गांव के लड़कों को शादी की परेशानी, हकीकत हैरान करने वाली

Society News in Hindi: गांव में शादियों के मामले में सरकारी नौकरी बनाम पकौड़ा रोजगार के मद्देनजर पकौड़े बेचने वाले युवाओं को लोग कम पसंद कर रहे हैं. ऐसे में खेतीकिसानी और उस से जुड़े रोजगार करने वालों को तो गांव की सही लड़की मिल भी जा रही है पर बेरोजगार (Employment) और नशेड़ी युवाओं (Drug Addicts) के लिए शादी के रिश्ते ही नहीं आ रहे हैं. गांव में शादी योग्य लड़कों की संख्या बढ़ती जा रही है. लड़कियों की जनसंख्या (Population of Girl Child) कम होने से लड़कों के सामने शादी एक समस्या बनती जा रही है. योग्य लड़कों की तलाश की वजह से दहेज (Dowry) भी बढ़ता जा रहा है. अच्छे लड़कों की गिनती में सरकारी नौकरी (Goverment Job) वाले सब से आगे हैं. गांव में रोजगार करने वाले लड़कों के लिए गांव की लड़कियों के रिश्ते भले ही आ रहे हों पर उन के लिए पढ़ीलिखी व नौकरी करने वाली शहरी लड़कियों के रिश्ते नहीं आ रहे हैं.

कानपुर में विवाह का एक कार्यक्रम था. लड़कालड़की वाले सभी रीतिरिवाजों में व्यस्त थे. शादी में शामिल होने आए नातेरिश्तेदार इस चर्चा में मशगूल थे कि गांव में लड़कों की शादियों के लिए बहुत कम रिश्ते आ रहे हैं. इस शादी में कानपुर, रायबरेली, हरदोई, उन्नाव और लखनऊ जैसे करीबी शहरों के तमाम लोग शामिल हुए थे.

हर किसी का कहना था कि उन के गांव में 20 से ले कर 50 तक की संख्या में लड़के शादीयोग्य उम्र के हैं, लेकिन उन की शादी नहीं हो पा रही है. उन की उम्र बढ़ती जा रही है. यह परेशानी केवल कानपुर की शादी में ही चर्चा का विषय नहीं थी बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में एक शादी समारोह में भी ऐसी ही चर्चा हो रही थी. यहां गोंडा, बलरामपुर, बस्ती, सुल्तानपुर और गोरखपुर के लोग इसी परेशानी की चर्चा में लगे दिखे.

सामान्यतौर पर देखें तो ऐसे हालात हर गांव में दिख रहे हैं. अगड़ी और पिछड़ी दोनों ही जातियों में यह समस्या दिख रही है. पिछड़ी जातियों में यह समस्या उन जातियों में सब से अधिक है जो पिछड़ों में अगड़ी जातियां जैसे यादव, कुर्मी, पटेल हैं. अगड़ी और पिछड़ी जातियों के मुकाबले दलितों में ऐसे हालात नहीं हैं.

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कन्या विद्याधन योजना चलाई थी जिस के तहत हाईस्कूल और इंटर पास करने वाली लड़कियों को नकद पैसे मिले. इस के साथ उन्हें साइकिल भी मिली थी. इस योजना के  बाद गांवों में लड़कियों के स्कूल जाने की तादाद में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी. अब गंवई इलाकों में ग्रेजुएट लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई है. इन इलाकों में शिक्षक के रूप में नौकरी पाने वालों में भी लड़कों के मुकाबले लड़कियां अधिक हैं.

आगे निकल रही हैं लड़कियां

एक तरफ समाज में यह कहा जा रहा है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है, दूसरी तरफ लड़कों की शादी के लिए लड़कियों के परिवारों से रिश्ते नहीं आ रहे हैं. इस स्थिति को समझने के लिए जब कई ग्रामीणों से बात की गई तो पता चला कि योग्यता के पैमाने पर लड़कियां लड़कों से आगे निकल रही हैं.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों, जैसे देवरिया, बलिया, गोरखपुर में शादियों के रिश्ते ज्यादातर बिहार से आते हैं. बिहार  में लड़कियां शिक्षा के मामले में ज्यादा आगे निकल रही हैं. ऐसे में बिहार से शादी के लिए उत्तर प्रदेश के इन जिलों में आने वाले रिश्ते खत्म हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के इन जिलों के गांवों में रहने वाले लड़कों के लिए अब रिश्ते नहीं आ रहे हैं. बिहार में यह परेशानी जस की तस उत्तर प्रदेश जैसी ही है.

