Hindi Family Story: नैरो माइंड – तृप्ति के अधूरे सपने

Hindi Family Story: ‘‘मौम, आप कब से इतनी नैरो माइंड हो गई हैं, ऐसा क्या हुआ है? क्यों इतनी परेशान हो रही हैं? सब ठीक हो जाएगा, आजकल यह इतनी बड़ी बात नहीं है. सोसायटी में यह सब चलता रहता है. मैं आज ही विपुल से बात करूंगी.’’

तरू के एकएक शब्द ने तृप्ति के रोमरोम को घायल कर दिया. कितनी मुश्किलों और नाजों से उस ने दोनों बेटियों को पाला था.

तृप्ति और तपन ने तिनकेतिनके जोड़ कर यह घर बसाया था. उस ने अपने सारे अरमानों एवं इच्छाओं का गला घोंट कर इन्हीं बेटियों की खुशी के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया था.

साधारण परिवार में जन्मी तृप्ति को पढ़ाई के साथ डांस और एक्ंिटग का जन्मजात शौक था. स्कूल में उस की प्रतिभा निखारने में उस की डांस टीचर मिस गोयल का बड़ा हाथ था. उन्होंने तृप्ति के गुण को परख कर उसे निखारा. तृप्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और स्कूली शिक्षा के दौरान ही शील्ड और मेडल के ढेर लगा दिए.

वह विश्वविद्यालय में पहुंची तो सहशिक्षा के कारण उस के मातापिता ने इस तरह के कार्यक्रम से उसे दूर रहने की हिदायत दे दी, साथ ही कह दिया, ‘बहुत हुआ, अब जो करना हो अपने घर में करना.’ वह मन मार कर डांस और एक्ंिटग से दूर हो गई, लेकिन मन में एक कसक थी तभी उस का विवाह तपन से हो गया.

तपन बैंक में क्लर्क थे. सामान्य तौर पर घर में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस का शौक मन में हिलोरे मार रहा था. उस ने डांस स्कूल में काम करने के लिए तपन को किसी तरह से तैयार किया था तभी तन्वी के आगमन का एहसास हुआ. तन्वी छोटी ही थी तभी गोलमटोल तरू आ गई और वह इन दोनों बेटियों की परवरिश में सब भूल गई. 5-6 साल कब निकल गए, पता ही नहीं लगा. अब तृप्ति को अपनी खुशहाल जिंदगी प्यारी लगने लगी.

धीरेधीरे तन्वी और तरू बड़ी होने लगीं. जब दोनों छोटेछोटे पैरों को उठा कर नाचतीं तो तृप्ति का मन खिल उठता और अनायास ही अपनी बेटियों को स्टेज पर नृत्य करते हुए देखने की वह कल्पना करती. तन्वी एवं तरू को तृप्ति ने डांस स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. जल्द ही उन की प्रतिभा रंग दिखाने लगी. वे नृत्य में पारंगत होने लगीं और इसी के साथ तृप्ति के सपने साकार होने लगे.

एक दिन तपन ने टोक दिया, ‘अब ये दोनों बड़ी हो गई हैं, डांस आदि छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दें.’ तपन के टोकने से तृप्ति नाराज हो उठी और समय बदलने की दुहाई देने लगी. दोनों का आपस में अच्छाखासा झगड़ा भी हुआ और अंत में जीत तृप्ति की ही हुई. तपन चुप हो गए. उन्होंने दोनों लड़कियों को डांस और एक्ंिटग में आगे बढ़ने की इजाजत दे दी.

तन्वी का रुझान अपनेआप ही डांस से हट गया. वह पढ़ाई में रुचि लेने लगी. प्रोफेशनल कोर्स के लिए तन्वी होस्टल चली गई. तरू अकेली हो गई. चूंकि उस पर मां का वरदहस्त था, अत: वह डांस एवं एक्ंिटग के साथ ग्लैमर से भी प्रभावित हो गई थी.

अब तरू के आएदिन स्टेज प्रोग्राम होते. तृप्ति बेटी में अपने सपने साकार होते देख मन ही मन खुश होती रहती. तपन को तरू का काम पसंद नहीं आता था. तरू अकसर ग्रुप के साथ कार्यक्रम के लिए बाहर जाया करती थी. उस को अब बाहर की दुनिया रास आने लगी थी. उस के उलटेसीधे कपड़े तपन को पसंद न आते. अकसर तृप्ति से कहते, ‘तरू, हाथ से निकल रही है.’ इस पर वह दबी जबान से तरू को समझाती लेकिन उस ने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मौम, मुझे 1 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘क्यों? अभी कल ही तो तुम ने पापा से रुपए लिए थे.’’

‘‘मौम, सब मुझ से पार्टी मांग रहे थे… उसी में पैसे खर्च हो गए.’’

‘‘मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी.’’

तरू तृप्ति से लिपट गई…तृप्ति पिघल गई. रुपए लेते ही वह फुर्र हो गई.

‘‘मौम, आजकल थिएटर में मेरा रिहर्सल चल रहा है, इसलिए देर से आऊंगी.’’

तृप्ति का माथा ठनका, ‘कल तो तरू ने कहा था कि इस हफ्ते मेरा कोई शो नहीं है.’

अभी वह इस ऊहापोह से निकल भी न पाई थी कि तपन पुकारते हुए आए.

‘‘तरू… तरू…’’

तृप्ति ने उत्तर दिया, ‘‘तरू का आज रिहर्सल है.’’

‘‘वह झूठ पर झूठ बोलती रहेगी, तुम आंख बंद कर उस पर विश्वास करती रहना. वह किसी लड़के की बाइक पर पीछे बैठी हुई कहीं जा रही थी, लड़का बाइक बहुत तेज चला रहा था,’’ तपन क्रोधित हो बोले थे.

तृप्ति घबरा कर चिंतित हो उठी. वह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या तरू गलत संगत में पड़ गई है. मन ही मन घुटती हुई वह तरू के आने का इंतजार करने लगी.

लगभग रात में 11 बजे घंटी बजी. तृप्ति सोने की कोशिश कर रही थी. घंटी की आवाज सुन वह गुस्से में तेजी से उठी. दरवाजा खोलते ही तरू की हालत देख कर वह सन्न रह गई.

तरू की आंखें लाल हो रही थीं, एक लंबे बालों वाला लड़का उसे पकड़ कर खड़ा था. तृप्ति तपन से छिपाना चाह रही थी, इसलिए चुपचाप उस को सहारा दे कर उस के कमरे में ले गई और उसे बिस्तर पर लिटा दिया. तरू के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी.

तृप्ति की आंखों की नींद उड़ चुकी थी. वह मन ही मन रो रही थी और अपने को कोस रही थी. तरू को किस तरह सुधारे, वह क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी. उस का मन आशंकाओं से घिरा हुआ था. उसे तन्वी की याद आ रही थी. उस के मन में छात्रावास के प्रति अच्छे विचार नहीं थे लेकिन तरू तो उस की आंखों के सामने थी फिर कहां चूक हुई जो वह गलत हो गई. तपन ने तो सदैव उसे आगाह किया था, ‘लड़कियों को आजादी दो परंतु आजादी पर निगरानी आवश्यक है. नाजुक उम्र में बच्चे आजादी का नाजायज फायदा उठा कर खतरे में पड़ जाते हैं.’

तृप्ति ने रात पलकों में गुजारी. सुबह जब तरू उठी तो रात के बारे में पूछने पर अनजान बनती हुई बोली, ‘‘कल पार्टी में किसी ने उस की डिं्रक में कुछ मिला दिया था.’’

मां की ममता फिर से हावी हो गई. तृप्ति फिर से उस की बातों में आ गई थी.

अब जब हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे तो तृप्ति उस पर रोक लगाना चाह रही थी. तरू एक न सुनती. एक दिन तृप्ति प्यार से उस का हाथ सहला रही थी, तभी उस के हाथों के काले निशान पर उस की नजर पड़ी. तुरंत तरू ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं मौम. मैं स्कूटी ड्राइव करती हूं न, उसी का निशान है,’’ लेकिन उस के बहाने तृप्ति को विचलित कर चुके थे…उंगलियों के बीच में जले के निशान केवल सिगरेट के हो सकते हैं.

तृप्ति अब उस पर नजर रखने लगी. उसे तरहतरह से समझाने का प्रयास करती लेकिन तरू की आंखों पर तो ग्लैमर का चश्मा चढ़ा हुआ था. मोबाइल की घंटी सुनते ही वह भाग जाती थी. तृप्ति हालात को स्वयं ही सुधारने में लगी थी लेकिन तरू उस की एक न मानती.

निराशा एवं हताशा में तृप्ति बीमार रहने लगी तो तपन को चिंता हुई. उन्होंने तरू से कहा, ‘‘तुम कुछ दिन छुट्टी ले कर घर में रहो और मां की देखभाल करो, फिर कुछ दिन मैं छुट्टी ले लूंगा. लेकिन तरू ने एक न सुनी. तपन बहुत नाराज हुए और तृप्ति को ही कोसने लगे. तरू की बरबादी के लिए उसे ही जिम्मेदार बताने लगे. दिन और रात ठहर गए थे. अभी तक तृप्ति परेशान रहती थी अब तपन भी चिंतित और दुखी रहने लगे.

आज तो तरू को बेसिन पर उलटी करते देख कर तृप्ति सिहर गई. उस की बातों ने तो आग में घी का काम किया.

‘‘क्या हुआ, मौम? कोई पहाड़ टूट पड़ा है, क्यों मातम मना रही हो, क्या कोई मौत हो गई है. मैं डाक्टर के पास जा रही हूं, 1 घंटे की बात है, बस, सब नार्मल.’’

तृप्ति फूटफूट कर रो पड़ी. क्या हो गया इस नई पीढ़ी को. यह युवा वर्ग किधर जा रहा है, कहां गईं हमारी मान्यताएं. कहां गई शिक्षा. इतनी जल्दी इतना परिवर्तन. इतनी भटकन, क्या ऐसा संभव है? Hindi Family Story

Hindi Family Story: मैं झूठ नहीं बोलती – सच बोलने वाली हिम्मती

Hindi Family Story: जब से होश संभाला, यही शिक्षा मिली कि सदैव सच बोलो. हमारी बुद्धि में यह बात स्थायी रूप से बैठ जाए इसलिए मास्टरजी अकसर ही  उस बालक की कहानी सुनाते, जो हर रोज झूठमूठ का भेडि़या आया भेडि़या आया चिल्ला कर मजमा लगा लेता और एक दिन जब सचमुच भेडि़या आ गया तो अकेला खड़ा रह गया.

मां डराने के लिए ‘झूठ बोले कौआ काटे’ की लोकोक्ति का सहारा लेतीं और उपदेशक लोग हर उपदेश के अंत में नारा लगवाते ‘सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला.’ भेडि़ये से तो खैर मुझे भी बहुत डर लगता है बाकी दोनों स्थितियां भी अप्रिय और भयावह थीं. विकल्प एक ही बचा था कि झूठ बोला ही न जाए.

बचपन बीता. थोड़ी व्यावहारिकता आने लगी तो मां और मास्टरजी की नसीहतें धुंधलाने लगीं. दुनिया जहान का सामना करना पड़ा तो महसूस हुआ कि आज के युग में सत्य बोलना कितना कठिन काम है और समझदार बनने लगे हम. आप ही बताओ मेरी कोई सहकर्मी एकदम आधुनिक डे्रस पहन कर आफिस आ गई है, जो न तो उस के डीलडौल के अनुरूप है न ही व्यक्तित्व के. मन तो मेरा जोर मार रहा है यह कहने को कि ‘कितनी फूहड़ लग रही हो तुम.’ चुप भी नहीं रह सकती क्योंकि सामने खड़ी वह मुसकरा कर पूछे जा रही है, ‘‘कैसी लग रही हूं मैं?’’

‘अब कहो, सच बोल दूं क्या?’

विडंबना ही तो है कि सभ्यता के साथसाथ झूठ बोलने की जरूरत बढ़ती ही गई है. जब हम शिष्टाचार की बात करते हैं तो अनेक बार आवश्यक हो जाता है कि मन की बात छिपाई जाए. आप चाह कर भी सत्य नहीं बोलते. बोल ही नहीं पाते यही शिष्टता का तकाजा है.

आप किसी के घर आमंत्रित हैं. गृहिणी ने प्रेम से आप के लिए पकवान बनाए हैं. केक खा कर आप ने सोचा शायद मीठी रोटी बनाई है. बस, शेप फर्क कर दी है और लड्डू ऐसे कि हथौड़े की जरूरत. खाना मुश्किल लग रहा है पर आप खा रहे हैं और खाते हुए मुसकरा भी रहे हैं. जब गृहिणी मनुहार से दोबारा परोसना चाहती है तो आप सीधे ही झूठ पर उतर आते हैं.

‘‘बहुत स्वादिष्ठ बना है सबकुछ, पर पेट खराब होने के कारण अधिक नहीं खा पा रहे हैं.’’

मतलब यह कि वह झूठ भी सच मान लिया जाए, जो किसी का दिल तोड़ने से बचा ले.

‘शारीरिक भाषा झूठ नहीं बोलती,’ ऐसा हमारे मनोवैज्ञानिक कहते हैं. मुख से चाहे आप झूठ बोल भी रहे हों आप की आवाज, हावभाव सत्य उजागर कर ही देते हैं. समझाने के लिए वह यों उदाहरण देते हैं, ‘बच्चे जब झूठ बोलते हैं तो अपना एक हाथ मुख पर धर लेते हैं. बड़े होने पर पूरा हाथ नहीं तो एक उंगली मुख या नाक पर रखने लगते हैं अथवा अपना हाथ एक बार मुंह पर फिरा अवश्य लेते हैं,’ ऐसा सोचते हैं ये मनोवैज्ञानिक लोग. पर आखिर अभिनय भी तो कोई चीज है और हमारे फिल्मी कलाकार इसी अभिनय के बल पर न सिर्फ चिकनीचुपड़ी खाते हैं हजारों दिलों पर राज भी करते हैं.

वैसे एक अंदर की बात बताऊं तो यह बात भी झूठ ही है, क्योंकि अपनी जीरो फिगर बनाए रखने के चक्कर में प्राय: ही तो भूखे पेट रहते हैं बेचारे. बड़ा सत्य तो यह है कि सभ्य होने के साथसाथ हम सब थोड़ाबहुत अभिनय सीख ही गए हैं. कुछ लोग तो इस कला में माहिर होते हैं, वे इतनी कुशलता से झूठ बोल जाते हैं कि बड़ेबड़े धोखा खा जाएं. मतलब यह कि आप जितने कुशल अभिनेता होंगे, आप का झूठ चलने की उतनी अच्छी संभावना है और यदि आप को अभिनय करना नहीं आता तो एक सरल उपाय है. अगली बार जब झूठ बोलने की जरूरत पड़े तो अपने एक हाथ को गोदी में रख दूसरे हाथ से कस कर पकड़े रखिए आप का झूठ चल जाएगा.

