टौमी : प्यार और स्नेह की अनोखी दास्तान

टौमी : भाग 3- प्यार और स्नेह की अनोखी दास्तान

अब सोचती हूं कि जिस से मैं ने सालों पहले कैलिफोर्निया में कुत्ता रखने के बारे में बात की थी, उसे नहीं पता कि वह क्या कह रही थी. उस ने मुझे साफ मना कर दिया था. उस के विचार से कुत्ता मुझ से किसी भी हालत में जुड़ नहीं सकता क्योंकि मैं उस की देखभाल नहीं कर सकती. मैं तो उसे खाना तक नहीं दे सकती हूं. ऐसी हालत में कुत्ता मुझ से बिलकुल नहीं जुड़ेगा. पर वह गलत थी क्योंकि टौमी को तो मुझ से जुड़ने में जरा भी समय नहीं लगा.

टौमी के लिए यह कोई मसला ही नहीं था कि कौन उस के लिए खाना रखता है. जब तक मैं न कह दूं, वह खाने को छूता तक नहीं था. मेरी कुरसी के बायीं ओर उस का एक छोेटा व लचीला पट्टा बंधा होता था. वह जानता था कि छोटा पट्टा काम का पट्टा है और लचीला, छोटाबड़ा होने वाला आराम से घूमने वाला पट्टा है. वह मेरे स्वामी होने के एहसास को अच्छी तरह जानता था. उसे पता था कि घर का मालिक कौन है, चाहे उसे खाना कोईर् भी परोसे.

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टौमी मेरी असमर्थताओं को भी जान गया था. उस ने समाधान निकाल लिया था कि मैं कैसे उसे सहला सकती हूं, उसे कैसे अपना प्यारदुलार दे सकती हूं. अपनी परिचारिका की सहायता से सुबहसुबह मैं थोड़ाथोड़ा अपनी बाहों को फैलाने की चेष्टा करती थी. हमारे रिश्ते की शुरुआत में ही टौमी, जब मेरी बाहें अधर में, हवा में होतीं, मेरे सीने पर आ जाता और मेरी गरदन चाटने लगता और फिर अपने शरीर को मेरे हाथों के नीचे स्थापित कर लेता. उस का यह प्रयास हर रोज सुबह के नाश्ते से पहले उस के आखिरी दम तक बना रहा.

मेरे लिए उस से जुड़ने के वास्ते यह बहुत जरूरी था कि मैं उसे उस की जरूरत की सब चीजें प्रदान करूं, विशेषरूप से पहले साल. मैं उसे रोज घुमाने ले जाती चाहे कितनी भी गरमी या सर्दी हो. पर दूसरे साल से इस में ढील पड़ गई. सर्दी में दूसरों को मैं ने यह काम सौंप दिया. हां, अधिक सर्दी के दिन छोड़ कर, मैं ही उसे घुमाने ले जाती थी. या यों कहूं कि मैं उस के साथ घूमती थी.

पहले पहल अकेले जाने में बड़ी समस्या आई. बाहर से अंदर आते समय तो वाचमैन मेरे लिए दरवाजा खोल देता था और लिफ्ट का बटन दबा देता था. मैं अपनी फ्लोर पर जा कर अपने घर का मुख्यद्वार अपने सिर में लगे कंट्रोल से खोल लेती थी. पर अकेले बाहर जाने की समस्या विकट थी कि कैसे एलिवेटर का बटन दबाया जाए. दीवार पर क्या चिपकाया जाए जिस की मदद से टौमी एलिवेटर का बटन दबा सके. इस में समय लग रहा था कि एक दिन मैं ने अपनी माउथस्टिक से बटन दबाने की सोची. स्टिक की लंबाई पूरी पड़ गई और समस्या हल हो गई.

अब मैं आसपड़ोस के लोगों से भी मिलने लगी, डौग पार्क में भी मेरी कइयों से दोस्ती हो गई. साथ ही, मैं अपने कई काम खुद ही करने लगी. अब मैं अकेले टौमी के साथ बाहर जाने के लिए प्रोत्साहित होने लगी. मेरी बाहर अकेले जाने की घबराहट कब खत्म हो गई, पता ही न चला. लोग मेरे से पहले टौमी को देख लेते थे और उस की वजह से ही मेरी व्हीलचेयर अजनबियों को कम भयग्रस्त करती थी.

जब मैं टौमी से पहले की अपनी जिंदगी देखती हूं कि किस तरह मैं ने खुद को अपने फ्लैट तक सीमित कर लिया था, कैद कर लिया था तो स्वयं को पहचान भी नहीं पाती हूं. मैं टौमी की बदौलत बहुत ही आत्मनिर्भर, आरामदेह, शांतिप्रद, सुखी हो गई थी. मैं इतने साल कैसे एक कौकून की तरह बंद कर के रही, आश्चर्य करती हूं. टौमी मुझे उस स्थिति के नजदीक ले आया जो दुर्घटना के पहले थी. ऐसी स्थिति जो इन परिस्थितियों में मेरे लिए खुशहाली लाई. टौमी ने मेरे लिए उस संसार के द्वार खोल दिए थे जो मैं ने अपने लिए अनावश्यक रूप से स्वयं ही बंद कर लिए थे.

हमारी झोली में कई साहसिक और कुछ भयग्रस्त करने वाले किस्से भी हैं. आज भी उन्हें याद कर सिहर जाती हूं. पार्क में एक रात अकेले होने पर पिट बुल द्वारा अटैक अभी भी बदन को सिहरा जाता है. एक बार वह मुश्किल से एलिवेटरद्वार बंद होने से पहले अंदर घुस पाया था. एक बार तो वह कार से टकरातेटकराते बचा था. मैं ने अपनी व्हीलचेयर का पहिया कार की ओर मोड़ दिया था जिस से कि मेरे पैरों पर भले ही आघात हो पर कम से कम टौमी बच जाए. लेकिन हम दोनों ही बच गए.

हालांकि आखिर में टौमी खाने के प्रति थोड़ा लालची होने लगा था लेकिन फिर भी वह जैकेट पहन कर काम में जरा भी शिथिलता नहीं आने देता था. हां, कौटेज में जाने पर वह मस्तमौला हो जाता था. वहां वह ज्यादा से ज्यादा ड्राइववे तक मेरे साथ जाता. उस के बाद मैं कितना ही उसे पुचकारती, बढ़ावा देती, वह मेरे साथ आगे न बढ़ता. हां, किसी और के साथ मजे में वह सब जगह घूमता. मैं सोचती कि क्या यह इस स्थान के प्रति मेरी भावनाओं को समझ रहा है. मैं सालों बाद भी, उस स्थान से जहां मैं गिरी थी, स्वयं को उबार नहीं पा रही थी. मेरे अंतर्मन के किसी कोने में उस स्थान के प्रति हलकी सी भयग्रस्त भावना समाई हुई थी. शायद इसीलिए, यह वहां नहीं जाना चाहता था.

एक सुबह मैं ने अपनी उस असुरक्षा की भावना को जड़ से उखाड़ फेंकने का निश्चय किया और संपूर्ण साहस बटोर, परिचारिका को बिना बताए उस पथ पर चल दी. ड्राइववे पर टौमी कुछ दूर तक मेरे साथसाथ चला पर आधे रास्ते जा, स्वभावगत वह वहीं रुक गया. मैं धीरेधीरे आगे बढ़ती रही, टौमी को पुकारती रही पर वह टस से मस न हुआ. बस, खड़ा देखता रहा. मैं ने भी अपना प्रण न छोड़ा, बढ़ती गई. ड्राइववे के अंतिम छोर पर मैं रुकी. पलट कर मैं ने उसे कई बार पुकारा, हर आवाज में- कड़ी, उत्साहित, डांटने वाली, आदेश वाली, मानमनौवल वाली, भयभीत आवाज की नकल करते हुए भी पुकारा, यहां तक कि भावनात्मक ब्लैकमेल भी किया पर वह वहीं चुपचाप खड़ा रहा. फिर झल्ला कर मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं अकेले ही आगे जा रही हूं. मैं ने सोचा कि देखूं कि वह मुझे आंखों से ओझल हो, देख क्या करता है. जैसे ही मैं पलटी, पाया कि गाड़ी के पहिए रेत में धंस अपनी ही जगह पर घूम रहे हैं. मेरी पीठ टौमी व कौटेज की तरफ थी. मैं करीबकरीब उसी जगह पर फंसी थी जहां सालों पहले गिरी थी.

