिया. गोद में कुलदीपक होने के बावजूद उन पर मनहूस का लेबल लगा उन्हें ससुरालनिकाला दे दिया गया.

ससुराल से निर्वासित हो कर दादी ने मायके का दरवाजा खटखटाया. मायके के दरवाजे तो उन के लिए खुल गए पर सासससुर की लाचारी का फायदा उठा कर उन की भाभी ने उन्हें एक अवैतनिक नौकरानी से ज्यादा का दर्जा न दिया.

मायके में दिनरात सेवा कर उन्होंने अपने बेटे के 10 साल के होते ही मायके को भी अलविदा कह दिया.

देहरादून में बरसों पहले ब्याही बचपन की सहेली का पता उन के पास था. बस, सहेली के आसरे ही वे देहरादून आ पहुंचीं.

सहेली तो मिली ही, साथ ही वहां एक कमरे का आश्रय भी मिल गया. सहेली और उस के पति दोनों उदार व दयालु थे. उन्होंने उन के बेटे यानी हमारे पापा का दाखिला भी एक नजदीकी स्कूल में करवा दिया.

दादी स्वेटर बुनने और क्रोशिए व धागे से विभिन्न तरह की चीजें बनाने में सिद्धहस्त थीं. स्वेटर पर ऐसे सुंदर नमूने डालतीं कि राह चलने वाला एक बार तो गौर से अवश्य देखता. उन के  बुने स्वेटरों और क्रोशिए के काम की धूम पूरे महल्ले में फैल गई. देखते ही देखते उन्हें खूब काम मिलने लगा. दिनरात मेहनत कर के वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गईं. उन्होंने सहेली को तहेदिल से धन्यवाद दिया और उसी के घर के पास 2 कमरों का मकान ले कर रहने लगीं, पर सहेली का उपकार कभी नहीं भूलीं.

पापा भी 16-17 वर्ष के हो चुके थे. उन्हें भी किसी जानकार की दुकान पर काम सीखने भेजने लगीं. पापा होनहार थे, बड़ी मेहनत और लगन से वे काम सीखने लगे. मायका छोड़ते समय भाभी की नजर से बचा उन की मां ने एक गहने की छोटी सी पोटली उन्हें थमा दी थी. उन्होंने उसे लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया था पर उन की मां ने अपनी कसम दे दी थी. अपनी मां की बेबसी और डबडबाई आंखें देख उन्हें वह पोटली लेनी पड़ी. दादी अपनी मां की निशानी बड़ी जतन से संभाल कर रखती आई थीं. कठिनतम परिस्थितियों में भी कभी उसे नहीं छुआ पर आज अपने होनहार बेटे का कारोबार जमाने की खातिर उस निशानी का भी मोलभाव कर दिया.

आज मैं स्वयं को और इस नई पीढ़ी को देखती हूं तो चारों और असहिष्णुता व आक्रोश फैला देखती हूं. छोटीछोटी बातों में गुस्सा, तुनकमिजाजी देखने को मिलती है. सारी सुखसुविधाएं होते हुए भी असंतुष्टता दिखाई देती है, पर दादी के जीवन में तो 16 वर्ष के बाद ही पतझड़ ने स्थायी डेरा जमा लिया था. जीवन में कदमकदम पर अपमान, अभाव व धोखे खाए थे पर इन सब ने उन में गजब की सहनशीलता भर दी थी. हम ने कभी घर में उन्हें गुस्सा करते, चिल्लाते नहीं देखा. अपनी मौन मुसकान से ही वे सब के दिलों पर राज करती थीं. मम्मीपापा को उन से कोई शिकायत न थी. वे उन को मां बन कर सीख भी देतीं और दोस्त बना कर हंसीमजाक भी करतीं.

दादीजी के बारे में सोचतेसोचते कब सवेरा हो गया, पता ही नहीं चला. पति टैक्सी वाले को फोन करने लगे. मैं ने जल्दी से 2 कप चाय बना ली. हम चल दिए दादी की अंतिमयात्रा में शामिल होने.

टैक्सी में बैठते ही मैं ने आंखें मूंद लीं. दादी की यादों के चलचित्र की अगली रील चलने लगी…

दादी स्वयं पुराने जमाने की थीं लेकिन पासपड़ोस और महल्ले की औरतों की आजादी के लिए उन्होंने ही शंखनाद किया. ससुराल में घूंघट से त्रस्त कई महिलाओं को उन्होंने घूंघट से आजादी दिलवाई. घरों के बड़ेबुजुर्गों को समझाया कि सिर पर ओढ़नी, आंखों और दिल में बुजुर्गों के लिए आदरसेवा यही सबकुछ है. हाथभर का घूंघट निकाल कर बड़ेबूढ़ों का अपमान करना, उन की मजबूरी और लाचारी

में उन्हें कोसना गलत है. घूंघटों से बेजार महिलाओं को जीवन में बड़ी राहत मिल गई थी. दादी की बातें लोगों के दिलोजेहन में ऐसे उतरतीं जैसे धूप व प्यास से खुश्क गलों में मीठा शरबत उतरता.

दादी स्वयं पढ़ीलिखी न थीं. पर उन्होंने मम्मी के बीए की अधूरी पढ़ाई को पूरा करवाने का बीड़ा उठाया. घरपरिवार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मम्मी को कालेज भेजा. मुख्य विषय संगीत था, इसलिए हारमोनियम मंगवाया. शाम के समय मां सुर लगातीं तो दादी मंत्रमुग्ध हो कर आंखें बंद कर बैठ जातीं और 2-3 गाने सुने बिना न उठती थीं.