हमारे राजनेता तो अभिनेताओं से भी अधिक पारंगत हैं झूठ बोलने का अभिनय करने में. जब वह किसी विपदाग्रस्त की हमदर्दी में घडि़याली आंसू बहा रहे होते हैं, सहायता का वचन दे रहे होते हैं तो दरअसल, वह मन ही मन यह हिसाब लगा रहे होते हैं कि इस में मेरा कितना मुनाफा होगा. वोटों की गिनती में और सहायता कोश में से भी. इन नेताओं से हम अदना जन तो क्या अपने को अभिनय सम्राट मानने वाले फिल्मी कलाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

विशेषज्ञों ने एक राज की बात और भी बताई है. वह कहते हैं कि सौंदर्य आकर्षित तो करता ही है, सुंदर लोगों का झूठ भी आसानी से चल जाता है. अर्थात सुंदर होने का यह अतिरिक्त लाभ है. मतलब यह भी हुआ कि यदि आप सुंदर हैं, अभिनय कुशल हैं तो धड़ल्ले से झूठ बोलते रहिए कोई नहीं पकड़ पाएगा. अफसोस सुंदर होना न होना अपने वश की बात नहीं.

गांधीजी के 3 बंदर याद हैं. गलत बोलना, सुनना और देखना नहीं है. अत: अपने हाथों से आंख, कान और मुंह ढके रहते थे पर समय के साथ इन के अर्थ बदल गए हैं. आज का दर्शन यह कहता है कि आप के आसपास कितना जुल्म होता रहे, बलात्कार हो रहा हो अथवा चोट खाया कोई मरने की अवस्था में सड़क पर पड़ा हो, आप अपने आंख, कान बंद रख मस्त रहिए और अपनी राह चलिए. किसी असहाय पर होते अत्याचार को देख आप को अपना मुंह खोलने की जरूरत नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि झूठ बोलने की अनिवार्यता सिर्फ हमें ही पड़ती हो. अमेरिका जैसे सुखीसंपन्न देश के लोगों को भी जीने के लिए कम झूठ नहीं बोलना पड़ता. रोजमर्रा की परेशानियों से बचे होने के कारण उन के पास हर फालतू विषय पर रिसर्च करने का समय और साधन हैं. जेम्स पैटरसन ने 2 हजार अमेरिकियों का सर्वे किया तो 91 प्रतिशत लोगों ने झूठ बोलना स्वीकार किया.

फील्डमैन की रिसर्च बताती है कि 62 प्रतिशत व्यक्ति 10 मिनट के भीतर 2 या 3 बार झूठ बोल जाते हैं. उन की खोज यह भी बताती है कि पुरुषों के बजाय स्त्रियां झूठ बोलने में अधिक माहिर होती हैं जबकि पुरुषों का छोटा सा झूठ भी जल्दी पकड़ा जाता है. स्त्रियां लंबाचौड़ा झूठ बहुत सफलता से बोल जाती हैं. हमारे नेता लोग गौर करें और अधिक से अधिक स्त्रियों को अपनी पार्टी में शामिल करें. इस में उन्हीं का लाभ है.

बिना किसी रिसर्च एवं सर्वे के हम जानते हैं कि झूठ 3 तरह का होता है. पहला झूठ वह जो किसी मजबूरीवश बोला जाए. आप की भतीजी का विवाह है और भाई बीमार रहते हैं. अत: सारा बंदोबस्त आप को ही करना है. आप को 15 दिन की छुट्टी तो चाहिए ही. पर जानते हैं कि आप का तंगदिल बौस हर्गिज इतनी छुट्टी नहीं देगा. चाह कर भी आप उसे सत्य नहीं बताते और कोई व्यथाकथा सुना कर छुट्टी मंजूर करवाते हैं.

दूसरा झूठ वह होता है, जो किसी लाभवश बोला जाए. बीच सड़क पर कोई आप को अपने बच्चे के बीमार होने और दवा के भी पैसे न होने की दर्दभरी पर एकदम झूठी दास्तान सुना कर पैसे ऐंठ ले जाता है. साधारण भिखारी को आप रुपयाअठन्नी दे कर चलता करते हैं पर ऐसे भिखारी को आप 100-100 के बड़े नोट पकड़ा देते हैं. यह और बात है कि आप के आगे बढ़ते ही वह दूसरे व्यक्ति को वही दास्तान सुनाने लगता है और शाम तक यों वह छोटामोटा खजाना जमा कर लेता है.

कुछ लोग आदतन भी झूठ बोलते हैं और यही होते हैं झूठ बोलने में माहिर तीसरे किस्म के लोग. इस में न कोई उन की मजबूरी होती है न लाभ. एक हमारी आंटी हैं, उन की बातों का हर वाक्य ‘रब झूठ न बुलवाए’ से शुरू होता है पर पिछले 40 साल में मैं ने तो उन्हें कभी सच बोलते नहीं सुना. सामान्य बच्चों को जैसे शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है शायद उन्हें घुट्टी में यही पिलाया गया था कि ‘बच्चे सच कभी मत बोलना.’  बाल सफेद होने को आए वह अभी तक अपने उसी उसूल पर टिकी हुई हैं. रब झूठ न बुलवाए, इस में उन की न तो कोई मजबूरी होती है न ही लाभ.

सदैव सत्य ही बोलूंगा जैसा प्रण ले कर धर्मसंकट में भी पड़ा जा सकता है. एक बार हुआ यों कि एक मशहूर अपराधी की मौत हो गई और परंपरा है कि मृतक की तारीफ में दो शब्द बोले जाएं. यह तो कह नहीं सकते कि चलो, अच्छा हुआ जान छूटी. यहां समस्या और भी घनी थी. उस गांव का ऐसा नियम था कि बिना यह परंपरा निभाए दाह संस्कार नहीं हो सकता. पर कोई आगे बढ़ कर मृतक की तारीफ में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. अंत में एक वृद्ध सज्जन ने स्थिति संभाली.

‘‘अपने भाई की तुलना में यह व्यक्ति देवता था,’’ उस ने कहा, ‘‘सच भी था. भाई के नाम तो कत्ल और बलात्कार के कई मुकदमे दर्ज थे. अपने भाई से कई गुना बढ़ कर. अब उस की मृत्यु पर क्या कहेंगे यह वृद्ध सज्जन. यह उन की समस्या है पर कभीकभी झूठ को सच की तरह पेश करने के लिए उसे कई घुमावदार गलियों से ले जाना पड़ता है यह हम ने उन से सीखा.

मुश्किल यह है कि हम ने अपने बच्चों को नैतिक पाठ तो पढ़ा दिए पर वैसा माहौल नहीं दे पाए. आज के घोर अनैतिक युग में यदि वे सत्य वचन की ही ठान लेंगे तो जीवन भर संघर्ष ही करते रह जाएंगे. फिल्म ‘सत्यकाम’ देखी थी आप ने? वह भी अब बीते कल की बात लगती है. हमारे नैतिक मूल्य तब से घटे ही हैं सुधरे नहीं. आज के झूठ और भ्रष्टाचार के युग में नैतिक उपदेशों की कितनी प्रासंगिकता है ऐसे में क्या हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना छोड़ दें. संस्कार सब दफन कर डालें? प्रश्न कड़वा जरूर है पर पूछना आवश्यक. बच्चों को वह शिक्षा दें, जो व्यावहारिक हो जिस का निर्वाह किया जा सके. उस से बड़ी शर्त यह कि जिस का हम स्वयं पालन करते हों.

सब से बड़ा झूठ तो यही कहना, सोचना है कि हम झूठ बोलते नहीं. कभी हम शिष्टाचारवश झूठ बोलते हैं तो कभी समाज में बने रहने के लिए. कभी मातहत से काम करवाने के लिए झूठ बोलते हैं तो कभी बौस से छुट्टी मांगने के लिए. सामने वाले का दिल न दुखे इस कारण झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सजा अथवा शर्मिंदगी से बचने के लिए. कभी टैक्स बचाने के लिए, कभी किरायाभाड़ा कम करने के लिए. चमचागीरी तो पूरी ही झूठ पर टिकी है. मतलब कभी हित साधन और कभी मजबूरी से. तो फिर हम सत्य कब बोलते हैं?

शीर्षक तो मैं ने रखा था कि ‘मैं झूठ नहीं बोलती’ पर लगता है गलत हो गया. इस लेख का शीर्षक तो होना चाहिए था,  ‘मैं कभी सत्य नहीं बोलती.’

क्या कहते हैं आप? Hindi Family Story

Hindi Kahani: ठगनी – लड़कों को हुस्न के जाल में फंसाने वाली लड़की

Hindi Kahani: घर के बगीचे में बैठा मैं अपने मोबाइल फोन के बटनों पर उंगलियां फेर रहा था. चलचित्र की तरह एकएक कर नंबरों समेत नाम आते और ऊपर की ओर सरकते जाते. उन में से एक नाम पर मेरी उंगली ठहर गई. वह नंबर परेश का था. मेरा पुराना जिगरी दोस्त. आज से तकरीबन 10 साल पहले आदर्श कालोनी में परेश अपने मातापिता व भाईबहनों के साथ किराए के मकान में रहता था. ठीक उस से सटा हुआ मेरा घर था.

हम लोग एकसाथ परिवार की तरह रहते थे. फिर मेरी शादी हो गई. अचानक पिता की मौत के बाद मैं अपने आदर्श नगर वाला मकान छोड़ कर पिताजी द्वारा दूसरी जगह खरीदे हुए मकान में रहने चला गया.

कुछ दिनों के बाद मैं एक दिन परेश से मिला था, तो मेरे घर वालों का हालचाल जानने के बाद उस ने बताया था कि वे लोग भी आदर्श नगर वाला किराए का मकान छोड़ कर किसी दूसरी जगह रहने लगे हैं.

काम ज्यादा होने के चलते फिर हम लोगों की मुलाकातें बंद हो गईं. हमें मिले कई साल गुजर गए. बचपन की वे पुरानी बातें याद आने लगीं. हालचाल पूछने के लिए सोचा कि फोन लगाता हूं. फोन का बटन उस नंबर पर दबते ही घंटी बजनी शुरू हो गई.

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा कि चलो, फोन तो लग गया, क्योंकि इन दिनों क्या बूढ़े, क्या जवान, सभी में एक फैशन सा हो गया है सिम कार्ड बदल देने का. आज कुछ नंबर रहता है, तो कल कुछ.

थोड़ी देर बाद ही उधर से किसी औरत की आवाज सुनाई दी, ‘हैलो… कौन बोल रहा है? देखिए, यहां लाउडस्पीकर बज रहा है. कुछ भी ठीक से सुनाई नहीं पड़ रहा है.’

मैं ने अंदाजा लगाया, शायद परेश की भी शादी हो गई है. हो न हो, यह उसी की पत्नी है.

मैं फोन पर जरा ऊंची आवाज में बोला, ‘‘हैलो, मैं मयंक बोल रहा हूं… हैलो… सुनाई दे रहा है न… परेश ने मुझे यह नंबर दिया था. यह उसी का ही नंबर है न… मुझे उसी से बात करनी है. वह मेरे बचपन का दोस्त है. आदर्श नगर में हम लोग एकसाथ रहते थे.’’

उधर से फिर आवाज आई, ‘देखिए, कुछ सुनाई नहीं दे रहा है, आप…’

मैं ने फोन काट दिया. मैं हैरान सा था. पक्का करने के लिए दोबारा फोन लगाया कि सही में वह औरत परेश की पत्नी ही है या कोई और, मगर साफ आवाज न मिल पाने के चलते दिक्कत हो रही थी. वैसे, यह नंबर खुद परेश ने मुझे एक बार दिया था. जब वह बाजार में मिला था. यह औरत यकीनन उस की पत्नी ही होगी. आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे वह मेरा परिचय जानने की कोशिश कर रही थी.

रात के 8 बजे मैं खापी कर कुछ लिखनेपढ़ने के खयाल से बैठ ही रहा था कि मेरे मोबाइल फोन पर एक फोन आया. किसी मर्द की आवाज थी, जिसे मैं पहचान नहीं पा रहा था. फोन पर उस ने मेरा नाम पूछा. मैं ने जैसे ही अपना नाम बताया, तो वह तपाक से बोल पड़ा, ‘हैलो, मयंक भैया. आप का फोन था? सवेरे आप ने ही फोन किया था?’

मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

उधर से फिर आवाज आई, ‘अरे भैया, मैं परेश बोल रहा हूं. देखिए न, मैं जैसे ही घर आया, तो मेरी पत्नी ने बताया कि किसी मयंक का फोन आया था. मैं ने सोचा कि कौन हो सकता है? यही सोचतेसोचते फोन लगा दिया.

‘और भैया, कैसे हैं? आप तो आते ही नहीं हैं. आइए, घर पर और अपनी भाभी से भी मिल लीजिएगा. बहुत मजा आएगा मिल कर.’

‘‘सचमुच…’’

‘एक बार आ कर तो देखिए.’

मैं ने कहा कि जरूर आऊंगा और फोन कट गया. बहुत दिनों से छूटी दोस्ती अचानक उफान मारने लगी. बहुत सारी बातें थीं, जो फोन पर नहीं हो सकती थीं. बचपन के वे दिन जब हम परेश के भाईबहनों के साथ उस के घर में बैठ कर खेलते थे. उस की मां मुझे बहुत मानती थीं. मैं उन्हें ‘काकी’ कहता था.

एक बार वे बहुत बीमार पड़ गई थीं. मैं अपने मामा की शादी में गांव चला गया था. वहां से महीनों बाद आया, तो पता चला कि काकी अस्पताल में भरती थीं. उन्हें आईसीयू में रखा गया था. वे किसी को पहचान नहीं पा रही थीं. आईसीयू से निकलते वक्त मैं उन के सामने खड़ा था. जब सिस्टर ने पूछा कि आप इन्हें पहचानते हैं, तो उन्होंने तपाक से मेरा नाम बता दिया था. उन के परिवार में खुशियां छा गई थीं.

बचपन के वे दिन चलचित्र की तरह याद आ रहे थे. मैं परेश और उस के परिवार से मिलना चाहता था, खासकर परेश की पत्नी से. वह दिखने में कैसी होगी? मिलने पर खूब बातें करेंगे.

