26 जनवरी स्पेशल: छुट्टी-बार्डर पर खड़े एक सैनिक की कहानी

दूर दूर तक जहां तक नजर जा सकती थी, पहाड़ों पर बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी. प्रेमी जोड़ों के लिए यह एक शानदार जगह हो सकती थी, पर सरहद पर इन पहाड़ियों की शांति के पीछे जानलेवा अशांति छिपी हुई थी. पिछले कई महीनों से कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता था, जब तोपों के धमाकों और गोलियों की तड़तड़ाहट ने यहां की शांति भंग न की हो.

‘‘साहबजी, आप कौफी पीजिए. ठंड दूर हो जाएगी,’’ हवलदार बलवंत सिंह ने गरम कौफी का बड़ा सा मग मेजर जतिन खन्ना की ओर बढ़ाते हुए कहा.

‘‘ओए बलवंत, लड़ तो हम दिनरात रहे हैं, मगर क्यों  यह तो शायद ऊपर वाला ही जाने. अब तू कहता है, तो ठंड से भी लड़ लेते हैं,’’ मेजर जतिन खन्ना ने हंसते हुए मग थाम लिया.

कौफी का एक लंबा घूंट भरते हुए वे बोले, ‘‘वाह, मजा आ गया. अगर ऐसी कौफी हर घंटे मिल जाया करे, तो वक्त बिताना मुश्किल न होगा.’’

‘‘साहबजी, आप की मुश्किल तो हल हो जाएगी, लेकिन मेरी मुश्किल कब हल होगी ’’ बलवंत सिंह ने भी कौफी का लंबा घूंट भरते हुए कहा.

‘‘कैसी मुश्किल ’’ मेजर जतिन खन्ना ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘साहबजी, अगले हफ्ते मेरी बीवी का आपरेशन है. मेरी छुट्टियों का क्या हुआ ’’ बलवंत सिंह ने पूछा.

‘‘सरहद पर इतना तनाव चल रहा है.  हम लोगों के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. ऐसे में छुट्टी मिलना थोड़ा मुश्किल है, पर मैं कोशिश कर रहा हूं,’’ मेजर जतिन खन्ना ने समझाया.

‘‘लेकिन सर, क्या देशभक्ति का सारा ठेका हम फौजियों ने ही ले रखा है ’’ कहते हुए बलवंत सिंह ने मेजर जतिन खन्ना के चेहरे की ओर देखा.

‘‘क्या मतलब… ’’ मेजर जतिन खन्ना ने पूछा.

‘‘यहां जान हथेली पर ले कर डटे रहें हम, वहां देश में हमारी कोई कद्र नहीं. सालभर गांव न जाओ, तो दबंग फसल काट ले जाते हैं. रिश्तेदार जमीन हथिया लेते हैं. ट्रेन में टीटी भी पैसे लिए बिना हमें सीट नहीं देता. पुलिस वाले भी मौका पड़ने पर फौजियों से वसूली करने से नहीं चूकते,’’ बलवंत सिंह के सीने का दर्द बाहर उभर आया.

‘‘सारे जुल्म सह कर भी हम देश पर अपनी जान न्योछावर करने के लिए तैयार हैं, मगर कम से कम हमें इनसान तो समझा जाए.

‘‘घर में कोई त्योहार हो, तो छुट्टी नहीं मिलेगी. कोई रिश्तेदार मरने वाला हो, तो छुट्टी नहीं मिलेगी. जमीनजायदाद का मुकदमा हो, तो छुट्टी नहीं मिलेगी. अब बीवी का आपरेशन है, तो भी छुट्टी नहीं मिलेगी. लानत है ऐसी नौकरी

पर, जहां कोई इज्जत न हो.’’

‘‘ओए बलवंत, आज क्या हो गया है तुझे  कैसी बहकीबहकी बातें कर रहा है  अरे, हम फौजियों की पूरी देश इज्जत करता है. हमें सिरआंखों पर बिठाया जाता है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने आगे बढ़ कर बलवंत सिंह के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘हां, इज्जत मिलती है, लेकिन मर जाने के बाद. हमें सिरआंखों पर बिठाया जाता है, मगर शहीद हो जाने के बाद. जिंदा रहते हमें बस और ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी, हमारे बच्चे एकएक पैसे को तरसेंगे, मगर मरते ही हमारी लाश को हवाईजहाज पर लाद कर ले जाया जाएगा. परिवार के दुख को लाखों रुपए की सौगात से खरीद लिया जाएगा. जिस के घर में कभी कोई झांकने भी न आया हो, उसे सलामी देने हुक्मरानों की लाइन लग जाएगी.

‘‘हमारी जिंदगी से तो हमारी मौत लाख गुना अच्छी है. जी करता है कि उसे आज ही गले लगा लूं, कम से कम परिवार वालों को तो सुख मिल सकेगा,’’ कहते हुए बलवंत सिंह का चेहरा तमतमा उठा.

‘‘ओए बलवंत…’’

‘‘ओए मेजर…’’ इतना कह कर बलवंत सिंह चीते की फुरती से मेजर जतिन खन्ना के ऊपर झपट पड़ा और उन्हें दबोचे हुए चट्टान के नीचे आ गिरा. इस से पहले कि वे कुछ समझ पाते, बलवंत सिंह के कंधे पर टंगी स्टेनगन आग उगलने लगी.

