करें हर काम, माहवारी है आम

कुछ साल पहले मैं अपने परिवार के साथ जयपुर गया था. वहां टूरिस्ट बस हमें एक मंदिर तक ले गई थी. मेरे साथ वहीं का एक और परिवार भी था.

उस परिवार की एक महिला सदस्य उस मंदिर के अहाते तक तो गईं, पर जहां मूर्ति थी वहां जाने से उन्होंने मना कर दिया. मुझे लगा कि वे पहले कई बार यहां आ चुकी होंगी इसलिए नहीं जा रहीं लेकिन बाद में मेरी पत्नी ने बताया कि उन के ‘खास दिन’ चल रहे हैं इसलिए वे मंदिर में नहीं जाएंगी.

आप ‘खास दिनों’ से शायद समझ गए होंगे कि उस समय वे महिला माहवारी से गुजर रही थीं जिन्हें शारीरिक या मानसिक रूप से तो मुश्किल माना जा सकता है पर अगर उन के नाम पर उन्हें दूसरे आम काम करने से रोका जाए तो यह उन के साथ नाइंसाफी ही कही जाएगी.

क्या है माहवारी

12 से 13 साल की उम्र में अमूमन हर लड़की के शरीर में कुछ ऐसे बदलाव होते हैं जब वह बच्ची से बड़ी दिखने लगती है. इन्हीं बदलावों में से एक बदलाव माहवारी आना भी है. इस में उन्हें हर महीने 4-5 दिन के लिए अंग से खून बहता है जो तकरीबन 50 साल की उम्र तक जारी रहता है.

माहवारी एक सामान्य प्रक्रिया है, पर भारतीय समाज में फैली नासमझी के चलते जब तक महिलाएं माहवारी के चक्र में रहती हैं तब तक उन्हें बहुत से कामों से दूर रखने के कुचक्रों में उलझाए रखा जाता है. कहींकहीं तो इन दिनों के बारे में किसी को बताने से भी परहेज किया जाता है जबकि दक्षिण भारत में तो जब कोई लड़की रजस्वला हासिल करती है तो उत्सव सा मनाया जाता है. रिश्तेदारों को यह खुशखबरी दी जाती है, डंके की चोट पर.

पर हर जगह ऐसा नहीं है तभी तो जब किसी बच्ची को माहवारी आना शुरू होती है तो सब से पहले मां यही कहती सुनी जा सकती है कि बेटी, तुझे इन दिनों मंदिर या रसोईघर में नहीं जाना है. अपनों से बड़ों को खाना बना कर नहीं देना है. अचार को नहीं छूना है. खेलनाकूदना नहीं है.

कुछ घरों में तो कोई सदस्य लड़की को छू नहीं सकता और न ही वह किसी सदस्य को छू सकती है. उन्हें सोने के लिए अलग जगह व अलग बिस्तर तक ऐसे दिया जाता है, जैसे वे उन 4-5 दिनों के लिए अछूत हो गई हैं. यह सब आज 21वीं सदी में भी चालू है.

यह तो माना जा सकता है कि माहवारी के चलते लड़की या औरत के बरताव में बड़ा बदलाव आ जाता है, पर यह कोई हौआ नहीं है या कोई बीमारी भी नहीं जो उन्हें दूसरों से अलग होने का फरमान सुना दिया जाता है. यह तो कुदरत की देन है.

हां, अगर किसी को माहवारी नहीं आती है तो परेशानी की बात होती है, डाक्टर के पास जाने की नौबत आ जाती है क्योंकि अगर माहवारी नहीं आएगी तो शादी के बाद बच्चा पैदा नहीं होगा.

भारत में खासकर उत्तर भारत में माहवारी से जुड़े कई ऐसे अंधविश्वास हैं जिन्हें बिना किसी ठोस वजह के सच मान लिया जाता है. जैसे इन दिनों में उन्हें ज्यादा भागदौड़ या कसरत नहीं करनी चाहिए, जबकि यह सोच गलत है, क्योंकि बेवजह के ज्यादा आराम से शरीर में खून का दौरा अच्छे से नहीं हो पाता और दर्द भी ज्यादा महसूस होता है.