गांव में रहने वालों में से करीब 50 फीसदी लोग अब दूरदराज के शहरों में रहने लगे हैं. ये लोग अपना परिवार सीमित रखते हैं. लड़की हो या लड़का, दोनों को पढ़ने का समान अवसर देते हैं. ऐसे में ये परिवार अपनी लड़की को शादी के लिए शहर से गांव में नहीं ले जाते हैं. उस का कारण गांव में रहने वालों की संकीर्ण विचारधारा और रूढि़वादी सोच है. गांव में भले ही लड़के के पास जमीन या रोजगार हो, वह शहर में प्राइवेट नौकरी करने वाले से अधिक पैसा कमा रहा हो पर उस की सोच वही होती है, ऐसे में पढ़ीलिखी लड़की खुद को वहां ऐडजस्ट नहीं कर पाती है. परिवारों के सीमित होने से लड़की के परिवार के पास अब लड़की की शादी में खर्च करने के लिए पैसा है और वह बेटी के भविष्य को सुखमय देखना चाहता है. ऐसे में वह नौकरी करने वाले लड़कों को प्राथमिकता देता है.

जाति और गोत्र की परेशानी

गांव में रहने वाले परिवार आज भी जाति व गोत्र की ऊंचनीच में फंसे हैं. गैरबिरादरी में शादी तो बड़ी दूर की बात है. सब से पहली इच्छा भी यही होती है कि लड़के की शादी एक गोत्र नीचे और लड़की की शादी एक गोत्र ऊपर की जाए. हालांकि, अब इस प्रथा को छोड़ने के लिए लोग तैयार हो गए हैं.

अब लोगों की इच्छा रहती है कि अपनी ही बिरादरी में शादी हो जाए. गोत्र को ले कर लोग समझौते करने लगे हैं. अभी गैरबिरादरी में वे शादी करने को तैयार नहीं होते हैं. अपनी ही जाति में योग्य लड़कों की संख्या सब से कम मिलती है. अगर मिलती भी है तो वहां दहेज अधिक देना पड़ता है. दहेज की मांग इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि योग्य लड़कों की संख्या बहुत कम है, सो, उन के लिए शादी के औफर ज्यादा हैं. योग्यता  के पैमाने के बाद पर्सनैलिटी के हिसाब से देखें तो गांव के लड़केलड़कियों से कमतर दिखते हैं.

गांव के लोगों में गैरबिरादरी में शादी का रिवाज नहीं है. ऐसा केवल अगड़ी जाति में ही नहीं है. पिछड़ी और दलित जातियों में भी अपनी जाति से बाहर शादी करने का चलन नहीं है. यही कारण है कि विवाह योग्य कुछ लोग जब अपनी शादी होते नहीं देखते तो वे दूरदराज से शादी कर के लड़की ले आते हैं. उस की जाति के बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता है और धीरेधीरे उस को सामाजिक स्वीकृति भी मिल जाती है.

हरियाणा और पंजाब में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जहां पर बिहार, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और नेपाल की लड़कियां आ जाती हैं. कई लोग तो ऐसी लड़कियों को खरीद कर लाते हैं.

नशे के शिकार

गांव में खेतीकिसानी ही मुख्य पेशा होता है. हाल के कुछ सालों में किसानी बेहाल होती जा रही है. गांव के आसपास शहरों का विकास होने लगा है. गांव की जमीन महंगी होती जा रही है. गांव के आसपास सड़क बनने से सरकार ग्रामीणों से जमीन खरीद कर उन्हें अच्छाखासा मुआवजा देने लगी है. घर और रिसोर्ट बनाने वाले भी गांवों की जमीन की खरीदारी कर रहे हैं. शहरों में रहने वाले लोग भी गांव की जमीनें खरीदने लगे हैं. ऐसे में गांव के लोगों के पास जमीन बेचने से  पैसा आने लगा है.