गोलियों की ‘तड़…तड़…तड़…’ की आवाज के साथ तेज चीखें गूंजीं और चंद पलों बाद सबकुछ शांत हो गया.

‘‘ओए बलवंत मेरे यार, तू ठीक तो है न ’’ मेजर जतिन खन्ना ने अपने को संभालते हुए पूछा.

‘‘हां, साहबजी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ बलवंत सिंह हलका सा हंसा, फिर बोला, ‘‘मगर, ये पाकिस्तानी कभी ठीक नहीं होंगे. इन की समझ में क्यों नहीं आता कि जब तक एक भी हिंदुस्तानी फौजी जिंदा है, तब तक वे हमारी चौकी को हाथ भी नहीं लगा सकते,’’ इतना कह कर बलवंत सिंह ने चट्टान के पीछे से झांका. थोड़ी दूरी पर ही 3 पाकिस्तानी सैनिकों की लाशें पड़ी थीं. छिपतेछिपाते वे कब यहां आ गए थे, पता ही नहीं चला था. उन में से एक ने अपनी एके 47 से मेजर जतिन खन्ना के सीने को निशाना लगाया ही था कि उस पर बलवंत सिंह की नजर पड़ गई और वह बिजली की रफ्तार से मेजर साहब को ले कर जमीन पर आ गिरा.

‘‘बलवंत, तेरी बांह से खून बह रहा है,’’ गोलियों की आवाज सुन कर खंदक से निकल आए फौजी निहाल सिंह ने कहा. उस के पीछेपीछे उस चौकी की सिक्योरिटी के लिए तैनात कई और जवान दौडे़ चले आए थे.

‘‘कुछ नहीं, मामूली सी खरोंच है. पाकिस्तानियों की गोली जरा सा छूते हुए निकल गई थी,’’ कह कर बलवंत सिंह मुसकराया.

‘‘बलवंत, तू ने मेरी खातिर अपनी जान दांव पर लगा दी. बता, तू ने ऐसा क्यों किया ’’ कह कर मेजर जतिन खन्ना ने आगे बढ़ कर बलवंत सिंह को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘क्योंकि देशभक्ति का ठेका हम फौजियों ने ले रखा है,’’ कह कर बलवंत सिंह फिर मुसकराया.

‘‘तू कैसा इनसान है. अभी तो तू सौ बुराइयां गिना रहा था और अब देशभक्ति का राग अलाप रहा है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने दर्दभरी आवाज में कहा.

‘‘साहबजी, हम फौजी हैं. लड़ना हमारा काम है. हम लड़ेंगे. अपने ऊपर होने वाले जुल्म के खिलाफ लड़ेंगे, मगर जब देश की बात आएगी, तो सबकुछ भूल कर देश के लिए लड़तेलड़ते जान न्योछावर कर देंगे. कुरबानी देने का पहला हक हमारा है. उसे हम से कोई नहीं छीन सकता,’’ कहतेकहते बलवंत सिंह तड़प कर जोर से उछला.

उस के बाद एक तेज धमाका हुआ और फिर सबकुछ शांत हो गया.

बलवंत सिंह की जब आंखें खुलीं, तो वह अस्पताल में था. मेजर जतिन खन्ना उस के सामने ही थे.

‘‘सरजी, मैं यहां कैसे आ गया ’’ बलवंत सिंह के होंठ हिले.

‘‘अपने ठेके के चलते…’’ मेजर जतिन खन्ना ने आगे बढ़ कर बलवंत सिंह के सिर पर हाथ फेरा, फिर बोले, ‘‘तू ने कमाल कर दिया. दुश्मन के

3 सैनिक एक तरफ से आए थे, जिन्हें तू ने मार गिराया था. बाकी के सैनिक दूसरी तरफ से आए थे. उन्होंने हमारे ऊपर हथगोला फेंका था, जिसे तू ने उछल कर हवा में ही थाम कर उन की ओर वापस उछाल दिया था. वे सारे के सारे मारे गए और हमारी चौकी बिना किसी नुकसान के बच गई.’’

‘‘तेरे जैसे बहादुरों पर देश को नाज है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने बलवंत सिंह का कंधा थपथपाया, फिर बोले, ‘‘तू भी बिलकुल ठीक है. डाक्टर बता रहे थे कि मामूली जख्म है. एकदो दिन में यहां से छुट्टी मिल जाएगी.

‘‘छुट्टी…’’ बलवंत सिंह के होंठ धीरे से हिले.

‘‘हां, वह भी मंजूर हो गई है. यहां से तू सीधे घर जा सकता है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने बताया, फिर चौंकते हुए बोले, ‘‘एक बात बताना तो मैं भूल ही गया था.’’

‘‘क्या… ’’ बलवंत सिंह ने पूछा.

‘‘तुझे हैलीकौफ्टर से यहां तक लाया गया था.’’

‘‘पर अब हवाईजहाज से घर नहीं भेजेंगे ’’ कह कर बलवंत सिंह मुसकराया.

‘‘कभी नहीं…’’ मेजर जतिन खन्ना भी मुसकराए, फिर बोले, ‘‘ब्रिगेडियर साहब ने सरकार से तुझे इनाम देने की सिफारिश की है.’’

