अनुभवी अम्मां ने मुझ से कुछ निजी प्रश्न पूछे फिर हंस दीं, ‘ये उलटियां बदहजमी की वजह से नहीं हैं. मुझे तो लगता है खुशखबरी है.’
सुन कर आकाश के पैरों तले की जमीन खिसक गई. वह मुझे डा. मेहरा के क्लिनिक पर ले गए. जांच के बाद डाक्टर ने जैसे ही मुझे गर्भवती घोषित किया, आकाश के चेहरे का रंग उड़ गया. वह इस खबर को सुन कर खुश नहीं हुए थे. तुरंत डा. मेहरा के सामने अपने मन की बात जाहिर कर दी थी, ‘डाक्टर, हमें यह बच्चा नहीं चाहिए.’
‘क्यों?’
‘परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि हम बच्चे के दायित्व को उठाने के लिए सक्षम नहीं हैं.’
आकाश के चेहरे पर बेचारगी के भाव देख कर मैं हैरान रह गई थी. वह सृजनकर्ता मैं धरती? बीज को पुष्पितपल्लवित होने से पहले ही उसे समूल उखाड़ कर फेंक देने को तत्पर… काश, मेरे पति ने मुझ से तो पूछा होता कि मैं क्या चाहती हूं.
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मेरे कुछ कहने से पहले ही डाक्टर मेहरा ने उन की बात को अनसुनी करते हुए जवाब दिया, ‘आकाशजी, आप के घर 2 बरस बाद उम्मीद की किरण फूटी है. अपने इस अंश को सहेज, संभाल कर रखिए. आने दीजिए उसे इस संसार में.’
भुनभुनाते हुए आकाश घर पहुंचे. जूते की नोक से दरवाजे को धक्का दिया तो वह चरमरा कर खुल गया. उस पल अम्मां और अन्नू उन के इस रूप को देख कर सहम गए थे. आकाश से पूछताछ की तो? आंखें तरेर कर बोले, ‘श्रावणी प्रेगनेंट है.’
खुशी के अतिरेक में अन्नू ने मुझे गले से लगा लिया था. अम्मां ने उठ कर बेटे का मस्तक चूम लिया था और बधाई देते हुए बोलीं, ‘यह तो बहुत खुशी की बात है बेटा. इस खुशखबरी को सुनने के लिए कब से कान तरस रहे थे.’
आननफानन में अम्मां ने न जाने कितनी योजनाएं बना डालीं. उधर आकाश कुछ और ही सोच रहे थे. अम्मां की बात सुन कर उन्होंने अपना आखिरी अस्त्र फेंका, ‘बराबरी तो हर समय करती हो तुम औरतें लेकिन अक्ल पासंग भर नहीं है. श्रावणी तो कमअक्ल है लेकिन आप तो समझ सकती हैं. कितने खर्चे हैं, कितनी जिम्मेदारियां हैं सिर पर? अभी तो अन्नू का ब्याह भी करवाना है. मकान की मरम्मत करवानी है. अगर श्रावणी की तबीयत यों ही गिरीगिरी रही तो इस की नौकरी भी जाती रहेगी. जो थोड़ाबहुत कमाती है वह भी निकल जाएगा हाथ से.’
अम्मां ने भाग्य और तकदीर का हवाला दिया तो आकाश बोले, ‘वह बीते जमाने की बात थी. अब ऐसा नहीं होता.’
अम्मां की हिदायतों, मेरी गुजारिशों और अन्नू की सिफारिशों के बावजूद वह चोरीछिपे डाक्टरों से मशविरा कर के, मेरा गर्भपात करवाने के लिए प्रयास करते रहे. खेल भी खुद खेलते थे, पांसा भी खुद ही फेंकते थे. सही कहा है किसी ने कि मानवता का स्वरूप पुरुष है और पुरुष स्त्री को, स्त्री के लिए ही परिभाषित करता है. वह स्त्री को स्वतंत्र व्यक्ति नहीं मानता. स्त्री अपने बारे में वही सोच सकती है और बन सकती है जैसा पुरुष उस को आदेश देगा.
बिट्टू को मेरी ही कोख से जन्म लेना था, इसीलिए शायद डाक्टरों ने एकमत हो कर आकाश को मेरा गर्भपात न करवाने की सलाह दी थी. उस पल आकाश के व्यवहार ने मेरे विश्वास की निधि को खो कर मेरे अंदर अविश्वास का पहाड़ जमा कर दिया था.