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मुझे याद नहीं, कि वास्तव में मेरे मुंह से पूरी तरह से टौमी का नाम निकला भी था या नहीं, कि मैं ने उसे अपनी ओर दौड़ता हुआ आता महसूस किया. फिर मुझे याद नहीं कि मैं ने इतने सालों के साथ में कभी भी उस की ऐसी शारीरिक मुद्रा देखी हो. उस की मौन भाषा, उस की शारीरिक मुद्रा बारबार मुझ से पूछ रही थी कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूं.

मैं ने कहा, ‘टौमी, बोलो.’ अधिकतर जब भी मैं टौमी को ऐसा आदेश देती थी, वह एक बार भूंकता था या कभीकभी जब ज्यादा उत्साहित होता तो 2 बार. पर इस समय वह मेरे आदेश देने पर कई बार भूंका, जैसे वह समय की नजाकत पहचान रहा हो.

मैं टौमी की शारीरिक भाषा से पार नहीं पा रही थी. उस की उस समय की दयनीय आंखें, उस की मुखमुद्रा जीवनभर मेरे साथ रहेंगी. मैं उस की प्रशंसा करती रही और उसे बोलने को उत्साहित करती रही. तकरीबन 10-15 मिनट लगे होंगे जब मैं ने पदचापों को अपनी ओर आते सुना. यदि टौमी न होता तो न जाने मैं कब तक और किस हाल में वहां पड़ी होती.

यादें, न जाने कितनी यादें, अब तो बस टौमी की यादों का पिटारा ही साथ रह गया है.

टौमी : भाग 2- प्यार और स्नेह की अनोखी दास्तान

मित्र के सुझाव पर फिर यह विचार पनपने लगा क्योंकि उस के साथसाथ मैं ने भी महसूस किया कि सचमुच मुझे कुत्ते की आवश्यकता है. मैं स्वयं को अकेला, असुरक्षित सा महसूस करने लगी थी. स्टोर का या थोड़ा सा बाहर घूमने जाने का काम, जो मैं अकेले कर सकती थी, उस के लिए भी मैं अपनी परिचारिका को साथ घसीटे रहती थी यह जानते हुए भी कि मुझे उस की जरूरत नहीं. कोईर् भी व्यक्ति मेरी दशा देख कर अपनेआप ही मेरे लिए दरवाजा खोल देता या दुकान वाले मेरी पसंद की चीज मुझे अपनेआप काउंटर से उठा कर दे देते व मेरे पर्स से यथोचित पैसे निकाल लेते. मैं मन ही मन सोचती कि ऐसी कई बातों के लिए मुझे किसी भी परिचारिका की जरूरत नहीं है. मैं स्वयं ही यह सब कर सकती हूं, फिर भी नहीं कर रही हूं.

एक दिन तो बाजार से आते हुए फुटपाथ पर कठपुतली का नाच देखने के लिए रुक तो गई, मजा भी आया पर फिर पता नहीं क्यों, बस घर जाने का ही मन करता रहा और वहां रुक न सकी. हालांकि मैं परिचारिका की छुट्टी कर स्वयं घर जाने में सक्षम थी. रुकने का मन भी था और घर में ऐसा कुछ नहीं था जिस के लिए मुझे वहां जल्दी पहुंचने की विवशता हो.

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कई बार मित्रों के साथ फुटबौल देखने जाने का आमंत्रण या अन्य कार्यक्रमों के आमंत्रण भी स्थगित करती रही. पता नहीं क्यों, असुरक्षा की भावना से ग्रसित रही.

एक दिन गरमी की छुट्टियों में अपनी कौटेज में थी तब फिर पालतू कुत्ता रखने की भावना ने जोर पकड़ा. हुआ यों कि दोपहर के समय मेरे भाईबहन के बच्चे पास के बाजार में घूमने के लिए चले गए और मेरी परिचारिका मेरे साथ बैठेबैठे झपकी लेने लगी. मैं ने उसे अंदर जा कर सोने के लिए कहा. बाद में मैं बोर होने लगी और बिना किसी को बताए घूमने के लिए चल दी.

ड्राइववे के आगे थोड़ी सी ढलान थी. चेयर को संभाल न सकी और मैं घुटनों के बल गिर गई. चिल्लाने की कोशिश की, यह जानते हुए भी कि वहां सुनने वाला कोई नहीं है. तब सोचा, काश, मेरे पास कुत्ता होता. परिचारिका की नींद खुलने पर मुझे अपनी जगह न पा वह मेरा नाम पुकारतेपुकारते ढूंढ़ने निकली. मेरी दर्दभरी आवाज सुन वह मुझ तक पहुंची.

मैं ने अब मेरे जैसे लोगों की सहायता करने वाले ‘वर्किंग डौग’ की सक्रिय रूप से खोज करनी शुरू की. नैशनल सर्विस डौग्स संस्था के माध्यम से मैं ने टौमी को चुना. या यों कहें कि टौमी ने मुझे चुना. वहां के कार्यकर्ता टौमी के साथ मुझे जोड़ने से पहले यह देखना चाहते थे कि वह मेरी व्हीलचेयर के साथ कैसा बरताव करता है, मेरी चेयर के प्रति उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी. मुझे टौमी के बारे में कुछ भी बताए बिना उन्होंने मुझे टोटांटो स्पोर्ट्स सैंटर में आमंत्रित किया जहां 6 कुत्तों से मेरा परिचय कराया. टौमी मेरी चेयर के पास ही सारा समय लेटा रहा.

बेला, जिस ने टौमी को पालापोसा था, ने बताया था, ‘टौमी शुरू से ही अलग किस्म का था. छोटा सा पिल्ला बड़ेबड़े कुत्तों की तरह गंभीर था. इस की कार्यप्रणाली अपनी उम्र से कहीं ज्यादा परिपक्व थी. लगता था कि उसे पता था कि वह इस संसार में किसी महत्त्वपूर्ण काम के लिए आया है.

टौमी को स्वचालित दरवाजों के बटन दबा कर खोलना, रस्सी को खींच कर कार्य करना, फेंकी हुई चीज को उठा कर लाना या बताने पर कोई वस्तु लाना, जिपर खोलना, कोट पकड़ कर खींचना, बत्ती का बटन दबा कर जलाना या बुझाना, बोलने के लिए कहने पर भूंकना आदि काम सिखाए गए थे. टौमी हरदम काम को बड़े करीने से करता था.’

‘पर, हां, वह शैतान भी कम नहीं था. एक दिन बचपन में उस ने 7 किलो का अपने खाने का टिन खोल डाला और उस में से इतना खाया कि उस का पेट फुटबौल की तरह फूल गया था. और फिर उस के बाद इतनी उलटी की कि बच्चू को दिन में भी तारे नजर आने लगे. लेकिन फिर कभी उस ने ऐसा नहीं किया.

‘टौमी को मेरे फ्लैट और पड़ोस में प्रशिक्षित किया गया. रोज प्रशिक्षित करते समय उसे बैगनी रंग की जैकेट पहनाईर् जाती. जैकेट जैसे उस का काम पर जाते हुए व्यक्ति का बिजनैस सूट था. उस की जैकेट उस के लिए व बाकी लोगों के लिए इस बात का संकेत थी कि वह इस समय काम पर तैनात है. लोगों के लिए यह इस बात का भी संकेत था कि वे ‘वर्किंग डौग’ के काम में उसे थपथपा कर, पुचकार कर उस के काम में वे बाधा न डालें.’

शुरू में मुझे यह अच्छा लगा कि टौमी फर्श पर अपने बिस्तरे में सोए. पहली

2 रातें तो यह व्यवस्था ठीकठाक चली. तीसरी सुबह टौमी ने मेरे बिस्तरे के पास आ कर मेरे चेहरे के पास अपना मुंह रख दिया. मैं भी उस का विरोध न कर पाई और उसे अपने बिस्तरे पर आमंत्रित कर बैठी. उस ने एक सैकंड की भी देरी नहीं की और मेरे बिस्तरे पर आ गया. जब मुझे बिस्तर से मेरी व्हीलचेयर पर बैठाया गया तो वह मेरे शरीर द्वारा बिस्तर पर बनाए गए निशान पर लोटने लगा. मुझे कुत्तों के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था, फिर भी मेरे विचार से वह मेरे शरीर की खुशबू में स्वयं को लपेट रहा था. उस दिन से वह हर समय मेरे साथ ही सोने लगा था, फिर कभी वह फर्श पर नहीं सोया.