हमारे भाई का जन्मदिन भी वे बड़े निराले तरीके से मनवातीं. न तो पार्टी न डांस, बस, मां का बनाया मिल्ककेक काटा जाता. दोपहर को बड़ेबड़े कड़ाहों और पतीलों में जाएकेदार कढ़ीचावल और शुद्ध देशी घी में हलवा बनवाया जाता. विशेष मेहमान होते अनाथाश्रम के प्यारेप्यारे बच्चे जो अपने आश्रय का सुरीला बैंड बजाते हुए पंक्तिबद्ध हो कर आते और बड़े ही चाव से कढ़ीचावल व हलवे के भोजन से तृप्त होते थे.

साथ ही, रिटर्नगिफ्ट के रूप में एकएक जोड़ी कपड़े ले कर जाते थे. उस के बाद होता था महल्ले के सभी लोगों का महाभोज. एक बड़े से दालान में बच्चेबड़े सभी भोजन करते थे. हम सब घर वाले तब तक पंगत से नहीं उठते थे जब तक सब तृप्त न हो जाते. हलकेफुलके हंसी के माहौल में भोज होता मानो एक विशाल पिकनिक चल रही हो.

मैं तब 10वीं कक्षा में थी. स्कूल से घर आई तो देखा दीदी रो रही हैं और मम्मी पास ही में रोंआसी सी खड़ी हैं. दीदी ने आगे पढ़ने के लिए जो विषय लिया था, उस के लिए उन्हें सहशिक्षा कालेज में दाखिला लेना था. पर पापा आज्ञा नहीं दे रहे थे. दादी उन दिनों हरिद्वार गई हुई थीं. दीदी ने चुपके से उन्हें फोन कर दिया.

दादी ने आते ही एक बार में ही पापा से हां करवा ली. उन्होंने पापा को सिर्फ एक बात कही, मीरा को हम सब ने मिल कर संस्कार दिए हैं. उन में क्या कुछ कमी रह गई है जो मीरा को उस कालेज में जाने से तू रोक रहा है. हमें अपनी मीरा पर पूरा भरोसा है. वह वहां पर लगन से पढ़ कर अच्छे अंक लाएगी और हमारा सिर ऊंचा करेगी. परोक्षरूप से उन्होंने मीरा दीदी को भी हिदायत दे दी थी और वास्तव में दीदी ने प्रथम रैंक ला कर घरपरिवार का नाम रोशन कर दिया. इसी क्षण टैक्सी के हौर्न की आवाज ने हमें यादों के झरोखों से बाहर निकाला.

टैक्सी रफ्तार पकड़े हुए थी. शीघ्र ही हम देहरादून पहुंच गए. घर में प्रवेश करते ही दादी के पार्थिव शरीर को देखते ही यत्न से दबाई हुई हिचकी तेज रुदन में बदल गई. सभी पहुंच चुके थे. बस, मेरा इंतजार हो रहा था. पापा ने मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘मधु बेटी, इस प्रकार रो कर तुम अपनी दादी को दुखी कर रही हो. वे तो संसार के मायाजाल से मुक्त हुई हैं. एक 16 साल की विधवा का, साथ में एक दूधमुंहे बच्चे के साथ, इस संसाररूपी सागर को पार करना बहुत ही कठिन था. मुझे अपनी मां पर गर्व है. उन्होंने अपने आत्मसम्मान व इज्जत को गिरवी रखे बिना इस सागर को पार किया. वे तो स्वयंसिद्धा थीं. उन्होंने समाज की खोखली रूढि़यों, पाखंडों से दूर रह कर अपने रास्ते खुद बनाए. जो उन्हें अच्छा और सही लगा उसे ग्रहण किया और व्यर्थ की मान्यताओं को उन्होंने अपने मार्ग से हटा दिया. उन के मुक्तिपर्व को शोक में मत बदलो.’’

कुछ देर बाद दादी की अंतिमयात्रा आरंभ हो गई. बहुत बड़ी संख्या में लोग साथ थे. दादी की मृत्यु प्रक्रिया उन की इच्छानुसार की गई. न तो ब्राह्मण भोज हुआ न पुजारीपंडों को दान दिया गया. लगभग 200 गरीबों को भरपेट भोजन कराया गया और 1-1 कंबल उन्हें दानस्वरूप दिए गए. पापा ने दादी की इच्छानुसार अनाथाश्रम, महिला कल्याण घर और अस्पताल में 2-2 कमरे बनवा दिए.

देखतेदेखते दादी हम से बहुत दूर चली गईं. वे अपने पीछे छोड़ गईं संघर्षों का ऐसा अनमोल खजाना जो सभी नारियों के लिए एक सबक है कि कैसे कठिन से कठिनतम परिस्थितियों में भी अपने मानसम्मान व इज्जत को बचाते हुए आगे बढ़ें. वे इस युग की ऐसी महिला थीं जिस ने अपनी मृतप्राय जीवनबगिया को नवीन विचारों, दृढ़संकल्पों, कर्मठता व मेहनत के बलबूते फिर से हरीभरी बना दिया. वास्तव में वे स्वयंसिद्धा थीं.