पैसा आने के बाद ये लोग उस का उपयोग अपने ऐशोआराम में करने लगे हैं. ऐसे में नशे की प्रवृत्ति सब से अधिक बढ़ती है. गांव में रहने वाले 90 फीसदी युवा नशे के शिकार हो रहे हैं. ये शराब, भांग और गांजा सहित तंबाकू का सेवन करने लगे हैं. पढ़ाईलिखाई से दूर ऐसे बेरोजगार युवाओं से लोग अपनी लड़की की शादी नहीं करना चाहते हैं.

नशे के आदी इन युवाओं की छवि बेहद खराब है. लड़कियों को लगता है कि ये लोग शादी के बाद मारपीट और गालीगलौज अधिक करते हैं. ऐसे में इन के पास जमीनजायदाद होते हुए भी लड़कियां शादी के लिए तैयार नहीं होतीं. कई बार अगर मातापिता के दबाव में लड़की शादी करने को राजी हो भी जाए तो आखिर में शादी टूट ही जाती है. नशे और स्वभाव के चलते गंवई लड़के लड़कियों को पसंद नहीं आते. गांव के माहौल में ग्रामीण लड़कियां तो किसी तरह से अपने को ढाल भी लें पर शहरी लड़कियां ऐसा नहीं कर पाती हैं.

समाजसेवी राकेश कुमार कहते हैं, ‘‘गांव में भी अब परिवार सीमित होने लगे हैं. ऐसे में लड़कियों के मातापिता अपनी लड़की की शादी नौकरी करने वालों से करना चाहते हैं. इस के अलावा, उन की यह चाहत भी रहती है कि लड़की शहर में रहे.’’

रूढ़िवादी सोच

शहरों के मुकाबले ग्रामीणों की रूढि़वादी सोच भी यहां की शादियों में एक बड़ी परेशानी बन रही है. तमाम तरह के रीतिरिवाज पुराने ढंग से निभाए जा रहे हैं, जिन के बारे में शहरों में रह रही लड़कियां कुछ जानती भी नहीं. ऐसे में उन को वहां सामंजस्य बैठाना सरल नहीं होता. रूढि़वादी सोच के कारण लड़कियों को वहां टीकाटिप्पणी का सामना भी करना पड़ता है, जिस से नई सोच की लड़कियों को परेशानी होने लगती है.

गांव में आज भी परदा प्रथा हावी है. अभी भी वहां घूघंट निकाल कर रहना पड़ता है. किसी काम के लिए बाहर आनेजाने पर मनाही है, जिस की वजह से पढ़ीलिखी लड़कियों को लगता है कि वे गांव में शादी कर के अपने कैरियर को हाशिए पर ले जा रही हैं.

अभी भी बहुत सारे गांवों में घरों में शौचालय नहीं हैं. जिन घरों में हैं भी, वहां वे प्रयोग में नहीं हैं. ऐसे में शहरों या कसबों की लड़कियों के लिए वहां शादी करना मुश्किल हो रहा है. अब गांव के लोग भी अपनी लड़कियों की शादी शहरों में करना चाहते हैं. वे उन लड़कों को अधिक महत्त्व देते हैं जो गांव और शहर दोनों जगह रहते हैं.

सब से बड़ी शर्त सरकारी नौकरी की होने लगी है. सरकारी नौकरी वाले लड़के से अपेक्षा की जाती है कि वह गांव में रहने के साथसाथ शहर या कसबे में भी अपना घर जरूर बना लेगा. ऐसे में लड़की को गांव में ही नहीं रहना होगा. आज जिस तरह से महिलाओं के मजबूर होने की बात हो रही है उस से शादी के मामले में लड़कियों की पसंद का भी खयाल रखा जाने लगा है.

बदलती जीवनशैली

लड़कियों की बदलती जीवनशैली, पहनावा और शिक्षा भी इस के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया है. इस के अलावा लड़कियों की शादी की उम्र भी बढ़ गई है. पहले जहां 18 से 20 साल में लड़की की शादी हो जाती थी वहीं अब 20 से 25 वर्ष तक की उम्र में शादी हो रही है. लड़की कम से कम अब ग्रेजुएशन कर रही है और किसी न किसी रूप में रोजगार या नौकरी से जुड़ रही है.