टौमी ने जल्दी ही सीख लिया था कि मेरी व्हीलचेयर कैसे काम करती है. पहले हफ्ते गलती से व्हीलचेयर के नीचे उस का पंजा आतेआते बचा था. उस के बाद से वह कभी भी मेरी व्हीलचेयर के नीचे नहीं आया. चेयर की क्लिक की आवाज पर वह तुरंत उस से नियत फासले पर काम की तैनाती मुद्रा में खड़ा हो जाता. आरंभ से ही लोगों ने मेरे प्रति उस की प्रतिक्रिया की तारीफ करनी शुरू कर दी थी. वह शुरू से अपनी प्यारीप्यारी आंखों द्वारा मेरे चेहरे को देखते हुए मेरे आदेश, निर्देश व आज्ञा की कुछ इस तरह प्रतीक्षा करता था कि मेरा मन स्वयं ही उस पर पिघल जाता था.

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अधिकतर लोग कुत्तों को प्यार करते हैं और टौमी को देख तो वैसे ही प्यार उमड़ पड़ता था. पहले महीने जब मैं एक सरकारी रिसैप्शन में गई तो मुख्यमंत्री ने मुझ से हाथ मिलाने के बाद पूछा, ‘क्या मैं इसे सहला सकता हूं?’ मैं ने कहा कि अभी यह काम पर तैनात है. मुझ से बात करने के बाद जब वे अगले व्यक्ति से बात करने लगे तो टौमी जल्दी से उन की टांगों पर अपना भार डाल उन के पैरों पर बैठ गया. मुख्यमंत्री हंस कर बोले, ‘अरे, मुझे इसे सहलानेदुलारने का मौका मिल ही गया.’

गोल्डन रिट्रीवर और लैब्राडोर अच्छी नस्ल के और अपने खुशनुमा स्वभाव के कारण सब से अच्छे वर्किंग डौग होते हैं. काम इन के लिए सचमुच आनंददायी होता है. टौमी तो हरदम ऐसा पूछता हुआ लगता कि बताओ, अब मैं और क्या करूं? ये खाने के भी शौकीन होते हैं. मैं काम करते समय अपने उस स्टैंड के पास, जिस पर मेरी ‘माउथस्टिक’ होती थी, जिस से मैं काम करने के लिए बटन दबाया करती थी, उस के लिए बिस्कुट रखती थी और उसे उस के हर अच्छे काम पर इनामस्वरूप बिस्कुट नीचे गिरा देती थी. कुछ ही दिनों में टौमी इतना कुशल हो गया था कि वह उन्हें बीच रास्ते में हवा में ही पकड़ लेता था.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

टौमी : भाग 1- प्यार और स्नेह की अनोखी दास्तान

आज 8 सालों के अपने संरक्षक टौमी की यादें दिल को मसोस रही हैं. आंसू थम नहीं रहे हैं. इन 8 सालों में टौमी मेरा सबकुछ बन गया था. एक ऐसा साथी जिस पर मैं पूरी तरह निर्भर रहने लगी थी. टौमी ने तो अपना पूरा जीवन मुझ पर न्योछावर कर दिया था. सालभर का भी तो नहीं था, जब वह मेरे पास आया था मेरा वाचडौग बन कर. और तब से वह वाचडौग ही नहीं, मेरे संरक्षक, विश्वासपात्र साथी के रूप में हर क्षण मेरे साथ रहा. 20 साल पहले की घटना आज भी जरा से खटके से ताजी हो जाती है, हालांकि उस समय यह आवाज खटके की आवाज से कहीं भारी लगी थी. और लगती भी क्यों न, बम विस्फोट की आवाज न होते हुए भी गोली की आवाज उस समय बम विस्फोट जैसी ही लगी थी.

रीटा के शरीर में उस आवाज की याद से झुरझुरी सी दौड़ गई. वसंत का बड़ा अच्छा दिन था. सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ नईनईर् पत्तियों से सज गए थे. क्रैब ऐप्पल्स के पेड़ों पर फूलों की बहार अपनी छटा दिखा रही थी. शीत ऋतु में जमी बर्फ के पहाड़ देख जहां शरीर में झुरझुरी पैदा हो जाती थी वहीं उस दिन वसंत की कुनकुनी धूप शरीर के अंगों को सहती बड़ी सुखदायक लग रही थी.

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इस सुहावने मौसम में रीटा के होंठ एक बहुत पुराना गीत गुनगुना उठे थे. हालांकि गीत कुनकुनी धूप का नहीं, सावन की फुहार का था. और हो भी क्यों न, सावन की फुहार…रीटा 18 वर्ष की ही तो थी. उस अवस्था में इसी रस की फुहार के सपने ही तो सभी लड़कियां देखती हैं. गीत गुनगुना उठी, ‘ओ सजन, बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई…,’ शायद यह उम्र का तकाजा था कि मन कहीं से कहीं भटक रहा था.

जहां गीत को याद कर रीटा मुसकरा उठी वहीं उस दिन की याद कर उस का बदन सिहर उठा. वह कालेज के दूसरे साल में पढ़ रही थी. छुट्टियों में उस ने एक दुकान पर पार्टटाइम नौकरी कर ली. दुकान में उस समय वह अकेली थी. कोई ग्राहक नहीं था, सो वह गुनगुनाती हुई शैल्फ पर सामान लगा रही थी कि अचानक हलके से खटके से उस का ध्यान भंग हुआ. सोचा कि कोई ग्राहक आया है, वह उठ कर कैश काउंटर के पास गई. रीटा ने पूछने के लिए मुंह ऊपर उठा कर खोला ही था कि क्या चाहिए? उस ने देखा ग्राहक का मास्क से ढका चेहरा और उस की अपनी ओर तनी पिस्तौल की नली. इस आकस्मिक दृश्य व व्यवहार से बौखला गई वह. फिर शीघ्र ही संभल गई. पिस्तौलधारी के आदेश पर उस ने उसे कैश काउंटर से सारे डौलर तो दे दिए पर साथ ही, उस की आंख बचा पुलिस के लिए अलार्म बजाने का प्रयत्न भी किया. अपने अनाड़ीपन में उस का यह प्रयत्न पिस्तौलधारी की नजर से अनदेखा न रह पाया और उस ने गोली दाग दी.

जब उसे होश आया, दुकान का मालिक रोरो कर कह रहा था, ‘‘रीटा, मैं ने कहा था कि यदि कभी भी ऐसी परिस्थिति आए तो चुपचाप पैसा दे देना. अपने को किसी खतरे में मत डालना. पैसा जीवन से बढ़ कर नहीं है. यह तुम ने क्या कर लिया?’’ रीटा ने सांत्वना देने के लिए उठ कर बैठने का प्रयत्न किया पर यह क्या, रीटा अचंभे में पड़ गई क्योंकि वह उठ नहीं पा रही थी.

रीटा अतीत में खोई हुई थी. उसे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने में कई महीने लगे थे. अब तक रीटा ने इस तथ्य को पूरी तरह आत्मसात कर लिया था कि अब पूरा जीवन इसी विकलांगता के साथ ही उसे जीना है, चाहे निरर्थक जिए या अब इस जीवन को कोई सार्थकता प्रदान करे. और फिर वह अपने पुराने सपने को पूरा करने में लग गई. हालांकि डेढ़दोसाल जब वह अपने मातापिता के साथ रही, वह उन पर तथा भाईबहन पर पूरी तरह निर्भर रही. पर उस के बाद सोच में पड़ गई कि कब तक वह सब पर निर्भर रहेगी. इस विकलांगता में भी उसे आत्मनिर्भर बनना है. इसी दिशा में उस ने टोरंटो यूनिवर्सिटी में अपने पहले के कोर्स खत्म कर के अपनी ग्रेजुएशन पूरी की. फिर उस ने एरिजोना जाने की ठान ली क्योंकि वहां का मौसम पूरे साल अच्छा रहता है. उस के स्वास्थ्य के लिए एरिजोना का मौसम उपयुक्त था.