एक दिन सचमुच मैं ने उस के घर जाने का मन बना लिया. घर के पास पहुंच कर मैं ने फोन लगाया. फोन उस की पत्नी ने उठाया था. इस बार आवाज दोनों तरफ से साफ आ रही थी. उस की आवाज मेरे कानों में पड़ते ही मेरी सांसें जोरजोर से चलने लगीं. शरीर हलका होने लगा. आवाज कांपने और हकलाने लगी. पानी गटकने की जरूरत महसूस होने लगी.

मैं ने फोन पर अपनेआप को ठीक करते हुए कहा, ‘‘हैलो, मैं मयंक…’’

उधर से परेश की पत्नी की आवाज आई, ‘अरे आप, हांहां पहचान गई, कहिए, कैसे हैं?’

मेरे मुंह से आवाज निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी. किसी तरह गले को थूक से थोड़ा गीला किया और कहा, ‘‘हां, मैं मयंक. इधर ही आया था एक दोस्त के घर. सोचा, आया हूं तो मिलता चलूं. आप को भी देखना है कि कैसी लगती हैं?’’ मैं ने एक ही सांस में अपनी इच्छा जाहिर कर दी.

उस ने तुरंत कहा, ‘हांहां, आप ठीक जगह पर हैं. मैदान के बगल में सड़क है, जो नदी तक जाती है. उसी पर आगे बढि़एगा. सामने एक मकान दिखेगा, उस में एक नारियल का पेड़ है. याद रखिएगा. आइए.’ ऐसा लग रहा था, जैसे मैं हवा में उड़ता जा रहा हूं और उड़ते हुए उस का घर खोज रहा हूं, जिस में एक नारियल का पेड़ है. जल्द ही घर मिल गया.

मैं ने घर के सामने पहुंच कर दरवाजा खटखटाया. एक खूबसूरत औरत बाहर निकली. मेरा स्वागत करते हुए वह मुझे घर के अंदर ले गई.

थोड़ी औपचारिकता के बाद मैं ने इधरउधर गरदन हिलाई और पूछा, ‘‘परेश कहीं दिख नहीं रहा है… और काकी?’’

‘‘परेश आता ही होगा, काकी गांव गई हैं,’’ यह कहते हुए वह मेरे बगल में ही थोड़ा सट कर बैठ गई. इतना करीब कि हम दोनों की जांघें उस के जरा से हिलने से सटने लगी थीं. मैं रोमांचित होने लगा. यहां आने से थोड़ी देर पहले मैं उसे ले कर जो सोच रहा था, वह सब हकीकत लगने लगा था. मैं उस से हंसहंस कर बातें कर रहा था कि इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई.

मैं जलभुन गया कि अचानक यह कबाब में हड्डी बनने कहां से आ गया.

दरवाजा खुलते ही सामने एक अजनबी आदमी दिखा. चेहरे से दिखने में खुरदरा, उस के तेवर अच्छे नहीं लग रहे थे. मैं ने परेश की पत्नी की तरफ देखते हुए उस आदमी के बारे में पूछा, तो उस ने सपाट सा जवाब दिया, ‘‘यही तो है परेश,’’ और उस की एक कुटिल हंसी हवा में तैर गई.

मैं सकपका गया. यह परेश तो नहीं है. क्या मैं किसी अजनबी औरत के पास…

अभी मन ही मन सोच ही रहा था कि वह आदमी मेरे सामने आ गया और कमर से एक देशी कट्टा निकाल कर उस से खेलने लगा. फिर मुझे धमकाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी हर हरकत मेरे मोबाइल फोन में कैद हो गई है. अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि बदनामी से पिंड छुड़ाना चाहते हो, तो तुम्हें 50 हजार रुपए देने होंगे.

‘‘तुम्हें कल तक के लिए मुहलत दी जाती है, वरना परसों ये तसवीरें तुम्हारे घर के आसपास बांट दी जाएंगी.’’

मुझे काटो तो खून नहीं. मैं ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘मगर, यह तो परेश का घर है और यह उस की पत्नी है.’’ वे दोनों एकसाथ हंस पड़े. उस आदमी ने कहा, ‘‘गलत नंबर पर पड़ गए बरखुरदार. होगा तुम्हारे किसी दोस्त का नंबर, लेकिन अब यह नंबर मेरे पास है. यह मेरी पार्टनर लीना है और हम दोनों का यही धंधा है.’’

वह औरत जो अब तक मुझ से सट कर बैठी थी, मुझ से छिटक कर उस के बगल में जा खड़ी हुई. वह मुझे धमकाते हुए बोली, ‘‘किसी से कहना नहीं, चल फटाफट निकल यहां से और जल्दी से पैसों का इंतजाम कर.’’

मैं सहमा सा उस खूबसूरत ठगनी का मुंह देखता रह गया. Hindi Kahani

Hindi Kahani: अनोखा सबक – सिपाही टीकाचंद ने सीखा कैसा सबक

Hindi Kahani: सिपाही टीकाचंद बड़ी बेचैनी से दारोगाजी का इंतजार कर रहा था. वह कभी अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी की तरफ देखता, तो कभी थाने से बाहर आ कर दूर तक नजर दौड़ाता, लेकिन दारोगाजी का कहीं कोई अतापता न था. वे शाम के 6 बजे वापस आने की कह कर शहर में किसी सेठ की दावत में गए थे, लेकिन 7 बजने के बाद भी वापस नहीं आए थे.

‘शायद कहीं और बैठे अपना रंग जमा रहे होंगे,’ ऐसा सोच कर सिपाही टीकाचंद दारोगाजी की तरफ से निश्चिंत हो कर कुरसी पर आराम से बैठ गया.

आज टीकाचंद बहुत खुश था, क्योंकि उस के हाथ एक बहुत अच्छा ‘माल’ लगा था. उस दिन के मुकाबले आज उस की आमदनी यानी वसूली भी बहुत अच्छी हो गई थी.

आज उस ने सारा दिन रेहड़ी वालों, ट्रक वालों और खटारा बस वालों से हफ्ता वसूला था, जिस से उस के पास अच्छीखासी रकम जमा हो गई थी. उन पैसों में से टीकाचंद आधे पैसे दारोगाजी को देता था और आधे खुद रखता था.

सिपाही टीकाचंद का रोज का यही काम था. ड्यूटी कम करना और वसूली करना… जनता की सेवा कम, जनता को परेशान ज्यादा करना.

सिपाही टीकाचंद सोच रहा था कि इस आमदनी में से वह दारोगाजी को आधा हिस्सा नहीं देगा, क्योंकि आज उस ने दारोगाजी को खुश करने के लिए अलग से शबाब का इंतजाम कर लिया है.

जिस दिन वह दारोगाजी के लिए शबाब का इंतजाम करता था, उस दिन दारोगाजी खुश हो कर उस से अपना आधा हिस्सा नहीं लेते थे, बल्कि उस दिन का पूरा हिस्सा उसे ही दे देते थे.

रात के तकरीबन 8 बजे तेज आवाज करती जीप थाने के बाहर आ कर रुकी. सिपाही टीकाचंद फौरन कुरसी छोड़ कर खड़ा हो गया और बाहर की तरफ भागा.

नशे में चूर दारोगाजी जीप से उतरे. उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. आंखें नशे से बु?ाबु?ा सी थीं. उन की हालत से तो ऐसा लग रहा था, जैसे उन्होंने शराब पी रखी हो, क्योंकि चलते समय उन के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. उन के होंठों पर पुरानी फिल्म का एक गाना था, जिसे वे बड़े रोमांटिक अंदाज में गुनगुना रहे थे.

दारोगाजी गुनगुनाते हुए अंदर आ कर कुरसी पर ऐसे धंसे, जैसे पता नहीं वे कितना लंबा सफर तय कर के आए हों.

सिपाही टीकाचंद ने चापलूसी करते हुए दारोगाजी के जूते उतारे. दारोगाजी ने सामने रखी मेज पर अपने दोनों पैर रख दिए और फिर पैरों को ऐसे अंदाज में हिलाने लगे, जैसे वे थाने में नहीं, बल्कि अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठे हों.

दारोगाजी ने अपनी पैंट की जेब में से एक महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला और फिल्मी अंदाज में सिगरेट को अपने होंठों के बीच दबाया, तो सिपाही टीकाचंद ने अपने लाइटर से दारोगाजी की सिगरेट जला दी.

‘‘साहबजी, आज आप ने बड़ी देर लगा दी?’’ सिपाही टीकाचंद अपनी जेब में लाइटर रखते हुए बोला.

दारोगाजी सिगरेट का लंबा कश खींच कर धुआं बाहर छोड़ते हुए बोले, ‘‘टीकाचंद, आज माहेश्वरी सेठ की दावत में मजा आ गया. दावत में शहर के बड़ेबड़े लोग आए थे. मेरा तो वहां से उठने का मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन मजबूरी में आना पड़ा.

‘‘अच्छा, यह बता टीकाचंद, आज का काम कैसा रहा?’’ दारोगाजी ने बात का रुख बदलते हुए पूछा.

‘‘आज का काम तो बस ठीक ही रहा, लेकिन आज मैं ने आप को खुश करने का बहुत अच्छा इंतजाम किया है,’’ सिपाही टीकाचंद ने धीरे से मुसकराते हुए कहा, तो दारोगाजी के कान खड़े हो गए.

‘‘कैसा इंतजाम किया है आज?’’ दारोगाजी बोले.

‘‘साहबजी, आज मेरे हाथ बहुत अच्छा माल लगा है. माल का मतलब छोकरी से है साहबजी, छोकरी क्या है, बस ये सम?ा लीजिए एकदम पटाखा है, पटाखा. आप उसे देखोगे, तो बस देखते ही रह जाओगे. मु?ो तो वह छोकरी बिगड़ी हुई अमीरजादी लगती है,’’ सिपाही टीकाचंद ने कहा.

उस की बात सुन कर दारोगाजी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

‘‘टीकाचंद, तुम्हारे हाथ वह कहां से लग गई?’’ दारोगाजी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए बोले.

दारोगाजी के पूछने पर सिपाही टीकाचंद ने बताया, ‘‘साहबजी, आज मैं दुर्गा चौक से गुजर रहा था. वहां मैं ने एक लड़की को अकेले खड़े देखा, तो मुझे उस पर कुछ शक हुआ.

‘‘जिस बस स्टैंड पर वह खड़ी थी, वहां कोई भला आदमी खड़ा होना भी पसंद नहीं करता है. वह पूरा इलाका चोरबदमाशों से भरा हुआ?है.

‘‘उस को देख कर मैं फौरन समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है. उस के आसपास 2-4 लफंगे किस्म के गुंडे भी मंडरा रहे थे.

‘‘मैं ने सोचा कि क्यों न आज आप को खुश करने के लिए उस को थाने ले चलूं. ऐसा सोच कर मैं फौरन उस के पास जा पहुंचा.

‘‘मुझे देख कर वहां मौजूद आवारा लड़के फौरन वहां से भाग लिए. मैं ने उस लड़की का गौर से मुआयना किया.

‘‘फिर मैं ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘कौन हो तुम? और यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह मुझे घूरते हुए बोली, ‘यहां अकेले खड़ा होना क्या जुर्म है?’

‘‘उस का यह जवाब सुन कर मैं समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है और आसानी से कब्जे में आने वाली नहीं.

‘‘मैं ने नाम पूछा, तो वह कहने लगी, ‘मेरे नाम वारंट है क्या?’

‘‘वह बड़ी निडर छोकरी है साहब. मैं जो भी बात कहता, उसे फौरन काट देती थी.

‘‘मैं ने उसे अपने जाल में फंसाना चाहा, लेकिन वह फंसने को तैयार ही नहीं थी.

‘‘आसानी से बात न बनते देख उस पर मैं ने अपना पुलिसिया रोब झड़ना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से उस पर मेरे रोब का असर हुआ. मैं ने उस पर

2-4 उलटेसीधे आरोप लगा दिए और थाने चलने को कहा, लेकिन थाने चलने को वह तैयार ही नहीं हुई.

‘‘मैं ने कहा, ‘थाने तो तुम्हें जरूर चलना पड़ेगा. वहां तुम से पूछताछ की जाएगी. हो सकता है कि तुम अपने दोस्त के साथ घर से भाग कर यहां आई हो.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह बौखला गई और मुझे धमकी देते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे थाने ले जा कर तुम बहुत पछताओगे, मेरी पहुंच ऊपर तक है.’

‘‘छोकरी की इस धमकी का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसी धमकी सुनने की हमें आदत सी पड़ गई है…

‘‘पता नहीं, आजकल जनता पुलिस को क्या सम?ाती है? हर कोई पुलिस को अपनी ऊंची पहुंच की धमकी दे देता है, जबकि असल में उस की पहुंच एक चपरासी तक भी नहीं होती.

‘‘मैं धमकियों की परवाह किए बिना उसे थाने ले आया और यह कह कर लौकअप में बंद कर दिया कि थोड़ी देर में दारोगाजी आएंगे. पूछताछ के बाद तुम्हें छोड़ दिया जाएगा.

‘‘जाइए, उस से पूछताछ कीजिए, बेचारी बहुत देर से आप का इंतजार कर रही है,’’ सिपाही टीकाचंद ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा.

दारोगाजी के होंठों पर मुसकान तैर गई. उन की मुसकराहट में खोट भरा था. उन्होंने टीकाचंद को इशारा किया, तो वह तुरंत अलमारी से विदेशी शराब की बोतल निकाल लाया और पैग बना कर दारोगाजी को दे दिया.

दारोगाजी ने कई पैग अपने हलक से नीचे उतार दिए. ज्यादा शराब पीने से उन का चेहरा खूंख्वार हो गया था. उन की आंखें अंगारे की तरह लाल हो गईं.

वह लुंगीबनियान पहन लड़खड़ाते कदमों से लौकअप में चले गए. सिपाही टीकाचंद ने फुरती से दरवाजा बंद कर दिया और वह बैठ कर बोतल में बची हुई शराब खुद पीने लगा.

दारोगाजी को कमरे में घुसे अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि उन के चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं.

सिपाही टीकाचंद ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, तो दारोगाजी उस के ऊपर गिर पड़े. उन का हुलिया बिगड़ा हुआ था.

थोड़ी देर पहले तक सहीसलामत दारोगाजी से अब अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. इस से पहले कि सिपाही टीकाचंद कुछ सम?ा पाता, उस के सामने वही लड़की आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘देख ली अपने दारोगाजी की हालत?’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को. सरकार तुम्हें यह वरदी जनता की हिफाजत करने के लिए देती है, लेकिन तुम लोग इस वरदी का नाजायज फायदा उठाते हो,’’ लड़की चिल्लाते हुए बोली.