डाक्टर भी मानते हैं कि अगर माहवारी के समय महिलाएं खेलतीकूदती या कसरत करती हैं तो इस से उन के शरीर में खून और औक्सिजन का दौरा अच्छे ढंग से होता है जिस से पेट में दर्द और ऐंठन जैसी समस्याएं नहीं होती हैं.

इन दिनों में घर की बड़ी औरतें हमेशा कहती हैं कि अचार को मत छूना नहीं तो वह खराब हो जाएगा जबकि ऐसा नहीं होता है.

इस की खास वजह यह है कि और दिनों के मुकाबले ज्यादा साफसफाई रखने से माहवारी के दिनों में लड़की के शरीर या हाथों में जीवाणु, विषाणु या कीटाणु नहीं होते हैं तो अचार को छूने से वह खराब कैसे हो जाएगा? और अगर ऐसा होता तो फिर उन की छुई खाने की हर चीज ही जहर हो जानी चाहिए.

पंडितों ने जानबूझ कर औरतों को नीचा दिखाने के लिए माहवारी को पाप का नाम दे दिया और पहले लोगों को लूटने के लिए मंदिर बनवा दिया, फिर औरतों को खास दिनों में आने से बंद करवा कर ढिंढोरा पिटवा दिया कि वह गंदी है.

मतलब, हद है पोंगापंथ की. जिस मंदिर की गद्दी को पाने के लिए पंडेपुजारियों में खूनखच्चर तक हो जाता है या बेजबान पशुओं की बलि दे कर खून बहाया जाता है, वह इस खून से कैसे अपवित्र हो सकता है?

अगर हम मान लें कि कहीं भगवान है और यह दुनिया उसी ने बनाई है तो फिर उस ने ही तो औरतों को माहवारी का वरदान दिया है. फिर भगवान अपनी ही दी हुई चीज से अपवित्र कैसे हो सकता है?

इन ‘खास दिनों’ में एक बात और सुनने को मिलती है कि माहवारी में रसोईघर में जाने से वह अपवित्र हो जाता है. लेकिन यहां एक बात सोचने की है कि अगर उस परिवार में एक ही औरत या लड़की है और उसे माहवारी है तो खाना कौन बनाएगा? सारे घर को बता दिया जाता है कि वह तो इस समय गंदी है.

औरतों को चाहिए कि वे इस के खिलाफ खड़ी हों. माहवारी के दिनों को खराब न समझें. जैसे रोज शौच करने जाते हैं वैसे ही माहवारी है. घर वालों से लड़ें. पंडों से लड़ें. भगवान में विश्वास न करें, पर पंडों से कहें कि वे तो मंदिर में घुसेंगी. वहां पूजा न करें क्योंकि कोई मूर्ति इस लायक नहीं है जो औरतों को नीचा दिखाए.

माहवारी जवानी की निशानी है. इसे मस्ती से जीते हुए सिर ऊंचा कर के चलें.

शादियों को मातम में बदलती बेहूदगियां 

साल 2008 की बात है. गरमी का मौसम था. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रामपुर में एक लड़की का शादी समारोह चल रहा था. लड़की को ब्याहने हाजीपुर गांव से बरात आई थी. विवाह का संगीत बज रहा था और बरात के साथ चल रहे लोग फायरिंग कर खुशी का इजहार कर रहे थे.

द्वाराचार के बाद सजाधजा दूल्हा सुनील वर्मा जयमाला कार्यक्रम में जाने की तैयारी में था कि शादी समारोह में फायरिंग कर रहे एक लड़के की लापरवाही से एक गोली दूल्हे के सीने में लग गई. दूल्हे को आननफानन अस्पताल ले जाया गया जहां उस की मौत हो गई.

इसी तरह की एक घटना मध्य प्रदेश के गाडरवारा इलाके में भी हुई थी. इस में जयमाला स्टेज पर दूल्हादुलहन की मौजूदगी में नशे में धुत्त रिश्तेदारों द्वारा पिस्टल से हवाई फायर किए जा रहे थे. इसी हवाई फायर से जयमाला स्टेज पर मौजूद दूल्हे की एक रिश्तेदार आयुषी की गोली लगने से मौत हो गई. 21 साला आयुषी जबलपुर में इंजीनियरिंग की छात्रा थी.