ऐसे में वह आसानी से समझौते नहीं करती है. उस की पसंद गांव वाली शादी नहीं होती है. वह शहर में शादी कर के रहना चाहती है. इस वजह से भी गांव में शादी करने के लिए लोग रिश्ते ले कर कम आ रहे हैं.

गांव में पहले ज्यादातर शादियां आपसी रिश्तों में तय होती थीं. अब आपसी रिश्तेदारियों में लोग शादी कर शादी के बाद होने वाली परेशानियों से बचना चाहते हैं.

ऐसे में जानकारी के बाद भी लोग शादी के बीच में नहीं पड़ना चाहते हैं. गांव के रहने वालों के सामने लड़की को तलाश करने का कोई दूसरा माध्यम नहीं है. गांव के लोगों का अभी भी वैवाहिक विज्ञापनों पर भरोसा नहीं है. ऐसे में शादी लायक युवकों के सामने परेशानी बढ़ती जा रही है.

कई बारबार ऐसे गांवों का हाल प्रमुखता से खबरों में आता है जहां पानी या सड़क की परेशानी के चलते शादियां कम होती हैं. ऐसे गांवों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है जहां पर लड़कों की शादियों के लिए रिश्ते कम आ रहे हैं. इस के अपने अलगअलग कारण हैं. परेशानी की बात यह है कि सालदरसाल वह परेशानी बढ़ती जा रही है. इस से गांव में एक अलग किस्म का बदलाव महसूस किया जा रहा है. गंवई युवा पहले से अधिक कुंठित हो कर मानसिक रोगों के शिकार होते जा रहे हैं.

मर्दों की विरासत को नया नजरिया देती गांव की बिटिया

लेखक- देवांशु तिवारी

हाथ में तलवार, आंखें तिरछी और तेज आवाज में क्या कोई आप के दिल को छू सकता है? कई लोग कहेंगे कि दिल को छूने का तो नहीं पता, पर दिल में छेद जरूर कर सकती है ऐसी शख्सीयत, लेकिन आप को इतना सोचने की जरूरत नहीं है, क्योंकि शीलू यह सबकुछ करती है और लोग उस को इस अंदाज में देख कर दंग रह जाते हैं.

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में एक छोटे से इलाके गुरुबक्शगंज की रहने वाली शीलू सिंह राजपूत एक आल्हा गायिका हैं.

याद रहे कि आल्हा गीत पुराने समय में राजामहाराजाओं के लड़ाई पर जाने से पहले गाया जाता था. इस गीत को केवल मर्द ही गाते थे.

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पर, शीलू तो एक लड़की है, फिर भला वह क्यों गाने लगी वीर रस से भरा मर्दों का यह आल्हा? यही एक सवाल कभी समाज ने उस से पूछा था, जब छोटी सी उम्र में शीलू ने अपने हाथ में पहली बार तलवार थामी थी और आल्हा गाना शुरू किया था.

शीलू रायबरेली जिले के जिस हिस्से से आती है, वह बेहद पिछड़ा हुआ इलाका है. यहां ज्यादातर लड़कियों के हाथों में जिस उम्र में किताबें होनी चाहिए, वे चूल्हे में पड़ी लकडि़यों को जलाने वाली फुंकनी और गोलगोल रोटी बनाने वाला बेलन लिए हुए नजर आ जाएंगी. इन देहाती हालात के बीच शीलू ने अपनी अलग राह खुद चुनी है और इस में सब से बड़ी बात यह रही कि उस के पिता भगवानदीन ने उस का हर कदम पर साथ दिया.

आल्हा गायक लल्लू बाजपेयी का आल्हा सुन कर शीलू बड़ी हुई और आज एक जानीपहचानी आल्हा गायिका बन चुकी है. उस के इस हुनर को आज केवल उस के गांव वाले ही नहीं, बल्कि कई राष्ट्रीय व राजकीय मंच भी सराह चुके हैं. पहले गांव के जो लोग उस को ऐसा करते देख आंखें टेढ़ी कर लिया करते थे, आज वही अपनी लड़कियों को शीलू का आल्हा दिखाने लाते हैं.

शीलू ने आल्हा गायन के साथसाथ हाल ही में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. लेकिन जब भी वह आल्हा गाने मंच पर आती है, तो उस की मासूमियत कहीं ऐसे छिप जाती है मानो दोपहर का चमचमाता सूरज अचानक बदली में कहीं गुम हो जाता है.