लड़की एक पल के लिए रुकी और सिपाही टीकाचंद को घूरते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी बदतमीजी का मजा मैं तुम्हें वहीं चखा सकती थी, लेकिन उस समय तुम ने वरदी पहन रखी थी और मैं तुम पर हाथ उठा कर वरदी का अपमान नहीं करना चाहती थी, क्योंकि यह वरदी हमारे देश की शान है और हमें इस का अपमान करने का कोई हक नहीं. पता नहीं, क्यों सरकार तुम जैसों को यह वरदी पहना देती है?’’

लड़की की इस बात से सिपाही टीकाचंद कांप उठा.

‘‘जातेजाते मैं तुम्हें अपनी पहुंच के बारे में बता दूं, मैं यहां के विधायक की बेटी हूं,’’ कह कर लड़की तुरंत थाने से बाहर निकल गई.

सिपाही टीकाचंद आंखें फाड़े खड़ा लड़की को जाते हुए देखता रहा.

दारोगाजी जमीन पर बैठे दर्द से कराह रहे थे. उन्होंने लड़की को परखने में भूल की थी, क्योंकि वह जूडोकराटे में माहिर थी. उस ने दारोगाजी की जो धुनाई की थी, वह सबक दारोगाजी के लिए अनोखा था. Hindi Kahani

Hindi Family Story: गेहूं, गहने और चक्की – शुभम की मम्मी का गुस्सा

Hindi Family Story: ‘‘शुभम… ओ शुभम,’’ मीता देवी के चीखने का स्वर  कुछ इस तरह का था कि शुभम  सिर से  पांव तक सिहर उठा. वह अचानक यह समझ नहीं सका कि उस से कहां क्या गड़बड़ हो गई. अपनी मां मीता के उग्र स्वभाव से वह क्या, घर और महल्ले तक के लोग परिचित थे. इसलिए शुभम अपनी ओर से कोशिश करता था कि ऐसा कोई काम न करे कि उस की मां को क्रोध आए. फिर भी जानेअनजाने कभी कुछ ऐसा हो ही जाता था कि मां का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता.

‘‘क्या हुआ, मां,’’ कहता हुआ शुभम तेजी से सीढि़यां फलांगते हुए मां के सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘तुम से गेहूं पिसवाने के लिए कहा था, उस का क्या हुआ?’’ मां मीता ने छूटते ही शुभम से पूछा.

‘‘वह तो मैं सुबह ही चक्की पर पिसने को दे आया था.’’

‘‘वही तो मैं पूछ रही हूं कि ऐसी क्या आफत आ गई थी जो तुम सुबहसुबह ही गेहूं पिसने के लिए चक्की पर रख आए?’’ मीता कुछ इस तरह बोली थीं कि शुभम हक्का- बक्का रह गया.

‘‘आप को समझ पाना तो असंभव है, मां. आप ने इतनी जल्दी मचाई कि नूरे की चक्की बंद थी तो मैं 30 किलो गेहूं साइकिल पर रख कर चौराहे तक ले गया. वहां एक नई चक्की खुली है, जहां गेहूं रख कर आया हूं.’’

‘‘सत्यानाश, नूरे की चक्की बंद थी तो गेहूं वापस नहीं ला सकते थे क्या? यों तो 10 बार कहने पर भी तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंगती लेकिन आज इतने आज्ञाकारी बन गए कि फौरन ही हुक्म बजा लाए. अब क्या होगा? मैं तो बरबाद हो गई, लुट गई.’’

‘‘बरबाद आप नहीं मैं हो जाऊंगा, मां. कल मेरी एम.एससी. की प्रतियोगी परीक्षा है और आप यह रोनाधोना ले कर बैठ गई हैं,’’ शुभम को भी गुस्सा आ गया था.

‘‘तुम्हें पता भी है कि तुम ने क्या किया है?’’

‘‘क्या कर दिया, मां! मैं ने आप से कहा था कि कल परीक्षा के बाद गेहूं पिसवा दूंगा. आज काम चला लीजिए तो आप ने इतना शोर मचाया कि मैं अपना सब काम छोड़ कर गेहूं पिसवाने भागा.’’

‘‘गेहूं के कनस्तर में एक पोटली में मेरे 40 तोले के सोने के जेवर रखे थे,’’ यह कह कर मीता विलाप कर उठी थीं.

‘‘क्या कह रही हो, मां? गहने क्या गेहूं के कनस्तर में रखे जाते हैं? घर में 2 स्टील की अलमारी हैं. बैंक में आप का लौकर है और गहने वहां…’’ शुभम के आश्चर्य की सीमा न थी.

‘‘कल गुंजन के विवाह में जाने के लिए गहने बैंक से निकाले थे और चोरों के भय से कनस्तर में छिपा कर रखे थे. तुम नहीं जानते, समय कितना खराब है. काश, आज तुम गेहूं पिसवाने नहीं गए होते…’’ इतना कह मां सिर पर दोहत्थड़ मार कर फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

‘‘किसी को घर बैठे 40 तोले सोने के गहने मिल जाएं तो क्यों लौटाने लगा? फिर भी मैं प्रयत्न करता हूं,’’ कहता हुआ शुभम साइकिल ले कर बाहर निकल गया था.

मीता का जोरजोर से दहाडें़ मार कर रोना सुन कर पड़ोसी भी जमा हो गए थे.

हंगामा सुन कर गली में क्रिकेट खेलता उन का छोटा बेटा सत्यम आ गया और कालिज से लौट कर सोई हुई उन की बेटी सत्या भी जाग गई और मां को ढाढ़स बंधाने लगी.

पड़ोसियों ने पूरी कहानी सुन कर शुभम के पिता मुकेश को फोन कर दिया तो वह भी आननफानन में दफ्तर से आ गए और पत्नी को ही पूरे मामले के लिए दोषी ठहराने लगे.

‘‘भूल जाओ गहनों को, कोई मूर्ख ही घर आई लक्ष्मी को लौटाता है. जीवन भर की गाढ़ी कमाई खर्च कर गहने बनवाए थे. सोचा था बच्चों के काम आएंगे. सारे गहने चले गए चक्की वाले के यहां. वह तो घी के दीपक जला रहा होगा,’’ मुकेशजी अपनी भड़ास निकाल रहे थे.

‘‘यों हिम्मत नहीं हारते, मुकेश बाबू, शुभम आता ही होगा. सब ठीक हो जाएगा,’’ पड़ोसी मुकुल नाथ बोले थे.

शुभम की प्रतीक्षा में मानो समय ठहर सा गया था. आंगन के बीचोंबीच आंखें मूंदे कराहती हुई मीताजी अर्द्ध- चेतना में पड़ी थीं और उन के चारों ओर जमा महिलाएं अपनेअपने ढंग से उन्हें ढाढ़स बंधा रही थीं. साथ ही विस्तार से इस बात की चर्चा भी हो रही थी कि कैसे जाने वाली चीज के पैर लग जाते हैं.

यह चर्चा कुछ और देर चलती पर तभी शुभम की साइकिल दरवाजे पर आ कर रुकी और वहां मौजूद लोगों में सर- सराहट सी फैल गई. बिसूरती हुई मीताजी उठ बैठी थीं. कई जोड़ी निगाहें शुभम के चेहरे पर टिकी थीं. वह चुपचाप साइकिल खड़ी कर के घर की सीढि़यां चढ़ने लगाथा.

‘‘कहां जा रहे हो, शुभम? मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं,’’ आखिर, मुकेश बाबू का धैर्य जवाब दे गया तो वह बोल पडे़.

‘‘मेरी प्रतीक्षा…क्यों?’’ शुभम बोला था.

‘‘तुम अपनी मां के गहने लेने गए थे न?’’

‘‘हां, पापा, मैं चक्की तक गया था पर वहां ताला लगा हुआ था.’’

‘‘देखा, मैं कहती थी न कि मुआ चक्की वाला मेरे गहने ले कर भाग गया होगा. अब क्या होगा?’’ और फिर उन्होंने इस प्रकार बिलखना शुरू किया कि वहां मौजूद औरतों की आंखों से भी जलधारा बह चली.

उधर आसपड़ोस के पुरुषों ने मुकेश बाबू को घेर लिया और उन्हेंअनेक प्रकार की सलाह देने लगे.

‘‘मेरी मानो तो तुम्हें पुलिस को सूचित कर देना चाहिए. जब पुलिस के डंडे उस पर पडें़गे तो वह सब उगल देगा,’’ एक पड़ोसी ने सलाह दी थी.

‘‘उगलने को वह कौन सा मेरे घर चोरी करने आया था. अब कौन सा मुंह ले कर मैं पुलिस के पास जाऊं? वे उपहास ही करेंगे कि जब गहनों की पोटली खुद ही चक्की वाले के हवाले कर दी तो क्या आशा ले कर आए हो पुलिस के पास?’’ मुकेशजी क्रोध में बोले थे.

‘‘देखा, मैं कहती थी न…’’ मीता देवी ने अभी इतना ही कहा था कि मुकेशजी ने झल्लाते हुए कहा, ‘‘अरे, अब कहने को क्या रह गया है? तुम यह रोनाधोना बंद करो और अपनेअपने कामधंधे से लगो. और आप लोग भी अपने घरों को जाइए, व्यर्थ ही हम लोगों ने रात के 10 बजे आप सब को परेशान किया.’’

‘‘कैसी बातें करते हैं, मुकेश बाबू, दुखतकलीफ में मित्र व पड़ोसी काम नहीं आएंगे तो कौन आएगा,’’ उन के पड़ोसी नितिन राय बोले तो वह दांत पीस कर रह गए थे.

मुकेश बाबू अच्छी तरह जानते थे कि अपनेअपने घर पहुंच कर सब उन की पत्नी की मूर्खता पर ठहाके लगाएंगे. इसीलिए वह जल्दी से जल्दी पड़ोसियों से छुटकारा पा कर एकांत चाहते थे. पर पड़ोसी थे कि जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे. तभी उन्होंने शुभम को आवाज लगाई और वह डरासहमा उन के सामने आ खड़ा हुआ था.

‘‘गेहूं ले जाने से पहले तुम कनस्तर देख नहीं सकते थे? पर तुम्हारे पास जितनी अक्ल है उतना ही तो काम करोगे.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि गेहूं पिसाने के कनस्तर में गहने भी रखे जा सकते हैं. मैं ने तो गेहूं तुलवाए भी थे. मुझे तो कोई पोटली नजर नहीं आई.’’

‘‘नजर आती भी कैसे? तुम्हारा ध्यान तो कहीं और ही रहता है.’’

‘‘पापा, आप तो बेवजह मुझ पर गुस्सा कर रहे हैं. भला, गेहूं तुलवाते समय कहां ध्यान जा सकता है,’’ शुभम भी तीखे स्वर में बोला था.

‘‘देखा आप सब ने? यह है आज की संतान. एक तो इतना नुकसान कर दिया उस की चिंता नहीं है, ऊपर से अपनी मां को ही दोषी ठहरा रहा है,’’ मुकेश बाबू अचानक उग्र रूप धारण कर कुछ इस प्रकार चीखे थे कि शुभम सकते में आ गया और चुपचाप एक कोने में बैठ कर रोने लगा.

‘‘चक्की बंद है. आधी रात होने को आई. इस समय चक्की वाले का पता करना भी कठिन है,’’ एक पड़ोसी ने विचार जाहिर किए थे.

‘‘मैं भी यही सोच रहा हूं कि आप लोग भी चल कर विश्राम कीजिए. कब तक इस ठंड में यहां बैठे रहेंगे,’’ मुकेश बाबू ने सलाह दी थी.

‘‘ठीक है, फिर हम सब चलते हैं,’’ एकएक कर सभी पड़ोसी उठ खडे़ हुए थे.

‘‘आप तनिक भी चिंता मत कीजिए, मुकेश बाबू,’’ जातेजाते भी नितिन राय बोले थे, ‘‘कल दुकान खुलने का समय होते ही हमसब आप के साथ चलेंगे और कुछ दूरी पर आड़ में खडे़ हो जाएंगे. पहले शुभम को भेज कर देखेंगे. उस ने गहने देने में कुछ आनाकानी की तो पुलिस की सहायता लेंगे.’’

मुकेश बाबू को छोटा बेटा और बेटी सहारा दे कर अंदर के कमरे में ले गए थे. शुभम का तो उन के सामने जाने का साहस ही नहीं हो रहा था.

‘‘आज तो लगता है भूखे ही सोना पड़ेगा, शुभम भैया,’’ सत्यम ने कहा तो शुभम को भी याद आया कि उस ने दोपहर के भोजन के बाद कुछ भी नहीं खाया था.

‘‘भूख तो मुझे भी लग रही है. ऊपर से कल मेरी प्रतियोगी परीक्षा भी है,’’ शुभम ने हां में हां मिलाई थी.

शुभम इस ऊहापोह के बीच भी खुद को शांत कर कुछ पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था. तभी सत्या ने कुछ खाद्य पदार्थों के साथ उस के कमरे में प्रवेश किया.

‘‘भैया, जो कुछ फ्रिज में मिला, मैं ले आई हूं,’’ सत्या धीमे स्वर में बोली थी.

शुभम ने प्लेट में नजर डाली तो ब्रेड, मक्खन और कुछ फल रखे थे.

‘‘यह सबकुछ आज खा लिया तो कल नाश्ते का क्या होगा? मां बहुत डांटेंगी,’’ शुभम बोला था.

‘‘भैया, तुम सब से बडे़ हो पर सब से अधिक डरपोक. अरे, आज तो खा लो, कल डांट खा लेंगे,’’ सत्यम हंस कर ब्रेड पर मक्खन लगाते हुए बोला था.

सत्यम और सत्या को खाते देख शुभम को भी लगा कि बिना कुछ खाए वह पढ़ने में ध्यान नहीं लगा सकेगा.

‘‘यह हुई न बात,’’ शुभम को खाते देख सत्यम बोला, ‘‘भैया, आप कुछ बोलते क्यों नहीं. गेहूं में गहने मां ने रखे थे पर मां और पापा आप को ही दोष दिए जा रहे हैं.’’

‘‘तुम नहीं समझोगे. सब से बड़ा होने पर सबकुछ सहना पड़ता है. हर बात में पलट कर वार नहीं कर सकते,’’ शुभम अपने विशेष अंदाज में बोला था.

‘‘अच्छा हुआ जो मैं सब से बड़ा न हुआ,’’ सत्यम मुसकराया था.