Short Story: जरूरत है एक कोपभवन की

Short Story, लेखक- डॉ. अरुना शास्त्री 

आजकल के इंजीनियर और ठेकेदार यह बात अपने दिमाग से बिलकुल ही बिसरा बैठे हैं कि घर में एक कोपभवन का होना कितना जरूरी है. इसीलिए तो आजकल मकान के नक्शों में बैठक, भोजन करने का कमरा, सोने का कमरा, रसोईघर, सोने के कमरे से लगा गुसलखाना, सभी कुछ रहता है, अगर नहीं रहता है तो बस, कोपभवन.

सोचने की बात है कि राजा दशरथ के राज्य में वास्तुकला ने कितनी उन्नति की थी कि हर महल में कोप के लिए अलग से एक भवन सुरक्षित रहता था. शायद इसीलिए वह काल इतिहास में ‘रामराज्य’ कहलाया, क्योंकि उस काल में महिलाएं बजाय राजनीति के अखाड़े में कूदने के अपना सारा गुबार कोपभवनों में जा कर निकाल लेती थीं और इसीलिए समाज में इतनी शांति और अमनचैन छाया रहता था.

ठीक ही तो था. राजा दशरथ के काल की यह व्यवस्था कितनी अच्छी थी. पति अपनी पत्नियों को समान अधिकार देते थे. वे जानते थे कि कोप सरेआम, हाटबाजार में या कोई कोर्टकचहरी में करने की चीज नहीं है. इस के  लिए तो घर में ही अलग से कोपभवन का होना बहुत जरूरी है.

भला यह भी कोई बात हुई कि कुपिता हो कर बीवी बेचारी दिन भर मुंह फुलाए अपने 2 कमरों के छोटे से घर में काम करती रहे, पति को खाना खिलाए, बच्चों को स्कूल भेजे, शाम को फिर सभी को खिलापिला कर, बच्चों को सुला कर खुद भी अपना तकिया ले कर मुंह फेर कर लेट जाए.

पति के पास तो व्यस्तता का बहाना रहता है जिस के कारण वह जान ही नहीं पाता कि आज पत्नी अवमानिनी बनी हुई, कोप मुद्रा में दर्शन दे रही है या फिर वह इतना चतुर होता है कि जब तक हो सके, जानबूझ कर पत्नी के रूठने से अनजान बने रहने की ही कोशिश करता रहता है. तब क्या पत्नी खुद आ कर कहे कि सुनोजी, मैं रूठी हुई हूं, आप मुझे आ कर मना लीजिए.

पति अगर मनाने आ भी जाए तो आप क्या समझते हैं कि पत्नी ने कोई कच्ची गोलियां खेली हैं जो अपना रूठना छोड़ कर इतनी आसानी से मान जाएगी? रूठी पत्नी को मनाना इतना आसान काम नहीं है जितना आप समझ रहे हैं. न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं उसे मनाने के लिए. यदि कोई कुंआरा व्यक्ति वह दृश्य देख ले तो शादी के नाम से ही तौबा कर ले. राजा दशरथ समझदार थे कि इस के लिए उन्होंने एक कोपभवन का निर्माण करा रखा था, ताकि जब भी उन की तीनों पत्नियों में से किसी को भी रूठना होता था वह कोपभवन में चली जाती थी और राजा दशरथ भी झट अपना राजपाट छोड़ कर रूठी पत्नी को मनाने दौड़ पड़ते थे.

यह स्वर्ण अवसर देखते ही पत्नी चटपट 2-4 वर मांग लेती थी, उस का कोप भंग हो जाता था और पतिपत्नी सारा मनमुटाव भूल कर हंसतेगाते कोपभवन से बाहर आ जाते थे और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती थी. उन दिनों लोग पत्नी को तो सम्मान देते ही थे, साथ ही उस के कोप का भी भरपूर सम्मान करते थे.

अब तो हाल यह है कि तूफान के पहले की शांति देखते ही मेरे अबोध बच्चे कोप के आगमन की आशंका से ही सहम जाते हैं. सहमी हुई बबली मचल रहे गुड्डू को एक कोने में ले जा कर इशारे से समझाती है, ‘‘गुड्डू…मेरे भैया, देख, चुपचाप दूध गटक जा, आज मां का मूड ठीक नहीं है.’’ कोप के लक्षण देखते ही पतिदेव भी थाली में जो कुछ परोस दिया उसी को जल्दीजल्दी पेट में डाल कर भीगी बिल्ली की तरह दफ्तर भाग खड़े होते हैं और अतिरिक्त काम का बहाना बना कर रात को भी मेरे कोप के डर से देर से ही घर लौटते हैं.

मैं सांस रोके प्रतीक्षा करती हूं कि शायद अब वह मुझे मनाएंगे. यह जानते हुए भी कि मैं जाग रही हूं, मुझे सोई हुई समझने में अपनी खैरियत समझ कर वह खुद भी चुपचाप सो जाते हैं.

यह देख कर तो मुझे ही खिसिया कर रह जाना पड़ता है कि कौन सी कुघड़ी में रूठने का विचार मन में आया था. अलग से एक कोपभवन न होने के कारण ही तो कई बार कोप का कार्यक्रम स्थगित रखना पड़ता है. कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवनों का अस्तित्व होता. कल्पना कीजिए, पत्नी रूठ कर कोपभवन में जा बैठी है.