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चेहरे पर वही तेज, हाथों में धारदार तलवार और तिरछी आंखें. चारों ओर बैठे लोग उसे इस अंदाज में देख कर दंग रह जाते हैं.

लोग कहते हैं कि शीलू जब अपने हाथों में तलवार नचाते हुए आल्हा गाती है, तो मंच पर एक अजीब सा कंपन महसूस होता है और शरीर में अपनेआप रोमांच हो जाता है. उस का आल्हा दिल को ऐसे छू लेता है कि अगले दिन तक वह आवाज कानों में गूंजती रहती है.

शीलू का यह हुनर उस के परिवार को अब हर लमहा गर्व का अहसास कराता है और सीना ठोंक के चुनौती देता है समाज की हर उस रूढि़वादी सोच को, जो औरतों को हमेशा चारदीवारी के अंदर रहने को मजबूर करती है.

कालगर्ल के चक्कर में गांव के नौजवान

एक किस्सा हमें यह सबक देने वाला है कि गांवदेहात के पिछड़े तबके के नौजवान कैसे अपने सीधेपन के चलते शहरी कालगर्ल के चक्कर में फंस कर लुटपिट कर खिसियाए से वापस गांव आ जाते हैं और फिर डर और शर्म के मारे किसी से कुछ कह भी नहीं पाते हैं.

इस मामले में भी यही होता, अगर घर वालों ने पैसों का हिसाब नहीं मांगा होता. जब कोई बहाना या जवाब नहीं सूझा तो इन तीनों ने सच उगल देने में ही भलाई समझी, जिस से न केवल इन्हें लूटने वाली कालगर्ल पकड़ी गई, बल्कि उस के साथी लुटेरे भी धर लिए गए.

बात नए साल की पहली तारीख की है, जब पूरी दुनिया ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के जश्न और मस्ती में डूबी थी. दोपहर के वक्त कुछ बूढ़ों ने भोपाल के अयोध्या नगर थाने आ कर अपने बेटों के लुट जाने की रिपोर्ट लिखाई.

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दरअसल हुआ यों था कि 3 दिन पहले ही भोपाल के नजदीक सीहोर जिले के गांव श्यामपुर का विष्णु मीणा भोपाल में अपनी कार का टायर बदलवाने आया था. वक्त काटने और कुछ मौजमस्ती की गरज से वह अपने साथ 2 दोस्तों हेम सिंह और उमेश दांगी को भी ले आया था.

साल के आखिर के दिनों में उन तीनों नौजवानों पर भी मौजमस्ती करने का बुखार चढ़ा था. कार के टायर बदलवाने के लिए उन्होंने शोरूम पर कार खड़ी कर दी. उस वक्त विष्णु मीणा की जेब में तकरीबन 80 हजार रुपए नकद रखे थे.

टायर बदलवाने में 2-4 घंटे लगते, इसलिए उन्होंने तय किया कि तब तक आशमा नाम की कालगर्ल के साथ मौजमस्ती करते हैं, जिस में तकरीबन 3-4 हजार रुपए का खर्च आएगा, जो उन लोगों के लिए कोई बड़ी रकम नहीं थी.

विष्णु मीणा और उस के दोनों दोस्तों की गिनती भले ही पिछड़े तबके में होती हो, लेकिन इस तबके के ज्यादातर  लोग पैसे वाले हैं. इन लोगों के पास खेतीकिसानी की खूब जमीनें हैं और ये मेहनत भी खूब करते हैं.

उन्होंने आशमा को फोन किया, तो वह झट से राजी हो गई और अपनी फीस के बाबत भी उस ने ज्यादा नखरे नहीं दिखाए. दिक्कत जगह की थी तो वह भी आशमा ने ही दूर कर दी. मोबाइल फोन पर ही उस ने उन्हें बताया कि वे देवलोक अस्पताल के नजदीक के एक फ्लैट में आ जाएं.

आशमा की हां सुनते ही कड़कड़ाती ठंड में उन नौजवानों के जिस्म गरमा उठे. गदराए बदन की खूबसूरत 22 साला आशमा उन के लिए नई नहीं थी, इसलिए वे बेफिक्र थे कि जब तक शोरूम पर कार के टायर बदलते हैं, तब तक वे आशमा को ड्राइव कर आते हैं.