‘‘नहीं तो क्या होता?’’ शुभम ने पूछा तो सत्यम बोला, ‘‘अभी तो भैया, मैं खुद जानने का प्रयत्न कर रहा हूं. पता चलते ही आप को सूचित करूंगा.’’

खापी कर सत्यम, सत्या और शुभम सो गए. जब नींद खुली तो पौ फट रही थी. शुभम केवल यही कामना कर रहा था कि गहनों का झमेला सुलझ जाए ताकि वह समय पर परीक्षा भवन तक पहुंचने में सफल हो सके अन्यथा न जाने क्या होगा.

9 बजते ही पड़ोसी जमा होने लगे थे. सलाह करने के बाद सब चक्की की ओर चल पड़े. चक्की अब भी बंद थी. सभी चक्की की उलट दिशा में फुटपाथ पर खडे़ हो गए और उन्होंने शुभम को चक्की के सामने बनी सीढि़यों पर जा बैठने का आदेश दिया.

थोड़ी ही देर में चक्की वाला आ पहुंचा था.

‘‘क्या हुआ? बडे़ सवेरे आ गए. घर में आटा नहीं था क्या?’’ उस ने आते ही शुभम से पूछा था.

‘‘मुझे परीक्षा देने के लिए जाना था. मां ने कहा आटा ले आओ. इसीलिए जल्दी आना पड़ा.’’

‘‘बस, यही बात थी क्या?’’

‘‘नहीं, सच तो यह है कि मां ने 40 तोले गहनों की पोटली गेहूं में छिपा कर रखी थी. मुझे पता नहीं था. गलती से मैं पोटली सहित कनस्तर का गेहूं आप की चक्की पर रख गया था.’’

‘‘कौनकौन से गहने थे?’’ चक्की वाले ने प्रश्न किया.

‘‘वह तो मुझे पता नहीं.’’

‘‘तो बेटे, फिर अपनी मां के साथ आना चाहिए था न?’’

दोनों के बीच बातचीत होते देख कर मुकेश बाबू और पड़ोसी खुद को रोक नहीं सके और सड़क पार कर चक्की के सामने आ खडे़ हुए थे.

‘‘पोटली मेरे पास है. उसे खोल कर देखते ही मेरे तो होश उड़ गए थे. गरीब आदमी हूं. दूसरे की अमानत की रक्षा कर पाऊंगा या नहीं, इसी तनाव में पूरी रात कटी. जाओ, अपनी मां को बुला लाओ. वह अपने गहने सहेज लें तो मैं चैन की सांस ले सकूं,’’ चक्की वाला बोला था.

उस की यह बात सुन कर मुकेश बाबू तथा अन्य सभी हक्केबक्के रह गए थे. वे सब तो सीधी उंगली से घी न निकलने की स्थिति में उंगली टेढ़ी करने का मन बना कर आए थे पर यहां तो मामला ही दूसरा था. कैसा मूर्ख व्यक्ति था, घर आई लक्ष्मी लौटा रहा था.

शीघ्र ही शुभम अपनी मां मीता को ले कर आ गया. उन्होंने पोटली में बंधे गहने पहचान कर ले लिए थे. बहुत जोश में वहां पहुंचे लोग उस की ईमानदारी का प्रतिदान देने की युक्ति सोच रहे थे. मुकेश बाबू ने थानापुलिस से निबटने के लिए जेब में जो 5 हजार रुपए रखे थे वह उस के सामने रख दिए.

‘‘यह क्या है, बाबूजी?’’ चक्की वाले ने प्रश्न किया था.

‘‘मैं बहुत साधारण व्यक्ति हूं. तुम्हारे उपकार का प्रतिदान तो नहीं चुका सकता पर यह छोटी सी तुच्छ भेंट स्वीकार करो,’’ मुकेश बाबू का स्वर भर्रा गया था.

‘‘आप लोगों के चेहरों पर आए राहत और संतोष के भाव देख कर मुझे सबकुछ मिल गया. आप की अमानत आप को लौटा कर कोई उपकार नहीं किया है मैं ने.’’

लाख कहने पर भी चक्की वाले ने कुछ भी लेना स्वीकार नहीं किया था. मुकेश बाबू और अन्य पड़ोसियों को अचानक उस का कद बहुत ऊंचा लग रहा था और अपना बहुत बौना, जिस के बारे में बिना कुछ जाने वे कल से अनापशनाप आरोप लगाते रहे थे. उसे किसी प्रकार कुछ दे कर वे शायद अपने अपराधबोध को कम करना चाह रहे थे. पर ईमानदारी और बेईमानी के दो पाटों के बीच का असमंजस बड़ा विचित्र था जो गहने मिलने पर भी उन्हें आनंदित नहीं होने दे रहा था. Hindi Family Story

Story In Hindi: नारद मुनि और नेताजी

Story In Hindi: नेताजी जब से केंद्र में मंत्री बने हैं, मदमस्त हो चले हैं. कहीं लाठियां चलवा रहे हैं, तो कहीं गोलियां. आम आदमी उन की नजर में चींटी, मच्छर सी बखत रखता है. जब देश में त्राहित्राहि मची तो देवलोक कंपायमान होने लगा. त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश के आसन नेताजी के अन्याय, शोषण, अत्याचार के ताप में हिलनेडोलने लगे. त्रिदेव की भृकुटि तनी.

अंततः तीनों ने आर्यवर्त के कल्याण के लिए रपट मंगाने देवश्री नारद मुनि का स्मरण किया. तत्क्षण ‘नारायण… नारायण’ कहते हुए मुनिवर नारद प्रगट हुए. हाथों में वीणा थी. ब्रह्मदेव ने कहा, ‘सुपुत्र, आ गए.’

नारद मुनि ने त्रिदेव को प्रणाम किया और कहा, ‘भगवन, आप के आसन डोल रहे हैं. यह स्थिति आ गई है. ओफ… अब तीनों लोकों के स्वामी भी सुरक्षित नहीं, तो भला इस सृष्टि का कौन मालिक होगा?’

ब्रह्मदेव के चेहरे पर नाराजगी उभर आई, ‘पुत्र, मर्यादा भंग न करो.’

‘नारायण… नारायण… क्षमा, प्रभु…’ नारद मुनि मुसकराए.

‘तुम्हारी मुसकराहट जहर की मानिंद जान पड़ती है. पर, आज तुम्हें एक काम करना है,’ ब्रह्मदेव ने शांत भाव से कहा, ‘वत्स, पृथ्वीलोक में एक नेता के दुष्कर्म के फलस्वरूप हमारे आसन डोलने लगे हैं. तुम्हें आज ही वहां जाना है.’

‘नारायण, नारायण…’ नारद मुनि ने हाथ जोड़ कर त्रिदेव को नमन कर गंतव्य को प्रस्थान किया. नेताजी  शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों को घंटाघर के पास पिटवा रहे थे, पुलिस गोलियां चला रही थी. इस दौरान देवश्री नारद प्रकट हुए. देखा, लोगों के चेहरे पर गुस्सा है, पुलिस लाठियों से ऐसे पीट रही है मानो धोबी अपने गधे को पीट रहा हो.

नेताजी कलक्ट्रेट पुलिस अधीक्षक सहित अपने समर्थकों के साथ एक पेड़ की छांव में बैठे ठहाके लगा रहे हैं, तभी नारदमुनि नेताजी के समक्ष अवतरित हुए और चिरपरिचित शैली में ‘नारायणनारायण’ उन के श्रीमुख से नि:स्तृत हुआ. नारदमुनि को देखते ही नेताजी चौंके. देवश्री ने कहा, ‘नेताजी, मैं नारदमुनि.’

नेताजी उठ खड़े हुए, ‘मुनिवर, मेरा अहोभाग्य.’

नारदमुनि हाथ मटकाते हुए बोले, ‘अहोभाग्य कहो या दुर्भाग्य, हमें तुम्हारे कामकाज की समीक्षा के लिए ब्रह्म, शिव और विष्णु द्वारा भेजा गया है.

नेताजी गंभीर हो कर बोले, ‘मुनिवर, हालांकि यह चिंता की बात है. मगर, कोई बात नहीं. हम ने जब यहां कई जांच आयोग और गुप्तचर एजेंसियों की जांच का सामना करने में सफलता पाई है, तो फिर आप की जांच का भी सामना करेंगे.’

नारदमुनि कहने लगे, ‘नारायणनारायण इतना कौन्फिडेंस…? तुम्हें पता है, तुम्हारी प्राणीमात्र को सतानेकुचलने की नीति के कारण देवलोक भी कंपायमान हो चला है.’

नेताजी सोचते हुए बोले, ‘अच्छा, अर्थात जैसेजैसे हम अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे हैं, देवलोक की भी हमारी ताकत के आगे चूलें हिलने लगी हैं मुनिवर. यह आप ने बड़ी अच्छी खबर दी.’

नारदमुनि बोले, ‘नारायणनारायण नेताजी, तुम बड़े अजीब प्राणी हो. हर चीज में अपना फायदा ढूंढ़ने लगते हो. देवलोक डोल रहा है तुम्हारे अत्याचार से और तुम…’

नेताजी कहने लगे, ‘मुनिवर, आप का देवलोक बड़ा सेंसेटिव है. न तो आप लोगों को किसी का वोट चाहिए, ना ही समर्थन, फिर भी कुरसी हिलने लगी है. देवश्री, यहां तो हम लोग 5 साल के लिए जनता के वोट पर कुरसी, पद, प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं. तब भी बेफिक्र रहते हैं.

‘ऐसे में हम आप लोगों से ज्यादा प्रतिभावान हैं. हमें पता है कि कब, कहां और कैसे जनता को रिमोट करना है.’

नारदमुनि बोले, ‘नारायणनारायण, तुम हमें सिखाओगे…? हम्म…? तुम्हारी नब्ज हमारे हाथ में है, यह भूल गए?’

नेताजी बोले, ‘नहींनहीं मुनिवर, ऐसा कैसे हो सकता है? मैं अच्छी तरह जानता हूं कि आप मेरी कौन्फिडेंस रिपोर्ट तैयार कर त्रिदेव के समक्ष पेश करेंगे.’

नारदमुनि कहने लगे, ‘वाह, वाह, तुम तो वाकई इंटेलिजेंट नेता हो.’

नेताजी बोले, ‘मुनिवर, मैं यह भी जानता हूं कि आप रिपोर्ट पक्की बनाएंगे. अगर इंद्रदेव आते तो कुछ मेनका, रंभा से उन का मन बहला कर रिपोर्ट चेंज की जा सकती थी, मगर आप तो…’

नारदमुनि बोले, ‘बिलकुल रिपोर्ट सौ फीसदी सच्ची बनेगी.’

नेताजी बोले, ‘नारायणनारायण, तो बनाओ. ले लो बयान. एकएक आंदोलनकारी से.’

नारद मुनि के समक्ष एकएक सत्याग्रही आता गया. बयान दर्ज होते गए. नेताजी मुसकराते रहे. जिलाधीश, पुलिस कप्तान आपस में ठिठोली करते रहे. अधीनस्थ कर्मचारी से सुश्रुवा में लगे रहे. अंततः  नारदमुनि की रिपोर्ट पूरी हुई.

मुनिवर देवलोक को प्रस्थान करने की सोचने लगे. नेताजी ने हाथ जोड़ कर उन की ओर देखा. नारदमुनि की आंखें झुक गईं. रिपोर्ट में सब ठीकठाक है, फिर देवलोक कंपायमान क्यों है, समझ नहीं आता.

यह सुन उपस्थित शासनप्रशासन ‘हो… हो’ कर हंस रहा था. Story In Hindi

Hindi Story: ठोकर – आखिर सरला ने गौरिका के विश्वास को क्यों तोड़ दिया?

Hindi Story: विश्वास आईने की तरह होता है. हलकी सी दरार पड़ जाए तो उसे जोड़ा नहीं जा सकता. ऐसा ही विश्वास किया था गौरिका ने सरला पर. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस पर वह अपनों से ज्यादा भरोसा करने लगी है वह उस के विश्वास को इस तरह चकनाचूर कर देगी.

गौरिका ने आंखें खोलीं तो सिर दर्द से फटा जा रहा था. एक क्षण के लिए तो सबकुछ धुंधला सा लगा, मानो कोई डरावना सपना देख रही हो. उस ने कराहते हुए इधरउधर देखने की कोशिश की थी.

‘सरला, ओ सरला,’ उस ने बेहद कमजोर स्वर में अपनी सेविका को पुकारा. लेकिन उस की पुकार छत और दरवाजों से टकरा कर लौट आई.

‘कहां मर गई?’ कहते हुए गौरिका ने सारी शक्ति जुटा कर उठने का यत्न किया. तभी खून में लथपथ अपने हाथ को देख कर उसे झटका सा लगा और वह सिरदर्द भूल कर ‘खूनखून…’ चिल्लाती हुई दरवाजे की ओर भागी थी.

गौरिका की चीख सुन कर पड़ोस के दरवाजे खुलने लगे और पड़ोसिनें निशा और शिखा दौड़ी आई थीं.

‘क्या हुआ, गौरिका?’ दोनों ने समवेत स्वर में पूछा. खून में लथपथ गौरिका को देखते ही उन के रोंगटे खड़े हो गए थे. गौरिका अधिक देर खड़ी न रह सकी. वह दरवाजे के पास ही बेसुध हो कर गिर पड़ी.

तब तक वहां अच्छीखासी भीड़ जमा हो गई थी. निशा और शिखा बड़ी कठिनाई से गौरिका को उठा कर अंदर ले गईं. वहां का दृश्य देख कर वे भय से कांप उठीं. दीवान पूरी तरह खून से लथपथ था.

गौरिका के सिर पर गहरा घाव था. किसी भारी वस्तु से उस के सिर पर प्रहार किया गया था. शिखा ने भी सरला को पुकारा था पर कोई जवाब न पा कर वह स्वयं ही रसोईघर से थोड़ा जल ले आई थी और उसे होश में लाने का यत्न करने लगी थी.

निशा ने तुरंत गौरिका के पति कौशल को फोन कर सूचित किया था. अन्य पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दे दी थी. सभी इस घटना पर आश्चर्य जाहिर कर रहे थे. बड़े से पांचमंजिला भवन में 30 से अधिक फ्लैट थे. मुख्यद्वार पर 2 चौकीदार दिनरात उस अपार्टमेंट की रखवाली करते थे. नीचे ही उन के रहने का प्रबंध भी था.

इस साईं रेजिडेंसी के ज्यादातर निवासी वहां लंबे समय से रह रहे थे और भवन को पूरी तरह सुरक्षित समझते थे. अत: इस प्रकार की घटना से सभी का भयभीत होना स्वाभाविक ही था.

