जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

उत्तर प्रदेश के एक गांव नरायनपुर का प्रताप दिल्ली में नौकरी करता था. उस का पूरा परिवार गांव में रहता था. जब से प्रताप दिल्ली में नौकरी कर रहा था, तब से घर के हालात अच्छे हो गए थे. वह हर तीसरे महीने 20,000 रुपए के आसपास घर भेजता था और हर 6 महीने में अपने गांव भी आता था.

एक बार प्रताप गांव आया था. उसी समय गांव में उस के परिवार में ही शादी थी. बरात पास के ही शहर में गई थी. प्रताप भी बरात में चला गया.

अगले दिन जब बरात वापस आ रही थी तो प्रताप की गाड़ी एक ट्रक से टकरा गई. कार और ट्रक की टक्कर इतनी जोरदार थी कि प्रताप और कार में सवार 2 दूसरे लोगों की उसी जगह पर मौत हो गई.

प्रताप की मौत की खबर जैसे ही उस के घर आई, पूरे घर में कुहराम मच गया. प्रताप की मौत ने उस के पूरे परिवार को तितरबितर कर दिया. सब से बुरा असर प्रताप की पत्नी नीलिमा पर पड़ा. 25 साल की नीलिमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस के सामने ऐसा समय भी आएगा.

2 बच्चों की मां नीलिमा के सामने एक तरफ प्रताप की मौत का गम था, तो वहीं दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के नाम पर उस का शोषण हो रहा था.

प्रताप के मरते ही नीलिमा के बदन से सुहाग का हर सामान उतार दिया गया. उस को पहनने के लिए सफेद साड़ी दे दी गई. नातेरिश्तेदार और गांव के लोग जब शोक करने आते तो उसे सब के सामने रोना पड़ता. कोई उसे शुभ काम में अपने घर नहीं बुलाता. नीलिमा को लगने लगा कि प्रताप के साथ वह भी मर गई होती तो अच्छा रहता.

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न आएं बहकावे में

36 साल की गीता का पति प्रवेश सरकारी नौकरी करता था. उस को शराब पीने की बुरी आदत थी. इस के चलते प्रवेश का लिवर कब खराब हो गया, उसे पता ही नहीं चला. वह कमजोर रहने लगा. धीरेधीरे बीमारी ने उस के पूरे शरीर को जकड़ लिया.

एक बार प्रवेश को तेज बुखार आया. बुखार ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. ऐसे में प्रवेश को मैडिकल कालेज लाया गया, जहां डाक्टरों ने जांच के बाद पाया कि प्रवेश का लिवर काम नहीं कर रहा है और वह ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाएगा.

प्रवेश की बीमारी की जानकारी उस की पत्नी को लगी तो वह बेहद परेशान हो गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? प्रवेश इस बात की जानकारी अपने परिवार को देना चाहता था, पर गीता ऐसा नहीं चाहती थी.

गीता ने प्रवेश की बीमारी की सूचना अपने मायके वालों को दी. मायके वालों ने गीता को सम झाया कि वह इस बारे में किसी को कुछ न बताए.

एक दिन अचानक प्रवेश की मौत हो गई. गीता ने अपने मायके वालों के कहने पर प्रवेश के परिवार को दूर ही रखा.

गीता के मायके वालों ने सोचा था कि प्रवेश के नाम बैंक में ढेर सारा पैसा होगा और गीता को सरकारी नौकरी मिल जाएगी. सबकुछ उन के कब्जे में आ जाएगा.

जब प्रवेश के औफिस में संपर्क किया गया तो पता चला कि उस के पास बैंक में पैसे के नाम पर कुछ नहीं था. प्रोविडैंट फंड जैसी रकम भी प्रवेश ने निकाल कर नशे में खर्च कर डाली थी. औफिस वालों ने यह भी बताया कि उस के परिवार में किसी को नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि उन के यहां मरने वाले के परिवार के लोगों को नौकरी देने का नियम नहीं है.

गीता के मायके वालों और उस के रिश्तेदारों को जब इस बात का पता चला तो वे उस से दूर होने लगे. पति की असमय मौत ने गीता के सामने मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया था. उस के बच्चे भी अभी इस लायक नहीं थे कि कुछ काम कर सकें.

गीता ने ससुराल वालों को पहले से ही अपने से दूर कर दिया था. उन की नाराजगी यह थी कि उन्हें प्रवेश की मौत के बारे में बताया ही नहीं गया. गीता अपने मायके वालों के बहकावे में आ गई. अब वह पूरी तरह से अकेली हो गई है.