‘‘साहबजी, एक बात बोलूं ’’

‘‘बोलो…’’

‘‘इनाम दिलवाइए या न दिलवाइए, मगर सरकार से इतनी सिफारिश जरूर करा दीजिए कि हम फौजियों की जमीनजायदाद के मुकदमों का फैसला करने के लिए अलग से अदालतें बना दी जाएं, जहां फटाफट इंसाफ हो, वरना हजारों किलोमीटर दूर से हम पैरवी नहीं कर पाते.

‘‘सरहद पर हम भले ही न हारें, मगर अपनों से लड़ाई में जरूर हार जाते हैं,’’ बलवंत सिंह ने उम्मीद भरी आवाज में कहा.

मेजर जतिन खन्ना की निगाहें कहीं आसमान में खो गईं. बलवंत सिंह ने जोकुछ भी कहा था, वह सच था, मगर जो वह कह रहा है, क्या वह कभी मुमकिन हो सकेगा.

15 अगस्त स्पेशल: फौजी ढाबा

ढाबा चलाने के लिए करतार सिंह ने 4 लड़कों का स्टाफ भी रख छोड़ा था, जो ग्राहकों को अच्छी सर्विस देते थे. उन की मजे में जिंदगी कट रही थी.

फौज में सूबेदार करतार सिंह का बड़ा जलवा था. अपनी बहादुरी के लिए मिले बहुत सारे मैडल उस की वरदी की शान बढ़ाया करते थे. बौर्डर से जब भी वह गांव लौटता तो पूरा गांव अपने फौजी भाई से सरहद की कहानी सुनने आ जाता था.

करतार सिंह सरहद की गोलीबारी और दुश्मन फौज की फर्जी मुठभेड़ की कहानी बड़े जोश से सुनाया करता था. अपनी बहादुरी तक पहुंचतेपहुंचते कहानी में जोश कुछ ज्यादा ही हो जाता था. गांव का हर नौजवान बड़ी हसरत से सोचता कि काश, वह भी फौज में होता तो करतार सिंह की तरह वरदी पहन कर गांव आया करता.

गांव के बुजुर्ग तो करतार सिंह पर फख्र किया करते हैं कि उस ने उन के गांव का नाम देशभर में रोशन किया है.

इस बार करतार सिंह जब घर आया तो अपने पैरों के बजाय बैसाखी के सहारे आया. असली मुठभेड़ में उस की एक टांग में गोली लगी थी जिसे काटना पड़ा.

6 महीने सेना के अस्पताल में गुजारने के बाद करतार सिंह को छुट्टी दे दी गई और साथ में जबरदस्ती रिटायरमैंट के कागजात भी भारीभरकम रकम के चैक के साथ थमा कर उसे वापस घर भेज दिया गया.

फौजी की कीमत उसी वक्त तक है, जब तक कि उस के हाथपैर सहीसलामत रहते हैं. जिस तरह टांग के टूटने के बाद घोड़ा रेस में दौड़ने के लायक नहीं रह जाता तो उसे गोली मार दी जाती है, ठीक उसी तरह फौज लाचार हो जाने वाले को रिटायर कर देती है.

करतार सिंह को बड़ी रकम के साथ सरकार ने हाईवे से लगी हुई एक जमीन भी तोहफे में दी थी जिस पर आज उस ने ‘फौजी ढाबा’ खोल दिया था. 2 बेटियां और एक बीवी के अलावा कोई खास जिम्मेदारी करतार सिंह पर थी नहीं. फौज से मिली हुई रकम और ढाबे से होने वाली आमदनी ने पैसों की अच्छी आवाजाही कर रखी थी, इसलिए अब काम में सुस्ती आने लगी. नौकरों के भरोसे ढाबा चल रहा था.

करतार सिंह ज्यादातर नशे में धुत्त रहता था. वह पीता पहले भी था, लेकिन फौज में इतनी दौड़ाई रहती थी कि कभी नशा सवार नहीं हो पाता था. अब काम कुछ था नहीं, इसलिए नशा उतरने भी नहीं पाता था कि बोतल दोबारा मुंह से लग जाती.

जब मालिक नशे में रहे तो नौकरों को मनमानी करने से कौन रोक सकता है. आमदनी कम होने लगी, पैसे गायब होने लगे.

मजबूर हो कर ढाबे की कमान बीवी सरबजीत कौर ने संभाली. अब वह गल्ले पर खुद बैठती और काम नौकरों से कराती.

तीखे नाकनक्श की सरबजीत कौर के ढाबे पर बैठते ही ढाबे ने एक बार फिर रफ्तार पकड़ ली. दाल मक्खनी और पिस्तई खीर के साथ सरबजीत कौर का तड़का भी फौजी ढाबे की पहचान बन गया.

एक बार फिर से ग्राहकों की तादाद कम होने लगी. सरबजीत कौर ने इस की वजह मालूम की तो एक नौकर ने बताया कि चंद कदम के फासले पर एक ढाबा और खुल गया है. अब ज्यादातर ट्रक वहां पर रुकते हैं.

दूसरे दिन सरबजीत कौर ने खुद जा कर देखा कि नया ढाबा, जिस का नाम ‘भाभीजी का ढाबा’ था, वहां 25-26 साल की एक खूबसूरत औरत गल्ले पर बैठी है और ग्राहकों से मुसकरामुसकरा कर डील कर रही है.