आशमा का बताया फ्लैट ज्यादा दूर नहीं था. वहां पहुंचते ही उन तीनों ने सुकून की सांस ली, क्योंकि फ्लैट में आशमा अकेली थी और आसपास के लोगों को उन के वहां जाने का कुछ नहीं पता चला था.

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उन तीनों का यह सोचना सही निकला कि शहरों में गांवों की तरह कोई अड़ोसपड़ोस में ताकझांक नहीं करता कि कौन किस के यहां क्यों आ रहा है. जैसे ही वे फ्लैट के अंदर पहुंचे, तो आशमा ने जानलेवा मुसकराहट के साथ सैक्सी अदा से दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

आशमा का बस इतना करना काफी था और वे तीनों अपनेअपने तीरके से आशमा को टटोलने लगे.

बात पूरी हो पाती, इस के पहले ही आशमा बोली, ‘‘पहले चाय पी कर तो गरम हो लो. शराब तो तुम लोग पीते नहीं, फिर इतमीनान से गरम और ठंडे होते रहना,’’ इतना कह कर वह चाय बनाने रसोईघर में चली गई. वे तीनों बेचैनी से उस के आने का इंतजार करने लगे.

आशमा रसोईघर से बाहर आती, उस के पहले ही फ्लैट में बिलकुल फिल्मी अंदाज में 3 लोग दाखिल हुए और खुद को सीआईडी पुलिस बताया तो उन तीनों के होश उड़ गए. पुलिस वाले काफी दबंग और रोबीले थे और उन के पास वायरलैस सैट भी था.

एक पुलिस वाले ने कट्टा निकाल कर उन तीनों को हैंड्सअप करवा दिया, तो वे थरथर कांपने लगे. आशमा भी बेबस खड़ी रही.

कुछ देर बाद बात या सौदेबाजी शुरू हुई कि साहब कुछ लेदे कर छोड़ दो तो पुलिस वालों के तेवर कुछ ढीले पड़े, लेकिन उन्होंने उन तीनों की जेबें ढीली करवा लीं. विष्णु मीणा की जेब में रखे नकद 80 हजार रुपए भी उन्हें कम लगे तो उन्होंने 3 हजार रुपए औनलाइन भी योगेंद्र विश्वकर्मा नाम के पुलिस वाले के खाते में ट्रांसफर कराए.

घर लौटे बुद्धू

एकाएक ही टपक पड़े पुलिस वालों के चले जाने के बाद उन तीनों ने राहत की सांस ली और जातेजाते आशमा के भरेपूरे बदन को आह भर कर देखा, जिसे वे सिर्फ टटोल पाए थे, पर लुत्फ नहीं उठा पाए थे.

रास्ते में उन तीनों ने तय किया कि अब गांव जा कर अगर वे सच बताएंगे, तो बदनामी तो होगी ही. साथ ही, ठुकाईपिटाई होगी सो अलग, इसलिए बेहतरी इसी में है कि बात दबा कर रखी जाए.

लेकिन ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि जैसे ही विष्णु मीणा के पिता ने पैसों का हिसाब मांगा तो वह हड़बड़ा गया और सच उगल दिया.

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पिता बखूबी समझ गए कि वे तीनों कार्लगर्ल आशमा की साजिश का शिकार हो गए हैं. लिहाजा, उन्होंने भोपाल आ कर थाना इंचार्ज महेंद्र सिंह को सारी बात बता कर इंसाफ की गुहार लगाई.

पुलिस वाले भी समझ गए कि एक बार फिर देहाती लड़के योगेंद्र विश्वकर्मा और आशमा के गिरोह का शिकार हो गए, जो पहले भी एक बार इसी तरह ठगी के मामले में पकड़ा जा चुका है.

उन तीनों के पास सिर्फ आशमा का मोबाइल नंबर था, जिसे ट्रेस कर पुलिस वालों ने पहले आशमा और फिर उस के तीनों साथियों को गिरफ्तार कर सच उगलवा लिया.

एहतियात जरूरी है

भोपाल के नजदीक बैरसिया के एक गांव के 70 साला लल्लन सिंह कुशवाहा (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि अब से तकरीबन 30-40 साल पहले वे भी भोपाल के कोठों पर जाया करते थे, जो पुराने भोपाल और लक्ष्मी सिनेमाघर के आसपास हुआ करते थे. शाम ढलते ही इन कोठों पर मुजरा होता था, जिसे देखने के 20 रुपए लगते थे.