अब पतिदेव को सुबह बिस्तर से उठते ही चाय नहीं मिलेगी तो कड़कड़ाती ठंड में उनींदी आंखों से मुंहअंधेरे उठ कर दूध वाले से दूध लेने और स्टोव से मगजमारी करने में ही उन महाशय को नानी और दादी दोनों साथ ही याद आ जाएंगी. यही नहीं वह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने, उन का टिफन जमाने और स्वयं नहाधो, खापी कर दफ्तर के लिए तैयार होने की कल्पना से ही सिहर कर झटपट अपनी पत्नी को कोपभवन में जा कर मना लेने में ही अपना भला समझेंगे. कोपभवनों के अभाव में ही पत्नियों को एक अटैची हमेशा तैयार रखनी पड़ती है ताकि कुपित होते ही उस में कपड़े ठूंस कर पति को गाहेबगाहे मायके जाने की धमकी दी जा सके.

कितना अच्छा होता अगर आज भी कोपभवन होते तो पति की गाढ़ी मेहनत की कमाई रेलभाड़े में खर्च कर के पत्नी को मायके जाने की नौबत ही क्यों आती? पत्नी को अपने रूठने का इतना मलाल नहीं होता जितना मलाल पति द्वारा न मनाए जाने से होता है. पति का न मनाना कोप की आग में घी का काम करता है.

वह तो चाहती है कि पति कोपभवन में आ कर उस के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाए, ‘‘हे प्रियतमे, तुम अब मान भी जाओ, तुम्हारा चौकाचूल्हा संभालना मेरे बस की बात नहीं है. अब कान पकड़ कर कह रहा हूं जब तुम दिन कहोगी तो मैं भी दिन ही कहूंगा, तुम रात कहोगी तो मेरे लिए भी रात हो जाएगी.’’

इस के बाद पहली तारीख को तनख्वाह मिलते ही साड़ी लाने का वादा होता, शाम को फिल्म देखने जाने का कार्यक्रम बनता, पत्नी के अलावा किसी दूसरी सुंदरी की ओर आंख भी उठा कर न देखने की कसम खाई जाती और इस तरह पत्नी किसी फटेपुराने वस्त्र की तरह अपना कोप वहीं त्याग कर प्रसन्नवदना हो कर कोपभवन से बाहर आ जाती.

राम राज्य से ले कर इस 20वीं शताब्दी तक विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि अब तो कोपभवन साउंड प्रूफ (जिस में बाहर की आवाज अंदर न आ सके और अंदर की आवाज बाहर न जा सके) भी बन सकते हैं. फिर चाहे पति कोपभवन में दरवाजा बंद कर के पत्नी के सामने कान पकड़े या दंडबैठक लगाए या पत्नी के कोमल चरणों में साष्टांग दंडवत कर के अपने आंसुओं से उस के चरण कमल क्यों न पखारे और बदले में पत्नी उस से नाकों चने ही क्यों न चबवा दे, वहां उन्हें देखने वाला कोई न होगा.

पत्नी चाहे जितनी गरजेगी, बरसेगी मंथरा टाइप महरी या घर के नौकरचाकर कान लगा कर नहीं सुन सकेंगे और न उन के अबोध बच्चों की मानसिकता पर कोई बुरा प्रभाव पड़ेगा. तलाक की दर निश्चित रूप से कम हो जाएगी. आखिर पतिपत्नी का मामला है. कोपभवन में जा कर सुलझ जाएगा. उस में कोर्टकचहरी की दखलंदाजी क्यों हो?

Short Story: बर्मा के जंगलों में

Short Story: मैं 3 साल पहले अपने अखबार की ओर से दीमापुर,   इम्फाल के दौरे पर गया था. कुछ संसद सदस्य  असम, नागालैंड तथा मणिपुर के विकास कार्यों की समीक्षा करने वहां जा रहे थे. गुवाहाटी, दीमापुर के बाद हम लोग इम्फाल पहुंचे. वहां से हमारा काफिला मोरे के लिए रवाना हुआ.

मोरे, भारत और बर्मा की सीमा पर इम्फाल से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गांव है जो चारों तरफ पहाडि़यों से घिरा है. रास्ते में मेरी गाड़ी खराब हो गई और मैं काफिले से बिछुड़ गया. मोरे से 10 किलोमीटर पहले एक सैनिक छावनी पर हमें रुकना पड़ा. वहां हमारी तलाशी ली गई. पता चला कि आगे रास्ता अचानक खराब हो गया है. करीब 4 घंटे हमें वहां रुकना पड़ा फिर हम रवाना हुए.

हम अभी कुछ दूर ही चले थे कि बीच रास्ते में बड़ेबड़े पत्थर रखे दिखाई दिए. ड्राइवर और हम सभी यात्री उतर कर पत्थर हटाने लगे. इतने में 10-12 हथियारबंद लोगों ने हमें घेर लिया और बंदूक की नोक पर मुझे साथ चलने को कहा. ड्राइवर और बाकी यात्रियों को उन्होंने छोड़ दिया. मैं हाथ ऊपर कर के उन के साथसाथ चलने लगा.