‘फौजी ढाबा’ को तोड़ने के लिए गंगा ने शुरू से ही अपनी बीवी को बिठा कर करतार सिंह के ग्राहकों पर डाका डाल दिया था.

सरबजीत कौर के पास अब इस के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था कि वह अपने ब्लाउज के गले को बड़ा कर के गल्ले पर बैठा करे. इस तरकीब से कुछ सीनियर फौजी तो ढाबे पर आ गए, लेकिन अभी भी ‘भाभीजी का ढाबा’ नंबर वन पर चल रहा था.

‘फौजी ढाबा’ किस हाल से गुजर रहा था, इस की परवाह अब करतार सिंह को नहीं थी. उसे तो बस सुबहशाम 2 बोतल दारू और एक प्लेट चिकन टिक्का चाहिए था, जो किसी न किसी तरह सरबजीत कौर उस तक पहुंचा देती थी.

ढाबे की जिम्मेदारी अब पूरी तरह से सरबजीत कौर पर आ गई थी. बच्चियां छोटी थीं. यों भी स्कूल जाने वाली बच्चियों को ढाबे के काम में लगाना मुनासिब नहीं था.

एक बार उस ने एक बच्ची को पलंग पर बैठे एक ड्राइवर के पास सलाद देने के लिए भेजा तो यह देख कर उस का खून खौल गया कि ड्राइवर ने बच्ची के गाल को नोचा और फिर ड्राइवर का हाथ बच्ची की गरदन से नीचे आ गया.

छोटी बच्ची सलाद की प्लेट पटक कर घर के अंदर भाग गई. दुकानदारी पर कहीं असर न पड़े, इसलिए सरबजीत कौर ने बात आगे नहीं बढ़ाई.

बाप नशे में धुत्त और मां दिनरात ढाबे के गल्ले पर बैठने के लिए मजबूर, ऐसे में बच्चियों पर कौन नजर रखे. कच्ची उम्र से जवानी की दहलीज पर पैर रखने वाली गीता की नजर चरनजीत से टकरा गई. 1-2 महीने से शनिवार की शाम को एक नए ट्रक के साथ एक नौजवान आ कर सब से अलग बैठ जाता. खाना खा कर सो जाता और दूसरे दिन वह ट्रक ले कर कहीं चला जाता. स्याह कमीज, स्याह पैंट और नारंगी रंग की पगड़ी में वह बहुत खूबसूरत लगता था.

पहली बार जब गीता ने देखा तो वह उसे देखती ही रह गई. इत्तिफाक से उस की नजर भी गीता की तरफ उठ गई तो उस ने नजर हटाई नहीं. अपनी बड़ीबड़ी आंखों से वह गीता को घूरता ही रहा.

साथ में बैठे क्लीनर ने जब पुकारा, ‘‘चरनजीते, कहां खो गया,’’ तो गीता को मालूम हुआ कि उस का नाम चरनजीत है.

दूसरे शनिवार को जब वह फिर वहां आया तो गीता के दिल की धड़कन तेज हो गई. उसे ऐसा लगा कि वह सिर्फ उसी के लिए आया है. लेकिन, चरनजीत के बरताव में कोई फर्क नहीं आया. खाना खा कर वह पलंग पर सो गया.

गीता ने घर से एक तकिया मंगा कर ढाबे के एक लड़के को देते हुए कहा कि उन साहब को दे आए. पहली बार किसी ग्राहक को तकिया पेश किया गया था. तकिए के कोने में गीता का मोबाइल नंबर और नाम भी लिखा था.

किसी को खबर भी नहीं हुई और चरनजीत और गीता एकदूसरे के इश्क में डूबते चले गए. मोबाइल पर बातें होती रहतीं. किसी को मालूम ही नहीं चल पाता कि चंद कदमों के फासले पर आशिक और माशूक बैठे एकदूसरे से हालेदिल बयां कर रहे हैं. स्कूल टाइमिंग में बाहर मुलाकातें होने लगीं.

एक दिन ऐसा भी आया, जब चरनजीत ने गीता से कहा कि ऐसा कब तक चलता रहेगा. हम लोगों को शादी कर लेनी चाहिए. गीता खामोश हो गई.

‘‘क्या मैं ने कुछ गलत बात कह दी?’’

‘‘नहीं, तुम ने कुछ गलत नहीं कहा. मेरे पापा सूबेदार रहे हैं, मेरी शादी वे किसी ट्रक ड्राइवर से कभी नहीं करेंगे.’’

‘‘फिर तो हम लोगों को अलग हो जाना चाहिए,’’ कहते हुए चरनजीत ने गीता का हाथ छोड़ दिया.

‘‘अब मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह सकती…’’ थोड़ी देर की खामोशी के बाद गीता ने कहा, ‘‘मुझे यहां से ले कर कहीं दूर चले जाओ. वहीं शादी कर लेंगे.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है कि मैं तुम्हें भगा कर ले जाऊं. कितनी घटिया बात कही है तुम ने…’’ चरनजीत ने कहा, ‘‘मेरे मांबाप इस बात को पसंद नहीं करेंगे. तुम्हारे घर वाले भी यही सोचेंगे कि ट्रक ड्राइवरों का किरदार ऐसा ही होता है.

‘‘गीता, मैं पढ़ालिखा हूं. मास्टरी की है मैं ने. नौकरी नहीं मिली तो ड्राइवर बन गया.