लेकिन जिन्हें रात काटनी होती थी उन्हें 300-400 रुपए देने पड़ते थे, वह भी इन के दलालों की मारफत तब ऐसी ठगी कभीकभार होती थी. दलाल पैसा ले कर छूमंतर हो जाते थे या फिर तवायफ ही जेब का सारा पैसा झटक लेती थी, क्योंकि इन बदनाम इलाकों की पुलिस वालों से मिलीभगत होती थी, इसलिए वह वहां दखल नहीं देती थी.

लल्लन सिंह एक दिलचस्प खुलासा यह भी करते हैं कि तब भी तवायफों के पास जाने वालों में हम पिछड़ों की तादाद ज्यादा हुआ करती थी. दबंग तो अपनी हवेलियों में ही मुजरा करवा लिया करते थे और रात भी रंगीन करते थे. मुसीबत हम पिछड़ों की थी, जिन्हें अपने घरों से महफिल सजाने की इजाजत नहीं थी. यह हक दबंगों को ही था. कोई और महफिल सजाता था, तो इन की शान और रसूख पर बट्टा लगता था, इसलिए ये लोग अकसर मारपीट और हिंसा पर उतर आते थे.

अब पिछड़े नौजवान नई गलती करते हैं, जो विष्णु मीणा, हेम सिंह और उमेश दांगी ने की कि कालगर्ल पर आंखें मूंद कर भरोसा किया. किसी भी अनहोनी से बचना जरूरी है. ऐसी अनहोनी से बचने के लिए जरूरी है कि इस तरह के एहतियात बरते जाएं:

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* कालगर्ल के पास जाते वक्त ज्यादा नकदी साथ न रखें.

* कालगर्ल पर आंख बंद कर के भरोसा न करें.

* अगर एक से ज्यादा लड़के हों, तो एक लड़का बाहर पहरा दे और कोई गड़बड़झाला दिखे, तो तुरंत साथी को मोबाइल पर खबर करे.

* कालगर्ल के साथ मौजमस्ती के दौरान पुलिस वाले या पुलिस वालों की वरदी में कोई धड़धड़ाता आ जाए तो डरें नहीं, बल्कि उस से सवालजवाब करें और गिरफ्तारी की धौंस से भी न डरें.

* जिस जगह जाना तय हुआ है, उस का एकाध चक्कर पहले से लगा कर मुआयना कर लें.

* मौजमस्ती के दौरान कालगर्ल का मोबाइल बंद करा लें, जिस से वह वीडियो रेकौर्डिंग कर बाद में ब्लैकमेल न कर पाए.

* कमरे की भी तलाशी लें कि कहीं छिपा हुआ कैमरा न लगा हो.

* कालगर्ल ज्यादा जोर दे कर खानेपीने को कहे तो मना कर दें.

* शराब का नशा कर कालगर्ल के पास न जाएं.

* कालगर्ल से मोलभाव करें और पैसा कम होने का रोना रोएं.

* कालगर्ल की बताई जगह के बजाय खुद की जगह पर उसे बुलाएं. जगह का इंतजाम पहले से करें.

* इस के बाद भी ऐसी कोई वारदात हो जाए, जो इन तीनों नौजवानों के साथ हुई तो थाने जाने से हिचकिचाएं नहीं. बदनामी तो हर हाल में होगी या फिर लंबा चूना लगेगा, इसलिए बदनामी से न डरें.

* अगर लुटपिट जाएं और थाने जाने की हिम्मत न पड़े तो दोस्तों और घर वालों की मदद लें. डांटफटकार तो पड़ेगी, लेकिन पैसे वापस मिलने की उम्मीद रहेगी.

वैसे, पहली कोशिश शहरी कालगर्ल से बचने की होनी चाहिए. शहरों में अब इन का कोई भरोसा नहीं रह गया है. ये गिरोह बना कर गांवदेहात के लड़कों का सीधापन देख कर तरहतरह से उन की जेबें ढीली कराने से गुरेज नहीं करतीं, इसलिए इन से परहेज ही करना चाहिए.

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