आननफानन में कौशल आ गया. उस का आफिस अधिक दूर नहीं था. पर आज आफिस से फ्लैट तक पहुंचने का 15 मिनट का समय उसे एक युग से भी लंबा प्रतीत हुआ था. अपने घर का दृश्य देखते ही कौशल के हाथों के तोते उड़ गए. घर का सामान बुरी तरह बिखरा हुआ था. लोहे की अलमारी का सेफ खुला पड़ा था और सामान गायब था.

‘सरला…सरला,’ कौशल ने भी घर में घुसते ही उसे पुकारा था पर उसे न पा कर एक झटका सा लगा उस भरोसे को जो उन्होंने सरला को ले कर बना रखा था.

सरला को गौरिका और कौशल ने सेविका समझा ही नहीं था. वह घर का काम करने के साथ ही गौरिका की सहेली भी बन बैठी थी. कौशल का पूरा दिन तो दफ्तर में बीतता था. घर लौटने में रात के 9-10 भी बज जाते थे.

कौशल एक साफ्टवेयर कंपनी में ऊंचे पद पर था. वैसे भी काम में जुटे होने पर उसे समय का होश कहां रहता था.

गौरिका से कौशल का विवाह हुए मात्र 10 माह हुए थे. गौरिका एक संपन्न परिवार की 2 बेटियों में सब से छोटी थी. पिता बड़े व्यापारी थे, अत: जीवन सुख- सुविधाओं में बीता था. मातापिता ने भी गौरिका और उस की बहन चारुल पर जी भर कर प्यार लुटाया था. ‘अभाव’ किस चिडि़या का नाम है यह तो उन्होंने जाना ही नहीं था.

कौशल का परिवार अधिक संपन्न नहीं था पर उस के पिता ने बच्चों की शिक्षा में कोई कोरकसर नहीं उठा रखी थी. विवाह में गौरिका के परिवार द्वारा किए गए खर्च को देख कर कौशल हैरान रह गया था. 4-5 दिनों तक विवाह का उत्सव चला था. 3 अलगअलग स्थानों पर रस्में निभाई गई थीं. उस शानो- शौकत को देख कर मित्र व संबंधी दंग रह गए थे. पर सब से अधिक प्रभावित हुआ था कौशल. उस ने अपने परिवार में धन का अपव्यय कभी नहीं देखा था. जहां जितना आवश्यक हो उतना ही व्यय किया जाता था, वह भी मोलतोल के बाद.

सुंदर, चुस्तदुरुस्त गौरिका गजब की मिलनसार थी. 10 माह में ही उस ने इतने मित्र बना लिए थे जितने कौशल पिछले 5 सालों में नहीं बना सका था.

अब दिनरात मित्रों का आनाजाना लगा रहता. मातापिता ने उपहार में गौरिका को घरेलू साजोसामान के साथ एक बड़ी सी कार भी दी थी. कौशल कार्यालय आनेजाने के लिए अपनी पुरानी कार का ही इस्तेमाल करता था. गौरिका अपनी मित्रमंडली के साथ घूमनेफिरने के लिए अपनी नई कार का प्रयोग करती थी.

मायके में कभी तिनका उठा कर इधरउधर न करने वाली गौरिका ने मित्रों के स्वागतसत्कार के लिए इस फ्लैट में आते ही 3 सेविकाओं का प्रबंध किया था. घर की सफाई और बरतन मांजने वाली अधेड़ उम्र की दमयंती साईं रेजिडेंसी से कुछ दूरी पर झोंपड़ी में रहती थी. कपड़े धोने और प्रेस करने वाली सईदा सड़क पार बने नए उपनगर में रहती थी.

सरला को गौरिका ने रहने के लिए निचली मंजिल पर कमरा दे रखा था. वह भोजन बनाने, मित्रों का स्वागतसत्कार करने के साथ ही उस के साथ खरीदारी करने, सिनेमा देखने जाती थी. 4-5 माह में ही सरला कुछ इस तरह गौरिका की विश्वासपात्र बन बैठी थी कि उस के गहने संभालने, दूध, समाचारपत्र आदि का हिसाबकिताब करने जैसे काम भी वह करने लगी थी.

कुछ दिनों के लिए कौशल के मातापिता बेटे की गृहस्थी को करीब से देखने की आकांक्षा लिए आए थे और नौकरों का एकछत्र साम्राज्य देख कर दंग रह गए थे. उस की मां ने दबी जबान में कौशल को समझाया भी था, ‘बेटा, 2 लोगों के लिए 3 सेवक? तुम्हारी पत्नी तो तुम्हारा सारा वेतन इसी तरह उड़ा देगी. अभी से बचत करने की सोचो, नहीं तो बाद में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा.’

‘मां, गौरिका हम जैसे मध्यम परिवार से नहीं है. उस के यहां तो नौकरों की फौज रखना साधारण सी बात है. हम उस से यह आशा तो नहीं कर सकते कि वह बरतन मांजने और घर की सफाई करने जैसे कार्य भी अपने हाथों से करेगी,’ कौशल ने उत्तर दिया था.

‘कपड़े धोने के लिए मशीन है, बेटे,’ मां बोलीं, ‘साफसफाई के लिए आने वाली दमयंती भी ठीक है, पर दिन भर घर में रहने वाली सरला मुझे फूटी आंखों नहीं भाती. कपडे़, गहने, रुपएपैसे आदि की जानकारी उसे भी है. किसी तीसरे को इस तरह अपने घर के भेद देना ठीक नहीं है. उस की आंखें मैं ने देखी हैं… घूर कर देखती है सबकुछ. काम रसोईघर में करती है, पर उस की नजरें पूरे घर पर रहती हैं. मुझे तो तुम्हारी और गौरिका की सुरक्षा को ले कर चिंता होने लगी है.’

‘मां, यह चिंता करनी छोड़ो. चलो, कहीं घूमने चलते हैं. सरला 6 माह से यहां काम कर रही है पर कभी एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ. गौरिका को तो उस पर अपनों से भी अधिक विश्वास है,’ कौशल ने बोझिल हो आए वातावरण को हलका करने का प्रयत्न किया था.

‘रहने भी दो, अब बच्चे बड़े हो गए हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. हम 2-4 दिनों के लिए घूमने आए हैं. तुम क्यों व्यर्थ ही अपना मन खराब करती हो,’ कौशल के पिताजी ने बात का रुख मोड़ने का प्रयत्न किया था.

‘क्या हुआ? सब ऐसे गुमसुम क्यों बैठे हैं,’ तभी गौरिका वहां आ गई थी.

‘कुछ नहीं, मां को कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं,’ कौशल हंसा था.

‘बातें बाद में होती रहेंगी, हम लोग तो पिकनिक पर जाने वाले थे, चलिए न, देर हो जाएगी,’ गौरिका ने कुछ ऐसे स्वर में अनुनय की थी कि सब हंस पड़े थे.

सरला ने चटपट भोजन तैयार कर दिया था. थर्मस में चाय भर दी थी. पर जब गौरिका ने सरला से भी साथ चलने को कहा तो कौशल ने मना कर दिया था.

‘मांपापा को अच्छा नहीं लगेगा, उन्हें परिवार के सदस्यों के बीच गैरों की उपस्थिति रास नहीं आती,’ कौशल ने समझाया था.

‘मैं ने सोचा था कि वहां कुछ काम करना होगा तो सरला कर देगी.’

‘ऐसा क्या काम पड़ेगा. फिर मैं हूं ना, सब संभाल लूंगा,’ सच तो यह था कि खुद कौशल को भी परिवार में सरला की उपस्थिति हर समय खटकती थी पर कुछ कह कर गौरिका को आहत नहीं करना चाहता था.

कौशल के मातापिता कुछ दिन रह कर चले गए थे पर कौशल की रेनू बूआ, जो उसी शहर के एक कालिज में व्याख्याता थीं, दशहरे की छुट्टियों में अचानक आ धमकी थीं. चूंकि  कौशल घर में सब से छोटा था इसकारण वह बूआ का विशेष लाड़ला था.

गौरिका से बूआ की खूब पटती थी. पर सरला को कर्ताधर्ता बनी देख वह एक दिन चाय पीते ही बोल पड़ी थीं, ‘गौरिका, नौकरों से इतना घुलनामिलना ठीक नहीं है. तुम्हें शायद यह पता नहीं है कि तुम अपनी सुरक्षा को किस तरह खतरे में डाल रही हो. आजकल का समय बड़ा ही कठिन है. हम किसी पर विश्वास कर ही नहीं सकते.’

‘मैं जानती हूं बूआजी, इसीलिए तो मैं ने किसी पुरुष को काम पर नहीं रखा. मैं अपनी कार के लिए एक चालक रखना चाहती थी. अधिक भीड़भाड़ में कार चलाने से बड़ी थकान हो जाती है. पर देखिए, हम दोनों स्वयं ही अपनी कार चलाते हैं.’

रेनू बूआ चुप रह गई थीं. वह शायद बताना चाहती थीं कि पुरुष हो या स्त्री कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है. फिर भी उन्होंने गौरिका से यह आश्वासन जरूर ले लिया कि भविष्य में वह रुपएपैसे, गहनों से सरला को दूर ही रखेगी.

गौरिका ने रेनू बूआ का मन रखने के लिए उन्हें आश्वस्त कर दिया पर उसे सरला पर अविश्वास करने का कारण समझ में नहीं आता था. उस के अधिकतर पड़ोसी एक झाड़ ूबरतन वाली से काम चलाते थे लेकिन वह सोचती थी कि उस का स्तर उन सब से ऊंचा है.

कौशल ने सब से पहले गौरिका को पास के नर्सिंग होम में भरती कराया था. सिर पर घाव होने के कारण वहां टांके लगाए गए थे. निशा और शिखा ने गौरिका के पास रहने का आश्वासन दिया तो कौशल घर आ गया और आते ही उस ने अपने और गौरिका के मातापिता को सूचित कर दिया. कौशल ने रेनू बूआ को भी सूचित कर दिया. बूआ नजदीक थीं और वह अच्छी तरह से जानता था कि उस पर आई इस आफत को सुनते ही बूआ दौड़ी चली आएंगी.

प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखा कर कौशल दोबारा नर्सिंग होम चला गया था. सिर में टांके लगाने के लिए गौरिका के एक ओर के बाल साफ कर दिए गए थे. हाथ में पट्टी बंधी थी, पर वह पहले से ठीक लग रही थी.

‘कौशल, मेरे कपड़े बदलवा दो. सरला से कहना अलमारी से धुले कपडे़ निकाल देगी,’ गौरिका थके स्वर में बोली थी.

‘नाम मत लेना उस नमकहराम का. कहीं पता नहीं उस का. तुम्हें अब भी यह समझ में नहीं आया कि तुम्हारी यह दशा सरला ने ही की है,’ कौशल क्रोधित हो उठा था.

‘क्या कह रहे हो? सरला ऐसा नहीं कर सकती.’

‘याद करने की कोशिश करो, हुआ क्या था तुम्हारे साथ? पुलिस तुम्हारा बयान लेने आने वाली है.’

गौरिका ने आंखें मूंद ली थीं. देर तक आंसू बहते रहे थे. फिर वह अचानक उठ बैठी थी.

‘मुझे कुछ याद आ रहा है. मैं आज सरला के साथ बैंक गई थी. 50 हजार रुपए निकलवाए थे. घर आ कर सरला खाना बनाने लगी थी. मैं ने उस से एक प्याली चाय बनाने के लिए कहा था. चाय पीने के बाद क्या हुआ मुझे कुछ पता नहीं,’ गौरिका सुबकने लगी थी, ‘2 दिन बाद तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हें उपहार देना चाहती थी.’

तभी रेनू बूआ आ पहुंची थीं. उन के गले लग कर गौरिका फूटफूट कर रोई थी.

‘देखो बूआजी, क्या हो गया? मैं ने सरला पर अपनों से भी अधिक विश्वास किया. सभी सुखसुविधाएं दीं. उस ने मुझे उस का यह प्रतिदान दिया है,’ गौरिका बिलख रही थी.

रेनू बूआ चुप रह गई थीं. वह जानती थीं कि कभीकभी मौन शब्दों से भी अधिक मुखर हो उठता है. वह यह भी जानती थीं कि बहुत कम लोग दूसरों को ठोकर खाते देख कर संभलते हैं, अधिकतर को तो खुद ठोकर खा कर ही अक्ल आती है.

सरला 50 हजार रुपए के साथ ही घर में रखे गौरिका के गहनेकपड़े भी ले गई थी. लगभग 5 माह बाद वह अपने 2 साथियों के साथ पकड़ी गई थी और तभी गौरिका को पता चला कि वह पहले भी ऐसे अपराधों के लिए सजा काट चुकी थी. सुन कर गौरिका की रूह कांप गई थी. कौशल, मांबाप तथा घर के अन्य सभी सदस्यों ने उसे समझाया था कि भाग्यशाली हो जो तुम्हारी जान बच गई. नहीं तो ऐसे अपराधियों का क्या भरोसा.

इस घटना को 5 वर्ष बीत चुके हैं. फैशन डिजाइनर गौरिका का अपना बुटीक है. पर पति, 3 वर्षीय बंटी और बुटीक सबकुछ गौरिका स्वयं संभालती है. दमयंती अब भी उस का हाथ बंटाती है पर सब पर अविश्वास करना और अपना कार्य स्वयं करना सीख लिया है गौरिका ने. Hindi Story

Hindi Story: प्रतिबिंब – क्यो छोड़ा सायरा ने अपना शहर

Hindi Story: हुआ यों कि एक बार मैं एक ढाबे में काम कर रहा था कि अचानक एक औरत मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई. मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम हो कौन?’’

उस ने जवाब दिया, ‘‘मैं बाहर की रहने वाली हूं? और इस शहर में रहने के लिए आई हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह जगह अच्छी नहीं है. तुम जहां से आई हो, वहीं चली जाओ. हम अच्छे आदमी नहीं हैं. तुम यहां रह कर बरबाद हो जाओगी.’’

‘‘जी नहीं, मैं एक भटकी हुई औरत हूं. क्या तुम मुझे पनाह दे सकते हो?’’

‘‘हां, दे सकता हूं. तुम रात यहीं रुक जाओ,’’ मैंने कुछ सोचते हुए जवाब दिया.

रात के 9 बज रहे थे. मैं बरतन साफ कर रहा था. उस ने भोजन मांगा. मैं ने भोजन दिया. उस ने खा कर अपना मुंह साफ किया.

मैंने उस के बारे में जानना चाहा. उस ने बताया, ‘‘मेरा नाम सायना है.’’