करीब 2 घंटे तक जंगल में पैदल चलने के बाद, उन के साथ मैं एक पहाड़ी के नीचे पहुंचा तो देखा वहां

3-4 झोपडि़यां बनी हुई थीं. वहीं उन का कैंप था. एक झोंपड़ी में लकड़ी के खंभे के सहारे मुझे बांध दिया गया. थोड़ी देर बाद एक लड़की आई और उस ने मुझे चाय व बिस्कुट खाने को कहा. मेरे हाथ ढीले कर दिए गए. मैं ने चाय पी ली. अगले दिन सुबह उन का नेता आया और मुझ से प्रश्न करने लगा. शुद्ध हिंदी में उसे बात करते देख मुझे बहुत ताज्जुब हुआ.

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मंगल सिंह,’’ मैं ने जवाब में कहा, ‘‘मैं नई दिल्ली स्थित एक अखबार में संवाददाता की हैसियत से काम कर रहा हूं. यहां मैं संसद सदस्यों के दौरे की रिपोर्ट लिखने आया था. मैं पहली बार इस इलाके में आया हूं. यहां मेरा कोई जानपहचान का नहीं है.’’

‘‘लगता है हमारे लोग आप को गलती से उठा लाए हैं. हमारा निशाना तो कृष्णमूर्ति था जो इस इलाके में मादक पदार्थों की तस्करी करता है. आप का चेहरा थोड़ाथोड़ा उस से मिलता है. मुझे खबर मिली थी कि वह आप वाली गाड़ी में ही सफर कर रहा है. फिर भी आप के बारे में तहकीकात की जाएगी. यदि आप की बात सच होगी तो कुछ दिन बाद आप को छोड़ दिया जाएगा. तब तक आप को यहीं रखा जाएगा. आप को जो तकलीफ हुई उस के लिए मैं माफी चाहता हूं’’

‘‘क्या आप मेरे घर या संपादक तक मेरी खबर भिजवा सकते हैं बूढ़े मांबाप मेरी चिंता करेंगे.’’

‘‘आप एक पत्र लिख दें. दिल्ली में मेरे संगठन से जुड़े लोग आप के अखबार तक आप का पत्र पहुंचा देंगे पर पत्र पहले मैं पढूंगा. उस में इन सब बातों का जिक्र नहीं होना चाहिए. आप के हाथपांव मैं खोल देता हूं पर आप भागने की कोशिश न करें, क्योंकि अभी आप बर्मा के जंगलों में हैं. यदि आप भागेंगे तो हम आप को गोली मार देंगे और यदि आप कृष्णमूर्ति नहीं हैं तो आप को आजादी मिल जाएगी.’’

‘‘यदि आप बुरा न मानें तो मैं कृष्णमूर्ति के बारे में और ज्यादा जानना चाहता हूं आखिर यह किस्सा क्या है?’’ मेरा पत्रकार मन एक अनजान व्यक्ति के बारे में जानने को इच्छुक हो उठा था.

‘‘हमारा संगठन हर उस व्यक्ति के खिलाफ है जो मादक पदार्थों की तस्करी में लिप्त है. मैं ने उसे चेतावनी भी दी थी पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आता. अत: इस संगठन के कमांडर ने उसे गोली मारने का आदेश दिया है. इस बार फिर वह बच निकला है. लेकिन कब तक बचेगा. हमारे आदमी उसे ढूंढ़ ही लेंगे.’’

‘‘नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने के लिए तो पुलिस है, कानूनव्यवस्था है. आप यह काम क्यों कर रहे हैं?’’ मुझ से रहा नहीं गया और पूछ लिया.

‘‘हम एक तरह से कानून की ही मदद कर रहे हैं. हमारे देश के लोग यदि नशे के गुलाम बनेंगे तो देश का भविष्य कैसा होगा. आप तो जानते ही हैं कि एक बार जिस को नशे की लत लग जाए फिर उस की बरबादी निश्चित है. हम अपनी मातृभूमि की सेवा करते हैं. किसी भी बाहरी व्यक्ति को यह हक नहीं है कि हमारे भाईबहनों को पतन के रास्ते पर ले जाए. चूंकि कानून की नजरों में हम बागी हैं इसलिए कानून से हमें भागना पड़ता है. हमारी अपनी न्याय व्यवस्था है जिस में कमांडर का आदेश ही सर्वोपरि है. इस में कोई अपील या सुनवाई नहीं होती. आप के देश के नियमकानून काफी लचीले हैं. कई बार व्यक्ति अपराध कर के साफ बरी हो जाता है और फिर उसी काम को करने लगता है. खैर, इस विषय को यहीं समाप्त करते हैं.’’

इतना कह कर संगठन का वह नेता चला गया और मेरे हाथपैर खोल दिए गए. मैं थोड़ा इधरउधर टहल सकता था. वहां कुल 15 आदमी और 3 लड़कियां थीं. लड़कियों का मुख्य काम खाना बनाना था पर उन्हें हथियार चलाना भी आता था. मैं ने अपने संपादक को एक छोटा सा पत्र लिख दिया था ताकि वह मेरे मांबाप को सांत्वना दे सकें. कुछ देर के बाद एक लड़की आई और मुझे खाना खाने के लिए कहने लगी. वहां जा कर देखा तो पूरा शाकाहारी भोजन का प्रबंध था. मैं खुश हो गया क्योंकि मैं शुद्ध शाकाहारी था. भोजन में चावल, दाल, आलूप्याज की सब्जी, रोटी और सलाद था. मैं ने सब चिंता छोड़ कर भरपेट खाया क्योंकि खाना मुझे काफी स्वादिष्ठ लगा.