रीटा के लिए एक विशेष कारवैन बना दी गई थी जिस में वह सफर कर सके, फिर भी उसे किसी ऐसे की जरूरत तो थी ही जो उसे ड्राइव कर सके. घर से बाहर क्या, घर के अंदर भी वह अकेले समय नहीं बिता पा रही थी. वह सोच में पड़ गई थी कि मातापिता तो नहीं, पर क्या भाईबहन में कभी न कभी आगे चल कर उस के प्रति रोष की भावना नहीं उभरेगी. रीटा इस स्थिति से बचना चाहती थी. इसलिए उस ने एरिजोना जा कर स्वतंत्ररूप से अपनी पढ़ाई पूरी करने का निर्णय लिया था.

तकरीबन 3 साल बाद जब वह टोरंटो लौटी तब तक वह काफी आत्मनिर्भर हो चुकी थी. परिवार का प्यार तो उस के साथ हरदम रहा. मातापिता उम्र के इस दौर में स्वयं ही धीरेधीरे अक्षम हो रहे थे. सो, उन्हें यह देख कर खुशी ही हुई कि रीटा ने अपने जीवन को एक नए ढर्रे पर अच्छी तरह चलाने का गुर सीख लिया है. उस ने पत्रकारिता तथा मैनेजमैंट में डिगरी हासिल कर ली और टोरंटो के एक अखबार में नौकरी भी कर ली है. अब वह आर्थिक रूप से भी किसी पर निर्भर नहीं रही.

टोरंटो में रीटा ने सैंट लौरेंस में फ्लैट किराए पर ले लिया क्योंकि यह उस के काम करने के स्थान से बिलकुल पास था. वह अपनी इलैक्ट्रिक व्हीलचेयर में आसानी से कुछ ही मिनटों में वहां पहुंच सकती थी. साथ ही, यह स्थान ऐसा था कि उसे यहां हर तरह की सुविधा थी. यह मार्केट नैशनल ज्योग्राफिक में दुनिया की सब से अच्छी मार्केट बताई गई है. साथ ही यहां से मैसी मौल, एयर कनाडा सैंटर, थिएटर, पार्क आदि मनोरंजन की जगहें भी पासपास थीं. सो, यह स्थान हर तरह से सुविधाजनक था.

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हालांकि सबकुछ ठीकठाक ही चलने लगा था, यहां मैं बहुत चीजें कर सकती थी लेकिन वास्तव में, कम से कम स्वयं खुद से, मैं कुछ भी नहीं कर रही थी.

पर जब से टौमी आया, सबकुछ बदल सा गया. लंबे समय तक, इस दुर्घटना के बाद मैं अपनी हरेक बात को शूटिंग से पहले और शूटिंग के बाद के कठघरे में रखती थी पर टौमी के आने बाद अब हरेक बात टौमी से पहले और टौमी के आने के बाद के संदर्भ में होने लगी.

टौमी के आने से पहले मैं कभी भी शौपिंग, या किसी भी काम के लिए, यहां तक कि अपनी व्हीलचेयर पर जरा सा घूमने के लिए भी, अकेले नहीं जाती थी. मेरी बिल्ंिडग में ही पूरे हफ्ते चौबीसों घंटे खुलने वाला ग्रोसरी स्टोर है, वहां भी मैं कभी अकेले नहीं गई. घर में अकेले ही पड़ी रहती थी. हां, मेरे पास एक अफ्रीकन ग्रे तोता रौकी जरूर था जिसे अपने जैसे किसी और पक्षी का साथ न होने की वजह से इंसानी साथ की बहुत जरूरत थी. हालांकि रौकी बहुत प्यारा था पर मेरी अवस्था के मुताबिक, अच्छा पालतू पक्षी नहीं था. वह मेरी देखभाल करने वाली नर्सों को काट लिया करता था, सो वे उस से भयभीत रहती थीं. स्वास्थ्य समस्याओं के कारण उसे काफी देखभाल की जरूरत थी और मैं उस की देखभाल अच्छी तरह नहीं कर सकती थी. आखिरकार वह एक दिन स्वयं ही अपने कंधे पर किए गए घाव की सर्जरी के दौरान चल बसा. उस की अकाल मृत्यु के दुख ने मुझे, लोगों के कहने पर भी किसी और पक्षी को रखने का मन नहीं बनाने दिया.

6 महीने बाद एक दिन एक मित्र ने कहा कि क्यों नहीं मैं एक सर्विस डौग के बारे में सोचती. हालांकि कुछ समय पहले भी मैं ने इस दिशा में सोचा था और कैलिफोर्निया की एक संस्था, जो कुत्तों को प्रशिक्षित करती है, से बात भी की थी, पर उन के विचार से मेरी पक्षाघात, लकवा की स्थिति इतनी गंभीर है कि कुत्ता मुझ से जुड़ नहीं पाएगा क्योंकि मुझ में उसे खिलानेपिलाने या सहलाने तक की क्षमता नहीं है. सो, मैं ने इस दिशा में सोचना ही छोड़ दिया था.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अंतर्भास : कुमुद की इच्छा क्या पूरी हो पाई

अंतर्भास : भाग 3- कुमुद की इच्छा क्या पूरी हो पाई

कंप्यूटर के सामने चुप और उदास बैठा रहा. कुछ बोला नहीं. कुछ देर के मौन के बाद उस ने कहा, ‘‘बरखुरदार… मैं ने तुम से ज्यादा दुनिया देखी है. जयेंद्र जो एकएक पैसा दांत से पकड़ता है, तुम्हारी कुमुद पर फिदा हो गया था. कुमुद ने उस से नौकरी के लिए कहा तो एक अफसर की बेटी की शादी में मुफ्त टैंट लगा शादी का पूरा इंतजाम किया. बदले में कुमुद के लिए उस अफसर से उस ने सरकारी दफ्तर में कंप्यूटर क्लर्क की नौकरी मांग ली. इस तरह कुमुद को वहां फिट करवा दिया.  इस अहसान के बदले कुमुद की मां से अपने लिए उस का हाथ मांग लिया. जयेंद्र कहां गलत है इस में? सौदों की दुनिया में हर कोई नफा का सौदा करना चाहता है. तुम ठहरे नासमझ और कल्पनाओं की दुनिया में जीने वाले.’’

इतना कह कर वह बेशर्मी से मुसकराया और बोला, ‘‘जिस दिन तुम कुमुद केलिए कंप्यूटर ले जा रहे थे, उस दिन मैं तुम से कहना चाहता था कि कुमुद तुम्हारे हाथ नहीं आएगी, बेकार उस पर अपना वक्त और पैसा बहा रहे हो पर तुम्हें बुरा लगेगा, इसलिए चुप रह गया था. आखिर तुम हमारे साइबर कैफे को पुलिस से बचाने में मेरी मदद करते हो, मैं तुम्हें नाराज क्यों करता?’’

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‘‘तुम्हारी इस सिलसिले में कुमुद से कभी बात हुई क्या?’’ मैं ने कुछ सोच कर पूछा. मैं जानना चाहता था, आखिर कुमुद ने उस बदसूरत आदमी को क्यों पसंद कर लिया, जबकि मैं अपनेआप को उस से हजार गुना बेहतर समझता हूं.

‘‘वह तुम्हें सिर्फ एक अच्छा दोस्त मानती है. तुम्हारी इज्जत करती है. एक भला और सही आदमी मानती है. पढ़ालिखा और समझदार व्यक्ति भी मानती है. पर इस का मतलब यह तो नहीं कि वह तुम्हें अपना जीवनसाथी भी मान ले? वह जानती है कि तुम्हारा अर्थतंत्र टूटा हुआ है. तुम इस शहर को छोड़ कर कहीं बाहर जाने का जोखिम नहीं लेना चाहते. कुछ नया और अच्छा करने का हौसला तुम में नहीं है. आजकल पैसा बनाने के लिए आदमी क्या नहीं कर रहा? गलाकाट प्रतिस्पर्धा का जमाना है मित्र. लोग अपने हित के लिए दूसरे का गला बेहिचक काट रहे हैं.’’