खुशी मनाने के चक्कर में फायरिंग से होने वाली ये घटनाएं बताती हैं कि आज भी हम दिखावे के नाम पर कैसीकैसी बेहूदा परंपराओं को निभा रहे हैं. समाज के हर क्षेत्र में फायरिंग की ऐसी खूनी परंपराएं बंद होने का नाम नहीं ले रही हैं.

मौजूदा दौर में शादीब्याह, लग्न, फलदान, सगाई, जन्मदिन और दूसरे तमाम समारोहों में फायरिंग कर के खुशी का इजहार किया जाता है. इन कार्यक्रमों में नशे में धुत्त रहने वाले लोग जोश में होश खो कर खुशियों के पलों को मातम में बदल देते हैं.

शादीब्याह में फायरिंग का किसी खास धर्म से कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह एक सामंती तबके के रीतिरिवाज की तरह है. राजामहाराजाओं के शासनकाल में राज्याभिषेक और स्वयंवर के समय तोप या बंदूक चला कर राजा की खुशामद की जाती थी.

राजामहाराजाओं की शान में किया जाने वाला यह शक्ति प्रदर्शन उन के वंशजों की अगड़ी जातियों में आज के दौर में भी प्रचलित है. आज भी शादीब्याह में दूल्हे को किसी राजा की तरह सजाया जाता है और एक दिन के इस राजा के सम्मान में गए बराती खुशी का इजहार करने के लिए फायरिंग करते हैं.

पत्रकार और साहित्यकार कुशलेंद्र श्रीवास्तव का कहना है कि पहले जब आतिशबाजी का चलन नहीं था तब से बरात में बंदूक से हवाई फायर किए जाते हैं. उसी परंपरा को आज भी कुछ अगड़ी जाति के लोग समाज में अपना रोब गांठने की गरज से अपनाए हुए हैं. फायरिंग के इस खूनी खेल को आज पिस्टल में कारतूस भर कर खेला जाने लगा है. अगड़ी कही जाने वाली कुछ जातियों में तो बाकायदा गन रखने वाले दलित जाति के नौकरचाकर बरात में साथ चलते हैं.

गन चलाने वाले ये सेवक पेशेवर निशानेबाज नहीं होते, बल्कि घरेलू नौकर होते हैं जो अपने कंधे पर बंदूक टांग कर चलते हैं और बरात में अपने मालिक की सेवाखुशामद करने का काम करते हैं.

शादी समारोहों में वीडियोग्राफी का काम करने वाले अश्विनी चौहान बताते हैं कि विवाह मंडप में सजीसंवरी लड़कियों को प्रभावित करने के लिए यही नौजवान डीजे के कानफोड़ू संगीत में डांस करने के साथ फायरिंग कर के खुद को हीरो साबित करने की होड़ में लग जाते हैं.

शादीब्याह के अलावा दशहरा पर्व पर भी शस्त्र पूजन के नाम पर घातक और खूनी हथियारों का सार्वजनिक तौर पर दिखावा किया जाता है और फायरिंग कर गांवनगरों की शांति को भंग किया जाता है. विभिन्न जाति व समुदायों द्वारा निकाली जाने वाली शोभायात्राओं, चल समारोहों के अलावा धार्मिक पर्वों में भी जश्न के नाम पर की जाने वाली यह फायरिंग जानलेवा साबित हो रही है.

ऐसी फायरिंग करने के मामले में राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं. देश के सभी राज्यों में राजनीतिक दल किसी न किसी बहाने फायरिंग कर लोगों को उकसाने का काम करते हैं. सितंबर, 2018 में जबलपुर में भारतीय जनता युवा मोरचा के एक कार्यक्रम में की गई ऐसी फायरिंग की काफी चर्चा रही थी.