अगले दिन सुबह 5 बजे मेरी नींद खुल गई. मैं नित्यकर्म से निबट कर बाहर आ कर  बैठ गया. सूरज धीरेधीरे पहाड़ी के पीछे उदय हो रहा था. इतना सुंदर नजारा मैं ने जीवन में कभी नहीं देखा था. वह जगह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थी. दूरदूर तक पेड़ ही पेड़ दिखाई पड़ रहे थे. उन पर तरहतरह के पक्षियों के चहचहाने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ समय तक इन में खो गया.

मेरी तंद्रा तब टूटी जब एक लड़की चाय, बिस्कुट ले आई और उस ने मुझ से अंगरेजी में पूछा कि इस के अलावा और भी कुछ चाहिए. मैं ने  भी अंगरेजी में उसे जबाब दिया कि यहां और क्या- क्या मिल सकता है. वह बोली कि

ब्रेड, केक, पेस्ट्री आदि सभी चीजों का प्रबंध है और 8 बजे नाश्ता भी मिल जाएगा. नाश्ते में आलू का परांठा और टमाटर की चटनी होगी. उस के बोलने के अंदाज से मुग्ध हो कर मैं एकटक उसे ही देखता रहा तो वह चली गई.

थोड़ी देर बाद देखा कि कुछ बर्मीज औरतें सामान ले कर आ रही हैं. एक के पास बरतन में दूध था. किसी के पास सब्जी थी तो कोई चावल लाई थी. यानी जो भी खानेपीने का सामान चाहिए वह आप खरीद सकते हैं.

मैं भी उन के पास चला गया. कैंप की रसोई प्रमुख का नाम नीना था. उस ने अपनी जरूरत के हिसाब से सामान खरीद लिया. कल क्या लाना है, यह भी बता दिया. यह सब देख कर नीना से मैं ने पूछा, ‘‘क्या सब सामान ये लोग यहां ला कर दे देते हैं?’’

‘‘बर्मीज लोग बड़े शांत, सरल हृदय होते हैं. छल, कपट और झूठ बोलना तो जैसे जानते ही नहीं. यहां काम मुख्य तौर पर औरतें ही करती हैं. सभी तरह का व्यापार इन्हीं के हाथ में है. अभी जो औरतें यहां सामान ले कर आई

हैं, ये करीब 10 किलोमीटर की दूरी तय कर के आई हैं. शाम को फिर एक बार सामान ले कर आएंगी.’’

‘‘ये औरतें रोज इतना पैदल सफर कर लेती हैं.’’

‘‘नहीं,’’ नीना बोली साइकिल पर 50-60 किलो माल ले आती हैं. यहां अभी भी पूरी ईमानदारी से काम होता

है. मिलावट करना ये लोग जानते ही नहीं.’’

अब तक मैं समझ गया था कि नीना से मुझे और भी जानकारी मिल सकती है. बस, इसे बातचीत में लगाना होगा. तब मुझे इस संगठन के बारे में काफी नई बातें जानने को मिल सकती हैं और जितने दिन यहां रहना पड़ेगा थोड़ी परेशानी कम हो सकती है. अत: जब भी मौका मिलता मैं नीना से बातचीत करता रहता.

इस तरह 4-5 दिन गुजर गए. नीना कभीकभी गिटार पर कोई धुन भी बजाने लगती तो मैं भी जा कर साथ में गाने लगता. वह काफी अच्छा गिटार बजाना जानती थी. मुझे भी संगीत का काफी शौक था. मैं हिंदी गाने और भजन गाता और वह उसे गिटार पर बजाने की कोशिश करती. यह देख कर राजन नामक उस के साथी को भी जोश आ गया और वह बगल के किसी गांव से एक ढोलक ले आया. इस तरह हम लोग रोज रात में गानाबजाना करने लगे.

सच ही है, संगीत में कोई भेदभाव नहीं होता, मजहब की दूरी नहीं होती, कोई अमीरगरीब की सोच नहीं होती.

एक रात मैं सो रहा था कि एक बड़े काले सांप ने मुझे काट लिया और भाग कर झोंपड़ी के कोने में छिप गया. मुझे बहुत दर्द हुआ और मैं जोर से चिल्लाया. आवाज सुन कर नीना और 3-4 व्यक्ति दौड़ेदौड़े आए. मैं ने उन्हें बताया कि मुझे सांप ने काटा है और अभी भी वह झोंपड़ी में मौजूद है.

नीना दौड़ कर एक डंडा ले आई और सांप को खोज कर मार दिया. मैं उस का साहस देख कर आश्चर्यचकित रह गया. फिर नीना ने बताया कि यह सांप तो बहुत जहरीला है अब आप लेट जाइए इस का जहर निकालना पड़ेगा वरना यह पूरे शरीर में फैल सकता है. मैं लेट गया. नीना ने जहां सांप ने काटा था वहां चाकू से एक चीरा लगाया और मुंह से चूसचूस कर जहर निकालने लगी. फिर मुझे नींद आ गई. सुबह पता चला कि नीना रात भर मेरे पास बैठी रही. एक अनजान व्यक्तिके लिए इतनी पीड़ा उस ने उठाई.