मैं कसमसाता चुप बना रहा तो कंप्यूटर मालिक कुछ संभल कर फिर बोला, ‘‘चींटियां वहीं जाती हैं जहां गुड़ होता है. जरा सोच कर देखो, उस का फैसला कहां गलत है? तुम्हारे साथ जुड़ कर उसे क्या वह सबकुछ मिलता जो जयेंद्र से जुड़ कर मिला है…सरकारी नौकरी, 10 लाख उस के नाम बैंक में जमा. अच्छा- खासा सारी सुखसुविधाओं से युक्त मकान…तुम उसे क्या दे पाते यह सब?’’

उस दिन अचानक कुमुद मेरे चबूतरे पर चढ़ आई. उस के स्वागत में मुसकरा कर खड़ा हो गया, ‘‘आओ, कुमुद…अब तो तुम ने इधर आना ही छोड़ दिया,’’ स्वर में शिकायत भी उभर आई.

‘‘नौकरी की व्यस्तता समझिए इसे और कुछ नई जिम्मेदारियां भी,’’ उस का इशारा संभवत: अपने विवाह की तरफ था. उस के बैठने के लिए भीतर से कुरसी ले आया.

‘‘चाय पीना पसंद करोगी मेरे साथ?’’ मुसकरा रहा था. पता नहीं चेहरे पर व्यंग्य था या रोष.

‘‘चाय पीना ही पसंद नहीं करती बल्कि आप से बातचीत करना भी बहुत पसंद करती हूं पर आज चाय आप नहीं, मैं बनाऊंगी आप के किचन में चल कर,’’ वह बेहिचक घर में आई. उसे किचन बताना पड़ा. सारा सामान चाय के लिए निकाल कर उस के सामने रखना पड़ा.

चाय के दौरान उस ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी एक बात मानेंगे?’’

‘‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हारी किसी बात को इनकार नहीं कर सकता,’’ मैं ने सिर झुका लिया.

‘‘हां, इस का एहसास है मुझे. इसी विश्वास के बल पर आज आई हूं आप से कुछ कहने के लिए,’’ उस ने कहा.

‘‘कहो,’’ मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘अपने अफसर को राजी किया है. वह आप को अखबार के कारण जानता है. हालांकि हिचक रहा था, अखबार में काम करते हो, कहीं सरकारी दफ्तर के जो ऊंचेनीचे काम होते हैं उन की पोल तुम कभी अखबार में न खोल डालो. पर मैं ने उन्हें तुम्हारी तरफ से विश्वास दिला दिया है कि तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, चुपचाप अपनी नौकरी करोगे.’’

‘‘मतलब यह कि तुम ने मेरी नौकरी की बात पक्की कर ली वहां. वह भी बिना मुझ से पूछे? बिना यह सूचना दिए कि मुझे वह नौकरी रास भी आएगी या नहीं? मैं कर भी पाऊंगा या नहीं? निभा भी सकूंगा सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार के साथ या नहीं?’’ मैं सवाल पर सवाल दागता चला था.

‘‘हां, बिना आप से पूछे. बिना आप को सूचित किए ही यह बात कर ली मैं ने, और मुझे इस के लिए उस अफसर को थोड़ीबहुत छूटें भी देनी पड़ीं, इतनी नहीं कि मेरी अस्मिता पर आंच आती पर किसी से हंसबोल लेना, दिखावटी थोड़ाबहुत फ्लर्ट कर लेना…अपना काम निकालने के लिए बुरा नहीं मान पाई मैं… और वह भी अपने इतने अच्छे दोस्त के लिए, अपनी दोस्ती के लिए इतना तो कर ही सकती थी न मैं,’’ वह मुसकरा रही थी. फिर बोली, ‘‘मेरा मन कह रहा था कि मैं तुम से कहूंगी तो तुम मना नहीं करोगे. मैं जानती हूं तुम्हारे मन को…और न जाने क्यों, इतना  हक भी मानती हूं तुम पर अपना कि मैं कहूंगी तो तुम मेरी बात मानोगे ही.’’

चुप रह गया मैं और दंग भी. अपलक उस के मुसकराते और गर्व से चमकते चेहरे की तरफ देखता रहा.

‘‘सरकारी दफ्तरों में हर काम गलत नहीं होता जनाब, हर आदमी भ्रष्ट नहीं होता. ऐसे बहुत से लोग हैं जो पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करते हैं. इतने दिन काम कर के मैं भी कुछ समझ पाई हूं उस तिलिस्म में घुस कर,’’ वह बोलती जा रही थी.

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‘‘क्या करना होगा मुझे?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘टे्रजरी दफ्तर में तमाम बिल कंप्यूटरों पर तैयार होते हैं. वेतन बिल, पेंशन बिल, सरकारी खर्चों के लेनदेन के हिसाबकिताब…उन की टे्रनिंग चलेगी आप की 6 महीने…उस के बाद स्थायी पद दिया जाएगा. शुरू में 10 हजार रुपए मिलेंगे, इस के बाद क्षमता के आधार पर संविदा पर नियुक्ति की जाएगी.’’

‘‘संविदा का मतलब हुआ, अगर काम ठीक से नहीं कर पाया तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा,’’ मैं ने शंका जाहिर की. ‘‘हमेशा हर काम को करने से पहले आप उस के बुरे पक्ष के बारे में ही क्यों सोचते हैं? यह क्यों नहीं मानते कि 6 महीने की टे्रनिंग में आप जैसा प्रतिभावान और होनहार व्यक्ति बहुतकुछ सीख लेगा और संविदा पर ही सही, अच्छा काम कर के अफसरों को अपनी उपयोगिता सिद्ध करा देगा…आप की 2 हजार रुपए की नौकरी से तो यह हजारगुनी बेहतर नौकरी रहेगी…अगर नहीं कर पाएंगे तो अखबार तो आप के लिए हमेशा रहेंगे. पत्रकारिता आप को आती है, वह कहीं भी कर लेंगे आप…परेशान क्यों हैं?’’

उम्मीद नहीं थी कि कुमुद इतनी समझदार और संवेदनशील होगी. मैं चकित, अचंभित उस के चेहरे को देखता रह गया, उसे इनकार करता तो किस मुंह से और क्यों?

अंतर्भास : भाग 2- कुमुद की इच्छा क्या पूरी हो पाई

‘‘कुमुद, तुम ने अंगरेजी विषय ही क्यों चुना एम.ए. के लिए?’’ एक दिन उस से पूछा. वह हिंदी और अंगरेजी के उपन्यास समान रूप से ले जा कर पढ़ने लगी थी.

‘‘कई कारण हैं. एक तो यह कि यहां के महिला महाविद्यालय में प्राचार्या ने वचन दिया है कि यदि एम.ए. में मेरी प्रथम श्रेणी आई तो बी.ए. की कक्षाओं को पढ़ाने के लिए फिलहाल वह मुझे रख लेंगी. दूसरा कारण, अपने महाविद्यालय में अंगरेजी के जो विभागाध्यक्ष हैं वह मुझे बहुत मानने लगे हैं. कह रहे थे, शोध करा देंगे. यदि पीएच.डी. करने का अवसर मिल गया तो एक प्रकार से मेरी शिक्षा पूरी हो जाएगी और कहीं ठीकठाक जगह नौकरी मिल जाएगी. तीसरा कारण, अंगरेजी पढ़ी लड़की को नौकरी आसानी से मिल जाती है.’’

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‘‘असली कारण तो तुम ने बताया ही नहीं,’’ भेद भरी मुसकान के साथ मैं बोला.

‘‘कौन सा?’’ उस की आंखों में भी शरारत थी.

‘‘अंगरेजी पढ़ी लड़की को अच्छा घर और वर भी मिल जाता है,’’ कह कर मैं हंस दिया. झेंप गई वह.

कुमुद कंप्यूटर सीखने जाने लगी थी. कई बार वह फीस के बारे में पूछ चुकी थी, पर उसे फीस न संस्थान मालिक ने बताई, न मैं ने. वह पढ़ती रही. काफी सीख भी गई.

एक दिन बोली, ‘‘अगर कहीं से आप सेकंड हैंड कंप्यूटर दिलवा दें तो मैं घर पर कुछ जौब वर्क कर सकती हूं.’’