‘‘यह मेरा अपना ट्रक है. शादी करूंगा तो इज्जत से करूंगा, वरना हम दोनों के रास्ते अलग हो जाएंगे. कल तुम्हारे मम्मीपापा से तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा. तैयार रहना.’’

करतार सिंह ने कभी सोचा भी नहीं था कि बेटियों की शादी भी की जाती है. उसे तो इस बात की फिक्र रहती थी कि कहीं रात में उस की बोतल खाली न रह जाए.

चरनजीत ने जब उस से उस की बेटी का हाथ मांगा तो सरबजीत कौर के साथ करतार सिंह के चेहरे का रंग भी बिगड़ गया. उसे ऐसा लगा, जैसे बोतल में किसी ने सिर्फ पानी मिला दिया था. पलभर में सारा नशा काफूर हो गया.

‘‘तुम ने गीता को मांगने से पहले यह नहीं सोचा कि तुम एक ट्रक ड्राइवर हो.’’

‘‘मैं ने यह तो नहीं सोचा, लेकिन यह जरूर सोचा कि आप की बेटी अगर मेरे साथ भाग जाएगी तो आप की कितनी बदनामी होगी. ट्रक ड्राइवरों पर से हमेशा के लिए आप का भरोसा उठ जाएगा.’’

ऐसा सुन कर फौजी करतार सिंह का सिर पहली बार किसी के सामने झुका था तो वह चरनजीत था.

‘‘अपने घर वालों से कहो शादी की तैयारी करें, गीता अब तुम्हारी हुई,’’ यह कह कर करतार सिंह ने शराब की बोतल को चरनजीत के सामने ही मुंह से लगा लिया.

15 अगस्त स्पेशल: सैनिक पत्नियां, दहलीज से सरहद तक जद्दोजेहद

कहा जाता है कि शादी के समय अग्नि के सात फेरे लेने के साथ ही एक लड़की की अग्निपरीक्षा शुरू हो जाती है, लेकिन सैनिकों की जीवनसंगिनी की अग्निपरीक्षा तो विवाहसूत्र में बंधने से पहले ही शुरू हो जाती है, क्योंकि उन्हें पहले से ही यह पता होता है कि शायद उन्हें अपनी आधी जिंदगी पति से दूर रह कर गुजारनी पड़े या न मालूम जिंदगी के किस मोड़ पर उन का हमसफर उन्हें तनहा छोड़ दे.

अंजना राजवंशी के पति भारतीय सेना में लैफ्टिनैंट कर्नल हैं. वे कहती हैं कि एक फौजी से शादी करने वाली लड़की पहले से ही ऐसे हालात से रूबरू होने के लिए तैयार रहती है. फिर भी शुरूशुरू में पति से दूर रहना पड़ता था. ऐसे में नए घरसंसार में रचनेबसने में जीवनसाथी के प्रेम और मदद की कमी कुछ हद तक खली.

वे आगे कहती हैं कि खासकर सिविल बैकग्राउंड से ब्याह कर आने वाली लड़कियों के लिए तो यह काफी मुश्किल भरा दौर होता है. लेकिन अंजना दूर रह रहे अपने पति की गैरमौजूदगी में घर की जिम्मेदारी निभा कर देश के प्रति अपने फर्ज को बखूबी निभा रही हैं.

सैनिकों की पत्नियां घर से जुड़े तमाम काम और पारिवारिक जद्दोजेहद का बखूबी सामना करती हैं. घरपरिवार पर आने वाली मुसीबत से निबट कर वे दूर कहीं ड्यूटी दे रहे अपने पिया को बेफिक्र रखती हैं और उन्हें देश की हिफाजत करने का हौसला देती हैं.

पति का बनीं संबल

अनु माथुर एक सेना के अफसर की पत्नी हैं. वे कहती हैं कि चाहे बच्चों का स्कूल में दाखिला कराना हो या खुद को डाक्टर को दिखाना हो, पति की गैरमौजूदगी में हर छोटीबड़ी जिम्मेदारी उन्हें ही निभानी होती है.

वे आगे बताती हैं कि उन का बेटा अर्जुन साढ़े 3 साल की उम्र में गंभीर रूप से घायल हो गया. ऐसे में पति से दिमागी संबल न मिल पाने के चलते वह दौर उन के लिए दोहरे इम्तिहान की तरह रहा.

एक और सेना के अफसर की पत्नी पूनम खंगारोत कहती हैं कि ऐसे उलट हालात को पौजिटिव रूप में लेना सीख लिया है. ऐसे हालात का अकेले मुकाबला करने से उन की फैसला लेने की ताकत और आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हुई है.

दिलेरी से करती सामना

सरहद पर खतरे की जिंदगी गुजारने वाले सैनिकों के समान ही पत्नियों की जिंदगी भी खतरे से खाली नहीं होती. उन की घर की ड्यूटी सरहद की ड्यूटी के समान जोखिम भरी होती है, क्योंकि वे अपने पति की खैरखबर को ले कर चिंतित रहती हैं. लेकिन वे उन सब का सामना हिम्मत और दिलेरी से करती हैं.