मैरिज पैलेसों पर सख्ती

राज्य सरकारों द्वारा समारोहों में फायरिंग रोकने के लिए नियम तो बनाए गए हैं, पर इन पर अमल होता नहीं दिख रहा. पंजाब सरकार ने नियमों में बदलाव करते हुए प्रावधान किया है कि हथियारों के लाइसैंस बनवाने वाले लोगों को अर्जी में लिखित में देना होगा कि वे किसी भी शादी समारोह या सामाजिक कार्यक्रम में हथियारों का गलत इस्तेमाल नहीं करेंगे.

इस के साथ ही हथियार ले कर मैरिज पैलेस या सामाजिक समारोह में प्रवेश रोकने के लिए मैरिज पैलेसों के प्रवेश द्वार पर मैटल डिटैक्टर लगाने को कहा गया है. इस के लिए मैरिज पैलेसों में कड़े नियम लागू किए हैं.

राज्य सरकार की ओर से कहा गया है कि मैरिज पैलेस में अगर हथियार ले कर किसी शख्स को प्रवेश करने दिया गया तो पैलेस मालिक के खिलाफ केस दर्ज कर उसे गिरफ्तार किया जा सकता है. इस के साथ ही मैरिज पैलेसों के मुख्य परिसरों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश भी दिए गए हैं.

मध्य प्रदेश में भी किसी शादी, पार्टी या समारोह में फायरिंग की कोई भी घटना होने पर संबंधित क्षेत्र के थाना प्रभारी के खिलाफ कार्यवाही करने का ऐलान किया गया है.

चंबल जोन के आईजी संतोष कुमार सिंह ने यह आदेश जारी करते हुए सभी थाना प्रभारियों से कहा है कि वे सख्ती के साथ ऐसी फायरिंग पर रोक लगाने के लिए हथियारों का प्रदर्शन करने वालों पर कार्यवाही करें. ऐसी फायरिंग और सार्वजनिक जगह पर हथियारों के प्रदर्शन को रोकने के लिए कलक्टर ने धारा 144 लागू की है.

कलक्टर के आदेश में कहा गया है कि जिले में कहीं पर भी कोई भी शख्स समारोह में फायरिंग नहीं करेगा, साथ ही शादी, पार्टी या दूसरे किसी समारोह में कोई भी हथियारों का प्रदर्शन नहीं करेगा.

जागरूकता की जरूरत

मुरैना जिले की एक महिला पार्षद रजनी बबुआ जादौन ने अपने बेटे की शादी के कार्ड पर मेहमानों से किसी भी तरह का नशा, शराब का सेवन न करने के साथ ही फायर न करने का संदेश दे कर समाज में एक अच्छी शुरुआत की है. उन्होंने अपने लड़के मानवेंद्र की शादी के कार्ड के कवर पेज पर ऐसा संदेश दिया.

देश में आज भी सामंती व्यवस्था को पालने वाली सामाजिक बुराइयां वजूद में हैं, जो गरीब और दलितों पर रोब जमाने के साथ उन का शोषण करने का काम कर रही हैं. केवल नकल करने के नाम पर किसी जलसे में अपनी झूठी शान को दिखाने वाली इस तरह की परंपराओं का समाज में विरोध होना चाहिए.

ऐसी फायरिंग जानमाल का नुकसान तो करती ही हैं, साथ ही समाज को मालीतौर पर भी खोखला बनाती हैं.

पेट की भूख और रोजगार की तलाश

तलाश आदमी को बंजारे की सी जिंदगी जीने पर मजबूर कर देती है. यह बात राजस्थान और मध्य प्रदेश के घुमंतू  लुहारों और उन की लुहारगीरी को देखने के बाद पता चलती है.

घुमंतू लुहार जाति के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि 500 साल पहले जब महाराणा प्रताप का राज छिन गया था तब उन के साथ ही उन की सेना में शामिल रहे लुहार जाति के लोगों ने भी अपने घर छोड़ दिए थे. उन्होंने कसम खाई थी कि चितौड़ जीतने तक वे कभी स्थायी घर बना कर नहीं रहेंगे.

आज 500 साल बाद भी ये लुहार घूमघूम कर लोहे के सामान और खेतीकिसानी में काम आने वाले औजार बना कर अपनी जिंदगी बिताने को मजबूर हैं. जमाना जितना मौडर्न होता जा रहा है, इन घुमंतू लुहारों के सामने खानेपीने के उतने ही लाले पड़ते जा रहे हैं.