गीता जैसी गलती रूपा ने भी की. रूपा के पति विशाल की मौत भी हादसे में हुई थी. रूपा के 2 साल की बेटी थी. जब पति की मौत हुई उस समय रूपा की उम्र 26 साल थी. उस की 2 बहनें और एक भाई हैं.पति की मौत के बाद रूपा को बीमा और औफिस से कुलमिला कर 8 लाख रुपए मिले थे. मायके वालों ने रूपा को ससुराल में रहने नहीं दिया. उन लोगों ने रूपा से कहा कि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, तुम्हारी दूसरी शादी कर देंगे.

रूपा मायके वालों की बातों में आ कर उन के साथ रहने लगी. ससुराल न जाने से वहां से उस की दूरी बढ़ती गई.

मायके में कुछ दिन बाद सबकुछ नौर्मल हो गया. रूपा की शादी की बात मायके वाले भूल गए. उन के सामने 2 छोटी बहनों की शादी न हो पाने की समस्या थी. वे लोग चाहते थे कि रूपा अपना पैसा बहनों की शादी पर खर्च करे. इस बात को ले कर आपस में मनमुटाव भी बना है.

अब रूपा उन्हीं पैसों से मिलने वाले ब्याज से अपना गुजारा कर रही है. वह अपनी बेटी को पढ़ा भी रही है. अब वह ससुराल भी जाने लगी है, पर उसे इस बात का अफसोस है कि उस ने मायके वालों की बात मानी थी.

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हिम्मत से निभाएं जिम्मेदारी

30 साल की रुचि की शादी को 4 साल बीत गए थे. उस का पति फाइनैंस ले कर ठेकेदारी का काम करता था. ठेकेदारी में सतीश को कभी ज्यादा पैसा मिल जाता था तो कभी नुकसान भी उठाना पड़ जाता था. तनाव में फंस कर सतीश ने एक दिन गोली मार कर जान दे दी.

रुचि के सामने 2 रास्ते थे कि या तो वह ससुराल में सतीश की बेवा के रूप में रहे या फिर मायके चली जाए. रुचि ने अपनेआप को हालात से लड़ने के लिए तैयार किया. उस ने ससुराल वालों से अपने पैसे मांगे. ससुराल वालों ने उसे 3 लाख रुपए दिए.

रुचि अपने मायके आई. उस को डिजाइनर कपड़ों की सिलाई करने का शौक पहले से था. मायके में एक दुकान किराए पर ले कर रुचि ने बुटीक खोला. कुछ दिनों की मेहनत के बाद रुचि का बुटीक चल निकला. अब उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं थी.

रुचि कहती है, ‘‘दोबारा शादी करने में कोई बुराई नहीं है. अगर कोई मनपसंद साथी मिल गया तो शादी कर लूंगी. जब ऐसी मुसीबत आए तो कभी घबराना नहीं चाहिए.

‘‘पत्नी की मौत के बाद पति भी तो घर की सारी जिम्मेदारी संभाल लेता है. उसी तरह पत्नी को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. इस के लिए पूरी हिम्मत, मेहनत और लगन से काम करना चाहिए. समाज में छुईमुई बनने से काम नहीं होता, उलटे ऐसे लोगों का शोषण ज्यादा होता है.’’

38 साल की देविका की शादी उम्र में 20 साल बड़े प्रभाकर के साथ हुई थी. प्रभाकर को दिल की बीमारी थी. देविका के 2 बेटियां और 2 बेटे थे. एक दिन अचानक प्रभाकर की हार्ट अटैक से मौत हो गई. देविका ने अपने साथसाथ बच्चों को भी संभाला. उन को पढ़नेलिखने की सुविधाएं उपलब्ध कराईं. कभी यह नहीं महसूस होने दिया कि वे बिना बाप के बच्चे हैं.

देविका कहती है, ‘‘पति की असमय मौत तमाम मुसीबत में डाल देती है. मौत ऐसा कड़वा सच है, जिस का सामना किसी को भी करना पड़ जाता है. ऐसे में आप की हिम्मत और सम झदारी ही साथ देती है. कमजोरी का फायदा उठाने वाले हर जगह होते हैं.

‘‘पति की मौत हो जाने पर अपनेआप को पूरी दुनिया से अलग नहीं कर लेना चाहिए. हालात से डट कर मुकाबला करना चाहिए.’’