रेखा शर्मा को ही लीजिए. उन के पति 12 साल से भारतीय सेना में सेवारत मेजर हैं. वे कहती हैं कि जब उन की फील्ड पोस्टिंग होती है, तो मानो कलेजा हर घड़ी मुट्ठी में रहता है. जब फोन पर बात नहीं हो पाती है, तो किसी अनहोनी के डर से दिल घबराने लगता है. कुछ इलाके ऐसे भी होते हैं, जहां से बातचीत करना मुश्किल होता है या इमर्जैंसी में वो टूट ही जाती हैं. ऐसे में बस टैलीविजन, अखबार पर ही नजर लगी रहती है.

एक सैनिक की पत्नी अनु बताती हैं कि लड़ाई न चलने पर भी माइंस बिछाना जैसी आर्मी ऐक्सरसाइजेज खतरे से खाली नहीं होतीं. फिर जब मईजून की झुलसाती गरमी में पति रेतीले टीलों या ठिठुरती ठंड में सियाचिन में मुस्तैद हों, तो दिल यों ही रो उठता है. ऐसे में वे खुद को संभालती हैं और अपना हौसला बनाए रखती हैं.

वतन के वास्ते

सैनिक की पत्नी अंजना राजवंशी कहती हैं कि यों तो वे काफी हिम्मत से काम लेती हैं, लेकिन जब उन की तबीयत ज्यादा खराब होती है, तो पति से दो मीठे बोल सुनने को तरस जाती हैं. तब लगता है कि काश, वे भी साथ होते. सुखदुख के मौकों पर दूसरे शादीशुदा जोड़ों को देख कर कभीकभी एक टीस सी उठती है.

मांबाप दोनों, फिर भी…

पूनम बताती हैं कि उन के सिजेरियन बच्चा होने पर भी वे अपने पति से 4 महीने बाद मिल सकी थीं. अपनी शादीशुदा जिंदगी के इन 16 सालों में पूनम को पति की कमी अब सब से ज्यादा खलती है, जब उन का बेटा 10वीं जमात में पढ़ रहा है. उन का कहना है कि उम्र के इस नाजुक दौर में उसे पिता के साथ की सब से ज्यादा जरूरत है.

पूनम आगे कहती हैं कि हालांकि वे बच्चों को मातापिता दोनों का ही प्यार देने की कोशिश करती हैं, लेकिन जब पति साथ होते हैं, तो बच्चों के चेहरे पर खुशी पढ़ कर ऐसा लगता है कि काश, वक्त यहीं थम जाए.

ये हिम्मती औरतें बताती हैं कि ज्यादातर फील्ड पोस्टिंग पर रहने वाले पिताओं की तो उन के छोटे बच्चों के लिए पहचानना भी मुश्किल हो जाता है. लेकिन वे बच्चों को हौसला देती हैं. पिता की कमी वे उन्हें महसूस नहीं होने देतीं.

हौसलाअफजाई जरूरी

सरोज राणावत के पति भी भारतीय सेना में हैं. उन का मानना है कि फौजियों के लिए पौजिटिव नजरिया अपनाना बहुत जरूरी है. अगर वे घर की तरफ से बेफिक्र नहीं रहेंगे, तो देश के प्रति अपना फर्ज कैसे निभा पाएंगे.

एक फौजी की पत्नी के लिए हौसला और हिम्मत होना बहुत जरूरी है. ऐसे सैनिकों की दिलदार और जद्दोजेहद करने वाली पत्नियां अपने हालात को एक छोटी सी समस्या समझती हैं, क्योंकि उन्हें नाज है अपने जीवनसाथी पर, जो दूर कहीं रह कर वतन की हिफाजत में मुस्तैद हैं.

समस्या: सैनिकों की शहादतों का सिलसिला जारी

एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के लिए शहीद होने वाले कुल जवानों में से तकरीबन 78,000 (एकलौते बेटे) जवान कुंआरे या शादी के तुरंत बाद शहीद हो गए यानी कोई बच्चा होने से पहले ही धरती से विदा हो गए. एक नजरिए से देखा जाए, तो 78,000 परिवार ही खत्म हो गए. कोई सैनिक शहीद होता है, तो दिल्ली में किसी तरह की चर्चा तक नहीं होती. जिस गांव से वह ताल्लुक रखता है, उस गांव व आसपास के गांवों के लोग उस शहीद के अंतिम संस्कार में जुटते हैं और सेना के अफसरों और एसडीएम या डीएम को सलामी देते देखते हैं, तो जोश से लबरेज नजर आते हैं.

मीडिया वाले परिवार के लोगों की बाइट दिखा कर जोश को दोगुना कर देते हैं. सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि उस ने इतनी कम उम्र में देश के लिए कुरबानी दी है या उस के बाप ने कहा कि मुझे गर्व है कि मेरे बेटे ने देश के लिए शहादत दी है, हालांकि उस बाप के असल दर्द को कौन जान सकता है. बाद में शहीदों के परिवारों की देखरेख हम किस तरह से करते हैं, वह जगजाहिर है. शहीद की मां गांव के गवाड़नुक्कड़ पर बैठ कर रोज आनेजाने वाले को बेटे की कहानियां सुनाते हुए आंसू पोंछती रहती है, तो पिता खेतों में दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में इसलिए रातदिन लगा रहता है कि दूसरा बेटा शहीद भाई की फाइलें ले कर अफसरों के दफ्तरों के चक्कर आराम से काट सके. नेताओं और सिविल सोसाइटी के लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर शहीदों की शहादत को ले कर फेंके गए जोशीले शब्दों को देख कर लगता है कि उन में से न जाने कितने दोगले लोग हैं कि एक ट्वीट या पोस्ट के बाद वे जिंदगी का मजा लेने लग जाते हैं. क्या फर्क पड़ता है उन्हें.