मैं उसे ध्यान से देख रहा था. वह बड़ी खूबसूरत और जवान लग रही थी. उस ने मुझसे पूछा, ‘‘क्या तुम मुझसे शादी करोगे?’’

मैंने हां में अपना सिर हिलाया. कुछ समय और बीत गया. रात के साढ़े 10 बज रहे थे. ढाबे पर मौजूद लोग अपने घर चले गए. मैंने अपना बिस्तर संभाला. वह मेरे पास आ कर बैठ गई.

वह दूधिया रंग की गोरीचिट्टी थी. मैं भी एकाकी जिंदगी जीतेजीते तंग आ गया था, इसलिए मुझे औरत की जरूरत सता रही थी.

ढाबे का शटर बंद हो चुका था. इक्कादुक्का वाहन ही सड़क पर गुजर रहे थे. मैंने उसे पास खींचा. उसने कोई विरोध नहीं जताया, बल्कि वह खुद मुझ से लिपट गई.

इतनी जल्दी ही सबकुछ हो जाएगा, यह सोचा तक नहीं था. मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया. रात के ठीक 12 बज रहे थे. सबकुछ होने के बाद मैं उससे अलग हुआ और अपने बिस्तर पर आ गया. वह अपने कपड़े पहन रही थी.

वह मुझे देख कर मुसकरा रही थी. मुझे जिंदगी में पहली बार औरत के सुख का अहसास हुआ.

दूसरे दिन मैंने उसे चायनाश्ता कराया और किराए का मकान तलाश करने चल पड़ा, लेकिन कहीं पर भी किराए का मकान नहीं मिल सका. शाम के 6 बज रहे थे. मैं किसी फैक्टरी के पास से निकल रहा था कि अचानक एक आदमी ने आवाज दी, ‘‘भाई, क्या तुम मेरे यहां चौकीदारी करोगे?’’

मैं तैयार हो गया और रात की चौकीदारी के लिए वहीं रुक गया. रातभर चौकीदारी करता रहा. उस की याद आती रही और अगले दिन सुबह मैं वहां से चला आया.

सुबह जब मैं ढाबे पर पहुंचा, तब क्या देखता हूं कि वह मुंह फुलाए बैठी है और मुझसे शिकायत करने लगी, ‘‘ऐ जनाब, तुम कहां गायब हो गए थे. नहीं करनी शादी तो वैसे ही चलने दें.’’

‘‘देखो, मैं तुम्हारे लिए मकान तलाश करने गया था, लेकिन मकान नहीं मिल सका. मुझे अफसोस है.’’

वह मेरी बात मानने को तैयार नहीं हुई और मुझे भलाबुरा कहने लगी. मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गया. घंटेभर बाद वह खुद मेरे पास आ गई और कहने लगी, ‘‘मकान और मिल जाएगा, लेकिन तुम मुझे इस तरह छोड़ कर मत जाया करो. जमाना बड़ा खराब है.’’

‘‘ठीक है, अब आगे से ऐसा नहीं होगा.’’

1-2 दिन बड़े आराम से कटे. वह सैक्स में मेरा सहयोग देने लगी.

मैं रात को ढाबा छोड़ कर चौकीदारी के लिए निकल जाता था. एक दिन वह मेरा हाथ पकड़ कर कहने लगी कि आज रात को आओगे न? मैं जल्दी लौटने का वादा कर के निकल गया. फिर रात को आ कर उस के पास सो गया.

एक दिन ऐसा हुआ कि मैं ढाबे पर काम कर रहा था, अचानक हरीश नाम के एक आदमी ने मुझसे कहा, ‘‘अरे सुशील, वह औरत बेहोश हो कर गिर गई है.’’

मैं हक्काबक्का रह गया और काम छोड़ कर भागा, जहां वह बेहोश पड़ी थी.

मैंने उसे उठाया और बोला, ‘‘क्या सायना, तुम बेहोश हो कर क्यों गिर पड़ी हो?’’

‘‘जी, मुझे चक्कर आ गए थे. कभीकभी मुझे मिरगी के दौरे आते रहते हैं. क्या तुम मेरा इलाज कराओगे?’’

मैंने हां में अपना सिर हिलाया और आटोरिकशा किया. उस में बैठ कर हम अस्पताल गए. ठीक 11 बजे हम वहां पहुंचे. डाक्टर से मिले और सारी जानकारी दी.

डाक्टर ने कहा, ‘‘भाई, मिरगी की बीमारी का कोई इलाज नहीं है. किसी दूसरे अस्पताल चले जाओ…’’ वहां भी मामला नहीं जमा. निराश हो कर वापस आ गए.

एक बार मैं बैठाबैठा चायनाश्ता कर रहा था. एक आदमी मेरे पास आया और बोला, ‘‘अरे, सुशील.’’

मैं ने कहा, ‘‘क्या है?’’

‘‘इस औरत को तुम छोड़ दो.’’

‘‘अरे भाई, मैं इस औरत को कैसे छोड़ दूं,’’ मैंने एतराज जताया. वह बोलने लगा, ‘‘मैं इस के साथ घर बसाना चाहता हूं.’’

यह सुन कर मुझे हैरानी हुई, फिर सोचा, ‘इस को घर मिल जाएगा और घर भी बस जाएगा.’

पर, मैं यह नहीं जानता था कि किसी साजिश का शिकार हो रहा हूं. मैंने उसे सोते से उठाया और टैक्सी में वह अपने साथ ले गया. खैर, मैंने समझा कि कोई मुसीबत मुझसे छूट गई है.

पर, मेरा दिनभर काम में मन नहीं लगा, फिर भी मन मार कर काम करता रहा.

रात के 10 बज रहे थे. मैं बिस्तर पर चला गया, लेकिन नींद नहीं आ रही थी. रातभर बेचैनी रही. सुबह उठ कर नहाया और ढाबे पर चला आया. लापरवाही के चलते फैक्टरी की चौकीदारी छूट चुकी थी.

सुबह के 10 बज रहे थे कि सायना रोतीबिलखती आई. मैंने पूछा, ‘‘तुम रो क्यों रही हो?’’

‘‘तुम भी किसी के साथ भेज देते हो. उसने और 2 आदमियों ने मिल कर मेरे साथ बलात्कार किया और सुबह गाड़ी में बैठा दिया.’’

मैंने अपना सिर धुन लिया और बोला, ‘‘वह तो बोल रहा था कि घर बसाना चाहता है.’’

‘‘क्या घर बसाएगा, उस के पास तो रहने के लिए किराए का कमरा भी नहीं है. उसे मैं जान से मार डालूंगी.’’

‘‘खैर, तुम वापस आ गई हो, बाद में देख लेंगे.’’

हमारा दिनभर आपस में मनमुटाव रहा. वह खाना खा कर सो गई. मुझे थोड़ा संतोष मिला. फिर उसे अपने दोस्त की लकड़ी की टाल पर छोड़ कर मैं काम पर वापस आ गया. दिनभर काम करता और सोचता रहा कि इसको वापस उसी शहर में भेज दूं, जहां से वह आई है.

इसी उधेड़बुन से शाम हो गई. वह वापस ढाबे पर आई.

मैं बोला, ‘‘सायना, तुम जहां से आई हो, वहीं वापस चली जाओ. यहां के लोग ऐसे ही हैं.’’

‘‘जी नहीं, मुझे वापस मत भेजिए. मैं तुम्हारे साथ ही रह लूंगी, रूखासूखा खा कर.’’

आखिरकार हार कर मैं ने हालात से समझौता कर लिया. 2-4 दिन अच्छे से निकले. एक बार फिर हम को किराए का मकान मिल गया. हम खुशीखुशी वहां रहने के लिए चले गए, लेकिन यह मेरा भरम निकला. एक दिन तो हमने उस मकान में गुजारा, पर दूसरे दिन वह गायब हो गई.

मैं दिनभर उसे तलाशता रहा, लेकिन वह नजर नहीं आई. दूसरे दिन जब मैं ढाबे पर काम कर रहा था कि अचानक वह मेरे सामने आ गई.

मैं ने पूछा, ‘‘कहां थी तुम रातभर.’’

‘‘मैं एक आदमी के साथ थी. वह आदमी तुमसे बात करेगा. मैं उस के साथ रहने के लिए तैयार हूं.’’

मैंने अपना सिर पीट लिया. फिर भी अपनेआप को संभाला और बोला, ‘‘ठीक है, तुम उसके साथ चली जाओ अपना सामान लेकर, फिर मेरे पास कभी मत आना.’’

मैं और वह दिनभर उस आदमी का इंतजार करते रहे, लेकिन वह नहीं आया.

मेरे अंदर कटु भावना आ गई थी. मैंने उस से बात करना बंद कर दिया. लेकिन फिर अंदर एक दया भाव आ गया था कि बेचारी जाएगी कहां?

उस के पास जा कर मैंने प्यार का इजहार किया. वह राजी हो गई. फिर हमारे दिन अच्छे से गुजरने लगे.

एक बार वह रात को उठ कर रोने लगी. मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ सायना, तुम रो क्यों रही हो?’’

‘‘जी, मुझे मेरे बच्चे याद आ रहे हैं, जो ससुराल वालों ने छीन लिए हैं,’’ इतना कह कर वह फिर होने लगी.

देखते ही देखते वहां लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई. मैंने उस का हाथ पकड़ा और तुरंत वहां से निकल पड़े. रात को ढाबे पर आ गए और वहीं सो गए.

एक बार सायना फिर गायब हो गई. दिनभर तलाशता रहा, लेकिन नजर नहीं आई. थकहार कर ढाबे पर आ गया और काम करने लगा.

किसी तरह वह रात गुजारी. सुबह हाथमुंह धो कर ढाबे पर काम करने लगा. अचानक वह फिर मेरे सामने आ गई.

‘‘तुम कहां गायब हो गई थी?’’

‘‘मैं एक आदमी के साथ उस के घर गई थी. रातभर उस के साथ थी, फिर मुझे बस में बिठा कर वह चला गया.

तुम अपना सामान ले कर चली जाओ. यहां मत आना.’’

‘‘जी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ उस ने मेरे पैर पकड़ते हुए कहा.

‘‘क्या अगर मैं ऐसी गलती कर देता, तो तुम मुझे माफ कर देती?’’

‘‘जी हां, मैं माफ कर देती,’’ उस ने कहा.

मैंने एक बार फिर कोशिश कर के किराए का मकान ले लिया. हम उस मकान में चले गए. लेकिन यह मेरा भरम था. दूसरे दिन मकान मालिक ने मकान खाली करने को कहा.

मुझे ऐसा लगा कि मेरे ऊपर गाज गिरने वाली है. हुआ यों कि वह मकान मालिक की बीवी से झगड़ा करने लगी. मैंने उसी दिन मकान खाली कर के ढाबे में अपना सामान रख लिया और वहीं पर डेरा जमा लिया.

एक दिन सुबह उसे घूमने के लिए किसी पार्क में ले गया. कुछ देर बाद वह रोने लगी. धीरेधीरे भीड़ इकट्ठा हो गई.

मैंने रोने की वजह पूछी, तो वह बताने लगी, ‘‘मुझे बच्चे याद आ रहे हैं. मैंने उस का हाथ पकड़ा और पार्क से निकल गया. मैंने तय कर लिया कि अब इस को अपने पास नहीं रखूंगा. आखिर थकहार कर ढाबे के मालिक से 500 रुपए लिए और कोटा जाने वाली बस में बिठा दिया. उसने कई बार कहा कि तुम भी मेरे साथ चलो, लेकिन मैंने मना कर दिया.

अचानक कंडक्टर ने सीटी बजा दी. मन मार कर मैं बस से नीचे उतर गया. बस वहां से चली गई. जब तक वह मेरे सामने से ओझल नहीं हुई, तब तक मैं उसे देखता रहा.

निराश हो कर मैं एक चाय के होटल पर आ गया. तब रेडियो में यह गाना बज रहा था, ‘तकदीर का फसाना जा कर किसे सुनाएं, इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं.’ Hindi Story

Hindi Story: ईंट का जवाब पत्थर से – क्या चरित्रहीन ही थी चित्रा?

Hindi Story: चित्रा सोने की चिड़िया थी. मातापिता की एकलौती लाड़ली. उस के पिता लाखों रुपए कमाने वाले एक वकील थे. मां पूजापाठ के लिए मंदिरों के चक्कर लगाती रहती थीं.

चित्रा पर किसी का कंट्रोल नहीं था. उस की मनमानी चलती थी. चित्रा कालेज में बीए के फर्स्ट ईयर में पढ़ रही थी. वह बहुत खूबसूरत थी. उस के एकएक अंग से जवानी फूटती थी. वह अपने जिस्म को ढकने के बजाय दिखाने में ज्यादा यकीन करती थी.

चित्रा का बैग रुपयों से भरा रहता था, इसलिए उस की सहेलियां गुड़ की मक्खी की तरह उस से चिपकी रहती थीं. लड़के उस की जवानी का मजा लेने के लिए पीछे पड़े रहते थे. इसी बात का फायदा उठा कर चित्रा कालेज में ग्रुप लीडर बन गई. इस से वह और भी ज्यादा घमंडी हो गई.

चित्रा के कालेज में सैकंड ईयर में नंदन नाम का एक लड़का पढ़ता था. वह उस इलाके के सांसद का बेटा था. रोजाना नई कार से कालेज आना उस का शौक था. सच तो यह था कि नंदन कालेज नाम के लिए आता था. लड़कियों को अपने इश्क के जाल में फंसा कर उन से मन बहलाना उस का शौक था. वह एक नंबर का जुआरी था. शराब पीना उस का रोजमर्रा का काम था.

एक दिन नंदन की नजर चित्रा पर पड़ी. दरअसल, उस ने कालेज के इलैक्शन में हिस्सा लिया था. चित्रा भी उन्हीं के ग्रुप में शामिल थी. दोनों ने खूब प्रचार किया. नंदन ने पानी की तरह पैसा बहाया और जीत गया.

इसी जीत की खुशी में नंदन ने अपने फार्महाउस में शानदार पार्टी दी थी. चित्रा और उस के दोस्त भी वहां पहुंच गए थे. रातभर शराब पार्टी चली. सब ने खूब मौजमस्ती की. तभी से नंदन और चित्रा ने क्लबों में घूमना शुरू कर दिया. फिर वे दोनों नंदन के फार्महाउस में मिलने लगे और उन्होंने हमबिस्तरी भी की.

इसी तरह एक साल बीत गया. वे दोनों हवस के सागर में गोते लगाते रहे. अचानक ही चित्रा को एहसास हुआ कि पिछले 3 महीने से उसे माहवारी नहीं आई है. वह डाक्टर के पास गई. डाक्टर ने बताया कि वह 3 महीने के पेट से है.