दूसरी शादी अच्छी बात

नेहा का पति विनय सेना में था. दुश्मनों से लड़ाई के दौरान वह शहीद हो गया. उस समय नेहा की शादी को 8 महीने ही हुए थे. सेना की ओर से पैसा और दूसरी सुविधाएं मिलती देख विनय के घर वालों के मन में मैल आ गया.

वे यह साबित करने में जुट गए कि नेहा और विनय की शादी नहीं हुई थी.

नेहा के घर वाले यह तो चाहते थे कि उस की दूसरी शादी हो जाए, पर वे विनय की जायदाद में हक भी चाहते थे.

इस बात को ले कर दोनों परिवारों के बीच मुकदमेबाजी शुरू हुई. कुछ ही दिनों में दोनों परिवारों को यह समझ आ गया कि मुकदमेबाजी से कुछ नहीं होगा. तब दोनों परिवारों के बीच सम झौता हुआ. नेहा अपना हिस्सा ले कर चली गई.

अब नेहा ने दूसरी शादी कर ली है. वह अपने नए जीवनसाथी के साथ खुश है. वह कहती है, ‘‘पहले समाज में विधवा विवाह को सही नहीं माना जाता था, पर अब लोग इस को बुरा नहीं मानते. इस में कोई बुराई भी नहीं है. समाज का जो ढांचा बना है, उस में किसी कम उम्र की औरत को सारी जिंदगी बिना किसी साथी के गुजार पाना आसान नहीं है. ऐसे में दूसरी शादी करना अच्छा रहता है.’’

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हिम्मत और समझदारी से संवारें भविष्य

* आप के पति के नाम जो भी जायदाद है उसे बिना आप की मरजी के कोई नहीं ले सकता. किसी के बहकावे में आ कर परिवार में  झगड़ा न करें.

* ससुराल और मायके दोनों के बीच सम झदारी से बेहतर तालमेल बिठाएं.

* पैसों का हिसाब अपने पास रखें. बैंक में पैसे रखें या फिर एफडी करा दें. इस के ब्याज का इस्तेमाल अपने खर्चों में करें. भविष्य के लिए पैसे जरूर बचा कर रखें.

* सच कहा जाता है कि रखा पैसा काम नहीं देता, इसलिए अपनी दिलचस्पी और काबिलीयत के हिसाब से काम करने में संकोच न करें. इस से पैसे भी मिलेंगे और आप का मन भी लगा रहेगा.

* अगर उम्र कम हो तो दूसरी शादी करने में परहेज न करें. रूढि़यों में न फंसें. कुछ दिन बाद कोई कुछ नहीं कहता है.

* बेवा होना आप का दुर्भाग्य नहीं हादसा भर है. इस को ले कर परेशान न हों. पत्नी के मरने पर पति को तो लोग कुछ नहीं कहते, फिर औरतों के साथ ही यह बरताव क्यों?

* अपने बच्चों का खयाल रखें. पिता के न रहने पर वह अनुशासन से बाहर हो जाते हैं. ऐसे में मुसीबतें आएंगी, जिन का मुकाबला आप को ही करना पड़ेगा. इस में पैसा और सुकून दोनों जाएंगे.

* पति की मौत के बाद होने वाले कर्मकांड न करें. इस में पैसा भी खर्च होता है. इस के अलावा शारीरिक और मानसिक कष्ट अलग से होता है.

* पुनर्जन्म और भाग्य जैसा कुछ नहीं होता है. इस को संवारने के नाम पर ब्राह्मण केवल पैसा कमाने का काम करते हैं.

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* बेवा के कपड़ों में न रहें. ऐसा करने से मन में हीनभावना आती है.

* अगर कोई मर्द थोड़ा इंट्रैस्ट दिखाए तो उसे दुत्कारें नहीं. चाहे उस की चाहत केवल बदन तक हो. बेवाओं के लिए वे काम के हो सकते हैं. थोथी शराफत पर जिंदगी खराब न करें.

पिता के रिकशा से आईएएस तक का सफर

लेखक- डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

दुकान जब बंद हो जाती तो वे रात में बनारस की सड़कों पर रिकशा चलाते थे. उन के 4 बच्चे थे, 3 बेटियां और सब से छोटा बेटा, जिस का नाम गोविंद रखा गया था.

पिता ने कुछ पैसे जोड़ कर धीरेधीरे एक रिकशे से 4 रिकशे बना लिए. समय बीतता रहा. पिता ने तीनों बेटियों को बीए तक पढ़ाया और उन की शादी कर दी.