अब तो बाकायदा चुनाव भी शहीदों के नाम पर लड़े जा रहे हैं, जबकि शहीदों की शहादत को ले कर ही सवाल खड़े हो रहे हैं. अब कश्मीर कोई राष्ट्रभक्ति के ज्वार का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय शर्म का मसला है कि आजादी के इतने सालों बाद भी रोज किसानकमेरों के बच्चों की लाशें तिरंगे में लिपट कर गांवों में पहुंच रही हैं, मगर सत्ता के लिए कश्मीर राष्ट्रवाद का मुद्दा है और हर सरकार कश्मीर को आगे कर के देशभर में गद्दरों को ढूंढ़ती रहती है. नक्सलवाद शुद्ध रूप से भुखमरी और बेकारी का मसला है, मगर सरकारें समाधान ढूंढ़ने के बजाय आदिवासियों को बल प्रयोग द्वारा जल, जंगल, जमीन से खदेड़ कर उन में इजाफा करती जा रही है, तो वहीं दूसरी तरफ अर्धसैनिक बलों की टुकडि़यों में इजाफा करती जाती है. जब हार्डकोर अपराधी, नेता व उद्योगपतियों के नैक्सस के खिलाफ गरीब लोग जंग हार जाते हैं, तो वे नक्सलवाद की राह पकड़ लेते हैं.

आदिवासियों की मौतों पर बिग ब्रेकिंग खबरें जैसे ‘मुठभेड़ में इतने मार गिराए’ आदि चलती हैं, तो देश में मीडिया के जरीए खुशी का माहौल बन जाता है. दूसरी तरफ जवान शहीद होते हैं, तो मामला मातम में बदल दिया जाता है, जबकि दोनों तरफ मारे भारत के नागरिक ही जा रहे हैं. देश की सत्ता में एक ऐसा नैक्सस बन गया है, जो समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के बजाय यह तय करता है कि कब और किस तरह राष्ट्रवाद को हद पर पहुंचाना है या कम कर के गद्दारों की टोली ढूंढ़ने निकलना है. देश के जवानों की शहादत पर नेता उन के परिवारों से हमदर्दी जताने आते हैं. इस दौरान वे लंबेलंबे भाषण देते हैं और इन्हीं भाषणों में आश्वासन भी दिए जाते हैं, जो कभी पूरे नहीं होते. इन आश्वासनों के भरोसे ये परिवार वाले सरकारी महकमों के चक्कर लगाते रहते हैं.

कारगिल की लड़ाई में शहीद हुए सीकर, राजस्थान के गांव धनेठा के लायंस नायक राम सिंह ने देश के लिए शहादत दी थी. उस समय राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार ने इस फौजी की विधवा पत्नी को भरोसा दिया था कि उन्हें गैस एजेंसी दी जाएगी और बच्चों की पढ़ाई मुफ्त करवाई जाएगी. लेकिन 23 साल बाद भी सरकार और फौजी अफसरों की बेरुखी का शिकार हुई शहीद फौजी की विधवा पत्नी की कहीं सुनवाई नहीं हो रही. सीमा रणवां ने बताया कि जब उस के पति शहीद हुए, तो उस का एक बेटा कर्म सिंह 5 साल का था और दूसरा बेटा डेढ़ साल का कुलदीप सिंह था, जिन की मुफ्त पढ़ाई की बात सरकार ने कही थी, लेकिन उस के बच्चों को स्कूलों में मुफ्त शिक्षा नहीं मिली. आतंकी हमले में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवान विजय कुमार मौर्य के साथ ही कई रिश्ते भी शहीद हो गए,

कई सपने दम तोड़ गए. बुजुर्ग पिता ने होनहार बेटा खो दिया. पत्नी का सुहाग उजड़ गया. 3 साल की मासूम बच्ची की अभी अपने पापा से पहचान पुख्ता भी नहीं हो सकी थी कि वे दोनों हमेशा के लिए बिछुड़ गए. 2 मासूम भतीजियों की उम्मीदों की डोर भी एक झटके में टूट गई. इन सब की जिम्मेदारी आतंकी हमले में शहीद हुए विजय कुमार पर थी. शहीद विजय कुमार के घर की माली हालत ठीक नहीं है. उन्होंने बैंक से 10 लाख रुपए का कर्जा लिया था. इस से उन्होंने सीकर में जमीन खरीदी और बाकी पैसों से गांव का घर दुरुस्त कराया था. अब परिवार को चिंता है कि यह लोन कैसे चुकता होगा. पिता करतार सिंह गांव में ही बंटाई पर ली हुई जमीन पर खेती करते हैं.