अब धीरेधीरे नीना मुझ से खुलने लगी. हम आपस में विविध विषयों पर बातचीत करने लगे. उस के व्यक्तित्व के बारे में मुझे और जानकारी मिली. उस के मांबाप की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी. अब उस का दुनिया में कोई नहीं था. मणिपुर विश्व- विद्यालय से उस ने अंगरेजी में एम.ए. किया था और आगे उस का इरादा पीएच.डी. करने का है.

नीना ने बाकायदा संगीत सीखा था. वह बहुत अच्छा खाना बनाती थी. देखने में सुंदर थी. मैं उसे थोड़ीथोड़ी हिंदी भी सिखाने लगा. वह मेरी इस तरह सेवा करने लगी जैसे कोई ममतामयी मां अपने बच्चे की देखभाल करती है. मुझे जीवन- दान तो उस ने दिया ही था. अब तक कैंप के और लोग भी मुझ से थोड़ा खुल गए थे.

वहां कुछ नेपाली औरतें भी आती थीं जिन्हें हिंदी का ज्ञान था. उन से मैं ने बर्मा के बारे में काफी प्रश्न किए. तो पता चला कि बर्मा में भारत की तरह भ्रष्टाचार नहीं है. लोग घर पर ताला न भी लगाएं तो चोरी नहीं होती. दिन भर मेहनत करते हैं और रात को खाना खा कर सो जाते हैं. सब अनुशासन में रहते हैं. खेती वहां का मुख्य व्यवसाय है.

मेरा मन वहां लग गया था. पर बीचबीच में घर के लोगों की चिंता हो जाती थी. समय अच्छी तरह कट रहा था. इस तरह करीब 20-25 दिन गुजर गए. नीना मेरे साथ एकदम खुल गई थी. उस का संकोच पूरी तरह समाप्त हो गया था. मेरे मन में भी कैंप छोड़ कर दिल्ली लौटने की इच्छा समाप्त हो गई थी पर परिवार के प्रति मेरी जिम्मेदारी थी. जीने के लिए अखबार की नौकरी भी जरूरी थी.

एक दिन अचानक कैंप का वही नेता जो पहले आया था लौट आया. सब बहुत खुश हुए. उस ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘मेरे कमांडर ने आप को छोड़ने का आदेश दे दिया है. 1-2 दिन के बाद आप को मोरे गांव तक पहुंचा देंगे. वहां से आप को इम्फाल की बस मिल जाएगी. आप को जो कष्ट पहुंचा उस के लिए मैं अपने कमांडर की तरफ से क्षमा चाहता हूं.’’

‘‘क्षमा कैसी. मेरा तो जाने का मन ही नहीं कर रहा पर जाना तो पड़ेगा ही क्योंकि आप के कमांडर का आदेश है. आप के साथियों ने मेरा काफी ध्यान रखा जिस के लिए मैं इन सब का आभारी हूं. नीना ने तो मुझे नया जीवन दिया है. मैं उस का ऋणी भी हूं. हां, जाने से पहले मेरी एक शर्त आप को माननी पड़ेगी अन्यथा मैं यहीं पर आमरण अनशन करूंगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘वह क्या? आप को तो खुश होना चाहिए कि आप आजाद हो  रहे हैं. हां, कमांडर ने आप के लिए 10  हजार रुपए भेजे हैं. रास्ते के खर्च के लिए और आप के एक मास के वेतन के नुकसान की भरपाई करने के लिए. इम्फाल एअरपोर्ट पर दिल्ली का टिकट आप को मिल जाएगा, इस का प्रबंध हो गया है. दिल्ली में हम ने आप के संपादक और आप के मातापिता तक खबर भेज दी थी और आप की पूरी तहकीकात हम कर चुके हैं. अब आप अपनी शर्त के बारे में बताएं,’’ थाम किशोर ने पूछा.

‘‘मैं नीना से शादी करना चाहता हूं यदि आप को और नीना को कोई एतराज न हो तो. यदि मैं नीना जैसी लड़की को पत्नी के रूप में पा सका तो अपने आप को धन्य समझूंगा. आप सोचविचार कर मुझे जवाब दें और नीना से भी पूछ लें,’’ मैं ने कहा.

पूरे कैंप में खामोशी छा गई. उन     लोगों को मेरी बात पर काफी आश्चर्य हुआ. खामोशी थाम किशोर ने ही तोड़ी.

‘‘भावुकता से भरी बातें न करें. आप की जाति, संप्रदाय, आचारविचार सब अलग हैं. नीना कैसे माहौल में

रह रही है आप देख ही चुके हैं. हम लोग मातृभूमि की सेवा का संकल्प कर चुके हैं. फिर भी मुझे नीना से तथा अपने कमांडर से पूछना होगा. आप

2-4 दिन और रुकें फिर मैं आप को फैसला सुना देता हूं.’’

बाद के दिनों में नीना ने मुझ से थोड़ी दूरी बढ़ानी चाही पर मैं ने उसे ऐसा करने नहीं दिया. नीना ने बताया कि वह भी मुझे पसंद करती है और शादी भी करने को तैयार है लेकिन क्या इस शादी से आप के घर वाले एतराज नहीं करेंगे?

मैं ने उस के मन में उठे संदेह को शांत करने के लिए समझाया कि मेरे मातापिता को ऐसी बहू चाहिए जो उन की सेवा कर सके. तुम्हारा सेवाभाव तो मैं देख चुका हूं. तुम को पा कर मेरा   जीवन सफल हो जाएगा. बस, कमांडर हां कर दे तो बात बन जाए.