अगले दिन अपने संस्थान से ही एक नया असंबल किया हुआ कंप्यूटर ले कर उस के घर पहुंच गया, ‘‘तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा, कुमुद.’’

वह एकदम खिल सी गई, ‘‘आप को कैसे पता चला कि आज मेरा जन्मदिन है?’’

‘‘कंप्यूटर संस्थान में तुम ने अपना फार्म भरा था, उस में तुम्हारा बायोडाटा देखा था.’’

‘‘आप सचमुच जासूस किस्म के व्यक्ति हैं…क्राइम रिपोर्टर हैं, कहीं कोई क्राइम तो नहीं करेंगे?’’ वह हंसतीहंसती एकदम चुप हो गई थी क्योंकि उस की मां वहां आ गई थीं. उस ने कंप्यूटर अपनी मां को दिखाया. फिर मेरे लिए चाय बनाने चली गई.

कुमुद की मां वहां रह गई थीं. संकोच भरे स्वर में कुछ हिचकती सी बोलीं, ‘‘आप की बहुत तारीफ करती है कुमुद. सचमुच आप ने उसे बहुत सहारा दिया है. हम आप का अहसान हमेशा मानेंगे.’’

मैं समझ रहा था, यह किसी अन्य बात को कहने की भूमिका है. यों ही कोई किसी की प्रशंसा नहीं करता. हर बात, हर व्यवहार आदमी बहुत चालाकी से, अपने मतलब के अनुसार करता है. अखबारी दुनिया में रहने से आदमी को अच्छी तरह समझने लगा हूं. पहले यह समझ नहीं थी.

कुछ रुक कर चेहरा झुकाए हुए वह बोलीं, ‘‘कुमुद जहां बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाती है, आप की गली वाले जयेंद्रजी के घर…’’ इतना कहती हुई वह हिचकीं फिर बोलीं, ‘‘एक दिन वह यहां आए थे… बड़े आदमी हैं…आप भी जानते होंगे उन्हें…2 बच्चे हैं. पत्नी की बीमारी से मृत्यु हो गई है. मुझे कुछ खास उम्र नहीं लगी उन की…बस, शक्लसूरल जरा अच्छी नहीं है पर पैसे वाले आदमी की शक्लसूरत कहां देखी जाती है…कुमुद का हाथ मांग रहे थे…कह रहे थे कि बच्चे कुमुद से बहुत हिलमिल गए हैं…अगर कुमुद राजी हो जाए तो वह उस से शादी कर लेंगे…इस बारे में आप की क्या राय है?’’

मैं सन्नाटे में आ गया था. लगा, जैसे किसी ने चहकती चिडि़यों वाले बेर के विशाल पेड़ पर पूरी ताकत से बांस जड़ दिया है और सारी चिडि़यां एकाएक फुर्र हो गई हैं. बाहरभीतर का सारा चहकता शोर एकदम थम गया है. मैं भौचक्का उन की तरफ ताकता रह गया. मन हुआ, कंप्यूटर उठा ले जाऊं और कुमुद चाय ले कर आए उस से पहले ही इस घर से बाहर निकल जाऊं, पर ऐसा किया नहीं. काठ बना ज्यों का त्यों बैठा रहा.

कुमुद चहकती चिडि़या की तरह खुश थी. उसे कंटीला ही सही एक ऊंचा बेर का वृक्ष मिल गया था. वह बेखौफ उस घने वृक्ष पर अपना घोंसला बना सकती थी.

घर आ कर सारी स्थितियों पर मैं ने गंभीरता से सोचाविचारा. कुमुद ने मेरी अपेक्षा जयेंद्र को क्यों पसंद किया? मैं अपनी असफलता पर बहुत दुखी ही नहीं, एक तरह से अपनेआप से क्षुब्ध और असंतुष्ट भी था. एक बार को मन हुआ कि बाजार से सल्फास की गोलियां ले आऊं और रात को खा कर सो जाऊं. फिर लगा कि यह तो कायरता होगी. आखिर इतना पढ़ालिखा हूं, समझ है, क्या इस तरह की बातें मुझे सोचनी चाहिए? इस में कुमुद का दोष कहां है? उस ने जो किया, जो सोचा, उस में उस की गलती कहां है? कोई भी चतुर और समझदार लड़की यही करती जो उस ने किया. आखिर जयेंद्र की तुलना में वह मुझे क्यों चुनती?

फिर मैं ने अपने मन की बात उस से कभी खुल कर कही भी नहीं. हो सकता है, वह सिर्फ एक दोस्त के रूप में ही मुझे देखतीमानती और समझती रही हो. जरूरी कहां है कि जो दोस्त है, उसे वह अपने जीवन का साथी भी बनाए? क्यों बनाए? सिर्फ दोस्त भी तो मान सकती है. कभी उस ने अपना ऐसा मन भी जाहिर नहीं किया कि वह मुझे इस रूप में पसंद करती है. फिर कुमुद के इस फैसले से मैं खिन्न क्यों हूं? गुस्से से क्यों भभक रहा हूं?

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गलती खुद मुझ से हुई है. अगर दोस्ती से आगे बढ़ कर उसे चाहने लगा था तो मुझे उस से अपने मन की बात कहनी चाहिए थी. चूक उस से नहीं, मुझ से हुई है. उस से कहा क्यों नहीं? संकोच था, झिझक थी कि अगर इनकार कर दिया तो? और इनकार करने के कारण भी थे… 2 हजार की अखबार में क्राइम रिपोर्टर की मामूली नौकरी. 3 कमरों का साधारण घर. किराए पर उठी 3 दुकानें. मेरी आर्थिक हैसियत क्या है?

मन की बात कहने पर अगर वह इनकार कर देती तो बहुत संभव था, मैं अपनेआप को रिजेक्टिड मान कर क्रोध में भड़क उठता और कोई गलत फैसला कर बैठता.

कुमुद मुझे बहुत अच्छी लगती है. मैं उस का बहुत सम्मान करता हूं. अच्छी दोस्त है वह मेरी. उस की एक झलक पाने के लिए, उस की एक मुसकान देखने के लिए, उस के गालों पर प्रीति जिंटा जैसे डिंपलों को देखने के लिए, मैं चकोर बना उस की ओर ताकता रहता हूं.

‘‘क्यों, चिडि़या हाथ नहीं आई?’’ कंप्यूटर संस्थान के मालिक ने मेरी स्थिति से असली मामला भांप लिया.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अंतर्भास : भाग 1- कुमुद की इच्छा क्या पूरी हो पाई

घर पर अकसर मैं अकेला होता… अकेला होने पर एक भी पल ऐसा न गुजरता जब मेरे दिमाग में कुमुद न होती. मैं यह निरंतर समझने की कोशिश करता रहता कि आखिर कुमुद जैसी सुंदर, युवा, पढ़ीलिखी और सरकारी नौकरी में लगी, बुद्धिमान लड़की ने जयेंद्र जैसे बदसूरत, अपने से दोगुनी उम्र वाले 2 बच्चों के पिता से शादी कैसे कर ली?

जयेंद्र को इस महल्ले में लोग सब से बेवकूफ, प्रतिभाहीन, खब्ती आदमी मानते थे. लोभी इतना कि बीमार बीवी का उस ने ठीक से इलाज इसलिए नहीं कराया क्योंकि इलाज में पैसा ज्यादा खर्च होता जबकि शहर में उस के पास 2-3 बड़े गोदाम थे, जिन का अच्छाखासा किराया आता था. उस का अपना निजी टैंट हाउस भी था.

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बच्चे पढ़ने में कमजोर थे इसलिए कुमुद उन्हें ट्यूशन पढ़ाने आया करती थी. जयेंद्र के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी पर अखबार वह खरीदता नहीं था. उस के घर में बच्चों की किताबकापियों के अलावा और कोई किताब कहीं दिखाई नहीं देती थी.