इस परिवार का सब से छोटा सदस्य गोविंद बहुत मेधावी था. वे लोग जिस महल्ले में रहते थे, उस के बगल में ही एक पौश कालोनी थी. 12 साल का गोविंद चूंकि मेधावी था, इसलिए पौश कालोनी के एक बच्चे से उस की दोस्ती हो गई.

एक दिन गोविंद उस के घर गया, जहां दोस्त के पिताजी उस से मिले.

दोस्त के पिताजी ने अपने बेटे से पूछा, ‘‘यह बच्चा कौन है?’’

दोस्त ने कहा, ‘‘मेरा दोस्त है.’’

उन्होंने गोविंद से पूछा, ‘‘किस क्लास में पढ़ते हो?’’

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गोविंद ने बताया, ‘‘7वीं क्लास में.’’

‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

‘‘जी, वे रिकशा चलाते हैं.’’

इतना सुनते ही दोस्त के पिताजी आगबबूला हो गए. उन्होंने अपने बेटे को फटकारा, ‘‘अब यही बचा है… रिकशे वालों से दोस्ती करोगे.’’

दोस्त चुप हो कर रह गया और दोस्त के अमीर पिता ने गोविंद को वहां से बेइज्जत कर के निकाल दिया.

मासूम गोविंद को यह समझ ही नहीं आया कि उस के साथ ऐसा क्यों हुआ? उस ने अपने एक रिश्तेदार को यह बात बताई. रिश्तेदार ने कहा कि इन हालात से बाहर निकलने का बस एक ही रास्ता है कि तुम आईएएस बन जाओ.

लेकिन 12 साल के बच्चे को यह जानकारी न थी कि आईएएस क्या होता है? पर उस ने यह ठान लिया था कि उसे आईएएस ही बनना है. उस ने बनारस से ही पहले इंटर किया, फिर गणित से बीए. साथसाथ वह यूपीएससी की तैयारी करने लगा.

उधर पिता रिकशा चला कर परिवार पाल रहे थे और एक के बाद एक बेटियों की शादियां भी कर रहे थे, साथ ही, वे बेटे को पढ़ा भी रहे थे.

यह वह समय था, जब बनारस में 14 घंटे के पावर कट लगते थे और उस दौरान सब लोग जनरेटर चलाया करते थे. किराए के जिस छोटे से कमरे में उन का परिवार रहता था, उस के इर्दगिर्द चारों तरफ जनरेटर चलते थे और उन का भयंकर शोर और धुआं होता था. ऐसे में गोविंद सभी खिड़कियांदरवाजे बंद कर अपने कानों में रुई ठूंस कर पढ़ा करता था.

ग्रेजुएशन करने के बाद गोविंद को यूपीएसएसी की तैयारी के लिए दिल्ली जाना था. लेकिन उस के पिता को एक दिन पैर में हलकी सी चोट लग गई. उन का कायदे से इलाज नहीं हुआ और न ही उन्हें आराम मिला, जिस के चलते घाव बढ़ने लगा, जो बाद में सैप्टिक की हालत तक पहुंच गया.

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उधर गोविंद दिल्ली के मुखर्जी नगर में यूपीएससी की तैयारी के लिए रहने लगा. वह घर से पैसे मंगाता नहीं था. वह दिल्ली में बच्चों को ट्यूशन के रूप में गणित पढ़ाता था और फिर उस के बाद अपनी यूपीएससी की तैयारी करता था.

गोविंद के पास कोचिंग में पढ़ने तक के पैसे नहीं थे. पिता का पैर खराब होता जा रहा था. ट्यूशन भी साल में सिर्फ 8 महीने ही मिलती थी. इस माली मुसीबत के चलते धीरेधीरे सभी रिकशे बिक गए. एकमात्र जमीन का टुकड़ा बचा था, वह पिताजी ने मजबूरी में सिर्फ 4,000 रुपए में बेच दिया. घर में फाका होने लगा था. ऐसे में बहनों ने अपने पति व परिवार से छिपा कर भाई की मदद की.

गोविंद इतिहास और मनोविज्ञान पढ़ रहा था. मनोविज्ञान की कोचिंग में उस की दोतिहाई फीस माफ हो गई. इतिहास की कोचिंग के लिए पैसे न थे, इसलिए उस की तैयारी खुद की. वह अनगिनत रातें भूखे पेट सोया होगा, तब जा कर कड़ी मेहनत से पहली ही कोशिश में गोविंद को यूपीएससी के इम्तिहान में 48वां रैंक मिला और अब वह अरुणाचल प्रदेश में बतौर आईएएस तैनात है.

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