यह सुन कर चित्रा मानो मस्ती के आसमान से नीचे गिर पड़ी. चित्रा ने नंदन से इस बारे में बात की और उस पर शादी करने का दबाव डाला. नंदन लड़कियों के साथ हमबिस्तरी तो करता था, पर चित्रा से शादी करने की उस ने कभी नहीं सोची थी. अपने नेता पिता की तरह वह लड़कियों से प्यार के वादे तो करता था, पर उन्हें निभाता नहीं था.

नंदन चित्रा की बात सुन कर सतर्क हो गया. उस ने चित्रा से मिलनाजुलना बंद कर दिया. जब वह फोन पर उस से बात करना चाहती, तो टाल देता. लेकिन एक दिन चित्रा ने नंदन को पकड़ ही लिया. बहुत दिनों तक बातचीत न होने से नंदन भी थोड़ा नरम पड़ गया था. बातें करतेकरते वे दोनों नंदन के फार्महाउस जा पहुंचे. वह फार्महाउस दोमंजिला था. वे दोनों दूसरी मंजिल पर गए. वहां एक खूबसूरत बैडरूम था. वे दोनों एक सोफे पर जा कर बैठ गए. चित्रा बहुत खूबसूरत लग रही थी. उसे देख कर नंदन की हवस जाग गई. वह बोला, ‘‘डार्लिंग, शुरू हो जाएं क्या?’’ इतना कह कर उस ने चित्रा की कमर पर अपना हाथ रख दिया.

चित्रा ने नंदन के रंगढंग देख कर कहा, ‘‘नंदन, पहले मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं, बाकी काम बाद में,’’ इतना कह कर चित्रा ने नंदन का हाथ अपनी कमर से हटा दिया.

‘‘अच्छा कहो, क्या कहना चाहती हो तुम?’’ नंदन ने पूछा.

‘‘वही बात. शादी के बारे में क्या सोचा है तुम ने? मेरा पेट दिन ब दिन फूल रहा है. घर में पता चल गया, तो पता नहीं मेरा क्या होगा. मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है. ऊपर से तुम भी मुझ से बात नहीं करते हो,’’ कहते हुए चित्रा रोने लगी.

‘‘रोती क्यों हो… मेरे पापा विदेश गए हुए हैं. उन के आते ही हम शादी कर लेंगे,’’ नंदन ने इतना कह कर चित्रा को अपनी बांहों में भरना चाहा.

लेकिन चित्रा छिटक कर दूर हो गई और बोली, ‘‘नंदन, आज मुझे यह सब करने का मन नहीं है. पहले हमारी शादी का फैसला होना चाहिए. हम किसी मंदिर में जा कर शादी कर लेते हैं. हमारे घर चलते हैं. मेरे पापा बुरा नहीं मानेंगे. वे बहुत अमीर हैं. हम शानोशौकत में जीएंगे. हम कोई नया कामधंधा भी शुरू कर लेंगे.’’

‘‘डियर चित्रा, यों चोरीछिपे मंदिर में शादी करना मुझे पसंद नहीं है. हम सब के सामने शान से शादी करेंगे. मेरे पापा इस इलाके के सांसद हैं. हम उन की हैसियत की शादी करेंगे. ‘‘सब से पहले तो तुम यह बच्चा गिरवा लो. इतनी जल्दी बच्चे की क्या जरूरत है. अभी तो हम पढ़ रहे हैं. मैं पूरा इंतजाम करा दूंगा. थोड़े दिनों के बाद हम फिर से मस्ती मारेंगे.’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ यह सुन कर चित्रा ने गुस्से में पूछा.

‘‘मतलब यह है कि अभी से शादी और बच्चे की बातें क्यों? अभी तो हमारे मस्ती के दिन हैं.’’

‘‘नंदन, शादी करने के बाद हम खुलेआम मस्ती करेंगे.’’

‘‘लेकिन, अभी मुझे शादी नहीं करनी है.’’

‘‘क्यों?’’ चित्रा ने जोर दे कर सख्ती से पूछा.

‘‘सच कहूं, तो मेरे पापा ने अपने एक सांसद दोस्त की बेटी से मेरी शादी तय कर रखी है.’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो? इतने दिनों तक मेरे तन के साथ खेल कर अब दूर जाना चाहते हो?’’

‘‘नहीं, हम पहले की तरह प्यार करते रहेंगे, पर शादी नहीं. वैसे भी मैं अकेला कुसूरवार नहीं हूं. तुम भी तो मेरा जिस्म पाना चाहती थी. हम ने एकदूसरे की जरूरत पूरी की. लेकिन अब तुम नहीं चाहती, तो मैं अपने रास्ते और तुम अपने रास्ते,’’ नंदन ने दोटूक कह दिया.

‘‘दिखा दी न अपनी औकात. लेकिन, मैं दूसरी लड़कियों की तरह नहीं हूं. हमारी शादी तो हो कर ही रहेगी, नहीं तो…’’

‘‘नहीं तो क्या… चुपचाप यहां से चली जाओ. तुम्हारी कुछ अश्लील वीडियो क्लिप मेरे पास हैं. मैं उन को मोबाइल फोन पर अपलोड कर के अपने दोस्तों में भेज दूंगा. तुम्हारी इज्जत को सरेआम नीलाम कर दूंगा.’’

‘‘तो यह है तुम्हारा असली चेहरा. लड़कियों को फूलों की तरह मसलना तुम्हारा शौक है. लेकिन अगर तुममेरे पेट में पल रहे बच्चे के बाप नहीं बने, तो मैं तुम्हारी जिंदगी बेहाल कर दूंगी,’’ इतना कह कर चित्रा ने अपने बैग से एक लिफाफा निकाला और नंदन के मुंह पर फेंक दिया.

‘‘यह सब क्या ड्रामा है?’’ नंदन ने बौखलाहट में पूछा.

‘‘खुद देख लो,’’ चित्रा बोली.

नंदन ने लिफाफा खोला, तो उस में से निकल कर कुछ तसवीरें जमीन पर जा गिरीं. उन तसवीरों में नंदन और चित्रा हवस का खेल खेल रहे थे. नंदन गुस्से से भर उठा और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘ये तसवीरें तुम्हारे पास कहां से आईं?’’

‘‘चिल्लाओ मत. अकेले तुम ही शातिर नहीं हो. अगर तुम मेरी बेहूदा वीडियो क्लिप बना सकते हो, तो मैं भी तुम्हारी ऐसी तसवीरें खींच सकती हूं.’’

यह सुन कर नंदन भड़क गया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘बाजारू लड़की, मैं तुम्हारा रेप कर के यहीं बगीचे में जिंदा गाड़ दूंगा,’’ कह कर उस ने चित्रा को पकड़ना चाहा.

चित्रा उस की पकड़ में नहीं आई और गरजी, ‘‘अक्ल से काम लो और मेरे साथ शादी कर लो, नहीं तो मैं तुम्हारी जिंदगी बरबाद कर दूंगी. तुम्हारे पापा भी तुम्हें बचा नहीं पाएंगे. मुझे ऐसीवैसी मत समझना. मैं एक वकील की बेटी हूं.’’

‘‘वकील की बेटी हो, तो तुम मेरा क्या कर लोगी. मैं अभी तुम्हारा गला दबा कर इस कहानी को यहीं खत्म कर देता हूं,’’ इतना कह कर नंदन चित्रा पर झपट पड़ा.

लेकिन चित्रा तेजी से खिड़की के पास चली गई और बोली, ‘‘जरा यहां से नीचे तो देखना.’’

झल्लाया नंदन खिड़की के पास गया और बाहर झांका. नीचे मेन गेट पर पुलिस की गाड़ी खड़ी थी. एक सबइंस्पैक्टर अपने 4 सिपाहियों के साथ ऊपर ही देख रहा था.

‘‘देख लिया… अगर मुझ पर हाथ डाला, तो तुम भी नहीं बचोगे. मैं यहां आने से पहले ही सारा इंतजाम कर के आई थी.

‘‘अब तुम ज्यादा मत सोचो और जल्दी से मेरे साथ शादी के दफ्तर में पहुंचो. मेरे पापा वहीं पर तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं,’’ इतना कह कर चित्रा अपना बैग और वे तसवीरें ले कर बाहर चली गई.

नंदन भीगी बिल्ली बना चित्रा के साथ शादी के दफ्तर पहुंच गया. Hindi Story

Hindi Love Story: प्यार की खातिर – मोहन और गीता की कहानी

Hindi Love Story: प्यार कभी भी और कहीं भी हो सकता है. प्यार एक ऐसा अहसास है, जो बिन कहे भी सबकुछ कह जाता है. जब किसी को प्यार होता है तो वह यह नहीं सोचता कि इस का अंजाम क्या होगा और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह इनसान किसी के प्यार में इतना खो जाता है कि बस प्यार के अलावा उसे कुछ दिखाई नहीं देता है. तभी तो कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. सबकुछ लुटा कर बरबाद हो कर भी नहीं चेतता और गलती पर गलती करता चला जाता है.

मोहन हाईस्कूल में पढ़ने वाला एक 16 साल का लड़का था. वह एक लड़की गीता से बहुत प्यार करने लगा. वह उस के लिए कुछ भी कर सकता था, लेकिन परेशानी की बात यह थी कि वह उसे पा नहीं सकता था, क्योंकि मोहन के पापा गीता के पापा की कंपनी में एक मामूली सी नौकरी करते थे. मोहन बहुत ज्यादा गरीब घर से था, जबकि गीता बहुत ज्यादा अमीर थी. वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था और गीता शहर के नामी स्कूल में पढ़ती थी.

लेकिन उन में प्यार होना था और प्यार हो गया. मोहन गीता से कहता, ‘‘तुम मुझ से कभी दूर मत जाना क्योंकि मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊंगा.’’ ‘‘हां नहीं जाऊंगी, लेकिन मेरे घर वाले कभी हमें एक नहीं होने देंगे,’’ गीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मोहन ने पूछा. ‘‘क्योंकि तुम सब जानते हो. हमारा समाज हमें कभी एक नहीं होने देगा,’’ गीता बोली.

‘‘हम इस दुनिया, समाज सब को छोड़ कर दूर चले जाएंगे,’’ मोहन ने कहा. ‘‘नहींनहीं, मैं यह कदम नहीं उठा सकती. मैं अपने परिवार को समाज के सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकती,’’ गीता ने अपने मन की बात कही.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरा तब तक इंतजार करना, जब तक मैं इस लायक न हो जाऊं और तुम्हारे पापा के सामने जा कर उन से तुम्हारा हाथ मांग सकूं. बोलो मंजूर है?’’ मोहन ने कहा. गीता हंसी और बोली, ‘‘क्या होगा, अगर मैं तुम से शादी कर के एकसाथ न रह सकी? हम चाहें दूर रहें या पास, मेरे दिल में तुम्हारा प्यार कभी कम नहीं होगा. तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.’’

यह सुन कर मोहन दिल ही दिल में रो पड़ा और सोच में पड़ गया. ‘‘क्या तुम मुझे छोड़ कर किसी और से शादी कर लोगी? मुझे भूल जाओगी? मुझ से दूर चली जाओगी?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती कि तुम्हें भूल जाऊं. मैं मरते दम तक तुम्हें नहीं भूल पाऊंगी,’’ गीता बोली. ‘‘फिर मेरा दिल दुखाने वाली बात क्यों करती हो? कह दो कि तुम मेरी हो कर ही रहोगी?’’ मोहन ने कहा.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. मोहन दिनरात मेहनत कर के खुद को गीता के काबिल बनाने में लगा था, ताकि एक दिन उस के पिता के पास जा कर गीता का हाथ मांग सके. इधर गीता यह सोचने लगी, ‘मोहन मेरी अमीरी की खातिर मुझ से दूर जा रहा है. वह मुझे पा नहीं सकता इसलिए दूरी बना रहा है.’

इधर गीता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे और उधर मोहन जीजान से पढ़ाई में लगा हुआ था. उसे पता भी नहीं चला और गीता की शादी तय हो गई. जब यह बात मोहन को पता चली तो वह गीता की खुशी की खातिर चुप लगा गया, क्योंकि उस की शादी शहर के बहुत बड़े खानदान में हो रही थी. उस का होने वाला पति एक बड़ी कंपनी का मालिक था.

यह सब जानने और सुनने के बाद मोहन अपने प्यार की खुशी की खातिर उस से दूर जाने की कोशिश करने लगा, लेकिन यह तो नामुमकिन था. वह किसी भी कीमत पर जीतेजी उस से दूर नहीं हो सकता था. सचाई जाने बगैर ही उस ने एक गलत कदम उठाने की सोच ली. गीता अंदर ही अंदर बहुत दुखी थी और परेशान थी क्योंकि वह भी तो मोहन को बहुत प्यार करती थी.

जिस दिन गीता की शादी थी उसी दिन मोहन ने एक सुसाइड नोट लिखा और फांसी लगा ली. ठीक उसी समय गीता ने भी एक सुसाइड नोट लिखा और जब सब लोग बरात का स्वागत करने में लगे थे उस ने खुद को फांसी लगा कर खत्म कर लिया.

प्यार की खातिर 2 परिवार दुख के समंदर में डूब गए. बस उन दोनों की जरा सी गलतफहमी की खातिर. हम मिटा देंगे खुद को प्यार की खातिर जी नहीं पाएंगे पलभर तुम से दूर रह कर. कर के सबकुछ समर्पित प्यार के लिए बिखरते हैं कितना हम टूटटूट कर. विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है. हमें अपनों पर और खुद पर भरोसा करना चाहिए, ताकि जो उन दोनों के साथ हुआ वैसा किसी के साथ न हो. अगर प्यार करो तो निभाना भी चाहिए और बात कर के गलतफहमियों को मिटाना भी चाहिए, क्योंकि प्यार वह अहसास है जो हमें जीने की वजह देता है.

अगर इस दुनिया में प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं. प्यार अमीरीगरीबी, ऊंचनीच, धर्म, जातपांत कुछ भी नहीं देखता. अगर किसी को एक बार प्यार हो जाए तो वह उस की खुशी की खातिर अपनी जिंदगी की भी परवाह नहीं करता. प्यार तो कभी भी कहीं भी किसी से भी हो सकता है, पर सच्चा प्यार होना और मिलना बहुत मुश्किल होता है. खुद पर और अपने प्यार पर हमेशा भरोसा बनाए रखना चाहिए, क्योंकि इस फरेबी दुनिया में सच्चा प्यार बहुत मुश्किल से मिलता है. Hindi Love Story

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