कुमुद से मेरा परिचय कुछ इस तरह हुआ कि एक दिन पड़ोस में दांतों के एक नकली डाक्टर के गलत इंजेक्शन लगाने से मरीज की मृत्यु हो गई जिस के कारण उस के घर वालों ने डाक्टर की दुकान पर हमला कर दिया. लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज और मारपीट के समय कुमुद वहीं से गुजर रही थी. वह घबरा कर मेरे चबूतरे पर चढ़ आई. मैं ने उस को आतंकित और कांपते देखा तो उस से कह दिया कि आप भीतर घर में चली जाएं. यहां झगड़ा बढ़ सकता है. कुछ सकुचा कर वह अंदर चली आई और फिर बातें हुईं.

वह शहर के डिगरी कालिज से एम.ए. कर रही थी और पड़ोस के जयेंद्र के बच्चों को पढ़ा रही थी.

‘‘चाय बना कर लाता हूं,’’ मैं यह कह कर चाय बनाने चला गया और इस दौरान उस ने मेरे कमरे में रहने वाले का जीवन और चरित्र समझने की कोशिश की थी. साफ लगा, लड़की तेज है, बेवकूफ नहीं.

बातों से पता चला कि वह नौकरी ढूंढ़ रही थी…पर किसी नौकरी के लिए कोशिश करो तो सब से पहले यही पूछा जाता है कि कंप्यूटर आता है? इंटरनेट का ज्ञान है? ईमेल कर लेते हो? पर शहर में जो अच्छे सिखाने वाले संस्थान हैं, उन की फीस बहुत है. वह उस के वश की नहीं और घटिया संस्थानों में कुछ सिखाया नहीं जाता.

‘‘आप कहें तो मैं अपने उस संस्थान के मालिक से बात करूं जहां मैं सीखता हूं…शायद मेरे कहने पर वह कम फीस में सिखाने को राजी हो जाए,’’ मैं ने कह तो दिया पर सोच में पड़ गया कि अगर वह राजी न हुआ तो? व्यापारी है. बाजार में पैसा कमाने बैठा है. मेरे कहने पर किसी को ओबलाइज क्यों करेगा?

हां, उस की एक कमजोर नस मैं ने दबा रखी है. इंटरनेट पर वह साइबर कैफे  चलाता है और कम उम्र के लड़के- लड़कियों को अश्लील वेबसाइट पर सर्फिंग करने देता है…पुलिस को इस की जानकारी है. 1-2 बार पुलिस ने उस पर छापा डालने की योजना भी बनाई, पर चूंकि एक अखबार में पार्टटाइम क्राइम रिपोर्टर होने के कारण मेरा परिचय पुलिस विभाग में बहुत हो गया है, हर कांड जिसे पुलिस खोलती है, उस की बहुत अच्छी रिपोर्टिंग मैं करता हूं और अकसर पुलिस वालों को उन की तसवीरों के साथ खबर में छापता हूं, इसलिए वे बहुत खुश रहते हैं मुझ से. यही नहीं क्राइम होने पर मुझे वे तुरंत सूचित करते हैं और अपने साथ तहकीकात के वक्त ले भी जाते हैं.

जबजब कंप्यूटर कैफे पर छापा डालने की पुलिस ने योजना बनाई, मैं ने पुलिस को या तो रोका या कंप्यूटर मालिक को पहले ही सूचित कर दिया जिस से वह लड़केलड़कियों को पहले ही अपने कैफे से हटा देता.

अगले दिन जब वह पड़ोसी जयेंद्र के घर बच्चों को सुबह ट्यूशन पढ़ाने जा रही थी, मैं ने उसे अपने चबूतरे पर से आवाज दी, ‘‘कुमुदजी…’’

वह ठिठक गई. बिना हिचक चबूतरे पर चढ़ आई. अपनी कुरसी से उठ कर मैं खड़ा हो गया और बोला, ‘‘मैं ने आप की कंप्यूटर सिखाने के लिए अपने संस्थान के मालिक से बात कर ली है. शाम का कोई वक्त निकालें आप…’’

‘‘कितनी फीस लगेगी?’’ उस का प्रश्न था.

‘‘आप उस की चिंता न करें. वह सब मैं देखूंगा, हो सकता है, मेरी तरह आप भी वहां फ्री सीखें…’’

मैं ने बताया तो वह कुछ सकुचाई. शायद सुंदर लड़कियों को सकुचाना भी चाहिए. आज की दुनिया लेनदेन की दुनिया है. कैश न मांगे, कुछ और ही मांग बैठे तो? संकोच ही नहीं, उस के भीतर चल रहे मानसिक द्वंद्व को भी मैं ताड़ गया था. कहानियों, उपन्यासों का पाठक हूं… आदमी की, उस के मन की, उस के भीतर चल रही उथलपुथल की मुझे बहुत अच्छी समझ है. और यह समझ मुझे हिंदीअंगरेजी के उपन्यासों ने दी है. आदमी को समझने की समझ, किसी आदमी का बहुआयामी चित्रण जितनी अच्छी तरह किसी अच्छे उपन्यास में होता है, शायद किसी अन्य विधा में नहीं. इसीलिए आज के युग का उपन्यास महाकाव्य कहलाता है.

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कुमुद का संकोच मेरी समझ में आ गया था सो मुसकरा दिया, ‘‘आप पर आंच नहीं आने दूंगा…यह विश्वास रखें.’’

‘‘मेरे लिए आप भी यह सब क्यों करेंगे…’’ कुमुद कहने के बाद हालांकि मुसकरा दी थी.

‘‘मैं आप के कहने का आशय समझ गया,’’ हंस कर बोला, ‘‘किसी और लालच में नहीं, सिर्फ एक अच्छी दोस्त के लिए और उस से दोस्ती की खातिर…हालांकि इस छोटे शहर में स्त्री व पुरुष के बीच दोस्ती का एक ही मतलब निकाला जाता है, पर आप विश्वास रखें, बीच की सीमा रेखा का अतिक्रमण भी नहीं करूंगा…हालांकि आप का रूपसौंदर्य मुझे परेशान जरूर करेगा, क्योंकि सौंदर्य की अपनी रासायनिक क्रिया होती है…

‘‘आप ने बाहर हो रहे झगड़े के दौरान जब हमारी बैठक में बैठ कर चाय पी और हमारा परिचय हुआ तो आप से सच कहता हूं, मन में अनेक भाव आए, रात को भी ठीक से नींद नहीं आई, आप बारबार सपनों में आती रहीं पर मैं ने अपने मन को समझा लिया कि हर सुंदर लगने वाली चीज हमें जीवन में मिल जाए, यह जरूरी नहीं है…फिल्मों की तमाम हीरोइनें हमें बहुत अच्छी लगती हैं पर हम सब जानते हैं, वे आकाश कुसुम हैं…कभी मिलेंगी नहीं…’’

खिलखिला कर हंस दी कुमुद. हंसी तो उस के गोरे, भरे गालों में प्रीति जिंटा जैसे  डिंपल बने जिन्हें मैं अपलक देखता रहा देर तक. वह बोली, ‘‘कुछ भी हो, आप दिल के एकदम साफ व्यक्ति हैं. जो मन में होता है, उसे कह देते हैं.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

जिद : मां के दुलार के लिए तरसी थी रेवा

जिद : भाग 3- मां के दुलार के लिए तरसी थी रेवा

वैब चौइस से उसे प्लेन में अच्छी सीट मिल गई थी और वह सामान रख कर सोने के लिए पसर गई. 1-2 घंटे की गहरी नींद के बाद रेवा की आंख खुल गई. पहले सीट के सामने वाली टीवी स्क्रीन पर मन बहलाने की कोशिश करती रही, फिर बैग से च्युंगम निकालने के लिए हाथ डाला तो साथ में मां की वह डायरी भी निकल आई. मन में आया कि देखूं, आखिर मां मुझ से क्या कहना चाहती थीं जो उन्हें इस डायरी को लिखना पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद उस ने उस पर लगी सील को खोल डाला और समय काटने के लिए पन्ने पलटने शुरू किए. एक बार पढ़ने का सिलसिला जब शुरू हुआ तो अंत तक रुका ही नहीं.

पहले पेज पर लिखा, ‘‘सिर्फ अपनी प्रिय रेवा के लिए,’’ दूसरे पन्ने पर मोती के जैसे दाने बिखरे पड़े थे. लिखा था, ‘‘मेरी प्रिय छोटी सी लाडो बिटिया, मेरी जान, मेरी रेवू, जब तुम यह डायरी पढ़ रही होगी, मैं तुम्हारे पास नहीं हूंगी. इसीलिए मैं तुम्हें वह सबकुछ बताना चाहती हूं जिस की तुम जानने की हकदार हो.

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‘‘मैं अपने मन पर कोई बोझ ले कर जाना नहीं चाहती और तुम मेरी बात समझने तो क्या, सुनने के लिए भी तैयार नहीं थी. सो, जातेजाते अपनी वसीयत के तौर पर यह डायरी दे कर जा रही हूं क्योंकि तुम हमारी पहली संतान हो तुम, जैसी नन्ही सी परी पा कर मैं और तुम्हारे पापा निहाल हो उठे थे.

‘‘धीरेधीरे मैं तुम में अपना बचपन तलाशने लगी. छोटी होने के नाते मैं जिस प्यार व चीजों से महरूम रही, वे खिलौने, वे गेम मैं ढूंढ़ढूंढ़ कर तेरे लिए लाती थी. जब तुम्हारे पापा कहते, ‘तुम भी बच्चे के साथ बच्चा बन जाती हो,’ सुन कर ऐसा लगता कि मेरा अपना बचपन फिर से जी उठा है. धीरेधीरे मैं तुम में अपना रूप देखने लगी और तुम्हारे साथ अपना बचपन जीने लगी. जो कुछ भी मैं बचपन में नहीं हासिल कर पाई थी, अब तलाश करने की कोशिश करने लगी.

‘‘समय के साथ तुम बड़ी होने लगी और मेरी फिर से अपना बचपन सुधारने की ख्वाहिश बढ़ने लगी. तुम पढ़ने में बहुत तेज थी. प्रकृति ने तुम्हें विलक्षण बुद्धि से नवाजा था. तुम हमेशा क्लास में प्रथम आती और मुझे लगता कि मैं प्रथम आई हूं. यहां तुम्हें यह बताना चाहती हूं कि मैं बचपन से ही पढ़ाई में काफी कमजोर थी, पर तुम्हें यह बताती रही कि मैं भी हमेशा तुम्हारी तरह कक्षा में प्रथम आती थी. इसीलिए मेरे मन में एक ग्रंथि बैठ गई थी कि मैं तुम्हारे द्वारा अपनी उस कमी को पूरा करूंगी.

‘‘समय के साथसाथ मेरी यह चाहत सनक बनती चली गई और मैं तुम पर पढ़ाई के लिए अधिक से अधिक जोर डालने लगी. जब मुझे लगा कि घर पर तुम्हारी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाएगी, तो मैं ने तुम्हारे पापा के लाख समझाने को दरकिनार कर छोटी उम्र में ही तुम्हें होस्टल में डाल दिया. इस तरह मैं ने तुम्हारा बचपन छीन लिया और तुम भी धीरेधीरे मशीन बनती चली गई. दूसरी तरफ रेवती पढ़ने में कमजोर थी और मैं उसे खुद ले कर पढ़ाने बैठने लगी. जरा सी डांट पर रो देने वाली रेवती, हमारे प्यारदुलार का ज्यादा से ज्यादा हकदार बनती चली गई और मुझे पता ही नहीं चला. और तो और, मुझे पता नहीं चला कि कब तुम्हारे हिस्से का प्यार भी रेवती के हिस्से में जाने लगा.

‘‘तुम्हारे लिए अपना प्यार जताने का हमारा तरीका थोड़ा अलग था. मैं सब के सामने तुम्हारी तारीफों के कसीदे पढ़ कर, उस पर गर्व करने को ही प्यार देना समझती रही. पर सच जानो रेवू, मैं तुम्हें उस से भी ज्यादा प्यार करती थी जितना कि रेवती को करती थी. पर क्या करूं, यह कभी बताने या दिखाने का मौका ही नहीं मिल सका या हो सकता है कि मेरा प्यार दिखाने या जताने का तरीका ही गलत था.

‘‘जैसेजैसे तुम बड़ी होती गई, तुम्हारे मन में धीरेधीरे विद्रोह के स्वर उभरने लगे. मैं तुम्हें आईएएस बनाना चाहती थी जिस से अपनी हनक अपने जानपहचान, नातेरिश्तेदारों व दोस्तों पर डाल सकूं. पर तुम ने इस के लिए साफ इनकार कर दिया और प्रतियोगिता के कुछ प्रश्न जानबूझ कर छोड़ दिए. तुम्हारी या कहो मेरी सफलता में कोई बाधा न आए, इसलिए मैं ने तुम्हें किसी लड़के से प्यारमुहब्बत की इजाजत भी नहीं दी थी. पर तुम ने उस में भी सेंध लगा दी और विद्रोह के स्वर तेज कर दिए और सरस से चुपचाप विवाह कर लिया.

‘‘तुम तो विलक्षण प्रतिभा की धनी थी, इसलिए एक मल्टीनैशनल कंपनी ने तुम्हें हाथोंहाथ ले लिया. पर तुम ने अपनी मां के एक बड़े सपने को चकनाचूर कर दिया. इस के बाद तो तेरी मां ने सपना ही देखना बंद कर दिया. समय के साथ, मैं ने तुम्हारे पति को भी स्वीकार कर लिया और सबकुछ भूल कर तुम्हारे कम मिले प्यार की भरपाई करने में जुट गई. पर अब तुम इस के लिए तैयार नहीं थी, तुम्हारे मन में पड़ी गांठ, जिसे मैं खोलने या कम से कम ढीला करने की कोशिश कर रही थी, उसे तूने पत्थर सा कठोर बना लिया था. हां, अपने पापा के साथ तुम्हारा व्यवहार सदैव मीठा, स्नेहपूर्ण व बचपन जैसा ही बना रहा.

‘‘तुम्हारी यह बेरुखी या अनजानेपन वाला व्यवहार मेरे लिए सजा बनता गया, जिसे लगता है मैं अपने मरने के बाद भी साथ ले कर जाऊंगी. पर रेवू, कभी तूने सोचा कि मैं भी तो एक मां हूं और हर मां की तरह मेरा दिल भी अपने बच्चों के प्यार के लिए तरसता होगा. तुम और रेवती दोनों मेरी भुजाओं की तरह हो और मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं ने अपने दाएं हाथ, अपनी रेवी पर ज्यादा भरोसा कर लिया. हर मां की तरह मेरे मन में भी कुछ अरमान थे, कुछ सपने थे जिन्हें मैं ने तुम्हारी आंखों से देखने की कोशिश की. अगर इस के लिए मैं गुनाहगार हूं, तो मैं अपना गुनाह स्वीकार करती हूं. पर अफसोस तूने तो बिना कुछ मेरी सफाई सुने, मेरे लिए मेरी सजा भी मुकर्रर कर दी और उस की मियाद भी मेरे मरने तक सीमित कर दी.

‘‘मैं ने यह डायरी इस आशय से तुम्हें लिखी है कि शायद आज तुम मेरी बात को समझ सको और अपनी मां को अब माफ कर सको. अंत में ढेर सारे आशीर्वाद व उस स्नेह के साथ जो मैं तुम्हें जीतेजी न दे सकी…तेरी मां.’’

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डायरी का आखिरी पन्ना पलट कर, रेवा ने उसे बंद कर दिया. कभी न रोने वाली रेवा का चेहरा आंसुओं से तरबतर होता चला गया और इतने दिनों की वो जिद, वो गांठ भी साथ ही घुलने लगी. पर आज उस ने भी उन आंसुओं को न तो पोंछा, न ही रोका. उसे लगा सर्दी बढ़ गई है और उस ने कंबल को सिर तक ढक लिया. वह ऐसे सो गई जैसे कोई बच्चा अपनी मां की खोई हुई गोद में इतमीनान से सो जाता है.

आज रेवा को भी लगा कि मां कहीं गई नहीं है और पूरी शिद्दत से आज भी उस के पास है. मां की गोद में सोई रेवा की आंखों से आंसू मोती बन कर बह रहे थे. तभी उसे लगा, मां ने उस के आंसू पोंछ कर कहा, ‘अब क्यों रोती है मेरी लाड़ो, अब तो तेरी मां हमेशा तेरे पास है.’ …और रेवा करवट बदल कर फिर गहरी नींद में चली गई.

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