अन्नू के ब्याह की तारीख नजदीक आ रही थी. हालांकि अन्नू की ससुराल पक्ष से दहेज की कोई मांग नहीं रखी गई थी, लेकिन मानसम्मान और बारातियों की आवभगत की अभिलाषा सभी को होती है. मेरा और अम्मां का रिश्ता सासबहू का नहीं मां और बेटी का था, इसीलिए हम दोनों एकदूसरे की दुखतकलीफ बिना कुछ कहे ही पहचान लेते थे.
इस समय भी अम्मां की मजबूरी मैं समझ रही थी. पैसा पास न हो तो मन छोटा होता ही है. आकाश इस पूरे मामले में जरा भी दिलचस्पी नहीं ले रहे थे. सुबह मेरे साथ निकलते, शाम को मुझे घर छोड़ कर दोबारा निकल जाते. कहां जाते यह कई बार पूछने पर भी उन्होंने कभी नहीं बताया. अन्नू क्या कहती? बेचारी, नौकरी कर के जितनी रकम जमा की थी वह आकाश के अकाउंट में थी.
मैं ने पीहर से लाए जड़ाऊ कंगन, हीरों के कर्णफूल और सोने के 2 सैट अम्मां की गोद में रख दिए. कुछ साडि़यां भी ऐसी थीं जिन की तह भी नहीं खुली थी, क्योंकि आकाश को मेरा ज्यादा घूमनाफिरना, सजनासंवरना पसंद नहीं था, वे भी अम्मां को दे दीं. शौपिंग, हलवाइयों, कैटरर से बातचीत, कार्ड छपवाने और बांटने तक का पूरा काम मेरे जिम्मे था. आकाश की तटस्थता विचित्र थी. वह तो ऐसा बरताव कर रहे थे जैसे ब्याह उन की बहन का नहीं, किसी दूसरे की बहन का था.
अम्मां के आग्रह पर अब सुबहशाम पापा आ जाते थे. पापा के साथ उन की कार में बैठ कर मैं बाहर के काम निबटा लिया करती थी. मां घर और चौके की देखभाल कर लिया करती थीं. बहू के अति विनम्र स्वभाव को देख कर अम्मां आशीर्वादों की झड़ी लगा कर मुक्तकंठ से मेरी मां से सराहना करतीं, ‘बहनजी, जितना सुंदर श्रावणी का तन है, उतना ही सुंदर मन भी है. श्रावणी जैसी बहू तो सब को नसीब हो.’
अन्नू का ब्याह हो गया. मां और पापा घर लौट रहे थे. अम्मां ने एक बार फिर मेरी प्रशंसा मां से की तो मां के जाते ही आकाश के अंत:स्थल में दबा विद्रोह का लावा फूट पड़ा था :
‘वाहवाही बटोरने का बहुत शौक है न तुम्हें? अपने जेवरात क्यों दे दिए तुम ने अन्नू को?’
मैं ने आकाश के साथ उस के परिवार को भी अपनाया था. फिर इस परिवार में मां और बहन के अलावा था भी कौन? दोनों से दुराव की वजह भी क्या थी? मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘जेवर किसी पराए को नहीं अपनी ननद को दिए हैं. अन्नू तुम्हारी बहन है, आकाश. जेवरों का क्या, दोबारा बन जाएंगे.’
‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते, श्रावणी, मेहनत करनी पड़ती है.’
मैं अब भी उन के मन में उठते उद्गारों से अनजान थी. चेहरे पर मायूसी के भाव तिर आए थे. रुंधे गले से बोले, ‘इन लोगों ने मुझे कब अपना समझा. हमेशा गैर ही तो समझा…जैसे मैं कोई पैसा कमाने की मशीन हूं. उन दिनों 7 बजे दुकानें खुलती थीं. सुबह जा कर मामा की आढ़त की दुकान पर बैठता. वहां से सीधे दोपहर को स्कूल जाता. तब तक घर का कामकाज निबटा कर मां दुकान संभालती थीं. शाम को स्कूल से लौट कर पुन: दुकान पर बैठता, क्योंकि मामा शाम को किसी दूसरी दुकान पर लेखागीरी का काम संभालते थे. इन लोगों ने मेरा बचपन छीना है. खेल के मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखता तो मां की गोद में सिर रख कर कई बार रोया था मैं, लेकिन मां हर समय चुप्पी ही साधे रहती थीं.’
मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता और अगर करता भी है तो हमेशा दूसरे को ही दोषी समझता है. आकाश इन सब बातों का रोना मुझ से कई बार रो चुके थे. अपनी सकारात्मक सोच और आत्मबल की वजह से मैं, अलग होने में नहीं, हालात से सामंजस्य बनाने की नीति में विश्वास करती थी. हमेशा की तरह मैं ने उन्हें एक बार फिर समझाया :
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‘अम्मां की विवशता परिस्थितिजन्य थी, आकाश. असमय वैधव्य के बोझ तले दबी अम्मां को समझौतावादी दृष्टिकोण, मजबूरी से अपनाना पड़ा होगा. जिस के सिर पर छत नहीं, पांव तले जमीन नहीं थी, देवर, जेठ, ननदों…सभी ने संबंध विच्छेद कर लिया था तो भाई से क्या उम्मीद करतीं? अम्मां को सहारा दे कर, उन के बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी कीं, उन्हें आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान किया. ऐसे में यदि अम्मां ने बेटे से थोड़े योगदान की उम्मीद की तो गलत क्या किया?
‘आखिर मामा का अपना भी तो परिवार था और फिर अम्मां भी तो हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठी थीं. यही क्या कम बात है कि अपने सीमित साधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद, अम्मां ने तुम्हें और अन्नू को पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाया कि आज तुम दोनों समाज में मानसम्मान के साथ जीवन जी रहे हो.’
सुनते ही आकाश आपे से बाहर हो गए, ‘गलती की, जो तुम से अपने मन की बात कह दी…और एक बात ध्यान से सुन लो. मुझे मां ने नहीं पढ़ाया. जो कुछ बना हूं, अपने बलबूते और मेहनत से बना हूं.’
उस दिन आकाश की बातों से उबकाई सी आने लगी थी मुझे. पानी के बहाव को देख कर बात करने वाले आकाश में आत्मबल तो था ही नहीं, सोच भी नकारात्मक थी. इसीलिए आत्महीनता का केंचुल ओढ़, दूसरों में मीनमेख निकालना, चिड़चिड़ाना उन्हें अच्छा लगता था. खुद मित्रता करते नहीं थे, दूसरों को हंसतेबोलते देखते तो उन्हें कुढ़न होती थी.
अन्नू अकसर घर आती थी. कभी अकेले, कभी प्रमोदजी के साथ. नहीं आती तो मैं बुलवा भेजती थी. उस के आते ही चारों ओर प्रसन्नता पसर जाती थी. अम्मां का झुर्रीदार बेरौनक चेहरा खिल उठता. लेकिन बहन के आते ही भाई के चेहरे पर सलवटें और माथे पर बल उभर आते थे. जब तक वह घर रहती, आकाश यों ही तनावग्रस्त रहते थे.
अन्नू के ब्याह के कुछ समय बाद ही अम्मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. मेरा प्रसवकाल भी निकट आता जा रहा था. अम्मां को बिस्तर से उठाना, बिठाना काफी मुश्किल लगता था. मैं ने आकाश से अम्मां के लिए एक नर्स नियुक्त करने के लिए कहा तो उबल पडे़, ‘जानती हो कितना खर्चा होगा? अगले महीने तुम्हारी डिलीवरी होगी. मेरे पास तो पैसे नहीं हैं. तुम जो चाहो, कर लो.’
घरखर्च मेरी पगार से चलता था. मैं ने कभी भी खुद को इस घर से अलग नहीं समझा, न ही कभी आकाश से हिसाब मांगा. अन्नू के ब्याह पर भी अपने प्राविडेंट फंड में से पैसा निकाला था. फिर इस संकीर्ण मानसिकता की वजह क्या थी? किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. मां के इलाज के लिए पैसेपैसे को रोने वाले बेटे को चमचमाती हुई कार दरवाजे के बाहर पार्क करते देख कर कोई पूछ भी क्या सकता था? डा. प्रमोद ही अम्मां की देखभाल करते रहे थे.
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