3 भाइयों व एक बहन के बीच विजय कुमार सब से छोटे थे. बड़े भाई अशोक गुजरात में निजी कंपनी में काम करते हैं. बहन की शादी हो चुकी है. साल 2014 में विजय कुमार की शादी हुई. उन की 6 साल की बेटी आराध्या है. विजय कुमार के जाने से इन सभी के सपनों ने दम तोड़ दिया. विजय कुमार की पत्नी लक्ष्मी रोतेरोते सवाल करती हैं, ‘‘आज तक इतने जवान शहीद हुए, क्या हुआ? कुछ भी नहीं. नेता हो या मंत्री, कोई कुछ नहीं करता. बस चार दिन शोर होगा, उस के बाद सब शांत हो जाता है, लेकिन हम पर तो जिंदगीभर गुजरती है.’’ खैर, अगर शहीद परिवार व गांव के लोग अपने लाड़लों की मौत पर सत्ता से सवाल करने लग जाएं, जैसे अमेरिका या यूरोप के लोग करते हैं,

तो इन शहादतों में भारी कमी आ सकती है, मगर भारतीय समाज में वह मानसिक लैवल अभी तक पैदा नहीं हो पाया है. अज्ञानता का फायदा सत्ता उठाती है और मीडिया राष्ट्रवाद के पारे को ऊपरनीचे करने में मददगार है. अपने आसपास के शहीदों के परिवारों के साथ बैठ कर उन का दर्द हलका करते जाइए. निजामों का खून खौले या नहीं, मगर लगातार होती शहादतों पर आम लोगों का खून खौलना चाहिए.

अग्निपथ भर्ती स्कीम को स्वाहा क्यों कर दिया गया है

सैनिक भर्ती में बचत की खातिर इस तरह का फैसला लेना जिस में सैनिकों के न तो ज्यादा वेतन देना पड़े, न पेंशन का बोझ हो, न परमानैंट फैमिली क्वार्टर बनाने हो और न सैनिक कैंटिन से घरगृहस्थी के सस्ते सामान को दिलवाना हो एक गहरी सोचीसमझी चाल है. सेना देश की रक्षा के लिए होती है, यह ठीक है पर सैनिक अपने लिए एक घरबार को बसाने के लिए जाते जोखिम में डालने के लिए आते हैं और सरकार ने अपनी अग्निपथ भर्ती स्कीम से उस को स्वाह कर दिया है.

यह वह सरकार है जो हर तरफ अरबों रुपए स्वाह कर रही है. ङ्क्षहदूमुसिलम झगड़ा बढ़ा कर देश भर में पुलिस बंदोबस्त पर भारी खर्च हो रहा है. मुसलमानों, दलितों, एक्टिविस्टों को जेलों में बंद कर कर के करोड़ों रुपए उन पर हर रोज खर्च करे जा रहे हैं.

यह सरकार बेमतलब में नया संसद भवन बनवा रही है, नया प्रधानमंत्री घर बनवा रही है, नया उप राष्ट्रपति घर बनवा रही है, नया सैक्रिटरियट बनवा रही है. यह सरकार देश भर में अमीरों के लिए नए हवाई अड्डे बनवा रही है जिन पर लाखों करोड़ खर्च हो रहे हैं. यह सरकार बूलेट ट्रेन चलवाने के लिए नई जमीन पर नई पटरियां बीछवा रही हैं जिस पर अरबों खर्च हो रहा है.

इस सरकार को खजाना सरदार पटेल की मूॢत बनवाने पर खर्च की कमी महसूस नहीं हुई इस सरकार ने देशभर में नोटबंदी कर के अरबों रुपए नए नोट छापने में खर्च कर दिए. यह सरकार अरबों रुपए लगा कर कभी काशी कौरेडोर बनवा रही है, कभी अमरनाथ पर डैली रोड बनवाती है तो कभी चारधाम जाने के लिए सडक़े थौड़ी कराने पर खर्च करती है.

देशभक्ति के नारे लगाने में कभी धीमी न पडऩे वाली सरकार को देश के लिए जान देने को तैयार सैनिकों की पेंशन भारी पड़ रही है कि वह 4 साल उन से गोलियां चलवा कर निकाल देना चाहती है, यह वैसा अक्लमंदी का फैसला है. यह बचत नहीं बेवकूफी है, खुदगर्जी है.

जिस देश में मंदिरों के बुर्जे पर सोना मढ़ा जा रहा हो, फर्श पर संगमरमर लगाया जा रहा हो, नएनए मंदिर बवाए जा रहे हों, सरकार अरबों तीर्थ यात्राओं के आयोजनों पर खर्च रही हो, वह देश के लिए मरने को तैयार जवानों को पेंशन देने से घबराए यह समझ से परे है.

लगता है कि देश के आका उन पुरुषों से बहुत लिख रहे हैं जिन में युद्धों की बातें तो है पर सैनिकों की देखरेख और उन के मरने के बाद उन के घरवालों का क्या हुआ का छोटा सा जिक्र नहीं है. रामायण का युद्ध कुछ दिन चला पर उस के बाद सैनिकों का राजा राम ने क्या किया पता नहीं. महाभारत के युद्ध में तो सारे सैनिक मारे गए थे पर जीतने वाले कृष्ण के चेलों ने उन सैनिकों के घरवालों की देखभाल कैसे की इस का जिक्र नहीं है. शायद इसी तर्ज पर 4 साल के टैपरेरी सैनिक बनेंगे जिन्हें न पेंशन देनी होती, न मैडल. देश की रक्षा के लिए हर साल अब सिर्फ 1000 अनुभवी सैनिक जुड़ेंगे, बाकि सब कौंट्रैक्स लेकर होगा.

यह बचत देश पर भारी पड़े तो अगली पीढ़ी को किस का दोषी ठहराएग, समझ से बाहर है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें