देशप्रदेश में हमेशा की भांति काव्य संसार की सहज अनुप्रास छटा छाई है. शहर में 3-दिवसीय कविता विमर्श था. प्रथम दिवस संध्या 7 बजे से 11 बजे तक कार्यक्रम में रोहरानंद बहैसियत  आम व कवि उपस्थित हुआ. सब से पहले, समकालीन कविता क्या शै है, वरिष्ठतम कवियों ने हमें बताया. फिर शुरू हुआ अथिति कवियों का काव्यपाठ. अंत में जिस बात का इंतजार था, वही हुआ, रात्रिभोज.

रोहरानंद को जीवन में पहली बार कवि होने का लाभ मिला, मगर... डिनर में लंबी लाइन थी. कविगण  पंक्तिबद्ध एकदूसरे के पीछे  अनुशासित खड़े थे, हाथों में प्लेट थामने को आतुर.

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एक अकवि मित्र ने कहा, “चलिए, पंक्ति में स्थान ग्रहण करें.”

मगर रोहरानंद का कविमन इस के लिए तैयार न था. कवि अर्थात विशिष्ट प्राणी. अगर कवि हो कर आम आदमी की भांति लाइन में खाना अर्थात डिनर का लुत्फ़  उठाया, तो क्या खाक कवि हुए ? नहींनहीं, भले खाना घर जा कर खाऊंगा, मगर निरीह आम आदमी सा पंक्तिबद्ध श्रृंखला में, साधारण मनुष्य सा, मैं भोजन नहीं ग्रहण कर सकता?

आयोजकों ने बड़ी गलती की है, मेरे कविमन को ठेस पहुंचाई है. या फिर आयोजक यह समझते हैं कि मैं कवि नहीं हूं, आम आदमी हूं? कोई भेड़बकरी...

रोहरानंद ने कहा, “पंक्ति ख़त्म हो जाएगी, तब डिनर का आनंद लेंगे.”

अकवि मित्र ने चिंता जताई, “भैया, यहां शर्म छोड़िए, कौन जानता है तुम कवि हो, कहीं भोजन सामग्री खत्म हो गई तो?”

रोहरानंद मुसकराया, “ नहींनहीं, आतुर  न हो मित्र. थोड़ी ही देर में लंबी पंक्ति हवा की भांति चंहुओर व्याप्त हो जाएगी.  भोजन फिर ग्रहण कर लेंगे."

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