3 दिन के बाद संगठन के नेता थाम किशोर सिंह ने यह खुशखबरी दी कि कमांडर ने हां कर दी है और कहा है कि धूमधाम से कैंप में ही शादी का प्रबंध किया जाए. वह भी आने की कोशिश करेंगे.

मेरी और नीना की शादी धूमधाम से वहीं कैंप में कर दी गई और एक झोंपड़ी में सुहागरात मनाने का प्रबंध भी कर दिया गया. अगले दिन सुबह कैंप से विदा होने की तैयारी करने लगे. सभी सदस्यों ने रोते हुए हमें विदा किया.

थाम किशोर ने एक लिफाफा दिया और कहा कि कमांडर ने नीना को एक तोहफा दिया है. वह तो आ नहीं सके. हम लोग मोरे इम्फाल होते हुए दिल्ली पहुंच गए. नीना पूरे सफर में बहुत खुश थी.

Hindi Story: आत्मनिर्णय – आखिर आन्या ने अपनी मां की दूसरी शादी क्यों करवाई

Hindi Story, लेखक- मीरा जगनानी

मैंने आन्या के पापा को उस के पैदा होने के महीनेभर बाद ही खो दिया था. हरीश हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे और हम एकदूसरे के दुखसुख में बहुत काम आते थे. हरीश से मेरा मन काफी मिलता था. एक बार हरीश ने लिवइन रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मैं ने कहा, ‘यह मुमकिन नहीं है.

आप के और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चुकी हूं, अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती. हम दोनों एकदूसरे के दोस्त हैं, यह काफी है.’ उस के बाद फिर कभी उन्होंने यह बात नहीं उठाई.

धीरेधीरे समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लगी. उसे बस से औफिस पहुंचने में करीब सवा घंटा लगता था. एक दिन अचानक आन्या ने आ कर मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, बहुत दूर है. मैं बहुत थक जाती हूं. रास्ते में समय भी काफी निकल जाता है. मैं औफिस के पास ही पीजी में रहना चाहती हूं.’’

एक बार तो उस का प्रस्ताव सुन कर मैं सकते में आ गई, फिर मैं ने सोचा कि एक न एक दिन तो वह मुझ से दूर जाएगी ही. अकेले रह कर उस के अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा और वह आत्मनिर्भर रह कर जीना सीखेगी, जोकि आज के जमाने में बहुत जरूरी है. मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है बेटा, जैसे तुम्हें समझ में आए, करो.’’

3-4 महीने बाद उस ने मुझे फोन कर के अपने पास आने के लिए कहा तो मैं मान गई, और जब उस के दिए ऐड्रैस पर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई तो दरवाजे पर एक सुदर्शन युवक को देख कर भौचक रह गई. इस से पहले मैं कुछ बोलूं, उस ने कहा, ‘‘आइए आंटी, आन्या यहीं रहती है.’’

यह सुन कर मैं थोड़ी सामान्य हो कर अंदर गई. आन्या सोफे पर बैठ कर लैपटौप पर कुछ लिख रही थी. मुझे देखते ही वह मुझ से लिपट गई और मुसकराते हुए बोली, ‘‘मम्मी, यह तनय है, मैं इस से प्यार करती हूं. इसी से मुझे शादी करनी है. पर अभी ससुराल, बच्चे, रीतिरिवाज किसी जिम्मेदारी के लिए हम मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से परिपक्व नहीं हैं.

अलग रह कर रोजरोज मिलने पर समय और पैसे की बरबादी होती है. इसलिए हम ने साथ रह कर समय का इंतजार करना बेहतर समझा है. मैं जानती हूं अचानक यह देख कर आप को बहुत बुरा लग रहा है, लेकिन आप मुझ पर विश्वास रखिए, आप को मेरे निर्णय से कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘और मैं यह भी जानती हूं, आप पापा के जाने के बाद बहुत अकेला महसूस कर रही हैं. आप हरीश अंकल से बहुत प्यार करती हैं. आप भी उन के साथ लिवइन में रह कर अपने अकेलेपन को दूर करें. फिर मुझे भी आप की ज्यादा चिंता नहीं रहेगी.’’

यह सब सुनते ही एक बार तो मुझे बहुत झटका लगा, फिर मैं ने सोचा कि आज के बच्चे कितने मजबूत हैं. मैं तो कभी आत्मनिर्णय नहीं ले पाई, लेकिन जीवन का इतना बड़ा निर्णय लेने में उस को क्यों रोकूं. तनय बातों से अच्छे संस्कारी परिवार का लगा. अब समय के साथ युवा बदल रहे हैं, तो हमें भी उन की नई सोच के अनुसार उन की जीवनशैली का स्वागत करना चाहिए.

उन पर हमारा निर्णय थोपने का कोई अर्थ नहीं है. और यह मेरी परवरिश का ही परिणाम है कि वह मुझ से दूसरे बच्चों की तरह छिपा कर कुछ नहीं करती. मैं ने तनय को अपने गले से लगाया कि उस ने आन्या के भविष्य की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मुझे मुक्त कर दिया है. मैं संतुष्ट मन से घर लौट आई और आते ही मैं ने हरीश के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी.

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