सब से ज्यादा परेशानी की बात है रोटी की चिंता. इन के बनाए औजार अब मशीनों से बने सामानों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं. इस की वजह से इन लोगों के लिए रोजीरोटी कमाना मुश्किल हो गया है. सरकार की योजनाओं के बारे में इन्हें जानकारी नहीं है. इस वजह से ये लोग सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं उठा पाते हैं.

लुहार जाति से जुड़े सुरमा ने कहा कि हमारी जाति के लोग सड़क किनारे डेरा डाले रहते हैं. कब्जा करने के नाम पर हमें खदेड़ा जाता है. एक ओर जहां दूसरी जातियों को घर बनाने के लिए जमीनें दी जा रही हैं, वहीं हमारे लिए न तो पानी का इंतजाम है, न ही शौचालय का. हमारे समाज की बहूबेटियों को असामाजिक तत्त्वों का डर बना रहता है.

इसी समाज की पानपति बताती हैं, ‘‘हम लोगों ने अपने बापदादा से मेहनत की कमाई से ही खाना सीखा है. हमारे पुरखों ने यही काम किया था और हम अब भी यही कर काम रहे हैं.’’

25 साला पप्पू लुहार, जो राजस्थान के माधोपुर का रहने वाला है, ने बताया, ‘‘हम लोग पूरे देश में घूमघूम कर यही काम करते हैं. आम लोगों की जरूरत की चीजें खासकर किसानों, मजदूरों के लिए सामान बनाते और बेचते हैं. हम लोगों का यही खानदानी काम है. हमारे पुरखे सदियों से यही काम करते आए हैं. हम दूसरा काम नहीं कर सकते क्योंकि हम पढ़ेलिखे नहीं हैं. हम लोगों को सरकार से कोई फायदा नहीं मिलता है.’’

मध्य प्रदेश के शिवपुरी से आए सूरज लुहार ने बताया, ‘‘हमारे परिवार में कोई पढ़ालिखा नहीं है. हम ने यही काम सीखा है. हमारे बच्चे हम से सीख रहे हैं. सालभर में 2 महीने बरसात के दिनों में हम अपने गांव में तंबू तान कर रहते हैं. हम लोग जहां भी जाते हैं, फुटपाथ पर ही सोते हैं.

‘‘हमें चोर, सांप, बिच्छू और मच्छर जैसी समस्याओं को झेलना पड़ता है. अनजान जगह पर खुले आसमान के नीचे औरतों के लिए सोना कितना मुश्किल काम है, इसे तो वही समझ सकता है जो उस जिंदगी को जी रहा है.’’

25 साला मदन लुहार की इसी साल शादी हुई है. उसे इस बात का अफसोस है कि वह जब चाहे तब अपनी पत्नी के साथ जिस्मानी संबंध नहीं बना सकता क्योंकि खुले आसमान में वह फुटपाथ पर ही सोता है. अगलबगल में उस के मातापिता व परिवार के दूसरे सदस्य भी सोते हैं ताकि रात में कोई औरतों के साथ गलत काम नहीं कर सके. आपस में जिस्मानी संबंध बनाने के लिए अमावस्या या जिस रात को चांद नहीं दिखाई पड़ता, वे दोनों उस रात का इंतजार करते हैं.

इन लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है. औरतें एनीमिया और बच्चे कुपोषण से पीडि़त दिखाई देते हैं. छोटे बच्चे तो जहां रहते हैं वहां पल्स पोलियो की दवा पी लेते हैं, लेकिन दूसरे टीके इन के बच्चों को नहीं लग पाते. इस की मूल वजह यह है कि ये लोग एक जगह रहते नहीं हैं और न ही टीकाकरण के बारे में इन्हें कोई जानकारी है.

आज इन घुमंतू लुहार जाति के लोगों को सरकारी सुविधाए देने की जरूरत है ताकि इन्हें भी घर, कपड़े, पढ़ाईलिखाई और सेहत जैसी दुनिया की सभी सहूलियतें मिल सकें.

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